" समालोचना का अर्थ पक्षपात रहित होकर न्यायपूर्वक किसी पुस्तक के यथार्थ गुण-दोष की विवेचना करना और उसके ग्रंथकर्ता को एक विज्ञप्ति देना है क्योंकि रचित ग्रंथ के रचना के गुणों की प्रशंसा कर रचयिता के उत्साह को बढ़ाना एवं दोषों को दिखलाकर उसके सुधार का यत्न बताना कुछ न्यून उपकार का विषय नहीं है। " - बदरीनारायण चौधरी ' प्रेमघन '
नवजागरणयुगीन साहित्यिक अभिरुचि का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करते हुए रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि उस जमाने में 'यद्यपि देश में नए-नए विचारों और भावनाओं का संचार हो गया था, पर हिंदी उनसे दूर थी। लोगों की अभिरुचि बदल चली थी, पर हमारे साहित्य पर उसका कोई प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता था। शिक्षित लोगों के विचारों और व्यापारों ने तो दूसरा मार्ग पकड़ लिया था, पर उनका साहित्य उसी पुराने मार्ग पर था... प्रायः सभी सभ्य जातियों का साहित्य उनके विचारों और व्यापारों से लगा चलता है, यह नहीं कि उनकी चिंताओं और कार्यों का प्रवाह एक ओर जा रहा हो और उनके साहित्य का प्रवाह दूसरी ओर।' (चिंतामणि : पहला भाग, पृ. 191)
जाहिर है कि शुक्ल जी समेत तमाम विचारकों एवं आलोचकों ने ठीक ही उस संक्रांति काल में 'हिंदी साहित्य को नए मार्ग पर खड़ा' करने का श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र समेत उनकी मंडली के रचनाकारों, विचारकों और समाज सुधारकों को दिया है। अपने विचारधारात्मक रुझान के तहत नए अंदाज में इस तथ्य को रेखांकित करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है कि "भारतेंदु युग का साहित्य जनवादी इस अर्थ में है कि वह भारतीय समाज के पुराने ढाँचे से संतुष्ट न रहकर उसमें सुधार भी चाहता है। वह केवल राजनीतिक स्वाधीनता का साहित्य न होकर मनुष्य की एकता, समानता और भाईचारे का भी साहित्य है। भारतेंदु स्वदेशी आंदोलन के ही अग्रदूत न थे। वे समाज-सुधारकों में भी प्रमुख थे। स्त्री-शिक्षा, विधवा-विवाह, विदेश-यात्रा आदि के वे समर्थक थे।" (भारतेंदु युग, पृ. 10)
स्पष्ट ही नवजागरण काल में 'हिंदी नए चाल में ढली' और आलोचना समेत तमाम साहित्यिक विधाओं में आधुनिक दृष्टि का प्रवेश हुआ। इस काल के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता इसमें निहित सामाजिक उत्तरदायित्व की चेतना है। यह चेतना भारतेंदु और उनके जिन साथी साहित्यकारों में प्रखरता के साथ मिलती है उनमें बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त, प्रताप नारायण मिश्र, बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' शामिल हैं।
यह ठीक है कि भारतेंदु के पहले भारतीय काव्यशास्त्र को उपजीव्य बनाकर रचित रीतिकालीन काव्यशास्त्रीय विवेचना के रूप में हिंदी आलोचना का जन्म हो चुका था, पर उसमें न तो नए सिद्धांतों का प्रतिपादन मिलता है और न ही किसी कविता का सूक्ष्म विवेचन। संभवतः इसी वजह से रीतिकालीन लक्षण ग्रंथों के बारे नंददुलारे वाजपेयी ने लिखा है कि "इन्हें आलोचना ग्रंथ किस अर्थ में कहा जाए, यह भी एक समस्या ही है।" (हिंदी साहित्य : बीसवीं शताब्दी, पृ. 55)। वस्तुतः रसवादी और अलंकारवादी दृष्टि से रचित रीतियुगीन लक्षण ग्रंथों में तत्कालीन सामाजिक जीवन के अभ्यांतरीकरण की कोई स्थिति नहीं दिखाई पड़ती। इसलिए उसमें जीवन का मर्म व्यंजित नहीं हो सका। मुक्तिबोध की शब्दावली उधार लेकर कहें तो रीतिग्रंथ 'बोधहीन बौद्धिकता' के शिकार प्रतीत होते हैं।
