" लेखक की सिंसियारिटी का प्रश्न वस्तुतः उसके अंतर्जगत की अभिव्यक्ति से संबंधित है। यदि वह अभिव्यक्ति कृत्रिम है तो निःसंदेह वहाँ सिंसियारिटी नहीं है। किंतु कृत्रिमता केवल इन्सिंसियारिटी की ही उपज नहीं होती , वह अकविता की उपज होती है अर्थात अंतर्जगत की निर्जीवता और जड़ता का प्रमाण होती है। " [ मुक्तिबोध : नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र]
निश्चित तौर पर कविता अर्थात साहित्य 'सिंसियारिटी' अर्थात संवेदना और अंतर्जगत की चेतना की उपज है। संवेदना साहित्य की नींव है जिसके बगैर उसके अस्तित्व की कल्पना बेमानी। यही वह प्रमुख तत्व है जो साहित्य को साहित्य बनाता है तभी उसे भाव या शक्ति का साहित्य कहते हैं। 'spontaneous overflow of powerful feelings'। शिवमूर्ति का कथा साहित्य इसकी सशक्त बानगी है। वे मानवीय संवेदनाओं के समर्थ व सजग लेखक हैं, इनसानी जज्बातों को वेजिस कुशलता से उकेर सके ये उनकी चेतना और 'सिंसयारिटी' के कारण ही संभव हो सका।
शिवमूर्ति की चुनिंदा कहानियाँ और उपन्यास हैं। उनका अपना पाठक वर्ग है। ठहरकर लिखने की उनकी कला के कारण ही तकरीबन हर कहानी उनकी यादगार कहानी बन गई जिनका नाट्य अंतरण और फिल्मांकन हुआ। हाल ही में राजकमल प्रकाशन से उनका एक और कहानी संग्रह आया है 'कुच्ची का कानून'। संग्रह में चार कहानियाँ हैं, 'ख्वाजा, ओ मेरे पीर!', 'बनाना रिपब्लिक', 'कुच्ची का कानून' और 'जुल्मी'। 'जुल्मी' को छोड़कर बाकी सभी कहानियाँ उनके परिपक्व और उम्दा लेखन की मिसाल हैं। ग्रामीण जीवन का गूढ़ शास्त्र रचती हर कहानी परिवार, समाज, राजनीति और सामंती संस्कृति के भीतर पनपने वाले बारीक से बारीक षड्यंत्र और आतंक के महीन से महीन धागे की बुनावट को उकेरती है ।
शिवमूर्ति बड़े मुद्दों के कहानीकार हैं। ग्रामीण परिवेश पर केंद्रित उनकी कहानियों के कथ्य उत्तर आधुनिक और उत्तर भूमंडलीकरण के समय और सच से जुड़े हैं, इसीलिए इनकी व्याप्ति सार्वभौमिक है। इस संग्रह की कहानियों की भी धुरी ग्रामीण लोकल है किंतु मुद्दे ग्लोबल। सबसे पहले संग्रह के शीर्षक कहानी 'कुच्ची का कानून' की चर्चा। पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर शिवमूर्ति का उद्धृत बयान " मेरा कहना है कि कोख देकर बरम्हा ने औरतों को फँसा दिया। अपनी बला उनके सिर डाल दी। अगर दुनिया की सारी औरतें अपनी कोख वापस कर दें तो क्या बरम्हा के वश का है कि वे अपनी दुनिया चला लें?" कहानी के ज्वलंत, बल्कि विस्फोटक भी यदि कहें तो अतिश्योक्ति न होगी, मुद्दे की भनक दे जाता है। कहानी कोख में नौ महीने रखने वाली और जन्म देने वाली स्त्री के अपनी कोख पर अधिकार से जुड़ी सशक्त कथ्य पर केंद्रित है। यूँ ही शिवमूर्ति अपनी कहानी के प्रकाशन के तुरंत बाद ही चर्चाओं की गर्माहट में नहीं आ जाते।
