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कहानी

पुखराज

स्कंद शुक्ल


"मीत! ध्यान से! मेरी रिंग ...आउच!" सुनयना नीचे दबी अपनी मुट्ठी को एक ओर खींचने की कोशिश करती है।

"...म्म्म! क्या?" वह बोल उठता है, मानो भोर की उत्तेजक तंद्रा से उठ बैठा हो।

"मेरी अँगूठी, डैम इट! यू आर हर्टिंग मी!"

"तो उतार दो!" कहते हुए उसके चेहरे पर अपना चेहरा चिपकाए वह हाथ से उस भिंची मुट्ठी को टटोलता है और उसे खोल देता है। उस उँगली में अब कोई हिचकिचाहट नहीं है - वह बिना हरकत के अपने-आप को उस हाथ के हवाले कर देती है, जो उसे एक पल में उस सुनहरे छल्ले से अलग कर देता है। जमीन पर धातु-पतन का स्वर गूँजता है, लेकिन ऊष्मित उच्छ्वासों की झंझा में अनसुना रह जाता है।

यह सुनयना का तीसरा सुनैला है, जो पुखराज में बदलने की बाट जोह रहा है।

मीत से उसका प्यार पुराना नहीं है, वस्तुतः वह प्यार ही नहीं है। जैसा कि वह मानती थी या यों कहें कि अब मानने लगी है कि संज्ञाहीन वस्तुएँ कम कष्टकारक होती हैं, उनसे हम नाहक उम्मीदें लगा बैठते हैं जो वे पूरी नहीं कर पाती और हमारा प्यार का व्याकरण बिगड़ जाता है। तो क्या ही बेहतर हो कि संज्ञाओं से परहेज किया जाए, जब तक बन सके और जहाँ तक बन पड़े, सर्वनामों के पर्स में उन्हें पड़े रहने दिया जाए ताकि भूलचूक से अगर एकाध गिर-गिरा भी जाए, तो पता न चले और पता चल भी जाए तो धक्क-सी दिल में न हो। मीत उन्हीं सर्वनामों में से एक नाम है और उसे संज्ञा बनने के कोई चाह भी नहीं है।

"ऐसा कब तक चलेगा?" - एक ऐसा प्रश्न है जो हम कभी-एक दूसरे से नहीं पूछते।" मीत ने एक बार मुझसे कहा था। "यह सवाल प्यार की पंचलाइन है, मेरे दोस्त! जब आदम-हव्वा का रिश्ता निभाने में रास्ता महसूस होने लगे, तो समझो मुहब्बत मुकम्मल हो गई है, समझे!"

मैं सब समझता हूँ, सब कुछ। बस बाहर नहीं निकालता, घोंट कर भीतर रख लेता हूँ। लेकिन फिर भी लगभग बंद खिड़की से उनकी केलि देखकर मैं बैठा नहीं रह सकता। इसलिए वहाँ से उठ कर टेरेस पर चला जाता हूँ, जहाँ ऊपर छज्जे पर बने घोंसले में कबूतर गुटरगूँ कर रहे हैं।

"जाना नहीं साले! मुझे भी चलना है, आज बाइक नहीं है मेरे पास।" भीतर के कमरे से मीत की आवाज आती है। अब मुझे ताज्जुब नहीं होता कि वह कमरे में सुनयना के संग एकांत के अंतरंग क्षणों में उजाले से गुरेज क्यों नहीं करता और क्यों उसके चौकीदार कान मेरे दबे पाँव होकर वहाँ से चले जाने के बाद भी सुन लेते हैं।

दरअसल वह शरीर की अनुभूतियों और अभिव्यक्तियों को टुकड़ों में जीने का इतना आदी हो चुका है कि एक साथ कई किरदार कैसे निभा जाता है, वह स्वयं भी नहीं जानता। नेलकटर से पैरों के नाखून काटते हुए, सुनयना को स्मूच करता वह मुझसे फेसबुक पर चैट इस आसानी के साथ करता रहता है कि किसी भी सुनने-देखने वाले के भीतर हैरत, हँसी और हिकारत - तीनों में होड़ लग जाए!