साहित्यालोचन के क्षेत्र में ऐसी जब्दी हुई मनोवृत्ति से भिन्न ही नहीं, बल्कि विपरीत भारतेंदु और उनके साथी रचनाकार-आलोचक साहित्य को 'रस युक्त वाक्य' या 'रमणीय अर्थों को प्रतिपादित करनेवाली शब्द संरचना' के बजाय जब 'जनसमूह के हृदय का विकास' या 'जनसमूह के चित्त का चित्रपट' कहते हैं तो इससे साहित्य के बारे में उनकी समाज सापेक्ष आधुनिक दृष्टि का पता चलता है। अपनी 'भारतेंदु युग' पुस्तक में बालकृष्ण भट्ट के निबंध 'साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है' के महत्व को रेखांकित करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने भट्ट जी से 'हिंदी आलोचना का जन्म' मानते हुए कहा है कि "लेख के नाम से ही भट्ट जी का आधुनिक दृष्टिकोण प्रकट हो जाता है। साहित्य रसात्मक वाक्य या कवि के अंतःपुर का लीला-विनोद न होकर जनसमूह के हृदय का विकास है।" (पृ. 107)।
नवजागरण काल में रचित साहित्य की सभी विधाओं में वैचारिकता का आग्रह दिखाई पड़ता है। शुक्ल जी ने इसे ठीक ही 'गद्य युग' कहा है। वजह यह कि रीतिकालीन कविता के विपरीत इस युग के कवियों की ब्रजभाषा में रचित कविताओं में भी गद्य का पूरा का पूरा वाक्य छंदों में पिरो देने की प्रवृत्ति नजर आती है। चूँकि विचार को प्रायः पद्य के बजाए गद्य में व्यक्त करना सहज होता है, इसलिए इस युग में विभिन्न साहित्यिक एवं सामाजिक मुद्दों पर पत्र-पत्रिकाओं में अनेकानेक निबंध एवं टिप्पणियाँ प्रकाशित होने लगीं जिनसे कालांतर में आलोचना का विकास हुआ। इन निबंधों एवं टिप्पणियों में तत्कालीन भारतीय समाज की आवश्यकताओं तथा जनता की परिवर्तित अभिरुचि के मद्देनजर रचना की अंतर्वस्तु एवं रूप में परिवर्तन की जरूरत पर बल दिया गया है। उदाहरण के लिए भारतेंदु ने जब 'दृश्य काव्य अथवा नाटक' (1883) निबंध लिखा तो उनका मकसद समसामयिक जनाभिरुचि के तहत प्राचीन नाट्यशास्त्र की उपयोगिता पर विचार करते हुए यह स्पष्ट करना था कि बदली हुई सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति में 'हिंदी के नाटकों का स्वरूप कैसा होना चाहिए'। गौरतलब है कि वे अपने समय के नाटकों में प्राचीन नाट्य-कृतियों की तरह अस्वाभाविक एवं अलौकिक दृश्यों को दिखाए जाने के सख्त खिलाफ थे।
साहित्यदर्पणकार पंडितराज विश्वनाथ के एक सुविख्यात श्लोक में 'काव्यानंद' को 'ब्रह्मानंद सहोदर' कहा गया है :
"सत्वोद्रेकादखंडस्वप्रकाशानंद चिन्मय:
वेद्यांतरस्पर्शशून्यो ब्रह्मास्वादसहोदर:
लोकोत्तरचमात्कारप्राण: कैश्चित्प्रमातृभि:
स्वाकारवद भिन्नत्वेनायमास्वाद्यते रसः॥"
