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आलोचना

नई सदी का स्त्री चिंतन बरास्ते गूँगे इतिहासों की सरहदों पर

जगन्नाथ दुबे


युवा चिंतक आलोचक सुबोध शुक्ल ने पश्चिम के स्त्री चिंतन के समकालीन स्वरूप को स्पष्ट करने वाली महत्वपूर्ण आठ स्त्री-चिंतकों के लेखों का चयन, अनुवाद और संपादन 'गूँगे इतिहासों की सरहदों पर' नामक पुस्तक में किया है। ये सभी महिला चिंतक पश्चिम में और खासकर साम्राज्यवादी अमेरिका में समकालीन समय में स्त्री की उपस्थिति किस तरह की रही है, इसे व्यक्त करने वाली चिंतक हैं। स्त्री-जीवन के प्रायः सभी पहलुओं पर अलग-अलग समयों में अलग-अलग, चिंतकों द्वारा जो विचार किया गया है, पिछले पचास सालों में उसका एक प्रतिनिधि चेहरा सामने आ सके ऐसी कोशिश रही है, इस पुस्तक के चयन और संपादन में, ऐसा इसे पढ़ते हुए लगा। यह कोशिश काफी हद तक सफल भी हुई है। सफल इस लिहाज से भी कि यहाँ प्रकाशित सभी आलेख स्त्री के प्रति एक नया नजरिया पेश करते हैं। स्त्री की एक संपूर्ण छवि कैसे बनती है और वह किन-किन स्तरों पर संघर्ष करती है, इसकी भी पड़ताल करने की कोशिश की गई है। स्त्री के प्रति तथाकथित ज्यादा खुले हुए पश्चिमी समाज का पुरुष मन किस तरह की धारणा रखता है यह भी साफ होता है इस किताब को पढ़ते हुए। हम भारतीयों के लिए जो समाज ज्यादा लोकतांत्रिक और समानता का आग्रही समाज है उसकी वास्तविक स्थिति से परिचित होते हुए उस तथाकथित सभ्य समाज की भीतरी सच्चाई से भी हम वाकिफ नहीं होते हैं। इतना ही उस तथाकथित लोकतांत्रिक समाज की स्त्री किस तरह घुटन और बेबसी का जीवन जीने को अभिशप्त है यह भी साफ जाहिर होता है। इस पुस्तक में शामिल लेखों पर ठहरकर बात करने से पूर्व हमें यह भी देख लेना चाहिए कि एक सर्वथा भिन्न सामाजिक-संरचना वाले समाज के स्त्री जीवन की समस्याओं का हमारी सामाजिक-संरचना से क्या वास्ता? यानी बहुत साफ शब्दों में कहूँ तो पश्चिम के उस तथाकथित लोकतांत्रिक समाज, जिसकी संरचना इमोशनल रिलेशनशिप पर कम समझौते पर ज्यादा आधारित होती है उस समाज की स्त्री समस्या का भारतीय समाज, जो आज भी सामंती अवशेषों पर टिके होने के साथ ही अपनी संरचना में इमोशनल रिलेशनशिप को महत्व देता है। ऐसे दो परस्पर भिन्न समाजों की स्त्री का आपस में क्या सरोकार बनता है? जिस पश्चिमी समाज के बारे में हमारी सामान्य धारणा है कि उस समाज की स्त्री ज्यादा स्वतंत्र और अपने अधिकारों के प्रति सचेत है। (यह जरूरी नहीं है कि वास्तविक स्थिति ठीक-ठीक वही हो जो सामान्य धारणा है।) उस स्वतंत्र और सचेत स्त्री का कोई सीधा संबंध भारतीय समाज की स्त्री से बनता हुआ दिखता है? तो इस सवाल का जवाब तो पुस्तक के विवेचन-विश्लेषण के दौरान हमें मिलेगा ही लेकिन यहाँ यह भी सनद रहे कि इस पुस्तक में शामिल लेख भले ही एक सर्वथा भिन्न समाज व्यवस्था के स्त्रीमन को अभिव्यक्त करने की कोशिश है पर वे हैं तो स्त्री मन की अभिव्यक्ति ही और यह भी नोट किया जाय कि स्त्री को लेकर हमारा नजरिया ग्लोबल है। स्त्री की छवि हमारे मन में किसी खास समय और समाज में निर्मित नहीं हुई है वह पारंपरिक है, चिरंतन