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व्याख्यान

मैंने क्‍या सीखा ?

स्वामी विवेकानंद


(ढाका में मार्च, सन 1901 में दिया गया व्‍याख्‍यान)

ढाका में स्‍वामी जी ने दो भाषण अंग्रेजी में दिये। प्रथम भाषण का विषय था, 'मैंने क्‍या सीखा?' और द्वितीय का विषय था, 'वह धर्म जिसमें हम पैदा हुए।' बंगला भाषा में एक शिष्‍य ने प्रथम भाषण की जो रिपोर्ट ली, उसमें व्‍याख्‍यान का सारांश आ गया है और उसी का हिन्‍दी रूपान्‍तर निम्‍नलिखित है:

स्‍वामी जी का भाषण

सर्वप्रथम मैं इस बात पर हर्ष प्रकट करता हूँ कि मुझे पूर्वी बंगाल में आने और देश के इस की सविशेष जानकारी प्राप्‍त करने का अवसर मिला। यद्यपि मैं पश्चिम के बहुत से सभ्‍य देशों में घूम चुका हूँ, पर अपने देश के इस भाग के दर्शन का सौभाग्‍य मुझे नहीं मिला था। अपनी ही जन्‍मभूमि बंगाल के इस अंचल की विशाल नदियों, विस्‍तृत उपजाऊ मैदानों और रमणीक ग्रामों का दर्शन पाने पर मैं अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। मैं नहीं जानता था कि इस देश के जल और स्‍थल सभी में इतना सौन्‍दर्य तथा आकर्षण भरा पड़ा है। किन्‍तु नाना देशों के भ्रमण से मुझे यह लाभ हुआ है कि मैं विशेष रूप से अपने देश के सौन्‍दर्य का मूल्‍यांकन कर सकता हूँ।

इसी भाँति मैं पहले धर्म-जिज्ञासा से नाना सम्‍प्रदायों में-अनेक ऐसे सम्‍प्रदायों में जिन्‍होंने दूसरे राष्‍ट्रों के भावों को अपना लिया है- भ्रमण करता था, दूसरों के द्वार पर भिक्षा माँगता था। तब मैं जानता न था कि मेरे देश का धर्म, मेरी जाति का धर्म इतना सुन्‍दर और महान है। कई वर्ष हुए मुझे पता लगा कि हिन्‍दू धर्म संसार का सर्वाधिक पूर्ण सन्‍तोषजनक धर्म है। अत: मुझे यह देखकर हार्दिक क्‍लेश होता है कि यद्यपि हमारे देशवासी अप्रतिम धर्मनिष्‍ठ होने का दावा करते हैं, पर हमारे इस महान् देश में यूरोपीय ढंग के विचार फैलने के कारण उनमें धर्म के प्रति व्‍यापक उदासीनता आ गयी है। हाँ, यह बात जरूर है और उससे मैं भली भाँति अवगत हूँ कि उन्‍हें जिन भौतिक परिस्थितियों में जीवन-यापन करना पड़ता है, वे प्रतिकुल हैं।

वर्तमान काल में हम लोगों के बीच ऐसे कुछ सुधारक हैं जो हिन्‍दू जाति के पुनरुत्‍थान के लिए हमारे धर्म में सुधार या यों कहिए कि उलट-पलट करना चाहते हैं। निस्‍सन्‍देह उन लोगों में कुछ विचारशील व्‍यक्ति हैं, लेकिन साथ ही ऐसे बहुत से लोग भी हैं जो अपने उद्देश्‍य को बिना जाने दूसरों का अन्‍धानुकरण करते हैं और अत्‍यन्‍त मूर्खतापूर्ण कार्य करते हैं। इस वर्ग के सुधारक हमारे धर्म में विजातीय विचारों का प्रवेश करने में बड़ा उत्‍साह दिखाते हैं। यह सुधारक वर्ग मूर्ति-पूजा का विरोधी है। इस दल के सुधारक कहते हैं कि हिन्‍दू धर्म सच्‍चा धर्म नहीं है, क्‍योंकि इसमें मूर्ति-पूजा का विधान है। मूर्ति-पूजा क्‍या है? यह अच्‍छी है या बुरी-इसका अनुसन्‍धान कोई नहीं करता, केवल दूसरों के इशारे पर वे हिन्‍दू धर्म को बदनाम करने का साहस करते हैं। एक दूसरा वर्ग और भी है जो हिन्‍दुओं के प्रत्‍येक रीति-रिवाजों में वैज्ञानिकता ढूँढ़ निकालने का लचर प्रयत्‍न कर रहा है। वे सदा विद्युत शक्ति, चुम्‍बकीय शक्ति, वायु-कम्‍पन तथा उसी तरह की अन्‍य बातें किया करते हैं। कौन कह सकता है कि वे लोग एक दिन ईश्‍वर की परिभाषा करने में उसे विद्युत-कम्‍पन का समूह न कह डालें। जो कुछ भी हो, माँ इनका भी भला करे। जगदम्‍बा ही भिन्‍न-भिन्‍न प्रकृतियों और प्रवृत्तियों के द्वारा अपना कार्य साधन करती हैं।

