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आलोचना

राजेश जोशी : गहरे निहितार्थो का कवि

जगन्नाथ दुबे


हर प्रतिगामी शक्ति से मुखालफत कर प्रगतिशील युगधर्म की वकालत करने वाले कवि राजेश जोशी ने 'ज़िद' कविता संग्रह के प्रकाशन के साथ मुकम्मल तौर पर एक पीढ़ी की कविता यात्रा पूरी कर ली है और इस तरह अब उनके लिखे का सम्यक मूल्यांकन करना जितना जरूरी है उतना ही सार्थक भी। इसका यह मतलब नहीं कि ज़िद से पहले यह मूल्यांकन बेमानी होता या जो हुआ है वह अधूरा है। किसी भी रचनाकार की रचनाधर्मिता के वर्णन, विवेचन और मूल्यांकन की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। वह अपने किए की सामाजिक स्वीकृति के साथ ही आगे की दिशा भी तय करता चलता है। मुक्तिबोध के शब्दों में इसे ही रचनाकार का आत्म-संघर्ष कहा जाना उचित है। राजेश जोशी के इस आत्म-संघर्ष के प्रक्रिया की चरम परिणति जहाँ दिखती है वह ज़िद है। ज़िद संग्रह का प्रकाशन कई दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। यह संग्रह एक ऐसे समय में आया है जब प्रकाश पर अंधकार के वर्चस्व की विजयगाथा लिखने की पूरी तैयारी के साथ व्यवस्था की जकड़बंदी पूरे समाज पर हावी है। बेहद प्रायोजित ढंग से एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जो पूरी तरह बाजार नियंत्रित और संचालित हो, जहाँ साहित्य और कला जैसे मानवीय सरोकारों से जुड़े विषयों के लिए कोई स्थान सुरक्षित न हो। प्रतिरोध की सबसे कमजोर आवाज को भी पूरे दलबल के साथ कुचलकर एकाधिकार की व्यवस्था कायम कर तानाशाही फरमान जारी करने की तैयारी हो। ऐसे समय में कथ्य के स्तर पर सत्ता के हर रूप से टकराते हुए अपना स्पष्ट प्रतिरोध दर्ज कराकर बेहद सावधानीपूर्वक गढ़ी गई कविताओं के मजबूत संकलन का आना हमें अपने समय और समाज को देखने समझने का अवसर देता है और एक कवि की प्रतिबद्धता को मूल्यांकित करने का उचित समय भी मुहैया कराता है। ज़िद संग्रह एक कवि के संपूर्ण कलात्मकता की स्वाभाविक परिणति जैसा है। अपने तेवर में राजेश जोशी अपने शुरुआती कवि जीवन से ही सामाजिक-राजनैतिक संरचना के भीतर पल रही विभेदकारी और शोषण पर टिकी व्यवस्था की मुखालफत कर एक सामासिक जीवन पद्धति विकसित करने का प्रयास करने वाले कवि रहे हैं। उनकी चिंताओं में व्यक्ति, समाज और मानवीय मूल्य काफी मुखर हैं। राजेश जोशी सुकून देने वाले कवि नहीं है वे बेचैन करने वाले कवि हैं। यह बेचैनी उनके सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था से असंतोष के कारण है। मुक्तिबोध ने अपनी एक कविता में कहा है 'जो है उससे बेहतर चाहिए'। यह बेहतर की चाह ही असंतोष की जननी है। जवाहर लाल नेहरू ने कहीं लिखा है कि जीवन को कविता जितना सुंदर होना चाहिए। यह कविता जितना सुंदर होना क्या है, राजेश जोशी की लंबी कविता समर गाथा के बहाने इसे ऐसे समझे -

स्वतंत्र होना है, होना है
हमें, हम सबको
चिड़ियों की तरह स्वतंत्र होना है।
जीना है, जीना है
हमें हम सबको
पेड़ों की तरह जीना है।
गर्व से सिर उठाए
धूप, पानी, हवा और मिट्टी के साथ
लहलहाते हुए, झूमते गाते हुए
हम दुनिया को फूलों और फलों से लाद देंगे।1

जीवन के कविता की तरह होने से आशय शायद ऐसे जीवन के होने से होगा। लेकिन आलम यह है कि पूरी कायनात ही इस पूरे कवितापन की विरोधी होती चली जा रही है। भयंकर रूप से एक पागलपन का दौर चल रहा है और जो इस पागलपन में शामिल नहीं है वह जीने का अधिकारी भी नहीं है। ऐसी उद्घोषणा करने वाले समाज की वास्तविक सच्चाई व्यक्त करती है, 'मारे जाएँगे' शीर्षक कविता। जहाँ समरगाथा शीर्षक कविता की इन पंक्तियों में कवि की इच्छा-आकांक्षा अभिव्यक्त हुई है वहीं मारे जाएँगे कविता भारतीय समाज का सच व्यक्त कर रही है। यह आकांक्षा और हकीकत का अर्थ दो समय का फर्क भी है। समरगाथा कविता एक ऐसे युवा कवि के सोच की कविता है जो व्यवस्था को अपने दम पर बदल डालने का स्वप्न पाले बैठा हुआ है। उसे अपने बाजुओं पर विश्वास है वह सत्ता की चालाकी और धूर्तता से पूरी तरह परिचित न होने के कारण शायद उनकी गोटियों को ठीक से न समझ पा रहा हो लेकिन जब वही कवि और ज्यादा मजबूती के साथ समाजिक संरचना की समझ विकसित कर लेता है तो उसे हकीकत का अंदाजा लग जाता है। इन्हीं सारे अंतरविरोधों को ध्यान में रखते हुए धूमिल ने कहा होगा 'हमारे यहाँ क्रांति, किसी अबोध बच्चे के हाथों की जूजी' है। यह अनायास नहीं है कि जहाँ समरगाथा कविता में कवि नाज़िम हिकमत को कोट करते हुए शिकायताना अंदाज में कहता है -

वे हमें अपने गीत नहीं गाने देते रोबसन
वे चाहते हैं कि हम अपने गीत न गा सकें।2

वहीं ज़िद तक आते-आते कवि व्यवस्था का प्रतिरोध करने के लिए उसी के हथियार को इस्तेमाल करने की काबिलियत हासिल कर कहता है -

