hindisamay head


अ+ अ-

कहानी

उभयाचार

स्कंद शुक्ल


"माँ के पेट में हम-तुम शुरुआत के दो महीने हिंजड़े रहे, जुगल। हर्माफ़्रोडाइट।" इला कैलेंडर में बने जानवरों की ओर इशारा करते हुए कहती है। "शुरुआत में तो गुप्तांग ही नहीं थे हमारे पास, न नर के और न मादा के। और फिर जो बने तो ऐसे बने कि कुछ-कुछ दोनों के जैसे।"

"पर बच्चे का लिंग-निर्धारण तो उसके बहुत पहले हो जाता है न? वह क्या कहते हैं जब, एग और स्पर्म आपस में...?" जुगल दोनों हाथों की उँगलियाँ चिड़ियों की चोंचों-सी आपस में मिलाता है।

"फर्टिलाइजेशन! अंडाणु का लाखों शुक्राणुओं में से किसी एक के साथ मिलना! एक संभोग जो बाहर शैया पर होता है न, उसके कुछ देर बाद होने वाला दूसरा सूक्ष्म संभोग! बल्कि ऑर्गी! एक गोलाकार मोटी आरामपसंद औरत की तरफ दौड़ते लाखों नन्हें कृमिकाय पुरुष! कीड़े कहीं के! यू मेन आर सच इंसेक्ट्स! वैसा ही बाहर-सा बिस्तर... वैसा ही उस बिस्तर को लपेटे अँधेरा! बस... पेनीट्रेशन! और नई जिंदगी की शुरुआत!' कहते हुए शरारती इला की आँखों में किसी माँ-सी चमक आ जाती है।

जुगल जवाब नहीं देता। उसके पास संसार के सामान्य कहे जाने वाले उन पुरुषों-सा वह कृमिभाव नहीं है, जिसकी अभी-अभी इला ने खिल्ली-सी उड़ाई है। इसलिए उसकी नजरें वापस वाइल्ड लाइफ-कैलेंडर के उसी चित्र पर जम जाती हैं जो उसे दिखाने के बावजूद बात वह मानव-भ्रूण-विकास की करने लगी थी।

इला की यह पुरानी आदत है जिससे जुगल भलीभाँति परिचित है। वह विषय तक उँगली पकड़ कर ले जाती है और फिर जानबूझ विषयांतर कर देती है, गोया किसी गाइड ने किसी टूरिस्ट को जंगल में ले जाकर करके अकेला छोड़ दिया हो ताकि वह वन्य-जीवन का प्राकृतिक 'आनंद' विशुद्ध रूप में ले सके।

चित्र में दो नर जिराफ अपनी लंबी गर्दनों को टकराते आलिंगनरत हैं। उनमें से एक भी मादा नहीं है, यह बात इला ने जुगल को नहीं बताई है, फोटो के कैप्शन ने जाहिर की है। थोड़ी दूरी पर शेरों का एक सहवासरत जोड़ा है, जिसमें काले अयाल वाला नर मादा के ऊपर सवार है। नीचे इंगित है : नेचर - ऑल एफर्ट्स आर नॉट मेंट टु प्रोक्रीएट (प्रकृति : सारे प्रयास प्रजनन के लिए ही नहीं होते।)

सामने खिड़की से अंदर आती शाम की धूप के पीले पट्टे फोटो-एलबम और उन दोनों के चेहरों पर पड़ रहे हैं, मानो जिराफ की गर्दनें उसमें से बाहर निकलकर कमरे से बाहर झाँकना चाह रही हैं। जुगल उसे बंद कर देता है, अपने गंजे सिर हाथ फेरता है और पूछता है, "चाय पियेगी इलू?"

