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कहानी

चीलें
हरियश राय


'यह क्या पहन लिया,' आदमकद शीशे के सामने अपना अक्स देखते ही प्राची सोनवरकर के मुँह से निकल गया।

हालाँकि प्राची सोनवरकर ने अपनी सबसे बेहतरीन साड़ी ही पहनी थी। पहले सोचा था कि आज की प्रेस-कॉन्फ्रेंस में अपने सीईओ के सामने साड़ी पहनकर जाएँगी। लेकिन साड़ी पहनकर जब शीशे में खुद को देखा तो अनायास ही उनके अवचेतन मन ने कहा यह क्या पहन लिया है। आज इसका यह मौका नहीं, बदलो इसे। बहुत सारे लोग आएँगे आज आपका इंटरव्यू करने। कुछ और पहनो। आनन-फानन में प्राची सोनवरकर ने बदलने का फैसला कर लिया। अपनी अलमारी से अपने लिए कोट और पैंट निकाले, साथ में सफेद रंग की पार्क एवेन्यू कंपनी की शर्ट निकाली और हल्के लाल रंग की टाई लगाकर गहरे नीले रंग का लंबा-सा कोट पहनकर जब वे शीशे के सामने खड़ी हुर्इं तो अनायास ही उनके मुँह से निकल गया। हाँ अब ठीक है। साड़ी में तो वे, अधेड़-सी औरत दिखाई दे रही थीं। पर इस ड्रेस में एक प्रबुद्ध, सजग और स्मार्ट महिला लग रही थीं और आज वह ऐसा ही दिखना चाहती थीं।

करीब चालीस साल की उम्र रही होगी प्राची सोनवरकर की। लंबा कद, दुबली-पतली, साँवला रंग, आँखों पर सनग्लास वाला चश्मा, बाल कटे हुए, बालों में हल्की-सी सफेदी झाँक रही थी जिसे रँगने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। पाँवों में जूते। बच्चों के विकास के लिए काम करनेवाली एक मल्टीनेशनल कंपनी में वह वाइस प्रेसीडेंट थी और अपनी कंपनी के कल्चर व अपने ओहदे के मुताबिक प्राची सोनवरकर ने यह ड्रेस पहन ली थी।

दरअसल आज प्राची सोनवरकर की कंपनी की प्रेस कॉन्फ्रेंस थी और प्राची सोनवरकर को अपने सीईओ के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में बोलना था। घड़ी देखी आठ बज चुके थे। सुबह दस बजे प्रेस कान्फ्रेंस का वक्त था। तब तक पहुँच जाएँगी ऑफिस। गाड़ी में बैठते ही सामने नजर आकाश पर पड़ी। अजीब-सा मौसम था। न सर्दी, न गर्मी। आकाश में धूल की धुंध-ही-धुंध छाई हुई थी। इस धूल में भी प्राची सोनवरकर ने दूर आकाश में कुछ चीलों को उड़ते देख लिया था। हालाँकि वे बहुत पास थीं लेकिन धूल के कारण धुँधली दिखाई दे रही थीं। ये चीलें इतनी नीचे कैसे आ गर्इं पता नहीं क्यूँ, वे जब भी बाहर निकलतीं तो आकाश को जरूर देखतीं और हर बार उन्हें कोई-न-कोई चील जरूर दिखाई दे जाती। कभी दूर, तो कभी पास। इससे पहले कि वे चीलों के बारे में कुछ सोचतीं, मोबाइल फोन की घंटी बज गई। स्क्रीन पर अमृता का नाम आ रहा था। क्या हो गया इसे। खैरियत तो है, प्राची सोनवरकर ने मन-ही-मन सोचा और फौरन मोबाइल का स्पीकर आन कर दिया और कहा, 'हाँ बोलो अमृता - '

'मैम आज आप आ सकेंगी कोर्ट में।' अमृता ने लगभग बदहवासी में कहा।

'क्यों, क्या हुआ - ?'

'आज कोर्ट में पेशी है। एक गवाह को साथ लेकर जाना है।'

'पर अचानक -'

'अचानक नहीं मैम - पहले से सब तय था। दीदी को गवाही देनी थी। पर अब उन्होंने आने से मना कर दिया। आप आ जाएँ प्लीज।' उसने दर्द भरी आवाज में कहा -

'कितने बजे आना है - ?'

'ग्यारह बजे - फेमिली कोर्ट में।'

'ओह! नो, ग्यारह बजे - वे कैसे आ सकती हैं। उस समय तो वे प्रेस कान्फ्रेंस में रहेंगी। वाइस प्रेसीडेंट के नाते उनका प्रेस कान्फ्रेंस में रहना निहायत जरूरी है।

'देखो अमृता, आज ग्यारह बजे तो नहीं आ सकती। उस समय मेरी प्रेस कान्फ्रेंस है। तुम कहो तो में किसी दूसरे को भेज दूँ।'

एक पल के लिए दोनों में संवाद रुक-सा गया। फिर अचानक अमृता की आवाज आई।

'नहीं मैम, मैं कोई दूसरा इंतजाम कर लेती हूँ।'

मन मसोस कर रह गर्इं। यह तारीख भी आज की ही होनी थी। मन-ही-मन बुदबदार्इं।

'देखो - कोई दिक्कत हो तो बताना। दोपहर तक मैं फ्री हो जाऊँगी।'

