मनुष्य को कभी-कभी ऐसा कार्य हाथ में लेना पड़ता है, जिसमें उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तिा नहीं होती, अब मैं एक ऐसा ही विषय हाथ में ले रहा हूँ, जिस पर मैं कुछ
	लिखना नहीं चाहता था। किन्तु कतिपय आवश्यक बातों पर प्रकाश डालना, उचित बोधा हो रहा है, अतएव मैं अब इसी अप्रिय कार्य में प्रवृत्ता होता हूँ। यह 'बोलचाल' नामक
	ग्रन्थ जिस भाषा में लिखा गया है, उसी भाषा में मेरे दो ग्रन्थ 'चुभते चौपदे' और 'चोखे चौपदे' नामक अब से चार वर्ष पहले प्रकाशित हो चुके हैं। कुछ सामयिक
	पत्राों में उनकी आलोचना हुई है, उचित आलोचना के विषय में मुझको कुछ वक्तव्य नहीं। किन्तु एक-दो पत्राों ने आलोचना करते-करते उक्त ग्रंथों के विषय में ऐसी बातें
	लिख दी हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि उन्होंने उनके प्रकाशन का उद्देश्य नहीं समझा। किसी-किसी ने कुछ शब्दों के प्रयोग पर भी तर्क किये हैं। मैं इन्हीं बातों पर
	कुछ लिखने की चेष्टा करता हूँ। यद्यपि ऐसा करना रूपान्तर से अपने ग्रंथों की आलोचना में आप प्रवृत्ता होना है, किन्तु मेरा लक्ष्य यह नहीं है, मैं कतिपय आवश्यक
	और तथ्य बातों पर प्रकाश डालने का ही इच्छुक हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि अपनी आलोचना आप करना, आजकल बुरा नहीं माना जाता, क्योंकि इससे कितनी अज्ञात बातें
	अंधाकार से प्रकाश में आ जाती हैं। तथापि मैं यही कहूँगा कि इस पथ का पथिक नहीं हूँ; कतिपय विशेष बातों के विषय में ही कुछ कहना चाहता हूँ।
	रोजमर्रा अथवा बोलचाल और मुहावरों की उपयोगिता के विषय में पहले मैं बहुत कुछ लिख चुका हूँ। यथाशक्ति मैंने उसकी उपयोगिता का प्रतिपादन भी किया है। प्रसाद-गुण
	ही ऐसा गुण है जिसका आदर सब रसों में समान भाव से होता है, प्रसाद-गुण उस समय तक आ ही नहीं सकता, जब तक कविता का ऐसा शब्दविन्यास न हो, जिसको सुनते ही लोग समझ
	जावें। ऐसी सरलता कविता में तभी आवेगी, जब उसकी रचना बोलचाल के आधार पर होगी, अन्यथा उसका तत्काल हृदयंगम होना संभव पर न होगा, क्योंकि अपरिचित शब्द तात्कालिक
	बोधा के बाधाक होते हैं। शब्द-बोधा के बाद ही भाव का बोधा होता है,जहाँ शब्द-बोधा में बाधा पड़ी, वहीं भाव के समझने में व्याघात उपस्थित होता है, जहाँ यह अवस्था
	हुई, वहाँ प्रसाद-गुण स्वीकृत नहीं हो सकता। साहित्यदर्पणकार ने प्रसाद-गुण का जो लक्षण लिखा है, उससे अक्षरश: इस विचार की पुष्टि होती है; वे लिखते हैं-
	चित्तां व्याप्नोति य: क्षिप्रं शुष्केन्धानमिवानल:।
	स प्रसाद: समस्तेषु रसेषु रचनासु च।
	शब्दास्तद्व्ज)का अर्थबोधाका: श्रुतिमात्रात:।
	''जैसे सूखे ईंधान में अग्नि झट से व्याप्त होती है, इसी प्रकार जो गुण चित्ता में तुरंत व्याप्त हो, उसे प्रसाद कहते हैं। यह गुण समस्त रसों और सम्पूर्ण रचनाओं
	में रह सकता है। सुनते ही जिनका अर्थ प्रतीत हो जाय, ऐसे सरल और सुबोधा शब्द प्रसाद के व्यंजक होते हैं''-साहित्यदर्पण, द्वितीय भाग, पृष्ठ 64
	यही कारण है कि कविता वही आदरणीय और प्रशंसनीय मानी जाती है, जिसके शब्द सरल और सुबोधा हों। लगभग प्रत्येक भाषा के विद्वान् इस विचार से सहमत हैं। कविवर मिल्टन
	लिखते हैं-
	'Poetry ought to be simple, sensuous and impassioned''
	''कविता को सरल, बोधागम्य और भावपूर्ण होना चाहिए।''
	ऍंगरेजी का एक दूसरा विद्वान् कहता है "Simplicity is the best beauty" -सरलता (सादगी) सबसे बड़ी सुन्दरता है-
	गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-
	''
	सरल कबित कीरति बिमल
	, 
	तेहि आदरहिं सुजान
	''
	हिन्दी भाषा का एक दूसरा सुकवि कहता है-
	''
	जाके लागत ही तुरत
	, 
	सिर डोलैं न सुजान।
	ना वह है नीको कवित
	, 
	ना वह तान न बान।
	''
	उर्दू के एक सहृदय कवि यह कहते हैं-
	''
	शेर दर-अस्ल हैं वही हसरत।
	सुनते ही दिल में जो उतर जाये।
	''
	महाकवि अकबर क्या कहते हैं, उसको सुनिये-
	''
	समझ में साप+ आ जाये फष्साहत
	, 
	इसको कहते हैं।
	असर हो सुनने वालों पर 
	'
	बलाग़त
	' 
	इसको कहते हैं।
	तुझे हम शायरों में क्यों न अकबर मुन्तख़ब समझें।
	बयाँ ऐसा कि दिल माने
	, 
	जबाँ ऐसी कि सब समझें।
	''
	इन दोनों शेरों में रूपान्तर से वे यही कहते हैं कि कविता की भाषा ऐसी ही होनी चाहिए जिसको सब समझ सकें। इसी का नाम प+साहत है, जिसे हम प्रसाद-गुण कहते हैं।
	मिर्जा ग़ालिब उर्दू-संसार के माघ हैं। वे कविवर केशवदास के समान गूढ़ कविता के आचार्य हैं। अपनी गूढ़ कविताओं से लोगों को उद्विग्न होते देखकर एक बार उनको
	स्वयं यह कहना पड़ा था-
	''
	मुश्किल है जेबस कलाम मेरा ऐ दिल।
	सुन सुन के उसे सख़ुनवराने कामिल।
	आसाँ कहने की करते हैं प+र्मायश।
	गोयम मुश्किल वगर न गोयम मुश्किल।
	''
	भाव के साथ उनका शब्द-विन्यास भी दुरूह होता था, जैसा ऊपर के पद्य से प्रकट है। एक दिन उनकी इन बातों से घबराकर उनके सामने ही हकीम आग़ा जान ने भरे मुशायरे में
	ये शेर पढ़े थे-
	''
	मज़ा कहने का जब है यक कहे औ दूसरा समझे।
	अगर अपना कहा तुम आप ही समझे तो क्या समझे।
	कलामे मीर समझे औ ज़बाने मीरज़ा समझे।
	मगर अपना कहा यह आप समझें या खुदा समझे।
	''
	भरी सभा में एक प्रतिष्ठित कवि को इस प्रकार लांछित क्यों होना पड़ा था? इसलिए कि उसकी कविता में सरलता नहीं होती थी। यह प्रसंग भी प्रसाद-गुणमयी कविता की ही
	महत्ताा प्रकट करता है।
	उर्दू संसार में मीर अनीस की प+साहत प्रसिध्द है। मौलाना शिबली लिखते हैं-
	''मीर अनीस के कमाल शायरी (महान कविकर्म) का बड़ा जौहर (गुण) यह है कि बावजूद इसके कि उन्होंने उर्दू शुअरा (कवियों) में से सबसे ज़ियादा अलप+ाज (शब्द) इस्तेमाल
	किये और सैकड़ों मुख्तलिप+ वावे+अात (विभिन्न प्रसंग) बयान करने की वजह से, हर किस्म और हर दर्जा के अलप+ाज (शब्द) उनको इस्तेमाल करने पड़े, ताहम उनके कलाम में
	ग़ैरप+सीह (प्रसाद-गुणरहित) अलप+ाज (शब्द) निहायत कम पाये जाते हैं।''
	''मीर अनीस साहब के कलाम का बड़ा ख़ास्सा (गुण) यह है कि वह हर मौव+ा पर (प्रत्येक अवसर पर) प+सीह से प+सीह (अधिाक प्रसादगुण सम्पन्न) अलप+ाज (शब्द) गढ़ कर लाते
	हैं''-मवाज़िना दबीर व अनीस।
	मीर अनीस अपने विषय में स्वयं क्या कहते हैं, उसको भी सुन लीजिए-
	'
	मुरग़ाने खुशइलहान चमन बोलें क्या।
	मर जाते हैं सुन के रोज़मर्रा मेरा।
	'
	मौलाना शिबली साहब ने जिसे मीर अनीस की प+साहत बतलाई है, उसे स्वयं मीर साहब अपना रोजश्मर्रा कहते हैं। इससे भी यही पाया जाता है, कि सरल, सुबोधा, बोलचाल
	(रोजश्मर्रा) की भाषा में ही प+साहत मिलती है और सर्वप्रिय एवं आदरणीय प्राय: ऐसी ही भाषा की कविता होती है।
	जो भाषा परिचित होती है, जिस भाषा के शब्द अधिाकतर जिह्ना पर आते रहते हैं, जिनको कान प्राय: सुनता रहता है, वे ही शब्द सुबोधा हो सकते हैं और उन्हीं में सरलता
	भी होती है। ऐसे शब्द उसी भाषा के होते हैं, जो बोलचाल की है। इसीलिए उत्ताम कविता वही मानी जाती है, जिसमें बोलचाल का रंग रहता है। भाषा बोलचाल से जितनी ही
	अधिाक दूर होती जाती है,उतनी ही उसकी दुरूहता बढ़ती जाती है। कवि और ग्रन्थकार विशेष अवस्थाओं में ऐसी दुरूह भाषा लिखने के लिए भी बाधय होता है, किन्तु उसमें
	व्यापकता कम होती है और विशेष अवस्थाओं में उसमें प्रसाद-गुणमयी भाषा के समान स्थायिता भी नहीं होती।
	यह बात उसी भाषा के लिए कही जा सकती है, जिसका सम्बन्धा प्राय: सर्वसाधारण से होता है। दर्शन अथवा विज्ञान आदि गंभीर विषयों के सम्बन्धा में यह बात नहीं कही जा
	सकती, उनकी भाषा प्राय: दुरूह होती ही है। कविता का सम्बन्धा अधिाकतर सर्वसाधारण से होता है, उनकी शिक्षा-दीक्षा अथवा उनके आमोद-प्रमोद एवं उत्थान के लिए वह
	अधिाक उपयोगिनी समझी जाती है, इसलिए उसका सरल और सुबोधा होना आवश्यक है। इन्हीं सब बातों पर दृष्टि रखकर और हिन्दी-संसार के साहित्य-सेवियों और प्रेमियों की
	दृष्टि बोलचाल और मुहावरों की ओर विशेषतया आकृष्ट करने के लिए मुझको ऐसी पुस्तक लिखने की आवश्यकता जान पड़ी, जो कि बोलचाल में हो, और जिसमें मुहावरों का पुट
	पर्याप्त हो। मैं इसी चिन्ता में था कि अकस्मात् एक दिन एक नमूना मेरे सामने उपस्थित हो गया। मैं उसी को आदर्श मानकर कार्यक्षेत्रा में उतरा और उसी के फल,
	'चुभते चौपदे', 'चोखे चौपदे' और यह 'बोलचाल' नामक ग्रंथ हैं। पूरा विवरण इसका मैं ग्रन्थ के आदि में लिख चुका हूँ।
	इस बोलचाल नामक ग्रंथ में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
	1. ग्रन्थ आदि से अंत तक हिन्दी तद्भव शब्दों में लिखा गया है, संस्कृत के तत्सम शब्द बहुत कम आये हैं, अधिाकांश वे ही तत्सम शब्द गृहीत हैं, जो तद्भव शब्दों के
	समान ही व्यापक और सर्वसाधारण मेंव्यवहृतहैं।
	2. ग्रन्थ में आदि से अंत तक बोलचाल की रक्षा की गई है, सर्वसाधारण की खड़ी बोली ही उसका आदर्श है, यदि कहीं कुछ थोड़ा अन्तर है तो उसके कारण पद्यगत और कवितागत
	विशेषताएँ हैं।
	3. ग्रन्थ में बाल से तलवे तक, अंगों के जितने मुहावरे हैं, उनमें से अधिाकांश आ गये हैं। पद्य में उनका प्रयोग प्राय: इस प्रकार किया गया है, कि वह पद्य ही
	उसके व्यवहार प्रणाली का शिक्षक हो सके।
	4. अन्य भाषा के शब्द तथा दूसरे देशज वे सब शब्द भी ले लिये गये हैं, जो सर्वसाधारण में प्रचलित हैं और जिनका व्यवहार हिंदी तद्भव शब्द के समान जनता में होता
	है, केवल इतना धयान अवश्य रखा गया है कि वे हिंदी 'टाइप' के हों।
	5. बोलचाल में प्रचलित अनेक शब्द ऐसे हैं जो बहुत व्यापक हैं, भावमय हैं, विशेषार्थ के द्योतक हैं और अधिाक विचार थोड़े में प्रकट करने के साधान हैं, किंतु
	लिखित भाषा में उनका स्थान नहीं है, मैंने कुछ ऐसे शब्द भी ग्रहण कर लिये हैं। अपनी संकीर्णता का दूरीकरण और उनकी रक्षा की ममता इसके हेतु हैं।
	जिन विशेषताओं का मैंने उल्लेख किया है, उनकी विस्तृत व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती, प्रस्तुत ग्रंथ के कुछ पद्य ही उसके प्रमाण हैं। कुछ बातें ऐसी
	हैं, जिनको मैं और अधिाक स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। हिन्दी के मुख्य आधार उसके तद्भव शब्द हैं, उनके स्थान पर तत्सम शब्दों का प्रयोग करना उसके वास्तविक रूप को
	विकृत करना है। आजकल की हिन्दी कविता को उठा कर देखिये तो उसमें प्रतिशत 75 संस्कृत के तत्सम शब्द मिलेंगे, किसी-किसी पद्य में वे प्रतिशत 95पाये जाते हैं।
	हिन्दी की जो बहुत सरल कविता होती है, उसमें भी प्रतिशत 25 से कम संस्कृत के तत्सम शब्द नहीं होते। कदाचित् ही कोई ऐसी कविता मिलेगी, जिसमें वे प्रतिशत 10 हों।
	ब्रजभाषा की कितनी कविताएँ अवश्य ऐसी हैं, जिनमें प्रतिशत5 या इससे भी कम संस्कृत के तत्सम शब्द पाये जाते हैं, किन्तु उसमें प्राय: अर्ध्दतत्सम शब्दों की
	अधिाकता है। उर्दू गद्य पद्य की अवस्था हिन्दी के वर्तमान गद्य पद्य की-सी है, उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों के स्थान पर अरबी-फारसी शब्दों की भरमार है। फिर भी
	उर्दू में रोजश्मर्रा का बड़ा धयान है, इसलिए उसमें कुछ शेर ऐसे मिल जाते हैं, जिनमें केवल हिन्दी के तद्भव शब्दों का प्रयोग होता है, किन्तु पूरी ग़जल ऐसी नहीं
	मिलती, किताब ऐसी मिलेगी ही नहीं। हिन्दी में भी खोजने पर ऐसी दो-चार कविताओं का मिल जाना असंभव न होगा, जो तद्भव शब्दों में लिखी गई हों। किन्तु इधार दृष्टि
	किसी की नहीं गई। अतएव किसी ने तद्भव शब्दों में सौ-दो सौ पद्य लिखने का उद्योग नहीं किया, और न इस बात का धयान रखा कि तद्भव शब्दों में कविता लिखने के समय
	उसमें अप्रचलित तत्सम शब्द आवें ही नहीं। मैंने इस बात का उद्योग किया और तद्भव शब्दों में ही बोलचाल नामक ग्रन्थ को लिखा। अधिाकांश कविता इस ग्रन्थ की ऐसी ही
	हैं, यदि किसी कविता में अप्रचलित तत्सम शब्द आ भी गये हैं, तो वे शायद ही प्रतिशत 5 से अधिाक होंगे, ऐसे पद्य भी प्रतिशत एक से अधिाक न पाये जावेंगे। इसीलिए
	मैंने यह लिखा है, कि प्रस्तुत ग्रन्थ की विशेषता यह है कि वह तद्भव शब्दों में लिखा गया है।
	दूसरी, तीसरी और चौथी विशेषताओं के विषय में कुछ लिखना आवश्यक नहीं। मैं कुछ पद्य आगे चलकर लिखूँगा, उनके द्वारा आप लोग स्वयं यह निश्चय कर सकेंगे कि मेरे कथन
	में कितनी सत्यता है। पाँचवीं विशेषता के विषय में केवल इतना निवेदन करना मैं उचित समझता हूँ कि अव्यवहृत कुछ शब्दों को ग्रहण करके मैंने कोई अनुचित कार्य नहीं
	किया है। यदि लिखित अथवा काव्य की भाषा को बोलचाल की भाषा रखना है, या अधिाकतर उसको उसका निकटवर्ती बनाना है, तो बोलचाल के व्यापक और विशेषार्थ-द्योतक शब्दों का
	त्याग न होना चाहिए। देखा जाता है कि उनके स्थान पर हम अन्य भाषा के शब्दों से काम ले रहे हैं, और दिन-दिन उनको भूलते जा रहे हैं। ऐसा करना अपनी मातृ भाषा पर
	अत्याचार करना है। मैंने अनेक उर्दू बोलने वालों और बोलचाल में अधिाकतर ऍंगरेजी-शब्द प्रयोग करने वाले सज्जनों को देखा है, कि कभी-कभी चेष्टा करने पर भी न तो
	उनको हिन्दी-शब्द याद आते हैं, और न वे उनका प्रयोग कर सकते हैं। यह हमारी दुर्बलता है, और इससे हमारी जातीयता कलंकित होती है। मेरा विचार है कि हिन्दी के
	उपयोगी और व्यापक शब्दों को मरने न देना चाहिए, और पूर्ण उद्योग के साथ उनको जीवित रखना चाहिए। यह सजीवता का चिद्द है, संकीर्णता का नहीं। जितनी सजीव जातियाँ
	हैं, उन सबमें इस प्रकार की ममता पायी जाती है। यदि कोई न्यूनता हमारे शब्दों अथवा भाषा में हो तो उसका सुधार हम कर सकते हैं, किन्तु उनका त्याग उचित नहीं।
	मैंने इसी विचार से अनेक शब्दों के जीवित रखने की चेष्टा की है। बोलचाल की भाषा लिखने का उद्योग करके मुझको कहीं-कहीं विवश होकर ऐसा करना पड़ता है। इसका यह अर्थ
	नहीं कि ग्रामीण शब्दों का प्रयोग करके मैंने अपने शब्दाधिाकार को कलंकित किया है, और काव्य-शास्त्रा के एक विशेष नियम को तोड़ा है। वरन् इसका यह अर्थ है कि
	मैंने एक उपयुक्त शब्द की जीवन-रक्षा करके अपनी मातृभाषा की सेवा की है और उसको विस्तृत बनाने का उद्योग किया है। इस प्रकार का प्रयत्न अनुचित नहीं वरन्
	विद्वानों द्वारा समर्थित है। मिस्टर स्मिथ कहते हैं-
	1''ड्राइडेन के समय के पश्चात् ऍंगरेजी भाषा में मुहावरों की संख्या बहुत बढ़ी है, विशेषतया 19वीं शताब्दी में इनकी बहुत वृध्दि हुई। पुराने ऍंगरेजी-साहित्य के
	अधययन ने केवल लुप्त शब्दों का ही नहीं, प्रत्युत पुराने शब्द-समुदाय का भी-जिन्हें हम आधा भूल चुके थे-पुनरुध्दार किया है।''
	कतिपय अव्यवहृत शब्द के व्यवहार के विषय में मैंने जो कुछ लिखा, आशा है उसके औचित्य को विचार-दृष्टि से देखा जायेगा। संभव है कुछ भाषा-मर्मज्ञ मेरे विचार से
	सहमत न हों, किन्तु यह मतभिन्नता है, जो स्वाभाविक है।
	जिन पद्यों के लिखने का उल्लेख मैं पहले कर आया हूँ, वे अब लिखेजातेहैं-
	 1. 
	हैं गये तन बिन बहुत
	, 
	सब छिन गया। लोग काँटे
	, 
	हैं घरों में बो रहे।
	 
	है मुसीबत का नगाड़ा बज रहा। पाँव पर रख पाँव हम हैं सो रहे।
	× × ×
	 2. 
	लुट गये पिट उठे गये पटके। आँख के भी बिलट गये कोये।
	 
	पड़ बुरी फूट के बखेड़ों में। कब नहीं फूट फूट कर रोये।
	× × ×
	 3. 
	जो हमें सूझता
	, 
	समझ होती। बैर बकवाद में न दिन कटता।
	 
	आँख होती अगर न फूट गई। देखकर फूट क्यों न दिल प+टता।
	
		1. Since the time of Dryden, the number of idioms in the English language has greatly increased, and in the nineteenth century in especial, very great
		additions were made to this part of our vocabulary. The study of our older literature restored to us not only words which had fallen absolute, but also
		many old terms of phrase which had been half forgotten. (Words and idioms. p. 274).
	
 
	 4. 
	है टपक बेताब करती बेतरह। हैं न हाथों से बला के छूटते।
	 
	टूटते पाके पके जी के नहीं। हैं नहीं दिल के फफोले फूटते।
	× × ×
	 5. 
	बेबसी बाँट में पड़ी जब है। जायगी नुच न किसलिए बोटी।
	 
	चोट पर चोट तब न क्यों होगी। जब दबी पाँव के तले चोटी।
	× × ×
	 6. 
	कर सकें हम बराबरी कैसे। हैं हमें रंगतें मिली फीकी।
	 
	हम कसर हैं निकालते जी से। वे कसर हैं निकालते जी की।
	× × ×
	 7. 
	बात अपने भाग की हम क्या कहें। हम कहाँ तक जी करें अपनाकड़ा।
	 
	फट गया जी फाट में हमको मिला। बँट गया जी बाँट में मेरे पड़ा।
	× × ×
	 8. 
	देखिये चेहरा उतर मेरा गया। हैं कलेजे में उतरते दुख नये।
	 
	फेर में हम हैं उतरने के पड़े। आँख से उतरे उतर जी से गये।
	× × ×
	 9. 
	हैं बखेड़े सैकड़ों पीछे पड़े। हैं बुरा काँटा जिगर में गड़ गया।
	 
	फँस गये हैं उलझनों के जाल में। है बड़े जंजाल में जी पड़ गया।
	× × ×
	 10. 
	हैं लगाती न ठेस किस दिल को। टेकियों की ठसक भरी टेकें।
	 
	है कपट काट छाँट कब अच्छी। पेट को काट कर कहाँ फेंकें।
	दूसरी, तीसरी और चौथी विशेषताओं पर इन पद्यों को कसिये, उस समय आप समझ सकेंगे, कि उनमें वास्तवता है या नहीं। मैं एक-एक पद्य की आलोचना करके अपने दावा को सिध्द
	करने में प्रवृत्ता नहीं होना चाहता, क्योंकि न तो ऐसा करना उचित जान पड़ता है और न इस भूमिका में इतना स्थान है। जो बात सत्य है, खोजियों की सूक्ष्म दृष्टि से
	वह छिपी न रहेगी,सत्य में स्वयं शक्ति होती है, वह बिना प्रकट हुए नहीं रहता। समय-समय पर कुछ सज्जनों ने इस प्रकार के पद्यों के भाव,भाषा और ढंग के विषय में जो
	सम्मति मुझसे प्रकट की है, उसकी चर्चा इस अवसर पर मैं अवश्य करना चाहता हूँ, जिससे उनकी सम्मति के विषय में अपना वक्तव्य प्रकट कर सकूँ।
	एक हिन्दी भाषा के प्रसिध्द विद्वान् ने मेरे चौपदों की चर्चा करके मुझसे एक बार कहा-'मैं उसकी भाषा को हिन्दी नहीं कह सकता। मैंने कहा, उर्दू कहिये। उन्होंने
	कहा, उर्दू भी नहीं कह सकता। मैंने कहा, हिन्दुस्तानी कहिये। उन्होंने कहा, मैं इसको हिन्दी उर्दू के बीच की भाषा कह सकता हूँ। मैंने कहा, हिन्दुस्तानी ऐसी ही
	भाषा को तो कहते हैं। उन्होंने कहा, हिन्दुस्तानी में उर्दू का पुट अधिाक होता है, इसमें हिन्दी का पुट अधिाक है। मैंने निवेदन किया, फिर आप इसको हिन्दी ही
	क्यों नहीं मानते! उन्होंने कहा, चौपदों की बÐ उर्दू, उसके कहने के ढंग उर्दू, उसमें उर्दू की ही चाशनी और उर्दू का-सा रंग है, उसकी भाषा चटपटी भी वैसी है, उसे
	हिन्दी कहूँ तो कैसे कहूँ! मैंने कहा, तो इस उलझन को आप सुलझाना नहीं चाहते। उन्होंने कहा,उलझन सुलझते ही सुलझते सुलझती है, शायद कभी सुलझ जावे। आपके चौपदों को
	पढ़कर मेरे हृदय की विचित्रा गति हो जाती है, मैं उसकी भाषा को विचित्रा ही कहूँगा।'
	मौलवी अहमद अली प+ारसी के विद्वान और उर्दू के एक सहृदय कवि थे, खास निजामाबाद के रहने वाले थे, हाल में उनका स्वर्गवास हो गया। वे मेरे पास आजमगढ़ में जब आते,
	तब कुछ चौपदे मुझसे सुनते। कभी प्रसन्न होते, कभी कहते-यह तो 'उलटी गंगा बहाना है' भई; इसको तो मैं कोई जबान नहीं मान सकता। यदि मैं पूछता, क्यों? तो कहते, यह
	हिन्दी तो है नहीं, उर्दू भी नहीं है, यह तो एक मनगढ़न्त भाषा है। यदि मैं पूछता, आप हिन्दी किसे मानते हैं और किसे उर्दू, तो कहते हिन्दी मैं उसे मानता हूँ,
	जिसमें संस्कृत शब्द हों, जैसे गोस्वामीजी की रामायण। उर्दू वह है जो फारसी अरबी शब्दों से मालामाल हो, इसमें दोनों बातें नहीं हैं, इससे मैं इसको कोई जबान नहीं
	मान सकता। एक दिन मैंने उनको निम्नलिखित पद्य सुनाये, और पूछा, कृपा कर बतलाइये ये किस भाषा के पद्य हैं?
	आके तब बैठता है वह हम पास।
	आपमें जब हमें नहीं पाता।
	क्या हँसे अब कोई औ क्या रो सके।
	जो ठिकाने हो तो सब कुछ हो सके।
	मुँह देखते ही उसका 
	आँ
	सू मेरा बहाना।
	रोने का अपने या रब! अब क्या करूँ बहाना।
	-
	हसन
	लोग घबरा के यह कहते हैं कि मर जायेंगे।
	मर के गर चैन न पाया तो किधार जायेंगे।
	-
	ज़ौव+
	कहने लगे-'उर्दू के'। मैंने कहा-क्यों? पहले, दूसरे पद्यों में एक भी फारसी अरबी का शब्द नहीं है, तीसरे, चौथे पद्यों में एक-एक शब्द अरबी-फारसी का है, ये कुल
	पद्य हिन्दी शब्दों ही से मालामाल हैं, इन्हें आप उर्दू पद्य क्यों कहते हैं? ऐसे ही पद्य मेरे भी तो हैं। कहने लगे कि-हाँ, ऐसे ही पद्य आपके भी हैं, किन्तु
	उनमें बहुत से हिन्दी के ऐसे शब्द आये हैं, जिनका व्यवहार उर्दू में नहीं होता, जैसे-नेह, पत इत्यादि। आप कभी-कभी संस्कृत शब्दों का भी व्यवहार करते हैं, जैसे
	वीर, अनेक आदि। यह बात उर्दू के नियम के अनुकूल नहीं, इसलिए मैं चौपदों को उर्दू का पद्य नहीं मान सकता। मैंने कहा-मौलाना अकबर और मौलाना हाली के नीचे लिखे
	पद्यों को आप किस भाषा का कहेंगे। दोनों के पद्यों में 'परोजन', 'भोजन', 'कथा' और 'अटल' ऐसे ठेठ हिन्दी और संस्कृत के शब्द मौजूद हैं-
	दुनिया तो चाहती है हंगामये परोजन
	A
	याँ तो है जेब खाली जो मिल गया वह भोजन
	A
	-
	अकबर
	चाहो तो कथा हमसे हमारी सुन लो।
	है टैक्स का वक्त भी इसी तरह अटल
	A
	-
	हाली
	बोले,-उर्दू ही कहूँगा, दो-एक संस्कृत शब्दों के आने से वे हिन्दी के पद्य थोड़े ही हो जावेंगे! मैंने कहा, चौपदों पर आपकी ऐसी निगाह क्यों नहीं पड़ती! कहने
	लगे-चौपदों के वाक्यों में उर्दू तरकीब बिलकुल नहीं मिलती। उसकी वाक्य-रचना अधिाकतर हिन्दी के ढंग की है। हिन्दी का कोई अच्छा शब्द न मिलने पर आपने उसके स्थान
	पर पद्य में संस्कृत का शब्द ही रखा है,फारसी अरबी का शब्द कभी नहीं रखा, फिर मैं उसे उर्दू कैसे कह सकता हूँ! उर्दू के ढंग की रचना चौपदों की अवश्य है, परन्तु
	रंग उस पर हिन्दी का ही चढ़ा है। मैंने कहा तो उसे हिन्दुस्तानी कहिये। उन्होंने कहा, मैं हिन्दुस्तानी कोई जबान नहीं मानता;खिचड़ी ज़बान मैं उसे अवश्य कह सकता
	हूँ। वे ऐसी ही बातें कहते-कहते उठ पड़ते, चलते-चलते कहते-''आप इसे नई हिन्दी भले ही मान लें, पुरानी हिन्दी तो यह हरगिज़ नहीं है और न उर्दू है।''
	एक दिन खड़ी बोली के कट्टर प्रेमी एक नवयुवक आये; छेड़ कर चौपदों की चर्चा की, और बातों-बातों में कह पड़े-''चौपदों की भाषा बेजान-सी मालूम पड़ती है। मैंने कहा,
	उसकी जान मुहावरे हैं। वे बोले, जिसके पास शब्द भण्डार है, वह मुहावरों को कुछ नहीं समझता। मैंने कहा, आप लोग तो ब्रजभाषा जैसी मधुर भाषा को भी निर्जीव मानते
	हैं। उन्होंने कहा, निस्सन्देह! उसके जितने शब्द हैं सब ऐसे ज्ञात होते हैं, मानो उन पर ओस पड़ गयी है। मैंने कहा, शायद आप 'शुभ्रज्योत्स्ना', 'दीर्घ उच्छ्वास',
	'प्रचण्ड दोर्दण्ड' और 'विचारोत्कृष्टता' जैसे शब्दसमूह को पसंद करते हैं। उन्होंने कहा, अवश्य, देखिए न शब्दों में कितना ओज ज्ञात होता है। उसास और उच्छ्वास को
	मिलाइए, पहले शब्द की साँस निकलती जान पड़ती है, दूसरा शब्द ओज-गिरिशिखर पर चढ़ता ज्ञात होता है। मैंने कहा, यह आपका संस्कार है, किन्तु आपको यह जानना चाहिए कि
	साहित्य-संसार में सरल, सुबोधा और कोमल पदावली ही आदृत होती आती है। गौड़ी से वैदर्भी का ही स्थान उच्च है। जिन रसों में परुष शब्दयोजना संगत मानी गयी है, उन
	रसों का वर्णन करते समय परुष शब्दावली में सरल, सुबोधा शब्दमाला का अन्तर्निहित चमत्कार ही लोगों को चमत्कृत करता है। ब्रजभाषा संसार की समस्त मधुर भाषाओं में
	से एक है, उसके शब्दों पर ओस नहीं पड़ गयी है, वे सुधा से धुले हुए हैं। यह दूसरी बात है कि हम फूल को फूल न समझकर काँटा समझें। मयंक में यदि किसी को कल-अंक ही
	दिखलाई पड़ता है, तो यह उसका दृष्टिदोष है, मयंक को इससे कोई क्षति नहीं। मेरी बातों को सुनकर उन्होंने जी में यह तो अवश्य कहा होगा, कि आपका भी तो यह एक
	संस्कार ही है, परन्तु प्रकट में यह कहा-चौपदे सरल सुबोधा अवश्य हैं, परन्तु हम लोगों को उतने रोचक नहीं जान पड़ते। मैंने कहा, यह भी रुचि की बात है, ''भिन्न
	रुचिर्हिलोक:''।
	चौपदों की भाषा के विषय में आये दिन इसी प्रकार की बातें सुनी जाती हैं, अपना विचार प्रकट करने का अधिाकार सबको है, किन्तु तर्क करने वालों की बातों में ही
	रूपान्तर से मेरा पक्ष मौजूद है। वास्तव बात तो यह है कि चौपदों की भाषा ऐसी है कि उसको हिन्दी में छाप दीजिए तो वह हिन्दी और प+ारसी अक्षरों में छाप दीजिए तो
	उर्दू बन जायेगी। थोड़े से अव्यवहृत शब्दों के झगडे क़ोई झगड़े नहीं; उर्दू के बड़े-बड़े कवि भी इस प्रकार के तर्कों से नहीं छूटे। यदि हिन्दुस्तानी भाषा हो
	सकती है,तो ऐसी ही भाषा हो सकती है। किन्तु मैं तो उसे तद्भव शब्दों में लिखी गयी, सरल और सुबोधा हिन्दी ही मानता हूँ, अधिाकतर पद्यों में बोलचाल का निर्वाह
	होने से वह और साफ-सुथरी हो गयी है। बहुतों को वह पसंद आई है, कुछ उससे नाक-भौं सिकोडें तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। सब वस्तु सबको प्यारी नहीं होती।
	पद्यों के कवित्व के विषय में 'काव्य की भाषा', शीर्षक स्तंभ में अपना वक्तव्य प्रकट कर आया हूँ, यहाँ इतना और लिख देना चाहता हूँ कि प्रस्तुत ग्रन्थ का कोई
	पद्य शब्दालंकार और अर्थालंकार से रहित नहीं है। उसके पद्यों में शिक्षा, उपदेश,सदाचार और लोकाचार का सुन्दर चित्रा है, उसमें अनेक मानसिक भावों का उद्धाटन है।
	ग्रन्थ में शृंगार रस का लेश नहीं, न उसमें कहीं अश्लीलता है। कितने भाव उसमें नये हैं, इतने नये कि कदाचित् ही किसी लेखनी ने उसको स्पर्श किया हो। उदाहरण
	स्वरूप इस प्रकार के कुछ पद्य नीचे उध्दृत किये जाते हैं-
	 1. 
	पास तक भी फटक नहीं पाते। सैकड़ों ताड़ झाड़ सहते हैं।
	 
	आप में कुछ कमाल ऐसा है। फिर भी सिर पर सवार रहते हैं।
	× × ×
	 2. 
	जो बहुत मानते हैं उनके पास से। चाह होती है कि कब कैसे टलें।
	 
	जो मिलें जी खोल कर उनके यहाँ। चाहता है जी कि सिर के बलचलें।
	× × ×
	 3. 
	चाह जो यह है कि हाथों से पले। पेड़ पौधों से अनूठे फल चखें।
	 
	तो जिसे हैं आँख में रखते सदा। चाहिए हम आँख भी उस पर रखें।
	× × ×
	 4. 
	किस तरह से सँभल सकेंगे वे। अपने को जो नहीं सँभालेंगे।
	 
	क्यों न खो देंगे आँख का तिल वे। आँख का तेल जो निकालेंगे।
	× × ×
	 5. 
	जो रही मा मकान की फिरकी। वह मिले कुछ अजीब बहलावे।
	 
	हो गई सास गेह पर लट्टई। पाँव कैसे न फेरने जावे।
	इतना गुण होने पर भी यदि कुछ सज्जन यही समझें कि मैंने चौपदों को लिख कर अपना समय नष्ट किया है; यदि'चुभते चौपदे' के देशदशा और समाज-दुर्दशा सम्बन्धाी पद्य उनके
	हृदय को न लुभावें, यदि 'चोखे चौपदे' के भावमय पद्य उनकी भावुकता पर प्रभाव न डालें, यदि 'बोलचाल' के पद्यों से मुहावरों के व्यवहार की शिक्षा उनको न मिले, यदि
	उसके कवित्व-गुण उनके मन को विमुग्धा न करें, और वे अपनी भौंहों की बाँकमता को अधिाक बंक बनाने में ही अपनी साहित्य-मर्मज्ञता समझें तो मैं यही कहूँगा-
	न सितायश की तमन्ना न सिला की पर्वा।
	न सही गर मेरे अशआर में मानी न सही।
	-
	ग़ालिब
	सामयिक अवज्ञा से कोई नहीं बचा, इसकी ओट में ईर्षा, द्वेष, अहम्मन्यता, असहिष्णुता और मानसिक दुर्बलता भी छिपी रहती है, इसलिए इसमें विलक्षण व्यापकता है।
	संस्कृत संसार के अभूतपूर्व महाकवि भवभूति भी इसकी चपेटों से न बचे, अपने क्षोभ को इन शब्दों में प्रकट करते हैं-
	'
	ये नाम केचिदिह न: प्रथयन्त्यवज्ञां जानन्तु ते किमपि तान्प्रति नैष यत्न:।
	उत्पत्स्यतेपि मम कोपि समानधार्मा कालोप्ययं निरवधिार्विपुला च पृथ्वी।
	'
	ऐसी अवस्था में कोई साहित्यिक अपने को सुरक्षित नहीं समझ सकता, और न मैंने सुरक्षित रहने के उद्देश्य से प्रस्तुत ग्रंथ का कुछ परिचय देने की चेष्टा की है। मेरा
	लक्ष्य उसका वास्तविक स्वरूप प्रकट कर देने का है, जिससे उसके सिध्दान्तों और भाषा आदि के विषय में भ्रान्ति न हो। कवियों की प्राचीन परम्परा यह भी है कि वे
	अपने मुख से अपनी बहुत कुछ प्रशंसा करते हैं। पण्डितराज-जगन्नाथ अपने विषय में यह लिखते हैं-
	'
	गिरां देवी वीणा गुणरणनहीनादरकरा।
	यदीयानां वाचाममृतमयमाचामति रसम्।
	वचस्तस्याकर्ण्य श्रवणसुभगं पण्डितपते।
	रधुन्वन्मूधर्ाानं नृपशुरथवायं पशुपति:।
	'
	सुधावर्षी सुकवि जयदेवजी अपने विषय में यह कहते हैं-
	'
	यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्।
	म
	धु
	रकोमलकान्तपदावली शृणु तदा जयदेव सरस्वतीम्।
	'
	भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र की आत्मश्लाघा देखिये-
	'
	परम प्रेमनिधिा रसिकवर
	, 
	अति उदार गुनखान।
	जग जनरंजन आशु कवि
	, 
	को हरिचन्द्र समान।
	जग जिन तृण सम करि तज्यो
	, 
	अपने प्रेम प्रभाव।
	करि गुलाब सों आचमन
	, 
	लीजत वाको नाँव।
	'
	उर्दू कवियों में यह रंग बहुत गहरा है। अनीस और मौलाना अकबर की आत्मप्रशंसा आप सुन चुके हैं, कुछ कवियों की और सुनिये। ग़ालिब कहते हैं-
	'
	रेख़ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब।
	सुनते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था।
	'
	दाग़ का दिलदिमाग़ देखिये-
	'
	तेरी आतिश बयानी दाग़ रोशन है ज़माने पर।
	पिघल जाता है मिस्ले शमा दिल हर इक सखुनदाँ का।
	'
	इन्शाअल्लाह खाँ की ऊँची उड़ान विचित्रा है-
	'
	यक तिफ्ले दविस्ताँ है फलातँ मेरे आगे।
	क्या मूँ है अरस्तू जो करे चूँ मेरे आगे।
	बोले है यही खाम: कि किस किस को मैं बाँ
	धू
	ँ।
	बादल से चले आते हैं मज़मूँ मेरे आगे।
	'
	किन्तु मैं इस पथ का पथिक नहीं-'नवे सो गरुआ होय' सिध्दान्त ही मुझको प्यारा है, यही मेरा जीवनमंत्रा है। इष्ट यह था कि चौपदों की भाषा, भाव आदि के विषय में जो
	अयथा बातें कही गयी हैं, उनको मैं स्पष्ट कर दूँ। मैंने उनका पूरा स्पष्टीकरण करके यही किया है। यदि ऐसा करने में कुछ अनौचित्य हुआ हो तो वह परिमार्जनीय है।
	कुछ शब्दों के व्यवहार और उनके लिंग के विषय में भी तर्क किये गये हैं। ऐसे शब्दों के विषय में मेरा वक्तव्य क्या है,उसे प्रकट कर चुका हूँ। एक शब्द को उदाहरण
	की भाँति उपस्थित करके मैं इस विषय को और स्पष्ट करूँगा। मैंने कहीं-कहीं'कचट' शब्द का प्रयोग किया है, जैसे-'जी की कचट'। जनता की बोलचाल में यह शब्द व्यवहृत
	है, किन्तु लिखित भाषा में इसका प्रयोग लगभग नहीं पाया जाता। किन्तु 'कचट' शब्द जिस भाव का द्योतक है, उस भाव का पर्यायवाची शब्द न मुझको संस्कृत में ही मिलता
	है, न अरबी अथवा फारसी ही में। ऍंग्रेजी में भी शायद न मिलेगा। ऐसी अवस्था में यदि उसका प्रयोग हिन्दी कविता में किया गया, तो मेरा विचार है कि यह कार्य अनुचित
	नहीं हुआ। कविता के लिए लम्बे-लम्बे वाक्यों से एक उचित शब्द का प्रयोग अधिाक उपकारक और भावमय होता है, इस बात को कौन सहृदय न मनेगा! फिर 'कचट' जैसा शब्द क्यों
	छोड़ा जावे, विशेषकर बोलचाल की भाषा लिखने में। 'कचट' शब्द ग्रामीण नहीं है, नागरिक है; इस प्रान्त के पूर्व भाग के कई नगरों में वह बोला जाता है, इसलिए
	ग्राम्य-दोष-दूषित वह नहीं माना जा सकता। यदि ग्राम्य-दोष-दूषित भी वह होता तो भी व्यापकता और भावमयता की दृष्टि से उसका त्याग उचित न कहा जाता, क्योंकि यही तो
	सहृदयता है। भाव और विचार की दृष्टि से जब ग्राम्य कविता भी आदरणीय हो जाती है, तो उपयुक्त ग्राम्य शब्द का आदर न करना क्या सुविवेक होगा! ऐसे कतिपय शब्दों के
	ग्रहण का उद्देश्य, आशा है, इन पंक्तियों से स्पष्ट हो गया होगा। संभव है यह मत सर्वमान्य न हो, किन्तु औचित्य और न्याय-दृष्टि से ही मैं अपना मत व्यक्त करने के
	लिए बाधय हुआ।
	मैं पवन और वायु शब्द को स्त्राीलिंग लिखता हूँ। मेरी यह सीनाजोरी नहीं है; अधिाकांश प्राचीन कवियों ने इन शब्दों को स्त्राीलिंग ही लिखा है, फिर भी इसके
	स्त्राीलिंग लिखने पर तर्क किया गया है; प्राचीन प्रतिष्ठित लेखकों के कुछ पद्य प्रमाण-स्वरूप नीचे उध्दृत किये जाते हैं-
	'
	अकेली भूलि परी बन माँह।
	कोऊ बय बही कतहूँ की छूटि गई पिय बाँह।
	'
	-
	सूरदास
	'
	तुमहूँ लागी 
	जगत गुरु
	, 
	जगनायक जग बाय।
	'
	-
	बिहारी
	'
	चली सीरी बाय तू चली नभो विहान री
	'
	-
	गंग
	, 
	कविता कौमुदी
	, 
	पृ. 
	264
	'
	साँस की पवन लागे कोसन भगत है
	'
	-
	बेनी
	, 
	कविता कौमुदी
	, 
	पृ. 
	360
	'
	बिना डुलाये ना मिलै
	, 
	ज्यों पंखा की पौन
	'
	-
	वृन्द
	, 
	कविता कौमुदी
	, 
	पृ. 
	386
	'
	तैसी मंद सुगंधा पौनदिनमनि दुख दहनी
	'
	-
	नागरी दास
	, 
	कविता कौमुदी
	, 
	पृ. 
	409
	पौन बहैगी सुगंधिा 
	'
	ममारख
	'
	लागैगी ही मैं सलाक सी आयकै
	-
	ममारख
	, 
	सुन्दरी तिलक
	''
	घनी घनी छाया में बन की पवन लागे
	झुकि झुकि आवै नींद कल ना गहति है।
	''
	इसका अर्थ गद्य में यों करते हैं-
	''घनी छाया में मन्दी और ठंडी पवन पाटलि के फूलों की सुगंधा लिये आती है, जिसके लगने से हृदय को सुख होता है।''
	-
	राजा लक्ष्मण सिंह
	''एक ओर से शीतल मन्द सुगन्धा पवन चली आती थी, दूसरी ओर से मृदंग और बीन की धवनि''
	-
	राजा शिवप्रसाद-हिंदी निबंधामाला
	, 
	प्रथम भाग
	, 
	पृ‑
	40
	''
	फूले रैन फूल बागन में सीतल पौन चली सुखदाई
	''
	-
	हरिश्चंद्र
	, 
	कर्पूर मंजरी
	''
	सन सन लगी सीरी पवन चलन
	''
	-
	हरिश्चंद्र
	, 
	नील देवी
	''
	तथा सिन्धाु से चली वायु तहाँ पंखा शीत चलाती है
	''
	''
	अभाव से नहिं बुझे नहीं लालसा पवन जिसको लागी
	''
	 -
	पं. श्रीधार पाठक
	, '
	श्रान्त पथिक
	', 
	पृ. 
	6, 11
	''पवन तीन प्रकार की होती है शीतल, मन्द, सुगन्धा-जल स्पर्श करती हुई जो पवन चलती है उसे शीतल पवन कहते हैं। ठहर-ठहर कर धीमी गति से चलने वाली पवन को मन्द पवन
	कहते हैं, इत्यादि-
	भानु कवि-काव्य प्रभाकर
	, 
	पृष्ठ 
	361
	श्रीधार भाषाकोष (पृ. 396) में पवन को स्त्राीलिंग लिखा है।
	पं. कामताप्रसाद गुरु ने अपने हिन्दी व्याकरण में पवन को संस्कृत में पुंल्लिंग और हिन्दी में स्त्राीलिंग माना है।
	बात यह है कि हिन्दी भाषा में बयार और बतास शब्द स्त्राीलिंग हैं, इन्हीं के साहचर्य से वायु और पवन को भी स्त्राीलिंग लिखा जाने लगा। कोई-कोई कहते हैं कि हवा,
	शब्द के संसर्ग से ही, पवन और वायु को भी स्त्राीलिंग लोग लिखने लगे, किन्तु मैं इसको स्वीकार नहीं करता। 'हवा' फारसी शब्द है। उसका व्यापक प्रचार होने के पहले
	ही उक्त शब्दों का स्त्राीलिंग लिखना प्रारम्भ हो गया था; सूरदास जी की कविता इस बात का प्रमाण है। पुस्तक, जप, औषधा, आत्मा, विनय आदि शब्द संस्कृत में पुल्लिंग
	लिखे जाते हैं, हिन्दी में स्त्राीलिंग। देवता संस्कृत में स्त्राीलिंग है, हिन्दी में पुल्लिंग। यदि ये प्रयोग तर्कयोग्य नहीं, तो पवन और वायु का स्त्राीलिंग
	में व्यवहार करना भी आक्षेपयोग्य नहीं। इस समय कुछ हिन्दी लेखक इन शब्दों को संस्कृत के अनुसार पुल्लिंग लिखते हैं, किन्तु अधिाकांश लोग अब भी इनको स्त्राीलिंग
	ही मानते हैं। यदि खड़ी बोली और सामयिक शुध्द परिवर्तनों की दुहाई देकर उक्त शब्दों का पुल्लिंग लिखना उचित समझा जावे, तो संस्कृत के उन अनेक शब्दों के लिंग को
	भी बदलना होगा, जिनका व्यवहार हिन्दी में उनके प्रयोग के प्रतिकूल किया जाता है। यदि सर्वसम्मत हो तो ऐसा करना, अथवा हो जाना असम्भव नहीं, किन्तु मैं समझता हूँ
	इसमें एकवाक्यता न होगी, क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि संस्कृत के अनुसार ही हिन्दी भाषा के सब प्रयोग हों। दोनों भाषाएँ भिन्न-भिन्न हैं; सुविधा के अनुसार
	हिन्दी भाषा स्वतंत्रा पथ ग्रहण कर सकती है। भाषा का नियम ही यही है, एक भाषा अन्य भाषा से आवश्यक शब्द लेती है, परन्तु उसको अपने रंग में ढाल देती है, और अपनी
	अवस्था के अनुसार उसमें परिवर्तन भी कर लेती है। मैं समझता हूँ, वायु और पवन शब्द अथवा इसी प्रकार के शब्दों को भी उभयलिंगी मान लेना ही उत्ताम है। प्रत्येक
	भाषा में ऐसे शब्द मिलेंगे। उर्दू का 'बुलबुल'शब्द भी ऐसा ही है। लखनऊ वाले कवि उसको पुल्लिंग और देहली वाले स्त्राीलिंग लिखते हैं। ऐसे ही दूसरी भाषाओं के भी
	अनेक शब्द बतलाये जा सकते हैं।
	र् कत्ताव्यसूत्रा से मुझको 'बोलचाल' नामक ग्रन्थ के कतिपय विषयों पर प्रकाश डालना, और कतिपय शब्दों के प्रयोग के विषय में भी अपना विचार प्रकट करना आवश्यक बोधा
	हुआ। आशा है विबुधाजन उसी भाव से इन बातों को ग्रहण करेंगे, जिस भाव से कि वे लिखी गयी हैं। किसी विवाद के वशीभूत होकर मैंने ऐसा नहीं किया है; भ्रम, प्रमाद यदि
	कहीं दृष्टिगत हो तो,सूचना मिलने पर मैं उसको सच्चे हृदय से स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत हूँ।
	मैंने इस भूमिका के लिखने में अनेक ग्रन्थों से सहायता ली है। मैंने उनके अवतरण भी आवश्यक स्थलों पर उठाये हैं,इसके लिए मैं उक्त ग्रन्थों के रचयिताओं का हृदय
	से कृतज्ञ हूँ, और विनीत भाव से उनके प्रति कृतज्ञता प्रकाश करताहूँ।
	'
	काशी धाम
	' -
	हरिऔधा
	 
