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आलोचना

शेखर जोशी की कहानियाँ : वैविध्य का वैभव

असीम अग्रवाल



साहित्यिक उर्वरता के समय की उपज 'नई कहानी' थी जिसने न केवल रचना में बल्कि तत्कालीन आलोचना में भी मुकम्मल तब्दीलियों की जरूरत पैदा की। इस प्रक्रिया में समय के हर पहलू को समेटने का प्रयत्न किया जाने लगा, फिर चाहे उसका संबंध पहाड़ से हो या समतल से, नगर से हो या गाँव से तथा शिष्ट समझे जाना वाला समाज ही हो या लोक। विविध आयामों से निर्मित होते इस वितान को रचनात्मक आधार देने वाले एक कहानीकार हुए शेखर जोशी; जो थे तो पहाड़ के, पर अपनी कलम से सबके हो गए।

संख्या के लिहाज से शेखर जोशी अग्रणी पंक्ति में आने से वंचित रह जाते हैं। सत्तर से भी कम कहानियाँ और उस पर ऊपर से एक भी उपन्यास नहीं। पर इतिहास मात्रा से नहीं गुणवत्ता से आँकता है तभी तो अकादमिक हलकों से दूरी के बावजूद शेखर जोशी चर्चित और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण - पढ़े जाने वाले कहानीकार हैं।

शेखर जोशी का कहानी-संसार वैविध्य के आयामों से मिलकर बनता है। यही वैविध्य उन्हें रचनाकार के सीमित हो जाने से होने वाले ह्रास से बचाता है। मधुरेश ने भी इस ओर इशारा किया है, "नई कहानी के उस आत्मकेंद्रित और अनुभववादी दौर में शेखर जोशी की कहानियाँ इस संक्रामक और आत्मघाती प्रवृत्ति से अपने को काफी हद तक बचाकर रख पाने में सफल होती हैं।"1

हालाँकि उनकी वैविध्योन्मुखता के संदर्भ में यह मानने में कोई गुरेज नहीं किया जा सकता कि उनमें शैलेश मटियानी जितनी विविधता तो नहीं है पर फिर भी ठीक- ठाक है। इसका एक अहम कारण संख्या का भारी अंतर भी है। बहरहाल, शेखर जोशी पर बात करते वक्त शैलेश मटियानी का जिक्र आना अस्वाभाविक नहीं। दोनों का संबंध समान क्षेत्र से ही रहा फिर चाहे वह पहाड़ हो या साहित्यिक शब्दावली का 'आँचलिक' शब्द। इसके अलावा एक और सामान्य विशेषता दोनों कहानीकारों में मिलती है कि दोनों का नाम आँचलिक कहानीकारों के रूप में लिया तो जाता है परंतु दोनों ने इसे अपनी परिधि नहीं बनने दिया। दोनों ही रचनाकार विस्तृत फलक अपनाते हैं।

शेखर जोशी अपनी कहानियों में एक तरफ जहाँ पहाड़ी इलाकों की निर्धनता और कठिन जीवन को जगह देते हैं तो वहीं शोषण और नाउम्मीदी से भरे औद्योगिक मजदूर वर्ग के हालात भी उकेरते हैं। शहरी-कस्बाई निम्न और मध्यवर्गीय जीवन हो या आर्थिक-सामाजिक-नैतिक संकट या फिर धर्म और जाति से जुड़ी घातक रूढ़ियाँ - उनकी कहानियों में स्वर पाती रही हैं। उनकी कुछ प्रतिनिधि कहानियों के माध्यम से इसे समझा जा सकता है।