'ठीक है।'

'गॉड ब्लैस यू, मैं शाम को तुम्हारे घर पर मिलती हूँ। वैसे भी बहुत दिनों से नहीं आई हूँ।'

'जी, जरूर आइए।'

'और कोर्ट में जो भी हो, मुझे एसएमएस करके बताना।' प्राची सोनवरकर ने कहा और फोन को बंद कर दिया।

आकाश में धूल के अंबार के बीच चीलें अभी भी उन्हें दिखाई दे रही थीं।

एक ठंडी साँस भरकर रह गर्इं वह। बहुत चाहती हैं वह अमृता को। अपनी छोटी बहन जैसा समझती हैं। करीब डेढ़-दो साल भर पहले ही उसकी शादी हुई थी। पर शादी ज्यादा दिन नहीं चल सकी। सास और उसके पति की नीयत अमृता के फ्लैट पर कब्जा करने की थी, जो उसकी शादी से पहले उसने बैंक से कर्ज लेकर खरीदा था। पति चाहता था कि अमृता यह फ्लैट उसके नाम ट्रांसफर कर दे, लेकिन अमृता तैयार न थी। बस यहीं से मन-मुटाव शुरू हुआ और अपमान, प्रताड़ना के दौर से गुजरते हुए कोर्ट-कचहरी की नौबत आ गई। प्राची सोनवरकर ने हर कदम पर अमृता का हौसला बढ़ाया। उसे अपने पति की ज्यादतियों के खिलाफ खड़ा होने के लिए तैयार किया।

बहुत खिन्न हो गई थीं अमृता से बात करके। गाड़ी की पिछली सीट पर आँखें बंदकर आराम से बैठ गर्इं। अपने मोबाइल पर बाँसुरी की धुन सुनने लगीं। बहुत प्रिय थी बाँसुरी की धुन।

हालाँकि कान उनके बाँसुरी की धुन सुन रहे थे लेकिन दिमाग में आकाश में उड़ती चीलें ही मंडरा रही थीं। पता नहीं कब, एक संकल्प-सा उनके मन में समा गया था कि अपने आपको इन चीलों से बचाकर रखना है। वे कोई जन्म लेती हुई चिड़िया नहीं हैं कि नजर पड़ते ही चीलें उसे खाने के लिए झपट्टा मार लेंगी उस पर। पता नहीं यह संकल्प कब इतना पुख्ता हो गया कि जब भी कोई चील उन्हें दिखाई देती, वे सतर्क हो जातीं। बिल्ली की तरह सतर्क और चौकन्नी जो हर हाल में अपनी रक्षा करना जानती है। और जो वक्त आने पर दुबक जाती है और वक्त आने पर झपट्टा भी मार लेती है। दिमाग में माँ का चेहरा कौंधने लगता है।

माँ आए दिन कहतीं,' ऐसा कैसे चलेगा बेटा, कुछ तो अपने बारे में सोच।'

'अब और क्या सोचूँ माँ?'

'कहीं तो 'हाँ' कर। इस उम्र में भी बहुत सारे लड़के मिल जाएँगे।'

'नहीं माँ, अब बहुत देर हो गई है।'

'कोई देर नहीं हुई। सारी उम्र अकेले थोड़े ही कटती है। मैं आज हूँ। कल नहीं।'

'जरूरी नहीं, सब को सब कुछ मिल ही जाए।'

'पर जिंदगी की गाड़ी एक पहिये से नहीं चलती। तू कोशिश तो कर।'

'पहले इतनी कोशिश की - क्या मिला - पता तो है माँ, हरेक की नजर मेरी नौकरी और इस घर पर रहती है। फिर कोई कायदे का मिला भी तो नहीं। अब क्या फायदा कोशिश करने से -'

'अभी भी कायदे के लोग मिल जाएँगे।'

'अभी तक नहीं मिले तो अब क्या मिलेंगे।'

'आज तो ठीक है। कल की सोच। जब उम्र ढल जाएगी, हाथ-पैर काम नहीं करेंगे, नौकरी नहीं रहेगी। किसी सहारे की जरूरत होगी - तब। तब कैसे चलेगा।'

'चल जाएगा माँ। - तुम इतनी दूर की क्यों सोचती हो। तब का तब देखा जाएगा।'

'अब मैं नहीं सोचूँगी तो कौन सोचेगा।'

कभी-कभी माँ से कहती, 'माँ तुम जानती तो हो कि पापा ने तुम्हारे साथ कैसा सलूक किया। कितना अपमानित और प्रताड़ित किया। अब देखते भी नहीं हम लोगों की ओर। मजे से रह रहे हैं उसके साथ। फिर भी तुम कहती हो, 'मैं शादी कर लूँ। आपको शादी से कौन-सा सुख मिला जो मुझे मिल जाएगा।'

'पर जरूरी नहीं है कि जो मेरे साथ हुआ हो वह तुम्हारे साथ भी हो।'

'पर गारंटी भी तो नहीं है कि मेरे साथ ऐसा नहीं होगा।'

'पर इसका यह मतलब तो नहीं है कि सारी जिंदगी अकेले रहने का फैसला कर लिया जाए।'