इला वाइल्ड लाइफ-फोटोग्राफर है। हर किस्म की आदिम जिंदगी से जुड़ना और उसके बीच में समय बिताना उसका शौक नहीं बल्कि पैशन बन चुका है। वह बिना एक पल भी सोचे जुगल को जवाब देती है, "बना डाल मेरी जान! चीनी एकदम कम रखियो।"

इला-जैसी लड़कियों को जुगल 'जंगली' बुलाता है, जुगल-जैसे लड़कों को इला 'गंजला' कहकर संबोधित करती है। 'जंगली' का शाब्दिक अर्थ तो सर्वज्ञात है, 'गंजला' में उसी के दो पहले अक्षरों को जुगल की सफाचट खोपड़ी को देखते हुए शरारती ढंग से उलट दिया गया है। इला का मन बचपन से ही जीव विज्ञान में रमता रहा, उम्र के आगे बढ़ने पर उसने विज्ञान को कैमरा बनाकर अपने कैरीपैक में डाला और जीव की तरफ बढ़ गई। आगे बी.एससी. की भी पढ़ाई की, लेकिन आँखों को कैमरे के संग जंगल-जंगल घूमने का ऐसा चस्का लग चुका था कि उसी को उसने अपना व्यवसाय बनाने की ठान ली। एक टीवी चैनेल द्वारा आयोजित फोटो-प्रतियोगिता में अपनी एक जू में कूदते गैंडे की फोटो भेजी और पुरस्कृत हुई। फिर उसी क्षेत्र में लोगों से जान-पहचान बढ़ी और अंततः उसी चैनेल में नौकरी मिल गई, जिसके माध्यम से अब वह भारत और विदेश में प्राणि-जीवन के चित्र उतारती और फिल्में शूट करती घूमा करती है।

"संभोग एक वहशियाना हरकत है! डोंट यू थिंक सो? टेल मी ऑनेस्टली!" उसने एक बार अपने बॉयफ्रेंड की पार्टी में एक घुटी चाँद वाले लड़के को बोलते सुना था। उसके इस वाक्य ने उसके मन में इस तथ्य को कहने वाले से मिलने और बात करने का एक कुतूहल पैदा किया, जिसकी अंतिम परिणति उसके प्रेमी से विलगाव में हुई।

"हियर इज योर कॉफी जंगली!" जुगल उसकी ओर मग बढ़ाते हुए कहता है। "क्या सोच रही है, मैं जानता हूँ।"

"थैंक्स गंजले।" वह पल भर को खामोश होती है और फिर अपनी बात खोलती है। "बता।"

"तू यही सोच रही है न कि उस दिन निलय की पार्टी में मैं वह सेंटेंस कैसे बोल गया। यह ठीक है कि मैंने थोड़ी पी रखी थी, लेकिन जो मैंने वहाँ कहा, वह इसलिए कि मैं..."

"अबे चल यार! इत्ती जजमेंटल ना थी मैं पहली मुलाकात में! बस यह लगा कि कौन टकला है, जो लवमेकिंग में वायलेंस तलाश लेता है।" वह पहला सिप लेते हुए कहती है। "और निलय से इशूज बहुत से थे। इट वॉज कॉम्प्लिकेटेड सिंस इट बिगैन। शुरुआत से ही हम उलझे हुए थे और सुलझे तभी जब एकदम अलग-अलग हो गए फाइनली।"

"पर तुझे डिसअपॉइंटमेंट नहीं हुआ जरा भी... यह जानकर कि मैं... गे हूँ? जिस स्पार्क से, जिस चमक से खिंच कर तू मेरे पास आई थी... उसमें सडेनली ऐसा ऐंगिल आ जाएगा... ऐसा हम नहीं सोचते यार! हम या तो नर होते हैं या मादा होते हैं या फिर हिंजड़े... नपुंसक होते हैं। और कोई कैटेगरी नहीं होती हमारी। यह सदियों से चला आ रहा क्लासिफिकेशन है हमारा, और इसके अलावा जो कुछ भी है वह महज एक बीमारी है और कुछ नहीं!" कहते-कहते जुगल के स्वर में एक तल्खी आने लगती है।

"सेक्स को लाल या बैंगनी-भर समझता है हमारा समाज, इससे ज्यादा कुछ नहीं। वह नहीं जानता कि यौनेच्छा एक सतत फैला स्पेक्ट्रम है रंगों का, जिसमें इतना सरल वर्गीकरण नहीं होता। नर को कई स्तरों पर नर होना पड़ता है और मादा को कई स्तरों पर मादा - तब वह वैसे दीखते हैं जैसा हमारा समाज उन्हें देखना चाहता है।"

"तू 'एक्सएक्स' है इसलिए औरत है मगर मैं 'एक्सवाई' होकर भी इन-सा नहीं हूँ..."