अँधेरे से जब बहुत सारे लोग डर जाते थे
और उसे अपनी नियति मान लेते थे
कुछ जिद्दी लोग हमेशा बच रहते थे समाज में
जो कहते थे अँधेरे समय में अँधेरे के बारे में गाना ही
रोशनी के बारे में गाना है।
वे अँधेरे समय में अँधेरे के गीत गाते थे।
अँधेरे के लिए यही सबसे बड़ा खतरा था।3

अँधेरे का यह गीत गा सकने की योग्यता उसी के पास है, जो अँधेरे की गति और नियति दोनों जानता हो। राजेश जोशी को वह योग्यता हासिल है। उनके पास व्यापक सामाजिक अनुभव तो है ही प्रत्येक घटनाक्रम को देखने, समझने और अभिव्यक्त करने की सूक्ष्म अंतरदृष्टि भी है यह अंतरदृष्टि ही राजेश जोशी को अपने समकालीनों से अलग बनाती है और विशिष्ट भी। राजेश जोशी की कविताओं को उनके स्वाभाविक विकासरूप में देखने पर एक युवा कवि के प्रौढ़ और वरिष्ठ में बदलने तक की पूरी यात्रा दर्ज मिलती है। लंबी कविता 'समरगाथा' और 'एक दिन बोलेंगे पेड़' या 'मिट्टी का चेहरा' के कवि राजेश जोशी और 'नेपथ्य में हँसी', 'दो पंक्तियों के बीच', 'चाँद की वर्तनी' और 'ज़िद' के कवि राजेश जोशी में जो अंतर आया है वह साफ दिखता है। अपनी प्रारंभिक कविताओं में जहाँ कवि का तेवर एक तरफ रोमानी किस्म का था तो दूसरी तरफ जो भी गलत है उसे अपने तरफ बदलकर रख देने का जज़्बा मौजूद था। धीरे-धीरे करके यह दोनों तेवर खत्म होता गया और उसकी जगह लेती गई एक गहरी बेचैनी। राजेश जोशी के अंतिम तीन संग्रह और खासकर 'दो पंक्तियों के बीच' और 'चाँद की वर्तनी' संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए सामाजिक हलचलों से घबराए हुए एक ऐसे चरित का चेहरा बार-बार याद आता है जो एक शांतिपूर्ण वातावरण की खोज में लगातार लगा हुआ है लेकिन उसे वह नसीब नहीं। ये जो शांतिपूर्ण वातावरण की खोज है यह आधुनिक मानव-मन की सबसे बड़ी समस्या है। विकास की अंधी दौड़ में आगे बढ़ रहे इनसान ने यह कभी सोचा ही नहीं कि एक ऐसी मंजिल भी आ सकती है जहाँ से कि सारे संसाधनों की उपलब्धता के बावजूद सुकून के पल गायब हो जाएँगे। जब इनसान आधुनिक बनने की प्रक्रिया में नए-नए आविष्कारों को जन्म दे रहा था तो उसे यह कभी लगा ही नहीं कि हमारे साथ-साथ हमारी सहजीवी प्रकृति भी हमारे साथ है, उसे असंतुलित करके हम जो भी अर्जित करेंगे वह क्षणिक सुख भले दे दे शाश्वत शांति नहीं दे सकता। विकास के दौड़ में खाँव-खाँव करता इनसान सब कुछ निगल जाना चाहता था उसके रास्ते में नदी आई तो उसने उसे सुखा दिया, जंगल आए काट डाला, पहाड़ आए खोदकर फेंक दिया जहाँ हरे-भरे पेड़ों की जरूरत थी वहाँ बड़ी-बड़ी चिमनियाँ लग गई, मन में वैमनस्य पाल लिया, मानवीयता का गला घोंट दिया। साहित्य संस्कृति से अपना नाता तोड़ लिया और तब उसने कहा कि मैंने विकास किया है। मैं आधुनिक हो गया हूँ। दो-दो विश्वयुद्धों के करोड़ों नरसंहारों को अपनी विजययात्रा बताने वाले क्रूर मनुष्य के अवचेतन तक में सांप्रदायिकता और नस्लीय श्रेष्ठता का जहर भरा हुआ है, लेकिन वह ऐंठ कर चलता है और कहता है कि यह हमारी उपलब्धि है। जब वह इन उपलब्धियों का गिना कर ठहाका लगा रहा हो तो कविता के भीतर सुकून के पल होंगे यह अकल्पनीय है। कलाएँ सामासिकता और सहजीविता की पक्षधर हुआ करती हैं। उन्हें इस तरह का एकांगी परिवर्तन प्रगतिशील कम प्रतिगामी ज्यादा लगता है। इसीलिए वे इसकी मुखालफत करती हैं। एक सजग सर्जक कला के मूल्यों के साथ उचित बर्ताव करते हुए अपना युग धर्म निर्मित करता है। राजेश जोशी जैसे सजग कवि की कविताओं में यह युगधर्म बेहद मजबूती के साथ अभिव्यक्ति पा पाया है।

