22 मार्च, 1987
मैं अपनी पत्नी के साथ सोमनाथ-द्वारका से लौटते हुए दिनभर के लिए अहमदाबाद में था। भोलाभाई पटेल और रघुवीर चौधरी से मालूम हुआ, 'वात्स्यायन जी आज ही अहमदाबाद आनेवाले हैं। कल वह शमशेर बहादुर सिंह को, जो गंभीर रूप से अस्वस्थ हैं, देखने सुरेंद्रनगर जाएँगे। इसी निमित्त आ रहे हैं।' रघुवीर चौधरी ने यह भी बताया कि वह नहीं रुकेंगे। मैंने कहा कि यह तो तीसरी मंजिल है। वात्स्यायन जी दिल की मरीज हैं। यहाँ तक कैसे चढ़ेंगे। मैंने कहा कि आप सीढ़ियाँ गिन लीजिए। उनसे नीचे ही पूछ लीजिएगा, तब ऊपर चढ़ने के लिए कहिएगा। वात्स्यायन जी का हवाई जहाज रात आठ बजे अहमदाबाद पहुँचने वाला था और मेरी गाड़ी ठीक उसी समय अहमदाबाद से छूटने वाली थी। मेरे मन में बार-बार आ रहा था कि मैं भी रुक जाऊँ और कल वात्स्यायन जी के साथ शमशेर जी को देखने चला चलूँ। मेरी पत्नी ने भी एक-दो बार कहा कि आप रुक जाइए, अज्ञेय जी से आपकी भेंट हो जाएगी। पर गुजरात से गोरखपुर को जाने वाली वह एक ही गाड़ी थी और उसमें इतनी भीड़ होती है कि गर्मियों में दो-तीन महीने पहले आरक्षण करा लेना पड़ता है। मैं सपत्नीक था और आगे आरक्षण की दिक्कत को ध्यान में रखकर मैंने जाने का ही फैसला किया। चलते समय मैंने रघुवीर भाई से कहा, 'वात्स्यायन जी को मेरा नमस्कार कह दीजिएगा'। मैं क्या जानता था कि वात्स्यायन जी के जीवनकाल में उनको संबोधित यह मेरा अंतिम नमस्कार होगा।
24 मार्च को मैं गोरखपुर पहुँचा। यहाँ आते ही तार और चिट्ठियाँ पड़ी थीं कि 26 मार्च को दिल्ली विश्वविद्यालय में एक मौखिक परीक्षा लेनी है, नहीं तो उस छात्रा को डिग्री नहीं मिलेगी। सो 26 मार्च को दिल्ली पहुँचा। 28 मार्च को फोन करने पर पता चला कि वात्स्यायन जी भोपाल गए हैं। मुलाकात का यह भी अवसर खाली गया। 30 मार्च को मैं गोरखपुर लौट आया। चार दिन बाद अर्थात् 4 अप्रैल को अपराह्न मालूम हुआ कि वात्स्यायन जी नहीं रहे। सहसा विश्वास नहीं हुआ। वात्स्यायन जी की अवस्था तो छिहत्तर वर्ष की हो चुकी थी। पर उनका स्वास्थ्य इतना अच्छा था कि यह खबर अत्यंत आकस्मिक लगी। स्थानीय रेडियो स्टेशन फोन करके पुष्टि की और रात में दिल्ली रवाना हो गया। 5 अप्रैल को दो बजे दिन में नई दिल्ली पहुँचा फिर तीनमूर्ति पर सामान रखकर अपने छोटे भाई राजेंद्र के साथ उसी स्कूटर से निगमबोध घाट। चार बजने में पंद्रह मिनट कम थे। वात्स्यायन जी का पार्थिव शरीर चिता पर रखा जा चुका था। ऊपर लकड़ियाँ सजा दी गई थीं। यह वात्स्यायन जी का अंतिम दर्शन था। ...तेज हवा में चिता धधक रही थी और अपने समय की न केवल सबसे बड़ी रचनात्मक प्रतिभा, बल्कि सबसे सुंदर काया भी जल रही थी। हम लोग आपसी बातचीत में कहा करते थे कि वात्स्यायन जी जिस दिन जिस शहर में होते हैं, उस दिन वहाँ उनके जैसे व्यक्तित्व कोई दूसरा नहीं होता। चार महानगरों को छोड़ दें तो भारत के अन्य किसी भी नगर में उनके जैसा बाह्य व्यक्तित्व भी किसी का दिखाई नहीं पड़ता था।
ठीक-ठीक याद नहीं है, पर यह संभवतः 1959 की बात है, जब मैंने अज्ञेय का उपन्यास - 'शेखर : एक जीवनी' पढ़ा था। तब मैं बी.ए. का छात्र था और मुझे वह उपन्यास पूरी तरह समझ में नहीं आया था। उसके बाद उनका 'नदी के द्वीप' पढ़ा। मेरे भीतर अज्ञेय की कृतियों के प्रति आकर्षण उनके उपन्यासों से ही पैदा हुआ। खास तौर से 'शेखर : एक जीवनी' से, जिसे दुबारा-तिबारा पढ़ा। आत्ममंथन, विचारों की गहराई, मानव मन की सूक्ष्मतम पकड़ और दुनियाभर के महान रचनाकारों की मूल्यवान पंक्तियाँ - पढ़ते हुए महसूस होता था कि अनुभव और विचार की एक उच्च भूमि पर पहुँच गया हूँ। पंक्तियों को गुनगुनाने की। लिखित भाषा का सबसे बड़ा प्रभाव यह होता है कि एक बार पढ़ने पर यह हो जाए। 'शेखर : एक जीवनी' की तमाम पंक्तियाँ मुझे तभी याद हो गई थीं और अब तक याद हैं। मन की रागात्मक भावनाओं को स्पर्श करने वाली, तारवाद्यों की झंकार लिए हुए वह एक अजीब भाषा थी - कम-से-कम उन दिनों मुझे वह ऐसी ही लगी। बाद में अज्ञेय की कविताएँ भी पढ़ीं। यह आकर्षण बढ़ता ही गया जिसका मुख्य कारण उन दिनों का साहित्यिक परिदृश्य था। उन दिनों जो अतुकांत नई कविता लिखी जा रही थी और जिस तरह की कविता मैं भी लिखना चाहता था, वह अज्ञेय काव्य-संकलनों में पढ़ने को मिलती थी। उनमें एक नवीनता थी और एक बौद्धिक गंभीरता। (यहाँ यह स्वीकार करना उपयुक्त होगा कि अज्ञेय के गद्य की तुलना में उनकी कविताएँ मुझे तब भी उतनी अच्छी नहीं लगी थीं और आज भी नहीं लगतीं।) अज्ञेय का नाम बड़ा था - बहुत चर्चित था। पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं में बार-बार पढ़ने को मिलता था। उनके प्रति एक सहज आकर्षण तभी से शुरू हो गया था और उनकी तब तक प्रकाशित लगभग सभी पुस्तकें मैंने एम.ए. पास करते-करते अर्थात 1961 तक पढ़ ली थीं।
गद्य साहित्य पर अपने शोधकार्य के सिलसिले में मैंने अज्ञेय की गद्य कृतियाँ - उपन्यास, कहानी, निबंध, यात्रा-संस्मरण आदि पुनः पढ़ीं। उन पर अलग से एक लेख भी लिखा, जिसका शीर्षक था 'भोगनेवाला मन और रचनेवाली मनीषा'। वात्स्यायन जी उन दिनों अमेरिका में थे। मैंने विद्यानिवास मिश्र से उनका पता लेकर वह लेख अमेरिका भेज दिया। वात्स्यायन जी का कोई उत्तर नहीं मिला, न वह लेख उस रूप में कभी छपा ही। बाद में उसका संशोधित रूप कई जगह प्रकाशित हुआ। यह अज्ञेय से संपर्क बढ़ाने और उनसे मिलने इच्छा थी, जो इस रूप में प्रकट हुई थी।
अज्ञेय से मेरी पहली मुलाकात कब और कहाँ हुई थी, इसकी ठीक-ठीक याद नहीं है। मेरी डायरी में उनसे मुलाकात की जो पहली तिथि अंकित है, वह हे 25 सितंबर, 1968। उस दिन लोक सेवा आयोग, दिल्ली में इंडियन को-ऑपरेशन मिशन, नेपाल के लिए लेक्चरर पद का एक साक्षात्कार था, जिसमें मैं एक अभ्यर्थी था। साक्षात्कार के बाद अज्ञेय जी से मिलने गया था, लेकिन उस मुलाकात की कोई स्मृति इस समय शेष नहीं है। इसके बाद मैंने अज्ञेय पर एक पुस्तक संपादित करने की योजना बनाई। कुछ लोगों ने सुझाब दिया कि ग्रंथ उनकी षष्टिपूर्ति के अवसर पर तो नहीं, पर बहुत बाद में प्रकाशित हुआ और एक अभिनंदन ग्रंथ के रूप में नहीं, बल्कि मूल्यांकन ग्रंथ के रूप में। इस ग्रंथ के संबंध में जब मैंने अज्ञेय जी को सूचित किया था जो अपने उत्तर में उन्होंने लिखा, ''षष्टिपूर्ति' का अवसर टल गया, अच्छा ही हुआ। आयु से जूझना भी तो व्यक्ति का निजी कर्म ही है, उसे सार्वजनिक रूप देना अच्छा नहीं लगता।' 8-4-71 को दिल्ली से लिखा गया यह मेरे नाम अज्ञेय का पहला पत्र था।
