ये कोई साल 1994-95 की बात होगी। गर्मियों के दिन थे। अप्रैल, मई और जून के
	महीने में पड़ने वाली इलाहाबादी गर्मी के बारे में कहा जाता है कि यह आदमी का
	भी तेल निकाल लेती है। अकबर इलाहाबादी ऐसी ही गर्मियों के लिए कह गए हैं कि
	'पड़ जाए बदन पर वहीं 'अकबर' के फफोले, पढ़कर जो कोई फूँक दे अप्रैल, मई और
	जून।' अब अंदाज लगा लीजिए उन इलाहाबादी गर्मियों का जिनका नाम लेने से ही बदन
	पर फफोले पड़ सकते हैं।
	इन महीनों में तो सुबह आठ बजते-बजते सूरज अपनी लाल-पीली आँखों से सबको को
	डाँटता-डपटता सा दिखाई पड़ने लगता है। हर किसी पर उसका गुस्सा उतरने लगता।
	दोपहर में तो सड़कों पर सन्नाटा छा जाता है। कोई निकलता भी तो खुद को खूब
	ढाक-तोप के। अंगौछे में अपना मुँह लपेटे बगल से कौन निकल गया, कई बार तो यह
	पहचानना भी मुश्किल हो जाता।
	मई और जून की ऐसी ही कोई दोपहर थी वह। मेरे बड़े भाई जैसे अजीज दोस्त अंशु
	मालवीय उस समय इलाहाबाद से निकलने वाले एक अखबार में कॉलम लिखा करते थे।
	'प्रयाग मेरा परदेस'। यह कॉलम उन लोगों के लिए था जो देश के किसी और हिस्से से
	इलाहाबाद आए तो बस यहीं बस गए। उनके जीवन में प्रयाग किसी पूरी तरह से रच-बस
	गया। उसी कॉलम के लिए उन्हें कालिया जी का साक्षात्कार लेना था। रवींद्र
	कालिया। साहित्यकारों की श्रेणी में मेरे लिए यह बहुत बड़ा नाम था। उस समय तक
	मैंने लिखा तो कुछ खास नहीं था। लेकिन शुरू से ही पढ़ने का शौक रहा है। किताब
	जो भी मिली बस उसे पढ़ ही डाली। कालिया जी का नाम भी ऐसे ही सुना था। उनकी कुछ
	कहानियाँ भी पढ़ रखी थी। इसलिए जब अंशु मालवीय ने साथ चलने के लिए कहा तो लगा
	कि जैसे इतने बड़े आदमी से मुलाकात का मौका मिलेगा।
	मैं और अंशु आमने-सामने रहते थे। कालिया जी का घर हमारे घर से मुश्किल से दो
	सौ मीटर की दूरी पर था। दोपहर का दम टूट रहा था जब हम उनके घर पहुँचे।
	साक्षात्कार के लिए पहले ही उनसे वक्त लिया जा चुका था। कालिया जी हमें घर के
	ऊपर वाले कमरे में मिले। पतले-दुबले और लंबे से कालिया जी की अँगुलियों पर ही
	आकर मेरी निगाह टिक गई। खूब लंबी-लंबी, पतली-पतली उँगलियाँ। उसी उँगली में एक
	पेन हाथ में फँसाए वो किसी लेख को संपादित कर रहे थे। कालिया जी उस समय
	इलाहाबाद से 'गंगा जमुना' नाम से साप्ताहिक अखबार निकाला करते थे। इस अखबार
	में इलाहाबाद की सप्ताह भर की सांस्कृतिक-सामाजिक हलचलों का जिक्र तो रहता ही
	था। साथ ही देश की बड़ी राजनीतिक घटनाओं का विश्लेषण भी कालिया जी की सधी हुई
	निगाह के नीचे हुआ करता था। गंगा जमुना के लिए ही शायद वह कोई लेख था, जिस पर
	वे कुछ निशान भी लगा रहे थे। थोड़ी रस्मी बातचीत के बाद उनसे साक्षात्कार शुरू
	हो गया।
	अंशु सवाल पूछते गए और कालिया जी जवाब देते गए। उस पूरे साक्षात्कार में मुझे
	कुछ खास नहीं करना था। बस मैं तो बैठे-बैठे बातचीत सुनता रहा। कैसे देश के
	अलग-अलग हिस्सों में रहने के बाद कालिया जी इलाहाबाद आए। कैसे उन्होंने यहाँ
	अपना प्रेस चलाना शुरू किया। पहले इलाहाबाद के सबसे ज्यादा भीड़-भाड़ वाले
	हिस्से रानी मंडी में वे रचे-बसे थे। फिर मेंहदौरी कॉलोनी में आ गए। बीच-बीच
