काम खत्म होने के बाद संजना और अभिजीत सेट से बाहर निकले और कैब मे बैठ गए। वे
शूटिंग के तीनों शैड्यूल निपटा चुके थे। सुबह छह बजे से रात दस बजे तक लगातार
काम करने का नतीजा यह था कि दोनों इतने थक गए थे कि एक-दूसरे से बात करने की
ताकत भी उनमे नहीं बची थी। वे पिछली सीट पर बेजान से पसरे पड़े थे। जब आधा
फासला तै हो गया, तो संजना को होश आया, खुद को थोड़ा सँभालते हुए वह सीट पर
सीधी बैठ गई और अपने हैंडबैग को सँभालने लगी, उसने अपने हैंडबैग से पहले एक
पैड निकालकर अपनी गोद मे रखा फिर अपने दोनों हाथों से उसने अपने बालों को
सँवारा फिर उसे समेटकर क्लचर लगा दिया।
"अब हमें सीरियसली यह सोचना पड़ेगा, कि इस मामले को कैसे खत्म किया जाए।"
अभिजीत ने संजना की गोद में पड़े स्पंज से बनाए गए उस पैड को सहलाते हुए कहा।
वह एक ऐसा पैड था, जो बाजार में नहीं मिलता, फिल्म वाले अपनी फौरी जरूरतों के
लिए ऐसी कई चीजों का इजाद करते रहते है। यह पैड भी फिल्म के क्राफ्ट आर्टिस्ट
की एक ऐसी इजाद थी, जिसे केवल तब इस्तेमाल में लाया जाता था, जब किसी
अभिनेत्री को गर्भवती स्त्री का रोल अदा करना हो।
"तुम्हारे इस होने वाले बच्चे की असलियत अगर रावत साहब को मालूम हो गई तो..."
"तुम ये मत भूलो की ये बच्चा सिर्फ मेरा नहीं है।" संजना ने तीखे लहजे में
कहा, "इस मामले के जिम्मेदार मुझसे ज्यादा तुम हो... तुमने झूठ बोलकर मुझे
फँसा दिया है।"
"संजना! तुम जानती हो कि मुझे क्यों झूठ बोलना पड़ा। हम तीन महीने से रूम का
किराया नहीं दे पाए थे, रावत साहब की हमदर्दी हासिल करने के लिए मुझे यह झूठ
बोलना पड़ा कि तुम प्रेग्नेंट हो।"
"लेकिन अब मैं तंग आ चुकी हूँ... आखिर कब तक मैं एक्टिंग करती रहूँगी, अगर मैं
सचमुच माँ बनने वाली होती तो शायद इतनी परेशान न होती, जितनी अभी इस नकली और
दिखावटी प्रेग्नेंसी से परेशान हूँ।"
अभिजीत ने अपना दायाँ हाथ संजना के बाएँ हाथ पर रखा और एक गहरी साँस ली,
"मैंने पहले ही कहा था कि तुम मिस कैरेज के बहाने सात आठ दिनों की छुट्टी ले
लो लेकिन तुम नहीं मानी। अगर शुरुआत में ही मिस कैरेज हो जाता तो बात इतनी आगे
नहीं बढ़ती।"
"अगर मैं छुट्टी लेती तो मेरे काम से भी मेरी छुट्टी हो जाती, तुम जानते हो कि
प्रॉडक्शन से जुड़े लोग कितने प्रोफेशनल होते हैं।"
अभिजीत ने सहमति में सिर हिलाया और थोड़ा नजदीक आकर उसके हाथ को अपने दोनों
हाथों में ले लिया, "अगर तुम्हें अपने भाई के एडमिशन के लिए एक बड़ी रकम की
जरूरत न होती, तो शायद तुम मेरी बात मान जाती।"
संजना ने मुँह फेरकर अभिजीत की तरफ देखा, कुछ देर चुप रही, फिर उसने भी अपना
दायाँ हाथ अभिजीत के हाथों पर रख दिया।
"अगर तुमने उस समय मेरी हेल्प न की होती, तो एडमिशन न हो पाता।"
"अगर तुमने भी हॉस्पिटल जाकर एडवांस डिपॉजिट नहीं किया होता तो मेरे पापा का
ऑपरेशन न हो पाता।"
संजना ने चेहरा झुका लिया। दोनों यह जानते थे, कि इन आकस्मिक और अनिवार्य
जरूरतों के कारण वे तीन महीने तक रूम का किराया नहीं दे पाए थे।
अभिजीत ने कुछ देर बाद एक लंबी साँस छोड़ते हुए कहा, "खैर, छोड़ो पिछली बातों को
जो हुआ सो हुआ अब आगे की सोचो।"
संजना की दाईं आँख के पास हल्की-सी नमी उभर आई। अपनी तर्जनी से उसे पोंछने के
बाद उसने एक बार फिर खिड़की की तरफ मुँह फेर लिया।
"मुझे डर सिर्फ इस बात का है, कि सच जानने के बाद कहीं रावत साहब को शॉक न लग
जाए। उन्होंने तो अभी से पालना मँगवाकर रख लिया है और ढेर सारे टोयज भी। वे
यूट्यूब से बेबी केयरिंग के टिप्स भी डाउनलोड करते रहते हैं। कह रहे थे कि तुम
लोग अपने काम पर ध्यान देना बच्चे को मैं सँभाल लूँगा।"
"दरअसल हम दोनों को जरा भी यह एहसास नहीं था कि रावत साहब इतने सेंसटिव हैं।
जिस दिन से उन्हें मालूम पड़ा है, कि तुम प्रेग्नेंट हो उस दिन से उनका दिमाग
एक आई.सी.यू. में बादल गया है।"
"हाँ! बिलकुल सही बात हैं, हमारी इतनी फिक्र तो हमारे सगे माँ बाप भी नहीं
करते, जितनी रावत साहब करते हैं।"
रास्ते भर दोनों इसी उलझन में थे कि अब क्या किया जाए। जिस पैड के सहारे वे
रावत साहब के सामने प्रेग्नेंसी को 'शो' करते हुए उनसे अतिरिक्त सहानुभूति
हासिल कर रहे थे, उस सहानुभूति के कर्ज का बोझ अब उनके लिए असहनीय हो गया था।
घर पहुँचने से पहले संजना ने अपनी ढीली ढाली कुर्ती का निचला सिरा ऊपर उठा कर
पैड अपने पेट पर रखा और हाथ पीछे डालकर स्ट्रेप को एक हुक के सहारे एक दूसरे
से जोड़ दिया, अब वह हर रोज की तरह फिर से गर्भवती हो गई।
दो साल पहले उन दोनों ने रावत साहब के टू बी.एच.के. के फ्लैट का एक रूम बतौर
पेइंग गेस्ट किराए से लिया था, तब वे मुंबई में अपने पाँव थोड़े-थोड़े जमा चुके
थे। यहाँ तक पहुँचने से पहले उन्होंने बिहार के अपने कस्बों से निकलकर पटना
में कुछ साल गुजारे थे।
पटना की सरगर्मियों और बहुआयामी सांस्कृतिक गतिविधियों ने उनकी प्रतिभा को
निखारने में एक अहम भूमिका निभाई थी। यही वजह है कि मुंबई की एक्टिंग स्कूलों
से निकले चिकने-चुपड़े सॉफ्टबीगिनर्स की तुलना में वे बेहतर साबित हुए थे, उनके
अनुभव बहुत टफ और खुरदरे थे। उनके हर ऑडिशन में उनका 'लोक' उनके साथ शामिल
रहता था और साथ ही वह सामाजिक चेतना और दृष्टि भी जो उन्होंने पटना के नाट्य
आंदोलनों से अर्जित की थी।
दो-तीन साल के संघर्षो के बाद दोनों को एक साथ एक ही धारावाहिक में काम करने