पंडितराज विश्वनाथ का नाम लिए बगैर उनके 'साहित्यदर्पण' में उल्लिखित 'ब्रह्मानंद सहोदर' जैसी आध्यात्मिक शब्दावली की बखिया उधेड़ते हुए बालकृष्ण भट्ट लिखते हैं : "लोग कहते हैं ब्रह्मानंद का-सा कोई दूसरा आनंद नहीं है पर सच पूछिए तो ऐसा समझनेवालों ने खूब डूबकर नहीं सोचा। कितने ऐसे आनंद हैं जिनके आगे ब्रह्मानंद झख मारता है; कवि लोग शृंगार आदि नौ रसों का स्वरूप लिखते ही हैं 'ब्रह्मानंद सहोदर' अर्थात ब्रह्म के ज्ञान और साक्षात्कार में जो सुख की प्राप्ति होती है यह रस का ज्ञान और अनुभव का सुख भी उसी ब्रह्मानंद का सगा भाई है... सरदी खूब सुरखी पकड़े हो, मारे जाड़े के दाँत किटाकिट बोलते हों, रात का समय हो, पाँच सेर रुई का लिहाफ ओढ़ किसी कोमलांगी विकसित यौवना नवयुवती के कोमल अंगों में अंग साट सो रहना ब्रह्मानंद से क्या कम है? ...लिखने बैठा जब कोई उम्दा बात सूझ गई और एक चोटीले में चोटीला जी में चुभ जाने वाला आशय लिखकर तैयार हो गया उस समय हमारे जी के आनंद के सामने ब्रह्मानंद खड़ा-खड़ा हाथ जोड़े पछताया करता है।"
बालकृष्ण भट्ट के आलोचनात्मक अवदान पर विचार करने के पूर्व ध्यातव्य है कि किसी आलोचक की आलोचना-दृष्टि इस बात पर निर्भर हुआ करती है कि उसके पास साहित्य के बारे में कोई नवीन धारणा है या नहीं और साहित्य चूँकि जीवन की ही पुनर्रचना है, इसलिए जिस आलोचक के पास इतिहास के साथ ही अपने वर्तमान जीवन के बारे में नई धारणा होगी, उसी के पास साहित्य को लेकर भी किसी नई धारणा की उम्मीद की जा सकती है। 'कला का मोती चूँकि समाज की सीपी में ही आकार ग्रहण करता है' (क्रिस्टोफर कौडवेल), इसलिए गहरे इतिहास-बोध एवं प्रखर सामाजिक चेतना के बगैर किसी लेखक की रचना या आलोचना-दृष्टि की बात बेमानी है। उल्लेखनीय है कि इतिहास या साहित्य-परंपरा का बोध होना और उसके बोझ से दबे होना, दोनों अलग-अलग बातें हैं। परंपरा से आक्रांत रचनाकार या आलोचक से अपने समय की सामाजिक जड़ता और यथास्थिति को तोड़ने के लिए कुछ सार्थक लिख पाना असंभव है।
नवजागरणयुगीन हिंदी आलोचकों में गहरे इतिहास-बोध एवं प्राच्य एवं पाश्चात्य साहित्य-परंपरा के अगाध पांडित्य साथ ही अपने समय-समाज में व्याप्त जड़ता को तोड़कर नए भारत के निर्माण का माद्दा था। उनमें से अधिकांश रचनाकार, पत्रकार और समाजसेवी भी थे। इस युग के अग्रगण्य लेखकों में एक बालकृष्ण भट्ट ने सन 1877 से लगातार 33 वर्षों तक 'हिंदी प्रदीप' का संपादन करने के साथ ही दो कहानियाँ, तकरीबन पचपन कविताएँ और चार मौलिक (कलिराज की सभा, रेल का विकट खेल, बाल विवाह, चंद्रसेन) तथा अनेक अनूदित नाटकों की रचना की है, जिनकी संख्या भट्ट जी के पौत्र और भट्ट निबंधावली पुस्तक के संपादक डॉ. मधुकर भट्ट 'सरल' के अनुसार 18 है। इसलिए उनकी आलोचना का दायरा केवल साहित्य न होकर व्यापक समाज तक फैला हुआ है, जिसमें सैद्धांतिक शुष्कता के बजाए संवेदनशीलता, संवादधर्मिता और ताजगी है। उसे 'सभ्यतालोचन' कहा जाना चाहिए। साहित्य और सभ्यता के बीच अन्योन्याश्रय संबंध की ओर इंगित करते हुए बालकृष्ण भट्ट ने लिखा है कि "साहित्य का सभ्यता से घनिष्ठ संबंध है, वरन साहित्य ही सभ्यता का प्रधान अंग है। यह कभी हो ही नहीं सकता कि कोई देश सभ्यता में बढ़ जाए और साहित्य वहाँ की भाषा का पीछे हटा रहे। जो देश सभ्यता के छोर तक पहुँच पीछे गिरी दशा में आ गया है तो वहाँ का साहित्य ही उस देश का नपना होता है। कि यहाँ सभ्यता किस सीमा तक पहुँच चुकी थी।"