'कोसी का घटवार' उनकी ही नहीं बल्कि हिंदी-कहानी की उपलब्धि मानी जाती है। लछमा और गुँसाई के प्रेम के प्रत्यक्ष प्रसंगों या वर्णनों के लगभग अभाव में भी वह सशक्त प्रेम कहानी है। प्रेम पर जिम्मेदारियों और वक्त की छाप की प्रतीक लछमा है तो वहीं उसकी अमिट और दीर्घ उपस्थिति का संवाहक है गुँसाई। दोनों के ही पक्ष बड़े चुपचाप पर खूबसूरत ढंग से उभरते हैं। कहानी में संयोग अवश्य है किंतु कहानी का कहानीपन अनकहे-कहन में है। एक अंश देखिए - "सर पर पिसान रखे एक स्त्री उससे यह पूछ रही थी। गुँसाई को उसका स्वर परिचित-सा लगा। चौंककर उसने पीछे मुड़कर देखा। कपड़े में पिसान ढीला बँधा होने के कारण बोझ का एक सिरा उसके मुख के आगे आ गया था। गुँसाई उसे ठीक से नहीं देख पाया, लेकिन तब भी उसका मन जैसे आशंकित हो उठा। अपनी शंका का समाधान करने के लिए वह बाहर आने को मुड़ा, लेकिन तभी फिर अंदर जाकर पिसान के थैलों को इधर-उधर रखने लगा। काठ की चिड़ियाँ किट-किट बोल रही थीं और उसी गति के साथ गुँसाई को अपने हृदय की धड़कन का आभास हो रहा था।"2

बताइए, पंद्रह वर्ष से अधिक का समय हो चुका है और बिना सही से देखे ही अहसास मात्र से धड़कन महसूस होने लगती है। रचनाकार कहीं कुछ नहीं बोलता और प्रेम की गहराई को नाप देता है। पर फिर भी जोशी जी यही नहीं रुकते और इसी क्रम में आगे लिखते हैं - "गुँसाई कमर झुकाकर घट से बाहर निकला। मुड़ते समय स्त्री की एक झलक देखकर उसका संदेह विश्वास में बदल गया था।"3 यह था अचूक निशाना, प्रभावी और स्पष्ट। पाठक के दिल को घायल कर देने वाला। इसी तरह के अचूक निशानों का समुच्चय है यह कहानी। शायद तभी तो हिंदी की सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानियों में शुमार है। जितनी बेहतरीन कहानी है उतना ही स्मरणीय है इसका अंत। कोसी नदी के किनारे पर रची यह कहानी पाठक को प्रेम से सारोबार करते हुए निस्तब्धता पर खत्म होती है - "मथानी की पानी काटने की आवाज आ रही थी, और कहीं कोई स्वर नहीं, सब सुनसान, निस्तब्ध!"4 अकेलापन तो गुँसाई के जीवन का हिस्सा रहा है था पर आज सूनापन था, सुनसान और निस्तब्ध! कितनी मनमोहिनी होगी उसके लिए गरीबी और संघर्ष से ढले हुए सौंदर्य वाली लछमा जो आज भी उसको उसकी धड़कन महसूस करा देती है और कितनी अचूक होगी उस रचनाकार की कला जो कलाविहीन से लगने वाले ढंग से ही पाठक को सब महसूस करा देता है! कृष्णदत्त पालीवाल ने इन कहानी की ताकत की एक बड़ी वजह को रेखांकित किया है, "शेखर जोशी की कहानी 'कोसी का घटवार' रोमानी स्पर्श से रिक्त न होती हुए भी अधिक यथार्थ है।"5

'कोसी का घटवार' की तरह ही मानवीय प्रेम में गहरी आस्था उत्पन्न करने वाली एक और कहानी है 'उस्ताद'। गुरु-शिष्य के संबंध की मनभावक कहानी। उत्तम पुरुष शैली में रचित इस कहानी में आपसी मनमुटाव के बाद भी कभी रात को न निकलने वाले उस्ताद अपने शिष्य को अपनी विद्या का आखिरी गुर भी सिखा जाते हैं - "कितना संतोष उभर आया था उनके चेहरे पर! मेरे कंधों को स्नेह से थोड़ा दबाकर वह लौट पड़े। गाड़ी के चलने की प्रतीक्षा भी उन्होंने नहीं की। जाने किस भावना के आवेग में मेरी आँखें गीली हो आईं। तभी समझ पाया कि उस्ताद गाड़ी के चलने की मिनट-भर की प्रतीक्षा भी क्यों न कर पाए होंगे।"6

एक तरफ जहाँ आँखों को नम करने वाली ये कहानियाँ हैं तो वहीं माथे पर चिंता की रेखाएँ और आँखों में परेशानी का सूखा उभारने वाली कहानियाँ भी हैं। 'मृत्यु', 'कविप्रिया' और 'दाज्यू' ऐसी ही कहानियाँ हैं।