"जेनेटिक पहचान पासपोर्ट पर पहला ठप्पा है गंजले, बात उसके आगे भी है। जींस हुआ करें नर वाले या मादा वाले, लेकिन नर हॉर्मोन या मादा हॉर्मोन न निकले तो? या फिर हॉर्मोन निकले लेकिन बाहरी अंगों का विकास आम आदमी या आम औरत-सा न हुआ तो? इट इज कॉम्प्लेक्स, ट्रस्ट मी। और सेक्सुअल प्रेफेरेंस न हमारे चाहने-भर से तय होती है और न हम उसे सायास बदल सकते हैं। वह फ्लूइडिक है, आज कोई विषमलिंगी कल गे हो सकता है..."

"तो तू मेरे स्ट्रेट होने का वेट कर रही है?" जुगल चुहुलबाजी करता है।

"नहीं रे! न! मुझे तेरे स्ट्रेट होने से बल्कि डर लगता है, कहीं तो भी निलय और मेरे पहले वाले बॉयफ्रेंड्स सा निकला तो... शायद तू इन-सा होता तो हम अब तक चुक चुके होते - एक आग जो भड़कती और अपने आगोश में बहुत कुछ लीलकर कर ठंडी पड़ जाती।"

आँखों में छलकती एक नम झिलमिल के साथ जुगल इला को गले से लगा लेता है। अंदर कॉफी समाप्त हो चुकी है और बाहर दिन। आज अप्रैल का अंतिम शनिवार है और हवा में ठीक-ठाक गर्मी हो गई है, इसलिए दोनों बाहर वॉक पर निकल जाते हैं।

लखनऊ की गोमतीनगर कॉलोनी के अपने अपार्टमेंट से नदी-तट तक वे दोनों पैदल चल रहे हैं। रास्ते में इला हर चीज का मजाकिया लहजे में लिंग-निर्धारण करती चलती है - "देख बस जाती है, लेकिन स्कूटर जाता है। लाइट जलती है, लेकिन खंभा खड़ा रहता है। धारा बहती है, लेकिन फव्वारा फूटता है।"

धारा! फव्वारा!

वे दोनों वहीं नदी के किनारे आकर उस फव्वारे पर ठहर जाते हैं। बैराज के समीप उठती पानी की फुहारें क्षण-क्षण अपने रंग बदल रही हैं - लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला। जुगल का ध्यान अभी भी इला के कही बात पर है। वे उम्मीद लिए ऊपर को उठती हैं, स्याह हुए जाते आकाश को अँधेरे से बचाने के लिए मगर फिर वापस नीचे को गिर पड़ती हैं। लेकिन वे फिर भी आशान्वित हैं कि एक दिन जब सूरज डूबेगा, तो वह आसमान को अँधेरे के आगोश में छोड़कर इस तरह नहीं जाएगा; वह अपने रंगों की तिजोरी रख जाएगा वहाँ ताकि वह उसी तरह खुला-निखरा-सुथरा बना रहे अगली सुबह तक। और फिर चाँद? उसका क्या होगा? चाँदनी रातों का क्या होगा? उन पर सदियों से बनी-बनती शायरी का क्या होगा? लेकिन ठीक भी है। सदियों से चाँद चमकता आया है, मगर रातें अँधेरी बनी रही हैं। तो अगर रातों में उजाला नहीं है, तो चाँद की जरूरत आखिर क्या है? खाली शो-बाजी? या फिर शायरों के लिए कन्वीनिएंट थॉट-प्रॉसेस मुहैया कराना? या फिर केवल इतना उजाला देना जितने से रात में हाथ-को-हाथ सूझ सके? ठीक ही तो है कि नाइटबल्ब है चंद्रमा कुदरत का जिसमें नींद ली जाए और उन कामों को किया जाए जिन्हें उजाले में नहीं किया जा सकता।