30 मार्च, 1972 को साहित्य अकादेमी का वार्षिक पुरस्कार वितरण समारोह था। इसी समारोह में नामवर सिंह को 'कविता के नए प्रतिमान' पर उस वर्ष का पुरस्कार मिला था। मैं उस दिन संयोग से दिल्ली में था। अकादमी दफ्तर में प्रभाकर माचवे और भारतभूषण अग्रवाल से मिला था। अज्ञेय संबंधी उपर्युक्त पुस्तक की चर्चा की, तो माचवे जी हिंदी की साहित्यिक गुटबंदी और अज्ञेय विरोध पर देर तक बोलते रहे। भारतभूषण अग्रवाल ने बताया कि मैं तो अज्ञेय पर एक पूरी पुस्तक लिखना चाहता हूँ। एक बार राजकमल प्रकाशन से अनुबंध भी हुआ था, पर जब वात्स्यायन जी को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने मुझसे कह दिया कि मैं उन पर कोई पुस्तक न लिखूँ। साहित्य अकादमी के पुरस्कार वितरण समारोह में वात्स्यायन जी भी थोड़ी देर के लिए आए थे और यदि मैं भूल नहीं करता तो उसी दिन मैंने उनके साथ इला डालमिया को पहली बार देखा था। उस दिन शीला संधू ने नामवर सिंह को पुरस्कार मिलने के उपलक्ष्य में अपने घर पर साहित्यकारों को रात्रि-भोज दिया था। इसमें वात्स्यायन जी भी आए थे और काफी देर तक रहे।
25 दिसंबर, 1974
मैं दिल्ली में था। अरुणेश नीरन और वागीश शुक्ल के साथ वात्स्यायन जी से मिलने गया। वहाँ उस दिन विद्यानिवास मिश्र भी ठहरे हुए थे। वात्स्यायन जी कोट-पैंट में निकले - अपनी मासूम मुसकराहट के साथ हम लोगों का स्वागत किया। उस दिन देर तक उनके साथ बहुत सारी बातें होती रहीं - अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य पर, समकालीन रचना पर, साहित्यिक गुटबंदियों पर, सरकारी तंत्र के बढ़ते हुए दबाव पर और इन सबके साथ उनके अपने रचनात्मक अनुभवों पर। प्रसंगवश वे कई आपबीती मनोरंजक घटनाएँ सुनाते रहे। इसी बीच विद्यानिवास जी से मैं वात्स्यायन जी के बारे में अपनी पुस्तक की चर्चा करने लगा। मैंने कहा कि इस पुस्तक का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन से होगा। वात्स्यायन ने बीच में टोककर पूछा, 'क्या यह बातचीत मेरे संबंध में लिखी जा रही पुस्तक के बारे में हो रही है?' मेरे हाँ करने पर वात्स्यायन जी ने कहा, 'मैं चाहूँगा कि मेरे बारे में लिखी गई पुस्तक छपने के लिए राजकमल को न दी जाए।' मैं चाहता था कि पूछूँ - 'क्यों? पर मैं जानता था और कई मित्रों से सुन चुका था कि वात्स्यायन जी अपने बारे में दूसरों को उतना ही जानने देते हैं, जितना खुद चाहते हैं। मैं चुप हो गया। एक बार दो वर्ष पूर्व ठीक इसी प्रकार की घटना का जिक्र भारतभूषण अग्रवाल ने मुझसे किया था। उस समय तो नहीं, पर पिछले कुछ वर्षों से यह संदेह मेरे मन में लगातार उठता रहा है कि क्या राजकमल प्रकाशन या उससे जुड़े हुए लोगों से वात्स्यायन जी का कोई व्यक्तिगत विरोध था? यदि 'हाँ' तो दूसरे पक्ष के मन में भी उनके प्रति ऐसा ही भाव होगा? वह कौन-सी बात है कि जिसने वात्स्यायन जी के मन को इतनी चोट पहुँचाई होगी? वह स्वयं वात्स्यायन जी की ओर से रही होगी या राजकमल पक्ष से? यह एक रहस्य है जिसकी छानबीन प्रबुद्ध पाठक और हिंदी साहित्यकार को करनी चाहिए। ऊपर से देखने पर यह एक नितांत निजी मामला दीखता है और इसका पता लगाना निहायत मूर्खतापूर्ण लगता है, पर अनुभव यह बताता है कि अपने देश में व्यक्तिगत विरोधों को सैद्धांतिक जामा पहनाकर पेश किया जाता है। अतः सच को जानने के लिए व्यक्तिगत राग-द्वेष को जानना बहुत जरूरी हो जाता है।
11 अक्टूबर, 1976
मैं हिंदी शिविर, जयपुर से लौटते हुए दिल्ली में दो-तीन दिन के लिए रुका था। हम लोग (मैं, परमानंद श्रीवास्तव, केदारनाथ सिंह और वागीश शुक्ल) जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में नामवर सिंह के कमरे में बैठे थे। मैंने केदार जी से धीरे-धीरे कहा कि वात्स्यायन जी को फोन करना है। किताब के लिए उनका एक इंटरव्यू लेना है। केदार जी ने मजाकिया अंदाज में नामवर जी से पूछा, 'बाइ द वे, नामवर जी, आपका फोन क्या वात्स्यायन जी से मिलता है?' नामवर जी ने मुसकुराते हुए कहा, 'देखिए, कोशिश करता हूँ।' उन्होंने फोन मिलाकर फोन मेरे हाथ में थमा दिया। मैंने वात्स्यायन जी से मिलने और बातचीत के लिए समय माँगा तो उन्होंने तुरंत बुला लिया। उस वक्त दिन के लगभग बारह बजे थे और हममें से किसी ने भोजन नहीं किया था। मैंने टैक्सी ली और हम सभी लोग उनके निवास स्थान गोल्फलिंक्स पहुँचे। बातचीत लगभग डेढ़-दो घंटे चली। सभी लोग बातचीत में शामिल रहे। वात्स्यायन जी सबके प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों का उत्तर देते रहे। यह साक्षात्कार बाद में संशोधित और परिवर्द्धित रूप में एक-दो पुस्तकों में प्रकाशित हो चुका है। बातचीत के बीच में अज्ञेय जी सबके लिए चाय लेकर आए तथा कुछ और खाने के बारे में पूछा। केदार जी ने सहज भाव से कह दिया कि हम लोगों ने अभी खाना नहीं खाया है। वात्स्यायन जी की मुद्रा कुछ दयनीय हो गई। असल में उस समय उनके बँगले पर कोई नहीं था। ड्राइवर भी नहीं था कि बाहर से कुछ मँगाते। वे एकदम अकेले थे। नौकर भी कहीं बाहर गया था। हम लोग इस स्थिति से वाकिफ नहीं थे। वात्स्यायन जी फ्रिज से दूध में भिगोया कुछ तालमखाना लेकर आए। हम लोगों को थोड़ा-थोड़ा दिया। उस समय की स्थिति जानकर हम लोगों की मुद्रा स्वयं दयनीय हो गई।