'कविप्रिया' में रोजगार में शहर गए स्वाभिमानी और पैरवी से लगी नौकरियों को ठुकराने वाले नैतिक गिरीश और उसके पीछे उसके माँ-बाप के एकाकीपन का अंकन हैं। पर कहानी दरअसल उसकी प्रेमिका शीला के त्याग और विश्वास-विखंडन की है। शीला गिरीश के पीछे उसके माँ-पिताजी का खूब मन से ध्यान रखती है और गिरीश के लिए प्रेम भी कम नहीं होने देती। परंतु जब गिरीश की नवप्रकाशित पुस्तक में वह अपने लिए लिखी कुछ पंक्तियाँ खोजती है तो हाथ खाली रह जाते हैं और जल से भरी आँखों के बावजूद दिल सूना - "न जाने कब एक बार किसी छात्र को 'मेघदूत' पढ़ाते समय पंडितजी को यह कहते शीला ने सुना था - कवि के पात्र तो काल्पनिक होते हैं, कवि के अंतर की वेदना ही पात्रों के माध्यम से मुखर होती है। 'मेघदूत' का यक्ष स्वयं कालिदास ही है, अपनी प्रेयसी के प्रति तीव्र आसक्ति के कारण ही कालिदास अमर हो सके।

उसका गिरीश कवि है, यह सोचकर उस गर्व, आनंद और रोमांच की अनुभूति होने लगी। धड़कते हृदय से उसने पुस्तक खोली। मस्तिष्क में एक विचार आया, कहीं कुछ लिख न दिया हो, और लज्जा से उसकी कनपटियाँ आरक्त हो गईं।

शीला उत्सुकता से पृष्ठ-के-बाद-पृष्ठ पलटती गई। न जाने कब पुस्तक समाप्त हो गई, पर उस यक्षिणी के यक्ष ने कहीं उसका उल्लेख न किया था। इस उपेक्षा के कारण आहत होकर वह गिरीश के चित्र की ओर देखने लगी। उसका मन हुआ, एकटक देखते हुए गिरीश को झकझोरके पूछे, तुमने मुझे क्यों भुला दिया, मेरी उपेक्षा क्यों की? क्यों? क्यों?"7

पर न तो वो पूछ ही सकी और न निर्जीव चित्र जवाब ही देते हैं। ऐसे में उसके पास एक ही विकल्प बचा था और जिसका चयन उसने लंबे समय से प्रेमवश कर रखा था - खुद में ही घुट घुटकर रोना। पर इस बार आँसू ज्यादा भारी थे, उनमें नाउम्मीदी जो मिल गई थी। और वो तो बेचारी खुल कर रो भी नहीं सकती थी तभी तो गिरीश की माँ के रसोई में घुसते ही उसने धुएँ की शिकायत कर दी थी; 'पर रसोई की आग तो कब की बुझ चुकी थी।'

'मृत्यु' कहानी मृत्यु की प्रतीकात्मकता से ही शुरू होती है और उसी पर खत्म होती है। पूरी कहानी में कहीं भी किसी की भी प्रत्यक्ष मृत्यु नहीं होती और फिर भी हर चंद पंक्तियों में मृत्यु का जिक्र आता ही रहता है। कहानी का आरंभ 'ज्वाइंट सेमिनार' के एक प्रसंग-स्मरण से होता है जिसमें प्रो. माथुर मृत्यु को परिभाषित करते हुए कहते हैं, "लाइफ को रूढ़ अर्थ की परिधि में हम नहीं बाँध सकते। अगर मैं कहूँ कि मिस पांडेय इज फुल ऑफ लाइफ, तो इसका केवल यह अर्थ नहीं कि अन्य पाँच छात्राओं की तरह मिस पांडेय भी केवल खाती-पीती, सोती-जागती हैं…" 8

