हिंदी जगत में अपनी विशिष्ट दार्शनिक लेखन शैली , इतिहास और काल बोध तथा सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल , सृजन-संकल्प और ऊर्जा से ओत-प्रोत हैं , उन्होंने दर्शनशास्त्र सहित मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान विषयक कई विधाओं पर प्रभूत लेखन (सात पुस्तकें , सौ से अधिक शोध पत्र तथा लेख प्रकाशित) किया है। उनकी रचनाओं में मानवीय गरिमा का उदात्त स्वर मुखर रूप में अभिव्यक्त हुआ है। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय , वाराणसी में तुलनात्मक दर्शन और धर्म के आचार्य और भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद , नई दिल्ली के सदस्य सचिव रहे प्रो. शुक्ल उन दार्शनिकों में से हैं जिन्होंने अपनी रचना में आज के समय को गहरी सम्वेदना के साथ उजागर किया है। भाषा में ऐंद्रिकता और भाव प्रवणता के कारण उनकी रचनाशीलता यथार्थ की दुनिया को सामने लाती है। प्रो. शुक्ल धर्म , दर्शन तथा भारत विद्या के निष्णात विद्वान हैं तथा उनकी वाणी में भारतीय संस्कृति एवं जीवन मूल्यों के दर्शन होते हैं। जहाँ एक ओर वे प्रखर राष्ट्रवादी हैं तो वहीं दूसरी ओर सामाजिक समरसता के प्रबल पक्षधर।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय , वर्धा अपनी स्थापना के लक्ष्यों और उद्देश्यों के कारण ही पूरी दुनिया में आकर्षण का केंद्र है। हाल ही में प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल पाँचवें कुलपति के रूप में विश्वविद्यालय के इन्हीं दायित्वों को सँभालने के लिए प्रतिष्ठित हुए हैं। इस विश्वविद्यालय के सपनों , योजनाओं और भाषा-साहित्य-दर्शन पर चिंतन को लेकर डॉ. अमित कुमार विश्वास ने खास बातचीत की है। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश :
गांधीजी की कर्मभूमि में आप महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर सक्रिय हुए हैं। इस विश्वविद्यालय की मूलभूत अवधारणा, इसके संकल्पों और उद्देश्यों को आप किस रूप में देखते हैं?
मैं अपने आपको सौभाग्यशाली मानता हूँ कि गांधीजी की मुख्य कर्मभूमि में और उनके नाम पर स्थापित विश्वविद्यालय में सेवा करने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ है। वस्तुतः इस विश्वविद्यालय का मुख्य उद्देश्य हिंदी भाषा और साहित्य के संवर्धन और विकास को अध्ययन और शोध के द्वारा व्यापक बनाना है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में तुलनात्मक अध्ययन और शोध कार्य करने, देश-विदेश में प्रासंगिक सूचनाओं के विकास की सुविधा स्थापित करने और अनुवाद तथा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में शोध, शिक्षा और प्रशिक्षण के माध्यम से हिंदी की कार्यात्मकता को बेहतर बनाने की दिशा में विश्वविद्यालय कार्यरत है। हिंदी को अंतरराष्ट्रीय फलक पर चिंतन-मनन तथा ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने में इस विश्वविद्यालय द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं।
यह विश्वविद्यालय प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन से उपजा है। अतः विश्वविद्यालय को सिर्फ भाषा तक सीमित न रखा जाए अपितु हिंदी को एक अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में विकसित किया जाए। दुनिया के 30-40 देशों में हिंदी भाषा और साहित्य का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है। सऊदी अरब जैसे देश ने हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में स्वीकार किया है। उन सब देशों में जो भी पठन-पाठन के कार्य में शामिल हैं उन सबों के बीच तारतम्य विकसित करने होंगे।
इसके लिए हिंदी साहित्य में लिख रहे लोगों का अंतर्जाल विकसित करना पड़ेगा क्योंकि भिन्न-भिन्न देशों में जो लोग हिंदी भाषा और साहित्य पर काम कर रहे हैं उनको वहाँ समर्थन या संबल प्राप्त नहीं है, यह विश्वविद्यालय दुनियाभर में सक्रिय ऐसे साहित्यकारों, रचनाकारों के लिए समर्थनकारी संस्था के रूप में सामने आए जैसा विश्वविद्यालय की स्थापना के उद्देश्य में सोचा भी गया था तो बात कुछ बनेगी।
विश्वविद्यालय को लेकर आपकी अपनी क्या योजनाएँ हैं?
इस विश्वविद्यालय के प्राथमिक सरोकारों में से एक यह है कि पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या और पाठ्यसामग्री को नई शताब्दी की नई चुनौतियों और प्रश्नाकुलता के अनुरूप ताजातरीन करते हुए इस क्षेत्र में नए विकल्पों को खोजा, विकसित और विन्यस्त किया जाए। तभी यह विश्वविद्यालय अध्ययन-अध्यापन और अनुसंधान के क्षेत्रों में नई प्रविधि विकसित कर सकता है। इसके लिए विश्वविद्यालय देश-विदेश के श्रेष्ठ विशेषज्ञों से विचार-विनिमय कर इस दिशा में प्रयत्न कर रहा है, क्योंकि हमारा लक्ष्य हिंदी साहित्य, भाषा और संस्कृति को उनकी समग्रता, जटिलता और बहुलता में आलोकित करते हुए नए प्रश्नों, चिंताओं और उत्सुकताओं से रू-ब-रू होकर उनकी अपार क्षमता और संभावित दिशाओं को इंगित करना भी है। हिंदी, यह केवल बाजार या केवल कविता, कहानी, साहित्य की भाषा नहीं है। यह दुनियाभर के ज्ञान-विज्ञान में शिक्षण और संप्रेषण के रूप में विकसित होने वाली भाषा है इसको भी प्रतिपादित करने का स्थल यही है। विविध विद्याओं के अनुसंधान की भाषा के रूप में हिंदी उभरे, इसकी कोशिश जरूर करूँगा।
आज हिंदी पर अंग्रेजी हावी होती दिख रही है, इस पर आपका मंतव्य?
हममें एक प्रकार की ग्रंथि समा गई है कि हिंदी पढ़कर रोजगार नहीं मिलेगा, यह एक प्रकार से मिथ्या है। हिंदी का फलक विस्तृत है। आज हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी अध्ययन-अध्यापन का तरीका बदला है, जिसका असर हिंदी पर पड़ा है। व्याकरण हिंदी का कारखाना है और अनुशासन भी। आपमें यदि अनुशासन नहीं हो तो आप शब्दों के साथ खेल नहीं सकते। जब ऐसा होता है तो भाषा अपने आप बोझिल हो जाती है। हिंदी के साथ दिक्कत यह रही है कि यहाँ शब्द जन्में, पले-बढ़े और लंबे समय तक इस्तेमाल हुए और फिर एक-एक मर गए। जब हिंदी को उन्हीं शब्दों की जरूरत पड़ती है तो अंग्रेजी से उधार लेने की नौबत आन पड़ी। हिंदी से जुड़े चिंतकों को इस दिशा में कार्य करना होगा। हालाँकि अंग्रेजी ने भी हिंदी के कई शब्दों को अपनाया है।
हिंदी, समृद्ध साहित्य के साथ-साथ बहुसंख्य जनों की अभिव्यक्ति का माध्यम भी है, फिर भी यह व्यापक पैमाने पर लोगों को आकर्षित नहीं कर पा रही है?
