साढ़े चार घंटों के इंतजार के बाद जब मुझे अंदर बुलाया गया तब तक मैं ऊब चुका
था और मेरा सर बेतरह दर्द कर रहा था। अंदर डिपार्टमेंट के डायरेक्टर,
मिनिस्ट्री के सेक्रेटरी और शहर के दो नामी फिल्मकार बैठे थे। डाक्यूमेंट्री
फिल्मों के प्रपोजल ऑन-लाइन मँगवाए गए थे। उन प्रोपोजल्स में से जो शॉर्ट
लिस्ट किए गए थे उन पर विभाग के कुछ अधिकरियों से पहले ही एक प्रारंभिक मीटिंग
हो चुकी थी और जिन प्रोपोजल्स पर उनकी सहमति/स्वीकृति मिल चुकी थी उन्हीं पर
आज की फाइनल मीटिंग रखी गई थी। इसमें दिल्ली से मिनिस्ट्री के सेक्रेटरी महोदय
और विभाग के डायरेक्टर कुछ जाने माने फिल्मकारों के साथ प्रपोजल कर्ताओं से
फाइनल इंटरव्यू करके फिल्में असाइन करने वाले थे। मैं उसी मीटिंग के लिए यहाँ
बुलाया गया था। फोन पर कहा गया था 'नौ बजे जरूर आ जाइएगा! साहेब समय के बहुत
पाबंद हैं'। ऐसा शायद सब से कहा गया होगा। इसलिए जब मैं पहुँचा तो पाँच लोग
वहाँ पहले से ही बैठे हुए थे। मेरा नंबर लाइन में लगा। साढ़े दस के आस पास जब
अलग अलग लोगों से मीटिंग शुरू हुई तो हर एक से तकरीबन आधे आधे घंटे चली। उसके
बाद हर एक मीटिंग के बीच मैं करीब दस-पंद्रह मिनटों का ब्रेक। इसलिए मेरा नंबर
करीब डेढ़ बजे दोपहर में आया। जब मैं अंदर गया तो शायद एक फिल्मकार ने मेरी
हेल्लो का जवाब भी दिया। मुझे देख कर डायरेक्टर जो के बाबू (आई ए एस) था। उसने
सेक्रेटरी की तरफ हाथ से इशारा किया, "सर!"
"सर" ने अपने बाएँ हाथ की उँगली बाएँ नथुने पर लगा कर दाएँ हाथ से मेरे जमा
किए हुए प्रपोजल के कागजों को पलट कर देखना शुरू किया। "हूँ...! ...तो आप ये
फिल्म बनाना चाहते हें...!"
मेरे हिसाब से इसका कोई जवाब तो बनता नहीं था। क्योंकि मेरा प्रपोजल वो देख ही
रहे थे। फिर उन्होंने एक लंबी साँस लेकर मेरी तरफ देख कर कहा, "यू हैव टू
कन्विन्स मी कि हम ये फिल्म क्यों बनाएँ!"
- "ये इतिहास है..."
- "तो ?"
- "इतिहास को सुरक्षित रखने का काम कोई प्राइवेट कंपनी तो करेगी नहीं, सरकार
ही कर सकती है।"
- "इतिहास को प्रिजर्व करने का काम हमारी एक यूनिट आलरेडी कर रही है।"
- "वो विडियो पर कवरेज करते हें जिसके रंग पाँच छह सालों में उड़ जाते हें, दस
सालों में विडियो समाप्त हो जाता है... मैं ३५ एम् एम् फिल्म की बात कर रहा
हूँ जिसकी शेल्फ लाइफ कम से कम १०० वर्षों तक है और उसके बाद सौ सौ वर्ष
और..."
- " वो आप हम पर छोड़ दीजिए। हमने इतना इतिहास प्रिजर्व ऐसे ही नहीं किया है...
आप तो ये बताइए के हम ये फिल्म क्यों बनाएँ!"
- "मैं ने आपसे कहा..."
- "वो ठीक है बट यू हैव टू कन्विन्स मी!"
- "आप एक काम क्यों नहीं करते, "एक फिल्मकार जो मुझे जानते थे उन्होंने बात
सँभालने की कोशिश की, "आप बगैर पूरे इतिहास के परिप्रेक्ष्य को लेने के किसी
एक पात्र के जीवन पर फिल्म क्यों नहीं आधारित करते।"
- "ये किसी शख्स की नहीं, ये एक समूचे क्षेत्र, एक समूचे समूह के अंग्रेजों के
खिलाफ संग्राम की बात है..."