और और वैश्विक है। उसके बारे में राजेंद्र यादव ने बहुत ठीक बात कहीं है जिसकी चर्चा आगे करूँगा। यहाँ गूँगे इतिहासों की सरहदों पर की उपयोगिता के नजरिए से बात करूँ तो यह सर्वथा एक भिन्न तरह की किताब है और यह किसी मुहावरे में कही हुई बात नहीं है। ऐसा कहने के पीछे एक लंबी तर्क-प्रक्रिया काम कर रही है। हम भारतीय क्या करते हैं कि या तो बहुत ज्यादा शास्त्रानुमोदित ज्ञानकांड के समर्थक हो जाते हैं या फिर पूरी तरह व्यवहारिक। (यहाँ शास्त्रानुमोदित ज्ञान से आशय सैद्धांतिक ज्ञान से है और ऐसा कहने का यह मतलब न निकाला जाय कि और दूसरे समाज में यह पद्धति पूरी तरह मौजूद नहीं है।) ऐसे में हम खुद के समक्ष ही संकट खड़ा करते है। होना तो यह चाहिए कि सिद्धांत और व्यवहार के आपसी तालमेल से जो बात बने उसे बनाना चाहिए। जहाँ इस तरह की बात बन सकी है वहाँ बहुत कुछ हासिल भी हुआ है। पर हम अक्सर इन चीजों में चूक कर जाते हैं। विमर्शों के साथ इस चूक की समस्या कुछ ज्यादा ही रही है। दलित-विमर्श हो या स्त्री-विमर्श उनके सैद्धांतिक पक्ष और व्यवहारिक पक्ष का कई बार तो अंतर इतना ज्यादा बढ़ जाता है कि समझ ही नहीं आता कि ये सारी बातें एक ही समाज के बारे में कही जा रही है? और ऐसा करते हुए यह भी नहीं है कि कोई आदर्श गढ़ रहे होते हो। ऐसा करना उनकी नियति का हिस्सा हो गया है। इस दृष्टि से ही यह पुस्तक सर्वथा एक भिन्न तरह की पुस्तक है। इसमें जो सिद्धांत काम कर रहे हैं जमीनी स्तर पर उनकी बहुत गंभीर जाँच-पड़ताल की गई है ऐसा लगता है। बेट्टी फ्रीडन से लेकर जितनी भी चिंतक इसमें शामिल हैं वे ग्राउंड लेवल पर काम करते हुए एक तरह को सर्वेक्षणात्मक आधार पर अपना निष्कर्ष प्रस्तावित करती हैं जिनकी चर्चा यथासमय की जाएगी। दूसरी बात यह कि यह किताब अपने स्वरूप में किस तरह की किताब है? यानी चीजों को देखने समझने का इसका नजरिया क्या है? तो इस आशय से जब आप इस पुस्तक को पढ़ेंगे तो पाऐंगे कि यह किताब विशुद्ध समाज-विज्ञान की दृष्टि से लिखी गई किताब है। यह किसी फैशनेबुल विमर्श की तर्ज पर वितंडा खड़ा करने का प्रयास न होकर ठोस और गंभीर मूल्यांकन पर जोर देने वाला कार्य है। यहाँ जब मैं यह कह रहा हूँ कि यह किताब किसी तरह का वितंडा खड़ा करने वाली किताब नहीं है तो इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि विमर्श के नाम पर वितंडावादी लेखन हिंदी समेत प्रायः सभी भाषाओं में हुआ है और भरपूर हुआ है। ऐसा करने-कराने वालों की एक लंबी सूची प्रायः हर भाषा के साहित्य में बनाई जा सकती है। लेकिन इस पुस्तक में शामिल लेख अपनी गंभीर तार्किकता और विश्लेषण क्षमता की वजह से ज्यादा जमीनी लगते हैं साथ ही ज्यादा प्रामाणिक भी।