हिंदी आलोचना के विकास में भट्ट जी के योगदान को महत्वपूर्ण मानने के बावजूद रामचंद्र शुक्ल ने भारतेंदु और विशेषतः प्रेमघन से हिंदी आलोचना का आरंभ माना है। किंतु, अपने अथाह भारतेंदु-प्रेम के लिए विख्यात डॉ. रामविलास शर्मा ने 'बालकृष्ण भट्ट और हिंदी आलोचना का जन्म' निबंध में लिखा है कि "भट्ट जी अपने गंभीर अध्ययन, आलोचन-प्रतिभा, संयत शैली आदि गुणों के कारण बहुत कुछ आज के-से लगते हैं... उनकी वास्तविक प्रतिभा एक अध्ययनशील विद्वान और तीक्ष्ण बुद्धि आलोचक की है। उन्हें आधुनिक हिंदी आलोचना का जन्मदाता कहना उचित होगा।" बच्चन सिंह ने भी माना है कि 'वास्तविक आलोचना का शुभारंभ बालकृष्ण भट्ट के निबंधों से होता है।' इसी प्रकार रामस्वरूप चतुर्वेदी ने भी भट्ट जी के 'हिंदी प्रदीप' में प्रकाशित निबंधों से व्यावहारिक आलोचना का उद्भव स्वीकार किया है।
सच तो यह है कि लाला श्रीनिवास दास रचित 'संयोगिता स्वयंवर' नामक ऐतिहासिक नाटक की भट्ट जी द्वारा 'सच्ची समालोचना' शीर्षक से लिखित आलोचना ही कायदे से हिंदी की सर्वप्रथम आलोचना है जिसकी शुरुवात सवालिया अंदाज में होती है : "लाला जी यदि बुरा न मानिए तो एक बात आपसे धीरे से पुछै वह यह कि आप ऐतिहासिक नाटक किसको कहेंगे? क्या किसी पुराने समय के ऐतिहासिक पुरावृत्त की छाया लेकर नाटक लिख डालने से ही वह ऐतिहासिक हो जाएगा? यदि ऐसा है तो गप्प हाँकने वाले दस्तानगो और नाटक के ढंग में कुछ भी भेद न रहा... किसी समय के लोगों के हृदय की दशा क्या थी उसकी आभ्यंतरिक भाव किस पहलू पर ढुलके हुए थे... इन सब बातों को ऐतिहासिक रीति पर पहले समझ लीजिए तब उसके दरसाने का यत्न नाटकों के द्वारा कीजिए।"
भवभूति के एक कथन "यदा ध्यानं तपोपनिषदां सांख्यस्य योगस्य च तत्कथने नकिं नाह ततः कश्चिदगुणाः नाटके...' का हवाला देते हुए भट्ट जी लिखते हैं कि नाटक में लेखक द्वारा पांडित्य प्रदर्शन के बजाए मनुष्य के हृदय से उसका गाढ़ा परिचय झलकना चाहिए पर 'संयोगिता स्वयंवर' में 'राजा, मंत्री, कवि यहाँ तक कि संयोगिता बेचारी भी अपना पांडित्य ही प्रकाश करने के यत्न में हैरान हो रहे हैं।" इससे खीझकर भट्ट जी टिप्पणी करते हैं कि "भला बताइए यह कौन-सा ढंग भावों के दरसाने का है? कविता के मीठे रस के बदले नैयायिकों की तरह कोरा तर्क-वितर्क करना भाव का गला घोंटना है या और कुछ...? मनुष्य के बदले आपके नाटक के पात्रों को नीरस और रूखे से रूखे अर्थान्तरन्यास गढ़ने की कलंक कहें तो अनुचित न होगा।" (निबंधों की दुनिया : बालकृष्ण भट्ट, पृ. 37)