वात्स्यायन जी से मेरी पहली भेंट संभवतः 1968 में हुई थी या संभव है, इससे एक-दो वर्ष पहले। 1976 तक पहुँचते-पहुँचते यह संबंध ऐसा हो गया था कि जब भी गोरखपुर या कुशीनगर आते, मेरे अनुरोध पर मेरे घर भी अज्ञेय अवश्य पहुँचते। 30 जनवरी, 1977 को वह पहली बार मेरे घर आए थे। एक दिन पहले उन्हें कुशीनगर कॉलेज में दीक्षांत भाषण करना था, उसी सिलसिले में आए थे। वात्स्यायन जी काफी दिनों बाद गोरखपुर आए थे, अतः उन्हें देखने और सुनने के लिए काफी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। मेरे ड्राइंगरूम में जगह नहीं थी कुछ लोग बरामदे में खड़े थे और कुछ लोग सड़क पर। भीड़ को देखकर मैं परेशान था। मेरे एक मित्र ने कहा, 'आप इतने परेशान क्यों है?' वात्स्यायन जी का स्वागत करते हुए मैंने जवाब दिया, 'लोगों के घर राज्यपाल और मुख्यमंत्री जाते हैं, तो लोग व्यस्त और परेशान दिखते हैं। मेरे लिए तो वात्स्यायन जी राज्यपाल और मंत्रीगण से बहुत बड़े हैं। अतः मेरी हड़बड़ाहट स्वाभाविक है।' इस गोष्ठी में नगर के साहित्य-प्रेमियों के अतिरिक्त विभिन्न अनुशासनों के लगभग सभी विद्वान उपस्थित थे। विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, इतिहास, प्राचीन इतिहास, राजनीतिशस्त्र आदि विषयों के विभागाध्यक्ष और विद्यानिवास मिश्र आदि। गोष्ठी में वात्स्यायन जी ने 'भारतीय अस्मिता और काल' विषय पर अपना गंभीर वक्तव्य दिया और फिर विद्वानों के प्रश्न का उत्तर भी। 30 जुलाई, 1977 को जब अगली बार वात्स्यायन जी गोरखपुर आए तो उन्होंने मेरे निवास पर आयोजित एक गोष्ठी में अपनी प्रसिद्ध कविता 'असाध्य वीणा' का पाठ किया। बीच में बिजली चली गई तो मोमबत्ती का प्रबंध किया गया और उन्होंने मोमबत्ती की रोशनी में पूरी कविता पढ़ी। इस गोष्ठी में विद्यानिवास जी और डॉ. रघुवंश भी उपस्थित थे।
27 मार्च, 1978
ग्यारह बजे दिन में मेरी कॉलबेल बजी और जब मैंने दरवाजा खोला तो देखता हूँ, वात्स्यायन जी खड़े हैं - हाथ में एक ब्रीफकेस लिए हुए। मैं अवाक्। वह हवाई अड्डे से रिक्शे द्वारा सीधे मेरे घर पहुँचे थे। जैसा सभी शहरों में होता है, यहाँ भी हवाई अड्डा शहर से बाहर है और मेरे घर से छः किलोमीटर दूर। अज्ञेय जी को जितना समय दिल्ली से गोरखपुर आने में लगा लगभग उतना ही हवाई अड्डे से मेरे घर पहुँचने में। दरअसल यह गड़बड़ी इसलिए हुई कि हम लोग अगले दिन उनके आने की आशा कर रहे थे। यहाँ 'भाषा और समाज' शीर्षक संगोष्ठी में उन्हें भाग लेना था। उन्होंने हम लोगों को तार दिया था, लेकिन वह समय से नही मिला। इसलिए कोई हवाई अड्डे नहीं गया। वात्स्यायन जी ने उतरकर पहले फोन करना चाहा और मेरा नंबर पूछा। एक्सचेंज वालों ने एक गलत नंबर भी बता दिया क्योंकि मेरे यहाँ तब फोन था ही नहीं। वह काफी देर संपर्क करने की कोशिश करते रहे और अंत में हारकर रिक्शे पर बैठ गए। रास्ता उनका देखा हुआ था, अतः कोई असुविधा नहीं हुई, पर मेरे यहाँ उन्हें जो असुविधा हुई उसके लिए आज भी सोचता हूँ तो न केवल तकलीफ होती है, बल्कि अपनी मूर्खता पर गुस्सा आता है। वह भोजन का समय था। वात्स्यायन जी ने मेरे साथ ही भोजन किया। वही सादा भोजन जो हम रोज करते हैं। मेरी अक्ल उस समय कहाँ चली गई थी कि मैंने उनके लिए कुछ विशेष भोजन की व्यवस्था नहीं की! फिर वे एक सोफा पर बैठ गए और लगभग पाँच घंटे उसी पर बैठे रहे। भोजन के बाद मैंने उनके आराम की व्यवस्था क्यों नहीं की, यह सोचता हूँ तो अपने को आज भी क्षमा नहीं कर पाता। दरअसल इस रूप में उनके अचानक पहुँच जाने से मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया था। वात्स्यायन जी मितभाषी प्रसिद्ध हैं। मैं सोच नहीं पा रहा था कि उनसे क्या-क्या बातें करूँ। गोष्ठी अगले दिन होनी थी और उस दिन का पूरा समय खाली था। उनसे कोई व्यक्तिगत बात की नहीं जा सकती थी क्योंकि वे दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में घुसते थे और न ही अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी को घुसने देना चाहते थे। उनके सामने लंतरानियाँ झाड़ी नहीं जा सकती थीं क्योंकि मौन का एक अभेद्य कवच वे लगाए रहते थे। उनके सामने पर निंदा पुराण सुनाया नहीं जा सकता था क्योंकि वे निजी चर्चा को एक प्रकार की अश्लीलता मानते थे और केवल हलकी मुस्कराहट मात्र से उसका उत्तर देते थे। कहा जा सकता है कि उनके व्यक्तित्व के अनेक आकर्षणों में गोपनीयता का भी एक आकर्षण था। वात्स्यायन जी ने अगले दिन की गोष्ठी के बारे में कुछ बातें कीं फिर चुप हो गए। कुछ देर बाद बोले, 'यहाँ कोई ताल है?' मैंने बताया कि 'बीस-पच्चीस किलोमीटर पर एक बड़ा सा ताल है।' उन्होंने पूछा, 'क्या वहाँ पक्षी आते हैं?' मैंने बताया कि 'आते तो होंगे, पर मैं वहाँ एक ही बार गया हूँ, ठीक से बता नहीं सकता कि इस समय स्थिति क्या है!' फिर उन्होंने मिट्टी की मूर्तियाँ बनानेवाले कुम्हार के बारे में पूछा और उसके घर चलने की इच्छा व्यक्त की। मैंने एक जीप मँगाई और उनको लेकर विद्यानिवास मिश्र के घर गया जो अगले दिन के समारोह के लिए तब तक आगरा से यहाँ पहुँच गए थे। फिर हम लोग उस कुम्हार के गाँव गए। वहाँ वात्स्यायन जी ने मिट्टी की मूर्तियाँ खरीदीं। इस यात्रा में उन्होंने अपनी पुस्तक 'संवत्सर' की एक प्रति भी मुझे भेंट की।
मई 78
शिमला जाते हुए मैं दिल्ली में दो-तीन दिन रुका था। तब वात्स्यायन जी नवभारत टाइम्स के संपादक थे। उनसे एक दिन दफ्तर में मिला था और कह दिया था कि कल-परसों में घर पर आऊँगा। 31 मई को सायंकाल उनके निवास पर पहुँचा। मेरे साथ गोरखपुर के ही एक युवक अरुण कुमार भी थे। कॉलबेल बजाया तो इला जी निकलीं। वे मुझे पहचानती थीं। उन्होंने बैठाया और कहा, 'जब से वात्स्यायन जी ने नवभारत टाइम्स का कार्य शुरू किया तब से उन से पर कार्य बोझ बहुत हो गया है। वे अभी अभी आए हैं। कॉलबेल की आवाज सुनकर उन्होंने कहा है, यदि विश्वनाथ जी हों तो बैठाइए, और कोई हो तो कह दीजिए घर में नहीं हैं।' मैं अपने ऊपर वात्स्यायन जी की इस कृपा से गौरवान्वित हुआ। वैसे इस कृपा का मुख्य कारण यही रहा होगा कि मैंने उनसे पहले ही घर पर मिलने के लिए कह दिया था। थोड़ी देर बाद वात्स्यायन जी निकले - श्वेत कुरते-पाजामे में। उनके शरीर पर कोई भी पोशाक बहुत खिलती थी और किसी भी पहनावे में वे सुरुचि और आभिजात्य की विशिष्ट मूर्ति लगते थे। उनके उठने-बैठने, खाने-पीने सब में एक सलीका दिखाई पड़ता था। कमरे की सजावट से लेकर आसपास की सारी चीजों तक में उनकी सुरुचि की छाप होती थी। उस दिन यद्यपि वह थके थे फिर भी दो घंटे तक बहुत सारी बातें होती रहीं। मुझे दो-तीन दिन बाद शिमला जाना था, अतः इस प्रसंग में 'पहाड़' की भी चर्चा शुरू हुई। वात्स्यायन जी को 'सागर' बहुत प्रिय था। उनकी कविताओं और अन्य रचनाओं में 'सागर' बार-बार आता है। एक जगह उन्होंने लिखा है कि मनोवैज्ञानिकों के अनुसार जो सागर को प्यार करता है वह मृत्यु को प्यार करता है। मैंने वात्स्यायन जी को पूछा कि पहाड़ को प्यार करनेवाले व्यक्ति का मनोविज्ञान क्या हो सकता है? क्या पहाड़ को प्यार करने वाला व्यक्ति महत्वाकांक्षी होता है? वे मेरी इस व्याख्या से सहमत नहीं हुए। फिर कविता के मूल्यांकन को लेकर चर्चा हुई कि उसके मूल्यांकन का क्या आधार होना चाहिए। फिर कविता के पाठ और उसके अध्यापन की समस्या पर भी बातचीत हुई। मैंने उन्हें एक कैसेट दिया था उनकी कविताओं और गद्य -रचनाओं को रिकार्ड करने के लिए। उन्होंने उसे जल्दी रिकार्ड करके भेजने को कहा, लेकिन शर्त यह लगाई कि किसी दूसरे व्यक्ति को उसे पुनः रिकार्ड करने न दूँ। हाँ, सुना सकता हूँ।
