नामवर सिंह ने 'रामचंद्र शुक्ल संचयन' की भूमिका लिखते हुए आचार्य शुक्ल के
मानदंडों की चर्चा की थी। कैनन के लिहाज से यह चर्चा बिल्कुल संगत तो नहीं पर
शुक्ल जी के कैननों का आधार व्याख्यायित करने के लिए यह मददगार अवश्य है।
नामवर जी ने लिखा - "...इस मानदंड की विशेषता यह है कि साहित्य के अंदर क्या आ
सकता है और क्या नहीं तथा कौन सा साहित्य महान है - इन दोनों बातों का निर्णय
एक ही मानदंड से संभव है। ...आचार्य शुक्ल के मानदंड की एक बड़ी भारी विशेषता
यह है कि वह अपने सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों रूपों में सुलभ है।
...संक्षेप में आचार्य शुक्ल ने वस्तुमत्ता, समग्रता और साधारणता की त्रयी के
आधार पर साहित्य में उस सिद्धांत की स्थापना की, जिसे सुविधा के लिए
'यथार्थवाद' की संज्ञा दी जा सकती है!"[1]
तो क्या सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों रूप शुक्ल जी के कैननों के आधार हैं?
अगर ऐसा है तो इनके परस्पर क्या संबंध हैं, इस लेख में हम यहाँ से शुरू कर के
आचार्य शुक्ल के कैननों के निर्माण की प्रक्रिया तक पहुँचने का यत्न करेंगे और
देखेंगे कि शुक्ल जी चलती आ रही आलोचना में कैसे अपने कैननों के द्वारा नया
बोध पैदा करते हैं और यह भी कि पूर्ववर्तियों से उनका क्या संबंध बना।
शुक्ल जी या अन्यान्य आलोचकों के आलोचनाकर्म के विषय में भी प्रायः यह बहस का
बिंदु रहा आया है कि व्यावहारिक आलोचना और सैद्धांतिक आलोचना में क्या पहले
है? या कौन अधिक महत्वपूर्ण? यहाँ वरेण्य है कि शुक्ल जी के आलोचनाकर्म की
समयवार चर्चा कर ली जाय। 1904 की सरस्वती में 'साहित्य' और 1909 में 'कविता
क्या है' निबंधों के बाद वे अनुवाद में प्रवृत होते हैं। तकरीबन 13 वर्ष बाद
'काव्य में प्राकृतिक दृश्य' 1922 की माधुरी में छपा। इन तीन सैद्धांतिक
निबंधों के अतिरिक्त शुक्ल जी इस समूचे दौर में 'रिडिल ऑफ द यूनिवर्स', और
'लाइट ऑफ एशिया' के अनुवाद में लगे रहे, इन दोनों ग्रंथों की भूमिकाओं को भी
ध्यान में रखना चाहिए। इस दौर के बाद ही ग्रंथावलियों के संपादन के दौरान उनकी
आलोचनात्मक प्रतिभा जोर पकड़ती है और 1923-24 में तुलसी, सूर, जायसी पर लिखे
गए भूमिका रूपी निबंधों से ही उनके आलोचना कर्म के अधिकांश सूत्र निकलते हैं।
इसके ठीक बाद जनता के चित्तवृत्ति का जो सूत्र उन्हें इन भक्त कवियों पर लिखते
हुए मिला था, उसका संवर्धन और तारतम्यीकरण 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में 1929
में होता है, जो कि 'हिंदी शब्द सागर' की भूमिका है। इसके बाद ही सैद्धांतिक
समीक्षा के सभी महत्वपूर्ण निबंधों, मनोविकार संबंधी निबंधों और अन्य का लेखन
हुआ। इस कालक्रमिकता में एक बात ध्यान रखने की यह है कि शुरुआती निबंध और उसके
पश्चात कवियों पर लिखी गर्इ भूमिकाएँ बाद में लगातार बदलती रहीं। संक्षेप में
कह सकते हैं कि शुक्ल जी के आलोचना सिद्धांत प्रायः व्यावहारिक से सैद्धांतिक
समीक्षा की ओर बढ़े, बाद में भले ही सैद्धांतिक आधारों से व्यावहारिक समीक्षा
को पुष्ट किया गया हो।
शुक्ल जी के कैनन में शामिल हैं जायसी, सूर और तुलसी। आगे के कवियों में उनके
कैनन में आते हैं भूषण और बाबू भारतेंदु हरिश्चंद। पहले क्रमशः देख लेना चाहिए
कि इन कवियों को कैनन बनाने के उनके आधार क्या है? भक्तिकाल के पूर्व की कविता
को शुक्ल जी अपने कैनन में शामिल नहीं करते। जायसी, शुक्ल जी को इसलिए पसंद
हैं क्योंकि उन्होंने जनता में फैली अभेद की प्रवृत्ति को प्रेम के रास्ते कम
करने का यत्न किया। जायसी एक ऐसे मुसलमान सूफी कवि की तरह आचार्य शुक्ल के
विश्लेषण में आते हैं जिन्होंने लौकिक प्रेम के सहारे अलौकिक की व्यंजना की पर
इस प्रेम की व्यंजना लौकिक ही रही। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की कटुता को
प्रेम के रास्ते समाप्त करने वाले संत के रूप में भी शुक्ल जी जायसी को मान
देते हैं। कबीर के बाद के समय को हिंदू-मुसलमान एकता की पीठिका के रूप में
चिन्हित करते हुए उन्होंने लिखा - " सौ वर्ष पहले कबीरदास हिंदू और मुसलमान
दोनों के कट्टरपन को फटकार चुके थे... साधारण जनता 'राम और रहीम' की एकता को
मान चुकी थी। ...बहुत दिनों तक एक साथ रहते-रहते हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के
सामने अपना-अपना हृदय खोलने लगे थे, जिसमें मनुष्यता के सामान्य भावों के
प्रवाह में मग्न होने और मग्न करने का समय आ गया था। जनता की प्रवृत्ति भेद से
अभेद की ओर हो चली थी। मुसलमान हिंदुओं की राम कहानी सुनने के लिए तैयार हो गए
थे और हिंदू मुसलमानों का दास्तान हमज़ा।"[2] उन्होंने अपने साहित्य के इतिहास
में लिखा - "हमारा अनुमान है कि सूफी कवियों ने जो कहानियाँ ली हैं, वे सब
हिंदुओं के घर में बहुत दिन से चली आती हुर्इ कहानियाँ हैं जिनमें
आवश्यकतानुसार उन्होंने हेरफेर किया है। कहानियों का मार्मिक आधार हिंदू है।
मनुष्य के साथ पशुपक्षी और पेड़पौधे को भी सहानुभूति सूत्र में बद्ध दिखाकर एक
अखंड जीवनसमष्टि का आभास देना हिंदू प्रेमकहानियों की विशेषता है।"[3]
हिंदू-मुस्लिम एकता के अलावा शुक्ल जी को जायसी में और क्या पसंद आया? पहली
बात थी प्रबंध का निर्वाह। जायसी ने कम से कम पद्मावत के उत्तरार्ध वाले खंड
में प्रबंधात्मकता का पूरा निर्वाह किया। दूसरी बात थी जायसी का लोक के साथ
गहरा संसर्ग। नागमती वियोग वर्णन शुक्ल जी को बेहद पसंद है क्योंकि जायसी अपने
वर्णन में नागमती को सामान्य भावभूमि पर स्थित करते हैं। उन्हीं के शब्दों में
- "उन्होंने सामान्य हृदय-तत्व की सृष्टि-व्यापिनी भावना द्वारा मनुष्य और
पशु-पक्षी सबको एक जीवन सूत्र में बद्ध देखा है...। नागमती की वियोग दशा का
विस्तार केवल मनुष्य जाति तक ही नहीं, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों तक दिखार्इ
पड़ता था। ...नागमती विरह दशा में अपना रानीपन बिल्कुल भूल जाती है और अपने को
साधारण स्त्री के रूप में देखती है। ...पर जायसी ने स्त्री जाति की या कम से
कम हिंदू गृहिणी मात्र की सामान्य स्थिति के भीतर विप्रलंभ श्रृंगार के अत्यंत
समुज्ज्वल रूप का विकास दिखाया है। ...यह आशिक-माशूकों का निर्लज्ज प्रलाप
नहीं है, यह हिंदू गृहिणी की विरह वाणी है।"[4] शुक्ल जी जायसी के रहस्यवाद को
विदेशी मानते हैं। उन्हें प्रत्यक्ष और परोक्ष को मिलाने के नाते जायसी में
कमजोरी दिखार्इ देती है। पर फिर भी वे जायसी को भारतीय मानस के निकट का कवि
बताते हैं। रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक 'आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी
आलोचना' में इस संदर्भ में जायसी पर शुक्ल जी की कर्इ टिप्पणियों मसलन
निर्गुणपंथियों की गैर प्रगतिशील भूमिका, रहस्यवाद के विदेशी स्रोत आदि से
असहमति जताते हुए भी उनके जायसी विश्लेषण को लोक संपृक्ति के आयाम में रखते
हैं - "उन्होंने कबीर के समान जायसी को हिंदू मुस्लिम एकता और व्यापक
मानवतावाद का कवि माना। जायसी आदि को सांप्रदायिक भावना से परखने वालों का
उन्होंने खंडन किया। उन्होंने इन प्रेममार्गी कवियों के लिए दावा किया कि वे
रीतिकालीन कवियों से श्रेष्ठ हैं। यथार्थवाद की भूमि से उन्होंने जायसी का
मूल्यांकन करके उर्दू-हिंदी दोनों की दरबारी कविता की अस्वाभाविकता दिखलार्इ
और जायसी को मानवसुलभ प्रेम का कवि घोषित किया।"[5]
शुक्ल जी के अपने और उनके प्रमुख व्याख्याकार रामविलास जी के मतों का मिलान
करने पर जो तसवीर सामने आती है वह यह कि जायसी आचार्य शुक्ल के कैनन में अपनी
लोक-संपृक्ति और हिंदू मुस्लिम ऐक्य की भावना के नाते थे। शुक्ल जी ने
'पद्मावत' के उत्तरार्ध को आनंद का प्रयत्न पक्ष लेकर चलने वाला कहा है। पर
उन्हें जायसी तुलसीदास से कम प्रिय क्यों हैं? या यों कहें कि जायसी को अपने
कैनन में सर्वोपरि स्थान आचार्य शुक्ल न दे सके, इसके क्या कारण है? जायसी का
काव्य शुक्ल जी के प्रबंधात्मकता, मार्मिक स्थलों की पहचान और लोक रक्षण वाले
सिद्धांतों की संपुष्टि नहीं कर रहा था। एक सूफी और अन्योक्ति आश्रयी कवि उनके
लिए भारतीय लोकमानस का वैसा प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा था, जैसा कि तुलसीदास।
और फिर मर्यादा? 'पद्मावत' की मर्यादा 'रामचरित मानस' की मर्यादा के सामने
नहीं ठहरती। फिर अगर दूसरे सिरे से बात करें तो कविता के द्वारा भाव प्रसार
होता है, इसलिए कविता वही अच्छी जो संघर्ष सिखाए या कम से कम लौकिक प्रेम और
सौंदर्य का प्रकाश करे। जायसी की कविता का पूरा ढाँचा जीवन के संघर्ष पक्ष को
तो केंद्र में नहीं ही रखता, उसमें प्रेम का मूल स्वरूप भी अभारतीय और अलौकिक
है। तब कहना चाहिए कि अपने इन कठोर मानदंडों के साथ शुक्ल जी ने जायसी का बेहद
सहृदय पाठ किया। यह उनके यथार्थ-बोध का ही एक रूप है। मुश्किल यह है कि आचार्य
शुक्ल नागमती के रानीपने को भूल जाने को तो चिन्हित करते हैं पर साथ ही यह भी
चिन्हित करना नहीं भूलते कि इन सूफी संतों ने हिंदुओं के घर की कहानियाँ लीं,
आशिक-माशूक के निर्लज्ज प्रलाप नहीं, वरन हिंदू गृहिणी के विरह का उदात्त
वर्णन किया। यदि इन उद्धरणों से 'हिंदू' शब्द निकाल दिया जाय तो क्या होगा?