जुगल को नीदरलैंड्स में गुजरे अपने बचपन के वे दिन याद आते हैं। हरे-भरे घास के मैदानों पर घूमती नजर आती दर्जनों पवन चक्कियाँ, बागानों में खिले हजारों-हजार लाल-पीले ट्यूलिप के फूल, पतले-पतली नहरों के किनारे बैठकर साइकिल से आते-जाते हर उम्र के लोगों को देखना - पहले पाँच सालों की वे रंगबिरंगी यादें जो अब जीवन की फीचर फिल्म की शुरुआती यादगार रीलें बनकर कैद हैं। फिर माँ-बाप का तलाक हुआ और उसके डच पिता को छोड़कर उसकी माँ भारत वापस आ गई। जोधपुर में जहाँ की वह रहने वाली थीं, वहीं जुगल की स्कूली पढ़ाई हुई। फिर उसने इंजीनियरिंग की तैयारी की और रुड़की में उसका दाखिला हो गया। बी.टेक पूरा करने के बाद, दिल्ली से एम.बी.ए. और फिर यहाँ लखनऊ में अपने दोस्तों के साथ एक डेयरी प्लांट की शुरुआत। यही उसका अब तक के बत्तीस सालों का जिंदगीनामा रहा है।

"हम हर चीज का सेक्सीफिकेशन क्यों कर देते हैं इला? यहाँ तक कि भगवान का भी?"

मनुष्य हर चीज अपने सापेक्ष देखता है गंजले। उसके सारी क्रियाएँ या तो नर हैं या मादा। दुनिया बँटी हुई है इन दोनों खाँचों में, जिन्हें एक ऐसी लकीर से बाँटा गया है जो एकदम स्पष्ट और डिस्टिंक्ट है। नो कंफ्यूजन। धरती के पासपोर्ट पर आप या तो मेल हैं या फिर फीमेल। और अगर आप इनमें से कुछ भी नहीं है, तो आप धरती के लगभग नागरिक नहीं हैं, आप यहाँ शरणार्थी हैं।"

"स्वर्ग के असाइलम सीकर्स!" जुगल खिलखिला उठता है।

"इनसान की यौन-पसंद केवल जीन्स पर निर्भर नहीं करती गंजले। मामला केवल एक्सएक्स और एक्सवाई तक ही का नहीं है। आगे लंबा सफर होता है। हर भ्रूण मादा ही बन कर निकले नौ महीनों बाद अगर उसे रोका न जाए यह कहकर, कि 'एक्सक्यूज मी भाई साहब! जी आप! जी हाँ, आप वाई के साथ पैदा हुए हैं इसलिए भाई साहब ही हैं, गलत लाइन में मत जाइए। उधर चलिए, पेंडुलम वाली लाइन में! डिंगडॉन्ग!"

"इशारा कहीं जाने का हुआ था, हम गए भी, पहुँचे भी। सब कुछ ठीक निपटा। नौ महीने बिता कर बाहर भी आए। फिर न जाने हमें क्या हुआ?" जुगल के चेहरे पर एक निगूढ़ मुस्कान है।

"कुदरत मेरी जान! ये जो कुदरत है न, इसमें इतने राज हैं कि इनसान अभी भी बूझ नहीं सका है। केवल जीन्स हमें नर-मादा नहीं बनाते, केवल हॉर्मोन हमें नर-मादा नहीं बनाते, केवल बाहरी काया हमें नर-मादा नहीं बनाती। लैंगिक पहचान के कई-कई पहलू हैं बाहरी-भीतरी और कई अज्ञात।"

सामने कई युगल हाथों में हाथ डाले अंबेडकर-स्मारक के पास वाली सड़क पर घूम रहे हैं। प्राकृतिक सौर-मर्यादा अब डूब चुकी है और कृत्रिम रोशनी के लट्टू जहाँ-तहाँ जगमगा रहे हैं, जिनसे मुँह चुराकर चुंबनों के आदान-प्रदान में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती। वे झूम रहे हैं, थिरक रहे हैं, खिलखिला रहे हैं और एक दूसरे पर टूटे पड़े हैं। पुलिस की वैन कुछ दूर पर खड़ी है, 1090 का लाल ग्लोसाइन बोर्ड चमक रहा है।