6 मार्च, 1980
अपने सत्तरवें जन्मदिन पर कुशीनगर जाते हुए वात्स्यायन जी गोरखपुर पहुँचे थे। मुझे उसी दिन उनका पत्र मिला था। सायं काल विश्वविद्यालय अतिथिगृह पहुँचा। अज्ञेय जी आ गए थे। उनसे दूसरे दिन के कार्यक्रम की चर्चा हुई। मेरे अनुरोध पर उन्होंने देवरिया जिला पत्रकार संघ के उद्घाटन के लिए समय दिया था। उद्घाटन के बाद देवरिया से वे कुशीनगर आए, जहाँ अपराह्न उनका जन्मदिन समारोह मनाया गया। एक छोटी सी कवि-गोष्ठी भी हुई। समारोह की अध्यक्षता पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने की। इस अवसर पर अज्ञेय जी की बड़ी बहन, इला डालमिया, लोठार लुत्से, विद्यानिवास मिश्र, भवानीप्रसाद मिश्र, जगदीश गुप्त, केदारनाथ सिंह, रामकमल राय आदि बाहर से आए थे। बाहर से आए लोगों के हाथों अज्ञेय की जन्मभूमि पर पाँच वृक्ष भी लगाए गए। मैंने लक्ष्य किया कि अज्ञेय जी अपने संकोची स्वभाव के विपरीत जन्मदिन समारोह में बहुत रुचि ले रहे थे। बच्चों की तरह। उन्होंने कई चित्र खींचे और खिंचवाए। भवानी भाई को खुद ही पकड़कर ले गए और जन्मस्थान पर उनके साथ चित्र खिंचवाया। मैंने कई अवसरों पर यह लक्ष्य किया है कि अज्ञेय के व्यक्तिव्त में एक ओर, यदि गंभीर मौन, संकोच और तटस्थता या रिजर्वेशन था तो दूसरी ओर, एक बालसुलभ उत्साह और चापल्य भी।
वात्स्यायन जी के निधन पर जब रेडियो बार-बार बोलता था कि वह देवरिया जिले के कसया नामक स्थान पर पैदा हुए थे तो खुद भी देवरिया जिले का होने के नाते मुझे लगता था, वे देवरिया जिले को गौरवान्वित कर रहे हैं। यह तो महज संयोग था कि देवरिया जिले में उनका जन्म हो गया था। उनके पुरातत्वविद् पिता उस समय बुद्ध के महापरिनिर्वाण स्थल कुशीनगर की खुदाई करा रहे थे और यहीं एक कैंप में वात्स्यायन जी का जन्म हुआ था। जिस दिन उनका जन्म हुआ था, उसी दिन यहाँ खुदाई में बुद्ध की एक महत्वपूर्ण प्रतिमा मिली थी, जिसे यहाँ के स्थानीय लोग 'माथाकुँअर' कहते हैं और इस अंचल के रहनेवाले लोग जानते है कि यहाँ आसपास के ग्रामीण इलाके में कुशीनगर को भी 'माथाकुँअर' के ही नाम से जाना जाता है। कुशीनगर में बुद्धपूर्णिमा को जो मेला लगता है उसे भी यहाँ के ग्रामीण लोग 'माथाकुँअर' का मेला कहते हैं। अपने जन्मस्थान कुशीनगर से वात्स्यायन जी का बहुत ही लगाव था। जब भी अवसर मिलता, वे वहाँ जाने का कार्यक्रम बला लेते थे। इसके पीछे शायद यह भी मनोवैज्ञानिक रहस्य हो कि वात्स्यायन जी ने कोई घर नहीं बनाया।
जीवन भर परिवार से दूर रहे, बार-बार घर बदलते रहे। अनवरत यात्राएँ करते रहे। परिणामतः अपनी कविताओं में 'स्थूल घर' की तुलना में 'सूक्ष्म घर' को महत्व देते रहे। पर घर की चर्चा तो करते ही रहे। उनके आखिरी काव्य संग्रह का शीर्षक है - 'ऐसा कोई घर आपने देखा है?' इस संग्रह की 'घर' शीर्षक कविता में वे लिखते हैं - 'घर / मेरा / कोई है नहीं / घर मुझे चाहिए / घर के भीतर प्रकाश हो / इसकी भी मुझे चिंता नहीं है / प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो - / इसी की मुझे तलाश है।' वात्स्यायन जी ने अपने अंतिम दिनों में एक घर बनाया भी तो उसमें प्रवेश नहीं कर सके। जिस दिन उस घर में प्रवेश करनेवाले थे, उसी दिन प्रातः उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे उस सूक्ष्म घर में जाने के लिए मजबूर हुए, जहाँ से फिर कोई लौटता नहीं है। 5 अप्रैल को निगमबोध घाट पर उन्हें अंतिम प्रणाम करके अगले दिन जब मैं उनके निवास पर गया तो मैंने उनका वह घर देखा, जिसे उन्होंने एक नीम के पेड़ पर बनाया था। वह लकड़ी का एक कमरा था जिसमें दीवारों की जगह तार की जाली लगी थी और दरवाजा भी तारों की जाली का। नीचे लकड़ी की फर्श और ऊपर लकड़ी की एक तिकोनी छाजन। चढ़ने के लिए लोहे की पाइप से बनी सीढ़ी। यह हवामहल उन्होंने अपने बंगले में व्यर्थ पड़े सामानों को जोड़कर खड़ा कर लिया था। इसका शिल्प उन्होंने स्वयं तैयार किया था। प्रसंगवश यहाँ उल्लेखनीय है कि वात्स्यायन जी केवल शब्दशिल्पी नहीं थे। कपड़े सिलने, जूते गाँठने और चटाई बुनने से लेकर चित्रकारी-फोटोग्राफी और बम बनाने तक उनके तकनीकी रूप को देखकर कोई भी व्यक्ति हैरत में पड़ जाएगा। 'आत्मनेपद' में उन्होंने उन तमाम कलाओं की चर्चा की है, जिनमें उनकी दिलचस्पी थी। उनके 'हवामहल' को देखते हुए मुझे उन्हीं की कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही थीं - 'सुनो मैंने कहीं हवाओं को बाँधकर / एक घर बनाया है / फूलों की गंध से उसकी दीवारों पर / मैं तुम्हारा नाम लिखता हूँ / हर वसंत में।' गुजरे जमाने में एक और बड़े शायर ने 'बे दरो-दीवार का एक घर' बनाने की चाह की थी। वात्स्यायन जी के हवामहल को देखकर बहुत इच्छा हुई कि उस पर चढ़ूँ, पर एक तो वह अवसर नहीं था और दूसरे उस मनहूस घर की सीढ़ियों को छूने से भी डर लगता था।
5 फरवरी, 83