"और बे! क्या चल रहा है?"

"अभी घर पहुँचा हूँ लैब से। खाने खाने बैठा हूँ।"

"खाओ, खाओ। अपना तो लगभग हो चुका।"

"तुमने भी चार बजा दिए! इतनी देर! कैसे!"

"दुबारा लंच दिखा, तो कर लिया। अब तो स्वीट डिश पर टूटे पड़े हैं।" और फिर एक ऐसी सेल्फी जिसे देखकर तब मैं तब भौचक्क रह गया था। होठों से होठ सिले सुनयना के संग उसकी तस्वीर।

यह सब सुनकर आप सोच रहे होंगे कि मैं आपसे मीत की मित्रता और उसके जीवन के बारे में बाँटने जा रहा हूँ लेकिन ऐसा नहीं है। मीत मेरा मित्र नहीं है, बल्कि उसे तो मैं छह महीनों पहले तक जानता तक नहीं था। मैं जिसे जानता था और अब भी हूँ, वह दरअसल सुनयना है।

सुनयना को भी मेरी महिला-मित्र या प्रेमिका मत समझिएगा। वह हालाँकि सामाजिक परिभाषा के तौर पर तो पड़ोस के रस्तोगी अंकल की बिटिया है पर उसकी व्यक्तिगत पहचान मेरे लिए कुछ और ही है। और वह पहचान इतनी है कि आज मुझसे वह अपने बारे में लिखवा रही है।

जीवन को हम एक रेलगाड़ी में एक-संग चलते मुसाफिरों-सा हमेशा नहीं जीते; कभी-कभी ऐसा लगता है कि साथ वाला दूसरी ट्रेन की दूसरी बोगी में दूसरी ही पटरियों पर आपके साथ-साथ चल रहा है। गाड़ियों ने प्लेटफॉर्म छोड़ दिया है, वह आउटर से निकल कर आगे बढ़ आई हैं और अब धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ रही हैं।

कब तक सुनयना अपनी बोगी में बैठकर यों ही समानांतर चलती रहेगी, बता नहीं सकूँगा। लेकिन वह किस वक्त क्या कर रही होती है, यह मुझे अपने डिब्बे में बैठे-बैठे साफ दिखता है। मैं जानता हूँ, समझता हूँ, उलझता भी हूँ - लेकिन कुछ कर नहीं सकता। यहाँ तक कि मेरी चीख भी उस तक धड़धड़ाती रेलगाड़ियों के शोर में दब जाती है, तो मैं बस वही करता हूँ जो मैं कर सकता हूँ। मैं बस हाथ हिला सकता हूँ।

हमारी कॉलोनी में पड़ोस के बच्चों को आधा भाई-बहन बना कर पालने का रिवाज रहा है और उसी परंपरा-बोध के संग हम तब तक बड़े होते रहे, जब तक स्कूल में पहली बार हमने वैलेंटाइन-डे को आत्मानुभूति के संग नहीं मनाया। क्लास में लड़कियाँ कम थीं और मुझे कोई पसंद भी नहीं थी, लेकिन चौदह फरवरी का माहौल कुछ ऐसा महसूस हुआ कि उसने अनेक कल्पनाओं के बीच इस कल्पना को भी जन्म दे ही दिया कि सुनयना भी मेरा पहला प्यार हो सकती है।

"बहन मानता हूँ बे।" मैंने उस कमीने शैलेश से कहा था।

"बहन मानता है न बे, है तो नहीं। तो माननी बंद कर दे और दे दे रोज और कर दे प्रपोज!" उसने इस सरलता से कहा जैसे कोई बात ही न हो।

"पगला गया है!"

"माल के साथ फिल्मी डांस कर सकते हो, लेकिन पटा नहीं सकते! सगी बहन के साथ कोई हाथों-में-हाथ डालकर नाचता बे साले!"