- "अंग्रेजों के खिलाफ," 'सर' ने मेरी बात कुछ इस तरह काटी जैसे कि उन्हें
इल्हाम हुआ हो, "अंग्रेजों के खिलाफ तो तमाम लोग लड़े, मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल
नेहरू, महात्मा गांधी... उन पर फिल्में बनाना चाहिए..."
- "जिनका नाम आप ले रहे हें वो लड़े नहीं थे... उन्होंने लड़ाई का नेतृत्व किया
था, लड़े तो हजारों लाखों वो जिनके नाम तक मिट गए हें।"
सेक्रेटरी को बात पसंद नहीं आई। उसकी त्योरियाँ चढ़ गईं। डायरेक्टर ने अपनी
कुर्सी में जरा शिफ्ट हो कर टाँग पर रखी हुई टाँग अदली बदली। दूसरे फिल्म वाले
ने पानी की बोतल से एक घूँट मारा।
- "अपने बताया नहीं कि हम ये फिल्म क्यों बनाएँ?"
- "..."
- "और आपने ये जो बजट दिया है वो तो एकदम अन-प्रैक्टिकल है।"
- "इसमें ३०% तो केवल सिने फिल्म स्टाक की ही कीमत है..."
- "नहीं नहीं... वो नहीं..." सेक्रेटरी ने हाथ झुलाकर सोफे पर पसरते हुए
डायरेक्टर को इशारा किया, "आप बताइए..."
डायरेक्टर ने गला साफ करते हुए आहिस्ता आहिस्ता बोलना शुरू किया, "प्लानिंग
कमीशन से जो हमारे पास सैंक्शन आई है वो केवल बारह लाख की है... आप अट्ठाइस
लाख की बात कर रहे हें..."
- "प्रपोजल जमा करते समय यदि मुझे इस बजट का अंदाजा होता तो मैं उस तरह का
प्रोजेक्ट दाखिल करता।"
- "तो ये प्रपोजल तो प्रैक्टिकल नहीं है न..."
- "प्रैक्टिकल तो है," में थोड़ा चिड़चिड़ाने लगा था, "सिर्फ आपकी पालिसी के
हिसाब से पॉसिबल नहीं है।"
- " वो जो भी..." इतना कह कर डायरेक्टर चुप हो गया। उसने 'सर' की तरफ ऐसे देखा
जैसे कि मेरा हो गया सर, अब आप!
- "मैं तो यहाँ ट्रीटमेंट डिस्कस करने आया था, "पहले फिल्म वाले ने मेरी तरफ
देख कर कहा, "हालाँकि मैं आपको जानता हूँ लेकिन मुझे केवल आप ये बताएँ कि इस
फिल्म को आप ट्रीट कैसे करेंगे।"
- "ए काइंड ऑफ ट्रैवलॉग इन दैट टाइम..." मैंने समझाया, "और उस समय के इतिहास
के एक दस्तावेज की तरह... जिसमें थोड़ा ड्रामा एलिमेंट होगा, कुछ स्टॉक, कुछ
एनीमेशन और कुछ कंप्यूटर ग्राफिक्स..."
फिल्म वाले ने जवाब से मुतमइन होकर सेक्रेटरी की तरफ देखा। आँखों ही आँखों में
दोनों गुणवत्ता से आश्वस्त हुए लेकिन 'सर' ने ये बात जाहिर करना मुनासिब नहीं
समझा। न लफ्जों में न शक्ल से।
- "आपका एक करेक्टर है... सरस्वती बाई..." 'सर' ने फाइल देखते हुए कहा।
- "वो तो मैन करेक्टर है...। वीरांगना तो वो ही है जिसने अंग्रेजों के छक्के
छुड़ा दिए थे।"
- "वो ठीक है..." 'सर' ने सर ऊँचा करके बोलना शुरू किया, "मैं ये कह रहा था कि
उनकी कहानी तो सब ने सुनी है... तो व्हाई शुड वी मेक ऐ फिल्म ऑन हर?"