	में पंजाब की बातें। अपने कॉलेज के दिन। पढ़ाई। मोहन राकेश और जगजीत सिंह का
	साथ। मुंबई और दिल्ली की बातें। उन्हें कहानियाँ सुनाने का शौक था। उनके
	किस्से अमूर्त नहीं थे। इसलिए शहरों और लोगों के साथ जुड़े हुए तमाम किस्से
	उनके मुँह से धारा-प्रवाह झरते रहते थे। उनका अंदाज बड़ा शरारती था। कई
	किस्सों को जब वे याद करते तो उनके चेहरे पर वही शरारत दोबारा से झलकने लगती।
	साक्षात्कार में शायद सुविधा के लिए ऐसा हुआ कि उनकी बात सुनते-सुनते जब अंशु
	उसे नोट करने लगते तो वे मेरी तरफ मुखातिब होकर अपनी बात सुनाने लगते। मैं भी
	उनकी बात सुन-सुनकर बस हामी पर हामी भरे जा रहा था।
	इसी दौरान उन्होंने मुझसे मेरा परिचय पूछा। मेरा मन शुरू से ही बड़ा संकुचित
	रहा है। जहाँ भी थोड़ी असुरक्षा हो या माहौल माफिक न हो, मन किसी खोल में बंद
	हो जाता। लेकिन, यह उनका बड़ा ही खिलंदड़ अंदाज था जो कुछ ही देर में मैं
	उन्हें तब के किस्से सुनाने लगा जब मेंहदौरी कॉलोनी की नींव डाली जा रही थी।
	मैंने उन्हें बताया कि जहाँ आज आपका मकान है, कभी वहीं कहीं आस-पास ताड़ के
	पेड़ हुआ करते थे। पुराने, ऊँचे-ऊँचे ताड़ के पेड़। ऐसे पेड़ अब बस शिवकुटी के
	रास्ते में ही एक-दो बचे हुए हैं। मेरी बात पर वो आश्चर्य करते जाते और कुतुहल
	के साथ पूछते जाते। आज सोचता हूँ तो लगता है कि बड़े कथाकारों का सबसे बड़ा
	गुण शायद कहानियाँ सुनाना भर नहीं होता। सामान्य लोगों की कहानियाँ दिलचस्पी
	के साथ सुनना भी उनके गुणों में शामिल होता है। किस्से में पूरी दिलचस्पी से
	भरी हुई उनकी हामियाँ सुनाने वाले का उत्साह दोगुना कर देती हैं और वह ज्यादा
	बारीकी से उसे सुनाने लगता है।
	यहाँ प्रसंगवश यह भी बताता चलूँ कि मेंहदौरी कॉलोनी में उनके बसने की भी बड़ी
	रोचक कहानियाँ ममता जी बयान करती हैं। रानी मंडी में रहने के दौरान ही कालिया
	जी ने यहाँ पर फ्लैट बुक करा लिया था। उस समय इस पूरे इलाके की तसवीर ही और
	थी। गंगा का किनारा। छोटे-छोटे मंदिर। रसूलाबाद गाँव। सामने तेलियरगंज का छोटा
	सा बाजार। बगल में इंजीनियरिंग कॉलेज। लेकिन, रानीमंडी की चहल-पहल में रहने के
	आदी मन को यहाँ पर आश्वस्ति नहीं मिलती थी। बाद में कभी ममता जी बड़े रोचक
	अंदाज में बताया करतीं कि मेंहदौरी कॉलोनी में जाकर बसने से वे खुद और बच्चे
	भी हिचकिचाते रहते। लेकिन, कालिया जी गाहे-बगाहे अपने स्कूटर पर मेंहदौरी
	कॉलोनी के लिए निकलते और घर से एक-दो गमले ले जाकर वहाँ रख आते। इस तरह से
	अपने खुद के बसने से पहले उन्होंने वहाँ पर गमलों में बच्चों की तरह पाले गए
	अपने पौधों को वहाँ पर बसाने की शुरुआत कर दी। बाद में जब पूरा घर शिफ्ट हुआ
	तो वहाँ का जीवन पूरी तरह से उनके अंदर घुल-मिल गया।
	कालिया जी से पहली मुलाकात के साल-डेढ़ साल बाद की यह घटना है। एक पतला-दुबला
	लड़का बड़े ही संकोच के साथ उनके घर का गेट खटखटा रहा था। हुआ दरअसल यह था कि
	उसी दौरान मैंने भी कहानी पर हाथ आजमाना शुरू किया। मैंने एक कहानी लिखी थी।
	सुबह-सुबह ही उसे सुनाने घर के सामने ही रहने वाले यश मालवीय के पास पहुँच
