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कविता

गेहूँ संग घुन

अनिल पांडेय


हम धरा पर
प्रेम बनकर जी रहे हैं
नफरतों की विष
को खुश हो पी रहे हैं
लोग सोचते
हैं, हम पागल हुए जाते

प्रेम के मंजर
यहाँ कम ही लखाते...

आदमी की
आदमी से तल्खियाँ हैं
हर तरफ
गुटबाजी है गुटबंदियाँ हैं
नफरतों के
पाठ, बस्तियों के वास्ते

नेह के
सूरज, यहाँ कम ही लखाते
गिद्धों की
नजरों में पड़ी मछलियाँ आज हैं
पंछियों के
वास्ते खड़े, हर मोड़ पर बाज हैं
पंखों की
निगहबानी, पंजों के हाथ में

बच सके
कोई, यहाँ कम ही दिखाते

हम नहीं
कहते, कोई जीना छोड़ दे
जी रहे
हैं जो, उनको भी तोड़ दे
जीने के
अधिकार, हों सबके हवाले

माँगते हैं
हम, मनुष्यता के वास्ते

बात नहीं
करते, यहाँ परलोक की
ये रवायत
है यहाँ इस लोक की
जिनको मिला
जीवन, वही मुँह हैं चिढ़ाते

गेहूँ संग
घुन भी तो पीसे हैं जाते


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