hindisamay head


अ+ अ-

रचनावली

हरिऔध् ग्रंथावली
खंड : 3
खड़ी बोली काव्य : बोलचाल

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

संपादन - तरुण कुमार

अनुक्रम

अनुक्रम बोलचाल विशेष वक्तव्य     आगे

मनुष्य को कभी-कभी ऐसा कार्य हाथ में लेना पड़ता है, जिसमें उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तिा नहीं होती, अब मैं एक ऐसा ही विषय हाथ में ले रहा हूँ, जिस पर मैं कुछ लिखना नहीं चाहता था। किन्तु कतिपय आवश्यक बातों पर प्रकाश डालना, उचित बोधा हो रहा है, अतएव मैं अब इसी अप्रिय कार्य में प्रवृत्ता होता हूँ। यह 'बोलचाल' नामक ग्रन्थ जिस भाषा में लिखा गया है, उसी भाषा में मेरे दो ग्रन्थ 'चुभते चौपदे' और 'चोखे चौपदे' नामक अब से चार वर्ष पहले प्रकाशित हो चुके हैं। कुछ सामयिक पत्राों में उनकी आलोचना हुई है, उचित आलोचना के विषय में मुझको कुछ वक्तव्य नहीं। किन्तु एक-दो पत्राों ने आलोचना करते-करते उक्त ग्रंथों के विषय में ऐसी बातें लिख दी हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि उन्होंने उनके प्रकाशन का उद्देश्य नहीं समझा। किसी-किसी ने कुछ शब्दों के प्रयोग पर भी तर्क किये हैं। मैं इन्हीं बातों पर कुछ लिखने की चेष्टा करता हूँ। यद्यपि ऐसा करना रूपान्तर से अपने ग्रंथों की आलोचना में आप प्रवृत्ता होना है, किन्तु मेरा लक्ष्य यह नहीं है, मैं कतिपय आवश्यक और तथ्य बातों पर प्रकाश डालने का ही इच्छुक हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि अपनी आलोचना आप करना, आजकल बुरा नहीं माना जाता, क्योंकि इससे कितनी अज्ञात बातें अंधाकार से प्रकाश में आ जाती हैं। तथापि मैं यही कहूँगा कि इस पथ का पथिक नहीं हूँ; कतिपय विशेष बातों के विषय में ही कुछ कहना चाहता हूँ।

रोजमर्रा अथवा बोलचाल और मुहावरों की उपयोगिता के विषय में पहले मैं बहुत कुछ लिख चुका हूँ। यथाशक्ति मैंने उसकी उपयोगिता का प्रतिपादन भी किया है। प्रसाद-गुण ही ऐसा गुण है जिसका आदर सब रसों में समान भाव से होता है, प्रसाद-गुण उस समय तक आ ही नहीं सकता, जब तक कविता का ऐसा शब्दविन्यास न हो, जिसको सुनते ही लोग समझ जावें। ऐसी सरलता कविता में तभी आवेगी, जब उसकी रचना बोलचाल के आधार पर होगी, अन्यथा उसका तत्काल हृदयंगम होना संभव पर न होगा, क्योंकि अपरिचित शब्द तात्कालिक बोधा के बाधाक होते हैं। शब्द-बोधा के बाद ही भाव का बोधा होता है,जहाँ शब्द-बोधा में बाधा पड़ी, वहीं भाव के समझने में व्याघात उपस्थित होता है, जहाँ यह अवस्था हुई, वहाँ प्रसाद-गुण स्वीकृत नहीं हो सकता। साहित्यदर्पणकार ने प्रसाद-गुण का जो लक्षण लिखा है, उससे अक्षरश: इस विचार की पुष्टि होती है; वे लिखते हैं-

चित्तां व्याप्नोति य: क्षिप्रं शुष्केन्धानमिवानल:।

स प्रसाद: समस्तेषु रसेषु रचनासु च।

शब्दास्तद्व्ज)का अर्थबोधाका: श्रुतिमात्रात:।

''जैसे सूखे ईंधान में अग्नि झट से व्याप्त होती है, इसी प्रकार जो गुण चित्ता में तुरंत व्याप्त हो, उसे प्रसाद कहते हैं। यह गुण समस्त रसों और सम्पूर्ण रचनाओं में रह सकता है। सुनते ही जिनका अर्थ प्रतीत हो जाय, ऐसे सरल और सुबोधा शब्द प्रसाद के व्यंजक होते हैं''-साहित्यदर्पण, द्वितीय भाग, पृष्ठ 64

यही कारण है कि कविता वही आदरणीय और प्रशंसनीय मानी जाती है, जिसके शब्द सरल और सुबोधा हों। लगभग प्रत्येक भाषा के विद्वान् इस विचार से सहमत हैं। कविवर मिल्टन लिखते हैं-

'Poetry ought to be simple, sensuous and impassioned''

''कविता को सरल, बोधागम्य और भावपूर्ण होना चाहिए।''

ऍंगरेजी का एक दूसरा विद्वान् कहता है "Simplicity is the best beauty" -सरलता (सादगी) सबसे बड़ी सुन्दरता है-

गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-

'' सरल कबित कीरति बिमल , तेहि आदरहिं सुजान ''

हिन्दी भाषा का एक दूसरा सुकवि कहता है-

'' जाके लागत ही तुरत , सिर डोलैं न सुजान।

ना वह है नीको कवित , ना वह तान न बान। ''

उर्दू के एक सहृदय कवि यह कहते हैं-

'' शेर दर-अस्ल हैं वही हसरत।

सुनते ही दिल में जो उतर जाये। ''

महाकवि अकबर क्या कहते हैं, उसको सुनिये-

'' समझ में साप+ आ जाये फष्साहत , इसको कहते हैं।

असर हो सुनने वालों पर ' बलाग़त ' इसको कहते हैं।

तुझे हम शायरों में क्यों न अकबर मुन्तख़ब समझें।

बयाँ ऐसा कि दिल माने , जबाँ ऐसी कि सब समझें। ''

इन दोनों शेरों में रूपान्तर से वे यही कहते हैं कि कविता की भाषा ऐसी ही होनी चाहिए जिसको सब समझ सकें। इसी का नाम प+साहत है, जिसे हम प्रसाद-गुण कहते हैं।

मिर्जा ग़ालिब उर्दू-संसार के माघ हैं। वे कविवर केशवदास के समान गूढ़ कविता के आचार्य हैं। अपनी गूढ़ कविताओं से लोगों को उद्विग्न होते देखकर एक बार उनको स्वयं यह कहना पड़ा था-

'' मुश्किल है जेबस कलाम मेरा ऐ दिल।

सुन सुन के उसे सख़ुनवराने कामिल।

आसाँ कहने की करते हैं प+र्मायश।

गोयम मुश्किल वगर न गोयम मुश्किल। ''

भाव के साथ उनका शब्द-विन्यास भी दुरूह होता था, जैसा ऊपर के पद्य से प्रकट है। एक दिन उनकी इन बातों से घबराकर उनके सामने ही हकीम आग़ा जान ने भरे मुशायरे में ये शेर पढ़े थे-

'' मज़ा कहने का जब है यक कहे औ दूसरा समझे।

अगर अपना कहा तुम आप ही समझे तो क्या समझे।

कलामे मीर समझे औ ज़बाने मीरज़ा समझे।

मगर अपना कहा यह आप समझें या खुदा समझे। ''

भरी सभा में एक प्रतिष्ठित कवि को इस प्रकार लांछित क्यों होना पड़ा था? इसलिए कि उसकी कविता में सरलता नहीं होती थी। यह प्रसंग भी प्रसाद-गुणमयी कविता की ही महत्ताा प्रकट करता है।

उर्दू संसार में मीर अनीस की प+साहत प्रसिध्द है। मौलाना शिबली लिखते हैं-

''मीर अनीस के कमाल शायरी (महान कविकर्म) का बड़ा जौहर (गुण) यह है कि बावजूद इसके कि उन्होंने उर्दू शुअरा (कवियों) में से सबसे ज़ियादा अलप+ाज (शब्द) इस्तेमाल किये और सैकड़ों मुख्तलिप+ वावे+अात (विभिन्न प्रसंग) बयान करने की वजह से, हर किस्म और हर दर्जा के अलप+ाज (शब्द) उनको इस्तेमाल करने पड़े, ताहम उनके कलाम में ग़ैरप+सीह (प्रसाद-गुणरहित) अलप+ाज (शब्द) निहायत कम पाये जाते हैं।''

''मीर अनीस साहब के कलाम का बड़ा ख़ास्सा (गुण) यह है कि वह हर मौव+ा पर (प्रत्येक अवसर पर) प+सीह से प+सीह (अधिाक प्रसादगुण सम्पन्न) अलप+ाज (शब्द) गढ़ कर लाते हैं''-मवाज़िना दबीर व अनीस।

मीर अनीस अपने विषय में स्वयं क्या कहते हैं, उसको भी सुन लीजिए-

' मुरग़ाने खुशइलहान चमन बोलें क्या।

मर जाते हैं सुन के रोज़मर्रा मेरा। '

मौलाना शिबली साहब ने जिसे मीर अनीस की प+साहत बतलाई है, उसे स्वयं मीर साहब अपना रोजश्मर्रा कहते हैं। इससे भी यही पाया जाता है, कि सरल, सुबोधा, बोलचाल (रोजश्मर्रा) की भाषा में ही प+साहत मिलती है और सर्वप्रिय एवं आदरणीय प्राय: ऐसी ही भाषा की कविता होती है।

जो भाषा परिचित होती है, जिस भाषा के शब्द अधिाकतर जिह्ना पर आते रहते हैं, जिनको कान प्राय: सुनता रहता है, वे ही शब्द सुबोधा हो सकते हैं और उन्हीं में सरलता भी होती है। ऐसे शब्द उसी भाषा के होते हैं, जो बोलचाल की है। इसीलिए उत्ताम कविता वही मानी जाती है, जिसमें बोलचाल का रंग रहता है। भाषा बोलचाल से जितनी ही अधिाक दूर होती जाती है,उतनी ही उसकी दुरूहता बढ़ती जाती है। कवि और ग्रन्थकार विशेष अवस्थाओं में ऐसी दुरूह भाषा लिखने के लिए भी बाधय होता है, किन्तु उसमें व्यापकता कम होती है और विशेष अवस्थाओं में उसमें प्रसाद-गुणमयी भाषा के समान स्थायिता भी नहीं होती।

यह बात उसी भाषा के लिए कही जा सकती है, जिसका सम्बन्धा प्राय: सर्वसाधारण से होता है। दर्शन अथवा विज्ञान आदि गंभीर विषयों के सम्बन्धा में यह बात नहीं कही जा सकती, उनकी भाषा प्राय: दुरूह होती ही है। कविता का सम्बन्धा अधिाकतर सर्वसाधारण से होता है, उनकी शिक्षा-दीक्षा अथवा उनके आमोद-प्रमोद एवं उत्थान के लिए वह अधिाक उपयोगिनी समझी जाती है, इसलिए उसका सरल और सुबोधा होना आवश्यक है। इन्हीं सब बातों पर दृष्टि रखकर और हिन्दी-संसार के साहित्य-सेवियों और प्रेमियों की दृष्टि बोलचाल और मुहावरों की ओर विशेषतया आकृष्ट करने के लिए मुझको ऐसी पुस्तक लिखने की आवश्यकता जान पड़ी, जो कि बोलचाल में हो, और जिसमें मुहावरों का पुट पर्याप्त हो। मैं इसी चिन्ता में था कि अकस्मात् एक दिन एक नमूना मेरे सामने उपस्थित हो गया। मैं उसी को आदर्श मानकर कार्यक्षेत्रा में उतरा और उसी के फल, 'चुभते चौपदे', 'चोखे चौपदे' और यह 'बोलचाल' नामक ग्रंथ हैं। पूरा विवरण इसका मैं ग्रन्थ के आदि में लिख चुका हूँ।

इस बोलचाल नामक ग्रंथ में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

1. ग्रन्थ आदि से अंत तक हिन्दी तद्भव शब्दों में लिखा गया है, संस्कृत के तत्सम शब्द बहुत कम आये हैं, अधिाकांश वे ही तत्सम शब्द गृहीत हैं, जो तद्भव शब्दों के समान ही व्यापक और सर्वसाधारण मेंव्यवहृतहैं।

2. ग्रन्थ में आदि से अंत तक बोलचाल की रक्षा की गई है, सर्वसाधारण की खड़ी बोली ही उसका आदर्श है, यदि कहीं कुछ थोड़ा अन्तर है तो उसके कारण पद्यगत और कवितागत विशेषताएँ हैं।

3. ग्रन्थ में बाल से तलवे तक, अंगों के जितने मुहावरे हैं, उनमें से अधिाकांश आ गये हैं। पद्य में उनका प्रयोग प्राय: इस प्रकार किया गया है, कि वह पद्य ही उसके व्यवहार प्रणाली का शिक्षक हो सके।

4. अन्य भाषा के शब्द तथा दूसरे देशज वे सब शब्द भी ले लिये गये हैं, जो सर्वसाधारण में प्रचलित हैं और जिनका व्यवहार हिंदी तद्भव शब्द के समान जनता में होता है, केवल इतना धयान अवश्य रखा गया है कि वे हिंदी 'टाइप' के हों।

5. बोलचाल में प्रचलित अनेक शब्द ऐसे हैं जो बहुत व्यापक हैं, भावमय हैं, विशेषार्थ के द्योतक हैं और अधिाक विचार थोड़े में प्रकट करने के साधान हैं, किंतु लिखित भाषा में उनका स्थान नहीं है, मैंने कुछ ऐसे शब्द भी ग्रहण कर लिये हैं। अपनी संकीर्णता का दूरीकरण और उनकी रक्षा की ममता इसके हेतु हैं।

जिन विशेषताओं का मैंने उल्लेख किया है, उनकी विस्तृत व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती, प्रस्तुत ग्रंथ के कुछ पद्य ही उसके प्रमाण हैं। कुछ बातें ऐसी हैं, जिनको मैं और अधिाक स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। हिन्दी के मुख्य आधार उसके तद्भव शब्द हैं, उनके स्थान पर तत्सम शब्दों का प्रयोग करना उसके वास्तविक रूप को विकृत करना है। आजकल की हिन्दी कविता को उठा कर देखिये तो उसमें प्रतिशत 75 संस्कृत के तत्सम शब्द मिलेंगे, किसी-किसी पद्य में वे प्रतिशत 95पाये जाते हैं। हिन्दी की जो बहुत सरल कविता होती है, उसमें भी प्रतिशत 25 से कम संस्कृत के तत्सम शब्द नहीं होते। कदाचित् ही कोई ऐसी कविता मिलेगी, जिसमें वे प्रतिशत 10 हों। ब्रजभाषा की कितनी कविताएँ अवश्य ऐसी हैं, जिनमें प्रतिशत5 या इससे भी कम संस्कृत के तत्सम शब्द पाये जाते हैं, किन्तु उसमें प्राय: अर्ध्दतत्सम शब्दों की अधिाकता है। उर्दू गद्य पद्य की अवस्था हिन्दी के वर्तमान गद्य पद्य की-सी है, उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों के स्थान पर अरबी-फारसी शब्दों की भरमार है। फिर भी उर्दू में रोजश्मर्रा का बड़ा धयान है, इसलिए उसमें कुछ शेर ऐसे मिल जाते हैं, जिनमें केवल हिन्दी के तद्भव शब्दों का प्रयोग होता है, किन्तु पूरी ग़जल ऐसी नहीं मिलती, किताब ऐसी मिलेगी ही नहीं। हिन्दी में भी खोजने पर ऐसी दो-चार कविताओं का मिल जाना असंभव न होगा, जो तद्भव शब्दों में लिखी गई हों। किन्तु इधार दृष्टि किसी की नहीं गई। अतएव किसी ने तद्भव शब्दों में सौ-दो सौ पद्य लिखने का उद्योग नहीं किया, और न इस बात का धयान रखा कि तद्भव शब्दों में कविता लिखने के समय उसमें अप्रचलित तत्सम शब्द आवें ही नहीं। मैंने इस बात का उद्योग किया और तद्भव शब्दों में ही बोलचाल नामक ग्रन्थ को लिखा। अधिाकांश कविता इस ग्रन्थ की ऐसी ही हैं, यदि किसी कविता में अप्रचलित तत्सम शब्द आ भी गये हैं, तो वे शायद ही प्रतिशत 5 से अधिाक होंगे, ऐसे पद्य भी प्रतिशत एक से अधिाक न पाये जावेंगे। इसीलिए मैंने यह लिखा है, कि प्रस्तुत ग्रन्थ की विशेषता यह है कि वह तद्भव शब्दों में लिखा गया है।

