सांस्थानिक श्रम का आधार सामाजिक फुरसत है, क्योंकि श्रम की क्षमता सामाजिक
फुरसत के सापेक्ष है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि सामाजिक फुरसत से
कार्य क्षमता बढ़ती है। प्रचलित धारणा में फुरसत और कार्य को अलग अलग करके देखा
गया है। जब कोई व्यक्ति अपने फुरसत के समय में होता है तो यह भूल जाता है कि
वह किसी प्रकार के श्रम से भी जुड़ा हुआ है। बल्कि कई बार तो वह अपने शारीरिक
और मानसिक श्रम की थकावट और परेशानियों को दूर करने के लिए ही फुरसत का
इस्तेमाल करता है। फुरसत का अध्ययन सामाजिक व्ययस्था में कार्य, समय की
अवधारणा और फुरसत की अवधारणा के विश्लेषण से संबंधित है। जैसे पाठ्यक्रमेत्तर
क्रियाएँ, खेल, पर्यटन इत्यादि। जो व्यक्तिगत रूप से अधिक मूल्यवान है। यह
उत्पादक हो भी सकता है और उत्पादक नहीं भी हो सकता है, लेकिन इसमें किसी न
किसी सामाजिक भूमिका से जुड़ी जिम्मेदारी निहित होती है। ऐसे में सवाल यह बनता
है कि जीवन चक्र में फुरसत का पैटर्न कैसे बदलता है? कैसे कार्य और फुरसत
अंतःसंबंधित है? इसकी व्याख्या में कहा जा सकता है कि आज फुरसत बाजार के
उत्पाद में परिवर्तित हो गया है। फ्रैंकफ़र्ट स्कूल के वर्क क्रिटिकल थ्योरी ने
'संस्कृति उद्योग' के उद्भव में व्यावसायिक जन मनोरंजन (लोकप्रिय सिनेमा, खेल,
टेलीविज़न, कॉमिक्स और इसी तरह) का निराशाजनक विश्लेषण किया है। Dallas W.
Smythe ने On the Audience Commodity and Its Work नामक लेख में लिखा कि
व्यक्ति के कार्य से बचे हुए समय Audience Work हैं। स्मिथ के 'Audience Work'
की धारणा में पोस्ट इंडस्ट्रियल सोसायटी का फुरसत समय पर भी नियंत्रण किया जा
चुका है। वस्तुतः फुरसत समय में मीडिया के बढ़ते संजाल का प्रभाव है। टीवी,
सिनेमा, इंटरनेट, समाचार-पत्र इत्यादि जो प्रत्येक मनुष्य को बाजार का
मार्केटिंग एजेंट बनाता है। इस तरह से सांस्कृतिक उद्योग ने एक उपभोगी
संस्कृति विकसित किया है। इन विमर्शों के बावजूद भी फुरसत और कार्य क्षेत्र
शायद ही कभी समाज शास्त्रियों के बीच चिंता का विषय रहा है। हालाँकि, 1990 के
दशक में अँग्रेजी भाषी समाजशास्त्र में सांस्कृतिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप
मीडिया, खेल, सांस्कृतिक अध्ययन और उपभोक्तावाद में बढ़ती हुई फुरसत की
गतिविधियों के संकेत मिले हैं और नव मार्क्सवादियों का मानना है कि फुरसत के
समय का मूल्य तेजी से बढ़ रहा है। यह न केवल आर्थिक क्षेत्रों में बल्कि
सामाजिक रूप से भी फुरसत के मूल्य बढ़ते नजर आ रहे हैं। इसका एक प्रमुख कारण है
कि कार्य करने और कार्य न करने की गतिविधियाँ दोनों को तकनीक नियंत्रित कर रही
है। सूचना क्रांति की कई ऐसी विशेषताएँ हैं जो व्यक्ति को व्यक्तिगत,
पारिवारिक और सामाजिक शक्तियों से अलग करती हैं। फ्रांसीसी दार्शनिक बुद्रिला
आधुनिक संचार योग पर विचार करते हुए कहते हैं कि सूचना प्रौद्योगिकी ने
प्रतीकों को राजनैतिक अर्थशास्त्र का रूप दिया है। जिसका इस्तेमाल उत्पाद का
उपभोग करने में और पुनः उपभोग को उत्पाद बनाने में किया जा रहा है।
उदाहरणस्वरूप बातचीत एक सामाजिक प्रक्रिया है, लेकिन मोबाइल से बात करना
माध्यम को बीच में लाना होता है। वस्तुतः अब मोबाइल के माध्यम से बात करने के