बात पहले कथ्य की फिर ट्रीटमेंट की। अपनी पूर्व कहानियों से थोड़ा इतर इस कहानी में 'जो घट रहा है' को सिर्फ न दिखाकर 'जो होना चाहिए' भी दिखाया है। कहानी वर्तमान समय में स्त्रियों से जुड़े विश्व के सबसे बड़े मुद्दे 'कोख के अधिकार' से जुड़ी है। कहानी की केंद्रीय पात्र कुच्ची विधवा है। विवाह के कुछ ही समय बाद पति की अकाल मृत्यु कुच्ची और उसके सास-ससुर को बेसहारा छोड़ जाती है। गाँव की प्रथा के अनुसार कुच्ची के मायके वाले उसे अपने साथ ले जाकर दूसरा विवाह करना चाहते हैं। किंतु वह अपने बूढ़े और बेसहारा सास-ससुर के साथ अपनत्व और प्रेमवश कुछ दिन रुकना चाहती है। यहाँ उसका कोई स्वार्थ नहीं। क्लांत, बीमार सास-ससुर को वह उनके बेटे की तरह अपनी क्षमताओं से ज्यादा सहारा और स्नेह देती है। पति की मृत्यु संतान पैदा होने से पहले ही हो गई थी फलतः संपत्ति का वारिस कौन हो। गिद्ध सी नजर गड़ाए चचेरा जेठ संपत्ति हथियाने के सारे जोर लगाता है। किंतु कुच्ची को प्रेम के नाटक से, जोर जबरदस्ती से वश में करने के सारे हथकंडे फेल हो जाते हैं। कुच्ची समझ जाती है कि संपत्ति का लालच उसकी, उसके सास-ससुर की जान ले सकता है। क्योंकि संपत्ति का कोई कानूनी वारिस नहीं, इसलिए उसका जेठ इसका दावेदार होने का दम रखता है। अब कुच्ची के लिए यह लड़ाई उसके अधिकार या स्वाभिमान की ही नहीं धर्म की लड़ाई है। किंतु समस्या ये कि वारिस कहाँ से आए? वारिस देने वाला तो चला गया। अन्यत्र विवाह कर ले तो वह उसका अधिकार कैसे दिलाए। कुच्ची हर मोर्चे पर संघर्ष कर रही है। सामने वाला हद दर्जे का आक्रामक, शातिर, हिंसक और क्रूर है। दूसरी ओर परिस्थितियाँ और व्यवस्था भी सब तरह से उसके पक्ष में। हर वार का पलटवार करने की कोशिश में कुच्ची को समझ में आने लगता है कि जीत आसान नहीं। अंततः कुच्ची एक फैसला लेती है। बिना पिता के वैधानिक नाम के अकेली माँ बनने का। यह फैसला उसका अमोघ अस्त्र है अपने हक को पाने का। बहरहाल यह खबर गाँव के लिए किसी विस्फोट से कम नहीं। स्त्री की छोटी से छोटी आजादी में नकेल डालने वाली सामंती संस्कृति भला इसकी छूट कैसे और क्यों दे दे। उनके लिए तो मरने-मारने जैसी बात। पंचायत बिठाई जाती है। मामला साफ-साफ दीखता है कि कुच्ची ने अपराध किया है घोर अपराध। कुच्ची भरी पंचायत में ऐलान करती है कि कोख में पल रहे बच्चे का बाप उसका पति नहीं कोई और है जिसके नाम से गाँव का कोई लेना-देना नहीं। कुच्ची बहादुर है, स्वाभिमानी है, निर्णय पर अडिग है 'तिरियाचरित्तर' की विमली की तरह, लेकिन इस बार वह विमली की तरह पंचायत के खूनी वार का शिकार नहीं होती। ये इस कहानी का टर्निंग प्वाइंट है। सातवीं पास कुच्ची तमाम तर्क और दृष्टांतों से पौरुष दंभ से भरे मर्दवादी समाज को हर बार निरुत्तर कर देती है।
- "मुझे जरूरत लगी महराज। मेरा आदमी तो एक बार मरकर फुरसत पा गया लेकिन बेसहारा समझकर हर आदमी किसी न किसी बहाने मुझे रोज मार रहा था। मैं मरते-मरते थक गई तो जीने के लिए अपना सहारा पैदा कर रही हूँ।
- तो तुझे दूसरी शादी करने से किसने रोका था?
- दूसरी शादी कर लेती तो मेरे सास-ससुर बेसहारा हो जाते बाबा। अपने सहारे के लिए इनको बेसहारा छोड़कर जाते नहीं बना। मेरा रिस्ता मेरे आदमी तक ही तो नहीं था।
लेकिन तू बजरंगी की ब्याहता है। तेरी कोख पर सिर्फ बजरंगी का हक बनता है।
मरे हुए आदमी के काम तो यह कोख आ नहीं सकती बाबा। उनके मरने के बाद किसका हक बनता है?
- दूसरा मर्द करेगी तो उसका हक बनेगा।
- दूसरा मैंने किया नहीं, तो किसका बनेगा? मेरी कोख पर मेरा हक कब बनेगा?"