'अच्छा बस माँ - बाद में कभी सोचेंगे।'

कहकर वह हर बार बात को यहीं खत्म कर देतीं। पर वह जानती थीं कि माँ के मन में यह टीस है और टीस उन्हें हर वक्त सालती रहती है।

बस कुछ इसी तरह की बातें होतीं और माँ उदास-सा चेहरा लिए दूसरे कमरे में चली जाती।'

अकेले रहने का यह फैसला अचानक नहीं हुआ। धीरे-धीरे कुछ ऐसा हुआ कि उसे पता ही न चला कि कब वह इस फैसले पर पहुँच गर्इं और कब यह फैसला मन-ही-मन पुख्ता हो गया।

ऐसा नहीं है कि प्राची सोनवरकर ने कोशिश नहीं की। खूब कोशिश की लेकिन कोई मन का नहीं मिला। जो भी मिले उनकी नजर या तो उनके बड़े से घर पर रहती या उनके माँ-बाप द्वारा बटोरी संपत्ति पर। वह अकेली संतान थीं अपने माँ-बाप की। कुछ लोग इससे हटकर भी मिले पर वे इतने बेवकूफ, जाहिल और गँवार थे किउ नके साथ पूरी जिंदगी तो क्या, दस मिनट भी नहीं गुजारे जा सकते थे। कहने को वे सब अमेरिका की यूनिवर्सिटी के डिग्रीधारी थे लेकिन सोचते थे पंद्रहवीं शती में रहकर। सारे-के-सारे जड़, विवेकहीन, कमअक्ल थे। कैसे उन पढ़े-लिखे मूर्खों के साथ जिंदगी गुजारी जा सकती थी। मन को भाने वाला ढूँढ़ने के चक्कर में प्राची सोनवरकर उम्र के इस पड़ाव तक आ गई कि पता नहीं कब 'नहीं, तो न सही' ने आकर उनके मन में जगह बना ली। तब प्राची सोनवरकर ने अपने आपको अपनी कंपनी के हवाले कर दिया। दिन-रात दफ्तर का काम और काम जिसके कारण आज वह इस कंपनी की वाइस प्रेसीडेंट हैं। अब कंपनी ही उनका परिवार है, कंपनी ही उनका पहला घर है, कंपनी ही भाई-बहन है, कंपनी ही सखी-सहेलियाँ है। सुबह आठ बजे से लेकर रात के नौ-दस बजे तक कंपनी में ही रहना। कभी समय मिलता तो शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों में जाती। एक सुकून-सा मिलता था उन्हें। या कभी लंबी छुट्टियाँ हुर्इं तो बस्तर के आदिवासी इलाकों में बच्चों के लिए काम कर रहे एक एनजीओ में जातीं। कुछ दिन वहाँ बितातीं और खुशी-खुशी वापस अपने शहर आ जातीं।

घड़ी देखी, नौ बजने को आए थे। बस कुछ ही देर में दफ्तर पहुँच जाऊँगी। सोचा एक बार अमृता को फोन कर लूँ। पलक झपकते ही मोबाइल पर बज रही बाँसुरी की धुन को बंदकर दिया और अमृता को फोन लगाया।

'हाँ, अमृता, कुछ बंदोबस्त हो गया?'

'जी, मैम हो गया।'

'कौन आ रहा है साथ तुम्हारे?'

'मैंने अपनी फ्रेंड को बुलालिया। वह आ रही है। हम लोग पहुँचने वाले हैं फेमिली कोर्ट में।'

'देखो घबराना नहीं। जज की हर बात का अच्छी तरह से जवाब देना। सब सच-सच बताना और डरना नहीं।'

'जी मैम, आप फिक्र न करें। शाम को आएँगी न?'

'हाँ, जरूर आऊँगी। पर आज कोर्ट में जो भी हो, मुझे बताना जरूर।' कहकर उन्होंने फोन रख दिया।

हालाँकि प्राची सोनवरकर का गला भर आया था लेकिन अपनी आत्मग्लानि से मुक्त हो गई थीं। गाड़ी में रखी हुई पानी की बोतल से उन्होंने दो-चार घूँट पानी पिया और अपने आपको संयत किया।

अगले कुछ ही पलों में उनकी कार कंपनी के विशाल ऑफिस में दाखिल हो गई थी। कार से उतरने से पहले उन्होंने ड्राइवर से कहा, 'मेरा बैग मेरे रूम में रखकर हॉल में आ जाना।'

हालाँकि प्रेस कॉन्फ्रेंस का वक्त दस बजे का था और अभी नौ ही बजे थे। ऑफिस के कुछ लोग थे जो प्रेस कान्फ्रेंस की तैयारियाँ कर रहे थे। मंच, माइक और कंप्यूटर, प्रोजेक्टर, स्क्रीन वगैरह लगा रहे थे। प्राची सोनवरकर कंप्यूटर ऑपरेटर को कुछ हिदायतें दे रही थीं कि पीछे से आवाज आई।

'नमस्ते मैम।'

उन्होंने पीछे मुड़कर देखा एक पच्चीस-छब्बीस साल का लड़का उन्हें नमस्ते कर रहा था। अनमोल -

उसे देखते ही खिल गर्इं प्राची सोनवरकर, अरे तुम कहाँ रहे इतने दिन?' उन्होंने उस लड़के के गाल पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा।

'बस यहीं था मैम -'

'तो मिले क्यों नहीं - ?'