साहित्य क्षेत्र में आलोचकों के पांडित्य प्रदर्शन की बखिया उधेड़ते हुए बालमुकुंद गुप्त लिखते हैं : "विद्वान को अपने गले में ढोल डालकर अपनी विद्या का डंका बजाने की कोई जरूरत नहीं हैं। आलोचक में केवल दूसरों की आलोचना करने का साहस ही न होना चाहिए, वरंच अपनी आलोचना दूसरों से सुनने और उसकी तीव्रता सहने की हिम्मत भी होना चाहिए। जिस प्रकार वह समझता है, कि मेरी बातों को दूसरे ध्यान से सुनें, उसी प्रकार उसे स्वयं भी दूसरों की बातें बड़ी धीरता और स्थिरता से सुनना चाहिए। यह नहीं कि आप तो जो चाहे सो कह डाले और दूसरा कुछ कहे तो गुस्से से मुँह में झाग भर लावे, जबान काबू में न रख सके।" ('निबंधों की दुनिया : बालमुकुंद गुप्त', प्रधान संपादक : निर्मला जैन, संपादक रेखा सेठी, पृ. 12, वाणी प्रकाशन, दिल्ली)
बतौर आलोचक बालकृष्ण भट्ट हमारे समय के अनेक आलोचकों से भिन्न रचनाकार के प्रति पूर्वग्रह से पीड़ित नहीं हैं। उनमें जहाँ एक ओर असहमति का साहस है वहीं दूसरी और सहमति का विवेक भी। लाला श्रीनिवासदास के ही 'रणधीर प्रेममोहिनी' नाटक की उनकी आलोचना इसका प्रमाण है। उनके शब्दों में "ट्रेजेडी के किस्म का यह पहला नाटक है जो हिंदी भाषा में रचा गया है। इसमें शृंगार, हास्य और करुण ये तीनों रस उत्तर रीति से निबाहे गए हैं। बीच-बीच में सदुपदेश और लोकोक्ति इस ढंग से रची गई है जिससे उन रसों में मानो जान पिरो दी गई हो। रणधीर और प्रेमामोहिनी का प्रेम, रिपुदमन का सच्चा मैत्री भाव, जीवन की स्वामिभक्ति, नाथूराम का माड़वारियों का-सा बनियापन, सुखवासी लाल की स्वार्थपरता सब कुछ अच्छी तरह से इसमें दिखाई गई है।"
याद रहे कि प्रबंधकार कवि द्वारा मार्मिक स्थलों की पहचान की आवश्यकता पर बल देते हुए राम वनगमन प्रसंग के बजाए ग्रामवधुओं द्वारा गाए गए मजाक भरे गीतों के प्रसंग को तुलसीदास के मुकाबले केशवदास द्वारा अति विस्तार से वर्णित किए जाने के कारण शुक्ल जी ने लिखा है कि 'केशवदास को कवि-हृदय नहीं मिला था।' कहने की जरूरत नहीं कि पांडित्य प्रदर्शन केवल रचना ही नहीं, बल्कि आलोचना की भी एक बड़ी समस्या है। इससे आलोचना संवादधर्मी होने के बजाय उबाऊ और आतंककारी एकालाप बन जाने के लिए अभिशप्त होती है।
बालकृष्ण भट्ट ने 'साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है' शीर्षक सुप्रसिद्ध निबंध में साहित्य के बारे में अपनी धारणा को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि "प्रत्येक देश का साहित्य उस देश के मनुष्यों के हृदय का आदर्श रूप है। जो जाति जिस समय जिस भाव से परिपूर्ण या परिलुप्त रहती है वे सब उसके भाव उस समय के साहित्य की समालोचना से अच्छी तरह प्रगट हो सकते हैं... साहित्य यदि जनसमूह (नेशन) के चित्त का चित्रपट कहा जाय तो संगत है। किसी देश का इतिहास पढ़ने से केवल बाहरी हाल हम उस देश का जान सकते हैं पर साहित्य के अनुशीलन से कौम के सब समय-समय के आभ्यंतरिक भाव हमें प्रस्फुटित हो सकते हैं।" (निबंधों की दुनिया : बालकृष्ण भट्ट, पृ. 25)
वस्तुतः भट्ट जी के इस निबंध में निहित साहित्य की सामाजिक भूमि और सामाजिक भूमिका की शिनाख्त करनेवाली नई दृष्टि का विकास हमें शुक्ल जी की उस स्थापना में दिखाई पड़ता है जिसमें उन्होंने लिखा है कि "जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चलता है।"