ये सवाल तो हिंदीवालों से पूछना पड़ेगा। सिर्फ कविता, उपन्यास, नाटक, कहानी के आधार पर दुनिया नहीं चलती है, जिंदगी नहीं चलती है इसलिए मानविकी को भी सोचना पड़ेगा, समाज विज्ञान को भी सोचना पड़ेगा और विज्ञान व तकनीक को भी सोचना पड़ेगा। चूँकि विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में एक तरफ हमने जो मॉडल आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता का स्वीकार किया है उसको पोषित करने वाली भाषा हिंदी है क्या? नहीं है तो दो ही तरीके हो सकते हैं या तो अपनी दृष्टि बदली जाए या अपनी भाषा में चिंतन के स्वरूप को बदला जाए। कठिनाई क्या है कि साठ-सत्तर वर्षों में हमने हिंदी को सिर्फ साहित्य की भाषा के रूप में स्वीकार किया है। ये विज्ञान की भाषा नहीं बन सकी। हिंदी को हमने केवल संप्रेषण की भाषा के रूप में स्वीकार किया है। यह ज्ञान की भाषा नहीं बन सकी। यह विज्ञान की, ज्ञान की और संप्रेषण की भाषा बने तो यह साहित्य की भाषा के रूप में तो पूरी दुनिया में राज करेगी।
आपका तात्पर्य है कि दूसरे लोगों में इस दोष को देखने के बजाय हिंदी में लिख रहे, पढ़ रहे, पढ़ा रहे और हिंदी में जीवन जी रहे लोगों में इसके उत्तर तलाशने पड़ेंगे ?
जी हाँ, हिंदी किस प्रकार एक साथ साहित्य की भाषा, संप्रेषण की भाषा, ज्ञान की भाषा, विज्ञान की भाषा और तकनीक की भाषा अर्थात् संपूर्णतः मानव जीवन की भाषा के रूप में उभर करके सामने आए, ये हम नहीं कर सके जो करना था हमें। लेकिन भविष्य सकारात्मक है। अभी तो संसद में भी हिंदी का बोलबाला हो गया है। नब्बे प्रतिशत कामकाज हिंदी में होने लगा है। संसद में जो होता है वह देश में दिखने लगता है। इसलिए नहीं कि सरकार बनती है संसद से। इसलिए कि संसद में जो जाते हैं उसको समाज श्रेष्ठ समझता है और मनुष्य का स्वभाव है कि जो श्रेष्ठ जन करते हैं वैसा ही वह अनुकरण करता है। इस देश के हिंदी के बड़े-बड़े लोग वैश्विक मंचों पर हिंदी का उपयोग नहीं करते। उनके घरों के अंदर हिंदी नहीं है। हिंदी के बड़े-बड़े साहित्यकारों के घर में भी हिंदी नहीं है। हिंदी घर के बाहर है तो इस प्रकार के दोहरे जीवन से हिंदी भाषा से लगाव की आशा नहीं की जा सकती है क्योंकि भाषा के साथ एक लगाव, एक ममत्व की जरूरत पड़ती है। भाषा को जिंदा रखने के लिए बहुत कुछ गँवाना पड़ता है। हिंदी आज जो है वह उन लोगों के बल पर है जिन्होंने हिंदी के लिए बहुत कुछ गँवाया है, वे लोग हाशिये पर आ गए हैं और मुख्यधारा में वे लोग हैं जो हिंदी के नाम पर केवल संप्रेषण की भाषा के रूप में उस पर विचार कर रहे हैं। केवल लोगों की बोलचाल की भाषा के रूप में हिंदी का विकास कर रहे हैं। केवल बोलचाल की भाषा के आधार पर न रोजगार बनता है और न ही व्यापार। जिस भाषा से रोजगार और व्यापार नहीं बनेगा उसको युवा पीढ़ी क्यों स्वीकार करेगी? आखिर उसके रोटी दाल की व्यवस्था की भी चिंता तो होनी चाहिए, वह नहीं हुई है। वह जिस क्षण होगी, हिंदी की ताकत अपनी है, हिंदी स्वयं पूरे विश्व में गूँज जाएगी लेकिन इस देश के युवाओं को इसका विश्वास दिलाने की जरूरत है और इसके लिए परिस्थितियाँ निर्मित करने की जरूरत है।
विश्वविद्यालय द्वारा रजत जयंती मनायी जाएगी, इस पर आपकी राय?
उच्च शिक्षा जिस भाषा में होगी, ज्ञान-विज्ञान की भाषा वही बनेगी। उच्च शिक्षा से नीचे के स्तर पर अनुवाद का एक तरीका होता है, उसके आधार पर चल जाता है लेकिन नई संभावनाओं की खोज उच्च शिक्षा के माध्यम से ही होती है वस्तुतः इस विश्वविद्यालय को हिंदी भाषा के माध्यम से उच्च शिक्षा श्रेष्ठतम संभव है, इसका मॉडल बनाना पड़ेगा और वह केवल अनुवाद और साहित्य के शिक्षण से नहीं होता, ह्यूमेनिटीज, सोशल साइन्सेज के साथ-साथ जो विधायक विज्ञान है उनकी भी शिक्षण की प्रणाली विकसित करनी होगी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में। यह विश्वविद्यालय इसी उद्देश्य के लिए बना भी है। बीस-बाईस वर्षों में हमने काफी दूरी भी तय की है। आने वाले दिनों में विश्वविद्यालय अपना रजत जयंती समारोह मनाएगा। मैं यहाँ के अध्यापकों, विद्यार्थियों और कर्मियों के बल पर यह आश्वस्ति प्रकट करता हूँ कि हम तब तक एक लंबी दूरी इस दिशा में तय कर लेंगे। यह अनंत की यात्रा है इसलिए कितनी दूरी तय हो पाएगी, यह बता पाना मुश्किल है। वस्तुतः निरंतरता की यात्रा है किसी क्षण पूरी हो जाएगी, ऐसा नहीं है। लेकिन हर क्षण कुछ आगे बढ़ने का संकल्प है। अभी तक बढ़े भी हैं, थोड़ी गति और तेज करने की जरूरत है। जैसे-जैसे विश्वविद्यालय विकसित हो रहा है। यह कोशिश होगी कि उपलब्ध संसाधनों (शैक्षिक संसाधनों और मानव संसाधनों) के आधार पर जिस सपने के साथ यह विश्वविद्यालय स्थापित हुआ है वह बहुत शीघ्र ही सामने आएगा। आशा करता हूँ कि जब हम विश्वविद्यालय का रजत जयंती वर्ष मनाएँगे तो एक सार्थक विश्वविद्यालय के रूप में देश-दुनिया के नक्श्ेा पर प्रस्तुत हो सकेगा।
आज भी हिंदी माध्यम से विधि और मेडिकल की पढ़ाई करना मुमकिन नहीं हो पा रहा है, इस दिशा में आप क्या सार्थक कदम उठाएँगे?