उस दिन से मुझे सगी-मुँहबोली के बीच की लक्ष्मणरेखा दिखाई देने लगी और मैं हालाँकि उस रेखा को लाँघ तो नहीं पाया, मगर उसपर आकर खड़ा जरूर हो गया। बढ़ती स्कूली पढ़ाई और कंपटीशनों के दौर में मेरा-उसका कम ही आमना-सामना होता और जब होता भी तो एक असहजता के पैदा होने से पहले ही दुआ-सलाम के संग ही हम अपने काम में लग जाते। और फिर आगे पढ़ने के बाद मेरी आगरा में डी.आर.डी.ओ. की नौकरी लग गई और वह पढ़ने के लिए दिल्ली चली गई। उसके बाद हमारी अगली मुलाकात तब तक नहीं हुई, जब तक एक दफ्तरी काम से मेरा दिल्ली चक्कर नहीं लगा।

नौ जून की वह धूल-भरी शाम थी, जब दिल्ली में उस मौसम की पहली मटमैली बरसात हुई थी। मैंने करोलबाग से मयूर विहार जाने के लिए मेट्रो पकड़ी थी, तो सामने ही उसे बैठा देखकर चौंक गया।

"सुनयना तुम! व्हॉट अ सरप्राइज!"

"हेलो जय! यहाँ कैसे!"

उसके-मेरे बीच में चलते संवाद से मुझे यह जानने में बहुत देर नहीं लगी कि उसे मेरा यों अचानक मिल जाना उसे अरुचिकर लगा है और वह नहीं चाहती है हम हमसफर बनकर कुछ देर भी चलें।

"अगला स्टेशन राजीव चौक है। दरवाजे बाईं तरफ खुलेंगे।" धीमे होती मेट्रो से मानो कूदने के मुद्रा में वह उसके रुकने से पहले ही काँच के दरवाजे के पास चली गई थी। साथ में एक लंबे कद का युवक और था, जिसकी लंबाई और उपस्थिति दोनों को मैं उसका हाथ पकड़े वहाँ पहुँचने तक सुनयना के बगल में खड़े होने पर ही बूझ पाया था।

और फिर दीवाली की छुट्टियों में जब उसके घर जाना हुआ, तो उसके पहले मम्मी ने बहुत कुछ विस्फोटक जानकारी दे दी थी।

"इनकी रिंकी की शादी के लिए लड़का देख रहे हैं। बड़ी परेशान थीं भाभीजी। सुना है कोई चक्कर-वक्कर चला आई है दिल्ली में।"

मैं आज तक शादी के लड़के और परेशानी के बीच के परंपरागत संबंध को खँगाला करता आया हूँ, ताकि उसमें कारण-कार्य का संबंध स्थापित कर सकूँ लेकिन अब तक असफल रहा हूँ। और रहे चक्कर, तो लड़के-लड़कियों के बीच के सभी संबंध सरल वर्गीकरण में विश्वास रखने वाली पुरानी पीढ़ी के लिए चक्कर ही होते हैं। संभवतः बात की गहराई उससे कहीं अधिक थी, जितनी सुनयना से निकलकर उसके घर से होते हुए मेरे घर तक पहुँची थी। लेकिन प्रत्यक्ष बदलाव यह था कि इस साल उसने भाई-दूज पर मुझे टीका करने से इनकार कर दिया और आंटी ने इसपर तनिक जोर भी नहीं दिया।

"हाय जय।" तब तक फेसबुक पर हमारी नीली दोस्ती का नवसूत्रपात हो चुका था।

अब चूँकि न वह सामने थी और न मैं, और मार्क जुकरबर्ग ने समस्त वसुधा को हमारा इतना व्यापक कुटुंब बना दिया था कि दिल खोल कर शर्म-लाज धोकर बातें हुईं। बात भी ठीक है, व्याप्ति जब बहुत विस्तृत हो जाती है तो उसकी गह्वरता-गुह्यता का नाश हो जाता है।

"सो आर यू सीइंग समवन?" मौन की मर्यादा का शीलभंग उसी ने किया था।

"सीइंग ऐज इफ? मेरी एक दोस्त है अच्छी। साथ ही।"

"ओह दोस्त! कैसी वाली? वैसी वाली?" और फिर एक आँख मारता, जीभ बाहर निकाले इमोजी।

"वी गेट अलॉन्ग वेल।"

"हाहाहाहा। गेट अलॉन्ग वेल! उसकी ली कि नहीं?"

