इस तसवीर को देखिए, यह मैं हूँ, झबरे बालों वाली लड़की जो जूते से अपनी एक आँख
ढके हुए है। सामने घुटनों तक मोजे पहने, स्टिक को गिटार की तरह बजाते हुए जो
आदमी नंगे बदन नाच रहा है, मेरे पापा हैं। आसमान पर बादल हैं, पानी बरसने वाला
है। हम लोग बारिश में भी नाचेंगे और गरम जलेबी खाते हुए घर लौटेंगे। मेरे पापा
को नहीं जानते आप, क्रिकेट से फुर्सत मिले तब न। जाट रेजिमेंट के थर्ड
आर्टिलरी डिवीजन के सूबेदार मेजर भारत सिंह, वही बर्सिलोना ओलंपिक के गेममेकर
मास्टरमाइंड लेफ्ट इन... और गेंद एक बार फिर भारत के कब्जे में, लचकदार
कलाइयों की खूबसूरत ड्रिब्लिंग, दो को छकाया, बहुत आसान लगती जादुई फ्लिक,
प्रतिद्वंद्वी भौचक, एकदम कार्नर से रिवर्स क्रॉस, फॉरवर्ड ने गेंद को ट्रैप
करके समय गँवाने का जोखिम नहीं लिया, बेहिचक शॉट, गोलकीपर के बाएँ पैर को छूती
हुई गेंद अंदर और ये गोओओ....। गाँव के लोग पापा की मौत को भी इसी तरह याद
करते हैं। वे कारगिल की लड़ाई में मारे गए। नए ताबूत की वार्निश की भीगी महक
और उनका सोया चेहरा मुझे याद है। लेकिन, यह तसवीर मैं दिखा किसे रही हूँ?
ओह पापा, तुम जिंदा होते तो देखते, लोग कहते हैं, मैं एकदम तुम्हारी तरह खेलती
हूँ। विरोधियों के घेरे में उन्हें ललचाते हुए, खिलवाड़ करते हुए लेकिन घेरा
तोड़ने की नई-नई चालें सोचते हुए। तुम्हारी अचानक छूटी गोली जैसी दौड़ अब मेरी
पिंडलियों में जिंदा है। तुम्हारी यह स्टिक हमेशा मेरे किट में रहती है जिस पर
किसी अल्हड़ लड़की की चलाई कैंची का निशान है। माँ इसके लिए तुमसे कितना लड़ती
थी। अक्सर कुढ़कर उसे चूल्हे में लगा देने के लिए खोजती थी और तुम उसे बच्चों
की तरह कहीं अनाज के ढेर में तो कहीं दुछत्ती पर छिपाते फिरते थे। माँ से घर
में कोई कुछ भी छिपा सकता है क्या? वह भी जानती थी कि वह स्टिक कहाँ रखी है,
फिर भी मुझसे पूछती थी। जैसे मैं बता दूँगी। मैं हमेशा शरारत से इनकार में सिर
हिलाती थी और वह मुझ पर झल्लाने लगती थी। हम औरतें ऐसी ही होती हैं, पापा।
लेकिन तुम क्या जानो इस बार मैं कैसा घेरा तोड़कर भागी हूँ, अचानक बहुत बड़ी
होकर शर्म से लिथड़ गई हूँ। खून, रिश्ते, समाज, प्यार मेरे लिए सब बंजर-ऊसर हो
गए हैं। अभी तो अपने कमरे से बाहर भी नहीं निकल सकती। अभी तो स्पोर्ट्स हॉस्टल
के कमरे की इन चहारदीवारों के बीच सिर्फ तुमसे बात की जा सकती है, लेकिन यकीन
रखो, एक दिन मैं सच्चे खिलाड़ी की तरह सब का सामना करूँगी। घेरा चाहे जितना
मजबूत हो, विरोधी चाहे जितने क्रूर और कमीने हों। तुम्ही मैच के बीच चिल्लाया
करते थे 'मुश्किल वक्त, कमांडो सख्त', और मैं फिर एक बार उठ कर जूझने के लिए
तैयार हो जाती थी।
तुम्हारे चले जाने के बाद मेरी प्रेक्टिस धवरी और उसके बछड़े ने कराई। वह
जानती तो थी ही कि तुम नहीं रहे, यह भी जान गई थी कि तुम्हारा सपना क्या था।
इसलिए उसने यह काम अपने हाथ में ले लिया। आए दिन दुहे जाने से ठीक पहले रोज
सुबह वह खूँटे को झटका देकर भाग निकलती थी और मैं उसके पीछे। दूर खेत में खड़ी
होकर वह और उसका बछड़ा मुझे शरारत से देखते थे, जैसे चिढ़ा रहे हों। गाँव की
ऊबड़-खाबड़ सँकरी गलियों से होते हुए फसलों से भरे खेतों, खलिहान, टीलों, कीचड़
और तालाब के छिछले पानी में माँ-बेटे पकड़ने की चुनौती देते हुए मुझे दौड़ाते
रहते थे। थककर पस्त हो जाने के बाद जब मैं हाँफते हुए दोनों को कोसने, मुँह
चिढ़ाने, या गालियाँ देने लगती थी तो वे चुपचाप खड़े हो जाते थे। गले का पगहा
पकड़ाते समय वह मुझे उसी तरह देखती थी जैसे तुम सुबह की कठिन प्रैक्टिस के बाद
हँसती आँख से देखते थे। घर की ओर लौटते हुए उसका बछड़ा मुझे पीछे से ठेलकर
छेड़ता था। अब वह पूरा बैल हो गया है और गंभीर रहता है। वह किसी और को अपने थन
पर हाथ भी नहीं लगाने देती थी। एक दुलत्ती और बाल्टी मुँह पर, पैर ऊपर।
लाठियों का असर उस पर नहीं होता था। मेरे हाथ लगाते ही चुपचाप खड़ी हो जाती
थी, और जैसे दूध का झरना बहने लगता था। मुटियार, दूध भी इतना देती थी कि
दुहते-दुहते बाँहें भर जाती थीं और बाल्टी सँभाले टाँगें थरथराने लगती थीं।
इतना थक जाती थी, आधे दिन तक मुझे नींद में पूरा स्कूल हिलता हुआ लगता था।
मेरे हॉस्टल आ जाने के बाद सनकी, मनमौजी और जबर समझी जाने वाली इस शानदार गाय
को बेच दिया गया।
और घर के आँगन में! वहाँ भी 'स्किल हॉनिंग सेशन' चलता रहता था। माँ बड़ी देर
से बाहर का दरवाजा बंद करने के लिए बड़बड़ा रही है। एक ड्रैग हिट, धड़ाक!
