बाहर बर्फ गिर रही है, सब जगह बस सफेदी ही सफेदी नजर आ रही है। सप्ताह भर में
ये पूरा शहर नाप लिया है, जिसे मसूरी कहते हैं। सुरकुंडा देवी से लेकर धनोल्टी
के जंगल तक... तुहिन को कोई बहुत मजा नहीं आया। बस कैंप-टी फॉल के ठंडे पानी
में उसने मजा किया...। बर्फबारी के शुरुआती दिन को छोड़कर बाकी सारा टूर ही
बोरिंग लग रहा है। कोई साथी नहीं है, मम्मी-पापा तो बड़े हैं, उनके साथ कितना
खेला जा सकता है। वो बहुत देर तक बाहर बर्फ से खिलौने बनाता रहा था। फिर मम्मी
ने उसे अंदर बुला लिया था, 'बेटा सर्दी बहुत है, बीमार हो जाओगे... आ जाओ, अब
बहुत हो गया।' वो खुद भी थक गया था। अब वो लौटना चाहता था, घर... स्कूल...
दोस्तों के पास।
अक्सर उसे बहुत अकेला लगता है, अकेला ही तो है वो। पापा-मम्मी की अपनी दुनिया
है, फिर वो अपने मन की बात उनसे वैसे खुलकर नहीं कर पाता है, जैसे वो करना
चाहता है। इसलिए उसे स्कूल अच्छा लगता है। हालाँकि पापा नहीं चाहते हैं कि वो
उस स्कूल में तुहिन को पढ़ाएँ... क्योंकि उन्हें वो स्कूल उसके स्तर का नहीं
लगता है, लेकिन मम्मा नहीं चाहती है कि तुहिन उनसे अलग रहे, इसलिए तुहिन उसी
स्कूल में पढ़ रहा है। वैसे वो उस छोटे-से शहर का सबसे बड़ा, महँगा और आलीशान
स्कूल है, फिर भी पापा को वो अपने स्तर का नहीं लगता है। तुहिन कभी-कभी स्तर
या स्टेटस को नहीं समझ पाता। कभी-कभी तो वो पापा को ही नहीं समझ पाता है।
क्यों पापा उसे राहुल के साथ खेलने के लिए... उससे बात करने के लिए मना करते
हैं। जबकि राहुल के पास खेलने के लिए कितने नए-नए आयडियाज होते हैं... सच...
टाउनशिप के गार्डन के उस अमरूद के पेड़ पर चढ़ने में कित्ता मजा आया था। वो
तो... यदि एल्बो की चोट को मम्मी ने देखा नहीं होता, तो मैं पेड़ पर चढ़कर
अमरूद तोड़ना सीख चुका होता। और उस दिन जब मैं चुपके से टाउनशिप से बाहर उसकी
बस्ती में चला गया था... राहुल के दोस्त और हमने सितौलिया खेला था... कितना
मजा आया था, लेकिन जब एक दिन मैंने बातों-बातों में पापा से सितौलिया के बारे
में पूछा तो गुस्सा हो गए... जाहिलों के खेल हैं। तुम्हें घर में ही कितने
सारे गेम्स लाकर दिए हैं, वो खेलो...। फिर धीरे से बोले बेटा इस तरह के खेलों
से चोट लगने का खतरा होता है। उन्होंने अपनी बाईं तरफ के बालों को ऊपर करके
तुहिन को बताया कि कैसे बचपन में उनको सिर पर गिल्ली से चोट लग गई थी।
तुहिन सोचता है... चोट लग सकती है... हाँ... लेकिन फिर उसे याद आया कि मम्मी
तो न तो सितौलिया खेली और न ही गिल्ली डंडा और पेड़ पर भी नहीं चढ़ी... बस
बाथरूम में फिसल गई तो उन्हें चोट आ गई... कितने दिन हाथ पर प्लास्टर लेकर
रहीं...। और राहुल ने तो कभी भी नहीं बताया कि उसे खेलते हुए कभी चोट लगी।
उसके दोस्त भी कितने मजेदार है। वो जितेंद्र... उसने अपने टीचर की कैसी नकल
निकाली थी। यदि उसे देखो न तो लगे कि सचमुच में उनके टीचर ही हों... ऐसे ही तो
करते हैं, सारे टीचर...।
वो खिड़की में खड़ा-खड़ा और ज्यादा उदास हो गया था। वो बायनाक्यूलर से आसपास
देख रहा था, तभी उसकी नजर जरा नीचे के एक छोटे-से घर के अहाते में गई थी...