ऐसा प्रश्न मुझे सन्न करने के लिये काफी था। इसलिए नहीं कि मेरी सोच पारंपरिक थी बल्कि इसलिए कि जिस रास्ते पर मैं स्कूल के दिनों में हिचकते हुए कदम धर रहा था, उस पर वह रफ्तार के संग अचानक कितनी आगे दिखाई पड़ी थी।

"नॉट येट।" उस संक्षिप्त उत्तर ने मगर सारी बंदिशें तोड़ दी थीं।

फिर दो मिनट की शांति रही और उसी की शैली में मैंने उससे सवाल पूछ लिया। "हाउ अबाउट यू? आर यू सीइंग समवन?"

"वेल, आइ हैव अ फक-बडी। वी आर गोइंग अलॉन्ग वेल।" सेकेंडों में उसका जवाब सामने था।

और फिर जी भर के पुरानी वर्जनाएँ ध्वस्त की गईं। हर गुह्य विषय को छेड़-छेड़ कर खँगाला गया। हर यौन-विषय की विद्रूप विकृति में रस-सिक्त हुआ गया। और इस तरह से बातों-बातों में मैंने जान लिया कि उस दिन वह अपने उस मित्र के संग गर्भपात हेतु मेडिकल-चेक-अप के लिए निकली थी, जब मेरा-उसका अप्रत्याशित सामना हो गया था। लड़का विवाह-हेतु इच्छुक था, लेकिन उसकी उसमें फक-बडी के अतिरिक्त कोई भविष्य-संबंधी रुचि नहीं थी।

और फिर उसने अपनी तर्जनी में लिपटे उस पीले पत्थर के मेरा परिचय कराया। "मेरी माँ मेरी शादी के पीछे पड़ी है।" नीचे कैप्शन था।

"पुखराज?" मैंने सवाल किया था।

"नहीं यार। आजकल ओरिजिनल चीज पहनने की औकात किसकी है। यह सुनैला है, सुनैला। मगर लगता है एकदम पुखराज-जैसा? एकदम असली? क्यों?"

"हाँ, सो तो है।"

और फिर जब-तब हमारा वर्चुअल संपर्क बना रहता। वह अपनी जिंदगी की बातें बताती और मुझसे मेरी पूछती और चूँकि मेरे पास बताने को बहुत कुछ नहीं होता, इसलिए मैं प्रश्नचिह्नों के साथ ही अधिक नजर आता, पूर्ण विरामों के संग कम।

"मेरा शादीवाला पीरियड चल रहा है, पंडितजी बता रहे थे।" एक बार उसने चैट के दौरान बताया था।" मम्मी उनको आजकल अक्सर बुला लेती हैं घर। और कुंडली खोलकर रख देती हैं मेरी।"

"हाउ ओल्ड आर यू?"

"ट्वेंटी सिक्स कंप्लीटेड दिस जून 22। उन्हें लगता है मेरी उम्र निकली जा रही है।"

"तो पंडितजी ने और क्या बताया?"

"यही कि मेरा शादी का पीरियड चल रहा है। पिछले ढाई सालों से। आइ एम चमिंग इसेसेंट्ली फॉर लास्ट टू ईयर्स। लेकिन मेरा ज्यूपिटर... बृहस्पति वीक है। इसलिए शादी में दिक्कत आ रही है। आइ एम नॉट कंसीविंग मैरेज। इसीलिए पंडितजी दक्षिणा लेकर यह पत्थर पहना गए हैं उँगली में, कि मैं किसी ग्रोन-अप मर्द की माँ बन सकूँ।"

"ज्यूपिटर सौरमंडल का सबसे बड़ा ग्रह है हम लोगों के लिए। बाकी तुम उसका नाम लेकर शादी करो, लिव-इन या फक-बडी बनाओ, तुम्हारी मर्जी। तुमने पंडितजी से पूछा नहीं कि कमजोर बृहस्पति फक-बडी का योग बनाता है क्या?"