मेडिकल में तो समस्याएँ हैं। समस्या क्या है, मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) इतनी पावरफुल संस्था है उसके आगे किसी का वश नहीं है। भाषा और विधि दोनों एमसीआई को तय करना है। यह संवैधानिक संस्था है इस पर मैं कोई प्रश्नचिह्न नहीं खड़ा करना चाहता हूँ। विधि की पढ़ाई स्नातक स्तर पर देश के बड़े स्थानों पर हिंदी में शुरू हुई है लेकिन स्नातकोत्तर स्तर पर हिंदी में पढ़ाई की व्यवस्था नहीं है। उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में हिंदी का प्रवेश अभी ठीक से नहीं हो सका है और इसलिए नहीं हो सका है क्योंकि यह विभाग निरंतर एक निर्वचन प्रणाली की माँग करता है। हिंदी में विधि के निर्वचन प्रणाली का विकास नहीं हुआ है। अगर मैक्सवेल की निर्वचन प्रणाली के आधार पर ही इंस्टीट्यूट का निर्वचन होना है तो अंग्रेजी में सहज और सुलभ है इसलिए हिंदी में निर्वचन विधि का विकास करना पड़ेगा। विधि केवल कानून की धाराओं को रट लेने की शिक्षा नहीं है। विधि की शिक्षा विधि के अर्थबोध की शिक्षा है और विधि का अर्थबोध हमेशा एक निर्वचन की प्रणाली है, एक व्याख्या की प्रणाली है। अभी भारतीय विधि व्यवस्था में जो व्याख्या प्रणाली के लिए स्वाभाविक रूप में स्वीकार करते हैं इंस्टीट्यूट की विचार के लिए, तो वह मैक्सवेल है। यह अलग बात है कि मैक्सवेल की विधि की प्रणाली भारतीय परंपरा को समझने के लिए कितनी सार्थक है, मालूम नहीं लेकिन कोई रास्ता बना नहीं है तो एक निर्वचन की प्रणाली हिंदी के अंदर विकसित करनी होगी। विधि आयोग के बहुत से प्रतिवेदनों में सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट में हिंदी नहीं आ सकती है, इसका प्रतिवेदन है। इसका मूल यही था कि केवल कानून का अनुवाद या शब्दिक अनुवाद कर देने से कानून नहीं चल सकता है। कानून तो निरंतर नई-नई संभावनाओं के साथ इंस्टीट्यूशन्स को जोड़ना पड़ता है, व्याख्यायित करना पड़ता है और उसके लिए जिस विधिशास्त्र की आवश्यकता है वह हिंदी का विधिशास्त्र है। हिंदी मन का विधिशास्त्र, समाज का विधिशास्त्र अभी विकसित नहीं हुआ है। विधि की पढ़ाई बिना विधिशास्त्र के विकास के उचित दिशा में नहीं हो सकती है। इसलिए हिंदी में विधि के उच्चतर शिक्षा की व्यवस्था करनी है और उसका समप्रयोग न्यायालयों में भी होना है। विधि व्यवस्था में भी होना है तो हिंदी मन का विधिशास्त्र भारतीय विधिशास्त्र, भारतीय परंपरा के अनुरूप का विधिशास्त्र, भारतीय लोक मन का विधिशास्त्र विकसित करना पड़ेगा और ये हिंदीवालों की जिम्मेवारी है।
मौजूदा दौर में हिंदी की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्थिति को आप किस रूप में देखते हैं?
हिंदी के समक्ष बहुत सारी समस्याएँ हैं। इस मामले में तो भारत बहुत कमजोर राष्ट्र है। हम हिंदी को यूएन की भाषा बनाना चाहें, विश्व की भाषा बनाना चाहें, उलटकर कोई आपसे यह सवाल पूछे कि क्या आप इसे भारत की भाषा बना सके हैं? वह कठिन नहीं है, इतनी बड़ी संख्या है दुनियाभर के अन्य देशों में जो हिंदी को सपोर्ट करती है। यूएन की भाषा हिंदी हो सकती है लेकिन वह वास्तव में यूएन की भाषा हो पाएगी क्या? अगर चाइनीज यूएन की भाषा बनीं तो इसके पीछे चीन के लोगों ने मंदारिन को पूरे चीन की भाषा बना दिया। हमने हिंदी को भारतीय बनाया क्या? ये सबसे बड़ा लक्ष्य है। यूएन की भाषा होना तो रुपये-पैसे का खेल है, वोट का खेल है और यूएन की भाषा हो जाने से कामकाज उस भाषा में होने ही लगता है, अरैबिक और चाइनीज में कितना कामकाज यूएन में होता है, यह हम सब जानते हैं इसलिए वह एक सपना है, किसी भाषा के गौरव के लिए, और जनसंख्या की विश्व जनसंख्या के हिस्सेदारी में बराबर हो, इसकी कल्पना है। इस दृष्टि से सोचना एक बात है लेकिन वास्तव में अंतरराष्ट्रीय भाषा बनने के पूर्व इसे राष्ट्रीय भाषा तो बनना ही पड़ेगा और राष्ट्रीय भाषा हिंदी संपूर्ण भारत की भाषा - भारतीय वाक् के रूप में, भारतीय वाणी के रूप में जब बनेगी तभी संभव है। इसलिए भारत के लोगों की जिम्मेदारी यह है कि हिंदी विश्वभाषा बने उसके पहले यह भारतीय भाषा बने।
आधुनिक भौतिकवादी व्यवस्था में सामाजिक परिवर्तन के लिए भारतीय दर्शनशास्त्र की क्या भूमिका हो सकती है?
यह सवाल बाजार की कोख से उपजता है। संस्कृति के विस्तार से या संस्कृति के कारण से तो नहीं, क्योंकि पूरी दुनिया भौतिकतावादी हुई नहीं है। आधुनिकता का कोई एक भौतिकवादी पैराडाइम ही नहीं है। आधुनिकता में भी एक आध्यात्मिक तत्व है, लोकोत्तर तत्व है और जब हम कह रहे हैं तो ध्यान रखना चाहिए कि स्वस्थ मनुष्य की पहचान करने के लिए यूनेस्को जब आध्यात्मिक स्वास्थ्य को एक महत्वपूर्ण विशिष्टता के रूप में चिन्हित करता है तो ये मानना पड़ेगा कि दुनिया में केवल भौतिक दृष्टि से मनुष्य के लिए सोचने की प्रणाली नहीं है। ये एक प्रकार का विचार हो सकता है और जहाँ-जहाँ यह विचार शक्तिशाली हुआ है और उन सभी स्थानों में उसका प्रतिकार भी हुआ है। इस तरह से एक सर्वांगीण जीवन प्रणाली भी विकसित हुई। उत्तर आधुनिकता का उभार भी जो तंत्रवत् भौतिक व्यवस्था है, उसका प्रतिरोध है। जहाँ तक भारतीय दर्शन का प्रश्न है। भारतीय दर्शन समग्रता की दृष्टि में है। मनुष्य के सर्वांगीण उन्नति की दृष्टि में है, यह कोई कोरी भौतिकता नहीं है और न ही कोरी आध्यात्मिकता लेकिन सिर्फ दोनों का संतुलन (बैलेंस) भी नहीं है। भारतीय दर्शन में एक समंजित जीवन दर्शन है।
आपके कहने का तात्पर्य है कि भारतीय दर्शन व्यक्ति, परिवेश और जीवन को समझने की एक ऐसी दृष्टि देता है जिसमें त्रिआयामी विश्व में चौथे आयाम की खोज हो, नई पीढ़ी के भारतीय दर्शन से जुड़ाव के क्या रास्ते आपको दिखाई देते हैं?
सारतः इंद्रियानुभव के संसार से परे ऐंद्रिक ज्ञान की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए लोकोत्तर निःशब्दता की प्राप्ति करने का उपक्रम है। भारतीय दर्शन के विकास चित्र को देखेंगे तो यह विशुद्ध जड़वाद से प्रारंभ होता हुआ आत्मा द्वैत में परिणति को प्राप्त करता है। इसलिए भारतीय परंपरा में विभिन्न दार्शनिक दृष्टियों के बीच एक-दूसरे के प्रत्याख्यान की खंडन की परंपरा तो है लेकिन संघर्ष नहीं है अपितु समावेशन की प्रक्रिया है क्योंकि सत्य का एक निश्चित मॉडल नहीं है। निश्चित मॉडल का न होना बार-बार स्वीकार किया गया है। सत्य तो एक ही है लेकिन ज्ञान की सीमा समझ की सीमा से उसका जब प्रकटीकरण होता है तो उसे सीमा में आवृत्त कर बहुरूप में समझा जाता है। जहाँ तक भारतीय दर्शन की भूमिका का प्रश्न है आज दुनियाभर में भारतीय जीवन प्रणाली के प्रति आकर्षण बढ़ा है। उपभोक्तावादी जीवन दर्शन के कारण विश्व के समक्ष उत्पन्न हुई समस्याओं के समाधान के प्रति संवेदनशील लोगों की चिंताएँ बढ़ी हैं। एक संपोष्य और निरंतर जीवन दृष्टि की आवश्यकता सब महसूस कर रहे हैं। संपोषण के साथ निरंतरता भारतीय दर्शन का आधार है। इस संपूर्ण विश्व को किसी निश्चित तिथि, स्थान, काल, भूगोल और किसी खास किस्म के इतिहास में न बाँधने की स्वाभाविक वृत्ति ही भारतीयता है और यही इसकी भूमिका भी है।
क्या दर्शनशास्त्र एवं मानविकी के अन्य विषयों को समाज एवं राष्ट्र के समसामयिक समस्याओं से जोड़ने की जरूरत है?