'गया था आपके केबिन में मिलने। पर आप बहुत बिजी थीं।'

'बिजी तो खैर रहती हूँ, पर तुम्हारे लिए नहीं। तुम जब चाहो आ जाया करो। आने से पहले बस फोन कर दिया करो।'

'आपसे कुछ बात करनी है।'

'हाँ बोलो - '

'अभी नहीं, बाद में - कब आऊँ?'

'जब चाहो तब आ जाओ।'

'शाम को आऊँ - ?'

हाँ, जरूर आना। चाहो तो प्रेस कान्फ्रेंस के बाद ही आ जाना। लंच के बाद मैं अपनी केबिन में ही रहूँगी। अच्छा देखो, सीईओ के पीए से पता कर के बताओ कि सीईओ हॉल में कब आएँगे, मैं उनके आने से पहले हॉल में आना चाहूँगी। अभी मैं अपने कमरे में जा रही हूँ, मुझे फोन पर बताना।

'जरूर मैम, रेस्ट एश्योर आई विल इन्फार्म यू। अभी बहुत टाइम है।'

प्राची सोनवरकर कॉन्फ्रेंस हॉल से बाहर चली गर्इं। पूरे ऑफिस में उनका बहुत मान-सम्मान था। ऑफिस में छोटे-से-छोटे कर्मचारी से लेकर सीईओ तक उनका सम्मान करते थे। इसकी एक वजह थी। सबके प्रति उनका आत्मीय और शालीन व्यवहार और सबको सम्मान देना, अपने काम में महारत। ऑफिस में कभी किसी काम को उन्होंने मना नहीं किया और जो भी काम उन्हें दिया गया, उसे पूरी तन्मयता और लगन से किया। कंपनी के आर्थिक मामलों पर उनकी पकड़ थी। उनकी सलाह कंपनी के लाभ पर असर डालती थी। इसलिए सीईओ उनकी हर बात को तवज्जो देते थे।

दोपहर तक चली प्रेस कान्फ्रेंस। उनका प्रेजेंटेशन बहुत अच्छा रहा। सीईओ उनसे काफी प्रभावित हुए थे। कॉन्फ्रेंस में सीईओ कम और प्राची सोनवरकर ही ज्यादा बोलीं। पत्रकारों के हर सवाल का बखूबी जवाब दिया। जिस तरह से उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपने आपको प्रेजेंट किया, उससे सभी उनकी प्रतिभा के कायल हो गए। कई टीवी चैनल वालों ने अलग से उनका इंटरव्यू रिकॉर्ड किया।

प्रेस कान्फ्रेंस के बाद सभी पत्रकारों ने उन्हें घेर लिया था। हर कोई उनसे अलग से इंटरव्यू लेना चाहता था। पत्रकारों को इंटरव्यू देते समय उन्होंने कई बार देखा कि अनमोल उनके आस-पास ही खड़ा है। उसके चेहरे पर उन्हें अजीब-सी मासूमियत दिखाई दे रही थी। उन्होंने कई बार सोचा वे उससे जरूर बात करेंगी। रह-रहकर उनके मन में यह बात कौंधती कि वह उनसे क्या बात करना चाहता है। लेकिन इससे पहले कि वे उससे बात करतीं, कोई-न-कोई पत्रकार उनसे आकर बात करने लगता। फिर अचानक वह पता नहीं कहाँ गायब हो गया। जब पूरी भीड़ छँट गई तो उन्होंने अनमोल को ढूँढ़ने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं मिला। उसका फोन नं. उनके पास नहीं था, नहीं तो वह जरूर उन्हें बुलातीं। मन मसोस कर रह गर्इं। कहाँ चला गया लड़का।

बहुत खुश थीं प्रेस कान्फ्रेंस से। सीईओ ने उनकी खूब तारीफ की थी। उनकी प्रतिभा का लोहा सबने माना था। अचानक उन्हें ध्यान आया अमृता का, तीन बज चुके थे। कुछ-न-कुछ फैसला हो गया होगा। अमृता को एसएमएस करने के लिए कहा था। अपना मोबाइल छान मारा लेकिन अमृता का कोई एसएमएस नहीं था। क्या करती है यह लड़की। मन-ही-मन खीझ उठीं। चाहा फोन पर बात करें। फिर सोचा ठीक नहीं होगा। पता नहीं किस मनःस्थिति में हो वह।

शाम को यह सोचकर प्राची सोनवरकर ऑफिस से जल्दी जाने लगीं कि अमृता से वादा किया था कि उसके यहाँ जाएँगी। गाड़ी जब ऑफिस के गेट से बाहर निकलने लगी तो साइड मिरर से उन्होंने देखा दूर कहीं अनमोल दिखाई दिया। एक क्षण के लिए वह सकते में आ गई। यह इतनी दूर क्यों खड़ा है। दिन में यह क्यों नहीं आया। फिर उन्हें ध्यान आया कि शायद आया हो। वह तो कॉन्फ्रेंस के बाद भी सीईओ के साथ मीटिंग में थीं। फौरन ड्राइवर को गाड़ी वापस लेने के लिए कहा। वापस करके जैसे ही गाड़ी रुकी, अनमोल उनकी कार के पास आ गया। कार से उतरते हुए पूछा -

'कहाँ थे तुम सारा दिन?'