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि जब भी पश्चिमी समाज के स्त्री चिंतन की बात आती है तो हमारी जुबान पर पहला नाम सिमोन द बोउवा का आता है और उनकी किताब सेकेंड सेक्स जिसका हिंदी में अनुवाद प्रभा खेतान ने स्त्री उपेक्षिता नाम से किया है, उसकी चर्चा होती है। एक तरह से देखा जाय तो स्त्री की त्रासद जिंदगी को देखने समझने की एक बुनियादी समझ बनाने वाली किताब है 'स्त्री उपेक्षिता'। स्त्रीमन के भीतरी तहों को खोलकर उससे हमारा परिचय कराने की पहली मुकम्मल कोशिश इसी किताब में दिखाई पड़ती है। यह किताब और तमाम दृष्टियों से महत्वपूर्ण होने साथ ही मुझे जिस एक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण लगती है वो यह कि इसके प्रकाशन के बाद दुनिया भर की तमाम भाषाओं में स्त्री और उसके जीवन-संघर्षों को लेकर एक मजबूत बहस शुरू हुई। यह भी ध्यान देने लायक है कि जिस किताब ने अपनी इतनी बड़ी ऐतिहासिक भूमिका निभाई उसे सिरे से नकार देने वाले लोग भी उसी समय से मौजूद दिखते हैं। कई बार यह कहकर कि ये तो किसी और दुनिया की बात है हमारे समाज की स्त्री तो ये है ही नहीं जिसकी बात सिमोन कर रही हैं। ऐसा ही एक संदर्भ दिया है बेट्टी फ्रीडन ने अपने लेख एक अनाम समस्या में वे लिखती है कि-यह बहस का मुद्दा ही नहीं था कि औरत पुरुषों से कमतर हैं या बढ़कर, वे बस उनसे अलग थी। 'आजादी' और 'व्यवसाय' जैसे शब्द विचित्र और शर्मिंदगी पैदा करने वाले बन गए थे। सालों से ये शब्द प्रयोग में लाए ही नहीं गए थे। इसीलिए जब सिमोन दी बुआ नाम की फ्रांसिसी महिला ने 'द सेकेंड सेक्स' नामक की किताब लिखी तो एक अमरीकी समीक्षक ने यह टिप्पणी की कि 'वह जानती ही नहीं कि जिंदगी किसे कहते हैं। संभव है कि वह फ्रांसीसी औरतों की बात कर रही हों। स्त्री समस्या नाम की कोई चीज अब अमरीका में नहीं है। ये समीक्षक महोदय इस बात को तभी कह रहे थे जब सेकेंड सेक्स नाम की किताब आई थी। बेट्टी फ्रीडन का चिंतन उसके एक दशक बाद हमारे सामने आता है और उनका संपूर्ण चिंतन ही यह बताने का प्रयास है कि अमेरिका में स्त्री समस्या अपने कितने जटिलतम रूपों में मौजूद है। उनकी पुस्तक 'द फेमिनिन मिस्टिक' जो 6ठे-7वें दशक में अमेरिकी चिंतन जगत में चर्चा का केंद्र बिंदु रही, वह स्त्री को स्त्री अधिकारों से वंचित करने वाले वर्ग की मुखालफत नहीं तो और क्या कर रही है? इस पुस्तक के वे दो अध्याय जिन्हें सुबोध जी ने अनुवाद के लिए चुना है, इनमें फ्रीडन ने जिस तरह से सामाजिक प्रक्रिया के बीच स्त्री की मनोभाषिकी का अध्ययन करते हुए उसका विश्लेषण किया है वह और उस पर उन्होंने जो अपनी प्रतिक्रिया दी है वह दोनों ही स्त्री अध्ययन की दृष्टि से माइल स्टोन जैसे हैं। जहाँ वे स्त्री अधिकारों की बात करते हुए उसकी सेल्फ आइंडेंटिटी की बात करती है वहाँ वे अपनी बात बेहद तार्किकता से तथ्यात्मक ढंग से रखती है और कहती है कि - 'मैं अपने पति, अपने बच्चों और अपने घर के अलावा भी कुछ चाहती हूँ, यह 6ठे-7वें दशक के अमरीकी समाज की समान्य महिला की चाहत थी जिसे पाने के लिए लड़ाई लड़ना पड़ रहा था स्त्री को। वह सब कुछ के बाद भी अपनी पहचान खोज रही थी वह आधिपत्यता से मुक्ति चाह रही थी लेकिन वहाँ का पुरुष मन तो उसके इस तरह के किसी भी दावे को ही सिरे से खारिज कर रहा था। उसे तो लगता था कि हमारे द्वारा नियंत्रित और हमारे द्वारा दिया गया सुख ही सर्वोपरि और मान्य होना चाहिए। उसके अलावा जो भी कहा जाएगा उसका कोई मतलब नहीं होगा। यहाँ यह भी कह देना जरूरी है कि गलती उस अमेरिकी