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आलोचना

कस्बाई जीवन यथार्थ की कहानियाँ

जगन्नाथ दुबे


वाशिंदा तीसरी दुनिया हिंदी के विशिष्ट कथाकार और गँवई कस्बाई चेतना के वाहक पंकज मित्र का चौथा कहानी संग्रह है। इससे पहले पंकज जी के तीन कहानी संग्रह 'क्विजमास्टर', 'हुडुकलुल्लू' और 'जिद्दी रेडियो' नाम से प्रकाशित हो चुके हैं। आज जबकि कहानी को लेकर तमाम तरह की बहसें हिंदी आलोचना में चल रही हैं। कहानी की सार्थकता उसके कहानीपन और उसके सरोकार जैसे मूल मुद्दे पर गंभीरता से विचार न करके कहानी से सवाल किया जा रहा है कि उससे क्रांति क्यों नहीं हो रही है? कहानी जैसी सशक्त विधा जिसे नामवर जी ने छोटा मुँह बड़ी बात कहने वाली विधा के रूप में विश्लेषित किया है उसे आज के संदर्भों के लिहाज से नाकाफी तक समझने की बात हो रही है तब पंकज जैसे कथाकारों को पढ़ते हुए कहानी के मूल - कहानीपन और उसके सरोकारों - पर सहज ही ध्यान चला जाता है। कहानी या कला के किसी भी माध्यम को किसी विचारधारा के घोषणापत्र का वाहक समझना और यह उम्मीद करना कि वह सीधे-सीधे किसी महान क्रांति की घोषणा करे या उससे ऐसी कोई महान क्रांति हो जाय दरअसल एक तरह का अतिवाद से ग्रस्त होना है। कलाओं का काम कभी भी क्रांति करना नहीं रहा है। उनसे क्रांति संभव भी नहीं है। वे क्रांति की जमीन तो तैयार कर सकती हैं लेकिन वे किसी क्रांति की वाहक बनें ऐसा अबतक नहीं देखा गया है। यह भी नहीं है कि इस तरह की अतिवादी सोच का विस्तार इधर के दिनों में ही हुआ है। इस तरह से सोचने समझने वालों की एक लंबी परंपरा रही है दुनिया भर में। कई बार तो इसी सोच को आधार बनाकर लोगों ने पार्टी साहित्य तक की बात की। माओ जैसे चिंतकों ने तो पार्टी साहित्य की आवश्यकता पर लंबे लंबे भाषण दिए जिन्हें आज तक सुरक्षित रखा गया है। तो एक धारा है ऐसा सोचने-विचारने वालों की जो रचनात्मक लेखन को भी पार्टी की विचारधारा से जोड़कर देखने के हिमायती हैं। पंकज जी की कहानियों पर बात करने से पहले मैं इस तरफ इसलिए भी इशारा करना चाहता हूँ क्योंकि हिंदी कहानी की परंपरा प्रतिरोध के बहुत महीन रेशे से बीनी हुई परंपरा है। इधर जबसे उत्तरकालीन विमर्शों ने साहित्य की परख का आधार सामाजिक-राजनैतिक रूप से उसका मुखर होना माना तबसे उस महीन रेशे को और ज्यादा उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। हिंदी आलोचना का संकट यह है कि उसने 21वीं सदी के साहित्यिक-विमर्शों और मूल्यों को व्याख्यायित कर सकने के टूल्स आज तक ईजाद नहीं किए। आज भी आलोचना के मान वही हैं जो परंपरा से चले आ रहे हैं। कुछ नया करने के चक्कर में कई बार आलोचना इतनी ज्यादा पश्चिम-मुखापेक्षी हो जाती है कि बहुत सारी वैचारिक बहसों को ही वह केंद्र में रखकर अपनी बात करने लगती है। ऐसा करते हुए वह इस तरह का स्वाँग रचती है कि रचना से उसका दूर-दूर तक का रिश्ता नहीं समझ में आता। वह अधिकांश बार कोरा बुद्धि विलास सा लगने लगता है। इसलिए भी जब हम हिंदी कहानी पर बात करना चाहते हों तो हमे उन संदर्भों और मूल्यों पर विचार करना चाहिए जिन संदर्भों और मूल्यों के इर्द-गिर्द कहानी रची जा रही है। हमे रचना के भीतर विन्यस्त मूल्यों का सामाजिक-राजनैतिक संदर्भों की स्थितियों-परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाकर अपनी बात करनी चाहिए न कि किसी खास चिंतन धारा के टूल को आधार बनाकर रचना के भीतर जाना चाहिए। इस लिहाज से जब हम कहानी पर बात करते हैं तभी हमे प्रेमचंद भी समझ में आते हैं और तभी हम अपने समय की रचनात्मकता को भी समझने में सफल हो पाते हैं।