जब आप मानविकी, दर्शनशास्त्र, सामाजिक विज्ञान आदि को अपने काल, अपने काल की समस्या, अपने परिवेश, समाज और राष्ट्र के साथ जोड़ने की बात करते हैं तो ऐसा लगता है कि यह कटा हुआ है। वस्तुतः यह कटा हुआ नहीं है बल्कि ओझल हुआ है, कुछ दिग्भ्रम हुआ है। आधुनिकता की विश्व व्यवस्था ने ऐंद्रिक सुख वाले समाज के जीवन को बेहतर बनाने का जो आश्वासन दिया था उसमें मानवीय सम्वेदना का पक्ष गौण हो गया है। 'स्व' और 'स्वत्व' खोया है इसलिए सारा संकट पहचान का है। पहचान तो करनी होगी, समाज की, परिवेश की, काल की और समाज और परिवेश को आतृप्त करने वाले चिरंतन राष्ट्र की। आधुनिकता ने जो बुराइयाँ दी हैं उसमें सबसे बड़ी बुराई तात्कालिकता की है। पीछे और आगे के मनुष्य के विचार न करने की है। राष्ट्रीय-राष्ट्रीयता का तत्व इस विखंडित दृष्टि को चिरंतन आधार देता है अब इसे नेशन की अवधारणा से नहीं समझा जा सकता है। नेशन की अवधारणा पर अभी युद्ध जारी है लेकिन राष्ट्र हजारों-हजार वर्षों के बाद एक भारतीय मन के विचार में रचा बसा विचार है। राज्य और नेशन की अवधारणा से परे मनुष्य की सांस्कृतिक एकात्मकता और विविध प्रकार की बोलियों, भाषाओं और आदतों के बीच भिन्नता रखने तथा वैभिन्य के साथ भिन्न-भिन्न भागों में रहनेवाले लोगों के बीच जो एकसूत्रता है उसको प्रकाशित करनेवाला तत्व है।
एकसूत्रता और एकात्मकता पर आधारित राष्ट्र से आपका क्या आशय है ?
राष्ट्र शब्द संस्कृत के 'राज' धातु से बनता है लेकिन यहाँ राज शब्द का अर्थ 'राज शासते नहीं' राजरि दीप्तौ यानी दीप्तिमान या सुवासित होने के अर्थ में है। समंजित होने के अर्थ में राष्ट्र है और इस प्रकार की राष्ट्रीयता का विचार भारत की दर्शन सरणि में अंदर तक पिरोया हुआ है। दार्शनिक दृष्टियों के विभेद को स्वीकार किया है। भारत में दर्शनों के भेद को स्वीकार नहीं किया है कि बहुत प्रकार के दर्शन हैं, ऐसा नहीं है। पंचशिख का वचन उद्धृत करना चाहूँगा कि वे कहते हैं 'एको हि दर्शनं ख्यातिरेव दर्शनम्'। प्रख्यापित होना, ज्ञापित होना, अभिव्यंजित होना, ज्ञानमय होना और चिन्मय होना - यही दर्शन है। शेष जो दर्शनों का विभाजन है, भेदमात्र है, दृष्टि भेद तत्वभेद नहीं है। भारतीय दर्शन की दृष्टि ही है जो विविधताओं को स्वीकृति देती है। विविध प्रकार की भाषाएँ, विविध प्रकार के आचार-व्यवहार, आदतें, खान-पान वाले मनुष्य इस धरती को सुशोभित करते हैं, इसकी स्वीकृति देती है। ये जो द्वैराश्य भेद पर आधारित दार्शनिक दृष्टि है, I and thou पर आधारित दार्शनिक दृष्टि है वह भारतीय दर्शन का यथार्थ नहीं है। भारतीय दर्शनशास्त्र का तर्कशास्त्र Law of excluded middle पर नहीं है बल्कि इसके विपरीत Law of included middle है। वह पहले ही मानता है कि हमको और उसको जोड़नेवाला कोई तत्व है, जो जोड़नेवाला है उसको पहचानना है तो राष्ट्रीयता के लिए दृष्टि आवश्यक है। भारतीय राष्ट्रीयता के लिए तो अत्यंत आवश्यक है किंतु कठिनाई क्या है कि राष्ट्र पर हिंदी साहित्य में कम चर्चा हुई है। यह राष्ट्र कैसे है? एक राष्ट्र कैसे है? इस पर कम चर्चा हुई है। इसके विपरीत में राष्ट्र क्यों नहीं, इस पर अधिक चर्चा हुई है। यह तो नकारात्मकता है। नकारात्मकता के आधार पर कोई रचना खड़ी नहीं हो सकती है। केवल विध्वंस चल रहा है। यदि यह नकारात्मकता का भाव स्वतंत्रता आंदोलन के पूर्व भारतीय जन में होता तो भारत को आजादी नहीं मिलती। सब लड़ रहे थे, देश की आजादी के लिए, राष्ट्र के लिए लड़ रहे थे। वैचारिक मतभेदों के बाद भी इस राष्ट्र की आजादी के लिए लड़ रहे थे। इस राष्ट्र के लिए संघर्ष करनेवाले लोगों के रास्ते तो अलग-अलग थे पर लक्ष्य था - स्वतंत्र राष्ट्र। स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र का लक्ष्य गायब हो गया। एक राष्ट्र नहीं, इसकी सिद्धि का अभियान सा चल गया। फिर परिस्थितियाँ बदली हैं। भारत का युवा किसी भी पंथ का, कोई भी भाषा बोलनेवाला हो, आज वह एक नया भारत गढ़ना चाहता है और नया भारत 'मेकिंग ऑफ न्यू नेशन' नहीं बल्कि 'न्यू मेकिंग ऑफ दि नेशन' है, वह एक नया राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया नहीं है बल्कि जो राष्ट्र है, उसको प्रकाशित करने की है। इसलिए जीतता हुआ भारत पूरी दुनिया में दिख रहा है, इसको और अधिक प्रकाशवान बनाने के लिए स्वाभाविक है कि तत्वदृष्टि की आवश्यकता है और यह तत्वदृष्टि भारत की अनादि संस्कृति से मिलेगी।
आज जब पाश्चात्य संस्कृति भारतीय संस्कृति को निगलने के कगार पर है तब ऐसे समय में भारतीय मूल्यों को कैसे बचाया जा सकता है?
