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कविता

अंतिम एकांत

सुरेन्द्र स्निग्ध


जैसे ही सपने में आती हो तुम
डरकर मैं कूद जाता हूँ
दूसरे सपने में

वहाँ पहले से खड़ी
बिखेर रही होती हो
एक रहस्यमयी मुस्कान

एक सपने से दूसरे सपने में जाना
दूसरे सपने में फिर सपना देखना
हर सपने में तुम और तुम्हारी मुस्कान
हर जगह
अलग-अलग जाल बनाता तुम्हारा प्यार
एकदम अबूझ और अनसुलझा प्यार

तुम्हारे प्यार के बोझ से लदा
मेरा यह बौना मन
नाप नहीं पाता है विस्तार
असंख्य ग्रह-नक्षत्रों तक फैला तुम्हारा प्यार

फिर एक क्षण को मैं चाहता हूँ एकांत
कुछ नहीं हो जहाँ
चर-अचर, दृश्य, अगोचर
रूप और रंग और गंध और स्पर्श-कुछ भी नहीं

सपनों में गरजता, दहाड़ता समुद्री तूफान
अपूर्व आवेग के साथ झूमता अभेद्य जंगल
खामोशियों का संगीत रचतीं पर्वतों की घाटियाँ
विस्तृत आकाश में उमड़ता-घुमड़ता बरसात का बादल
दिक्-दिगंत तक खुशबू फैलातीं वासंती हवाएँ
इन सारी सीमाओं को फाँद कर
मैं ढूँढ़ता रहता हूँ अंतिम एकांत

इस अंतिम एकांत में
पहले से ही उपस्थित रहती हो तुम
प्यार की उसी रहस्यमयी मुस्कान के साथ
मेरे पराजित मन को
करती हो आश्वस्त असंख्य चुंबनों के साथ
पास, एकदम पास


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