21वीं सदी की भावभूमि और चिंतन भूमि को हम अगर थोड़ा करीब से देखना चाहें तो हम देख पाएँगे कि यह सदी बहुत ज्यादा तकनीकी ज्ञान की सदी है। तकनीकि के विकास ने ज्ञान को सूचना में बदल दिया है। आज ज्ञान सूचना मात्र है। यह सूचना के महाजंजाल की भी सदी है। इस सूचना और तकनीकि ने मानवीय संबंधों के सभी प्रचलित ढाँचों मे आमूल चूल परिवर्तन लाने का काम किया है। पिछले 20 वर्षों में दुनिया की तस्वीर जिस तीव्रता के साथ बदली है उसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। सूचना के इस महाजंजाल ने सूचना और ज्ञान की इतनी अलग-अलग और परस्पर विरोधी प्रविधियाँ रच डाली हैं कि हमे प्राप्त होने वाली सूचना और ज्ञान को लेकर लगातार संशय बना रह रहा है। सूचना के इस विस्फोटक युग में एक ही घटना और वस्तुस्थिति को लेकर इतनी विरोधी सूचनाएँ मिल रही हैं कि उसको व्यख्यायित कर सकने के लिए हमारे पास पर्याप्त साधन नहीं है। हम जिस युग में जी रहे हैं उसमे घटनाएँ ही घटनाएँ हैं। उनका विश्लेषण करने के लिए तो जैसे मनुष्य के पास वक्त ही शेष नहीं है। ऐसे में अगर कोई यह उम्मीद करे की हमारी सामाजिक संरचना का ढाँचा पूर्ववत बना रहे तो भला कैसे संभव है? आज कहानी से सबसे बड़ा सवाल यही किया जाता है कि उसने गाँव से अपना रिश्ता तोड़ लिया है। यह मानी हुई बात है कि कहानी का जन्म और उसका विकास गाँव से हुआ। प्रेमचंद ने गाँव को कहानी में इस तरह ढाला कि कहानी गाँव का पर्याय बन गई। हिंदी आलोचना का संकट यह है कि वह आज भी हिंदी कहानी में प्रेमचंद का गाँव खोजती है। वह गाँव न मिलने पर उसे कहानी असफल और बनावटी लगने लगती है जबकि वस्तुस्थिति उससे इतर है। अब अगर 21वीं सदी का कहानीकार प्रेमचंद के गाँव को अपनी कहानियों में नहीं ढाल सकता तो उसे उसकी असफलता से देखना कैसे जायज ठहराया जाय? वह असफल कैसे हो गया? अगर भारतीय गांवों की तस्वीर प्रेमचंद के जमाने की नहीं रही तो वह कहानी में भला कहाँ से आये?

इसलिए मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि कहानी के भीतर विन्यस्त मूल्यों के सहारे हमे अपनी वैचारिक निष्पत्तियों का सृजन करना चाहिए।