आधुनिक भारतीय मानव मन की निर्मिति में जिन पुरखे रचनाकारों से संवादी रिश्ता कायम कर एक बेहतर सामाजिक संरचना का विकास हो सकता था। वह हिंदी नवजागरण के दौर में ही अपनी तमाम प्रगतिशील भूमिका के बाद भी खंडित नजर आता है। कबीर और तुलसी जैसे पुरखे जिस सामाजिक एका की वकालत कर रहे थे और आचार्य शुक्ल के हवाले से कहूँ तो कबीर जैसे संत डाँट-फटकार कर दोनों दीन के लोगों को एक साथ लाकर बिठा पाने में सफल भी हो गए थे उसकी धारा को उन्हीं के वंशजों ने आगे चलकर अवरुद्ध कर दिया यह अवरोध कुछ इस तरह पैदा हुआ कि भारतीय इतिहास की महान कलंकित घटना देश विभाजन के रूप में उसकी परिणति हुई। दो विश्वयुद्धों की भयंकर तबाही के साथ देश विभाजन का दर्द लिए राजेश जोशी की पीढ़ी जब साहित्य के क्षेत्र में आ रही थी तब तक भारत-पाक युद्ध, भारत चीन युद्ध, नक्सलवादी आंदोलन और भाषा आंदोलन जैसी बड़ी घटनाएँ भारत के निकट अतीत में घट चुकी थी। यह बात रेखांकित करने की है कि कायदे से राजेश जोशी एक कवि के रूप में जेपी आंदोलन के साथ साहित्य के रंग मंच पर आते हैं। राजेश जोशी जैसा सजग सर्जक उस आंदोलन की चेतना से न प्रभावित हुआ हो ऐसा हो सकना काफी कठिन है। जेपी आंदोलन, आपातकाल, कांग्रेस का सत्ता से विमुख होना, जनता दल की सरकार और फिर कांग्रेस की वापसी ये कुछ घटनाएँ इतने कम दिनों में घटित हुईं और इतनी प्रभावकारी साबित हुई कि इसका हम जैसे जिन्होंने उसे देखा नहीं सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं।

भारत की सामाजिक-राजनैतिक गतिविधियों के लिहज से 70 से 80 का दशक जितना तीव्र हलचलों वाला दशक सिद्ध हुआ उतना बहुत कम बार होता है। 20वीं सदी का तो कोई और दशक याद नहीं आता, और यह परिवर्तन एक रेखांकन सिद्ध हो रहा था। उस दौरान जो कुछ घटित हो रहा था वह अपना असर छोड़ रहा था। भारतीय राजनीति के लिहाज से जेपी आंदोलन एक तरफ विपक्ष का विकल्प तय करने वाला आंदोलन था तो दूसरी तरफ समाज के पिछड़े वर्ग को सत्ता की कुंजी सौंपने वाला भी साबित हो रहा था। आर्थिक सुधारों के लिहाज से यही वर्ष हरित क्रांति और श्वेत क्रांति के वर्ष भी हैं। दो विश्वयुद्धों का मार खाया विश्व और विभाजन-विस्थापन, सांप्रदायिक दंश और गरीबी का मार खाया भारत जहाँ एक युवा कवि के आधार में मौजूद था वहीं ये घटनाएँ जिनमें उसकी सीधी-सीधी आवाजाही थी उत्प्रेरक का कार्य कर रही थीं। इन्हीं सबों के बीच अपने समय को रचने की कोशिश करने वाला कवि जब अपने पीछे देखता था तो मुक्तिबोध इशारे से उसे संभावित खतरों से सजग कर रहे थे। नागार्जुन हाथ पकड़कर साथ चलने को कह रहे थे तो राजकमल चौधरी मुक्ति प्रसंग में अपनी बीमारी के बहाने देश की बीमारी का महाआख्यान लिख रहे थे। राजेश जोशी की लंबी कविता समरगाथा को जब इन सभी हलचलों के बीच पढ़ा जाएगा तो उसके जूँ का वृत्तांत आसानी से समझ आएगा। समरगाथा नामक कविता के बारे में राजेश जोशी ने लिखा है कि इसकी प्रेरणा गोल्डन फ्लीज की खोज नामक यूनानी कथा से मिली और यह एक नौसिखिए कवि का उत्साह और आवेग था। यह उत्साह और आवेग जितना एक नौसिखिए कवि का उत्साह और आवेग था उससे कई गुना ज्यादा एक युवा कवि की बेचैनी की परिणति थी। एक युवा का जो गुस्सैल नायकत्व हो सकता है वह इस कविता में व्याप्त है। चीजें किस तरह एक दूसरे से जुड़ी होकर ही अपना पूरा वितान रच सकने में सफल होती हैं यह देखने के लिए एक ही समय की कई विधाओं से एक साथ टकराना चाहिए। यह अनायास नहीं है कि भारतीय इतिहास का यह दशक युवाओं के गुस्से की अभिव्यक्ति का दशक भी है। कला के हर माध्यम में नायकत्व एक युवा गुस्सैल के हाथों में ही है चाहे वह कविता, कहानी उपन्यास, नाटक हो या सिनेमा हो या फिर पेंटिंग। लेकिन इसके बाद धीरे-धीरे कांग्रेस के सत्ता में वापसी के साथ ही यह गुस्सा भीतर चला गया और राजेश जोशी की पीढ़ी ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक नई जमीन तलाश की। वह जमीन कैसी थी इसके बारे में खुद राजेश जोशी लिखते हैं कि -''मुझे लगता है कि आठवें दशक की कविता वस्तुतः हारिजेंटल एक्सिस की कविता है। उदात्तता, गहराई, ऊँचाई या जटिलता में धँसना जैसे पदों में उसे नहीं समझा जा सकता। उर्ध्व-अक्षीय सोच के ये सारे पद अब निरस्त हो चुके हैं। आज की कविता में गूढ़ार्थ नहीं निहितार्थ महत्वपूर्ण है। धूमिल के साथ-साथ कविता में नायकों की विदाई का अंतिम गीत गाया जा चुका है। यहाँ नायकों का प्रवेश निषिद्ध है। यह चरित्रों की कविता है। यह हमारे आसपास और दूर तक फैले जीवन प्रसंगों की कविता है। वह जीवन को उसकी विशिष्टता नहीं रही उसके विस्तार में रचना चाहती है यह एक सहज भाव की कविता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहीं कहा है कि ''सच्चे काव्य में सहज भाव प्रधान होता है। आरोपित नहीं। इसी अर्थ में वह एक सच्ची कविता है। इसमें सामान्य का विशिष्टीकरण या विशिष्ट के सामान्यीकरण की कोशिश नहीं है। वह सामान्य को सामान्य की तरह ही दिखाना चाहती है।'4 उसी में आगे चलकर प्रवृत्तिगत विशेषताओं को उद्घाटित करते हुए उन्होंने लिखा है - ''आठवें दशक की कविता अपनी कला, भाषा और अपने पूरे व्यवहार में अपने से पहले की संपूर्ण कविता की बनिस्बत सबसे अधिक जनतांत्रिक कविता है।''5 राजेश जोशी का यह बयान और इसके साथ ही 'कविता का आठवाँ दशक' शीर्षक लेख में अभिव्यक्त उनका विचार जितना ज्यादा 8वें दशक की कविता के लिए महत्वपूर्ण है, उससे ज्यादा उनकी कविताई को समझने के लिए। समकालीन कविता में राजेश जोशी एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने अपनी आलोचना का आधार अपनी और अपने आसपास की कविताई को बनाया है। जब वह अपनी परंपरा में कबीर और तुलसी जैसे कवियों से संवाद करते हैं तब भी वह अपने और अपने आसपास की चिंताओं के साथ ही संवाद करते हैं। इसीलिए उनकी आलोचनात्मक पुस्तकों 'एक कवि की नोटबुक' और 'एक कवि की दूसरी नोटबुक' (समकालीनता और साहित्य) को पढ़ते हुए ध्यान बार-बार उनके कविता प्रदेश पर जाता है। एक क्षण के लिए ऐसा लगता है जैसे उनकी आलोचनात्मक निष्पत्तियों का आधार उनकी ही कविताएँ हों। ऐसा लगना दो कारणों से हो सकता है। पहला तो यह कि उन्होंने अपनी आलोचनात्मक लेखन अपनी कविता के सूत्र खोलने के लिए किए हों जैसा बहुत सारे कवि करते हैं/किया है। 'जनता का साहित्य किसे कहें?' नामक लेख ऐसा लगता है कि मुक्तिबोध ने अपनी जटिल संरचना के ताने-बाने को अभिव्यक्त करने के लिए लिखा हो। दूसरा कारण यह कि चूँकि राजेश जोशी अपने आलोचनात्मक लेखन में समकालीन कविता के जिन सूत्रों की बात करते हैं उनमें से अधिकांश खुद उनकी कविता के भीतर व्याप्त हैं, इसलिए पाठक को ऐसा भ्रम होने लगता है कि राजेश जोशी की आलोचना उनकी कविता के सूत्र खोलने का उपक्रम मात्र है।