दूसरी, तीसरी और चौथी विशेषताओं के विषय में कुछ लिखना आवश्यक नहीं। मैं कुछ पद्य आगे चलकर लिखूँगा, उनके द्वारा आप लोग स्वयं यह निश्चय कर सकेंगे कि मेरे कथन में कितनी सत्यता है। पाँचवीं विशेषता के विषय में केवल इतना निवेदन करना मैं उचित समझता हूँ कि अव्यवहृत कुछ शब्दों को ग्रहण करके मैंने कोई अनुचित कार्य नहीं किया है। यदि लिखित अथवा काव्य की भाषा को बोलचाल की भाषा रखना है, या अधिाकतर उसको उसका निकटवर्ती बनाना है, तो बोलचाल के व्यापक और विशेषार्थ-द्योतक शब्दों का त्याग न होना चाहिए। देखा जाता है कि उनके स्थान पर हम अन्य भाषा के शब्दों से काम ले रहे हैं, और दिन-दिन उनको भूलते जा रहे हैं। ऐसा करना अपनी मातृ भाषा पर अत्याचार करना है। मैंने अनेक उर्दू बोलने वालों और बोलचाल में अधिाकतर ऍंगरेजी-शब्द प्रयोग करने वाले सज्जनों को देखा है, कि कभी-कभी चेष्टा करने पर भी न तो उनको हिन्दी-शब्द याद आते हैं, और न वे उनका प्रयोग कर सकते हैं। यह हमारी दुर्बलता है, और इससे हमारी जातीयता कलंकित होती है। मेरा विचार है कि हिन्दी के उपयोगी और व्यापक शब्दों को मरने न देना चाहिए, और पूर्ण उद्योग के साथ उनको जीवित रखना चाहिए। यह सजीवता का चिद्द है, संकीर्णता का नहीं। जितनी सजीव जातियाँ हैं, उन सबमें इस प्रकार की ममता पायी जाती है। यदि कोई न्यूनता हमारे शब्दों अथवा भाषा में हो तो उसका सुधार हम कर सकते हैं, किन्तु उनका त्याग उचित नहीं। मैंने इसी विचार से अनेक शब्दों के जीवित रखने की चेष्टा की है। बोलचाल की भाषा लिखने का उद्योग करके मुझको कहीं-कहीं विवश होकर ऐसा करना पड़ता है। इसका यह अर्थ नहीं कि ग्रामीण शब्दों का प्रयोग करके मैंने अपने शब्दाधिाकार को कलंकित किया है, और काव्य-शास्त्रा के एक विशेष नियम को तोड़ा है। वरन् इसका यह अर्थ है कि मैंने एक उपयुक्त शब्द की जीवन-रक्षा करके अपनी मातृभाषा की सेवा की है और उसको विस्तृत बनाने का उद्योग किया है। इस प्रकार का प्रयत्न अनुचित नहीं वरन् विद्वानों द्वारा समर्थित है। मिस्टर स्मिथ कहते हैं-

1''ड्राइडेन के समय के पश्चात् ऍंगरेजी भाषा में मुहावरों की संख्या बहुत बढ़ी है, विशेषतया 19वीं शताब्दी में इनकी बहुत वृध्दि हुई। पुराने ऍंगरेजी-साहित्य के अधययन ने केवल लुप्त शब्दों का ही नहीं, प्रत्युत पुराने शब्द-समुदाय का भी-जिन्हें हम आधा भूल चुके थे-पुनरुध्दार किया है।''

कतिपय अव्यवहृत शब्द के व्यवहार के विषय में मैंने जो कुछ लिखा, आशा है उसके औचित्य को विचार-दृष्टि से देखा जायेगा। संभव है कुछ भाषा-मर्मज्ञ मेरे विचार से सहमत न हों, किन्तु यह मतभिन्नता है, जो स्वाभाविक है।

जिन पद्यों के लिखने का उल्लेख मैं पहले कर आया हूँ, वे अब लिखेजातेहैं-

1. हैं गये तन बिन बहुत , सब छिन गया। लोग काँटे , हैं घरों में बो रहे।

है मुसीबत का नगाड़ा बज रहा। पाँव पर रख पाँव हम हैं सो रहे।

× × ×

2. लुट गये पिट उठे गये पटके। आँख के भी बिलट गये कोये।

पड़ बुरी फूट के बखेड़ों में। कब नहीं फूट फूट कर रोये।

× × ×

3. जो हमें सूझता , समझ होती। बैर बकवाद में न दिन कटता।

आँख होती अगर न फूट गई। देखकर फूट क्यों न दिल प+टता।

1. Since the time of Dryden, the number of idioms in the English language has greatly increased, and in the nineteenth century in especial, very great additions were made to this part of our vocabulary. The study of our older literature restored to us not only words which had fallen absolute, but also many old terms of phrase which had been half forgotten. (Words and idioms. p. 274).

4. है टपक बेताब करती बेतरह। हैं न हाथों से बला के छूटते।

टूटते पाके पके जी के नहीं। हैं नहीं दिल के फफोले फूटते।

× × ×

5. बेबसी बाँट में पड़ी जब है। जायगी नुच न किसलिए बोटी।

चोट पर चोट तब न क्यों होगी। जब दबी पाँव के तले चोटी।

× × ×

6. कर सकें हम बराबरी कैसे। हैं हमें रंगतें मिली फीकी।

हम कसर हैं निकालते जी से। वे कसर हैं निकालते जी की।

× × ×

7. बात अपने भाग की हम क्या कहें। हम कहाँ तक जी करें अपनाकड़ा।

फट गया जी फाट में हमको मिला। बँट गया जी बाँट में मेरे पड़ा।

× × ×

8. देखिये चेहरा उतर मेरा गया। हैं कलेजे में उतरते दुख नये।

फेर में हम हैं उतरने के पड़े। आँख से उतरे उतर जी से गये।

× × ×

9. हैं बखेड़े सैकड़ों पीछे पड़े। हैं बुरा काँटा जिगर में गड़ गया।

फँस गये हैं उलझनों के जाल में। है बड़े जंजाल में जी पड़ गया।

× × ×

10. हैं लगाती न ठेस किस दिल को। टेकियों की ठसक भरी टेकें।

है कपट काट छाँट कब अच्छी। पेट को काट कर कहाँ फेंकें।

दूसरी, तीसरी और चौथी विशेषताओं पर इन पद्यों को कसिये, उस समय आप समझ सकेंगे, कि उनमें वास्तवता है या नहीं। मैं एक-एक पद्य की आलोचना करके अपने दावा को सिध्द करने में प्रवृत्ता नहीं होना चाहता, क्योंकि न तो ऐसा करना उचित जान पड़ता है और न इस भूमिका में इतना स्थान है। जो बात सत्य है, खोजियों की सूक्ष्म दृष्टि से वह छिपी न रहेगी,सत्य में स्वयं शक्ति होती है, वह बिना प्रकट हुए नहीं रहता। समय-समय पर कुछ सज्जनों ने इस प्रकार के पद्यों के भाव,भाषा और ढंग के विषय में जो सम्मति मुझसे प्रकट की है, उसकी चर्चा इस अवसर पर मैं अवश्य करना चाहता हूँ, जिससे उनकी सम्मति के विषय में अपना वक्तव्य प्रकट कर सकूँ।

एक हिन्दी भाषा के प्रसिध्द विद्वान् ने मेरे चौपदों की चर्चा करके मुझसे एक बार कहा-'मैं उसकी भाषा को हिन्दी नहीं कह सकता। मैंने कहा, उर्दू कहिये। उन्होंने कहा, उर्दू भी नहीं कह सकता। मैंने कहा, हिन्दुस्तानी कहिये। उन्होंने कहा, मैं इसको हिन्दी उर्दू के बीच की भाषा कह सकता हूँ। मैंने कहा, हिन्दुस्तानी ऐसी ही भाषा को तो कहते हैं। उन्होंने कहा, हिन्दुस्तानी में उर्दू का पुट अधिाक होता है, इसमें हिन्दी का पुट अधिाक है। मैंने निवेदन किया, फिर आप इसको हिन्दी ही क्यों नहीं मानते! उन्होंने कहा, चौपदों की बÐ उर्दू, उसके कहने के ढंग उर्दू, उसमें उर्दू की ही चाशनी और उर्दू का-सा रंग है, उसकी भाषा चटपटी भी वैसी है, उसे हिन्दी कहूँ तो कैसे कहूँ! मैंने कहा, तो इस उलझन को आप सुलझाना नहीं चाहते। उन्होंने कहा,उलझन सुलझते ही सुलझते सुलझती है, शायद कभी सुलझ जावे। आपके चौपदों को पढ़कर मेरे हृदय की विचित्रा गति हो जाती है, मैं उसकी भाषा को विचित्रा ही कहूँगा।'

मौलवी अहमद अली प+ारसी के विद्वान और उर्दू के एक सहृदय कवि थे, खास निजामाबाद के रहने वाले थे, हाल में उनका स्वर्गवास हो गया। वे मेरे पास आजमगढ़ में जब आते, तब कुछ चौपदे मुझसे सुनते। कभी प्रसन्न होते, कभी कहते-यह तो 'उलटी गंगा बहाना है' भई; इसको तो मैं कोई जबान नहीं मान सकता। यदि मैं पूछता, क्यों? तो कहते, यह हिन्दी तो है नहीं, उर्दू भी नहीं है, यह तो एक मनगढ़न्त भाषा है। यदि मैं पूछता, आप हिन्दी किसे मानते हैं और किसे उर्दू, तो कहते हिन्दी मैं उसे मानता हूँ, जिसमें संस्कृत शब्द हों, जैसे गोस्वामीजी की रामायण। उर्दू वह है जो फारसी अरबी शब्दों से मालामाल हो, इसमें दोनों बातें नहीं हैं, इससे मैं इसको कोई जबान नहीं मान सकता। एक दिन मैंने उनको निम्नलिखित पद्य सुनाये, और पूछा, कृपा कर बतलाइये ये किस भाषा के पद्य हैं?

आके तब बैठता है वह हम पास।

आपमें जब हमें नहीं पाता।

क्या हँसे अब कोई औ क्या रो सके।

जो ठिकाने हो तो सब कुछ हो सके।

मुँह देखते ही उसका आँ सू मेरा बहाना।

रोने का अपने या रब! अब क्या करूँ बहाना।

- हसन

लोग घबरा के यह कहते हैं कि मर जायेंगे।

मर के गर चैन न पाया तो किधार जायेंगे।

- ज़ौव+

कहने लगे-'उर्दू के'। मैंने कहा-क्यों? पहले, दूसरे पद्यों में एक भी फारसी अरबी का शब्द नहीं है, तीसरे, चौथे पद्यों में एक-एक शब्द अरबी-फारसी का है, ये कुल पद्य हिन्दी शब्दों ही से मालामाल हैं, इन्हें आप उर्दू पद्य क्यों कहते हैं? ऐसे ही पद्य मेरे भी तो हैं। कहने लगे कि-हाँ, ऐसे ही पद्य आपके भी हैं, किन्तु उनमें बहुत से हिन्दी के ऐसे शब्द आये हैं, जिनका व्यवहार उर्दू में नहीं होता, जैसे-नेह, पत इत्यादि। आप कभी-कभी संस्कृत शब्दों का भी व्यवहार करते हैं, जैसे वीर, अनेक आदि। यह बात उर्दू के नियम के अनुकूल नहीं, इसलिए मैं चौपदों को उर्दू का पद्य नहीं मान सकता। मैंने कहा-मौलाना अकबर और मौलाना हाली के नीचे लिखे पद्यों को आप किस भाषा का कहेंगे। दोनों के पद्यों में 'परोजन', 'भोजन', 'कथा' और 'अटल' ऐसे ठेठ हिन्दी और संस्कृत के शब्द मौजूद हैं-

दुनिया तो चाहती है हंगामये परोजन A

याँ तो है जेब खाली जो मिल गया वह भोजन A

- अकबर

चाहो तो कथा हमसे हमारी सुन लो।

है टैक्स का वक्त भी इसी तरह अटल A

- हाली

बोले,-उर्दू ही कहूँगा, दो-एक संस्कृत शब्दों के आने से वे हिन्दी के पद्य थोड़े ही हो जावेंगे! मैंने कहा, चौपदों पर आपकी ऐसी निगाह क्यों नहीं पड़ती! कहने लगे-चौपदों के वाक्यों में उर्दू तरकीब बिलकुल नहीं मिलती। उसकी वाक्य-रचना अधिाकतर हिन्दी के ढंग की है। हिन्दी का कोई अच्छा शब्द न मिलने पर आपने उसके स्थान पर पद्य में संस्कृत का शब्द ही रखा है,फारसी अरबी का शब्द कभी नहीं रखा, फिर मैं उसे उर्दू कैसे कह सकता हूँ! उर्दू के ढंग की रचना चौपदों की अवश्य है, परन्तु रंग उस पर हिन्दी का ही चढ़ा है। मैंने कहा तो उसे हिन्दुस्तानी कहिये। उन्होंने कहा, मैं हिन्दुस्तानी कोई जबान नहीं मानता;खिचड़ी ज़बान मैं उसे अवश्य कह सकता हूँ। वे ऐसी ही बातें कहते-कहते उठ पड़ते, चलते-चलते कहते-''आप इसे नई हिन्दी भले ही मान लें, पुरानी हिन्दी तो यह हरगिज़ नहीं है और न उर्दू है।''