	गया। कहानी सुनने के बाद उन्होंने थोड़ी तारीफ की और कहा कि इसे तुम एक बार
	कालिया जी को दे आओ। पहले तो मुझे वहाँ तक जाने में बड़ा संकोच हुआ। लेकिन यश
	मालवीय मुझे इस संकोच के लिए भी डाँटने-फटकारने लगे। किसी तरह से मैं कालिया
	जी के घर तक पहुँचा तो बड़े ही हल्के हाथ से धीमे-धीमे उनके गेट पर मैंने थपकी
	दी।
	मैंने देखा घर के बाहर ही चबूतरे पर एक बुजुर्ग महिला साग तोड़ रही हैं। यह
	मेरे खयाल से दिसंबर के शुरुआत के दिन थे। सुबह की धूप में बैठना अच्छा लगने
	लगा था। एक छोटे से स्टूल पर वो बैठी थीं। उनके आगे एक बर्तन में साग रखे हुए
	थे। धूप का एक टुकड़ा उनके ऊपर पड़ रहा था। गेट पर खट-खट की आवाज सुनकर
	उन्होंने सिर उठाकर मेरी तरफ देखा।
	क्या है?
	कालिया जी हैं...?, मैंने बहुत संकोच के साथ धीमी आवाज में पूछा।
	हाँ है, तू आ जा।
	उन्होंने मुझे अंदर बुला लिया। मैंने पूरे एहतियात के साथ गेट खोला और अंदर
	आने के बाद उसे चुपचाप बंद कर दिया। उनके सामने जाकर खड़ा हो गया। मेरी आँखों
	के सवाल उनकी आँखों के सवाल से टकराए।
	क्या काम है? उन्होंने पूछा।
	मिलना है, उनसे।
	किसी काम से आया है?, उनका अंदाज सीधा-सपाट था।
	मुझे बताना ही पड़ा, एक कहानी देनी है, गंगा जमुना के लिए।
	तू कहानी लिखता है, मेरे जैसे एक कमउम्र संकोची लड़के के लिए यह सवाल कुछ
	ज्यादा भारी-भरकम था। क्योंकि तब तक एक कवि गोष्ठी में मैं यह कहकर अपनी कविता
	सुना चुका था कि मैं कोई कवि-ववि नहीं हूँ। और इस कवि-ववि पर अपनी काफी हँसी
	भी उड़वा चुका था।
	उन्होंने बगल में रखा एक स्टूल में मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, सुना।
	पहले तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि वो कह क्या रही हैं। फिर मुझे लगा कि
	जैसे पहली बार में कालिया जी को कहानी सुनाने से बेहतर है कि उनकी माँ को ही
	सुना दिया जाए। कम से कम जो भला-बुरा होगा यहीं पता चल जाएगा। कालिया जी इतने
	बड़े कथाकार हैं, पता नहीं उन्हें पसंद आए भी या नहीं।
	हाथ से लिखे मुश्किल से तीन-चार पन्नों की कहानी थी वह। दोबारा वहीं से। मैं
	वहीं बैठकर उनको कहानी सुनाने लगा। वो सुनती जा रही थीं और उनके हाथ साग पर भी
	चलते जा रहे थे। उन बुजुर्ग उँगलियों में साग की एक-एक पत्तियाँ चुनने का गजब
	हुनर था। अपनी उँगली में वे एक-एक पत्ते को अलग करतीं। मोटे तने को दूसरी तरफ
	रख देती और कोमल पत्तियों को एक तरफ। खराब हो चुकी या फिर कटी-फटी पत्तियों को
	भी वे दूर कर देतीं। साग का नाम तो आज याद नहीं, शायद चौलाई का साग रहा होगा।
	उनके साग तोड़ते न तोड़ते मैंने कहानी खतम कर ली।
	नाम क्या रखा है कहानी का। उन्होंने पूछा। उनके पंजाबी लहजे वाली हिंदी के कुछ
	शब्द कई बार मुझे अटक जाते थे। मैं ठीक से समझ नहीं पाता था। जी, क्या हुआ,
	अच्छा जैसे कुछ शब्द बोलता कि उन्हें शायद यह समझ आ जाता और वे उस शब्द को
	दोहरा देतीं जो उनकी समझ से मेरे समझने के हिसाब से कठिन रहे होंगे।
	मैंने कहानी का नाम बताया, दोबारा वहीं से।
	चल रख दे। मैं दे दूँगी।