का मौका मिल गया था। अनुबंध से मिलने वाली रकम इतनी ज्यादा नहीं थी कि वे एक
फ्लैट किराए से ले पाते, लेकिन आमदनी इतनी कम भी नहीं थी कि उन्हें दस-दस
स्ट्रगलरों के साथ एक ही डोरमेट्री में रहना पड़े।
बजट और सुविधा दोनों चीजों का ध्यान रखते हुए दोनों ने पार्टनरशिप में रावत
साहब के फ्लैट का एक रूम किराए से ले लिया। रावत साहब कुँवारे स्ट्रगलरों को
रूम देने के बजाय शादी-शुदा जोड़े को प्राथमिकता देते थे। लेकिन जिस ब्रोकर ने
उन्हें यह रूम दिलाया था, उसका नाम राजू टोपी उर्फ बोलवचन था। गंजेपन के कारण
वह हमेशा टोपी पहने रहता था, और दलाल होने के कारण झूठ बोलने और टोपी पहनाने
में माहिर था। उसने बिना कोई प्रूफ दिए बातों-बातों में रावत साहब को कनविन्स
कर दिया था कि वे दोनों पति-पत्नी हैं।
मामला पहले जितना सरल दिखाई दे रहा था, बाद में उतना ही उलझता चला गया। उन्हें
लगा था कि रावत साहब भी किसी ऐसे ही मकान मालिक जैसे होंगे, जो सिर्फ किराए के
अलावा किसी दूसरी चीज से मतलब नहीं रखते, लेकिन बाद में मालूम पड़ा वे किराए को
छोड़ कर हर ऐसी चीज से मतलब रखते थे, जो मानवीय संबंधों से जुड़ी हों।
वे सबसे सलाम-दुआ रखते थे। बहुत खुशमिसाज और उत्साही थे, आगे बढ़ कर हर तरह की
जिम्मेदारी उठा लेते थे और जरूरत पड़ने पर उतने ही अधिकार से सब को डाँट-डपट
देते थे, वे हालाँकि थोड़े भुल्लकड़ थे और उन्हें सुनाई भी कम देता था लेकिन
अपनी याददाश्त और अपने कानों पर भरोसा करने के बजाय वे अपने दिल पर भरोसा करते
थे। उनका दिल हालाँकि कई तरह की भावनात्मक मूर्खताओं से भरा रहता था लेकिन फिर
भी वे अपने आस पास के लोगों के आपसी संबंधों की जटिल से जटिल समस्याओं को
चुटकियों में सुलझा लेते थे। दरअसल उनकी मूल प्रवत्ति ही कुछ ऐसी थी, कि वे
हमेशा उस जगह मोजूद रहते थे, जहाँ कुछ हो रहा हो और अगर कहीं कुछ नहीं हो रहा
होता तो वहाँ उनके पहुँचते ही खुद-ब-खुद एक मीठी हलचल शुरू हो जाती थी। वे उन
लोगों से एक तरह का जज्बाती रिश्ता बना लेते थे, जिनके के अंदर से समय के तेज
बदलाव ने प्रेम, उम्मीद और भविष्य के सपनों को छीन लिया है। हालाँकि वे खुद
जानते ही नहीं थे कि दुनिया कितनी बादल गई हैं। वे तो सिर्फ अपनी धुन में रहते
थे किसी कलंदर की तरह, जो अपनी सहज वृत्तियों से अपने आस-पास के तमाम ताम- झाम
और उलटफेर को जज्ब कर लेता है और उसके अंदर की मथानी उन सब चीजों को मथ कर एक
नया रूप दे देती है।
उस फ्लैट स्कीम के अन्य बूढ़ों की तरह उन्हें कभी किसी ने धार्मिक सत्संग में
श्रद्धा भाव से आँख मूँद कर भजन-कीर्तन करते या किसी योगा क्लास में
अनुलोम-विलोम करते या किसी लाफ्टर क्लब में कहकहे लगाते नहीं देखा। न! वे ऐसी
किसी भी आदर्श जगहों पर कभी नहीं दिखाई नहीं देते थे, हाँ! पान और चाय की टपरी
पर वे गप मारते हुए दिखाई दे सकते हैं। पंचर बनाने वाले सब्जी बेचने वाले,
आस-पास के बिल्डिंगों के चौकीदार, अखबार के हॉकर, फेरीवाले, कुल्फी बेचने वाले
और आस-पड़ोस के बच्चे; ये सब उनके सोहबती थे।
बात अगर खून के रिश्तों की की जाए, तो उस मामले में वे बिलकुल अकेले थे। उनकी
पत्नी का दस साल पहले निधन हो गया था और दोनों बेटे विदेश में सेटल हो गए थे।
इन महानगरीय केंद्रों में ऐसे बहुत-से बुजुर्ग अकेले रह गए हैं, जिनकी संतानें
अब प्रवासी हो गई हैं, लेकिन उनकी जगह दूर-दराज के कस्बों से आने वाली नई पीढ़ी
ने ले ली। जितने युवा हर साल बड़े शहरों से विदेश चले जाते हैं उतने ही युवा
कस्बों से महानगरों में आ जाते हैं। न तो अकेले पड़ गए बुजुर्ग यह जानते हैं और
न अपने मूल स्थानों से उखड़ कर आने वाले युवा कि समय की इस रेलमपेल ने उन दोनों
को एक-दूसरे का पूरक बना दिया हैं, अपने बच्चों से बिछुड़े बुजुर्गो को किसी
भावनात्मक सहारे की जितनी जरूरत होती हैं, उतनी ही संघर्षशील युवाओं को किसी
बड़े बुजुर्ग के सान्निध्य की; यह ताल-मेल बनना अपने आप शुरू हो गया था। कुछ
जरूरतें अपना रास्ता खुद बना लेती हैं। जीवन का यह एक सकारात्मक पक्ष था।
लेकिन बहुत से पाश्चात्य विशेषज्ञों ने यह घोषणा कर दी थी कि अब इन नई आर्थिक
परिस्थितियों के कारण जीवन का पारस्परिक ताल-मेल नष्ट हो जाएगा और सारे के
सारे मूल्य भी नष्ट हो जाएँगे। उन विशेषज्ञों का असर जन-जीवन में उतना नहीं था
लेकिन टेलीविजन पर चलने वाले धारावाहिकों में जिस महानागरीय जीवन को प्रचारित
किया जा रहा था, वह जीवन बिलकुल संवेदनहीन और अमानवीय था। सिर्फ धारावाहिकों
में ही नहीं बल्कि रियलिटी शो में भी जो प्रायोजित किस्म की नकली रियलिटी
दिखाई जा रही थी, वह भी किसी तरह के सत्य को सामने लाने के बजाय टी.आर.पी. की
क्रूर शर्तों को पूरी करने के लिए दिखाई जाती थी।
कुटिलता जीवन में उतनी नहीं थी, जितनी टी.आर.पी. के नियामकों के दिमाग में, वे
कोई और जीवन मूल्य स्थापित करना चाहते थे, क्यों? यह किसी को नहीं मालूम। कुछ
बातें ऐसी होती हैं, जिसका जवाब हमारे मौजूदा वक्त के पास नहीं होता। उसके लिए
आने वाले वक्त का इंतजार करना पड़ता है।
जिस धारावाहिक में अभिजीत और संजना काम कर रह थे, उसमें प्रेम और मानवीय
संबंधों को बाजारू बना देने की मनोवृत्ति पूरी तरह से हावी थी, उसमें ऐसे
चरित्रों की भरमार थी, जो झूठ, चालाकी, पाखंड, और कुटिलता से भरे थे। वे बेहद
मतलबी, अवसरवादी, धूर्त और तिकड़मी थे और अपने स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक जा
