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कविता

यात्रा का रहस्य

सुरेन्द्र स्निग्ध


पृथ्वी के इस अज्ञात भूखंड से
अज्ञात तक की यात्रा का रहस्य
सुलझा न सका आज तक

एक छोटा सा रेलवे स्टेशन
टिकट खिड़की पर भारी भीड़
अनंत तक फैली टेढ़ी-मेढ़ी कतार
इस कतार में सबसे आगे खड़ी है
मेरी पत्नी
टिकट खिड़की है अबतक बंद

थोड़ी देर बाद ही
खट्ट से खुलती है खिड़की
भीतर से आती है एक कड़क आवाज
कहाँ का टिकट चाहिए?
पत्नी प्रश्नाकुल नजरों से पूछती है
मुझसे यही सवाल
कहाँ का टिकट ले लें?

एक ऐसा सवाल
जिसका जवाब आज तक
ढूँढ़ नहीं सका मैं

फिर आवाज आती है भीतर से
थोड़ी और ऊँची आवाज
जल्दी कीजिए मैडम!
साठ रुपये पचास पैसे का टिकट
ले लो -
जहाँ तक ले जाएगी ट्रेन
चल चलेंगे हम!

इतने ही रुपये
टिकट खिड़की पर रखती है मेरी पत्नी
खिसियानी नजर से देखता है
टिकट काटने वाला
खटाक् की आवाज
एक टिकट निकलता है बाहर

कतार में हल्की हरकत होती है

टिकट लेकर लपक गई वो
ट्रेन की ओर
पता नहीं किस प्लेटफार्म पर
लगी थी ट्रेन
जब तक मैं साथ के सामान उठाता
अदृश्य हो गई थी पत्नी

किसी ने बतलाया
अभी-अभी ट्रेन जो
खुलेगी
उसका प्लेटफार्म है अंडर ग्राउंड
नीचे उतरने के लिए
लेना पड़ेगा आपको
नीचे उतरने वाली
जर्जर सीढ़ियों का सहारा।
साथ के सामान छोड़ दिए हैं मैंने
जैसे तैसे अँधेरी सीढ़ियों से
उतर गया हूँ नीचे
पहुँचता हूँ ट्रेन के नजदीक
नजर आ जाती है पत्नी
एक डब्बे में चढ़ती हुई,
मुझे देखकर
थोड़ा आश्वस्त हो गई है वो

अरे यह क्या!
अचानक खुल गई ट्रेन
वह भी तीव्र गति से,
लपक कर चढ़ना चाह रहा हूँ
अंतिम गार्ड वाली बोगी में
दरवाजे में लगे
रॉड को पकड़ कर
चढ़ना चाह रहा हूँ ऊपर
- चढ़ नहीं पा रहा हूँ

नीचे से चिल्ला रहे हैं लोग
- अरे, हाथ पकड़ कर
खींच लीजिए ऊपर
गिर जाएँगे, बहुत कमजोर दिखते हैं वह
तेज रफ्तार में खुली है ट्रेन
इस बोगी में पहले से
खड़े कई लोग
ठठाकर हँस पड़े हैं

किसी ने नहीं बढ़ाया हाथ
गाड़ी की रफ्तार और भी तेज हो गई
थी -
दहल रहा था वातावरण
और इसके ऊपर
बिजली की तरह कौंध गए थे ठहाके!


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