कॉलेज के वक्त प्रतिकार और जीवंतता का प्रतीक बन चुकी शकुन शादी के बाद अपनी जीवंतता की हत्या को नहीं बचा पाती और तभी तो हड़ताल के सिलसिले में उसके पति को बुलाने आए व्यक्ति से उनके निकल चुके होने का झूठ बोल देती है। और तब रचनाकार (जो कहानी में कथावाचक भी है) लिखते हैं - "शनिवार की उस शाम को बड़ी देर तक हम लोग बातें करते रहे। बारी-बारी से मृत्यु के उन क्षणों की हम चर्चा करते रहे, जिनके हम पृथक-पृथक रूप में साक्षी रहे थे। लेकिन हम में से किसी ने भी मृत्यु के उन क्षणों की चर्चा नहीं की, जिनके हम तीनों सयुंक्त रूप में साक्षी रहे थे।" और उन पलों की चर्चा ना करना तीनों की समझौतापरस्ती या कहे कि प्रतिकार चेतना की मृत्यु की सूचना दे जाता है। पूरी कहानी में उन मृत्यु-प्रसंगों की चर्चा है जिनकी कोई सार्थकता नहीं क्योंकि अब उससे कुछ होने वाला नहीं। पर उसकी आहट तक नहीं है जो ताजा-ताजा हुआ भी और जिसकी चर्चा अपरिहार्य समझी जानी थी। तथाकथित शिक्षितों की चर्चाओं का निरर्थक और अकर्मण्य स्वभाव के साथ-साथ यह उनकी सरोकारधर्मिता की मृत्यु का उद्घोषक भी है।

'दाज्यू' मानवीय रिश्तों से क्षणिक व क्षुद्र दबावों के कारण होने वाले मोहभंग की कारुणिक कथा है। मध्यवर्गीय चेतना की प्रदर्शनप्रियता और छवि के प्रति अत्यधिक सजगता के कारण जगदीश बाबू ढाबे पर काम करने वाले मदन की कोमल भावनाओं को निर्मम क्षति पहुँचाते हैं। इसका दुष्परिणाम कहानी के अंत में दिखाई देता है। उन्मुक्त, भावुक व स्नेही व्यक्ति मदन का अंत में अपनी भावनाएँ दबाना भयानक नकारात्मक परिवर्तन की सूचना देता है - "जगदीश बाबू ने आँखें उठाकर मदन की ओर देखा, उन्हें लगा जैसे अभी वह ज्वालामुखी-सा फूट पड़ेगा।

हेमंत ने आग्रह के स्वर में दुहराया, "क्या नाम है तुम्हारा? "

"बॉय कहते हैं शा'ब मुझे।" संक्षिप्त-सा उत्तर देकर वह मुड़ गया। आवेश में उसका चेहरा लाल होकर और भी अधिक सुंदर हो गया था।"9

खराब स्थिति और कारुणिक उत्तर के साथ अधिक सुंदर दिखना; कितना विरोधाभासी लगता है और है भी। पर असल में यह द्वंद्वात्मकता के माध्यम से अर्थ को उभारने की कला है। संक्षिप्त उत्तर के बाद की खामोशी और चेहरे का आवेश उसके भीतर के तूफान को दर्शाते हैं और उस पर नियंत्रण हमारी व्यवस्था की क्रूर हकीकत को। हमारी संरचनाओं में आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति परिस्थितियों की विवशता में सब पी जाने को अभिशप्त होता है और इस उपेक्षा, मोहभंग व अपमान की परिणति उसकी कोमल भावनाओं की हत्या, पशुत्व के व्यक्तित्व पर हावी होने और कभी-कभी तो आपराधिक मानसिकता की निर्मिति तक में होती है।

मदन और जगदीश बाबू की आपसी भावनाओं के अंतर का कारण उनकी आर्थिक और जीवन स्थितियों के भीतर भी देखा जा सकता है। जगदीश बाबू के पास जहाँ बड़ी दुनिया हैं तो वहीं मदन के लिए जीवन का अर्थ ढाबे में आने वाले ग्राहकों, बॉय के संबोधनों और उसी परिधि में दिन भर थककर चूर हो जाने तक ही सीमित होता है। तभी तो शहर में नए होने के कारण अजनबीपन और अकेलापन महसूस करने वाले जगदीश बाबू से थोड़ा-सा स्नेह पाकर ही वह उन्हें दाज्यू (बड़े भाई) का दर्जा दे बैठता है, बिना इस ओर खयाल किए कि जल्द ही यह शहर उन्हें परिचित लगने लगेगा और उनकी संगत 'बराबर' वालों से होते ही मुझ जैसे 'छोटे' व्यक्ति से संबंध रखने में उनकी इज्जत पर नहीं बन आएगी! अब बताइए इसमें तो मदन की ही कुंद बुद्धि या अल्प व्यवहारिकता का ही दोष हुआ न और हम ख्वामख्वाह ही जगदीश बाबू पर पिले पड़े थे! आखिरकार वर्ग- भेद की सच्चाई को झुठलाया थोड़े ही जा सकता है।