	जी, मुझे बड़ा संकोच हुआ। लगा कि कहानी पसंद नहीं आई। और इस हद तक नापसंद आई
	है कि कालिया जी से मिलवाने लायक भी मुझे नहीं समझा गया।
	मेरी उलझन भरी निगाहों को उनकी बुजुर्ग आँखों ने एक पल में पकड़ लिया।
	रख दे। अच्छी है। मैं दे दूँगी। छप जाएगी।
	इसके बाद भी मेरी आँखों के सवाल गायब नहीं हुए। लेकिन, मरे हुए मन से उनके पास
	कहानी छोड़कर चला आया। संपादक से मुलाकात भी कैसे होती जब सामने ही संपादक की
	माँ से सामना हो गया। खैर, संपादक की माँ को कहानी सचमुच पसंद आई थी।
	गंगा-जमुना के अगले अंक में मेरी कहानी छपी हुई थी। एक छोटा सा रेखांकन था।
	दोबारा वहीं से। मेरी खुशी दूनी हो गई, जब उस कहानी पर मुझे इलाबाद के वरिष्ठ
	साहित्यकार और रंगकर्मी अजीत पुष्कल की प्रतिक्रिया मिली। यह एक छोटा सा
	पोस्टकार्ड था, जिस पर उन्होंने कहानी पर अपनी राय भेजी थी। मेरे लिए यह बहुत
	बड़ी हौसला अफजाई थी। इलाहाबाद के माहौल में शायद यही वो खास किस्म की हौसला
	अफजाई है जिसने कितनी ही प्रतिभाओं को सान पर चढ़ाया है, उनकी धार तेज की है।
	उस दिन अंशु को दिए अपने साक्षात्कार में भी कालिया जी इसी बात पर फोकस कर रहे
	थे। उन्होंने ठीक यही बात कही थी कि इलाहाबाद की धरती सान पर चढ़ाती है।
	अच्छा एक बात का यहाँ पर और जिक्र करना भी जरूरी सा है। अपनी माँ से मुलाकात
	और उनको कहानी सुनाने वाला वाकया कालिया जी बार-बार सुनते। खासतौर पर जब माँ
	जी नहीं रहीं। अक्सर ही सामने कोई बैठा होता और वे मेरा परिचय कराते हुए कहते
	कि ये कबीर संजय हैं। हाल के दिनों में इन्होंने बड़ी अच्छी कहानियाँ लिखी
	हैं। संजय ने अपनी पहली कहानी मुझे नहीं मेरी माँ को सुनाई थी। फिर इसके बाद
	उनका आग्रह उस सुबह के पूरे वाकये को फिर से सुनाने का होता। बाद में जाकर मैं
	यह समझ पाया इस बहाने वे बार-बार अपनी माँ को याद करते हैं। उस दिन की याद को
	जितनी ताजगी के साथ मैं याद करता, उसी ताजगी के साथ वे अपनी माँ की याद को
	सँजो लेते थे।
	खैर, इस पहली कहानी के छपने के बाद मैं उनसे मिलने गया। काफी देर तक बातें
	होती रहीं। फिर गंगा जमुना में लिखने का एक सिलसिला बन गया। उन्होंने मेरी
	दूसरी कहानी छापी, एक मस्त फिल्म की कहानी। रसूलाबाद घाट पर मेरे शब्दचित्रों
	को दो अलग-अलग किश्तों में उन्होंने स्थान दिया। मैं गंगा यमुना में लेख भी
	लिखा करता था। वही दौर था जब कालिया जी संस्मरणों की अपनी किताब 'गालिब छुटी
	शराब' लिख रहे थे। शराब पीने की शायद उनको मनाही हो चुकी थी। गाहे-बगाहे इसके
	जिक्र भी सुनने को मिलते। फिर उन्होंने सिगरेट पीनी भी छोड़ दी। अपनी उन्हीं
	पतली-पतली उँगलियों में वे सिगरेट दबाए मेंहदौरी कॉलोनी में टहला करते थे।
	दुकान में सामान खरीदते वक्त भी उनकी उँगलियों में सिगरेट फँसी रहती थी।
	कभी-कभी वे सिगरेट को अपने होंठों से भी लगा लेते थे। फिर उसे होंठों से हटाकर
	उँगलियों में लिए टहलते रहते थे। लेकिन, इस सिगरेट को वे जलाते नहीं थे। बिना
	हुई जली हुई उनकी सिगरेट पैकेट से निकलकर उँगलियों में फँस जाती, फिर वो उनके