	 
	 
	 
	बाल
	 
	देव देव
	
		
	
	चौपदे
	बात कैसे बता सकें तेरी।
	हैं मुँहों में लगे हुए ताले।
	बावले बन गये न बोल सके।
	बाल की खाल काढ़ने वाले।1।
	पाँव मेरे हिले नहीं वाँ भी।
	थे बखेड़े जहाँ अनेक मचे।
	हर जगह मिल गये तुमारा बल।
	सब बलाओं से बाल बाल बचे।2।
	ठीक लौ जो लगी रहे हरि ओर।
	तो करेगा न कुछ जगत-जंजाल।
	जो न होती रहे कपट की काट।
	क्या रखे और क्या कटाये बाल।3।
	पा तुम्हें जो भूल अपने को गया।
	वह डराये, कब किसी से डर सका।
	जो कि प्यारे हाथ तेरे बिक गये।
	कौन उनका बाल बाँका कर सका।4।
	सब जगह जिसकी दिखाती है झलक।
	जान उसको वे न जो अब तक सके।
	तो हुए बूढ़े बने पक्के नहीं।
	धूप में ही बाल उनके हैं पके।5।
	निराले नगीने
	कर रहे हैं न भूल, भूलों को।
	जो भली बात हैं बता आते।
	क्या बहुत ही मलीन होने से।
	बाल मैले मले नहीं जाते।6।
	बात बूढ़े जवान की क्या है।
	टल सकीं कब बुरी लतें टाले।
	बाँकपन को सुपेद होकर भी।
	छोड़ते हैं न बाल घुँघुराले।7।
	काम अपना निकालने में कब।
	और पर और को दया आई।
	दे सदा हाथ से जड़ों में जल।
	काटते बाल कब कँपा नाई।8।
	पाप को पाप जो न मानें, वे।
	क्यों किसी पाप में न ढल जाते।
	देख कर बाल क्यों न वे निगलें।
	जो खड़े बाल हैं निगल जाते।9।
	बने बरतन
	मैं नहीं चाहता जवान बना।
	क्या करें पेट सब कराता है।
	कब भला सादगी पसंदों को।
	बाल रँगना पसंद आता है।10।
	है उन्हें काम मतलबों से ही।
	वे करें क्यों सलूक किस नाते।
	आँख से देख कर बिना हिचके।
	जो खड़े बाल हैं निगल जाते।11।
	लानतान
	पढ़ चुके सारी कमाई हो चुकी।
	हाथ सब कुछ हम अभागों के लगा।
	जब तुमारा इस तरह आठो पहर।
	बाल की ही खूँटियों पर जी टँगा।12।
	मीठी चुटकी
	बाप दादों की छोटाई की कभी।
	इस छँटाई में न कुछ परवा रहे।
	पर बता दो तज छटापन यह हमें।
	हो छँटे क्यों बाल हो छँटवा रहे।13।
	बोझ लादे हुए फिरे सिर पर।
	दूसरों का बिगाड़ क्या पाये।
	वह तुम्हीं को लिपट गई उलटे।
	बाल रख कर भली बला लाये।14।
	बात बात में बात
	उस्तुरों से उड़े हवा में उड़े।
	और दो चार पौडरों से उड़े।
	इस तरह से उड़ा किये लेकिन।
	पर लगाकर कभी न बाल उड़े।15।
	रूप औ रंगतें बदलने के।
	लग गये हैं उन्हें अजब चसके।
	बात में बात यह मिली न्यारी।
	बँधा गये कस गये मगर खसके।16।
	लताड़
	एक बेमुँहकी किसी दुधामुँही पर।
	यों बिपत ढाना न तुमको चाहिए।
	चूसने को उस बिचारी का लहू।
	बाल चुनवाना न तुमको चाहिए।17।
	बुरी लत
	संगतें की भली सँभाल चले।
	पर भला किस तरह कुबान छुटे।
	जी करे है चपत जमाने को।
	देख करके किसी के बाल घुटे।18।
	दुनियादारी
	टूटना जब कि चाहिए था जाल।
	तब गया और भी जकड़ जंजाल।
	बढ़ गई और भी सुखों की भूख।
	जब कि खिचड़ी हुए हमारे बाल।19।
	अन्योक्ति
	क्यों न लहरा लहर उठायें वे।
	साँप कह लोग तो डरे ही हैं।
	आँख में धूल क्यों न वे झोंकें।
	बाल तो धूल से भरे ही हैं।20।
	हैं अगर बारबार धुल निखरे।
	तो करें बेतरह न नखरे ए।
	जो खरे हैं न तो खरे मत हों।
	बिख बिखेरें न बाल बिखरे ए।21।
	बीर जैसा जमा उन्हें देखा।
	जब कटे आन बान साथ कटे।
	कब दबे बाल के बराबर भी।
	बाल भर भी कभी न बाल हटे।22।
	है बुराई में भलाई रंग भी।
	नेह में 'रूखा बहुत बनकर' सना।
	है छँटाने से छटा उसको मिली।
	जब बना तब बाल बनवाये बना।23।
	जब मिले तब मिले बड़े सीधो।
	चौगुने नेह चाह को देखो।
	हैं धुले धूल से भरे भी हैं।
	बाल के बालभाव को देखो।24।
	गूँधा डाले गये गये खोले।
	तेल उन पर मले गये तो क्या।
	वे जगह पर जमे रहे अपनी।
	बाल पर जो छुरे चले तो क्या।25।
	आप उन पर पड़ी न अच्छी आँख।
	दूसरों को दिया भरम में डाल।
	छोड़ अपना सियाह असली रंग।
	हैं खटकते किसे न भूरे बाल।26।
	छूटना है मुहाल खोटा रंग।
	जल्द आई पसंद गंदी चाल।
	धो सियाही सके न धुल सौ बार।
	भर गये धूल में भले ही बाल।27।
	चोटी
	 
	सूझ-बूझ
	चोट जी को जब नहीं सच्ची लगी।
	प्रेमधारा जब नहीं जी में बही।
	चोंचलों से नाथ रीझेगा न तब।
	है गई यह बात चोटी की कही।28।
	सूरमे
	खौलता जिनकी रगों का है लहू।
	है दिलेरी बाँट में जिनके पड़ी।
	डाँट सुनकर सूरमापन से भरी।
	कब न उनकी हो गई चोटी खड़ी।29।
	लानतान
	धार्म की वे दूह क्यों पोटी न लें।
	चौगुनी जब चाह रोटी की रखें।
	जब चटोरे बन कटा चोटी सके।
	किस तरह तब लाज चोटी की रखें।30।
	बेबसी
	सब सहेंगे पर करेंगे चूँ नहीं।
	बेबसी होगी बहुत हम पर फबी।
	सिर सकेंगे किस तरह से हम उठा।
	जो तले हो पाँव के चोटी दबी।31।
	हितलटके
	मर मिटे पर छोड़ दे हिम्मत नहीं।
	एक भी साँसत न सीधो से सहे।
	है न खोटी बात इससे दूसरी।
	हाथ में जो और के चोटी रहे।32।
	पछतावा
	रंगरलियाँ मना जनम खोया।
	रंग लाती रही समझ मोटी।
	तब खुली आँख और सुधा आई।
	जब कि ली काल ने पकड़ चोटी।33।
	लताड़
	अब तो चूड़ी पहन हाथ में दोनों।
	रहा माँग में सेंदुर ही का भरना।
	तब से सारा मरदानापन भागा।
	जब से सीखा कंघी-चोटी करना।34।
	 
	सिर
	देव देव
	पा गये तेरा सहारा सब सधा।
	पार पाया प्यारधारा में बहे।
	एक तेरे सामने ही सिर नवा।
	सिर सबों के सब जगह ऊँचे रहे।35।
	डूब जाये या कि उतराता रहे।
	क्या उसे जो प्यारधारा में बहा।
	बेंच तेरे हाथ जिसने सिर दिया।
	फिर उसे क्या सिर गया या सिर रहा।36।
	एक से एक हैं बढ़े दोनों।
	ढूँढ उनके सके न पैमाने।
	चूक अपनी, न चूकना प्रभु का।
	सिर लगा सोच सोच चकराने।37।
	फूल गेंदे गुलाब बेले के।
	एक ही सूत में गये गाँथे।
	आपकी सूझ को कहें क्या हम।
	आपकी रीझ बूझ सिर माथे।38।
	अपने दुखड़े
	सब तरह से दबे हुए जो हैं।
	वे नहीं दाँत काढ़ते थकते।
	क्यों न उन पर सितम करे कोई।
	वे कभी सिर उठा नहीं सकते।39।
	क्या छिपाये रहे बचाये क्या।
	सब घरों बीच जब कि लूट पड़े।
	क्या करे औ किसे पुकारे क्या।
	जब कि सिर पर पहाड़ टूट पड़े।40।
	सजीवन जड़ी
	किस लिए सिर को नवाता तब फिरे।
	जब कि सिर पर सब बलाओं कोलिया।
	मूसलों की तब करे परवाह क्या।
	जब किसी ने ओखली में सिर दिया।41।
	फेर में कौन है नहीं पड़ता।
	क्या नहीं दिन फिरा किसी काफिर।
	सिर गया घूम किस लिए इतना।
	ठीकरा फोड़ दूसरों के सिर।42।
	क्यों नहीं सिरतोड़ कोशिश कर सके।
	गिर गये क्यों जाति को अपनी गिरा।
	किस तरह तब सिर सुजस-सेहरा बँधो।
	जब कि होवे सिरधारों का सिर फिरा।43।
	जाति हित की राह है काटों भरी।
	वे खलें कुछ को सभी को क्यों खलें।
	बिछ सकें तो क्यों न आँखें दें बिछा।
	चल सकें तो क्यों न सिर के बल चलें।44।
	काम धीरज से जिन्होंने है लिया।
	कब झमेले देख उनके मुँह सुखे।
	सह सके जो लोग सारी सिर पड़ी।
	वे दुखी देखे गये कब सिर दुखे।45।
	सूरमा एक बार मरता है।
	नित मरेंगे सहम सहम कायर।
	छोड़ दे सूर बीर क्यों साहस।
	काल है नाचता नहीं सिर पर।46।
	वे बिपत को देख कर दहले नहीं।
	वे नहीं घबरा गये दुख से घिरे।
	लोक हित के हाथ जिनके सिर बिके।
	वे हथेली पर लिये ही सिर फिरे।47।
	हितगुटके
	दूसरे उसको सतायेंगे न क्यों।
	जो सताता और को है हर घड़ी।
	किसलिए यों आप हैं सिर धुन रहे।
	आपके सिर आपकी करनी पड़ी।48।
	चाहता है जो भला अपना किया।
	आप भी वह और का चाहे भला।
	जो फँसाते हैं बला में और को।
	क्यों भला आती न उनके सिर बला।49।
	नीच सिर पर जब चढ़ा सोचा न तब।
	सिर पकड़ते हो भला अब किसलिए।
	जब कि धूआँ उठ सका ऊँचा कभी।
	तब किसे छोड़ा बिना मैला किए।50।
	छोड़ दो बान बात गढ़ने की।
	रेत पर भीत रह सकी कब थिर।
	कुछ तुम्हीं हो नहीं समझवाले।
	यह समझ लो कि है समझ सिर सिर।51।
	उँगलियाँ जो कड़ी मिलीं तुमको।
	तोड़ते मत फिरो नरम पंजा।
	है बुरी बात जो किसी का सिर।
	मारते मारते करें गंजा।52।
	है निठुरपन औ बड़ा ही नीचपन।
	है नहीं कोई बड़ा इससे सितम।
	पाँव का ठोकर जमाने के लिए।
	क्यों किसी का सिर बना दें गेंद हम।53।
	तीन पन तो पाप करते ही गया।
	सब तरह की की गयी सबसे ठगी।
	तब भला क्या मन मनाने तुम चले।
	जब कि सिर पर मौत मँडलाने लगी।54।
	थपेड़े
	वह खुले आम हो गया नीचा।
	आँख से नेकचलनियों की गिर।
	बात की सूझ बूझ की तुमने।
	जो बड़ों को नहीं नवाया सिर।55।
	पास तक भी फटक नहीं पाते।
	सैकड़ों ताड़ झाड़ सहते हैं।
	आपमें कुछ कमाल है ऐसा।
	फिर भी सिर पर सवार रहते हैं।56।
	धूल में मिल जाय वह सुकुमारपन।
	जो किसी की धूल उड़वाने लगे।
	फूल ही तो टूट कर उस पर गिरा।
	किस लिए सिर आप सहलाने लगे।57।
	औरों की चुटकी लेते लेते ही।
	तुम ने ही सब अपने परदे खोले।
	इसको ही कहते हैं कहनेवाले।
	जादू वह जो सिर पर चढ़ कर बोले।58।
	तोड़ देंगे सिर बड़प्पन का न क्यों।
	लड़ बड़ों के साथ जड़पन के सगे।
	है उन्हीं की चूक पत्थर क्या करे।
	टूट जावे सिर अगर टक्कर लगे।59।
	जी कड़ाई में निरे जड़ जीव का।
	पत्थरों से है बढ़ा होता कहीं।
	भाग से आई मुसीबत टल गई।
	सिर अगर टकरा गये टूटा नहीं।60।
	धूल में ही आपने रस्सी बटी।
	दैव से भी आपकी है चल गई।
	क्या हुआ जो और पर आई बला।
	आपके सिर की बला तो टल गई।61।
	मर्यादा
	जो अदब के सामने हैं झुक चुके।
	जो सके मरजाद के ही संग रह।
	रँग जमाने को बड़ों के सामने।
	सिर उठायेंगे भला वे किस तरह।62।
	पड़ सकती जो नहीं किसी पर सीधी।
	क्यों न धूल उन आँखों में देवें भर।
	प्यार छलकता है जिनकी आँखों में।
	रखें लोग क्यों उन्हें न सिर आँखों पर।63।
	छेड़छाड़
	चाहिए था इस तरह हिलाना उसे।
	जो कि देता फूल सा सबको खिला।
	देख जिसको मुँह बहुत कुम्हला गये।
	इस तरह से आपका सिर क्यों हिला।64।
	चाँदनी कितने कलेजों में पसार।
	सैकड़ों ही आँख से मोती निकाल।
	सब निराले ढंग के पुतले हैं आप।
	सिर हिलाना भी दिखाता है कमाल।65।
	झिड़की
	देखिये, मत टालिये, कर दीजिये।
	राह में काँटे हमारी बो गये।
	कह दिया था हो सकेगा अब न कुछ।
	आज फिर क्यों आप यों सिर हो गये।66।
	वे कभी फूले फलेंगे ही नहीं।
	जो बिपत है दूसरों पर ढाहते।
	जो नहीं तुम मानते यह बात हो।
	तो नहीं हम सिर खपाना चाहते।67।
	जोखों
	बेबसी से आज जोखों में पड़े।
	नीच हैं धान चाहते दुख झेल कर।
	क्या हमें थोड़ा मिला लाखों मिले।
	सिर गँवाया जो न सिर से खेलकर।68।
	अभागे
	आज मैं बेचैन क्यों इतना हुआ।
	इस तरह से क्यों घड़ों आँसू बहा।
	एक पल भी आँख लग पाई नहीं।
	रात भर सिर दर्द क्यों होता रहा।69।
	दुख बहुत भोगे, बड़ी साँसत सही।
	आँसुओं की धार ही में नित बहे।
	टूट पड़ती ही रही सिर पर बिपद।
	सिर पटकते कूटते ही हम रहे।70।
	दिनों का फेर
	मुँह दिखातीं नहीं उमंगें अब।
	सब बड़े चाव हो गये सपने।
	है बुढ़ापा डरावना इतना।
	सिर लगा बात बात में कँपने।71।
	है दिनों के फेर से किसकी चली।
	थे पड़े नुच धूल में बेले खिले।
	ताज थे जिन पर कभी हीरे जड़े।
	उन सिरों को पाँव ठुकराते मिले।72।
	सिर सूँघना
	गोद में चाव से सभों को ले।
	नेह की बेलि सींच देते हैं।
	प्यार की बास से न बस में रह।
	सिर उमग लोग सूँघ लेते हैं।73।
	अपना मतलब
	दी गई क्यों डाल मेरे सिर बला।
	बच गये हम आज सिर से खेल के।
	दूसरों की आँख में सब दिन रहे।
	दूसरों के सिर बराबर बेल के।74।
	तरह-तरह की बातें
	दुख-हवायें हैं बहुत झकझोरतीं।
	क्यों नहीं सुख-पेड़ की हिलतीं जड़ें।
	है मुसीबत की घटा घहरा रही।
	क्यों न ओले सिर मुड़ाते ही पड़ें।75।
	खायँगे मुँह की पड़ेंगे पेंच में।
	जो खिजाने और बहकाने लगे।
	कोढ़ की तो खाज हम हैं बन रहे।
	किस लिए सिर आप खुजलाने लगे।76।
	जो बला जाने बिना ही सिर पडे।
	क्यों भला उससे न जाते लोग घिर।
	किस तरह बन्दर बिचारा जानता।
	है तबेले की बला बन्दर के सिर।77।
	दूसरों को देख फलते फूलते।
	मुँह बना जिसका रहा सब दिन तवा।
	क्यों कलेजे के बिना जनमा न वह।
	सिर सुबुकपन पर दिया जिसने गँवा।78।
	है बुरा कुछ धान जगह के ही लिये।
	बेंच करके नाम जो कोई जिये।
	नामियों ने राज की तो बात क्या।
	नाम पाने के लिए सिर तक दिये।79।
	चूक है तब भी अगर सँभले नहीं।
	जब कि ऊँचे पर हुए आकर खड़े।
	भूल है तब भी न जो भारी बने।
	जब कि सारा भार सिर पर आ पड़े।80।
	थे अभी कल तक रगड़ते नाक वे।
	आज इतना किस तरह जी बढ़ गया।
	कर उतारा हम उतारेंगे उसे।
	भूत सिर पर जो किसी के चढ़ गया।81।
	बन गईं चाहतें चुड़ैलों सी।
	रँग चढ़ा सूरतें निवानी का।
	चोचले चल गये उमंगों के।
	भूत सिर पर चढ़े जवानी का।82।
	जो कि उकठा काठ है बिलकुल उसे।
	क्यों खिलाना या फलाना हम चहें।
	क्या करेंगे तीर पत्थर पर चला।
	कूढ़ से सिर मारते कब तक रहें।83।
	सिर और बाल
	तब हरा कुँभला गया जी भी बना।
	क्यों भला उनसे न रस बूँदें चुएँ।
	सिर! बले तुम में दिये जो ज्ञान के।
	जब उन्हीं के बाल काले हैं धुएँ।84।
	देख कर उनका कड़ापन रूप रँग।
	बात सिर! मैंने कही कितनी सही।
	हो बुरे कितने विचारों से भरे।
	बाल बन कर फूट निकले हैं वही।85।
	जब कि सिर बो दिये बदी के बीज।
	जब बुरे रंग में सके तुम ढाल।
	तब भला किस लिये न लेते जन्म।
	बाल जैसे कुरूप काले बाल।86।
	सिर और पाँव
	जोहते मुँह दिन बिताते एक हैं।
	एक के जी की नहीं कढ़ती कसर।
	पाँव सिर को हैं लगाते ठोकरें।
	सिर सदा गिरते मिले हैं पाँव पर।87।
	तुम उसे भी कभी न हीन गिनो।
	जो दबा नित रहे बहुत ही गिर।
	पाँव ने ठोकरें लगा करके।
	कर दिये चूर चूर कितने सिर।88।
	घट सकेगा पद न भारी का कभी।
	बात लगती कह भले ही ले छटा।
	जो लगादीं पाँव ने कुछ ठोकरें।
	तो भला सिर मान इससे क्या घटा।89।
	तुम न भारीपन गँवा हलके बनो।
	मत किसी को प्यार करने से रुको।
	हैं अकड़ते पाँव तो अकड़े रहें।
	पर सभी के सामने सिर तुम झुको।90।
	अन्योक्ति
	थी कभी चमकी जहाँ पर चाँदनी।
	देख पड़ती है घटा काली वहीं।
	धूल सिर! तुम पर गिरी तो क्या हुआ।
	फूल चन्दन ही सदा चढ़ते नहीं।91।
	मत करो हर बात में चालाकियाँ।
	साथ में पड़ तुम किसी सिरफिरे के।
	हैं बनी बातें बिगड़ जातीं कहीं।
	सिर! बने चालाक परले सिरे के।92।
	गोद में गिर प्यार के पुतले बने।
	जंग में गिर कर सरगसुखसे घिरे।
	पर उसी दिन सिर! बहुत तुम गिर गये।
	पाजियों के पाँव पर जिस दिन गिरे।93।
	यों न थोड़ा मान पा इतरा चलो।
	धूल उड़ती कब नहीं है धूल की।
	सिर अगर फूले समाते हो नहीं।
	फूल की माला पहन तो भूल की।94।
	था भला तुम खुल गये होते तभी।
	जब तुमारा ढब न जाता था सहा।
	चोट खाई तर लहू से हो गये।
	तब अगर सिर! खुल गये तो क्या रहा।95।
	जब बुरी रुचि-कीच में डूबे रहे।
	तब हुआ कुछ भी नहीं नित के धुले।
	सिर! यही था ठीक खुलते ही नहीं।
	बेपरद करके किसी को क्या खुले।96।
	साधाते निज काम वैसे ही रहे।
	जब तुमारा काम जैसे ही सधा।
	सिर कभी तुम पर बँधी सेल्ही रही।
	मोतियों का था कभी सेहरा बँधा।97।
	जब पड़े लोग टूट में तुमसे।
	तब अगर टूट तुम गये तो क्या।
	जब रहे फूट डालते घर में।
	तब अगर फूट तुम गये तो क्या।98।
	झोंक दो उन मतलबों को भाड़ में।
	उन पदों को तुम गिनो मुरदे सड़े।
	मान खो अभिमानियों के पाँव पर।
	सिर! तुम्हें जिनके लिए गिरना पड़े।99।
	सब तरह की की गई करनी व फल।
	रात दिन सम साथ दोनों हैं जुड़े।
	सिर रहे जब दूसरों को मूँड़ते।
	तब भला तुम भी न क्यों जाते मुड़े।100।
	जब कलेजा ही तुमारे है नहीं।
	तब सकोगे किस तरह तुम प्यार कर।
	सिर! जले वह सुख तुम्हें जो मिल सका।
	बार अपने को छुरे की धार पर।101।
	जब सके बाँधा पूच मंसूबे।
	तब तुम्हें क्यों न हम बँधा पाते।
	जब कि अन्धोर कर रहे हो सिर!
	तब न क्यों बाल बाल बिन जाते।102।
	लोग बेजोड़ चाल चलते ही।
	चट लगा जोड़ बन्द लेवेंगे।
	सिर अगर तोड़फोड़ भाता है।
	तो तुम्हें तोड़ फोड़ देवेंगे।103।
	सर भलाई हाथ में ही सब दिनों।
	सब निराले रंग की ताली रही।
	कब भला उजले हुए जल से धुले।
	कब लहू से लाल हो लाली रही।104।
	सिर बहुत से बंस को तुमने अगर।
	कर दिया बरबाद आपस में लड़ा।
	तो तुमारी बूझ मिट्टी में मिली।
	औ तुमारी सूझ पर पत्थर पड़ा।105।
	सादगी में कब भले लगते न थे।
	बाँकपन किसने दिया तुमको सिखा।
	सिर अगर पट्टा लिया तुमने रखा।
	तो बनावट का लिया पट्टा लिखा।106।
	बाल जूड़े में अभी तो थे बँधो।
	छूटते ही क्यों उन्हें लटका दिया।
	भूल अपनापन फबन की चाह से।
	सिर तुम्हीं सोचो कि तुमने क्या किया।107।
	हो सनक सिड़ सेवड़ापन से भरे।
	सब तरह की है बहुत तुममेंकसर।
	पर सराहे सिर गये सबमें तुमही।
	यह सरासर है कमालों का असर।108।
	खोपड़ी
	हितगुटके
	आँच में पड़ लाल जब लोहा हुआ।
	मार पड़ती है तभी उस पर बड़ी।
	जब कि होते हो तमक कर लाल तुम।
	लाल हो जाती न तब क्यों खोपड़ी।1।
	डाँट के साथ बेधाड़क मुँह से।
	जब कि हैं गालियाँ निकल आती।
	लट्ठ का सामना हुए पर तो।
	खोपड़ी लाल क्यों न हो जाती।2।
	फल उसी की करनियों का वह रही।
	जब कभी जिसको भुगुतनी जो पड़ी।
	गंज उसमें है बुराई का न कम।
	हो गई गंजी इसी से खोपड़ी।3।
	क्यों बिठाली तभी नहीं पटरी।
	जब बढ़ा बैर था न थी पटती।
	जब कि रिस से रही फटी पड़ती।
	तब भला क्यों न खोपड़ी फटती।4।
	जड़ लड़ाई की कहाती है हँसी।
	लत हँसी की छोड़ दो, मानो कही।
	क्यों खिजाते खीजनेवालों को हो।
	खोपड़ी तो है नहीं खुजला रही।5।
	सुनहली सीख
	है बुरे संग का बुरा ही हाल।
	कब न उसने दिया बिपद में डाल।
	थी चली तो कुचालियों ने चाल।
	खोपड़ी हो गई हमारी लाल।6।
	फूल बरसे, फूल ही मुँह से झड़े।
	कब नहीं लोहा लिये लोहू बहा।
	चाहिए था रंग बिगड़े ही नहीं।
	रँग गई जो खोपड़ी तो क्या रहा।7।
	काम कब जागे मसानों में सधो।
	भाग जागे कब किये भूलें बड़ी।
	हो जगाते खोपड़ी क्यों मरमिटी।
	छोड़ जीती जागती निज खोपड़ी।8।
	जो कि बेचारपन सिखाती है।
	मिल न जिसमें सके बिचार बड़े।
	खोपड़ी कौन काम की है वह।
	दे सके काम जो न काम पड़े।9।
	निराले-नगीने
	कौन केवल नाम पाने के लिए।
	साँसतें अपनी कराता है बड़ी।
	हम कहे जावें धानी, इस चाह से।
	कौन गंजी है कराता खोपड़ी।10।
	दूसरों के ही गुनाहों से कभी।
	बेगुनाहों ने उठाये दुख बड़े।
	मुँह सुनाता बेतुकी गाली रहा।
	पर थपेड़े खोपड़ी ही पर पड़े।11।
	बेढंगे
	कह सुनायेंगे न मानेंगे कभी।
	बात चाहे हो न कितनी ही सड़ी।
	कुछ अजब है खोपड़ी उनकी बनी।
	जो कि खा जाते हैं सबकी खोपड़ी।12।
	कह बड़ी पूच बेतुकी बातें।
	बेतुकापन बहुत दिखाते हैं।
	है अजब चाट लग गई उनको।
	खोपड़ी जो कि चाट जाते हैं।13।
	दिनों का फेर
	फूल की माला कभी जिस पर फबी।
	कँलगियाँ जिस पर रहीं सब दिन ठटी।
	धूल में मिल कर पड़ी थी खेत में।
	एक दिन वह खोपड़ी टूटी फटी।14।
	बीत सकते एकसे सब दिन नहीं।
	एकसी होती नहीं सारी घड़ी।
	बास से जो थी फुलेलों के बसी।
	बाँस खाये थी पड़ी वह खोपड़ी।15।
	तरह तरह की बातें
	डाल कितने बल बुलाया है उसे।
	है बला सिर पर हमारे जो पड़ी।
	हम भला कैसे न औंधो मुँह गिरें।
	है अजब औंधी हमारी खोपड़ी।16।
	लोग कितने लुट हँसी में ही गये।
	खेल में फँकती है कितनी झोंपड़ी।
	कौनसे ऍंधोर अंधाधुंधा को।
	कर दिखाती है न अंधी खोपड़ी।17।
	सोच कर अपनी गई-बीती दशा।
	है नहीं जिसमें कि हलचल सी पड़ी।
	मैं कहूँगा तो हुआ कुछ भी नहीं।
	जो न सौ टुकड़े हुई वह खोपड़ी।18।
	क्यों कढ़ेंगे चिलचिलाती धूप में।
	वे सहेंगे किस तरह आँचें कड़ी।
	भाग से ही धूप थोड़ी सी लगे।
	है चिटिक जाती न जिनकी खोपड़ी।19।
	 
	माथा
	 
	 
	देव देव
	देखने वाली अगर आँखें रहें।
	तो कहाँ पर नाथ दिखलाये नहीं।
	बीच ही में घूम है माथा गया।
	लोग माथे तक पहुँच पाये नहीं।1।
	दिल के फफोले
	कल नहीं जिसके बिना पल भर पड़ी।
	देख कर जिसका सदा मुखड़ा जिए।
	जो वही दे आँख में चिनगी लगा।
	तो भला माथा न ठनके किस लिए।2।
	पीस डाला है जिन्होंने जाति को।
	फिर मचाने वे लगे ऊधाम नये।
	देख कर यह घूम सिर मेरा गया।
	बैठ माथे को पकड़ कर हम गये।3।
	करतबी
	क्या नहीं है कर दिखाता करतबी।
	कब कमर कस वह नहीं रहता खड़ा।
	उलझनें आईं बहुत सी सामने।
	बल न माथे पर कभी उसके पड़ा।4।
	पाठ जिसने कर दिखाने का पढ़ा।
	संकटों में जो सका जीवट दिखा।
	काम करके ही जगह से जो टला।
	वह सका है टाल माथे का लिखा।5।
	हैं चिमट कर काढ़ लेतीं चींटियाँ।
	धूल में मिलजुल गई चीनी छिंटी।
	है भला किस काम का वह जो कहे।
	कब किसी से लीक माथे की मिटी।6।
	धाक जिनकी मानती दुनिया रही।
	साधा कर सब काम जो फूले फले।
	वे भला कब छोड़ अपने पंथ को।
	मान माथे की लकीरों को चले।7।
	काम की धुन में लगे हँसते हुए।
	सब तरह की आँच को जिसने सहा।
	लीक माथे की कुचल कर जो बढ़े।
	कब भला उनके न माथे धान रहा।8।
	दूर कर दूँगा उपायों से उन्हें।
	बासमझ यह बात जी में ठान लें।
	उलझनें जितनी कि माथे पर पड़ें।
	फेर माथे का न उसको मान लें।9।
	नई पौधा
	हैं नई पौधों बिगड़ती जा रहीं।
	क्या कहूँ यह रोग उपजा है नया।
	देख कर उनका निघरघटपन खुला।
	लाज से माथा हमारा झुक गया।10।
	निज धारम से ए खिंचे ही से रहे।
	खिंच नहीं आये इधार खींचा बहुत।
	देख इनका इस तरह माथा फिरा।
	आज माथा हो गया नीचा बहुत।11।
	आजकल के छोकरे सुनते नहीं।
	हम बहुत कुछ कह चुके अब क्या कहें।
	मानते ही वे नहीं मेरी कही।
	हम कहाँ तक मारते माथा रहें।12।
	सब पढ़ा लिक्खा मगर कोरे रहे।
	रह नहीं पाया छिछोरापन ढका।
	क्यों बड़ों का कर नहीं सकते अदब।
	देख उनको क्यों न माथा झुक सका।13।
	दूसरा क्या काम होगा आपसे।
	फबतियाँ लेंगे बनायेंगे उन्हें।
	कह दिया बाबा यही क्या कम किया।
	आप क्यों माथा नवायेंगे उन्हें।14।
	कूढ़
	कुछ न समझे बेतुकी बातें कहे।
	कुछ न जाने, जानने का दम भरे।
	इस तरह के कूढ़ से करके बहस।
	किस लिए माथा कोई पच्ची करे।15।
	सुनहली सीख
	लोग उनसे ही सदा डरते रहे।
	सब बुरे बरताव से जो डर सके।
	कर सके अपना न जो ऊँचा चलन।
	वे कभी माथा न ऊँचा कर सके।16।
	राह में रोड़े पड़ेंगे क्यों नहीं।
	जायगी जब धूल में रस्सी बटी।
	रंग रहता है नहीं माथा रँगे।
	बात कब माथा पटकने से पटी।17।
	क्या कहें दुख है बड़ा, बातें भली।
	कर सकीं, जो आपके जी में न घर।
	आप ही मुझको सिकुड़ जाना पड़ा।
	आपका माथा सिकुड़ता देख कर।18।
	क्या हुआ जो आज आकर जोश में।
	आपने बातें बहुत लगती कहीं।
	देख सेंदुर दूसरे का मैं कभी।
	फोड़ लेना चाहता माथा नहीं।19।
	बेबसी
	कुछ भले मानस रहे दुख झेलते।
	देख यह, मैंने वचन हित के कहे।
	कुछ न बोले आँख उनकी भर गई।
	ठोंक कर माथा बेचारे चुप रहे।20।
	दुख मुझे सारे भुगुतने ही पड़े।
	मैं जनता सौ सौ तरह के कर थका।
	कोसते हो दूसरों को किस लिए।
	कौन माथे की लिखावट पढ़ सका।21।
	तरह-तरह की बातें
	सामने कब आपके कोई पड़ा।
	आपका किस पर नहीं है दबदबा।
	दूसरों की बात ही क्या, भाग भी।
	देख ऊँचा आपका माथा दबा।22।
	आप पर बीती गये वे लोग भग।
	जो अभी थे आपको देते भड़ी।
	दूसरों की की गई सब नटखटी।
	देखता हूँ आपके माथे पड़ी।23।
	दुख भरे अपने बहुत दुखड़े सुना।
	पाँव उसका हम पकड़ते ही रहे।
	पर दया बेपीर को आई नहीं।
	रात भर माथा रगड़ते ही रहे।24।
	आपसे रुतबा हमारा कम नहीं।
	आपसे रगड़े नहीं हमने किये।
	आपसे कुछ माँगने आये नहीं।
	आपने माथा सिकोड़ा किस लिये।25।
	तोड़ नाता प्यार का बेदर्द बन।
	नाश दीये ने फतिंगे का किया।
	रात भर जलना व थर थर काँपना।
	दैव ने माथे इसी से मढ़ दिया।26।
	जो मिला वह आप उस पर कुछ न कुछ।
	लाद देने के लिए ललका रहा।
	बोझ से ही तो रहा सब दिन दबा।
	बोझ माथे का कहाँ हलका रहा।27।
	जिसके दर पर झूम रहे थे हाथी।
	ओर न मिल सकता था जिसके धान का।
	वही माँगता फिरता था कल टुकड़े।
	देख दशा यह मेरा माथा ठनका।28।
	अन्योक्ति
	पेच में अपनी लिखावट के पँ+सा।
	दूसरों को फेर में डाला किये।
	देख माथा यह तुमारी नटखटी।
	हो किसी का जी न खट्टा किस लिये।29।
	सुख दुखों की जड़ बताये जो गये।
	भेद जिनके खुल नहीं अब तक सके।
	छाँह तक दी उस लिखावट की नहीं।
	सब, सदा माथा बहुत तुमसे छके।30।
	झंझटों में दूसरों को डाल कर।
	क्या रहा माथा भरोसा नाम का।
	जो तुमारे काम ऊँचे हैं न तो।
	है न ऊँचापन तुम्हारा काम का।31।
	वे न हों, या हों, करे बकवाद कौन।
	हम उन्हें तो देख सकते हैं न चीर।
	पर सुनो माथा यही क्या है सलूक।
	क्यों बनाते हो लकीरों का फकीर।32।
	जो रहे सब दिन कनौड़े ही बने।
	आज उनके सैकड़ों ताने सहे।
	किस तरह माथा तुम्हें ऊँचा कहें।
	जब हमें नीचा दिखाते ही रहे।33।
	आज दिन पहने जवाहिर जो रहा।
	कल वही गहने गिरों रख कर जिया।
	जब कि तुमसे लोग तंगी में पड़े।
	तो तुम्हारा देख चौड़ापन लिया।34।
	भौंह
	 