एक दिन खड़ी बोली के कट्टर प्रेमी एक नवयुवक आये; छेड़ कर चौपदों की चर्चा की, और बातों-बातों में कह पड़े-''चौपदों की भाषा बेजान-सी मालूम पड़ती है। मैंने कहा, उसकी जान मुहावरे हैं। वे बोले, जिसके पास शब्द भण्डार है, वह मुहावरों को कुछ नहीं समझता। मैंने कहा, आप लोग तो ब्रजभाषा जैसी मधुर भाषा को भी निर्जीव मानते हैं। उन्होंने कहा, निस्सन्देह! उसके जितने शब्द हैं सब ऐसे ज्ञात होते हैं, मानो उन पर ओस पड़ गयी है। मैंने कहा, शायद आप 'शुभ्रज्योत्स्ना', 'दीर्घ उच्छ्वास', 'प्रचण्ड दोर्दण्ड' और 'विचारोत्कृष्टता' जैसे शब्दसमूह को पसंद करते हैं। उन्होंने कहा, अवश्य, देखिए न शब्दों में कितना ओज ज्ञात होता है। उसास और उच्छ्वास को मिलाइए, पहले शब्द की साँस निकलती जान पड़ती है, दूसरा शब्द ओज-गिरिशिखर पर चढ़ता ज्ञात होता है। मैंने कहा, यह आपका संस्कार है, किन्तु आपको यह जानना चाहिए कि साहित्य-संसार में सरल, सुबोधा और कोमल पदावली ही आदृत होती आती है। गौड़ी से वैदर्भी का ही स्थान उच्च है। जिन रसों में परुष शब्दयोजना संगत मानी गयी है, उन रसों का वर्णन करते समय परुष शब्दावली में सरल, सुबोधा शब्दमाला का अन्तर्निहित चमत्कार ही लोगों को चमत्कृत करता है। ब्रजभाषा संसार की समस्त मधुर भाषाओं में से एक है, उसके शब्दों पर ओस नहीं पड़ गयी है, वे सुधा से धुले हुए हैं। यह दूसरी बात है कि हम फूल को फूल न समझकर काँटा समझें। मयंक में यदि किसी को कल-अंक ही दिखलाई पड़ता है, तो यह उसका दृष्टिदोष है, मयंक को इससे कोई क्षति नहीं। मेरी बातों को सुनकर उन्होंने जी में यह तो अवश्य कहा होगा, कि आपका भी तो यह एक संस्कार ही है, परन्तु प्रकट में यह कहा-चौपदे सरल सुबोधा अवश्य हैं, परन्तु हम लोगों को उतने रोचक नहीं जान पड़ते। मैंने कहा, यह भी रुचि की बात है, ''भिन्न रुचिर्हिलोक:''।

चौपदों की भाषा के विषय में आये दिन इसी प्रकार की बातें सुनी जाती हैं, अपना विचार प्रकट करने का अधिाकार सबको है, किन्तु तर्क करने वालों की बातों में ही रूपान्तर से मेरा पक्ष मौजूद है। वास्तव बात तो यह है कि चौपदों की भाषा ऐसी है कि उसको हिन्दी में छाप दीजिए तो वह हिन्दी और प+ारसी अक्षरों में छाप दीजिए तो उर्दू बन जायेगी। थोड़े से अव्यवहृत शब्दों के झगडे क़ोई झगड़े नहीं; उर्दू के बड़े-बड़े कवि भी इस प्रकार के तर्कों से नहीं छूटे। यदि हिन्दुस्तानी भाषा हो सकती है,तो ऐसी ही भाषा हो सकती है। किन्तु मैं तो उसे तद्भव शब्दों में लिखी गयी, सरल और सुबोधा हिन्दी ही मानता हूँ, अधिाकतर पद्यों में बोलचाल का निर्वाह होने से वह और साफ-सुथरी हो गयी है। बहुतों को वह पसंद आई है, कुछ उससे नाक-भौं सिकोडें तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। सब वस्तु सबको प्यारी नहीं होती।

पद्यों के कवित्व के विषय में 'काव्य की भाषा', शीर्षक स्तंभ में अपना वक्तव्य प्रकट कर आया हूँ, यहाँ इतना और लिख देना चाहता हूँ कि प्रस्तुत ग्रन्थ का कोई पद्य शब्दालंकार और अर्थालंकार से रहित नहीं है। उसके पद्यों में शिक्षा, उपदेश,सदाचार और लोकाचार का सुन्दर चित्रा है, उसमें अनेक मानसिक भावों का उद्धाटन है। ग्रन्थ में शृंगार रस का लेश नहीं, न उसमें कहीं अश्लीलता है। कितने भाव उसमें नये हैं, इतने नये कि कदाचित् ही किसी लेखनी ने उसको स्पर्श किया हो। उदाहरण स्वरूप इस प्रकार के कुछ पद्य नीचे उध्दृत किये जाते हैं-

1. पास तक भी फटक नहीं पाते। सैकड़ों ताड़ झाड़ सहते हैं।

आप में कुछ कमाल ऐसा है। फिर भी सिर पर सवार रहते हैं।

× × ×

2. जो बहुत मानते हैं उनके पास से। चाह होती है कि कब कैसे टलें।

जो मिलें जी खोल कर उनके यहाँ। चाहता है जी कि सिर के बलचलें।

× × ×

3. चाह जो यह है कि हाथों से पले। पेड़ पौधों से अनूठे फल चखें।

तो जिसे हैं आँख में रखते सदा। चाहिए हम आँख भी उस पर रखें।

× × ×

4. किस तरह से सँभल सकेंगे वे। अपने को जो नहीं सँभालेंगे।

क्यों न खो देंगे आँख का तिल वे। आँख का तेल जो निकालेंगे।

× × ×

5. जो रही मा मकान की फिरकी। वह मिले कुछ अजीब बहलावे।

हो गई सास गेह पर लट्टई। पाँव कैसे न फेरने जावे।

इतना गुण होने पर भी यदि कुछ सज्जन यही समझें कि मैंने चौपदों को लिख कर अपना समय नष्ट किया है; यदि'चुभते चौपदे' के देशदशा और समाज-दुर्दशा सम्बन्धाी पद्य उनके हृदय को न लुभावें, यदि 'चोखे चौपदे' के भावमय पद्य उनकी भावुकता पर प्रभाव न डालें, यदि 'बोलचाल' के पद्यों से मुहावरों के व्यवहार की शिक्षा उनको न मिले, यदि उसके कवित्व-गुण उनके मन को विमुग्धा न करें, और वे अपनी भौंहों की बाँकमता को अधिाक बंक बनाने में ही अपनी साहित्य-मर्मज्ञता समझें तो मैं यही कहूँगा-

न सितायश की तमन्ना न सिला की पर्वा।

न सही गर मेरे अशआर में मानी न सही।

- ग़ालिब

सामयिक अवज्ञा से कोई नहीं बचा, इसकी ओट में ईर्षा, द्वेष, अहम्मन्यता, असहिष्णुता और मानसिक दुर्बलता भी छिपी रहती है, इसलिए इसमें विलक्षण व्यापकता है। संस्कृत संसार के अभूतपूर्व महाकवि भवभूति भी इसकी चपेटों से न बचे, अपने क्षोभ को इन शब्दों में प्रकट करते हैं-

' ये नाम केचिदिह न: प्रथयन्त्यवज्ञां जानन्तु ते किमपि तान्प्रति नैष यत्न:।

उत्पत्स्यतेपि मम कोपि समानधार्मा कालोप्ययं निरवधिार्विपुला च पृथ्वी। '

ऐसी अवस्था में कोई साहित्यिक अपने को सुरक्षित नहीं समझ सकता, और न मैंने सुरक्षित रहने के उद्देश्य से प्रस्तुत ग्रंथ का कुछ परिचय देने की चेष्टा की है। मेरा लक्ष्य उसका वास्तविक स्वरूप प्रकट कर देने का है, जिससे उसके सिध्दान्तों और भाषा आदि के विषय में भ्रान्ति न हो। कवियों की प्राचीन परम्परा यह भी है कि वे अपने मुख से अपनी बहुत कुछ प्रशंसा करते हैं। पण्डितराज-जगन्नाथ अपने विषय में यह लिखते हैं-

' गिरां देवी वीणा गुणरणनहीनादरकरा।

यदीयानां वाचाममृतमयमाचामति रसम्।

वचस्तस्याकर्ण्य श्रवणसुभगं पण्डितपते।

रधुन्वन्मूधर्ाानं नृपशुरथवायं पशुपति:। '

सुधावर्षी सुकवि जयदेवजी अपने विषय में यह कहते हैं-

' यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्।

धु रकोमलकान्तपदावली शृणु तदा जयदेव सरस्वतीम्। '

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र की आत्मश्लाघा देखिये-

' परम प्रेमनिधिा रसिकवर , अति उदार गुनखान।

जग जनरंजन आशु कवि , को हरिचन्द्र समान।

जग जिन तृण सम करि तज्यो , अपने प्रेम प्रभाव।

करि गुलाब सों आचमन , लीजत वाको नाँव। '

उर्दू कवियों में यह रंग बहुत गहरा है। अनीस और मौलाना अकबर की आत्मप्रशंसा आप सुन चुके हैं, कुछ कवियों की और सुनिये। ग़ालिब कहते हैं-

' रेख़ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब।

सुनते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था। '

दाग़ का दिलदिमाग़ देखिये-

' तेरी आतिश बयानी दाग़ रोशन है ज़माने पर।

पिघल जाता है मिस्ले शमा दिल हर इक सखुनदाँ का। '

इन्शाअल्लाह खाँ की ऊँची उड़ान विचित्रा है-

' यक तिफ्ले दविस्ताँ है फलातँ मेरे आगे।

क्या मूँ है अरस्तू जो करे चूँ मेरे आगे।

बोले है यही खाम: कि किस किस को मैं बाँ धू ँ।

बादल से चले आते हैं मज़मूँ मेरे आगे। '

किन्तु मैं इस पथ का पथिक नहीं-'नवे सो गरुआ होय' सिध्दान्त ही मुझको प्यारा है, यही मेरा जीवनमंत्रा है। इष्ट यह था कि चौपदों की भाषा, भाव आदि के विषय में जो अयथा बातें कही गयी हैं, उनको मैं स्पष्ट कर दूँ। मैंने उनका पूरा स्पष्टीकरण करके यही किया है। यदि ऐसा करने में कुछ अनौचित्य हुआ हो तो वह परिमार्जनीय है।

कुछ शब्दों के व्यवहार और उनके लिंग के विषय में भी तर्क किये गये हैं। ऐसे शब्दों के विषय में मेरा वक्तव्य क्या है,उसे प्रकट कर चुका हूँ। एक शब्द को उदाहरण की भाँति उपस्थित करके मैं इस विषय को और स्पष्ट करूँगा। मैंने कहीं-कहीं'कचट' शब्द का प्रयोग किया है, जैसे-'जी की कचट'। जनता की बोलचाल में यह शब्द व्यवहृत है, किन्तु लिखित भाषा में इसका प्रयोग लगभग नहीं पाया जाता। किन्तु 'कचट' शब्द जिस भाव का द्योतक है, उस भाव का पर्यायवाची शब्द न मुझको संस्कृत में ही मिलता है, न अरबी अथवा फारसी ही में। ऍंग्रेजी में भी शायद न मिलेगा। ऐसी अवस्था में यदि उसका प्रयोग हिन्दी कविता में किया गया, तो मेरा विचार है कि यह कार्य अनुचित नहीं हुआ। कविता के लिए लम्बे-लम्बे वाक्यों से एक उचित शब्द का प्रयोग अधिाक उपकारक और भावमय होता है, इस बात को कौन सहृदय न मनेगा! फिर 'कचट' जैसा शब्द क्यों छोड़ा जावे, विशेषकर बोलचाल की भाषा लिखने में। 'कचट' शब्द ग्रामीण नहीं है, नागरिक है; इस प्रान्त के पूर्व भाग के कई नगरों में वह बोला जाता है, इसलिए ग्राम्य-दोष-दूषित वह नहीं माना जा सकता। यदि ग्राम्य-दोष-दूषित भी वह होता तो भी व्यापकता और भावमयता की दृष्टि से उसका त्याग उचित न कहा जाता, क्योंकि यही तो सहृदयता है। भाव और विचार की दृष्टि से जब ग्राम्य कविता भी आदरणीय हो जाती है, तो उपयुक्त ग्राम्य शब्द का आदर न करना क्या सुविवेक होगा! ऐसे कतिपय शब्दों के ग्रहण का उद्देश्य, आशा है, इन पंक्तियों से स्पष्ट हो गया होगा। संभव है यह मत सर्वमान्य न हो, किन्तु औचित्य और न्याय-दृष्टि से ही मैं अपना मत व्यक्त करने के लिए बाधय हुआ।

मैं पवन और वायु शब्द को स्त्राीलिंग लिखता हूँ। मेरी यह सीनाजोरी नहीं है; अधिाकांश प्राचीन कवियों ने इन शब्दों को स्त्राीलिंग ही लिखा है, फिर भी इसके स्त्राीलिंग लिखने पर तर्क किया गया है; प्राचीन प्रतिष्ठित लेखकों के कुछ पद्य प्रमाण-स्वरूप नीचे उध्दृत किये जाते हैं-

' अकेली भूलि परी बन माँह।

कोऊ बय बही कतहूँ की छूटि गई पिय बाँह। '

- सूरदास

' तुमहूँ लागी जगत गुरु , जगनायक जग बाय '

- बिहारी

' चली सीरी बाय तू चली नभो विहान री '

- गंग , कविता कौमुदी , पृ. 264

' साँस की पवन लागे कोसन भगत है '

- बेनी , कविता कौमुदी , पृ. 360

' बिना डुलाये ना मिलै , ज्यों पंखा की पौन '

- वृन्द , कविता कौमुदी , पृ. 386

' तैसी मंद सुगंधा पौनदिनमनि दुख दहनी '

- नागरी दास , कविता कौमुदी , पृ. 409

पौन बहैगी सुगंधिा ' ममारख ' लागैगी ही मैं सलाक सी आयकै

- ममारख , सुन्दरी तिलक

'' घनी घनी छाया में बन की पवन लागे

झुकि झुकि आवै नींद कल ना गहति है। ''

इसका अर्थ गद्य में यों करते हैं-

''घनी छाया में मन्दी और ठंडी पवन पाटलि के फूलों की सुगंधा लिये आती है, जिसके लगने से हृदय को सुख होता है।''

- राजा लक्ष्मण सिंह

''एक ओर से शीतल मन्द सुगन्धा पवन चली आती थी, दूसरी ओर से मृदंग और बीन की धवनि''

- राजा शिवप्रसाद-हिंदी निबंधामाला , प्रथम भाग , पृ‑ 40

'' फूले रैन फूल बागन में सीतल पौन चली सुखदाई ''

- हरिश्चंद्र , कर्पूर मंजरी

'' सन सन लगी सीरी पवन चलन ''

- हरिश्चंद्र , नील देवी

'' तथा सिन्धाु से चली वायु तहाँ पंखा शीत चलाती है ''

'' अभाव से नहिं बुझे नहीं लालसा पवन जिसको लागी ''

- पं. श्रीधार पाठक , ' श्रान्त पथिक ', पृ. 6, 11

''पवन तीन प्रकार की होती है शीतल, मन्द, सुगन्धा-जल स्पर्श करती हुई जो पवन चलती है उसे शीतल पवन कहते हैं। ठहर-ठहर कर धीमी गति से चलने वाली पवन को मन्द पवन कहते हैं, इत्यादि-

भानु कवि-काव्य प्रभाकर , पृष्ठ 361

श्रीधार भाषाकोष (पृ. 396) में पवन को स्त्राीलिंग लिखा है।

पं. कामताप्रसाद गुरु ने अपने हिन्दी व्याकरण में पवन को संस्कृत में पुंल्लिंग और हिन्दी में स्त्राीलिंग माना है।