लंबे-लंबे ओवरकोट से पहने तीन बच्चे एक-दूसरे पर बर्फ फेंक रहे थे... कितनी
मस्ती कर रहे थे। और एक वो है... उसे फिर से राहुल और उसके दोस्त याद आए। उस
शाम जब वो स्कूल बस से टाउनशिप के बाहर उतरा तब तेज बारिश हो रही थी। मम्मा भी
शायद किसी पार्टी में गईं थी। बारिश से बचने के लिए वो शेड में खड़ा था, तभी
देखा कि राहुल अपनी बहन रोशनी और बस्ती के दोस्तों के साथ सड़क पर जमा हुए
पानी में उछल-उछल कर खेल रहे थे। उसकी भी मन एकदम से किया कि वह भी दौड़कर
वहाँ पहुँच जाए, लेकिन तभी मम्मा की कार उसके सामने आकर रुक गई। उसका तो दिल
ही टूट गया। वो फिर से उदास हो गया।
उसने होटल के कमरे में पर अपनी नजर दौड़ाई थी। बड़ा, खुला और आलीशान कमरा था।
बेड के सामने वॉल-टू-वॉल विंडो थी... बड़े और भारी पर्दे... छोटी-सी पेंट्री,
जिसमें एक इंडक्शन प्लेट थी, चाय-कॉफी का सारा सामान था और तरह-तरह के
बिस्किट... एक छोटा फ्रीज था, जिसमें अंडे, ब्रेड, कोल्ड-ड्रिंक्स,
ड्रिंक्स... रखे थे। पापा ने इसमें आइसक्रीम, चॉकलेट और कुछ फ्रूट्स भी लाकर
रख दिए थे। पार्टीशन के पीछे डायनिंग टेबल थी और उसके पीछे ही एक कॉरीडोर...
जो पास के छोटे कमरे तक ले जाता था... कॉरीडोर में ही एक दरवाजा था, जो वॉशरूम
में खुलता था, हाँ टीवी भी तो था। फिर भी तुहिन उदास है...और बहुत ऊबा हुआ भी।
पापा-मम्मी एक दोस्त के यहाँ पार्टी में गए हैं। उसे ये बड़ों की पार्टियाँ
जरा भी नहीं भाती है। हलो अंकल... हलो आंटी, हलो दीदी, हलो भइया...हरेक से
कहना और कोई गाल थपथपाता है तो कोई गालों की चिकोटी काटता है... कोई किस कर
जाता है। उसे ये सब बड़ा अजीब लगता है। मजा तो आता नहीं, उल्टे चिढ़ आती है,
ऊब होने लगती है। हालाँकि कई दोस्त भी मिलते हैं, लेकिन सब उसी तरह के जंजाल
में फँसे होते हैं... पापा-मम्मी उन्हें अपने दोस्तों से मिलवाते हैं, हलो...