देखिए, भारतीय मूल्यों की अस्मिता का संकट भारत में है, विदेशों में नहीं। विदेशों के लिए भारतीय संस्कृति संजीवनी है। कोई भी दुनिया की संस्कृति दूसरी संस्कृति को नहीं निगलती है। पाश्चात्य संस्कृति तो भारतीय संस्कृति को नहीं निगल सकती है। यहाँ जो आया, केवल उसकी अपनी सभ्यता थी और वह भी सभ्यता के बाह्य लक्षण ही हैं। संस्कृति पर जब सभ्यता का आक्रमण होता है तो एक प्रकार की खिचड़ी बनती है और जब खिचड़ी होती है तो उसमें सभी तत्वों का विद्रूपण तो होता ही है। यह अलग बात है कि आज यूरोप या पश्चिम में यह मान लिया गया है कि संस्कृति नाम की कोई महान या कोई विराट व्यवस्था नहीं है। संस्कृति तो शुद्ध रचना है। शुद्ध रचना है तो विराट रचना उसको ढकेगी। सन् 80 के दशक के बाद यह असर जोर से चला। सैमुएल हंटिंगटन जब 'क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन्स' की बात करता है तो संस्कृतियों का अस्तित्व से निषेध है। आज समस्या यह है, पश्चिमी संस्कृति और भारतीय संस्कृति के बीच द्वंद्वता कहीं नहीं है। द्वंद्व है - धार्मिकता और अधार्मिकता के बीच। हाँ, यहाँ सावधान जरूर रहना होगा कि धार्मिकता और अधार्मिकता कहना होगा तो यह उपासना और पंथ केंद्रित नहीं है। धार्मिकता वही है, सम्राट अशोक अपने शिलालेखों में लिखता है कि "अपासिनवे बहुकयाने दया दाने सचे सोचये मादवे साधवे च" अर्थात् कम पाप करना, कल्याण करना, दया-दान करना, सत्य बोलना, पवित्रता से रहना, स्वभाव में मधुरता तथा साधुता बनाए रखना। यह हमारा मूल्य है, यही मूल्य संस्कृति का निर्माण करता है। यह मूल्य सभी उपासना पंथों में दिखाई देता है। इसके विपरीत जो सभ्यता दृष्टि विकसित हुई है, वह नितांत व्यक्तिवादी है और मैं कहूँ कि यह ट्रान्जिसन फेज में पश्चिम में Humanism का कन्सेप्ट आया है, Major of all things। उसकी पूरी व्याख्या में यह सिर्फ जीवन प्रणाली - खान-पान, आदतें, व्यवहार यह संस्कृतियाँ हैं, यह तो संस्कृति को न समझने जैसा है। संस्कृति तो मनुष्य को बेहतर बनाने की प्रक्रिया है। यह स्थितिमात्र नहीं है, कोई समय, कालखंड भी ऐसा नहीं है जिससे यह मान लिया जाए कि जिसने संस्कृति जैसे सर्वोच्च स्वरूप को प्राप्त कर लिया है। यह तो प्रवाहमान नैरर्न्तय है, प्रवाही निरंतरता है जैसे नदी में अनगढ़ पत्थर पानी के थपेड़े खाते हुए, एक-दूसरे पत्थरों से टकराते हुए चमकीले बन जाते हैं और एक समय ऐसा आता है जब वह किनारे आता है तो उसे रत्न समझ करके हाथोंहाथ ले लिया जाता है। संस्कृति उसी प्रक्रिया से बनती है। संस्कृतियाँ तो निरंतर मानवीय चेतना के संघात का परिणाम है। ये कोई कृत्रिम स्थिति नहीं है। इसको समझेंगे तो संस्कृति को समझे बिना वस्तुतः पश्चिम और भारत के बीच जो टकराव दिखाई दे रहा है। वह इसी कारण समझ नहीं आ रहा है। दोनों के अलग-अलग कमिटमेंट हैं, दोनों की प्रतिश्रुति ही अलग है और जो प्रतिश्रुति को नहीं समझता है उसकी दशा वैसी ही होती है जैसे बनाने चले थे गणेश और बना दिया बंदर। इसलिए न तो भारतीय संस्कृति यूरोपीय संस्कृति को समाप्त कर सकती है और न ही यूरोपीय संस्कृति भारतीय संस्कृति का खात्मा कर सकती है। खतरा तो अपने को भूल जाने का है।
आपका तात्पर्य है कि ' हम कौन हैं' इसका ज्ञान लोगों को नहीं है, ऐसे में आप इस दिशा में संज्ञान के लिए क्या सुझाते हैं ?
'हम कौन हैं' इसकी विस्मृति हमेशा मूल्यों की विस्मृति से होती है। इसको भौतिक संदर्भ में भी और आर्थिक संदर्भ में भी देख सकते हैं। आत्म विस्मृति और पर स्वीकृति के द्वारा हमने जो पाया है इसकी बड़ी कीमत चुकाई है हम लोगों ने। आत्मबोध विस्मृति के गर्भ में चला गया है तो हमारी प्राप्ति मूल्यहीन हो गई है। यही इतिहासबोध है, इतिहासबोध विकृत होता है तो मूल्यदृष्टि ओझल होती है और जब मूल्यदृष्टि ओझल होती है तो संस्कृति पराभूत हो जाती है। भारतीय संस्कृति को खतरा इस पराभूत मानसिकता मात्र से नहीं है बल्कि मूल्यश्रेष्ठता के गौरव की विस्मृति और आत्मबोध के अभाव से भी है। वह कोई दिन नहीं आनेवाला जब सम्राट अशोक ने जो धर्मदृष्टि दी वह निरर्थक हो जाय। वस्तुतः वह मूल्यदृष्टि है। अपापी होना, लोगों का कल्याण करना, सच बोलना, पवित्र रहना, दान करना इत्यादि मूल्य दुनिया से खत्म हो गए हैं? मूल्य दुनिया से नहीं खत्म हो सकते हैं। भारतीय संस्कृति में इन मूल्यों की चिंता है। हाँ यह सबका जीवन कैसे बन सके, इसके लिए यत्न करने पड़ेंगे। युगानुरूप यत्न करने पड़ेंगे।
वर्तमान संदर्भ में भाषाई संकट भारतीय अस्मिता के लिए एक चुनौती के रूप में खड़ा है। इस पर आपका मंतव्य?
देखिए, भाषाई संकट, यह कल्पित प्रश्न है, कृत्रिम है, बनाया हुआ है। इसका कोई राजनीतिक आधार तो हो सकता है परंतु जन में नहीं है। वस्तुतः जबसे हम लोग भाषा की बहुलता को लेकर चिंतित हुए हैं, अनेक भाषाएँ लुप्त हो गईं हैं। विविध जनजातियों की भाषाएँ लुप्त हो गई हैं, जिसमें कुछ महत्वपूर्ण भाषाएँ नष्ट हुई हैं। पाकिस्तान आक्रांत जम्मू कश्मीर के एक बड़े क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा बाल्टी का अस्तित्व नहीं रहा। गिलगित में बोली जानेवाली सीना का अस्तित्व नहीं रहा और सैकड़ों हजारों भाषाएँ भारत सहित एशिया के तमाम देशों से लुप्त हो चुकी हैं क्योंकि उनके पास लिपि नहीं है। लिपि की श्रेष्ठता के आधार पर भाषा की श्रेष्ठता लाने की रोमन परंपरा है। भाषाई साम्राज्यवाद की परंपरा ने बहुत कुछ बदल किया है और आज के संदर्भों में बात करें तो ऐतिहासिक बहुप्रचलित भाषाओं के समक्ष भी खतरा उत्पन्न हुआ है। हिंदी के जाने कितने प्रारूप समाप्त हो गए। एक हजार वर्षों के हिंदी के इतिहास को देखें तो 60-70 वर्षों से लगातार हिंदी के विविध प्रारूपों के खात्मे का अभियान चला है। हिंदी के विविध बोलियों को अलग भाषा के रूप में पहचान दिलाकर विभाजन किया गया, हिंदी के मानकीकरण के अभियान के दौरान भी जो Verities of Stylistics थी, शैली की विभिन्नताएँ थीं, वह भी खत्म हुई हैं। इसके विपरीत जिनको अपना विस्तार करना था उनमें समानता नहीं होने पर भी एक मान लिया गया उदाहरणस्वरूप भारत में बोली जाने वाली अंग्रेजी और आस्ट्रेलिया में बोली जानेवाली अंग्रेजी, लेकिन इस सबको दुनिया ने एक भाषा के रूप में लिया।
आप भारतीय धर्म एवं दर्शन के अध्येता हैं। इस परिप्रेक्ष्य में आप भारतीय राष्ट्रवाद और पाश्चात्य राष्ट्रवाद के बीच चल रहे द्वंद्व को किस रूप में देखते हैं?