दरवाजा बंद। पिसने के लिए सूख रहे गेहूँ पर कौवे टूट रहे हैं, स्कूप... भाग गए
साले! चाची का बेटा रो रहा है, एक रंग-बिरंगी कैप उसके सिर पर रखने के बाद
टाँगों के बीच से ड्रिब्लिंग, टूटे दाँतों की खिड़की खुल गई। हर वक्त की मेरी
खट-खट से और सभी चाहे जितना नाराज हों माँ ने कभी कुछ नहीं कहा। शायद उन्हें
तुम्हारी याद आती होगी और अच्छा लगता होगा, है न! कभी-कभार बड़बड़ाती थीं कि पता
नहीं हजारों मर्दों के सामने बित्ता भर की स्कर्ट पहने नंगी टाँगें दिखाते हुए
कैसे दौड़ती है। उन्हें क्या पता, जिन लड़कियों की टाँगें सूखी और डिशेप हो
जाती हैं वे उन्हें भरी-भरी बनाने के लिए क्या-क्या उपाय करती हैं ताकि
सेलेक्टरों और कोच की नजर उन पर से हटे नहीं। टीवी और अखबार वाले भी अपने
कैमरे ऐसी ही लड़कियों पर फोकस किए रहते हैं, खेल उनका चाहे जैसा हो। आजकल
खिलाड़ी खेल से बनता है, लेकिन स्टार तो टाँगें ही बनाती हैं।
अखबार और टीवी वालों की छोड़ो, पापा, तुम्हारे भाई! मर्यादा सिंह जो तुम्हारे
मेडल, ट्रॉफियाँ, सर्टिफिकेट सँभाल कर रखते थे और अखबारों-पत्रिकाओं में
तुम्हारे बारे में जो छपता था उसकी फाइल बनाते थे। बता दूँ कि गुजर गए, अगर
तुम जिंदा होते तो भी तुम्हें दुख नहीं होता। हद से हद शर्म और पछतावा होता।
उन्होंने पता नहीं कहाँ-कहाँ से तस्वीरें काट कर महिला जिमनास्टों, तैराकों और
टेनिस स्टारों का मोटा-सा अलबम बना रखा था, उसे ताले में बंद रखते थे और अकेले
में देखते रहते थे। नादिया कोमानेची, वोल्गा कोरबुत, बुला चौधरी, निशा मिलेट,
गैबरीला सबातीनी, अन्ना कुर्निकोवा, मोनिका सेलेस... और भी ढेरों तस्वीरें।
मैं उन्हें खिड़की की झिरी से उचक कर देखती थी और बहुत बड़ा खेलप्रेमी समझती
थी। मुझे लगता था, उनकी यह झक डाक टिकट, सिक्के या सिगरेट की डिब्बियाँ जमा
करने जैसा ही कोई शौक है। लेकिन पापा, एक दिन अचानक मैं समझ गई। मैंने देखा,
अपने पजामे के ऊपर वे मेरी लाल रंग की स्कर्ट पहनकर, बंद कमरे में बेवकूफों की
तरह घूम रहे थे और बार-बार वह अलबम पलट रहे थे, रह-रहकर उसे उठाकर डरावनी
आँखों से उसमें कुछ घूरते थे और फिर फेंक देते थे। मुझे लगा वे बुखार में है
और उनका दिमाग चल गया है... मैंने कहा न, मैं समझ गई थी। हाँ, तुमसे सच कहूँ
तो पहले मुझे थोड़ा-सा अच्छा लगा और बाद में बहुत हँसी आई। हँसते-हँसते मैं
पागल हो गई, तो जाकर मैंने माँ को बता दिया।
माँ का सुंदर चेहरा अपमान और पीड़ा से ऐंठ गया। वो चिल्लाई, "और तू दाँत निकाल
रही है, राँड़! और टाँगें दिखा, और घोड़ी की तरह कूद। देखती जा तेरी क्या गति
बनती है।"
"मैंने क्या कर दिया?"
