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कविता

माँ ऐसा मत सोचना

अनिल पांडेय


हे देवी !
हो सके तो माफ करना इस बार
नहीं आ सकता तुम्हारे द्वार
व्यस्त हूँ इधर के दिनों में
रूखा पड़ा है घर-संसार पूरा का पूरा
मंद पड़ा है मेरा अपना कारोबार

कह रही पत्नी
बाजार से नारियल-चुनरी
बतासा, घी, कलश पीतल वाला लाना है
बीमार पड़ी है माता इधर कई दिनों से
दवा के लिए भी उसके जाना है
पैसे इतने नहीं कि शाम को खरीदी जाए सब्जी भी

माँ! ऐसा मत सोचना
कि श्रद्धा नहीं मेरी तुममें
कि मैं चाहता हूँ नवरात्रि का उत्सव न मनाया जाए
कि धूप-दीप अगरबत्ती संग भोग तुमको न लगाया जाए
तीन दिन तक बैठा रहा हूँ कंप्यूटर पर टाइप करते हुए
चिंता है, बच्चियाँ भूखी हैं दूध उनके लिए कैसे लिया जाए

पड़ोसी के यहाँ
चूल्हा नहीं जला है विगत दो दिनों से
व्यापारी बैठे हैं हड़ताल पर इधर महीनों से
प्रसव-पीड़ित पत्नी पड़ी है सरकारी अस्पताल में
दो दाने को मोहताज बच्चे दिखे हैं खस्ते-हाल में
हृदय फट गया है माँ नहीं देख सकता उन्हें ऐसे हाल में

इधर गाँव में, भाई ने बताया
लौकिक माताओं के इन दिनों खस्ता हैं हाल
उनके बेटों ने गुल्ली-डंडा, बैट-बल्ला संग ही जीने मरने की ठान ली है
ग्राम प्रधान नहीं करवा रहा कोई काम कई कई दिनों से
माता-पिता को अब मनरेगा की भी आस नहीं है, वे उदास हैं
बारिश नहीं हुई है कई दिनों से मुँह बाल लिए धान जरा जा रहा है

माँ! और भी हैं दुख
हमारे समय और इधर के परिवेश में
सब कुछ अच्छा नहीं हो रहा है देश में
दाल-नून-रोटी की चिंता नहीं है शायद किसी को
सब जले जा रहे हैं अपने अपने आवेश में
मन उद्विग्न है हम कैसे रहें पुजारी के वेश में


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