देखिए, ये द्वंद्व मूल रूप से दो प्रकार की दृष्टियों का है, एक स्टेट-नेशन की दृष्टि है, राष्ट्र-राज्य की अवधारणा है जिसमें विविधताओं को खत्म करते हुए एकता की तलाश की जाती है, ये यूरोप ने स्वीकार किया था और उसका परिणाम यह हुआ कि यूरोप में अभी तीन-चार सौ वर्षों के अंदर मूल रूप से राष्ट्रीयता का स्वरूप उभरकर सामने आया है। जो एक आर्थिक राष्ट्रवाद के रूप में, एक राजनैतिक राष्ट्रवाद के रूप में उभरकर सामने आता है और राष्ट्रवाद जो मनुष्य की गरिमा, मनुष्य की संवेदनशीलता का विचार नहीं कर सकता है वास्तव में वह राष्ट्रवाद अलग किस्म का है। भारतीय दृष्टि इससे अलग है। जो अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र से परे है। यहाँ एकता तो है पर महत्वपूर्ण यह है कि वह एकता किस प्रकार से विविधता के रूप में अभिव्यंजित होती है और उस विविधता का संरक्षण कैसे होना चाहिए? स्वीकृति कैसे होनी चाहिए? राष्ट्र की अवधारणा इससे संबंधित है। यह धरती, जल और विविध भाषाओं मनुष्य को जोड़ने की अवधारणा है इसलिए राष्ट्र भारतीय संदर्भों में कोई राजनीतिक इकाई नहीं है। यदि भारतीय संदर्भों में राष्ट्र को एक राजनीतिक इकाई माना जाए तो भारत की आजादी के आंदोलन का धरातल इसमें से नहीं तलाशा जा सकता है लेकिन ब्रिटिशों के आने के पूर्व भारत अनेक था, राज्य की दृष्टि से, शासन की दृष्टि से, प्रभुसत्ता के नियंत्रणता की दृष्टि से किंतु फिर भी सब लड़ रहे थे अपने-अपने स्थानों पर भारत की आजादी के लिए। कोई अपने राज्य की स्वतंत्रता के लिए नहीं लड़ रहे थे। 1857 की क्रांति में भिन्न-भिन्न रियासतों और राज्यों के राजा जो लड़ाई लड़ रहे थे। उनका लक्ष्य था कि भारत में एक साम्राज्य बनेगा और वह भारतीय जीवन के मूल्यों के आधार पर बनेगा। बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में जब कुछ समय के लिए दिल्ली में आजादी की एक सरकार स्थापित हुई थी जो पहला फरमान जारी किया गया था उसमें एक भारत की दृष्टि थी। उपासना पंथ से परे इस धरती के लिए राज्य की स्थापना ही इसकी दृष्टि थी। धरती राष्ट्र के रूप में पहले भी थी और बाद में भी रही। कांग्रेस ने जब संपूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित किया 26 जनवरी, 1930 को, तो राष्ट्र की स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित किया। अगर राष्ट्र-राज्य की अवधारणा का विचार करें तो भारत तो राष्ट्र नहीं था लेकिन कांग्रेस ने अध्यक्ष को 1930 से राष्ट्रपति कहने की परंपरा शुरू की और कांग्रेस के लोगों के द्वारा निर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले राष्ट्रपति हुए, ये शायद लोगों को ध्यान में नहीं है और 1930 के बाद से लगातार कांग्रेस के अध्यक्ष को राष्ट्रपति कहा जाता रहा तो वह राष्ट्र की अवधारणा राजनैतिक तो नहीं रही, एक भू-सांस्कृतिक राष्ट्र की दृष्टि थी। 1905 में बंग विभाजन के समय क्यों आंदोलन खड़ा हुआ और क्यों उद्वेलित होता रहा पूरा देश। किसी दूर स्थान की घटना को लेकर देश का जन क्यों उद्वेलित होता है। मनुष्य हैं तो छोटे-मोटे विवाद-झगड़े होते रहते हैं लेकिन स्थायी रूप से एक आंदोलन के रूप में उभरकर हमारे सामने आता रहा है। एक जन और एक राष्ट्र की अवधारणा को इस देश के कम लोगों ने स्वीकार किया है, यूरोप अभी इसको प्राप्त नहीं कर सका है जहाँ से राष्ट्रीयता का सारा आधार हम लोगों ने लेने की कोशिश की, उस यूनाइटेड किंगडम में भी नहीं हो सका है। अभी तक आयरिश नेशनलिज्म और स्कॉटिश नेशनलिज्म की समस्या का समाधान इंगलिश नेशनलिज्म के लोग नहीं कर सके हैं। भारत में ऐसे नेशनलिज्म की समस्या नहीं खड़ी हुई है।
क्या आप यह मानते हैं कि जातीय संस्कृति, राष्ट्रीय संस्कृति का स्वभाव भारत का एक जैसा रहा है ?
जी हाँ। हजारों वर्षों से एक सा है। यह जीवन-दृष्टि के कारणों से है क्योंकि भारतीय जन सबसे अधिक इस धरती को महत्व देता है। दुनिया के अन्य किसी संस्कृति में भूखंड को इतना मूल्यवान मानने की परंपरा नहीं रही है। माँ मानकर इसे स्वीकारते हुए जीने-मरने का स्वभाव ही भारतीय स्वभाव है और जब धरती माँ होती है तो इस धरती पर रहने वाला हर मानव सहोदर बंधु होता है। यह भाव भारत की राष्ट्रीयता का आधार है। यह राजनैतिक राष्ट्रीयता नहीं है, राजनैतिक राष्ट्रीयता होती तो 1947 में जो चमत्कार हुआ था वह नहीं होता। 547 देशी रियासत के सदस्य अपनी इच्छा से संघ में विलय न किए होते। उनमें पहले से संगठन की ये दृष्टि थी कि देश तो एक है, राष्ट्र तो एक है। हमको कोई एक कोना मिला है, व्यवस्था करने के लिए और हम उस कोने के जिम्मेदार हैं ये सारे कोने, सारे टुकड़े, सारे हिस्से जब मिलकर एक होते हैं तो राष्ट्र सामने आता है विराट, विशाल, समर्थ और सक्षम। वह राष्ट्र सामने आता है जिसमें लोग कश्मीर से कन्याकुमारी तक, तक्षशिला से लेकर कामरूप तक एक जन एक राष्ट्र मात्र देखते हैं। ये विशिष्टता भारत के अलावा दुनिया के किसी अन्य भौगोलिक क्षेत्र में प्राप्त होना कठिन है।
और कुछ अलगाववादी ताकतें भारत की राष्ट्रीयता पर ही प्रश्नचिह्न खड़ा करती हैं, इस पर आपका मंतव्य?