जवाब में बाल पकड़कर घसीटते हुए माँ मुझे चौके में ले गई और एक तमाचा मारा।
फिर वहीं बैठ कर रोने लगी। तुमसे कहा, "ये कौन सा चलन सिखा गए हो इस घोड़ी को,
अब इस घर को बर्बाद करके मानेगी।"
माँ ने चाची से कुछ कहा होगा। दो दिन बाद चाचा माँ पर फट पड़े, "बहुत दिखाई
देने लगा है तुम्हें और तुम्हारी छोकरी को। मेरा पजामा और लँगोट तक दिखने लगा
है। पता नहीं किस-किस जात के लड़कों के साथ सिंगापुर, मलेशिया, नेपाल और
कलकत्ता घूमती रहती है, वह नहीं दिखता। अगर तुम लोगों को इसी तरह बातें बनानी
हैं तो अलग हो जाओ और गाँव भर के मर्दों के बारे में किस्से गढ़ती रहो।"
माँ, अकेली विधवा, शायद अलग होकर नहीं जी सकती थी, चुप लगा गई।
और चाचा बस जलती आँखों से घूरते रहते थे। उनका घूरना मुझे अब भी कँपा देता है।
बचपन में भी तुम तो जानते ही हो मैं कभी उनकी गोद में नहीं जाती थी। वे मुझे
जबरदस्ती उठाते थे। उनके छूने में ही कुछ जंगली और अजीब था कि मैं बिदक जाती
थी। घर में माँ चुपके-चुपके महीना भर मेरे अंडरवियर, स्कर्ट, हाफ पैंट खोजती
रही, फिर सब को धोकर बक्से में बंद कर दिया। घर पर अपने पहले तो ट्रैक सूट फिर
और लड़कियों की तरह सलवार कुर्ता पहनने लगी।
तब की बात नहीं है पापा, हाईस्कूल के बाद की बात है। मैंने अविनाश से अपनी
टी-शर्ट बदल ली। तुम तो जानते ही हो कि खिलाड़ियों के जर्सी बदल लेने का क्या
मतलब होता है। कस्बे के धर्मपाल गूजर का बेटा अविनाश, मेरा सीनियर। क्या खेल
था उसका। नेशनल खेल चुका था।
खेल की बात नहीं है, मेरे लिए तुम्हारे जैसा कोई कभी नहीं खेल पाएगा। वह एकदम
तुम्हारी तरह भोला और प्यारा-सा था। एक बार मैंने उससे मजाक में हाँक दिया
मेरे पापा गाँव में कई एकड़ का लॉन और स्विमिंग पूल बनवा कर गए हैं। उन्होंने
एक इटालियन सैलून भी खुलवाया है जिसमें गाँव के लोग बाल कटवाते हैं। वह मुँह
बाए सुनता रहा, उसने विश्वास कर लिया। एक दिन वह मोटरसाइकिल से अपने एक दोस्त
के साथ बाल कटवाने हमारे गाँव आ गया। वह लड़का फोटो खींचने के लिए एक कैमरा भी
लाया था। मजा आ गया। उन दोनों को मैंने फकीरे नाई का चबूतरा दिखाया जहाँ वह
ईंटों के ऊपर बैठकर चाचा की दाढ़ी बना रहा था। ईंटों वाला सैलून इटालियन हुआ
न! स्विमिंग पूल देखकर तो वह उछलने लगा। तालाब में भैंसें बिना कास्ट्यूम पहने
तैर रही थीं और चारों तरफ लहलहाती फसलों का हरियाला लॉन तो था ही। यह वैसा ही
हुआ न, जब तुम घर होते थे, मैं स्कूल से लौटकर स्टिक हवा में उछालकर चहकते हुए
तुमसे बताती थी कि आज हम लोगों ने सीनियर टीम को हरा दिया और तुम खुश हो कर
तुरंत जलेबी खिलाते थे। खाने के बाद मैं बताती थी कि दरअसल हम लोग बुरी तरह
हारे और मैं घायल हो गई हूँ। इसलिए जलेबी खाना ज्यादा जरूरी था।
आए दिन मुझे अपने किटबैग में गुलाब के फूलों के गुच्छे मिलने लगे। कोई इन्हें
खेल के दौरान चुपके से रख जाता था। हालात यह हो गए कि मेरे जूते, पैड, एंकलेट,
गेंद, नीकैप, नैपकिन, कपड़े सबमें गुलाबों की गंध समा गई और चारों तरफ मुझे
फूल ही फूल नजर आने लगे। अक्सर मेरी स्टिक हवा में ही उठी रह जाती थी। मुझे
लगता था मैं फूल को हिट करने जा रही हूँ। उसकी पंखुड़ी-पंखुड़ी छितरा जाएगी।
टीम की लड़कियाँ मुझे 'गुलाबो' कहकर चिढ़ाने लगीं। मैंने हिम्मत बटोरकर एक दिन
उससे कहा, "मैं अपने चाचा को बता दूँगी फिर होश ठिकाने आ जाएगा। पहले तो वह
झेंपा फिर कोमलता से बोला, "अब चाहे जिससे बताओ, हद से हद क्या होगा, मैं
तैयार हूँ।"
गुलाबों की महक से पागल होकर शायद मैं भी उससे प्यार करने लगी। वह रोज भोर में
कस्बे से आठ किलोमीटर जॉगिंग करता हुआ हमारे गाँव के बाहर नदी किनारे तक आ