	होंठों से लगती और ठीक उसी तरह रद्दी की टोकरी में उछाल दी जाती जैसे कि पीने
	के बाद सिगरेट के टोटे उछाल दिए जाते हैं। हमारी कॉलोनी में ही कई लोगों को
	लगता कि शायद सिगरेट जलाना भूल गए हैं। या फिर शायद माचिस न हो। मैंने इसके भी
	किस्से सुने हैं कि किसी ने उनकी सिगरेट नहीं जली देखकर लाइटर आगे कर दिया।
	लेकिन, एक बार जो उन्होंने सिगरेट नहीं जलाने का सिलसिला शुरू किया तो उसे
	दोबारा आग नहीं दिखाई। सिगरेट छोड़ने का उनका यह तरीका मुझे हमेशा ही बड़ा
	प्रभावित करता रहा है। कई साल बाद जब मैंने सिगरेट से तौबा करनी शुरू की तो
	मुझे उनकी यह छवि बार-बार याद आती। मैं खुद भी अपनी उँगलियों में सिगरेट
	फँसाकर उसे बिना जलाए पकड़े रखने की कोशिश करता। हालाँकि, इसमें मुझे उनके
	जैसी कामयाबी कभी मिली नहीं। सिर्फ सिगरेट सूँघ ली जाए। सिर्फ उँगलियों में
	उसके अहसास को, उसके स्पर्श को महसूस कर लिया जाए, मुझसे तो यह नहीं हो पाया।
	हालाँकि, इलाहाबाद की मेंहदौरी कॉलोनी के उस हिस्से में आज भी लोग उस
	साहित्यकार की चर्चा जरूर करते हुए मिल जाते हैं जो अपनी उँगलियों में बिना
	जली हुई सिगरेट पकड़कर टहला करता था।
	यह उन्हीं दिनों की बात है जब कालिया जी अपनी संस्मरण पुस्तक 'गालिब छुटी
	शराब' लिख रहे थे। यह क्रमबद्ध रूप से एक 'हंस' में प्रकाशित हो रही थी।
	कालिया जी के लेखन में संस्मरण का एक विशेष योगदान है। उनके संस्मरणों ने कई
	घटनाओं, व्यक्तियों और संस्थाओं को जैसे जीवित कर दिया है। मैं भूल नहीं सकता
	हाल ही में छपे तद्भव के उस अंक को जिसमें मुझे कालिया जी के साथ छपने का गौरव
	प्राप्त हुआ। मेरी कहानी 'सिर्फ एक दिन' का शीर्षक भी साभार कालिया जी की एक
	कहानी से लिया गया था। इसी अंक में कालिया ने ज्ञानपीठ के ट्रस्टी रहे आलोक
	जैन पर यादगार संस्मरण लिखा। मैं आज भी कह सकता हूँ कि यह संस्मरण उस अंक की
	सबसे ज्यादा पठनीय सामग्री थी। कालिया जी ने जिस तरह से अपनी स्मृतियों के
	कपाट एक-एक करके खोलते हुए एक पूरे के पूरे व्यक्तित्व को अपने पाठकों के
	सामने लाकर खड़ा कर दिया, वह अद्भुत है। मैं कभी आलोक जी मिला नहीं। दूसरे लोग
	उनसे मुलाकात और उनके साथ संबंधों के किस्से सुनाते रहे हैं। कालिया जी ने जिस
	तरह से उन्हें याद किया तो ऐसा लगा ही नहीं कि जैसे इस व्यक्ति से कभी मुलाकात
	नहीं हुई। अपनी पूरी खूबियों और खामियों के साथ आलोक जैन इस संस्मरण में मौजूद
	हैं। इसमें कहीं से उन्हें रियायत नहीं दी गई है। कहीं से उनकी मूर्ति भी खड़ी
	नहीं की गई है। उनकी कमजोरियाँ हैं, उनकी तुनकमिजाजी है। लेकिन उनका बड़प्पन
	और साहित्य प्रेम भी यहाँ सब पर भारी पड़ता हुआ सा मौजूद है। संस्मरण विधा में
	एक अलग ही मयार कायम करने वाले रवींद्र कालिया जी को इस संस्मरण के लिए भी खूब
	सराहना मिली।
	इसी तरह, तद्भव पत्रिका में ही उन्होंने इलाहाबाद पर अपने संस्मरण लिखने की
	शुरुआत की थी। योजना उनकी इलाहाबाद के साहित्यिक-सांस्कृतिक माहौल के साथ ही
	लोकजीवन के भी विभिन्न पक्षों को सामने लाने की थी। मेंहदौरी कॉलोनी गंगा के
	एकदम किनारे पर बसी हुई है। यहाँ पर पुराना मोहल्ला रसूलाबाद मौजूद है।