अगर भारत की राष्ट्रीयता कृत्रिम होती तो सोवियत संघ की तरह इस देश के भी टुकड़े-टुकड़े हो जाते। ये अलग बात है कि सोवियत संघ के टुकड़े-टुकड़े होने के बाद से इस देश में कुछ लोगों को लगने लगा कि जैसे सोवियत संघ जुड़ा हुआ राष्ट्र था वैसे भारत भी जुड़ा हुआ राष्ट्र है तो इसके भी अलग-अलग टुकड़े हो सकते हैं, अलग-अलग राष्ट्रीयताएँ हो सकती हैं लेकिन इनके प्रयासों को इस देश की जनता ने दरकिनार किया है। यह भारत के बुद्धिजीवियों के द्वारा निर्मित राष्ट्रीयता नहीं है, ये तो लोक-पर्वों में उभरनेवाली राष्ट्रीयता है जिसको किताबों में लेख लिखकर बदला नहीं जा सकता है। ये तो गंगा के किनारे जो लाखों लाख लोग खड़े होते हैं उनकी है, जो समुद्र की पूजा करते हैं, गणपति बप्पा मोरया का नारा लगाते हैं उनकी है, जो ओणम मनाते हैं उनकी है, जो नदियों को पवित्र मानते हैं उनकी राष्ट्रीयता है। देश की सारी नदियों के प्रति पवित्रता का भाव जो इस देश के आम आदमी के मन में है। वह जल, जंगल और जमीन के प्रति आध्यात्मिक दृष्टि रखना है, दैवीय दृष्टि रखना है, यह भारत का वैशिष्ट्य है और इस वैशिष्ट्य के कारण से यह देश एक है। इसलिए गांधी भी भारत माता की अवधारणा को स्वीकार करते हैं और भगत सिंह भी स्वीकार करते हैं। भारत की आजादी के रास्ते चाहे जो हों, उपकरण चाहे जो हों लेकिन लक्ष्य भारत माता है। वैभव-संपन्न, समर्थ, सक्षम और अपने सभी बेटों का समान रूप से पोषण करनेवाली भारत माता है। ये भारत की राष्ट्रीयता का आधार है। भारत भूमि के प्रति मातृत्व का भाव है ये मातृभूमि की अवधारणा भारत की राष्ट्रीयता का आधार है।
दुनिया में भारत अपने सनातन दर्शन के वैशिष्ट्य के लिए जाना जाता है। आज इस वैशिष्ट्य पर संकट आसन्न हैं, इस संकट से कैसे पार पाया जा सकता है?
संकट सबसे बड़ा नासमझी का है और वह सनातन को न समझने के कारण से उपजा है। सनातन का तात्पर्य किसी कालखंड में उभरी हुई वैचारिक अवधारणा नहीं है। सनातन का अर्थ तो निरंतर है। जो निरंतर है वही चिरंतन है जो निरंतर और चिरंतन है वही सनातन है। सनातन जो काल बाह्य हो गया है उसको दूर करना और युग तथा देश के अनुरूप नित्य शाश्वत मानवीय मूल्यों के आधार पर जीवन संस्कृति का विचार करेंगे तो खतरा नहीं दिखता है। हम सनातनता का मतलब कोई पाँच सौ वर्ष, हजार वर्ष, दो हजार वर्ष पुरानी जीवन प्रणाली जब समझते हैं तो यह खतरा दिखता है और यह सच नहीं है, यह थोपा हुआ है। सनातन मूल्यों के प्रति खतरा तब दिखता कि कोई विकृति आती है समाज में, तो हम इसको औचित्य देने लगते हैं। समाज में विकृति आती है, बहुत सारे कारण हैं तो इसको स्वीकार करते हैं कि यह विकृति है, इसको दूर करते हैं, निकालते हैं जरूरत पड़े तो 'सिजैरियन एप्रोच' से और काटकर अलग कर देते हैं, ये सब करना पड़ता है। इसके स्थान पर सिर्फ अतीत को गाली देने से, अतीत के आधार पर वर्तमान में कुंठाएँ पालने से, अतीत के आधार पर वर्तमान में प्रतिरोध खड़े करने से नहीं होगा। वर्तमान में खड़े होकर के अपने अतीत से प्रेरणा ले करके और भविष्योन्मुखी होना यह सनातनता है और यही इस देश सहित दुनिया का समाधान भी है। इसको इस ढंग से कहा जाता है कि Rooted in Past, Footed in Present and Focused in Future यानी हमारी जड़ें हमारे अतीत में है, हमारे पाँव वर्तमान पर मजबूती के साथ खड़े हैं और हमारी दृष्टि भविष्य के हमारे लक्ष्य के प्रति हैं तब अतीत सहयोगी बनता है, वर्तमान सार्थक होता है और तब भविष्य लोक कल्याण और सुख का सृजन करता है।
पिछले दो दशकों में पूरे विश्व की सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक संरचना में व्यापक बदलाव आया है। इस पूरे परिदृश्य में भारत एक बार फिर से कैसे विश्वगुरु बन सकता है?
इस देश को सरकारें नहीं चलाती हैं, इस देश को यहाँ की जनता चलाती है और इस देश की एक दूसरी विशिष्टता है कि विज्ञान और तकनीक को हर काल में चुनौती देनेवाला युवा खड़ा होता है। 1965 याद करिए, पैटन टैंक अजेय माने जाते थे। रिकॉइललेस गन से पैटन टैंक को तोड़ा जा सकता है यह कल्पना भी नहीं की जा सकती है लेकिन यह तोड़ा गया, ये इतिहास का सत्य है वह इस देश की युवा मेधा ने किया है। एफ 16 और मिग 21 के बीच लड़ाई हो सकती है और मिग 21 से एफ 16 को गिराया जा सकता है यह दुनिया के सामरिक युद्ध विशेषज्ञ कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। ये भारत कर सकता है, भारत के युवा कर सकते हैं। ये विश्व गुरु बनेगा तो इसके दो ही कारण हैं। एक तो भारत की सांस्कृतिक दृष्टि जो संपोष्य विकास, मानवीय दृष्टिकोण, मानव के कल्याण की विचारधारा और संपूर्ण विश्व को उसकी विभिन्नताओं के बाद भी एक परिवार के रूप में देख सकने वाली सामाजिक प्रणाली के कारण है। दूसरा यह भारतीय ज्ञान-दृष्टि पर आधारित है जो प्रतिरोध पर आधारित ज्ञान-दृष्टि नहीं है और न ही प्रतिक्रिया पर आधारित। अपितु समावेशन पर, समंजन पर आधारित एक पूर्णतावादी दृष्टि है जो मनुष्य के अंदर है तथा बाह्य जगत में भी है। इन दोनों के बीच भेद नहीं, अभेद है। ऐसी ही दृष्टि मनुष्य को एक संपोष्य जीवन प्रणाली दे सकती है और यही वह कारण है जिससे भारत को विश्वगुरु बनना ही है, जिसे कोई रोक नहीं सकता है।
और इसमें युवाओं के योगदान को आप किस रूप में देखते हैं?
इस देश की विशिष्टता इस देश की युवा शक्ति है जो हर काल-खंड की समस्याओं के प्रश्नों के उत्तर तलाशती है, मजबूत उत्तर देती है और नई दृष्टि, नई संभावनाओं के द्वार खोलती हैं। जब भी चुनौती आई है, इस देश के लोगों ने स्वीकार किया है। आज पूरी दुनिया भारत के तरफ पूरे ध्यान से देख रही है तो इसका कारण युवा शक्ति है जो हर बार सपने सजाती है। उन्होंने एक बार सपना सजाया पिछले दस-पंद्रह वर्ष पूर्व कि भारत को अमीर होना है। यह उनके कारण होना है। ये जो आर्थिक परिवर्तन दिख रहा है, दूसरा कि हमने जिसको बोझ समझा था वही हमारी ताकत थी, हमने जनसंख्या को बोझ समझा था लेकिन मनुष्य से बड़ी ताकत, बड़ी शक्ति दुनिया में तो और कुछ नहीं है। इस देश की विराट जनसंख्या ने पूरी दुनिया को बताया कि हम अपनी जनसंख्या के आधार पर दुनिया को जीत सकते हैं, अपनी मेधा के आधार पर जीत सकते हैं। भारत बड़ा बाजार है इसके आधार पर ही ये सारी चीजें नहीं चल रही हैं। भारत बड़े जनसमुदाय का एक ऐसा देश है जो युवा हो रहा देश है। यूरोप बूढ़ा हो रहा, जो बूढ़े होते हैं वो तो मरने के रास्ते देख रहे हैं इसलिए भारतीय संदर्भ को समझना होगा तो भारत को चिरंतन युवा देश के रूप में समझना होगा और यही सत्य भी है। इस देश के समग्र इतिहास को देखें तो हर प्रश्नों का उत्तर युवाओं ने दिया है राम, कृष्ण, शिवाजी से लेकर भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाकुल्ला खाँ, सुभाष चंद्र बोस इत्यादि जैसे क्रांतिकारी नायक इस देश में दिखाई दे रहे हैं ये सारे के सारे युवा हैं। विविध प्रकार की विपरीत परिस्थितियों में लड़ने का संकल्प लिए हुए लोग हैं और ऐसे युवाओं से देश भरा हुआ है।
आधुनिकतावाद के समर्थन में यह तर्क दिया जाता है कि इससे स्थानीय स्वायत्तता और विकेंद्रीकरण की जमीन मजबूत हुई है और उत्तर उपनिवेशवादी साहित्य, तीसरी दुनिया का साहित्य, नारी एवं अश्वेत लेखन, दलित साहित्य आदि केंद्र में आए हैं। आप इस तर्क से कहाँ तक सहमत हैं?