बात यह है कि हिन्दी भाषा में बयार और बतास शब्द स्त्राीलिंग हैं, इन्हीं के साहचर्य से वायु और पवन को भी स्त्राीलिंग लिखा जाने लगा। कोई-कोई कहते हैं कि हवा, शब्द के संसर्ग से ही, पवन और वायु को भी स्त्राीलिंग लोग लिखने लगे, किन्तु मैं इसको स्वीकार नहीं करता। 'हवा' फारसी शब्द है। उसका व्यापक प्रचार होने के पहले ही उक्त शब्दों का स्त्राीलिंग लिखना प्रारम्भ हो गया था; सूरदास जी की कविता इस बात का प्रमाण है। पुस्तक, जप, औषधा, आत्मा, विनय आदि शब्द संस्कृत में पुल्लिंग लिखे जाते हैं, हिन्दी में स्त्राीलिंग। देवता संस्कृत में स्त्राीलिंग है, हिन्दी में पुल्लिंग। यदि ये प्रयोग तर्कयोग्य नहीं, तो पवन और वायु का स्त्राीलिंग में व्यवहार करना भी आक्षेपयोग्य नहीं। इस समय कुछ हिन्दी लेखक इन शब्दों को संस्कृत के अनुसार पुल्लिंग लिखते हैं, किन्तु अधिाकांश लोग अब भी इनको स्त्राीलिंग ही मानते हैं। यदि खड़ी बोली और सामयिक शुध्द परिवर्तनों की दुहाई देकर उक्त शब्दों का पुल्लिंग लिखना उचित समझा जावे, तो संस्कृत के उन अनेक शब्दों के लिंग को भी बदलना होगा, जिनका व्यवहार हिन्दी में उनके प्रयोग के प्रतिकूल किया जाता है। यदि सर्वसम्मत हो तो ऐसा करना, अथवा हो जाना असम्भव नहीं, किन्तु मैं समझता हूँ इसमें एकवाक्यता न होगी, क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि संस्कृत के अनुसार ही हिन्दी भाषा के सब प्रयोग हों। दोनों भाषाएँ भिन्न-भिन्न हैं; सुविधा के अनुसार हिन्दी भाषा स्वतंत्रा पथ ग्रहण कर सकती है। भाषा का नियम ही यही है, एक भाषा अन्य भाषा से आवश्यक शब्द लेती है, परन्तु उसको अपने रंग में ढाल देती है, और अपनी अवस्था के अनुसार उसमें परिवर्तन भी कर लेती है। मैं समझता हूँ, वायु और पवन शब्द अथवा इसी प्रकार के शब्दों को भी उभयलिंगी मान लेना ही उत्ताम है। प्रत्येक भाषा में ऐसे शब्द मिलेंगे। उर्दू का 'बुलबुल'शब्द भी ऐसा ही है। लखनऊ वाले कवि उसको पुल्लिंग और देहली वाले स्त्राीलिंग लिखते हैं। ऐसे ही दूसरी भाषाओं के भी अनेक शब्द बतलाये जा सकते हैं।

र् कत्ताव्यसूत्रा से मुझको 'बोलचाल' नामक ग्रन्थ के कतिपय विषयों पर प्रकाश डालना, और कतिपय शब्दों के प्रयोग के विषय में भी अपना विचार प्रकट करना आवश्यक बोधा हुआ। आशा है विबुधाजन उसी भाव से इन बातों को ग्रहण करेंगे, जिस भाव से कि वे लिखी गयी हैं। किसी विवाद के वशीभूत होकर मैंने ऐसा नहीं किया है; भ्रम, प्रमाद यदि कहीं दृष्टिगत हो तो,सूचना मिलने पर मैं उसको सच्चे हृदय से स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत हूँ।

मैंने इस भूमिका के लिखने में अनेक ग्रन्थों से सहायता ली है। मैंने उनके अवतरण भी आवश्यक स्थलों पर उठाये हैं,इसके लिए मैं उक्त ग्रन्थों के रचयिताओं का हृदय से कृतज्ञ हूँ, और विनीत भाव से उनके प्रति कृतज्ञता प्रकाश करताहूँ।

' काशी धाम ' - हरिऔधा


बाल

देव देव
चौपदे

बात कैसे बता सकें तेरी।

हैं मुँहों में लगे हुए ताले।

बावले बन गये न बोल सके।

बाल की खाल काढ़ने वाले।1।

पाँव मेरे हिले नहीं वाँ भी।

थे बखेड़े जहाँ अनेक मचे।

हर जगह मिल गये तुमारा बल।

सब बलाओं से बाल बाल बचे।2।

ठीक लौ जो लगी रहे हरि ओर।

तो करेगा न कुछ जगत-जंजाल।

जो न होती रहे कपट की काट।

क्या रखे और क्या कटाये बाल।3।

पा तुम्हें जो भूल अपने को गया।

वह डराये, कब किसी से डर सका।

जो कि प्यारे हाथ तेरे बिक गये।

कौन उनका बाल बाँका कर सका।4।

सब जगह जिसकी दिखाती है झलक।

जान उसको वे न जो अब तक सके।

तो हुए बूढ़े बने पक्के नहीं।

धूप में ही बाल उनके हैं पके।5।

निराले नगीने

कर रहे हैं न भूल, भूलों को।

जो भली बात हैं बता आते।

क्या बहुत ही मलीन होने से।

बाल मैले मले नहीं जाते।6।

बात बूढ़े जवान की क्या है।

टल सकीं कब बुरी लतें टाले।

बाँकपन को सुपेद होकर भी।

छोड़ते हैं न बाल घुँघुराले।7।

काम अपना निकालने में कब।

और पर और को दया आई।

दे सदा हाथ से जड़ों में जल।

काटते बाल कब कँपा नाई।8।

पाप को पाप जो न मानें, वे।

क्यों किसी पाप में न ढल जाते।

देख कर बाल क्यों न वे निगलें।

जो खड़े बाल हैं निगल जाते।9।

बने बरतन

मैं नहीं चाहता जवान बना।

क्या करें पेट सब कराता है।

कब भला सादगी पसंदों को।

बाल रँगना पसंद आता है।10।

है उन्हें काम मतलबों से ही।

वे करें क्यों सलूक किस नाते।

आँख से देख कर बिना हिचके।

जो खड़े बाल हैं निगल जाते।11।

लानतान

पढ़ चुके सारी कमाई हो चुकी।

हाथ सब कुछ हम अभागों के लगा।

जब तुमारा इस तरह आठो पहर।

बाल की ही खूँटियों पर जी टँगा।12।

मीठी चुटकी

बाप दादों की छोटाई की कभी।

इस छँटाई में न कुछ परवा रहे।

पर बता दो तज छटापन यह हमें।

हो छँटे क्यों बाल हो छँटवा रहे।13।

बोझ लादे हुए फिरे सिर पर।

दूसरों का बिगाड़ क्या पाये।

वह तुम्हीं को लिपट गई उलटे।

बाल रख कर भली बला लाये।14।

बात बात में बात

उस्तुरों से उड़े हवा में उड़े।

और दो चार पौडरों से उड़े।

इस तरह से उड़ा किये लेकिन।

पर लगाकर कभी न बाल उड़े।15।

रूप औ रंगतें बदलने के।

लग गये हैं उन्हें अजब चसके।

बात में बात यह मिली न्यारी।

बँधा गये कस गये मगर खसके।16।

लताड़

एक बेमुँहकी किसी दुधामुँही पर।

यों बिपत ढाना न तुमको चाहिए।

चूसने को उस बिचारी का लहू।

बाल चुनवाना न तुमको चाहिए।17।

बुरी लत

संगतें की भली सँभाल चले।

पर भला किस तरह कुबान छुटे।

जी करे है चपत जमाने को।

देख करके किसी के बाल घुटे।18।

दुनियादारी

टूटना जब कि चाहिए था जाल।

तब गया और भी जकड़ जंजाल।

बढ़ गई और भी सुखों की भूख।

जब कि खिचड़ी हुए हमारे बाल।19।

अन्योक्ति

क्यों न लहरा लहर उठायें वे।

साँप कह लोग तो डरे ही हैं।

आँख में धूल क्यों न वे झोंकें।

बाल तो धूल से भरे ही हैं।20।

हैं अगर बारबार धुल निखरे।

तो करें बेतरह न नखरे ए।

जो खरे हैं न तो खरे मत हों।

बिख बिखेरें न बाल बिखरे ए।21।

बीर जैसा जमा उन्हें देखा।

जब कटे आन बान साथ कटे।

कब दबे बाल के बराबर भी।

बाल भर भी कभी न बाल हटे।22।

है बुराई में भलाई रंग भी।

नेह में 'रूखा बहुत बनकर' सना।

है छँटाने से छटा उसको मिली।

जब बना तब बाल बनवाये बना।23।

जब मिले तब मिले बड़े सीधो।

चौगुने नेह चाह को देखो।

हैं धुले धूल से भरे भी हैं।

बाल के बालभाव को देखो।24।

गूँधा डाले गये गये खोले।

तेल उन पर मले गये तो क्या।

वे जगह पर जमे रहे अपनी।

बाल पर जो छुरे चले तो क्या।25।

आप उन पर पड़ी न अच्छी आँख।

दूसरों को दिया भरम में डाल।

छोड़ अपना सियाह असली रंग।

हैं खटकते किसे न भूरे बाल।26।

छूटना है मुहाल खोटा रंग।

जल्द आई पसंद गंदी चाल।

धो सियाही सके न धुल सौ बार।

भर गये धूल में भले ही बाल।27।

चोटी

सूझ-बूझ

चोट जी को जब नहीं सच्ची लगी।

प्रेमधारा जब नहीं जी में बही।

चोंचलों से नाथ रीझेगा न तब।

है गई यह बात चोटी की कही।28।

सूरमे

खौलता जिनकी रगों का है लहू।

है दिलेरी बाँट में जिनके पड़ी।

डाँट सुनकर सूरमापन से भरी।

कब न उनकी हो गई चोटी खड़ी।29।

लानतान

धार्म की वे दूह क्यों पोटी न लें।

चौगुनी जब चाह रोटी की रखें।

जब चटोरे बन कटा चोटी सके।

किस तरह तब लाज चोटी की रखें।30।

बेबसी

सब सहेंगे पर करेंगे चूँ नहीं।

बेबसी होगी बहुत हम पर फबी।

सिर सकेंगे किस तरह से हम उठा।

जो तले हो पाँव के चोटी दबी।31।

हितलटके

मर मिटे पर छोड़ दे हिम्मत नहीं।

एक भी साँसत न सीधो से सहे।

है न खोटी बात इससे दूसरी।

हाथ में जो और के चोटी रहे।32।

पछतावा

रंगरलियाँ मना जनम खोया।

रंग लाती रही समझ मोटी।

तब खुली आँख और सुधा आई।

जब कि ली काल ने पकड़ चोटी।33।

लताड़

अब तो चूड़ी पहन हाथ में दोनों।

रहा माँग में सेंदुर ही का भरना।

तब से सारा मरदानापन भागा।

जब से सीखा कंघी-चोटी करना।34।

सिर

देव देव

पा गये तेरा सहारा सब सधा।

पार पाया प्यारधारा में बहे।

एक तेरे सामने ही सिर नवा।

सिर सबों के सब जगह ऊँचे रहे।35।

डूब जाये या कि उतराता रहे।

क्या उसे जो प्यारधारा में बहा।

बेंच तेरे हाथ जिसने सिर दिया।

फिर उसे क्या सिर गया या सिर रहा।36।

एक से एक हैं बढ़े दोनों।

ढूँढ उनके सके न पैमाने।

चूक अपनी, न चूकना प्रभु का।

सिर लगा सोच सोच चकराने।37।

फूल गेंदे गुलाब बेले के।

एक ही सूत में गये गाँथे।

आपकी सूझ को कहें क्या हम।

आपकी रीझ बूझ सिर माथे।38।

अपने दुखड़े

सब तरह से दबे हुए जो हैं।

वे नहीं दाँत काढ़ते थकते।

क्यों न उन पर सितम करे कोई।

वे कभी सिर उठा नहीं सकते।39।

क्या छिपाये रहे बचाये क्या।

सब घरों बीच जब कि लूट पड़े।

क्या करे औ किसे पुकारे क्या।

जब कि सिर पर पहाड़ टूट पड़े।40।

सजीवन जड़ी

किस लिए सिर को नवाता तब फिरे।

जब कि सिर पर सब बलाओं कोलिया।

मूसलों की तब करे परवाह क्या।

जब किसी ने ओखली में सिर दिया।41।

फेर में कौन है नहीं पड़ता।

क्या नहीं दिन फिरा किसी काफिर।

सिर गया घूम किस लिए इतना।

ठीकरा फोड़ दूसरों के सिर।42।

क्यों नहीं सिरतोड़ कोशिश कर सके।

गिर गये क्यों जाति को अपनी गिरा।

किस तरह तब सिर सुजस-सेहरा बँधो।

जब कि होवे सिरधारों का सिर फिरा।43।

जाति हित की राह है काटों भरी।

वे खलें कुछ को सभी को क्यों खलें।

बिछ सकें तो क्यों न आँखें दें बिछा।

चल सकें तो क्यों न सिर के बल चलें।44।

काम धीरज से जिन्होंने है लिया।

कब झमेले देख उनके मुँह सुखे।

सह सके जो लोग सारी सिर पड़ी।

वे दुखी देखे गये कब सिर दुखे।45।

सूरमा एक बार मरता है।

नित मरेंगे सहम सहम कायर।

छोड़ दे सूर बीर क्यों साहस।

काल है नाचता नहीं सिर पर।46।

वे बिपत को देख कर दहले नहीं।

वे नहीं घबरा गये दुख से घिरे।

लोक हित के हाथ जिनके सिर बिके।

वे हथेली पर लिये ही सिर फिरे।47।

हितगुटके

दूसरे उसको सतायेंगे न क्यों।

जो सताता और को है हर घड़ी।

किसलिए यों आप हैं सिर धुन रहे।

आपके सिर आपकी करनी पड़ी।48।

चाहता है जो भला अपना किया।

आप भी वह और का चाहे भला।

जो फँसाते हैं बला में और को।

क्यों भला आती न उनके सिर बला।49।

नीच सिर पर जब चढ़ा सोचा न तब।

सिर पकड़ते हो भला अब किसलिए।

जब कि धूआँ उठ सका ऊँचा कभी।

तब किसे छोड़ा बिना मैला किए।50।

छोड़ दो बान बात गढ़ने की।

रेत पर भीत रह सकी कब थिर।

कुछ तुम्हीं हो नहीं समझवाले।

यह समझ लो कि है समझ सिर सिर।51।

उँगलियाँ जो कड़ी मिलीं तुमको।

तोड़ते मत फिरो नरम पंजा।

है बुरी बात जो किसी का सिर।

मारते मारते करें गंजा।52।

है निठुरपन औ बड़ा ही नीचपन।

है नहीं कोई बड़ा इससे सितम।

पाँव का ठोकर जमाने के लिए।

क्यों किसी का सिर बना दें गेंद हम।53।

तीन पन तो पाप करते ही गया।

सब तरह की की गयी सबसे ठगी।

तब भला क्या मन मनाने तुम चले।

जब कि सिर पर मौत मँडलाने लगी।54।

थपेड़े

वह खुले आम हो गया नीचा।

आँख से नेकचलनियों की गिर।

बात की सूझ बूझ की तुमने।

जो बड़ों को नहीं नवाया सिर।55।

पास तक भी फटक नहीं पाते।

सैकड़ों ताड़ झाड़ सहते हैं।

आपमें कुछ कमाल है ऐसा।

फिर भी सिर पर सवार रहते हैं।56।

धूल में मिल जाय वह सुकुमारपन।

जो किसी की धूल उड़वाने लगे।

फूल ही तो टूट कर उस पर गिरा।

किस लिए सिर आप सहलाने लगे।57।

औरों की चुटकी लेते लेते ही।

तुम ने ही सब अपने परदे खोले।

इसको ही कहते हैं कहनेवाले।

जादू वह जो सिर पर चढ़ कर बोले।58।

तोड़ देंगे सिर बड़प्पन का न क्यों।

लड़ बड़ों के साथ जड़पन के सगे।

है उन्हीं की चूक पत्थर क्या करे।

टूट जावे सिर अगर टक्कर लगे।59।

जी कड़ाई में निरे जड़ जीव का।

पत्थरों से है बढ़ा होता कहीं।

भाग से आई मुसीबत टल गई।

सिर अगर टकरा गये टूटा नहीं।60।

धूल में ही आपने रस्सी बटी।

दैव से भी आपकी है चल गई।

क्या हुआ जो और पर आई बला।

आपके सिर की बला तो टल गई।61।

मर्यादा

जो अदब के सामने हैं झुक चुके।

जो सके मरजाद के ही संग रह।

रँग जमाने को बड़ों के सामने।

सिर उठायेंगे भला वे किस तरह।62।

पड़ सकती जो नहीं किसी पर सीधी।

क्यों न धूल उन आँखों में देवें भर।

प्यार छलकता है जिनकी आँखों में।

रखें लोग क्यों उन्हें न सिर आँखों पर।63।

छेड़छाड़

चाहिए था इस तरह हिलाना उसे।

जो कि देता फूल सा सबको खिला।

देख जिसको मुँह बहुत कुम्हला गये।

इस तरह से आपका सिर क्यों हिला।64।

चाँदनी कितने कलेजों में पसार।

सैकड़ों ही आँख से मोती निकाल।

सब निराले ढंग के पुतले हैं आप।

सिर हिलाना भी दिखाता है कमाल।65।

झिड़की

देखिये, मत टालिये, कर दीजिये।

राह में काँटे हमारी बो गये।

कह दिया था हो सकेगा अब न कुछ।

आज फिर क्यों आप यों सिर हो गये।66।

वे कभी फूले फलेंगे ही नहीं।

जो बिपत है दूसरों पर ढाहते।

जो नहीं तुम मानते यह बात हो।

तो नहीं हम सिर खपाना चाहते।67।

जोखों

बेबसी से आज जोखों में पड़े।

नीच हैं धान चाहते दुख झेल कर।

क्या हमें थोड़ा मिला लाखों मिले।

सिर गँवाया जो न सिर से खेलकर।68।

अभागे

आज मैं बेचैन क्यों इतना हुआ।

इस तरह से क्यों घड़ों आँसू बहा।

एक पल भी आँख लग पाई नहीं।

रात भर सिर दर्द क्यों होता रहा।69।

दुख बहुत भोगे, बड़ी साँसत सही।

आँसुओं की धार ही में नित बहे।

टूट पड़ती ही रही सिर पर बिपद।

सिर पटकते कूटते ही हम रहे।70।

दिनों का फेर

मुँह दिखातीं नहीं उमंगें अब।

सब बड़े चाव हो गये सपने।

है बुढ़ापा डरावना इतना।

सिर लगा बात बात में कँपने।71।

है दिनों के फेर से किसकी चली।

थे पड़े नुच धूल में बेले खिले।

ताज थे जिन पर कभी हीरे जड़े।

उन सिरों को पाँव ठुकराते मिले।72।

सिर सूँघना

गोद में चाव से सभों को ले।

नेह की बेलि सींच देते हैं।

प्यार की बास से न बस में रह।

सिर उमग लोग सूँघ लेते हैं।73।

अपना मतलब

दी गई क्यों डाल मेरे सिर बला।

बच गये हम आज सिर से खेल के।

दूसरों की आँख में सब दिन रहे।

दूसरों के सिर बराबर बेल के।74।

तरह-तरह की बातें

दुख-हवायें हैं बहुत झकझोरतीं।

क्यों नहीं सुख-पेड़ की हिलतीं जड़ें।

है मुसीबत की घटा घहरा रही।

क्यों न ओले सिर मुड़ाते ही पड़ें।75।

खायँगे मुँह की पड़ेंगे पेंच में।

जो खिजाने और बहकाने लगे।

कोढ़ की तो खाज हम हैं बन रहे।

किस लिए सिर आप खुजलाने लगे।76।

जो बला जाने बिना ही सिर पडे।

क्यों भला उससे न जाते लोग घिर।

किस तरह बन्दर बिचारा जानता।

है तबेले की बला बन्दर के सिर।77।

दूसरों को देख फलते फूलते।

मुँह बना जिसका रहा सब दिन तवा।

क्यों कलेजे के बिना जनमा न वह।

सिर सुबुकपन पर दिया जिसने गँवा।78।

है बुरा कुछ धान जगह के ही लिये।

बेंच करके नाम जो कोई जिये।

नामियों ने राज की तो बात क्या।

नाम पाने के लिए सिर तक दिये।79।

चूक है तब भी अगर सँभले नहीं।

जब कि ऊँचे पर हुए आकर खड़े।

भूल है तब भी न जो भारी बने।

जब कि सारा भार सिर पर आ पड़े।80।

थे अभी कल तक रगड़ते नाक वे।

आज इतना किस तरह जी बढ़ गया।

कर उतारा हम उतारेंगे उसे।

भूत सिर पर जो किसी के चढ़ गया।81।

बन गईं चाहतें चुड़ैलों सी।

रँग चढ़ा सूरतें निवानी का।

चोचले चल गये उमंगों के।

भूत सिर पर चढ़े जवानी का।82।

जो कि उकठा काठ है बिलकुल उसे।

क्यों खिलाना या फलाना हम चहें।

क्या करेंगे तीर पत्थर पर चला।

कूढ़ से सिर मारते कब तक रहें।83।

सिर और बाल

तब हरा कुँभला गया जी भी बना।

क्यों भला उनसे न रस बूँदें चुएँ।

सिर! बले तुम में दिये जो ज्ञान के।

जब उन्हीं के बाल काले हैं धुएँ।84।

देख कर उनका कड़ापन रूप रँग।

बात सिर! मैंने कही कितनी सही।

हो बुरे कितने विचारों से भरे।

बाल बन कर फूट निकले हैं वही।85।

जब कि सिर बो दिये बदी के बीज।

जब बुरे रंग में सके तुम ढाल।

तब भला किस लिये न लेते जन्म।

बाल जैसे कुरूप काले बाल।86।

सिर और पाँव

जोहते मुँह दिन बिताते एक हैं।

एक के जी की नहीं कढ़ती कसर।

पाँव सिर को हैं लगाते ठोकरें।

सिर सदा गिरते मिले हैं पाँव पर।87।

तुम उसे भी कभी न हीन गिनो।

जो दबा नित रहे बहुत ही गिर।

पाँव ने ठोकरें लगा करके।

कर दिये चूर चूर कितने सिर।88।

घट सकेगा पद न भारी का कभी।

बात लगती कह भले ही ले छटा।

जो लगादीं पाँव ने कुछ ठोकरें।

तो भला सिर मान इससे क्या घटा।89।

तुम न भारीपन गँवा हलके बनो।

मत किसी को प्यार करने से रुको।

हैं अकड़ते पाँव तो अकड़े रहें।

पर सभी के सामने सिर तुम झुको।90।

अन्योक्ति

थी कभी चमकी जहाँ पर चाँदनी।

देख पड़ती है घटा काली वहीं।

धूल सिर! तुम पर गिरी तो क्या हुआ।

फूल चन्दन ही सदा चढ़ते नहीं।91।

मत करो हर बात में चालाकियाँ।

साथ में पड़ तुम किसी सिरफिरे के।

हैं बनी बातें बिगड़ जातीं कहीं।

सिर! बने चालाक परले सिरे के।92।

गोद में गिर प्यार के पुतले बने।

जंग में गिर कर सरगसुखसे घिरे।

पर उसी दिन सिर! बहुत तुम गिर गये।

पाजियों के पाँव पर जिस दिन गिरे।93।

यों न थोड़ा मान पा इतरा चलो।

धूल उड़ती कब नहीं है धूल की।

सिर अगर फूले समाते हो नहीं।

फूल की माला पहन तो भूल की।94।

था भला तुम खुल गये होते तभी।

जब तुमारा ढब न जाता था सहा।

चोट खाई तर लहू से हो गये।

तब अगर सिर! खुल गये तो क्या रहा।95।

जब बुरी रुचि-कीच में डूबे रहे।

तब हुआ कुछ भी नहीं नित के धुले।

सिर! यही था ठीक खुलते ही नहीं।

बेपरद करके किसी को क्या खुले।96।

साधाते निज काम वैसे ही रहे।

जब तुमारा काम जैसे ही सधा।

सिर कभी तुम पर बँधी सेल्ही रही।

मोतियों का था कभी सेहरा बँधा।97।

जब पड़े लोग टूट में तुमसे।

तब अगर टूट तुम गये तो क्या।

जब रहे फूट डालते घर में।

तब अगर फूट तुम गये तो क्या।98।

झोंक दो उन मतलबों को भाड़ में।

उन पदों को तुम गिनो मुरदे सड़े।

मान खो अभिमानियों के पाँव पर।

सिर! तुम्हें जिनके लिए गिरना पड़े।99।

सब तरह की की गई करनी व फल।

रात दिन सम साथ दोनों हैं जुड़े।

सिर रहे जब दूसरों को मूँड़ते।

तब भला तुम भी न क्यों जाते मुड़े।100।

जब कलेजा ही तुमारे है नहीं।

तब सकोगे किस तरह तुम प्यार कर।

सिर! जले वह सुख तुम्हें जो मिल सका।

बार अपने को छुरे की धार पर।101।

जब सके बाँधा पूच मंसूबे।

तब तुम्हें क्यों न हम बँधा पाते।

जब कि अन्धोर कर रहे हो सिर!

