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कविता

भ्रातृ गाथा

प्रत्यूष गुलेरी


भाई साहब
आज आपके स्वर्गारोहण के
ग्यारह दिन बाद
हिम्मत कर बैठ गया हूँ
तुम्हारे बेड की बाईं तरफ
बीमारी के दौरान
मुझे लिटाते रहे थे जहाँ
अंतिम दिनों में
साथ रहने की
भर दी थी हामी
बार-बार चेताते
सब मिलें
न मिलें याद आता
कहा सहोदर भ्राता!

जीवन के फिल्म की
रीलें घूमने लगी हैं
एक एक कर यूँ
नदी पार कराने वाले कुशल चालक की तरह
चला रखा है
उँगली पकड़कर
बाण गंगा की तेज तर्रार धार में
छोटा उठा रखा है कंधे पर
उस पार से
ले आए हैं
सुरक्षित आप इस पार
हमारे लिए किसी महायोद्धा से थे नहीं कमतर।

मुझे मुँदी आँखों में
दिख रहा है
पीपल के शिखर की शाख पर
उसकी काटती टहनियों को
जिन्होंने छितरा लिया है
चितरेरों का छप्पर
मैं नीचे खड़ा इकट्ठा कर रहा हूँ पतराह
तुम्हारे नीचे उतर आने की
इंतजार में
तब तक जब तक
आप रस्सी से बांधे गट्ठर को
अपने ही दम पर
सर पर उठा नहीं लेते !

याद आया है
साथ में वह दिन
पंजी के मेले से
लौटते अचानक आए
तेज अंधड़ में
गिरिधर साथ रहा
अँगुली से छूट गया मैं
उड़ते हुए को
बाड़ पर गिरते
बचा लिया था
अजब जादूगरी से अथवा
त्यों, ज्यों कैच कर लेते हैं फील्डर गेंद!

आँगन में बंधा
घोड़ा खीरू दिख गया है
आप होंगे पंद्रह के
नया नया भूषण पास किया था
घोड़े को नहलाया
बाल काटकर खरा चमकाया
काटने लगे पूँछ तो
काटते-काटते सारी काट डाली
माँ बिगड़ी -
पिता अब नहीं छोड़ेंगे तुझे
न बैठेंगे घोड़े पर
तब तक जब तक
पूँछ पूरी नहीं उग आती
इसी से जन्मी थी आपकी
पहली कथा
मेरा दिल करदा
डुमकू - डुमकू !

कोठे के वे दिन भी
आँखों में तैर आए हैं
साथ सुलाते थे जब
पढ़ाते थे एक साथ
सुबह चार बजे बैठा देते थे पढ़ने
आँख लगने नहीं देते थे
होकर पूरे सजग
खुद एम.ए. कर रहे थे।

गुलेर से मंगवाल तक
बिछी रेल पटरी के
साथ साथ हाथ भर जगह में
दौड़ा रहे हैं साइकिल
नौकरी पर जाते दारोका
आगे डंडे पर मैं बैठा हूँ
पीछे है छोटा गिरिधर
उतारना है मंगवाल
आप जायसी, कबीर
और सूरदास के दोहों पदों को
अलाप रहे हैं, कर रहे हैं कंठस्थ
नन्हीं सी डायरी से
पेडल पर पेडल मारते
क्या मजाल कि साइकिल का पहिया
रत्ती भर इधर से उधर
फिसल जाए
एक माहिर साइकिल सवार की तरह!

चुआड़ी (चंबा) से जनवरी, 1982में
कवि-सम्मेलन से लौट रहे हैं हम
देसराज डोगरा (चाचू), सागर, आप और मैं
ट्रिब्यून में छपे नाम की खबर पढ़
प्रोफेसर के सिलेक्शन की
आप बल्लियों उछल पड़े
यों ज्यों मैं नहीं तुम्हीं
फिर प्रोफेसर चुन लिए गए हों
और मुझे बाँहों में कस लिया है
अजब-गजब की कसक से!

नौकरी में रहा साथ-साथ -
प्रिंसिपल चपरासी से
आपको बुलाता था
वह ले जाता था मुझे
बच्चे भी खा जाते थे भूलेखा
एक सी शक्लों का भान करते
कई बार कहते -
आपने बुलाया था
मैं कहता था -
मैंने नहीं बुलाया
जरूर भाई साहब ने बुलाया होगा
और बच्चे
चले जाते
सॉरी सर, सॉरी सर, करते !

साहित्यिक आयोजनों की
हम सहोदर भ्राताओं की
दो आँख जोड़ी
थी जिन्होंने चदरिया
प्रेम की ओढ़ी
सब ढूँढ़ते रह जाएँगे
अब साथ-साथ कहाँ पाएँगे
हकीकत में सपनों में
लौट लौट आएँगे
यह तो है भाई साहब !!

नहीं होगी यह
भ्रातृ गाथा भी खतम
ग्यारह दिन क्या
महीने, साल-दर-साल गाई जाएगी यूँ
जब तक हैं साँस
सिर्फ न केवल भाई के शेष
जिन्होंने भी देखा, पढ़ा सुना होगा
रचनाओं में रहेंगे अशेष !!


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