क्या यह जायसी की और अधिक बेहतर पड़ताल न होगी? हिंदू-मुस्लिम एकता का जो
प्रारूप आचार्य शुक्ल के रचनाकर्म में है, वह हिंदू श्रेष्ठता के आधार पर
बराबरी का है। गौर करने की बात है कि नंददुलारे वाजपेर्इ ने शुक्ल जी के
आलोचनाकर्म में निहित इस समस्या को लक्ष्य करते हुए लिखा था - "शुक्ल जी के
विचारों में हिंदू समाज पद्धति और आदर्शवाद का प्रधान स्थान है। उसे एक
सार्वदेशिक व्यवस्था का रूप शुक्ल जी ने दिया है।"[6] इसलिए उनके रचनाकर्म में
विन्यस्त इस गुत्थी से न तो मुँह चुराने की आवश्यकता है और न ही इसको इतना
चपटा करने की जरूरत जिससे कि आचार्य शुक्ल अपने समय से आगे के द्वंद्वात्मक
भौतिकवादी बन जाएँ। जैसे भक्तिकाल को पढ़ते हुए हम यह बात ध्यान में रखते हैं
कि उस समय की समाजार्थिक समस्याएँ भी साहित्य में भक्ति के मुहावरे में आ रही
थीं, वैसे ही हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि नवजागरण के विमर्शों में
प्रगतिशीलता के साथ ही एक हिंदू भूमि भी सक्रिय थी। इस भूमि को नकारने से काम
नहीं चलेगा। इससे आचार्य शुक्ल की आलोचना को और बेहतर समझने में मदद ही
मिलेगी। रामविलास जी ने शुक्ल जी के जायसी संबंधी विश्लेषण की कर्इ कमियों की
ओर इशारा किया है मसलन जायसी का रहस्यवाद और उस रहस्यवाद की बाहरी जड़ें, उसका
भारतीयता से विलगाव, नाथपंथियों का प्रभाव, माधुर्यभाव के लिए सूफियों को
जिम्मेदार ठहराना, जायसी द्वारा प्रत्यक्ष-परोक्ष को मिलाने की कोशिश करने की
आलोचना आदि। इन सबके बाद भी जब रामविलास जी शुक्ल जी के जायसी विश्लेषण को
यथार्थवाद की भूमि से उपजा बताते हैं,[7] तब रामविलास जी के विश्लेषण में
दोनों चीजें अलग जा पड़ती हैं। आचार्य शुक्ल के जायसी विश्लेषण में उनको जो
कमियाँ दिखार्इ दीं, वे शुक्ल जी के जायसी विश्लेषण की अच्छाइयों से कहाँ मेल
खाती हैं, इसका जवाब रामविलास जी नहीं देते। उदाहरण के लिए निर्गुणियों की
कठोर आलोचना और जायसी को उनकी परंपरा में न मानने को रामविलास जी चिन्हित करते
हैं और यह भी चिन्हित करते हैं कि शुक्ल जी निर्गुणियों को निम्न वर्ग की जनता
को उठाने वाला मानते थे। पर वे शुक्ल जी के चिंतन की इस फाँक की व्याख्या करने
की बजाय सरल तरीका निकाल कर आगे बढ़ जाते हैं और शुक्ल जी की व्याख्या में
उनके निर्गुण विरोध को बेहद हल्का बना देते हैं। जबकि शुक्ल जी की आलोचना को
इन तात्कालिक द्वंद्वों की आधारभूमि समझे बिना समग्रता में नहीं देखा जा
सकेगा।
तात्पर्य यह कि शुक्ल जी ने जायसी को अपने कैनन में उनकी कविता के लोक-संग्रह
पक्ष और विराट हिंदू जन से मुसलमानों के घुल-मिल जाने की तरह देखा। जायसी
हिंदुओं के घर की सच्ची कहानी कह रहे थे और राजा-रानी नहीं बल्कि सामान्य जन
की बात कर रहे हैं, शुक्ल जी इसे चिन्हित करते हैं। और यह भी लक्ष्य कर रहे थे
कि गैर भारतीय इस्लामी अर्चना पद्धतियों और कवियों ने हिंदुओं के वर्चस्व को
स्वीकार कर लिया। क्या शुक्ल जी ने किसी ऐसे हिंदू कवि का नाम भी बताया जिसने
मुसलमानों के घर की कहानियाँ लिखीं?
सूरदास, आचार्य शुक्ल के दूसरे प्रिय कवि हैं। इन्हें आचार्य शुक्ल इसलिए बड़ा
कवि मानते हैं क्योंकि सूर ने तत्कालीन समाज की निराश जनता के मन में जीवन
जीने की चाह बनी रहने दी। पुराने जयदेव और विद्यापति जैसे कृष्ण भक्त
श्रृंगारी कवियों की परंपरा में सूर को चिन्हित करते हुए आचार्य शुक्ल उन्हें
कृष्ण प्रेम का अद्वितीय कवि सिद्ध किया। उन्होंने लिखा - "जयदेव की देववाणी
की स्निग्ध पीयूषधारा जो काल की कठोरता में दब गर्इ थी, अवकाश पाते ही लोकभाषा
की सरलता में परिणत होकर मिथिला की अमराइयों में विद्यापति के कोकिल कंठ से
प्रकट हुर्इ और आगे चलकर ब्रज के करील कुंजों के बीच फैल मुरझाए मनों को
सींचने लगी। आचार्यों की छाप लगी हुर्इ आठ वीणाएँ श्रीकृष्ण की प्रेमलीला का
कीर्तन करने उठीं, जिनमें सबसे ऊँची, सुरीली और मधुर झंकार अंधे कवि सूरदास की
वीणा की थी। ...निर्गुण उपासना की अग्राह्यता दिखाते हुए उपासना का हृदयग्राही
स्वरूप सामने लाने में लग गए। इन्होंने भगवान का प्रेममय रूप ही लिया... हृदय
की अन्य वृत्तियों [उत्साह आदि] के रंजनकारी रूप भी यदि वे चाहते तो कृष्ण में
ही मिल जाते, पर उनकी ओर वे न बढ़े। भगवान का यह व्यक्त स्वरूप यद्यपि एकदेशीय
था - केवल प्रेममय था - पर उस समय नैराश्य के कारण जनता के हृदय में जीवन की
ओर से एक प्रकार की जो अरुचि सी उत्पन्न हो रही थी, उसे हटाने में उपयोगी हुआ।
मनुष्य के सौंदर्यपूर्ण माधुर्यपूर्ण पक्ष को दिखाकर इन कृष्णोपासक वैष्णव
कवियों ने जीवन के प्रति अनुराग जगाया, या कम-से-कम जीने की चाह बनी रहने
दी।"[8] भक्तिकाल के उद्भव की व्याख्या करते हुए सामाजिक परिस्थितियों में
मुगलों के आगमन के कारण हुए बदलावों को चिन्हित करते हुए शुक्ल जी जनता की
हताशा और निराशा को रेखांकित करते हैं। यहाँ भी वे उसी आधारभूमि पर आगे बढ़े
हैं। लेकिन ध्यान देने की बात है कि लोक के आधार पर ही खड़े होकर ही आचार्य
शुक्ल यहाँ सूरदास को अपने कैनन में शामिल करते हैं। पुष्टि के सिद्धांतों से
अनुप्राणित सूर का काव्य उन्हें सायुज्ज भक्ति के रास्ते से लोक के चित्त के
भाव प्रसार में सहायक जान पड़ता हैं पर सूर का काव्य लोकमंगल के प्रयत्न पक्ष
से अलग है। वे 'भक्ति की एकांत साधना का मार्ग प्रतिष्ठित करते' जान पड़ते
हैं। उनका प्रेम 'लोक से न्यारा' है। सूर वात्सल्य और विरह के वर्णनों में
जीवन के प्रसंग आचार्य शुक्ल को लुभाते हैं, गोचारण सभ्यता के विशद चित्र उनका
ध्यान खींचते हैं, बालकों के मनोविज्ञान की सूर की गहरी पैठ उनको भाती है, सहज
प्रेम व्यापार उनको आकर्षित करता है, कुल मिलाकर उनकी लोक संपृक्ति ही शुक्ल
जी को प्रिय है। दूसरी बात है रहस्यवाद और निर्गुण वैचारिकी का विरोध।
रहस्यवाद से शुक्ल जी का विरोध जीवन से काट देने के संदर्भ में है। हालाँकि
रहस्यवाद को काव्य के क्षेत्र से निष्कासित करने के खिलाफ बाद के आलोचकों ने
अलग-अलग भूमियों से शुक्ल जी की आलोचना की। प्रसंगवश आचार्य नंददुलारे
वाजपेर्इ का उनकी पुस्तक 'सूरदास' से यह उद्धरण कि - "...परंतु ऐसा समय कभी
नहीं आया जब कोर्इ भी साहित्य का पंडित यह कह सकता कि धर्म और दर्शन के तत्वों
से रिक्त काव्य ही एकमात्र श्रेष्ठ काव्य है। ...निम्नातिनिम्न संसारी वस्तु
से भी उच्चातिउच्च अध्यात्म तत्व का संसर्ग करा देना, अपने साहित्य की एक बड़ी
विशेषता रही है।"[9] यह बहस का मुद्दा है कि आचार्य शुक्ल की रहस्यवाद की
परिधि के भीतर जो कुछ आता था, क्या उस सबको यथार्थ से बाहर माना जाय?