"मर्यादाओं की चौहद्दी लचीली होते देख अच्छा लगता है, है न जंगली?" जुगल कहता है।

"मर्यादा का निर्माण पूरी जानकारी के बाद हो, तो बेहतर है गंजले। अज्ञान जिस मर्यादा को गढ़ेगा और पोसेगा वह एक दिन अराजकता बनकर समाज पर टूटेगी।"

"मर्यादा तो नतीजों को देखकर तय होती है। जो काम बुरे नतीजे दे, वह बुरा। जो ठीक-ठाक दे, वह ठीक। जो अच्छे दे, वह अच्छा।"

"वेरी यूटिलिटेरियन! एक बात बता, हर काम नतीजा देता ही है क्या? जो काम नतीजा न दे, वह बुरा कैसे?"

जुगल अपना बायाँ गठीला-मांसल भुजदंड इला के गले के ऊपर हार-सा डाल देता है। "सोच अगर अब इसी तरह बिन नतीजे वाले लोग सभी होते... हमारे मम्मी-डैडी भी ऐसा ही सोचते तो हम दुनिया में कैसे आते? बता?"

"एग्ज़ैक्टली! यू नेल्ड इट बेबी! आपकी लैंगिक पहचान आपके सोचने से नहीं तय होती, जैसा कि आम लोग सोचते हैं। वह कुछ आप लेकर पैदा होते हैं मगर बहुत कुछ पर्यावरण बनाता है। बच्चा यह सोचकर जवान नहीं होता कि उसे लड़का बनना है या लड़की। वह सोच ही नहीं सकता। हमारे या किसी के भी माँ-बाप सोचकर माँ-बाप नहीं बने, ऐसा करना उनके बस में ही नहीं था।"

"सोसाइटी करे भी तो क्या? वह पैदाइश के समय बच्चे का सेक्स एक इंच-भर के स्ट्रक्चर से करती है। उसे न भीतर के केमिकल्स का पता है और न जेनेटिक्स का। और फिर यह लल्ला-लल्ली की फ्रॉक या पैंट्स में से एक की खरीद में जुट जाती है, गुड़िया या गन में एक का आसान चुनाव कर लेती है।"

"ये जो लोग पेयर बनाकर यहाँ घूमते दिख रहे हैं, ये सब इनसानी नर-मादा हैं मेरे दोस्त। उन्हें ऐसा होना भी चाहिए समाज के हिसाब से। हर युगल एक प्रजनन की संभावना है, अगर संभावना नहीं है तो वह युगल ही नहीं है..."

"भाई-बहन या और रिश्ते भी तो संग घूम सकते हैं।"

"नहीं, संभावना के बगैर नहीं। समाज उसमें भी संभावना तलाशेगा।"

"और जहाँ प्रजनन की संभावना ही न हो? सामाजिक बंधन के कारण नहीं, बल्कि दैहिक संरचना ही उसे न चाहती हो तो..."

"भारत को नीदरलैंड्स बनाना चाहते हो? हमारी ट्रेन उनसे बहुत लेट चलती है गंजले। आज से चार सौ साल पहले जब वे माइक्रोस्कोप-टेलिस्कोप बना कर दूरियाँ और नजदीकियाँ नाप रहे थे, तो हमारे यहाँ भक्तिकाल-रीतिकाल चल रहा था।"

उनकी यह चर्चा अभी और चलती और नए-नए गुह्य आयाम छूती, अगर दूर सड़क के कोने पर जमा होती भीड़ इला का ध्यान नहीं खींचती। फुलस्टॉपों-से सिरों का आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता जाता जमावड़ा और धीमे-धीमे कानों में पड़ता असहज कोलाहल - न जाने वहाँ क्या हो रहा?

"हे! वहाँ कुछ है! लुक! चलें? चलकर देखें?"