सकते थे।
संजना और अभिजीत हालाँकि अपने कस्बाई संस्कारों के कारण वैसे नहीं थे लेकिन
परिस्थितियों और भविष्य की भयानक अनिश्चतता के कारण वे भी सतर्क रहते थे।
उन्हें डर लगा रहता था कि अगर वे अवसरों को खो देंगे, तो उन्हें प्रतिस्पर्धा
से बाहर निकाल दिया जाएगा। अगर वे दूसरों के प्रति नरम रवैया अपनाएँगे, तो
उनके लिए यह नुकसानदायक साबित होगा। इन सब करणों से उनके आचरण में तत्परता और
प्रखरता हावी होती जा रही थी। कई बार उन्हें प्रभावशाली लोगों को प्रभावित
करने के लिए झुकना भी पड़ता था।
वे दिन-रात काम में लगे रहते थे। कभी किसी रियलिटी शो में, कभी टेलेंट हंट
में, कभी डांस परफॉर्मेंस, कभी ओडीशन, कभी धारावाहिक की शूटिंग कभी फिल्मों
में कोई साइड रोल। उनकी इस हायपर एक्टिविटी ने कब उनकी भूख, नींद, और सहजता को
उनसे छीन लिया, यह उन्हें मालूम ही नहीं पड़ा, वे दिन-ब-दिन क्षीण और कांतिहीन
होते जा रहे थे। जिस ऊर्जा और तेवर के साथ वे यहाँ आए थे उसकी धार कम हो रही
थी। वे उन लोक तत्वों की ताकत को भी खोते जा रहे थे, जो शुरुआत में उनकी तासीर
में शामिल थी। कुल मिला कर जो कुछ हो रहा था, वह उनकी प्रकृति के अनुकूल नहीं
था।
लेकिन जैसा कि हमेशा होता आया हैं, समय का बदलाव हमारे साथ चाहे जितनी
ज्यादतियाँ करे, पर कुछ ऐसे लचीले तत्व भी हमेशा मौजूद रहते हैं, जो मौजूदा
हालत को हमारी मूल सम्वेदनाओं से जोड़े रखते हैं, उन दोनों के साथ सबसे अच्छी
बात यह थी कि रावत साहब उनके साथ थे।
रावत साहब को उन दोनों की यह रूटीन पसंद नहीं थी। संजना को इस हालत में
भाग-दौड़ बिलकुल नहीं करनी चाहिए। वे उसे खुश और सेहतमंद रखने के वे सभी प्रयास
करते रहते थे, जो 'गर्भावस्था' के दौरान बहुत जरूरी होते हैं। सुबह जब संजना
अपने बेडरूम से बाहर आती, रावत साहब एक हाथ में ताजा फूल और दूसरे हाथ में जूस
का गिलास लिए उनके सामने खड़े दिखाई देते। ड्राइंग रूम में उनके म्यूजिक सिस्टम
में टाईम्स म्यूजिक द्वारा रिकॉर्ड किया गया कोई मधुर ट्रेक चलता रहता था
एलिमेंट्स सिरीज से विंड्स, वॉटर, अर्थ या स्पेस और रिलेक्सेशन या मेडिटेशन
सिरीज से कोई और संगीत; वे उसे रोज नई धुन सुनाते थे, नए दिन की शुरुआत
सुगंधित, स्वादिष्ट कर्णप्रिय और सुदिंग होनी चाहिए। जब संजना अपना हैंडबैग
उठाकर बाहर जाने के लिए तैयार हो जाती, तो वे उसे अपनी बाँह के कोमल घेरे में
लेकर चूम लेते। फिर वे अभिजीत को तरह-तरह की हिदायतें देने लगते और कई बार उसे
डाँट भी देते, बेवकूफ और गधे जैसे संबोधन अब अभिजीत के लिए आम हो गए थे।
उन तीनों के संबंधों में जो प्रगाढ़ता और पारदर्शिता थी, वह यूँ ही नहीं चली आई
थी ये संबंध मध्यम आँच में पके थे। ये बने बनाए खून के रिश्ते नहीं थे,
बनते-बनते बने रिश्ते थे।
शुरुआत में जब वे इस फ्लैट में रहने आए थे तब वह फ्लैट सिर्फ फ्लैट था, उसमें
किसी 'घर' जैसी फीलिंग नहीं थी। उस फ्लैट का ड्राइंग रूम कामन था और किचन भी
कामन था लेकिन किचन का उपयोग दो भागो में बँटा हुआ था। बाईं तरफ की सेल्फ ओनर
की थी, जिसमें रावत साहब के बर्तन और क्राकरी रखे जाते थे। दाईं तरफ की सेल्फ
पी.जी. के लिए आरक्षित थी। किचन प्लेटफॉर्म के नीचे मोडुलर ट्रालियाँ थी -
बाईं तरफ की ट्रालियों में ओनर का राशन रखा जाता था, दाईं तरफ पी.जी. के लिए
राशन रखने की व्यवस्था थी बीच की ट्रॉली में पार्टिशन था, जिसमें चम्मचें,
छुरियाँ, सलाइजर, पोर्क, रोटी पकाने के चिमटे, और तमाम तरह के किचन टूल्स रखे
जाते थे। आधे इधर आधे उधर, आधे इनके आधे उनके, फ्रिज के ऊपर वाले दो सेल्फ ओनर
के थे और नीचे वाले पी.जी. के। डाइनिंग टेबल का इस्तेमाल भी आधे-आधे में बँटा
हुआ था। इस व्यवस्था में हालाँकि सब कुछ सेपरेट था और कभी किसी की प्राईवेसी
में कोई दखलंदाजी नहीं होती थी लेकिन उन्हें मालूम नहीं था कि निर्जीव चीजों
की भी अपनी चाल होती है वे इधर-उधर होती रहती हैं, चीजें आपस में कोई भेद भाव
नहीं करती उनमें यह बोध ही नहीं होता कि एक-दूसरे से अलग कैसे रहा जा सकता है।
लिहाजा सबसे पहले कुछ हमशक्ल चम्मचें आपस में घुल-मिल गई फिर कुछ एक जैसे
रूपाकार वाली कप प्लेटें और गिलास आपस में मिल गए फिर कुछ मसालो की डिब्बियाँ
अपना पता भूल बैठीं।
जब सब चीजें इधर-उधर हो रही थी, तो बेलन और चिमटे भी क्यों अपनी जगह पड़े रहते?
कुछ दिनों बाद तो राशन की ट्रॉलियों में भी अफरा तफरी मच गई आटा चावल तरह-तरह
कि दालों और बड़ियों के जार भी इधर-उधर होने लगे। जिसके हाथ में जो आया वही
चूल्हे पर चढ़ा दिया जाता, और तीन थालियों में परोस दिया जाता। नमकदानियों का
तो ये हाल था कि उन्हें खुद भी थे मालूम नहीं था कि वे किसकी है, जो लोग घर
गृहस्थी के बारे में कुछ जानते हैं उन्हें यह अच्छे से मालूम होता है कि नमक
कभी किसी का नहीं होता। लोग अक्सर एक-दूसरे पर यह इल्जाम लगाते रहते हैं कि
"तुम नमकहराम हो।" लेकिन लोग यह नहीं जानते कि नमक खुद कितना नमकहराम होता है।
बहरहाल उस 'नमकहराम नमक' का और आपस में मिली-जुली मनमौजी चीजों का असर कुछ ऐसा
हुआ कि वह फ्लैट एक मुकम्मल घर में बदल गया और घर में रहने वाले उन तीनों का
स्वभाव, उनकी आदतें, रहन-सहन और खान-पान भी आपस में घुल-मिल गया, और जब इतना
सब आपस में गड-मड हो गया हो, तो किसी भी तरह का कोई 'हिसाब' कैसे संभव हो सकता
था?