रामविलास जी ने शुक्ल जी पर टिप्पणी करते हुए सूरदास में लोक रंजन के अतिरिक्त
लोक रक्षण का भाव भी देखा है। शुक्ल जी सूर की सीमित परिक्षेत्र वाली दृष्टि
और लोक रक्षण की भावना के अभाव के कारण ही उन्हें अपने कैनन में तुलसी से ऊँचे
नहीं रखते। रामविलास जी इससे असहमत होते हुए सूर के काव्य में सामंतवाद-विरोधी
मूल्य देखते हैं - "...सूर अपने समय की समस्याओं के प्रति तटस्थ थे और उनमें
लोक-संग्रह की भावना का अभाव था, यह धारणा मान्य नहीं है। ...रथ से उतरकर धरती
पर चक्र लिए दौड़ते हुए कृष्ण के उड़ते हुए पीतपट और ऊँची भुजा का सूर ने
कलात्मक वर्णन किया है। ...गोपियों का प्रेम लोकधर्म और कुलकानि के लिए चुनौती
है। ...जो सामंती समाज के जाति, वर्ण और संपत्ति के बंधन तोड़ कर प्रवाहित हुआ
था। ...इस प्रेम को कुलकानि, लोक-धर्म, पाप-पुण्य की मर्यादा कुचलती है, उसका
जयघोष सामंती व्यवस्था को ही एक चुनौती है।"[10] शुक्ल जी इसे लोक रक्षण न
मानकर लोक रक्षण मानते हैं मर्यादा को, लोक धर्म को। रामविलास जी ने सूर के
सामंतवाद विरोध की जिन कारणों से प्रशंसा की, क्या उन्हीं कारणों, कानि और
लोकधर्म का विरोध, से वे शुक्ल जी के तुलसी विवेचन पर टिप्पणी करते हैं? वे
वहाँ भी सामंतवाद-विरोध देखते हैं। पर यदि ये दोनों कवि सामंतवाद-विरोधी हैं
तो कानि और मर्यादा का क्या होगा? जो हो, शुक्ल जी सूर के मुकाबले लोक रक्षण
के मामले में तुलसीदास को अधिक वरीयता देते हैं। उनके लोक रक्षण की भूमि और
भूमिका के कर्इ स्तर हैं। सामंतवाद-विरोधी तत्व होने के बावजूद उनका लोक रक्षण
समूचा सामंतवाद विरोध की कोटि में नहीं आता।
तुलसीदास आचार्य शुक्ल के प्रिय कवि हैं। वहीं जाकर उनका कैनन पूर्ण होता है।
जिन कारणों से तुलसी को आचार्य शुक्ल बड़ा कवि मानते हैं, उनमें पहले है
लोक-रक्षण की भावना। अपने रचनाकर्म में शुक्ल जी इस बात पर सदैव दृढ़ रहे कि
श्रेष्ठ कविता जीवन के प्रयत्न पक्ष से पाठक को जोड़ती है। अपने प्रसिद्ध
निबंध 'कविता क्या है', जिसको वे 1909 से लेकर 1929 तक लगातार परिवर्तित
परिवर्धित करते रहे, में वे कविता को मनुष्य के हृदय को स्वार्थ संबंधों के
संकुचित दायरे से बाहर कर लोक सामान्य की भावभूमि पर ले जाने वाला बताते हैं।
उनके मुताबिक इसी भावप्रसार द्वारा कविता कर्मण्यता के क्षेत्र का विस्तार
करती है। ऐसे में वह लोक के दुखों में दुख मानता है और लोक के सुख में सुख।
[11] पर इसमें भी शुक्ल जी कविता द्वारा जगाए गए कर्मण्यता के उस क्षेत्र को
वरेण्य मानते हैं जो अन्याय के दमन और प्रतिरोध के लिए उठ खड़ा होता है, भले
ही वह सफल हो, न हो। वे अपने दोनों महत्वपूर्ण निबंधों, 'काव्य में लोकमंगल की
साधनावस्था' और 'आनंद की सिद्धावस्था' में काव्य के उत्कर्ष के विषय में
टालस्टाय और रवींद्रनाथ टैगोर से बहस करते हैं और उनकी करुणा को कलावाद,
रहस्यवाद और र्इसार्इयत से जोड़ते हैं। वे लिखते हैं - "...काव्य का उत्कर्ष
केवल प्रेमभाव की कोमल व्यंजना में ही नहीं माना जा सकता जैसाकि टालस्टाय के
अनुयायी या कुछ कलावादी कहते हैं। क्रोध आदि उग्र और प्रचंड भावों के विधान
में भी, यदि उनकी तह में करुण भाव अव्यक्त रूप से स्थित हो, पूर्ण सौंदर्य का
साक्षात्कार होता है।"[12] और रवींद्रनाथ को उद्धृत करते हुए यह भी कि -
"श्रीयुत रवींद्र के उपरोक्त दोनों कथनों को मिलाकर विचार करने से यह स्पष्ट
हो जाता है कि उनका लक्ष्य आनंद की सिद्धावस्था या उपभोग पक्ष को भाषित करने
वाली काव्यभूमि की ओर है। यह कहा जा चुका है कि इस भूमि में शोभा, दीपित,
प्राचुर्य, प्रफुल्लता, कोमलता इत्यादि द्वारा रंजन की योजना की जाती है।
...विभाव पक्ष में शोभन और दीपित को चुनकर उनकी असामान्य योजना द्वारा अदभुत
रंजन की सामग्री तैयार करना तथा भाव पक्ष में अनुभूति और व्यंजना का वैचित्र्य
प्रदर्शित करना काव्य में कलावाद के नए और पुराने अनुयायियों का लक्ष्य रहा
है।"[13]
उनके प्रिय कवि तुलसी, और उनकी रचनाओं में से भी उनकी प्रिय पुस्तक 'रामचरित
मानस' में लोक-रक्षण का आदर्श उन्हें मिला। अब तुलसी के ही संदर्भ से यह देखना
चाहिए कि लोक-रक्षण की शुक्ल जी की रचनात्मक आलोचना में क्या व्याप्तियाँ हैं?
पीछे जो बहस हम सूरदास के संदर्भ में लोक-रक्षण पर कर आए हैं, उसी संदर्भ को
आगे बढ़ाते हुए यहाँ शुक्ल जी द्वारा चित्रकूट प्रसंग की प्रशंसा करते हुए लोक
रक्षण का किंचित लंबा प्रसंग उद्धृत है -
"[1] राजा और प्रजा का संबंध लीजिए। अयोध्या की सारी प्रजा अपना सब काम धंधा
छोड़ भरत के पीछे राम के प्रेम में उन्हीं के समान मग्न चली जा रही है और
चित्रकूट में राम के दर्शन से आह्लादित होकर चाहती है कि चौदह वर्ष यहीं काट
दे।
[2] भरत का अपने बड़े भार्इ के प्रति जो अलौकिक स्नेह और भक्ति भाव यहाँ से
वहाँ तक झलकता है, वह तो सबका आधार ही है।
[3] ऋषि या आचार्य के सम्मुख प्रगल्भता प्रकट होने के भय से भरत और राम अपना
मत तक प्रकट करने में सकुचाते हैं।
[4] राम सब माताओं से जिस प्रकार प्रेमभाव से मिले, वह उनकी शिष्टता का ही
सूचक नहीं है, उनके अंतःकरण की कोमलता और शुद्धता भी प्रकट करता है।
[5] विवाहित कन्या को पति की अनुगामिनी देख जनक जो यह हर्ष प्रकट करते हैं -
पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जग कह सब कोऊ।। - वह धर्म भाव पर मुग्ध
होकर ही।
[6] भरत और राम दोनों जनक को पिता के स्थान पर कहकर सब भार उन्हीं पर छोड़
देते हैं।
[7] सीताजी अपने पिता के डेरे पर जाकर माता के पास बैठी हैं। इतने में रात हो
जाती है और वे असमंजस में पड़ती हैं - कहत न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब
रजनी भल नाहीं।। - पति तपस्वी के भेष में भूशैया पर रात काटे और पत्नी उनसे
अलग राजसी ठाठ-बाट के बीच रहे, यही असमंजस की बात है।
[8] जब से कौशल्या आदि आर्इ हैं, तब से सीता बराबर उनकी सेवा में लगी रहती
हैं।
[9] ब्राह्मण वर्ग के प्रति राज वर्ग के आदर और सम्मान का जैसा मनोहर स्वरूप
दिखार्इ पड़ता है, वैसा ही ब्राह्मण वर्ग में राज्य और लोक के हित-साधन की
तत्परता झलक रही है।
[10] केवट के दूर से ऋषि को प्रणाम करने और ऋषि के उसे आलिंगन करने में उभय
पक्ष का व्यवहार-सौष्ठव प्रकाशित हो रहा है।
[11] वन्य कोल-किरातों के प्रति सबका कैसा मृदुल और सुशील व्यवहार है।" [14]
इस उद्धरण में वर्णित लोक रक्षण के प्रकार का विश्लेषण करना चाहिए, जिससे हम
शुक्ल जी की मनोभूमि को और अच्छी तरह समझ सकें। वह एक ऐसे समाज को आदर्श समाज
कहते हैं जहाँ राजा और प्रजा के संबंध, शासक और शासित के संबंधों में स्नेह
हो, प्रतिरोध न हो। क्या रामविलास जी बता सकते हैं कि मानस में वर्णित राम का
राज्य सामंती नहीं है, और यदि वह है तो शुक्ल जी उसके आदर्श पर ऐसे क्यों रीझे
हुए हैं? दूसरे परिवार की जो संकल्पना शुक्ल जी को प्रिय है, वह संयुक्त
परिवार की कल्पना है। उसमें गुरु, माँ, पिता, भार्इ, पति, पत्नी, ससुराल,
मायका, सबके सुनिश्चित और दृढ़ संबंध हैं। इस संयुक्त परिवार की कल्पना में
दमन को खोखले आदर्शों के नीचे दबा दिया जाता है, व्यक्तित्व छीन लिया जाता है
और परिवार के भीतर पितृसत्ता तथा वर्चस्व की अनकही कथा दबी रह जाती है। शुक्ल
जी द्वारा प्रशंसित परिवार का यह ढाँचा कैसा है? क्या वह सामंती उत्पादन
संबंधों से नहीं उपजा है?