हाऊ आर यू... फाइन... थैंकयू... ब्ला...ब्ला... ब्ला...। सोचते-सोचते वो
रुआँसा हो गया। थोड़ी देर टहलता रहा... फिर उसने अपना कंसोल मूव किट वाला पीएस
4 निकाला... टीवी से फिट करके खेलने लगा। थोड़ी देर लॉन टेनिस खेलता रहा, फिर
जरा रूका। फ्रिज में से एक आइसक्रीम निकाली और उसे खा ली। फिर खेलने लगा... जब
खेलते-खेलते शरीर गर्म हो गया और पसीना आने लगा तब खिड़की के शीशों को खोल
दिया। कँपकँपाती हवाएँ कमरे में घुस गई। वो भी काँप गया और खिड़की बंद कर ली।
पलंग पर लेट गया... फिर से उदासी सिर उठाने लगी थी... अकेलापन घिरने लगा तो
उसे रोना आ गया। रोते-रोते पता नहीं कब उसकी नींद लग गई...।
रात न जाने कब मम्मा ने थर्मामीटर लगाया उसे पता नहीं। नींद तब खुली जब मम्मा
सिरहाने बैठकर ठंडे पानी की पट्टियां बदल रही थी। सुबह होते ही पापा ने होटल
मैनेजर को फोन किया और डॉक्टर आ गए। उन्होंने थर्मामीटर लगाया पल्स देखी और
स्टेथोस्कोप लगाकर देखा कुछ दवाएँ लिखी। कुछ बातें तुहिन से पूछी और फिर
मुस्कुराकर बोले कि सर्द-गर्म होने से फीवर आ गया है। शाम तक तुम ठीक हो
जाओगे। तुहिन के लिए अब ये बात बेमानी है। उसे तो बस घर जाना है। वो यहाँ ऊब
गया है।
पापा हम घर कब लौटेगें? - उसने प्रखर से पूछा था।
बेटा कल का दिन और है, परसों तो हम अपने घर होंगे। - प्रखर ने उसके सिर पर हाथ
फेरते हुए कहा। फिर बात आगे बढ़ाने के लिए पूछा - क्यों मजा नहीं आया यहाँ?
बोर हो गया मेरा बच्चा...?
तुहिन थोड़ा असमंजस में आ गया। सोचने लगा यदि कहेगा कि हाँ तो पापा को बुरा
लगेगा... इसलिए कुछ सोच कर बोला - नहीं, मजा तो आया, लेकिन अब घर की याद आ रही
है। फिर स्कूल भी तो खुल गए हैं न...! विंटर वैकेशन तो सिर्फ एक वीक की होती
है पापा... हमें तो 10 डेज हो गए हैं। बहुत लॉस होगा न...। और खुद ही अपनी
चतुराई पर मुग्ध भी हो गया।
बस बेटा कल तुम एकदम ठीक हो जाओ... देहरादून तक की रोड ट्रिप है, फिर तो हम
जल्दी ही घर पहुँच जाएँगे।
तुहिन को याद नहीं, वो कब से बस एयर ट्रेवल ही कर रहा है। आसपास कहीं जाना हो
तो रोड ट्रिप पर तो पजेरो है ही। सफर का यही रूप तुहिन की स्मृति में है। उस
पॉश सी लोकेलिटी के टाउनशिप में प्रखर की लक्जरी विला है। सामने छोटा-सा लॉन
है और छत पर स्विमिंग पुल...। गोया कि ऐशो आराम की हर चीज वहाँ हाजिर है।
प्रखर और मीरा तुहिन के जीवन को सारी खुशियों से भर देना चाहता है। क्यों
नहीं, आखिर तुहिन उनकी जिंदगी में आया भी जरा देर-से था।
दोनों ही अपने इकलौते बेटे पर जान छिड़कते थे। इच्छा पैदा होने से पहले पूरी
कर देते थे। लेकिन तुहिन का मन उन सारी चीजों के पीछे भागता है, जो उसे हासिल
नहीं है... जैसे उस दिन मम्मा ने घर में पार्टी रखी थी। तुहिन का सटरडे का ऑफ
था... राधा आंटी पार्टी की तैयारियों में मम्मा का हाथ बँटा रही थी, तभी राहुल
के स्कूल से फोन आया था कि राहुल की तबीयत खराब है, उसे यहाँ से ले जाओ।
मम्माको पार्टी में राधा आंटी की मदद की जरूरत थी, इसलिए उन्होंने दरियादिली
दिखाते हुए राधा आंटी को कह दिया कि राहुल को यहीं ले आ... तुहिन के कमरे में
आराम कर लेगा... तू काम भी कर लेना और राहुल को देख भी लेना। राहुल जैसे ही
आया मम्मा ने गायत्री आंटी को बुलाकर उसे दिखा दिया। गायत्री आंटी ने उसे घर