पंकज मित्र जिस पीढ़ी के कथाकार हैं इस पीढ़ी ने जब लिखना शुरू किया तो दुनिया भर में विमर्शों के उत्तरकालीन दौर की शुरुआत ही चुकी थी। बहुत कुछ के अंत की घोषणाएँ हो रही थीं। तो बहुत कुछ को बचा लेने की हर संभव कोशिश की जा रही थी। जो कुछ बचा लेने की कोशिश लगातार होती रही उसके हिमायती रचनाकार हैं पंकज मित्र। पंकज अपनी कहानियों में इनसानियत बचा लेना चाहते हैं। वे मानवीय गरिमा और चेतना को बचा लेना चाहते हैं। वे लोकतंत्र को सुरक्षित देखना चाहते हैं। और सबसे बढ़कर वे भारतीय गाँव, कस्बा और समाज-राजनीति का सच कहना चाहते हैं। वह सच जो किसी किताब में लिखा हुआ नहीं मिलेगा। जो आँखों के सामने दीखता है। जिसे महसूस करने के लिए उन गांवों कस्बों से बहुत करीब से जुड़ना पड़ता है। उनके बीच जाना होता हैं उनसे एक तरह का संवादी रिश्ता कायम करना होता है।

पंकज की कहानियों को पढ़ते हुए सहज ही यह रिश्ता बनता हुआ दीखता है। 21वीं सदी में जिन कथाकारों ने गँवई कस्बाई परिवेश के यथार्थ को अपनी कहानियों का विषय बनाया उनमे पंकज मित्र एक अनिवार्य नाम हैं। पंकज से पहले की पीढ़ी के शिवमूर्ति और पंकज के तुरंत बाद लिखना शुरू करने वाले मनोज पांडेय के यहाँ भी भारतीय गांवों का सच बयान हुआ दिखाई पड़ता है।

समीक्ष्य संग्रह की कहानियों में चेतना के स्तर पर एक तरह का नयापन दिखाई पड़ता है। इस संग्रह की कहानियों के माध्यम से पंकज ने अपने द्वारा ही बनाई हुई कथा प्रविधियों को तोड़ा है। उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के नए मुहावरे गढ़े हैं। इस संग्रह की सभी कहानियाँ ग्रामीण और कस्बाई परिवेश को आधार बनाकर लिखी गई हैं। इन्हें पढ़ते हुए ऐसा मालूम पड़ता है कि इन कहानियों की घटनाओं में लेखक की आवाजाही पर्याप्त रूप में है। यानी ये उस भूमि की कहानियाँ हैं जिनमे रचनाकार की चेतना को विस्तार मिला है। और साफ कहूँ तो पंकज जी के रहवास का पता देती हैं ये कहानियाँ। उनका जीवनानुभव इन कहानियों को प्रमाणिकता प्रदान करता है। इसके पात्र गढ़े हुए नहीं बल्कि जीवन जीते हुए सहज ही दिख जाने वाले पात्र हैं। इनकी कथाभूमि की बुनावट किसी प्रपंच को न रचकर बहुत सामान्य सी है। कहानियाँ ऐसी जैसा जीवन जिया जा रहा है। जो कुछ चल रहा है, लेकिन सरोकार ऐसे कि आँख खुल जाय। इसे ही चलते हुए मुहावरे में कहूँ तो सामान्य के बीच से असामान्यता का सृजन करती हुई कहानियाँ हैं। संग्रह की पहली ही कहानी है 'वाशिंदा@तीसरी दुनिया। कहानी की कथाभूमि बेहद सामान्य सी है। कहानी शुरू होती है कुछ छात्रों के स्कूल जीवन से। स्कूल में एक ऐसा छात्र पढ़ने आता है जो औरों की तरह का नहीं है। थोडा अलग सा है। उसका अलग होना उसका चयन नहीं बल्कि नियति है। छात्रों के बीच वह किसी कौतूहल से कम नहीं है। पढ़ने में सामान्य छात्रों से ज्यादा तेज। दुनिया में हो रहे तमाम नए बदलावों से नावाकिफ। उसकी विशेष विशेषता यही कि दोपहर के खाने में वह हर रोज करेला लाता था। विद्यालय के छात्रों के बीच वह करेला झा के नाम से चर्चित रहा। उसका परिवार बेहद ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ। एजी कालोनी के सभी लोग परेशान। कहाँ से आ गया यह इनसान? तब जबकि सुखी पगार पर किसी का भला नहीं हो सकता यह उसी पर अड़ा रहता है। कालोनी भर के लोगों का जीना मुहाल किए हुए है। उधर करेला झा का परिवार है कि अपनी धुन में जिए जा रहा है। बहुत हल्के-फुल्के अंदाज से शुरू हुई कहानी अपने अंत तक जाते-जाते अपना सरोकार स्पष्ट करती है। कहानी का अंतिम दृश्य जमाने की हकीकत बयाँ करने के लिए पर्याप्त है। सच और ईमानदारी के साथ चलने वाला झा जी का परिवार बिखर सा गया है। छोटा करेला पागलपन की स्थिति में है। करेले की कीमत पूछ-पूछकर बच्चे झा जी का मजाक बना रहे हैं। यह सबकुछ कहानी के सरोकार को विस्तार देता है। कहानी यहाँ आकर दो परस्पर विरोधी मूल्यों के बीच आधुनिक सभ्यता की दखलंदाजी को रेखांकित करती है। मूल्यों के संकटकालीन दौर में मूल्यचेता झा का परिवार हताशा में जीने को अभिशप्त है। प्रकारांतर से यह कहानी आधुनिक परिवेश में ग्रामीण जीवन की दशाओं के पंगु होने की कहानी है। छोटा करेला और उसका परिवार ग्रामीण मूल्यों का संवाहक बनकर कहानी में आते हैं। यह अनायास नहीं है कि अंत तक जाते जाते वे उपहास के पात्र बनकर रह जाते हैं।