साथ ही ब्राह्मण वर्ग और राज वर्ग की मैत्री तथा शूद्र और मुनियों का
अपने-अपने आश्रमों के मुताबिक व्यवहार भी शुक्ल जी के वर्णाश्रम समर्थन का पता
देता है। दोनों अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार आचरण कर रहे हैं, शुक्ल जी को यह
बात बेहद पसंद है। आज हम जानते हैं कि वर्णाश्रम व्यवस्था ने कैसे इस देश के
बहुसंख्य हाशिए के लोगों को तरह-तरह से गुलाम बनाए रखा। तब क्या शुक्ल जी के
लोकरक्षण का रास्ता इन हाशिए के तबकों के जीवन को कर्म सौंदर्य से बेहतर बनाने
की तरफ जाता दिख रहा है? शुक्ल जी की आलोचना करते हुए 'गोस्वामी तुलसीदास'
शीर्षक अध्याय में रामविलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि - "शुक्ल जी की जिस
रचना में सबसे ज्यादा असंगतियाँ और अंतर्विरोध हैं, वह तुलसीदास पर उनकी
पुस्तक है।" [15]
पर इस पूरी व्यवस्था-प्रियता और मर्यादा को शुक्ल जी के समूचे चिंतन क्रम में
रखकर देखने की आवश्यकता है। 20 से 40 के दशकों के बीच, जहाँ शुक्ल जी के चिंतन
का मुख्यांश फैला हुआ है, राजनीति और समाज से लेकर हिंदी साहित्य तक में
मर्यादा का बोलबाला है। गाँधी का भारतीय राजनीति में आगमन राजनीति में खास तरह
कर नैतिकता ला रहा था। दूसरी तरफ इसमें मर्यादा, आदर्श और संघर्ष की मिलीजुली
प्रतिध्वनियाँ है। ऐसे में अपनी साम्राज्यवाद विरोधी अंतर्वस्तु के साथ
सामाजिक बुराइयों के खात्मे का लक्ष्य भी नवजागरण के इस दौर के पुरोधाओं के
सिर है। मुश्किल यह है कि सामाजिक बुराइयों से लड़ार्इ के क्षेत्र में
अंग्रेजों का प्रतिकार करने के लिए कर्इ बार इन सिद्धांतकारों को पीछे की तरफ
लौटना पड़ता है और पुराने ग्रामीण समाज की छायाओं को, आदर्शों और व्यवहारों को
अपनाना पड़ता है।
तुलसी, रामचंद्र शुक्ल और रामविलास शर्मा दोनों आलोचकों के कैनन में शामिल हैं
पर कैनन में शामिल इस कवि को कैनन में लाने के लिए प्रतिमान बदले हुए हैं।
यहाँ यूरोपीय हिंदी अध्येताओं के कैनन में उपस्थित तुलसी को याद करना चाहिए।
वहाँ वे र्इसार्इ करुणा, नैतिकता, मर्यादा और सामाजिक समरसता के सिद्धांतकार
के रूप में आते हैं। शुक्ल जी ने इस धारणा में से कर्इ तत्वों का निरसन किया।
र्इसाइयत और करुणा की औपनिवेशिक व्याख्याओं की बजाय उन्होंने तुलसी के काव्य
के लोक मंगल को चिन्हित किया। राम के कालाग्नि सदृश क्रोध से जलते रजनीचर और
अन्याय के विरुद्ध न्याय की स्थापना के लिए युद्ध, त्याग और बलिदान की धारणा
उन्होंने तुलसी के काव्य में देखी। निश्चय ही यह धारणा साम्राज्यवाद-विरोध के
राष्ट्रवादी आंदोलन के दायरे से उपजी थी। यहाँ रामविलास शर्मा की उस बात से
सहमति निस्संदेह होगी जहाँ वे शुक्ल जी का संबंध हथियारबंद क्रांतिकारियों से
जोड़ते हुए बैकुंठ शुक्ल की किताब के हवाले से शुक्ल जी और चंद्रशेखर आजाद की
चिंताओं को आपस में जोड़ते हैं। परंतु स्वाधीनता आंदोलन के उस पूरे दौर में
क्रांतिकारियों की धारा में भगतसिंह भी शामिल हैं जो 'मैं नास्तिक क्यों हूँ'
और 'सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज' जैसे लेख लिख रहे थे। पर शुक्ल जी
क्रांतिकारी धारा से चुनिंदा मामलों में सहमत थे। उनमें प्रमुख था किसान
प्रतिरोध। क्रांतिकारी धारा ने ब्राह्मणवाद, सांप्रदायिकता और सामंत-पूँजीपति
वर्ग की मुखालफत करते हुए जो समग्र सिद्धांत विकसित किए, वे मार्क्सवाद के
बेहद करीब ठहरते हैं। शुक्ल जी यहाँ नहीं पहुँचे थे। और ऐसा करते हुए वे अपने
समय की प्रमुख राष्ट्रवादी धारणा को ही स्वर दे रहे थे जो साम्राज्यवाद विरोध
को किसी भी हाल में ऊपर रखना चाहती थी। यह ठीक वैसी ही बात है जैसे रामविलास
शर्मा उपनिवेशवाद विरोध को अपने समग्र रचनाकर्म में सबसे ऊपर रखते हैं। जहाँ
तक शुक्ल जी के अंतर्विरोधों की बात है, शिवकुमार मिश्र इसे उनके संस्कार और
विवेक की तत्कालीन द्विधा के रूप में परिभाषित करते हैं - "...वस्तुतः इस
सामाजिक सोच को उन्होंने अपनी वंश-परंपरा, संस्कारों के रूप में अपने रक्त में
घुले-पचे रूप में पाया है। उनका विवेक उन्हें जब-तब इस संस्कारबद्धता से
उबारता जरूर है, परंतु उससे वे पूरी तौर पर, या स्थायी तौर पर अलग नहीं हो
पाते। संस्कार इतने प्रबल हैं कि वे भभक कर प्रकट हो ही जाते हैं। ऐसे स्थलों
पर वे मानव-समता के या सामाजिक समता के हामियों पर कड़े प्रहार तक कर बैठते
हैं, उनकी मखौल भी उड़ाते हैं।" [16]
आचार्य शुक्ल के कैननों के आधार में रीतिवाद विरोध की केंद्रीय भूमिका है।
अपने इतिहास में, मनोविकार संबंधी निबंधों में, रचनात्मक और सैद्धांतिक
आलोचनाओं में, गरज यह कि लगभग हर जगह शुक्ल जी ने रीतिकालीन कविता के
नकारात्मक उद्धरण रखे हैं। परवर्ती आलोचकों, रामविलास शर्मा और मैनेजर पांडेय
ने उनके इस रीतिवाद विरोध को उनके लोकमंगल पर आधारित कलावाद विरोध के रूप में
देखा है। इनके अनुसार लोकमंगल का सिद्धांत विराट जनता का मंगल विधान करने,
इहलौकिक और रहस्यवाद विरोधी होने के नाते 'कलावाद/रीतिवाद' के विरुद्ध खड़ा हो
जाता है। इसी संदर्भ में अपनी पुस्तक 'आलोचना की सामाजिकता' में टिप्पणी करते
हुए मैनेजर पांडेय ने उनके रीतिकाल विरोध को स्वाधीनता संघर्ष के अंग के बतौर
चिन्हित किया है। वे लिखते हैं - "उनका रीतिवाद विरोधी संघर्ष स्वाधीनता
संघर्ष का अंग है। यह हिंदी साहित्य को स्वाधीनता संघर्ष के साथ चलकर विकसित
होते देखने की आकांक्षा का परिणाम भी है। रीतिकाल विरोधी संघर्ष की शक्ति वे
एक ओर भक्तिकाल के लोकजागरण से अर्जित करते हैं और दूसरी ओर भारतेंदु युग की
नर्इ साहित्यिक चेतना से। स्वाधीनता संघर्ष के काल में रीतिवादी रास्ते पर
साहित्य के चलने को वे असभ्यता का लक्षण मानते थे..."[17]
आचार्य शुक्ल ने जगह-जगह बेलबूटे और नक्काशी वाली कला का विरोध किया है और
कर्म की उच्चभूमि पर ले जाने वाली भावना को कविता का साध्य माना है। बिहारी पर
टिप्पणी करते हुए शुक्ल जी को यही बात खटकी थी कि इनकी कविता भावना की उच्च
भूमि तक नहीं पहुँचती। 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में रीतिकाल के बारे में
सामान्य परिचय प्रकरण में उन्होंने इस को स्पष्ट किया कि - "प्रकृति की
अनेकरूपता, जीवन की भिन्न भिन्न चिंत्य बातों तथा जगत के नाना रहस्यों की ओर
कवियों की दृष्टि नहीं जाने पार्इ। वह एक प्रकार से बद्ध और परिमित सी हो
गर्इ। उसका क्षेत्र संकुचित हो गया, वाग्धारा बँधी हुर्इ नालियों में ही
प्रवाहित होने लगी जिससे अनुभव के बहुत से गोचर और अगोचर विषय रससिक्त होकर
सामने आने से रह गए। दूसरी बात यह हुर्इ कि कवियों की व्यक्तिगत विशेषता की
अभिव्यक्ति का अवसर बहुत कम रह गया।"[18]
रीतिकालीन कविता के इस विरोध को रामविलास जी सामंतवाद विरोध से जोड़ते हैं। वे
मानते हैं कि इस काल में चूँकि कविता राज्याश्रयी हो गर्इ थी और कविता सामंतों
की रुचि को तुष्ट करने के लिए लिखी जा रही थी अतएव लोक से उसका संबंध
विच्छिन्न हो गया था। रामविलास जी के लेखे कविता के केंद्रीय वर्ग में बदलाव
को शुक्ल जी पहचान रहे थे - "...उन्होंने बार-बार रीतिकालीन कविता के संकुचित
वर्ग आधार को स्पष्ट किया है, उससे सहानुभूति नहीं प्रकट की वरन उसकी तीव्र
आलोचना की है।"[19] इस तरह रामविलास जी कलावाद और लोकमंगल को आमने सामने रख
कलावाद को सामंती मूल्य के रूप में परिभाषित करते हैं।
इस बिंदु पर पहुँचकर शुक्ल जी के 'सामंतवाद-विरोध' की पड़ताल की आवश्यकता है।
अगर हम मान लें कि शुक्ल जी रीतिकालीन कविता के वर्ग आधार को बूझते हुए
राज्याश्रयी कविता का विरोध कर रहे थे तब क्या हिंदी साहित्य के आदिकाल या