कहानी कुच्ची के कोख की जानकारी से ही आगे बढ़ती है, जिसकी वैधता उसे साबित करनी है क्योंकि पति बजरंगी दो साल पूर्व जहरीली शराब के सेवन से मर चुका है। कुच्ची के सामने चुनौतियों का पहाड़ है। पंचायत में स्मृति, पुराणों मनुवादी विधानों का हवाला देकर कुच्ची को गलत साबित करने की तमाम कोशिशें की जाती हैं। लेकिन कुच्ची अडिग है अपने 'वर्जिन' प्रश्न पर, "जब मेरे हाथ, पैर, आँख, कान पर मेरा हक है, इन पर मेरी मर्जी चलती है तो कोख पर किसकी होगी, उस पर किसकी मर्जी चलेगी, इसे जानने के लिए कौन-सा कानून पढ़ने की जरूरत है।" वह पंचायत को ही सवाल के घेरे में ले आती है, "बात से कायल कर दीजिए या कायल हो जाइए। मेरी कोख पर मेरा हक है या नहीं।" ये कुच्ची का कानून है। जब कोख उसकी तब उसमे पलने और पैदा होने वाले बच्चे पर उसका पूर्ण अधिकार क्यों नहीं? 'बीज' डालने वाले की भूमिका इतनी निर्णायक और अंतिम कैसे? कहानी की संवेदना स्त्री के सिंगल पैरेंट के अधिकार के साथ स्त्री की अस्मिता एवं अधिकार की जोरदार माँग और पैरवी है।
कानून और समाज के ठेकेदारों और बड़े-बड़े प्राचीन विधानों और शास्त्रों के आगे मासूमियत से पूछे गए कुच्ची के प्रश्न पंचायत को मूक कर देते हैं। यहाँ तक कहानी पूरी संवेदनशीलता और स्वाभाविक अंतर्चेतना की गति से आगे बढ़ती है किंतु इसके आगे लेखक कहानी के केंद्रीय प्रश्न को आधुनिक हल देने की कोशिश करता है। पंचायत की चुप्पी, उत्तरहीनता व कुच्ची के प्रताप के सामने नतमस्तक होते हुए उसके सामने उनकी हार प्रायोजित भी लगती है और लेखक की विवशता भी। लेखक ने एक बहुत बड़े मुद्दे को भारतीय ग्रामीण पृष्ठभूमि में खड़ा तो किया किंतु उस परिवेश के साथ न्याय नहीं कर पाए। कुच्ची के सभी तर्कों और प्रश्नों के आगे पंचायत का बौनापन और हास्यास्पद सी स्थिति कुच्ची के लिए निर्धारित अनुकूल परिस्थितियाँ बनाती है। कहानी में कुच्ची की स्थिति को मजबूत बनाने के लिए प्रतिपक्ष को झूठा आक्रामक किंतु वास्तविकता में बौना दिखाना कहानी को कमजोर करता है। कहानी की शुरुवात जिस तरह की शिवमूर्ति वाली धारदार शैली, पंच और द्वंद्व लिए है वहीं कहानी का उतार अपनी स्वाभाविक गतिशीलता को छोड़कर तनावरहित और मैन्युफैक्चर्ड लगता है। कहानी में ये रचाव कदाचित लेखक की आदर्श समाज की चाह का परिणाम हो सकता है या यथार्थ का अगला पड़ाव तो हो सकता है किंतु ये यथार्थ अभी का तो नहीं दिखता।
संग्रह की दूसरी कहानी 'बनाना रिपब्लिक' शिवमूर्ति की सर्वाधिक सशक्त कहानी है। इसे २१वीं सदी में दलित चेतना के उभार की सर्वाधिक आधुनिक कहानी कहा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में अस्सी के दशक के बाद शुरू हुए दलित उभार को समग्रता में उनके अंतर्विरोधों के साथ शिवमूर्ति की कहानियों में क्रमशः देखा जा सकता है। यथार्थ को उसके सम्यक रूप में अनुभव कर रचने के क्रम में शिवमूर्ति का यह वक्तव्य ध्यान देने लायक है, "मेरा नजरिया किसी पूर्वनिर्धारित सोच या विचारधारा से नियंत्रित नहीं होता। जीवन को उसकी समग्रता और निश्छलता में जीते हुए ही मेरे रचनात्मक सरोकार आकार ग्रहण करते हैं। पहले का यथार्थ यह था कि 'कसाईबाड़ा' की हरिजन स्त्री सनीचरी धोखे/जबरदस्ती से मार दी जाती है। उसकी खेती-बाड़ी हड़प ली जाती थी। आज का यथार्थ 'तर्पण' में है। सनीचरी जैसे चरित्रों की अगली पीढ़ी रजपतिया के साथ जबरदस्ती का प्रयास होता है तो गाँव के सारे दलित इकट्ठा हो जाते हैं। सिर्फ इकट्ठा नहीं, बल्कि उस लड़ाई में वे हर संकट का सामना प्रयास करते हैं। इस लड़ाई जीतने के लिए हर चीज का सहारा लेते हैं। उसमें उचित-अनुचित का सवाल भी उतना प्रासंगिक नहीं लगता। उनके लिए हर वह सहारा उचित है जो उनके संघर्ष को धार दे सके। पहले थोड़ा अमूर्तन भी था। अब टोले का विभाजन दो प्रतिद्वंद्वियों के रूप में सामने खड़ा है। जातियों के समीकरण पहली कतार में आ गए हैं। 