से ही कुछ दवाएँ दे दी। थोड़ी देर में ही राहुल का बुखार उतर गया। राधा आंटी
ने उससे खाने के लिए पूछा तो उसने बताया कि उसका टिफिन वैसा ही पड़ा हुआ है।
जब राहुल ने अपना टिफिन खोला तो आलू की सूखी सब्जी, आम का तेल सरसों के तेल
वाला अचार और पूड़ी देखकर तुहिन का मन डोल गया। जाने कैसे राहुल ने भाँप लिया।
उसने अपना पूरा टिफिन तुहिन के सामने रख दिया। चूँकि मम्मा का पूरा ध्यान
पार्टी पर था, इसलिए उन्होंने राधा आंटी को पूरी छूट दे रखी थी। जब तुहिन ने
राहुल का टिफिन फिनिश कर दिया तो उसे जरा अपराधबोध आ गया। आखिर राहुल तो भूखा
ही होगा न... उसका टिफिन भी तो तुहिन ने खत्म कर दिया। उसे थोड़ी झिझक भी हुई
कि वो राहुल को वही बोरिंग नट चॉकलेट्स या फिर पैक्ड केक देगा...! जबकि उसने
तो अभी-अभी राहुल का कितना डिलिशियस टिफिन फिनिश किया है। फिर भी... उसे लगा
कि राहुल के खाने के लिए उसे कुछ तो देना ही चाहिए। वो किचन में गया उसने
फ्रिज में से कुछ फ्रुट्स निकाले, केक, बिस्किट और चॉकलेट्स एक ट्रे में सजाकर
अपने कमरे में ले आया। उसने सब कुछ राहुल के सामने रख दिया। राहुल की आँखें
चौंधिया गई। उसने भी मन भर कर खाया। तुहिन को भी तृप्ति हुई।
दोनों एक-दूसरे के साथ इस तरह बिना किसी डर और आशंका के पहली बार थे। अक्सर तो
मम्मा से छुपकर ही वो राहुल के पास जा पाता था। राहुल तो खैर डरता ही था।
तुहिन को याद आता है कि जब काम की बात करने के लिए पहली बार राधा आंटी इस घर
में आई थीं, तो साथ में राहुल भी था। वो किस तरह सहमा हुआ था और किस तरह से घर
को देख रहा था। तुहिन को अच्छा भी लगा था कि उसका घर कितन खूबसूरत है...।
मम्मा ने लेकिन राहुल से जरा भी बात नहीं की। तुहिन उसे देखकर मुस्कुराया तो
राहुल ने भी गर्दन झुकाते हुए बहुत शर्मीली-सी मुस्कुराहट से जवाब दिया था।
उसे लगा था कि राहुल से दोस्ती की जा सकती है। फिर उस दिन जब राहुल को उसने
अपनी बर्थ-डे गिफ्ट दिखाई तो तुहिन देख नहीं पाया था कि पापा जरा नाराज थे।
राहुल के जाते ही पापा ने उसे अपनी आँखें बड़ी-बड़ी करके कहा था कि राहुल से
दोस्ती करने के बारे में सोचना भी मत। तुहिन थोड़ा उलझा था... उसकी आँखों में
क्यों लहराया था, लेकिन पापा का रुख देखकर उसने कोई प्रतिवाद नहीं किया था।
मम्मा का तो कुछ उसे कभी समझ नहीं आया... कभी तो राधा आंटी के साथ खूब
हँसती-बतियाती है तो कभी कोई बात नहीं करती है... लेकिन उसे राहुल का साथ
अच्छा लगता है।
सारे सफर में उसके मन में कई विचार आते-जाते रहे हैं। कई सारे चित्र कौंधे
हैं। पापा साल में दो बार बाहर घुमाने ले जाते हैं। हर बार दूर ही जाते हैं और
हर बार प्लेन में ही सफर करते हैं। कई बार उसे ये भी लगता है कि वो कोई खरीदा
हुआ खिलौना है, जिसे कहीं भी लाया-ले-जाया जा सकता है। कई बार तुहिन का जहन
उलझ जाता है। आखिर बच्चा ही तो है... ठीक वैसा होता है कि दोपहर में कोई इतनी
गहरी नींद सोया हो कि जागकर उसे लगे कि अरे सुबह हो गई...। तुहिन के साथ भी
होता है। सफर में सो जाता है, जागकर उसे या तो बर्फ की कल्पना होती है या फिर
समुद्र की लहरों की...। जरा देर लगती है उसे ये मानने में कि वो अपने शहर में
आ गया है और अपने घर में ही है।
घर आ गए थे... रविवार की छुट्टी मनाकर सोमवार को सब अपने-अपने काम में लग
जाएँगे। मम्मा भी आजकल पापा के साथ ऑफिस जाने लगी हैं। घर में क्या करें?