बालकृष्ण भट्ट एवं रामचंद्र शुक्ल की साहित्य-विषयक धारणाओं की तुलना करते हुए मैनेजर पांडेय कहते हैं कि "आचार्य शुक्ल की धारणा बालकृष्ण भट्ट की साहित्य की जनवादी धारणा का ही परिष्कृत रूप है।" सच तो यह है कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, मुक्तिबोध सरीखे बाद के अनेक महत्वपूर्ण रचनाकारों-आलोचकों के चिंतन में भट्ट जी की साहित्य-विषयक धारणा की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। द्विदी जी जहाँ मनुष्य को ही साहित्य का लक्ष्य घोषित करते हैं वहीं मुक्तिबोध की स्पष्ट मान्यता है कि "साहित्य वह समन्वय है जिसकी रूप-रचना का आकार व्यक्ति की शक्ति से बना होकर भी जिसके तत्व सामाजिक हैं।" (मुक्तिबोध रचनावली, भाग-5, पृ. 32)
जिस प्रकार 'शिवशंभू के चिट्ठे' की अपार लोकप्रियता के कारण बालमुकुंद गुप्त के बाकी लेखन की ओर पाठकों का ध्यान कम गया उसी तरह 'साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है' निबंध की आत्यंतिक महत्ता के चलते बालकृष्ण भट्ट का शेष लेखन परवर्ती अध्येताओं की नजरों से ओझल रहा है। इस संदर्भ में रोचक शैली में रचित 'शब्दों की आकर्षण शक्ति', 'प्रतिभा', 'उपमा', 'कल्पना शक्ति', 'प्रतिभा', 'माधुर्य' सरीखे कई पांडित्यपूर्ण शास्त्रीय निबंधों के अलावा भट्ट जी का 'सच्ची कविता' निबंध खास तौर से विचारणीय है जिसमें कविता की वैधानिक एवं भाषिक संरचना को लेकर कई महत्वपूर्ण स्थापनाएँ हैं। अपने समय में काव्य-सृजन के क्षेत्र में प्रचलित परिपाटीबद्ध लेखन की बखिया उधेड़ते हुए बालकृष्ण भट्ट लिखते हैं : "हिंदी के कवि भी उन्हीं पुराने कवियों की शैली का अनुकरण कर आज तक चले आए हैं और उस ढंग को छोड़ कोई दूसरे प्रकार की भी कविता हो सकती है यह बात उनके मन में धँसती ही नहीं जिसकी उपमा हम एक छोटे से तालाब की देंगे। जिसमें न कहीं से पानी का निकास है और न नया ताजा पानी उसमें आने की आशा है तब इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता है कि उसका पानी दिन दिन सड़ता ही जाय और गंदगी बढ़ती जाय ताकि नियमबद्ध हो जाने से गिनी गिनी बातें उनके लिए बच रहीं उन्हीं का बार बार पिष्ट पेषण किया करें।"
याद रहे कि अपने समय में रीतिमुक्त कवि ठाकुर ने भी काव्य-सृजन के क्षेत्र में चर्वित-चर्वण करनेवाली कवियों का विरोध करते हुए लिखा था : "ठेल सो बनाय आए मेलत सभा के बीच / लोगन कवित्त कीनो खेल करि जानो हैं।"
'सच्ची कविता' निबंध में भट्ट जी ने सभ्यता के आरंभ से लेकर अपने समय तक कविता के विकास की प्रक्रिया को भी रेखांकित किया है। उनका मानना है कि "कविता में ...निस्संदेह पहले जिन लोगों ने कुछ कहा वह तो सच्ची और खरी बात थी। क्योंकि कविता का आर्ट हुनर तब तक पैदा ही नहीं हुआ था... इसको हम प्राथमिक अथवा वास्तविक कविता कहेंगे हमारे वेदादि सत्य शास्त्र उस समय की कविता के बहुमूल्य रत्न हैं। जब कविता और बढ़ी और उसमें उसमें रस या स्वादु स्थापित हुआ तो बातें पहले रूखी और फीकी थीं उनमें अब छीलकर चमक दमक हो गई और कवियों के भी वृंद के वृंद पैदा हो गए।" वाल्मिकी, व्यास, गुणाढ्य से लेकर कालिदास, भवभूति, श्री हर्ष, दंडी, भारवि आदि के समय को कविता