संग्रह की दूसरी कहानी 'सहजन का पेड़' शीर्षक से है। यह कहानी एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार की कहानी है। पंकज की कहानियों में एक खास किस्म का खिलंदड़ापन मौजूद रहता है शुरू से अंत तक। कहानी का यह खिलंदड़ापन कस्बाई जीवन की चुहलबाजी और मसखरेपन को भी अपने में समेटकर चलता है। इससे कहानी बोझिल होने से बच जाती है और पाठक कहानी के मर्म तक पहुँच पाने में सफल होता है। इस कहानी में उसी कस्बाई खिलंदड़ेपन और मसखरेपन के सिवाय और कुछ ऐसा नहीं दिखता जिसकी वजह से कहानी की चर्चा की जाय। पांडे परिवार में बड़कू पांडे बस के ड्राइवर हैं। उनके संदर्भों से भारतीय परिवहन की दशा को व्यक्त किया गया हैं। बस के कंडक्टर और ड्राइवर को वेतन नहीं मिल रहा, बस की दशा बेहद चिंतनीय है गियर बक्सा अलग है गियर अलग। कुछ इसी तरह की और जीवन स्थितियाँ हैं जिनके बीच पांडे परिवार जी रहा है। अंत में पांडे जी के जीजा जी इसलिए सहजन का पेड़ काट डालते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इनकी माली हालात का जिम्मेदार यही सहजन का पेड़ है। तो कुल मिलाकर यह एक कमजोर कहानी है। जिससे किसी भी तरह का कोई डिस्कोर्स उभरकर सामने नहीं आता। सिवाय थोड़ी बहुत चुहलबाजी और निम्नमध्यवर्गीय परिवार के यथार्थ को व्यक्त करने के। यह कहानी इसलिए भी गैरजरूरी लगती है क्योंकि जिस परिवार को आधार बनाकर यह कहानी लिखी गई है उस पर इससे ज्यादा बेहतर कहानियाँ हिंदी में मौजूद हैं। इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो नया हो।