पहले तो किराए की निर्धारित तारीख ही सब भूल गए फिर किराया शब्द का इस्तेमाल
होना भी बंद हो गया। रावत साहब को अच्छी खासी पेंशन मिलती थी उनके दोनों बेटे
भी उनके खाते में अच्छी खासी रकम भेज दिया करते थे। संजना और अभिजीत के पास भी
अब काम की और पैसों की कमी नहीं थी लेकिन मुश्किल ये थी कि उन तीनों की
फिजूलखर्ची के कारण घर कबाड़खाने में बादल गया था। उन तीनों को खर्च करना तो
आता था लेकिन कोई हिसाब करना नहीं आता था इधर-उधर हर तरफ पसारे फैलाना तो आता
था, समेटना नहीं आता था। हालाँकि वे आलसी या गैरजिम्मेदार नहीं थे लेकिन घरेलू
काम के तौर-तरीके और रख-रखाव के गुण किसी में नहीं थे।
उस घर में जो मेड काम करने आती थी वह भी किसी से कम नहीं थी। उसे काम करना कम
आता था काम करवाना ज्यादा आता था। वह हमेशा आदेश-निर्देश देती रहती थी - ऐसा
करो, वैसा करो, इस चीज को यहाँ रखो, उस चीज को वहाँ रखो, कोई भी खाने-पीने की
चीज फेंकने में नहीं जानी चाहिए वरना मैं ऐसा कर दूँगी वरना मैं वैसा कर
दूँगी...
बेचारे तीनों हमेशा उससे डरे-सहमे रहते थे क्योंकि सिर्फ वही थी, जो यह जानती
थी कि घर कैसे चलता है। उस घर को चलाने के चक्कर में वह भी यह भूल गई थी कि
उसकी पगार कि तारीख कौन-सी है और कितनी पगार ठहराई गई थी।
कुल मिलाकर यह एक ऐसी स्वतःस्फूर्त गृहस्थी बन गई थी, जो न किसी रिश्ते-नाते
से बँधी थी न किसी नियम-कायदे से।
रावत साहब जितने सुरुचि-संपन्न थे उतने ही फक्कड़ और भुलक्कड़ भी थे। संजना
जितनी प्यारी, चंचल और शरारती थी, उतनी ही बेवकूफ भी और अभिजीत जितना वाकपटु
और होशियार था उतना ही सनकी भी।
भुलक्कड़पन बेवकूफी और सनक इन तीन प्रमुख चीजों से बनी 'खिचड़ी' उस गृहस्थी का
मूल आधार थी।
खान-पान, रहन-सहन, अच्छी-बुरी आदतें और स्वभाव की विविधता के मामले तो खैर
जैसे-तैसे सँभल जाते थे और बिना किसी बाधा के यह गृहस्थी चल ही रही थी लेकिन
असली समस्या थी संजना की प्रेग्नेंसी और उससे जुड़ी रावत साहब की भावनाएँ।
आने वाले नए मेहमान की किलकारियाँ और उसकी बाल लीलाओं के दृश्य उनकी कल्पना
में स्थायित्व पा चुके थे। एक तरफ तो उन्होंने यथार्थ से आखें मूँद ली थी और
दूसरी तरफ उनकी आँखों में नव-जीवन के सुखद-सुंदर क्षण झिलमिलाते रहते थे। यह
उनकी आत्मा की आँखें थी, जो भविष्य के सुंदर स्वप्न देख रही थीं। उन्होंने
अपने प्रवासी बेटों और अपने पोतों को भी यह बता रहा था कि हमारे घर में एक नया
मेहमान आ रहा हैं। अपने पोतों के साथ वीडियो कॉलिंग के दौरान वे उन्हें चिढ़ाने
के लिए उन सब खिलौनों का लाइव प्रदर्शन करते थे, जिसे वे आने वाले बच्चे के
लिए जमा कर रहे थे। उनके पोते बहुत उत्साहित थे, वे उन्हें व्हाट्सएप पर
नन्हें ब्च्चों की शरारतों और उनकी मासूम मुस्कुराहटों के वीडियो भेजते रहते
थे। रावत साहब तुरंत ऐसे वीडियो संजना को फारवर्ड कर देते थे जवाब में संजना
भी उन्हें स्माइली भेज देती थी, लेकिन उसके चेहरे पर मुस्कुराहट के बजाए एक
नर्वस आकुलता उमड़ आती थी, और कई बार वह अपने आँसुओं को रोक नहीं पाती थी।
इमोजी बनाने वालों ने आज तक यह नहीं सोचा होगा कि एक उदास और रोता हुआ इनसान
जब स्माइली का इस्तमाल करेगा तब उसके चेहरे पर कैसे भाव आएँगे।
रावत साहब को संजना के उन भावों के बारे में कुछ मालूम नहीं था। उनकी तमाम
सुखद कल्पनाएँ एक तरफ थी और सच्चाई एक तरफ।
एक दिन घर पहुँचने से पहले संजना और अभिजीत ने निर्णय लिया कि आज इस सच्चाई को
किसी भी हालत में उजागर कर ही देंगे, बाद में यह केस और क्रिटिकल हो जाएगा। आज
नहीं तो कल उन्हें मालूम तो पड़ ही जाएगा, फिर क्यों न आज ही मामले को खत्म कर
दिया जाए।
लेकिन जब वे घर पहुँचे, तो उन्होंने देखा, वहाँ अड़ोस-पड़ोस के कई बच्चे जमा थे।
सिर्फ फ्लैट में रहने वाले बच्चे ही नहीं सरवेंट क्वार्टर में रहने वाले बच्चे
भी मौजूद थे। ड्राइंगरूम कई तरह की रंग-बिरंगी झालरों और गुब्बारों से सजा था।
डिजिटल लाईट इफेक्ट्स का भी इंतजाम किया गया था। दीवार पर बड़े-बड़े अक्षरों में
लिखा था - हॅप्पी बर्थडे टू रावत अंकल।
सेंट्रल टेबल पर एक केक था जिसमे अँग्रेजी के अंकों के आकार वाली दो
मोमबत्तियाँ गड़ी हुई थी एक मोमबत्ती 7 के आकार की थी दूसरी 0 के आकार की। कोई
कह नहीं सकता था की आज रावत साहब का सत्तरवाँ जन्मदिन है। वे कहीं से सत्तर
साल के नहीं लगते थे। जैसे ही अभिजीत और संजना घर में दाखिल हुए, बच्चे खुशी
से झूम उठे। उनके लिए यह सरप्राइज पार्टी थी। उन्हें अगर कुछ मालूम होता तो वे
तैयारी के साथ आते। लेकिन अब कुछ नहीं किया जा सकता था। दोनों ने अपनी बाँहें
फैला दी। रावत साहब ने दोनों को एक साथ अपनी बाहों में ले लिया। संजना ने अपना
सिर रावत साहब के सीने पर रख दिया था। वह भावुक हो उठी थी। कुछ देर बाद उसने
अपना चेहरा ऊपर उठाया, "हॅप्पी बर्थड़े माई डीयर गॉड फादर..."