'बस मैम, सारा दिन यूँ ही काम में बिजी रहा

'तुम्हें कुछ बात करनी थी न मुझसे।'

'जी -'

'तो बोलो क्या बात है?'

'अब आज नहीं। अब बहुत देर हो गई है। फिर कभी।'

'कोई देर नहीं हुई। आओ, मेरे केबिन में चलते हैं।'

अपने केबिन में कुर्सी पर बैठते ही प्राची सोनवरकर ने पूछा, 'सुबह से देख रही हूँ कुछ घबराए हुए लग रहे हो। क्या बात है।'

'आपसे एक सलाह लेनी है। अनमोल कुछ खुलता-सा लगा।

'हाँ बोलो -'

'मैम इला, ने मेरा जीना मुश्किल कर दिया है।'

'इला - कौन इला - ?'

अचानक उन्हें ध्यान आया कि इला इसकी पत्नी का नाम है। दो साल पहले ही तो शादी हुई थी। वह भी इसी ऑफिस में है। जानती है उसको अच्छी तरह। शादी में गई थीं।

सुबह आकाश में देखी हुई चीलें अचानक उनकी आँखों के सामने आ गर्इं।

'कौन तुम्हारी वाइफ इला' - उनके स्वर में हैरानी थी।

'जी, वह मेरे साथ नहीं रहना चाहती है।' कहते-कहते अनमोल की आँखें डबडबा गर्इं। बड़ी मुश्किल से ये शब्द उसके मुँह से निकले थे।

'अरे - ऐसा कैसे!'

'बस उसने तलाक के पेपर फाइल कर दिए।'

'आखिर - वजह -।

'वजह कुछ नहीं। उसका कहना है कि गाँव वाली जमीनें बेचकर उनके पैसे उसे दे दूँ।'

एकाएक चीलों का झुंड उनकी आँखों के सामने आ गया।

'ऐसा कैसे कह सकती है वह।'

'यही तो पता नहीं। उसके पिता ने उससे ऐसा करने के लिए कहा है। पहले उसकी बहन भी ऐसा कर चुकी है। उसकी बहन ने भी अपने पति से दिल्ली का फ्लैट बिकवा कर सारा पैसा ले लिया था। यह उनके पिता का धंधा है। कहती है मैंने शादी तुमसे इसीलिए की थी। अनमोल ने विस्तार से बताया।

'पर इस कारण से तो कोर्ट में पेपर फाइल नहीं हो सकते।'

'नहीं, इस आधार पर उसने तलाक नहीं माँगा है। उसने मुझ पर हिंसा का आरोप लगाया है और लिखकर दिया है कि मेरे पापा ने भी उसके साथ बदसलूकी करने की कोशिश की है।'

सन्न रह गर्इं प्राची सोनवरकर अनमोल की बात सुनकर। लगा कि सुबह आकाश में देखी चीलें मांस के लिए बहुत जोर-जोर से चीख रही हैं। कुछ समझ में नहीं आया अनमोल को क्या कहें।

'लो पानी पियो...।'

उन्होंने जग से गिलास में पानी भरते हुए कहा -

'तुम्हारे पिता क्या कहते हैं।'

'बहुत परेशान रहते हैं। पूरे घर में मातम जैसा माहौल छाया रहता है। पिता सारा दोष मेरे ऊपर डालते हैं। कहते हैं तुम्हें इसके बारे में पहले पता होना चाहिए था। एक ही ऑफिस में काम करते थे और कहते हैं इस चालाक लड़की की खातिर मैं गाँव की जमीन नहीं बेचूँगा।"

"ठीक कहते हैं वे। गाँव की जमीनें ऐसे नहीं बेची जातीं। मैं इला से बात करूँ।'

'आप कैसे बात करेंगी। उसने यहाँ की नौकरी छोड़ दी है।

'अब कहाँ पर है?'

'पता नहीं। शायद कहीं काम नहीं कर रही।'

'पिछली बार कब मिले थे उससे?'

'करीब छ माह पहले। अब केवल कोर्ट में ही मुलाकात होती है। वह अपने पिता के साथ ही आती है। पिता उसे अकेले नहीं छोड़ते। अब आप बताइए मैं क्या करूँ?

'तुम्हारी मर्जी है उसके साथ रहने की...'