तुहिन स्कूल में रहता है, स्कूल से आकर गिटार क्लास चला जाता है... कुछ-न-कुछ
तो उसका भी चलता ही रहता है।
तुहिन अपने दोस्तों के साथ ग्राउंड में लंच कर रहा था। कोई पेड़ पर चढ़ रहा था
तो बच्चों का कोई ग्रुप खेल रहा था। कुछ बच्चे लाइन बनाकर दौड़ लगा रहे थे...
आगे वाला बच्चा अपने मुँह पर अपनी खड़ी हथेली रखे हुए था। अंगूठा उसकी चिन को
कवर कर रहा था और पहली अँगुली नाक पर... मुँह से कोई आवाज निकाल रहा था और
उसके पीछे 8-10 बच्चे दौड़ रहे थे... कतार में... तुहिन ने सरल से पूछा था...
ये क्या कर रहे हैं? सरल ने उनकी तरफ देखते हुए उपहास में कहा था ट्रेन...
ट्रेन चला रहे हैं। ट्रेन... तुहिन की आँखों में कौतूहल जागा था। फिल्मों
में... टीवी सीरियल्स और कार्टून फिल्मों में भी ट्रेन देखी थी, असली जिंदगी
में नहीं देखी कभी। सफर करना तो दूर की बात है। उसने सरल से पूछा - तूने कभी
ट्रेन में ट्रेवल किया?
सरल मुस्कुराया - हाँ, इन छुट्टियों में हम चाचा के गाँव गए थे न... ट्रेन से
ही। - फिर खुद ही पूछा - तूने कभी ट्रेन में ट्रेवल नहीं किया?
तुहिन के चेहरे पर मायूसी उभरी थी... वो हाँ-ना कुछ नहीं कह पाया। सरल ने उसके
चेहरे के भावों से जवाब बूझ लिया। दोनों चुप रहे। तुहिन की मासूम उत्सुकता ने
जल्द ही मायूसी को ढक लिया। - कैसा लगता है? ट्रेन में सफर करना...?
मजा आता है यार... जब हम पिछले साल चाचा की बारात में गए थे न... तब तो इतना
मजा आया था कि पूछो मत...। - सरल ने उत्साह से बताया था। - दादाजी ने पूरी
बोगी ही बुक करवा ली थी। करीब 100 लोग सो सकते हैं एक बोगी में...। दो दरवाजे
होते हैं। दोनों तरफ से दरवाजे बंद कर लिए और सारे बच्चों ने क्या उधम मचाया
था... भइया और दीदी ने कई तरह के गेम्स खिलवाए थे हमें। हमने लुकाछिपी खेली...