"अरे! तुम रोते हुए बर्थडे विश करती हो? मुझे पहले मालूम होता तो मैं जन्म दिन
ही नहीं मनाता।" रावत साहब ने उसका चेहरा अपने हाथो में ले लिया और अपने
अँगूठों से उसके आँसू पोछ दिए।
"बर्थडे आप नहीं मना रहे हो अंकल बर्थडे हम माना रहे हैं..." बड़ी उम्र के एक
लड़के ने ऊँची आवाज में कहा और सब बच्चे शोर मचाने लगे। फिर वे केक के
इर्द-गिर्द घेरा बनाकर गाना गाने लगे। जन्मदिन की शुभकामनाओं का वह समूह गान
जैसे ही पूरा हुआ तालियाँ बज उठी। केक काटने के बाद उसकी मिठास उस उल्लास भरे
वातावरण में फैल गई।
वे दोनों हालाँकि उस गहमा-गहमी में बराबर के शरीक थे, लेकिन अपनी डाँवाडोल
मनःस्थिति के कारण वे माहौल में रम नहीं पा रहे थे। बच्चों ने संजना को घेर
लिया। वे उससे उस डांस की फरमाइश करने लगे, जो उसने कुछ दिन पहले एक टेलीविजन
शो में प्रस्तुत किया था। संजना कुछ देर हिचकिचाती रही लेकिन उसके चेहरे पर
किसी तरह की नापसंदगी या असहयोग का भाव नहीं था। वह रावत साहब के कारण संकोच
कर रही थी। रावत साहब बच्चों को समझाते रह गए कि 'अभी संजना दीदी को परेशान मत
करो वह थक गई है। उसकी तबीयत भी अच्छी नहीं है...' लेकिन तब तक म्यूजिक सिस्टम
में वह ट्रेक शुरू हो गया जिस पर संजना ने डांस किया था और उस कंपीटिशन का
फस्ट प्राइज जीता था, बच्चों ने हल्ला मचाते हुए संजना को चारों तरफ से घेर
लिया। अब बचने का कोई चारा नहीं था।
वह एक बहुत फास्ट ट्रेक था और उसमे परफॉर्मेंस के दौरान बहुत उछल-कूद करनी
पड़ती थी, लेकिन संजना एहतियात बरतते हुए हल्के-फुल्के स्टेप्स ले रही थी, और
खुद कम नाचते हुए बच्चों को ज्यादा नचाने की कोशिश कर रही थी। जिस बड़े लड़के ने
माहौल खड़ा करने में सबसे अहम भूमिका निभाई थी, उसने अभिजीत और रावत साहब को भी
खींच कर घेरे मे ले लिया। कुछ तो उस धुन का असर था, और कुछ बच्चों की उमंग का,
उस ट्रेक के चरम क्षणों में संजना के सारे एहतियात पीछे छूट गए उसकी ये सबसे
बड़ी कमजोरी थी कि एक बार किसी तरंग में पड़ जाने के बाद वह अपना आपा खो बैठती
थी। शोर हलचल और जलती-बुझती रंग-बिरंगी रोशनियों की चकाचोंध में वह यह भूल गई
कि उसने अपने पेट में एक पैड भी लगा रखा है और उस पैड के एक सिरे को दूसरे
सिरे से जोड़े रखने वाला हुक कुछ दिनों से ढीला पढ़ गया है, जिस धागे से उस हुक
को टाँका गया था उसकी सीवन उधड़ गई थी और टाँका कभी भी टूट सकता था
और जब तक उसे इस बात का एहसास होता कि कुछ गड़बड़ हो गई है, तब तक बहुत देर हो
चुकी थी। जिस गुप्त भेद को उसने इतनी कठिनाई से इतने दिनों से छुपा रखा था वह
एक ही पल में सरेआम हो गया। बच्चे इस नए और हास्यास्पद अजूबे को देखकर पहले तो
दंग रह गए फिर वे सब खिलखिला कर हँस पड़े। संजना की नजर जब उस चीज पर पड़ी, तो
उसने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक लिया। उसकी इच्छा हुई कि धरती फट जाए और वो
उसमे समा जाए। अब उसे उस चीज को छुपने की नहीं खुद को छुपाने की जरूरत थी।
शर्म और अपराधबोध से वह पसीने से तर-बतर हो उठी। उसे लग रहा था जैसे सब के
सामने उसके कपड़े उतर गए हों।
बच्चो की धींगा-मस्ती अभी तक जारी थी वे उस मुलायम और गुदगुदी चीज को छू रहे
थे, अपने हाथों से उसे दबा रहे थे और हँस-हँस कर लोटपोट हो रहे थे।
म्यूजिक सिस्टम अचानक बंद कर दिया गया।
"सब चुप हो जाओ..."
यह रावत साहब की आवाज थी।
बच्चों के बीच काना-फूसी होने लगी। कुछ बच्चे जो अपनी हँसी रोक नहीं पा रहे
थे, उन्होंने अपने मुँह पर हाथ रख दिए। संजना को अभी भी अपने चेहरे से हाथ
हटाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। किसी ने उसे अपनी बाँह के सहारे ड्राइंगरूम
से बेडरूम तक पहुँचा दिया। वह अपनी बेड पर औंधे मुँह गिर पड़ी।
मंजर अचानक बादल गया था। बच्चे कुछ समझ नहीं पा रहे थे, कुछ बच्चे प्रश्न भरी
नजरों से एक दूसरे की तरफ देख रहे थे। अभिजीत बेडरूम में संजना को
समझाने-बुझाने की कोशिश कर रहा था फिर वह प्यार से उसे धीरज बंधाने लगा, लेकिन
जवाब में संजना की और भी तेज सिसकियाँ सुनाई देने लगीं। अभिजीत का मन असहाय
करुणा से बोझिल हो उठा। वह वहीं फर्श पर बैठ गया। दीवार से अपनी पीठ टिका ली
और घुटनों पर कोहनियाँ रखकर दोनों हाथों से अपना सिर थाम लिया।
घर में सन्नाटा छा गया। ड्राइंगरूम के दरवाजे के पास रावत साहब एक बड़ा-सा
बॉक्स हाथ में लिए खड़े थे। वो बच्चों को रिटर्न गिफ्ट दे रहे थे और उन्हें
विदा कर रहे थे कुछ देर बाद सब चले गए।
कुछ देर बाद अभिजीत ने सिर उठा कर देखा, ड्राइंगरूम में चारों तरफ बिखरी अधखाई
प्लेटों, आइसक्रीम के कपों और पंखे की हवा मे लहराती रंग बिरंगी झालरों के बीच
रावत साहब अकेले खड़े थे। उनके हाथ में वह पैड था। कुछ देर उस पैड को थामे वे
खड़े रहे फिर उसे अपने साथ लेकर अपने कमरे में चले गए।
सूबह संजना देर से उठी। जब वह अपने कमरे से बाहर आई तो रोज की तरह आज रावत
साहब जूस और फूल लिए हुए खड़े दिखाई नहीं दिए। संजना ने अपने बिखरे हुए बालों
का जूड़ा बनाया और काम में भिड़ गई। सबसे पहले ड्राइंगरूम में बिखरी हुई चीजों
को समेटना जरूरी था कुछ देर बाद अभिजीत भी आकर हाथ बँटाने लगा। दोनों चुप थे।
ड्राइंगरूम की साफ-सफाई के बाद वे किचन में चले गए। प्लेटों में पड़ी झूठन को
डस्टबिन में डालने के बाद उसने सभी प्लेट चम्मचों को सिंक में धोने के लिए रख
दिया। अभिजीत ने चाय की तैयारी शुरू कर दी और वह नाश्ते की तैयारी करने लगी।
किचन के काम से फारिग होने के बाद जब संजना अपने कमरे में वापस जा रही थी, तब
उसने देखा, रावत साहब के कमरे का दरवाजा खुला था। वे दरवाजे की तरफ पीठ फेरकर
जमीन पर पालथी मार के बैठे थे। उनके आस-पास क्राफ्ट और आर्ट वर्क के लिए काम
में आने वाली चीजे फैली थी आम तौर पर वे सिर्फ रविवार के दिन बच्चों को
ड्राइंग और क्राफ्ट सिखाते थे, लेकिन उस दिन न तो रविवार था नहीं उनके साथ
बच्चे थे। वे अकेले अपने काम में मगन थे। वे कैंची से किसी चीज को बहुत सख्ती
से काट रहे थे। दोनों में से किसी की उनसे बात करने की हिम्मत नहीं हुई। वे