जुगल को इला का स्वभाव अच्छी तरह मालूम है। वह कोलाहल सुनकर सतर्क तो होती रही है लेकिन उससे उसे डर नहीं लगता। वह जानवरों के बीच समय गुजरती है, पत्तियों चाहे पेड़ पर हरी-भरी लहलहा रही हों अथवा नीचे सूखी चरचरा, वह सबमें संगीत तलाश लेती है। लकड़बग्घे की भयानक आवाज हो अथवा साँप की फुफकार उसके कैमरों में कैद सबके किस्सों को वह अनगिनत बार सुन चुका है। इसलिए उसने उस एडवेंचर-बाला के सुर-में-सुर मिलाया और हलके से कूदकर खड़े होते अंदाज में कहा - "चलो।"

सहानुभूति प्रदर्शित करनेवालों की जमघट को हटाकर उसके केंद्र में पहुँचना आसान नहीं है। लोग इस तरह उन्हें घेरे पड़े हैं कि मानो वे उनके इतने अंतरंग हों कि वहाँ से इंच भर भी सरक नहीं सकते। फिर भी किसी तरह वहाँ का परिदृश्य देखते ही दोनों के चेहरे भौचक्क रह जाते हैं।

डामर पर एक स्कूटी लुढ़की पड़ी है जिससे एक तेल की धार निकालकर कुछ दूर तक जाती चली गई है। उससे हट कर थोड़ी दूरी पर एक लड़का बैठा हुआ है। उसका सिर फूट गया है, जिससे एक रक्त धार बहती चेहरे पर चली आ रही है। फुटपाथ पर दाएँ हाथ को सीधे यों लिए, मानो वह टूटा गया हो, वह बैठा अपने बाएँ हाथ के रूमाल से घाव को दबाए सिसक रहा है। लोग उसके इर्द-गिर्द आधे-अधूरे मन से फुसफुसा रहे हैं, मगर कोई भी उसे वहाँ से अस्पताल ले चलने का उद्यम करता दिखाई नहीं पड़ रहा है।

तभी पुलिस की जीप का सायरन सुनकर भीड़ बिखरने लगती है। वर्दीधारियों के वहाँ आते ही उन्हें यह जानते देर नहीं लगती कि फुटपाथ पर बैठे लड़के से ज्यादा चोट उसके साथ की लड़की को लगी है, जो उसके पीछे बैठी थी और उसका अचेत शरीर उसके पीछे एक ओर पड़ा है। रक्तरंजित चेहरा जिसने हलकी गुलाबी टीशर्ट को भी खूनम-खून कर दिया है। उसकी साँसों में एक चिंताजनक तेजी है और ऐसा लग रहा है कि उसके प्राणों को बचाने के लिए अगर शीघ्र अस्पताल न ले जाया गया तो निश्चित ही स्थिति हाथ से निकल जाएगी।

पुलिसवाले स्थिति की गंभीरता को भाँप जाते हैं। वे अपने कागज-पत्तर निकालते हैं, वायरलेस पर कुछ सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं और फिर भीड़ से वहाँ से छँटने को कहते हैं। "कोई आप दोनों के साथ है? अकेले हैं?" वे लड़के से पूछते हैं।

नकारात्मक जवाब मिलने पर बगल से गुजरते एक ऑटो को हाथ से इशारा करते हैं और निर्देशात्मक स्वर में कहते हैं, "ट्रॉमा लेकर चलो! तुरंत!"

माहौल में व्याप्त दिखती संवेदना फिर विरल होने लगती है। लोग बिखरने लगते हैं, उनकी संघनित सहानुभूति भी बिखरने लगती है। औपचारिकता का कर्फ्यू हट जाता है। समूह फिर युगलों में टूट-टूट कर कुछ ही देर में समाप्त हो जाता है। रह जाती है तो वह मुड़े हैंडल और चकनाचूर हेडलाइट वाली स्कूटी, टूट कर एक ओर जा गिरा वह फाइबर का हेलमेट और सड़क पर बिखर कर अब काफी दूर तक जा चुका तेल।