पंकज मित्र की कहानियों को पढ़ते हुए हमारा ध्यान सहज ही उनके पात्रों की जीवन स्थितियों की ओर चला जाता है। उनके पात्र भी विलक्षण किस्म के होते हैं। जुझारूपन और संघर्षशीलता के प्रतिमूर्ति। उनके मध्यवर्गीय काइयाँपन नही दीखता। उनमे सजगता और जुझारूपन के दर्शन होते हैं। इसी तरह के गुणों से युक्त एक पात्र की कहानी है अजबलाल एमडीएम। अजबलाल एमडीएम के बारे में लेखक की स्वीकारोक्ति - 'अजबलाल एमडीएम तो शुरू से ही हमारा हीरो था, हीरो रहेगा और इस बातचीत के आखिर तक उम्मीद है, आपका भी हीरो हो जाय।' इस वाक्य से शुरू होने वाली कहानी जाहिर सी बात है पाठक के भीतर पर्याप्त उत्सुकता पैदा करेगी ही। पूरी कहानी इसी उत्सुकता के परिणति की कहानी है। अजबलाल अपने नाम के ही मुताबिक अजब गजब का ही इनसान है। वह अपने व्यक्तित्व की विलक्षणता की वजह से विद्यालय में छात्रों और शिक्षकों के बीच पर्याप्त चर्चा का केंद्र बना रहता है। अजबलाल यूँ तो कुछ-कुछ इस तरह का छात्र है जैसे हर विद्यालय में कुछ लफंगे किस्म के लड़के होते हैं जो अपनी कक्षा के सामान्य छात्रो से उम्र और डील डौल सबमे बड़े होते हैं। पढाई लिखाई से उनका नाता थोडा दूर का ही होता है। वे अपनी असामान्य हरकतों की वजह से छात्रों के बीच हँसी के पात्र बने रहते हैं। अजबलाल में भी ये सारी विशेषताएँ मौजूद हैं लेकिन इसके अलावा उसमे जो है वही उसे औरों से अलग करता है। उस अलग की ही कहानी भी होती है वरना ऐसे छात्रों की क्या कोई कहानी सुनाएगा? औरो से अलग उसमे इबी था कि वह जिद्दी किस्म का इनसान था। जो जिद पर अड़ गया तो कुछ भी हो जाय उसे वह पूरा करके ही मानेगा। उसकी जिदें भी अजब-गजब की। पिता द्वारा लिए गए कर्ज को पाटने की जिद पकड़ी तो जबतक पूरा नहीं किया सुकून से बैठा नहीं। एमडीएम की पोल खोलने की जिद पकड़ी तो सारे पुराने रजिस्टर उपलब्ध करवा दिए पत्रकारों को। लेकिन यहीं आकर अजबलाल जैसे लोग व्यवस्था की मार की चपेट में आ जाते हैं और अपनी नौकरी तक से हाथ धो बैठते हैं। तो कहानी कहने को तो अजबलाल की कहानी कह रही है लेकिन उसके भीतर वह हमारे लोकतंत्र और हमारी सामाजिक व्यवस्था की कहानी कहती हुई दिखाई दे रही है। पंकज जी भी अपनी कहानियों में व्यवस्था की पोल पट्टी खोलने की जैसे कसम सी खा लिए हों। जहाँ भी मौका मिला है उन्होंने व्यवस्था की नाकामियों पर ऊँगली टिकाई है। उनका यही रूप उन्हें एक प्रतिबद्ध कथाकार के रूप में स्थापित भी करता है।

मेरे लिहाज से जिस कहानी की वजह से यह संग्रह जाना जाएगा वह कहानी है 'द इवेंट मैनेजर'। इस कहानी में जितनी गहराई है उतना ही विस्तार भी। आधुनिकता का दबाव जिस तरह व्यक्ति और समाज पर पड़ा है उसका बहुत बारीकी से विश्लेषण इस कहानी में मिलता है। तिल्लोतमा और मोटका कहानी के ऐसे पात्र हैं जिनके इर्द-गिर्द ही सभी घटनाएँ घूमती हैं। ये दो पात्र हमारे समय की शहरी मध्यवर्गीय जिंदगी के प्रतिनिधि पात्र हैं। मध्यवर्गीय मनुष्य की अदम्य इच्छाओँ से भरे ये ऐसे चरित्र हैं जो पूँजी और बाजार की संस्कृति के चमत्कार से चमत्कृत ही नहीं होते उसमे अपना प्रतिनिधित्व भी खोजते हैं। अपने संपूर्ण रूप में यह कहानी मध्यवर्गीय मनुष्य की चिंताओं और उसकी परिणतियों की कहानी है। कहानी का अंत जिस ट्रेजिक ढंग से होता है वह भी बहुत सारे संदर्भ छोड़ जाता है हमारे लिए। इस कहानी में पंकज जी की प्रतिबद्धता और उनकी गहन सूझबूझ का भी परिचय मिलता है। छोटे छोटे घटना प्रसंगों को बड़े आयामों में कैसे व्यक्त किया जाय यह इस कहानी को पढ़ते हुए सहज ही देखा जा सकता है।