1980 से 2000 तक जो परिवर्तन आया वह मेरी रचनाओं में साफ दिखता है... मैं तर्पण को ध्यान में रख कर कह रहा हूँ। इससे आगे का यथार्थ मेरी रचनाओं में आ रहा है... और उससे आप मेरा नजरिया समझ सकते हैं। ...तब यह स्वर नहीं उठता था कि जो दुख-दर्द घेरे है, उसके आंकड़े क्या है! कारण क्या हैं! पैदावार और लागत का जो अनमेल अनुपात है उसके पीछे कैसे कैसे षड्यंत्र हैं! यानी परदे के पीछे चल रहा खेल क्या है? ...आज इन सब पर नजर जा रही है।" (नया ज्ञानोदय, जनवरी 2008, पृष्ठ 107)
परदे के पीछे का यह खेल, अनुभूति और विचार के सम्यक परिपाक के रूप में, शिवमूर्ति की कहानियों में किस्सागोई की बेहतरीन कला के साथ बेहतरीन और मारक ढंग से उद्घाटित किया गया है। इनकी कहानी 'बनाना रिपब्लिक' में बदलते समय का जोरदार आगाज है, इसकी धमक दूर तक और देर तलक सुनाई देती रहेगी। कहानी की सबसे बड़ी खासियत है वक्त के बदलाव को उसकी बहती रवानगी में दिखाना, जहाँ नाटकीयता तो है किंतु कृत्रिमता लेश मात्र भी नहीं। राजनीति में बनाना रिपब्लिक से आशय राजनैतिक रूप से अस्थिर ऐसे देशों से है जो आर्थिक रूप से अपने सीमित संसाधनों के निर्यात पर निर्भर होते हों, जहाँ बड़ी संख्या में सामाजिक असमानता हो तथा गरीब मजदूर वर्ग के शोषण पर मुट्ठी भर पूँजीपति राज करते हों। जैसे कैरेबियन देशों का गणतंत्र। मल्टीनेशनल केला कंपनियों के हाथ की कठपुतली।
पंचायत चुनाव में नाहरगढ़ गाँव आरक्षण में आ जाता है। आरक्षण की नीति के तहत प्रधान अब कोई दलित ही बन सकता है। गाँव में सदियों से राज करते ठाकुर की ठकुरसाहत अब खतरे में है। वर्षों से अपनी दबंगई दिखाने वाले सामंतों में खलबली है; क्या ये गाँव अब उनकी बपौती नहीं रहेगी? अपने अभिजात्यीय दंभ और जातीय ठसक के एकछत्र राज के आदी इन सवर्णों के लिए अपनी प्रधानी छोड़कर किसी दलित को प्रधान के रूप में देखना जितना कल्पनातीत और असंभव है उतना ही सदियों से दलित-शोषित, सवर्णों को माई-बाप के रूप में देखने वाले, अवर्णों के लिए भी।
"गाँव में जैसे भूडोल आ गया है! ...ऐसी एक बड़ी आबादी है जो आज भी जाति-व्यवस्था को ब्रह्मा की लकीर मानती है। वह मानती है कि कि सवर्णों के गाँव में दलित को परधानी की कुर्सी पर बैठाना सवर्णों के सिर पर बैठाना हुआ। लोहिया तो समाजवाद नहीं ला पाए लेकिन आज की सरकारें, लगता है, ला के रहेंगी। किसी आदमी ने ऐसा किया होता तो उसका मुँह फोड़ देते। सरकारों का कोई क्या करे?" प्रधानी सिर्फ कमाई का ही नहीं, सामाजिक रुतबे और ऊँचे कद का भी जरिया है। लेकिन करे भी तो कोई क्या करे? प्रजातंत्र है, सरकार की नीति है। उससे कोई कैसे लड़े? बहरहाल कानून है तो उसका तोड़ भी है। स्थिति से निपटने का तरीका निकाला जाता है। गाँव में कैरेबियन देशों की तर्ज पर बनाना रिपब्लिक लाने का यानि बुत रूप में दलित प्रधान और असल परधानी ठाकुर की। लोकतंत्र का दिलचस्प नजारा है, दलितों में डर, शक डाँवाडोल होते आत्मविश्वास के साथ उत्साह की कमी नहीं। हिम्मत करके सपने देखने लगते हैं। "जिसके घर पर साबूत फूस का छप्पर और पैरों में चप्पल तक नहीं है, वह भी परधानी का सपना देख रहा है।" अपने-अपने मोहरे चुनाव में उतारे जाते हैं। सवर्ण चुनाव में