हर स्टेशन पर ट्रेन रुकती तो बच्चों की डिमांड्स होती... कभी आइसक्रीम की तो
कभी कोल्डड्रिंक्स की... चिप्स... चॉकलेट, कोकोनट... लेमनचूस... भेल... बहुत
मजा आता है। - इतना बोलकर उसने तुहिन के चेहरे को गौर से देखा था। उसे लगा था
कि तुहिन को भी मजा आ रहा है। वो और भी कुछ सुनना चाहता है।
उसने बताया कि हम सब गाँव गए थे, तब भी बहुत मजा आया था। - पता है रेल और घर
में कोई ज्यादा फर्क नहीं होता है। जैसे हम घर में सो सकते हैं, घूम सकते हैं,
खा-पी-खेल सकते हैं, उसी तरह रेल में भी कर सकते हैं। बस यूँ समझ कि रेल चलता
फिरता घर है, जो हमें दूसरे शहर पहुँचा देता है। - सरल की इतनी दिलचस्प बातचीत
में तुहिन को बहुत मजा आ रहा था, साथ ही उसकी उत्सुकता बढ़ गई थी। उसे लगा कि
पापा कभी ट्रेन में क्यों नहीं ले जाते हैं? उसने तय किया कि इस बात तो पापा
से कहेगा ही कि वो ट्रेन से जाना चाहता है। और दो-चार घंटे नहीं... दो-चार दिन
तक... ट्रेन में ही रहना चाहता है। बड़ा उत्साहित रहा वह स्कूल में। शाम को जब
तीनों खाने की टेबल पर बैठे तो उसने अपनी प्लेट में दाल-चावल को चम्मच से
हिलाते हुए प्रखर से कहा - पापा हम ट्रेन से क्यों सफर नहीं करते हैं? कितना
मजा आता होगा न...!
जाने प्रखर किस मनस्थिति में था, चिढ़कर बोला... - ट्रेन में सफर करना चाहते
हो...? कितने दिन खराब होते हैं, पता भी है... हर बार तुम्हें एयर ट्रेवल
करवाता हूँ, कितना पैसा खर्च करता हूँ, लेकिन तुम्हें वही ट्रेन में सफर करना
है। क्या रखा है ट्रेन में सफर करने में...! - प्रखर के चिढ़ने से तुहिन सहम
गया। चुपचाप खाना खाया और सोने चला गया। न मीरा को ये अहसास हुआ और न ही प्रखर
को कि उसका इस व्यवहार ने तुहिन को बहुत आहत किया है।
उस दिन जब तुहिन घर में था और मम्मा को शाहीन आंटी के साथ शॉपिंग पर जाना था।
तभी राधा आंटी आ गईं थीं। मम्मा ने राधा आंटी को तुहिन की देखभाल के लिए कहा
तो उन्होंने राहुल के स्कूल से आ जाने की बात कही। मम्मा ने कहा राहुल को भी
यहीं ले आ... दो-तीन घंटे में हम लौट आएँगे, तब तू चली जाना। ट्रेन तुहिन के
मन में बस अटकी पड़ी थी। राहुल से भी उसने ट्रेन के बारे में ही सवाल किया।
राहुल ने भी बताया कि वो अपने गाँव जाता है तो ट्रेन में ही जाता है। बहुत
भीड़ होती है यार... लेकिन जब जगह मिल जाती है तो क्या मजा आता है!फिर उसने
आगे जोड़ा - आजकल तो बाबा रिजर्वेशन करवा लेते हैं। तो जगह की कोई मारा-मारी
नहीं होती है। एक पूरी सीट आपको मिलती है... बैठने... सोने के लिए। चलता-फिरता
घर ही हुआ करती है ट्रेन तो... - राहुल ने पूरी लापरवाही से उसे बताया। तुहिन
ने राजदारी के अंदाज में राहुल से पूछा - तू अपने गाँव ले जाएगा मुझे ट्रेन
से?
राहुल के मन में थोड़ा डर-सा उभरा... हाँ, लेकिन कैसे?
तुहिन ने थोड़ा साहस जुटाया... आखिर वो राहुल से बड़ा जो है। - देख तुझे तो
मालूम है, तेरा गाँव कहाँ हैं?
राहुल ने सिर हिलाया। तुहिन से फिर से कहा - और ये भी कि तेरे गाँव जाने वाली
ट्रेन कितनी बजे जाती है?
हाँ...
तो फिर...?
