हिंदी साहित्य के इतिहास में प्रेमचंद के पूर्व उपन्यास की स्थिति तिलस्मी,
एय्यारी, जासूसी थी, जिसे लोग मनोरंजन की दृष्टि से देखते थे। प्रेमचंद से
पहले हिंदी साहित्य की धाराएँ स्वाभाविक रूप से प्रवाहित न होकर कुछ वर्गों
का समर्थन करती रही। अर्थात् साहित्य और कला के क्षेत्र में राजा, नवाब, अमीर
लोगों का वर्चस्व था। आम जनता का महत्व नहीं के बराबर था। साहित्य और कला
के क्षेत्र राजा, नवाब, अमीर और रईस को ही स्थान मिल सकता था, जनता को नहीं।
साहित्यकार और कलाकारों के अनुसार जिसे हम जनता कहते हैं वह कला साहित्य में
स्थान पाने योग्य नहीं थी। ऐसी स्थिति और परिस्थिति में हिंदी साहित्य
(उपन्यास) के लेखन के क्षेत्र में प्रेमचंद का आगमन होता है वे नए भाव और नए
विचार लेकर आते हैं। प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से जनता को जन साहित्य ही नहीं
दिया, बल्कि भाषा में भी जोर दिया, जिसका प्रभाव जनता पर पड़ा। प्रेमचंद का
उपन्यास साहित्य ज्यादातर आम जनता की समस्या को लेकर लिखा गया है। उनके
उपन्यास की सफलता कथावस्तु से अधिक चरित्र-चित्रण पर निर्भर करती है। इसी
संदर्भ में प्रो. सुंदररेड्डी कहते हैं - "उपन्यासकार की सफलता उपन्यास के
विषय (कथावस्तु) पर निर्भर है। 'सेवासदन' की सुमन, 'रंगभूमि' का सूरदास,
'गबन' की जालपा, 'निर्मला' की निर्मला और 'गोदान' का होरी क्यों है? इससे
वास्ता नहीं है। लेकिन देखना यह है कि, जहाँ वे चित्रित हैं, वहाँ चितेरे ने
उन्हें ठीक चित्रित किया है या नहीं। यदि वे अपनी-अपनी जगह पर स्वाभाविक,
सजीव, आदर्श, प्रेमी और आकर्षक है तो समझना चाहिए कि कलाकार अपनी कला में सफल
हुआ है, नहीं तो नहीं।" 1
कलाकार यदि अपने कला में सफल है तो क्यों सफल है और वे कौन से कारण हैं जो
अन्य कलाकारों से अलग हैं। प्रेमचंद अपने समकालीन उपन्यासकारों से तथा
वर्तमान में भी उनकी उपन्यास आज के उपन्यासकारों से अलग क्यों हैॽ प्रो.
जी. सुंदररेड्डी कहते हैं - "आज हिंदी साहित्य में कुछ प्रतिभासंपन्न लेखकों
ने आख्यान साहित्य को आगे बढ़ाया है, किंतु केवल टेकनिक की दिशा में।
साहित्यकार की संवेदना को और मानवीय चेतना को जागृत करने में आज भी प्रेमचंद
से पिछड़े हुए हैं। यही कारण है कि प्रेमचंद के उपन्यास आज भी हम लोगों को
अपनी ओर आकर्षित और प्रभावित करते हैं।"2
समाज में घट रही समस्याओं का यथार्थ अनुभव स्वयं प्रेमचंद करते हैं।
परिस्थितियों का यथार्थ अनुभव करने के उपरांत ही उसे विषयवस्तु बनाकर, एक
कलाकार के रूप में लेखन कार्य करके प्रस्तुत करते हैं जो बिल्कुल आम जनमानस
की समस्या को लेकर होती है। उपन्यास कला में प्रेमचंद सफल थे। इस संदर्भ में
बाबूराव विष्णु पराड़कर अनुसार - "जीवन से उन्होंने मसाला लिया और वे
मूर्तियाँ तैयार करके हमारे सामने रख दी, जो जीवन के अंगों की प्रतीक है। उन
मूर्तियों में हम समाज को देखते हैं, उसकी आकांक्षाओं की कल्पना करते हैं,
उसके दोषों पर हँसते हैं, उनकी त्रुटियों की ओर भी लाचार खिंच जाते हैं।" 3
लाचार, निर्बल, निम्नवर्ग, गरीब, मजदूर, पीड़ित, असहाय, किसान, दलित, शोषित
स्त्री-पुरुष आदि की समस्या को प्रेमचंद ने समझा, जाना, पहचाना, तब कहीं
जाकर इस समस्या को उपन्यास के माध्यम से उठाया। उपन्यास कथा मात्र मनोरंजन
की वस्तु नहीं है, बल्कि समाज की यथार्थ स्थिति का बोध कराना है। डॉ.