	मल्लाहों की पुरानी बस्ती है। दूर-दूर तक कछार हैं। बालू के गीले टापू बनाती,
	तो कहीं कछार के ऊँचे-ऊँचे टीलों को काटती हुई गंगा यहाँ पर बहती है। गर्मियों
	में यहाँ पर तरबूजे और खरबूजे की खेती होती है। कछार में महुए और अंगूर की
	कच्ची शराब बनती है। भट्ठियों से उठते धुएँ कछार में जगह-जगह से इसका ऐलान
	करते हैं। मछली पकड़कर नाव पर ही लोहे के तशले में सुलगाए गए उपलों में उन्हें
	भूनकर कच्ची शराब के साथ खाने वाले मल्लाहों के चित्र उनके मन में कहीं गहरे
	बसे हुए थे।
	उनकी लेखनी इस लोकजीवन का सजीव चित्र खींचना चाहती थी। लेकिन, यह संभव नहीं हो
	सका। इलाहाबाद पर लिखे उनके संस्मरण की पहली कड़ी तद्भव में प्रकाशित हुई। पर
	तब तक वे खुद इस संस्मरण के छपे हुए शब्दों पर अपनी उँगलियाँ फेरने के लिए
	मौजूद नहीं थे। इलाहाबाद उनके जीवन में इस तरह से रचा-बसा हुआ था कि उनके
	द्वारा लिखे गए शायद अंतिम शब्द भी साठ और सत्तर के दशक के उस इलाहाबाद को
	जीवित करते हुए दीखते हैं, जिसे उस वक्त कालिया जी ने जिया होगा।
	खैर, बात उस समय की हो रही थी जब कालिया जी अपनी उँगलियों में बिना सुलगाई हुई
	सिगरेट लेकर मेंहदौरी कॉलोनी में अक्सर ही दिख जाते थे। उनके सान्निध्य का यह
	वक्त अभी और खिंचता कि हालात में थोड़ी तब्दीली आ गई। मैं इलाहाबाद से बाहर
	चला आया। बीच-बीच में कभी इलाहाबाद गया भी तो उनसे मुलाकात नहीं हो पाई। फिर
	वे वागर्थ के संपादक होकर कोलकाता चले गए। फिर ज्ञानपीठ के निदेशक होकर दिल्ली
	चले आए। इस सबकी थोड़ी बहुत सूचना तो मिलती रही लेकिन कभी मुलाकात नहीं हुई।
	मेरे काम और हालात की मजबूरियाँ कुछ ऐसी रहीं कि लेखन मुझसे लगभग छूट सा ही
	गया। किताबों से प्रेम तो वैसा का वैसा था लेकिन खुद अपना कुछ लिखना अब दूर की
	बात लगने लगी। यहाँ तक कि मैं खुद कुछ लिखूँगा भी, मैंने ऐसा सोचना बंद भी कर
	दिया।
	यह वक्त दस-बारह साल लंबा रहा। देहरादून से दिल्ली आने के बाद मुझे कालिया जी
	से मुलाकात की हुड़क सी उठने लगी। मन में संकोच बहुत था। बीच में इतना लंबा
	वक्त गुजर गया था कि मुझे इस बात पर भी पूरा भरोसा नहीं था कि वे मुझे पहचान
	भी पाएँगे। इसी अगर-मगर के बीच लगभग बारह साल बाद मैं उनसे मिलने के लिए
	ज्ञानपीठ के कार्यालय पहुँच गया। लेकिन, खुद मैं भी आश्चर्य से भर गया जब मेरा
	नाम संजय है, इलाहाबाद से हूँ और मिलना चाहता हूँ, इतना कहलाने के मिनट भर के
	भीतर ही उन्होंने मुझे अंदर बुलवा लिया। उन्हें मेरे बारे सब कुछ याद था। इतने
	दिन कहाँ रहे, क्या करते रहे। इन बारह सालों के बीच जो वक्त बीच से बह चला था,
	कुछ देर उसकी दरयाफ्त होती रही। वो कभी औपचारिक नहीं हुआ करते थे। इस बीच के
	वक्त में बीती हुई कई घटनाओं को उन्होंने ऐसे याद करना शुरू किया जैसे कि वो
	कोई बेहद सामान्य सी बात हो।
	वो घर परिवार की बातें करने लगे। दिल्ली में कहाँ रहते हो। ऑफिस कहाँ है। कैसे
	जाते हो। कितने मेट्रो स्टेशन पड़ते हैं। घर से मेट्रो स्टेशन कैसे पहुँचते
	हो। रोजाना घर से दफ्तर की दौड़ में कितना समय लगता है। पत्नी क्या करती है।