फिर पीछे की ओर लौटता हूँ। वात्स्यायन जी 'जय जानकी जीवन यात्रा' करते हुए 3 फरवरी को कुशीनगर पहुँचे थे। वहाँ से गोरखपुर सूचना कार्यालय में भगवतीशरण सिंह का फोन आया कि अगले दिन अज्ञेय जी गोरखपुर पहुँचेंगे और मुझसे मिलना चाहते हैं। दूसरे दिन पता चला कि गोरखपुर पहुँच गए हैं, पर कई जगह फोन करने के बाद भी उनका पता नहीं चला। रात नौ बजे भगवतीशरण सिंह ने फोन पर बताया कि वात्स्यायन जी आपके स्वास्थ्य के बारे में चिंतित हैं और कई बार कह चुके कि आपके यहाँ जाना चाहते हैं। वे इसी समय जानेवाले थे, लेकिन गाड़ी खराब होने से न जा सके। कल सुबह आपके यहाँ पहुँचेंगे। उन दिनों पैर की हड्डी टूट जाने के कारण मैं पचहत्तर दिनों तक अस्पताल में था। अभी हाल ही में घर आया था और बैसाखी के सहारे घर के भीतर ही चल-फिर रहा था। वात्स्यायन जी सुबह पहुँचे। साथ में इला डालमिया, लक्ष्मीकांत वर्मा, शंकरदयाल सिंह, भगवतीशरण सिंह और ओ.पी. शर्मा भी थे। वे बारह बजे दिन तक मेरे यहाँ बैठे रहे। मेरी जिज्ञासा पर अपनी यात्रा के कुछ संस्मरण भी सुनाए। वे लुंबिनी होकर लौटना चाहते थे, पर रास्ता खराब होने के कारण उसी दिन यहाँ से फैजाबाद होते हुए दिल्ली के लिए रवाना हो गए। इस बार वात्स्यायन जी का अपने घर आना मुझे कुछ आश्चर्यजनक लगा क्योंकि इसके पहले मैं कई बार दिल्ली गया था, लेकिन उनसे नहीं मिला था। मेरे दिल्ली जाने की खबर उन्हें न हो, यह संभव नहीं है। उनके जैसे संवेदनशील व्यक्ति को 'फील' करने के लिए इतना कम नहीं था। लेकिन फिर भी वात्स्यायन जी आए। यह उनकी शालीनता और महानता है। वे न केवल आए, बल्कि उनके कई साथी जो गोरखनाथ मंदिर जाना चाहते थे, उनसे उन्होंने कहा, 'आप लोग गोरखनाथ, मैं विश्वनाथ।' अर्थात् आप लोग गोरखनाथ जाइए और मैं विश्वनाथ जी के पास जाऊँगा। और सचमुच वे गोरखनाथ नहीं गए। मेरे यहाँ बैठे रहे। जबकि मेरे ही घर से इला जी, शंकरदयाल सिंह आदि गोरखनाथ मंदिर गए। यह सहज मनुष्यता वात्स्यायन जी के स्वभाव की विशेषता थी। इसके बारे में मैं कई लोगों से सुन चुका हूँ और स्वयं देख चुका हूँ। रेणु जब बीमार थे तो वात्स्यायन जी सिर्फ उन्हें देखने के लिए पटना गए थे। मरने के दस दिन पहले वह सिर्फ शमशेर बहादुर सिंह को देखने सुरेंद्रनगर गए थे। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिनसे उनके निकट के लोग वाकिफ हैं। वात्स्यायन जी अपने परिचितों के दुर्दिन में जरूर पहुँचे थे और यथासंभव उनकी सहायता भी करते थे। उनके इस मानवीय गुण पर उन लोगों का गौर करना चाहिए जो शब्द में तो जुड़ाव और लगाव की बात करते हैं, पर कर्म में इसका साक्ष्य नहीं प्रस्तुत करते।
17 अक्तूबर, 83
मैं दिल्ली में था। सायं काल अपने एक सहयोगी चित्तरंजन मिश्र के साथ उनके निवास पर मिलने गया। वे युगोस्लाविया का प्रसिद्ध स्वर्णमाल पुरस्कार प्राप्त कर 19 अक्तूबर को वहाँ से लौटे थे। बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने युगोस्लाविया के पुराने गिरजाघर में तथा झील के पुल पर हुए काव्यपाठ समारोह का विस्तार से पूरा वर्णन किया। इस अवसर पर जो पुस्तक प्रकाशित हुई थी उसे भी दिखाया। बहुत ही सुंदर कागज पर छपी हुई नायाब पुस्तक, जिसमें उनकी कविताएँ एक ओर हिंदी में छपी थीं और दूसरी ओर उनके अनुवाद मक्दूनी भाषा में। उन्होंने वह स्वर्णमाल भी दिखाया, जो उन्हें पुरस्कार रूप में प्राप्त हुआ था। उन्होंने और इला जी ने बड़े स्नेह से जलपान कराया - गुलाब जामुन, केक, मठरी आदि। केक वह स्वयं काटकर दे रहे थे। चलते समय पूछा, 'आप कहाँ रुके हैं?' मैंने बताया, 'मंडी हाउस।' बोले, 'आप लोगों को यहाँ से जाने में भटकना पड़ेगा।' उन्होंने अपनी गाड़ी से मंडी हाउस छोड़वाया। यह उनका अत्यंत सहज रूप था। दूसरों को सम्मान देनेवाला रूप। वात्स्यायन जी जितने ही स्नाब थे, उतने ही विनम्र। किसके साथ क्या प्रदर्शित करना है, इसे वे बहुत अच्छी तरह जानते थे। अपने से छोटों के सामने विनम्र, बड़ों के सामने तने हुए। उन्हीं की एक कविता की दो पंक्तियाँ हैं :
मैं सभी ओर से खुला हूँ
वन सा, वन-सा अपने में बंद हूँ।
प्रसंगवश एक घटना सुना दूँ। बात 10 मई, 1975 की है वे प्रांतीय हिंदी सम्मेलन, बस्ती की अध्यक्षता के लिए आए थे। इस अवसर पर 'समकालीन हिंदी कविता' विषय पर एक विचार गोष्ठी भी आयोजित थी, जिसमें विषय प्रवर्तन करना था। ज्योंही यह गोष्ठी समाप्त हुई, उसी मंच से पं. कमलापति त्रिपाठी को भाषण देना था। त्रिपाठी जी ज्यों ही मंच पर आए, अज्ञेय जी उठ गए। त्रिपाठी जी ने बड़ी विनम्रता से अनुरोध करते हुए अज्ञेय जी को बैठाना चाहा। उन्होंने कहा, 'अज्ञेय जी, आपके दर्शन नहीं होते। बैठिए।' पर अज्ञेय जी क्षमा माँगकर वहाँ से तुरंत चल दिए। उनके निकट के लोगों के पास ऐसे सैकड़ों सस्मरण होंगे। गोरखपुर में दो बार तो मैंने ही देखा है, रेडियोवाले उनसे बार-बार चिरौरी करते रहे कि अपनी कुछ कविताएँ रिकार्ड करा दें, पर उन्होंने मना कर दिया। एक बार जब वे कुशीनगर से लौटते हुए गोरखपुर में थे तो हम लोगों ने विश्वविद्यालय में काव्यपाठ के लिए आग्रह किया, पर वे तैयार न हुए। और वहीं मेरे घर पर मोमबत्ती की रोशनी में पूरी 'असाध्य वीणा' कविता का पाठ किया। उन्होंने अपने जीवन में जितनी नौकरियाँ छोड़ी, उनमें से किसी भी एक को पाकर कोई अपने को धन्य समझेगा। वात्स्यायन जी ने कभी सत्ता की चापलूसी नहीं की, न शब्द में, न कर्म में। एक स्वतंत्र, स्वाभिमानी लेखक के रूप में जो उचित समझा, वहीं लिखा। आपातकाल में बराबर सत्ता का विरोध करते रहे। आपातकाल के अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था, 'इस समय देश की प्रवृत्ति अनुशासन पर जोर देने की है। जो कह दिया उसे मान लेना अनुशासन है। क्या सोचना अनुशासन नहीं है? जो देश या समाज स्वतंत्र ढंग से सोच नहीं सकता, वह स्वतंत्र नहीं हो सकता।' स्वाधीनता को जीवन का मूल्य स्वीकार करने वाले वात्स्यायन जी अपनी शर्तों पर जिए और अपनी ही शर्तों पर मरे। जितना शानदार रहा उनका जीवन, उतनी ही शानदार मिली उन्हें मौत।