"चिल मारो यार। मेरा बस चले तो मैं इसे निकालकर मिडिल-फिंगर में पहन लूँ और पंडितजी को दिखा दूँ।"

और फिर वह कुछ महीनों बाद पुनः पूर्णरूपेण सिंगल हो गई। आंटीजी ने उसके भाग्य पर दोष मढ़ा, पंडितजी ने सुनैले में पुखराज वाली क्षमता न होने की बात दोहराई और उसने फेसबुक पर अपना स्टेटस डाला - डाइवोर्सेस शुड प्रिसीड मैरिजेज, नॉट फॉलो देम।

सुनैले की गति पूछने पर उसने बताया कि ऊटी के एक होटल में नहाते समय वह साबुन के झाग के साथ संभवतः फिसल गया।

"मगर तुम ऊटी किसके संग गई थी? और यह प्रोग्राम कब बन गया?"

तब उसने बताया कि उसकी जिंदगी में पिछले एक महीने से एक विराज आ गया है और वह उसके साथ ही ऊटी गई थी।

"जब से मेरी जॉब लगी है, कोई ब्रेक ही नहीं लिया। इट वॉज लॉन्ग सॉट आफ्टर। विराज भी ऑफिस में साथ ही है। मगर घरवाले टेंशन में हैं, सुनैला खोने की वजह से। मम्मी कहती हैं कि जब तक पुखराज अफोर्ड नहीं हो जाता, तब तक सुनैला ही क्या बुरा है।"

"पुरानी अँगूठी सँभाल कर रखनी चाहिए थी। कम-से-कम सोने की तो कीमत थी ही उसमें।"

"अब पुराना गए चार महीने हो गए, उसकी वाली अँगूठी इतनी खिंच गई, बहुत खिंच गई। कहते हैं खोने या टूटने वाला पत्थर अपने संग कोई बला ले जाता है। अब नया रिश्ता बना है, तो अपनी अँगूठी साथ लाएगा। तुम भी!"

और हुआ भी यही। सुनैला-जड़ी नई अँगूठी पंडितजी द्वारा निकाले गए शुभ दिन के शुभ मुहूर्त में उसे फिर धारण करा दी गई, इस उम्मीद के साथ कि उसका पापाक्रांत बृहस्पति भी संभवतः सुधर जाएगा।

"नासा वालों ने बृहस्पति के अध्ययन के लिए एक स्पेसक्राफ्ट छोड़ा है। जूनो नाम रखा है।"

"एक बात तो बताओ जरा। ये नासा वाले नाम कैसे-कैसे रखते हैं - जूनो! लगता है किसी कुत्ते का नाम है। और उनके यहाँ भी ज्यूपिटर शादी कराता है क्या?"

"ग्रीक मायथोलॉजी में जूनो ज्यूपिटर की पत्नी है जो उसकी लंपट हरकतों पर नजर रखती है। उनका ज्यूपिटर हमारे विप्र-ग्रह बृहस्पति से एकदम भिन्न है। वह समलैंगिक तो है ही, उसके अनेक विपरीतलिंगी व्यभिचार भी फैले हैं।"

"गलत नंबर लग गया है भाई। इंडियन ज्यूपिटर की जगह वेस्टर्न ज्यूपिटर घुस गया है मेरी कुंडली में और पंडितजी बेचारे ग्रीक योगर्ट में हिंदुस्तानी दही तलाश रहे हैं। बस लेस्बियन ख्याल कभी नहीं आए आज तक!"

***

मैं अब तक टेरेस पर ही खड़ा हूँ और कबूतरों का स्वर अब पृष्ठभूमि में इस तरह प्रसरित हो चुका है कि वह अनचाहे सुनाई नहीं देता। मीत अब तक तैयार होकर वहाँ आ चुका है। "चल। देर तो नहीं हुई ज्यादा न?"