समीक्षक में नहीं है। यह पुरुष के कामन सेन्स का मामला है। उसका कॉमन सेन्स किसी भी कीमत पर यह मानने को तैयार ही नहीं है कि पुरुष से अलग भी स्त्री का कोई अस्तित्व है। अपने सीमित ज्ञान के आधर पर कहूँ तो दुनिया के हर समाज का पुरुष-वर्चस्ववादी मन स्त्री की मनगढ़ंत असंख्य छवियाँ गढ़ चुका है लेकिन उन सभी छवियों में स्त्री की कोई स्वतंत्र छवि हो ऐसा मुझे नहीं दिखाई देता। हमारी सामाजिक व्यवस्था में स्त्री का मतलब क्या है इसका बहुत ठीक उल्लेख राजेंद्र यादव ने अपनी पुस्तक 'आदमी की निगाह में औरत में' किया है। जहाँ वे कहते हैं कि-'सच तो यह है कि हमारे सारे परंपरागत सोच में नारी को दो हिस्सों में बाँट दिया गया है। कमर से ऊपर की नारी और कमर से नीचे की औरत। हम पुरुष को उसकी संपूर्णता में देखते हैं, उसकी कमियों और कमजोरियों के साथ उसका मूल्यांकन करते हैं। नारी को हम संपूर्णता में नहीं देख पाते। कमर से ऊपर की नारी महिमामयी है, करुणाभरी है, सुंदरता और शील की देवी है, वह कविता है, संगीत है, अध्यात्म है और अमूर्त है। कमर से नीचे वह काम कंदरा है, कुत्सित और अश्लील है, ध्वंशकारिणी है राक्षसी है, और सब मिलाकर नरक है। इसी बँटे और दुहरे रवैये से हम उसके शरीर की ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर की यात्राएँ करते हैं। उसके मातृत्व की शारीरिकता को नहीं वात्सल्य की भावना को गरिमा देते हैं। नारी से अधिक नारी का आइडिया हमें सम्मोहित करता है और हमारे द्वारा निर्मित सारी संस्कृति इस आदर्श नारी के साथ में ही उसे ढालने का प्रयास कर रही है। हमने इस आइडिया और मिथ को ही उसका संसार और संस्कार बना दिया है।

राजेंद्र यादव ऐसा लिखते हुए न तो कहीं से जरा भी चिंतित दिखाई देते हैं और न आक्रोशित क्योंकि यह चिंतित और आक्रोशित होने का मामला ही नहीं है यह तो हमारा सामाजिक सच है। हिंदी का स्त्री चिंतन जितना मैंने पढ़ा है और काम भर तो पढ़ ही लिया है, उसके आधार पर कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि यह चिंतन स्त्री के सभी बुनियादी सवालों को उठाता ही नहीं बल्कि उसे उसकी आईडेंटिटी के साथ समाज में उसकी हिस्सेदारी दिलाने को प्रतिबद्ध जान पड़ता है। फिर भी दिक्कत यह है कि ऐसा करते हुए वह समाज से जुड़ नहीं पा रहा है। उसे जुड़ने नहीं दिया जा रहा है। स्त्री चिंतन की संपूर्ण वैचारिक प्रतिबद्धता का इंप्लीमेंटेशन जहाँ होना है वहाँ वह पहुँचने में असमर्थ सा साबित होता है। वहाँ जड़ता इस कदर जकड़ी हुई है कि उसे तोड़ पाना अभी इतना आसान भी नहीं है। वह भी तब जबकि एक तरफ सामंती अवशेष का नैतिकतावादी मूल्य सत्ता पर काबिज हो तो दूसरी तरफ बाजार ने स्त्री को उपभोग की वस्तु बना देने में कोई कोर कसर न बाकी रखी हो। कई बार मैं खुद से ही सवाल करता हूँ कि आखिर क्यों इतने बड़े-बड़े कार्पोरेट्स में डील करने का काम हो या विज्ञापनों में देह दिखाना वहाँ हमारे सामने स्त्रियों को ही क्यों पेश किया जाता है? क्या यह एक स्त्री का बाजार द्वारा उपभोग नहीं हुआ? तो जो स्त्री हमारे लिए उपयोग की वस्तु है उसे हम कैसे समान नागरिक की हैसियत दे