फिर माने... - राहुल को समझ ही नहीं आ रहा था कि आखिर तुहिन कहना क्या चाहता
है? - देख मेरे मम्मा-पापा मुझे ऐसे तो जाने नहीं देंगे। यदि तू अपने घर में
भी बताएगा तो तेरी माँ तुझे जाने नहीं देंगी। तो हम किसी को कुछ भी बिना बताए
घर से चले जाएँगे। ट्रेन में बैठ जाएँगे... तेरे गाँव पहुँच कर भइया से फोन
करवा देंगे। बस... इट्स सिंपल...। - तुहिन ने सारा प्लान समझाया।
राहुल थोड़ा डर गया... - यदि तेरे या मेरे पापा-मम्मी को पता चल जाएगा तो बहुत
पिटाई होगी... - उसने जरा सहम कर कहा।
तुहिन ने भी इस विषय पर सोचा... फिर बोला - हाँ, यार पिटाई तो होगी। - मायूसी
छा गई।
लेकिन फिर उसने राहुल के दोनों कंधों को पकड़ते हुए उसकी आँखों में अपनी आँखें
डाली - तू मेरा दोस्त है न... ?
राहुल ने मासूमियत से अपनी गर्दन को जोर-जोर से हिलाया। - तो देख... मार तो
मुझे भी पड़ेगी... क्या तू अपने दोस्त के लिए मार नहीं खा सकता क्या?
राहुल को तुहिन की बात ने भावुक कर दिया। उसने सोचा मम्मी-पापा अपने बच्चों को
प्यार करते हैं... गलत बात पर मारते तो हैं, लेकिन कोई मार थोड़ी डालेंगे।
दोस्त के लिए इतना नहीं कर सकता। आखिर तुहिन मुझसे कितना प्यार करता है।
सब कुछ तय हो गया। तीन दिन बाद राहुल और तुहिन टाउनशिप के बाहर मिले... और
चुपके से दोनों रेलवे स्टेशन चले गए। इससे पहले तुहिन ने अपनी गुल्लक में से
सारे पैसे निकाल लिए। पकड़े जाने का डर था, इसलिए दोनों जल्दी ही रेलवे स्टेशन
पहुँच गए। मीरा तुहिन के लिए दफ्तर से जरा जल्दी आ जाती है। घर पहुँची तो
तुहिन तब तक घर पहुँचा नहीं था। यूँ 10-15 मिनट ऊपर-नीचे होता ही है, मीरा ने
सोचा ट्रेफिक की वजह से जरा देर हो सकती है। इसलिए ज्यादा परेशान नहीं हुई,
लेकिन जब आधा घंटा होने आया तो मीरा का माथा ठनका। उसने स्कूल फोन लगाया।
स्कूल से पता चला कि छुट्टी तो तय वक्त पर ही हुई है। जब तुहिन के लिए पूछा तो
उसकी क्लास टीचर को बुलवाया गया। उसने बताया कि उसने खुद तुहिन को बस में
बैठाया है। बस ड्राइवर को बुलाया तो उसने बताया कि उसने तुहिन को टाउनशिप के
गेट पर खुद उतारा है। बल्कि उसने ये भी बताया कि उसके साथ बैठी लड़की ने बस
रुकवा कर उसकी वॉटर बॉटल तो वह बस में ही भूल गया था उसे दी। फिर बस चली। मीरा
ने प्रखर को फोन लगाया। दोनों ही घबराने लगे थे।
वक्त बहुत खराब चल रहा है। और इस छोटे से कस्बे में प्रखर ने पिछले 10 सालों
में बहुत तरक्की की है। बच्चों के अपहरण और फिरौती के कितनी खबरें रोज सुनने
में
आ रही है? दोनों बुरी तरह से घबरा गए... पता नहीं बच्चा कहाँ है? और कौन उसे
लेकर गया...? अभी तक कोई फोन तो नहीं आया। भगवान करे सब ठीक हो। लेकिन अब क्या
करें?
प्रखर को एकाएक सर्वेश की याद आई... सर्वेश को फोन करता हूँ। उसने जैसे ही फोन
हाथ में लिया मीरा चीखी थी... नो पुलिस प्रखर...। पुलिस को इन्वॉल्व मत करो...