वीरगाथा काल के बारे में भी यही तर्क दिए जा सकते हैं? हम देखते हैं कि शुक्ल
जी की नजर में दरबारी कविता होते हुए भी आदिकालीन कविता वैसी खराब नहीं है,
जैसी कि रीतिकालीन कविता। शुक्ल जी अपने इतिहास में आदिकाल की पृष्ठभूमि को
चिन्हित करते हुए तत्कालीन राजाओं की आपसी लड़ाइयों में निहित वीरता और शौर्य
की बड़ार्इ करते हैं। यहाँ वे फिर उसी सांस्कृतिक द्वंद्व, हिंदू-मुसलमान, के
सहारे वीरगाथाओं का विश्लेषण करते हैं - "...बीसलदेव आर्यावर्त से मुसलमानों
को निकालने के लिए उत्तर की ओर बढ़ा। ...इसी प्रकार महाराज पृथ्वीराज के मारे
जाने और दिल्ली तथा अजमेर पर मुसलमानों का अधिकार हो जाने के पीछे भी बहुत
दिनों तक राजपूताने आदि में कर्इ स्वतंत्र हिंदू राजा थे जो बराबर मुसलमानों
से लड़ते रहे... राजा भोज की सभा में खड़े होकर राजा की दानशीलता का
लंबा-चौड़ा वर्णन करके लाखों रुपये पाने वाले कवियों का समय बीत चुका था... उस
समय जो भाट या चारण किसी राजा के पराक्रम, विजय, शत्रुकन्या हरण आदि का
अत्युक्तिपूर्ण आलाप करता या रणक्षेत्रों में जाकर वीरों के हृदय में उत्साह
की उमंगें भरा करता था, वही सम्मान पाता था।"[20] देखा जाए तो शुक्ल जी के
मानदंड यहाँ भी वही हैं जो रीतिकालीन कविता के विश्लेषण के दौरान हैं। यहाँ वे
युद्ध के लिए, कर्तव्य के लिए कविता लिखने वाले चारण या भाटों की कविता को
खराब कविता नहीं मानते क्योंकि यह कविता कर्म क्षेत्र में प्रवृत करने वाली
है। राजाओं द्वारा दूसरे राजाओं से युद्ध और हिंदू राजाओं द्वारा मुसलमान
राजाओं के विरुद्ध विद्रोह उस काल की विशेषता है। शुक्ल जी के एक प्रतिमान पर
तो यह कविता खरी उतरती है कि कविता मनुष्य को अन्याय के खिलाफ लड़ने वाला और
कर्म के क्षेत्र से जोड़ती है पर इस का दायरा यहाँ छोटा है। शुक्ल जी के लोक
की परिभाषा चूँकि इससे बड़ी है इसलिए वे इस कविता को महत्व देते हुए भी इसे
अपने कैनन के आधार रूप में नहीं बरतते। इन्हीं तर्कों और आधारों पर आगे चलते
हुए शुक्ल जी को इस प्रवृत्ति का समूचा विकास रीतिकाल के कवि भूषण में मिलता
है। भूषण ने भी आश्रयदाता राजाओं, शिवाजी आौर छत्रसाल, पर कविता लिखी और उसे
शुक्ल जी क्यों महत्वपूर्ण कविता मानते हैं, यह पता शुक्ल जी के इस उद्धरण से
चलता है - "पर भूषण ने जिन दो नायकों की कृति को अपने वीरकाव्य का विषय बनाया
वे अन्याय दमन में तत्पर, हिंदू धर्म के संरक्षक, दो इतिहास प्रसिद्ध वीर थे।
उनके प्रति भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा हिंदू जनता के हृदय में उस समय भी थी
और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गर्इ। इसी से भूषण के वीर रस के उद्गार सारी
जनता के हृदय की संपत्ति हुए... इन दो वीरों का जिस उत्साह के साथ हिंदू जनता
स्मरण करती है, उसकी व्यंजना भूषण ने की है। वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि
हैं।" [21]
अगर हम देखें कि आदिकालीन वीरगाथा और रीतिकालीन वीरगाथा के कवि अपनी कविता में
कैसे समान और विषम हैं तो रामचंद्र शुक्ल के आलोचनात्मक कैननों के निर्माण के
स्तरों को पहचान सकते हैं। साम्राज्यवाद और सामंतवाद की आचार्य शुक्ल की समझ
रामविलास शर्मा की समझ से पीछे की है इसलिए उनके सामंतवाद विरोध के दायरे अलग
हैं। अन्यथा यह समझना मुश्किल हो जाएगा कि 'सामंतवाद विरोध' में शिवाजी और
छत्रसाल क्या हैं? हिंदू जनता के त्रात्रा या सामंत? रामविलास जी शायद इसका
बेहतर उत्तर सुझा सकते थे।
जहाँ तक रीतिवाद विरोध की बहस है, उसके बारे में मैनेजर पांडेय ने ठीक ही
चिन्हित किया है कि इसे शुक्ल जी के स्वाधीनता संघर्ष के रिश्तों के साथ देखा
जाना चाहिए। जिस तरह का राष्ट्र नवजागरण में संकल्पित हुआ और जैसी मध्यकाल की
अवधारणा इस बहस में आर्इ, उस दृष्टि से शुक्ल जी के रीतिकाल के विरोध को समझा
जा सकता है। उत्तर-मध्यकाल के प्रति शुक्ल जी की दृष्टि बनाने में अतीत के
गौरव की खोज भी शामिल थी जिसके अनुसार मुगल आक्रांताओं ने भारतीय सांस्कृतिक
गौरव को क्षति पहुँचार्इ। पर इस बहस को मुक्तिबोध के रास्ते हल करने की दिशा
में बढ़ना अधिक समीचीन होगा। सामाजिक तबकों और उनमें चल रही वर्गीय हलचलों को
आधार बना जिस तरह मुक्तिबोध भक्तिकाल के उदय की व्याख्या करते हैं, उसी तरह
रीतिकाल की कविता को भी व्याख्यायित करने का यत्न करना होगा क्योंकि रीतिवाद
विरोध के कैननों से समूचे रीतिकालीन साहित्य को देखना हमें मुश्किल में डाल
देगा। अगर कभी हिंदी और उर्दू दोनों का साहित्येतिहास एक साथ लिखा गया, जो कि
एक साथ बना था, तो क्या रीतिकाल की वही छवि रहेगी जो आलोचकों ने रेखांकित की
है? तब मीर तकी मीर की कविता के बारे में क्या धारणा बनेगी?
अब हम यहाँ शुक्ल जी के उन दो लेखों की चर्चा करेंगे जो अपनी सीधी राजनैतिक
विषय वस्तु के कारण चर्चा में रहे आए और आलोचकों ने इन पर पर्याप्त बहसें भी
कीं। इनमें पहले लेख का शीर्षक है - 'भारत को क्या करना चाहिए।' पहले-पहल यह
लेख 'हिंदुस्तान रिव्यू' के 1905 के फरवरी अंक में छपा। सामाजिक-राजनैतिक
सुधारों आदि की चिंताओं से बुने इस लेख में शुक्ल जी ने भारत की तत्कालीन
परिस्थिति को सुधारने के लिए अपना मत व्यक्त किया है। इस लेख में शुक्ल जी
सामाजिक सुधारों को केंद्रीय वस्तु मानते हैं और राजनीतिक उत्थान के लिए
सामाजिक सुधारों को पहली सीढ़ी। वे लिखते हैं - "दरअसल, हमें समाज सुधारक,
राजनीतिज्ञ, आंदोलनकर्ता, कवि और शिक्षाविद, सबकी एक ही साथ, एक ही समय में
जरूरत है। ...महत्व के लिहाज से जिस चीज पर हमें सबसे पहले ध्यान देना चाहिए,
वह है सामाजिक बुराइयों को दूर करने का काम।"[22] इस दौर में शुक्ल जी सामाजिक
बुराइयों के उदाहरण के रूप में बाल विवाह और अशिक्षा आदि को लेते हैं। अशिक्षा
क्या है और शिक्षा की गुलाम भारत में क्या उपादेयता है, यह शुक्ल जी के
निम्नांकित उद्धरण से साफ हो जाएगा। शुक्ल जी शिक्षा को सिर्फ पढ़ार्इ या
रोजगार के संदर्भ में न देखकर स्वाधीनता प्राप्ति की मुहिम से जोड़ते हैं। वे
इसी लेख में आगे लिखते हैं कि - "शिक्षा से मेरा मतलब सामान्य महत्व के मामलों
के बारे में हमारे नेताओं की राय का अशिक्षित जनता तक संप्रेषण भी है, ताकि
अवसर आने पर उनका [अशिक्षित जनता का] सहयोग मिलने से न रह जाए। प्रत्येक
ग्रामवासी को यह जानना चाहिए कि अधिक काम करने के बाद भी उसे उसके बदले में कम
क्यों दिया जाता है, और वस्तुतः प्रत्येक भारतीय को यह साफ-साफ पता होना चाहिए
कि उसका देश दिन-प्रतिदिन और गरीब क्यों होता जा रहा है?" [23] यही नहीं,
शुक्ल जी इस छोटे से लेख में भारत के उद्योग धंधों के विनाश की अंग्रेजी साजिश
को लक्ष्य करते हैं और साम्राज्यवादियों के तथाकथित न्याय और समानता का
भंडाफोड़ करते हैं। वे देख लेते हैं कि भारतीय जनता के लिए अंग्रेजों के समानता
आदि के नारे बहलावा हैं, इसका सारतत्व शोषण है - "भारत की आर्थिक स्थिति की
माँग यह है कि किसी भी दूसरे काम से पहले उसके उद्योग धंधे का परिवर्तन और
परिष्कार किया जाए और यह, जिसे हम तकनीकी शिक्षा कहते हैं, उस पर सबसे ज्यादा
निर्भर करता है... साम्राज्यवाद ही भारत में ब्रिटिश राष्ट्र की प्रेरक शक्ति
रहा है। उन्होंने [ब्रिटिश] यह हाल पैदा कर रखा है कि भारतीय प्रशासन में उनकी
अपनी ब्रिटिश परिकल्पना का एक रेशा भी नहीं दिखार्इ देता। इसमें शक नहीं कि वे
रूप को सुरक्षित रखते हैं लेकिन वे उसके सारतत्व को खत्म कर देते हैं।
...स्वदेशी आंदोलन... लाखों लोगों को भुखमरी से बचाने के लिए और नियमित रोजगार
