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कविता

संगीत का जाल

सुरेन्द्र स्निग्ध


(सामंथा फौक्स को सुनते हुए)

निस्तब्ध
चाँदनी रात में
अकेला बैठा हूँ मैं
मेरे कान तक आकर
टकरा रहा है
समुद्र का गर्जन-तर्जन
हजारों-हजार लहरों की
दूर से आती हहास
किनारे तक आकर हो जाती है चुप
एकदम चुप
ढेर सारे सफेद फूलों के गुच्छे
मेरे पैरों के पास आकर
हो जाते हैं विलीन
एक महीन स्वप्न के साथ

हजारों वाद्य यंत्रों से
फूटता है संगीत का रोर
हजारों गायिकाओं के स्वर
अचानक हो जाते हैं गुरु गंभीर
फिर अचानक चुप
फिर, सिर्फ एक पतली-सी आवाज
समुद्र की विशाल लहरों पर
विद्युत की एक पतली तरंग

झंकृत पूरा गगन
झंकृत समुद्र की अनगिन तरंगें

जब भी सुनता हूँ
तुम्हारी जादू भरी आवाज
मैं हो जाता हूँ
एकदम अकेला
किसी अदृश्य
अनजान समुद्र के किनारे
चाँदनी रात में
ढेर सारी किरनों के आर्केस्ट्राओं के बीच
तुम्हारी स्वर लहरियों के जाल में
घिरता चला जाता हूँ मैं
फैलता चला जाता है यह जाल
मिस सामंथा फॉक्स,
तुम्हारे इस जाल में
घिरती चली जाती है संपूर्ण प्रकृति
मेरे साथ आहिस्ता-आहिस्ता


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