- "कहानी सुनी है, उन पर किताबें हें, नाटक लिखे गए हैं - खेले गए हैं लेकिन
विडंबना ये है कि फिल्म एक भी नहीं बनी है। तो इतिहास जो फिल्मों के जरिये
सुरक्षित रखा जा रहा है उसमें उनके बारे में कल कुछ भी नहीं मिलेगा। पढ़ना
लिखना तो वैसे भी कम होता जा रहा है।"
- "पढ़ना लिखना कहाँ कम हो रहा है... मैं अभी तक एजुकेशन मिनिस्ट्री में था।
साक्षरता मिशन का सारा काम मेरा किया हुआ है... साक्षरता बढ़ रही है, लोग पढ़
रहे हैं... तो ये भ्रम मत फैलाइए कि पढ़ना लिखना कम हो रहा है... पढ़ना लिखना तो
बल्कि बढ़ रहा है।"
वो सेक्रेटरी था। फिल्म देना न देना उसकी मर्जी पर निर्भर था। देश के सारे
आँकड़ों का उसे पता था। न पता होता तो भी वो जो बोलता वो ही आँकड़े हो जाते।
मैंने कुछ भी कहना मुनासिब नहीं समझा। इतने में डायरेक्टर के कक्ष - जहाँ ये
मीटिंग चल रही थी - उसके द्वार पर लगी घंटी टन्न से बजी जो इस बात का द्योतक
थी कि कोई अंदर दाखिल हुआ है। दरअसल डायरेक्टर का कक्ष अंग्रेजी के अक्षर 'एल'
की शक्ल में था। प्रवेश द्वार पर एक छोटी सी घरों में भगवान के सामने बजाई
जाने वाली घंटी बँधी थी जो कि जैसे ही कोई दरवाजा खोलता या बंद करता था बज
उठती थी। दरवाजा एक छोटे से केबिननुमा कमरे में खुलता था। वहाँ से दाएँ मुड़े
कि साहेब का ऑफिस था जिसमें उनकी मेज ऐसे रखी गई थी कि आने जाने वाले से उनकी
नजर जब तक चार न हो जब तक कि शख्स उनकी मेज के सामने न आ जाए। इसलिए घंटी
सिर्फ किसी के दाखिल होने की सूचना थी दिखता वो जब ही था जब दीवार की आड़ से
इधर साहेब की मेज के सामने आ जाता था। बगल में सोफे पड़ा था जहाँ कि खास खास
लोगों के साथ मीटिंग होती थी। आज सब सोफे पर ही बैठे थे। जब आने वाला दिखाई
दिया तब पता चला एक लड़का ट्रे में सैंडविच पैकेट्स ले कर आया था। वो इंटरव्यू
लेने वाले हर एक के आगे प्लेट में एक एक सैंडविच पैकेट रखने लगा।
- "ये क्या है/" 'सर' ने पूछा।
- "चीज सैंडविच है सर!" डायरेक्टर ने सहमते हुए जवाब दिया, "चिकन मुझे मालूम
है आप मंगलवार को खाते नहीं हैं!"
- "अच्छा... आपको मालूम है।"
- "मालूम कैसे नहीं सर...। दिल्ली में कभी अपने किसी से कहा था सो मुझे याद रह
गया।"
- "गुड... लेकिन एग से परहेज थोड़े ही है... आमलेट सैंडविच मँगा लेते... मिलेगी
यहाँ?"
- "ऑफकोर्स सर!" डायरेक्टर ने लड़के की तरफ देखा, "अरे देखो..." फिर डायरेक्टर
ने फिल्मकारों की ओर देखा, "आप लोगों के लिए भी आमलेट सैंडविच मँगवाऊँ?"
फिल्म वालों ने हाथ हिला दिए, "नहीं नहीं... ये ही बहुत है!"
- "ठीक है..." डायरेक्टर ने लड़के से फिर कहा, "सर के लिए एक आमलेट सैंडविच
बनवा लाओ "
लड़का चला गया। थोड़ी देर में फिर आकर सब वरिष्ठों के सामने एक एक पेप्सी की
बोतल खोल कर रख गया।
- "आप?" डायरेक्टर ने मेरी तरफ देखा, "आप कुछ लेंगे ?"
- "जी नहीं... थैंक यू..." मैंने सोचा कम से कम इसने पूछा तो!
- "हाँ, तो..." 'सर' ने चीज सैंडविच का टुकड़ा मुँह में चबाते हुए कहा, "ये जो
सरस्वतीबाई की फिल्म है... ये तो काफी डिफिकल्ट फिल्म है..."
- "किस मायने में ?" में ने पूछा।
- "नहीं...। मतलब... इसे बनाने के लिए तो कोई बड़ा फिल्म मेकर होना चाहिए...