संभवतः एक-दो मोटरसाइकिलें ऑटो के पीछे-पीछे ट्रॉमा-सेंटर की ओर चल देती हैं। चूँकि अभी दुनिया से भलाई का लोप नहीं हुआ है, इसलिए अपरिचित होने के बावजूद अच्छे सामरी होने का कर्तव्य कई लोग निभाया करते हैं। हैरत-भरी आँखों से इला पहले जाते ऑटो को देखती है फिर दूसरी ओर को बढ़ते पुलिस-वाहन को।

इला को लगता है कि यह ऑटो घायलों को लेकर अँधेरे में कहीं लुप्त होने को चल पड़ा है, निरुद्देश्य-निर्लक्ष्य। वह गंतव्य तक नहीं पहुँचेगा, भटकते रहने ही उसका गंतव्य है। उसी ऐसी शामों, भीड़ों, दुर्घटनाओं को जंगल में देखने की आदत रही है, जिनकी परिणति नतीजा घुप्प अंधकार के रहस्यमय एकाकीपन में होती है। नहीं मालूम चलता कि बाढ़ में बहकर दूर भटक कर चले गए गैंडा-शावक की क्या गति हुई, नहीं पता चलता कि तेंदुए के दाँतों में छटपटाते पहाड़ी गाँव के मेमने के अंतिम क्षण कहाँ बीते, नहीं बोध होता कि सिंह-शावक की माँ के संग संभोग करते नर ने उसकी क्या गति बना डाली। जंगल में भीड़ केवल शाकाहारियों की लगती हैं, वे संग चरते हैं, संग घूमते हैं और सामूहिकता को ही प्रतिकार बताते एक-एक करके घटते चले जाते हैं।

जंगल में संख्याएँ घटती नहीं जान पड़तीं, जब तक उसका पाला इनसान से न पड़े। इनसान उन संख्याओं को छेड़ते हैं ताकि उन्हें गिन सकें। या शायद उन्हें गिनते हैं कि उन्हें छेड़ सकें। इसी छेड़ने-गिनने के चलते-चलाते उपक्रम में धीरे-धीरे जंगल का अंतिम तेंदुआ सबसे आदिम आदमियों द्वारा लाठियों से मारा जाता है और जंगल पर इनसानी रिहाइश का कब्जा हो जाता है।

लेकिन फिर जब इस आदमियत को जंगलों की कमी पड़ती है तो फिर इसमें एक बदलाव आता है। यह अपने खूँखार पंजों से अपने ही तन को, अपने ही अवयवों को नोचने लगती है। आदमी से आदमी टकराने लगते हैं, एक-दूसरे को खाने लगते हैं, एक-दूसरे को मारने-गिराने लगते हैं। घायलों-मृतकों को देखने के लिए भीड़ जुटती है, वाइल्ड लाइफ-फोटोग्राफी की तर्ज पर खच-खच चित्र खिंचते हैं, वाह-वाह होती है और फिर किसी को यह परवाह नहीं होती कि फोटो का वह चेहरा आज-कल कहाँ है और उसकी क्या गति हो चुकी है।

"जिसने मारा, उसका क्या हुआ? ट्रेस किया?" उसने जुगल को किसी से पूछते सुना। उत्तर में उसकी दिलचस्पी नहीं थी। हिट-एंड-रन का केस है, मार कर भागने वाली चौपहिया पकड़ी जाए या हाथ न आए, उससे भला हासिल क्या होगा? वह तो कानून की रस्म-अदायगी-भर है, जिसे औने-पौने ढंग से सिस्टम करता चला आया है।

इला को सब कुछ रस्म-अदायगी भर मालूम देता है। लोगों के लिए जन्म लेना एक रस्म है, जिंदगी जीना एक रस्म है, गिरकर चोट खाना एक रस्म है, मरना... मरना भी तो एक रस्म... रस्म है। "गंजले! सुन!" वह मुड़कर लोगों से बात करते जुगल के कंधे को झिंझोड़ते हुए कहती है।

"क्या हुआ अब? अचानक क्यों एक्साइटेड हो रही है इतनी? व्हॉट? क्या मतलब यार? हम क्यों चलें? बाई-स्टैंडर से मेनस्ट्रीम में घुसने का तुझे बड़ा शौक चर्राता है यार... रुकियो यहीं! आता हूँ!"