राजेश जोशी कुछेक उन समकालीन कवियों में हैं जिन्हें अपनी काव्य परंपरा की विराटता और अंतर्विरोध दोनों का भान है। अपनी परंपरा का बोध जिस रचनाकार को नहीं होगा उससे कुछ नया कर सकने की संभावना भी नहीं होगी। राजेश जोशी की कविताओं में हिंदी काव्य परंपरा की समूची प्रतिरोधी आवाज का सत् मौजूद दिखता है। वे हिंदी कविता की जिस आंदोलनभरी हाहाकारी पृष्ठभूमि से निकलकर आए वहाँ एक युवा कवि के लिए सबसे ज्यादा जरूरी था अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक नए रास्ते की तलाश। उस रास्ते की तलाश में प्रगतिवादी काव्य आंदोलन की आलोचनात्मक प्रतिक्रिया, नई कविता का आत्म विश्लेषण और नक्सल कविता की मनोगत क्रांति एक चुनौती के रूप में विद्यमान थी। नए कवि का दुख यह था कि वह इनमें से किसी में अपनी शिफ्टिंग करके आगे बढ़ने वाले के कंधे पर कई बुजुर्ग हाथ देख रहा था तो अप्प दीपो भव का मार्ग चुनने वाले की उपेक्षा से भी परिचित था। ऐसे समय में राजेश जोशी और इनकी पीढ़ी ने हवा-हवाई सपने देखने और किसी खास प्रवृत्ति में शिफ्ट होने के बजाय सामाजिक संरचना के अंतरविरोधों की पड़ताल करते हुए खुद अपना काव्य विवेक विकसित किया और क्रांति के स्वप्न को एक सामाजिक स्वप्न के प्रक्रिया की तरह देखा किसी दिवास्वप्न की तरह नहीं। राजेश जोशी ने अपनी कविताओं में भारतीय राष्ट्र-राज्य, भारतीय-लोकतंत्र, भारतीय समाज और मानवीय जीवन को उसकी विडंबनाओं और विसंगतियों में समझने की कोशिश की। अपनी अभिव्यक्ति का जो मार्ग चुना उसमें बड़बोलेपन के लिए कोई जगह नहीं थी उसमें बतकही का अहसास था। यही सामान्य को सामान्य की तरह बतकही के लहजे में अभिव्यक्ति करने के कौशल ने ही राजेश जोशी को अपने समकालीनों में विशिष्ट बनाया है।

हिंदी आलोचना में प्रस्तावित कविता में गद्य की वापसी का नारा राजेश जोशी की कविताएँ ही पूरी तरह सार्थक करती हैं। भवानी प्रसाद मिश्र ने अपने शुरुआती दिनों में लिखा था 'जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख'। यह जो बोलने की तरह का लिखना है वह दरअसल अपने समय के अतियथार्थ को प्रकट करना है। राजेश जोशी ने वह प्रकट कर दिखाया है। एक सर्जक अपने समय से इस तरह नाभिनालबद्ध होता है कि वह उसे अतिक्रमित करते हुए भी उससे मुक्त नहीं हो सकता। उसकी मुक्ति भी उसके समय के दबाव में ही होगी और पिछली एक शताब्दी में समय कितनी जल्दी परिवर्तित हो रहा है, उसे देखना हो तो अरुण कमल की कविता हाट देखना चाहिए।

मेरे पास न पूँजी थी न पण्य
मैं बाट भी न था कि हाट के आता काम
न पाप कमाया न पुण्य न ही रहा अक्षत
दिन भर घूमता ढली देह लिए लौटा धाम
लेकिन वहाँ जहाँ घर था मेरा घर नहीं था
अट्टालिका थी लौह कपाट और द्वारपाल
यहाँ मेरा घर था मेरे पिता मेरी माँ
मेरा घर?
द्वारपाल हँसे
तुम किस जन्म की बात कर रहे हो।6