जाता था। मैं भी वार्मअप करते हुए घुटनों भर वाली नदी पार कर पहुँच जाती थी।
अभी तारे भी डूबे नहीं होते थे, अक्सर चाँद भी चमक रहा होता था। हम लोग गन्ने
के खेतों में, प्राइमरी स्कूल के बरामदे में, बीज गोदाम के पिछवाड़े मिलते थे,
बातें करते थे। आखिरकार मैंने कह ही दिया कि अपना पहला नेशनल खेलने के बाद
उससे शादी कर लूँगी, और फिर कभी गाँव नहीं लौटूँगी।
मुझे ही नहीं पता चला, कई गाँवों में सबको पता था। यहाँ तक कि लोग गुलाबों
वाला किस्सा भी जानते थे। कई लड़के खेतों में कंबल ओढ़ कर सिर्फ हम दोनों को
देखने के लिए रात भर बैठे जागते रहते थे। माँ ने मुझसे पूछा तो मैंने अपने मन
की बात बता दी। उन्होंने माथा पीट लिया। वे दालान के दरवाजे पर ताला लगाकर और
चाभी तकिए के नीचे रखकर सोने लगीं। महीनों बाद जब चाचा की गालियाँ, लड़कों के
ताने, बूढ़ों के भद्दे द्विअर्थी मजाक जब मंद पड़ने लगे तो मैं फिर सुबह
एक्सरसाइज के लिए निकलने लगी। और तभी एक सुबह घात लगाकर चाचा और गाँव के
लड़कों ने हमें पकड़ लिया।
आज उसका दूसरा दिन था। मेरे मना करने के बाद भी वह मरने चला आया था। उस समय वह
एक गन्ना तोड़ कर उसे स्टिक की तरह इस्तेमाल करते हुए, मेरे फेंके ढेले को
रोककर पेनाल्टी कॉर्नर हिट करना बता रहा था। अचानक ओस में भीगी शांत फसलों के
बीच से निकली भीड़ ने हम दोनों को दबोच लिया। चाचा चीखे, "साले गन्ने के खेत
में डांडिया रास कर रहे थे।" मैं डर के मारे सुन्न हो गई।
अविनाश को मारते-पीटते गाँव लाया गया और मुझे एक कमरे में बंद कर दिया गया।
दरवाजे पर पूरा गाँव जमा हो गया। पड़ोस के गाँवों के लोग भी आने लगे। माँ ने
कमरे में आना चाहा तो चाचा ने धकेल दिया, "राँड़ कहीं की, उसे यार के साथ भगाने
जा रही थी।"
घर की औरतों, बच्चों को पड़ोस के घर में बंद कर चाचा आए, सिटकिनी चढ़ाई, जलती
आँखों से घूरते रहे। अचानक बालों से पकड़कर उन्होंने मुझे उठा लिया। कान से
मुँह सटाकर भिंची आवाज में बोले, "गरमी शांत करने के लिए कोई बिरादरी का छोरा
नहीं मिला जो सुअर गुज्जर को बुला लाई हमारी नाक कटाने।"
जमीन पर पटककर मेरे ऊपर बैठ गए। फिर वही यहाँ-वहाँ नोचता हुआ जंगली जानवर का
पता। घबड़ाकर मैंने रोते हुए कहा, "यह क्या कर रहे हैं आप?"
"वही जो साले गुज्जर इतने दिनों से कर रहे थे।" घिन और अपमान से तिलमिलाकर
मैंने अपने पैर उनके पेट में जमा कर पूरी ताकत से ठेल दिया। वह उछलकर गिरे और
सिर दीवार से लग कर फट गया। फिर कितनी गालियाँ, घूसे, लात मुझ पर पड़े, नहीं
पता। मैं घुटनों में सिर देकर पड़ी रही। बाहर अविनाश को जो आता, वही चोर की
तरह पीट रहा था। मुझे बाद में पता चला वह मूर्ख लगातार बड़बड़ाए जा रहा था,
"हमने कोई गलत काम नहीं किया, गलत काम नहीं किया।"
वह जितना बकता, उतना पिटता। वह पिटते-पिटते बेहोश हो गया। बाहर पंचायत बुलाने
की तैयारी हो रही थी।
पुराने मोजे को फाड़ कर बनाई पट्टी बांधे चाचा थोड़ी देर बाद फिर लौटे, इस बार
उन्होंने शांत ढंग से कहा, "सोच ले, अभी मैंने पंचायत के लिए हाँ नहीं कही है।
अगर एक बार पंच बैठ गए तो तुम दोनों फाँसी पर लटका दिए जाओगे।" चाचा सौदेबाजी
कर रहे थे, मैं सुन्न बैठी रोती रही।
दो, चार, छह या पता नहीं कितने घंटे बाद मुझे बाहर लाया गया, रोशनी से मैं
चौंधिया गई। मुझे घूरती अजनबी आँखों और मक्खियों जैसी भन्नाहट के सिवा और कुछ
याद नहीं है। हाँ, चलते समय एक पुराना कपड़ा लेकर मैंने सिर पर डाल लिया।
मैंने कभी ओढ़नी सिर पर नहीं डाली थी, सारे गाँव में ट्रैक सूट पहनकर कूदती
फिरती थी। पता नहीं मुझे क्यों ऐसा लग रहा था कि इस कपड़े से सिर ढक कर खड़े
रहने से वे मुझे और अविनाश को शायद छोड़ देंगे। थोड़ी बहुत और मार पड़ेगी, बस!