चुपचाप तैयार हुए नाश्ता किया और रावत साहब का नाश्ता डाइनिंग टेबल पर ढककर
रखने के बाद घर से बाहर चले गए।
दिन भर दोनों का किसी काम में मन नहीं लगा। आज के शिड्यूल में उनके सीरियल के
उस एपिसोड को शूट करना था जिसमें शादी के कुछ हर्ष उल्लाह वाले दृश्य थे। एक
अभिनेता के लिए यह बहुत मुश्किल क्षण होते हैं। अगर वह खुद अपने किन्हीं निजी
करणों से डिप्रेशन में हो और उसे एक हँसते-चहकते किरदार को अभिनीत करना पड़े।
नए अभिनेताओं को यह मालूम नहीं होता कि जीवन में कभी ऐसे हालत भी आ सकते हैं।
उन्हें यह भी मालूम नहीं होता कि कोई और सेट डिजाइनर भी है जो आपके जीवन में
सेट लगाएगा। कोई एक और स्क्रिप्ट रायटर भी है, जो आपके निजी संबंधों के बीच एक
नई सीक्वेंस खड़ी कर देगा और एक अज्ञात निर्देशक भी है, जो आपको अपने चेहरे से
मेकअप हटाने का मौका दिए बगैर अचानक एक ऐसा शॉट देने के लिए कहेगा जिसके ओके
होने की कभी कोई गुंजाइश नहीं होती। कई बार रिशूट के बावजूद कई ऐसे शॉट होते
हैं जो ओके होने के इंतजार में पड़े रहते हैं।
सेट पर उस तनावपूर्ण आत्मसंघर्ष के बाद जब वे वापस घर लौट रहे थे, तब संजना
बुरी तरह से नर्वस थी - अपने लो परफार्मेंस के कारण भी और यह सोच कर भी कि अब
घर जाकर एक और ज्यादा मुश्किल सिचुएशन का सामना करना पड़ेगा।
लेकिन जब वे घर पहुँचे तो रावत साहब पड़ोस का एक अजीबो-गरीब मामला सुलझाने बैठे
थे। उन्होंने देखा कि ड्राइंगरूम में सोफे पर सामने वाले घर में रहने वाले
पति-पत्नी बैठे थे। सेंट्रल टेबेल पर बहुत सारी पेपर शीट पड़ी थी, जिसमें अलग
अलग रंगो से कुछ आँकड़े, कुछ चिह्न और कुछ अँग्रेजी के शब्द अंकित थे।
संजना और अभिजीत अपने इन पड़ोसियों को जानते थे। पति आईटी इंजिनियर था और पत्नी
हाउसवाइफ। उनके घर से आए दिन ऊँची आवाजों में झगड़ने की आवाजें आती थी।
रावत साहब ने संजना और अभिजीत को अपने पास बैठने का इशारा किया। उनके आने से
पति-पत्नी थोड़े असहज हो गए, वे किसी मामले के अत्यंत नाजुक और महत्वपूर्ण
बिंदु तक पहुँच चुके थे। रावत साहब ने बात जारी रखने का इशारा किया और एक
संक्षिप्त संकोचपूर्ण रुकावट के बाद सुनवाई फिर शुरू हो गई।
आईटी की पत्नी ने कुछ ही दिन पहले उसके ऊपर घरेलू हिंसा का मामला दर्ज किया
था। उसका यह आरोप था कि उसका पति उससे हद से ज्यादा परफेकशन की उम्मीद रखता है
वह घरेलू कामों की भी रोज नई वर्कशीट बनाता है। वह चाहता है कि दिन भर के
घरेलू कामों का ब्योरा अलग अलग रंगों में दर्ज किया जाए। वह पहले ही निर्धारित
कर देता है कि कौन-कौन से काम किस समय करना है, उसके द्वारा तयशुदा कोई काम
किसी वजह से नहीं हो पाया तो उसके लिए भी अलग से एक कालम है, जिसमे विस्तार से
यह लिखना जरूरी है कि काम क्यों नहीं हो पाया। काम न हो पाने की वजह कितनी भी
जेनुइन हो, लेकिन वह उससे संतुष्ट नहीं होता और उससे गाली-गलोच करता है। वह
मेरा और मेरी बेटी का वजन हर सप्ताह चेक करता है। हमारे वजन के हिसाब से डाइट
चार्ट बनाता है। उसने किचन में भी एक वेइंग मशीन लगा रखी हैं। दाल, चावल, आटा,
सब्जी बिना नाप-तोल किए कोई भी चीज इस्तेमाल नहीं हो सकती। हर चीज की मात्र भी
उसी ने तै की है। वेइंग मशीन में अक्सर टेक्निकल प्रॉब्लम आती रहती है लेकिन
सब्जी में अगर मसाला या दाल में नमक ज्यादा पड़ जाए तो मार उस मशीन को नहीं
मुझे खानी पड़ती हैं और तो और मेरे हाथ से बनी रोटी को भी वह मेजरिंग टेप से
नापता है। उसके निर्धारित माप के अनुसार रोटी का व्यास पाँच इंच होना चाहिए।
अगर रोटी एक सूत भी कम ज्यादा हुई तो वह उसे मेरे मुँह पर फेंक देता है।
रावत साहब के सामने वर्क शीट के ऊपर एक रोटी भी पड़ी थी, जिसे संजना और अभिजीत
ने तब देखा जब रोटी का जिक्र आया। वे दोनों आश्चर्य से एक दूसरे का मुँह देखते
रह गए। रावत साहब गौर से रोटी को देख रहे थे। कुछ देर बार उन्होंने सिर उठाया
और पति-पत्नी से मुखातिब हुए, "रोटी के बारे में कोई इनसान केवल तब सोचता है
जब या तो वह भूखा हो या उसकी भूख मर जाती है। इस शहर में ऐसे कई लोग होंगे, जो
भूखे पेट गुजारा कर रहे होंगे और कई ऐसे भी होंगे जो अपने पेट में मरी हुई भूख
लिए हुए घूम रहे हैं। वे नहीं जानते कि जैसे भूखे को रोटी की जरूरत होती है,
वैसे ही रोटी को भी भूख की जरूरत होती है।"
इतना कहने के बाद रावत साहब ने आईटी की पत्नी से आखें मिलाई, "क्या कभी तुम
अपने पति को लंच आवर में फोन कर के यह पूछती हो कि तुमने खाना खा लिया?"
"नहीं।"
"क्यों? तुम्हें यह जरूरी नहीं लगता?"
"दरअसल मेरा पूरा ध्यान उस शीट पर होता है। मुझे टाइम टू टाइम सब काम निपटाने
पड़ते हैं। अब आप ही बताइए मैं उनके लंच का ध्यान रखूँ या उस वर्क शीट का, जो
वे मेरे छोड़ जाते हैं?"
रावत साहब ने पत्नी की बात पर सहमति में सिर हिलाया, "क्या तुम अपना लंच
आफिशियल लंच ब्रेक मे लेते हो?"
"नहीं! हमारे वर्क प्लेस में लंच का कोई फिक्स टाइम नहीं होता।"
आईटी के इस जवाब पर अभिजीत ने तुरंत सहमति जताई।
"बिलकुल ठीक कह रहे हैं ये। कई बार हमारा शिड्यूल इतना टाइट होता है, कि हम
अपना लंच बॉक्स भी नहीं खोल पाते।"
रावत साहब के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कुराहट आ गई। उन्होंने फिर आईटी से पूछा,
"अच्छा तुम अब ये बताओ कि जब तुम काम पर पहुँचते हो तब क्या तुम्हारी डेस्क की
वाल पर भी कोई वर्क शीट लगी होती है?"
"जी सर!"
"क्या तुम उसमें दर्शाए गए कामों को ठीक उसी तरह और उसी समय पूरा कर पाते हो?"
"नहीं अक्सर ऐसा नहीं हो पाता।"
"जब वैसा नहीं हो पाता तब तुम्हारे हैड तुम्हारे साथ किस तरह पेश आते है?"
आईटी का चेहरा उतर गया। कुछ कहने के बजाए उसने सिर झुका लिया।
संजना ने तुरंत अभिजीत की तरफ देखा और मुस्कुरा दी। जैसे उसे इस पूरे मामले का
कोई अहम पहलू दिखाई दे गया हो। कहने की जरूरत नहीं थी कि उन दोनों के संबंधों
के बीच एक शीट और थी, जिसका नियामक कोई और था "आपके पास एक प्लेन शीट है?"
रावत साहब ने आईटी से पूछा।
"हाँ हैं।" उसने झट से खड़े होते हुआ कहा, "क्या शीट के साथ आपको मार्कर पेन भी
चाहिए ?"