अपनी ताकत के साथ पैसा भी 'इन्वेस्ट' कर रहे हैं, पता है सूद समेत वसूलेंगे। ठाकुर की तरफ से जग्गू और पदारथ सिंह की तरफ से मुंदर और फुलझरिया। जग्गू ठाकुर की सरपरस्ती में अपनी पूरी ताकत और कुल जमा-पूँजी यहाँ तक कि ठाकुर की अतिरिक्त होशियारी और शातिरपरस्ती के चक्कर में अपनी बाजार की जमीन का टुकड़ा (जो कभी खैरात में मिला था और अब वक्त की मेहरबानी ने कीमती बना दिया) जिस पर उसका पिता फूस डालकर जूता पॉलिश करता है, ठाकुर की पत्नी के पास रेहन रख देता है। जग्गू के पास अब कुछ शेष नहीं। ठाकुर निश्चिंत है, जग्गू जैसा जीहुजूरी करने वाला, गुलामी का आदी सेवक उसे डबल क्रॉस नहीं करेगा। मुंशी कहानी में चाणक्य की तरह दोनों पक्षों को कूटनीति सिखाता है, विशेषकर ठाकुर को आगाह करता है कि वह जग्गू पर इतना भरोसा न करे। जग्गू का पिता ठाकुरों के खूनी षड्यंत्रों से वाकिफ है। पहले तो वह प्रधानी जैसे ऊँचे सपने ही नहीं देखना चाहता क्योंकि ये उसके लिए अविश्वसनीय है किंतु लड़के की मर्जी के आगे चुप हो जाता है लेकिन जमीन रेहन रखने की बात पर भड़क उठता है। "जरूर उसी ठाकुर ने तेरी मति फेरी है। इतनी दूर का निशाना। तभी मैं कहूँ कि तुझे परधानी देने के लिए वह क्यों मरा जा रहा है? तू समझ रहा है कि वह तेरा चुम्मा ले रहा है। अरे कुलाकलंकी, वह तुझे डस रहा है। उसके काटने से लहर भी नहीं आएगी।" पिता की आशंका पाठकों के मन को आशंकित कर देती है। यही तो होता आया है, हकीकत हो या अफसाना। ठाकुर जग्गू पर दाँव लगाकर निश्चिंत है। सदियों के गुलाम उन्हें आँखें नहीं दिखा पाएंगे। हवा का रुख पहचानने में ठाकुर साहब चूक गए। किंतु जग्गू नहीं चूका, 'सारा लोहा उन लोगों का, अपनी केवल धार'। शहर के पढ़ने वाले लड़के जग्गू की लानत-मलानत करते हैं कि उन्हें बनाना रिपब्लिक नहीं पूर्ण अधिकार चाहिए।
"जग्गू जैसे कौम के गद्दार और चापलूस सदा से होते आए हैं जो लात जूता खाकर भी उन लोगों का जूठा पत्तल चाटने को तैयार रहते है।" शहर के शिक्षित लड़के आमूलचूल क्रांति चाहते हैं, मार्क्सवादी सर्वहारा क्रांति। किंतु जग्गू तेल और तेल की धार को बेहतर समझता है। लेखक जग्गू के रूप में न तो दलित समाज का कोई महानायक रच रहे थे न हर बार की तरह शहीद होता आया पात्र। उन्हें/उन्होंने समय की संभावनाओं के बीच से अपने हीरो को खड़ा करना था / खड़ा किया। उदय प्रकाश के टेपचू और मोहनदास से आगे का सच। "गुलामगीरी करे ससुरा अँगूठाछाप मुंदर और उसकी आल-औलाद। मैं बीस साल पहले का हाईस्कूल पास। फस्ट डिवीजन। साइंस साइड। मार्कशीट दिखाऊँ? बाप आगे पढ़ाता तो मैं भी डी.एम., एस.पी. बन जाता। मैं इंटर फेल ठाकुर की गुलामगीरी करूँगा? अरे, गरज पड़ने पर गदहे को भी मामा कहना पड़ता है। लाखों खर्च कर रहा है। भंडारा खोले हुए है तो मामा नहीं कहूँगा? मेरा पैंतरा जीतने के बाद देखना। सारा गाँव आकर मेरे 'इसमें' तेल न लगाए तो देखना।" हाई स्कूल पास जग्गू राजनीति के सब पैंतरे जानता है, विशेषकर चिरौरी करने के।
चुनाव के नतीजे का वक्त आ जाता है। सदियों पुरानी गाँव की सत्ता का इतिहास बदलना है। जग्गू उर्फ जगत नारायण सात वोटों से प्रधानी जीत गया। ठाकुर को जग्गू फोन से सूचित करता है। ठाकुर की पूरी बात बिना सुने ही उत्साह के अतिरेक में फोन काट देता है। जीत का प्रमाण पत्र पकड़ते हुए जग्गू के हाथ काँप रहे हैं, उधर ठाकुर का दिल। ये जग्गू की जीत है। अब जग्गू सुअर आदि ढोर डाँगर चराने वाला भंगी नहीं, जगत नारायण प्रधान है। ठाकुर साहब प्रतीक्षा कर रहे हैं। सबसे पहले जग्गू उन्हीं के पास आएगा। बड़े