सकते हैं। आज भी हमारे समाज का बड़ा वर्ग स्त्री को मध्ययुगीन बोध से ग्रस्त होकर ही देखता है। बाजारी कल्चर ने भी रेशनलिटी के स्थान पर आस्थावादी दर्शन दिया है। मध्यकाल में धर्मगुरु के ताने-बाने में यह स्पेस ही नहीं था कि आप उनकी मान्यताओं के अलावा खुद सोचें। ठीक उसी तरह बाजार ने ऐसी विज्ञापन की संस्कृति गढ़ी है जहाँ तर्क का कोई स्थान ही नहीं है। वह जो भी यहाँ प्रत्येक व्यक्ति एक वस्तु से ज्यादा कुछ भी नहीं है। इसलिए किसी भी सत्तामूलक विमर्श को सबसे पहले अपने बुनियादी शत्रु बाजार से सावधान रहना होगा। सावधान इसलिए भी कि बाजार ने अपनी एक ऐसी संरचना गढ़ी है जिसमें हर किसी को त्वरित लाभ मिलता दिखाई देगा। लेकिन जो भी इस त्वरित लाभ के चक्कर में फँसा वह अपना मूल भूल जाएगा। फिर तो उसके पास वही बचेगा जो बाजार चाहेगा। इसलिए ऐसा होते देखकर कई बार यह लगता है कि हम किस तरह की संस्कृति का पोषण कर रहे हैं? ऐसा करते हुए स्त्री के संबंध में हमारा क्या नजरिया रहता है? क्या हम स्त्री को एक वस्तु से ज्यादा भी कुछ मान पा रहे हैं? यह भी बाजार में ही संभव है कि स्त्री का सौंदर्य खत्म हुआ नहीं कि वह हमारे लिए बिना काम की वस्तु जैसी हो गई जिसे मर्जी करे तो कचरे के ढेर में फेंक दिया जाय या कहीं भी उसका हाड-मांस से ज्यादा कोई मूल्य नहीं है हमारी इस संस्कृति में। गहराई से विचार करने पर यह पता चलता है कि सत्तामूलक विमर्शों के लिए जितना घातक ब्राह्मणवादी-सामंती मूल्य थे उतना ही घातक यह साम्राज्यवादी-बाजारवादी व्यवस्था बनकर उभरी है। वहाँ स्त्री मतलब 'मन-बच-क्रम ते पति हितकारी।'' था तो यहाँ स्त्री मतलब दिखाने की वस्तु। वहाँ स्त्री अपने पति के अधीन थी यहाँ बाजार ने उसका अपने ढंग से उपयोग करना शुरू कर दिया है। इन्हीं परस्पर विरोधी स्थितियों में स्त्री को अपनी आईडेंटिटी खोजनी है। यह खोज पिछले 50 वर्षों में बहुत ही तेज हुई है। उसी खोज का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने वाले महत्वपूर्ण लेख इस पुस्तक में शामिल किए गए हैं। यह पुस्तक पश्चिम के स्त्री चिंतन की बात करते हुए स्त्री के मूलभूत सवालों को उठाती है। उन सवालों को जो चिरंतन है जिनसे दुनिया की हर औरत जूझती है। अपने इन्हीं सवालों की वजह से यह हिंदी के स्त्री-चिंतन में बहुत कुछ जोड़ती भी है।

पुस्तक के पहले दो लेख जो कि बेट्टी फ्रीडन की पुस्तक 'द फेमिनिन मिस्टिक' से लिए गए हैं दरअसल स्वतंत्र दिखने वाले समाज के स्त्री जीवन की दास्तान कहते हैं। फ्रीडन अमेरिका की रहने वाली है। उन्होंने अमेरिका में लंबा वक्त गुज़ारा है। वे अमेरिकी महिलाओं की दैनंदिन जीवनचर्या से बखूबी परिचित हैं। वे अपने लेखन में सामाजिक मूल्यांकन के दायरे से आगे बढ़कर स्त्रीमन की गाँठें खोलने का प्रयास करती हुई लेखिका हैं। उनका लेखन जैसा कि सुबोध भी कहते हैं अमेरिकी उपनगरीय गृहणियों के मनोविज्ञान, संस्कार, जीवन शैली, विचार और दृष्टिकोणों पर किया गया एक अनौपचारिक शोध है। वे अपने लेखन के लिए जिस तरह तमाम महिलाओं से मिलकर उनसे ही उनकी समस्या सुनते समझते हुए उनका विश्लेषण करती हैं वह उनके