लिए 'टॉकटाइम' को खरीदना होता है। इस प्रक्रिया में बातचीत करने वाले दो
व्यक्ति केवल सामाजिक प्रक्रिया का हिस्सा न होकर बाजार का हिस्सा भी हैं और
उपभोक्ता भी है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि सामाजिक से निकालने वाले
समय पर सीधे समाज के व्यक्ति की भागीदारी न होकर मध्यस्थ शोषणकारी व्यवस्था
द्वारा रूपांतरित कर दिया जाता है। अतः यह कहा जा सकता है कि समय जो अब तक
सामाजिक ताने-बाने से निकलता था जिसको एक वृहद 'कॉर्पोरेटाइज्ड' व्यवस्था
द्वारा अधीन कर लिया गया है। पीटर निकसिन्स कार्य, नई प्रौद्योगिकी और
पूँजीवाद के विषय पर अपनी बात रखते हुए स्पष्ट कहते हैं कि कंप्यूटरों और
संचार के इलेक्ट्रोनिक साधनों ने आज कार्यस्थलों के संबंधों को भी बदल दिया
है। नई कार्य की धारणा में अति उच्च दक्षतापूर्ण श्रम की आवश्यकता हो गई है,
जो कार्य प्रक्रिया में जनतंत्रीकरण की संभावनाओं के रास्ते को रोकता है। अब
ज्यादातर कार्य सूचना आधारित कार्य हो गया है। कार्यों की विविधतापूर्ण धारणा
में कम मजदूरी पर कार्य कर रहे मजदूरों से लेकर उच्च वेतनमान वाले पेशेवर
कर्मचारी तक घर से कार्य आधारित कार्यों में लगे हुए हैं। कार्य के इस पैटर्न
में व्यक्ति के जीवन की महत्वपूर्ण 'पूँजी' अर्थात 'सामाजिक पूँजी' कमजोर हो
रही है। अब सवाल यह उठता है कि कार्य के इस पैटर्न में सामाजिक पूँजी कैसे
कमजोर हो रही है? सामाजिक पूँजी काफी हद तक सैद्धांतिक और अनुभवी रूप से फुरसत
और फुरसत की गतिविधियों से संबंधित है। सामाजिक पूँजी प्राथमिक स्तर पर समाज
में फुरसत के व्यवहार और उनकी गतिविधियों के केंद्र में है। सामाजिक पूँजी को
आमतौर पर किसी सामाजिक नेटवर्क में प्राप्त पारस्परिकता की जानकारी, विश्वास
और मानदंड के रूप में समझा जाता है। इस दृष्टिकोण से किसी भी आधुनिक लोकतंत्र
में फुरसत की गतिविधियाँ - औपचारिक और अनौपचारिक सामाजिक संगठनों में
व्यक्तियों की भागीदारी, विशेष रूप से नागरिक उद्देश्य वाले लोग भी -
महत्वपूर्ण हो जाती हैं।
आधुनिक समाजों में जीवन की जटिलता में फुरसत और कार्य समय के बीच का संबंध
अधिक जटिल होता जा रहा है। कार्य में इलेक्ट्रोनिक संकेंद्रण से समय का
सार्वभौमिकरण हो गया है। अब समय के एक ही पैमाने पर कार्य और फुरसत की गतिविधि
दिखती है। उदाहरणस्वरूप - सॉफ्टवेयर विकसित (developer) करने वाले का कार्य और
फुरसत की गतिविधियों में वह अपने कार्य समय में भी विभिन्न सॉफ्टवेयर के
प्रोसेसिंग का कार्य कर रहा होता है, सीख रहा होता है और दूसरी ओर फुरसत समय
में भी सॉफ्टवेयर से संबंधित गेम खेलता है। वह इस गेम के जरिये भी सॉफ्टवेयर
के प्रोसेसिंग और प्रोग्रामिंग सीख रहा होता है। इसी तरह फुरसत की गतिविधियों
में टेलीविज़न देखना या इंटरनेट का इस्तेमाल मनोरंजन के अलावा ज्ञानोत्पादन के
लिए भी किया जा रहा है। लोग पजल गेम का इस्तेमाल भी व्यक्ति अपना मानसिक
व्यायाम और भाषा के सुधार तथा स्वयं के शब्दकोश को समृद्ध करने के लिए कर रहे
हैं। व्यापक रूप से कार्य समय में बेहतर प्रदर्शन के लिए फुरसत समय को
अल्पावधि और दीर्घावधि के अनुभव के रूप में परिभाषित किया जाता है, क्योंकि इन
अवधि में फुरसत की गतिविधियों में नए स्वरूपों की खोज की जा सकती है या मौजूदा