से जुलूस में शामिल होने के लिए तैयार होकर बैठे हैं, राजगढ़ स्टेट की राजकुमारी ठकुराइन शिवराज कुँवरि को माला गूँथने का आग्रह करते हैं। ठकुराइन दलित के लिए माला गूँथे! इससे बड़ी हेठी और क्या होगी। किंतु गूँथना पड़ता है। ठाकुर प्रतीक्षा करते ही रहते हैं जग्गू नहीं आता। जुलूस उसके टोले की ओर चला जाता है। ठाकुर का गुस्सा बढ़ता जाता है और उनका डर भी। रात का सपना याद आ जाता है जिसे देखकर जूड़ी चढ़ गई थी, "जग्गू हाथी की नंगी पीठ पर बैठा उन्हीं की ओर आ रहा है। उसके हाथ में लंबा अंकुश है। उनको देखकर अट्टाहस करता है - तुम्हीं को खोज रहा हूँ ठाकुर। और हाथी उनकी तरफ दौड़ा देता है। निचाट मैदान में वे अकेले भागे जा रहे हैं लेकिन पैर ही नहीं उठते। पीछे हाथी की चिंग्घाड़... उनकी धोती खुल गई है। धोती की लोंग लंबी होकर पूँछ की तरह घिसट रही है। पैरों में लिपट रही है।" दलित की हुंकार और बढ़ते कद ने उन्हें पूँछ वाला पशु बना दिया। लेकिन करें तो क्या आखिर गरज अब उनकी है। 'एक लाख से ज्यादा 'इनवेस्ट' कर चुके हैं। बात बिगड़नी नहीं चाहिए'। मजबूर होकर खुद ही पहुँच जाते हैं जहाँ टोले के लड़के जग्गू को लिए जश्न मना रहे हैं। उनके बीच ठाकुर पहुँचकर भी पूरी तरह उपेक्षित रहते हैं। जग्गू के ऊपर गुस्सा इतना कि मन करता है कि अपनी कुबरी उठाकर उसके सर पर दे मारें। बमुश्किल गाली और गुस्से पर नियंत्रण करते हैं, क्योंकि पता है कि अब इसकी गुंजायश नहीं। ठाकुर अपने जातीय दंभ को कहाँ तक झुकाएँ। दलित लडकों के जोर देने पर उनके घर का पानी न चाहते हुए भी जबरन पीना पड़ता है ये दिखाने के लिए वो उन्हें अब अपना मानते हैं। यही नहीं यहाँ तो अब उनकी स्थिति विदूषक सी हुई जा रही है। "एक लड़का उन्हें नाचने के लिए लड़कों की गोल की ओर खींचता है। दूसरा उनके पंजे में पंजा फँसाकर दाएँ-बाएँ हिलाते हुए कहता है - जरा कमरिया भी लचकाइए ठाकुर। नाचते हुए लड़कों के बीच कुबरी वाला हाथ उठाकर वे मटकाने लचकने लगते हैं।" सामंती सभ्यता को दलितों द्वारा ऐसा करारा जबाव! जहाँ उन्हें इतना बौना, हास्यास्पद और बेचारा बना कर छोड़ा गया हो! क्या इससे अधिक और कोई बेहतरीन और यथार्थपरक अंत हो सकता था। मेरी समझ से तो नहीं।
'ख्वाजा, ओ मेरे पीर' शिवमूर्ति की संवेदनाओं की जिंदा अभिव्यक्ति की एक और बेजोड़ मिसाल है। इनकी कहानियों में गाँव किसी विचार की तरह नहीं बल्कि जीवित अहसास के रूप में आया है। इन्होंने गाँव के ऊपरी आवरण को नहीं, उसके भीतरी मर्म, उसकी आत्मा को पकड़ा है। यह ऐसा दौर है जब चरम विकास का दानव गाँवों को उजाड़कर शहरों को बसा रहा है। गाँव के उजड़ने में सरकार की नीतियाँ भी जरूरी इंतजाम कर रही हैं। बदलते भारत के विकासशील चरित्र का कुरूप चेहरा इन गाँवों की शक्ल में दिखाई देता है। ऐसे समय में जब सरकारें गाँव उजाड़ रही हैं, शिवमूर्ति की तरल संवेदना कथा कहानियों में फिर से गाँव को उसके समस्त अनुषंगों के साथ जीवित रखने का प्रयास कर रही है।
'ख्वाजा, ओ मेरे पीर' ग्रामीण जीवन के यथार्थ की दारुण तसवीर है। अविकास, उपेक्षा, अपमान, गरीबी, अशिक्षा, बीमारी और झूठी परंपराओं के दुश्चक्र में फँसे ग्रामीण समाज में पति-पत्नी के वियोग की कारुणिक कहानी। शिवमूर्ति के यहाँ ग्रामीण विकट परिस्थितियों में जीते पुरुषों के बरअक्स स्त्रियाँ जितने जीवंत और जीवट रूप में आई हैं उतनी शायद ही हिंदी पट्टी के किसी अन्य कहानीकार की कहानियों में आई हों। इस कहानी में लाचारी और सामाजिक दमन के शिकार पात्र मामा-मामी का मस्तिष्क अपनी कथित परंपराओं की