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कविता

खोज

सुरेन्द्र स्निग्ध


जब आँख लगने के साथ ही
नींद की सीढ़ियों से
चुपचाप उतर आती थीं माँ
उतरती थीं
सिर्फ उतरने की रेखाओं की तरह

इन्हीं रेखाओं से
एक आकृति गढ़ने का
करता था असफल प्रयास

अब वे सपने नहीं आते
आते हैं
कुछ दूसरे ढंग के सपने

वर्षों ढह चुकी
बाँस, फूस और मिट्टी की दीवारों पर
एक पुराना कैलेंडर टाँगने की
निरंतर कोशिशों के सपने
कैलेंडर में उभरती तसवीर
माँ के चेहरे से मिलती जुलती होती है
शायद इसलिए
उसे टाँगने की कोशिशों के आते हैं सपने
निरर्थक कोशिशें

जोरों की हवाओं के साथ
फट्-चिट् कर उड़ते हुए कैलेंडर के सपने

ये सपने अब बार-बार आते हैं
ढही हुई वही कच्ची दीवार
फटा हुआ कैलेंडर
अनपहचाने से चेहरे
वही जोरों की हवाएँ
फट्-चिट् कर बिखरती हुई
रंग-रेखाएँ

अत्यंत निर्धन थे हम
घर में नहीं है किसी का फोटोग्राफ
न माँ का
न पिता का
उनमें से अब किन्हीं का चेहरा नहीं है याद

भागती हुई रेखाएँ
साथ लेकर भाग गई सबकुछ

सपनों में जिस कैलेंडर को टाँगने की
मैं निरंतर करता हूँ जिद
जिसकी तसवीर भी
वर्षा की धूल और धूप और हवाओं की मार से
हो गई है विलुप्त

प्रेमिकाओं के चेहरों से
कब तलक खोजता रहूँगा
विलुप्त हुआ माँ का चेहरा
कब तलक सूखी रहेगी
सपनों की नदी

जीवन की आधी नदी पार कर जाने के बावजूद
यह खोज
आज भी जारी है
कुछ अधिक ही आवेग से
कुछ अधिक ही आवेश से।


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