स्वरूप में कुछ नई गतिविधियाँ भी की जा सकती है। दीर्घावधि फुरसत कई कौशलों,
ज्ञान और विशेष अनुभव प्राप्त करने पर केंद्रित है। अल्पावधि फुरसत में
प्रतियोगिताओं में भाग लेना शामिल है। यह दैनंदिन गतिविधियों में महत्वपूर्ण
स्थान रखता है। जैसे कोई कर्मचारी नौकरी कर रहा है और वह मैराथन में प्रतिभागी
के रूप में भाग लेना चाहता है तो वह अपने फुरसत के समय में दौड़ने का अभ्यास
करेगा या फिर किसी स्टेडियम जाकर प्रशिक्षण लेगा। इस तरह के फुरसत की गतिविधि
आनंदमय नहीं होकर कष्टमय भी होती है। परियोजना आधारित फुरसत एक अल्पकालिक
लेकिन थोड़ी जटिल गतिविधि है। इस प्रकार की गतिविधि रचनात्मक गतिविधि की श्रेणी
में आती है। इस तरह की गतिविधि को योजनाबद्ध तरीके से किया जाए तो कुछ हफ्तों,
महीनों या यहाँ तक कि एक वर्ष में ही व्यक्ति के कार्य समय में फर्क नजर आने
लगता है। इसके अलावा आपसी बातचीत, सामाजिक सहभागिता, मूल्यों, नियमों, सामाजिक
मानदंड आदि जो एक व्यक्ति के सामाजीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं,
अल्पावधि फुरसत की गतिविधियों की श्रेणी में आते हैं। जॉन और केली ने फुरसत के
समाजशास्त्र और फुरसत के अध्ययन में प्रतीकात्मक बातचीत को प्रभावी और
महत्वपूर्ण माना है। वह कहते हैं कि यह इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हो जाता है
कि यह व्यक्ति के कार्य को एक पहचान देता है, लेकिन यह साबित करना कठिन कार्य
है कि फुरसत का प्रतीकात्मक अनुभव जीवन के अन्य क्षेत्रों में पहचान बनाता है,
क्योंकि अनुभव का प्रत्यक्ष प्रमाण देना एक कठिन काम है, लेकिन सामाजिक बातचीत
एक उच्च स्तर की फुरसत गतिविधि है, जिसमें प्रतीकात्मक फुरसत के उदाहरण मिलते
हैं। भारतीय संदर्भ में इसकी चर्चा चौपाल की अवधारणा से की जा सकती है।
व्यक्ति अपना फुरसत समय मंदिरों, चाय दुकान, ढाबा, सड़क का चौराहा आदि पर
व्यतीत करते हैं। इसे सामाजिक बातचीत का स्पॉट्स या अड्डा कहते हैं। भारत में
फुरसत की प्रवृत्ति को ठीक से व्याख्यायित करना कठिन है, क्योंकि भारतीय समाज
अभी औद्योगिकीकरण की ओर अग्रसर हो रहा है। यहाँ मौसमी कार्य के बदले ही फुरसत
का ढाँचा बदला जाता है। हर जातीय स्तर में भी फुरसत का अपना एक पैटर्न है।
भारतीयों में समय की सांस्कृतिक विविधता का गुण पाया जाता है। यहाँ की भौतिक
विशेषताएँ और भूवैज्ञानिक संरचना ने इसकी संस्कृति को बहुत तरीके से प्रभावित
किया है। उत्तर भारत की संस्कृति दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर भारत की संस्कृति
से अपेक्षाकृत बहुत अलग है। यहाँ प्रत्येक राज्य स्वयं की पहचान बनाने के लिए
त्योहारों और सांस्कृतिक मान्यताओं में राज्य अवकाश घोषित करता है। यहाँ कार्य
और फुरसत के बीच मिथक है कि कार्य और फुरसत अलग और परस्पर जीवन के विरोधी
क्षेत्र रहे हैं। भारतीय शास्त्र में फुरसत के दो पैरामीटर, शास्त्रीय और लोक
है। दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व का लंबा इतिहास है और दोनों के अलग अलग
समकालीन रूप में विवरण है। जिसका विस्तार संस्थानीकरण की ओर हुआ है। इसका
नतीजा यह है कि फुरसत के अधिकांश साधनों को निजीकृत किया गया। जिसके लिए अब
व्यक्ति वाणिज्यक संस्थाओं पर निर्भर हो गया है।
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