प्लीज... मुझे मेरा बच्चा सुरक्षित चाहिए...। प्रखर ने मीरा को कंधे से
पकड़ा... - मीरा काम डाउन... अभी तक हमें कोई फोन नहीं आया है। इतना खराब कैसे
सोच सकती हो? हो सकता है, वो अपने किसी दोस्त के यहाँ गया हो... या कहीं फिल्म
देखने चला गया हो। या कहीं खेल ही रहा हो। एक बार सर्वेश से बात तो कर लेने
दो... दोस्त है मेरा... राय देगा कि क्या करना चाहिए। प्लीज... हैव फेथ इन मी।
मीरा ने डबडबाई आँखों से प्रखर को देखा तो एकबारगी प्रखर का विश्वास भी डगमगा
गया, लेकिन उसके पास विकल्प बहुत कम थे। सर्वेश से बात हुई। सर्वेश ने कहा बस
एक घंटा... शहर में तीन दिन बाद राष्ट्रपति का कार्यक्रम है, इसलिए सिक्योरिटी
बहुत टाइट है। कोई अपहरण करने की हिमाकत तो खैर नहीं कर सकता है। तुम दोनों
शांत रहो और प्रे करो... बस। आश्वासन के उस एक घंटे को मीरा ने प्रार्थना का
घंटा बना लिया और प्रखर ने मन्नतों का। वक्त जैसे रुक गया था, प्रखर-मीरा के
लिए और तुहिन-राहुल के लिए भी। गाँव जाने वाली ट्रेन लेट थी। राहुल ने तुहिन
को यार्ड में खड़ी ट्रेन का मुआयना करवाया। तुहिन अभिभूत था... हाँ ट्रेक पर
और ट्रेन की गंदगी से थोड़ा निराश था, लेकिन ट्रेन में सफर करने को लेकर उसमें
बहुत रोमांच था।
दोनों लौटकर फिर से प्लेटफार्म पर आ गए थे। तुहिन को प्लेटफार्म पर लगे
स्टॉल्स और ठेलों की चीजें लुभा रही थी... वो अभी कुछ खरीदने के बारे में सोच
ही रहा था कि एकाएक सामने सर्वेश अंकल दिख गए। तुहिन की हवाइयाँ उड़ने लगी।
हलो अंकल... - बमुश्किल मुँह से निकला।
सर्वेश ने तुहिन के सिर पर हाथ रखा। - बेटा आप यहाँ क्या कर रहे हैं? आपको पता
है कि आपके पापा-मम्मी कितने परेशान हैं?
तुहिन ये सुनकर रोने लगा। राहुल भी डर गया... सर्वेश ने दोनों को सांत्वना दी।
और दोनों को गाड़ी में बैठाकर प्रखर को फोन किया। प्रखर को बताया कि तुहिन मिल
गया है, लेकिन ये हिदायत भी दी कि बच्चे से शांति से पेश आना... गुस्सा मत
करना। दोनों बच्चे सहमे हुए हैं।
तुहिन और राहुल को लेकर सर्वेश घर पहुँचा। मीरा के तो आँसू ही नहीं रुक रहे थे
वो तुहिन को गले लगाकर रोए ही जा रही थी। प्रखर तो बावला-सा हो गया था। जब
भावनाओं का तुफान थमा तो प्रखर ने तुहिन से पूछा - कि बेटा आप कहाँ जा रहे थे
और क्यों?
तुहिन ने सिसकते हुए बताया - पापा मैं राहुल के गाँव जा रहा था। ट्रेन में
बैठकर... मुझे ट्रेन में ट्रेवल करना था... सॉरी पापा...। अब कभी ट्रेन में
नहीं जाऊँगा। सॉरी... - तुहिन जोर-जोर से रोने लगा। तुहिन को रोता देखकर राहुल
भी रोने लगा। मीरा ने राहुल को गोद में ले लिया।
सर्वेश ने एक अर्थपूर्ण नजर प्रखर पर डाली। प्रखर बुदबुदाया... मैं अपने अभाव
तुहिन में भर रहा था। बिना यह सोचे कि तुहिन के अपने अभाव होंगे। मेरे अभावों
की पूर्ति उसमें नहीं हो सकता है, मुझे उसके अभावों को ही भरना होगा।
मीरा उसकी बातों का अर्थ समझ रही थी, सर्वेश समझने की कोशिश कर रहा था।