इस परिवर्तित हो रहे समय में मानवीय मूल्यों का क्षरण भी उतनी ही तेजी से हो रहा है। राजेश जोशी ने ही इंदिरा गांधी के एक वक्तव्य को कोट किया है जिसमें वे कहती हैं कि नेहरू राजनीतिक चिंतक थे और मैं मात्र राजनीतिज्ञ हूँ। मैं अपनी तरफ से जोड़कर कहूँ तो आज सिर्फ जुमलेबाज बचे हैं? चिंतक और राजनीतिज्ञ गायब हो गए हैं। तो ये जो समय का सच है उससे एक सर्जक की मुक्ति कठिन है। आज कोई बात वैसे नहीं कही जा सकती जैसे पचास-साठ साल पहले कही जा सकती थी क्योंकि पचास साल पहले जो डोमाजी उस्ताद अँधेरे में चल रहे किसी जुलूस का हिस्सा था वह आज दिन में सड़कों पर तांडव मचा रहा है। इस घोषणा के साथ कि जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे, मारे जाएँगे और दशा तो देखिए हमारा सत्ताधीश भी उसके सम्मान की पूरी रक्षा कर रहा है। ऐसे समय में लड़ाई सीधे-सीधे लड़कर नहीं जीती जा सकती उसके लिए राजेश जोशी जैसा रचनाकार कई नए हथियार और नुस्खे ईजाद करता है प्रतिरोध के लिए, और कहता है - 'हँसो कि विरोध करने की ताकत कम हो रही है, हमारे समाज में'। वह हँसते हुए अँधेरे की गीत गाता है और दुनिया के सभी अच्छे लोगों को एक साथ आगे आने की बात करता है। यह सब कुछ इतने सामान्य ढंग से होता है कि इसकी विशिष्टता का पता तब तक नहीं चलता जब तक उसके भीतर की हलचल को न थहाया जाए। लेकिन ज्यों ही आप उसी गहराई में जाते हैं उसके ताप का अहसास होता है वह अहसास इतना तीव्र और तीखा होता है कि वहाँ जाने के बाद मनुष्य एक गहरे असंतोष और बेचैनी से भर उठता है। यह असंतोष और बेचैनी समाज में बढ़ रही नकारात्मक भंगिमाओं से मुक्ति का आख्यान रचने के क्रम में व्यक्त यथार्थ बोध से टकराने के कारण होती है। राजेश जोशी समाज के संपूर्ण अंतरविरोधों को अपने भीतर इस तरह पचा जाते हैं कि ऊपर से देखने पर उनकी अभिव्यक्ति का आख्यान पाठक को आकर्षित करता है उस आकर्षण में वह सहज ही राजेश के मनोजगत का सहचर बन जाता है। जब वह राजेश जोशी का सहचर होता है तब उसे उनके भीतर का असंतोष और गुस्सा समझ आता है। बाहर से शांतचित दिखने वाले राजेश जोशी का कविमन कितना बेचैन है इसका अंदाज 'बच्चे काम पर जा रहे हैं', 'मेरठ 87', 'इत्यादि', 'जब तक मैं एक अपील लिखता हूँ', 'दादा खैरियत', 'यह धर्म के विरूद्ध है', 'नसरगट्टे', 'मेरा नया फोन नंबर' जैसी तमाम कविताओं में देखा जा सकता है।

राजेश जोशी जब कहते हैं कि 8वें दशक की कविता अपनी पूर्ववर्ती काव्य परंपरा से ज्यादा जनतांत्रिक हुई है तो उसे काव्य के भीतर के जनतांत्रिक मूल्यों के साथ कथ्य के प्रयोग की जनतांत्रिकता में भी देखना चाहिए। इससे पहले के काव्यांदोलन सीमित विषयक्षेत्र की भावपूर्ण अभिव्यक्ति का मार्ग तलाशने वाले आंदोलन थे। छायावाद सभ्यता की सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रिया के भीतर अपने युग धर्म से टकराते हुए मुक्ति का आकांक्षी काव्यांदोलन था तो प्रगतिवाद सभ्यता की आलोचनात्मक प्रतिक्रया विकसित कर रहा था। इसी तरह नई कविता के केंद्र में व्यक्ति और उसकी जीवन स्थितियाँ मुखर थी। लेकिन समकालीन कविता इन सारे संदर्भों को अपने समयानुकूल अभिव्यक्त करने के साथ बहुत सारे ऐसे विषय भी प्रस्तावित किए जिनकी तरफ इससे पहले ध्यान गया भी था किसी कवि का तो बहुत सामान्य ढंग से। समकालीन कविता सच्चे अर्थों में कविता की संपूर्णता का दूसरा नाम हैं। यहाँ कवि की यात्रा लोकेल से ग्लोबल तक की है। समकालीन कविता के प्रायः हर कवि के पास उसका लोकेल उसकी संजीवनी की तरह कविता में व्यक्त हुआ है। हरेक कवि अपने स्थानीय बोध से संघर्ष करते हुए विश्वबोध के रास्ते पर आगे बढ़ा है। अरुण कमल की दसियों ऐसी कविताएँ हैं जिनमें उनका बिहारीपन मौजूद है। जिसने पूर्वांचल और बिहार की संस्कृति की गहराई को ठीक से न समझा हो वह 'उधर के चोर' को भी नहीं समझ सकता। राजेश जोशी की कविता की अंतड़ियों में तो भोपाल और उसकी संस्कृति का रक्त इस तरह घुला-मिला है कि उसे इससे अलग करके न तो समझा जा सकता है और न ही उसके अर्थ गांभीर्य तक पहुँचा जा सकता है। जिस कवि का स्थानीय बोध जितना मजबूत होता है उसका विश्वबोध उतना ही जीवंत और प्रगतिशील। इसस मामले में समकालीन कविता में राजेश जोशी सबसे महत्वपूर्ण कवि हैं। भोपाल और मध्य प्रदेश संदर्भित उनकी जितनी कविताएँ हैं उनके भीतर एक उच्च आत्मीयता बोध मौजूद है। यह आत्मीयता निरी भावुक न होकर आलोचनात्मक रुख के साथ व्यक्त हुई है। राजेश जोशी की कविताएँ जीवन के शाश्वत मूल्यों की कविताएँ हैं। कविता में जीवन का शाश्वत मूल्य कैसे अभिव्यक्त होता है, इसे ऐसे समझें जैसे भोपाल गैस त्रासदी एक ऐसी घटना है जिस पर बहुत सारे कवियों ने बहुत सारी कविताएँ लिखीं लेकिन अगर भोपाल गैस त्रासदी पर राजेश जोशी की कविताएँ हमें अब भी बेचैन करती हैं तो वह उनका शाश्वत रूप ही है। जहाँ बहुत सारे कवि उसकी भयंकरता का आख्यान रचने को ही अपने कार्य की इतिश्री मान रहे थे। वहाँ राजेश जोशी इसके दूरगामी परिणामों को अभिव्यक्त कर रहे थे।