के अभाव में भटक रहे लाखों लोगों को काम देने के उद्देश्य से चलाया गया आंदोलन
है।"[24]
यहाँ हम इस लेख की पृष्ठभूमि दिखाने के लिए दो अन्य रचनाओं का उल्लेख करेंगे।
भारतीय नवजागरण और राष्ट्रवाद की बुनियाद अंग्रेजी उपनिवेशवाद के विरुद्ध
संगठित होते हुए हुर्इ थी, यह हम पीछे देख आए हैं। इसी सिलसिले में याद रखना
चाहिए कि नए पैदा होते मध्यवर्ग के भीतर राजभक्ति और राष्ट्रभक्ति का द्वंद्व
भी है। और यह भी कि सामंतवाद विरोध की धाराएँ आम तौर पर सामाजिक सुधारों के
धार्मिक आवरण से लिपटी हुर्इ थीं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इस लेख के पूर्व
भारतीय मनीषा के साम्राज्यवाद विरोध की दिशा में भारतेंदु बाबू हरिश्चंद का
लेख 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?' बेहद महत्वपूर्ण है। अपनी विशिष्ट
संक्रमण की परिस्थितियों में भी भारतेंदु कुछ मूलभूत बातों की ओर इशारा करते
हैं। 1884 में बलिया के ददरी मेले में यह लेख एक व्याख्यान की शक्ल में दिया
गया था। यहाँ वे अंग्रेजों के न्याय वाले शासन की तारीफ करते हैं, उनका फायदा
उठाने को प्रेरित करते हैं, प्राचीन गौरव की याद करते हैं, भारतीयों को
आलसीपने के लिए दुत्कारते हैं, जनसंख्या वृद्धि पर चिंतित होते हैं, धार्मिक
और सामाजिक सुधारों का पक्ष लेते हैं, मुसलमानों को हिंदुओं के साथ रहने तथा
शिक्षा और रोजगार हासिल करने की बात करते हैं और अंत में भारत की समूची आबादी
को हिंदू में परिभाषित करते हैं। इस लेख के स्वतंत्र विश्लेषण की यह जगह नहीं
हैं पर हमारा ध्यान इसके एक रूपक की ओर अटक जाता है जहाँ भारतेंदु एक लोककथा
के सहारे शोषण के स्तरों को समझने का यत्न करते हैं - "तीन मेढक एक के ऊपर एक
बैठे थे। ऊपर वाले ने कहा 'जौक-शौक', बीच वाला बोला 'गुम-सुम', सबके नीचे वाला
पुकारा 'गए हम'। सो हिंदुस्तान की साधारण प्रजा की दशा यही है, 'गए हम'।" [25]
यह रूपक हमें साम्राज्यवाद के बहुस्तरीय शोषण को परिभाषित करने वाले
माओ-त्से-तुंग के उस प्रसिद्ध रूपक की याद दिलाता है जिसमें माओ चीनी जनता पर
पहाड़ों के लदे होने की बात करते हैं। यहाँ सामान्य जनता के ऊपर उसका शोषण
करने वाले सामंत-साहूकार है और उनका भी शोषण करने वाले अंग्रेज साम्राज्यवादी।
जनता इस दुहरे शोषण के नीचे पिस रही है। हालाँकि भारतेंदु ने बिचले वर्गों की
स्पष्ट पहचान नहीं की है पर उनके लेख को पढ़ने से ध्वनि निकलती है कि
राजा-महाराजा और सामंत ही बिचले वर्ग हैं। यह प्रश्न कि इन बीच के वर्गों की
स्वाधीनता प्राप्त करने में क्या भूमिका है, आगे विवाद का विषय रहा है। विवाद
बिचले वर्गों की परिभाषा को लेकर भी है। आगे चलकर हम देखेंगे कि आचार्य
रामचंद्र शुक्ल इस रूपक से कहाँ तक सहमत हैं?
आचार्य शुक्ल के ऐसे सामाजिक राजनैतिक लेखन के पीछे की परंपरा तलाशते हुए हमें
राष्ट्रवादी चिंतकों द्वारा किए गए ढेरों काम मिलते हैं। भारतेंदु पहले ही 'पै
सब धन विदेश चलि जात, इहै अति ख्वारी लिख' चुके थे। दादा भार्इ नौरोजी ने 1886
में 'पावर्टी एंड अन ब्रिटिश रूल इन इंडिया' नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक से
ही 'ड्रेन थ्योरी' की चर्चा शुरू हुर्इ जिसमें आकलन किया गया था कि भारत का
कितना धन अंग्रेज लूट कर अपने देश ले जा रहे हैं। पर याद रहे कि नौरोजी पहले
'द बेनिफिट्स ऑफ ब्रिटिश रूल' लिख चुके थे जिसमें उन्होंने तमाम सामाजिक
सुधारों के लिए अंग्रेजों की आशंसा की थी। 'राजभक्ति' से 'राष्ट्रभक्ति' की ओर
बढ़ते रुख की बेला में नौरोजी के कामों को आगे बढ़ाते हुए सखाराम गणेश देउस्कर
ने 'देशेर कथा' [हिंदी में 'देश की बात' अनुवादक - पड़ारकर] लिखी। यह किताब
साम्राज्यवाद के आर्थिक शोषण को बेहद गहरार्इ से उकेरती है। किसानों की
बर्बादी, विकास के नाम पर लूट, देशी उद्योगों और कारखानों का विनाश और
हिंदुस्तान से लूटे गए धन की यह पुस्तक विस्तार से चर्चा करती है। 1904 में
छपी इस पुस्तक में भी स्वदेशी आंदोलन के प्रति वही दृष्टि है, जो शुक्ल जी की
उपरोक्त लेख में - "यह बात कोर्इ भी अस्वीकार नहीं कर सकता है कि इन दिनों
भारतवासियों की दृष्टि स्वदेशी कारीगरी की उन्नति की ओर बहुत अधिक जा पड़ी है।
बंगाली लोग जहाँ तक बन पड़े, विदेशी वस्तुओं को न छूने की प्रतिज्ञा कर चुके
हैं। बंबर्इ, मद्रास, मध्य भारत, पंजाब आदि प्रदेशों के निवासी भी बंगालियों
की विदेशी वस्तुओं को त्यागने की प्रतिज्ञा में सम्मिलित हुए हैं।" [26]
ये दोनों रचनाएँ बीसवीं शताब्दी के एकदम प्रारंभिक वर्षों में भारतीय मनीषा के
साम्राज्यवाद विरोध को भलीभाँति चिन्हित करती हैं। आचार्य शुक्ल की आलोचनात्मक
मेधा इसी दिशा में क्रियाशील थी। पर यह साम्राज्यवाद विरोधी धारा सामंतवाद
विरोध के मोर्चे पर क्या कर रही थी? मजदूरों, बेदखल किए गए छोटे काश्तकारों,
किसानों, महिलाओं, अल्पसंख्यक समुदायों और आदिवासियों आदि हाशिए के तबकों के
जीवन और उनके संघर्षों के बारे में इस धारा ने यथेष्ट ध्यान नहीं दिया। ऐसे
में राष्ट्रवादी धारा के भीतर और बाहर दोनों ओर से कर्इ ऐसे सवाल उभर रहे थे
जो साम्राज्यवाद विरोध के पैनोरमा को एकीकृत र्इकार्इ की तरह देखने से इनकार
कर रहे थे और धर्म तथा जाति के सवाल कर्इ बार साम्राज्यवाद विरोध की दशा-दिशा
से असहमत होकर उठाए जा रहे थे। मसलन ज्योतिबा फुले [1827-1880] ने जाति,
स्त्री, किसान और ब्राह्मणवाद जैसे प्रश्न साम्राज्यवाद विरोधी धारा के सामने
उठाए। ये प्रश्न नवजागरण की 'अतीत की गौरवपूर्ण खोज' वाले प्रोजेक्ट का कठोरता
से नकार करते थे। आगे चलकर अंबेडकर ने इस धारा को और अधिक तीखा किया। कहना न
होगा कि साम्राज्यवाद विरोध के बड़े समुच्चय में रहने के बावजूद ये बहसें इस
आंदोलन के भीतर तीखे रूप में संचालित की गर्इं जिसका एक शीर्ष बिंदु 'पूना
पैक्ट' है।
इस आधार भूमि के बाद शुक्ल जी के दूसरे महत्वपूर्ण लेख की ओर चलें। बांकीपुर,
पटना से निकलने वाली पत्रिका 'एक्सप्रेस' के लिए इसे शुक्ल जी ने 1922 में
लिखा था। इसका शीर्षक है - 'असहयोग और अव्यापारिक श्रेणियाँ'। इस लेख को आधार
बनाकर रामविलास शर्मा और वीरभारत तलवार ने शुक्ल जी के स्वाधीनता संग्राम से
रिश्तों और उनकी समझ पर रोचक और ज्ञानवर्धक बहस की है।
इस लेख में शुक्ल जी ने भारतीय समाज व्यवस्था को दो श्रेणियों में बाँटा है,
व्यापारिक श्रेणी और अव्यापारिक श्रेणी। उनकी व्यापारिक श्रेणी में पुराने और
नए व्यापारी, साम्राज्यवादी और उनके भारतीय नुमाइंदे शामिल हैं। अव्यापारिक
श्रेणी में राजनैतिक और कृषक आते हैं। उनके अनुसार - "जन समुदाय और उनकी
वृत्तियों का व्यापारिक और अव्यापारिक श्रेणियों में विभाजन आज भी उतना ही
यथार्थ है जितना दो हजार वर्ष पूर्व था।"[27] शुक्ल जी बहुत साफ ढंग से
वंशानुगत मनोवृत्ति और परंपरा से इस बात को पुष्ट करते हैं कि भारत का समाज
सदियों से इन्हीं दो कोटियों में विभक्त है और उनके मुताबिक यह विभाजन दमनकारी
न था। वे अंग्रेजों के आगमन के कारण इस विभाजन में गड़बड़ियाँ देखते हैं।
"अंग्रेजों के आगमन के पूर्व इन दोनों में से प्रत्येक समुदाय अपने-अपने
क्षेत्र में संतुष्ट थे। एक समुदाय धनोपार्जन की निजी परियोजनाओं में पूर्णतया
दत्तचित्त था तो दूसरा समुदाय अपनी जीवनचर्या में राज्य को सैनिक तथा लोक
सेवाएँ अर्पित करने की यथेष्ट भूमिका निभाता था। ...शासक सौदागर नहीं हो सकता
था। सौदागर शासक नहीं बन सकता था... र्इस्ट इंडिया कंपनी के रूप में यूरोप के
घृणित व्यापारवाद ने भारत में कदम रखा और समाज में द्विस्तरीय विभाजन के आधार