20 सितंबर, 84 को साहित्य अकादमी, दिल्ली में मेरा काव्यपाठ था। दिल्ली के लगभग पचास साहित्यकार श्रोता उपस्थित थे। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ यह देखकर कि वात्स्यायन जी भी श्रोताओं में बैठे थे। काव्यपाठ समाप्त होने के बाद जब मैं मिला तो बोले, 'आज अखबार में आपका कार्यक्रम पढ़ा था। गाड़ी नहीं थी। टैक्सी लेकर आया। मेरे भाई अस्पताल में भरती हैं, वहीं से सीधे आ रहा हूँ।' मैं बार-बार सोचता रहा हूँ कि वात्स्यायन जी के मुझ पर स्नेह का क्या कारण हो सकता है? उनके प्रति अपने व्यवहार का विश्लेषण करते हुए पाता हूँ कि मैंने कभी उन्हें उतना आदर नहीं दिया, जितने के वे अधिकारी थे। मैं प्रायः दिल्ली जाता था और उनसे नहीं मिलता था। अपनी दिल्ली यात्राओं में मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जरूर जाता था और या तो वहीं केदार जी के घर ठहरता था या उसी विश्वविद्यालय के गोमती गेस्ट हाउस में। जब वात्स्यायन जी पूछते कि आप कहाँ रुके हैं तो उन्हें बता भी देता था। 'दस्तावेज' का पहला विशेष अंक मैंने जिस जीवित साहित्यकार पर केंद्रित किया वह रामविलास शर्मा हैं। जब वात्स्यायन जी से उन पर अंक केंद्रित करने की चर्चा की तो उन्होंने पूछा, 'और किस-किस पर अंक केंद्रित करने की योजना है?' मैंने जिन कुछ लोगों का नाम लिया उनमें नामवर सिंह का नाम भी था। फरवरी, 1982 में आबू (राजस्थान) के वत्सलनिधि लेखक शिविर में वात्स्यायन जी ने मुझे आमंत्रित किया था। मैं दिल्ली तक गया था, लेकिन वहीं से लौट आया। उनसे मिला भी नहीं और लेखक शिविर में भी नहीं गया। अगस्त 1986 में वत्सलनिधि की ओर से वाराणसी में मैथिलीशरण गुप्त पर एक आयोजन था, जिसमें मुझे पर्चा पढ़ना था और एक गोष्ठी का संचालन भी करना था। लेकिन मैं उसमें नहीं गया और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक मौखिक परीक्षा लेने चला गया। तात्पर्य यह कि मेरे व्यवहार में वात्स्यायन जी को नाराज करने के लिए काफी सामग्री थी और मैंने उनके प्रति किसी प्रकार का अतिरिक्त आदर भाव या भक्ति नहीं प्रदर्शित की। उनसे कभी किसी काम के लिए नहीं कहा। अपना एक तटस्थ और स्वतंत्र रूप बनाए रहा। मिलता था तो यों ही एक सहज साहित्यिक लगाव से और जब भी मिलता था, उनके घोषित विरोधी लेखकों की भी चर्चा करता था। लेकिन वात्स्यायन जी ने इसका कभी बुरा नहीं माना। यह सही है कि उन्होंने मुझे अपना अंतरंग नहीं माना। मेरे साथ कोई अतिरिक्त लगाव नहीं जाहिर होने दिया, न अपने को ज्यादा खोला। यहाँ तक कि 'दस्तावेज' को कभी अपनी रचनाएँ भी नहीं भेजीं। पर मुझे अपने सहज स्नेह का पात्र जरूर स्वीकार किया और जितना नहीं किया, उसके लिए शायद मैं ही जिम्मेदार हूँ।
वात्स्यायन जी से इतनी ही मुलाकातें नहीं हैं, जितनी ऊपर चर्चा की है। पिछले बीस वर्षों में अनेक बार गोष्ठियों-यात्राओं आदि में भेंट होती रही है। यहाँ केवल दो प्रसंगों की चर्चा और करना चाहूँगा। एक, जब वे आखिरी बार मेरे घर आए थे और दूसरा जब आखिरी बार उनसे मेरी मुलाकात हुई थी।
3 सितंबर, 86 को दिल्ली से उनका पत्र मिला था, जिसमें उन्होंने बाल्मीकिनगर में होने वाले वत्सलनिधि के सातवें लेखक शिविर में मुझे आमंत्रित किया था। उसके बाद वह जर्मनी चले गए थे और बीच में कोई पत्र व्यवहार नहीं हुआ। मैंने शिविर में जाने की स्वीकृति तो भेज दी थी, पर बीच में लगातार पेट की गड़बड़ी से अस्वस्थ था और न जाने का फैसला ले चुका था। लेकिन जब वात्स्यायन जी इला जी के साथ गोरखपुर (बाल्मीकि नगर का रास्ता गोरखपुर से होकर जाता है) पहुँच गए तो संकोच में जाना ही उपयुक्त समझा। इसके पूर्व वाराणसी में वत्स्यलनिधि के मैथिलीशरण गुप्त समारोह में भी नहीं गया था। अबकी अगर नहीं जाता तो स्वाथाविक रूप से समझा जाता कि मैं पेट गड़बड़ी का बहाना बनाकर उनकी उपेक्षा कर रहा हूँ। यह सब सोचकर अस्वस्थ होते हुए भी बाल्मीकिनगर गया। अब उनके न रहने के बाद सोचता हूँ कि यदि उनका यह आखिरी निमंत्रण अस्वीकार कर देता तो बाद में अपने को अपराधी महसूस करता।
वात्स्यायन जी के चुनाव का जवाब नहीं होता। कोई-न-कोई विशिष्टता उनके चुनाव में जरूर दिखाई जाएगी। इस छोटे से निर्जन स्थान के चुनाव में भी उनके शांतिप्रेमी व्यक्तित्व का परिचय मिल जाता हे। यहाँ नदी भी है, पहाड़ भी, जंगल भी। तीनों का शांत, शालीन रूप। नहीं जिसे यहाँ 'बड़ी गंडक', 'नारायणी', 'शालिग्राम', 'तुलसी' आदि कई नामों से पुकारा जाता है और जिसका पुराना नाम 'सदानीरा' है (इसी नाम से वात्स्यायन जी की संपूर्ण कविताएँ दो खंडों में प्रकाशित हुई हैं।) यहाँ बहुत ही मस्ती के साथ बहती है - पुराने कवियों की गजगामिनी नायिका-सी। पहाड़ भी बहुत निकट नहीं है यहाँ, लेकिन किरणों में हिमालय का प्रसिद्ध धौलागिरी श्रृंग चमकता रहता है दिनभर। जंगल भी प्रायः खामोश जंगल है, लेकिन प्रातःकालीन हवा जब वृक्षों और पत्तियों से होकर गुजरती है तो एक बहुत ही मंद, मीठा, आनंददायक शोर कानों को सुकून देता है। सायंकाल यहाँ का विराट परिदृश्य, क्षितिज पर नदी-जल में डूबता हुआ सूरज और धीरे-धीरे घिरती हुई साँझ आकर्षित करती है।
वत्सलनिधि के इस लेखक शिविर में चर्चा का केंद्रीय विषय था - 'पुराण, विज्ञान और रचनात्मक साहित्य', जिस पर लगातार सात दिनों तक मूल्यवान चर्चा होती रही। शिविर के लेखकों के प्रति वात्स्यायन जी का व्यवहार बहुत ही आत्मीय था। वे उनकी सुख-सुविधाओं का बराबर खयाल रखते थे। समय के वे इतने पाबंद थे कि जिस समय पर जो कार्यक्रम होता था, ठीक उस समय से पाँच-दस मिनट पहले वात्स्यायन ही वहाँ उपस्थित। प्रायः रोज ही ऐसा हाता कि अभी मैं स्नान आदि की प्रक्रिया में हूँ कि वात्स्यायन जी तैयार होकर मेरे कमरे के दरवाजे पर खड़े दिख जाते। उनके भीतर एक गंभीर अनुशासन था। उनकी उपस्थिति में हर गोष्ठी में एक गंभीरता बनी रहती थी। लफ्फाजी वहाँ नहीं चल सकती थी। वात्स्यायन जी चीजों पर गंभीरता से विचार करते, धीरे-धीरे बोलते, कम बोलते और विचारों को पचाकर स्पष्ट ढंग से प्रस्तुत करते। उनके वाक्य विन्यास, उनकी प्रस्तुति और सोच में एक नवीनता की चमक बराबर दिखाई पड़ती थी। तार्किक इतने थे कि बहसों में पूछे गए प्रश्नों को ही उलटकर उत्तर बना देते थे। मैंने देखा, पूरे शिविर में उन्होंने किसी वक्ता पर अपने को लादने की कोशिश नहीं कि, न किसी की बात में कोई हस्तक्षेप किया। बराबर सुनते रहे और जब उनसे अनुरोध किया जाता, तभी बोलते या बहुत जरूरी समझते तभी कुछ कहते। किसी प्रकार के गुस्से या आक्रमण की कोई मुद्रा नहीं। हमेशा एक बड़े लेखक की गरिमा के अनुकूल बोलना और व्यावहार करना वात्स्यायन जी को अन्य तमाम लेखकों से अलग करता था। दूसरों की बातों को बहुत ध्यान से सुनना और बहुत गौर से बोलनेवाले की मुद्राओं को भी ध्यान में रखना वात्स्यायन जी की विशेषता थी। गोष्ठी में एक दिन रमेशचंद्र शाह किसी चर्चा के दौरान बार-बार कह रहे थे कि 'इस बात को आगे बढ़ाने की जरूरत है।' वे 'आगे बढ़ाने' पर बहुत जोर दे रहे थे और अपनी सहज आदतवश अपनी दोनों हथेलियों को गोलाई में घुमाते हुए (जैसे दाल दरनेवाली चक्की घुमाई जाती है) अपनी बातें कहते जा रहे थे। वात्स्यायन जी ने टोकते हुए कहा, 'रमेश जी, आप बात को 'आगे बढ़ाने' पर बार-बार जोर दे रहे हैं, पर अपनी हथेलियाँ ऐसे घुमा रहे हैं जैसे 'लीपा-पोती' करने के लिए कह रहे हों।' यह सूक्ष्म पकड़ जो किसी भी रचनाकार की बुनियादी विशेषता होती है, वात्स्यायन जी में बेमिसाल थी। वे चीजों के प्रति, बाह्य दुनिया के प्रति इतने चौकन्ने रहते थे और उनकी इंद्रियाँ इतनी सचेत रहती थी कि कभी-कभी आश्चर्य होता था।