रामविलास शर्मा कहते हैं कि - "प्रेमचंद को कथा-मात्र से प्रेम था, जो पढ़ते
थे, उसमें उनके लिए पहला आकर्षण कहानी थी। इसलिए सुधार का लक्ष्य होते हुए भी
उनकी खुद की रचनाओं में कहानी तत्व गौण होकर नहीं आया। पाठक उन्हें कथा के
आनंद के लिए पढ़ सकते हैं, सुधार का लक्ष्य छिपा हुआ है। भले-बुरे, सभी
श्रेणियों के उपन्यास पढ़ने से प्रेमचंद की चिंतन शक्ति उर्वर हुई। प्रत्येक
महान प्रतिभा को अपने लिए एक बना-बनाया ढाँचा न चाहिए, जिसका वह अनुसरण करे,
उसे अपने विकास के लिए केवल संकेत, थोड़ा सहारा चाहिए, जिससे वह अपनी मौलिकता
को खोज कर सके। प्रेमचंद की विचित्र और बहु प्रकार की पठन सामग्री ने उनकी
रचना शक्ति के लिए खाद का सा काम लिया और वह 'सेवासदन' जैसा आधुनिक उपन्यास
लिख सके। केवल निर्माण की दृष्टि से स्वयं प्रेमचंद 'सेवासदन' को फिर न पा
सके। अपने अन्य बड़े उपन्यासों में उन्होंने निर्माण का ढंग ही बदल दिया
था।" 4
मानव जीवन की सच्चाइयों पर घटित घटना को ही अपने उपन्यास लेखन का आधार बनाते
है तथा नए शैली से लेखन करते हैं। इस संबंध में श्री शिव नारायण श्रीवास्तव
कहना हैं कि - "अपनी कला में जन-मन परिचित उपकरणों का प्रयोग करने के कारण ही
इनकी कथावस्तु से हमारी उत्सुकता में कोई नूतन आवेग नहीं आता। उसकी शांत,
सरल गति में कहीं कोई रुकावट, कोई रहस्मय उलझन नहीं होती, मानो वह हमारे
अनुभव की ही अनुगामिनी हो। उनकी वस्तु-विन्यास प्रणाली अलौकिक रंजन शक्ति
संपन्न होती है। छोटी से छोटी घटना या स्थिति का वर्णन भी पूर्ण सजीव होता है
क्योंकि ये उसके बाह्य और अभ्यंतर दोनों का ही मार्मिक विश्लेषण करते हैं।
ये घटनाएँ चाहे नई हो या पुरानी, परिचित हो या अपरिचित परंतु इनके उपन्यासों
में उनका विकास बड़ा ही क्रमिक संगत और संबद्ध होता है। एक और बात जो प्रेमचंद
की विशेषता है, वह है साधारण को अलौकिकता प्रदान करना, कुरूपता में सुरूपता
भरना। सुनते हैं पारस लोहे को छूकर सोना बना देता है परंतु इनकी प्रतिभा का
स्पर्श कर तो मिट्टी भी सोना हो जाती है। प्रतिभा के इसी अविचल प्रभाव के
कारण इनकी वस्तु-विन्यास-कला सर्वथा दोष-शून्य न होकर भी बड़ी ही प्रौढ़,
मार्मिक और मनोरंजक होती है।" 5
इनकी उपन्यास कला इतनी सरल, सहज, स्वाभाविक है कि आम जनमानस को समझने में
दिक्कत नहीं होती है। प्रेमचंद के उपन्यास कला के संदर्भ में त्रिभुवन सिंह
कहते हैं कि - "प्रेमचंद जी के उपन्यासों का साधारणतः वर्गीकरण कर देना कठिन
होगा। न तो हम उन्हें पूर्णतः घटना प्रधान कह सकते हैं और न चरित्र प्रधान