'मर्जी तो है लेकिन...' कहते-कहते वह रुक गया।

'लेकिन ऐसी लड़की के साथ कौन रह सकता है।' प्राची सोनवरकर ने अपने मन-ही-मन उसका वाक्य पूरा कर लिया।

'अब आप बताएँ मैम, मैं क्या करूँ?' उसने किसी तरह आँखों से छलकते हुए आँसुओं को रोक लिया।

अब प्राची सोनवरकर उसे क्या बताएँ कि वह क्या करे। काफी देर तक चुप्पी छाई रह। थोड़ी देर बाद उस चुप्पी को तोड़ते हुए प्राची सोनवरकर ने कहा -

'हाईकोर्ट में मेरे जानकार एक वकील हैं। उनसे बात कर के बताती हूँ क्या हो सकता।'

'जरूर करिए - कुछ ऐसा करिए कि पापा को गाँव के खेत भी न बेचने पड़ें और इला भी मेरे साथ आकर रहने लगे।

'अच्छा देखती हूँ।'

कह तो दिया उन्होंने। लेकिन उन्हें अच्छी तरह पता था कि जिस जाल में अनमोल फँस चुका है उससे उसकी मुक्ति आसानी से नहीं होगी।

कार में बैठते ही एक गहरी खिन्नता ने घेर लिया। गहरी खिन्नता ने। प्रेस कान्फ्रेंस की खुशी पल भर में काफूर हो गई। दिमाग में अनमोल की कहानी गूँजने लगी। बेचारा लड़का - कहाँ फँस गया। उनके पास इसका कोई हल नहीं था। एक आत्मग्लानि भी उन्हें घेरे जा रही थी। उन्होंने कह तो दिया कि हाईकोर्ट के वकील से बात करेंगी लेकिन क्या बात करें। चील की नजर मांस पर पड़ जाती है तो वह मांस खाकर ही चैन लेती है। सोचने का और कुछ करने का वक्त ही नहीं देती।

दरवाजा अमृता की माँ ने खोला था। एक बुझी हुई चुप्पी उनके चेहरे पर विद्यमान थी।

'आइए, अमृता को आप ही का इंतजार था।' बुझी हुई आवाज में उन्होंने कहा।

एक मध्यवर्गीय परिवार का घर था। टी.वी., सोफा, डायनिंग टेबल पर सब कुछ करीने से। दीवारों और पर्दों का रंग एक जैसा। सुंदर और सुव्यवस्थित घर। मन पर जितना अँधेरा था, घर की सजावट में उतना ही उजाला था।

'क्या हुआ कोर्ट में।' उन्होंने कुर्सी पर बैठते हुए कहा।

अमृता से ही पूछ लीजिए। उन्होंने कहा और दूसरे कमरे में चली गई।

कुछ ही देर बाद अमृता उस कमरे में आई। उदास-सा चेहरा, आँखों में वीरानी, दिल में सूनापन।

'क्या हुआ आज...' बिना किसी औपचारिकता के उन्होंने पूछ लिया।'

'क्या होना है। ...आज उसका वकील ही नहीं आया।'

'अरे - ऐसा कैसे! तो फिर?'

'फिर क्या। जज ने बिना कुछ कहे और सुने दो महीने के बाद की तारीख दी है।'

'अब...'

'अब कुछ नहीं।'

समझ नहीं सकीं ऐसा क्यों हो रहा है। इतना तो उन्हें पता था कि जज ने दोनों को कुछ समय साथ-साथ रहने को कहा था, लेकिन वह समय भी गुजर गया। साथ रहने की कोशिश की लेकिन बात एक सीमा से आगे नहीं बढ़ सकी।

'क्या कोई सूरत नहीं है साथ-साथ रहने की?' प्राची सोनवरकर ने मन कड़ा करके अमृता से पूछ ही लिया।

'कैसे रहूँ साथ। उसने मेरे भरोसे को तोड़ा है।' उसने रुआँसी आवाज में कहा।

प्राची सोनवरकर को वह सारा किस्सा पता था। साल भर से कोर्ट का मामला चल रहा था। बहुत अपमान करता था वह अमृता का। हाथापाई की नौबत भी आई थी। हर बार अपनी कमाई का एहसास कराता रहता था। बार-बार अमृता को नौकरी छोड़ने के लिए और घर का काम करने की नसीहतें देता रहता था। अमृता बार-बार यही कहती कि वह अपना अहंकार नहीं छोड़ सकता तो मैं अपनी अच्छी खासी नौकरी क्यों छोड़ूँ।

'एक बार फिर सोच लो।" उन्होंने अमृता को सहज बनाने की कोशिश की। जानती थीं इसका कोई मतलब नहीं है। फिर भी उन्होंने कहा।

'कोई फायदा नहीं है। बहुत सोच-विचार कर ही यह कदम उठाया है। मैंने तो चाहा था कि मैं उसके साथ रहूँ लेकिन वह हर बात पर अपनी शर्त लगाता है। संबंधों में कोई शर्त नहीं होती। लेकिन वह शर्तें ही नहीं, मुझसे सौदेबाजी करता है। सौदेबाजी के आधार पर कोई संबंध न तो बन सकता है और न ही निभ सकता है।' अमृता की आवाज में एक गुस्सा था, बेहद गुस्सा।

'हाँ वो तो है।' उन्होंने उसकी बात का समर्थन किया।

'मैं तो यही चाहती हूँ कि वह मुझे बराबर का इनसान माने। लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं है। पता है एक दिन उसने क्या कहा -'

'क्या...'