का क्लासिक युग बताते हुए भट्ट जी आगे कहते हैं कालांतर में 'गांभीर्य इन कवियों के अक्षरों का घटता ही चला आया।' वे गांभीर्य उस लेखन में मानते हैं 'जिसे ज्यों-ज्यों मनन कीजिए त्यों-त्यों उसका आशय गूढ़ होता जाय और नई बातें ऐसी निकलती आवें जिसे आपकी विचार शक्ति सिवाय अंगीकार करने के उसकी सजावट को किसी तरह इनकार न कर सके... सुसंस्कृत कविता अवश्यमेव कृत्रिमता दोष से पूरित रहेगी... यदि हमारे मन की उमंगें सच्ची हैं तो जो बातें हमारे चित्त से निकलेंगी सच्ची होंगी और उसका असर भी सच्चा ही होगा।' इसके विपरीत जब नियमबद्ध होकर रचना की जाएगी रचनाकार के खयालात बिल्कुल निराले ढंग पर दौड़ें यह असंभव है। शास्त्रीय शब्दावली में कहें तो प्रकारांतर से भट्ट जी रचना में अनुभूति और अभिव्यक्ति के बाह्यांतर योग में कला की सिद्धि मानते हैं पर रचना-क्षेत्र में उनका बल सहजता और स्वाभाविकता पर है। भट्ट जी के सच्ची कविता विषयक इस मंतव्य के आलोक में यदि वैदिक 'उषा-स्तुति' और शमशेर की 'उषा' कविता में पहली सच्ची कविता है और दूसरी में कला की सिद्धि है।
अपने इसी निबंध में जब बालकृष्ण भट्ट 'ग्राम कविता' को 'उत्तम श्रेणी की भाषा कविता' के मुकाबले ज्यादा महत्व देते हैं तो अनायास ही रेमंड विलियम्स की 'देहात और शहर' ('कंट्री एंड सिटी') पुस्तक के साथ ही भारतेंदु के 'जातीय संगीत' निबंध की याद हो आती है। भट्ट जी के अनुसार ग्राम कविता में 'चित्त की एक सच्ची और वास्तविक भावना की तस्वीर खिंची पाई जाती है... काव्य के नियम और कायदों से वे कोसों दूर हैं।' मल्लाहों के गीत, कहारों का कहरवा, बिरहा अथवा आल्हा आदि का नाम सुनकर नाक-भौं सिकोड़ने वालों पर व्यंग्य करते हुए भट्ट जी लिखते हैं : "इनकी प्रशंसा में यदि हम कुछ कहें तो नागरिक जन जो भाषा की उत्तम कविता के रसपान के घमंड में फूले नहीं समाते अवश्य हम पर आक्षेप करेंगे और हमें निपट गँवार कहेंगे।' इस संदर्भ में निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं कि 'डूबकर दूर तक सोचिए तो कविता पहले ग्रामीण हुए बिना प्रचलित नहीं हो सकती और उसी ग्रामीण कविता को माँजते-माँजते वही नागरिक तक उच्च श्रेणी की कविता बन जाती है।"
भारत में 'जातीयता' एवं 'जातीय भावना' के सम्यक विकास की आवश्यकता पर बल देते हुए बालकृष्ण भट्ट ने हमारे समाज की बहुलतावादी संरचना को ध्यान में रखते हुए लिखा है : "सहानुभूति और विश्वास यही दो जातीयता नदी के दो किनारे हैं। एक भाषा एक मत वा एक धर्म एक ही कुल गोत्र या वंश में जन्म आदि से भी सहानुभूति और विश्वास वृक्ष की जड़ पुष्ट पड़ती जाती है। प्रयोजन की सिद्धि इस जातीयता का फल है सो जातीयता बिना सहानुभूति के अकेली भाषा अकेला धर्म वा मत से कभी नहीं होती वरन अलग-अलग ये तीनों जातीयता के विरोधी हैं।" प्रकारांतर से यहाँ जाति, भाषा, क्षेत्र आदि पर आधारित कट्टरता का निषेध करते हुए बालकृष्ण भट्ट द्वारा जिस प्रकार अनेकता में एकता पर बल दिया गया है वह भारत के लिए ऐच्छिक या वैकल्पिक नहीं, बल्कि एक राष्ट्र-राज्य के रूप में हमारे अस्तित्व की बुनियाद है।