तब न क्यों बाल बाल बिन जाते।102।

लोग बेजोड़ चाल चलते ही।

चट लगा जोड़ बन्द लेवेंगे।

सिर अगर तोड़फोड़ भाता है।

तो तुम्हें तोड़ फोड़ देवेंगे।103।

सर भलाई हाथ में ही सब दिनों।

सब निराले रंग की ताली रही।

कब भला उजले हुए जल से धुले।

कब लहू से लाल हो लाली रही।104।

सिर बहुत से बंस को तुमने अगर।

कर दिया बरबाद आपस में लड़ा।

तो तुमारी बूझ मिट्टी में मिली।

औ तुमारी सूझ पर पत्थर पड़ा।105।

सादगी में कब भले लगते न थे।

बाँकपन किसने दिया तुमको सिखा।

सिर अगर पट्टा लिया तुमने रखा।

तो बनावट का लिया पट्टा लिखा।106।

बाल जूड़े में अभी तो थे बँधो।

छूटते ही क्यों उन्हें लटका दिया।

भूल अपनापन फबन की चाह से।

सिर तुम्हीं सोचो कि तुमने क्या किया।107।

हो सनक सिड़ सेवड़ापन से भरे।

सब तरह की है बहुत तुममेंकसर।

पर सराहे सिर गये सबमें तुमही।

यह सरासर है कमालों का असर।108।

खोपड़ी

हितगुटके

आँच में पड़ लाल जब लोहा हुआ।

मार पड़ती है तभी उस पर बड़ी।

जब कि होते हो तमक कर लाल तुम।

लाल हो जाती न तब क्यों खोपड़ी।1।

डाँट के साथ बेधाड़क मुँह से।

जब कि हैं गालियाँ निकल आती।

लट्ठ का सामना हुए पर तो।

खोपड़ी लाल क्यों न हो जाती।2।

फल उसी की करनियों का वह रही।

जब कभी जिसको भुगुतनी जो पड़ी।

गंज उसमें है बुराई का न कम।

हो गई गंजी इसी से खोपड़ी।3।

क्यों बिठाली तभी नहीं पटरी।

जब बढ़ा बैर था न थी पटती।

जब कि रिस से रही फटी पड़ती।

तब भला क्यों न खोपड़ी फटती।4।

जड़ लड़ाई की कहाती है हँसी।

लत हँसी की छोड़ दो, मानो कही।

क्यों खिजाते खीजनेवालों को हो।

खोपड़ी तो है नहीं खुजला रही।5।

सुनहली सीख

है बुरे संग का बुरा ही हाल।

कब न उसने दिया बिपद में डाल।

थी चली तो कुचालियों ने चाल।

खोपड़ी हो गई हमारी लाल।6।

फूल बरसे, फूल ही मुँह से झड़े।

कब नहीं लोहा लिये लोहू बहा।

चाहिए था रंग बिगड़े ही नहीं।

रँग गई जो खोपड़ी तो क्या रहा।7।

काम कब जागे मसानों में सधो।

भाग जागे कब किये भूलें बड़ी।

हो जगाते खोपड़ी क्यों मरमिटी।

छोड़ जीती जागती निज खोपड़ी।8।

जो कि बेचारपन सिखाती है।

मिल न जिसमें सके बिचार बड़े।

खोपड़ी कौन काम की है वह।

दे सके काम जो न काम पड़े।9।

निराले-नगीने

कौन केवल नाम पाने के लिए।

साँसतें अपनी कराता है बड़ी।

हम कहे जावें धानी, इस चाह से।

कौन गंजी है कराता खोपड़ी।10।

दूसरों के ही गुनाहों से कभी।

बेगुनाहों ने उठाये दुख बड़े।

मुँह सुनाता बेतुकी गाली रहा।

पर थपेड़े खोपड़ी ही पर पड़े।11।

बेढंगे

कह सुनायेंगे न मानेंगे कभी।

बात चाहे हो न कितनी ही सड़ी।

कुछ अजब है खोपड़ी उनकी बनी।

जो कि खा जाते हैं सबकी खोपड़ी।12।

कह बड़ी पूच बेतुकी बातें।

बेतुकापन बहुत दिखाते हैं।

है अजब चाट लग गई उनको।

खोपड़ी जो कि चाट जाते हैं।13।

दिनों का फेर

फूल की माला कभी जिस पर फबी।

कँलगियाँ जिस पर रहीं सब दिन ठटी।

धूल में मिल कर पड़ी थी खेत में।

एक दिन वह खोपड़ी टूटी फटी।14।

बीत सकते एकसे सब दिन नहीं।

एकसी होती नहीं सारी घड़ी।

बास से जो थी फुलेलों के बसी।

बाँस खाये थी पड़ी वह खोपड़ी।15।

तरह तरह की बातें

डाल कितने बल बुलाया है उसे।

है बला सिर पर हमारे जो पड़ी।

हम भला कैसे न औंधो मुँह गिरें।

है अजब औंधी हमारी खोपड़ी।16।

लोग कितने लुट हँसी में ही गये।

खेल में फँकती है कितनी झोंपड़ी।

कौनसे ऍंधोर अंधाधुंधा को।

कर दिखाती है न अंधी खोपड़ी।17।

सोच कर अपनी गई-बीती दशा।

है नहीं जिसमें कि हलचल सी पड़ी।

मैं कहूँगा तो हुआ कुछ भी नहीं।

जो न सौ टुकड़े हुई वह खोपड़ी।18।

क्यों कढ़ेंगे चिलचिलाती धूप में।

वे सहेंगे किस तरह आँचें कड़ी।

भाग से ही धूप थोड़ी सी लगे।

है चिटिक जाती न जिनकी खोपड़ी।19।

माथा

देव देव

देखने वाली अगर आँखें रहें।

तो कहाँ पर नाथ दिखलाये नहीं।

बीच ही में घूम है माथा गया।

लोग माथे तक पहुँच पाये नहीं।1।

दिल के फफोले

कल नहीं जिसके बिना पल भर पड़ी।

देख कर जिसका सदा मुखड़ा जिए।

जो वही दे आँख में चिनगी लगा।

तो भला माथा न ठनके किस लिए।2।

पीस डाला है जिन्होंने जाति को।

फिर मचाने वे लगे ऊधाम नये।

देख कर यह घूम सिर मेरा गया।

बैठ माथे को पकड़ कर हम गये।3।

करतबी

क्या नहीं है कर दिखाता करतबी।

कब कमर कस वह नहीं रहता खड़ा।

उलझनें आईं बहुत सी सामने।

बल न माथे पर कभी उसके पड़ा।4।

पाठ जिसने कर दिखाने का पढ़ा।

संकटों में जो सका जीवट दिखा।

काम करके ही जगह से जो टला।

वह सका है टाल माथे का लिखा।5।

हैं चिमट कर काढ़ लेतीं चींटियाँ।

धूल में मिलजुल गई चीनी छिंटी।

है भला किस काम का वह जो कहे।

कब किसी से लीक माथे की मिटी।6।

धाक जिनकी मानती दुनिया रही।

साधा कर सब काम जो फूले फले।

वे भला कब छोड़ अपने पंथ को।

मान माथे की लकीरों को चले।7।

काम की धुन में लगे हँसते हुए।

सब तरह की आँच को जिसने सहा।

लीक माथे की कुचल कर जो बढ़े।

कब भला उनके न माथे धान रहा।8।

दूर कर दूँगा उपायों से उन्हें।

बासमझ यह बात जी में ठान लें।

उलझनें जितनी कि माथे पर पड़ें।

फेर माथे का न उसको मान लें।9।

नई पौधा

हैं नई पौधों बिगड़ती जा रहीं।

क्या कहूँ यह रोग उपजा है नया।

देख कर उनका निघरघटपन खुला।

लाज से माथा हमारा झुक गया।10।

निज धारम से ए खिंचे ही से रहे।

खिंच नहीं आये इधार खींचा बहुत।

देख इनका इस तरह माथा फिरा।

आज माथा हो गया नीचा बहुत।11।

आजकल के छोकरे सुनते नहीं।

हम बहुत कुछ कह चुके अब क्या कहें।

मानते ही वे नहीं मेरी कही।

हम कहाँ तक मारते माथा रहें।12।

सब पढ़ा लिक्खा मगर कोरे रहे।

रह नहीं पाया छिछोरापन ढका।

क्यों बड़ों का कर नहीं सकते अदब।

देख उनको क्यों न माथा झुक सका।13।

दूसरा क्या काम होगा आपसे।

फबतियाँ लेंगे बनायेंगे उन्हें।

कह दिया बाबा यही क्या कम किया।

आप क्यों माथा नवायेंगे उन्हें।14।

कूढ़

कुछ न समझे बेतुकी बातें कहे।

कुछ न जाने, जानने का दम भरे।

इस तरह के कूढ़ से करके बहस।

किस लिए माथा कोई पच्ची करे।15।

सुनहली सीख

लोग उनसे ही सदा डरते रहे।

सब बुरे बरताव से जो डर सके।

कर सके अपना न जो ऊँचा चलन।

वे कभी माथा न ऊँचा कर सके।16।

राह में रोड़े पड़ेंगे क्यों नहीं।

जायगी जब धूल में रस्सी बटी।

रंग रहता है नहीं माथा रँगे।

बात कब माथा पटकने से पटी।17।

क्या कहें दुख है बड़ा, बातें भली।

कर सकीं, जो आपके जी में न घर।

आप ही मुझको सिकुड़ जाना पड़ा।

आपका माथा सिकुड़ता देख कर।18।

क्या हुआ जो आज आकर जोश में।

आपने बातें बहुत लगती कहीं।

देख सेंदुर दूसरे का मैं कभी।

फोड़ लेना चाहता माथा नहीं।19।

बेबसी

कुछ भले मानस रहे दुख झेलते।

देख यह, मैंने वचन हित के कहे।

कुछ न बोले आँख उनकी भर गई।

ठोंक कर माथा बेचारे चुप रहे।20।

दुख मुझे सारे भुगुतने ही पड़े।

मैं जनता सौ सौ तरह के कर थका।

कोसते हो दूसरों को किस लिए।

कौन माथे की लिखावट पढ़ सका।21।

तरह-तरह की बातें

सामने कब आपके कोई पड़ा।

आपका किस पर नहीं है दबदबा।

दूसरों की बात ही क्या, भाग भी।

देख ऊँचा आपका माथा दबा।22।

आप पर बीती गये वे लोग भग।

जो अभी थे आपको देते भड़ी।

दूसरों की की गई सब नटखटी।

देखता हूँ आपके माथे पड़ी।23।

दुख भरे अपने बहुत दुखड़े सुना।

पाँव उसका हम पकड़ते ही रहे।

पर दया बेपीर को आई नहीं।

रात भर माथा रगड़ते ही रहे।24।

आपसे रुतबा हमारा कम नहीं।

आपसे रगड़े नहीं हमने किये।

आपसे कुछ माँगने आये नहीं।

आपने माथा सिकोड़ा किस लिये।25।

तोड़ नाता प्यार का बेदर्द बन।

नाश दीये ने फतिंगे का किया।

रात भर जलना व थर थर काँपना।

दैव ने माथे इसी से मढ़ दिया।26।

जो मिला वह आप उस पर कुछ न कुछ।

लाद देने के लिए ललका रहा।

बोझ से ही तो रहा सब दिन दबा।

बोझ माथे का कहाँ हलका रहा।27।

जिसके दर पर झूम रहे थे हाथी।

ओर न मिल सकता था जिसके धान का।

वही माँगता फिरता था कल टुकड़े।

देख दशा यह मेरा माथा ठनका।28।

अन्योक्ति

पेच में अपनी लिखावट के पँ+सा।

दूसरों को फेर में डाला किये।

देख माथा यह तुमारी नटखटी।

हो किसी का जी न खट्टा किस लिये।29।

सुख दुखों की जड़ बताये जो गये।

भेद जिनके खुल नहीं अब तक सके।

छाँह तक दी उस लिखावट की नहीं।

सब, सदा माथा बहुत तुमसे छके।30।

झंझटों में दूसरों को डाल कर।

क्या रहा माथा भरोसा नाम का।

जो तुमारे काम ऊँचे हैं न तो।

है न ऊँचापन तुम्हारा काम का।31।

वे न हों, या हों, करे बकवाद कौन।

हम उन्हें तो देख सकते हैं न चीर।

पर सुनो माथा यही क्या है सलूक।

क्यों बनाते हो लकीरों का फकीर।32।

जो रहे सब दिन कनौड़े ही बने।

आज उनके सैकड़ों ताने सहे।

किस तरह माथा तुम्हें ऊँचा कहें।

जब हमें नीचा दिखाते ही रहे।33।

आज दिन पहने जवाहिर जो रहा।

कल वही गहने गिरों रख कर जिया।

जब कि तुमसे लोग तंगी में पड़े।

तो तुम्हारा देख चौड़ापन लिया।34।

भौंह

सुनहली सीख

जो नहीं सींच सींच कर पाले।

तो कुचल दे न बेलियाँ बोई।

हौंसलों के गले मरोड़े क्यों।

भौंह अपनी मरोड़ कर कोई।1।

अपयशों से बचे रहे वे ही।

चल सके जो बचा बचा करके।

दूसरों को रहे नचाता क्यों।

भौंह अपनी नचा नचा करके।2।

इस तरह से चाहिए चलना उसे।

प्यार का पौधा सदा जिससे पले।

बिजलियाँ जिससे कलेजों पर गिरें।

इस तरह से भौंह कोई क्यों चले।3।

आनबान

किस लिए पट्टी पढ़ाते हैं हमें।

कह सकेंगे हम नहीं बातें गढ़ी।

खिंच गईं भौंहें बला से खिंच गईं।

चढ़ गई हैं तो रहें भौंहें चढ़ी।4।

कर भला किसको नहीं सीधा सके।

बात सीधी कह बने सीधो रहे।

दूर टेढ़ापन किसी का कब हुआ।

बात टेढ़ी, भौंह टेढ़ी कर कहे।5।

हितगुटके

क्यों नशे में अनबनों के चूर हो।

मेल की बूटी नहीं क्यों छानते।

दूसरे तब भौंह तानेंगे न क्यों।

जब कि तुम हो भौंह अपनी तानते।6।

छोड़ मरजादा गँवा संजीदगी।

यह बता दो कौन संजीदा बना।

मान कैसे मान को खोकर रहे।

है मटकना भौंह मटकाना मना।7।

नोंकझोंक

जब कि उलझी मतलबों में वह रही।

जब कि भलमंसी उसे छूते मुई।

जब टके सीधो हुए सीधी हुई।

तब किसी की भौंह सीधी क्या हुई।8।

है अजब यह ही कलेजे में न जो।

बात लगती नोंक बरछी सी खुभे।

आप ही समझें अचंभा कौन है।

जो कटीली भौंह काँटे सी चुभे।9।

आँख

देव देव

पाँवड़े कैसे न पलकों के पड़ें।

जोत के सारे सहारे हो तुम्हीं।

आँख में बस आँख में हो घूमते।

आँख के तारे हमारे हो तुम्हीं।1।

देखनेवाली न आँखें हों, मगर।

देखने का है उन्हें चसका बड़ा।

आप परदा किस लिए हैं कर रहे।

हो भले ही आँख पर परदा पड़ा।2।

जान कर भी जानते जिसको नहीं।

क्यों उसी के जानने का दम भरें।

आप ही क्यों आँख अपनी लें कुचो।

क्यों किसी की आँख में उँगली करें।3।

देख कर आँख देख ले जिनको।

वे बनाये गये नहीं वैसे।

आँख में जो ठहर नहीं सकता।

आँख उस पर ठहर सके कैसे।4।

राह पर साथ राहियों के चल।

साहबी साख से उसे देखें।

आँख का आँख जो कहाती है।

हम उसी आँख से उसे देखें।5।

जोत न्यारी तो नहीं दिखला पड़ी।

आँख में क्यों ज्ञान के दीये बलें।

आँख में अंजन अनूठा लें लगा।

हम जमायें आँख या आँखें मलें।6।

है जहाँ में कहाँ न जादूगर।

पर दिखाया न देखते ही हो।

भूल जादूगरी गई सारी।

आँख जादूभरी भले ही हो।7।

है जहाँ आँख पड़ नहीं सकती।

आँख मेरी वहाँ न पाई जम।

जग-पसारा न लख सके सारा।

आँख हमने नहीं पसारा कम।8।

दिल के फफोले

गाय काँटों से छिदी है जा रही।

फूल से जाती सजाई है गधी।

आँख कैसे तो नहीं होती हमें।

जो न होती आँख पर पट्टी बँधी।9।

रात कैसे कटे न आँखों में।

क्यों न चिन्ताभरी रहें माँखें।

हो गया छेद जब कि छाती में।

क्यों न छत से लगी रहें आँखें।10।

मतलबों का भूत सिर पर है चढ़ा।

दूसरों पर निज बला टालें न क्यों।

जब गई हैं फूट आँखें भीतरी।

लोन राई आँख में डालें न क्यों।11।

क्यों दुखे बेतरह, बहुत दुख दे।

किस लिए बार बार है गड़ती।

है रही फूट फूट जाये तो।

किस लिए आँख है फटी पड़ती।12।

चाहिए क्या उसे झिपा देना।

हैं जिसे देख लोग झुक जाते।

क्यों उसे आँख से गिरा देवें।

आँख पर हैं जिसे कि बिठलाते।13।

सच्चे देवते

आँख उनकी राह में देवें बिछा।

प्यारवाली आँख से उनको लखें।

आँख जिससे जाति की ऊँची हुई।

आँख पर क्या आँख में उनको रखें।14।

लौ-लगों से न क्यों लगा लें लौ।