ही। घटनाएँ कभी तो पात्रों को चक्कर में फँसाए रहती हैं और पात्र कभी स्वयं
घटनाओं का निर्माण करते हैं। इनके पात्र दृढ़ चरित्र वाले तो चित्रित किए गए
हैं, फिर भी वे परिस्थितियों के दास हैं और उन्हीं उलझनों में पड़कर उनका
विकास भी होता है। प्रेमचंद जी ने राजनीति और समाज नीति के सुधार का जो
जिम्मा अपने सर उठाया और उन दोनों की जो खिचड़ी उन्होंने अपने उपन्यासों
में पकाई, उससे वे यद्यपि अपने किसी निश्चित लक्ष्य की पूर्ति नहीं कर सके,
फिर भी इतना तो उन्होंने अवश्य किया कि समाज के सच्चे और यथार्थ चित्र को
पाठकों के सम्मुख ला रखा। उनके उपन्यास मानव एवं मानवता के अमर संगीत हैं।
उनमें सच्चे रूपों में भारत यथार्थ सामाजिक जीवन चित्रित हुआ है।" 6
समाज में व्याप्त कुरितियों की तरफ प्रेमचंद ने लोगों का ध्यान आकर्षित
किया और इसे ही अपने लेखन का आधार बनाया तथा सामाजिक क्रांति को जन्म दिया।
प्रेमनारायण टंडन के अनुसार - "प्रेमचंद हिंदी के तपस्वी कलाकार थे। उनकी रचना
सामाजिक क्रांति से ओतप्रोत है। स्वयं अपने जीवन में वह सक्रिय क्रांतिकारी
थे। उन्होंने आदर्श के लिए अपने को मिटा दिया। किंतु उनका सब से महान
क्रियात्मक प्रयोग उनकी रचना है। संगठित सामूहिक शक्ति क्रांति का मार्ग है,
यह हम निरंतर उनकी रचना में देखते हैं।" 7
प्रेमचंद ने अपनी उपन्यास कला में भारतीय जीवन के समस्त पहलुओं को छुआ है,
जो अब तक अदृश्य और अछूता था। स्वयं प्रेमचंद अपने उपन्यास कला के संदर्भ
में कहते हैं कि - 'उन्होंने भारत के मूक जन समाज को वाणी दी है।' 8 "उपन्यास में वही घटनाएँ, वही विचार लाना चाहिए, जिनसे कथा का
माधुर्य बढ़ जाए, प्लाट के विकास में सहायक हों अथवा चरित्रों के गुप्त
मनोभावों का प्रदर्शन करते हों।"9
संदर्भ
1
जी सुंदर रेड्डी - शोध और बोध, हिंदी प्रचारक प्रकाशन, वाराणसी, पृ.- 37
2.
वही, पृ.- 46
3.
डॉ. इंद्रनाथ मदान (संपादक), प्रेमचंद चिंतन और कला, प्रकाशक - पं. बिशेश्वर
नाथ भार्गव प्रकाशन, प्रयाग, पृ.- 92
4.
वही, पृ.- 145
5.
श्री शिवनारायण श्रीवास्तव, हिंदी उपन्यास, सरस्वती मंदिर प्रकाशन, बनारस,
संस्करण-2002, पृ.-130
6.
श्री त्रिभुवन सिंह, हिंदी उपन्यास और यथार्थवाद, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय
प्रकाशन, बनारस, पृ.-71, प्रथम संस्करण-2012
8.
प्रेमनारायण टंडन, प्रेमचंद : उनकी कृतियाँ और कला, प्रयाग पब्लिशिंग हाउस,
इलाहाबाद, प्रथम सं- 1942, पृ.- 164
9.
प्रेमचंद, कुछ विचार (साहित्य और भाषा संबंधी कुछ विचार), सरस्वती प्रेस,
प्रकाशन, इलाहाबाद, वर्तमान संस्करण- 1982, पृ.- 63