अब और कितना मारेंगे? ज्यादा से ज्यादा थूककर चाटने को कहा जाएगा या एक-दूसरे
के कान पकड़कर उठक-बैठक कराने के बाद मेरा घर से निकलना बंद करा दिया जाएगा।
हो सकता है, मैंने सुन रखा था कि इंदिरा गांधी को सिर पर पल्लू रख लेने के
कारण ही लोगों ने प्रधानमंत्री बना दिया था, इसलिए यह बात उस समय दिमाग में आई
हो। उम्मीद का बेवकूफी से रिश्ता बहुत पुराना है।
बाहर निकल कर मैंने कई बार कहा, प्यास लगी है, पानी चाहिए, किसी ने ध्यान नहीं
दिया। मुझे लग रहा था, मैं चिल्ला रही हूँ लेकिन कोई सुन ही नहीं रहा था। आज
लोग सुनना भूल गए थे। बस देख रहे थे। मैंने दरवाजे के बाहर हैंडपंप के सामने
झुक कर अँजुरी रोप दी। झुके-झुके पता नहीं कितना समय बीत गया, कोई चलाने नहीं
आया। सीधे खड़े होकर देखा तो लोग हँस रहे थे। जैसे पागलों को विचित्र हरकतें
करते देख कर हँसते हैं। सहमते-झिझकते कुछ बच्चे आगे बढ़े। बच्चे जो हैंडपंप
चलाने के नाम से ही उछल पड़ते थे, फटी-फटी आँखों से ठंडे, भावहीन ढंग से मुझे
देखते हुए इस तरह हैंडपंप से बेमन से जूझ रहे थे कि मुझे कोठरी से भी ज्यादा
डर लगा। अचानक एक बूढ़े आदमी ने बच्चों को डाँटा, गुज्जरों की रखैल अपनी मौसी
को गंगास्नान करा रहे हो।"
बच्चे उसकी बात पूरी होने से पहले ही भाग गए। किसी ने मेरे सिर से वह कपड़ा भी
नोच कर फेंक दिया और मुझे ठेलते हुए पंचायत में ले जाया गया।
गाँव के बाहर के बगीचे में लोग ही लोग भरे हुए थे। इक्का-दुक्का बंदूकें,
लाठियाँ, तलवारें भी थीं ताकि किसी को भी दखल देने से रोका जा सके। कई तो
तमाशा देखने के लिए पहले से पेड़ों पर चढ़ कर बैठे हुए थे। मेरे पहुँचते ही एक
मरियल से आदमी ने इमली के पुराने पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर चढ़कर हाँक लगाई,
"भारत सिंह की छोरी अनीता और गूजर धर्मपाल के नालायक छोरे अविनाश ने वह काम
किया है कि जाटों की इज्जत मिट्टी में मिल गई है। सर्वशक्तिमान पंच इस पर
विचार कर न्याय करें। फैसला पूरी बिरादरी को मंजूर होगा।"
यह आदमी त्योहारों और शादियों में नगाड़ा बजाकर नाचता था और लोगों की झाड़
सुनने के लिए तरह-तरह की मसखरी करता रहता था। लेकिन आज वह मुझे बहुत भयानक
लगा। इज्जत! कहाँ है इज्जत? किसकी? इसकी? नगाड़े वाले की? अचानक मुझे लगा कि
इज्जत कोई अदृश्य रहस्यमय प्रेत है, जिसकी सवारी आते ही मसखरे भी भयानक लगने
लगते हैं।
लोग चुप हो गए, सन्नाटा छा गया। चबूतरे पर बैठे पंचों ने अपनी गरदनें झुका
लीं, जैसे बहुत गंभीरता से सोच रहे हों। अविनाश का चेहरा पहचाना नहीं जा रहा
था, वह भावशून्य ढंग से देखे जा रहा था, जैसे वहाँ जो कुछ हो रहा था, उस पर
उसे यकीन ही नहीं आ रहा हो। उसके हाथ पीछे बंधे थे, पैर में जानवरों को बांधा
जाने वाला छन्ना डाल दिया गया था, गले में किसी जानवर का पगहा था। उसे घसीटते
हुए यहाँ लाया गया था।
सन्नाटे से अचानक चौंककर मैंने पंचों की ओर देखा। उनके बीच में हुक्का सुलग
रहा था। लेकिन उसे किसी ने छुआ तक नहीं। बगल में एक बाँस की टोकरी में गुड़ की
डलियों का ढेर था और एक ड्रम में पानी रखा था। और पंच भी कौन थे पापा! हुकुम
सिंह, जिनके दादे-परदादे जानवर चुराते थे और उनकी सींगें तराशकर बेच देते थे।
वे अब मानिंद किसान और गाँवसभा के मुखिया हो गए। वे अपनी अधपगली पत्नी को
सरेआम लाठियों से पीटते थे। चौधरी राजिंदर सिंह जिनकी डेयरी में यूरिया मिलाकर
सैकड़ों लीटर दूध तैयार होता था और बेचा जाता था। शहर में उनका बड़ा होटल था,
जहाँ अफसरों-ठेकेदारों को लड़कियाँ सप्लाई की जाती थीं। मान सिंह, सारा गाँव
जानता है कि अफीम खिलाकर अपनी भानजी के साथ उन्होंने कई महीने बलात्कार किया।
जब वह गर्भवती हो गई तो उसे पागल बताकर पता नहीं कहाँ छोड़ आए। मैनेजर सिंह
कोटेदार, जो दहेज के लिए अपनी बहू को जलाकर जेल हो आए थे। उनकी दुकान का सारा
राशन और तेल ब्लैक में बिक जाता था। और पट्टी बांधे डकैत लग रहे थे मेरे चाचा
खुद जिन्होंने आज सुबह ही अपनी भतीजी से सौदेबाजी की थी।
"...तो ये मेरा न्याय करेंगे, अपनी इज्जत बचाने के लिए।"
उनकी इज्जत और मेरी इज्जत अलग-अलग है। मेरी इज्जत बर्बाद किए बिना, यहाँ तक कि
मेरी जान लिए बिना उनकी इज्जत बच ही नहीं सकती। अकेली मैं, अकेला अविनाश और
इतने सारे इज्जतदार लोग। पंच, सरपंच। मैं अकेली...
