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कविता

जहाँ कोई दोस्त नहीं हो

सुरेन्द्र स्निग्ध


क्या रहना ऐसी जगह
जहाँ कोई दोस्त नहीं हो
नहीं हो कोई हालचाल पूछने वाला

ऐसी जगह क्या रहना
जहाँ दुख की घड़ियों में
कोई प्यार से सर न सहला दे
बीमारी की हालत में
गर्म कलाई अपने हाथ में न ले ले
खुशियों के क्षणों में
अपनों की आँखें
नन्हें पंछियों की तरह
पर न फैलाने लगें

क्या रहना ऐसी जगह
जहाँ कोई मित्र यह नहीं पूछे
आपके किचन में आज क्या बन रहा है?
दूध नहीं है?
कोई बात नहीं
भाभी को कहिए
नींबू की चाय ही पिलाएँ

ऐसी जगह क्या रहना
जहाँ के लोग कुछ भी मतलब नहीं रखते
कि अन्याय के खिलाफ
लड़ने वाली जुझारू जनता
कहाँ मर-कट रही है
कहाँ कर रही है विकसित
अपना संघर्ष

क्या रहना ऐसी जगह।


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