'कि हमारे घर में औरतों को पाँव की जूती समझा जाता है। मैं किसी के पाँव की जूती बनकर नहीं रह सकती। आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई उसके पाँव की जूती बनने के लिए नहीं की मैंने। मेरा अपना कैरियर है। मैं अपने काम में इसी तरह ध्यान लगाती रही, तो जल्द ही मैं कंपनी के किसी बड़े ओहदे पर होऊँगी।' अमृता ने गुस्से और क्षोभ से कहा।

'देखो, उससे अलग रहने से तुम्हें मुक्ति तो मिल जाएगी, लेकिन सुकून नहीं मिलेगा। इससे जिंदगी में छाए काले बादल हट नहीं जाएँगे बल्कि और गहरे हो जाएँगे।'

'हाँ वो तो है। पर शायद जिंदगी इससे बेहतर हो जाए और न भी हुई तो इससे ज्यादा खराब तो नहीं ही हो सकती।'

'पर पहले तो तुम्हें बहुत चाहता था।'

'वो बहुत पहले की बात थी। शादी के कुछ ही दिन बाद वह बेहद शक्की हो गया। मेरी जासूसी तक करवाई उसने। मैं कहाँ जाती हूँ, किन-किन लोगों से मिलती हूँ। सब उसने पता करवाया। पुरुष मित्रों के साथ मेरे संबंध मित्रता तक ही हैं या उससे आगे भी बढ़े हैं। सब पता करवाया उसने।'

'तुम्हें कैसे पता...?'

'जासूसी करने वालों ने खुद मुझे बताया। शादी का रिश्ता विश्वास पर टिका होता है। जब उसका मेरे प्रति विश्वास ही नहीं रहा तो इस रिश्ते का कोई मतलब नहीं है।' अमृता ने दृढ़ स्वर में कहा।

'अकेले रहना बहुत मुश्किल होगा तुम्हारे लिए।'

'मैं अकेले रहना नहीं चाहती। शायद कोई भी लड़की शादी के बाद अकेले रहना पसंद नहीं करती। लेकिन साथ रहने के लिए यह क्या जरूरी है कि मैं हर वक्त मुगलों की बाँदी की तरह उसे सलाम करती रहूँ। पढ़ी-लिखी हूँ। मेरे सामने सम्मानजनक जीने के रास्ते खुले हैं।'

'वो तो ठीक है, पर शादी के बाद अकेली लड़की के सामने हजारों परेशानियाँ और मुसीबतें खड़ी हो जाती हैं। बिना वजह शादीशुदा अकेली लड़की शक के दायरे में आ जाती है, कोई भी लड़की।'

'हाँ वो तो है। पर कोई जरूरी नहीं है, सारी उम्र अकेले ही काटी जाए। वक्त और हालात कब कौन-सा मंजर दिखाएँ, पता नहीं।'

'पर जो भी हो सुखद और बेहतर होना चाहिए।'

'कभी-कभी सोचती हूँ कि इंजीनियरिंग और एमबीए की कक्षाओं में मानसिक रूप से आदमी कैसे मैच्योर हो, पति और पत्नी परस्पर कैसे बर्ताव करें इस पर भी पढ़ाया जाना चाहिए। दूसरों की भावनाओं को समझने का माद्दा भी पैदा करना चाहिए अपने आप में। अच्छी तरह समझाया जाना चाहिए कि समानता और स्वतंत्रता का मतलब क्या होता है।'

'आपसी समझ और विश्वास बहुत जरूरी है।'

'हम लोगों ने साथ रहना शुरू किया यह सोचकर कि आपसी समझ, विश्वास और प्रेम, ही हमारे संबंधों की बुनियाद को मजबूत बनाएँगे। लेकिन जब यही नहीं हैं तो बाकी किसी चीज का कोई मतलब नहीं।'

अचानक प्राची सोनवरकर ने पूछ लिया 'यह रिश्ता कैसे हुआ। कोई जान-पहचान वाला परिवार था या तुम लोग पहले से ही जानते थे।'

प्राची सोनवरकर को शायद यह पहले बताया होगा, लेकिन उसे याद नहीं। अचानक यह सवाल बिना वजह बिजली की तरह उनके जेहन में कौंधा और उन्होंने पूछ लिया।

'नहीं, पहले से नहीं जानते थे...।'

'तो फिर कैसे... ?'

'शादी की एक वेबसाइट से जान-पहचान हुई थी।'

'तो परिवार और लड़के के बारे में पूछताछ वगैरह नहीं की थी?'

'सब किया था। परिवार के बारे में भी। लड़के के बारे में भी। उसकी नौकरी के बारे में भी। उसके दोस्तों से भी पूछ लिया था। सब कर लिया था। लेकिन किसी के मन के भीतर क्या चल रहा है। यह कैसे पता चल सकता था। शादी से पहले तो बिलकुल नहीं। मन की बातें तो बाद में ही पता चलती हैं।

'तो फिर बात कैसे बिगड़ गई?'

'बस बिगड़ गईं। उसके भाई ने बिजनेस के लिए पाँच लाख का लोन लिया था। बिजनेस तो चला नहीं, लोन बाकी रह गया। शादी के बाद उसकी माँ कहने लगी कि मैं उसका लोन चुकता करूँ।'

'फिर?'