	सुनहली सीख
	जो नहीं सींच सींच कर पाले।
	तो कुचल दे न बेलियाँ बोई।
	हौंसलों के गले मरोड़े क्यों।
	भौंह अपनी मरोड़ कर कोई।1।
	अपयशों से बचे रहे वे ही।
	चल सके जो बचा बचा करके।
	दूसरों को रहे नचाता क्यों।
	भौंह अपनी नचा नचा करके।2।
	इस तरह से चाहिए चलना उसे।
	प्यार का पौधा सदा जिससे पले।
	बिजलियाँ जिससे कलेजों पर गिरें।
	इस तरह से भौंह कोई क्यों चले।3।
	आनबान
	किस लिए पट्टी पढ़ाते हैं हमें।
	कह सकेंगे हम नहीं बातें गढ़ी।
	खिंच गईं भौंहें बला से खिंच गईं।
	चढ़ गई हैं तो रहें भौंहें चढ़ी।4।
	कर भला किसको नहीं सीधा सके।
	बात सीधी कह बने सीधो रहे।
	दूर टेढ़ापन किसी का कब हुआ।
	बात टेढ़ी, भौंह टेढ़ी कर कहे।5।
	हितगुटके
	क्यों नशे में अनबनों के चूर हो।
	मेल की बूटी नहीं क्यों छानते।
	दूसरे तब भौंह तानेंगे न क्यों।
	जब कि तुम हो भौंह अपनी तानते।6।
	छोड़ मरजादा गँवा संजीदगी।
	यह बता दो कौन संजीदा बना।
	मान कैसे मान को खोकर रहे।
	है मटकना भौंह मटकाना मना।7।
	नोंकझोंक
	जब कि उलझी मतलबों में वह रही।
	जब कि भलमंसी उसे छूते मुई।
	जब टके सीधो हुए सीधी हुई।
	तब किसी की भौंह सीधी क्या हुई।8।
	है अजब यह ही कलेजे में न जो।
	बात लगती नोंक बरछी सी खुभे।
	आप ही समझें अचंभा कौन है।
	जो कटीली भौंह काँटे सी चुभे।9।
	आँख
	देव देव
	पाँवड़े कैसे न पलकों के पड़ें।
	जोत के सारे सहारे हो तुम्हीं।
	आँख में बस आँख में हो घूमते।
	आँख के तारे हमारे हो तुम्हीं।1।
	देखनेवाली न आँखें हों, मगर।
	देखने का है उन्हें चसका बड़ा।
	आप परदा किस लिए हैं कर रहे।
	हो भले ही आँख पर परदा पड़ा।2।
	जान कर भी जानते जिसको नहीं।
	क्यों उसी के जानने का दम भरें।
	आप ही क्यों आँख अपनी लें कुचो।
	क्यों किसी की आँख में उँगली करें।3।
	देख कर आँख देख ले जिनको।
	वे बनाये गये नहीं वैसे।
	आँख में जो ठहर नहीं सकता।
	आँख उस पर ठहर सके कैसे।4।
	राह पर साथ राहियों के चल।
	साहबी साख से उसे देखें।
	आँख का आँख जो कहाती है।
	हम उसी आँख से उसे देखें।5।
	जोत न्यारी तो नहीं दिखला पड़ी।
	आँख में क्यों ज्ञान के दीये बलें।
	आँख में अंजन अनूठा लें लगा।
	हम जमायें आँख या आँखें मलें।6।
	है जहाँ में कहाँ न जादूगर।
	पर दिखाया न देखते ही हो।
	भूल जादूगरी गई सारी।
	आँख जादूभरी भले ही हो।7।
	है जहाँ आँख पड़ नहीं सकती।
	आँख मेरी वहाँ न पाई जम।
	जग-पसारा न लख सके सारा।
	आँख हमने नहीं पसारा कम।8।
	दिल के फफोले
	गाय काँटों से छिदी है जा रही।
	फूल से जाती सजाई है गधी।
	आँख कैसे तो नहीं होती हमें।
	जो न होती आँख पर पट्टी बँधी।9।
	रात कैसे कटे न आँखों में।
	क्यों न चिन्ताभरी रहें माँखें।
	हो गया छेद जब कि छाती में।
	क्यों न छत से लगी रहें आँखें।10।
	मतलबों का भूत सिर पर है चढ़ा।
	दूसरों पर निज बला टालें न क्यों।
	जब गई हैं फूट आँखें भीतरी।
	लोन राई आँख में डालें न क्यों।11।
	क्यों दुखे बेतरह, बहुत दुख दे।
	किस लिए बार बार है गड़ती।
	है रही फूट फूट जाये तो।
	किस लिए आँख है फटी पड़ती।12।
	चाहिए क्या उसे झिपा देना।
	हैं जिसे देख लोग झुक जाते।
	क्यों उसे आँख से गिरा देवें।
	आँख पर हैं जिसे कि बिठलाते।13।
	सच्चे देवते
	आँख उनकी राह में देवें बिछा।
	प्यारवाली आँख से उनको लखें।
	आँख जिससे जाति की ऊँची हुई।
	आँख पर क्या आँख में उनको रखें।14।
	लौ-लगों से न क्यों लगा लें लौ।
	दिल उन्हें दिल से क्यों नहीं देते।
	पाँव की धूल लालसा से ले।
	आँख में क्यों नहीं लगा लेते।15।
	अपने दुखड़े
	आँख अंधी किस तरह होती न तब।
	जब मुसीबत रंग दिखलाती रही।
	आँख पानी के बहे है बह गई।
	आँख आये आँख ही जाती रही।16।
	क्यों निचुड़ता न आँख से लोहू।
	जब लहू खौल बेतरह पाया।
	आँख होती न क्यों लहू जैसी।
	आँख में जब लहू उतर आया।17।
	जब कि काँटे राह में बोने चले।
	बीज तो क्यों फूल के बो देखते।
	जब हमारी आँख टेढ़ी हो गई।
	क्यों न टेढ़ी आँख से तो देखते।18।
	ठीकरी आँख पर गई रक्खी।
	अंधापन आँख का नहीं जाता।
	देख कर जाति का लहू होते।
	किस तरह आँख से लहू आता।19।
	जाति को जाति ही सतावे तो।
	दूसरे भी न क्यों बनें दादू।
	क्यों न हो आँख आँखवालों को।
	आँख पर आँख क्यों करे जादू।20।
	हम निचोड़ें कहाँ तलक उसको।
	आँख में अब नहीं रहा आँसू।
	आँख पथरा न किस तरह जाती।
	आँख से है घड़ों बहा आँसू।21।
	बेतरह हैं दबे दुखों से हम।
	क्यों करें आह किस तरह काँखें।
	तन हुआ सूख सूख कर काँटा।
	भूख से नाच हैं रही आँखें।22।
	दूर कायरपन नहीं जब हो सका।
	तब भला कैसे न दिल धाड़का करे।
	बाँह मेरी तो फड़कती ही नहीं।
	है फड़कती आँख तो फड़का करे।23।
	दिल के छाले
	देख कर दुखभरी दशा उनकी।
	आँख किसकी भला न भर आई।
	अधाखिले फूल जो कि खिल न सके।
	अधाखुली आँख जो न खुल पाई।24।
	तू न तेवर भी है बदल पाता।
	क्या किसी ने सता मुझे पाया।
	देख उतरा हुआ तेरा चेहरा।
	आँख में है लहू उतर आया।25।
	जो उँजाला है ऍंधोरे में किये।
	लाल अपना वह न खो बैठे कोई।
	काढ़ ली जावें न आँखें और की।
	आँख को अपनी न रो बैठे कोई।26।
	आनबान
	बढ़ नहीं पाया कभी कोई कहीं।
	बेतरह बेढंग लोगों को बढ़ा।
	हम नहीं सिर पर चढ़ा सकते उसे।
	वह भले ही आँख अपनी ले चढ़ा।27।
	लुचपने पाजीपने से झूठ से।
	हम डरेंगे वे भले ही मत डरें।
	आँख की देखी कहेंगे लाख में।
	मारते हैं आँख तो मारा करें।28।
	कुढ़ उठा जी भला नहीं किसका।
	जब दिखाई पड़ीं कढ़ी आँखें।
	कुछ हमें भी गया नशा सा चढ़।
	देख उसकी चढ़ी चढ़ी आँखें।29।
	हितगुटके
	वह बनेगी भला लड़ेती क्यों।
	जो रही लाड़ प्यार में लड़ती।
	आँख जब थे निकालते यों ही।
	आँख कैसे न तब निकल पड़ती।30।
	है बड़ा ही निठुर निपट बेपीर।
	बेबसों को सता गया जो फूल।
	जो उठा तक सके न अपनी आँख।
	आँख उस पर निकालना है भूल।31।
	नाम के ही कुछ गुनाहों के लिए।
	है गला घोंटा नहीं जाता कहीं।
	जो कि टेढ़ी आँख से हो देखता।
	आँख उसकी काढ़ ली जाती नहीं।32।
	दूसरों पर जो निछावर हो गये।
	सह सके पर के लिए जो लोग सब।
	पाठ परहित का नहीं जो पढ़ सके।
	वे भला उनसे मिलाते आँख कब।33।
	वे किसी काम के नहीं होते।
	तुन सकेंगे न वे तुनी रूई।
	जो कि चाहेंगे जाँय सब कुछ बन।
	पर निकालेंगे आँख की सूई।34।
	नाच रँग की मिठास के आगे।
	नींद मीठी न जब रही भाती।
	जागना जब न लग सका कड़वा।
	तब भला आँख क्यों न कड़वाती।35।
	यह तभी होगा कि लगकर के गले।
	हम दबायेंगे न समधी का गला।
	प्यार की रग जब न हो ढीली पड़ी।
	जब न होवे आँख का पानी ढला।36।
	और को करते भलाई देखकर।
	ऊब करके किस लिए साँसें भरें।
	कर सकें, हम भी भला ही तो करें।
	आँख भौं टेढ़ी करें तो क्यों करें।37।
	मुँह पिटा मुँह की सदा खाते रहें।
	मान से मुँह मोड़ मनमानी करें।
	हैं बिना मारे मरे वे लोग जो।
	आँख मारें आँख के मारे मरें।38।
	फिर गईं आँखें अगर तो जाँय फिर।
	आँख फेरे हम न बातों से फिरें।
	खोल कर आँखें न आँखें मूँद लें।
	आँख पर चढ़ कर न आँखों से गिरें।39।
	बात बिगड़े बेतरह बिगड़ें नहीं।
	क्यों रखें पत, कर किसी को राख हम।
	आँख होते किस लिए अन्धो बनें।
	आँख निकले क्यों निकालें आँख हम।40।
	जो न होना चाहिए होवे न वह।
	साखवाले धयान रक्खें साख का।
	आँख वाले पर न चलना चाहिए।
	आँख का जादू व टोना आँख का।41।
	हैं खटकते क्यों किसी की आँख में।
	मूँदने को आँख क्यों बातें गढ़ें।
	फोड़ने को आँख फोड़ें आँख क्यों।
	क्यों चढ़ा कर आँख आँखों पर चढ़ें।42।
	देख लें आँख क्यों किसी की हम।
	पड़ गये भीड़ क्यों कुढ़ें काँखें।
	क्यों खुला आँख कान को न रखें।
	क्यों करें काम बन्द कर आँखें।43।
	किस लिए हम रखें न मनसूबे।
	किस लिए बात बात में माँखें।
	क्यों झिपाता रहे हमें कोई।
	क्यों झिपें और क्यों झपें आँखें।44।
	सुनहली सीख
	बादलों की भाँति उठना चाहिए।
	जल बरस कर हित किये जिसने बड़े।
	इस तरह से किस लिए कोई उठे।
	आँख जैसा बैठ जाना जो पड़े।45।
	है जिसे कुछ भी समझ वह और की।
	राह में काँटा कभी बोता नहीं।
	कर किसी से बेसबब उपरा चढ़ी।
	आँख पर चढ़ना भला होता नहीं।46।
	हैं भले वे ही भलाई के लिए।
	रात दिन जिनकी कमर होवे कसी।
	प्यार का जी में पड़ा डेरा रहे।
	आँख में सूरत रहे हित की बसी।47।
	जो कि जी की आग से जलता रहा।
	मिल सकी है कब उसे ठंढक कहीं।
	देख पाती जो भला नहिं और का।
	आँख वह ठंढी कभी होती नहीं।48।
	जो कलेजा पसीज ही न सका।
	तो किया रात रात भर रो क्या।
	मैल जो धुल सका नहीं मन का।
	आँख आँसू से धो किया तो क्या।49।
	उलझनें डालता फिरे न कभी।
	और की राह में कुआँ न खने।
	है बुरा, जान बूझ करके जो।
	आँख की किरकिरी किसी की बने।50।
	तिर सके जो न दुख-लहरियों में।
	क्यों न उनमें तो फिर उतर देखें।
	हम किसी के फटे कलेजे को।
	आँख क्यों फाड़ फाड़ कर देखें।51।
	तो दया है न नाम को हममें।
	हैं हमें देख नेकियाँ रोतीं।
	चूर होते किसी बेचारे से।
	चार आँखें अगर नहीं होतीं।52।
	जब कि भाते नहीं सगों को हो।
	किस तरह दूसरों को तब भाते।
	जब कि तुम हो उतर गये जी से।
	आँख से तो उतर न क्यों जाते।53।
	उन भली अनमोल रुचियों ओर जो।
	बन सुचाल ऍंगूठियों के नग सकीं।
	जी लगायेंगे भला तब किस तरह।
	जब नहीं आँखें हमारी लग सकीं।54।
	चाहता चित अगर तुमारा है।
	चितवनों के तिलिस्म को तोड़ो।
	आँख से आँख का मिलाना, या।
	आँख में आँख डालना छोड़ो।55।
	भेद दुख का हमें मिलेगा तब।
	जब कि हम आप भोग दुख लेवें।
	देख लें आँख फोड़ कर अपनी।
	और की आँख फोड़ तब देवें।56।
	दुख अगर कान खोल कर न सुनें।
	तो न हम कान में भरें रूई।
	जो निकालें न आँख का काँटा।
	डाल दें तो न आँख में सूई।57।
	तो अहित बीज क्यों बखेरें हम।
	जाय हित-बेलि जो नहीं बोई।
	क्यों मजा किरकिरा किसी का कर।
	आँख की किरकिरी बने कोई।58।
	अंग हैं एक दूसरे के सब।
	क्या न आँखें दुखीं दुखे दाढ़ें।
	क्यों किसी आँख में करें उँगली।
	काढ़ कर आँख आँख क्यों काढ़ें।59।
	हो सके वह न दूर आँखों से।
	हम बहुत प्यार से जिसे रक्खें।
	आँख जिस पर कि है हमें रखना।
	सामने आँख के उसे रक्खें।60।
	है वही प्यार से भरा मिलता।
	हम बड़े प्यार से जिसे देखें।
	कौन है आँख का नहीं तारा।
	हम कड़ी आँख से किसे देखें।61।
	आँख जल जाय देख देख जिसे।
	आँख का जल उसे बना लें क्यों।
	आँख का तिल है गर हमें प्यारा।
	आँख का तेल तो निकालें क्यों।62।
	निराले नगीने
	हैं बेगाने तो बेगाने ही मगर।
	कम नहीं लाते सगे सगे पर बला।
	है हमारी आँख देखी बात यह।
	आँख पर ही आँख का जादू चला।63।
	काम अपना निकालने वाले।
	काम अपना निकाल लेते हैं।
	आँख में धूल डालनेवाले।
	आँख में धूल डाल देते हैं।64।
	जब किसी से कभी बिगड़ जावें।
	तो बुरे ढंग से न बदले लें।
	धूल दें आँख में भले ही हम।
	लोन क्यों आँख में किसी को दें।65।
	लोग बेचैन क्यों न होवेंगे।
	तंग बेचैनियाँ करेंगी जब।
	नींद जब रात रात भर न लगी।
	क्यों उनींदी बनें न आँखें तब।66।
	है कहीं पर मान मिल जाता बहुत।
	है मुसीबत का कहीं पर सामना।
	पोंछ डाला जो गया मुँह में लगे।
	आँख में कालिख वही काजल बना।67।
	है कहाँ पर भले नहीं होते।
	पर मिले आपसे कहीं न भले।
	आपसे आप ही जँचे हमको।
	आ सका आप सा न आँख तले।68।
	नोंक झोंक
	जब कि दे सकते नहीं जी में जगह।
	तब कहीं क्या जी लगाना चाहिए।
	सोच लो आँखें चुरा कर और की।
	क्या तुम्हें आँखें चुराना चाहिए।69।
	प्यार में मोड़ मुँह मुरौअत से।
	किस तरह लाज मुँह दिखा पाती।
	सामने हो सकीं न जब आँखें।
	आँख तब क्यों चुरा न ली जाती।70।
	भाँपते क्यों न भाँपने वाले।
	किस लिए बात हो बनाते तुम।
	जब चलाई गई छिपी छूरी।
	आँख कैसे न तब छिपाते तुम।71।
	फिर नहीं देखा, न सीधी हो सकी।
	रंग रिस पर प्यार का पाया न पुत।
	तुम मचलते ही मचलते रह गये।
	पर तुमारी आँख तो मचली बहुत।72।
	जब नहीं रस बात में ही रह गया।
	प्यार का रस तब नहीं सकते पिला।
	जब कि जी ही मिल नहीं जी से सका।
	तब सकोगे किस तरह आँखें मिला।73।
	जब नहीं मेलजोल है भाता।
	किस लिए जोड़ते फिरे नाते।
	जब कि है मैल जम गया जी में।
	आँख कैसे भला मिला पाते।74।
	वह लबालब भरा भले ही हो।
	पर चलेगा न कुछ किसी का बस।
	बस यही सोच लो कहें क्या हम।
	आँख टेढ़ी किये रहा कब रस।75।
	क्यों बनी बातें नहीं जातीं बिगड़।
	ऐंठ अनबन बीज ही जब बो गई।
	जो किसी का जी नहीं टेढ़ा हुआ।
	आँख टेढ़ी किस तरह तो हो गई।76।
	मुँह चिढ़ायेंगे या बनायेंगे।
	फबतियाँ हँसते हँसते लेवेंगे।
	क्या भला और आपसे होगा।
	आँख में धूल झोंक देवेंगे।77।
	प्यार का देखना है बलबूता।
	हार करके रमायेंगे न धुईं।
	हम न बेचारपन दिखायेंगे।
	चार आँखें हुईं बला से हुईं।78।
	है नहीं मुझमें अजायबपन भरा।
	वह न यों बेकार हो जावे कहीं।
	क्यों बहुत हो फाड़ करके देखते।
	आँख है कोई फटा कपड़ा नहीं।79।
	बस किसी का रहा न पासे पर।
	मति किसी की किसी ने कब हर ली।
	लाल गोटी हुई हमारी तो।
	आपने लाल आँख क्यों कर ली।80।
	काम आती नहीं सगों के जब।
	और के काम किस तरह आती।
	तब मिले किस तरह किसी से, जब।
	आँख से आँख मिल नहीं पाती।81।
	चौकसी जिसकी बहुत ही की गई।
	खोजते हैं अब नहीं मिलता वही।
	देखते ही देखते जी ले गये।
	आँख का काजल चुराना है यही।82।
	किसलिए मुँह इस तरह कुम्हला गया।
	किस मुसीबत की है परछाईं पड़ी।
	पपड़ियाँ क्यों होठ पर पड़ने लगीं।
	आँख पर है किसलिए झाईं पड़ी।83।
	दिल हमारा हमें नहीं देते।
	साथ ही बन रही बुरी गत है।
	क्यों बनोगे न बेमुरौअत तब।
	आँख में जब नहीं मुरौअत है।84।
	जो कभी सामने न आ पाया।
	हो सकेगा मिलाप उससे कब।
	जब हमें आँख से न देख सके।
	आँख से आँख क्यों मिलाते तब।85।
	जब कि टूटा बहुत बड़ा नाता।
	तब मुरौअत का तोड़ना कैसा।
	जब किसी से किसी ने मुँह मोड़ा।
	तब भला आँख मोड़ना कैसा।86।
	आँख ने धूल आँख में झोंकी।
	कर गई आँख आँख साथ ठगी।
	क्यों नहीं आँख खुल सकी खोले।
	क्यों लगे आँख जब कि आँख लगी।87।
	किस तरह उसको गिरावें आँख से।
	आँख पर जिसको कि हमने रख लिया।
	किस तरह उससे बचावें आँख हम।
	आँख में जिसने हमारी घर किया।88।
	आँख अपनी क्यों चुरा है वह रहा।
	आँख जिसके रंग में ही है रँगी।
	क्यों नहीं आँखें उठा वह देखता।
	आँख जिसकी ओर मेरी है लगी।89।
	क्यों उसीको खोज हैं आँखें रहीं।
	आँख में ही है किया जिसने कि घर।
	देखने को आँख प्यासी ही रही।
	आँख भर आई न देखा आँख भर।90।
	वह न फूटी आँख से है देखता।
	ऊबती आँखें बिगड़ जायें न क्यों।
	किस लिए हम आँख की चोटें सहें।
	आँख देखें आँख दिखलायें न क्यों।91।
	आँख से ही जब निकल चिनगारियाँ।
	आँख को हैं बेतरह देतीं जला।
	तो कहायें आँखवाले किस लिए।
	आँख होने से न होना है भला।92।
	है अगर डूब डूब जाती तो।
	किस लिए आँख डबडबा आवे।
	क्यों चढ़ी आँख जब हुई नीची।
	क्यों उठे आँख बैठ जो जावे।93।
	आँख क्यों ऊँची नहीं हम रख सके।
	आँख होते आँख कैसे खो गई।
	आँख से उतरे उतर चेहरा गया।
	देख नीचा आँख नीची हो गई।94।
	आँख पर जिसको बिठाते हम रहे।
	आँख से कैसे गिरा उसको दिया।
	आँख दिखला कर नचायें क्यों उसे।
	जो हमारी आँख में नाचा किया।95।
	जो कि अपनी ही चुराता आँख है।
	चोर बनना क्यों उसे लगता बुरा।
	आँख का सबसे बड़ा वह चोर है।
	जो चुराता आँख है आँखें चुरा।96।
	ऐब धाब्बे बुरे गँवा पानी।
	बेतुकी बात धो नहीं सकती।
	सामने आँख वह करे कैसे।
	सामने आँख हो नहीं सकती।97।
	आँख मेरी क्यों नहीं ऊँची रहे।
	आ सकेगा आँख में मेरी न जल।
	लाल आँखें हो गईं तो हो गईं।
	हैं बदलते आँख तो लेवें बदल।98।
	वे बड़े आनबानवाले हैं।
	अनबनों का हमें बड़ा डर है।
	देखते बार-बार हैं उनको।
	आँख होती नहीं बराबर है।99।
	आँख अपनी छिपा छिपा करके।
	फेर मुँह आँख फेरते देखा।
	बात ही बात में तिनक करके।
	आँख उनको तरेरते देखा।100।
	आपकी आँखें अगर हैं हँस रहीं।
	तो हँसें, बातें बता दें, जो हुईं।
	चार आँखें हो अगर पाईं नहीं।
	क्यों नहीं दो चार आँखें तो हुईं।101।
	जब गई आँख पटपटा देखे।
	तब पटी बात कैसे पट पाती।
	लट गये जब कि चाल उलटी चल।
	आँख कैसे न तब उलट जाती।102।
	जो हमारी आँख में फिरते रहे।
	वे रहे वैसे न आँखों के फिरे।
	जो गिराये गिर न आँखों से सके।
	गिर गये वे आँख का पानी गिरे।103।
	आँख के सामने ऍंधोरा है।
	क्यों न अंधोर कर चलें चालें।
	आँख में है घुला लिया काजल।
	आँख में धूल क्यों न वे डालें।104।
	आँख की फूली फले कैसे नहीं।
	है न कीने प्यार का घर देखते।
	जब कि आँखें अब न वह उनकी रहीं।
	क्यों न तब आँखें दबा कर देखते।105।
	सब सगे हैं उन्हें सतायें क्यों।
	आँख गड़ आँख में गड़े कैसे।
	चाहिए लाड़ प्यार अपनों से।
	आँख लड़ आँख से लड़े कैसे।106।
	हूँ न काँटा कि आँख में खटकूँ।
	मैं न पथ में बबूल बोता हूँ।
	हूँ किसी आँख में न चुभता मैं।
	मैं नहीं आँख-फोड़ तोता हूँ।107।
	लाल मुँह है लाल अंगारा हुआ।
	दूसरों पर बात क्यों हैं फेंकते।
	कढ़ रही हैं आँख से चिनगारियाँ।
	आँख सेकेंं, आँख जो हैं सेंकते।108।
	रस के छीटें
	भाग में मिलना लिखा था ही नहीं।
	तुम न आये साँसतें इतनी हुईं।
	जी हमारा था बहुत दिन से टँगा।
	आज आँखें भी हमारी टँग गईं।109।
	कुछ मरम रस का न जाना, ठग गईं।
	जो न देखे रसभरी चितवन ठगीं।
	है निचुड़ता प्यार जिसकी आँख से।
	जो न उसकी आँख से आँखें लगीं।110।
	प्यार जिस मुख पर उमड़ता ही रहा।
	नेकियाँ जिस पर छलकती ही रहीं।
	रह न आलापन सका, उसका समा।
	आँख में जो है समा पता नहीं।111।
	भौं चढ़ा करके लहू जिसने किये।
	क्यों लहू से हाथ वह अपने भरे।
	सीखता जादू फिरे तब किस लिए।
	जब किसी की आँख ही जादू करे।112।
	चाह इतनी ही न है! मतलब सधो।
	हो न कुछ जादू चलाने में कसर।
	क्या हुआ जो बात में जादू नहीं।
	हो किसी की आँख में जादू अगर।113।
	किस लिए वह आग है बरसा रहा।
	रस सभी जिसका कि है बाँटा हुआ।
	सब दिनों जो आँख में ही था बसा।
	आज वह क्यों आँख का काँटा हुआ।114।
	किस लिए होता कलेजा तर नहीं।
	क्यों जलन भी है बनी अब भी वही।
	मेंह दुख का नित बरसता ही रहा।
	आँसुओं से आँख भींगी ही रही।115।
	विष उगलती है मदों की खान है।
	चोचलें भी हैं भरे उनमें निरे।
	क्या अजब मर मर जिये माता रहे।
	आँख का मारा अगर मारा फिरे।116।
	जोत पायेंगे बहुत प्यारी कहाँ।
	वे टटोलेंगे भला किस भाँति दिल।
	नाम औ रँग में भले ही एक हों।
	आँख के तिल से नहीं हैं और तिल।117।
	है समा आसमान सब जाता।
	है सका सब कमाल उसमें मिल।
	क्या तिलस्मात हैं न दिखलाते।
	आँख के ए तिलिस्म वाले तिल।118।
	बावलापन साथ ही लाना बला।
	जो न तेरे चुलबुलापन से कढ़ा।
	आँख! तो अनमोल तुझको क्यों कहें।
	मोल तुझसे है ममोलों का बढ़ा।119।
	आँख जिससे आँख रह जाती नहीं।
	आँख से मेरी न वह आँसू बहे।
	आँख से वे दूर हो पावें नहीं।
	आँख में मेरी समाये जो रहे।120।
	आँख है आँख को लुभा लेती।
	आँख रस आँख में बरसती है।
	देखने को बड़ी बड़ी आँखें।
	आँख किसकी नहीं तरसती है।121।
	और की आँख आँख में न गड़े।
	चाहिए आँख आँख को न ठगे।
	आँख लड़ जाय आँख से न किसी।
	आँख का बान आँख को न लगे।122।
	देख भोलापन किसी की आँख का।
	आँख कोई बेतरह भूली रही।
	देख टेसू आँख में फूला किसी।
	आँख में सरसों किसी फूली रही।123।
	आँख है प्यार से भरी कोई।
	है किसी आँख से न चलता बस।
	है कोई आँख विष उगल देती।
	है किसी आँख से बरसता रस।124।
	चाल चलना पसंद है तो क्यों।
	आँख से आँख की न चल जाती।
	जब पड़ी बान है मचलने की।
	आँख कैसे न तो मचल जाती।125।
	 
	आँख
	 का फड़कना
	प्यार करते राह में काँटे पड़े।
	बार हम पर रो रही है बेधाकड़।
	रंज औरों के फड़कने का नहीं।
	आँख बाईं तू उठी कैसे फड़क।126।
	कुछ भरोसा करो किसी का मत।
	भौंह किसकी विपत्तिा में न तनी।
	है सगा कौन, कौन है अपना।
	आँख ही जब फड़क उठी अपनी।127।
	सब सगे एक से नहीं होते।
	हैं न तो सब सनेह में ढीले।
	आँख दाईं न दुख पड़े फड़की।
	आँख बाईं फड़क भले ही ले।128।
	चेतावनी
	क्यों समय को देख कर चलते नहीं।
	काम की है राह कम चौड़ी नहीं।
	आँख तो हम बन्द कर लें किस लिए।
	आँख दौड़ाये अगर दौड़ी नहीं।129।
	आँख में है निचुड़ रहा नीबू।
	आँख है फूटती, नहीं बोले।
	आँख का क्यों नहीं उठा परदा।
	खुल सकी आँख क्यों नहीं खोले।130।
	पास जिनका चाहिए करना हमें।
	पास उनके क्यों खड़ी है दुख घड़ी।
	आँख मेरी ओर है जिनकी लगी।
	आँख उनपर क्यों नहीं अब तक पड़ी।131।
	जाति को देख कर दुखी, कोई।
	आँख कर बन्द किस तरह पाता।
	आँख चरने न जो गई होती।
	दुख तले आँख के न क्यों आता।132।
	मौत का ही सामना है सामने।
	भूलते हैं पंथ बतलाया हुआ।
	हैं ऍंधोरी रात में हम घूमते।
	है ऍंधोरा आँख पर छाया हुआ।133।
	प्यार के पुतले
	सामने आँख के पला जो है।
	दूसरे हैं पले नहीं वैसे।
	जो कहाता है आँख का तारा।
	आँख में वह बसे नहीं कैसे।134।
	क्यों नचाता हमें न उँगली पर।
	उँगलियों को पकड़ चला है वह।
	चाहिए सासना उसे करना।
	आँख के सामने पला है वह।135।
	लाड़वाली है कहाती लाड़िली।
	लाल वे हैं लाल कहते हैं जिसे।
	आँख में है आँख की पुतली बसी।
	आँख के तारे न प्यारे हैं किसे।136।
	मुँह सपूतों का अछूतापन भरा।
	चाह से जिसको भलाई धो गई।
	हो गया ठंढा कलेजा देख कर।
	आँख में ठंढक निराली हो गई।137।
	तरह तरह की बातें
	साथ ही हम एक घर में हैं पले।
	है हमारा पूछते क्यों आप घर।
	जायगा चरबा उतरा क्यों नहीं।
	छा गई है आँख में चरबी अगर।138।
	दाँत टूटे पर न रँगीनी गई।
	बाल को रँगते रँगाते ही रहे।
	लाल करते ही रहे हम होठ को।
	आँख में काजल लगाते ही रहे।139।
	मत बेचारी बेबसी से तुम भिड़ो।
	है तुमारी आस ही उसको बड़ी।
	गिड़गिड़ाती है पकड़ कर पाँव जो।
	क्यों तुमारी आँख उस पर ही गड़ी।140।
	है चूक बहुत ही बड़ी, है न चालाकी।
	बन समझदार नासमझी का दम भरना।
	बेटे के आगे बाप को बुरा कहना।
	है बदी आँख की भौं के आगे करना।141।
	किसने अपने बच्चों का लहू निचोड़ा।
	किसने बेटी बहनों का लहू बहाया।
	कहता हूँ देखे अंधाधुंधा तुमारा।
	सामने आँख के ऍंधिायाला है छाया।142।
	जब बिगड़े भाग बिगड़ने के दिनआये।
	तब कान खोल कैसे निज ऐब सुनेंगे।
	पी ली है हमने ऐसी भंग निराली।
	उलटे आँखें नीली पीली कर लेंगे।143।
	जिनमें बुराइयाँ घर करती पलती हैं।
	जो बन जाती हैं निठुरपने का प्याला।
	तो समझ नहीं राई भर भी है हममें।
	जो उन आँखों में राई लोन न डाला।144।
	अन्योक्ति
	आँख में गड़कर किसी की तू न गड़।
	दूसरों पर टूट तू पड़ती न रह।
	लाड़ तेरा है अगर होता बहुत।
	ऐ लड़ाकी आँख तो लड़ती न रह।145।
	ले सता तू सता सके जितना।
	और को पेर पीस कर जी ले।
	दिन बितेंगे बिसूरते रोते।
	आज तू आँख हँस भले ही ले।146।
	पीसने वाले गये पिस आप ही।
	कर सितम कोई नहीं फूला फला।
	मत कटीली बन कलेजा काट तू।
	ऐ चुटीली आँख मत चोटें चला।147।
	जो कि सजधाज में लगा सब दिन रहा।
	वीरता के रंग में वह कब रँगा।
	सूरमापन है नहीं सकती दिखा।
	आँख सुरमा तू भले ही ले लेगा।148।
	धूल में तेरा लड़ाकापन मिले।
	जब लड़ी तब जाति ही से तू लड़ी।
	देख तब तेरी कड़ाई को लिया।
	आँख अपनों पर कड़ी जब तू पड़ी।149।
	जब निकलने लग गईं चिनगारियाँ।
	तब ठहरती किस तरह तुझमें तरी।
	तब रसीलापन कहाँ तेरा रहा।
	जब रसीली आँख रिस से तू भरी।150।
	टूट पड़ लूटपाट करती है।
	चित्ता को छीन चैन है खोती।
	देख दंगा दबंगपन अपना।
	आँख तू दंग क्यों नहीं होती।151।
	हो सकेगी वह कभी कैसे भली।
	हम सहम जिससे निराले दुख सहें।
	डाल देती है भुलावों में अगर।
	तब भला क्यों आँख को भोली कहें।152।
	राह सीधी चल नहीं क्या सधा सका।
	है सिधाई ऐंठ से आला कहीं।
	क्यों सुहाता है न सीधापन तुझे।
	आँख सीधो ताकती तू क्यों नहीं।153।
	डाल कर और को ऍंधोरे में।
	औ बना कर सुफेद को काला।
	जब रही छीनती उजाला तू।
	आँख तुझमें तभी पड़ा जाला।154।
	जो उँजेले से हिला सब दिन रहा।
	क्यों न ऊबेगा ऍंधोरे में वही।
	आँख तू तो जानती ही है इसे।
	है न जाला औ उँजाला एक ही।155।
	जब कभी एक हो गई तर तो।
	दूसरी भी तुरत हुई तर है।
	कब दुखे एक दूसरी न दुखी।
	आँख दोनों सदा बराबर है।156।
	पनक
	देवदेव
	जब कि प्यारे गड़े तुम्हीं जी में।
	तब भला दूसरा गड़े कैसे।
	जब तुम्हीं आँख में अड़े आ कर।
	तब बिचारी पलक पड़े कैसे।1।
	सुनहली सीख
	काँपती मौत भी रही जिनसे।
	जो रहे काल मारतों के भी।
	लोग तब डींग मारते क्या हैं।
	जब पलक मारते मरे वे भी।2।
	कब भला है पसीजता पत्थर।
	क्यों न झंडे मिलाप के गाड़ें।
	क्यों बिठालें उन्हें न आँखों पर।
	क्यों पलक से, न पाँव हम झाड़ें।3।
	देसहित जो ललक ललक करते।
	जान जो जाति के लिए देते।
	तो पलक पाँवड़े न क्यों बिछते।
	क्यों पलक पर न लोग ले लेते।4।
	निराले नगीने
	जो फिरा दें न फेरने वाले।
	तो फिरे तो हवा फिरे कैसे।
	जब गिराना न आँख ही चाहे।
	तब गिरे तो पलक गिरे कैसे।5।
	किस तरह से रँग बदलता है समय।
	ठीक इसकी है दिखा देती झलक।
	हैं गिरे उठते व गिरते हैं उठे।
	है यही उठ गिरा बता देती पलक।6।
	जब सगों पर रही बिपत लाती।
	तब भला क्यों निहाल हो फिरती।
	जब गिराती रही बरौनी को।
	तब पलक आप भी न क्यों गिरती।7।
	कौन कहता है कि हित के संगती।
	छोड़ हित अनहित सकेंगे ही न कर।
	कम नहीं उसमें बरौनी गिर गड़ी।
	पाहरू सी है पलक जिस आँख पर।8।
	मानवाले मान जिससे पा सके।
	इसलिए हैं फूल भावों के खिले।
	राह में आँखें बिछाई कब गईं।
	कब पलक के पाँवड़े पड़ते मिले।9।
	नोंक झोंक
	है न बसता प्यार जिसमें आँख वह।
	है छिपाये से भला छिपती कहीं।
	किस तरह से आप तब उठ कर मिलें।
	जब पलक ही आपकी उठती नहीं।10।
	एक पल है पहाड़ हो जाता।
	देखने के लिए न क्यों ललकें।
	हम पलक-ओट सह नहीं सकते।
	आइये हैं बिछी हुई पलकें।11।
	रंग होता अगर नहीं बदला।
	प्यार का रंग तो दिखाता क्यों।
	जो पलक भी नहीं उठाता था।
	वह पलक पाँवड़े बिछाता क्यों।12।
	क्यों उमगता आपका आना सुने।
	किस लिए घी के दिये तो बालता।
	जो पलक पर चाहता रखना नहीं।
	तो पलक के पाँवड़े क्यों डालता।13।
	आँ
	सू
	अपने दुखड़े
	कम हुआ मान किस कमाई से।
	यम न यम के लिए बना क्यों यम।
	क्यों नहीं चार बाँह आठ बनी।
	रो चुके आठ आठ आँसू हम।1।
	कर सका दुख दूर दुख में कौन गिर।
	दिल छिला किसका हमारा दिल छिले।
	पोंछने वाला न आँसू का मिला।
	कम न आँसू डालने वाले मिले।2।
	वह भला कैसे बलायें ले सके।
	बात से जो है बलायें टालता।
	आँसुओं से वह नहा कैसे सके।
	जो नहीं दो बूँद आँसू ढालता।3।
	चूकते ही हम चले जाते नहीं।
	आप हमको डाँट बतलाते न जो।
	भेद खुल जाते हमारे किस तरह।
	आँख से आँसू टपक पाते न जो।4।
	मत बढ़ो हितबीज जिनमें हैं पड़े।
	खेत में उन करतबों के ही रमो।
	अब कलेजा थामते बनता नहीं।
	ऐ हमारे आँसुओ! तुम भी थमो।5।
	हम कहें किस तरह कि खलती है।
	जो हुई पेटहित पलीद ठगी।
	हिचकियाँ लग गईं अगर न हमें।
	आँसुओं की अगर झड़ी न लगी।6।
	हितगुटके
	बात सुन कर ज्ञान या बैराग की।
	आँख भर भर कर बहुत ही रो लिया।
	मैल कुछ भी धुल नहीं जी का सका।
	आँसुओं से मुँह भले ही धो लिया।7।
	तो कहें कैसे कि पकते केस से।
	सीख कुछ बैराग की हम पा सके।
	जो पके फल को टपकता देख कर।
	आँख से आँसू नहीं टपका सके।8।
	चल सका कुछ बस न आँसू के चले।
	फेरते क्यों, वे नहीं फेरे फिरे।
	गिर गये आँसू गिरा करके हमें।
	क्यों न गिरते आँख का पानी गिरे।9।
	यह सरग से आन धारती पर बही।
	आँख में वह कढ़ कलेजे से बहा।
	चाहते गंगा नहाना हैं अगर।
	क्यों न लें तो प्रेम-आँसू से नहा।10।
	आँख के आँसू अगर हैं चल पड़े।
	तो हमें उनको फिराना चाहिए।
	आँख का पानी गिरे गिर जायँगे।
	क्या हमें आँसू गिराना चाहिए।11।
	आन बान
	आन जाते देख आँसू पी गये।
	हम न ओछापन दिखा ओछे हुए।
	पोंछने वाला न आँसू का मिला।
	पुँछ गया आँसू बिना पोंछे हुए।12।
	निराले नगीने
	आप ही सोचें बिना ही आब के।
	रह सकेगी आबरू कैसे कहीं।
	आँख का रहता न पत पानी बना।
	आँख में आँसू अगर आता नहीं।13।
	एक के जी की कसर जाती नहीं।
	प्यार का दम दूसरे भरते रहे।
	धूल तो है धूल में देती मिला।
	तरबतर आँसू उसे करते रहे।14।
	जब किसी का जी कलपता है न तो।
	रो उठे रोते कभी बनता नहीं।
	बँधा सकेगी तब भला कैसे झड़ी।
	आँसुओं का तार जब बँधाता नहीं।15।
	कौंधा बिजली की तुरत थमते मिली।
	क्या अचानक मेह है थमता कहीं।
	रुक भले ही एक-ब-एक जावे हँसी।
	एक-ब-एक आँसू कभी रुकता नहीं।16।
	नोक-झोंक
	तुम पसीजे भी पसीजे हो नहीं।
	कब न निकले और न कब आँसू बहे।
	कब न आये आँख में आँसू उमड़।
	कब भरे आँसू न आँखों में रहे।17।
	किस तरह तो दूर हो पाती जलन।
	आँख में आता अगर आँसू नहीं।
	मुँह गया है सूख तन है सूखता।
	सूख पाता है मगर आँसू नहीं।18।
	छूट जायेंगे बिपद से क्यों न हम।
	आपकी होगी अगर थोड़ी दया।
	आपने जो पूछ दुख मेरे लिए।
	कुछ भले ही हो न पुँछ आँसू गया।19।
	अन्योक्ति
	किस तरह ठंढक कलेजे को मिले।
	जब रहे तुम आप गरमी पर अड़े।
	जब सका जी का नहीं काँटा निकल।
	किस लिए आँसू निकल तब तुम पड़े।20।
	मान जाओ तुम बुरा परवा नहीं।
	पर नहीं है मानता जी बे कहे।
	जब किसी की आबरू पर आ बनी।
	किस लिए आँसू भला तब तुम बहे।21।
	जब पिघलने की जगह पिघले नहीं।
	फिर पिघलते किस लिए तब वे रहे।
	जब नहीं बेदरदियों पर बह सके।
	तब अगर आँसू बहे तो क्या बहे।22।
	दूसरों का क्यों भरम खोता रहे।
	क्यों किसी को भी मकर करके छले।
	जो ढले रंगत अछूतों में नहीं।
	तो अगर आँसू ढले तो क्या ढले।23।
	जो सनद अनमोलपन की पा चुके।
	आँख के जो पाक परदों से छने।
	है बुरा जो वह अमल आँसू ढलक।
	जाय पड़ कीचड़ में काजल में सने।24।
	आँसुओं की बूँद ही तो वे रहीं।
	बात है बनती बिगड़ती चाल पर।
	नोक से कोई बरौनी के छिदी।
	गिर गई कोई गुलाबी गाल पर।25।
	दुख पड़े आँसू जिधार से हो कढ़े।
	थे मुसीबत के वहीं लेटे पड़े।
	आँख से निकले चिमट काजल गया।
	नाक से निकले लिपट नेटे पड़े।26।
	चाहिए जिनको परसना प्यार से।
	वे नहीं उनको परसते जो रहे।
	जो तरसते को नहीं तर कर सके।
	किस लिए आँसू बरसते तो रहे।27।
	जो रहे हैं ऊब उनको ऊब से।
	जो बचाने को नहीं है ऊबती।
	डूबते हैं जो, गये वे डूब तो।
	आँसुओं में आँख क्या है डूबती।28।
	मिल किसी को भी न दुख पर दुख सके।
	जाय कोई गिर नहीं ऊँचे चढे।
	तब गढ़े में गाल के गिरते न क्यों।
	जब कढ़े-आँसू बहुत आगे बढ़े।29।
	आँख जैसा सीप में होता नहीं।
	रस अछूता, लोच, सुन्दरता बड़ी।
	भेद है, बेमोल, औ बहुमोल में।
	है न आँसू की लड़ी मोती लड़ी।30।
	 
	दीठ और निगाह
	देवदेव
	क्यों करे दौड़धूप वाँ कोई।
	मन जहाँ पर न दौड़ने पावे।
	जिस जगह है न दौड़ सकती वाँ।
	दौड़ती क्यों निगाह दौड़ाये।1।
	आप जो फल भले भले देते।
	किस लिए फल बुरे बुरे चखते।
	तो बचाते निगाह क्यों अपनी।
	आप हम पर निगाह जो रखते।2।
	काम गहरी निगाह से लेते।
	सब कसर एक साथ खो जाती।
	क्यों भला फैलती निगाह नहीं।
	आपकी जो निगाह हो जाती।3।
	सुख-घड़ी है घड़ी-घड़ी टलती।
	दुख-घड़ी पास कब रही न खड़ी।
	देखते ही सदा निगाह रहे।
	पर कहाँ आपकी निगाह पड़ी।4।
	दिल के फफोले
	काम कुछ झाड़ फूँक से न चला।
	लोन राई उतार ब्योंत थकी।
	हम उतारे कई रहे करते।
	पर उतारे उतर न दीठ सकी।5।
	किस तरह देख, देख दुख लेवे।
	देख कर भी न देख पाती है।
	दीठ हमने गड़ा गड़ा देखा।
	दीठ तो चूक चूक जाती है।6।
	नोक झोंक
	किस लिए हैं गड़ा रहे उसको।
	क्यों गड़े जब कि है न गड़ पाती।
	लाख कोई रहे लड़ाता, पर।
	बे-लड़े क्यों निगाह लड़ पाती।7।
	है जहाँ प्यार रार भी है वाँ।
	जो कि है मोहती वही गड़ता।
	कब जुड़ी दीठ साथ दीठ नहीं।
	दीठ से दीठ कब नहीं लड़ती।8।
	किस तरह ठीक कर सके कोई।
	कर ठगी आज ठग गई कैसे।
	दीठ हम तो रहे बचाते ही।
	दीठ को दीठ लग गई कैसे।9।
	दीठ का ही जिसे सहारा है।
	वह किसी दीठ से कभी न गिरे।
	फेरिये आप दीठ मत अपनी।
	उठ सकेगी न दीठ दीठ फिरे।10।
	दीठ का दीठ साथ नाता है।
	तुल गई दीठ दीठ तुल पाये।
	बँधा गई दीठ दीठ के बँधाते।
	खुल गई दीठ दीठ खुल पाये।11।
	हैं बढ़े और वे कढ़े भी हैं।
	क्यों किसी आँख से कभी कढ़ते।
	जँच गये जब निगाह में मेरी।
	क्यों नहीं तब निगाह पर चढ़ते।12।
	मान कोई बुरा भले ही ले।
	हैं बुरी सूरतें नहीं भाती।
	क्यों छिपायें न दीठ हम अपनी।
	क्या करें दीठ दी नहीं जाती।13।
	तेवर
	नोक झोंक
	कर पुआलों का बनिज सन बीज बो।
	हाथ रेशम के लगे लच्छे नहीं।
	क्यों बुरे तेवर किसी के हैं बुरे।
	आपके तेवर अगर अच्छे नहीं।1।
	तो न टेढ़े के लिए टेढ़े बनें।
	बान बनती हो अगर बातें गढे।
	काम जो तेवर बिना बदले चले।
	तो चढ़ा तेवर न लें तेवर चढ़े।2।
	भौंह टेढ़ी देख टेढ़ी भौंह हो।
	आँख मेरी आँख से उनकी लड़े।
	त्योरियाँ तो क्यों बदल हम भी न लें।
	आज तेवर पर अगर हैं बल पड़े।3।
	ताकना
	सच्चे देवते
	है भलाई ही जिसे लगती भली।
	दूसरों ही के लिए जो सब सहे।
	हम भले ही ताक में उसकी रहें।
	वह किसी की ताक में कैसे रहे ।1।
	हित गुटके
	है हमारा तपाक वैसा ही।
	क्या हुआ दाँत है अगर टूटा।
	ताक में बैठ राह तकते हैं।
	ताकना झाँकना नहीं छूटा।2।
	मेल जो मेलजोल कर न रखें।
	तो लहू भी न लोभ से गारें।
	तीर तन का न जो निकाल सकें।
	तो न हम तीर ताक कर मारें।3।
	नोक झोंक
	जो बुरा आपको नहीं कहता।
	आप क्यों हैं उसे बुरा कहते।
	ताक में आपकी रहे कब हम।
	आप क्यों हैं हमें तके रहते।4।
	दाल गल सकती नहीं तो मत गले।
	पर किसी का क्यों दबा देवें गला।
	ताक पर रख कर सभी भलमंसियाँ।
	कब किसी को ताक रखना है भला।5।
	 