ये तर्क वही दे सकते हैं जो आधुनिकता को जानते नहीं हैं, आधुनिकता के इतिहास से परिचित नहीं हैं कि आधुनिकता की एक ही विशेषता है वह है तार्किकता (रेशनेलिज्म) और रीती रेशनेलिटी सिर्फ और सिर्फ जो बुद्धिमान हैं उसके सुखों का साधन हो सकती है। इसको और ढंग से समझना होगा जो उपनिवेशवाद से अलग करके उत्तर उपनिवेशवाद के रूप में ही कैसे संभव हो सकेगा। आखिर जहाँ-जहाँ यूरोप ने अपने उपनिवेश बनाए उनके जाने के पहले कोई जीवन प्रणाली तो रही होगी, कोई भाषा तो रही होगी, वहाँ के लोगों की कोई आस्था प्रणाली तो रही होगी वह उनके पास नहीं बची। डेसमंड टूटू के शब्दों में कहें तो ''जब वो हमारी धरती पर आए तो उनके हाथ में बाइबिल थी और हमारे पास जमीन। उन्होंने कहा, 'आँखें बंद करो, प्रार्थना करो' हमने आँखें बंद कीं और प्रार्थना करने लगे तो सौ साल बाद हमारे पास केवल बाइबिल थी और उनके पास हमारी सारी जमीनें।'' ये आधुनिकता है। आधुनिकता साम्राज्यवाद है, उपनिवेशवाद है। आधुनिकता एक औद्योगिक क्रांति है। आधुनिकता मशीनीकरण है, मानवीकरण नहीं है। मशीन और मानव के बीच मशीन की श्रेष्ठता का प्रतिपादन हुआ है, जहाँ मशीन, मनुष्य पर भारी होगी उससे नए प्रकार की संभावनाओं की बात करना ये ठीक नहीं है। स्त्री विमर्श के नए-नए चेहरे खड़े हो रहे हैं। हम तो जनजातीय दृष्टि से जब स्त्री को देखते हैं तो उनके सामने कोई समस्या नहीं है। किसी भी परंपरागत समाज में जो आधुनिकता के आक्रमण में नहीं है उसमें स्त्री और दलित जैसी समस्या नहीं है। उसमें एक्सक्लूजन की समस्या नहीं है तो आधुनिकता हो या उत्तर-आधुनिकता, ये एक पोलीटिकल मोटिव है। इस पोलिटिकल मोटिव को समझे बिना इसे सही नहीं किया जा सकता है। आधुनिकता जहाँ साम्राज्यवादी दृष्टिकोण है, औपनिवेशिक दृष्टिकोण का विस्तार है। मनुष्य के ऐंद्रिक सुखों को मूल्यवान बनाने की प्रक्रिया है और उसकी भावनाओं और उसकी श्रद्धा को तिरोहित कर देने की प्रणाली है। वहीं उत्तर आधुनिकता व्यक्ति और राज्य के बीच, परिवार और समाज जैसी संस्थाओं के खात्मे का उद्घोष है। व्यक्ति रहेगा और सरकार रहेगी। सरकारें, राज्य-सत्ता व्यक्ति की चिंता करेगी। सरकार और व्यक्ति के बीच परिवार और समाज नाम की जो स्वाभाविक इकाई थी जो मनुष्य को नियामित करती थी, नियंत्रित करती थी, मनुष्य को दिशा देती थी उसका खात्मा हो गया। उसका संकट यूरोप ने तो भुगतना शुरू कर दिया है। भारत के अंदर भी इसके लक्षण दिख रहे हैं किंतु अभी भी भारत में परिवार जिंदा है, समाज जिंदा है। परिवार और समाज के जिंदा रहते हुए वह स्थिति तो आती हुई नहीं दिखती लेकिन जो बुद्धिधर्मी लोग हैं उन बुद्धिधर्मी लोगों के लिए इस प्रकार की जीवन प्रणाली, जो किताब में न लिखी गई हो जो युक्ति के द्वारा न प्रतिपादित की गई हो जिसके इक्वेशन्स नहीं बनाए गए हों या यों कहे कि जो किसी लेबोरेटरी में डेवलप न हुई हों, पिछड़ी लगती हैं।
आधुनिकता के संदर्भ में क्या आप मानते हैं कि वर्तमान में उत्पन्न हो रहे संकटों का निदान गांधी दर्शन में निहित है?
वर्तमान में उत्पन्न हो रहे संकटों के दौर में गांधी की जीवन प्रणाली सामने आती हैं, गांधी एक विशिष्ट जीवन-दर्शन की बात करते हैं। ऐसे ही समय में हिंद स्वराज याद आता है जिसने आधुनिकता के खिलाफ पहला रिवोल्ट किया और रिवोल्ट ऐसा वैसा नहीं था, वह सुधार का नहीं बल्कि पूरी तरह से नकार का था। भारत-मन की आजादी अर्थात् हिंद स्वराज्य आधुनिकता के संपूर्ण खात्मे पर खड़ा होगा जिसमें मनुष्य मशीन से ऊपर हो जाए। मनुष्य के संबंध में निर्णय युक्ति के आधार पर नहीं, आस्था के आधार पर हो। गांधी इसका प्रतिपादन कर रहे हैं। गांधी व्यक्ति की अस्मिता को सुरक्षित रखते हुए परिवार और समाज-कुटुंब को मजबूत आधार देने की कोशिश करते हैं और यही वह कारण है जिससे दुनिया बचेगी। यूरोपियन मॉडल जो कोई मॉडल हजार साल चलता है, कोई मॉडल चार सौ साल चलता है, कोई मॉडल साठ-सत्तर साल में ही खत्म हो जाता है उसके आधार पर दुनिया नहीं बच सकती है। स्थायी संपोष्य और लोक कल्याणकारी जीवन प्रणाली नहीं बन सकती है इसलिए गांधी के रास्ते से, गांधी की आँखों से जब भारत के परंपरागत समाज के स्वरूप को देखते हैं और उसमें जो बेहतर है उस बेहतर के आधार पर आज की आवश्यकताओं के अनुसार समाज और देश के निर्माण करने की कोशिश करेंगे उसके आधार पर व्यवस्थाओं का निर्माण करने की कोशिश करेंगे तब जा करके भारत के अनुरूप और विश्व के लिए अपेक्षित जीवन प्रणाली का निर्माण हो सकेगा और मुझे लगता है कि इस दृष्टि से गांधीजी के डेढ़ सौ वर्ष पर जरूर सोचा जाना चाहिए।