रक्षा में इस कदर अनुकूलित है कि झूठे वचन और मान की रक्षा में मामी आजीवन विधवा का सा जीवन जीने को विवश हैं और मामा अंत तक एकाकी उपेक्षित अनंत पीड़ा से भरा जीवन जीने को। सारतः यह कहानी अंतहीन दारुणता का महा आख्यान है। पति-पत्नी जिंदा होते हुए, आसपास रहते और जीते हुए भी आदर्श और वचन के घेरे में अपने अपने हिस्से का वियोग जीने को अभिशप्त हैं। यह कहानी उस परिवेश की कई पीढ़ियों का जमीनी यथार्थ, पिछड़ेपन का सजीव बिंब रचती है। सरकारी उपेक्षा ने देश के कई गाँवों और अंचलों को किस कदर उपेक्षित, विकास की धारा से कटा एकदम अलग-थलग बना कर छोड़ा है इसकी एक बानगी इस कहानी का अंचल है, जहाँ के लोग नारकीय जीवन जीने को विवश हैं। कहानी का एक उदाहरण देखिए, "माधोपुर से शिवगढ़ तक सड़क पास हो गई। तो सरकार ने आखिर मान ही लिया कि ऊसर जंगल का यह इलाका भी हिंदुस्तान का ही हिस्सा है। पिचले पचास बरस में कितनी दरख्वास्तें दी गईं। दरख्वास्त देने वाले नौजवान बूढ़े हो चले तब जाकर..." शिवमूर्ति अपनी कहानियों में सीधे पात्रों पर नहीं आते, पहले उस परिवेश के भूगोल और इतिहास को इस तरह गहराई में जाकर उकेरते हैं कि पाठकों के सामने पिछली कई पीढ़ियाँ जीवित होने लगती हैं।
कहानी के केंद्रीय पात्र मामा-मामी अलग अलग रहते हैं। मामी मायके में और मामा प्रायः खेत में मचान पर। यह कहानी इन्हीं की त्रासद कहानी है, जिसके सूत्र पूरी कहानी में बिखरे पड़े हैं जिन्हें जोड़े बगैर इनकी पीड़ाओं की जड़ तक पहुँचना मुश्किल है। मामा अपने मरते पिता को पूरे परिवार को 'पार घाट लगाने' के वचन से घिरे हैं और मामी भी इस बात से हटने को तैयार नहीं कि उनके ससुर ने उनके पिता को यह वचन दिया था कि लड़का घरजँवाई बनकर ससुराल में रहेगा। किंतु परिस्थितियाँ ऐसी मारक बन जाती हैं कि अपने-अपने वचन और जिम्मेदारियों से घिरे दोनों ही साथ नहीं रह पाते। माँ की जली-कटी सुनने के बाद भी मामी रात में अकेले ऐसे रास्तों को पार कर जिन पर दिन में भी अकेले चलने से लोग घबड़ाते हैं, कुछ रातें मामा के साथ बिताने आती रहीं। उनके बच्चे भी हुए। किंतु बाद में इस सबके बावजूद इनकी कहानी वियोग की करुण कहानी ही बनकर रह गई। मामी अपनी पूरी संकल्प शक्ति के साथ अपने वचन और आन की रक्षा भी करती हैं और साथ ही पति और अपनी गृहस्थी भी बचाए रखने की पूरी कोशिश करती हैं। मामा वायदा कर के भी कभी मामी से मिलने ससुराल नहीं जा पाए। जो साहसिकता मामी में है वह मामा में नहीं। लोक लाज के चलते वे कभी अपनी पत्नी से मिलने ससुराल नहीं आए। मामी कई मोर्चों पर अकेले लड़ती रहीं। पति की उदासीनता, माँ-बाप की फटकार और सुनसान रातों में अकेले पति के पास जाने से जो नहीं घबड़ाई उसे उसके जवान बेटे के गायब होने ने अंदर ही अंदर तोड़ दिया। आसपास के गाँवों में 'पदी' अर्थात न्याय करने वाले के रूप में जाने जाने वाले मामा के लिए पिता को दिया वचन ज्यादा अहम था। उनका दर्द उनके विरहा गीतों में पिघल कर बह पड़ता है, 'रतिया आया बिरतिया भाग्या कोरवा न सोया हमार एक दिन आवा खड़ी दुपहरिया देखी सुरतिया तोहार'। यह आस उनकी कभी पूरी न हो सकी। अपने अपने हालातों के आगे विवश दोनों पति-पत्नी की पीड़ा पाठकों के मन को बेहद आद्र कर जाती है। यहाँ ये एक-दूसरे के अपराधी नहीं बल्कि इनकी परिस्थितियाँ अपराधी हैं। इनके त्याग की टीस और पीड़ा, उम्र ढलने के साथ परिवार की वृद्धों के प्रति संवेदनहीनता और उपेक्षा, और बढ़ा देती है। नब्बे की उम्र के हो चुके मामा को उनका अफसर भांजा/नैरेटर पहली बार मामी से मिलाने ससुराल