अधूरे चेहरे वाले मुखौटे के सामने इंतजार में सूखते रंग
	अधूरी नींद में जागे होने का भ्रम पाले घिसटती देह गाफिल
	आखिरी चार पन्नों के पढ़ लिए जाने से पहले सीने पर औंधी किताब सी रह गई हूँ मैं
	तुम्हारी नींद में होती हूँ तो नहीं होती कहीं भी और
	बेनींद दिन भी मेरे तपते हैं लू की थपेड़ में
	सोचती हूँ तुम्हें तो घिर आते हैं मेघ आषाढ़ के
	बंद आँखों में उगते हैं इंद्रधनुष धुँधले से
	एक अबाबील चीखती हुई गुजर जाती है आसमान पर
	इस साल खूब बारिश के आसार हैं और बाढ़ के लिए नहीं कोई इंतजाम
	तुम्हारे साथ देखने लगती हूँ सफेद, गहराते बादलों में काले पहाड़ बर्फ सने
	जहाँ शहर में नहीं दिखी कभी क्षितिज रेखा
	कितने घने सब ओर देवदार
	और कोहरे के बीच टापू सा पहाड़ का यह टुकड़ा
	समुद्री लुटेरों के आने से पहले
	चूम लेना चाहती हूँ तुम्हें निर्द्वंद्व
	तीखे मोड़ पर लिखी चेतावनियाँ मिटा आना चाहती हूँ
	मैं सुनना चाहती हूँ तुम्हें सबसे अँधेरे कोनों में सबसे बहरे समय के हारे हुए
	मौन में जैसे खोया हुआ यात्री सुनता है नदी को आस के अंतिम छोर पर। मुझे सुनते
	रहना है तुम्हें कत्ल के आखिरी मंसूबे के बनाए जाने से पहले और बंद होती हुई
	बहत्तरवीं धड़कन तक
	अभी रह गई हूँ मैं
	आखिरी दाना चुगने से पहले 'खट' की आवाज में रह जाती है जैसे बची हुई भूख।