दिस मस्ट बी मेड रियली वेल!"
सब लोग सैंडविच खाने में व्यस्त थे। इस पर कोई टिपण्णी नहीं आई।
- "अरे क्या नाम है उसका..." 'सर' ने जरा देर बाद पेप्सी का घूँट निगलते हुए
पूछा।
- "किसका सर ?"
- "वो जो आपके पिछले फिल्म फेस्टिवल में... जब उसकी फिल्म रिजेक्ट हो गई थी तो
वो पचास लोगों का मोर्चा ले कर आ गया था डिपार्टमेंट के खिलाफ..."
- "वो...!...। हाँ हाँ..." डायरेक्टर को सोचने में एक मिनट लगा।
- "अनिकेत करंदीकर!?" एक फिल्म वाले ने सुझाया।
- "हाँ हाँ ...वो ही" 'सर' प्रसन्न हो गए, "वो तो इन्टरनॅशनली एक्लैम्ड फिल्म
मेकर है भाई!"
- "अरे कितने इंटरनेशनल फेस्टिवल्स में मँगवाई जाती हैं उसकी फिल्में। ही इज
वैरी वेल नोन अराउंड द वर्ल्ड।" डायरेक्टर ने हामी भरी।
- "नो डाउट अनिकेत की फिल्में तमाम फेस्टिवल्स में दिखाई जाती हैं लेकिन वो
इसलिए नहीं कि दे आर गुड... वो इसलिए कि वे हमारी गंदगी, भ्रष्ट सरकारें और
सोसाइटी की कमजोरियाँ दर्शाती हैं... जो कि दुनिया देखना चाहती है... और..."
मुझसे रहा नहीं जा रहा था।
- "देखिए देखिए..." 'सर' ने मेरी बात काटते हुए हाथ का पंजा दिखा कर मुझे चुप
करा दिया, "ये सब सब्जेक्टिव बात है...। आखिर फिल्म एक मीडियम है और फ्रीडम ऑफ
स्पीच उनका राइट है...। लोग क्या देखना चाहते हैं क्या नहीं देखना चाहते ये
लोगों के ऊपर है। हम इस पर अंकुश कैसे लगा सकते हैं।"
- "यू आर राइट सर!" डायरेक्टर ने सर हिलाया।
- "तो एक फिल्म तो अनिकेत को मिलनी चाहिए..." 'सर' ने फिल्म वालों की तरफ
देखा, "क्यों ?"
- "यस यस... बिलकुल!" दोनों फिल्म वालों ने हामी भरी। वो उस शख्स से कैसे
दुश्मनी ले सकते थे जो पचास फिल्म वालों का मोर्चा ऑर्गनाइज कर सकता था। आखिर
फिल्म वालों की एसोसिएशन के मेंबर तो ये लोग भी थे। इन्हें भी तो सब के साथ
मिल जुल कर चलना था।
- "आफ्टर आल गवर्नमेंट हैज टु सपोर्ट एन इंटरनेशनल टैलेंट लाइक हिम!" 'सर' ने
कहा।
- "राइट!" डायरेक्टर ने पैड पर पेंसिल से कुछ नोट कर लिया।
लड़का कमरे में दोबारा आया और टिश्यू पेपर में लिपटी हुई प्लेट में रखी एक
आमलेट सैंडविच 'सर' के हाथों में थमा गया।
- "हाँ तो में क्या कह रहा था..." 'सर' ने सैंडविच के बीच से आमलेट का एक छोटा
सा टुकड़ा तोड़ कर चखा..." की ये जो सरस्वतीबाई वाली फिल्म है वो अभी ठहरिए...!"
फिर 'सर' ने जैसे कुछ सोच कर बड़ी गहरी नजर से मुझे देख कर पूछा, "आपने
बिनतारीबाई का नाम सुना है?"
- "बिनतारीबाई! ...वो तो एक फिकटिशयस करैक्टर है!"