सामाजिक प्रक्रिया के बदलाव के साथ ही साथ कवि की रचना-प्रक्रिया भी अनिवार्यता बदल जाती है। हिंदी साहित्य के अध्येता यह बात बहुत ठीक से जानते हैं कि 'राम की शक्तिपूजा' से लेकर 'मुक्ति-प्रसंग' तक की काव्य यात्रा में सामाजिक राजनैतिक अंतर्विरोधों को अभिव्यक्त करने में सबसे सफल माध्यम लंबी कविताएँ रही है। निराला की तीन कविताएँ 'राम की शक्तिपूजा', 'सरोज स्मृति' और 'तुलसीदास' उससे आगे बढ़ने पर 'असाध्य वीणा', 'अँधेरे में', 'पटकथा' और 'मुक्ति-प्रसंग' इसके साथ नरेश मेहता की कविता 'समय देवता' का नाम भी लिया जा सकता है। इन कविताओं में सामाजिक सांस्कृतिक जटिलता का ताना-बाना गहराई से अभिव्यक्ति पाता है लेकिन क्या कारण है कि मुक्ति प्रसंग के बाद उस तरह का सामाजिक अंतविरोध संपूर्णता में व्यक्त करने वाली लंबी कविताओं का दौर खत्म हो गया। इसे इस तरह देखना कैसा लगेगा कि महाकाव्य से लंबी कविता और फिर उसकी अगली कड़ी छोटी कविताएँ क्या यह सामाजिक जटिलता को एक साथ व्यक्त न कर पाने की असमर्थता का सूचक नहीं है? आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कविता क्या है निबंध में लिखा है - ''ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों-त्यों एक ओर कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी। दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जाएगा।''7 उस कवि कर्म की कठिनाई आज का कवि शिद्दत से महसूस कर रहा है। उक्त जिज्ञासा से राजेश जोशी के साथ कुछ इस तरह टकराया जाए कि वह टकराव उनकी काव्ययात्रा का गवाह बने। समरगाथा से जिद तक की काव्ययात्रा में जिस तरह सामाजिक प्रक्रिया में वर्गीय चेतना अपने विशेषीकृत मूल्यबोध के साथ आगे बढ़ी है उसी तरह राजेश जोशी की काव्य यात्रा भी कई पड़ावों से गुजरते हुए जिद तक पहुँची है। समरगाथा कविता में स्पष्टतः दो वर्ग हैं एक शोषक वर्ग दूसरा शोषित वर्ग। इनके बीच के संघर्ष की दास्तान है जिनमें बहुत सारे प्रभाव भी हैं जिन्हें खुद कवि ने स्वीकार किया है। यहाँ समाज की वर्गीय चेतना का दो ही पक्ष मुखर है एक शोषक दूसरा शोषित, एक प्रगतिशील दूसरा प्रतिक्रियावादी, एक शासक दूसरा शासित लेकिन इससे आगे बढ़ने पर ज्यों-ज्यों सामाजिक अनुभव की जटिलता की समझ विकसित होती गई और विशेषीकृत रूप उभरते गए त्यों-त्यों कविता में उनका दबाव बढ़ता गया और कविताएँ लंबी से छोटी होती गई। समाज की विशेषीकृत वर्गीय चेतना के कई रूपों को एक साथ कविता में साध पाना आसान नहीं होता। जबकि इन सभी की समस्त अभिव्यक्ति जरूरी होती है। इसी संकट की तरफ आचार्य शुक्ल का वक्तव्य ध्यान दिलाता है। ऐसे में कवि के लिए जरूरी हो जाता है कि वह उनकी अभिव्यक्ति के लिए छोटी कविताओं का माध्यम चुने। शायद यही वजह है कि इनके बाद जितनी मारकता छोटी कविताओं में है उतनी लंबी कविताओं में नहीं। कुँवर नारायण की कविताएँ इसका अपवाद जैसी लगती हैं जब वे 'आत्मजयी', 'वाजश्रवा के बहाने' और 'कुमारजीव' जैसे खंड काव्य में मिथकीय आख्यान के माध्यम से अपना समय सच अभिव्यक्त कर पाने में समर्थ होते हैं। लेकिन यह अभिव्यक्ति भी एक खास किस्म की विशेषीकृत अभिव्यक्ति का मार्ग तलाशती अभिव्यक्ति ही है। इसके केंद्र में सामाजिक संरचना के वे अस्मितामूलक विमर्श नहीं शामिल हैं जिनकी तरफ मुक्तिबोध अपनी आलोचना में बार-बार इशारा कर रहे थे और जिन पर उनके बाद की हिंदी कविता की वह पीढ़ी खड़ी हुई जिसके लिए मुक्तिबोध किसी आईकॉन से कम नहीं है। ये सत्ता संरचनाओं के आपसी अंतर्विरोधों को अभिव्यक्त करने वाली मूल्यपरक विमर्श की कविताएँ हैं। राजेश जोशी की 90 के बाद की कविताओं में जो विशेषीकृत वर्गीय बोध व्यक्त हुआ है, वह सामाजिक संरचना में उभर रहे विमर्शों के मानिंद उन वर्गों को समाज की समग्रता में देखने के उपक्रम के रूप में आया है। मेरी कही हुई बातें अमूर्तन का शिकार हो इससे पहले मैं राजेश जोशी की कुछेक कविताओें का उल्लेख भर करना चाहता हूँ। नेपथ्य में हँसी संग्रह की दो कविताएँ 'जन्म' और 'थोड़ी सी जगह' सामाजिक संरचना के भीतर जन के विशेषीकृत वर्गीय रूप की अभिव्यक्तियाँ हैं। ऐसा उनके बाद के संग्रहों 'दो पंक्तियों के बीच' और 'चाँद की वर्तनी' में भी मिलता है।