लेखन को मजबूत बनाता है। घटनाओं का विश्लेषण करते हुए वे जिस एक बात पर लगातार जोर देती रही है और जो मुझे लगता है, बेहद जरूरी भी है, वह यह कि स्त्री को उसकी पूर्णता में समझते हुए उसके अस्तित्व को स्वीकार करना। स्त्री के कई रूप हमने गढ़े हैं। वह बेटी है, बहन है, पत्नी है, प्रेमिका है, माँ है और भी बहुत कुछ है। पर जिस तरह अपनी तमाम भूमिकाओं के बाद पुरुष पुरुष होता है उसी तरह अपने हर रूप के साथ स्त्री स्त्री है। इसलिए यह बेहद जरूरी है कि हम उसके अस्तित्व को स्वीकार करें और उस स्वीकृति के साथ हम उसे अपनाएँ। ऐसा करने से हम स्त्री को उसकी वास्तविक छवि के साथ समझ सकेंगे, ऐसा फ्रीडन का दावा है। वे जिस अनाम समस्या की बात करती हैं वह समस्या इसी रूप को न समझ सकने की वजह से है। वे लिखती है - ''यदि मैं सही हूँ तो वह बेनाम समस्या जो ढेरों अमरीकी महिलाओं को मथ रही है, वह स्त्रीत्व के ह्रास, अधिक पढ़ाई या घरेलूपन की माँग से जुड़ हुई नहीं है। किसी के मान्यता देने से यह कम या अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो जाती है। यह उन सभी नई पुरानी समस्याओं की कुंजी है जो सालों से स्त्रियों, उनके पतियों और बच्चों को पीड़ित तथा चिकित्सकों-शिक्षाशास्त्रियों को परेशान करती रही है। यह एक राष्ट्र और संस्कृति के रूप में हमोर भविष्य की कुंजी साबित हो सकती है। हम लंबे समय से स्त्री के भीतर चलने वाली इस आवाज को उपेक्षित नहीं कर सकते कि मैं अपने पति, अपने बच्चों और अपने घर के अलावा भी कुछ चाहती हूँ। ये जिस कुछ और की बात यहाँ फ्रीडन कर रही है, इसी चाह की लड़ाई तो हरेक समाज की स्त्री लड़ रही है। उस चाह को कितने स्तरों पर दबाया गया है, रोका गया है इसी की पड़ताल करता हुआ लेख है ''यौन-क्रांति'' नाम से जिसे लिखा है 'केट मिलेट' ने। यह लेख उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'सेक्सुअल पॉलिटिक्स के तीसरे अध्याय 'द सेक्सुअल रेवोल्यूशन का अनुवाद है। केट मिलेट अपने मिजाज से एक समाजशास्त्रीय विवेचक लगती हैं। उनके चिंतन का आधार समाज और राजनीति सापेक्ष होता है। इसीलिए वे अपने मूल्यांकन में उन्हें ही ज्यादा महत्व देती है। उनका लेखन इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उसमें विचार के साथ-साथ तथ्य भी पर्याप्त मात्रा में मिल जाते हैं। उनका लेखन स्त्री-चिंतन पर शोध करने वालों के बहुत काम का जान पड़ता है। पश्चिमी विक्टोरियाई युग से लेकर उनके समकाल तक स्त्री-मुक्ति के जितने और जिस रूप में आंदोलन हुए उनका एक सर्वेक्षणात्मक विवचेन उनके इस लेख में दिखाई देता है। वे कई ऐसे तथ्य सामने रखती हैं जिसे पढ़कर सहसा विश्वास करने का मन नहीं होता। जबकि वह उस सामाजिक-संरचना की निर्ममता को ही व्यक्त करता है। वस्तुस्थिति भारत की भी वही है कि संपत्ति का असल अधिकार पति के पास है। (इधर नए सुधारों से कुछ बदलाव आया है पर असलियत अभी भी वहीं है।) जिस अमेरिकी समाज की बात मिलेट कर रही हैं उस समाज में पति-पत्नी संबंधों में संपत्ति घोषित किए बगैर पति की मृत्यु हो जाय, तो वैसी स्थिति में संपत्ति पर पूरा अधिकार राज्य