दिल उन्हें दिल से क्यों नहीं देते।

पाँव की धूल लालसा से ले।

आँख में क्यों नहीं लगा लेते।15।

अपने दुखड़े

आँख अंधी किस तरह होती न तब।

जब मुसीबत रंग दिखलाती रही।

आँख पानी के बहे है बह गई।

आँख आये आँख ही जाती रही।16।

क्यों निचुड़ता न आँख से लोहू।

जब लहू खौल बेतरह पाया।

आँख होती न क्यों लहू जैसी।

आँख में जब लहू उतर आया।17।

जब कि काँटे राह में बोने चले।

बीज तो क्यों फूल के बो देखते।

जब हमारी आँख टेढ़ी हो गई।

क्यों न टेढ़ी आँख से तो देखते।18।

ठीकरी आँख पर गई रक्खी।

अंधापन आँख का नहीं जाता।

देख कर जाति का लहू होते।

किस तरह आँख से लहू आता।19।

जाति को जाति ही सतावे तो।

दूसरे भी न क्यों बनें दादू।

क्यों न हो आँख आँखवालों को।

आँख पर आँख क्यों करे जादू।20।

हम निचोड़ें कहाँ तलक उसको।

आँख में अब नहीं रहा आँसू।

आँख पथरा न किस तरह जाती।

आँख से है घड़ों बहा आँसू।21।

बेतरह हैं दबे दुखों से हम।

क्यों करें आह किस तरह काँखें।

तन हुआ सूख सूख कर काँटा।

भूख से नाच हैं रही आँखें।22।

दूर कायरपन नहीं जब हो सका।

तब भला कैसे न दिल धाड़का करे।

बाँह मेरी तो फड़कती ही नहीं।

है फड़कती आँख तो फड़का करे।23।

दिल के छाले

देख कर दुखभरी दशा उनकी।

आँख किसकी भला न भर आई।

अधाखिले फूल जो कि खिल न सके।

अधाखुली आँख जो न खुल पाई।24।

तू न तेवर भी है बदल पाता।

क्या किसी ने सता मुझे पाया।

देख उतरा हुआ तेरा चेहरा।

आँख में है लहू उतर आया।25।

जो उँजाला है ऍंधोरे में किये।

लाल अपना वह न खो बैठे कोई।

काढ़ ली जावें न आँखें और की।

आँख को अपनी न रो बैठे कोई।26।

आनबान

बढ़ नहीं पाया कभी कोई कहीं।

बेतरह बेढंग लोगों को बढ़ा।

हम नहीं सिर पर चढ़ा सकते उसे।

वह भले ही आँख अपनी ले चढ़ा।27।

लुचपने पाजीपने से झूठ से।

हम डरेंगे वे भले ही मत डरें।

आँख की देखी कहेंगे लाख में।

मारते हैं आँख तो मारा करें।28।

कुढ़ उठा जी भला नहीं किसका।

जब दिखाई पड़ीं कढ़ी आँखें।

कुछ हमें भी गया नशा सा चढ़।

देख उसकी चढ़ी चढ़ी आँखें।29।

हितगुटके

वह बनेगी भला लड़ेती क्यों।

जो रही लाड़ प्यार में लड़ती।

आँख जब थे निकालते यों ही।

आँख कैसे न तब निकल पड़ती।30।

है बड़ा ही निठुर निपट बेपीर।

बेबसों को सता गया जो फूल।

जो उठा तक सके न अपनी आँख।

आँख उस पर निकालना है भूल।31।

नाम के ही कुछ गुनाहों के लिए।

है गला घोंटा नहीं जाता कहीं।

जो कि टेढ़ी आँख से हो देखता।

आँख उसकी काढ़ ली जाती नहीं।32।

दूसरों पर जो निछावर हो गये।

सह सके पर के लिए जो लोग सब।

पाठ परहित का नहीं जो पढ़ सके।

वे भला उनसे मिलाते आँख कब।33।

वे किसी काम के नहीं होते।

तुन सकेंगे न वे तुनी रूई।

जो कि चाहेंगे जाँय सब कुछ बन।

पर निकालेंगे आँख की सूई।34।

नाच रँग की मिठास के आगे।

नींद मीठी न जब रही भाती।

जागना जब न लग सका कड़वा।

तब भला आँख क्यों न कड़वाती।35।

यह तभी होगा कि लगकर के गले।

हम दबायेंगे न समधी का गला।

प्यार की रग जब न हो ढीली पड़ी।

जब न होवे आँख का पानी ढला।36।

और को करते भलाई देखकर।

ऊब करके किस लिए साँसें भरें।

कर सकें, हम भी भला ही तो करें।

आँख भौं टेढ़ी करें तो क्यों करें।37।

मुँह पिटा मुँह की सदा खाते रहें।

मान से मुँह मोड़ मनमानी करें।

हैं बिना मारे मरे वे लोग जो।

आँख मारें आँख के मारे मरें।38।

फिर गईं आँखें अगर तो जाँय फिर।

आँख फेरे हम न बातों से फिरें।

खोल कर आँखें न आँखें मूँद लें।

आँख पर चढ़ कर न आँखों से गिरें।39।

बात बिगड़े बेतरह बिगड़ें नहीं।

क्यों रखें पत, कर किसी को राख हम।

आँख होते किस लिए अन्धो बनें।

आँख निकले क्यों निकालें आँख हम।40।

जो न होना चाहिए होवे न वह।

साखवाले धयान रक्खें साख का।

आँख वाले पर न चलना चाहिए।

आँख का जादू व टोना आँख का।41।

हैं खटकते क्यों किसी की आँख में।

मूँदने को आँख क्यों बातें गढ़ें।

फोड़ने को आँख फोड़ें आँख क्यों।

क्यों चढ़ा कर आँख आँखों पर चढ़ें।42।

देख लें आँख क्यों किसी की हम।

पड़ गये भीड़ क्यों कुढ़ें काँखें।

क्यों खुला आँख कान को न रखें।

क्यों करें काम बन्द कर आँखें।43।

किस लिए हम रखें न मनसूबे।

किस लिए बात बात में माँखें।

क्यों झिपाता रहे हमें कोई।

क्यों झिपें और क्यों झपें आँखें।44।

सुनहली सीख

बादलों की भाँति उठना चाहिए।

जल बरस कर हित किये जिसने बड़े।

इस तरह से किस लिए कोई उठे।

आँख जैसा बैठ जाना जो पड़े।45।

है जिसे कुछ भी समझ वह और की।

राह में काँटा कभी बोता नहीं।

कर किसी से बेसबब उपरा चढ़ी।

आँख पर चढ़ना भला होता नहीं।46।

हैं भले वे ही भलाई के लिए।

रात दिन जिनकी कमर होवे कसी।

प्यार का जी में पड़ा डेरा रहे।

आँख में सूरत रहे हित की बसी।47।

जो कि जी की आग से जलता रहा।

मिल सकी है कब उसे ठंढक कहीं।

देख पाती जो भला नहिं और का।

आँख वह ठंढी कभी होती नहीं।48।

जो कलेजा पसीज ही न सका।

तो किया रात रात भर रो क्या।

मैल जो धुल सका नहीं मन का।

आँख आँसू से धो किया तो क्या।49।

उलझनें डालता फिरे न कभी।

और की राह में कुआँ न खने।

है बुरा, जान बूझ करके जो।

आँख की किरकिरी किसी की बने।50।

तिर सके जो न दुख-लहरियों में।

क्यों न उनमें तो फिर उतर देखें।

हम किसी के फटे कलेजे को।

आँख क्यों फाड़ फाड़ कर देखें।51।

तो दया है न नाम को हममें।

हैं हमें देख नेकियाँ रोतीं।

चूर होते किसी बेचारे से।

चार आँखें अगर नहीं होतीं।52।

जब कि भाते नहीं सगों को हो।

किस तरह दूसरों को तब भाते।

जब कि तुम हो उतर गये जी से।

आँख से तो उतर न क्यों जाते।53।

उन भली अनमोल रुचियों ओर जो।

बन सुचाल ऍंगूठियों के नग सकीं।

जी लगायेंगे भला तब किस तरह।

जब नहीं आँखें हमारी लग सकीं।54।

चाहता चित अगर तुमारा है।

चितवनों के तिलिस्म को तोड़ो।

आँख से आँख का मिलाना, या।

आँख में आँख डालना छोड़ो।55।

भेद दुख का हमें मिलेगा तब।

जब कि हम आप भोग दुख लेवें।

देख लें आँख फोड़ कर अपनी।

और की आँख फोड़ तब देवें।56।

दुख अगर कान खोल कर न सुनें।

तो न हम कान में भरें रूई।

जो निकालें न आँख का काँटा।

डाल दें तो न आँख में सूई।57।

तो अहित बीज क्यों बखेरें हम।

जाय हित-बेलि जो नहीं बोई।

क्यों मजा किरकिरा किसी का कर।

आँख की किरकिरी बने कोई।58।

अंग हैं एक दूसरे के सब।

क्या न आँखें दुखीं दुखे दाढ़ें।

क्यों किसी आँख में करें उँगली।

काढ़ कर आँख आँख क्यों काढ़ें।59।

हो सके वह न दूर आँखों से।

हम बहुत प्यार से जिसे रक्खें।

आँख जिस पर कि है हमें रखना।

सामने आँख के उसे रक्खें।60।

है वही प्यार से भरा मिलता।

हम बड़े प्यार से जिसे देखें।

कौन है आँख का नहीं तारा।

हम कड़ी आँख से किसे देखें।61।

आँख जल जाय देख देख जिसे।

आँख का जल उसे बना लें क्यों।

आँख का तिल है गर हमें प्यारा।

आँख का तेल तो निकालें क्यों।62।

निराले नगीने

हैं बेगाने तो बेगाने ही मगर।

कम नहीं लाते सगे सगे पर बला।

है हमारी आँख देखी बात यह।

आँख पर ही आँख का जादू चला।63।

काम अपना निकालने वाले।

काम अपना निकाल लेते हैं।

आँख में धूल डालनेवाले।

आँख में धूल डाल देते हैं।64।

जब किसी से कभी बिगड़ जावें।

तो बुरे ढंग से न बदले लें।

धूल दें आँख में भले ही हम।

लोन क्यों आँख में किसी को दें।65।

लोग बेचैन क्यों न होवेंगे।

तंग बेचैनियाँ करेंगी जब।

नींद जब रात रात भर न लगी।

क्यों उनींदी बनें न आँखें तब।66।

है कहीं पर मान मिल जाता बहुत।

है मुसीबत का कहीं पर सामना।

पोंछ डाला जो गया मुँह में लगे।

आँख में कालिख वही काजल बना।67।

है कहाँ पर भले नहीं होते।

पर मिले आपसे कहीं न भले।

आपसे आप ही जँचे हमको।

आ सका आप सा न आँख तले।68।

नोंक झोंक

जब कि दे सकते नहीं जी में जगह।

तब कहीं क्या जी लगाना चाहिए।

सोच लो आँखें चुरा कर और की।

क्या तुम्हें आँखें चुराना चाहिए।69।

प्यार में मोड़ मुँह मुरौअत से।

किस तरह लाज मुँह दिखा पाती।

सामने हो सकीं न जब आँखें।

आँख तब क्यों चुरा न ली जाती।70।

भाँपते क्यों न भाँपने वाले।

किस लिए बात हो बनाते तुम।

जब चलाई गई छिपी छूरी।

आँख कैसे न तब छिपाते तुम।71।

फिर नहीं देखा, न सीधी हो सकी।

रंग रिस पर प्यार का पाया न पुत।

तुम मचलते ही मचलते रह गये।

पर तुमारी आँख तो मचली बहुत।72।

जब नहीं रस बात में ही रह गया।

प्यार का रस तब नहीं सकते पिला।

जब कि जी ही मिल नहीं जी से सका।

तब सकोगे किस तरह आँखें मिला।73।

जब नहीं मेलजोल है भाता।

किस लिए जोड़ते फिरे नाते।

जब कि है मैल जम गया जी में।

आँख कैसे भला मिला पाते।74।

वह लबालब भरा भले ही हो।

पर चलेगा न कुछ किसी का बस।

बस यही सोच लो कहें क्या हम।

आँख टेढ़ी किये रहा कब रस।75।

क्यों बनी बातें नहीं जातीं बिगड़।

ऐंठ अनबन बीज ही जब बो गई।

जो किसी का जी नहीं टेढ़ा हुआ।

आँख टेढ़ी किस तरह तो हो गई।76।

मुँह चिढ़ायेंगे या बनायेंगे।

फबतियाँ हँसते हँसते लेवेंगे।

क्या भला और आपसे होगा।

आँख में धूल झोंक देवेंगे।77।

प्यार का देखना है बलबूता।

हार करके रमायेंगे न धुईं।

हम न बेचारपन दिखायेंगे।

चार आँखें हुईं बला से हुईं।78।

है नहीं मुझमें अजायबपन भरा।

वह न यों बेकार हो जावे कहीं।

क्यों बहुत हो फाड़ करके देखते।

आँख है कोई फटा कपड़ा नहीं।79।

बस किसी का रहा न पासे पर।

मति किसी की किसी ने कब हर ली।

लाल गोटी हुई हमारी तो।

आपने लाल आँख क्यों कर ली।80।

काम आती नहीं सगों के जब।

और के काम किस तरह आती।

तब मिले किस तरह किसी से, जब।

आँख से आँख मिल नहीं पाती।81।

चौकसी जिसकी बहुत ही की गई।

खोजते हैं अब नहीं मिलता वही।

देखते ही देखते जी ले गये।

आँख का काजल चुराना है यही।82।

किसलिए मुँह इस तरह कुम्हला गया।

किस मुसीबत की है परछाईं पड़ी।

पपड़ियाँ क्यों होठ पर पड़ने लगीं।

आँख पर है किसलिए झाईं पड़ी।83।

दिल हमारा हमें नहीं देते।

साथ ही बन रही बुरी गत है।

क्यों बनोगे न बेमुरौअत तब।

आँख में जब नहीं मुरौअत है।84।

जो कभी सामने न आ पाया।

हो सकेगा मिलाप उससे कब।

जब हमें आँख से न देख सके।

आँख से आँख क्यों मिलाते तब।85।

जब कि टूटा बहुत बड़ा नाता।

तब मुरौअत का तोड़ना कैसा।

जब किसी से किसी ने मुँह मोड़ा।

तब भला आँख मोड़ना कैसा।86।

आँख ने धूल आँख में झोंकी।

कर गई आँख आँख साथ ठगी।

क्यों नहीं आँख खुल सकी खोले।

क्यों लगे आँख जब कि आँख लगी।87।

किस तरह उसको गिरावें आँख से।

आँख पर जिसको कि हमने रख लिया।

किस तरह उससे बचावें आँख हम।

आँख में जिसने हमारी घर किया।88।

आँख अपनी क्यों चुरा है वह रहा।

आँख जिसके रंग में ही है रँगी।

क्यों नहीं आँखें उठा वह देखता।

आँख जिसकी ओर मेरी है लगी।89।

क्यों उसीको खोज हैं आँखें रहीं।

आँख में ही है किया जिसने कि घर।

देखने को आँख प्यासी ही रही।

आँख भर आई न देखा आँख भर।90।

वह न फूटी आँख से है देखता।

ऊबती आँखें बिगड़ जायें न क्यों।

किस लिए हम आँख की चोटें सहें।

आँख देखें आँख दिखलायें न क्यों।91।

आँख से ही जब निकल चिनगारियाँ।

आँख को हैं बेतरह देतीं जला।

तो कहायें आँखवाले किस लिए।

आँख होने से न होना है भला।92।

है अगर डूब डूब जाती तो।

किस लिए आँख डबडबा आवे।

क्यों चढ़ी आँख जब हुई नीची।

क्यों उठे आँख बैठ जो जावे।93।

आँख क्यों ऊँची नहीं हम रख सके।

आँख होते आँख कैसे खो गई।

आँख से उतरे उतर चेहरा गया।

देख नीचा आँख नीची हो गई।94।

आँख पर जिसको बिठाते हम रहे।

आँख से कैसे गिरा उसको दिया।

आँख दिखला कर नचायें क्यों उसे।

जो हमारी आँख में नाचा किया।95।

जो कि अपनी ही चुराता आँख है।

चोर बनना क्यों उसे लगता बुरा।

आँख का सबसे बड़ा वह चोर है।

जो चुराता आँख है आँखें चुरा।96।

ऐब धाब्बे बुरे गँवा पानी।

बेतुकी बात धो नहीं सकती।

सामने आँख वह करे कैसे।

सामने आँख हो नहीं सकती।97।

आँख मेरी क्यों नहीं ऊँची रहे।

आ सकेगा आँख में मेरी न जल।

लाल आँखें हो गईं तो हो गईं।

हैं बदलते आँख तो लेवें बदल।98।

वे बड़े आनबानवाले हैं।

अनबनों का हमें बड़ा डर है।

देखते बार-बार हैं उनको।

आँख होती नहीं बराबर है।99।

आँख अपनी छिपा छिपा करके।

फेर मुँह आँख फेरते देखा।

बात ही बात में तिनक करके।

आँख उनको तरेरते देखा।100।

आपकी आँखें अगर हैं हँस रहीं।