मैंने पहले कभी इस तरह इन लोगों को नहीं देखा था। मैंने सोचा इज्जत... आँखों
के आगे अँधेरे के बीच रोशनी के चकत्ते उड़ने लगे। मुझे लगा अविनाश ब्लेजर के
नीचे टाई पहने विक्ट्री स्टैंड पर खड़ा है, और मैं ताली बजा रही हूँ। नहीं
शायद वह डॉक्टर था, जो गले में आला लटकाकर भीड़ से घिरे किसी मरीज को देख रहा
था। नहीं, वह बछड़ा था जो मेरा हाथ चाटने के लिए गरदन हिला कर अपने पास बुला
रहा था।
मैं रोने लगी।
पंचों के बीच में मेरे बिल्कुल सामने चाचा नंगे बैठे हुए हैं, उन्होंने गले
में बड़ा-सा ताबीज पहन रखा है और उनके सफेद जूतों से जलती-बुझती रोशनी निकल
रही है। तभी पापा आ गए, हँसने लगे। उन्होंने मुझे कंधे पर उठाकर, लोगों की तरफ
इशारा किया। इस भीड़ में सबके हाथों में एक-एक पेटीकोट था और वे उसके कमर के
घेरे में फूँक मार रहे थे और पंच इससे कुढ़कर माथे पर हाथ दिए बैठे थे। मुझे
हँसी आ गई।
मैं हँसने लगी, लोगों को देखा वे भी रंग-बिरंगे पेटीकोट हिलाते हुए हँस रहे
थे। तभी मेरी माँ ने वहाँ आकर नाचना शुरू कर दिया। नाचते हुए वे गाँव की ओर
चलीं तो सभी उनके पीछे चले गए और मैं अकेली खड़ी रह गई। मेरी किसी सहेली ने
आकर बड़ा-सा पत्थर देकर कहा शादी मुबारक हो। मैं बंदरिया बन गई। पगड़ी बांधे
मदारी ने कहा, गुलाबो, चलकर दिखाओ, ससुराल का काम करके दिखाओ। मैं ठुमकने लगी।
मैं पता नहीं कितनी देर तक इसी तरह हँसती-रोती, बड़बड़ाती रही।
बीच में किसी ने फुसफुसाकर कहा फाँसी। फिर सभी लोग फाँसी, फाँसी जपने लगे जैसे
वे किसी मंदिर में बैठकर कीर्तन कर रहे हों। मूर्तियों के ऊपर लाल कपड़े के
आगे दो कठपुतलियाँ झूल रही थीं। उनको नचाने वाले खेल के बीच में ही कहीं चले
गए थे।
अचानक मुझे होश आया, तब मैं एक रस्सी पकड़ बैठी खाँस रही थी। पूरा शरीर दुख
रहा था और दूर खड़ी भीड़ हँस रही थी। अरे! पंचायत ने मुझे इमली के पेड़ से
लटकाकर फाँसी पर चढ़ा दिया था। ऊपर बंधी रस्सी खुल जाने के कारण मैं गिर पड़ी
थी। क्या पता कोई मुझे बचाना चाहता हो और उसने गाँठ ही ऐसी लगाई हो। उस भीड़
में कितने ही लोग थे जिन्होंने मुझे गोद में खिलाया था। मेरे साथ खेले थे,
मुझे कंधे पर बैठाकर घुमाया था, पापा की मौत पर मेरे साथ रोए थे।
मैं गले में रस्सी लिए-दिए उठकर भाग चली। हाथ-पैर जकड़ गए थे। मैं लंगड़ाते हुए
फुदक रही थी, तभी लाठियाँ, बंदूकें लिए भीड़ ललकारते हुए मुझ पर झपटी। शरीर
में भय की बिजली कौंधी और मेरे पैरों को पंख लग गए। मैं सरपत के जंगल की ओर
मुड़ गई ताकि ऊँची झाड़ियों के पीछे मुझे कोई खोज न सके। चीखती, पगलाई भीड़
करीब आती जा रही थी और मैं सरपट भागी जा रही थी। मेरे पीछे साँप की तरह लहराती
रस्सी सरसरा रही थी। इतना भी होश नहीं था कि उसे निकाल फेंकूँ। अगर किसी झाड़ी
में उलझती तो मैं इस बार की फाँसी से नहीं बच पाती।
बहुत देर तक भागने के बाद मैंने पीछे मुड़ कर देखना चाहा। अचानक मैं एक विशाल