	बच्चा कैसा है। और यकीन मानिए कि यह सब कुछ वे इतनी बारीक डिटेलिंग के साथ
	पूछते थे कि कई बार तो खुद भी पहली बार उस बात पर ध्यान जाता। सवाल का जवाब
	सुनने में भी उन्हें पूरी दिलचस्पी रहती। एक और बात उनकी बातचीत को खास बना
	देती। वे कभी औपचारिक नहीं होते। न तो उनके प्रश्न औपचारिक होते और न ही उनके
	किस्से। उनकी रचनाशीलता आस-पास के माहौल में भी घुली हुई रहती थी। 12 साल बाद
	की उसी पहली मुलाकात में उन्होंने न जाने ऐसे कौन-कौन से प्रश्न पूछे कि वहीं
	उनके कार्यालय में बैठे-बैठे ही मुझे मेरी कहानी 'सुरखाब के पंख' सूझ गई। यह
	कहानी इतनी स्पष्टता से सामने थी कि अगले कुछ ही दिनों में मैंने इसे लिख भी
	लिया। वर्षों बाद लिखी मेरी यह पहली कहानी थी।
	जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, ऐसे कथाकारों की संख्या कम ही है जिनके बारे में
	यह कहा जाता हो कि उनका कथाकार ज्यादा बड़ा है या फिर उनके अंदर का संपादक।
	लेकिन, रवींद्र कालिया जी के बारे में निसंदेह यह कहा जा सकता है कि उनके अंदर
	का कथाकार और संपादक दोनों अपने शिखर पर थे। उनके अंदर की संपादकीय दृष्टि न
	सिर्फ यह देख लेती थी कि उनके पास जो सामग्री है, उसका उपयोग कैसे किया जा
	सकता है। बल्कि, उन्हें किस सामग्री की जरूरत है और उसे कौन बेहतर तैयार कर
	सकता है, इसके अनुमान भी उनके पास बेहतर हुआ करते थे। ऐसे समय में भी जब नया
	ज्ञानोदय में छपना किसी के लिए भी सम्मान की बात समझी जाती थी, पत्रिका में नए
	लोगों की कहानियाँ और लेख भरे रहते थे। ये वे लोग थे जिन्होंने अभी अपने पर
	तौलने शुरू ही किए थे। उन्हें एक मंच की जरूरत थी, जो कालिया जी ने उन्हें
	मुहैया कराया। मेरी पीढ़ी के कई कथाकार इस बात को दिल से स्वीकार करते हैं।
	बाद में तो कालिया जी उन कथाकारों का एक संग्रह निकालने पर भी विचार करते रहे
	थे जिनकी पहली कहानियाँ उन्होंने अपने संपादकत्व में छापी थी। कथाकार कुणाल
	सिंह के साथ मिलकर उन्होंने ऐसे कथाकारों की सूची भी तैयार की थी। हालाँकि,
	अलग-अलग वजहों से यह योजना परवान नहीं चढ़ सकी। ऐसी ही एक योजना के बारे में
	मुझे पत्रकार और कथाकार गीताश्री के माध्यम से भी पता चला। उन्होंने एक ऐसे
	संकलन की योजना रखी थी जिसमें पत्रकारिता से कथा लेखन में आए लोगों की
	कहानियों का संग्रह हो। हालाँकि, यह योजना भी परवान नहीं चढ़ सकी।
	कालिया जी को मैंने कभी विचारधाराओं की बहस में फँसे हुए तो नहीं देखा। मुझे
	लगता भी नहीं कि किसी खास विचारधारा या वाद से उनका कोई विशेष लेना-देना रहा
	हो। लेकिन, एक बात मैं बिना किसी झिझक के कह सकता हूँ कि कालिया जी के अंदर एक
	बहुत ही बड़ा मानवतावादी छिपा हुआ था। अपने आस-पास के लोगों को भी वे उसी
	सहानुभूति से देखते थे, जैसे अपने पात्रों को देखते थे। किसी एक रोज ज्ञानपीठ
	के कार्यालय में ही बैठा हुआ था। अचानक ही कालिया जी को बेहद प्रिय एक युवा
	कथाकार का जिक्र चल गया। उस युवा कथाकार का जो चित्र कालिया जी ने उस समय
	खींचा उसमें उसके प्रति स्नेह, खीज, गुस्सा और उसकी सँभाल सबकुछ शामिल थी। जब