	 
	 
	रोना
	दिल के फफोले
	लुट सदा के लिए गया सरबस।
	आज बेवा सोहाग है खोती।
	फूट जोड़ा गया जनम भर का।
	क्यों न वह फूट फूट कर रोती।1।
	गोद सूनी हुई भरी पूरी।
	है धारोहर बहुत बड़ा खोती।
	छिन गया लाल आँख का तारा।
	'माँ' न कैसे बिलख बिलख रोती।2।
	कब मरा मिल सका, बहुत रो कर।
	क्यों न जन आँख सा रतन खोवे।
	साल दो साल क्या कलप कितने।
	क्यों न कोई कलप कलप रोवे।3।
	जान को बेजान होते देख कर।
	आँसुओं से क्यों न मुँह धोने लगें।
	गाल में है लाल जाता काल के।
	लोग चिल्ला कर न क्यों रोने लगें।4।
	जो रहा लोक-प्यार का पुतला।
	बेलि जिसने मिलाप की बोई।
	बेतरह आज है सिसिकता वह।
	क्यों न रोवे सिसिक सिसिक कोई।5।
	जी दुखे पर आँख से आँसू बहा।
	क्यों न दुख खोवें अगर दुख खो सकें।
	धूल में मिल, धाौल खाकर मौत की।
	क्यों न रो धो लें, अगर रो धो सकें।6।
	कुछ न छोड़ा मौत ने सब ले लिया।
	एक दुख बेढंग देने के सिवा।
	क्यों न रोवें क्यों न छाती पीट लें।
	क्या रहा रो पीट लेने के सिवा।7।
	चल बसा जिसको कि चल बसना रहा।
	बस न चल पाया बिलपते ही रहे।
	नारियाँ घर में बिलखती ही रहीं।
	सब खड़े रोते कलपते ही रहे।8।
	सिर न कूटें और न छाती पीट लें।
	बावले दुख से न हों धीरज धारें।
	कम दुखद है एक का मरना नहीं।
	दूसरे क्यों बे-तरह रो रो मरें।9।
	दिल के छाले
	है निगलती तमाम लोगों को।
	है बला पर बला सदा लाती।
	हैं बुरी मौत लाखहा मरते।
	मौत को मौत क्यों नहीं आती।10।
	कौन है मौत हाथ से छूटा।
	हो महाराज या कि हो मक्खी।
	है बुरी मौत तो बुरी होती।
	मिल सके मौत तो मिले अच्छी।11।
	वह जिया तो क्या जिया, जिसके लिए।
	मर गये पर जाति सब रोई नहीं।
	जो मरे तो लोक-हित करता मरे।
	मौत कुत्तो की मरे कोई नहीं।12।
	जन्म जब हमने लिया था उस समय।
	हँस रहे थे लोग हम थे रो रहे।
	इस जगत में इस तरह जी कर मरे।
	हम हँसें हर आँख से आँसू बहे।13।
	दुख जिन्हें है बहुत दुखी करता।
	मौत की नींद क्यों न वे सोवें।
	नर अमर क्यों बिना मरे होगा।
	लोग क्यों ढाढ़ मार कर रोवें।14।
	चाह होवे, और हों फूले फले।
	चाहिए यह, मौत आ जावे तभी।
	उस समय कोई मरा तो क्या मरा।
	देखता है जब दबा आँखें सभी।15।
	जी की कचट
	पीस देगा पर न पछता सकेगा।
	संग का यह ढंग है माना हुआ।
	दर्द ही जिसको नहीं, उसके लिए।
	और का रोना सदा गाना हुआ।16।
	लाख समझाया मगर समझा नहीं।
	हाथ का हीरा हमें खोना पड़ा।
	अनसुनी ही की गई सारी सुनी।
	आज जंगल में हमें रोना पड़ा।17।
	क्या अजब गिर पड़ें कुएँ में सब।
	या उन्हें ठोकरें पड़ें खानी।
	तब भला किस लिए न हो धोखा।
	जब कि भेड़ी सिरे की हो कानी।18।
	हो भरोसा कुछ न कुछ सबको सदा।
	क्यों न कोई खेत के दाने बिने।
	बे-सहारे हार कर कोई न हो।
	सब छिने लकड़ी न अन्धो की छिने।19।
	मरें कमाई करने वाले ।
	संड मुसंडे माल उड़ावें।
	मुँदी आँख दोनों ही की है।
	अंधी पीसे कुत्तो खावें।20।
	 
	 
	 
	नाक
	देवदेव
	चाहतें बेतरह गईं कुचली।
	साँसतें भी हुईं नहीं कुछ कम।
	आप लें, या कभी न दम लेवें।
	नाम में हो गया हमारा दम।1।
	हितगुटके
	बात पूरी करें पुरे कैसे।
	जब दिखाई पड़े सदा पोले।
	बोल कैसे न हो कु-बोल, अगर।
	बोलती नाक नाक में बोले।2।
	नाक जब हैं सिकोड़ते हित सुन।
	किस तरह नाक तो बचावेंगे।
	नाक पर बैठने न दे मक्खी।
	नक-कटे नाक ही कटावेंगे।3।
	दम दिखा और नाक में दम कर।
	दिल बढ़े, बैर हैं बढ़ा लेते।
	नाक उड़ जाय या उतर जावे।
	नक-चढ़े नाक हैं चढ़ा लेते।4।
	आदमी का रहन सहन व चलन।
	रह सका पाक पाक रखने से।
	वे सुनें जो कि नाक कुल की हैं।
	रह सकी नाक, नाक रखने से।5।
	कर सकें हित न, तंग तो न करें।
	बात जी में बुरी न पावे थम।
	मोम की नाक, मोम दिल होवें।
	नाक मल मल करें न नाकों दम।6।
	किस लिए नाक तब दबाते हैं।
	दाब में देह जब नहीं आती।
	जब कि करतूत से गये कतरा।
	नाक कैसे न तब कतर जाती।7।
	है कसर तो वही भारी जी में।
	हो सकेगा हवास को खो क्या।
	पड़ कतर-ब्योंत में कुढंगों के।
	नाक ही जो कतर गई तो क्या।8।
	तरह तरह की बातें
	पड़ इन्हीं के पेच में पिछड़ी रही।
	जाति ने इनकी बदौलत सब सहा।
	चाल चलने में बडे चालाक हैं।
	चोचलों से कब न नाकों दम रहा।9।
	जान होते जाँय क्यों बे-जान बन।
	मर मिटे पर मान कर देवें न कम।
	किस तरह कोई रगड़वा नाक ले।
	एड़ियाँ रगडें न रगड़ें नाक हम।10।
	एकसे सब एकसे होते नहीं।
	हो कमल से पाँव खिलते हैं नहीं।
	फूल झड़ते हैं फुलाने से न मुँह।
	नाक फूले फूल मिलते हैं नहीं।11।
	है उन्हें काम बेहयापन से।
	और का काम ही तमाम हुआ।
	डूबने को कहीं कुआँ न मिला।
	नक्कुओं से गये बहुत नकुआ।12।
	क्यों लगे धाब्बे न वह धोता फिरे।
	मान नकटे का नहीं होता कहीं।
	बेसबब उतरी निठुर के हाथ से।
	नाक तू चित से मगर उतरी नहीं।13।
	बेसमझ सूझ बूझ के आगे।
	कुछ नहीं है नसीहतों में दम।
	किस लिए आप वे सिकुड़ जाते।
	नाक उनकी सिकुड़ न पाई कम।14।
	तब चखेंगे न क्यों बुरे फल हम।
	जब बुरी बेलि ही गई बोई।
	तब करेगा न नाक में दम क्यों।
	नाक का बाल जब बना कोई।15।
	अन्योक्ति
	साँस उसकी किस लिए फूले भला।
	दूसरों को वह फले या मत फले।
	नाक तो है साँस लेने की जगह।
	साँस दाईं या कि बाईं ही चले।16।
	बन गई फूल तू कभी तिलका।
	तू कभी है बहुत बसी होती।
	नाक तेरे अजीब लटके हैं।
	हैं तुझी में लटक रहा मोती।17।
	जो रही बार बार चढ़ जाती।
	तो बता दे हमें खसी तू क्या।
	नाक तुझमें बसा रहा मल जो।
	फूल की बास से बसी तो क्या।18।
	कान
	हितगुटके
	जब कि ख्रूटी उमेठने से ही।
	ताँत की सब कसर नहीं जाती।
	तब भला कान ऐंठ देने से।
	आँत की ऐंठ क्यों निकल पाती।1।
	जब डँटे काम पर रहेंगे हम।
	तब हमें डाँट लोग क्यों देंगे।
	पाँव उखड़े न जब भले पथ से।
	कान कैसे उखाड़ तब लेंगे।2।
	कान काटें न कपटियों के वे।
	क्यों रहें तेल कान में डाले।
	कान कतरें न कान कतरा कर।
	देस के कान फूँकने वाले।3।
	क्यों उठा कान हम न उठ बैठें।
	काढ़ लें क्यों न आँख की सूई।
	कान कर के खड़ा खड़े होवें।
	कान में क्यों भरी रहे रूई।4।
	नित करें कान काम की बातें।
	क्यों न हित-पैंठ बीच पैठें हम।
	कान में डाल उँगलियाँ क्यों लें।
	किस लिए कान मूँद बैठें हम।5।
	कान दे कर सुनें हितू बातें।
	बन्द करके न कान अकड़ें हम।
	क्यों मले कान कान मल निकले।
	कान पकड़े न कान पकड़ें हम।6।
	क्या हुआ जो बजे उमग बाजे।
	देस-हित-गीत भी गया गाया।
	किस तरह कान खोल डालें हम।
	कान का मैल कढ़ नहीं पाया।7।
	रेंगती कान पर नहीं जब जूँ।
	तब भला आँखें खोलते कैसे।
	जब कि है कान ले गया कौआ।
	कान को तब टटोलते कैसे।8।
	 
	 
	सुनहली सीख
	क्यों पड़ी कान में न हित-बातें।
	दूसरा कान क्यों पकड़ पावे।
	कान का खोंट क्यों न कढ़वा लें।
	क्यों भरे कान कान भर जावे।9।
	हम लगा कान बात क्यों सुनते।
	है बुरे छाँव की पड़ी छाया।
	कान का जा सका न बहरापन।
	आँख का मैल कढ़ नहीं पाया।10।
	चाहिए जाति-हित-भरी बातें।
	जो भली लग सकें न तो न खलें।
	छेद है कान में न तो न सुनें।
	किस लिए हाथ कान पर रख लें।11।
	हो भली और काम की भी हो।
	हों न उसमें विचार अनभल के।
	दूसरे कान से लगे जब हैं।
	क्यों सुन बात कान के हलके।12।
	हित की बातें
	खोल करके कान हित-बातें सुनें।
	उँगलियाँ क्यों कान में देते रहें।
	कान के कच्चे कहें कच्ची नहीं।
	कान के पतले न पत लेते रहें।13।
	बेतरह हैं बिलख रहीं बेवा।
	चैन बेचैन जी नहीं पाता।
	कान है फट रहा सुनें कैसे।
	कान अब तो दिया नहीं जाता।14।
	की बड़ों की शिकायतें न कभी।
	कब भलों पर बुराइयाँ डालीं।
	गालियाँ दीं, न तो चुगुलियाँ कीं।
	कान में डाल क्यों उँगलियाँ लीं।15।
	अन्योक्ति
	दुख सहे साँसत सही कट फट गये।
	और ले ली नेकचलनी से बिदा।
	भूल है थोड़ी सजावट के लिए।
	कान कितनी ही जगह जो तू छिदा।16।
	तू पहन ले बने चुने गहने।
	नित भली चाह क्यों न फबती ले।
	बेधा दे और को न या बेधो।
	आप तू कान बिधा भले ही ले।17।
	सब सहेगा जो सहाओगे उसे।
	पर भला तौहीन कैसे सहेगा।
	कान! गहने फूल के हैं कुछ घड़ी।
	साथ तो कनफूल का ही रहेगा।18।
	पी रसीले सुर अघाया ही किया।
	तू अनूठी तान से भरता रहा।
	जब निराला रस बहा तुझसे नहीं।
	कान तू ही सोच तब तू क्या बहा।19।
	जो कि जंजाल में हमें डाले।
	चाहिए जाल वह नहीं बुनना।
	कान है बात यह बुरी होती।
	छोड़ दो तुम बुराइयाँ सुनना।20।
	गाल
	हितगुटके
	बात बेलौस की न दिल से सुन।
	चाहिए क्या बिपद बुला लेना।
	पा जिन्हें फूल फल चले, उनसे।
	चाहिए गाल क्या फुला लेना।1।
	गाल कोई रहे फुलाता क्यों।
	है उठा गाल बैठ भी जाता।
	जब तमाचा लगा तमाचे पर।
	गाल कैसे न तमतमा आता।2।
	जब कि बदरंग था उसे बनना।
	किस लिए रंग तो रहा लाता।
	जब कि बाई पची जवानी की।
	गाल कैसे न तो पचक जाता।3।
	गाल उभरे भरे बहुत देखे।
	गाल सूखे रँगे न देखे कम।
	फूल है फूल क्यों उसे मसलें।
	क्यों मलें गाल, गाल चूमें हम।4।
	प्यार के पुतले
	कौन सा मन न मोह जाता है।
	आँख भोली सुडौल भाल लखे।
	कौन होता भला निहाल नहीं।
	लाल के लाल लाल गाल लखे।5।
	हैं फबीले लुभावने चिकने।
	काँच गोले भले न ऐसे हैं।
	आइने से अमोल अलबेले।
	गाल फूले गुलाब जैसे हैं।6।
	तरह तरह की बातें
	गाल होता लाल है तो लाल हो।
	कह सकेंगे हम न बेजा सुन बजा।
	मारते हैं गाल तो मारा करें।
	हैं बजाते गाल तो लेवें बजा।7।
	देह पर जब कि पड़ रहा हो दुख।
	अंग कैसे न दुख उठाता तब।
	सूजना बज कि पड़ गया मुँह को।
	गाल कैसे न सूज जाता तब।8।
	हम कहेंगे खरी न सहमेंगे।
	क्यों न बन्दूक लोग छतिया लें।
	आप तो गाल चीर देंगे ही।
	क्यों न दो गाल और बतिया लें।9।
	अन्योक्ति
	तब लुभा कर भले लगे तो क्या।
	जब कि छूटी न फूलने की लत।
	जब रहा रँग न तब करें क्या ले।
	गाल तेरा गुलाब सी रंगत।10।
	पेच में जब तू पचकने के पड़ा।
	रह नहीं सकता सुबुकपन तब बना।
	झुर्रियों का जब झमेला है लगा।
	गाल तब जो तू तना तो क्या तना।11।
	रंगतें हैं बहुत भली अपनी।
	और बुरी हैं बनावटों वाली।
	लाल मत बन गुलाल से तब तू।
	गाल असली रही न जब लाली।12।
	वह सुबुकपन है भला किस काम का।
	धूप से जिसकी हुई साँसत बड़ी।
	तब फबीली क्या रही दहले दले।
	जब गोराई गाल की पीली पड़ी।13।
	मिल गया है बड़ा अनूठा रंग।
	पर कहाँ मिल सकी महँक अनुकूल।
	भूल मत, सोच गुल खिलाना छोड़।
	गाल क्या तू गुलाब का है फूल।14।
	जब किसी पर दया नहीं आई।
	जब कि तू बेतरह जलाता है।
	तब हुआ क्या पसीज जाने से।
	गाल तू क्यों पसीज जाता है।15।
	क्यों गये भींग आँसुओं से तब।
	जब दिखाई दिये हमें सूखे।
	तब कहेंगे तुम्हें न माखन सा।
	गाल जब तुम बने रहे रूखे।16।
	भर गये धूल में पड़े रूखे।
	और पाया न नेह भी टिकने।
	जब बना रह सका न चिकनापन।
	गाल तब क्या बने रहे चिकने।17।
	 
	मुँह
	 
	दिल के फफोले
	आँख थी ही बन्द मुँह भी बन्द है।
	मुँह उठा कर कौन मुँह ताका नहीं।
	सिल गया मुँह आज दिन भी है सिला।
	टूट मुँह का तो सका टाँका नहीं।1।
	खा तमाचा लिया अगर मुँह पर।
	तो कहें कौन बात क्या सोचें।
	मुँह दिखाते अगर नहीं बनता।
	क्यों न तो बार-बार मुँह नोचें।2।
	जो बड़े हैं हर तरह वे हैं बडे।
	कर न उनका मान क्यों उनको खलें।
	चाहिए था मुँह नहीं आना हमें।
	अब भला हम कौन मुँह लेकर चलें।3।
	जाति किस तरह तू जीती रह सकेगी।
	एक नहीं मानी तूने उनकी कही।
	रँगे रहे जो अपनापन के रंग में।
	चले गये अपना सा मुँह लेकर वही।4।
	लानतान
	लोग अपने हकों पदों को भी।
	बीरता के बिना नहीं पाते।
	जब गई बीरता बिदा हो तब।
	क्या रहे बार-बार मुँह बाते।5।
	बे-तरह मुँह की अगर खाते नहीं।
	तो चबाते क्यों न लोहे के चने।
	सामने आकर करें मुँह सामने।
	मुँह दिखायें मुँह दिखाते जो बने।6।
	छेद मुँह में है अगर, छेदें न तो।
	किस लिए बेढंग कोई मुँह चले।
	आग ही जो मुँह उगलता है सदा।
	आग उस मुँह में लगे वह मुँह जले।7।
	हित गुटके
	क्यों कहें हम न चाहता सब है।
	बात सुनना बड़ी बड़े मुँह से।
	मुँह अगर फूलता किसी का है।
	क्यों नहीं फूल तो झड़े मुँह से।8।
	भूल कर कोई न मुँह काला करे।
	मुँह रहे हित रंग से सब दिन रँगा।
	पुत सियाही जाय क्यों मुँह में किसी।
	चाहिए मुँह में रहे चन्दन लगा।9।
	मुँह न जिसमें लगा सकें उसमें।
	मुँह लगा लाग में न आयें हम।
	देख कर मुँह कहें न मुँहदेखी।
	मुँहलगों को न मुँह लगायें हम।10।
	क्यों किसी मुँह की बनी लाली रहे।
	क्यों किसी मुँह में रहे लोहू भरा।
	मल किसी का मुँह न कोई मुँह खिले।
	लाल मुँह कर हो न कोई मुँह हरा।11।
	तोलना हो तो भले ही तोल ले।
	क्यों सताने के लिए कोई तुले।
	मुँह किसी का बन्द करके क्या खुला।
	चाहिए मुँह खोल करके मुँह खुले।12।
	मुँह बना देख मुँह बनायें क्यों।
	मान अरमान का करें क्यों कम।
	मुँह गिरे मुँह गिरे हमारा क्यों।
	मुँह फिरे मुँह न फेर लेवें हम।13।
	मुँह सँभालें सिकोड़ करके मुँह।
	मान रख लें न क्यों मना करके।
	मुँह चिढ़ा कर न खाँय मुँह की हम।
	मुँह बिगाड़े न मुँह बना करके।14।
	हित अगर मोड़ मुँह नहीं लेता।
	तो न सुख की सहेलियाँ मुड़तीं।
	रंग उड़ता अगर न चेहरे का।
	तो न मुँह पर हवाइयाँ उड़तीं।15।
	नाड़ी की टटोल
	जब उमंगें उभर नहीं पाईं।
	तब भरा किस तरह से रह पाता।
	पूच की जब कि पच गई बाई।
	तब भला क्यों न मुँह पचक जाता।16।
	किस तरह काले न तब कपड़े बनें।
	सूत काले रंग में जब हों रँगे।
	दिल किसी का जब कि काला हो गया।
	तब सियाही क्यों नहीं मुँह में लगे।17।
	क्या करेंगे तब भला अलवान ले।
	जब कि कम्बल ही बहुत सजता रहा।
	काम बाजों का रहा तब कौन सा।
	मुँह बजाने से अगर बजता रहा।18।
	और को फूला फला लख जो कुढ़े।
	वे नहीं देखे गये फूले फले।
	जो कि परहित देख कर जलते रहे।
	कल्ह जलते आज उनका मुँह जले।19।
	तब चले थे रंग जमाने आप क्या।
	जब भरम ही आपका था खो गया।
	मिल गया सारा बड़प्पन धूल में।
	आज तो इतना बड़ा मुँह हो गया।20।
	मिल सके उनसे कहीं हलके नहीं।
	जो हवा लगते पतंगों सा तनें।
	जो रहे मनमानियों के मस्त वे।
	क्यों न अपने मुँह मियाँमिट्ठई बनें।21।
	क्यों न पत ले उतार औरों की।
	जब कि निज पत गँवा गया वह डँट।
	बात फट से अगर न कह दे, तो।
	फिर उसे लोग क्यों कहें मुँहफट।22।
	गिर गया जो कि आप मुँह के बल।
	वह भला कैसे मुँह बचा पावे।
	मुँह पिटाये पिटे नहीं कैसे।
	मुँह गया टूट टूट तो जावे।23।
	चार आँखें अगर नहीं होतीं।
	क्यों न बेचारापन दिखायें तो।
	जो उन्हें है पसंद मुँह चोरी।
	क्यों न मुँह चोर मुँह चुरायें तो।24।
	जब कि मुँह सामने नहीं होता।
	तब झिपेंगे न क्यों झिपाने से।
	क्यों न मुँह देख आइने में लें।
	मुँह छिपेगा न मुँह छिपाने से।25।
	है हँसी की बात हँसना चाहिए।
	बीज बनने हैं चले दाने घुने।
	हम हँसे तो क्या, न हँसता कौन है।
	बात बूढ़े मुँह मुहासे की सुने।26।
	निराले नगीने
	पड़ गया है जो बुरों के साथ में।
	क्यों बनेगा वह बुरे जी का नहीं।
	फल चखे फीका व फीकी बात कह।
	कौन सा मुँह हो गया फीका नहीं।27।
	दुख उठाना किसे नहीं पड़ता।
	कौन सुख ही सदा रहा पाता।
	था कभी चख रहा नगर पेड़ा।
	मुँह थपेड़ा कभी रहा खाता।28।
	सुनहली सीख
	चाहते हैं हम अगर सच्चा बना।
	क्यों न तो आँचें सचाई की सहें।
	पीठ पीछे है बुरा कहना बुरा।
	चाहिए जो कुछ कहें मुँह पर कहें।29।
	मुँह न जाये सूख सूखी बात सुन।
	सब दिनों रस से रहें हम तर-बतर।
	मुँह लटक जाये न लटके में पड़े।
	आँख से उतरे, न मुँह जाये उतर।30।
	दुख बढ़ाये सदा रहा बढ़ता।
	कब नहीं कम किये हुआ दुख कम।
	पेट में पैठ पेट को पालें।
	क्यों पड़ें मुँह लपेट करके हम।31।
	जो कहें उसको समझ करके कहें।
	बेसमझ ही चूक कर हैं चूकते।
	क्यों न उलटे थूक तो मुँह पर गिरे।
	जब कि सूरज पर रहे हम थूकते।32।
	हित तजे किसका नहीं होता अहित।
	दुख मिले सुख के न कब लाले पड़े।
	छल किये छाती न कब छलनी बनी।
	मुँह छिले मुँह में न कब छायी पड़े।33।
	है इसी से आज साँसत हो रही।
	और है सब ओर दुख-धारा बही।
	क्यों सही बातें नहीं जातीं कही।
	क्या जमाया है गया मुँह में दही।34।
	प्यार के पुतले
	लाल का मुँह फूल सा फूले लखे।
	क्यों न तारे भौंर जैसे घूमते।
	क्यों बलायें चाव से लेते नहीं।
	चूमने वाले न क्यों मुँह चूमते।35।
	खिल सकेगी किस तरह दिल की कली।
	बेतरह है लाल अलसाया हुआ।
	फूलता फलता हमारा चाव क्यों।
	फूल सा मुँह देख कुम्हलाया हुआ।36।
	नोंक झोंक
	क्यों किसी मुँह पर मुहर होवे लगी।
	क्यों किसी मुँह से लगा प्याला रहे।
	मुँह किसी का जाय मीठा क्यों किया।
	क्यों किसी मुँह में लगा ताला रहे।37।
	हम तरसते हैं खुले मुँह आपका।
	मुँह हमारा आप क्यों हैं सी रहे।
	आप मुँह भर भी नहीं हैं बोलते।
	आपका मुँह देख हम हैं जी रहे।38।
	कब नहीं काँटे बखेरे हैं गये।
	भूल है जो मन-भँवर भूला रहा।
	किस लिए तो फूल झड़ पाये नहीं।
	मुँह फुलाने से अगर फूला रहा।39।
	 
	तरह तरह की बातें
	भूलते तो न देख भोला मुँह।
	मोहते तो न बात सुन भोली।
	बोल कर बोलियाँ अनूठी जो।
	बोलतीं बेटियाँ न मुँहबोली।40।
	सब बनी बातें बिगड़ जिनसे गईं।
	किसलिए बात गईं ऐसी कही।
	क्यों भुला दी आपने, वह काम की।
	बात मुँह में जो अभी आई रही।41।
	जो गुलाबों की तरह से थे खिले।
	था अनूठा रस सदा जिनसे चुआ।
	उन दिलों से देख कर धूआँ उठा।
	मुँह भला किसका नहीं धूआँ हुआ।42।
	तब भला कैसे न पड़ते फेर में।
	दुख हुआ जब सामने आकर खड़ा।
	फाँकते ही धूल हम दिन भर रहे।
	एक दाना भी नहीं मुँह में पड़ा।43।
	अन्योक्ति
	जब कि बेढंग वह रहा चलता।
	तब तमाचे न किस लिए खाता।
	जब भली बोलियाँ नहीं बोला।
	तब भला क्यों न मुँह मला जाता।44।
	क्या सकी जान तब मरम रस का।
	जब बनी जीभ बेतरह सीठी।
	क्या रहा तब मिठाइयाँ खाता।
	कह सका मुँह न बात जब मीठी।45।
	रख बुरे ढंग कर बुरी करनी।
	जब कि बू के पड़े रहे पाले।
	पान चाहे इलाचयी खा कर।
	तब वृथा मुँह बने महँकवाले।46।
	क्यों कढ़ेगी बुरी डकार न तब।
	जब रहेंगी कसर भरी आँतें।
	मुँह भली बास से बसे कैसे।
	कह बुरी बास से बसी बातें।47।
	भर निराले बहुत रुचे रस से।
	हों भले ही छलक रहे प्याले।
	बेसमय बूँद किस तरह टपके।
	मुँह लगातार राल टपका ले।48।
	जाति है जिनके बड़प्पन से बड़ी।
	जब उन्हें तूने कड़ी बातें कहीं।
	टूट कैसे तो नहीं मुँह तू गया।
	और तुझमें क्यों पड़े कीड़े नहीं।49।
	जो खुला मीठे कलामों के लिए।
	लाल बन कर पान से जो था खुला।
	खुल गया मरते समय भी मुँह वही।
	जो कभी था खिलखिला करके खुला।50।
	बेतरह हैं निकल रहे दोनों।
	मुँह सँभल क्रोधा आग कम न जगी।
	झाग में औ बुरे कलामों में।
	झाग है आज कुछ अजीब लगी।51।
	मुँह तुम्हीं सोच लो कि तुम क्या हो।
	थूक कफ और खेखार के घर हो।
	बात टेढ़ी कहो न टेढ़े बन।
	दैव का कुछ तुम्हें अगर डर हो।52।
	बात जिसकी बड़ी अनूठी सुन।
	दिल भला कौन से रहे न खिले।
	है बड़ी चूक जो उसी मुँह को।
	चुगलियाँ गालियाँ चबाव मिले।53।
	मत उठा आसमान सिर पर ले।
	मत भवें तान तान कर सर तू।
	ढा सितम रह सके न दस मुँह से।
	मुँह उतारू न हो सितम तू।54।
	दाँत
	लान-तान
	गुर गिरों के प्यार का जाना नहीं।
	गिर गये हो तुम बहुत ही इस लिए।
	यह कहूँगा एक क्या सौ बार मैं।
	कटकटाते दाँत हो तुम किस लिए।1।
	दून की तो आप लेते थे बहुत।
	क्यों दिलेरों के डगाये डग गये।
	बेतरह जी में समा डर क्यों गया।
	इस तरह क्यों दाँत बजने लग गये।2।
	दूधा का दाँत है नहीं टूटा।
	क्यों भला दाँत पीस मत खोते।
	बेतरह हैं पड़े खटाई में।
	दाँत खट्टे न किस तरह होते।3।
	दाँत वे हैं निकालते तो क्या।
	हैं सदा पूँजियाँ हड़प लेते।
	दाँत से क्यों न कौड़ियाँ पकड़ें।
	दाँत हैं दूधा-पूत पर देते।4।
	लोग उँगली दाब ले दाँतों तले।
	हैं मगर वे तेज डँसने में बड़े।
	दाँत सारे गिर गये तो क्या हुआ।
	दाँत बिख के हैं नहीं अब तक झड़े।5।
	मिल पराया धान उन्हें जैसे सके।
	किस लिए बन जाँय वे वैसे नहीं।
	दाँत उनको हैं अगर चोखे मिले।
	तो लगायें दाँत वे कैसे नहीं।6।
	 
	निराले नगीने
	हैं दुखी दीन को सताते सब।
	हो न पाई कभी निगहबानी।
	लग सका और दाँत में न कभी।
	हिल गये दाँत में लगा पानी।7।
	बात जो जी में किसी के जम गई।
	पाँव उस पर किस तरह जाता न जम।
	जो कि जी में है हमारे गड़ गया।
	कब नहीं उस पर गड़ाते दाँत हम ।8।
	तरह तरह की बातें
	वह कहा जाता है लोहे का चना।
	वह नहीं हलवा किसी के मुँह में है।
	जो उसे ले चाब दानों की तरह।
	यह बता दो दाँत किसके मुँह में है।9।
	यों चुराना जी बहुत ही है बुरा।
	क्या किया तुमने कि जी उकता गया।
	एक गुत्थी भी नहीं सुलझी अभी।
	किस लिए दाँतों पसीना आ गया।10।
	बैठ जाता दाँत है डर-बात सुन।
	चौंकते हैं चोट की चरचा चले।
	हम किसी का दाँत देते तोड़ क्या।
	हैं दबाते दूब दाँतों के तले।11।
	सैकड़ों ही ढंग के दुखड़े नये।
	सामने क्यों आँख के हैं फिर रहे।
	हो भला, उनकी बलायें दूर हों।
	नींद में वे दाँत क्यों हैं फिर रहे।12।
	मैं तड़पता हूँ बहुत बेचैन बन।
	इन दिनों कैसी हवाएँ हैं बही।
	पास पाटी के फटकते वे नहीं।
	दाँत-काटी सब दिनों जिनसे रही।13।
	बज रहा है अब नगारा कूच का।
	जीव के पिछले बिछौने तग गये।
	वे घड़ी दो एक के मेहमान हैं।
	सुन रहा हूँ दाँत उनके लग गये।14।
	क्या करेंगे कर सकेंगे कुछ नहीं।
	सोचिये किस खेत की मूली हैं ये।
	लाल होते देख आँखें आपकी।
	देखता हूँ दाँत इनके रँग गये।15।
	कुछ अदब सीखो बहुत मैं कह चुका।
	सुन सकूँगा अब न कोई बात मैं।
	दाँत निकले इस तरह जो फिर कभी।
	तो समझ लो तोड़ दूँगा दाँत मैं।16।
	बँधा गये हाथ पाँव हों जिसके।
	मार जिससे कि हो न जाती सह।
	तंग जी बार बार होने पर।
	दाँत कैसे न काट लेवे वह।17।
	बात बात में बात
	देख तुझको चित कहाँ उतना दुखा।
	वह बना जी को दुखी जितना खली।
	जो अचानक बिन खिले कुँभला गई।
	दाँत तू क्या कुन्द की है वह कली।18।
	बान जो पड़ गई उखड़ने की।
	तो न हम पाँव की तरह उखड़ें।
	जो कि गिरता रहा उभड़ करके।
	दाँत जैसा कभी न हम उभड़ें।19।
	सोच लें बढ़ने सँभलने के लिए।
	याँ उमड़ते या उभड़ते हैं न सब।
	कब नहीं आँसू उमड़ करके ढले।
	दाँत गिरने के लिए उभड़े न कब।20।
	अन्योक्ति
	तोड़ना फोड़ना दबा देना।
	छेदना बेधाना बिपद ढाना।
	दाँत को कब नहीं पसन्द रहा।
	चीरना फाड़ना चबा जाना।21।
	मैल की तह अगर रही जमती।
	तो कभी हैं न मोतियों जैसे।
	जब किसी काल में खिले न मिले।
	दाँत हैं कुन्द की कली कैसे।22।
	है निराली चमक दमक तुममें।
	सब रसों बीच हो तुम्हीं सनते।
	दाँत यह कुन्दपन तुम्हारा है।
	जो रहे कुन्द की कली बनते।23।
	है न तुझमें मुलायमीयत वह।
	बास कुछ भी नहीं सका पा तू।
	दाँत जब तू नहीं फला फूला।
	तब बना कुन्द की कली क्या तू।24।
	देख ली तब दाँत बातें चाव की।
	होठ को जब तुम चबाते ही रहे।
	दब सकोगे तब सगों से किस तरह।
	जीभ को जब तुम दबाते ही रहे।25।
	वे बहुत ही मोल के जब हैं न तब।
	भूल की मोती अगर बनने चले।
	मान मनमाना किये मिलता नहीं।
	दाँत नीलम कब बने मिस्सी मले।26।
	मान लो बात मोल मत खो दो।
	दाँत मैले बने रहो मत तुम।
	दूर कर दो तमाम मैलापन।
	मत सहो और की मलामत तुम।27।
	जो तुम्हें चाहना सुखों की है।
	तो लहू में किसी तरह न सनो।
	कौन दुख में पड़ा न गन्दे रह।
	दाँत मत गन्दगी-पसंद बनो।28।
	दूसरों को बेतरह गड़ और चुभ।
	मात करते हो सदा तुम तीर को।
	देखता हूँ मानता कोई नहीं।
	दाँत! अपनी पीर सी पर-पीर को।29।
	कूटते औ पीसते ही वे रहे।
	काम देगी क्या दवा औ क्या दुआ।
	मिल गया बेदर्दियों का फल उन्हें।
	दर्द जो बेदर्द दाँतों में हुआ।30।
	जीभ
	लान-तान
	बेतरह काट कर रही है जब।
	क्यों न तो जीभ काट ली जाती।
	काम है दे रही कतरनी का।
	जीभ कैसे कतर न दी जाती।1।
	क्या उसे कुछ चोट इसकी है नहीं।
	चाहिए अपनी दवा चटपट करे।
	कर चटोरापन बहुत, पड़ चाट में।
	क्यों चटोरी जीभ घर चौपट करे।2।
	बेतरह चल बुराइयाँ कर कर।
	किसलिए खाल वह खिंचाती है॥
	चाम की जीभ चामपन दिखला।
	चाम के दाम क्यों चलाती है।3।
	दे रही है बुरी बुरी गाली।
	एक क्या बीसियों बहाने से।
	लालची बन गँवा रही है घर।
	चल रही जीभ है चलाने से।4।
	है सदा बात बेतुकी कहती।
	किस समय दाम का सकी दम भर।
	है न किससे बिगाड़ कर लेती।
	जीभ बिगड़ी बिगाड़ती है घर।5।
	क्यों बहुत खींचतान बढ़ती है।
	खैंच लें जीभ खैंचते जो हैं।
	जो नहीं जीभ ऐंठ जाती तो।
	ऐंठ दें जीभ, ऐंठते क्यों हैं।6।
	राल टपका बहुत रही है क्यों।
	क्यों निकल बार-बार आती है।
	क्यों न गिर जाय है अगर गिरना।
	किस लिए जीभ लपलपाती है।7।
	हित गुटके
	बन भली है भलाइयाँ करती।
	बात को देख-भाल लेती है।
	चाहिए जीभ को सँभालें हम।
	जीभ सँभली सँभाल लेती है।8।
	जीभ कैसे निकाल लेवेंगे।
	क्या फबी हैं उन्हें फबी बातें।
	जीभ किसने नहीं दबा ली है।
	सुन दबी जीभ की दबी बातें।9।
	जो उसे बदनामियों का डर नहीं।
	तो बुरी करनी कमाई से डरे।
	सब दिनों कर खाज पैदा कोढ़ में।
	क्यों किसी की जीभ खुजलाया करे।10।
	मान तब तक मिल नहीं सकता हमें।
	बात के जब तक न हो लेंगे धानी।
	तब धानी हम बात के होंगे नहीं।
	जीभ पत्ताा जब कि पीपल का बनी।11।
	है चटोरापन भला होता नहीं।
	पर चटोरे मानते हैं कब कही।
	चल बसी किसकी नहीं दौलत भला।
	जब कि बेढब जीभ चलती ही रही।12।
	सब रहे कोसते बुरा कहते।
	पर न कब वह कड़ी पड़ी झगड़ी।
	क्यों किसी को बिगाड़ दे कोई।
	जीभ बिगड़ी सदा रही बिगड़ी।13।
	निराले नगीने
	है बुरी लत का लगाना ही बुरा।
	बन हठीली क्यों न वह हठ ठानती।
	हम अमी भर भर कटोरी नित पियें।
	पर चटोरी जीभ कब है मानती।14।
	नित बुराई बुरे रहें करते।
	पर भली कब भला रही न भली।
	दाँत चाहे चुभें, गड़ें, कुचलें।
	पर गले दाँत जीभ कब न गली।15।
	जिंद
	रंग में ढंग में चिटिकने में।
	चाट में जिंद हूबहू देखा।
	लोग ऐसे यहीं मिले जिनको।
	जीभ से चाटते लहू देखा।16।
	 
	अन्योक्ति
	प्यास में सूख तब न क्यों जाती।
	जब कि बेढंग रस रहा बाँटा।
	जब कि बोना पसंद है काँटा।
	हो गई जीभ तू तभी काँटा।17।
	जीभ जो है चाह सुख से दिन कटे।
	तो न लगती बात तू कह दे कभी।
	जब फफोले और के जी पर पड़े।
	हैं फफोले पड़ गये तुझ पर तभी।18।
	बाद जिस दुख के किसी को सुख मिले।
	है बुरा वह दुख नहीं यह सोच रख।
	जो तुझे जल का बढ़ाना स्वाद है।
	कर कसाला रस-कसैला जीभ चख।19।
	रंग जिनमें किसी लहू का है।
	क्यों तुझे हैं पसंद वे बीड़े।
	है बुरा पड़ बुराइयों में भी।
	जीभ तुझमें पड़े न जो कीड़े।20।
	जो खटाई है तुझे रुचती रुचे।
	क्यों कढ़ा वह बोल जो विष बो गया।
	जीभ तू ही सोच क्या मतलब सधा।
	जी अगर खट्टा किसी का हो गया।21।
	तालू
	लान-तान
	दिन रहे तालू उठाने के नहीं।
	क्यों न आँखों में समय पाया समा।
	जाति का तालू अगर है सूखता।
	दाँत तालू में तुमारे तो जमा।1।
	निराले नगीने
	रोग के जब पड़ गया पाले रहा।
	तब भला कैसे न वह जाता लटक।
	प्यास जब थी बेतरह चटकी हुई।
	किस तरह तालू न तब जाता चटक।2।
	दुख उठाना ही न क्यों उनको पड़े।
	पर समय पर साथ देवेंगे सगे।
	बोलते जब बोलने वाले रहे।
	किस तरह तब जीभ तालू से लगे।3।
	लब और होठ
	लान-तान
	वह सदा है माल उनका मूसती।
	वे भले ही भाव को मूसा करें।
	सब दिनों वह है उन्हीं का चूसती।
	चूसते हैं होठ तो चूसा करें।1।
	क्यों न देवें दबा बुरे दिल को।
	क्या चुगुल को दबा दबा होगा।
	क्यों न जायें चबा चबावों को।
	होठ को क्या चबा चबा होगा।2।
	जब नहीं है बहाव ही उसमें।
	तब अगर धार कुछ बही तो क्या।
	जब उसे हम बता नहीं सकते।
	होठ पर बात तब रही तो क्या।3।
	जब लहू में न रह गई गरमी।
	तब गये मान कौन गरमाता।
	किस तरह बाँह तब फड़क उठती।
	होठ भी जब फड़क नहीं पाता।4।
	पड़ रही हैं सब तरह की उलझनें।
	देख उनको किस तरह से चुप रहें।
	चाहिए मुँह खोल कर कहना जिसे।
	लोग होठों में उसे कैसे कहें।5।
	जो कि चिलबिल्ले गये सब दिन गिने।
	जो बचन देकर बिचल जाते रहे।
	बात सुन करके विचारों से भरी।
	कब नहीं वे होठ बिचकाते रहे।6।
	दिल के फफोले
	चित फटा होठ फट गये तो क्या।
	है खड़ी पास आ बिपत्तिा-घड़ी।
	काटते होठ हम दुखों से हैं।
	होठ पर है पड़ी हुई पपड़ी।7।
	जायगा मुँह किस तरह कुँभला न तब।
	बढ़ रही हो दिन-ब-दिन जब बेबसी।
	जब उमंगें बेतरह हैं पिस रहीं।
	होठ पर तब किस तरह आती हँसी।8।
	फूलता फलता पनपता एक है।
	एक ने बरबाद हो कर सब सहा।
	जी रहा दुख से मसलता एक का।
	मुस्कुराता एक होठों में रहा।9।
	हित-गुटके
	वह सदा तो ठहर नहीं सकती।
	फिर अगर कुछ घड़ी थमी तो क्या।
	हड़बड़ी में घड़ी घड़ी मत पड़।
	होठ पर जो घड़ी जमी तो क्या।10।
	जब बुरी चाल हम लगे चलने।
	लोग तब क्यों न चुटकियाँ लेंगे।
	जब निकलने लगे कलाम बुरे।
	लोग क्यों होठ तब न मल देंगे।11।
	नोक-झोंक
	पिंड छूटा कभी न लालच से।
	लाभ के साथ लोभ कब न बढ़ा।
	है लबों में नहीं ललाई कम।
	पर मिला कब न पान रंग चढ़ा।12।
	लब हिलाये न क्यों बहे रस, जब।
	हित-पियाला भरा लबालब हो।
	बज सके बीन तो रहे बजती।
	लब खुले, बन्द किस लिए लब हो।13।
	बात भी आप जब नहीं करते।
	तब भला रंग ढंग क्यों मिलता।
	सिर भला किस तरह हिलेगा तब।
	लब हिलाये अगर नहीं हिलता।14।
	अन्योक्ति
	जब कि तुम प्यारे रहे लगते नहीं।
	क्यों गये तब फूल औ फल-दल कहे।
	धूल में नरमी तुमारी तब मिले।
	होठ जब जी में खटकते तुम रहे।15।
	फल इनारू का अगर तू बन सका।
	तो कहें हम दाख सा कैसे तुझे।
	लाख दावा हो मिठाई का मगर।
	होठ तू मीठा नहीं लगता मुझे।16।
	 
	हँसी
	हित-गुटके
	हैं सुला सकते नहीं जो फूल पर।
	तो न काँटों पर किसी को दे सुला।
	जो हँसायें औ खेलायें हम नहीं।
	तो न हँसते खेलतों को दें रुला।1।
	है बुरा जो भिड़ें अड़ें अकड़ें।
	क्यों मचलते रहें मचा ऊधाम।
	काम वह, चाहिए जिसे करना।
	क्यों न कर दें हँसी-खुशी से हम।2।
	छेड़ लो जो चाहते हो छेड़ना।
	पर न हो बेहूदगी उसमें बसी।
	बस तभी तक गुदगुदाना चाहिए।
	जब तलक आती किसी को है हँसी।3।
	बात क्यों ऐसी गई मुँह से कही।
	जो कि गाँसी सी किसी जी में धाँसी।
	है चुहुल करना भला होता नहीं।
	जड़ लड़ाई की कहाती है हँसी।4।
	है हमें जो निरोग रखना तन।
	चाहते हैं अगर न दुख झेलें।
	तो फिरें नित खुली हवा में हम।
	खूब जी खोल कर हँसें खेलें।5।
	किसी बात की बहुतायत है बेंड़ी।
	सबसे ऊँचे गये लोग हैं खसते।
	हँसी अमी है मगर बहुत हँस देखो।
	पेट फूल जायेगा हँसते हँसते।6।
	चाल चलन है अगर बनाना।
	तो कुचाल से नाता तोड़ो।
	हाहा - हीही - करतों में पड़।
	हाहा - हीही करना छोड़ो।7।
	 