गड्ढे में लुढ़क गई। कंकालों, गिद्धों, कुत्तों, मांस के लोथड़ों पर लुढ़कते हुए
मैं तलहटी में जाकर थमी तो असह्य बदबू के मारे सिर चकरा रहा था और साँस घुट
रही थी। यह गाँव से काफी दूर कोई गड्ढा था जिसमें मरे जानवर फेंके जाते थे।
मेरे सामने दो भैंसे फटी-नुची पड़ी थीं। और एक लाश किस जानवर की थी पहचानना
मुश्किल था। जानवरों के बिखरे सिर, सींगों, अस्थिपंजर के बीच गिद्ध किंकियाते
हुए मुझ पर उचक-उचककर लपक रहे थे और कुत्ते दाँत फाड़े गुर्रा रहे थे। मैं भय
से जकड़ी बैठी रही। भैंसों के ऊपर और मेरे चारों तरफ गिद्ध ही गिद्ध थे। सौ से
ज्यादा ही रहे होंगे। उनके बीच से कुत्ते उन्हें ठेलकर मुझ पर लपक रहे थे।
गिद्धों के फैलते-सिकुड़ते भारी डैनों से उठती अलग तीखी गंध थी। जल्दी ही मांस
से लिथड़े मेरे शरीर को मक्खियों ने ढक लिया। थोड़ी देर बाद, जब किसी कुत्ते ने
मुझे काटा नहीं तब मैंने धीरे-धीरे गले में बंधी रस्सी के फंदे को ढीला कर
बाहर निकाला, रस्सी को कई परत मोड़ कर चाबुक की तरफ घुमाना शुरू किया तो गिद्ध
उचकते हुए दूर खिसकने लगे। थोड़ी देर में वे समझ गए कि मैं उनके खाने में
हिस्सा बँटाने नहीं आई हूँ, तो वे आपस में लड़ते हुए अपने काम में जुट गए।
अचानक कुत्ते भी शांत हो गए।
गिद्धों की किंकियाहट और मक्खियों की भन-भन से हटकर मैंने कान लगाकर ऊपर की
आवाजें सुनने की कोशिश की तभी बदबू के भभके के साथ, पेट में मरोड़ उठी। उल्टी
के साथ सब कुछ बाहर आ गया। ट्रैक सूट की बाँह से आँसू और लार पोंछकर मैंने
किसी जानवर का पीला पड़ चुका सूखी हड्डियों वाला भारी अस्थिपंजर घसीट-घसीटकर
ओढ़ लिया और उसके नीचे दुबक कर बैठ गई।
बहुत छोटी-छोटी साँसें लेते हुए मैं बदबू की अभ्यस्त होने की कोशिश करने लगी।
यह बहुत सुरक्षित जगह थी। बदबू के मारे देर तक किनारे खड़ा होकर कोई गड्ढे के
भीतर देख नहीं सकता था। अगर देखता भी तो सैकड़ों उचकते गिद्धों के बीच पंजर से
ढकी मैं आसानी से नजर नहीं आ सकती थी। मैंने तय किया कि रात में यहाँ से
निकलूँगी और किसी सड़क या रेलवे लाइन तक पहुँचने के बाद हॉस्टल पहुँच जाऊँगी।
फिर देखा जाएगा।
मैं मांस पर टूटते, थककर किनारे बैठे, आपस में लड़ते, एक दूसरे के पंख खुजलाते
गिद्धों को देखने लगी। यदा-कदा कोई गिद्ध अचानक उचककर मेरी ओर लपकता था, लेकिन
पंजर के करीब आते ही वापस लौट जाता था। उनके इस खिलवाड़ को देखते हुए मैंने
सोचा, "गड्ढे के बाहर आसपास मेरे घर-गाँव के गिद्ध मेरी बोटी-बोटी नोच डालने
के लिए खोज रहे हैं और यहाँ सचमुच के गिद्धों के कारण मैं अभी तक जिंदा हूँ।"
शायद गिद्धों को देखते-देखते थक जाने के कारण मेरी आँखें मुँदने लगीं। मैं सो
रही हूँ, नींद आ रही है... यह खयाल आते ही झुरझुरी दौड़ गई। कहीं इन गिद्धों
और कुत्तों ने मरा समझकर मुझे भी नोच डाला तो, मेरी आँखें ही निकाल लें तो?