एक दिन हम लोग जंगल में पर्यटन के लिए निकले थे। तय हुआ था कि एक-दो गोष्ठियाँ गोष्ठीस्थल से दूर कहीं अन्यत्र हों। हम लोग जंगल में चार-पाँच किलोमीटर दूर तक पुराने मंदिर के चबूतरे पर बैठे। इस मंदिर को नरदेवी का मंदिर कहा जाता है। बातें हो रही थीं कि इसी बीच किसी पक्षी की हलकी सी आवाज आई। किसी ने सुनी, किसी ने नहीं। वात्स्यायन जी ने वहाँ के एक व्यक्ति से पूछा, 'यह किस पक्षी की आवाज थी?' वहाँ कोई यह नहीं बता सका क्योंकि किसी ने उस आवाज पर ध्यान ही नहीं दिया था। पशु-पक्षियों और वनस्पतियों के बारे में जितनी जानकारी वात्स्यायन जी को थी, उतनी मेरी जानकारी में हजारीप्रसाद द्विवेदी को छोड़कर शायद ही किसी हिंदी लेखक को हो।
अपनी मितवादिता के लिए वात्स्यायन जी प्रसिद्ध थे। मैंने इसके अनेक उदाहरण अनेक अवसरों पर लक्ष्य किए हैं। वे एक वाक्य में धीरे से कुछ ऐसे उत्तर देते, जिसमें हल्का सा व्यंग्य भी होता, विनोद भी, प्रश्न का गहराई से दिया निरुत्तर करने वाला उत्तर भी। एक गोष्ठी में श्रीराम वर्मा अपनी सोच के मुताबिक बार-बार ईश्वर के बारे में जिज्ञासा करने लगे। मैंने कई बार उनसे कहा कि वर्मा जी यहाँ 'ईश्वर' को मत लाइए। पर वे बार-बार जोर देकर कहने लगे, 'इस पर बहस होनी चाहिए। यह मेरी जिज्ञासा है।' बहस को देर तक खिंचती देख वात्स्यायन जी ने धीरे से कहा, 'श्रीराम जी, इस सवाल का उत्तर आपको ईश्वर ही दे सकता है।'
वात्स्यायन जी नए प्रसंगों के लिए विख्यात रहे हैं। नई कविता से लेकर 'हवा महल' (जो वात्सुशिल्प का और उनके जीवन का शायद आखिरी प्रयोग था।) तक रचना के क्षेत्र में जितने नए प्रयोग उन्होंने किए हैं, उतने शायद ही किसी रचनाकार ने किए हों। सिर्फ भारतेंदु ने अपने जमाने में किए थे। गद्य की अनेक नई विधाओं को जन्म देने का श्रेय वात्स्यायन जी को ही। इधर उन्होंने कविता में एक नया प्रयोग किया था - कई कवियों द्वारा मिलकर कविता लिखने का प्रयोग। जब श्रीकांत वर्मा जीवित थे तो उनके घर पर अज्ञेय, आक्टेवियो पाज (मैक्सिको के प्रसिद्ध कवि) और श्रीकांत वर्मा ने मिलकर एक कविता लिखी थी। बाद में वह प्रकाशित भी हुई थी। मेरा खयाल है, यह आइडिया वात्स्यायन जी का ही रहा होगा। इस शिविर में भी उन्होंने इस प्रकार का प्रयोग करने को कहा। नरदेवी मंदिर के चबूतरे पर उन्होंने इसका एक प्रारूप बनाया और कहा कि चार कवि मिलकर एक कविता लिखें - विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, रमेशचंद्र शाह, नंदकिशोर आचार्य और अज्ञेय। कविता की पहली पंक्ति लिखें, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी। फिर सभी लोग एक-एक पंक्ति लिखकर क्रम से उसे आगे बढ़ाएँ। कविता की अंतिम दो-दो पंक्तियाँ लिखेंगे क्रमशः विश्वनाथ प्रसाद तिवारी और अज्ञेय। ऐसा ही हुआ और एक अच्छी कविता बन गई। मैं स्वीकार करता हूँ कि मेरे द्वारा पूरी की गई अंतिम दो पंक्तियाँ अज्ञेय द्वारा पूरी की गई अंतिम दो पंक्तियों से कमजोर थीं। इस कविता के लिखने में मैंने भी एक प्रयोग कर दिया। मैंने जानबूझकर कविता की पहली पंक्ति अपनी पहले की लिखी गई कविता से ली थी। मैं देखना चाहता था कि एक कवि के लिखने और कई कवियों के मिलकर लिखने में क्या फर्क पड़ जाता है! बाद में मैंने अपनी वह कविता वहाँ सबको सुनाई भी। दोनों कविताओं में एकदम अंतर आ गया था। यह एक व्यक्ति की रचनाप्रक्रिया और मिली-जुली रचनाप्रक्रिया का स्वाभाविक अंतर था।
इस शिविर के दौरान मुझे ज्यादा समय तक अज्ञेय को निकट से देखने का अवसर मिला। मैं बार-बार सोचता रहा कि लेखकों में उनका इतना विरोध क्यों है? नए लेखक क्यों उनके नाम से ही बिदक जाते हैं और कुछ तो उन्हें 'प्रतिक्रियावादी', 'पूँजीवादी' और यहाँ तक कि 'सी.आई.ए.' से जुड़ा हुआ लेखक क्यों कहने लगते हैं? क्या इसका को आधार है या यह केवल प्रचार मात्र हैं? अज्ञेय-विरोध का एक कारण तो उनका स्वभाव ही हो सकता है। वे विशिष्ट अभिजात स्वभाव वाले, शालीन संस्कारों वाले मितभाषी गंभीर व्यक्ति थे। सबसे उसके स्तर से उतरकर हिल-मिल सकते थे। सबकी चालू, लफ्फाजी वाली लंतरानियों में हिस्सा नहीं ले सकते थे। भावुकता में या स्वार्थ में किसी के मुँह पर उसकी प्रशंसा नहीं कर सकते थे। किसी लेखक या लेखकों के साथ बैठकर उन्हें घंटों परनिंदा का रस नहीं पिला सकते थे। इससे वे अपने आप अपने चारों ओर एक लक्ष्मणरेखा खींच लेते थे और लेखकों के बीच उनके व्यक्तित्व का साधारणीकरण नहीं हो पाता था। उनके विरोध का दूसरा यह लगता है कि वे मार्क्सवादी नहीं थे। जो लोग दलीय प्रतिबद्धता को ही लेखन की सबसे बड़ी कसौटी मानते हैं, उन्हें ज्योंही पता लगता है कि अमुक लेखक हमारे दल का नहीं है त्योंही उसका विरोध शुरू कर देते हैं। किसी लेखक के व्यक्तित्व या कृतित्व से परिचित हुए बिना उसके विरोध का यह अद्भुत तरीका है। इसमें सबसे ज्यादा काम करता है प्रचार। इस प्रकार का प्रभाव यह है कि आपको छोटे-छोटे कस्बों में ऐसे-ऐसे लेखक अज्ञेय को गरियाते मिल जाएँगे, जिन्होंने उनका न तो कुछ पढ़ा है, न कभी उनसे मिले हैं। है न यह आश्चर्य की बात! अज्ञेय विरोध के संबंध में ऐसे लेखकों को चर्चा तो व्यर्थ है, पर इस प्रसंग में मैं समकालीन साहित्य के प्रतिष्ठित आलोचक नामवर सिंह के तीन बयानों की चर्चा करना चाहूँगा :
1. नामवर जी ने कुछ दिनों पूर्व अपने दो-तीन भाषणों में कहा है कि गुलशन नंदा और अज्ञेय ने भाषा का व्यावसायिकीकरण (कमर्शियलाइजेशन) किया है।
2. उन्होंने टेलीविजन पर अपने इंटरव्यू में कहा है कि अज्ञेय का हिंदी साहित्य में वही स्थान है जो रीतिकाल में बिहारीलाल और आधुनिक काल में महादेवी वर्मा का है।
