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कविता

वह भी कोई दिल्ली है !

सुजाता


( एक)

पेड़ों की कतारें थकी खड़ी भौंचक
सड़कों पर बहती रात में कोई उदास गीत सुस्ताई पत्तियों पर टँगा
सिमटा हुआ कोई अपनी रिक्शे की सीट पर
यहीं फ्लाईओवर के नीचे

अनगिन बदन लालकिले से बस अड्डे... पटरियों पर
निःस्वप्न
ख्वाबगाह...

ये पीली बत्तियों की लड़ी बुझ जाए तो मेरी शर्मिंदगी जरा कम हो !

( दो)

मैं कतार में हूँ
बेसब्र है पीछे कोई
शोर और बहरापन एक साथ
यहाँ से कहीं नहीं जाया जा सकता
जितनी यातना है उतना मोह

अभी रेंगना है कुछ दूर और
अधूरा अधूरा सा भरते हुए आँखों में, बदरंग
शहर की शाम का आसमाँ

( तीन)

इधर शहर तीन चौथाई से जरा कम होगा
एक पुराने लोहे के पुल वाली नदी बीच में उपेक्षित
मुँह बिचकाते थे रिश्तेदार उधर के 'कहाँ जमनापार जा बसे हो, गाँव है एकदम
वह भी कोई दिल्ली है !'

( चार)

ठहरी होती है नदी अपलक देखती
पुल सरक रहा है धीमे धीमे जैसे गुलामों की कतार
सर झुकाए बेबस
अभी खेला जाएगा मौत का खेल

याद आती है सहधारा, निश्चल, सोती हुई सी चंबल
उसके बीहड़
एक सुंदर लैंडस्केप !

( पाँच)

एक बद्तमीज शहर जो नहीं ही सीखता अपनी नदी को प्यार करना
उसकी नींद में मरोड़ है, प्यास में चुभन, साँस में अकाल है, उन्माद है भूख में

( छह)

जैसे दिमाग हो एक खराब टाइम मशीन
सेट करती हूँ एक हफ्ता, ले जाता है तीस साल पीछे

जंगपुरा का मोहल्ला
रिफ्यूजियों के लिए बने मकान
छत पर दौड़ती लड़की...
आवाज लगाती थी नानी -
नीथल्ले आ गुरिया, ढैं पोसे !
अभी ढेर काम हैं गुड़िया को
नीचे नहीं आएगी अभी
न गिरेगी...
देखती हूँ घर के सपने तो नहीं बदलता सरकारी क्वार्टर सपने में भी...
वे कितने अलग थे हमसे जिनके गाँव थे। उनके यहाँ सपनों में गाँव ही आता होगा और सब कुछ बदलने के बावजूद नहीं बदलता होगा गाँव उनके भी सपनों में।

( सात)

बच्चों के शोर से झल्लाया बूढ़ा दौड़ता है लाठी लिए जैसे
कमबख्त दोपहर में सोने भी नहीं देते
ऐसे चलती है झींकती हुई डीटीसी की बस पुरानी वाली
मुश्किल से रुकती है, खिंचता है कलेजा उसका दूर तक

कई दिन रही थी मैं दीवानी
- बड़े होकर कंडक्टर बनूँगी पापा
लौटते थे जब उनसे
ढेर सारी जमा कर ली थीं टिकटें बस की 2,3,5 रुपए वाली

पास बनवा लिया था कॉलेज में अकसर भूलती थी जिसे घर पर
एक बेटिकट पकड़ा गया है गैंग है पूरा
स्टाफ चलाता है हर बार मुझे पता है
वक्त पर नहीं मिलेगी मेरी टिकट
घड़ी के पट्टे में उसकी बत्ती बना के खोंस लेती हूँ

परिचय-अपरिचय के बीच भी एक बड़ा संसार बसता रहा...

दफ्तर से लौटती अधेड़ महिला बस में सवार होते रोज नजर घुमाती
- एडजस्ट कर लेना प्लीज
पीछे खड़ी लड़की कहती हुई - मुझे अपनी सीट के बीच खड़े होने दीजिए
बीच की गली में गहरी है भीड़
अभी एक लड़की गहरी साँस लेते उतर गई अपने स्टॉप पे
शुक्र है खत्म हुआ नर्क का सफर
स्वेटर चल रहे हैं धड़ाधड़ सबसे पीछे...
मूँगफलियों के छिलकों से उछल रहे हैं बातों के छिलके आधे खिड़की से बाहर
आधे सीट के नीचे सरका दिए हैं पाँव से अगले बैठने वाले ने
बच्चा उचक रहा है खिड़की से बाहर - सँभालो बहनजी !
जैसे नींद से जगाता कोई कहता है बगल से गुजरता -
आपका दुपट्टा कार के दरवाजे में फँसा है...

( आठ)

नींद की गलियों में
दूर तक सीटी बजाता भागता है स्वप्न
...मुझे दिन दहाड़े रात की याद आती है...

दिखाती हूँ बॉस को फाइल
कल देर रात तक किया है काम

वह पीठ निहारते कहता है - मुझे तुम पर नाज है !
सपने ज्यादा नहीं देखना
और रीढ़ को जरा कम करने की कोशिश करो।

(हर वाक्य में एक शब्द कहता है संदर्भ से परे उसकी आदत है, रीढ़ कह गया है नींद को शायद)

आज देर हुई है इतनी
पहचान गलती से दराज में भूल आई हूँ
दुपट्टे में किसी की टेढी हँसी अटक के साथ आ गई है छुड़ाने में फट न जाए

यहाँ दिन भर एक गुम सड़क पड़ी रहती है
सो जाते हैं सब तो खरामाखरामा चलते इस गुब्बारेवाले के पाँव के नीचे जमीन आ गई है
कितनी शांति है इस वक्त
मेट्रो के जनाना डब्बे में बच्चों की चिल्लपों नहीं होगी

महिला सुरक्षा के पोस्टर हैं
एक अकेली अधेड़ स्त्री ने उन पर नजर उछाली
तो जैसे कहा हो ये सारे नंबर
बच्चियों को बाँट दो टाफियों की जगह स्कूल की पहली क्लास में
फिर उड़ती नजर मुझ पर
मैं उसे पगली लगी हूँगी जरूर

बिजली के खंभों पर बेताल से लटक गए हैं
सच के कई चेहरे
कतई रोशनी नहीं है अगर चाँद न हो इस वक्त
हाथ बढ़ाना चाहती हूँ, लेकिन उन्मत्त, गाती हुई निकल जाती है कोई लड़की,

निर्भय
- चाँद प्रेमी है भागना चाहती हूँ उसके साथ कहना चाहती हूँ उसे रुक जाओ आज की रात मेरे लिए
पाना चाहती हूँ धरती आसमान के बीच तुम्हें

( नौ)

शहर
बूढ़ा बाबा है
उदास हों तो पकड़ता है उँगली
घुमाता है रस्ते सिखाता है सब्र

जो हो जाती हूँ यहाँ
नहीं हो सकती थी कहीं

लौटती हूँ यहीं...
यहीं तो लौटती हूँ ...स्मृतियों में भी...
इसे श्राप न देना कवि !


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