पर जो सामंजस्य इतने दिनों से चला आ रहा था, उसे अस्त-व्यस्त कर दिया।"[28]
शुक्ल जी पुराने बंद समाज को पसंद करते हैं जहाँ सामाजिक उथल-पुथल कम है, जहाँ
समुदाय एक दूसरे में बदल नहीं सकते और जहाँ 'सामंजस्य' मौजूद है। क्या यह
सामंजस्य हमें वर्ण की याद नहीं दिलाता जहाँ समाज व्यवस्था में सबके कार्य तय
होते थे? शुक्ल जी तर्क देते हैं कि राजसत्ता पर पूँजी का प्रभाव भारत में
अंग्रेजों के आने के पहले नहीं पड़ा था। अर्थात शासक और सौदागर की कोटियाँ एक
दूसरे में नहीं बदल सकती थीं।
यह इस लेख की पूर्व पीठिका है। आगे शुक्ल जी कंपनी के आगमन के बाद उसके भारतीय
समाज पर पड़े प्रभाव का विश्लेषण करते हैं। वे दिखाते हैं कि "भूमि से कृषक
श्रेणियों [29] के संबंध का स्थायित्व सदा के लिए लुप्त हो गया और वे
उत्तरोत्तर बढ़ती कंगाली की अवस्था में छोड़ दिए गए... कानूनी जटिलताओं के
कारण मुकदमा भूमिगत हितों का ऐसा अपरिहार्य लक्षण हो गया है कि सरकारी माँगों
के भुगतान के बाद औसत जमींदार के पास कुछ शेष नहीं बचता।"[30]
इस तरह शुक्ल जी र्इस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक नीतियों को भारत में चले आ
रहे सामंजस्य को तोड़ने, व्यापारिक श्रेणियों के लाभ और अव्यापारिक श्रेणियों
की तबाही से जोड़ते हैं। तो इस कारण क्या बदलाव हुए हैं? सरकार जमींदारों से
पुराने रिवाजों के मुताबिक अब भी बड़ी मात्रा में राजस्व वसूलती है। इससे
तबाही किसानों की होती है। दूसरी तरफ महाजन या उद्योगपति अपने लाभों में से
सरकार को कुछ नहीं देता और मौज करता है। शुक्ल जी के मुताबिक व्यापारिक वर्गों
पर कृपा करके कंपनी सरकार अव्यापारिक वर्गों को नष्ट कर देने पर तुली हुर्इ
है। वे स्वदेशी उद्योगों के नाश को चिन्हित करते हैं। अंग्रेजों के वरदहस्त से
बने नए-नए साहूकारों के जमींदारियाँ खरीदने को लक्ष्य करके अव्यापारिक
श्रेणियों के लिए नौकरियों में आरक्षण की सिफारिश करते हैं। इसके पहले लेख में
वे बता आए हैं कि सब कुछ हाथ से जाता देखकर अव्यापारिक वर्ग नौकरियों पर टूट
पड़े और 'शिक्षित मध्यवर्ग' का निर्माण किया। आरक्षण की सिफारिश खासतौर पर
क्षत्रिय पेशे से जुड़े लोगों के लिए की गर्इ - "जिन व्यक्तियों के पास राजकीय
सत्ता नहीं है या जो शासक परिवार के नहीं हैं, उन्हें राजा महाराजा की उपाधि
से विभूषित किए जाने को बहुसंख्यक हिंदू अपने राष्ट्रीय गौरव के लिए अत्यधिक
अपमानजनक समझते हैं।.... उत्तर प्रदेश और अवध में क्षत्रिय परिवार हैं जिनके
पूर्वज वास्तविक शासक रहे हैं... कब और कैसे वे सत्ता खो बैठे यह स्पष्टतः
ज्ञात नहीं है... सामान्यतः वे अच्छे प्राचीन परिवारों का प्रतिनिधित्व करते
हैं और उनकी रियासतें किसी मध्यकालीन अधिपति से प्राप्त अनुदान या किसी पर
विजय का परिणाम रही हैं [रिपोर्ट आन द कान्स्टीच्यूशनल रिफार्म]। उनकी स्थिति
की खोजबीन के साथ उन सबके लिए सैनिक पेशे के दरवाजे खुले रखना आवश्यक है...
रियासतों के लिए सैनिक सेवाओं के आरक्षण का कानून बनाना सरकार का अनिवार्य
कर्तव्य है।" [31]
इस उद्धरण में ध्यान देने की बात यह है कि शुक्ल जी पुराने राजाओं, जमींदारों
के हितों को लेकर चिंतित हैं। वे उनके लिए नौकरियों में आरक्षण की माँग करते
हैं पर अव्यापारिक श्रेणियों के अन्य तबकों मसलन किसान और मजदूरों के लिए वे
सरकार से कुछ नहीं माँगते। वे इन दो हिस्सों की बदहाली की बात करते हैं पर
उनकी आरक्षण वाली सदिच्छा इन्हीं 'क्षत्रिय' लोगों के प्रति प्रकट होती है। इस
मसले पर आगे मजदूरों और किसानों की स्थिति को भी आचार्य शुक्ल ने स्पष्ट किया
है। वे लिखते हैं - "...किसान और जमींदार के बीच कोर्इ अभेद्य दीवार नहीं है,
किसान जमींदार हो सकता है और एक जमींदार किसान हो सकता है। वे स्वयं देख सकते
हैं कि इन चीजों का वास्तविक उद्देश्य संपूर्ण ग्रामीण जनसंख्या को अधिक
कमजोर, दीन किसानों में इस प्रकार बदल देना है जिससे उनमें से किसी के पास
सामाजिक गौरव एवं प्रतिष्ठा अर्जित करने का कोर्इ अवसर शेष न रह जाए... सहज
विश्वासी मजदूरों की अधिकांश जनता के बीच आंदोलनकारी अपने उत्तेजक भाषणों से
सबसे अधिक अशांति उकसाने में व्यस्त रहे हैं। वस्तुतः उनकी आतंकवादी, बर्बर
गतिविधियों से किसान और जमींदार, समान रूप से उत्पीड़ित हुए हैं। ऐसे समय में
जब श्रम का अभाव गरीब कृषकों में पहले ही गंभीर चिंता उत्पन्न कर रहा है और
कृषि उत्पादों में अत्यधिक ब्यवधान डाल रहा है, वहाँ जाकर उनके लिए समस्याओं
को और अधिक जटिल बना देना क्या मानवोचित है? जमींदार शब्द से प्रायः हम बड़े
भूमिपति का अर्थ लेते हैं और उन छोटे काश्तकारों के विषय में कभी नहीं सोचते
जो अपनी कुलीनता के प्रति जागरूक होते हुए भी न्यूनतम आय में बड़ी कठिनार्इ से
अपना जीवन निर्वाह कर पा रहे हैं... वे हैं जो हमारे आंदोलनकारियों की उदारता
के शिकार हो गए हैं। शहरों में महाजनों की गद्दियों ने श्रमिक जनसंख्या के
वृहद भाग को खींच लिया इसलिए किसान और जमींदार इस बात के लिए चिंतित हैं कि
कृषि कार्य कैसे चलाया जाय... किसानों के लिए श्रम की आपूर्ति संपूर्णतः भंग
कर देने का प्रयास कितना विनाशकारी है... क्या हम इस प्रकार के आंदोलनकारियों
को अधिक बलपूर्वक नगरीय जनों का एजेंट नहीं कह सकते...?" [32]
अब यहाँ भारतेंदु के उस मेढकों वाले रूपक को याद करना चाहिए। भारतेंदु भारतीय
आम जनता के दोहरे शोषण को इस रूपक के माध्यम से व्यक्त कर रहे थे। वे देख रहे
थे कि शोषण के इस चक्र में सबसे ऊपर साम्राज्यवादी हैं जो भारतीय सामंतों,
राजा-महाराजाओं का शोषण करते हैं और आम जनता का भी। सामंत साम्राज्यवाद द्वारा
शोषित होते हुए भारतीय जनता का भी शोषण करते हैं। शुक्ल जी इस विभेद को
द्विस्तरीय बना देते हैं। उनके जमींदार औसतन किसान हैं, जो साम्राज्यवाद से
उसी तरह पीड़ित हैं, जैसे आम जनता। यह हुर्इ अव्यापारिक श्रेणी। दूसरी श्रेणी
व्यापारिक है जिसमें साम्राज्यवादी और उनके गुमाश्ते दलाल देशी महाजन और
साहूकार हैं जो साम्राज्यवाद का शोषण नहीं झेलते हैं वरन उनके आर्शीवाद से
फल-फूल रहे हैं। रामविलास जी ने अपनी पुस्तक 'आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी
आलोचना' के 'आचार्य रामचंद्र शुक्ल का पुनर्मूल्यांकन और वामपंथी अवसरवाद'
वाले अध्याय में वीरभारत तलवार से इस संदर्भ में बहस की है। उनकी तर्क योजना
कुछ इस प्रकार है कि शुक्ल जी साम्राज्यवाद और उसके देशी एजेंटों के खिलाफ
किसानों और औसत जमींदारों का मोर्चा बनाना चाहते हैं। वीरभारत तलवार, शुक्ल जी
को जमींदारों का पक्षधर बताते हैं जिसकी आलोचना करते हुए रामविलास जी र्इस्ट
इंडिया कंपनी के आगमन के बाद बदहाल जमींदारों का चित्रण करते हैं, जो किसानों
में बदल रहे हैं। रजनी पाम दत्त की 'आज का भारत' और मार्क्स के भारत पर लिखे
गए आलेखों के माध्यम से वे दिखाते हैं कि पुराना सामंतवाद नए शोषण से कम
आतंककारी था। वे यहीं अंग्रेजों के आगमन के बाद जमींदारों और किसानों की
तबाही, नए महाजन जमींदारों और सूदखोरों के पैदा होने और उनके फलने फूलने की
चर्चा करते हैं। यहाँ उस बहस में जाने का अवसर नहीं जहाँ अंग्रेजों के आने के
पूर्व के समाज में रामविलास जी विकसित होते व्यापारिक पूँजीवाद को देखते हैं।
उनकी इस मान्यता पर मैनेजर पांडेय ने उनसे बहस की है। [33] आगे रामविलास जी के
कैननों की चर्चा करते हुए हम इस बहस के विस्तार में जाएँगे।
संदर्भतः शुक्ल जी साम्राज्यवादी शोषण को बखूबी चिन्हित करते हैं और देश में
व्यापारिक श्रेणियों के शोषणकारी रूप को भी। वे ठीक ही देखते हैं कि नए