शेखर जोशी की एक आपत्ति हिंदी-साहित्य-संसार से औद्योगिक जीवन के प्रति उपेक्षा-भाव से रही। उन्होंने लिखा कि "परिवर्तित सामाजिक परिस्थितियों में औद्योगिक संस्थानों की जो भूमिका रहेगी वह आज के बिखरते ग्रामीण जीवन से कहीं अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होगी ...लेकिन आज भी सम-सामयिक कहानीकारों एवं कथा साहित्य के आलोचकों का ग्रामकथा के प्रति जो आग्रह है उसका अंश मात्र भी औद्योगिक जीवन के प्रति नहीं दिखाई देता..."10 शायद इसी आपत्ति को अपने रचनाकर्म से इस तरह की कहानियाँ लिखकर भी दर्ज कराते रहे। उनकी दो चर्चित कहानियाँ 'बदबू' और 'मेंटल' कारखानों की बदहाली की प्रतिनिधि कहानियाँ हैं। औद्योगिक-जीवन की अमानवीय परिस्थितियों, षड्यंत्रकारी माहौल, चमचागिरी और उच्च वर्गीय स्वार्थ-लिप्सा तानाशाही-पूर्ण रवैये को इनसे समझा जा सकता है। पर असल में ये मानवीय प्रतिरोधी चेतना की जिजीविषा की कहानियाँ हैं और ऐसा लगता है कि दोनों ही कहानियाँ एक उपन्यास के दो सशक्त हिस्से हैं। भिन्नताओं के बावजूद न केवल अपने वर्ण्य-विषय की समानता बल्कि एक ही तरह की सी लगने वाली कथा और रचनाकार के अर्थ-उत्पत्ति के लिए प्रयुक्त युक्तियों से भी ऐसा ही प्रतीत होता है। दोनों ही कहानियों के मुख्य-पात्र अपने काम के प्रति ईमानदार, कर्मठ और पाबंद होते हैं किंतु प्रतिरोध के कारण निशाना बनाए जाते हैं। 'बदबू' में जहाँ इस प्रतिरोध का संबंध श्रमिक-अधिकारों से है तो 'मेंटल' में बोस द्वारा (मजाक में ही सही पर) चोर कहे जाने से आहत हुए स्वाभिमान से। अधिकारी को ही सीधा ललकार देता है, 'चोर मैं हूँ कि आप हैं?'और मक्खनबाजी की काई से सड़ चुके माहौल में किसी व्यक्ति-विशेष में स्वभिमान का जीवित रहना एवं इस स्तर का प्रतिरोध करने वाले को अस्वाभिक समझकर मेंटल ही कहा जाएगा! क्योंकि साधारण व स्वाभाविक तो चाटुकार ही हो पाएगा।