"हाँ! बिलकुल... दोनों चाहिए।"
वह आदमी उठा और अपने घर से दोनों चीजें उठा लाया। रावत साहब ने दूसरी तमाम
शीटों को परे सरकाते हुए प्लेन शीट को सेंट्रल टेबल के बीचों-बीच रखा और
मार्कर पेन से दो अलग-अलग ब्लॉक बनाए, और दोनों ब्लॉकों में अलग-अलग कालम
बनाने लगे। एक ब्लॉक प्रोफेशन वर्क के लिए था दूसरा डोमेस्टिक वर्क के लिए;
बीच की खाली जगह में उन्होंने बड़े-बड़े अक्षरों से ऊपर "सिस्टम" लिखा और नीचे
"रोटी"।
आईटी और उसकी पत्नी गौर से उस शीट को देखते रहे, जिसमें काम की जिम्मेदारियों
और उनके रिश्तों के ताने-बाने का एक व्यवस्थित पैटर्न तैयार किया गया था। कुछ
देर बाद शीट से नजरें हटा कर पति- पत्नी ने एक-दूसरे कि तरफ देखा। उनकी आँखों
में कोई जाना पहचाना भाव दिखाई देने लगा। वे एक नए सिरे से एक-दूसरे को समझने
की कोशिश करते दिखाई दे रहे थे।
कुछ देर बाद पति उठा और बड़े हिकारत वाले भाव से अपनी उन वर्क शीटों को समेटने
लगा।
"डस्टबिन वहाँ हैं।" रावत साहब ने ड्राइंगरूम के कोने मे पड़े डस्टबिन की तरफ
इशारा किया।
"ये डस्टबिन बहुत छोटा हैं।" आईटी ने मुसकुराते हुए कहा, "मैं अपनी उन शीटों
को किसी डंपिंग यार्ड मे फेंक आऊँगा।"
रावत साहब ने उठ कर उसकी पीठ थपथपाते हुए शाबासी दी।
आईटी की पत्नी ने रावत साहब की शीट को अपने हाथों से रोल किया और मुसकुराते
हुए कहा, "आपकी यह 'रिलेशन शीट' हमारे ड्राइंगरूम की वाल पर हमेशा लगी रहेगी।"
पति-पत्नी के लिए यह अनुभव बहुत विरल था। संजना और अभिजीत भी अभिभूत थे।
"आप इतनी आसानी से कैसे सब चीजों को समझ लेते हैं?"
संजना ने पूछा और अभिजीत ने उसके सवाल को आगे बढ़ाया, "और वो भी इतनी
कांप्लिकेटेड चीजों को, जो हमें इतना उलझा देती हैं कि हम कुछ सोच ही नहीं
पाते।"
इससे पहले कि रावत साहब कोई जवाब दे पाते आईटी ने भी सवाल पूछ लिया, "सर! कहाँ
से सीखा अपने यह हुनर क्या आप कोई काउंसलर हैं।"
पति की इस बात को तुरंत काटते हुए पत्नी बीच में बोल पड़ी, "अरे नहीं नहीं...
काउंसलर तो बहुत छोटी चीज है, रावत साहब कोई काउंसलर नहीं त्रिकालदर्शी हैं।"
"अरे भई मुझे भी तो कुछ बोलने दोगे।" रावत साहब ने सबको चुप कराते हुए कहा,
"मैं न तो कोई काउंसलर हूँ न त्रिकालदर्शी। बात बस इतनी सी है कि जैसे तुम लोग
हताश होने के कोई न कोई कारण खोज लेते हो, वैसे ही मैं उम्मीद की कोई न कोई
बेवकूफी भरी वजह खोज लेता हूँ।"
इस बात पर सब हँसने लगे फिर अभिजीत ने रुआँसे स्वर में एक्टिंग करते हुए कहा,
"काश हम भी आपकी तरह बेवकूफ होते।"
"अरे भई! मैं उतना बेवकूफ भी नहीं हूँ। बस यूँ समझ लो कि कभी-कभी तुक्का चल
जाता है। कुछ लोग मेरी बात मान जाते है। ऐसा संयोग बन जाता है कि कुछ मामले
मेरे हाथों में आकर अच्छी तरह निपट जाते हैं।"
हास-परिहास के ये मधुर क्षण कब बीत गए किसी को पता नहीं चला। जब पति-पत्नी
विदा लेकर चले गए, तो अभिजीत और संजना एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। दोनों को
समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए।
संजना रावत साहब द्वारा कही गई बातों को याद करते हुए कोई ऐसा बिंदु खोज रही
थी, जो उनके मामले को सुलझाने मे सहायक हो।
रावत साहब के हाव-भाव से ये अंदाज लगाना मुश्किल था कि कल की घटना का उनके ऊपर
क्या असर हुआ है? पड़ोसियों के चले जाने के बाद भी वे सहज थे लेकिन संजना और
अभिजीत का बुरा हाल था। वे कुछ कहना चाहते थे लेकिन कह नहीं पा रहे थे।
उहा-पोह से बचने के लिए वे इधर-उधर की बातें करने लगे। मुख्य मुद्दे पर आने से
पहले की जाने वाली इस तरह की बातें हालाँकि फालतू होती हैं, लेकिन उससे भूमिका
बांधने का समय मिल जाता है।
"आज तुम दोनों इतनी जल्दी कैसे आ गए?"
रावत साहब ने इधर-उधर की उनकी बातों को बीच में काटते हुए पूछा। अभिजीत ने
संजना की तरफ देखा फिर नजरे चुराते हुए कहा, "आज संजना बहुत अप्सेट थी। हमारा
एक भी शॉट ओके नहीं हो पाया।"
"कोई बात नहीं... कल ठीक हो जाएगा, सब दिन एक जैसे नहीं होते।"
यह पहली बार था, जब वे इतने फॉर्मल ढंग से बात कर रहे थे।
"यही बात मैं संजना को समझा चुका हूँ कि जो होना था वह हो गया। उस बात को लेकर
तुम अपने आप को ज्यादा तकलीफ मत दो।"
उन दोनों को यह उम्मीद थी कि अब वे जरूर पूछेंगे कि 'क्या हो गया? क्यों इतनी
परेशान हो?' लेकिन उनका लहजा इस बार भी सपाट था, "हाँ... ज्यादा सोचना नहीं
चाहिए, जब जब जो जो होता है तब तब सो सो होता है।"
उनके लहजे से बिलकुल ये जाहिर नहीं हो रहा था कि वे किसके लिए यह बात कह रहे
हैं। संजना के साथ जो हुआ उसके लिए या खुद उनके साथ जो हुआ उसके लिए।
कुछ देर बात वे उठ कर खड़े हो गए, "अच्छा तो अब मैं टहल कर आता हूँ।"
वे अपने रनिंग शूज पहनने लगे, जूते की लेस बांधने के बाद वे बिना उनकी तरफ
देखे घर से बाहर चले गए। संजना और अभिजीत फिर एक बार एक दूसरे का चेहरा देखते
रह गए।
बाहर आने के बाद जीने की सीढ़ियाँ उतरते वक्त रावत साहब को लगा कि उनका बर्ताव
ठीक नहीं है। हालाँकि वे संजना को किसी तरह की चोट पहुँचाने के लिए उसके साथ
ऐसा व्यवहार नहीं कर रहे थे, दरअसल वे भी उस संभावित स्थिति से कतराने की
कोशिश कर रहे थे। उन्हें डर था की कल वाले मामले का जिक्र आते ही संजना
फूट-फूट कर रोने लगेगी, वे उसे उस असहाय रूप में नहीं देखना चाहते थे वे संजना
के चेहरे पर शर्मिंदगी का भाव भी नहीं देखना चाहते थे उन्हें डर था अगर ऐसा
हुआ तो वे उसे धीरज बँधाने के बजाय खुद ही भर भरा जाएँगे।
संजना और अभिजीत को रावत साहब की इन भावनाओं के बारे में कुछ भी मालूम नहीं
