hindisamay head


अ+ अ-

कविता

एक उजली हँसी

सुरेन्द्र स्निग्ध


निगार अली के लिए

हमारी मुलाकात
फिर कभी
शायद ही हो निगार अली

बरहमपुर के सागर के किनारों
की खूबसूरती का संघनित रूप

हजारों हजार श्वेत सीपियों के लेप से
दप-दप तुम्हारा गोरा रंग
और समुद्री फेन-सी
तुम्हारी उजली निश्छल हँसी
शायद ही पसरेगी कभी
फिर मेरे आगे
शायद ही छू सकूँगा कभी
फिर वह हँसी
फिर वह शुभ्र समुद्री फेन

निगार अली,
खूबसूरत ब्यूटीशियन,
कितना जहर घुल गया है हवा में
कैसे ले सकोगी साँस
कैसे बचा सकोगी उजली हँसी
शायद ही मिल सकेंगे हम
शायद ही महसूस कर सकेंगे
फिर कभी एक अजीब
और नैसर्गिक खुशबू

ट्रेन के सफर में
चंद लमहों की हमारी भेंट
फिर एकदम खुली किताब की तरह तुम
समुद्र के किनारे आकर पसरी
शांत सफेद लहरों की तरह तुम

चंद लमहों में किताब पढ़ी तो नहीं जा सकती
किनारे पसरी लहरें समेटी तो नहीं जा सकती

तुम्हारी उन्मुक्त हँसी
अब सिर्फ धरोहर है मेरे लिए

बरहमपुर आने का तुम्हारा आमंत्रण
शायद ही कर सकूँ पूरा,
हाँ, जब कभी, कहीं भी,
किसी भी समुद्र के किनारे
जाऊँगा मैं,
और, फिर से
महसूस करूँगा सागर-सौंदर्य
जब भी छू पाऊँगा
लहरों की नन्हीं-नन्हीं उँगलियाँ
तब-तब मेरे सामने
जहर घुली हवाओं को चीरती
खुशबू की तेज आँधियों की तरह
मुस्कुराती मिलोगी
मिलोगी तुम निगार अली।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में सुरेन्द्र स्निग्ध की रचनाएँ