साहूकार महाजन जमीनों पर मालिकाना हक कायम करते जा रहे हैं और कृषि से जुड़े
तबके हाशिए पर जा रहे हैं पर प्रश्न दूसरी जगह है। शुक्ल जी के अव्यापारिक
श्रेणियों में अलग-अलग श्रेणियों के साथ उनके विश्लेषण में और उनकी स्थिति
निर्धारण में समस्या है। अर्थात अगर हम यह मान लें कि शुक्ल जी साम्राज्यवाद
और उसके भारतीय पिछलग्गुओं के खिलाफ जमीदारों, किसानों और मजदूरों का मोर्चा
बनना चाह रहे थे तो अगला सवाल यह खड़ा होता है कि इन तीनों में से नेतृत्वकारी
कौन होगा? ऊपर के किंचित लंबे उद्धरण में हमने देखा कि मजदूरों के बारे में
शुक्ल जी की क्या राय है। वे आंदोलनकारियों के भड़कावे में आकर अपने लिए अधिक
सुविधाओं की माँग करते हैं, वे अधिक कमार्इ के लिए कृषि का काम छोड़कर शहरों
की ओर पलायन कर रहे हैं। [यहाँ 'गोदान' के औसत जमींदार राय साहब, जमींदार से
किसान नहीं बल्कि किसान से मजदूर बनते होरी और शहर की ओर पलायन करते गोबर का
ध्यान रखें।] तो ये मजदूर इस मोर्चे की नेतृत्वकारी ताकत नहीं हैं क्योंकि ये
तो बहकावे में आकर आंदोलन को क्षति पहुँचा रहे हैं। दूसरा वर्ग है किसानों का।
शुक्ल जी किसानों और जमींदारों के बीच की दीवार गिरा देते हैं। यही
किसान-जमींदार वर्ग नेतृत्व करेगा और मजदूर वर्ग का साथ इसे ताकत देगा। जैसे
शुक्ल जी जमींदारों और किसानों के बीच की दीवार गिराते हैं वैसे वे किसानों और
मजदूरों के बीच की दीवार नहीं गिरा रहे हैं। तब इस साम्राज्यवाद विरोधी
संयुक्त मोर्चे का दृश्य कुछ ऐसा बनता है - सबसे आगे जमींदार जो किसान बन रहे
हैं पर जिनकी 'कुलीनता' अभी बाकी है, उनके पीछे किसान और उनके पीछे मजदूर।
रामविलास जी माओ के साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चे की बात करते हैं पर क्या माओ
के उक्त मोर्चे में किसान और मजदूरों के हितों के आधार पर ही मोर्चा संचालित
नहीं होता था? क्या माओ भी शुक्ल जी की तरह मजदूरों को 'आतंकवादी और बर्बर
गतिविधियाँ' संपादित करने वाले और आंदोलनकारियों द्वारा बहकाया हुआ मानते थे?
कहने का कुल तात्पर्य यह कि शुक्ल जी का संयुक्त मोर्चा किसानों और मजदूरों को
तो शामिल करता है पर उनकी सहानुभूति जमींदारों, किसान बन रहे औसत जमींदारों की
ओर अधिक है।
जो हो, 30 के दशक में लिखा गया यह निबंध साहित्य और राजनीति के संबंधों को भी
एक नर्इ निगाह से देखने का प्रस्ताव करता है। हम देखते हैं कि शुक्ल जी के
पहले साहित्यालोचन में भारतीय राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद विरोध, सुधार और अतीत
के गौरव आदि से विकसित हो रहा था। शुक्ल जी ने इस राष्ट्र के आधार तबकों की
दृष्टि को साहित्य के भीतर गहरे प्रतिष्ठित किया। ये वही वर्ग हैं जिन्हें
शुक्ल जी अव्यापारिक श्रेणियाँ कहते हैं। उन्होंने अपने समकालीन राजनीतिक
परिदृश्य में गांधी के नेतृत्व में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन को व्यवसायिक
श्रेणियों के हितों की तरफ जाता हुआ बताया और आंदोलन में अव्यापारिक श्रेणियों
की महत्ता पर प्रकाश डाला। इस तरह शुक्ल जी भारत के गाँवों में रहने वाली
अधिसंख्य आबादी के पक्ष में स्वाधीनता आंदोलन को संचालित किए जाने का प्रस्ताव
करते हैं।
लेख के प्रारंभ में तुलसी के संदर्भ से शुक्ल जी के कैननों के बनने की
प्रक्रिया का अध्ययन करते हुए हमने देखा कि एक किसानी बोध, पारिवारिक ग्रामीण
संरचना के प्रति लगाव और मरजाद की रक्षा का भाव उनके विश्लेषण में गहरे धँसा
हुआ है। यही बात उन्हें अव्यापारिक वर्गों के सैद्धांतिक विवेचन तक ले गर्इ।
शुक्ल जी के विवेचनों में प्राचीन के उत्थान की परियोजना भी है और नवीन की
आलोचनात्मक आशंसा भी। पश्चिमी और पूर्वी ज्ञानों के प्रति आलोचनात्मक विवेक और
गाँवों से जुड़ाव जो उनकी राष्ट्रवादी भूमि पर स्थित है, के कारण वे
साम्राज्यवादी शोषण का पर्दाफाश कर पाते हैं। यहीं से उनके लोकमंगल के प्रयत्न
पक्ष को भी और समझा जा सकता है।
संदर्भ :
1.
रामचंद्र शुक्ल संचयन, भूमिका एवं चयन - नामवर सिंह, साहित्य अकादेमी, द्वितीय
संस्करण, 1998, पृष्ठः 7-8
2.
वही, पृष्ठ : 120
3.
हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, 32वाँ
संस्करण, 1997, पृष्ठः 40
4.
रामचंद्र शुक्ल संचयन, भूमिका एवं चयन - नामवर सिंह, साहित्य अकादेमी, द्वितीय
संस्करण, 1998, पृष्ठ : 122-25
5.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन,
2003, पृष्ठ : 77
6.
हिंदी साहित्य : बीसवीं सदी, नंद दुलारे वाजपेयी, लोकभारती प्रकाशन, 2007,
पृष्ठ : 52
7.
देखें आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना का 'जायसी का प्रेममार्ग' नामक
अध्याय, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, 2003, पृष्ठ : 63-77
8.
रामचंद्र शुक्ल संचयन, भूमिका एवं चयन - नामवर सिंह, साहित्य अकादेमी, द्वितीय
संस्करण, 1998, पृष्ठ : 126
9.
महाकवि सूरदास, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, राजकमल प्रकाशन, 2003, पृष्ठ : 108
10.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन,
2003, पृष्ठ : 93
11.
रामचंद्र शुक्ल संचयन, 'कविता क्या है?' शीर्षक निबंध, भूमिका एवं चयन - नामवर
सिंह, साहित्य अकादेमी, द्वितीय संस्करण, 1998, पृष्ठ : 54
12.
वही, 'काव्य में लोकमंगल की साध्नावस्था' शीर्षक निबंध, पृष्ठ : 68
13.
वही, 'आनंद की सिद्धावस्था' शीर्षक निबंध, पृष्ठ : 77
14.
वही, 'तुलसी की भावुकता' शीर्षक निबंध, पृष्ठ : 139-40
15.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन,
2003, पृष्ठ : 95
16.
'रामचंद्र शुक्ल' शीर्षक निबंध, शिवकुमार मिश्र, वर्तमान साहित्य, वर्ष 19,
अंक : 5, मई, 2002 में शिल्पायन प्रकाशन, पृष्ठ : 21
17.
आलोचना की सामाजिकता, मैनेजर पांडेय, वाणी प्रकाशन, 2005, पृष्ठ : 38
18.
हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, 32वाँ
संस्करण, 1997, पृष्ठ : 131
19.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन,
2003, पृष्ठ : 117
20.
हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, 32वाँ
संस्करण, 1997, पृष्ठ : 18
21.
वही, पृष्ठ : 141
22.
रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली, भाग : 4, संपादक : ओंप्रकाश सिंह, भाषा, साहित्य और
समाज विमर्श, http://www.hindisamay.com/alochana/shukla%20ganthavali 4/bhag
7.html
23.
वही, /bhag 7.html
24.
वही, /bhag 7.html
25.
सामाजिक क्रांति के दस्तावेज, संपादक : शंभुनाथ, भाग-1, 2004, वाणी प्रकाशन,
पृष्ठ : 390
26.
देश की बात, भूमिका और संपादन : मैनेजर पांडेय, नेशनल बुक ट्रस्ट, 2006, पृष्ठ
: 168
27.
रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली, भाग : 4, संपादक : ओमप्रकाश सिंह, भाषा, साहित्य और
समाजविमर्श, http://www.hindisamay.com/alochana/shukla%20ganthavali 4/bhag
10.html
28.
वही, /bhag 10.html
29.
यहाँ ध्यान रखें कि शुक्ल जी की कृषक श्रेणियों में जमीन से संबंध रखने वाले
सभी तबके - रैयत, जमींदार, छोटा जमींदार, किसान और मजदूर सभी शामिल हैं।
30.
रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली, भाग : 4, संपादक : ओमप्रकाश सिंह, भाषा, साहित्य और
समाज विमर्श, http://www.hindisamay.com/alochana/shukla%20ganthavali 4/bhag
10.html
31.
वही, /bhag 10.html
32.
वही, /bhag 10.html
33.
इस पूरी बहस के लिए देखें - 'उत्तर औपनिवेशिकता के स्रोत और हिंदी साहित्य' का
'हिंदी आलोचना में औपनिवेशिक का रेखांकन' शीर्षक अध्याय, प्रणय कृष्ण,
लोकभारती प्रकाशन, 2008