	नोक-झोंक
	है हँसी खेल ही हँसी करना।
	वे हँसेंगे हमें हँसा लेंगे।
	किस तरह से हँसी उड़ायें हम।
	वे हँसी में हमें उड़ा देंगे।8।
	हम हँसी का काम करते हैं नहीं।
	डर कुरुचि से क्यों सुरुचि सोती रहे।
	हँस रहे हैं लोग तो हँसते रहें।
	है अगर होती हँसी होती रहे।9।
	वे हँसे खेले हँसे बोले बहुत।
	फूल मुँह से बात कहते ही झड़े।
	होठ पर आई हँसी आँखें हँसीं।
	खुल गये दिल खिलखिला कर हँस पडे।10।
	फूल जैसे किस लिए जायें न खिल।
	आँसुओं से गाल क्यों धोयें न हम।
	जब हँसाये औ रुलाये हैं गये।
	तब भला कैसे हँसें रोयें न हम।11।
	सूख सारा तन गया, सूखी नसें।
	सूख कर तर आँख जाती है धाँसी।
	हम गये हैं सूख, सूखी बात सुन।
	क्यों न सूखा मुँह, हँसे सूखी हँसी।12।
	जब रसीली बात रसवाली बनी।
	तब भला कैसे न रस-धारें बहें।
	तब हँसी के किस तरह लाले पड़े।
	जब कि हम हँसते हँसाते ही रहें।13।
	जब कि सूखा जवाब दे न सके।
	वे किसी एँच-पेंच में फँस कर।
	तब भला और चाल क्या चलते।
	टाल देते न बात क्यों हँस कर।14।
	तब कहाँ आया तरस, आँखें अगर।
	देख कर उसको तरसती ही रहें।
	बे-तरह जब थी दिलों को फाँसती।
	क्यों न फाँसी तब हँसी को हम कहें।15।
	हँसी-दिल्लगी
	पड़ सकेगा बल न मेरी भौंह पर।
	हम भला बेढंगियों में क्यों फँसें।
	बल उन्हीं के पेट में पड़ जायगा।
	है अगर हँसना हँसोड़ों को हँसें।16।
	कँप जाते हैं पत्ताा खड़के।
	औरों को बन जाते हैं यम।
	देख शेर गीदड़ का बनना।
	हँसते हँसते लोट गये हम।17।
	गये पेट में बल पड़ मेरे।
	हँसी नहीं पा सकती थी थम।
	सुन सुन कर हँसोड़ की बातें।
	हँसते हँसते लोट गये हम।18।
	अन्योक्ति
	कौन हँसता तब नहीं तुझ पर रहा।
	जब कि तू भोंड़े लबों में थी फँसी।
	तब भला कैसे हँसी तेरी न हो।
	जब हँसी तूने किसी की की हँसी।19।
	जब कि सूखापन दिखा सूखी बनी।
	तब गई बेकार रस-डूबी कही।
	तब अमी की सोत क्यों मानी गई।
	जब कि विष जैसी हँसी लगती रही।20।
	जो कि अपने आप ही फँसते रहे।
	क्यों उन्हीं के फाँसने में वह फँसी।
	जो बला लाई दबों पर ही सदा।
	तो लबों पर किसलिए आई हँसी।21।
	बात
	अपने दुखड़े
	हैं नहीं उठता हमारा पाँव भी।
	जातियाँ सब दौड़ में हैं बढ़ रहीं।
	इस तरह पीछे अगर पड़ते रहे।
	बात भी तो लोग पूछेंगे नहीं।1।
	न पके, पर अढ़ाई चावल की।
	कब न खिचड़ी अलग पका ली है।
	किस तरह बात का असर होगा।
	सब तरह बात जब निराली है।2।
	लानतान
	हो भले ही बात करने का न ढब।
	जड़ भला चुप किस तरह से रहेंगे।
	क्यों न दुखने सिर लगे सुन सुन, मगर।
	बात बेसिर-पैर की ही कहेंगे।3।
	दिन-ब-दिन है बात बिगड़ी जा रही।
	बेतरह लगती हमें अब लात है।
	पर बताई बात सुनते ही नहीं।
	सोचते ही हम नहीं क्या बात है।4।
	उन्हें चार बातें तुम कह दो।
	या अपने ही सिर को धुन लो।
	काम क्या करेंगे बातूनी।
	लम्बी लम्बी बातें सुन लो।5।
	नाम काम का सुन पड़ते ही।
	लम्बी लम्बी साँस भरेंगे।
	भला सकेंगे क्या कर, वे जो।
	लम्बी लम्बी बात करेंगे।6।
	हित गुटके
	रोकते छेंकते रहे यों ही।
	कब भला मच गया नहीं ऊधाम।
	बेसबब बात बात में अड़ करें।
	क्यों करें बात का बतंगड़ हम।7।
	और को कोस लें मगर दुख में।
	डालने को कुढंग क्या कम हैं।
	क्यों फँसेंगे न तब बलाओं में।
	जब बुरी बात में फँसे हम हैं।8।
	चाल की बात है बुरी होती।
	कट गई नाक फिर नहीं जुड़ती।
	बात को दें उड़ा न यह कह कर।
	पड़ गई बात कान में उड़ती।9।
	भूल है, पहुँचें ठिकाने हम न जो।
	राह सीधी कब न दिखलाई गई।
	है कसर जो कर उसे बरपा न हों।
	कब नहीं हितबात बतलाई गई।10।
	किस तरह तब बची रहे हुरमत।
	और मुँह की बनी रहे लाली।
	सैकड़ों टाल-टूल कर, हित की।
	बात ही जब गई बहुत टाली।11।
	सुनहली सीख
	वह सकेगी डाल कैसे पेंच में।
	वह रहे क्यों सादगी की घात में।
	मिल सकी पेचीदगी जिसमें नहीं।
	बू बनावट की न हो जिस बात में।12।
	जो कहें उसको सँभल करके कहें।
	चूक जाने की न आने दें घड़ी।
	तब किसी की बात क्या फिर रह गई।
	बात ही वापस अगर लेनी पड़ी।13।
	मान सकता बात यह कोई नहीं।
	गीत गूँगा आदमी गाता रहा।
	बात करना ही जिसे आता नहीं।
	वह लगाता बात का ताँता रहा।14।
	सोच, समझी बात कहने के लिए।
	जीभ को जब तक न अपनी साधा लें।
	धाक तब तक किस तरह बाँधो बँधो।
	बात का पुल हम भले ही बाँधा लें।15।
	एक का मुँह लाल रिस से हो गया।
	फूल जैसा एक का मुखड़ा खिला।
	बात से हाथी किसी को मिल गया।
	औ किसी को पाँव हाथी का मिला।16।
	काम का दो बना निकम्मों को।
	काम की बात सैकड़ों सिखला।
	औ मना दो न-मानतों को भी।
	दो करामात बात की दिखला।17।
	जो नहीं हैं जानते वे जान लें।
	बात में ही है भरी करतूत सब।
	कब न भारी बात कह भारी बने।
	बात हलकी कह बने हलके न कब।18।
	मीठी चुटकी
	वह मिले तो भला मिले कैसे।
	है बड़ी चाह भाग है खोटा।
	माँगते हैं स्वराज हम, लेकिन।
	है बड़ी बात और मुँह छोटा।19।
	क्यों न उसको लोग मलते ही रहें।
	कान फिर भी हो न पाता तात है।
	लूटते हैं वाहवाही आप ही।
	हम कहें क्या, आपकी क्या बात है।20।
	नोक-झोंक
	क्या हुआ पीट जो दिया उसको।
	राह पर जो कि है पिटे आता।
	लात का आदमी समझ देखो।
	बात से मान किस तरह जाता।21।
	क्या अजब जो रंज हमसे वे रहें।
	है हमें भी रंज उनसे कम नहीं।
	क्यों चलायेंगे हमारी बात वे।
	जब चलाते बात उनकी हम नहीं।22।
	जीभ पर आये बिना रहती नहीं।
	बात जो जी में जमी सब दिन रही।
	तब भला कैसे न कच्चापन खुले।
	बात कच्ची जब गई मुँह से कही।23।
	ढंग से जो बोलते बनता नहीं।
	तो ढँगीलापन यही है चुप रहे।
	तब भला किसको कहें बेढंग हम।
	जब ढँगीला बात बेढंगी कहे।24।
	कीच में लेट जो सुखी होंगे।
	क्यों करेंगे पसंद वे गद्दे।
	हो अगर भद्द तो बला से हो।
	बात भद्दी कहें न क्यों भद्दे।25।
	काम की सच्ची कसौटी पर कसें।
	चाहते हैं आप जो हमको कसा।
	नेहफंदे में फँसाते क्यों नहीं।
	फल मिलेगा कौन बातों में फँसा।26।
	कुछ असर है अगर नहीं जी में।
	तो न जी बात छील छील भरें।
	चिड़चिड़ापन अगर पसंद नहीं।
	तो खुचुड़ बात बात में न करें।27।
	साँस
	देवदेव
	रह सुखों से अलग सुखी होवें।
	सब दुखों से घिरे हुए न घिरें।
	है अगर चाह यह, सदा प्रभु को।
	क्यों न तो साँस साँस पर सुमिरें।1।
	हित गुटके
	और सब जो खो गया तो खो गया।
	पर कभी हिम्मत न खोनी चाहिए।
	नाश हो पर हों निराश क्यों कभी।
	साँस होते आस होनी चाहिए।2।
	काम धीरज के किये ही हो सका।
	काम बनता है बिना धीरज कहीं।
	किस लिए हम डाल कंधा दें कभी।
	साँस जब तक आस क्या तब तक नहीं।3।
	साँस जो है उखड़ उखड़ जाती।
	तो किसी काम की न छाती है।
	बेतरह साँस फूलती है क्यों।
	साँस क्यों टूट टूट जाती है।4।
	साँस ठंढी भरें भँवर में क्यों।
	साँस हो बन्द, नाव को खेवें।
	है अगर चाह साँस लेने की।
	साँस तो ऊब ऊब क्यों लेवें।5।
	रुक गई साँस, साँस रोके से।
	भर गई साँस, साँस भर पाये।
	साँस निकले है, साँस के निकले।
	साँस आती है, साँस के आये।6।
	काल की चाल को कहें क्या हम।
	क्या दिया बुझ गया न बलने से।
	साँस ही के चले चले अब तक।
	चल बसे आज साँस चलने से।7।
	निराले नगीने
	हम भले ढंग में ढलें कैसे।
	रुचि भले ढंग में नहीं ढलती।
	तब चले ठीक ठीक नाड़ी क्यों।
	साँस ही ठीक जब नहीं चलती।8।
	आ बनी जान पर किसी के जब।
	ताब तब किस तरह निबह पाती।
	घोंट देवें गला किसी का जब।
	तब भला साँस क्यों न घुट जाती।9।
	तब भला साहस दिखाते किस तरह।
	जब बहाने बेतरह करने लगे।
	दौड़ते क्या, दौड़ लंबी देख कर।
	साँस ही लंबी अगर भरने लगे।10।
	दम
	देवदेव
	जो हमारी याद की भी याद है।
	क्यों न उसको याद पल पल पर करें।
	मार सकते दम नहीं जिसके बिना।
	क्यों न हरदम हम उसी का दम भरें।1।
	चेतावनी
	प्यार उसका ही भरा जी में रहें।
	रंग में उनके न क्यों रँग जाँय हम।
	देस की औ जाति की हमदर्दियाँ।
	है अगर कुछ दम करें तो दम-बदम।2।
	जाय बिजली दौड़ क्यों रग में नहीं।
	काम क्यों सरगर्मियों से हम न लें।
	जाति का जब तक न बेदमपन टले।
	चाहिए हम लोग तब तक दम न लें।3।
	रहें जमी ए बातें जी में।
	हमी देस का दुख हर लेंगे।
	कठिन से कठिन कामों को भी।
	दम के दम में हम कर देंगे।4।
	लानतान
	क्या करें ले बनी चुनी बातें।
	काम का और दाम का प्यासा।
	दे सकें तो हमें मदद देवें।
	दे चुके बार बार दमझाँसा।5।
	जाँच में जब उतर न ठीक सके।
	तब अगर हम जँचे जँचे तो क्या।
	क्यों मिला धूल में दिया दम-खम।
	दम चुरा कर बचे बचे तो क्या।6।
	वह ऊँचाई काम देगी कौन सा।
	मान ही जिससे किसी का हर गया।
	तब भला तुम दम चढ़ाने क्या चले।
	बेतरह जब दम तुमारा भर गया।7।
	तब न कैसे भला दबा लेगा।
	आप ही जब कि जाँयगे हम दब।
	तब न दमदार चाहिए बनना।
	दम गया सूख देखते दुख जब।8।
	सुनहली सीख
	हम रिझा सच्ची लगन को कब सके।
	एक मीठी बात ही का रस पिला।
	जब मिला तब मिल मिलाने से सका।
	कब भला दिल दम-दिलासा से मिला।9।
	क्या हुआ कितनी दुआवों के पढ़े।
	क्या हुआ कितनी दवाओं के किये।
	दम निकलने की घड़ी जब आ गई।
	रुक सका तब दम न दम भर के लिए।10।
	छल-कपट को न दें जगह जी में।
	पाँव पावे न पापपथ में थम।
	ओट में बैठ कर न चोट करें।
	दम किसी का न घोंट देवें हम।11।
	नाम कमाओ, सदा नाम से।
	मोल दाम का होता कम है।
	काम रखो मत बुरे काम से।
	लोगो जब तक दम में दम है।12।
	दें न इस तरह पीस किसी को।
	आँसू आठों पहर बहे जो।
	इतना नाक में न दम कर दें।
	मरते दम तक याद रहे जो।13।
	हितगुटके
	पैर पीछे पड़े न पीछे पड़।
	काम छेड़ा हुआ नहीं छूटे।
	दम न साधों न मार दम लें हम।
	जाय दम टूट पर न दम टूटे।14।
	दम-बदम देस का करें हित हम।
	जान तक जाति के लिए देवें।
	फूलने दम लगे, न दम फूले।
	दम निकल जाय पर न दम लेवें।15।
	बैठ उठ कर सदा कमीनों में।
	मान-मरजादा कर न देवें कम।
	दम दिये दाम फूँक क्यों देवें।
	दम लगा कर न हम बनें बेदम।16।
	क्यों भरोसा और के दम का करें।
	सूझजल से हितकियारी सींच लें।
	मुँह न ताकें, क्यों दबें, सच्ची कहें।
	क्यों किसी के दम दिये, दम खींच लें।17।
	दिल के फफोले
	मोड़ना मुँह कुटुंब से होगा।
	माल असबाब छोड़ना होगा।
	तोड़ नाता तमाम दुनिया से।
	दम किसी रोज तोड़ना होगा।18।
	छोड़ तन पींजड़ा समय आये।
	उड़ एकाएक हंस जावेगा।
	आँख टँग जायगी बिना टाँगे।
	दम अटक कर अटक न पावेगा।19।
	कौन है कालहाथ से छूटा।
	हैं बताये गये बहुत लटके।
	है दिखाता उसे जगत सपना।
	किस लिए दम न आँख में ऍंटके।20।
	आह
	हितगुटके
	आप वह लड़ सका नहीं, तो क्या।
	पर सितम किस तरह नहीं लड़ती।
	मार पड़ती रही किसी पर जब।
	आह कैसे न तब भला पड़ती।1।
	है अगर यह चाह सब चाहें हमें।
	फैलती कीरत रहे फूलें फलें।
	बेतरह तो दिल मसल देवें नहीं।
	आह भूले भी किसी की हम न लें।2।
	कोसते सब सदा रहे हमको।
	बात ऐसी करें बदी की क्यों।
	ले सकें तो असीस लें जस लें।
	आह लेवें भला किसी की क्यों।3।
	दिल के फफोले
	आह भर भर गया हमारा जी।
	पर दुखों का उठा नहीं देरा।
	आह खींचे न खींच-तान गई।
	आह मारे न मन मरा मेरा।4।
	हैं बुरी, बेतरह बुरी दोनों।
	क्यों कराहें न, क्यों उन्हें चाहें।
	साँसतें कर बहुत सताती हैं।
	आह ठंढी, गरम गरम आहें।5।
	आह करते कराहते हम हैं।
	चैन सूरत पड़ी नहीं दिखला।
	कब कसक कढ़ सकी कढ़े आहें।
	आह निकली मगर न दम निकला।6।
	 
	 
	छींक
	अपने दुखडे
	तब समझदारी समझ में आ गई।
	छींक आते नाक जब कटने लगी।
	जो सजाती जाति को थी सब तरह।
	रह गई है अब न वह संजीदगी।1।
	पते की बातें
	क्यों हुए छींक छोड़ दे साहस।
	हैं छिछोरे कहीं नहीं ऐसे।
	क्यों चले नाक काटने साहब।
	छींक आये, न छींकते कैसे।2।
	नाम लेंगे वहाँ दया का क्यों।
	हैं जहाँ बोटियाँ बिहस बँटती।
	मिल सकेगी वहाँ छमा कैसे।
	छींकते नाक है जहाँ छँटती।3।
	और के मंगल-महल की मूरतें।
	क्यो भला सेंदुर लगा वे टीकते।
	और का जी डोल जाने के लिए।
	नाक में कुछ डाल जो हैं छींकते।4।
	 
	जँभाई
	नाड़ी की टटोल
	नींद आँखाें में सबों के थी भरी।
	काहिली से बेतरह वे थे हिले।
	ऊँघ जाते और अलसाते हुए।
	जो मिले हमको जँभाते ही मिले।5।
	भेद कोई है नहीं सब एक हैं।
	ढंग से क्या है यही बतला रही।
	एक को लेते जँभाई देख क्यों।
	है जँभाई पर जँभाई आ रही।6।
	थूक
	हित गुटके
	चूक तब कैसे किसी के सिर पड़े।
	जब हमी थे चूक कर के चूकते।
	थूक मुँह पर क्यों न तब उलटा गिरे।
	जब कि सूरज पर रहे हम थूकते।1।
	जो कि जिस काम जोग है, उससे।
	ले न वह काम, हैं सभी छकते।
	साटता गोंद है जिसे, उसको।
	थूक से साट हम नहीं सकते।2।
	चाहिए धूल डालना जिस पर।
	क्यों उसे खोल खोल दिखलावें।
	हम भले ही किसी निघर घट को।
	थूक लें, और से न थुकवावें।3।
	जब छिछोरे चापलूसों का सदा।
	कान हैं कर चापलूसी काटते।
	लोग कैसे थूकते मुँह पर न तब।
	जब पराया थूक हम हैं चाटते।4।
	अन्योक्ति
	वह भला दूधा पी सके कैसे।
	जो रहा बार बार दुख जाता।
	क्यों गला रोटियाँ निगल पावे।
	थूक भी घोंट जब नहीं पाता।5।
	बोल भी जो सका निकाल नहीं।
	वह किसी काल में न कूक सका।
	कौर उससे उतर सके कैसे।
	जिस गले से उतर न थूक सका।6।
	लोग जिसको देख करके घिन करें।
	वह जहाँ है क्यों नहीं रहता वहीं।
	थूक मुँह से तू निकल आता न जो।
	लोग थू थू तो कभी करते नहीं।7।
	 
	 
	बोल और बोली
	हितगुटके
	बेसमय बेरुचे बिना समझे।
	बेदिली साथ जीभ के खोले।
	बोलते बोलते अबोल बने।
	बन सकी बात कब बहुत बोले।1।
	प्यार से भींग डूब परहित में।
	जीभ अपनी सँभाल कर खोलें।
	जो कभी बोलने लगें हम तो।
	बेधाड़क आन बान से बोलें।2।
	तरह तरह की बातें
	है गया भूल डींग का लेना।
	बात मँह से निकल नहीं पाती।
	मिल गये आज बोलने वाले।
	बोलती बन्द क्यों न हो जाती।3।
	जब समय था तब नहीं मुँह खुल सका।
	बात पीछे प्यार की खोली गई।
	जब हमारा मन हुआ नीलाम था।
	किसलिए बोली न तब बोली गई।4।
	बोलबाला हो नहीं उनका सका।
	जो बना कर मुँह, रहे, मुँह खोलते।
	बोलने में कब न बढ़ बोले बढ़े।
	बोल लें, बोली अगर हैं बोलते।5।
	जब दिये खोल बन्द सब उसके।
	किसलिए पर न खोलती चिड़िया।
	छोड़ सूना सरीर पिंजडे क़ो।
	उड़ गई आज बोलती चिड़िया।6।
	 
	 
	हिचकी
	जी की कचट
	वह कलेजा थाम कर कलपे न क्यों।
	सब तरह की साँसतें जिसने सहीं।
	पास जिसके दुख हिचिक आता रहा।
	आज उसको हिचकियाँ हैं लग रहीं।1।
	आ बनी जान पर किसी की क्यों।
	किसलिए वह न बेतरह बिचकी।
	चाहिए था उसे हिचिक जाना।
	आह! हिचकी न किस लिए हिचकी।2।
	साँस बेढंग जब रही रुकती।
	नोच बेचैनियाँ तभी पाईं।
	मौत कैसे न याद करती तब।
	हिचकियाँ जब कि बेतरह आईं।3।
	मौत करती याद है क्या इस लिए।
	वह बनी है कंठ की इस दम सगी।
	हैं हिचिकते प्राण तन को छोड़ते।
	या इसी से आज है हिचकी लगी।4।
	हितगुटके
	जो सहज में रोग होता दूर हो।
	तो कभी हम दुख न भोगें, देर कर।
	किसलिए पानी न पी लेवें तुरत।
	जाय पानी ही पिये हिचकी अगर।5।
	डर सकेंगे डाँट डपटों से न वे।
	जो सहमते ही नहीं उलटा टँगे।
	वे न मानेंगे दबाने से गला।
	जो हिचिकते ही नहीं हिचकी लगे।6।
	मूँछ
	लानतान
	बात भी तो पूछता कोई नहीं।
	डींग हो हर बात में क्या ले रहे।
	देख लो मुँह तो तवा सा हो गया।
	मूँछ पर तुम ताव क्या हो दे रहे।1।
	निज बड़े ही पलीद जी से ही।
	क्यों न अपना पलीदपन पूँछें।
	जब नहीं रह गया बड़प्पन कुछ।
	पूँछ हैं तो बड़ी बड़ी मूँछें।2।
	डाँट जो बैठे उसी से डर बहुत।
	है पकड़ कर कान उठते बैठते।
	जब हमारी ऐंठ ही जाती रही।
	तब भला हम मूँछ क्या हैं ऐंठते।3।
	चाहते थे जोत मनमानी मिले।
	पर ऍंधोरा छा गया आँखों तले।
	जब कि लेने के हमें देने पड़े।
	तब भला हम मूँछ टेने क्या चले।4।
	जब बड़ों ने नहीं बड़ाई दी।
	बोझ हैं तो बड़ी बड़ी मूँछें।
	जो हुआ दुख सुने न कान खड़ा।
	पूँछ हैं तो खड़ी खड़ी मूँछें।5।
	बेहया है बेहयापन से भरा।
	मूँछ पकड़े मूँछ होती है कड़ी।
	है मरोड़े कान मूँछ मरोड़ता।
	मूँछ उखड़े मूँछ करता है खड़ी।6।
	मूँछ निकली, गई निकाली, जब।
	किस तरह तब कहें कि है रुचती।
	क्या जमीं बार बार तब मूँछें।
	जब कि नोचे गये रहीं नुचती।7।
	जी की कचट
	हम अपाहिज अगर न बन जाते।
	तो बुरी बान की न बन आती।
	आलसी हाथ उठ अगर पाते।
	मूँछ मुँह में कभी नहीं जाती।8।
	मूँछ कैसे पट भला होती नहीं।
	पट न पाई आन से, पत खो गई।
	गिर गये, मूँछें हमारी गिर गईं।
	देख नीचा, मूँछ नीची हो गई।9।
	बाँट में पड़ता न जो बेचारपन।
	तो बिचारी बाल बिनवाती नहीं।
	जो मुड़ी, कतरी, बनाई वह गई।
	तो भला था मूँछ ही आती नहीं।10।
	हितगुटके
	वह बुरी ही गिनी गई सब दिन।
	क्यों करें झूठ मूठ की शेखी।
	बात ऐंठी हुई सुनी कितनी।
	मूँछ ऐंठी हुई बहुत देखी।1।
	और दो चार बार औरों से।
	बात ही वे उखड़ उखड़ पूछें।
	क्या हमें है पड़ी उखाड़ें जो।
	आप ही जाँयगी उखड़ मूँछें।12।
	जो चलेंगे नहीं ठिकाने से।
	ठोकरें लोग क्यों न देवेंगे।
	जो बुरी छान बीन होगी तो।
	मूँछ के बाल बीन लेवेंगे।13।
	तौर ही है हमें बता देता।
	और से किसलिए भला पूछें।
	बन सकेंगी न मूँछ असली वे।
	है बनी मूँछ ही बनी मूँछें।14।
	क्यों उसे प्यार हम न हो करते।
	क्यों न वह हो हमें बहुत भाती।
	बाढ़ बेढंग है नहीं अच्छी।
	है बढ़ी मूँछ काट दी जाती।15।
	पते की बात
	जब कि जी में बसी सिधाई थी।
	बन सकी तब नहीं सुई टेढ़ी।
	जी किसी का अगर न टेढ़ा है।
	किस तरह मूँछ तो हुई टेढ़ी।16।
	जो रँगे रंग तो नहीं रहता।
	जो रखें तो कभी न ठग पायें।
	बात तो है हमें बनानी ही।
	क्या करें मूँछ जो न बनवायें।17।
	बच गई थोड़ी सियाही और थी।
	देखता हूँ आप ही वह खो गई।
	मुँह हमारा और उजला हो गया।
	हित हुआ जो मूँछ उजली हो गई।18।
	 
	 
	दाढ़ी
	हितगुटके
	वे सकें जो उसे नहीं अपना।
	प्यार का रस पिला पिला करके।
	तो न देवें हिला किसी जी को।
	लोग दाढ़ी हिला हिला करके।1।
	जो दिखावट औ बनावट से बचे।
	रामरस, रँग प्रेम रंगत में चखे।
	तो बढ़ाये औ बनाये बाल क्या।
	क्या मुड़ाये और क्या दाढ़ी रखे।2।
	हैं भरी साधा दाढ़ियाँ सीधी।
	बात हम हैं बता रहे ताड़ी।
	सैकड़ों दाढ़ियाँ बँधी देखीं।
	देख लीं दाढ़ियाँ बहुत, फाड़ी।3।
	थपेड़े
	लोग सबसे अमोल पूँजी को।
	क्यों बुरे ढंग से लुटाते हैं।
	आबरू को घटा घटा करके।
	किसलिए दाढ़ियाँ घुटाते हैं।4।
	बैरियों से जी बचाते हैं वही।
	रंग जिन पर है न जीवट का चढ़ा।
	जी बढ़ा जिनका न बैरों का बढ़े।
	क्या करेंगे वे भला दाढ़ी बढ़ा।5।
	लानतान
	जब रही बार बार बन बनती।
	किसलिए बेतरह बढ़ी दाढ़ी।
	जब मुड़ी नुच गई कटी उखड़ी।
	तब चढ़ी क्या रही, चढ़ी दाढ़ी।6।
	रंग बिगड़े रंग क्या लाती रही।
	आबरू का काल क्या होती रही।
	रख सकी मुँह की अगर लाली नहीं।
	लाल दाढ़ी लाल क्या होती रही।7।
	क्यों कुढ़े जी न देखकर उसको।
	आँख उस पर न जाय क्यों काढ़ी।
	लाल थी पूच लालसाओं से।
	जिस पके आम की पकी दाढ़ी।8।
	निराले नगीने
	हो सकेंगी कभी न वह असली।
	क्यों न कोई जतन करे लाखों।
	है बनावट हमें पसंद नहीं।
	देख दाढ़ी बनी हुई आँखों।9।
	जो कि करते सादगी को प्यार हैं।
	कब रँगीलापन गया उनसे सहा।
	लोग रँगने में कसर करते नहीं।
	रंग कब रंगीन दाढ़ी का रहा।10।
	बाहरी रूप रंग भावों ने।
	भीतरी बात है बहुत काढ़ी।
	खुल भला क्यों न जाय सीधापन।
	देख सीधी खुली हुई दाढ़ी।11।
	आन बान
	ऐब लगता है, भले ही तो लगे।
	डाँट बतलावे बिपत गाढ़ी हमें।
	किस तरह से हम उसे काली करें।
	मिल गई भूरी अगर दाढ़ी हमें।12।
	क्या करें जो बेकसर हों दूसरे।
	और हममें हों भरी सारी कसर।
	क्यों जलें हम देखकर दाढ़ी बड़ी।
	मिल गई छोटी हमें दाढ़ी अगर।13।
	वह भले ही कढ़े मगर उसने।
	है न जी की कसर कभी काढ़ी।
	क्यों किसी को बड़ा समझ लें हम।
	देख करके बहुत बड़ी दाढ़ी।14।
	अन्योक्ति
	सब तरह की बनी सियाही में।
	जाय सौ ढंग से न क्यों ढाली।
	पर सुपेदी उसे मिलेगी ही।
	कौन दाढ़ी सदा रही काली।15।
	बाढ़ जो डाल गाढ़ में देवे।
	तो भला किसलिए बढ़ी दाढ़ी।
	जो चढ़ी आँख पर किसी की तो।
	क्यों चढ़ाई गई चढ़ी दाढ़ी।16।
	ढाल में निज कुढंगपन के ढल।
	वह भला किसलिए निढाल करे।
	और को डाल डाल उलझन में।
	गोल दाढ़ी न गोलमाल करे।17।
	है भलाई वाँ ठहर पाती नहीं।
	हो बुराई पर जहाँ माला चढ़ा।
	तो सुपेदी लोग हो जावे न क्यों।
	रंग दाढ़ी पर अगर काला चढ़ा।18।
	सूरत
	हितगुटके
	जो न मरजाद रख सकें अपनी।
	तो न बरबाद कर उसे देवें।
	जो बनाये न बन सके सूरत।
	तो न सूरत बिगाड़ हम लेवें।1।
	देख लें सबको सभी को लें समझ।
	हैं यहाँ पर सब तरह की मूरतेें।
	देख रोती सूरतें हिचकें न हम।
	मुँह न बिगड़े देख बिगड़ी सूरतें।2।
	काम सूरत-हराम कर न सका।
	क्यों न बनती हरामियों की गत।
	जब कि सूरत बदल गई बिलकुल।
	किस तरह तब दिखा सके सूरत।3।
	नोक-झोंक
	हो भले ही वह बहुत भद्दी बुरी।
	लोग चाहे मुँह बनायें या बकें।
	बन गई जैसी, बनी है वैसिही।
	हम भला सूरत बना कैसे सकें।4।
	रंग लाई दूसरी रंगत नहीं।
	औ लुनाई ने बनाई बावली।
	साँवले ही रंग में आँखें रँगी।
	देख कर सूरत सलोनी साँवली।5।
	जो कि जी को लुभा नहीं लेती।
	वह नहीं है लुभावनी मूरत।
	जब नहीं है सुहावनापन ही।
	तब कहाँ है सुहावनी सूरत।6।
	जो न उसमें हैं दया की रंगतें।
	जो न उसमें नेह-धारायें बहीं।
	तो लुनाई है लुनाई ही नहीं।
	है भली सूरत भली सूरत नहीं।7।
	भूल पायें न सूरतें भोली।
	वे सदा आँख में रहें बसती।
	दिन हँसी खेल में बितायें हम।
	सूरतें देखते रहें हँसती।8।
	बेहतरी की बताइये सूरत।
	बन गई गत उतर रही पत है।
	कर रहे हैं सवाल क्यों मुझसे।
	सच तो यह है सवाल सूरत है।9।
	गला
	हितगुटक
	s
	सब दिनों उसका भला होगा नहीं।
	जो कि औरों का नहीं करता भला।
	एक दिन उसका गला दब जायगा।
	दूसरों का जो दबाता है गला।1।
	तब बला आती न सिर पर किस तरह।
	दूसरों पर जब कि लाते थे बला।
	क्यों गला तब जायगा रेता नहीं।
	जब किसी का रेत देते हैं गला।2।
	एक छोटा गुनाह होने पर।
	जान ले लें न, मार दें, डाँटें।
	क्या हुआ दाँत काट लेने से।
	किसलिए हम भला गला काटें।3।
	है न भीतर और बाहर एक-सा।
	तो रहे हम किसलिए बनते भले।
	मिल सका जी से अगर जी ही नहीं।
	तो गले मिलने किसी के क्या चले।4।
	जो भले थाले कलेजे में उमग।
	छरहरे फैले हुए फूले फले।
	प्यार के पौधो लगा पाते नहीं।
	तो लगाते हैं किसी को क्या गले।5।
	प्यार से जो दिल हमारा हो भरा।
	जो भलाई पर हमारी आँख हो।
	वार करने को उठें तो हाथ क्यों।
	किस गले पर क्यों चले तलवार तो।6।
	है मरे को न मारता कोई।
	क्यों बिना यम बने बने जन यम।
	किसलिए ऐंठ दें गला ऐंठा।
	क्यों गला घुट रहा मरोड़ें हम।7।
	हम न सूखे गला, गला कतरें।
	चिढ़ नमक क्यों छिड़क जले पर दें।
	है अगर हो गया गला भारी।
	तो छुरी फेर क्यों गले पर दें।8।
	जो कि पथ देख भाल कर न चला।
	वह भला क्यों न ठोकरें खाता।
	जब गला फाड़ फाड़ चिल्लाये।
	किसलिए तब गला न पड़ जाता।9।
	भूल क्यों जाँय हम उचित बातें।
	क्यों कहें सच न, बात क्यों गढ़ दें।
	क्यों गले बाँधा कर गला बाँधों।
	क्यों मिला कर गले, गले मढ़ दें।10।
	सुनहली सीख
	जो हमें चोट ही चलाना है।
	तो चलावें कुचाल पर चोटें।
	है गला घोंटना पसंद अगर।
	तो गला हम गुमान का घोटें।11।
	चाह दिखला, न चाह में डाले।
	प्यार कर बैर किसलिए साधो।
	क्यों गले लग गले पड़े कोई।
	मिल गले किसलिए गला बाँधो।12।
	जो भला बनता बला वह क्यों बने।
	जो करे तर किसलिए वह दे जला।
	क्यों गला फूला बुरा फल दे हमें।
	क्यों गले का हार कस देवे गला।13।
	नोक-झोंक
	चाहता है अगर सताना तो।
	क्यों सताये न सौ बहाने से।
	बाँधाने से न क्यों गला बँधाता।
	क्यों न दबता गला दबाने से।14।
	आज भी है धाँसी कलेजे में।
	काढ़ने से कहाँ कढ़ी गाँसी।
	जब कि वे फाँस हैं रहे हमको।
	क्यों गले में न तो लगे फाँसी।15।
	प्यार के रंग में रँगा मैं हूँ।
	काम साधो सदा सधा मेरा।
	क्यों गला छूटता गला पकड़े।
	है गले से गला बँधा मेरा।16।
	वे कसें उतना कि जितना कस सकें।
	छूट वह पावे न कर कोई कला।
	बात जब उतरी गले से ही नहीं।
	तब भला कैसे खुले खोले गला।17।
	जब छुरी चल रही गले पर है।
	क्यों कलेजा न तो तड़प जाता।
	हाथ उनका लहू भरा देखे।
	क्यों हमारा गला न भर आता।18।
	दिल बहुत मल रहा हमारा है।
	किस तरह एक कर इन्हें पायें।
	साथ हैं बेसुरे गले देते।
	क्यों गले से गला मिला गायें।19।
	अन्योक्ति
	जब कि सुर था बिगड़ बिगड़ जाता।
	तब कहें क्यों, कि वह सुरीला था।
	जब कि रस कुछ रहा न गाने में।
	तब भला क्या गला रसीला था।20।
	तब भला कैसे न बेचैनी बढ़े।
	मौत से जब बेतरह खटकी रही।
	किस तरह से तब उतर पानी सके।
	जब गले में साँस आ अटकी रही।21।
	रोग ने किसकी रगें ढीली न कीं।
	औ दुखों ने कर दिया किसको न सर।
	है उसी से जल उतर पाता नहीं।
	जिस गले से कौर जाता था, उतर।22।
	है तुमारा बहुत बुरा यह ढब।
	है गला यह बहुत बुरा बाना।
	आप तो तू रहा बिगड़ता ही।
	किसलिए है बिगाड़ता गाना।23।
	 
	 
	गरदन
	लानतान
	आज भी हैं बन्द आँखें वैसिही।
	आज भी हमने न अपना पथ लखा।
	क्या न सिर पर बोझ भारी है लदा।
	क्या न गरदन पर क्या जूआ रखा।1।
	चौंकते हो देख कर तलवार क्यों।
	जान से तो मान प्यारा है कहीं।
	और की गरदन बची तो क्या बची।
	जब कि अपनी ही बची गरदन नहीं।2।
	ऐंठ गरदन बेतरह ऐंठी गई।
	रह गई दो कौड़ियों की ही अकड़।
	हाथ गरदन पर अगर डाला गया।
	क्यों न जाती आबरू गरदन पकड़।3।
	क्यों न फंदे बुरे फँसायेंगे।
	क्यों न हो जायगी लहू से तर।
	क्यों न गरदन फँसें, नपे, उतरे।
	है नहूसत सवार गरदन पर।4।
	हित गुटके
	करनियों के फल नहीं किसको मिले।
	दुख सहा कर दुख नहीं किसने सहे।
	क्या हुआ उनकी अगर गरदन उड़ी।
	और की गरदन उड़ाते जो रहे।5।
	मुँह दिखाये तो दिखाये किस तरह।
	जब किसी की आबरू ले ली गई।
	किस तरह गरदन भला नीची न हो।
	जब कि गरदनिया किसी को दी गई।6।
	जाति औ देस जाय क्यों तन बिन।
	क्यों निछावर करें न अपना तन।
	कुछ कभी तो न पा सकेंगे हम।
	जो नपाये नपी नहीं गरदन।7।
	अपने दुखड़े
	है कुदिन मेरा सुदिन होता नहीं।
	है बला सिर की नहीं टाले टली।
	किस तरह गरदन बचाने से बचे।
	कब नहीं तलवार गरदन पर चली।8।
	थामने से थम न बेताबी सकी।
	सामने जब मौत की आई घड़ी।
	चढ़ गईं आँखें, पलक थिर हो गई।
	ढल पड़ा आँसू ढलक गरदन पड़ी।9।
	नोक-झोंक
	बढ़ गई बेएतबारी बेतरह।
	है नहीं बेएतनाई अब ढकी।
	तब भला दिल हिल सकेगा किस तरह।
	जब हिलाये हिल नहीं गरदन सकी।10।
	हो किसी को मानते सनमानते।
	हो किसी को बेतरह तुम तानते।
	जान कर भी आज तक जाना नहीं।
	हो तुम्हीं गरदन हिलाना जानते।11।
	चाहिए क्या सुन विनय हिलना उसे।
	रीझ जिसमें रंग ला होती मिली।
	जब कि अपने आप वह हिलने लगी।
	तब अगर गरदन हिली तो क्या हिली।12।
	बाँह गरदन में पड़े तब किस तरह।
	बन गये जब आँख की हम किरकिरी।
	लोग गरदनिया हमें हैं दे रहे।
	आपकी गरदन नहीं फेरे फिरी।13।
	कब न गरदन रहे झुकाते हम।
	आपकी उठ सकी नहीं गरदन।
	हैं अगर आप तन रहे तन लें।
	हम सकेंगे न तन गये भी तन।14।
	चाल टेढ़ी है बहुत लगती भली।
	चाह है कह बात टेढ़ी जी भरें।
	आँख टेढ़ी और टेढ़ी हैं भवें।
	क्यों भला टेढ़ी न वे गरदन करें।15।
	कौन सी हमने नहीं साँसत सही।
	वे सितम करते नहीं हैं हारते।
	बेतरह गरदन हमारी है दबी।
	मार लें गरदन अगर हैं मारते।16।
	हैं किसे बेचैन कर देती नहीं।
	धारवाली छूरियाँ तन पर रखी।
	क्यों न गरदन एक दिन उड़ जायगी।
	क्या उठी तलवार गरदन पर रखी।17।
	 
	 
	कंठ
	देवदेव
	आपके दरपर पहुँच करके प्रभो।
	है बड़ा ही दीन भूखा जा रहा।
	दीजिये दो घूँट पानी ही पिला।
	बेतरह है कंठ सूखा जा रहा।1।
	अपने दुखड़े
	रंग में भंग हो गया जो हो।
	किस तरह तो उमंग दिखलावें।
	चाव पावें कहाँ बिना चित के।
	गीत क्यों कंठ के बिना गावें।2।
	बेतरह है बन्द होता जा रहा।
	हैं गये वे भी सहम, थे लंठ जो।
	कुछ भरोसा खुल न सकने का रहा।
	भाग खुल जाये खुले अब कंठ जो।3।
	सुनहली सीख
	भूल जावें उन कलामों को न हम।
	जो कि सचमुच हैं कमालों में सने।
	कंठ रखना चाहिए जिनको उन्हें।
	कंठ रखें कंठ जो रखते बने।4।
	बोलती मीठा रहें बोलें अगर।
	बोल कर बेढंग, क्यों दे दिल हिला।
	आप कोयल-कंठियाँ यह सोच लें।
	किसलिए है कंठ कोयल सा मिला।5।
	बात बात में बात
	दूसरे गुम रास्ता अपना करें।
	हम करेंगे रास्ता अपना न गुम।
	किस तरह तुमको कबूतर सा कहें।
	हो कबूतर-कंठ जैसे, कंठ तुम।6।
	जन उठे कान के रसायन हैं।
	सुर लयों से भरे सुरीले कंठ।
	सींचते कंठ हैं अलापों का।
	रस बरसते हुए रसीले कंठ।7।
	लंठ का लंठपन नहीं छूटा।
	कूढ़ को कूढ़पन सदा भाया।
	कुछ कहे कंठ तब भला कैसे।
	कंठ ही फूट जब नहीं पाया।8।
	भाग तब किस तरह भले फल दे।
	जब रहे हम न फूलते फलते।
	वे भला कंठ से लगें कैसे।
	कंठ पर तो कुठार हैं चलते।9।
	अन्योक्ति
	राग का रंग तब जमे कैसे।
	जब कि सुर हो न ढंग में ढाला।
	पा सके क्यों अलाप आलापन।
	जब कि होवे न कंठ ही आला।10।
	जीभ है पास वह वही कह ले।
	बात जिसको पसंद जो आवे।
	क्यों भला, कंठ से सुरीले को।
	बेसुरे संख सा कहा जावे।11।
	चंद जिसका कि है सगा भाई।
	हाथ में हैं जिसे कि हरि रखते।
	कंठ! उस संख बीर संगी की।
	किसलिए हो बराबरी करते।12।
	 
	 
	 
	 
	सुर
	अपने दुखड़े
	किसलिए जी की न गाँठें खोलते।
	एकता का रंग जो पहचानते।
	एक सुर से बोलते तो क्यों नहीं।
	सुर अगर सुर से मिलाना जानते।1।
	बात जी में जो न होती दूसरी।
	ताल कैसे ठीक रह पाता नहीं।
	एक सुर से चाहते गाना अगर।
	सुर मिले तो सुर बदल जाता नहीं।2।
	सुनहली सीख
	मुँह न ताकें काम पड़ने पर कभी।
	काम जितना हो सके उतना करें।
	जो लगाये तान लग पाती नहीं।
	तानपूरे को उठाकर सुर भरें।3।
	हो गये बेमेल रस कब रह सका।
	हैं जहाँ पर मेल रस भी है वहीं।
	किस तरह से तब भला रंगत रहे।
	जब हुई सुर ताल से संगत नहीं।4।
	फब न वैसे सके कहीं पर भी।
	निज जगह पर फबे सभी जैसे।
	लग सके सुर नहीं जहाँ पर जो।
	सुर भला वह वहाँ लगे कैसे।5।
	तब भला क्या अलापने बैठे।
	जब नहीं था अलापने आया।
	तब कहाँ रह सका सुरीलापन।
	जब न सुर ठीक ठीक लग पाया।6।
	अन्योक्ति
	धूल में मिल गया रसीलापन।
	जो न सूखा हुआ गला सींचा।
	तब भला किसलिए हुए ऊँचे।
	सुर! अगर देखना पड़ा नीचा।7।
	 