- "व्हाट नॉनसेंस! ...यू आर नोट अवेयर ऑफ रियल हिस्ट्री।"
- "जिस उपन्यासकार ने सरस्वतीबाई पर उपन्यास लिखा था उसने ड्रामेटिक नीड के
लिए सरस्वतीबाई की एक सिपाही का करैक्टर ईजाद किया था। इस करैक्टर को उन्होंने
बिनतारीबाई का नाम दिया था। लेकिन उसी उपन्यास के उसी एडिशन की भूमिका में लिख
भी दिया था कि बिनतारीबाई एक काल्पनिक पात्र है और उसका न सरस्वतीबाई से कोई
लेना देना है न इतिहास से।
- "आपको इतहास का अंदाजा नहीं है..." 'सर' ने सैंडविच खाना रोक कर मेरी तरफ
देख कर कहा, "ये आप इसलिए कह रहे हैं क्यों कि बिनतारीबाई एक शूद्र महिला थीं,
लेकिन आप ये नहीं कह रहे हैं कि उन्होंने अपनी जान पर खेल कर रानी सरस्वतीबाई
को बचाने का काम किया था।"
- "सर, मैं इतिहास का भी विद्यार्थी हूँ और साहित्य का भी...।"
- "मैंने तो किसी किताब की भूमिका मैं नहीं पढ़ा कि राइटर ने कहीं लिखा हो कि
बिनतारीबाई एक काल्पनिक पात्र है..."
- "किताब के सबसे पहले एडिशन में है... बाद के एडिशंस में ये बात निकाल दी गई
है।"
- "देखिए, गवर्नमेंट के एजेंडा मैं बिनतारीबाई पर फिल्म बनाने का प्रोवीजन है
और गवर्नमेंट कभी कल्पना से काम नहीं करती, ठोस तथ्यों के आधार पर करती है।"
डायरेक्टर ने संयत हो कर कहा।
- "मुझे एक्सक्यूज करें..." एक फिल्ममेकर ने घडी देख कर उठते हुए कहा, "दो के
ऊपर हो चुके हैं, मुझे अपनी रिकॉर्डिंग पर पहुँचाना है... मैं चलूँगा।"
- " हाँ हाँ... आपने तो कहा भी था आपको जाना है..." डायरेक्टर ने माना।
- "ठीक है..." 'सर' ने टिश्यू पेपर से हाथ पोंछ कर फिल्मकार से हाथ मिलाते हुए
कहा, "वैसे भी अब कोई और इंटरव्यू तो बचा नहीं है। थैंक यू।" फिर फौरन नजर हटा
कर 'सर' ने मेरी तरफ देख कर कहा, " हाँ, तो... आप एक काम क्यों नहीं करते...
आप बिनतारीबाई पर रिसर्च कीजिए और उन पर फिल्म का प्रपोजल दीजिए। वो हम फौरन
अप्रूव कर देंगे।"
- "वो काल्पनिक करेक्टर है सर!" मैंने 'सर' पर जोर देते हुए कहा!
दूसरे फिल्ममेकर का सेल फोन बजा। उसने अपना सेल निकाल कर देखा, फोन काट दिया
और फिर सोफे में आगे आकर बोला, "करैक्टर ऐतिहासिक है या काल्पनिक सवाल ये नहीं
है क्योंकि कला का कोई भी माध्यम इतिहास की किताब थोड़े ही है। वो तो कला है।
कलाकार चाहे तो इतिहास से प्रेरणा लेकर कुछ ऐसा गढ़ने का अधिकारी है जो भले ही
सत्य न भी हो लेकिन उससे समाज का भला होता हो या उसके मूल्यों में किसी प्रकार
की वृद्धि होती हो या बदलाव आता हो..."
- "अब्सोलुटली राइट!" सर ने सैंडविच चबाते हुए भरे मुँह से प्लेट की तरफ देखते
देखते ऐसे कहा जैसे कहीं ये बोलने का समय न निकल जाए।
- "ये तो ठीक है कि कलाकार या साहित्यकार इस प्रकार की लिबर्टी ले सकता है और
अक्सर लेता भी है। फिल्मों की बात चल रही है तो इसी में देख लीजिए डर्टी हैरी
सीरीज पूरी तरह सैन फ्रांसिस्को पुलिस डिपार्टमेंट के एक समय के मशहूर
इंस्पेक्टर डेव तोशी के ऊपर आधारित थी। जेम्स बांड की पूरी सीरीज इयान
फ्लेमिंग ने आला दर्जे के ब्रिटिश सीक्रेट एजेंट फारेस्ट यो थॉमस - जो
कंसंट्रेशन कैंप से भी भाग निकला था और जो सिर्फ चर्चिल को पर्सनली रिपोर्टिंग
करता था - उस पर आधारित की है..." मैंने कहा।
- "अब समझे आप!" सर ने टिशू से हाथ पोंछे।,"गुड!"
मैंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, "लेकिन ये सब तब ठीक लगता है जब
काल्पनिक पात्र मूल पात्र से अधिक स्ट्रांग हो... यहाँ उल्टा है... यहाँ जो
मूल पात्र है वो इतना स्ट्रांग है, इतना सक्षम और गरिमा-मान कि उसका क्लोन या
उस पर आधारित कोई भी पात्र अव्वल तो उस स्तर का बन नहीं सकता और अगर गढ़ा भी
जाए तो उतना सक्षम, उतना स्तरीय और उतना कन्विन्सिंग हो नहीं पाएगा।"
पता नहीं सर ने कितना सुना या समझा। उन्होंने दो सेकंड के लिए नजर भर मेरी तरफ
देखा। फिर अपनी उँगलियाँ रगड़ते हुए बोले, "देखिए मुझे जो कहना था मैंने कह
दिया। अब करना न करना आप पर निर्भर है।"
"..."
- "फिल्म तो हमारी कोई न कोई बना ही देगा... इतने घूमते हैं फिल्म वाले जिनको
काम की दरकार है।"
- "जो भी बनाएगा रिसर्च के लिए उसे इतिहास में तो इस पात्र के बारे में कुछ
नहीं मिलेगा...!"
- "वो आप हम पर छोड़ दीजिए।"
दूसरे फिल्मकार ने उठकर हाथ झाड़े और 'एक्सक्यूज मी' करके कक्ष के बाहर, शायद
वाशरूम, की तरफ निकल गया। उसकी प्रजेंस दर्ज हो चुकी थी।
- "तो आप करेंगे या नहीं?"
- "बिनतारीबाई तो..."
- "बेकार की बात छोड़िए, " 'सर' ने मेरी बात काटी, "करेंगे या नहीं?"
- "सरस्वतीबाई का प्रपोजल दिया है, मैं वो ही करूँगा।"
- "ठीक है... हम आपको बताएँगे... थैंक यू फॉर कमिंग।" और 'सर' ने बाई बाई मैं
हाथ बढ़ा दिया।
मैं उन महानुभावों के कमरे से निकल कर कक्ष के पहले वाले छोटे से कमरे तक ही
पहुँचा था कि टन्न से घंटी बजी और लड़का खाली ट्रे लेकर - शायद जूठन उठाने -
दाखिल हुआ। वो अंदर आए इसलिए मैं दरवाजा पकड़े खड़ा हुआ। इतने में मेरे कान में
आवाज आई। 'सर' डायरेक्टर से कह रहे थे - "देखिए... ये बिनतारीबाई फिल्म के लिए
किसी एस सी/एस टी वाले जरूरतमंद प्रोड्यूसर से कोटेशन मँगवाइए और ये
सरस्वतीबाई वाली फिल्म दे दीजिए अनिकेत करंदीकर को। मेरी उससे बात हो चुकी है।
अब आगे वो हमारे खिलाफ कुछ न बोले इसलिए मैंने उसे पच्चीस लाख का बजट देने की
बात की है।"
जो मैंने सुना उससे मेरी समझ में नहीं आया कि क्यों एक हलकी सी मुस्कराहट मेरे
होठों पर तैर गई और मुँह में फैल गया एक अजीब सा जायका! मैं आगे सुनने के लिए
रुक गया।
मैंने सुना, डायरेक्टर 'सर' से कह रहे थे, "मान गए सर आपको! एक तीर से दो
निशाने! एक तरफ आपने अनिकेत करंदीकर के रिबेलियन को खत्म करके उसे फिल्म देकर
अपना गुलाम कर लिया, दूसरी तरफ बिनतारीबाई पर फिल्म बनवा कर मिनिस्ट्री में
अपने प्रो एस सी/एस टी होने का झंडा गाड़ दिया... आपका सीवी तो सबसे बेस्ट हो
गया सर! अब के आप सीधे सेक्रेटरी ऑफ स्टेट या कम से कम एडवाइजर इन पी एम
ऑफिस... पक्का!"
- "अरे करना पड़ता है भाई...!"
- "हमारा ख्याल रखिएगा सर! आप ही से आशा है! ...शाम को सर। घर पर ही डिनर रखा
है आपका!"
तब तक लड़का ट्रे में जूठी तश्तरियाँ लेकर आ गया और मैं भी उसके साथ बाहर निकल
लिया। एक घंटी फिर बजी। हालाँकि दोपहर थी लेकिन सूरज पर बादल छा चुके थे और
अँधेरा बढ़ गया था!