का हो जाता है। यानी पत्नी और बच्चों का मतलब शून्य। दूसरी स्थिति कि न्यूयार्क का कानून क्या कहता है? तो उसका उल्लेख देखिए - ''पारिवारिक बाइबिल, तस्वीरें, स्कूली किताबें, पचास डॉलर तक की कीमत की सभी किताबें, कताई बुनाई का सामान, स्टोव, दस भेंडे, और उनका ऊन, सूअर और उनका गोश्त, पहनने के लिए जरूरी कपड़े, बिस्तर-बिछौने, विधवा की जरूरत के वस्त्र और अलंकार, एक मेज, छ कुर्सियाँ, छ छुरियाँ और काँटे, छ चाय के प्याले और प्लेट, एक चीनी रखने का डिब्बा, एक दूध का बर्तन, एक चायदानी और छ चम्मच।'' तो ये तो अधिकार था संपत्ति पर महिला का। इसलिए आप देखेंगे कि मिलेट के यौन क्रांति के मूल में ही वर्चस्व का प्रतिरोध है। केट का यह लेख इस पुस्तक का केंद्र बिंदु है। यही से चिंतन के सारे रास्ते निकलते हैं। यौन-क्रांति किन वजहों से होनी चाहिए उन सभी वजहों को ही अगर बखूबी समझ-बूझकर उस पर एक तार्किक विश्लेषण किया जाए तो शायद एक बेहतर रास्ता निकल सकता है ऐसा मेरा मानना है। वे 'एंगिल्स और क्रांतिधर्मी सिद्धांत' शीर्षक से कम्युनिज्म के हवाले से भी अपनी बात कहती है उसमें भी खासकर एंगिल्स के चिंतन को आधार बनाकर। एंगिल्स की प्रसिद्ध पुस्तक 'परिवार, वैयक्तिक संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति के बारे में केट का कहना है कि - ''इसमें पितृसत्तात्मक परिवार की अर्थव्यवस्था का मार्मिक विश्लेषण किया गया है। यह बहुत ही क्रांतिकारी कदम था क्योंकि वह अकेला एंगेल्स ही था जिसने पितृसत्तात्मक पारिवारिक ढाँचे पर प्रहार किया था। किंतु पितृसत्ता की जड़ तक पहुँचने में वह भी इतिहास को भूलभुलैया में चकरा गया था। एंगेल्स ने किस ढाँचे पर प्रहार किया और कहाँ चकराया यह बहुत साफ तरीके से केट कहीं स्पष्ट नहीं करती है, लेकिन, पितृसत्तात्मक पारिवारिक ढाँचे को तोड़ने की बात लगातार कहती हुई दिखती है। सांस्कृतिक इतिहास का द्वंद्ववाद नामक लेख सुलामिथ फायरस्टोन की पुस्तक 'द डायलेक्टिक ऑफ सेक्स : द केस फॉर फमिनिस्ट रेवोल्यूशन' से लिया गया है। यह लेख लैंगिक विभाजन की राजनीति पर बेहद गंभीरता से विचार करता है। अपने निष्कर्षों में कई बार अतिवादी होने के बावजूद यह एक सुचिंति और गंभीर कार्य है।

हमारी सामाजिक-संरचना की निर्मिति जिस ऐतिहासिक मानवीय बोध से होती है। उसमें से अधिकांश हिस्सा इतिहाससम्मत न होकर भी सर्वस्वीकृत होता है। उस हिस्से के अंतर्गत हमारे समाज में व्याप्त किंवदंतियाँ और परिकथाएँ होती हैं। मिथक भी बहुत कुछ उसी का हिस्सा होते हैं। जो ठीक-ठीक इतिहास सम्मत न होकर भी हमारी मानवीय सामाजिक-संरचना के गतिदायक तत्व के रूप में हमारे सामने मौजूद होते हैं। इनका स्वरूप हमेशा से प्रगतिशील ही रहा है। ऐसा नहीं है, लेकिन ये अपने समय की मनोवृत्ति का परिचय अवश्य देते हैं। एक भिन्न संदर्भ में प्रसिद्धि भी लोकध्वनि की सूचक होती है, ऐसा कहते हुए आचार्य शुक्ल भी इसी मनोवृत्ति की तरफ इशारा करते है। एंड्रियसा डुआर्किन का आलेख 'परीकथाएँ' सामाजिक जीवन में विद्यमान परीकथाओं के माध्यम से अपने समय का सच कहता है। यह आलेख उनकी पुस्तक 'वुमन हंटिंग : ऐ रेडिकल लुक एक सेक्सुअलिटी' के 'फरीटल्स' नामक अध्याय का अनुवाद है। इसमें वे अपने समय में विद्यमान परिकथाओं का अध्ययन करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि अधिकांश परीकथाएँ पुरुष वर्चस्व की पोषक है। उने मूल में पुरुष की श्रेष्ठता ही विद्यमान है। पुरुष होने का मतलब बहादुर होना, निर्भीक होना, साहसी होना है जबकि स्त्री का मतलब डरपोक भयातुर और कमजोर हृदय वाली होना है। जो सामाजिक-संरचना स्त्री और पुरुष के बीच इस तरह की साफ रेखा खींचने की समर्थक है उसमें कैसे यह विश्वास किया जाय कि वह समानता आधारित जीवन दर्शन का समर्थन कर सकती है? बाजारी संस्कृति ने स्त्री को किस तरह एक वस्तु बनाकर छोड़ दिया है यह देखना हो तो लाओमी वुल्फ का आलेख 'रोजगार' देखा जा सकता है। जहाँ पुरुष को रोजगार इसलिए दिया जा रहा है कि वह उस कार्य को करने में शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम है, वहीं स्त्री का सौंदर्य ही उसके रोजगार पाने का माध्यम है। अमेरिकी समाज के अध्ययन का निष्कर्ष है कि एक स्त्री को नौकरी से सिर्फ इसलिए निकाल दिया जाता है कि वह देखने में सुंदर नहीं रह गई है। पहले थी। इसलिए पहले नौकरी कर रही थी। एक स्त्री के वेतन का अधिकांश हिस्सा उसके सुंदर दिखने में खर्च करा देने वाला समाज स्त्री देह का प्रचार नहीं तो और क्या कर रहा है। बहुत कुछ सकारात्मक और सार्थक होने के बाद भी एक ऐसा वर्ग है जो स्त्री को वस्तु के रूप में ही देखता है। भारत समेत दुनिया के हर देश की आज की वास्तविकता यही है कि स्त्री को प्रचार का एक माध्यम भर बनाकर रखा गया है। न्यूज चैनलों पर एकरिंग से लेकर बड़े-बड़े कार्पोरेट्स के यहाँ स्त्रियों को जिस रूप में पेश किया जा रहा है, वह एक तरह के नए बाजारी हथकंडे का प्रतिफल है। इसका हमारी सामाजिक संरचना पर क्या प्रभाव पड़ता है। इसकी बहुत गहरी शिनाख्त रोजगार नामक लेख में देखने केा मिलती है। 'स्त्रीत्व सौंदर्य और प्रेम की बीमार मान्यताएँ' और 'पितृसत्ता का सामंतवाद' जैसे दो और महत्वपूर्ण लेख इसमें शामिल हैं। इन दोनों लेखों की विषयवस्तु थोड़े हेरफेर के साथ अन्य दूसरे लेखों में मौजूद है इसलिए मुझे इनका कोई बहुत भारी औचित्य नहीं समझ आया। अपने संपूर्ण रूप में कहूँ तो यह एक सार्थक किताब है जिसका आना हिंदी साहित्य के विमर्शवादी मूल्य में बहुत कुछ नया जोड़ता है। यह किताब स्त्री विमर्श को देखने का एक नया नजरिया देती है। इसके चयन और अनुवाद में युवा आलोचक सुबोध शुक्ल ने जो मेहनत की है वह इसके पन्नों पर दिखती है। अनुवाद सर्वथा एक दुरूह कार्य माना जाता रहा है। अनुवाद के बारे में बात करते हुए एक बार गुरुवर कुमार पंकज ने किसी और के माध्यम से कहा था जिसे स्त्री विरोधी वाक्य न समझा जाय यह पहले ही कहकर यहाँ कहना चाहता हूँ कि - 'अनुवाद एक ऐसी स्त्री के समान है जो अगर देखने में सुंदर होगी तो विश्वसनीय नहीं होगी और अगर विश्वसनीय होगी तो सुंदर नहीं होगी।' इस किताब के बारे में मैं कह सकता हूँ कि यह सुंदर होने के साथ ही विश्वसनीय भी है।


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