डॉ. गुप्ता मुझे हमेशा से 'एलोपैथ' बुलाते रहे हैं। गोमतीनगर में उस एक ही सड़क
के एक सिरे पर मेरा घर है और दूसरे सिरे पर उनकी क्लीनिक। मगर जितना फासला यह
सड़क का विस्तार साबित करना चाहता है, हकीकत उसके उलट है। उनकी, इस तथाकथित
'एलोपैथी' पर रत्ती भर भी श्रद्धा नहीं है और न मैं होमियोपैथी को शराब में
भीगी चीनी की गोलियों से ज्यादा कुछ समझता आया हूँ। बावजूद इसके, हमारी इतवारी
शामों की चाय अक्सर साथ हो जाती है।
"नैनीताल वाली बाल मिठाई खाई है आपने, गुप्ता अंकल? मुझे लगता है कि
होमियोपैथी वालों का उस मिठाई के निर्माताओं से कोई तगड़ा करार है। दोनों जगह
चीनी की गोलियों की क्या जबरदस्त खपत है?" मैं कभी-कभी चुटकी लेता हूँ।
गुप्ता अंकल बुरा नहीं मानते। उनके लिए मैं बच्चा हूँ। वही बच्चा जिसने आज से
डेढ़ दशक पहले उनके सामने सीपीएमटी क्वालीफाई किया था। वे तब गोमतीनगर के
शुरुआती प्रैक्टिसनरों में से एक थे और आज भी उनके पास काम की कमी नहीं। उनके
दरवाजे पर भीड़ मेरी क्लीनिक से कहीं ज्यादा है। हर अंग, हर अंग-तंत्र, हर उम्र
के मरीज उनके उपचार के लाभार्थी हैं।
"तुम लोग एलीट लोग हो। नई ट्रेनिंग वाले, ज्यादा पढ़े-लिखे जवान डॉक्टर। मेरे
मरीज कभी-कभी आते होंगे? आते हैं न?" गुप्ता अंकल गर्म कप को ध्यान से उठाते
हुए कहते हैं।
"आते हैं अंकल, आते हैं। मगर आपकी तो आधुनिक चिकित्सा शास्त्र पर कोई श्रद्धा
है नहीं, जिसे आप आज भी 'एलोपैथी' बुलाते हैं। जानते हैं, यह शब्द गाली सा
लगता है। 'एलो' का मतलब अन्य, 'पैथी' माने इलाज। अगर हम लोग 'अन्य' हैं तो
'मुख्य' कौन है? और अगर आपको हमारी साइंस पर भरोसा नहीं है तो आप पेशेंट्स
क्यों भेजते हैं? और उन्हें क्या कहकर भेजते हैं?"
"वक्त-वक्त की बात है, बेटा। 'एलोपैथी' नाम डॉ. सैमुएल हैनिमैन ने दिया। तब
इतना आधुनिक विज्ञान का विस्तार नहीं हुआ था। 'लाइक क्योर्स लाइक' के सिद्धांत
पर होमियोपैथी की नींव पड़ी और इस सिद्धांत के उलट चलने वाले एलोपैथ कहलाए। अब
बात दूसरी है। दुनिया बदल गई है। मगर वह शब्द एलोपैथी, जबान पर चढ़ चुका है।"
गुप्ता अंकल चुस्की लेते हुए कहते हैं।
"अब तो आप, हमारी दुनिया में 'ऑल्टरनेटिव मेडिसिनवाले' हैं। और अखबार के
पन्नों पर आयुष डॉक्टर। प्लेसिबो ट्रीटमेंट वाले। आपका इलाज मरीज की साइकोलॉजी
के दोहन पर चलता है।" मैं चिढ़ाते हुए बोलता हूँ।
"चलो ठीक है। इलाज चाहे जैसे किया जाए, ठीक होने से मतलब है। है कि नहीं? इस
देश का सारा झगड़ा 'मुख्य' बनाम 'अन्य' ही तो है, यार। हर तबका खुद को मुख्य और
सामने वाले को अन्य साबित करने पर तुला है।" वे सौहार्दपूर्ण तरीके से बात को
रैप-अप करते हैं और उठ खड़े होते हैं।
कुछ दिन बीतते हैं। इधर गुप्ता अंकल का घर आना काफी समय से नहीं हुआ है।
प्रैक्टिस की व्यस्तता की वजह से मुझे भी उनका खोज-ख्याल दिमाग से उतर जाता
है। एक रोज, रात को मैं घर में अकेला हूँ। फिर इतवार है, घरवाले मूवी देखने
निकले हुए हैं। तभी बाहर से मुझे अपना नाम पुकारे जाने का अहसास होता है।
मैं दरवाजा खोलकर बाहर निकलता हूँ तो देखता हूँ कि गुप्ता अंकल सिर झुकाए खड़े
हैं। चिंतित चेहरे पर उलझन के भाव हैं, ऐसा लगता है जैसे उन्होंने अपनी उम्र
के कई साल, पंद्रह-बीस दिनों में ही डाँक लिए हों। उनके हाथ में लंबे-चौड़े
लिफाफे में कोई महँगी जाँच का पुलिंदा है।
"क्या हुआ अंकल? इतनी रात को? सब ख़ैरियत? एक मिनट। खोलता हूँ।" कहते हुए मैं
ड्रॉइंग रूम खोलने के लिए दूसरे कमरे से भीतर दाखिल हो जाता हूँ।
"प्रज्ञा को सिर में ट्यूमर है। बड़ी प्रॉब्लम आ गई है। यह देखो।" कहते हुए वे
एम.आर.आई. की रिपोर्ट मेरी ओर बढ़ाते हैं।
"मैं फिल्में देखने की इच्छा जताता हूँ और फिर रिपोर्ट पर भी नजर डाल लेता
हूँ। यह मेरी स्पेशलिटी का मामला नहीं है। फिर उनसे पूछता हूँ। "मामला ठीक
नहीं है अंकल। न्यूरोसर्जरी वालों को दिखाया?"