	 
	गाना
	देवदेव
	पेट के ही पसंद हैं धांधो।
	लोक-हित भूल कर नहीं भाया।
	गीत गाते गुमानियों का हैं।
	गुन तुमारा कभी नहीं गाया।1।
	ताकते हैं न दूसरों का मुँह।
	और के द्वार पर नहीं जाते।
	बस हमारे तुम्हीं रहे सरबस।
	यश किसी और का नहीं गाते।2।
	तब भला किसलिए बजा बाजा।
	जब न भर भाव में बहुत भाया।
	जब सराबोर था न हरि-रस में।
	गीत तब किसलिए गया गाया।3।
	तुम जिधार हो उधार चलें कैसे।
	मन हमारा अगर नहीं जाता।
	किस तरह गा सकें तुमारा गुन।
	गुन हमें मानना नहीं आता।4।
	तुम अगर झाँकी दिखा देते हमें।
	किस तरह से तो कुआँ हम झाँकते।
	ताकते तब क्यों हमारी ओर तुम।
	जब पराया मुँह रहे हम ताकते।5।
	तब उसे माना कहाँ सबमें रमा।
	जब कि मनमाना सितम ढाते रहे।
	जब दिया आराम जीवों को नहीं।
	राम का तब गीत क्या गाते रहे।6।
	सुर हुआ बेसुरा गला बिगड़ा।
	लय गई लोट नाम सुन उसका।
	गीत पर गीत हैं गये गाये।
	लोग हैं गा सकें न गुन उसका।7।
	निराली 
	धु
	न
	भर लहू सूखती हुई रग में।
	मर रही जाति को जिलाते हैं।
	गीत गा आनबान में डूबे।
	तान पर तान जब लगाते हैं।8।
	मोहते किसको न मीठे सुर मिले।
	चाव, मीठे गान हाथों से पला।
	बात मीठी है बड़ी मीठी मगर।
	है मिठाई में बढ़ा मीठा गला।9।
	गिटकिरी जो हो न सुन्दर रुचि-भरी।
	तान में जो हो न हित-ताना तना।
	जो बना पाता न जन का जन्म हो।
	तब अगर गाना बना तो क्या बना।10।
	ठीक ठेका हो धुनें भी ठीक हों।
	और बँधाता ही रहे सम का समा।
	ताल आता ताल पर होवे मगर।
	जब जमा तब जी जमे गाना जमा।11।
	मिल न पाया सरंगियों का सुर।
	बज रहा है मृदंग मनमाना।
	साज वाले बिगाड़ते जब हैं।
	क्यों बिगड़ जायगा न तब गाना।12।
	बन गया मस्त मन, गया दिल खिल।
	हो गया पुर उमंग पैमाना।
	खुल गई गाँठ गाँठ वालों की।
	गठ गये लोग, सुन गठा गाना।13।
	हितगुटके
	है जिसे मनमानियों की सूझती।
	मानता है वह किसी का कब कहा।
	वह भला कैसे बनाने से बने।
	जो सदा गाने बजाने में रहा।14।
	नौजवानों के गले पर चाल चल।
	वह चलाता ही रहा अकसर छुरा।
	है बुरा, वे लोग जो उसको सुनें।
	है बुरा गाना बना देता बुरा।15।
	गुन दिखाकर वहाँ करेंगे क्या।
	हो जहाँ पर गया बुरा माना।
	किरकिरी आँख की बनें न किसी।
	हम सुना गिटकिरी भरा गाना।16।
	पड़ कभी बेकारियों के पेंच में।
	कर कभी मक्कारियों का सामना।
	आज दिन हैं नाचते गाते सभी।
	हो भले ही नाचना गाना मना।17।
	हम न सुख की चाह से बेबस बनें।
	बेतरह उसके विचारों से डरें।
	मोह जायें क्यों हरिन सम तान पर।
	क्यों बधिाक के बान से बिधा कर मरें।18।
	बात बात में बात
	तान किसको मोह लेती है नहीं।
	है सुरों का कौन दीवाना नहीं।
	तब भला हमने सुना तो क्या सुना।
	सुन सके सुन्दर अगर गाना नहीं।19।
	कौन जादू के हुए वह भी चला।
	बच गया धीरज हमारा जो रहा।
	बावला बन जा रहा है मन कहाँ।
	आज क्या गाना कहीं है हो रहा।20।
	रागिनी की रंगतें बिगड़ें नहीं।
	टूटने पाये न रागों का धुरा।
	हों न बेताले समय भूलें नहीं।
	बेसुरे गाना न गायें बेसुरा।21।
	दीन दुखियों पर दया आई नहीं।
	चूस लेने को चुड़ैलों को चुना।
	कब खड़ा कर कान, दुखड़ा सुन सके।
	हो खड़े, गाना बहुत उखड़ा सुना।22।
	दुख-घटा है घिरी हुई सिर पर।
	हैं नयन जल सदा बरस जाते।
	बेतरह जल रहा कलेजा है।
	ऊबते हैं मलार हैं गाते।23।
	तरह तरह की बातें
	रीझ जायें हम निराली तान पर।
	बात या ताने, भरी जी में गुनें।
	जब उमंगें ही हमारी पिस गईं।
	क्या उमंगों से भरा गाना सुनें।24।
	काम अपना सौ तरह से साधाना।
	कौन ऐसा है जिसे भाता नहीं।
	है सुनाता कौन मतलब की नहीं।
	कौन अपनी ही सदा गाता नहीं।25।
	हम पुराने ढंग पर ही मस्त हैं।
	गीत भी हमने पुराने ही चुने।
	है नयापन की जिसे धुन लग गई।
	वह नई धुन का नया गाना सुने।26।
	वे सुनें डींग हाँक करके ही।
	है जिन्हें तानसेन बन जाना।
	भीख लें माँग कंठ औरों से।
	सीख लें सरगमों बिना गाना।27।
	किसलिए तब तान तुम हो ले रहे।
	जब गले के हैं नहीं सुर भी भले।
	बान जब थी गुनगुनाने की पड़ी।
	किसलिए गाना सुनाने तब चले।28।
	गीत गाया जा सके तब किस तरह।
	बेतरह जब गत बनी जाती रही।
	जानकर भी यह नहीं जाना गया।
	है न गाना गुनगुनाना एक ही।29।
	गोरखधां
	धा
	क्यों खिले फूल, क्यों हँसे, महँके।
	रंग लाये, झड़े, गिरे, सूखे।
	सिर धुने भी न धुन मिली इसकी।
	लोग हैं गीत गा रहे रूखे।30।
	सूरतें जो दिखा पड़ीं कितनी।
	क्या हुईं वे, कहाँ गईं खोई।
	गुनगुनाते हुए मिले कितने।
	गीत यह गा सका नहीं कोई।31।
	आज हैं मस्त और ही धुन में।
	अब न है राग रंग मनमाना।
	है लगाना न तान का आता।
	अब गया भूल गीत का गाना।32।
	आस है अब और पाने की नहीं।
	जो हमें पाना रहे हम पा चुके।
	है न कोई गीत गाने से बचा।
	जो हमें गाना रहे हम गा चुके।33।
	 
	 
	कं
	धा
	हितगुटके
	बाँट में जिनके बनावट है पड़ी।
	बन सके कब वे दिखावट से भले।
	पाँव से जिसको कुचलते ही रहे।
	आज क्या कंधा उसे देने चले।1।
	किसलिए कोई बहकता है बहुत।
	बाज भी है एक दिन बनता बया।
	आसमाँ जिसने उठा सर पर लिया।
	वह उठाया चार कंधों पर गया।2।
	जब घटे इतने कि मिट्टी में मिले।
	तब अगर हम बढ़ गये तो क्या बढ़े।
	आँख पर कितनी चढ़े तब किसलिए।
	चल पड़े जब चार कंधों पर चढ़े।3।
	बेतरह कंधो करोड़ों थे दबे।
	बारहा जिनके सितम-जूवे तले।
	वे भरे बेचारपन लाचार बन।
	एक दिन थे चार कंधों पर चले।4।
	तब लड़ाई किसलिए करने चलें।
	काँप जब थरथर उठें रन के लखे।
	हम अगर कर वार पाते हैं न तो।
	क्या हुआ तलवार कंधो पर रखे।5।
	आनबान
	दूसरे हैं ढालते ढाला करें।
	दूसरों के ढंग में हम क्यों ढलें।
	लोग क्यों अंधा बनाते हैं हमें।
	क्यों पकड़ कंधा किसी का हम चलें।6।
	कसरती हैं, न है कसर हममें।
	है भला सुधिा किसे न धांधो की।
	हम न अंधो हैं आप ही सँभलें।
	देख ली है उड़ान कंधो की।7।
	जाति-सेवा
	पाँव सेवा-पंथ में जो रख पड़े।
	सब तरह का भेद तो देवें उठा।
	पाँव जिसके बेतरह हों भर गये।
	क्यों न कंधो पर उसे लेवें उठा।8।
	नाम सेवा का न वे लें भूलकर।
	देख दुख जिनके न दिल हों हिल गये।
	बोझ उन पर रख बनें अंधो नहीं।
	बेतरह कंधो अगर हों छिल गये।9।
	बाँह
	देवदेव
	यह दया कर बताइये हमको।
	दुख दरद क्यों गये न टाले हैं।
	आपकी बाँह है बहुत लम्बी।
	आप ही चार बाँह वाले हैं।1।
	तरह तरह की बातें
	हैं बहुत ही लुभावनी लगती।
	चौगुनी कर सुखों भरी चाहें।
	दल-भरी बेलि, फल-भरे पौधो।
	जल-भरे मेघ, बल-भरी बाँहें।2।
	बन गुमानी गुमान के गढ़ में।
	हौसले बाँधा बाँधा मत बैठो।
	मिट सहसबाँह बीसबाँह गये।
	बाँह को ऐंठ ऐंठ मत ऐंठो।3।
	दूर जिसने कर न दी कमहिम्मती।
	क्यों न वह मरदानगी मर कर मुई।
	जो नहीं उसने पछाड़ा बाघ को।
	बाँह लम्बी जाँघ तक तो क्या हुई।4।
	वे नहीं ब्योंत सैकड़ों करके।
	बोझ सिर का बना सके हलका।
	जो न पग पर खड़े हुए अपने।
	है जिन्हें बल न बाँह के बल का।5।
	कलाई
	नोक-झोंक
	तू बुरे फँस गया कहूँ तो क्या।
	क्यों हुई गत बुरी बुरी मेरी।
	रात भर कल हमें नहीं आई।
	है कलाई मुरुक गई तेरी।1।
	बात बिगड़ी बनी बनाई सब।
	है भलाई न बेहयाई में।
	है बुरी बात ही बला लाई।
	मोच आई अगर कलाई में।2।
	सुनहली सीख
	कब कड़ी वह पड़ी नहीं तुझ पर।
	कब पड़ा तू नहीं पिसाई में।
	मन न, रम बार बार उसमें तू।
	है न नरमी नरम कलाई में।3।
	तू कलाई समझ किये लालच।
	कब नहीं साँसतें पड़ीं सहनी।
	कुछ न रखा चमक दमक में है।
	क्यों चमकदार चूड़ियाँ पहनीं।4।
	तरह तरह की बातें
	सोच उसकी सके न जब नरमी।
	तब बिचारी पनाह पाती क्यों।
	तोड़ते जब रहे कड़े पंजे।
	तब कलाई न टूट जाती क्यों।5।
	हम बँधायें मगर बँधाने से।
	बँधा सकीं हिम्मतें भला किसकी।
	वह उतर कब सका अखाड़े में।
	हो कलाई उतर गई जिसकी।6।
	था भला दो चार लेते पैन्ह तो।
	चूड़ियाँ क्या मिल न पाईं माप की।
	आपके मरदानापन की है सनद।
	औरतों की - सी कलाई आपकी।7।
	हथेली
	 
	बात बात में बात
	है भली कब उतावली होती।
	बूझ को बावली सकी वह कर।
	हम जमायँ मगर जमाने से।
	जम न सरसों सकी हथेली पर।1।
	रंग में मरदानगी के जो रँगे।
	वे भला नामरदियों से कब घिरे।
	बाँधा जिसने देस-हित सेहरा लिया।
	वे हथेली पर लिये ही सिर फिरे।2।
	सोच में देख और को डूबा।
	आँख कैसे भला न आई भर।
	किसलिए जी जला नहीं देखे।
	गाल रक्खे हुए हथेली पर।3।
	वह अनूठा हो नया हो लाल हो।
	पर निरालापन नहीं उसमें रहा।
	क्या बड़प्पन मिल हथेली को सका।
	जो उसे पत्ताा गया बड़ का कहा।4।
	 
	 
	 
	उँगली
	हितगुटके
	तो बढ़े किस तरह न कड़वापन।
	बात कड़वी अगर गई उगली।
	तो उठेंगी न उँगलियाँ कैसे।
	आँख में की गई अगर उँगली।1।
	बैठ पाये न जो बिठाने से।
	लोग तो बात को बिठायें क्यों।
	जो न हम आँख खोल उठ बैठें।
	लोग उँगली न तो उठायें क्यों।2।
	क्यों भला हर बात में सीधो बनें।
	काम चलता है सिधाई से कहीं।
	जब कढ़ा टेढ़ी उँगलियों से कढ़ा।
	घी कढ़ा सीधी उँगलियों से नहीं।3।
	बात क्या हम भागवालों की कहें।
	हैं उन्हीं के हाथ की कल बिजलियाँ।
	कब नहीं घी के दिये घर में बले।
	कब रहीं घी में न पाँचों उँगलियाँ।4।
	जो न अकड़े, दे सहारा दुख पड़े।
	चाहिए जायें न हम उससे अकड़।
	क्यों पकड़ जायें पकड़ पकड़े बुरी।
	लें न उँगली को पकड़ पहुँचा पकड़।5।
	तो बुरी चाल भी कभी न चलें।
	चल सकें हम अगर न चाल भली।
	दाल क्यों इस तरह गलायें हम।
	जो गले हाथ पाँव की उँगली।6।
	दिल के फफोले
	देवते जिनके दबावों से दबे।
	दबदबे जिनके हिंडोलों में पले।
	देख दबते औ दबकते अब उन्हें।
	दाबनी उँगली पड़ी दाँतों तले।7।
	सामने जो कभी न ताक सके।
	मान हैं आज दिन घटाते वे।
	पाँव को चाट चाट जो जीये।
	हैं ऍंगूठा हमें चटाते वे।8।
	तर कलेजा वह करेगा किस तरह।
	देख पाया जो न आँखों की तरी।
	भूल देगा वह हमारी भूल क्यों।
	भर गया जो देख कर उँगली भरी।9।
	तब भला साँसत न होती किस तरह।
	जब कि है करतूत वैसी की गई।
	हाल तब बेहाल का कैसे सुनें।
	कान में जब डाल उँगली ली गई।10।
	लताड़
	मत बहँक कर बात बेसमझी कहो।
	लो समझ, हो बेसमझ कहते किसे।
	नाच सौ सौ वह नचाता है तुम्हें।
	उँगलियों पर तुम नचाते हो जिसे।11।
	जो न है जूठ वह न जूठ बने।
	हो भली चाल की नहीं चुगली।
	मान जाओ करो न मनमानी।
	है मना मुँह में डालना उँगली।12।
	दूसरों की सुधा करोगे किस तरह।
	है तुम्हें सुधा एक अपने कौर की।
	चाबना है तो चने चाबा करो।
	चाबते हो उँगलियाँ क्यों और की।13।
	नोक-झोंक
	जो निगल तुम सको निगल देखो।
	हैं किसी बात में नहीं हम कम।
	क्या न उसको निकाल लेवेंगे।
	डाल करके गले में उँगली हम।14।
	आप तेवर बेतरह बदलें नहीं।
	क्या हुआ जो लग गये काँटे कई।
	देखिये जाये कलेजा छिद नहीं।
	छिद गई उँगली बला से छिद गई।15।
	जो चलें तो चाल ऐसी ही चलें।
	रह सके जिससे कि पतपानी बचा।
	उँगलियों पर क्या नचावेंगे हमें।
	आप अपनी उँगलियाँ लेवें नचा।16।
	हम भला जी किसलिए छोटा करें।
	एक क्या बन जाँयगी कल ही कई।
	जो ऍंगूठी गिर गई गिर जाय तो।
	है नहीं उँगली हमारी गिर गई।17।
	 
	छानबीन
	सब दिनों चमका सितारा एक का।
	एक को घेरे रही नित बेकसी।
	एक-से हो जाँयगे कैसे सभी।
	हैं नहीं सारी उँगलियाँ एक-सी।18।
	हैं यहीं पर कमाल के पुतले।
	औ बहुत से यहीं गये-घर हैं।
	दम भरें तब बराबरी का क्यों।
	जब न सब उँगलियाँ बराबर हैं।19।
	दीन को नीचा दिखाता है सभी।
	कौन मानेगा नहीं इसको सही।
	देख लो छोटी जिसे हैं कह रहे।
	है वही उँगली गई कानी कही।20।
	एक चमड़े और लहू से हैं बनी।
	एक-सी ही हैं मुलायम औ कड़ी।
	पोर सब में है दिखाती तीन ही।
	हों भले ही उँगलियाँ छोटी बड़ी।21।
	तरह तरह की बातें
	प्यार की मनभावनी तसवीर को।
	क्या न धाब्बों से बचाना चाहिए।
	लग गई हैं तो लगी आँखें रहें।
	पर नहीं उँगली लगाना चाहिए।22।
	इस जगत की सब निराली सनअतें।
	हैं समझ औ सूझ से बरतर कहीं।
	पारखी कितने परख करके थके।
	पर सके रख आज तक उँगली नहीं।23।
	जो बड़ों के दबे नहीं दबते।
	लोग देखे गये कहाँ ऐसे।
	दब गया हाथ जब दबाने से।
	तब दबेंगी न उँगलियाँ कैसे।24।
	बात बेसिर-पैर की की जाय क्यों।
	खोलने से क्यों नहीं आँखें खुलीं।
	क्या रहा धोता, न जो जल धो सका।
	धुल न पाईं उँगलियाँ तो क्या धुलीं।25।
	जो अनूठी रंगतों में ही रँगी।
	जो कि काला छींट छूते भी डरी।
	जी गया जल, आँख में जल आ गया।
	देख उस उँगली को काजल से भरी।26।
	कट गई, काली बनी, लाली गँवा।
	हो सके तो काम उँगली कर भले।
	पा सकी क्या आँख में सुरमा लगा।
	मिल सका क्या दाँत में मिस्सी मले।27।
	बात अपनी याद कर मत भूल जा।
	क्या बुरी गत थी नहीं तेरी हुई।
	हाल चुभने का तुझे मालूम है।
	किसलिए उँगली चुभाती है सुई।28।
	काम करता न कौन है अपना।
	जी करे तो चुगुल करे चुगुली।
	काम जिससे लिया इशारा का।
	क्यों इशारा करे न वह उँगली।29।
	एक भी तसवीर ऐ उँगली बड़ी।
	आँकने से है नहीं तेरे ऍंकी।
	बात रह रह यह खटकती है हमें।
	क्यों गिरह खोले न तेरे खुल सकी।30।
	कान कितनों का कतरती ही रही।
	लिख कतर-ब्योंतों-भरी कितनी सतर।
	काम देती जब कतरनी का रही।
	तब भला उँगली न क्यों जाती कतर।31।
	 
	 
	नख (नँह)
	अपने दुखड़े
	है दिनों का फेर या कमहिम्मती।
	जो लड़ाने से नहीं जी लड़ सका।
	हम गड़ायें तब भला कैसे उसे।
	नँह गड़ाने से नहीं जब गड़ सका।1।
	जो समझ बूझ काम करते तो।
	किस तरह बैर-बीज वह बोता।
	क्या मिला कान के कतरने से।
	था भला नँह कतर दिया होता।2।
	तरह तरह की बातें
	टूटने कटने उखड़ने के लिए।
	जो कढ़ें तो बाल-सा हम क्यों कढ़ें।
	बाढ़ जिसकी गाढ़ में है डालती।
	जो बढ़ें तो हम नखों-सा क्यों बढ़ें।3।
	तब भरें तो पैंतरे कैसे भरें।
	पिंडलियाँ जब थरथराती ही रहीं।
	तब भला तलवार मारें किस तरह।
	ताब जब नँह मारने की भी नहीं।4।
	क्या करेंगे वे हमारा सामना।
	देख कर जो दूधा-फोओं को भगे।
	क्या लगावेंगे उन्हें तलवार हम।
	दाँत जिनके लग लये नँह के लगे।5।
	हानि पहुँचाना बुरों की बान है।
	गाड़ियों का क्या बिगाड़ा चहों ने।
	क्या कतरनी का बिगाड़ा पान ने।
	क्या नहरनी का बिगाड़ा नँहों ने।6।
	जो कहीं पंख बिल्लियाँ पातीं।
	तो उजड़ता जहान का खोता।
	क्यों हमें शेर - से मिलें पंजे।
	क्योंकि गंजे को नँह नहीं होता।7।
	क्यों न मचलें बढ़ चलें चोखे बनें।
	है भला छोटे बड़े होते कहीं।
	क्यों हमारे नख न हों तीखे बहुत।
	पर सकेंगे बघनँहे वे बन नहीं।8।
	धान के मटके दौड़ उन्होंने।
	हैं दोनों हाथों से लूटे।
	इसीलिए दौलतवालों के।
	नँह होते हैं टूटे फूटे।9।
	चुटकी
	हितगुटके
	वे उतर सकते नदी में भी नहीं।
	बात से ही जो समुन्दर तर सके।
	कर सकेंगे काम वे कोई नहीं।
	काम जो चुटकी बजाते कर सके।1।
	रुच गया है मारना मरना जिन्हें।
	क्या उन्हें जो मन किसी का जाय मर।
	चोट जी को लग रही है तो लगे।
	लोग लेलें ले सकें चुटकी अगर।2।
	वे जम्हाते हैं जम्हाते तो रहें।
	जाँयगे गिर चापलूसी के किये।
	क्यों न चुटकी माँग करके ही जियें।
	हम भला चुटकी बजायें किसलिए।3।
	क्यों जवाब उसको टका-सा दे दिया।
	हाथ में हैं भाग से होते टके।
	किसलिए डाँटा, लगा चाँटा दिया।
	दे अगर आटा न चुटकी भर सके।4।
	चोट खाकर किसलिए पीछे हटे।
	चोटियाँ यों ही उखड़ती हैं कहीं।
	फिर बिठायें औ बिठाते ही रहें।
	बैठ पाती है अगर चुटकी नहीं।5।
	दिन सदा ही एक-सा रहता नहीं।
	मंगतों को चाहिए देना हमें।
	देखकर चुटकी किसी को माँगते।
	चाहिए चुटकी नहीं लेना हमें।6।
	सुनहली सीख
	रोटियों के हैं जिन्हें लाले पड़े।
	सुधा उन्हीं की चाहिए लेना हमें।
	जो पराया माल चट करते नहीं।
	चाहिए चुटकी उन्हें देना हमें।7।
	बावलापन बाँकपान बेहूदापन।
	हैं हमें हित से लड़ाना चाहते।
	है हमारी चूक हम उनको अगर।
	चुटकियों में हैं उड़ाना चाहते।8।
	टाँकने में काहिली जब की गई।
	तब टँके तो ठीक कुछ कैसे टँके।
	तो भला पूरी पड़ेगी किस तरह।
	जो नहीं चुटकी लगा पूरी सके।9।
	भीख क्यों माँगे मरे तो जाय मर।
	क्यों किसी के भी बुरे तेवर खले।
	चुटकियों की चोट जो लगती रही।
	किसलिए तो माँगने चुटकी चले।10।
	तरह तरह की बातें
	हम रहेंगे प्यार करते ही सदा।
	तुम भले ही प्यार हमको मत करो।
	हम बनेंगे क्यों, बनो तो तुम बनो।
	हम भरेंगे दम, तुम्हीं चुटकी भरो।11।
	आज तो चोट बेतरह चलती।
	हम सभी लोग चोट दे देते।
	तुम उन्हें कुछ अजीब चेटक कर।
	चुटकियों में अगर न ले लेते।12।
	 
	चुल्लू
	देवदेव
	सोचते हो तो सकोगे सोच क्या।
	सोच कर उसको जगत सारा थका।
	मत बनो उल्लू न उल्लूपन करो।
	कौन चुल्लू में समा सागर सका।1।
	हितगुटके
	सोचिये कौर क्यों किसी मुँह का।
	जाय, कर सैकड़ों सितम छीना।
	है यही काढ़ना कलेजे का।
	है यही चुल्लुओं लहू पीना।2।
	प्यार का पौधा पनपता किस तरह।
	जब रहें हम सींचते पल पल नहीं।
	किस तरह से तब मिले दल फूल फल।
	दे सके जब एक चुल्लू जल नहीं।3।
	लानतान
	ऐब छिपता है छिपाने से नहीं।
	सर करेगी एक दिन कोई कसर।
	क्यों न अपने आप उल्लूपन खुले।
	आप चुल्लू में हुए उल्लू अगर।4।
	बाप मा का क्यों भरेंगे आप दम।
	जब गये दम तोड़कर वे लोग मर।
	भर सके तो क्या भला दम भर सके।
	दे सके जल भी न चुल्लू भर अगर।5।
	हम कपूतों की कपूती क्या कहें।
	क्या नहीं उनके लिए खोना पड़ा।
	हाथ है धोना पड़ा मरजाद से।
	आज हमको चुल्लुओं रोना पड़ा।6।
	 
	 
	पंजा
	हितगुटके
	हों बली तो बली भले ही हों।
	क्यों करें मार मार सिर गंजा।
	मोड़ते क्यों फिरें किसी से मुँह।
	तोड़ते क्यों फिरें नरम पंजा।1।
	है कमीनापन कमी से ही भरा।
	कब न अंधापन रहा अंधोर में।
	पेर दें तो क्यों किसी को पेर दें।
	फेर कर पंजा पड़ें क्यों फेर में।2।
	संग बन कर पीस क्यों देंगे उन्हें।
	जब हमें प्यारे बहुत ही हैं सगे।
	उँगलियों का बेतरह जब लाड़ है।
	तब भला पंजा लड़ाने क्यों लगे।3।
	बंधानों में प्यार के ही बँधा गये।
	हैं पराये भी बने परिवार के।
	रीझता है प्यार से ही लोक-प्रभु।
	कौन पंजे में नहीं है प्यार के।4।
	लताड़
	चुस गया लोहू कलेजा कढ़ गया।
	नुच गया तन क्या समय के फेर से।
	बात ही यह थी शरारत से भरी।
	क्यों गया पंजा लड़ाया शेर से।5।
	वीरता कब बाँट में उनके पड़ी।
	बाल जिनके बाँकपन में हैं पके।
	ले सकें वे लोग लोहा किस तरह।
	जो कभी पंजा नहीं हैं ले सके।6।
	तरह तरह की बातें
	देखिये पंजा मिला कर देखिये।
	दून की बातें कहीं तो क्यों कहीं।
	कौन पंजा पत्थरों से है बना।
	ताश में क्या ईंट का पंजा नहीं।7।
	जो हमें कुछ मिल गया तो क्या मिला।
	मान औ मरजाद के क्यों हों गिले।
	कौन सिर गंजा करायेगा भला।
	एक क्या दस बीस पंजा के मिले।8।
	हाथ आईं बल-भरी बाँहें जिन्हें।
	हौसले भी साथ जिनका दे गये।
	कब चले वे लोग पंजों के न बल।
	कब भला पंजा नहीं वे ले गये।9।
	सिर पर है गरूर की गठरी।
	सकें किस तरह सीधो चल वे।
	हैं तन बल धान जन बलवाले।
	चलें क्यों न पंजों के बल वे।10।
	वह बिलकुल है सीधा सादा।
	छू न गया है छक्का पंजा।
	भला तोड़ दें क्यों उसका जी।
	क्यों मरोड़ दें उसका पंजा।11।
	जो लडे तो सिंह से कैसे लडे।
	क्यों हरिन सब साँसतें लेवे न सह।
	मिल सका जिसको कि पंजा ही नहीं।
	वह भला पंजा चलावे किस तरह।12।
	 
	 
	मूका
	 
	हितगुटके
	खीजने पर भी रहें हम आदमी।
	धार में ही आदमीयत की बहें।
	बूक लें बूका अगर हैं चाहते।
	पर न मुँह पर मारते मूका रहें।1।
	चंद मामूली मलालों के लिए।
	बारहा भरमार चूकों की हुए।
	दूसरा मारे न मारे आप हम।
	मर मिटेंगे मार मूकों की हुए।2।
	कर सकेगा कुछ न छूमन्तर वहाँ।
	है जहाँ पर आ रही छन छन बला।
	है जहाँ गोली दनादन चल रही।
	क्या करेंगे हम वहाँ मूका चला।3।
	आप हैं खा गये अगर मुँह की।
	जाय मुँह पर न किसलिए थूका।
	मँह खुलेगा नहीं, अगर होगा।
	आपका मुँह व आपका मूका।4।
	मान मरजाद से न मुँह मोडे।
	कर हमें दें कमीनापन कम क्यों।
	जब रहें मारते रहें मूका।
	मुक्कियाँ मारते रहें हम क्यों।5।
	नोक-झोंक
	दो हमें महरूम कर, मुँह तोड़ दो।
	रंगतों में प्यार की हम तो रँगे।
	तुम ऍंगूठा तो दिखाते ही रहे।
	अब हमें मूका दिखाने क्या लगे।6।
	मूठी
	अपने दुखड़े
	पल सके तो पेट कैसे पल सके।
	कब कमाई तंजियाँ खोतीं नहीं।
	हो सके तब किस तरह चूल्हा गरम।
	जब कि मूठी ही गरम होती नहीं।1।
	जब किसी के हाथ में कोई पड़ा।
	देव ने उसको तभी दुख दे दिया।
	तब चटायेगा ऍंगूठा क्यों नहीं।
	जब कि मूठी में किसी ने ले लिया।2।
	भेद सबने बहुत बड़ा पाया।
	बात सच्ची व बात झूठी में।
	हो दिलासा हमें वृथा देते।
	दिल अगर ले सके न मूठी में।3।
	जो चखाना हो चखा लो तुम हमें।
	चाह कर हम फल बुरे कैसे चखें।
	जी गया भर आँख आँसू से भरी।
	लोग मूठी भर न मूठी में रखें।4।
	 
	चपत और तमाचा
	तरह तरह की बातें
	गुन भले गुन और सुन सीखें भली।
	क्यों नहीं औगुन किसी के भग गये।
	तब भला आँखें खुलीं तो क्या खुलीं।
	जब तमाचा चार कस के लग गये।1।
	कब मुसीबत न सामने आई।
	कब भला दुख रहे न मँडलाते।
	कब पड़े हम नहीं बखेड़े में।
	कब थपेड़े रहे नहीं खाते।2।
	चाहिए मरदानगी का रंग रहे।
	रंग में नामरदियों के क्यों रँगे।
	किस तरह मुँह है दिखाते बन रहा।
	क्या थपेड़े हैं नहीं मुँह पर लगे।3।
	रूठना ऐंठना उखड़ जाना।
	है अजब रंग ढंग दिखलाता।
	सैकड़ों ताड़ झाड़ सब दिन कर।
	है चपत झाड़ना हमें आता।4।
	 
	ताली
	हितगुटके
	जब करो काम आँख खोल करो।
	होवें आँखें अगर ऍंजी तो क्या।
	चुटकियों पर उन्हें उड़ा दो तुम।
	चुटकियाँ तालियाँ बजीं तो क्या।1।
	हम कहें क्यों वीर की ललकार ही।
	लोथ ढाने का लगाती तार है।
	हैं बरसती गालियों पर गोलियाँ।
	तालियों पर चल गई तलवार है।2।
	आनबान
	लीक कीरत की भलाई से भरी।
	कब मिटाने से बुरों के मिट गई।
	पीट दें तो क्यों किसी को पीट दें।
	पिट गई ताली बला से पिट गई।3।
	नीचपन नंगपन कुटिलपन को।
	हम कभी काम में न लायेंगे।
	जी करे दूसरे बजा लेवें।
	हम नहीं तालियाँ बजायेंगे।4।
	बात बात में बात
	आप जब गालियाँ रहे बकते।
	तब सुनेंगे न किसलिए गाली।
	हूजिये आप लाल पीले मत।
	कब बजी एक हाथ से ताली।5।
	संगिनी है अनेक तालों की।
	है कई रंग ढंग में ढाली।
	है पहेली बजी हथेली की।
	है सहेली उमंग की ताली।6।
	हाथ
	हितगुटके
	हो जहाँ सामने खड़ा दुखदल।
	हम वहाँ भी न बुध्दि-बल खोवें।
	चाहिए तोड़ना तभी बंधान।
	बेतरह हाथ जब बँधो होवें।1।
	दूर बेकारियाँ करें सारी।
	हर तरह का विकार वे हर लेें।
	लोग हैं लाग में अगर आये।
	तो लगे हाथ लोक-हित कर लें।2।
	वे खुलेआम हैं भला करते।
	जो कि हित-आँख खोल लेते हैं।
	वे खुले दिल न मान क्यों देंगे।
	जो खुले हाथ दान देते हैं।3।
	तब भला कोई हितू कैसे बने।
	रंग हित का जब चढ़ाया ही नहीं।
	हाथ कोई तब मिलाता किस तरह।
	हाथ हमने जब बढ़ाया ही नहीं।4।
	हैं पकड़ते कौड़ियों को दाँत से।
	टेंट से पैसे कभी कढ़ते नहीं।
	तब बढे तो क्या बढ़े हित के लिए।
	जब हमारे हाथ हैं बढ़ते नहीं।5।
	नोंचता कोंचता किसी को था।
	औ किसी पर रहा बला लाता।
	बेतरह जब सदा रहा चलता।
	किस तरह हाथ तब न रह जाता।6।
	तब भला पाँव क्या रहा जमता।
	जब भली राह में न पाया जम।
	जब हितों से रहे नहीं हिलमिल।
	तब चले हाथ क्या हिलाते हम।7।
	मर मिटो पर मान से मोड़ो न मुँह।
	मान लो मरजादवालों की कही।
	उठ पड़ो हित के लिए कस कर कमर।
	हैं उठा कर हाथ हम कहते यही।8।
	हैं सभी मस्त रंग में अपने।
	कब तपी को रही न रुचि तप की।
	क्यों न बक्की किया करे बकबक।
	हथलपक क्यों करे न हथलपकी।9।
	जब मिला तब मिल सका उससे कुफल।
	पेड़ आलस का सुफल फलता नहीं।
	पेट तब कैसे चलाये चल सके।
	जब किसी का हाथ ही चलता नहीं।10।
	क्यों किसी का इस तरह घोंटे गला।
	बेतरह घुटने लगे जिससे कि दम।
	क्यों पराया माल हथियाते फिरें।
	क्यों निहत्थे पर उठायें हाथ हम।11।
	सुनहली सीख
	घर के लोगों में जो हित है।
	जो मित उनके माथों में है।
	तो है पाँचों उँगली घी में।
	लड्डू दोनों हाथों में है।12।
	देस के दहले हुए दिल से डरो।
	जाति की बेचैनियों से भी बचो।
	क्यों अधिाक जी की कचट हो कर रहे।
	आँख अपनी हाथ से अपने कुचो।13।
	राह में घर में नगर में गाँव में।
	हो सके तो हित करें और साथ दें।
	पर समय असमय बिना समझे हुए।
	क्यों किसी के हाथ में हम हाथ दें।14।
	और की देख देख कर दौलत।
	लालची बन बहुत न ललचायें।
	कुछ अगर चाह बेहतरी की है।
	तो बहुत हाथ मुँह न फैलायें।15।
	किसलिए काम ठान देवे वह।
	कुछ जिसे कर कभी न दिखलावे।
	तब न तलवार हाथ में लेवें।
	जब न दो चार हाथ चल पावे।16।
	नित सजग करती उजग है रात की।
	तन बुढ़ापा बाढ़ में है बह रहा।
	हिल सको तो लोक-हित से हिल रहो।
	हाथ हिल सिर साथ है यह कह रहा।17।
	बेतरह जो घिरी ऍंधोरी आज।
	तो समझ बूझ क्या नहीं है साथ।
	तो जगा दी गई नहीं क्यों जोत।
	जो नहीं सूझता पसारे हाथ।18।
	अपने दुखडे
	किस तरह दे सके सहारा वह।
	आप जो और के सहारे हो।
	किस तरह हाथ तब उठायें हम।
	कुछ न जब हाथ में हमारे हो।19।
	जब हमीं सधाने नहीं हैं दे रहे।
	किस तरह तब काम साधो सधा सके।
	जब बँधायेंगे उसे हम आप ही।
	तब न कैसे हाथ बाँधो बँधा सके।20।
	लाड़ प्यार को लात मार कर।
	क्यों लड़ते हैं भाई भाई।
	पाई कौन भलाई रिस में।
	क्यों करते हैं हाथापाई।21।
	पड़ गये हाथ में पराये के।
	कौन से दुख भला गये न सहे।
	नाक में दम सदा रहेगा ही।
	और के हाथ में नकेल रहे।22।
	और क्या मिलता मिले पैसे न वे।
	हम जिन्हें कुछ पीस कर पाते रहे।
	जब खिजाते और जलाते ही रहे।
	किसलिए तब हाथ खुजलाते रहे।23।
	निराले नगीने
	पाप से तब पिंड छूटे किस तरह।
	जब न वे पूरी तरह खोये गये।
	दूर हो तो किस तरह मल दूर हो।
	हाथ मलमल कर न जब धोये गये।24।
	क्या बिपद में देख, छोटों को बड़े।
	कर बहुत ही प्यार बहलाते नहीं।
	छोड़ ऊँचापन नहीं ऊँचे सके।
	पाँव को क्या हाथ सहलाते नहीं।25।
	किस तरह तब दूर मन का मैल हो।
	मैल तन का जब छुड़ा पाते नहीं।
	तब उड़ायेंगे पतंगें किस तरह।
	हाथ जब मक्खी उड़ा पाते नहीं।26।
	बड़े बड़ों का मुँह मलने की।
	मति थोड़े से माथों में है।
	मन हाथों में करने का बल।
	छोटे छोटे हाथों में है।27।
	लताड
	+
	रंग उस दिन जायगा बदरंग हो।
	ढंग यह जिस दिन किसी को खलेगा।
	हैं चलाते तो चलायें सोच कर।
	यह चलाना हाथ कै दिन चलेगा।28।
	वह समझ कर भी समझता ही नहीं।
	है कुदिन कठिनाइयों से टल रहा।
	क्यों कमाये औ करे कुछ काम क्यों।
	काम जब हथफेर से है चल रहा।29।
	क्या उठा तब वह भलाई के लिए।
	जब किसी का कर नहीं सकता भला।
	कल्ह गलते आज ही गल जाय वह।
	हाथ जो पड़ कर गले घोंटे गला।30।
	फोड़ दी आँख तोड़ दी गरदन।
	कब उतारे नहीं बहुत से सर।
	पर कतर हैं दिये परिन्दों के।
	हाथ हो तुम उठे नहीं किस पर।31।
	लाल हैं जो लोग कितनी गोद के।
	बेतहर क्यों हो उन्हें तुम गोदते।
	बन बिगड़ अड़ एक बेजड़ बात पर।
	हाथ हो क्यों जड़ किसी की खोदते।32।
	जो अभी कुछ भी न खिल पाई रही।
	क्यों गई तत्तो तवे पर वह तली।
	क्या भली की कल न ली क्यों हाथ ने।
	किसलिए तोड़ी गई कच्ची कली।33।
	साहसी हों औ सदा साहस रखें।
	कूर कायर का कभी दें साथ क्यों।
	हम निकालें पाँव पावें जो निकल।
	हाथ दिखलायें दिखायें हाथ क्यों।34।
	नोक-झोंक
	हैं भरे आप तो भरे रहिये।
	क्यों मरे प्यार को जिलाते हैं।
	जब न दिल मिल सका मिलाने से।
	किसलिए हाथ तब मिलाते हैं।35।
	रीझ में सूझ बूझ साहस में।
	हम किसी से कभी नहीं कम हैं।
	किसलिए हाथ दूसरा मारे।
	आइये हाथ मारते हम हैं।36।
	बैठ पाती थीं न जो बातें उन्हें।
	बैठ उठ करके बिठाना ही पड़ा।
	जो उठे थे, ठोंक देने को उन्हें।
	हाथ हमको तो उठाना ही पड़ा।37।
	हाँ, नहीं, क्या कह रहे हो दो बता।
	है दुरंगे रंग में दोनों रँगा।
	सिर हिलाते तुम रहे जिस ढंग से।
	हाथ भी उस ढंग से हिलने लगा।38।
	जो रहा छेंकता निगाहों को।
	वह चला राह छेंकने तो क्या।
	आप तो बात फेंकते ही थे।
	अब लगे हाथ फेंकने तो क्या।39।
	ले लिया है तो उसे ले लो तुम्हीं।
	जी किसी का कब फिरा जाकर कहीं।
	हाथ मलना तो पड़ेगा ही हमें।
	पास कोई हथकड़ा तो है नहीं।40।
	जाँयगे लोग धूम से कुचले।
	रह सकेगा सदा न यह ऊधाम।
	जाइये खाइये नहीं मुँह की।
	आइये हाथ मारते हैं हम।41।
	तरह तरह की बातें
	तब भला साथ दे सकें किस भाँत।
	जब किसी का नहीं निबहता साथ।
	तब सके सूझ तो सके क्यों सूझ।
	जब नहीं सूझता पसारे हाथ।42।
	है कमा खाना मरद का काम ही।
	माँग खाना मौत से तो है न कम।
	दें न निज पानिप गँवा पानिप रखें।
	पाँव रोपें पर न रोपें हाथ हम।43।
	पापियों को पीट देते ही रहे।
	कब थके पर भी मिले थे हम थके।
	रोकते ही रोकने वाले रहे।
	हाथ रोके रुक नहीं मेरे सके।44।
	जो रहे बेसबब कड़े पड़ते।
	वे भला खायँगे न कोड़े क्यों।
	राह के जो बने रहे रोड़े।
	हाथ जावें न तो मरोड़े क्यों।45।
	किस तरह कम्बल रजाई मिल सके।
	आग खोजे भी नहीं मिलती कहीं।
	सीत रातें हैं सिसिकते बीततीं।
	हाथ तक हम सेंक सकते हैं नहीं।46।
	जब कि था कि संग से पड़ा पाला।
	चाहिए था कि ढंग दिखलाता।
	जब न उसको सका सँभल खसका।
	हाथ कैसे न तब खसक जाता।47।
	 