तो हँसें, बातें बता दें, जो हुईं।

चार आँखें हो अगर पाईं नहीं।

क्यों नहीं दो चार आँखें तो हुईं।101।

जब गई आँख पटपटा देखे।

तब पटी बात कैसे पट पाती।

लट गये जब कि चाल उलटी चल।

आँख कैसे न तब उलट जाती।102।

जो हमारी आँख में फिरते रहे।

वे रहे वैसे न आँखों के फिरे।

जो गिराये गिर न आँखों से सके।

गिर गये वे आँख का पानी गिरे।103।

आँख के सामने ऍंधोरा है।

क्यों न अंधोर कर चलें चालें।

आँख में है घुला लिया काजल।

आँख में धूल क्यों न वे डालें।104।

आँख की फूली फले कैसे नहीं।

है न कीने प्यार का घर देखते।

जब कि आँखें अब न वह उनकी रहीं।

क्यों न तब आँखें दबा कर देखते।105।

सब सगे हैं उन्हें सतायें क्यों।

आँख गड़ आँख में गड़े कैसे।

चाहिए लाड़ प्यार अपनों से।

आँख लड़ आँख से लड़े कैसे।106।

हूँ न काँटा कि आँख में खटकूँ।

मैं न पथ में बबूल बोता हूँ।

हूँ किसी आँख में न चुभता मैं।

मैं नहीं आँख-फोड़ तोता हूँ।107।

लाल मुँह है लाल अंगारा हुआ।

दूसरों पर बात क्यों हैं फेंकते।

कढ़ रही हैं आँख से चिनगारियाँ।

आँख सेकेंं, आँख जो हैं सेंकते।108।

रस के छीटें

भाग में मिलना लिखा था ही नहीं।

तुम न आये साँसतें इतनी हुईं।

जी हमारा था बहुत दिन से टँगा।

आज आँखें भी हमारी टँग गईं।109।

कुछ मरम रस का न जाना, ठग गईं।

जो न देखे रसभरी चितवन ठगीं।

है निचुड़ता प्यार जिसकी आँख से।

जो न उसकी आँख से आँखें लगीं।110।

प्यार जिस मुख पर उमड़ता ही रहा।

नेकियाँ जिस पर छलकती ही रहीं।

रह न आलापन सका, उसका समा।

आँख में जो है समा पता नहीं।111।

भौं चढ़ा करके लहू जिसने किये।

क्यों लहू से हाथ वह अपने भरे।

सीखता जादू फिरे तब किस लिए।

जब किसी की आँख ही जादू करे।112।

चाह इतनी ही न है! मतलब सधो।

हो न कुछ जादू चलाने में कसर।

क्या हुआ जो बात में जादू नहीं।

हो किसी की आँख में जादू अगर।113।

किस लिए वह आग है बरसा रहा।

रस सभी जिसका कि है बाँटा हुआ।

सब दिनों जो आँख में ही था बसा।

आज वह क्यों आँख का काँटा हुआ।114।

किस लिए होता कलेजा तर नहीं।

क्यों जलन भी है बनी अब भी वही।

मेंह दुख का नित बरसता ही रहा।

आँसुओं से आँख भींगी ही रही।115।

विष उगलती है मदों की खान है।

चोचलें भी हैं भरे उनमें निरे।

क्या अजब मर मर जिये माता रहे।

आँख का मारा अगर मारा फिरे।116।

जोत पायेंगे बहुत प्यारी कहाँ।

वे टटोलेंगे भला किस भाँति दिल।

नाम औ रँग में भले ही एक हों।

आँख के तिल से नहीं हैं और तिल।117।

है समा आसमान सब जाता।

है सका सब कमाल उसमें मिल।

क्या तिलस्मात हैं न दिखलाते।

आँख के ए तिलिस्म वाले तिल।118।

बावलापन साथ ही लाना बला।

जो न तेरे चुलबुलापन से कढ़ा।

आँख! तो अनमोल तुझको क्यों कहें।

मोल तुझसे है ममोलों का बढ़ा।119।

आँख जिससे आँख रह जाती नहीं।

आँख से मेरी न वह आँसू बहे।

आँख से वे दूर हो पावें नहीं।

आँख में मेरी समाये जो रहे।120।

आँख है आँख को लुभा लेती।

आँख रस आँख में बरसती है।

देखने को बड़ी बड़ी आँखें।

आँख किसकी नहीं तरसती है।121।

और की आँख आँख में न गड़े।

चाहिए आँख आँख को न ठगे।

आँख लड़ जाय आँख से न किसी।

आँख का बान आँख को न लगे।122।

देख भोलापन किसी की आँख का।

आँख कोई बेतरह भूली रही।

देख टेसू आँख में फूला किसी।

आँख में सरसों किसी फूली रही।123।

आँख है प्यार से भरी कोई।

है किसी आँख से न चलता बस।

है कोई आँख विष उगल देती।

है किसी आँख से बरसता रस।124।

चाल चलना पसंद है तो क्यों।

आँख से आँख की न चल जाती।

जब पड़ी बान है मचलने की।

आँख कैसे न तो मचल जाती।125।

आँख का फड़कना

प्यार करते राह में काँटे पड़े।

बार हम पर रो रही है बेधाकड़।

रंज औरों के फड़कने का नहीं।

आँख बाईं तू उठी कैसे फड़क।126।

कुछ भरोसा करो किसी का मत।

भौंह किसकी विपत्तिा में न तनी।

है सगा कौन, कौन है अपना।

आँख ही जब फड़क उठी अपनी।127।

सब सगे एक से नहीं होते।

हैं न तो सब सनेह में ढीले।

आँख दाईं न दुख पड़े फड़की।

आँख बाईं फड़क भले ही ले।128।

चेतावनी

क्यों समय को देख कर चलते नहीं।

काम की है राह कम चौड़ी नहीं।

आँख तो हम बन्द कर लें किस लिए।

आँख दौड़ाये अगर दौड़ी नहीं।129।

आँख में है निचुड़ रहा नीबू।

आँख है फूटती, नहीं बोले।

आँख का क्यों नहीं उठा परदा।

खुल सकी आँख क्यों नहीं खोले।130।

पास जिनका चाहिए करना हमें।

पास उनके क्यों खड़ी है दुख घड़ी।

आँख मेरी ओर है जिनकी लगी।

आँख उनपर क्यों नहीं अब तक पड़ी।131।

जाति को देख कर दुखी, कोई।

आँख कर बन्द किस तरह पाता।

आँख चरने न जो गई होती।

दुख तले आँख के न क्यों आता।132।

मौत का ही सामना है सामने।

भूलते हैं पंथ बतलाया हुआ।

हैं ऍंधोरी रात में हम घूमते।

है ऍंधोरा आँख पर छाया हुआ।133।

प्यार के पुतले

सामने आँख के पला जो है।

दूसरे हैं पले नहीं वैसे।

जो कहाता है आँख का तारा।

आँख में वह बसे नहीं कैसे।134।

क्यों नचाता हमें न उँगली पर।

उँगलियों को पकड़ चला है वह।

चाहिए सासना उसे करना।

आँख के सामने पला है वह।135।

लाड़वाली है कहाती लाड़िली।

लाल वे हैं लाल कहते हैं जिसे।

आँख में है आँख की पुतली बसी।

आँख के तारे न प्यारे हैं किसे।136।

मुँह सपूतों का अछूतापन भरा।

चाह से जिसको भलाई धो गई।

हो गया ठंढा कलेजा देख कर।

आँख में ठंढक निराली हो गई।137।

तरह तरह की बातें

साथ ही हम एक घर में हैं पले।

है हमारा पूछते क्यों आप घर।

जायगा चरबा उतरा क्यों नहीं।

छा गई है आँख में चरबी अगर।138।

दाँत टूटे पर न रँगीनी गई।

बाल को रँगते रँगाते ही रहे।

लाल करते ही रहे हम होठ को।

आँख में काजल लगाते ही रहे।139।

मत बेचारी बेबसी से तुम भिड़ो।

है तुमारी आस ही उसको बड़ी।

गिड़गिड़ाती है पकड़ कर पाँव जो।

क्यों तुमारी आँख उस पर ही गड़ी।140।

है चूक बहुत ही बड़ी, है न चालाकी।

बन समझदार नासमझी का दम भरना।

बेटे के आगे बाप को बुरा कहना।

है बदी आँख की भौं के आगे करना।141।

किसने अपने बच्चों का लहू निचोड़ा।

किसने बेटी बहनों का लहू बहाया।

कहता हूँ देखे अंधाधुंधा तुमारा।

सामने आँख के ऍंधिायाला है छाया।142।

जब बिगड़े भाग बिगड़ने के दिनआये।

तब कान खोल कैसे निज ऐब सुनेंगे।

पी ली है हमने ऐसी भंग निराली।

उलटे आँखें नीली पीली कर लेंगे।143।

जिनमें बुराइयाँ घर करती पलती हैं।

जो बन जाती हैं निठुरपने का प्याला।

तो समझ नहीं राई भर भी है हममें।

जो उन आँखों में राई लोन न डाला।144।

अन्योक्ति

आँख में गड़कर किसी की तू न गड़।

दूसरों पर टूट तू पड़ती न रह।

लाड़ तेरा है अगर होता बहुत।

ऐ लड़ाकी आँख तो लड़ती न रह।145।

ले सता तू सता सके जितना।

और को पेर पीस कर जी ले।

दिन बितेंगे बिसूरते रोते।

आज तू आँख हँस भले ही ले।146।

पीसने वाले गये पिस आप ही।

कर सितम कोई नहीं फूला फला।

मत कटीली बन कलेजा काट तू।

ऐ चुटीली आँख मत चोटें चला।147।

जो कि सजधाज में लगा सब दिन रहा।

वीरता के रंग में वह कब रँगा।

सूरमापन है नहीं सकती दिखा।

आँख सुरमा तू भले ही ले लेगा।148।

धूल में तेरा लड़ाकापन मिले।

जब लड़ी तब जाति ही से तू लड़ी।

देख तब तेरी कड़ाई को लिया।

आँख अपनों पर कड़ी जब तू पड़ी।149।

जब निकलने लग गईं चिनगारियाँ।

तब ठहरती किस तरह तुझमें तरी।

तब रसीलापन कहाँ तेरा रहा।

जब रसीली आँख रिस से तू भरी।150।

टूट पड़ लूटपाट करती है।

चित्ता को छीन चैन है खोती।

देख दंगा दबंगपन अपना।

आँख तू दंग क्यों नहीं होती।151।

हो सकेगी वह कभी कैसे भली।

हम सहम जिससे निराले दुख सहें।

डाल देती है भुलावों में अगर।

तब भला क्यों आँख को भोली कहें।152।

राह सीधी चल नहीं क्या सधा सका।

है सिधाई ऐंठ से आला कहीं।

क्यों सुहाता है न सीधापन तुझे।

आँख सीधो ताकती तू क्यों नहीं।153।

डाल कर और को ऍंधोरे में।

औ बना कर सुफेद को काला।

जब रही छीनती उजाला तू।

आँख तुझमें तभी पड़ा जाला।154।

जो उँजेले से हिला सब दिन रहा।

क्यों न ऊबेगा ऍंधोरे में वही।

आँख तू तो जानती ही है इसे।

है न जाला औ उँजाला एक ही।155।

जब कभी एक हो गई तर तो।

दूसरी भी तुरत हुई तर है।

कब दुखे एक दूसरी न दुखी।

आँख दोनों सदा बराबर है।156।

पनक

देवदेव

जब कि प्यारे गड़े तुम्हीं जी में।

तब भला दूसरा गड़े कैसे।

जब तुम्हीं आँख में अड़े आ कर।

तब बिचारी पलक पड़े कैसे।1।

सुनहली सीख

काँपती मौत भी रही जिनसे।

जो रहे काल मारतों के भी।

लोग तब डींग मारते क्या हैं।

जब पलक मारते मरे वे भी।2।

कब भला है पसीजता पत्थर।

क्यों न झंडे मिलाप के गाड़ें।

क्यों बिठालें उन्हें न आँखों पर।

क्यों पलक से, न पाँव हम झाड़ें।3।

देसहित जो ललक ललक करते।

जान जो जाति के लिए देते।

तो पलक पाँवड़े न क्यों बिछते।

क्यों पलक पर न लोग ले लेते।4।

निराले नगीने

जो फिरा दें न फेरने वाले।

तो फिरे तो हवा फिरे कैसे।

जब गिराना न आँख ही चाहे।

तब गिरे तो पलक गिरे कैसे।5।

किस तरह से रँग बदलता है समय।

ठीक इसकी है दिखा देती झलक।

हैं गिरे उठते व गिरते हैं उठे।

है यही उठ गिरा बता देती पलक।6।

जब सगों पर रही बिपत लाती।

तब भला क्यों निहाल हो फिरती।

जब गिराती रही बरौनी को।

तब पलक आप भी न क्यों गिरती।7।

कौन कहता है कि हित के संगती।

छोड़ हित अनहित सकेंगे ही न कर।

कम नहीं उसमें बरौनी गिर गड़ी।

पाहरू सी है पलक जिस आँख पर।8।

मानवाले मान जिससे पा सके।

इसलिए हैं फूल भावों के खिले।

राह में आँखें बिछाई कब गईं।

कब पलक के पाँवड़े पड़ते मिले।9।

नोंक झोंक

है न बसता प्यार जिसमें आँख वह।

है छिपाये से भला छिपती कहीं।

किस तरह से आप तब उठ कर मिलें।

जब पलक ही आपकी उठती नहीं।10।

एक पल है पहाड़ हो जाता।

देखने के लिए न क्यों ललकें।

हम पलक-ओट सह नहीं सकते।

आइये हैं बिछी हुई पलकें।11।

रंग होता अगर नहीं बदला।

प्यार का रंग तो दिखाता क्यों।

जो पलक भी नहीं उठाता था।

वह पलक पाँवड़े बिछाता क्यों।12।

क्यों उमगता आपका आना सुने।

किस लिए घी के दिये तो बालता।

जो पलक पर चाहता रखना नहीं।

तो पलक के पाँवड़े क्यों डालता।13।

आँ सू

अपने दुखड़े

कम हुआ मान किस कमाई से।

यम न यम के लिए बना क्यों यम।

क्यों नहीं चार बाँह आठ बनी।

रो चुके आठ आठ आँसू हम।1।

कर सका दुख दूर दुख में कौन गिर।

दिल छिला किसका हमारा दिल छिले।

पोंछने वाला न आँसू का मिला।

कम न आँसू डालने वाले मिले।2।

वह भला कैसे बलायें ले सके।

बात से जो है बलायें टालता।

आँसुओं से वह नहा कैसे सके।

जो नहीं दो बूँद आँसू ढालता।3।

चूकते ही हम चले जाते नहीं।

आप हमको डाँट बतलाते न जो।

भेद खुल जाते हमारे किस तरह।

आँख से आँसू टपक पाते न जो।4।

मत बढ़ो हितबीज जिनमें हैं पड़े।

खेत में उन करतबों के ही रमो।

अब कलेजा थामते बनता नहीं।

ऐ हमारे आँसुओ! तुम भी थमो।5।

हम कहें किस तरह कि खलती है।

जो हुई पेटहित पलीद ठगी।

हिचकियाँ लग गईं अगर न हमें।

आँसुओं की अगर झड़ी न लगी।6।

हितगुटके

बात सुन कर ज्ञान या बैराग की।

आँख भर भर कर बहुत ही रो लिया।

मैल कुछ भी धुल नहीं जी का सका।

आँसुओं से मुँह भले ही धो लिया।7।

तो कहें कैसे कि पकते केस से।

सीख कुछ बैराग की हम पा सके।

जो पके फल को टपकता देख कर।

आँख से आँसू नहीं टपका सके।8।

चल सका कुछ बस न आँसू के चले।

फेरते क्यों, वे नहीं फेरे फिरे।

गिर गये आँसू गिरा करके हमें।

क्यों न गिरते आँख का पानी गिरे।9।

यह सरग से आन धारती पर बही।

आँख में वह कढ़ कलेजे से बहा।

चाहते गंगा नहाना हैं अगर।

क्यों न लें तो प्रेम-आँसू से नहा।10।

आँख के आँसू अगर हैं चल पड़े।

तो हमें उनको फिराना चाहिए।

आँख का पानी गिरे गिर जायँगे।

क्या हमें आँसू गिराना चाहिए।11।

आन बान

आन जाते देख आँसू पी गये।

हम न ओछापन दिखा ओछे हुए।

पोंछने वाला न आँसू का मिला।

पुँछ गया आँसू बिना पोंछे हुए।12।

निराले नगीने

आप ही सोचें बिना ही आब के।

रह सकेगी आबरू कैसे कहीं।

आँख का रहता न पत पानी बना।

आँख में आँसू अगर आता नहीं।13।

एक के जी की कसर जाती नहीं।

प्यार का दम दूसरे भरते रहे।

धूल तो है धूल में देती मिला।

तरबतर आँसू उसे करते रहे।14।

जब किसी का जी कलपता है न तो।

रो उठे रोते कभी बनता नहीं।

बँधा सकेगी तब भला कैसे झड़ी।

आँसुओं का तार जब बँधाता नहीं।15। <