'मैंने मनाकर दिया, मैं क्यूँ चुकता करूँ, उसके भाई का लोन। कुछ दिन यूँ ही चलता रहा। एक दिन उसकी माँ कहने लगी कि मैं अपने पिता से कहूँ कि वह घर उसके नाम कर दें।'

'अरे! बड़े अजीब लोग थे।'

'बस तभी से हालत खराब होने लगी। मारपीट की नौबत आ गई। हर बात पर उसका हाथ उठ जाता और जाकर अपनी माँ से मेरी शिकायत करता कि मैं उसकी कोई बात नहीं मानती हूँ।'

'तुमने बर्दाश्त कैसे किया? उसी समय पलटकर मारना था।'

'बस वहीं चूक हो गई मुझसे। वही - यदि मैं उसका हाथ रोक देती तो यह नौबत नहीं आती।'

'पुलिस में शिकायत नहीं की?'

'की सबसे की। महिला आयोग से की। सबके सामने गुहार लगाई।'

'फिर... ?'

'फिर क्या...। पुलिस की कुछ महिलाएँ आर्इं। महिला आयोग से कुछ महिलाएँ आर्इं घर पर। उन्हें समझाया-बुझाया। जेल जाने का डर दिखाया। उनके सामने तो मान गए। लेकिन कुछ दिन बाद फिर वैसे के वैसे हो गए।'

'ऐसे लोग समझाने से नहीं मानते।'

'कुछ दिन तो ठीक रहा। फिर इन्होंने नया राग अलापना शुरू किया। मेरी नौकरी ऐसी थी कि अक्सर घर वापस आते-आते रात के नौ-दस बज जाते थे। बस इन सबने मेरे ऊपर शक करना शुरु कर दिया। एक दिन कहने लगे कि इस नौकरी में बहुत टाइम चला जाता है। मैं यह नौकरी छोड़ दूँ और घर में रहकर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाया करूँ। मैंने इतनी पढ़ाई क्या बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने के लिए की थी?"

'तुमने अपने माँ-बाप को बताया था?'

'हाँ, सब बताया था। इन लोगों ने उनसे बात की। उन्हें समझाया। उनके सामने मान भी गए कि आइंदा ऐसा नहीं होगा। लेकिन यह सिलसिला रुका नहीं। और एक दिन तंग आकर मैं अपनी माँ के घर आ गई।'

'बहुत हिम्मत का काम था।'

'पर मैं कब तक सहती। मेरे पिता बार-बार उनके घर गए और मुझे वापस बुलाने के लिए कहा - लेकिन उन्होंने एक नहीं सुनी। मैंने कई बार उसे फोन करने की कोशिश की, लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसने फोन, फेसबुक, वॉट्सअप पर मुझे ब्लॉक कर दिया और एक दिन तलाक के कागज भिजवा दिए।

अमृता की दास्तान सुनकर एक अजीब-सी अनुभूति हुई, दुख, क्षोभ, घृणा वितृष्णा की चीलें कितनी भयानक हो सकती हैं।

'अच्छा चलती हूँ। काफी देर हो गई है। मेरे लायक कुछ काम हो तो जरूर बताना।'

'बस मैम, अब आप ही का तो सहारा बचा है। जितनी जल्दी इस झंझट से मुक्ति मिले उतना ही अच्छा है।' अमृताने कहा।

'जो भी हो मुझे बताना। सब ठीक हो जाएगा।' उन्होंने चेहरे पर फीकी मुस्कान लाते हुए कहा।

बाहर अँधेरा काफी हो गया था। रात के नौ बज चुके थे। कार में बैठते ही एक गहरी उदासी उनके चेहरे पर छा गई, एक गहरी उदासी। कभी अनमोल का चेहरा उनके जेहन में उभरता तो, कभी अमृता का। आज सुबह से चीलें प्राची सोनवरकर के दिमाग पर छाई हुई थीं। वह चीलें इस वक्त भी सामने आग र्इं। कार की पिछली सीट पर बैठते ही वह चीलें उनकी आँखों के सामने मँडराती रहीं। उन्हें पता था कि जब चीलों की आँखों में खून उतर आता है तो बहुत आक्रामक हो जाती हैं। निर्दयी, क्रूर, खूँखार चीलों के स्वभाव में नहीं है किसी को जिंदा छोड़ देना।

कहीं इन चीलों के डर से तो प्राची सोनवरकर ने अपनी माँ की बात नहीं मानी। शायद हाँ - शायद नहीं। - क्या करती माँ की बात मान कर। रोज-रोज कभी अमृता के किस्से सुनने को मिलते, तो कभी अनमोल के। एक डर-सा मन में समा गया। कहीं अमृता जैसा उसके जीवन में घट गया तो - आए दिन खुद माँ ही ऐसे किस्से सुनाती रहती है। एक अनजाना-सा डर उसमें गहरे बैठ गया और पता ही नहीं चला कि कब यह डर इतना मजबूत हो गया कि जीवन में अकेले ही चलने का फैसला कर लिया। माँ कहती है कि वैसे ही जिंदगी का सफर कम ऊबड़-खाबड़ नहीं होता और अकेली औरत के लिए तो बिलकुल भी नहीं। पग-पग पर मुसीबतें साथ देने के लिए तैयार रहती हैं। अकेली औरत को देखकर कई चीलें एक साथ झपट्टा मारती हैं। कैसे बचेगी वह इन चीलों से? कैसे सामना करेगी इन चीलों का? पर प्राची सोनवरकर को पता है कि अकेले इन चीलों से कैसे बचा जा सकता है। कैसे इनके पंखों को तोड़ा और मरोड़ा जा सकता है।


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