	 
	काँख
	लताड़
	नेम से तब पाठ क्या करते रहे।
	प्रेम के जब लग नहीं पाये गले।
	लोक-हित पाँवों तले जब था पड़ा।
	काँख में पोथी दबा तब क्या चले।1।
	क्यों गिरेंगे भला न मुँह के बल।
	बेतरह ऊँघ, ऊँघने वाले।
	आँख नीची कुबान है करती।
	क्या करें काँख सूँघने वाले।2।
	जब रहे मैल से भरे ही वे।
	तब बुरे जीव क्यों न उपजायें।
	है बुरा बैलपन हमारा ही।
	काँख के बाल जो बला लायें।3।
	रह बुरी तौर से बुरे न बनें।
	बेहतरी की बनी रहे कुछ बू।
	हद न हो जाय बदपसंदी की।
	बद बना दे न काँख की बदबू।4।
	तरह तरह की बातें
	धान अगर कुछ कभी कमा पाते।
	तो कहाते नहीं गये-बीते।
	जो बजा बीन बाँसुरी सकते।
	तो बगल क्यों बजा बजा जीते।5।
	दे सकें तब किस तरह जी में जगह।
	जब हमें घर में नहीं पैठा सके।
	वे बिठायेंगे भला क्यों आँख पर।
	जो बगल में भी नहीं बैठा सके।6।
	कौन उसकी दाब में आया नहीं।
	वह गया किसको न चावल-सा चबा।
	काल तो है उस बली से भी बली।
	जिस बली की काँख में दसमुख दबा।7।
	हों बुरे पर कब सगे छोड़े गये।
	देख ले जो देखने को आँख हो।
	तन उसे छन भर अलग करता नहीं।
	क्यों न मैली ही कुचैली काँख हो।8।
	कर न मिट्टी पलीद लें अपनी।
	गंदगी से न गंद दें फैला।
	हो न मैलान मान वालों का।
	काँख के मैल से कभी मैला।9।
	अंग है तन तजे उसे कैसे।
	कब लगी ही रही न सीने से।
	क्यों न बदतर बने नरक से भी।
	तर-बतर काँख हो पसीने से।10।
	छाती
	अपने दुखड़े
	झक झझक बकवाद औ उसकी बहँक।
	है नहीं किसको बहुत ही खल रही।
	देख उजबकपन जले-तन की जलन।
	आज है किसकी न छाती जल रही।1।
	राजमुकुटों पर लगी मोती-लड़ी।
	जोत जिसका पाँव छू पाती रही।
	देख दर-दर दीन बन फिरते उसे।
	कब नहीं छाती दरक जाती रही।2।
	जब कि तन-बल साथ मन-बल भी घटा।
	तब गला कैसे न कोई घोंटता।
	जो न लटती थी लटी वह जाति जब।
	साँप छाती पर न तब क्यों लोटता।3।
	क्या कहें कुछ बस नहीं है चल रहा।
	हैं न लेने दे रहे बेपीर कल।
	दिल हमारा मल मसल कर बेतरह।
	लोग छाती पर रहे हैं मूँग दल।4।
	मन हमारा मरा मसोसों से।
	तन हमारा हुआ दुखों से सर।
	तो बनें क्यों न आप पत्थर हम।
	कर न छाती सके अगर पत्थर।5।
	मार-मन तन-कस गँवा सारी कसर।
	कर जतन कितने बचें कैसे न हम।
	भूत बन वह कब नहीं सिर पर चढ़ा।
	कब रहा है पाप छाती का न यम।6।
	सब तरह से हम बुरे हैं बन गये।
	पर बुरा तब भी न अनभल का हुआ।
	आप हम हलके बहुत ही हो गये।
	बोझ छाती का नहीं हलका हुआ।7।
	चाहते हैं हम करोड़ों लें कमा।
	क्या करें जो दैव ने कौड़ी न दी।
	किस तरह चौड़ी बना लेवें उसे।
	दैव ने छाती अगर चौड़ी न दी।8।
	हितगुटके
	खीज कर जो रह न आपे में सका।
	पाठ दुख का आप ही उसने पढ़ा।
	जो बढ़ा रिस-वेग अपने आप तो।
	भूत सिर पर पाप छाती पर चढ़ा।9।
	किस तरह कायर दिखाये वीरता।
	किस तरह नामर्द मारे औ मरे।
	है बुरा रन-आग के धाधाके अगर।
	वीर की छाती हिले धाकधाक करे।10।
	जो भले भाव हों भरे जी में।
	तो रहेगी न नीचता भाती।
	जो लगे काम का न कोड़ा तो।
	क्या करेगी कड़ी कड़ी छाती।11।
	शंभु की है लुभावनी मूरत।
	हित-भरी प्रेम-भाव में माती।
	है लड़ी पूत प्रीति-माला की।
	है मनुज-जीवनी जड़ी छाती।12।
	है भरी गूढ़ गूढ़ भावों से।
	है बड़ी ठोस प्रीति की थाती।
	पूत-हित के कठोर पत्तार से।
	हैं मढ़ी माँ कड़ी कड़ी छाती।13।
	फल-भरे पेड़ जल-भरे बादल।
	हैं झुके प्यार-गोद में पलते।
	पास जिनके कमाल कोई है।
	वे न छाती निकाल हैं चलते।14।
	क्यों सितम पर सितम न तब होते।
	क्यों बला पर नहीं बला आती।
	जब दबे हम रहे मुसीबत से।
	जब दुखों से दबी रही छाती।15।
	जाति को वह उबार देवेगा।
	बीसियों बार बन करामाती।
	है अगर 'वीर' बुध्दि बल-वाला।
	है अगर वीरता-भरी छाती।16।
	हाथ अपना क्यों लहू से हम भरें।
	लत बुरी से ही बुरी गति है बनी।
	किस लिए हम तीर मारें ताक कर।
	जो तनी है तो कहें छाती तनी।17।
	लताड़
	तब भला क्या खड़े हुए रण में।
	है अगर कँपकँपी हमें आती।
	सिरकटे सिर अगर गया चकरा।
	देख धाड़ जो धाड़क उठी छाती।18।
	तो निगाहें हो सकीं सुथरी नहीं।
	और रुचि भी है नहीं सुधारी हुई।
	जो उभरते भाव हैं जी में बुरे।
	देख कर के छातियाँ उभरी हुई।19।
	हैं बड़े पाक दूधा की कलसी।
	हैं बहुत ही पुनीत हित-थाती।
	जो न हों पाकपन-भरी आँखें।
	तो न देखें उठी उठी छाती।20।
	रस के छींटे
	कौन है बे-बिसात वह जिसकी।
	बन सकी बात बे-बिसाती से।
	किस तरह से लगें गले तब हम।
	जब लगाये गये न छाती से।21।
	दूसरी कुछ छातियों में भी हमें।
	मिल न पाई प्यार-धारा की कमी।
	जान आई पी जिसे बेजान में।
	मिल सकी माँ-छातियों में वह अभी।22।
	बेबसी से बेतरह बेहाथ हो।
	हार किसने है न खोया नौलखा।
	हाथ मलमल कब न रह जाना पड़ा।
	कब गया पत्थर न छाती पर रखा।23।
	देख हम जिसकी झलक हैं जी रहे।
	क्यों उसी की है नहीं उठती पलक।
	छीलने से क्यों उसी के दिल छिला।
	दिल दुखे जिसके गई छाती दलक।24।
	पा जिसे अठखेलियाँ करती हुई।
	चाव-धारायें उफन करके बहीं।
	उस जवानी की उमंगों से उभर।
	कौन सी छाती हुई ऊँची नहीं।25।
	मुँह बना तो क्या बुराई हो गई।
	आप ही जब हैं बनाने से बने।
	बे-तरह जब आप ही हैं तन गये।
	तब भला कैसे नहीं छाती तने।26।
	जलती छाती
	वह हमारी आँख का तारा रहा।
	देख उसको भूल दुख जाती रही।
	कौन सुख पाती नहीं थी प्यार कर।
	चूम मुख छाती उमड़ आती रही।27।
	आँख जल-धारा गिराती ही रही।
	पर जलन उसकी हुई कुछ भी न कम।
	दुख-अगिन उसमें दहकती ही रही।
	कर सके छाती कभी ठंडी न हम।28।
	क्या करेंगे लेप हम ठंढे लगा।
	मुख कमल जैसा खिला देखा न जब।
	वह मिली ठंढक न जिसकी चाह थी।
	ठंढ से छाती हुई ठंढी न कब।29।
	प्यार-जल छिड़कें वचन प्यारे कहें।
	और पहुँचाते रहें ठंढक सभी।
	है जलन की आग जिसमें जल रही।
	हो सकी ठंढी न वह छाती कभी।30।
	तरह तरह की बातें
	वे समझती हैं पराई पीर कब।
	हैं बड़ी बे-पीर जितनी जातियाँ।
	मूँग भी दलते वही उन पर रहे।
	जो रहे मलते मसलते छातियाँ।31।
	जाति-मुखड़ा देख फूलों-सा खिला।
	कौन सुन्दर रुचि न चौगूनी हुई।
	भर गया आनंद किस जी में नहीं।
	कौन-सी छाती हुई दूनी नहीं।32।
	चल गये दाँव हल हुए मसले।
	टल गये सब बुरी बला सर की।
	न खिला कौन दिल गिरह खोले।
	कौन छाती हुई न गज भर की।33।
	वह बड़ा कायर बड़ा डरपोक है।
	जो जिया जग में इरादे रोक कर।
	दूसरा चाहे कहे या मत कहे।
	हम कहें यह क्यों न छाती ठोंक कर।34।
	सब तरह का पा सका आनंद जो।
	है वही आनंद को पहचानता।
	जो नहीं फूला समाता फूल फल।
	है वही छाती फुलाना जानता।35।
	उस पुलक से पुर हुई भरपूर जब।
	जो भुलाने से नहीं है भूलती।
	जब उमंगों से उमग कर भर गई।
	तब भला कैसे न छाती फूलती।36।
	नारि नर छाती बताती है हमें।
	प्यार थाती है अधिाक किसमें धारी।
	एक से है दूधा की धारा बही।
	दूसरी है दूधा से बिलकुल बरी।37।
	एक-सी है नारि नर छाती नहीं।
	एक है खर दूसरी में है तरी।
	है सजीवन एक बालक के लिए।
	दूसरी है बाल से पूरी भरी।38।
	खोल मुँह बार बार क्या न कहा।
	घट गये प्यार जाति थाती के।
	कब खुला कान आँख भी न खुली।
	खुल किवाड़े सके न छाती के।39।
	बीज बोते ही नहीं मरुभूमि में।
	है जहाँ जल की न धारायें बहीं।
	पूत-सी थाती मिले क्यों बाँझ को।
	छातियों में दूधा होता ही नहीं।40।
	दूधा की धारा बहाती किस तरह।
	है अगर वह प्रेम में माती नहीं।
	किस तरह से तो जिलाती जीव को।
	है अगर छाती करामाती नहीं।41।
	बात लगती बे-लगामों की सुने।
	औ जलन के बे-तरह पाले पड़े।
	दिल भला किसका नहीं है छिल गया।
	कौन छाती में नहीं छाले पडे।42।
	सर हुआ ऊँचा असर ऊँचा हुआ।
	हो उमग ऊँची अघा पाती नहीं।
	बैठ ऊँची ठौर ऊँचा पद मिले।
	क्यों भला ऊँची बने छाती नहीं।43।
	काम उसका है तरस खाना नहीं।
	चाहिए वह हो लहू से तरबतर।
	वह उतर चित से न पायेगी तभी।
	जाय जब तलवार छाती में उतर।44।
	 
	 
	कलेजा
	अपने दुखड़े
	जब बचा अपनी न मिलकीयत सकी।
	मिल गये जब धूल में सब मामले।
	किस तरह तब जाति मालामाल हो।
	है अगर मलता कलेजा तो मले।1।
	दुख मिले जिससे करें वह काम क्यों।
	दुख उठाते जी अगर है डर रहा।
	कूदते हैं क्यों धाधाकती आग में।
	है अगर धाक-धाक कलेजा कर रहा।2।
	आँख अब तक खुल नहीं मेरी सकी।
	दिन बदिन गुल है निराला खिल रहा।
	बे-तरह है जाति की जड़ हिल रही।
	है कहाँ मेरा कलेजा हिल रहा।3।
	चाव को भाव को उमंगों को।
	है जिन्होंने तमाम दिल घेरा।
	चोट पर चोट देख कर खाते।
	है कलेजा कचोटता मेरा।4।
	चैन उसको तब भला कैसे मिले।
	जब किसी का पेट होवे ऐंठता।
	बैठ सुख से किस तरह कोई सके।
	जब कलेजा जा रहा हो बैठता।5।
	भाग बिगड़े कब न हित मोटें लुटीं।
	कब बुरी चोटें नहीं हमने सहीं।
	कब हमें मुँह की नहीं खानी पड़ी।
	कब कलेजा आ गया मुँह को नहीं।6।
	चित्ता बेचैन बन गया इतना।
	एक दम चैन ही नहीं पाता।
	बे-तरह भर गये मसोसों से।
	है कलेजा मसक मसक जाता।7।
	जो लगे दीया बुझाने तेल ही।
	जगमगाती जोत तो कैसे जगे।
	तब भला कैसे कलेजा पोढ़ हो।
	जब कलेजे में किसी पानी लगे।8।
	मतलबों से सभी हुए अंधो।
	बन गया पेट के लिए जग यम।
	है कलेजा भरा हुआ दुख से।
	पर दिखावें किसे कलेजा हम।9।
	वे बड़े दुख-दरद-भरे दुखड़े।
	सुन जिन्हें उर अनार-सा दरका।
	किस तरह से कहे सुने कोई।
	जो कलेजा करे न पत्थर का।10।
	हितगुटके
	वह किसी जीभ में बसे कैसे।
	है बुरी बान जो कि नेजे में।
	बात से छेद छेद कर क्यों हम।
	छेद कर दें किसी कलेजे में।11।
	तो भला किस तरह रहा जाता।
	देख कर बारहा उजड़ते घर।
	जो समझ पर पड़ा न पत्थर है।
	है कलेजा अगर नहीं पत्थर।12।
	जो कढ़े तो ढंग से कढ़ती रहे।
	है बहँक कर बात का कढ़ना बुरा।
	जो बढ़े तो ढंग से बढ़ता रहे।
	है कलेजे का बहुत बढ़ना बुरा।13।
	है यही वह बहुत भला थाला।
	प्यार पौधा जहाँ कि पल पाया।
	जो करें तर उसे न हित-जल से।
	तो कलेजा न जाय कलपाया।14।
	लग सकी जिसकी लपट पहले हमें।
	बैर की वह क्यों जगावें आग हम।
	बे-तरह जल भुन लगाई लाग से।
	क्यों कलेजे में लगावें आग हम।15।
	किसलिए दिल हैं किसी का छेदते।
	जो समाई है नहीं दिल में दुई।
	जो लुभा करके लुभाते हैं नहीं।
	क्यों चुभाते हैं कलेजे में सुई।16।
	तरह तरह की बातें
	दिल दुखे क्यों दुखी बने कोई।
	जाय क्यों आँख आँसुओं से भर।
	बात यह पूछना अगर होवे।
	पूछिये हाथ रख कलेजे पर।17।
	जाय लट क्यों न चोट खा-खा कर।
	जो लटू है लुनाइयों ऊपर।
	क्यों न हो लोट-पोट लट देखे।
	साँप है लोटता कलेजे पर।18।
	दूधा से घर भरा रहा जिसका।
	जो कि खोया रहा सदा खाता।
	खुरचते देख कर उसे खुरचन।
	क्यों कलेजा खुरच नहीं जाता।19।
	आप माँग जीती थी जिससे माँग खा।
	जिसका धान देखे धानेश-मद खो गया।
	उसे ललाते देखे टुकड़े के लिए।
	आज कलेजा टुकड़े टुकड़े हो गया।20।
	क्यों न पहनने को हमको टुकड़े मिलें।
	क्या अचरज जो मुँह का टुकड़ा खोगया।
	टुकड़े टुकड़े होते लख कर जाति को।
	जो न कलेजा टुकड़े टुकड़े हो गया।21।
	भीतर भीतर तर होने का भाव ही।
	बहु अनहोनी बातों का बानी हुआ।
	सारे झरने पानी पानी हो गये।
	देख कलेजा पत्थर का पानी हुआ।22।
	बड़े सोच में पड़े कड़े दुखड़े सहे।
	घड़ों बहा आँसू लोहू चख से चुआ।
	रेजा रेजा सिर का भेजा हो गया।
	देख कलेजा पत्थर का पानी हुआ।23।
	जिस तरह वह सब रसों में सन सका।
	कौन वैसा ही रसों में है सना।
	प्यार उसका है उसी के प्यार-सा।
	है कलेजे सा कलेजा ही बना।24।
	 
	 
	 
	दिल
	हितगुटके
	जो कि है बात बात में चिढ़ता।
	वह चिढेग़ा न क्यों चिढ़ाने से।
	क्यों करे खाज कोढ़ में पैदा।
	दिल कुढ़ेगा न क्यों कुढ़ाने से।1।
	रंग उन पर कब चढ़ा करतूत का।
	रंगरलियाँ रंग में ही जो रँगे।
	दिल लगावे किस तरह तब काम में।
	जब किसी का दिल्लगी में दिल लगे।2।
	चाहिए जो कुछ कहे खुल कर कहे।
	बात दिल की क्यों नहीं जाती कही।
	तब किवाड़े किस तरह दिल के खुलें।
	बात दिल की जब किसी दिल में रही।3।
	जो बुराई के लिए ही है बना।
	क्या अजब उसमें बुराई जो ठने।
	जब छोटाई बाँट में उसके पड़ी।
	किस तरह छोटा न छोटा दिल करे।4।
	पेड़-सा फल न दे सकी डाली।
	बेलियों-सी मिली कली न खिली।
	दूसरे तंग हो रहे हैं क्यों।
	क्यों करे तंग दिल न तंगदिली।5।
	वे हिला लेते उन्हें देखे गये।
	जो न औरों के हिलाने से हिले।
	दाल उनकी है कहाँ गलती नहीं।
	क्या दिलाते हैं नहीं दो दिल मिले।6।
	दूसरे दिल खोल कर कैसे मिलें।
	जब सगे भाई नहीं होंगे हिले।
	तब मिलेंगे लाखहा दिल किस तरह।
	जब मिलाने से नहीं दो दिल मिले।7।
	बात सब समझे करे हित-ब्योंत सब।
	जो कहे उसको सँभल करके कहे।
	बे-ठिकाने है बहुत दिन रह चुका।
	दिल ठिकाने है ठिकाने से रहे।8।
	काम में सर गरम रहे कैसे।
	जब भरम का हुआ किया फेरा।
	क्यों न तो हम भटक भटक जाते।
	दिल भटकता रहा अगर मेरा।9।
	डाल कर रस नीम का, बेकार हम।
	किसलिए रस से भरा गड़वा करें।
	हम किसी से किस लिए कड़वे बनें।
	बात कड़वी कह न दिल कड़वा करें।10।
	रंग तब परतीत का कैसे चढ़े।
	दूर हो पाई न जब रंगत दुई।
	क्यों जमे तब पाँव जब पाया न जम।
	क्यों जमे दिल जब दिलजमई हुई।11।
	तो धामा-चौकड़ी मचावेगा।
	जो बना धूम-धाम से धिांगड़ा।
	अब बिगड़ने न हम उसे देंगे।
	दिल अगर है बिगड़-बिगड़ बिगड़ा।12।
	किस तरह तब वह कसर से बच सके।
	जब किसी का रह सका कस में न दिल।
	तो बढ़ेगी बे-बसी कैसे नहीं।
	रख सकेंगे हम अगर बस में न दिल।13।
	क्या नहीं दिल दूसरों के पास है।
	बात लगती चाहिए कहना नहीं।
	क्यों भरा सौदा किसी दिल में रहे।
	चाहिए दिल में कसर रहना नहीं।14।
	भेद अपना ही नहीं जब पा सके।
	क्यों सके तब दूसरों का भेद मिल।
	किस तरह बस में करें दिल और का।
	कर सके बस में अगर अपना न दिल।15।
	किस तरह तब आँख हित की हो सुखी।
	प्यार का मुखड़ा न जब होवे खिला।
	मेल-रंगत मेलियों पर क्यों चढ़े।
	जब न होवे दिल किसी दिल से मिला।16।
	अपने दुखड़े
	बात सुनता न बेहतरी की है।
	है बहकता बहुत बहाने से।
	थक गये हम मना मना करके।
	मानता दिल नहीं मनाने से।17।
	देस ने एकता-गले पर जब।
	आँख को मूँद कर छुरा फेरा।
	रह गये हम तड़प तड़प करके।
	देख कर दिल तड़प गया मेरा।18।
	है सुझाने से न जिसको सूझता।
	हम भला उसको सुझावें किस तरह।
	क्या बुझाना ही नहीं हम चाहते।
	पर बुझे दिल को बुझावें किस तरह।19।
	है नहीं ताब साँस लेने की।
	जाय छिल, है अगर गया दिल छिल।
	आस पर ओस पड़ भले ही ले।
	क्या करेगा मसोस करके दिल।20।
	आबरू किस तरह बचायें हम।
	कुछ बचाये सका न बच मेरा।
	दिल लचकदार भी लचक न सका।
	रह गया दिल ललच ललच मेरा।21।
	दिल के फफोले
	जो हमारे ही बनाये बन सके।
	देख करके बे-तरह उनको तने।
	जब हमी हैं आज दीवाने हुए।
	दिल भला तब क्यों न दीवाना बने।22।
	दुख पड़े बदरंग बन कुँभला गया।
	रह गया मुखड़ा न अब मेरा हरा।
	जो कि फूले फूल-सा फूला रहा।
	अब वही दिल है फफोलों से भरा।23।
	अब वही भाव है हमें भाता।
	जो बड़ों को न भूल कर भाया।
	आँख भर देख जाति को भूलें।
	दिल भला कौन-सा न भर आया।24।
	है बहकता, है बिगड़ करता बदी।
	प्यार का उसको सहारा है नहीं।
	दूसरे तब हों हमारे किस तरह।
	दिल हमारा जब हमारा है नहीं।25।
	जाति के, चाव से भरे चित को।
	रंज पा बार बार बहुतेरा।
	देख कर चूर-चूर हो जाते।
	हो गया चूर-चूर दिल मेरा।26।
	देख कर दुख दुखी हुए जन का।
	बेतरह है मसल मसल जाता।
	तब भला कल हमें पड़े कैसे।
	दिल बिकल कल अगर नहीं पाता।27।
	नोक-झोंक
	तमकनत इतनी भरी है किसलिए।
	जो सितम कर भी सके उकता नहीं।
	काठपन-से काम मत लो काठ बन।
	क्यों दुखी-दुख देख दिल दुखता नहीं।28।
	हम न दिल आपका दुखायेंगे।
	आप करते रहें हमें बेदिल।
	आप आँखें बदल भले ही लें।
	हम भला किस तरह बदल लें दिल।29।
	पट सके किस तरह सचाई से।
	छल कपट से हुई न सेरी है।
	तब भला क्यों न दम दिलासा दें।
	जब कि दिल में नहीं दिलेरी है।30।
	मानता ही वह नहीं मेरा कहा।
	कब भला उसने न मन-माना किया।
	तब हमारा दिल हमारा क्यों रहे।
	जब हमारा दिल किसी ने ले लिया।31।
	और का पचड़ा बखेड़ा और का।
	देखता हूँ और के ही सिर गया।
	चाहिए तो फेर लेवें फिर उसे।
	फेरने से दिल अगर है फिर गया।32।
	कब वही तब दूसरे दिल में नहीं।
	एक दिल में प्यारा-धारा जब बही।
	कौन अनहित हित नहीं पहचानता।
	राह दिल से कब नहीं दिल को रही।33।
	रख सका जो रंगतें अपनी सदा।
	रंग लाकर के समय पर ही नया।
	आज उसका रंग बिगड़ा देखकर।
	रंग चेहरे का हमारे उड़ गया।34।
	प्यार ही जब रहा नहीं दिल में।
	प्यार के साथ बोलते क्या हो।
	क्यों नहीं दिल टटोलते अपना।
	दिल हमारा टटोलते क्या हो।35।
	आस पर मेरी न जाये ओस पड़।
	टूटने पाये न प्यारी प्यार कल।
	फल मिलेगा कौन सुख फल के दले।
	देखिये जाये न दिल-सा फूल मल।36।
	है जगह उसमें न कीने के लिए।
	हैं बदी-धारें वहाँ बहती नहीं।
	कर सकें तो साफ दिल अपना करें।
	साफ दिल में है कसर रहती नहीं।37।
	किसलिए प्यार तो करे कोई।
	प्यार से प्यार जो न दिल को हो।
	क्यों न तो रार ही मचा देवे।
	रार से जो करार दिल को हो।38।
	तब उमंगें रीझती कैसे रहें।
	जो न मुखड़ा प्यार का होवे खिला।
	तब भला कैसे किसी से मेल हो।
	जब किसी का दिल न हो दिल से मिला।39।
	तो घटा मोल हम न दें उसका।
	और का माल यों गया मिल जो।
	तो उसे प्यार साथ ही पालें।
	पा लिया प्यार से पला दिल जो।40।
	खिला रहे हैं किसी फूल को।
	किसी फूल को नोंच रहे हैं।
	दिखा दिखा कर लोच निराला।
	दिल ही दिल में सोच रहे हैं।41।
	किसलिए दिल उठे किसी का खिल।
	और क्यों जाय दिल किसी का हिल।
	हम किसी की करें गवाही क्यों।
	जब गवाही न दे हमारा दिल।42।
	लग गई और ही लगन उसको।
	तज गया काम सौ बहाने से।
	थक गये हम लगा लगा करके।
	लग सका दिल नहीं लगाने से।43।
	प्यार की आँच लग अगर पाती।
	किस तरह मोम तो न बन जाता।
	हम पिघलने उसे नहीं देते।
	दिल पिघलता अगर पिघल पाता।44।
	बात टालें न सच बता देवें।
	कर गया काम कौन-सा लटका।
	देख करके खुटाइयाँ कितनी।
	दिल खटक कर अगर नहीं खटका।45।
	प्यार-बंधान जो अधूरा ही बँधा।
	क्यों न जाता टूट तो टोटका हुए।
	दिल हमारा ही खटकता है नहीं।
	कौन दिल खटका नहीं खटका हुए।46।
	है जहाँ नीरस सभी रस के बिना।
	क्यों वहाँ रस की न धाराएँ बहें।
	दम-दिलासा दे दुखा देवे न दिल।
	दिल करे तो बात दिल की ही कहें।47।
	है भला वह अगर नहीं भूला।
	खुल गया भाग, जो नहीं भटका।
	तो किसी का गया लटक मुँह क्यों।
	दिल अटक कर अगर नहीं अटका।48।
	मुँह बनाते देख कर आँखें बदल।
	दुख दुगूना दुख-भरे जी का हुआ।
	बात फीकी सुन पड़े, फीके हुए।
	रंग फीका देख दिल फीका हुआ।49।
	बात बात में बात
	बात बेढंगी उठाते जो न तुम।
	जी कभी झुँझला न जाता इस तरह।
	जो न होती बात उठती बैठती।
	बात दिल में बैठ जाती किस तरह।50।
	जब जगाई न जायगी ढब से।
	जम सकेगी न बात तब दिल में।
	तब भला बात बैठती कैसे।
	बैठ पाई न बात जब दिल में।51।
	एक है सुख-तरंग में बहता।
	एक दुख के समुद्र में पैठा।
	दिल भरा एक, एक दिल उमगा।
	दिल उठा एक, एक दिल बैठा।52।
	 
	जी
	हितगुटके
	बात जिसको बिगाड़ देना है।
	किस तरह बात वह बनायेगा।
	किस तरह काम-चोर काम करे।
	क्यों न जी-चोर जी चुरायेगा।1।
	काम में लग सका नहीं जो जी।
	क्यों उसे काम में लगा पाता।
	तब भला ऊबता नहीं कैसे।
	जी अगर ऊब ऊब है जाता।2।
	क्यों नहीं हैं सँभालते उसको।
	जी अगर है सँभल नहीं पाता।
	तो बहक जाँयगे न हम कैसे।
	जी अगर है बहँक बहँक जाता।3।
	सुख वहाँ पर किस तरह से मिल सके।
	जिस जगह दुख की सदा धारा बहे।
	जब न अच्छापन हमें अच्छा लगा।
	तब भला जी किस तरह अच्छा रहे।4।
	आज तक जो फल न कोई चख सका।
	हम बड़े ही चाव से वह फल चखें।
	वह करें जो कर नहीं कोई सका।
	जी करे तो हाथ में जी को रखें।5।
	कब बला कौन-सी नहीं टलती।
	सूरमापन सँभल दिखाने से।
	कँपकँपी जायगी न लग कैसे।
	कँप गया जी अगर कँपाने से।6।
	चाहिए जाँय बन न खोटे हम।
	भूल में पड़ सभी भटकता है।
	देख कर खोट खोट वालों की।
	कौन-सा जी नहीं खटकता है।7।
	खुल कहें औ खोल कर बातें कहें।
	सच कहे पर है किसी का कौन डर।
	तब हमारी बात क्या रह जायगी।
	बात जी की रह गई जी में अगर।8।
	हैं अगर दुख झेलते तो झेल लें।
	पर पराया दिल दुखाने से डरें।
	चिढ़ गये जी हम चिढ़ा देवें न जी।
	जी हुए खट्टा न खट्टा जी करें।9।
	क्यों करेंगे न ऊधामी ऊधाम।
	बे-दहल क्यों न जी कँपायेंगे।
	मन-चले क्यों न चाल चल देंगे।
	जी-जले क्यों न जी जलायेंगे।10।
	किस तरह ठीक ठीक वह होगा।
	धयान उसका अगर सदा न धारें।
	किस तरह काम हो सके कोई।
	लोग जी जान से अगर न करें।11।
	है न जिस पर काम की रंगत चढ़ी।
	बात मुँह से वह न काढ़े भी कढ़े।
	कर दिखायें काम बढ़-बढ़ कर न क्यों।
	बात बढ़-बढ़ कर कर करें क्यों जी-बढ़े।12।
	कह सकें बातें अछूती तो कहें।
	चख सकें तो फल बड़े सुन्दर चखें।
	दे सकें तो साथ देते ही रहें।
	रख सकें तो हाथ में जी को रखें।13।
	रह सका वह अगर नहीं बस में।
	तो हमें किस तरह बसा पाता।
	तो मचलने न हम उसे देवें।
	जी अगर है मचल मचल जाता।14।
	है बदी की बात बद देती बना।
	छल भलाई के गले का है छुरा।
	हैं बुरी रुचियाँ बुराई से भरी।
	जी बुरा करना बहुत ही है बुरा।15।
	कब भलाई भले नहीं करते।
	ऊधामी को पसंद है ऊधाम।
	दूसरा जी बुरा करे कर ले।
	किस लिए जी बुरा बनायें हम।16।
	क्यों सतायेंगी न बे-उनवानियाँ।
	है हमें यह बात ही बतला रहा।
	दे रहा है मत असंयम मत करो।
	जी हमारा है अगर मतला रहा।17।
	बोल कर कड़वा न कड़वे जाँय बन।
	मैल की जी में रहे बैठी न तह।
	कर बुराई क्यों बुरे जी के बनें।
	जी करें फीका न फीकी बात कह।18।
	जी जमा काम पर नहीं जिसका।
	काम वह कर कभी नहीं पाता।
	जाय कैसे नहीं फिसल कोई।
	जी अगर है फिसल फिसल जाता।19।
	अपने दुखड़े
	नित सितम हैं नये नये होते।
	है समय सब मुसीबतें ढाता।
	आज ताँता लगा दुखों का है।
	किस तरह जी भला न उकताता।20।
	पड़ गई जब कि बाँट में चिन्ता।
	तब भला किस तरह न बँट जाता।
	यह हमारी उचाट का है फल।
	जी अगर है उचट उचट जाता।21।
	लुट गया सुख हुआ दुगूना दुख।
	पत गई आ बिपत्तिा ने घेरा।
	चोट खा चाव चूर चूर हुआ।
	क्यों नहीं जी कचोटता मेरा।22।
	है बदी बात बात में होती।
	क्यों न जी बदहवास हो जाता ।
	बन गये दास, दास के भी हम।
	जी न कैसे उदास हो जाता।23।
	किस तरह बात हम कहें अपनी।
	कुछ पता पा सके न तन-कल का।
	आप हम हो गये बहुत हलके।
	बोझ जी का हुआ नहीं हलका।24।
	कब उसे हम रहे न बहलाते।
	जी हमारा नहीं बहलता है।
	आज तक दुख-सवाल हल न हुआ।
	जी दहल ले अगर दहलता है।25।
	धान गया, धुन बाँधा मन-माना हुआ।
	मिल रहा है आज दाना तक नहीं।
	धाक सारी धूल में है मिल रही।
	जी हमारा क्यों करे धाकधाक नहीं।26।
	हो बसर या बसर न हो सुख से।
	पर न बरबाद हो किसी का घर।
	बन सके काम या न काम बने।
	पर कभी आ बने नहीं जी पर।27।
	बढ़ गई चिढ़ कुढ़न हुई दूनी।
	रुचि हुई नीच मति गई मारी।
	दुख मिले मन हुआ दुखी मेरा।
	तन हुआ भार जी हुए भारी।28।
	है बहुत ही बुरा अधूरापन।
	है न बेहतर बिना बँधा जूरा।
	जब कि है पड़ सकी नहीं पूरी।
	जी भला किस तरह रहे पूरा।29।
	सोचते थे कि दम निकलने तक।
	नेक दम खम न हो सकेगा कम।
	रो उठे ढाल ढाल कर आँसू।
	देख जी का निढाल होना हम।30।
	तो बसर क्यों बुरी तरह होती।
	बे-तरह जो न घूम सर जाता।
	दूर होती तमाम कोर कसर।
	सर हुए जो न जी बिखर जाता।31।
	आँख पर छापा पड़ा चाहें छिनीं।
	सब सुखों पर दे दिया दुख-पुट गया।
	पर लुटेरे हैं तरस खाते नहीं।
	लूट में जी तक हमारा लुट गया।32।
	बे-तरह जी मल मसल कर लाखहा।
	है बुरी चालें बहुत-सी चल चुका।
	थक गये सौ सौ तरह से रोक कर।
	रोकने से जी कहाँ मेरा रुका।33।
	थालियाँ छीन ली गईं सुख की।
	और दुख-डालियाँ गईं भेजी।
	जोर से जी निकल गया मेरा।
	आज भी आ सका न जी में जी।34।
	कब नहीं सारी बला सिर पर पड़ी।
	कब नहीं चाँटा हमें खाना पड़ा।
	जो रहा है बीत जी है जानता।
	क्या कहें जी से हमें जाना पड़ा।35।
	भय-भरा भाग हो भला न सका।
	है कुदिन में सुदिन न दिखलाता।
	जी दुखी हो सका सुखी न कभी।
	चैन बे-चैन जी नहीं पाता।36।
	जी यही बार बार कहता है।
	क्या किसी को मिला हमें पीसे।
	आज रोना पड़ा गँवा सरबस।
	हाथ धोना पड़ा हमें जी से।37।
	नोक-झोंक
	बात जी में चाहिए रखना नहीं।
	चाहते जी में अगर हैं पैठना।
	जी हमारा किसलिए रखते नहीं।
	चाहते जी में अगर हैं बैठना।38।
	चैन की बंसी बजाते आप हैं।
	चैन मेरा जी नहीं है पा रहा।
	बात जी में आपके धाँसती नहीं।
	पर हमारा जी धाँसा है जा रहा।39।
	आपका बे-पीर बन खुल खेलना।
	दिन-ब-दिन जी को बहुत है खल रहा।
	आपका जी तो मिला जी से नहीं।
	बे-तरह जी है हमारा जल रहा।40।
	बात तकरार की पसंद रही।
	पा सके प्यार हम न मर-मर कर।
	भर सका जी अगर नहीं अब भी।
	कोस लें क्यों न आप जी भर कर।41।
	बरतरी तब किस तरह उसको मिले।
	जब बुराई से न जी होवे बरी।
	आप जी में घर करें तब किस तरह।
	जब कसर जी में हमारे हो भरी।42।
	दुख हमारा कान तब कैसे करें।
	कान ही जब हो नहीं पाता खड़ा।
	बात जी में आपके आई नहीं।
	दूसरे को खेलना जी पर पड़ा।43।
	या कहें है जी हमारा जानता।
	आज तक जो कुछ हमें सहना पड़ा।
	भेद सारे खुल गये तो क्या करें।
	जी खुले जी खोल कर कहना पड़ा।44।
	है हमें जलते बहुत दिन हो गये।
	बन गया है आँख का जल भी बला।
	आज वे हैं किसलिए जल-भुन रहे।
	जी जलाना चाहते हैं, ले जला।45।
	क्यों न हम आहें गरम भरते रहें।
	रस, बहुत प्यारा न सीने पर चुआ।
	आँख ठंढी हो न पाई देख मुख।
	बात ठंढी सुन न जी ठंढा हुआ।46।
	क्यों बसे जीभ में मिठाई तब।
	जब कि जी में न प्यार बसता है।
	बात रस से भरी कहें कैसे।
	जी तरस से अगर तरसता है।47।
	लोच क्यों हो न लोच वालों में।
	जी लचकदार किसलिए न लचे।
	क्यों न ललका करें ललक वाले।
	लालची जी न किसलिए ललचे।48।
	साँसतें छेड़ छेड़ होती हैं।
	वह नमक घाव पर झिड़कता है।
	हैं सितम आज बे-धाड़क होते।
	जी हमारा बहुत धाड़कता है।49।
	काठ से भी वह कठिन है बन गया।
	अब गया है ढंग ही उसका बदल।
	सर-गरम बन मत उसे पिघलाइये।
	घी नहीं है, जायगा क्यों जी पिघल।50।
	देखने देवें, न आँखें मूँद दें।
	खोलते ही मुँह नहीं मेरा सिले।
	आप मेरे मान ही को मान दें।
	दान हमको जी हमारा ही मिले।51।
	माल का मोल जो घटाते हैं।
	हैं किसी का काम के न वे बीमे।
	किसलिए गाँठते रहें मतलब।
	गाँठ पड़ जाय क्यों किसी जी में।52।
	बात बात में बात
	है सभी प्यारा पराया कौन है।
	भेद यह कोई नहीं बतला गया।
	क्यों किसी से जी किसी का फिर गया।
	क्यों किसी पर जी किसी का आ गया।53।
	क्या बुरा है, जान की नौबत हुए।
	जान देने की अगर जी में ठनी।
	तो न कैसे जाय जी पर खेल वह।
	है अगर जी पर किसी के आ बनी।54।
	जी हिलाने से हिले किसके नहीं।
	छीलने से जी नहीं किसके छिले।
	कब न कीं चालाकियाँ चालाक ने।
	जी चलाते कब नहीं जी-चल मिले।55।
	बाल दीया किस तरह कोई सके।
	बालने से जब कि वह बलता नहीं।
	चाल चलना भूल अब हमको गया।
	क्यों चलायें जी अगर चलता नहीं।56।
	बाँट में बेचारगी जब है पड़ी।
	तब भला हम क्यों बचायेंगे न जी।
	खप नहीं सकती खपाये बे-दिली।
	सिर खपाया अब खपायेंगे न जी।57।
	वीरता को धाता बता करके।
	हाथ पर के न बीर बिकता है।
	हम हिचिकते नहीं बला में पड़।
	जी हिचिक ले अगर हिचिकता है।58।
	तो बता दें भेद उसका किस तरह।
	जो भड़क करके कभी भड़के न जी।
	क्यों तड़प पाये न तड़पाये गये।
	सुन फड़कती बात क्यों फड़के न जी।59।
	कब मुसीबत टालने से टल सकी।
	कब किसी का भाग फूटा जुड़ गया।
	देख भुट्टे की तरह गरदन उड़ी।
	हाथ का तोता उड़ा जी उड़ गया।60।
	 
	मन
	तब गले मिल किस तरह हिल-मिल रहें।
	गाड़ियों जी में भरें हों जब गिले।
	तब मिले क्यों मेल-सा अनमोल धान।
	जब मिलाने से नहीं मन ही मिले।1।
	जब हवा अनुकूल लग पाई नहीं।
	तब भला जी की कली कैसे खिले।
	जो हिलायें क्यों न तो हिल मिल चले।
	मन मिलायें क्यों न हम जो मन मिले।2।
	तब भला मुँह की न खाते किस तरह।
	सूझ-बूझों से रहा जब मुँह मुड़ा।
	धूल उड़ती तब भला कैसे नहीं।
	है अगर रहता हमारा मन उड़ा।3।
	सह सकेगी आन क्यों धान-मान की।
	हो न पाया दिल धानी जो धान रखे।
	रख सका तो दूसरों का मन नहीं।
	तो रहेगा मान कैसे मन रखे।4।
	हित-भरी तरकीब बतलाई बहुत।
	बेहतरी की बात बहुतेरी कही।
	जान लें जो जान लेना हो उन्हें।
	मन कहे तो मान लें मेरी कही।5।
	वह करें जिससे भले फल मिल सकें।
	हैं बुरे से भी बुरे फल पा चुके।
	चाहिए सचमुच मिठाई खाँय अब।
	मुद्दतों मन की मिठाई खा चुके।6।
	मानता है वह मनाने से नहीं।
	'पास' के सामान सारे ही चुके।
	तब भला हम किस तरह रोकें उसे।
	जब न रोके से हमारा मन रुके।7।
	मन रहे हाथ मान रहता है।
	मन-बहँक सूझ-बूझ खोती है।
	मन गये हार हार होवेगी।
	मन गये जीत जीत होती है।8।
	पास सुख-सामान सब रहते हुए।
	तब सुखी किस भाँत कोई जन रहे।
	जब कि तन बस में पड़ा हो और के।
	दूसरों के हाथ में जब मन रहे।9।
	छोड़ देवे न साथ साहस का।
	तू बला देख बावला न बने।
	यह बुरा है उतावलेपन से।
	मन कभी तू उतावला न बने।10।
	पस्त तो हम आप हो जावें नहीं।
	जब कभी पस्ती दिखावे पस्त मन।
	भूल कर बदमस्त बन जायें न हम।
	क्यों करे मस्ती हमारा मस्त मन।11।
	धुन उन्हें है और ही होती लगी।
	बन गये जो दास तन के धान के हैं।
	आपने माना न, खोया मान अब।
	मानते क्यों जब कि अपने मन के हैं।12।
	हम गये हैं बैठ बनकर आलसी।
	छल रही है 'पालिसी' हमको नई।
	प्यास मृगजल से किसी की कब बुझी।
	भूख मन के मोदकों से कब गई।13।
	चल सके हाथ पाँव तब कैसे।
	जब कि हामी रहा न मन भरता।
	काम में तब न क्यों कसर होगी।
	जब रहा मन कसर-मसर करता।14।
	बोल सीधो अगर नहीं सकते।
	बोलियाँ लोग बोलते क्यों हैं।
	क्यों न लेवें टटोल अपने को।
	और का मन टटोलते क्यों हैं।15।
	बस चलाये चल नहीं सकता जहाँ।
	जायगी कैसे न बढ़ वाँ बेबसी।
	मन करे कैसे कि कह कुछ और लें।
	बात मन की जब नहीं मन में बसी।16।
	अपने दुखड़े
	दुख दुगुना दिन-ब-दिन है हो रहा।
	उठ सका अदबार का देरा नहीं।
	छिन गया धान सूख सारा तन गया।
	रह गया मन हाथ में मेरा नहीं।17।
	क्या सहारा देस को हम दे सके।
	जाति-हित-धारा नहीं जी में बही।
	चाह कर भी कर न चित-चाही सके।
	आह! मन की बात मन में ही रही।18।
	याद कर देस की दसा बिगड़ी।
	एक पल भी न चैन आता है।
	देखकर मान धूल में मिलता।
	मन हमारा मसोस जाता है।19।
	कब जगह पर हम जमे ही रह सके।
	कब भला पूरी हुईं बातें कही।
	मान कब अरमान निकले पा सके।
	कब भला मन की न मन में ही रही।20।
	बात सुलझाये अगर सुलझी नहीं।
	लोग तो जायें उलझ क्यों इस तरह।
	जब न सूझा तब सुझायें क्यों उसे।
	हम बुझे मन को बुझायें किस तरह।21।
	ठोकरें खा पाँव चूमें किस तरह।
	नाम में दम हो गये क्यों दम भरें।
	मार पर है मार पड़ती तो पड़े।
	काम मर-मर क्यों मरे-मन से करें।22।
	तब अबस है लालसा धानलाभ की।
	जब न कौड़ी का हमारा तन रहा।
	और का मन किस तरह लें हाथ में।
	हाथ में अपने न अपना मन रहा।23।
	लालसा सुख की हमें है कम नहीं।
	पर सुखी अब तक नहीं कहला सके।
	हम बहलते तो बहलते किस तरह।
	मन न बे-बहला हुआ बहला सके।24।
	रंग उस पर चढ़ा न साहस का।
	बन सका वह उमंग का न सगा।
	वीरता क्या थके सहारा दे।
	मन उमग कर भी जो नहीं उमगा।25।
	तो किसी काम के नहीं हैं हम।
	बन सकें जाति के अगर न सगे।
	तन अगर जाति-हित-वतन न बने।
	मन अगर जाति-मान में न लगे।26।
	तो दिखायें मुख न, देखे देस-दुख।
	जो न दुख-धारें कलेजे में बहीं।
	जाति-मुखड़ा देख कुम्हलाया हुआ।
	जो हमारा मन गया कुम्हला नहीं।27।
	नोक-झोंक
	बात मानी एक भी मेरी नहीं।
	वह मकर के काम कर घेरा गया।
	ताकता तक मोहनेवाला नहीं।
	मोह में पड़ मोह मन मेरा गया।28।
	आपको चाहिए अगर तन धान।
	आप तो तन समेत धान ले लें।
	माँग लें माँग जो सकें हमसे।
	आपका मन करे तो मन ले लें।29।
	बात ताने-भरी सुनाते ही।
	ताड़ना औ लताड़ना देखा।
	मुँह बहुत ही बिगड़ बनाते ही।
	मन बिगड़ना बिगाड़ना देखा।30।
	बात बात में बात
	है सही मानी गयी वह बात कब।
	हो सकी जिस पर नहीं उसकी सही।
	तब किसी की मान मन कैसे सके।
	जब जगत है मानता मन की कही।31।
	धाज्जियाँ सुख की धाड़ल्ले से उड़ा।
	धाँधाली-धुन में बँधो उसमें धाँसा।
	धूम से ऍंधोर अंधा-धुंधा कर।
	ऊधामी मन ऊधामों में है फँसा।32।
	है कुपथ में पाँव वैसे ही जमा।
	हाथ में हठ की हठी बन हैं डटे।
	जब हमीं हैं चाहते हटना नहीं।
	तब भला कैसे हटाये मन हटे।33।
	तब भला कैसे न वह खिल जायगा।
	फूल जैसा जब किसी का दिल खिले।
	क्यों न होगा औज होकर औज में।
	क्यों न होगा मौज मनमौजी मिले।34।
	जान-गाहक जहान में सारे।
	देखने को नहीं मिला जन-सा।
	है उसी में भरा कसाई-पन।
	है कसाई न दूसरा मन-सा।35।
	कौन-सी तदबीर हमने की नहीं।
	और उससे क्या नहीं हमने कहा।
	कम कमीनापन हुआ उसका नहीं।
	यह कमीना मन कमीना ही रहा।36।
	कब न रंगत एक थी उन पर चढ़ी।
	कब न दोनों साथ कुम्हलाये खिले।
	एक मिलकर हो सके दो तन नहीं।
	एक होते हैं मगर दो मन मिले।37।
	तो खलों की तरह सताता क्यों।
	'पालिसी' का अगर न दम भरता।
	किस तरह बे-इमान तो बनता।
	मान ईमान मन अगर करता।38।
	क्यों गँवा पानी न दे धान के लिए।
	क्यों न मेहमानी किये नानी मरे।
	पाँव मतलब का करे पोंछा न क्यों।
	क्यों न ओछा काम ओछा मन करे।39।
	 