लिवा जाता है। बूढ़े की भतीज बहुएँ खुश है, बूढ़े से मुक्ति मिली। उधर बुढ़ापे की इस दहलीज में अशक्त हो चुकी मामी बेटे-बहू के होते हुए भी अपनी दो रोटी के लिए भी चूल्हे के धुएँ में आँखें फोड़ रही हैं। कहानी का अंत बेहद मार्मिक है। पति पहली बार ससुराल आया है परिस्थितियों ने ऐसे मोड़ पर ला छोड़ा है कि चाह कर भी पत्नी अब नहीं रोक सकती। एक तो विवश हालात, दूसरे जो इतने सालों में न हो सका, अब किस हक से कहे। आर्थिक रूप से अवश पति की स्थितियाँ भी नहीं कि पत्नी को साथ ले जाए। जिंदगी की त्रासदी इससे बड़ी क्या होगी। जीवन के अंत समय में मिलकर भी अगले जनम में मिलने का वायदा कर के अलग हो जाते हैं - 'अब तो शायद मिलना अगले जनम में ही होगा।' ये झूठा मुगालता नहीं तो और क्या है।
अब अंत में बात संग्रह की अंतिम कहानी 'जुल्मी' की। पुस्तक के फ्लैप पर लिखा है, 'जुल्मी' 1970 के आसपास लिखी गई शुरुवाती रचना है। इसे इस आग्रह के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है कि पाठक देखें, उनके प्रिय कथाकार अपनी रचनायात्रा में कहाँ से कहाँ तक पहुँचा है? 'जुल्मी' कुछ हद तक 'ख्वाजा, ओ मेरे पीर' के कथ्य से समानता रखती है। मिथ्या दंभ से भरे नई-नवेली ब्याहता कोयली के ससुराल वाले अस्पताल में भर्ती उसके इकलौते भाई को देखने जाने की इजाजत नहीं देते। आखिरी आस पति से है। पति पिता की मर्जी और आज्ञा के खिलाफ एक शब्द नहीं बोल सकता। कोयली मरणासन्न अवस्था में पड़े भाई से मिलने को बेहाल है। पति की कायरता के कारण वह अकेले ही चली जाती है। भाई की तेरहवीं में ससुर आए लेकिन बहू की विदाई की बात नहीं करते। गम में डूबे मायके में भी इस बाबत अभी कोई सुध नहीं। ससुर का मन बहू की ढिठाई से उबल रहा है। मना करने पर भी वह मानी क्यों नहीं। आज्ञा की अवहेलना करने की ऐसी जुर्रत। उसकी सजा ये कि कोयली को ससुराल से कोई बुलावा नहीं आता। मायके वाले भी बिना किसी के बुलावे के कैसे भेज दें, 'एक बार नाऊ से, नहीं, कूकुर से संदेश भिजवा दें'। पति पत्नी को लिवाने अब आना चाहता है किंतु बिना भात खाए की रीति निभाए हुए ससुराल आ नहीं सकता। दोनों पक्षों की जिद और झूठे मान-सम्मान की रक्षा के ढकोसले में पति-पत्नी अलग हो जाते हैं। मायके में दुबारा विवाह का जोर बढ़ने लगता है। लेकिन कोयली के लिए किसी दूसरे के बारे में सोचना अब असंभव है। विवाह के बाद की गिनी-चुनी यादें समेटे और पति की सूरत की धुँधली सी छाया लिए आठ साल बीत गए। आठ साल की लंबी प्रतीक्षा के बाद घर के द्वारे आए मेहमान और जुटी भीड़ ने उसका विशवास पक्का कर दिया कि उसका पति आखिर आ गया। मन में जज्बातों का तूफान उमड़ पड़ता है। खुशी का ठिकाना नहीं। लेकिन थोड़ी ही देर में धोखे से मानों सारी खुशी ही नहीं उसके प्राण भी हर लिए गए हों। घर आया मेहमान उसका पति नहीं बल्कि पिता द्वारा ढूँढा गया उसके लिए दूसरा पति है। दिल-दिमाग में जिसकी यादें और धुँधला सा अक्स बसाए वो अभी तक प्रतीक्षा में थी। सब निर्दयता से छीन लिया गया। ब्याह के कोयली चली गई। अंत में मेले के बाहर बुआ कोयली से वर्षों बाद उसके बिछड़े पति से एक आकस्मिक मुलाकात करवाती है। 'कामापुर वाले अपने भोले भंडारी' को देखकर दिल उमड़ पड़ता है। आपस में 'पिछले पंद्रह सालों के घाटे-नफे के हिसाब' की खबर से कहानी खत्म हो जाती है। कहानी का भाव शिवमूर्ति की शैली का है किंतु आंतरिक कसावट में कसर है। वक्त के अंतराल ने जिसे बखूबी भरा।
पुस्तक - कुच्ची का कानून (कहानी संग्रह)
लेखक-शिवमूर्ति
राजकमल प्रकाशन , प्रथम संस्करण - 2017