"डॉ. मनोचा को दिखाया था। उन्होंने ही यह एम.आर.आई. कराने को लिखा था। मैं
लेकर पहुँचा तो उन्होंने एक नजर डाली और फिर फिल्में हवा में उछाल दीं। बोले,
नहीं करूँगा इलाज। चाहे जहाँ करा लो।" कहते हुए वे रिपोर्ट फिर आगे बढ़ा देते
हैं।
मैं गुप्ता अंकल का चेहरा ध्यान से पढता हूँ। उस पर बहुत कुछ और लिखा है जो वह
मुझे नहीं बताना चाहते। फिर मैं एम.आर.आई रिपोर्ट को ध्यान से देखता हूँ।
रिपोर्ट का रोग वर्णन नहीं, ऊपर बाएँ कोने में 'रेफेरिंग डॉक्टर' का नाम। वहाँ
गुप्ता अंकल का खुद का नाम लिखा हुआ है।
"लड़की को चौदह उल्टियाँ हो चुकी हैं। आज उन्हें इस रिपोर्ट को देख कर इसे
भर्ती करना था। मगर अब..." कहते हुए वे मेरी तरफ मायूसी भरी नजरों से देखते
हैं।
"डॉ. मनोचा की जगह किसी और को दिखा लेते हैं। मेरा एक दोस्त है, जो न्यूरो
सर्जन है।" मैं उन्हें विकल्प प्रस्तुत करता हूँ।
गुप्ता अंकल की श्रद्धा अभी भी डॉ. मनोचा पर अडिग है। "दोबारा एम.आर.आई. करा
लेता हूँ, रेफेरिंग डॉक्टर के कॉलम में उन्हीं का नाम डाल कर?" वे मानो पूछ और
बता दोनों रहे हों। "तुम बस उनसे एक बार रिक्वेस्ट कर लेते तो अच्छा रहता। तुम
उन्हीं की तरह 'मुख्यधारा' वाले हो। मैं होमियोपैथ ठहरा।"
मैं बात कर लेता हूँ। नई जाँच और नई उम्मीद के साथ वे डॉ. मनोचा के सामने फिर
प्रस्तुत होते हैं। प्रज्ञा एडमिट कर ली जाती है, उसका ऑपरेशन होता है। अचानक
ऑपरेशन के बाद चौथे दिन उसकी तबियत फिर बिगड़ती है। और अबकी बार ऐसी कि जान पर
बन आती है।
रात का वक्त है। डॉ. मनोचा पिछले दो दिनों से राउंड पर नहीं आए हैं, कल उनका
असिस्टेंट देख गया था मगर आज उसके भी दर्शन नहीं हुए। गुप्ता अंकल कहीं से डॉ.
मनोचा का नंबर जुगाड़ते हैं, मुझसे मिलाने को कहते हैं। मैं मिलाता हूँ तो काल
असिस्टेंट को डाइवर्ट हो जाती है, मगर फोन नहीं उठता। पूरी रात असफल प्रयासों
में बीत जाती है।
तड़के प्रज्ञा दम तोड़ देती है। मैं फ्रेश होकर अपनी ओपीडी के लिए निकल रहा हूँ
तो उनके घर के बाहर कुछ लोगों को जमा पाता हूँ। गुप्ता अंकल भी उन्हीं में
हैं। वे मुझे हाथ से इशारा करते हैं, मैं पहले ही रुक चुका हूँ।
"आज सुबह ही डेथ हुई। तुम्हें बहुत-बहुत थैंक्स। बड़ी मदद की तुमने।" वे वापस
चलने को होते हैं। फिर अचानक रुककर पलटते हैं और कहते हैं "मैं तुमको एलोपैथ
सही कहा करता था। तुम 'अन्य' ही हो, 'मुख्य' नहीं। और बेटा, ऐलोपैथ ही बने
रहना, मेनस्ट्रीम में शामिल मत होना। तुम्हारी जगह सचमुच वहाँ नहीं है।"