मैं कुछ कहता नहीं हूँ, बस वहाँ से बाइक की चाबी झुलाते हुए चल देता हूँ। कितनी अजीब बात है कि तेल पीने वाला लोहे का इतना बड़ा जानवर इतनी नन्हीं सी धातु की पत्ती के इस तरह वश में रहा करता है कि उसके बिना एक इंच नहीं चल सकता।

मुझे घर कुछ जरूरी कागज कोरियर करने हैं, प्राइवेट कंपनी का ऑफिस रात आठ बजे तक खुला रहता है, इसलिए कोई जल्दी नहीं है। लेकिन काम तो फिर काम है, जितनी जल्दी सुलट जाए, उतना अच्छा।

मीत से मेरा परिचय एक मित्र की शादी में हुआ था। वहाँ हुए सतही वार्तालाप में हमारी अच्छी छन निकली और फिर तीन-चार बार हम मौके-बेमौके मिले। और तभी उसने बातों-बातों में बता दिया था कि वह एक सुनयना के साथ लिव-इन में रह रहा है।

मैंने सुनयना को छेड़ने में देर नहीं लगाई और मेसेज छोड़ दिया - "ज्यूपिटर हैज बिकम स्ट्रॉन्ग फ़ॉर द थर्ड टाइम, आइ गेस। मेट मीत टुडे।"

रात तक जवाब आया - "साले, कल शाम की चाय साथ पियो।"

और फिर बिना किसी संकोच-झिझक के हमारा मिलना होने लगा। सुनयना से इतना पुराना परिचय होने के बावजूद भी मैं उसके घर पर उन दोनों से मिलने में परहेज करता था, कारण स्पष्ट था। लेकिन मेरी हिचक के बावजूद वे मुझे वहीं बुलाते और इस तरह बेपर्दा बर्ताव करते मानो उनके बीच की अंतरंगता का कोई पहलू मुझसे अछूता नहीं है।

"आंटी अब भी लड़का ढूँढ़ रही हैं?" मैं उसकी तर्जनी में बँधे पीले पत्थर को देखते हुए पूछता हूँ।

"वे मेरा बृहस्पति मजबूत करके ही मानेंगी, जय। मेरी माताश्री की सारी कवायद अँगूठी को तर्जनी से अनामिका में पहुँचाने की है। लड़कियों को इंडेक्स फिंगर में पीले पत्थर पहनाए ही इसलिए जाते हैं कि वे रिंग फिंगर तक हीरा बनकर पहुँचते-पहुँचते पहुँच ही जाएँ। मैं हूँ कि मिडिल फिंगर से आगे बढ़ती ही नहीं।" कहते हुए वह मेरी ओर मध्यमा से अश्लील इशारा करती है। "उन्हें पता ही नहीं है कि..."

"तुम इसे उतारकर रख क्यों नहीं देती? या फिर कम-से-कम उन्हें समझा लो..."

"समझा ही तो रही हूँ। पहने रहकर भी तो समझाया जा सकता है। उतारना जरूरी नहीं।"

"मगर उन्हें ऐसा लगता है कि तुम्हारी किस्मत काम नहीं कर रही। शायद फाइनैंशियल प्रॉब्लम की वजह से तुम्हें पुखराज नहीं दिला पाईं, इस बात का उन्हें..."

"एक बात बोलूँ, जय? दुनिया में कोई पुखराज नहीं है। है ही नहीं। सब सुनैले ही हैं। पुखराज की तलाश बस हमारा दिल को समझाने का तरीका है।"

"तो क्या करोगी अब? तुमसे कभी यह सवाल नहीं किया, आज कर रहा हूँ।"

"उनका दिल रखने के लिए इसे पहने रहूँगी और अपना दिल रखने के लिए मीत को। खो गया इनमें से कोई, तो मेरी किस्मत। बाइ-द-वे, तुम्हारा जूनो कहाँ तक पहुँचा? कुछ नया स्कैंडल पकड़ा उसने ज्यूपिटर का?"

"जूनो अब ज्यूपिटर के पीले घनेरे बादलों के भीतर प्रवेश कर गया है। जिस शोध के लिए उसे प्रक्षेपित किया गया था, बस उसके पूरे होने का इंतजार है। उसके भीतरी रहस्यों को हमें उपलब्ध करा कर वह उसी में गिर कर नष्ट हो जाएगा।"


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