3. जबलपुर के अपने भाषण में (देखें, विवरणिका, मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन, भोपाल, मार्च 1987) गद्य के पतन के लिए जिम्मेदार लेखकों के असहज व उच्चाभाविक व्यक्तित्व व कृतित्व पर प्रहार करते हुए नामवर सिंह ने कहा कि, 'गद्य का पतन जिनके कारण हुआ वे इतने गंभीर हैं! चिड़ियाघर की किसी चिंपांजी के समान व मनहूस दिखाई देते हैं।' जाहिर है कि नामवर जी भाषा के व्यवसायिकीकरण और गद्य के पतन के लिए अज्ञेय को जिम्मेदार ठहराते हैं तथा उनका नाम कवियों में बिहारी लाल और गद्यकारों में गुलशन नंदा के साथ रखते रखते हैं। भाषा की पवित्रता के लिए जीवन भर लड़नेवाले, न केवल रचनात्मक लेखन, बल्कि हिंदी पत्रकारिता को भी एक समर्थ भाषा देनेवाले तथा भाषा का अत्यंत नैतिक उपयोग करनेवाले अज्ञेय जैसे लेखक के लिए क्या ये टिप्पणियाँ उपयुक्त हैं? नामवर जी को अपने इन बयानों पर पुनर्विचार करना चाहिए। साहित्य का इतिहास प्रमाण है कि आनेवाली पीढ़ियाँ असंगत बयानों के लिए बड़े-से-बड़े आलोचक को कठघरे में खड़ा कर देती हैं।
मैं थोड़ा बहक गया हूँ। मैं वात्स्यायन जी का मूल्यांकन करने नहीं बैठा हूँ, उनके बारे में अपने संस्मरण लिख रहा हूँ। मैं 19 अक्तूबर को उनके साथ बाल्मीकिनगर गया था और 26 अक्तूबर को साथ ही लौटा। उस दिन सायंकाल शिविर के सभी लेखक मेरे निवास पर अल्पाहार के लिए आमंत्रित थे। संयोग से उस दिन विद्यानिवास जी भी गोरखपुर में थे और वहीं आए थे। मैंने बाल्मीकिनगर में एक कैमरा खरीदा था जिसका उद्घाटन वात्स्यायन जी से ही वहीं कराया था। उस कैमरे से अपने निवास पर वात्स्यायन जी के कई चित्र खींचे। फिर हम लोगों (रामचंद्र तिवारी, चित्तरंजन मिश्र आदि) ने उन्हें वैशाली ट्रेन से दिल्ली के लिए विदा किया। यह वात्स्यायन जी की मेरे घर पर आखिरी उपस्थिति थी।
11 जनवरी से 13 जनवरी, 87
भोपाल के भारत भवन में 'समवाय' (आलोचना त्रैवार्षिकी) का पहला आयोजन था। अज्ञेय पहली बार भारत भवन के किसी आयोजन में शरीक हुए थे। इस आयोजन में शरीक होने वाले सभी लेखकों ने महसूस किया कि पूरे आयोजन पर आद्योपांत अज्ञेय ही छाए रहे। यह स्वाभाविक भी था। अज्ञेय का अनुभव और अध्ययन व्यापक था और उनका अपना एक मुकम्मल तर्कशास्त्र भी है। अपनी बातें वे इतने व्यवस्थित और संतुलित ढंग से रखते थे कि उनका विरोध तत्काल तो संभव नहीं होता था। इसलिए जिस भी गोष्ठी में वे होते थे, छाए रहते थे। इस गोष्ठी में अज्ञेय ने एक बात बड़ी पीड़ा के साथ कही और अधिकांश लोगों ने इसे महसूस भी किया। उन्होंने कहा - 'आपको अज्ञेय के नाम से परहेज है तो उसका नाम काट दें, लेकिन उसका लिखा हुआ एक बार पढ़ तो लें। मैं उन प्रश्नों पर वर्षों से विचार करता और लिखता आ रहा हूँ जिन पर आप यहाँ चर्चा कर रहे हैं। आपसे यह अनुरोध करने के लिए मेरे पास तो अब अधिक वक्त नहीं रह गया है, पर आपको उन सवालों से टकराना ही होगा, जिनकी चर्चा मैं बार-बार करता रहा हूँ।' अज्ञेय की उम्र (76 वर्ष) का स्मरण करके उनके इस कथन से गोष्ठी में उपस्थित तमाम लेखक हिल गए थे। अज्ञेय की यह पीड़ा उनकी सच्ची पीड़ा थी। जैसा कि मैं कह चुका हूँ, अज्ञेय को बिना पढ़े गाली देनेवालों की संख्या हिंदी में कम नहीं है। मैं खुद अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि जब-जब मैंने अज्ञेय को दूसरे की जुबान से देखा है वे एक खराब लेखक दिखाई पड़े है और जब-जब अपनी आँख से देखा है उनके व्यक्तित्व और लेखन, दोनों से बहुत कुछ पाया है।
भोपाल के 'समवाय' आयोजन में बहुत से दूसरे भाषा-भाषी लेखक नहीं आ सके थे, इसलिए गोष्ठी एक दिन पहले समाप्त हो गई। श्रीराम वर्मा ने मुझसे कहा कि भीमबेटका चलने के लिए वात्स्यायन जी को प्रेरित करूँ तो गाड़ी की व्यवस्था हो जाएगी और हम लोग उनके साथ देख लेंगे। मैंने वात्स्यायन जी से कहा। वे तैयार हो गए। अशोक वाजपेयी ने गाड़ी की व्यवस्था कर दी। 14 जनवरी की प्रातः जाने का कार्यक्रम बन गया था। 13 जनवरी को सायंकाल इला जी ने मुझसे कहा कि ऊँचाई पर चढ़ते हुए उनकी साँस चढ़ती है। पर वात्स्यायन जी का कहना है कि जब विश्वनाथ जी को वायदा कर दिया तो चलूँगा ही। मैं नीचे बैठा रहूँगा और आप लोग जाकर देख आइएगा। इला जी ने कहा कि अब आप ही वात्स्यायन जी को मना कर दें, तभी काम बन सकता है। मैंने वात्स्यायन जी से कहा कि मौसम बहुत खराब है, कुहरीला है और मैं कल प्रातः ही गोरखपुर जाना चाहता हूँ, अतः आपसे अनुरोध है कि भीमबेटिका की यात्रा स्थगित कर दें। वे मान गए और इस प्रकार मैंने बहाना करके तथा झूठ बोलकर वह यात्रा स्थगित कराई। वे दूसरों की सुविधा और अपने वादे का इतना खयाल करते थे कि खुद भारी असुविधा उठाने को तैयार हो जाते थे।
अज्ञेय ऐसे लेखक न थे जो अपने एकांत कमरे में बैठकर शब्द और अर्थ की साधना करते रहते है। उन्होंने देश की आजादी के लिए क्रांतिकारियों के साथ काम किया। एक निर्भीक पत्रकार के रूप में अनेक पत्रों के माध्यम से देश की समस्याओं को बहस का मुद्दा बनाया। 'दिनमान' के संपादक के रूप में बिहार के सूखाग्रस्त इलाकों की यात्रा की। अनेक साहित्यिक आयोजनों और पत्र-पत्रिकाओं द्वारा न केवल लेखकों को लिखने की प्रेरणा दी, बल्कि उन्हें संगठित और प्रकाशित भी किया। हिंदी के अनेक प्रतिष्ठित लेखकों को - जिनमें मार्क्सवादी लेखक भी हैं - उनका यह ऋण स्वीकार करना चाहिए जिनकी निर्मित में वात्स्यायन ही का महत्वपूर्ण योगदान है। यह सच है कि उनमें से कई अब चुक गए हैं। लेकिन स्वयं वात्स्यायन जी मृत्यु के आठ घंटे पहले तक शब्द और कर्म की दुनिया में सक्रिय रहे। उनकी इस अनवरत सक्रियता का अक्षय स्रोत मानव विवेक में उनकी दृढ़ आस्था थी, जिसे वे अपने संपूर्ण लेखन में बार-बार रेखांकित करते रहे। वे मानते थे कि 'सब प्रतिमानों का, सब मूल्यों का स्रोत मानव का विवेक है।' वे जानते थे कि 'योद्धा पिछड़ भी जा सकता है, पर जाग्रत आत्मा कभी नहीं पिछड़ती।' केवल प्रचार के वशीभूत हो वात्स्यायन को व्यक्तिवादी और कलावादी माननेवाले पाठकों को उनका लिखा हुआ स्वयं पढ़ना चाहिए और उस पर खुद अपनी आँख से विचार करना चाहिए। और अंत में कहना चाहूँगा कि कुछ व्यक्तियों की कोई स्मृति नहीं बन पाती। कुछ की स्मृति बनी रहती है। वात्स्यायन जी एक एक ऐसे व्यक्तित्व संपन्न लेखक थे, जिनकी स्मृति बहुत समय तक बनी रहेगी।