जुगल की टकराहट महज एक दिखावा है। इला के प्रति उसमें स्नेह का एक ऐसा प्रतिदर्श है कि वह पहले उसकी बात का प्रतिवाद करता है, फिर उसी काम को इस तरह करने पूरे मन से चल पड़ता है। दस-एक मिनट में वह अपनी बाइक लेकर उसके सामने था। "बैठ जंगली!"

"गए तो वे ट्रॉमा ही होंगे न? ऑटोवाले ने कोई गोटी तो नहीं खेली होगी?" रास्ते में उसके कानों में इला का संशय-स्वर पड़ रहा है।

"लेट्स सी। जंगल में एनडेंजर्ड स्पीशीज तलाशने से आसान है इनसान को ढूँढ़ निकालना शहर में..."

लगभग बीस मिनट में वे मेडिकल कॉलेज के ट्रॉमा-सेंटर के सामने उन दोनों घायलों को तलाश कर रहे थे। वहाँ इनसानों की कहीं ज्यादा भीड़ है, वहाँ इतने बीमार और घायल विषय जमा हैं कि एकाएक अपने इनसान और विषय को ढूँढ़ पाना सरल नहीं होता। अपरिचित चेहरे, अपरिचित समस्याएँ। वे वहाँ के सफेद यूनिफॉर्मवालों में से एक से सवाल करते हैं। फिर दूसरे से। फिर तीसरे से। इसी सिलसिले में वे अंततः जान जाते हैं कि उन दोनों को इमरजेंसी में रखा गया है जहाँ सर्जरी-विभाग के डॉक्टर उनके उपचार में रत हैं।

सफेद बिस्तरों में से एक पर वही लड़का लेटा हुआ है, हाथ से उसके नर्स रक्त का नमूना लेने का प्रयास कर रही है।

"इनके साथ कौन है... आकांक्षा के साथ?" तभी पीछे से एक स्वर कानों में पड़ता है। लड़के के समीप के बिस्तर पर पड़ी लड़की की तरफ इशारा करते एक जूनियर डॉक्टर कहते हैं। इला और जुगल को उस जिस्म को पहचानने में दिक्कत नहीं होती। वही रक्तस्नात चेहरा, वही लाल हो चुकी गुलाबी टी-शर्ट।

"डॉक्टर! सर हुआ क्या है इनको?"

"ओ, आप इनके संग हैं? इनका फौरन ऑपरेशन करना पड़ेगा। सीने की पसलियाँ टूटी हैं और पेट में भी बड़ी चोट है। खून की जरूरत पड़ेगी और पैसों की भी। आप के साथ कितने लोग हैं?"

"हम हैं सर, बस हम दोनों। बिलकुल अकेले।" जुगल जवाब देता है।

"तो फोन करके और लोगों को बुलाओ मेरे भाई! हट्टे-कट्टे हो, अपने जानने वाले के लिए ब्लड-डोनेट भी नहीं कर सकते?"

इला और जुगल की नजरें बगल में लेटे आकांक्षा के साथ के लड़के से चार होती हैं। ऐसा लगता है कि वह उन्हें देख रहा है मगर कुछ बोल सकने की ताकत उसमें अब नहीं बची है। बमुश्किल वह अपना आइकार्ड उनकी ओर हवा में उठाता है। इला उस पर लिखा पता और फोन-नंबर पढ़कर उसके घरवालों को सूचना देती है। फिर वह बाहर निकलते हुए एक नर्स से पूछती है, "सिस्टर, ब्लड बैंक के लिए कहाँ से जाएँ?"

नर्स बातचीत में इतनी मशगूल है कि तीसरी बार में मात्र हाथ उठाकर उसे घुमाते हुए इशारा करती है। फिर वह जुगल से आँखों को किसी बोधभाव में झपकाते हुए पूछती है। "गंजले चलें? दुनिया के एक मर्द और एक औरत मौत से लड़ रहे हैं।"

"नेकी और पूछ-पूछ। चल।" हाथ से आगे बढ़ने का इशारा करते हुए जुगल की चाल तेज हो जाती है।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में स्कंद शुक्ल की रचनाएँ