राजेश जोशी अपनी कवि परंपरा से संवाद करते हुए अपने समय की बारीक समझ रखने वाले कवि हैं। उनकी कविता वहाँ से शुरू होती है जहाँ से सत्ता की आँख बंद हो जाती हैं। वे अंतिम आदमी के दुख-दर्द में शामिल ऐसे रचनाकार हैं जो सत्ता की क्रूरता और भयावहता से आतंकित नहीं होते उससे लड़ने का हर खतरा उठाते हैं। वे भीड़ में भी पहचान में आ जाने वाले कवि हैं। जब सब कोई चुप हो तब भी बोलने का दम भरने वाले और जनता के साथ खड़े रहने वाले रचनाकार हैं। अपने समय की हरेक प्रतिक्रियावादी ताकत की पहचान का विवेक रखने वाले सर्जक तो है ही उससे कैसे निपटना है इसकी योग्यता हासिल कर चुके कलाविद भी हैं। मार्क्सवादी जीवन-दर्शन में विश्वास उनकी कविताओं में साफ तौर पर अभिव्यक्त होता है। वे मानवीय गरिमा और प्राकृतिक सौंदर्य को बचाये रखने के आकांक्षी रचनाकार हैं। इसीलिए जब भी कोई इन पर चोट करता है तो उनका प्रतिरोधी तेवर अपने प्रबलतम रूप में व्यक्त होता है। जब भी मानवता का गला घोंटने की कोशिश की गई तो रचना और जीवन दोनों में राजेश जोशी ने समान रूप से प्रतिरोध दर्ज कराया। हरेक जनांदोलन की सार्थकता को पहचान कर उसकी सफलता का उपक्रम उनके कवि व्यक्तित्व का पहला उद्देश्य है।

ऐसे भाव बोध पर खड़े राजेश जोशी अपनी सामाजिक-राजनैतिक संरचना के अंतर्विरोधों को अभिव्यक्त कर अपना युगधर्म निबाहने वाले कलाकार हैं। समकालीन समाज का सच अगर उसके उदर रूप, यकृत स्वरूप में देखना हो तो राजेश जोशी की कविताओं से दो चार होने के अलावा और कहीं जाने की जरूरत नहीं है। सत्तातंत्र की संपूर्ण जकड़बंदी राजेश जोशी के यहाँ अपनी समग्रता में व्यक्त मिलती है। समाज की इतनी सारी नकारात्मक छवियाँ हैं कि उनसे गुजरने वाला पाठक बेचैन हो जाता है। वह खुद को थका-हारा महसूस करने लगता है। उसका पराजय बोध उस पर हावी होने लगता है यह सबकुछ घट रहा होता है तभी अचानक राजेश जोशी की कविता बच्चा पाँव ले रहा है याद आ जाती है।

राजेश जोशी ने अपने समय और समाज से टकराते हुए हर संवेदनशील मुद्दे को बेहद मजबूती के साथ अभिव्यक्त किया है उनकी रचनात्मकता के केंद्र में सांप्रदायिक विद्वेष के भीतर परास्त हो रही मानवता का चेहरा सामने आता दिखेगा। आधुनिकता के अर्थ केंद्रित विकास ने पूरे वैश्विक संरचना की इस कदर असंतुलित किया है कि हर तरफ मारकाट और त्राहि-त्राहि ही मची हुई दिखती है। सांप्रदायिक शक्तियों का उन्माद अपने चरम पर है। पूरे विश्व को सीरिया में तब्दील कर देने की जुगत चल रही है। तब कुछ अच्छे लोग असहाय से नजर आते दिखते हैं। सांप्रदायिक दंगे आदमी को किस हद तक बौखलाहट में डाल देता हैं, सांप्रदायिकता के नाम पर दर्ज हुई एक छोटी घटना किस कदर अखिल भारतीय रूप ले लेती है, वह कितना जल्दी फैल जाती है और इनसान के बीच कौमी दीवार खड़ी कर देती हैं यह सारी स्थिति कवि को ठीक से पता है। कविता के भीतर इन्हें देखना हो तो 'मैं और सलीम और उनसठ का साल', 'मेरठ 87', 'जब तक मैं एक अपील लिखता हूँ' और 'बर्बर सिर्फ बर्बर थे' जैसी कविताएँ देखी जा सकती हैं। इसी तरह राजेश जोशी जब अपने समय की विडंबनाओं की ओर इशारा करते हैं तो 'बच्चे काम पर जा रहे हैं' जैसी कविता बनती है। किसी भी स्वस्थ समाज की इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि उस समाज का भविष्य बाल मजदूरी करने को विवश हो जिस उम्र में एक बच्चे को अपने भविष्य के सपने बुनने चाहिए उस उम्र में वह परिवार का बोझ ढोने को विवश है। यह एक ऐसा चित्र हैं जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को गहरे तक मथ देता है। इसी तरह के हजारों चित्रों और जन तंत्र से जन की भागीदारी को हाशियें पर जाते देखकर कवि लिखता है -

सड़क बनवाने का श्रेय लेती हैं जब कोई सरकार
मेरे हलक में अटक जाता है कौर
मेरे मुँह से निकलती है गाली-कामचोर।8