	उन्होंने उसके अंदर की खामियों का जिक्र किया तो लगा कि ऐसे आदमी को झेलना भी
	कितना मुश्किल होगा। लेकिन, जब उन्होंने उसकी खूबियों का जिक्र किया तो लगा कि
	नहीं प्रतिभाएँ ऐसे ही परवान चढ़ती हैं। बहुत ही मानवीय दृष्टि से उन्होंने
	बताया कि अगर वो ऐसा हो गया तो उसके पीछे कौन से कारण रहे होंगे। पूरी बातचीत
	में जैसी चिंता झलक रही थी, वह अपने किसी आत्मीय स्वजन के लिए ही दिखाई पड़
	सकती है। उसी दिन मैंने जाना कि शायद कालिया जी के अंदर का मानवतावाद उनके
	अपने चरित्रों से ज्यादा बड़ा था। कई बार उनके चरित्रों का मूल स्वर उनका
	खिलंदड़ापन भी लगने लगता है। लेकिन, खुद कालिया जी के चरित्र का मूल स्वर
	मानवतावाद बना हुआ था। आज भी मैं अपनी पीढ़ी के कई कथाकारों-लेखकों-कवियों से
	बात करता हूँ तो उनमें से हर किसी के पास कालिया जी के बारे में बताने के लिए
	अपने, खुद के किस्से हैं। उनके साथ बिताए क्षणों की खट्टी-मीठी यादें हैं। ये
	यादें, ये घटनाएँ उनके लिए कालिया जी को विशेष बना देती हैं।
	नए लोगों के लिए कालिया जी हमेशा उत्साह से भरे रहते थे। नई तकनीक को
	जानने-समझने में भी उनकी गहरी रुचि थी। अक्सर ही मैं उन्हें अपने टैब में उलझे
	हुए देखता था। वे अपने फोन के अलग-अलग फीचर से खिलवाड़ करते। ऐसे समय में जब
	उनकी पीढ़ी के बहुत सारे लोग बड़े गर्व के साथ यह कहते थे कि भई मुझे तो
	मोबाइल में फोन करने के अलावा तो कुछ आता नहीं। कालिया जी नई तकनीक के तमाम
	पहलुओं को समझना चाहते थे। वे अलग-अलग तरीके से उसे आजमाते भी रहते थे। जहाँ
	तक मुझे याद पड़ता है कालिया जी के संपादकत्व में निकलने वाला नया ज्ञानोदय
	शायद हिंदी की पहली पत्रिकाओं में शामिल रहा है जिसने अमेरिका के एक प्रमुख
	अखबार द्वारा अपने प्रिंट एडीशन को बंद करने और सिर्फ ऑनलाइन एडीशन निकालने की
	घटना को पूरा तवज्जो दिया। इस घटना की लाक्षणिकता को समझते हुए उन्होंने इसका
	जिक्र अपने संपादकीय में भी किया। उनके तईं किसी अखबार का प्रिंट एडीशन बंद
	होना और सिर्फ ऑनलाइन एडीशन निकलना एक बड़ी परिघटना थी। यह एक नए भविष्य का
	संकेत है। आप सहमत हों या नहीं, लेकिन आपको इसे समझना ही होगा। कालिया जी ने
	इन तकनीकी बदलावों को बेतरह समझने की कोशिश की।
	उनके संपादकीय निर्देशों में भी इसकी झलक देखी जा सकती है। फेसबुक उनकी पहुँच
	में था। नए कथाकारों की तीन पीढ़ियों को रेखांकित करता हुआ नया ज्ञानोदय के
	विशेषांक को यादगार माना जा सकता है। इसमें नई सदी के चौदह-पंद्रह सालों में
	लिखी गई कहानियाँ और बदलावों को बहुत ही खूबसूरती से समेटा गया है। एक बात और,
	कालिया जी हमेशा लिखने के लिए उत्साहित भी करते रहते थे। जब भी मुलाकात होती,
	वे एक बार यह जरूर कहते कि तुम जैसे लोगों को लिखना चाहिए। फेसबुक भी उनके लिए
	संवाद और संचार का ऐसा ही एक माध्यम था। ऐसा भी हुआ कि मेरे फेसबुक के इनबॉक्स
	में उनका मैसेज आ जाता, 'कमर कस लो, कहानी लिखने में जुट जाओ'। आज अपने मैसेज
	के इनबॉक्स में जाकर बार-बार निगाह फिराता हूँ। सच कहूँ तो ऐसे किसी मैसेज का
	आज फिर से इंतजार करता हूँ।