नकारात्मक समझे जाने वाले शब्दों को शीर्षक बना कर सकारात्मक अर्थ को ध्वनित कर रचनाकर प्रीतिकर युक्ति का प्रयोग करते हैं। 'मेंटल' विशेषण में निहित अस्वाभाविकता ही एक अदने से श्रमिक को विशेष बना देती है। दरसअल यह विशेषण उसकी प्रतिरोधी चेतना का द्योतक है। इसी तरह सामान्य जीवन मे खराब समझे जाने वाले (बदबू के आने) को रचनाकार विसंगति-बोध के रूप में दर्ज करते हैं - "दूसरी मिट्टी लगाने से पहले उसने हाथों को सूँघा और अनुभव किया कि हाथों की गंध मिट चुकी है। सहसा एक विचित्र आतंक से उसका समूचा शरीर सिहर उठा। उसे लगा जैसे आज वह भी घासी की तरह इस बदबू का आदी हो गया है। उसने चाहा कि वह एक बार फिर हाथों को सूँघ ले लेकिन उसका साहस न हुआ। परंतु फिर बड़ी मुश्किल से वह दोनों हाथों को नाक तक ले गया और इस बार उसके हर्ष की सीमा न रही। पहली बार उसे भ्रम हुआ था। हाथों में कैरोसीन तेल की बदबू अब भी आ रही थी।"11 इस बदबू का बरकरार रहना अमानवीय स्थितियों के प्रति असंतोष का प्रतीक है और जब तक असंतोष नहीं होगा तब तक विरोध करने व उन्हें बदलने की चाह भी उत्पन्न नहीं होगी। इसी से परिवर्तन के लिए प्रतिरोध और प्रतिरोध के लिए विसंगति-बोध आवश्यक है। और गहराई में जाकर देखा जाए तो विसंगति-बोध तभी पैदा होगा जब अपने परिवेश के यथार्थ को देखने की दृष्टि हो जिसके लिए स्वाभिमान अनिवार्य है। या तरह यह भी कहा जा सकता है कि 'मेंटल' के श्रमिक की आगे की यात्रा 'बदबू' से समझी जा सकती है।

'किं करोमि जनार्दन' और 'व्यतीत' वृद्धावस्था के दुख की कहानियाँ हैं। पहली कहानी में वृद्ध हो जाने के कारण बोझ बनते जनार्दन बाबू का चित्रण है तो दूसरी में अपनी मातृभूमि से प्रेम, प्राप्ति की आकांक्षा और अभाव का दुख झलकता है। घर में मुकम्मल सम्मान मिलता है किंतु अपनी जमीन का प्रेम और न जा पाने की विवशता निसहाय-सी करने लगती है। वृद्धावस्था में यह दुख और भी गहरा होने लगता है क्योंकि जिंदगी में एक ओर जहाँ समय की गति अवरुद्ध होने लगती है तो वहीं दूसरी ओर अपनेपन की चाह भी बढ़ने लगती है।

शेखर जोशी इसी तरह की साठ से अधिक वैविध्यपूर्ण पठनीय कहानियों के रचनाकार हैं। जिनके कहानी-संसार को संख्या में भले ही कम करार दे दिया जाए पर गुणवत्ता और व्यापकता में नहीं। हमारे समय में जब सीमित होता अनुभव-क्षेत्र और संकुचित होती परिधि ही हमारे सच की निर्मिति करने लग रही है तो उनकी कहानियों को पढ़ने की सार्थकता और बढ़ जाती है। बाकी जोनस मेकास ने कहा ही है कि 'अंत में सभ्यताएँ नष्ट हो जाती हैं क्योंकि वे अपने कवियों (रचनाकारों) की नहीं, नेताओं की सुनती हैं।' शेखर जोशी की कहानियों की महत्ता, सभ्यता की सर्जनात्मक शक्ति में अपना योगदान तब तक देती रहेंगी, जब तक कि विनाशक शक्तियाँ मानवीय-सत्ता को घाव देना बंद नहीं करेंगी।

संदर्भ-सूची

1. हिंदी कहानी का विकास : मधुरेश, पृष्ठ संख्या-165, सुमित प्रकाशन, संस्करण-2011

2. प्रतिनिधि कहानियाँ : शेखर जोशी, पृष्ठ संख्या-21, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-2018

3. वही, पृष्ठ संख्या-22

4. वही, पृष्ठ संख्या-29

5. हिंदी साहित्य का इतिहास : संपादक डॉ. नगेंद्र, डॉ. हरदयाल

6. प्रतिनिधि कहानियाँ : शेखर जोशी, पृष्ठ संख्या-151, पूर्वोक्त

7. वही, पृष्ठ संख्या-156

8. वही, पृष्ठ संख्या-119

9. वही, पृष्ठ संख्या-10

10. कोसी का घटवार : शेखर जोशी, 'पूर्वकथन' से उद्धृत, नया साहित्य प्रकाशन, प्रथम संस्करण 1958

11. प्रतिनिधि कहानियाँ : शेखर जोशी, पृष्ठ संख्या-139, पूर्वोक्त


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