था। वे कल रात से आज शाम तक की उनकी सभी बातों और गतिविधियों और चेहरे के
एक्स्प्रेशन को याद करते हुए तरह-तरह के अनुमान लगा रहे थे। उनके उपेक्षा भरे
रवैये के कारण संजना की कोमल भावनाओं को बहुत ठेस पहुँची थी। पीड़ा और आक्रोश
के कारण वह जो कुछ भी सोच रही थी और जिस तरह की भी कल्पना कर रही थी, वह
वस्तुपरक होने के बजाए एक अपराध पीड़ित व्यक्ति की बौखलाई हुई मानसिकता थी।
वह खुद को यह सोचने से रोक ही नहीं पा रही थी कि उस पैड का रावत साहब ने क्या
किया होगा। उसे लग रहा था कि सुबह वे कमरे में पीठ फेरकर इसीलिए बैठे थे। उनके
एक हाथ में कैंची थी। अपनी पूरी नफरत के साथ उस कैंची से उन्होंने पैड के
टुकड़े-टुकड़े कर दिए होंगे... बार-बार यही सोचते हुए उसे लगने लगा कि यही हुआ
होगा... हाँ... बिलकुल यही हुआ होगा। वह अपने संदेह को पुष्ट करने के लिए रावत
साहब के कमरे में चली गई। उनकी सब अलमारियों और दराजों को देखने लगी। फिर उसे
खयाल आया कि उस पैड का काम तमाम करने के बाद उसके टुकड़ों को उन्होंने डस्टबिन
में डाल दिया होगा। वह तुरंत पलटकर ड्राइंगरूम में आई। डस्टबिन का ढक्कन खोलते
ही उसने अपना हाथ मुँह पर रख दिया - पैड कि छोटी छोटी कतरनों के साथ उसमें
इलास्टिक कि दो पट्टियाँ भी पड़ी थीं।
संजना को पहली बार लगा कि कोई आदमी चाहे कितना भी रहमदिल हो, लेकिन जब उसके
दिल को गहरी चोट लगती है तो वह क्रूर हत्यारे में भी बदल सकता है। संजना ने
अपनी कल्पना में उस पैड का जो एकमात्र हश्र देख लिया था, उसके अलावा वह दूसरा
कुछ सोच ही नहीं सकती थी उसके चेहरे पर एक साथ कई भाव आ जा रहे थे कुछ ऐसे
भाव, जो उन मादाओं के चेहरों पर तब आते है जब कोई शिकारी जानवर उनके नवजात
बच्चे को उसी के सामने चीथ डालता है।
संजना जब इस तरह की कल्पना में खोई थी और रावत साहब के बारे में कुछ भी
अनाप-सनाप सोच रही थी तब रावत साहब पार्क की बेंच पर बैठे यह सोच रहे थे कि
बेचारी संजना अब भी यही सोच रही होंगी कि मुझे उसकी झूठी कहानी के बारे में
कुछ भी पहले से मालूम नहीं था, और कल अचानक जो सच सामने आया, उसे जानकर मैं
उससे नाराज हूँ।
"हूः ह ह!" उन्होंने जोर से सिर झटक दिया, 'कितनी बेवकूफ है ये यह लड़की...' वे
भावावेग मे बड़बड़ाने लगे, खुद तो बेवकूफ है, और मुझे भी बेवकूफ समझती है ...अरे
भई! मुझे तो सब कुछ पहले से मालूम था... मैंने उस टकले दलाल की बातों में आकर
उन्हें रूम किराए से नहीं दिया था। मुझे तो पहली नजर में ही प्यार हो गया था
...ओह! उसका चेहरा कितना रूहानी है और दोनों की जोड़ी कितनी प्यारी है और उनकी
जिंदगी कितनी बहुरंगी और कितनी बहुआयामी है। मैं उनकी सारी खट्टी-मीठी उलझनों
और उनकी बचकानी मुसीबतों से प्यार करता हूँ ...और ये जो इतने दिनों से गोलमाल
चल रहा है, उसे भी मैंने यही सोचकर चलने दिया है कि चलो भई ठीक है! वे दोनों
अगर मुझे बुद्धू बना रहे है, तो यही सही, अगर मेरी टिंगल ले रहे हैं तो यही
सही, कम से कम इसी बहाने दोनों का थोड़ा मनोरंजन हो जाएगा। बेचारे इंटरटेनमेंट
इंडस्ट्री से जुड़े लोगों पर मुझे दया आती है... दूसरों को इंटरटेन करते-करते
वे खुद के दिलो-दिमाग का ध्यान नहीं रख पाते... जाहिर है मैं तो इस लुका-छिपी
के खेल को सिर्फ खेल के रूप मे ले रहा हूँ। मुझे क्या मालूम था कि वह इस मामले
को इतनी गंभीरता से ले रही है?
रावत साहब बहुत ज्यादा चिंतित हो उठे, अगर ये लड़की अभी तक कुछ समझ नहीं पाई
है, तो आगे क्या होगा? आज दिन भर की मेहनत के बाद मैंने उस पैड को जो नया रूप
दिया है, उसे देख कर वो क्या सोचेगी? कही खुश होने के बजाए वह अपनी कृतघ्नता
के लिए पश्चाताप तो नहीं करने लग जाएगी? कुछ देर बाद इस खयाल से वे और भी
परेशान हो उठे कि कहीं वह यह न समझ बैठे कि कि मैंने उसका मजाक उड़ाने के लिए
उस पैड को एक बेबी गर्ल में बदल दिया है। मैंने उस बेबी गर्ल के चेहरे को
हु-ब-हु संजना के चेहरे जैसा बनाने में कितनी मेहनत की है लेकिन गुस्से में
आकर अगर वह ये पूछेगी कि क्या जरूरत थी मेरे निजी मामले को हाथ में लेने की?
किससे पूछकर आपने ये सब किया? तो मै क्या जवाब दूँगा?
रावत साहब को लगा कि उनकी गैरहाजिरी में कुछ अनर्थ न हो जाए। वे फौरन उठ खड़े
हुए। इससे पहले कि संजना उस बेबी को देख ले उन्हें वहाँ पहुँच जाना चाहिए...
उनकी चाल तेज हो गई... फुटपाथ पर वे दो-तीन बार आते-जाते लोगो से टकरा गए। सड़क
क्रॉस करते समय उन्हें सिग्नल का भी ध्यान नहीं रहा। शॉर्टकट लेने के चक्कर
में वे एक तंग और बेहद भीड़-भाड़ वाली गली में फँस गए। गली से बाहर निकले तो उस
सड़क को भूल गए, जो उन्हें जल्दी घर पहुँचा सकती थी।
और उधर घर में 'बेबी संजना' अपने पालने में लेटी मंद-मंद मुस्कुरा रही थी।
उसके दोनों जन्मदाता परेशान थे। एक जन्मदाता हड़बड़ी में घर की तरफ लौट रहा था,
यह सोचते हुए; कि कही संजना उसे पालने से उठाकर खिड़की के बाहर न फेंक दे।
दूसरी जन्मदाता रोते-बिलखाते हुए अपना बोरिया-बिस्तर बांध रही थी, "उन्हें इस
तरह मेरा अपमान नहीं करना चाहिए... मुझे मजबूरी में झूठ बोलना पड़ा था लेकिन
मैं कोई आवारा या चरित्रहीन लड़की नहीं हूँ... वे मुझे दो तमाचे लगा सकते थे
बाल पकड़ कर घर से बाहर निकाल सकते थे लेकिन एक बच्चे को कैंची से काट-काट कर
उसके टुकड़े-टुकड़े कर डस्टबिन में फेंक देना कितना भयानक है... मैं कभी भूल नई
पाऊँगी... मैं कभी उन्हें माफ नई कर पाऊँगी..."
संजना की नजर अभी तक सिर्फ डस्टबिन पर पड़ी थी, पालने में लेटी बेबी संजना कि
मुस्कराहट पर नहीं; अब उसकी मुस्कराहट और गहरी हो गई। वह अपने दोनों
जन्मदाताओं कि मूर्खता पर हँस रही थी।