इस संग्रह में कुल 11 कहानियाँ संकलित हैं। जिनमे जिनकी चर्चा मैंने यहाँ की उसके अलावा कांझड़ बाबा थान, जलेबी बाई डाट काम, अधिग्रहण, फेसबुक मेंस पार्लर, कफन रीमिक्स, सोहर भुइयाँ की बकरियाँ और मनेकि लबरा नाई के दास्तान जैसी महत्वपूर्ण कहानियाँ शामिल हैं। ये अभी कहानियाँ ऐसी हैं जिनपर कुछ न कुछ अवश्य लिखा-बोला जा सकता है। कांझड़ बाबा थान कहानी प्रेमचंद के उस होरी की परंपरा से जुड़ती है जो मर्जात को बचाने की बात करता है। भारतीय परंपरा की वस्तुस्थिति में ग्रामीण जन स्वाभिमान को सबसे ऊपर रखता है। कांझड़ बाबा भी उसी कोटि के इनसान हैं। कहानी का अंतिम दृश्य जहाँ बेटा जमीन बेचकर आया है और बाबा जमीन पर लेटे हुए हैं बेहद मार्मिक स्थिति पैदा करता है। यहाँ आकर कहानी गँवई जीवन के यथार्थ की कहानी बन जाती है।

इस संग्रह की दो और कहानियों की चर्चा करना यहाँ मुझे जरूरी लगता है एक तो सोहर भुइयाँ की बकरियाँ और दूसरी मनेकि लबरा नाई के दास्तान। सोहर भुइयाँ की बकरियाँ कहानी सरकार की जन पक्षधर योजना का मजाक बनाती हुई कहानी है। सरकार की महत्वाकांक्षी बकरी पालन की योजना के अंतर्गत सोहर को चार बकरियाँ मिलती हैं घर तक आते आते उनके पास एक बकरी बचती है। ऐसा कैसे होता है यही कहानी में ट्विस्ट पैदा करता है और यही हमारे समाज की हकीकत भी बयान करता है।

मनेकि लबरा नाई के दास्तान कहानी ऐसे युवा वर्ग की प्रतिनिधि कहानी है जो सोचता तो बहुत लंबा-लंबा है लेकिन उसे हकीकत का अमली जामा पहना पाने की कूबत उसके भीतर है ही नहीं। यह कहानी भारतीय युवा मन की संभावनाओं की हत्यारी सरकारों के मुँह पर तमाचे की तरह लगती है। पंकज मित्र का यह संग्रह एक ऐसे समय में आया है जब दुनिया भर में विकास पुरुषों की आँधी आई हुई है। हर कोई विकास करना चाहता है। उस विकास की सच्चाई क्या है यह पंकज बहुत बारीकी से इन कहानियों में बयाँ कर जाते हैं। समकालीन हिंदी कहानी में भाषाई प्रयोग बहुत कम देखे जाते हैं। युवाओं के यहाँ तो न के बराबर। अपनी पीढ़ी में पंकज के पास जितनी समृद्ध भाषा है उतना ही चेतस भाषाई प्रयोग भी। बिहार,झारखंड और छत्तीसगढ़ की कथाभूमियों पर जिस तरह की भाषाई विविधता का प्रयोग वे करते हैं वह वाकई पाठक में दिलचस्पी पैदा करता है। इन कहानियों को पढ़ना अपने समय-समाज के सामाजिक ताने-बाने के रेशों को खोलने जैसा है। यह संग्रह हिंदी कहानी के परिसर को और ज्यादा समृद्ध करेगा ऐसी उम्मीद है।


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