	 
	पेट
	हित गुटके
	सब तुझे क्यों कहें छली कपटी।
	किसलिए जोग तू इसी के हो।
	है जहाँ पाँव पाँव है ही वाँ।
	पेट में पाँव क्यों किसी के हो।1।
	है अगर कुछ दाल में काला नहीं।
	भेद अपना क्यों नहीं तो भूलता।
	दूसरे का पेट फूला देख कर।
	दूसरे का पेट क्यों है फूलता।2।
	छोड़ ओछे सके न ओछापन।
	रह भले ही न जाय पतपानी।
	पेट में बात पच सके कैसे।
	पच सका पेट का नहीं पानी।3।
	जो समय पर है सँभल सकता नहीं।
	तो किये का क्यों न फल पाता रहे।
	ऐंठता है ऐंठता ही तो रहे।
	आ रहा है पेट तो आता रहे।4।
	तो पराये रह हितू कैसे सकें।
	जो 'बहँक' सग, कर नहीं सकता भला।
	तो बिगड़ हित क्यों करेंगे दूसरे।
	पेट अपना जो बिगड़ लाये बला।5।
	तू न घर-घर घूम कुत्तो की तरह।
	लात खाकर रोटियाँ खाया न कर।
	मत हिलाया पूँछ कर पूछे बिना।
	लेट करके पेट दिखलाया न कर।6।
	क्यों न वह फूल फल फबीले दे।
	बेलि विष की न जायगी बोई।
	क्यों छुरी मिल न जाय सोने की।
	पेट है मारता नहीं कोई।7।
	क्यों न अंधोर से रहें बचते।
	ऊधामी क्यों बनें हलाकू से।
	चोर का, चार कौड़ियों के ही।
	पेट कर दें न चाक चाकू से।8।
	था कहा जो रस-भँवर को बन रहे।
	धयान तो हर एक काँटे का रखो।
	जो कमाया पाप तो पापी बनो।
	जो फुलाया पेट तो फल भी चखो।9।
	तन रहेगा दुरुस्त तब कैसे।
	तनदुरुस्ती न जब कि प्यारी हो।
	जब भरे पर भरा गया है वह।
	तब भला क्यों न पेट भारी हो।10।
	जब कि अवसर जायगा दुख का दिया।
	तब किसी पर दुख पड़ेगा क्यों नहीं।
	काम गड़ने का किया जब जायगा।
	पेट कोई तब गडेग़ा क्यों नहीं।11।
	सिर मुड़ाते ही अगर ओले पड़े।
	तो कहें कैसे कि वह पड़ता रहे।
	क्या बड़ी गड़बड़ नहीं हो जायगी।
	गुड़गुड़ाता पेट जो गड़ता रहे।12।
	जब हटा तब हटा दवा से ही।
	रोग हटता नहीं हटाने से।
	जब छँटा तब छँटा कसे काया।
	पेट छँटता नहीं छँटाने से।13।
	आँख निकली किसे लगी न बुरी।
	दाँत निकला कभी नहीं भाया।
	जीभ निकली भली नहीं लगती।
	पेट निकला पसंद कब आया।14।
	हित-भरा कारबार 'नेचर' का।
	कब नहीं तन-बिकार को खोता।
	हम कसर की चपेट में पड़ते।
	पेट जारी अगर नहीं होता।15।
	भेद घर का बिना घुसे घर में।
	लोग हैं जान ही नहीं पाते।
	पेट की बात जानना है तो।
	पेट में पैठ क्यों नहीं जाते।16।
	हिचकियाँ लग जाँय यों रोवें न हम।
	है बुरा, बहुतायतों में क्यों फँसें।
	जो हँसें हँसते ठिकाने से रहें।
	पेट जाये फूल इतना क्यों हँसें।17।
	कौन है ऐसी बला जैसी कि भूख।
	है भयों से ही भरा उसका उभार।
	मार लो आँखें 'जमा' लो मार क्यों न।
	पेट मत मारो मरेगा पेट मार।18।
	हैं कुदिन में मिले किसे मेवे।
	जो मिले आँख मूँद कर खा लें।
	भूख में साग पात क्यों देखें।
	जो सकें डाल पेट में डालें।19।
	क्यों बने बेसमय उबल ओछा।
	क्यों समझदार भूल कर भूले।
	फूल करके सभी न फलता है।
	क्यों गये फूल पेट के फूले।20।
	काम झिपने का किये ही सब झिपे।
	कब भला कोई झिपाने से झिपा।
	क्यों न अपना मुँह छिपाते हम फिरें।
	कब छिपाये पेट दाई से छिपा।21।
	कर सकें तो सदा करें हित हम।
	कील नख में कभी नहीं ठोंकें।
	भर सकें पेट तो रहें भरते।
	किसलिए पेट में छुरी भोंकें।22।
	अपने दुखड़े
	हैं रहे बीत दिन दुखों में ही।
	स्वाद सुख का हमें नहीं आया।
	रात में नींद भर नहीं सोते।
	है कभी पेट भर नहीं खाया।23।
	बल नहीं है, क्यों बलाओं से बचें।
	पेट में है आग बलती तो बले।
	है न वह जल दूर कर दे जो जलन।
	पेट जलता है हमारा तो जले।24।
	क्या कहें चलती हमारी कुछ नहीं।
	कब न यह चाहा कि वह पलता रहे।
	छूटतीं उसकी बुरी चालें नहीं।
	चल रहा है पेट तो चलता रहे।25।
	सब दिनों जिन पर निछावर सुख हुआ।
	बन गये वे लोग दुखिया दुख भिने।
	डालते थे जान जो बे-जान में।
	आज वे हैं जानवर जाते गिने।26।
	कौर मुँह का किसी छिने कैसे।
	काल की जो कराल टेक न हो।
	पाट हम पेट भी नहीं पाते।
	किस तरह पेट पीठ एक न हो।27।
	मिल रहा है हमें नहीं टुकड़ा।
	पेटुओं साथ पट नहीं पाता।
	आज है जा रही दुही पोटी।
	पेट है पीठ से लगा जाता।28।
	है बड़ा दुख फिर सके फेरे नहीं।
	राह तज हैं बीहड़ों में फिर रहे।
	बात गुर की बन सकी अब भी न गुर।
	हैं गिरा कर पेट दिन दिन गिर रहे।29।
	क्या हमें टोना किसी का है लगा।
	या अभागे भाग ही की टेक है।
	जब उसे हर बार खोना ही पड़ा।
	पेट से होना न होना एक है।30।
	लान तान
	क्या उन्हें परवा पिसें जो दूसरे।
	चाहिए पेटू रहें फूले फले।
	पेट उनका भाड़ हो पर जाय भर।
	पेट जलता हो किसी का तो जले।31।
	सब तरह की साँसतें हमने सहीं।
	लात बद-लत की बदौलत खा गये।
	तौर बिगड़े कौर मुँह का छिन गया।
	पेट भर पाया न, मुँह भर पा गये।32।
	बीरता जा बसी रसातल में।
	बन गये हैं बिलास के ढूहे।
	क्यों न तो नाम सुन लड़ाई का।
	पेट में दौड़ने लगें चूहे।33।
	तब कुदिन-दर बन्द करने क्या गये।
	जब लगे आँखें सहम कर मूँदने।
	फाँदने दीवार दुख की क्या चले।
	पेट में चूहे लगे जब कूदने।34।
	चाब ले माल बात झूठी कह।
	है तुझे ज्ञान ही नहीं सच का।
	पेट भर ले अगर रहा है भर।
	पेट तू ने लखा नहीं पचका।35।
	मोल मिट्टी के बिकेगा क्यों न वह।
	साख ही जिसने कि मटियामेट की।
	मुँह पिटाये भी पिटा उसका नहीं।
	क्यों न पेटू को पड़ेगी पेट की।36।
	बात की बात में पचेंगी वे।
	रोटियाँ क्यों न खाँय ईंटे की।
	किसलिए खाँय चींटियों इतना।
	है गिरह पेट में न चींटे की।37।
	सजीवन जड़ी
	काम से मोड़ें न मँह तोडें न दम।
	चाम तन का क्यों न छन छन पर छिले।
	हिल गये दिल भी न हिलना चाहिए।
	जाँय हिल क्यों पेट का पानी हिले।38।
	धीरता धीर बीर लोगों की।
	कब भला फूट फूट कर रोई।
	भार है पड़ रही, रहे पड़ती।
	क्यों मरे पेट मार कर कोई।39।
	चाहते हैं अगर भलाई तो।
	चाव के साथ प्रेम रस चखिये।
	काटिये पेट मत किसी का भी।
	पेट की बात पेट में रखिये।40।
	छेड़ लोगों को कहलावें सभी।
	पर करें संजीदगी अपनी न कम।
	भेद खोलें पर न खुलने भेद दें।
	पेट लेवें पर न देवें पेट हम।41।
	जो उचित है वह करें चित को लगा।
	बात में आ क्यों लबड़-धाौंधाौं करें।
	आ, न बुत्तो में किसी के भी सकें।
	पेट के कुत्तो किया पों पों करें।42।
	बात बात में बात
	हाथ में जो कि आ नहीं सकता।
	हम उसे हाथ में करें कैसे।
	क्यों भरा घर न दूध घी से हो।
	हम भरे पेट को भरें कैसे।43।
	मौत सिर पर नाचने जब लग गई।
	तन दुखों का किस तरह बानी न हो।
	हो गया पानी किसी का जब लहू।
	पेट कैसे तब भला पानी न हो।44।
	बात कोई बना भले ही ले।
	है जहाँ मिल सकी वहाँ दाढ़ी।
	कब कढ़ी, कब भला गई काढ़ी।
	है किसी पेट में कहाँ दाढ़ी।45।
	आबरू की निकल पड़ी आँखें।
	कट कलेजा गया सुचाली का।
	लाज सिर पीट पीट कर रोई।
	गिर गये पेट पेटवाली का।46।
	आज है मन में उमंग कुछ और ही।
	है समा मुँह पर अजब छाया हुआ।
	भूल गदराया हुआ जोबन गया।
	देख कर के पेट गदराया हुआ।47।
	ठाट से भलमंसियों की हाट में।
	मुँह बना काला फिराता है हमें।
	नाक कटवा है बनाता नक-कटा।
	पेट गिरवाना गिराता है हमें।48।
	टूट सुख-खेत का गया अंकुर।
	झड़ पड़ा फूल चाह-डाली का।
	सिर पटक आस पेट भर रोई।
	गिर गये पेट पेटवाली का।49।
	हैं रसातल को चले हम जा रहे।
	बेहयापन मुँह चिढ़ाता है हमें।
	हैं गिरे जाते जगत की आँख से।
	पेट गिरवाना गिराता है हमें।50।
	एक फूले नहीं समाती है।
	रह गये पेट क्यों न हो साँसत।
	एक है सोचती बिपत आई।
	क्यों रहे पेट रह सकेगी पत।51।
	जब कि है हो रही बहुत गड़बड़।
	किसलिए हो अगड़-बगड़ खाते।
	तो अपच दूर क्यों करे पाचक।
	पेट जब तुम पचा नहीं पाते।52।
	 
	 
	आँ
	त
	हितगुटके
	आज दिन है अगर बढ़ी अनबन।
	तो किसी के लिए बने क्यों यम।
	रंज हमको निकालना है तो।
	ऍंतड़ियाँ क्यों निकाल लेवें हम।1।
	बल पड़े रह गये सगे न सगे।
	बल पड़े खल गईं भली बातें।
	बल पड़े दूसरे न क्यों बिगड़ें।
	बल पड़े जब बला बनी आँतें।2।
	टूट पाता है भला उपवास कब।
	हाथ से परसी हुई थाली छुला।
	जब खुला तब खुल खिलाने से सका।
	खोलने से बल न आँतों का खुला।3।
	दुख-नदी पार जिस तरह पहुँचे।
	उस तरह देह-नाव खेते हैं।
	पेट भरता न देख कर अपना।
	लोग आँतें समेट लेते हैं।4।
	तो कहें कैसे कि तुममें जान है।
	क्यों रगों में तो लहू-धारें बहीं।
	जाति की आँतें उलटती देख कर।
	आ गईं मुँह में अगर आँतें नहीं।5।
	हो भले तो न, प्यार-धारा से।
	मैल दिल का सके न जो धुलवा।
	है कहाँ दान में तुमारे बल।
	आँत का बल सके जो खुलवा।6।
	हों भले ही हाथ में भाला लिये।
	पर किसी की छीन क्यों लेवें सुई।
	जब कि लंबे मतलबों से पुर रही।
	तब किसी की आँत लंबी क्या हुई।7।
	अपने दुखड़े
	हर तरह की चाहतें मेरी उचित।
	बेतरह अब ठोकरे हैं खा रही।
	हैं सुनी जाती नहीं बातें भली।
	आज आँतें हैं गले में आ रही।8।
	पेट ही जब कि पल नहीं पाता।
	क्यों करें औज मौज की बातें।
	है यही चाह सुख मिले न मिले।
	तन सुखायें न सूखती आँतें।9।
	तरह तरह की बातें
	दूर अब भी हुआ न मन का मोह।
	चाह अब भी लगा रही है लात।
	देह में बल न आँख में है जोत।
	पेट में आँत है, न मुँह में दाँत।10।
	पेट के फेर में पड़े जब हैं।
	तब भला किसलिए न दें फेरी।
	दाँत कैसे नहीं निकालें हम।
	आँत है कुलबुला रही मेरी।11।
	रात दिन जो रही भला करती।
	दिन फिरे वह फिरी दिखाती है।
	जो न चित्ता से कभी उतर पाई।
	अब उतर आँत वह सताती है।12।
	है अमर कौन, जायगा सब मर।
	है बढ़ाये उमर नहीं बढ़ती।
	क्यों कुढ़ें और हम कुढें क़िस पर।
	कढ़ गई आँत तो रहे कढ़ती।13।
	 
	 
	कोख
	दुखड़े
	किसलिए सुख हुआ हमें सपना।
	क्यों गई दुख-समुद्र में गेरी।
	तो मरी क्यों न मैं जनमते ही।
	कोख मारी गई अगर मेरी।1।
	किस तरह दूर हो जलन उसकी।
	चित्ता में जब कि सोग आग बली।
	भाग में ही लिखा गया जलना।
	क्यों जले सब दिनों न कोख-जली।2।
	बोझ-सा जाति के लिए जो है।
	बोझ उस नीच का कभी न सहे।
	जो लहे बे-कहे कपूतों को।
	क्यों न तो बन्द कोख बन्द रहे।3।
	तरह तरह की बातें
	हो बहुत साँवली अधिाक गोरी।
	क्यों न होवे सपेद या भूरी।
	है बड़ी भागवान वह, जो हो।
	कोख औ माँग से भरी पूरी।4।
	क्यों न सुख चैन दूर कर सारा।
	नींद औ भूख प्यास वह खोती।
	क्यों बने तन न काँच की भट्ठी।
	कोख की आँच है बुरी होती।5।
	यह बना घर बिगाड़ देती है।
	पौधा की जड़ उखाड़ देती है।
	मिल न इसकी सकी जड़ी कोई।
	कोख उजड़ी उजाड़ देती है।6।
	सामने आ बड़े-बडे पचड़े।
	भाग की देख-भाल देख भगे।
	है बड़ी वह अभागिनी जिसकी।
	कोख हो बन्द जोड़ बंद लगे।7।
	बंस-बैरी कलंक नरकुल का।
	बात बनती बिगाड़ने वाला।
	कोख उजड़ी सदा रहे उजड़ी।
	जो जने घर उजाड़ने वाला।8।
	गोखले-सा खुले हुए दिल का।
	प्रेम में मस्त राम के ऐसा।
	कोख खुल के कमाल कर देगी।
	जो जने लाल मालवी जैसा।9।
	 
	पसली
	तरह तरह की बातें
	जातिहित देसहित जगतहित की।
	बात सुन बार बार बहुत तेरी।
	तो रहे हम बहुत फड़कते क्या।
	जो न पसली फड़क उठी मेरी।1।
	तो कही बात क्यों उमंग-भरी।
	तो भला किसलिए कमर कस ली।
	बात करते समय पिसे जन का।
	है फड़कती अगर नहीं पसली।2।
	कौन होगा और के दुख से दुखी।
	क्यों कलेजे में न चुभता तीर हो।
	पीर है बेपीर को होती नहीं।
	क्यों न पसली में किसी की पीर हो।3।
	सीखते हैं क्यों दया करना नहीं।
	क्यों सितम से हैं नहीं मुँह मोड़ते।
	तोड़ने वाले कलेजा तोड़ कर।
	पसलियाँ क्यों हैं किसी की तोड़ते।4।
	बान जिसकी मार खाने की पड़ी।
	मानता है वह बिना मारे कहीं?
	तो भला हो नीच ढीला किस तरह।
	की गई पसली अगर ढीली नहीं।5।
	 
	पीठ
	हितगुटके
	आम कच्चा है न होता रस-भरा।
	ओल कच्चा काट खाता है गला।
	काम का है कान का कच्चा नहीं।
	है न घोड़ा पीठ का कच्चा भला।1।
	दे सकेगा वह कभी धोखा नहीं।
	बात सच्ची जो सचाई से कहे।
	तो गिरेगा एक बच्चा भी नहीं।
	पीठ का सच्चा अगर घोड़ा रहे।2।
	पेट अपना जो हमें देता नहीं।
	पेट में उसके भला क्यों पैठते?
	पास उनके बैठते हम किस तरह?
	फेर कर जो पीठ हैं फिर बैठते।3।
	कह सके तो हम कहें मुँह पर उसे।
	बात कोई किसलिए पीछे कहें।
	पीठ दिखलावें भले ही दूसरे।
	हम भला क्यों पीठ दिखलाते रहे।4।
	जो भली बात कान कर न सका।
	क्यों न तो कान ही उखेड़ें हम।
	खीज करके उधोड़बुन में पड़।
	पीठ की खाल क्यों उधोड़ें हम।5।
	सुनहली सीख
	वे अगर हैं मोरियों सा बह रहे।
	क्यों न दरिया की तरह तो हम बहें।
	चाहिए पीछे न हम उनके पड़ें।
	बात ओछी पीठ-पीछे जो कहें।6।
	देस की प्रीति से न मुँह मोडें।
	प्यार के साथ जाति-पग सेवें।
	पीठ देवें न प्रेमपथ में पड़।
	चाहिए पीठ तक नपा देवें।7।
	पते की बातें
	तोंद ही जायगी पचक उनकी।
	और को प्यार कर न क्यों घेरें।
	तोंद पर हाथ फेरते कैसे।
	पीठ पर हाथ जो न वे फेरें।8।
	मुँह दिखाते लाज लगती है उसे।
	पद-बढ़े मुँह फेर कर ऐंठे न क्यों।
	मुद्दतों वह पीठ मल मल था पला।
	पीठ मेरी ओर कर, बैठे न क्यों।9।
	बच न पाये बुरी पकड़ से हम।
	ब्योंत कर बार बार बहुतेरी।
	लाग है हो गई बलाओं से।
	क्यों लगायें न पीठ वे मेरी।10।
	अपने दुखड़े
	दुख कहें किस तरह कहें किससे।
	दिन हमारे कभी रहे न भले।
	हैं कभी हाथ मींज मींज जिये।
	हैं कभी पीठ मींज मींज पले।11।
	थक गये रोक रोक करके हम।
	काल-गति जा सकी नहीं रोकी।
	दूसरे पीठ ठोंकते क्या हैं।
	दैव ने पीठ तो नहीं ठोंकी।12।
	लताड़
	जब कि चल-फिर काम कर सकते रहे।
	की गई है रात दिन तब तो ठगी।
	तब चले हैं लौ लगाने राम से।
	पीठ जब है चारपाई से लगी।13।
	जो बहुत ही ऐंठने वाले रहे।
	हैं वही देखे गये उलटे टँगे।
	क्या रही तब हैकड़ों की हैकड़ी।
	पीठ पर जब सैकड़ों कोड़े लगे।14।
	बेंचते नाम निज बड़ों का हैं।
	या कि शिर पर कलंक हैं लेते।
	पेट अपना कभी खलाते हैं।
	या कभी पीठ हैं दिखा देते।15।
	कब भला मार सेंत-मेंत पड़ी।
	कौन है पापफल नहीं पाता।
	जो करे काम बेंत खाने का।
	पीठ पर बेंत है वही खाता।16।
	कमर
	हितगुटके
	साहसी देख और का साहस।
	आप भी हैं उमंग में भरते।
	तो कमरबन्द क्यों हुआ ढीला।
	हैं कबूतर अगर कमर करते।1।
	मार दे क्यों न मारने वाला।
	मार से क्यों न जाय कोई मर।
	बात मुँह-तोड़ क्यों न मुँह तोड़े।
	क्यों कमर-तोड़ तोड़ दे न कमर।2।
	पा सके भाग वह कहाँ साबित।
	है जिसे भाग मिल गया फूटा।
	कर सके काम कम भले ही वह।
	क्या कमर कस करे कमर-टूटा।3।
	अपने दुखड़े
	तो फिरें किस तरह हमारे दिन।
	दैव ने आँख है अगर फेरी।
	साधा पूरी हुई न काम सधा।
	हो न सीधी सकी कमर मेरी।4।
	भाग-कपड़ा बेतरह है फट गया।
	सी सके कैसे उसे करनी-सुई।
	थी कमर मेरी कभी टेढ़ी नहीं।
	दैव के टेढ़े हुए टेढ़ी हुई।5।
	क्यों हमें मिल सकें न चार चने।
	आप क्यों खाँय खीर ही रींधी।
	कर सकें आप क्यों टके सीधो।
	कर सकें क्यों न हम कमर सीधी।6।
	 
	 
	जाँघ
	तरह तरह की बातें
	बाँह के बल को बँधी पूँजी बना।
	पड़ सका है पेट का लाला किसे।
	भाग को उसने कभी कोसा नहीं।
	जाँघ का अपनी भरोसा है जिसे।1।
	तन भला तब किस तरह मोटा रहे।
	पेट को मिलती न जब रोटी रही।
	फल उसे खोटी कमाई का मिला।
	जाँघ मोटी जो नहीं मोटी रही।2।
	तन कँपा, डर समा गया जी में।
	चौकसी, चूक की बनी चेरी।
	मैं सका नाँघ दुख-समुद्र नहीं।
	बेतरह जाँघ हिल गई मेरी।3।
	तू भला बीरता करेगा क्या।
	जो सुने एक बार रन-भेरी।
	कँप उठा बेंत की तरह सब तन।
	जो हिली जाँघ बेतरह तेरी।4।
	 
	घुटना
	सजीवन जड़ी
	सूर जो तलवार की ही आँच में।
	तन रहे साहस दिखा कर सेंकते।
	लट गये भी लटपटाते वे नहीं।
	दम घुटे भी हैं न घुटने टेकते।1।
	दुधा-मुँहे जिसकी बदौलत हैं बने।
	क्या नहीं वह ढंग खलना चाहिए।
	चल चुके हम लोग घुटनों मुद्दतों।
	अब हमें घुटनों न चलना चाहिए।2।
	बल जिसके पाँवों में है वह।
	जगत पालने में पलता है।
	वही घूमता है घर में ही।
	जो घुटनों के बल चलता है।3।
	चेतावनी
	घटा दुखों की घिर आवेगी।
	घटे मान डूबेगा डोंगा।
	घोंट घोंट कर गला जाति का।
	घुटनों में सिर देना होगा।4।
	गली गली वह क्यों घूमेगा।
	अभी गोद में जो है पलता।
	क्यों टट्टी वह फाँद सकेगा।
	जो है घुटनों के बल चलता।5।
	दिल के फफोले
	जिसे लगा छाती से पाला।
	वह क्यों चढ़ छाती पर बैठा।
	वही तोड़ता है क्यों घुटने।
	जो घुटनों से लगकर बैठा।6।
	वह पेट पालने हमें नहीं है देता।
	था बड़े प्यार से जिसको पोसा-पाला।
	क्यों नहीं बैठने देता है वह घर में।
	था जिसे लगाकर घुटनों से बैठाला।7।
	 
	 
	एड़ी
	हितगुटके
	जाति के रगड़े बढ़ाते जो रहे।
	मान उनका क्यों रगड़ चन्दन करें।
	हम रगड़ते ही रहेंगे नित उन्हें।
	हैं रगड़ते तो रगड़ एड़ी मरें।1।
	प्यास हमको पास करने की नहीं।
	दूसरे जो पिस रहे हैं तो पिसें।
	हैं भली लगती हमें घिसपिस नहीं।
	लोग एड़ी घिस रहे हैं तो घिसें।2।
	रुक सका वह खेत के रोके नहीं।
	जब सकी तब रोक जल-मेंड़ी सकी।
	कुछ न सिर सिरमार कर भी कर सका।
	एड़ घोड़े को लगा एड़ी सकी।3।
	क्यों न होवे मली धुली सुथरी।
	हो सकेगी न पैंजनी बेड़ी।
	बन सकेगी न लाल लाख जनम।
	क्यों किसी की न लाल हो एड़ी।4।
	हो सकेगा चूर मोती का नहीं।
	क्यों न चूना चौगुना सब दिन पिसे।
	मान मिलता है बिना जौहर नहीं।
	कौन एड़ी हो सकी कौहर घिसे।5।
	हो सकेगा कुछ नहीं एका बिना।
	मेहनतें बेढंग करके क्यों मरें।
	लोग चोटी और एड़ी का अगर।
	एक करते हैं पसीना तो करें।6।
	तरह तरह की बातें
	मुँह-देखी बातें जिसमें हैं।
	लगे न उसका मुखड़ा प्यारा।
	वार जाँय क्यों उस पर जिसने।
	एड़ी चोटी पर से वारा।7।
	बने हुए मुखडे पर उसके।
	खिंची बनावट की है रेखा।
	उसमें दिखला पड़ी दिखावट।
	एड़ी से चोटी तक देखा।8।
	चोट चलाती हो जो चोरी।
	कहा चाव से तो क्यों प्यारे।
	लगी चमोटी-सी चित को है।
	एड़ी चोटी पर से वारे।9।
	 
	 
	लात
	हित गुटके
	वह करेगा किस तरह बातें समझ।
	जब कि ना-समझी बनी उसकी सगी।
	वह सकेगा मान कैसे बात से।
	लात खाने की जिसे है लत लगी।1।
	मानता है अगर नहीं गदहा।
	किसलिए तो न हम खबर लेवें।
	झाड़ता है अगर दुलत्ताी तो।
	क्यों न दो लात हम उसे देवें।2।
	है बुरा, काम जो बुरा कर के।
	मूँछ हम बार बार हैं टेते।
	लात का आदमी नहीं है तो।
	क्यों उसे लात हैं लगा देते।3।
	है न अरमान मान का मन में।
	वीरता है बहक भगी जाती।
	आज भी है लगी नहीं जी से।
	लात पर लात है लगी जाती।4।
	काम यह तो कमीनपन का है।
	क्यों छिड़कता नमक कटे पर है।
	तो तुझे लाख बार लानत है।
	लात चलती अगर लटे पर है।5।
	पाँव
	हित गुटके
	जो सदा पेट हैं दिखाते वे।
	किस तरह बीरता दिखावेंगे।
	सब दिनों हाथ रोपने वाले।
	किस तरह पाँव रोप पावेंगे।1।
	जो सुभीता न कर सकें कोई।
	तो बखेड़ा न कर खड़ा देवें।
	आ सकें हम अगर नहीं आड़े।
	तो कहीं पाँव क्यों अड़ा देवें।2।
	देख बल-बूता करें जो कुछ करें।
	काम मनमाना करेगा मान कम।
	हो पसरने के लिए जितनी जगह।
	क्यों न उतना ही पसारें पाँव हम।3।
	तंग बलि की तरह न हो कोई।
	हम न बामन समान बन जावें।
	फैलने के लिए जगह न रहे।
	पाँव इतना कभी न फैलावें।4।
	क्यों पड़ा सूझ-बूझ का लाला।
	बे-तरह र) हो रहे हो क्या।
	ठेस दिल में न चाहिए लगनी।
	पाँव में ठेस लग गई तो क्या।5।
	जो सगों का बना रहा न सगा।
	वह रहा देश-गीत क्यों गाता।
	वह सकेगा उठा पहाड़ नहीं।
	पाँव भी जो उठा नहीं पाता।6।
	बे-ठिकाने बनें वहाँ जा क्यों।
	है जहाँ कुछ नहीं ठिकाने से।
	क्यों उठे और क्या करें उठ कर।
	पाँव उठता नहीं उठाने से।7।
	किसलिए तो लोक-हित करने चले।
	जो सहज संकट नहीं जाता सहा।
	क्यों सराहे राह के राही बने।
	बेतरह जो पाँव है थर्रा रहा।8।
	चाहिए जिस जगह जिसे रखना।
	क्यों नहीं हम उसे वहीं रखते।
	किस तरह पाँव तो ठहर पावें।
	हैं कहीं के कहीं अगर रखते।9।
	चाह के क्यों उसे लगे चसके।
	जो पड़े पेंच पाच में खिसका।
	क्यों बना प्यार-पंथ-राही वह।
	राह में पाँव रह गया जिसका।10।
	जाय जी जल अगर जलाये जी।
	जाय जल आँख जो सदैव खले।
	वह जले हाथ हो जलन जिसमें।
	वह जले पाँव जो न फूले फले।11।
	अपने दुखड़े
	नह गड़ाये वहाँ गडे क़ैसे।
	सींग मेरा सका जहाँ न समा।
	हम वहाँ आप जायँ जम कैसे।
	है जमाये जहाँ न पाँव जमा।12।
	बल भली-रुचि-वायु का पाये बिना।
	फरहरा हित का फहरता ही नहीं।
	हम भले पथ में ठहरते किस तरह।
	पाँव ठहराये ठहरता ही नहीं।13।
	जब कि बेताब हो रहा है दिल।
	गात तब ताब किस तरह लाता।
	जब कि है काँपता कलेजा ही।
	पाँव कैसे न काँप तब जाता।14।
	किस तरह चल फिर सकें कुछ कर सकें।
	बन गई है काहिली हिलमिल सगी।
	हाथ में मेरे जमाया है दही।
	है हमारे पाँव में मेहँदी लगी।15।
	कर सकें नाँव-गाँव हम कैसे।
	दाँव हैं मिल रहे नहीं वैसे।
	कुछ नहीं काँव-काँव से होगा।
	पाँव हैं कुछ उखड़ गये ऐसे।16।
	कौन है चापलूस हम जैसा।
	हैं हमीं मोह के पिये प्याले।
	हैं हमीं चाटते सदा तलवे।
	हैं हमीं पाँव चूमने वाले।17।
	किस तरह और पर बला लावें।
	हो बला ने अगर हमें घेरा।
	किस तरह लड़ खडे क़िसी से हों।
	पाँव जब लड़खड़ा गया मेरा।18।
	बात जी में एक भी धाँसती नहीं।
	जा रहा है और दलदल में धाँसा।
	काम लीचड़ चित्ता से है पड़ गया।
	पाँव कीचड़ में हमारा है फँसा।19।
	किस तरह राह तो न तै होती।
	राह के ढंग में अगर ढलते।
	क्यों ठिकाने न चाल पहुँचाती।
	पाँव जो हम उठा उठा चलते।20।
	अब तनिक ताब है नहीं तन में।
	मुँह चला कुछ कभी नहीं खाते।
	हाथ सकता नहीं उठा सूई।
	दो कदम पाँव चल नहीं पाते।21।
	तब कहें कैसे सुदिन हैं आ रहे।
	भाग मेरे दिन-बदिन हैं जग रहे।
	जब भले पत पर लगाकर लौ चले।
	पाँव से हैं पाँव मेरे लग रहे।22।
	लोग क्यों लान तान करते हैं।
	मान पाना किसे नहीं भाता।
	लट गई देह राह है अटपट।
	पाँव कैसे न लटपटा जाता।23।
	अंग जो जाति-हित न कर पाये।
	किसलिए तो न हम तुरंत मुए।
	रह गये हाथ पथ न रह पाई।
	हो गये सुन्न पाँव सुन्न हुए।24।
	लिया कलेजा थाम न किसने।
	बिगड़े बने बनाये घर के।
	देख कुलों का लोप न कैसे।
	पाँव तले की धारती सरके।25।
	सजीवन जड़ी
	बावले हों उतावले बन क्यों।
	पास वे हैं बिचार-बल रखते।
	जो भले चाहते भलाई हैं।
	पाँव वे हैं सँभल सँभल रखते।26।
	दाँत निकले न दाँत टूटे भी।
	गिड़गिड़ायें न गड़बड़ों से डर।
	बँधा गये भी न हाथ बाँधो हम।
	सिर गिरे भी गिरें न पाँवों पर।27।
	कर सकें जो भली तरह न उसे।
	काम का तो न छोड़ कर बैठें।
	जो न सिर-तोड़ कर सकें कोशिश।
	तो न हम पाँव तोड़ कर बैठें।28।
	लोक-हित के किये जिन्हें न खलीं।
	सब नखों में गड़ी हुई कीलें।
	पाँव की धूल झाड़ पलकों से।
	पाँव उनका पखार कर पी लें।29।
	रम सका राम में नहीं जो मन।
	तो भला क्यों रमे न अनरथ में।
	जो न जी में थमीं भली बातें।
	पाँव कैसे थमे भले पथ में।30।
	क्यों न हो धूम-धाम से ऊधाम।
	क्यों करें जाति-हित उमंगें कम।
	टूट सिर पर पडे बलायें सब।
	किसलिए हाथ पाँव डालें हम।31।
	चाटते क्यों और का तलवे रहें।
	मरतबा चाहे बहुत ही कम रखें।
	सिर रहे, चाहे चला ही जाय सिर।
	पाँव पर सिर क्यों किसी के हम रखें।32।
	जीवन 
	ò
	ोत
	किसलिये जाय टूट जी मेरा।
	जाय विष-घूँट किसलिए घूँटा।
	टूट मेरी नहीं गईं बाँहें।
	है हमारा न पाँव ही टूटा।33।
	जग दहल जाय तो दहल जावे।
	है दहलता नहीं हमारा दिल।
	हिल गये तो पहाड़ हिल जावें।
	पाँव सकता नहीं हमारा हिल।34।
	वह अटल है पहाड़-सा बनता।
	है किसी ठौर जब कि जम जाता।
	क्यों न टल जाँय चाँद औ सूरज।
	सूर का पाँव टल नहीं पाता।35।
	शेर को देख जो नहीं दहले।
	वे डरेंगे न देख खिजलाहट।
	हैं दहाड़ें जिन्हें हटा न सकीं।
	वे हटे सुन न पाँव की आहट।36।
	है हमीं में कमाल अंगद का।
	क्यों दबें दैव के दबाने से।
	पाँव भी जब डिगा नहीं मेरा।
	हम डिगेंगे न तब डिगाने से।37।
	काम कर क्या कमा नहीं सकते।
	डाल देंगे जहान में डेरे।
	किसलिए पाँव और का पकड़ें।
	पाँव क्या पास है नहीं मेरे।38।
	कौन है दौड़-धूप में हम-सा।
	काम हमने न कौन कर डाला।
	किस तरह कान काटता कोई।
	पाँव हमने नहीं कटा डाला।39।
	क्यों बुरे फल नहीं चखेगा वह।
	है जिसे फल बुरे-बुरे चखना।
	जो रखे वह रखे हमें न जचा।
	पाँव से पाँव बाँधा कर रखना।40।
	क्यों बलायें न घेर लें हमको।
	क्यों न हो नाक में हमारा दम।
	मौत सिर पर सवार हो जावे।
	पाँव में सिर कभी न देंगे हम।41।
	चल पड़े तो चल पड़े अब क्यों अड़ें।
	क्यों न ओले बेतरह पथ में पड़ें।
	सैकड़ों आयें बलायें सामने।
	क्यों न काँटे पाँव में लाखों गड़े।42।
	सुनहली सीख
	जो भँवर जन-हित-कमल का बन जिये।
	राम-रस पीकर रहे जो गूँजते।
	हैं जगत में पूजने के जोग वे।
	पाँव पूजा-जोग जो हैं पूजते।43।
	जो भले, कर के भलाई बन सके।
	दूसरों को जो नहीं हैं भूँजते।
	पुज रहे हैं औ पुजेंगे भी वही।
	पाँव जो माँ बाप का हैं पूजते।44।
	काढ़ने से साँप में से मणि कढ़ा।
	मूढ़ वे हैं काढ़ते जो खीस हैं।
	रीस औरों की करें हम किसलिए।
	दूसरों के पाँव क्या दस बीस हैं।45।
	आप अपना न बाल बिनवा दें।
	आप अपना लहू न हम गारें।
	चाहिए यह कि हाथ से अपने।
	हम कुल्हाड़ी न पाँव में मारें।46।
	पूजने जोग जो नहीं हैं तो।
	भूल कर भी न पाँव पुजवावें।
	धो सके हैं अगर न मन का मल।
	चाहिए तो न पाँव धुलवावें।47।
	जो न हैं मान-जोग मान उन्हें।
	मान मरजाद किसलिए खोयें।
	मल-भरा मन धुला नहीं जिनका।
	पाँव उनका कभी न हम धोयें।48।
	क्यों बुरे ढंग हैं पसंद पड़े।
	क्यों भले ढंग हैं नहीं भाते।
	पाँव तब तोड़ क्यों किसी का दें।
	पाँव जब जोड़ हम नहीं पाते।49।
	जब सँभल पाँव रख नहीं सकते।
	क्यों बुरा फल न हाथ तब आता।
	जब बुरी राह पर उतर आये।
	पाँव कैसे न तब उतर जाता।50।
	औरतों का बिगड़ गये परदा।
	रह सका आन-बान कब किसका।
	लोग बाहर उसे निकाल चुके।
	पाँव बाहर निकल गया जिसका।51।
	डाह से जल बुराइयाँ न करो।
	जो न करके भलाइयाँ जस लो।
	बन सको फूल-सा बनो कोमल।
	पाँव मत-फूल को कभी मसलो।52।
	तरह तरह की बातें
	लोग जिनका पाँव सहला सब दिनों।
	माल सुख से सब तरह का चाबते।
	दाबनी दाँतों तले उँगली पड़ी।
	देख उनको पाँव दुख में दाबते।53।
	राज-सा आज कर रहे हैं वे।
	नाज जिनको न मिल सके रींधो।
	फिर कहें बात किस तरह सीधी।
	किस तरह पाँव रख सकें सीधीे।54।
	किस तरह तब कटे सुखों से दिन।
	घर अगर काट काट है खाता।
	जब उसे काटने लगे जूते।
	किस तरह पाँव तब न कट जाता।55।
	हितभरी गुनभरी सुहागभरी।
	रसभरी छबिभरी बहू प्यारी।
	बहु पुलक भर गये उभर आई।
	पाँव भारी हुए हुई भारी।56।
	आँख खोले खुल न मूढ़ों की सकी।
	सीटते हैं आप तो सीटा करें।
	पीटने वाले न मानें लीक के।
	पीटते हैं पाँव तो पीटा करें।57।
	हौसले के बहुत भले पौधो।
	हैं फबन साथ फूलते फलते।
	माँ, ललक सौगुनी ललकती है।
	लाल हैं पाँव पाँव जब चलते।58।
	जो रही माँ, मकान की फिरकी।
	वह मिले कुछ अजीब बहलावे।
	हो गई सास-गेह पर लट्टू।
	पाँव कैसे न फेरने जावे।59।
	जान बेजान में नहीं होती।
	हैं न तोते, बने हुए तोते।
	नाम है काम है कहाँ वैसा।
	काठ के पाँव पाँव क्यों होते।60।
	कौन-सा लाभ वाँ गये होगा।
	हैं जहाँ लोग बे-तरह अड़ते।
	पाँव पड़ते नहीं चलें कैसे।
	पाँव क्यों बार बार हो पड़ते।61।
	अन्योक्ति
	दैव ने जो दिया दया करके।
	पा उसी को बहुत निहाल बनो।
	जो नहीं लाल आप ही हो तो।
	पाँव! मेहँदी लगा न लाल बनो।62।
	हंस-सी चाल चल नहीं सकता।
	रात दिन मंद-मंद क्यों न चले।
	वह कमल-सा अमल बना न कभी।
	पाँव को क्यों न लाख बार मले।63।
	है बिपत पर बिपत सदा आती।
	दुख दुखी को न कब रहे घेरे।
	धूल से तो रहे भरे ही वे।
	कीच से पाँव भर गये मेरे।64।
	जब मिला तो फल बुरा उससे मिला।
	फल फलाने का बुरा ही तौर है।
	फूल जैसा फूल वह पाता नहीं।
	फूल जाना पाँव का कुछ और है।65।
	राह बेंड़ी है बुरे काँटों भरी।
	जो परग दो चार चलते ही गड़ें।
	बेतरह वे कोस काले चल छिले।
	पाँव में कैसे नहीं छाले पड़ें।66।
	है बदी का बुरा बहाव जहाँ।
	हैं निबहते वहाँ न हम जैसे।
	है कपट-पथ अगर नहीं अटपट।
	पाँव तो फिर रपट गया कैसे।67।
	फूल-सा है नरम न पर हित-पथ।
	क्यों सँभाले भला सँभल पाता।
	कम न फिसलन वहाँ मिली उसको।
	पाँव कैसे नहीं फिसल जाता।68।
	हों गरम, उनका गरम होना मगर।
	जब खला तब साथ वालों को खला।
	दूसरों को हैं जला सकते नहीं।
	पाँव जलते, हाथ को लेवें जला।69।
	है कमल से कहीं अनूठा वह।
	कौन पापी उसे परस न तरा।
	पाप को धूल में मिलाता है।
	संत का पाक पाँव धूल-भरा।70।
	जो रही सब दिनों पसंद उसे।
	चाल वह छोड़ किस तरह पाता।
	चल सका जब न जाति-हित-पथ पर।
	पाँव कैसे न तब बिचल जाता।71।
	 
	तलवे
	सजीवन जड़ी
	जो नहीं बढ़ती हमारी सह सकें।
	चाहिए उनकी न हम चोटें सहें।
	जो ऍंगूठा हैं चटाते रात दिन।
	हम न उनके चाटते तलवे रहें।1।
	तो कहाँ पर-हित कठिन पथ पर चले।
	जो न उसकी साँसतें सारी सहीं।
	छिल गये छाले पड़े छिद-छिद गये।
	बन गये तलवे अगर छलनी नहीं।2।
	तरह तरह की बातें
	हम जहाँ जायें मिले वह मति वहाँ।
	हित-बसन जिससे सदा उजला रहे।
	खोज में हैं, जाँयगे किस खोज में।
	आज तलवे हैं बहुत खुजला रहे।3।
	बे-तरह जल उठे न कैसे जी।
	देस को देख तंग ठलवों से।
	चिनगियाँ क्यों न आँख से छिटकें।
	आग लग जाय क्यों न तलवों से।4।
	रात दिन हम आप ही हैं जल रहे।
	बेतरह तुम क्यों जलाते हो मुझे।
	आग है वह क्यों लगाई जा रही।
	जो कि तलवों से लगे सिर में बुझे।5।
	क्यों न छिल-छिल जाँय छिद छलनी बनें।
	क्यों न पर-हित-रंग में रँगदुख सहें।
	गुर उन्हें है प्यार रंगत का मिला।
	क्यों न तलवे लाल ईंगुर से रहें।6।
	काल-करतूत ही निराली है।
	बन रहे थे कभी कमल-दल वे।
	तर अतर से कभी उन्हें पाया।
	भर गये धूल से कभी तलवे।7।
	है उन्हें लाभ से नहीं मतलब।
	क्यों न खल जाँय जब कि हैं खल वे।
	छेदते चूकते नहीं काँटे।
	क्या मिला छेद छेद कर तलवे।8।
	कब बुरी सुधारी बिना साँसत सहे।
	जब तनी तब चाँदनी ताने तनी।
	ठीक धुनिये के धुने रूई हुई।
	चोख तलबों के मले चीनी बनी।19।
	रात दिन दल लालसाओं का लिये।
	चल रहे थे चार सालों से ललक।
	तंग तलबेली हमें थी कर रही।
	आज पहुँचे बाल से तलवों तलक।20।