अगल-बगल कई जानवरों के सिर थे, जिनमें आँखों की जगह अँधेरे से भरे दो सुराख
थे। मैंने नायलान की फंदे वाली रस्सी को कई परत हाथ में लपेट लिया और हाथ को
इस पोजीशन में रख लिया कि एक झटके में किसी गिद्ध की गर्दन लुढ़काई जा सके।
भारी अस्थिपंजर के नीचे से मैंने धुंधलाते आसमान को देखा। पता नहीं कितने लंबे
इंतजार के बाद अब शाम उतर रही थी। तभी गिद्धों के झुंड में हलचल हुई, वे उड़कर
वापस जाने लगे। वे अपने घोंसलों की ओर लौट रहे थे। भय से मेरा दिल बैठने लगा,
ये चले जाएँगे तो इस वीरान गड्ढे में मुझे वे आसानी से देख लेंगे और खींच ले
जाएँगे। जिनसे मैं अब तक डर रही थी, वे गिद्ध अब मुझे अच्छे लगने लगे। मुझे
रामलीला में देखे जटायु की याद, पता नहीं कहाँ से आई। अगर मैं उनकी भाषा जानती
तो कहती कि आज वे बस थोड़ी देर और रुक जाएँ। मेरे आसपास तब तक रहें जब तक पूरी
तरह अँधेरा न हो जाए। कुत्ते भी एक-एक कर जा रहे थे।
जब आखिरी कुत्ता गड्ढे से निकला, आसमान में एक तारा नजर आने लगा था। तभी मैंने
अपनी तरफ बढ़ती आवाजें सुनीं, लोग इधर ही चले आ रहे थे। गड्ढे के ऊपर
हिलते-डुलते लोग झिलमिलाने लगे। मैंने अपना सिर बाँहों में दबाकर जमीन में
गाड़ दिया कि जरा भी हलचल न हो कि उनका इधर ध्यान जाए। मुझे अपनी धड़कन शोर की
तरह सुनाई दे रही थी।
थोड़ी देर बाद बहुत भारी चीज लुढ़कती हुई आकर गड्ढे में गिरी। मुझे लगा शायद वे
मेरी ओर दौड़ पड़े हैं। मैं वैसी ही मुर्दा बनी पड़ी रही। ऊपर से आवाजें आनी
बंद हो गईं। लोगों के जाते पैरों की आवाज सुनने के बहुत देर बाद मैंने सिर
उठाया तो चारों ओर अँधेरा था, मच्छर भिनभिना रहे थे। हड्डियों के बीच अब भी
ढेरों छोटे-छोटे जानवर इधर उधर डोल रहे थे। वे लोग कोई मरा हुआ जानवर फेंकने
आए थे। मैं बेवजह इतना डर गई थी।
भारी पंजर हटाकर, मैं अँधेरे में मच्छरों को भगाती बैठी रही। फिर धीरे-धीरे
सरकते हुए गड्ढे के बाहर आ गई। आसमान में चाँद निकल रहा था। मैंने गाँव की
उलटी दिशा का अनुमान लगाया और तेजी से चल पड़ी। यह तो मुझे दो दिन बाद पता चला
कि जिसे मैंने जानवर समझा था, वह अविनाश था। फाँसी पर लटकाकर दिनभर नुमाइश
करने के बाद पंचों ने उसकी लाश को उसी गड्ढे में चील-कौवों के खाने के लिए
फेंकवा दिया था।
थोड़ी देर चलने के बाद सड़क पर आती जाती गाड़ियों की बत्तियाँ झिलमिलाने लगीं।
झिझकते-डरते एक ट्रक को रुकवा कर लिफ्ट ली। थोड़ी देर बाद ड्राइवर ने ट्रक
किनारे रोक कर उतरने को कहा, क्योंकि मेरे शरीर की बदबू उसके लिए असह्य थी।
मैंने अपने ट्रैक सूट का अपर खिड़की से बाहर फेंकने के बाद उससे बड़ी देर तक
विनती की, तब जाकर उसने मुझे शहर तक छोड़ा। हॉस्टल आकर वार्डन और कोच से मैंने
पूरा वाकया बताया।
तुम्हारा नाम और मेरी गिरती-पड़ती हिम्मत बहुत काम आई। खिलाड़ियों ने पूरा साथ
दिया। लेकिन पूरे दो दिन बाद पुलिस ने गाँव जाकर अविनाश की अधखाई, सड़ी लाश
बरामद की। चाचा और सरपंच पुलिस को देखकर हट-बढ़ गए थे। पुलिस खानापूरी कर लौट
आई।
महीने भर बाद अब फिर अखबारों से पता चला और माँ ने खबर भिजवाई है कि चाचा को
मचान पर सोते में गोली मारकर खत्म कर दिया गया। अविनाश के भाई सत्यप्रकाश ने
घात लगाकर उनकी हत्या कर दी। बदला लेने के लिए गूजर लगातार उनको खोज रहे थे।
जो हुआ, अच्छा हुआ, लेकिन मेरी मुसीबत अखबारों में छपी चाचा की लाश की फोटो
है। उनके औंधे शरीर पर कपड़े के नाम पर बस मेरी वही सुर्ख लाल स्कर्ट है, खून
में भीगी हुई। लड़कियाँ तक कह रही हैं कि मैं अपने चाचा की 'सिद्ध' की हुई
स्कर्ट पहनकर मैदान में उतरने के कारण ही इतना अच्छा खेलती थी! गाँव में लोग
कह रहे हैं कि मेरा और अविनाश का प्रेम नाटक था। चाचा ने पंचायत सिर्फ अविनाश
को रास्ते से हटाने और मुझे भगाने के लिए बुलाई थी। जब उन्हें गोली मारी गई तब
मैं भी उनके साथ थी और एक बार फिर मौत को चकमा देकर भाग निकली। यह ठीक है,
पापा! चलो थोड़ी देर को मान लिया कि मैंने बिरादरी की इज्जत खराब की, लेकिन
मैं अपनी इज्जत तो सहेज कर रखना चाहती थी। लेकिन वह अब एक लाश की कमर पर खून
से भीगकर हमेशा के लिए चिपक गई है। लेकिन पापा यह बताओ! मान लो, अगर इस वक्त
तुम जिंदा होते तो! कहीं तुम भी तो इज्जत के रहस्यमय प्रेत के असर में पंचों
के साथ तो नहीं खड़े हो गए होते? नहीं पापा, ऐसा मत करना, मेरा यह भरम बनाए
रखना। माफ करना यह पूछा, इसलिए कि अब मैं तुम्हारे जितनी बड़ी हो गई हूँ और
तुम्हारे जूते मेरे पैर में आने लगे हैं।