राजेश जोशी की कविताओं के भीतर जाने पर उनका दबा गुस्सा महसूस होता है। बाहर की शांति के भीतर एक ऐसा गुस्सैल आदमी बैठा हुआ है। जो अपनी पूरी व्यवस्था से बेहद खिन्न है। वह देख पाता है कि जो सारा कुछ करते हैं उनकी गिनती इत्यादि में होती है और जो कुछ नहीं करते वे हमारे नियंता और भाग्य-विधाता बन बैठे हैं। आपातकाल के बाद की हिंदी कविता की वह धारा जो सीधे-सीधे लोकतांत्रिक मूल्यों के विघटित रूप की आलोचना करने के साथ जन के एका के आधार पर शोषक वर्ग को अपदस्थ कर सकने में विश्वास करती है उसके अगुवा कवि के रूप में राजेश जोशी का उल्लेख किया जा सकता है। राजेश जोशी की कविताओं में व्यवस्था के विरोध के साथ-साथ बेहतर सामाजिक संरचना का स्वप्न भी मौजूद है। राजेश जोशी कई सारे बिंदुओं पर अपने समकालीनों में विशिष्ट इस अर्थ में भी हैं कि उनके यहाँ संग्रह और त्याग का विवेक अन्यों की अपेक्षा ज्यादा स्पष्टता के साथ रेखांकित किया जा सकता है। जब सब कुछ सत्ता की जकड़ में कैद हो तो क्रांति की बात थोड़ी बेमानी लगती है। ऐसे में होता यह है कि कुछ तो पराजयबोध का शिकार होकर निराशा के गर्त में चले जाते हैं। कुछ जो अति उत्साही होते हैं। वे एक बेहद सामान्यीकृत ढंग का प्रोपगैंडा खड़ा करने का प्रयास कर अपने को क्रांतिकारी घोषित कर लेते हैं। ऐसे में राजेश जोशी जैसे दृष्टि संपन्न कवि प्रतिरोध की सबसे छोटी इकाई से भी क्रमिक परिवर्तन की आस लगाए अपना पक्ष स्पष्ट कर देते हैं, वे लिखते हैं -

कमबख्त एक नस ने जरा सा ऐठकर
हर मुमकिन को कर दिया
नामुमकिन!9

राजेश जोशी की कविताओं का जितना मजबूत पक्ष उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना है उतना ही मजबूत मानवीय और प्राकृतिक प्रेम भी है। लेकिन यह भी उतना ही रेखांकित करने योग्य है कि सामाजिक अंतर्विरोध और विडंबनाओं का घटाटोप ज्यों-त्यों गहराता गया है त्यों-त्यों दूसरा पक्ष छीजता गया है। यह अकारण नहीं है कि जहाँ उनके प्रारंभिक दो संग्रहों 'एक दिन बोलेंगे पेड़' और 'मिट्टी का चेहरा' में प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति सम्मोहन का भाव काफी प्रमुखता से अभिव्यक्त हुआ है। पेड़-पौधे, पक्षी, पहाड़, नदियाँ, तालाब और पत्थर - इनके बहुत सारे बिंब अपने सौंदर्यात्मक स्वरूप में व्यक्त हुए हैं वही बाद के संग्रहों में इन बिंबों के आते ही कवि का मन आहत सा हो गया दिखता है। 'चाँद की वर्तनी' नामक संग्रह की किस्सा उस तालाब का शीर्षक कविता में प्राकृतिक सौंदर्य के नष्ट होने से आहत एक कवि मन की बेचैनी साफ देखी जा सकती है। प्लेटफार्म पर बैठकर अखबार में बने तालाब के सूखते चित्र को देखकर कवि तमाम ख्यालों के अंत में अपने बेचैन मन की अभिव्यक्ति कुछ इस तरह करता है।

मैं दहशत से भरा एक सूखे तालाब में चल रहा था
मेरे जूतों के नीचे चिंदी-चिंदी होता
कराह रहा था अखबार
मेरे अंदर कोई पूछ रहा था लगातार
कब, कब वह पानी देखूँगा
जिसे पानी कहने की तसल्ली हो
और जल कहने से मन भीग जाए10

राजेश जोशी अपनी अंतर्वस्तु की विविधता को व्यक्त करने के लिए अपनी अभिव्यक्ति के अलग-अलग रास्ते तलाशते हैं। उनके यहाँ जीवन के छोटे-छोटे अनुभव काव्यानुभव के दायरे में आते हैं। वे जीवन के हर क्षण के भीतर कविताई तलाश लेने वाले कवि हैं। कविता उनके लिए जीवन का परिष्कृत रूप मात्र है वे दिव्यता और भव्यता का गुणगान न करके सहजता और सरलता से बतकही करने वाले कवि हैं। पाठक को आहिस्ता-आहिस्ता अपने पास बुलाते हैं। जब पाठक उनके एकदम करीब आ जाता है तो उससे धीरे से कविता के भीतर ही एकाध वाक्य ऐसा कह देते हैं कि वही उसके लिए पर्याप्त होता है। राजेश जोशी की कविता में गद्य की पर्याप्त आवाजाही के बाद भी कविता की बुनियादी विशेषता उसकी लय कहीं से भी खंडित नहीं होती। चाँद राजेश जोशी का इतना प्रिय बिंब है कि हर दूसरी कविता में उसकी उपस्थिति भिन्न हो जाता है और खास बात यह कि इसके जितने भी बिंब आए हैं उनमें एक गजब तरह का सम्मोहन दिखता है। यह सम्मोहन एक युवा मन के सम्मोहन जैसा लगता है और तब यह बात सच साबित होती है कि कवि मन सदैव युवा ही रहता है।

राजेश जोशी के कवि व्यक्तित्व की बनक समकालीन कविता के एक संपूर्ण कवि की बनक है। एक ऐसा कवि जिसकी कविता में नाटकीयता है, गेयता है, संगीत है गद्य है और इन सबमें गुँथा हुआ मानवीय जीवन का सच है। अंत में अपनी बात अपने समय के बेहद महत्वपूर्ण कवि नरेश सक्सेना के शब्दों में कि - ''राजेश जोशी की राजनीतिक चेतना किताबी नहीं है। उनके मंतव्य स्पष्ट है। निष्कर्षों को लेकर दुविधा नहीं है। मार्क्सवाद के संस्पर्श से जिन कवियों ने अपनी समझ और संवेदना को गहरा किया है राजेश जोशी को उनमें अलग से चिन्हित किया जा सकता है।''

संदर्भ सूची

1. समर गाथा - राजेश जोशी

2. वही

3. ज़िद - राजेश जोशी

4. एक कवि की नोटबुक - राजेश जोशी

5. वही

6. नए इलाके में - अरुण कमल

7. चिंतामणि भाग-1 - आचार्य रामचंद्र शुक्ल

8. ज़िद - राजेश जोशी

9. वही

10. प्रतिनिधि कविताएँ - राजेश जोशी, राजकमल प्रकाशन


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