उक्‍त विचारवालों के विपरीत एक और वर्ग है, यह प्राचीन वर्ग कहता है कि हम लोग तुम्‍हारी बाल की खाल निकालनेवाला तर्कवाद नहीं जानते और न हमें जानने की इच्‍छा ही है; हम लोग तो ईश्‍वर और आत्‍मा का साक्षात्‍कार करना चाहते हैं। हम सुख-दु:खमय इस संसार को छोड़कर इसके अतीत प्रदेश में, जहाँ परम आनन्‍द है, जाना चाहते हैं। यह वर्ग कहता है कि 'सविश्‍वास गंगा-स्‍नान करने से मुक्ति होती है; शिव, राम, विष्‍णु आदि किसी एक में ईश्‍वर-बुद्धि रखकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उपासना करने से मुक्ति होती है।' मुझे गर्व है कि मैं इन दृढ़ आस्‍थावालों के प्राचीन वर्ग का हूँ।

इसके अतिरिक्‍त एक और वर्ग है जो ईश्‍वर और संसार दोनों की एक साथ ही उपासना करने के लिए कहता है। वह सच्‍चा नहीं है। वे जो कहते हैं वह उनके हृदय का भाव नहीं रहता। प्रकृत महात्‍माओं का उपदेश है:

जहाँ राम तहँ काम नहिं , जहाँ काम नहिं राम।
तुलसी कबहूँ होत नहिं , रवि-रजनी इक ठाम।।

महापुरुषों की वाणी हमसे इस बात की घोषणा करती है कि 'यदि ईश्‍वर को पाना चाहते हो, तो काम-कांचन का त्‍याग करना होगा। यह संसार असार, मायामय और मिथ्‍या है। लाख यत्‍न करो, पर इसे बिना छोड़े कदापि ईश्‍वर को नहीं पा सकते। यदि यह न कर सको तो मान लो कि तुम दुर्बल हो, किन्‍तु स्‍मरण रहे कि अपने आदर्श को कदापि नीचा न करो। सड़ते हुए मुर्दे को सोने के पत्ते से ढकने का यत्‍न न करो!' अस्‍तु। उनके मतानुसार यदि धर्म की उपलब्धि करनी है, यदि ईश्‍वर की प्राप्ति करनी है तो तुम्‍हारा प्रथम कर्तव्‍य है कि तुम लुकाछिपी का खेल खेलना छोड़ दो। मैंने क्‍या सीखा? मैंने इस प्राचीन सम्‍प्रदाय से क्‍या सीखा? यही सीखा :

दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्‍यत्‍वं मुमुक्षुत्‍वं महापुरुषसंश्रय:।।

(विवेकचूड़ामणि 3)

- 'मनुष्‍यत्‍व, मुमुक्षुत्‍व और महापुरुष का संसर्ग इन तीनों का मिलना बहुत दुर्लभ है। ये तीनों बिना ईश्‍वर की कृपा के नहीं मिल सकते।' मुक्ति के लिए सबसे आवश्‍यक वस्‍तु है- मनुष्‍यत्‍व या मनुष्‍य के रूप में जन्‍म; क्‍योंकि मुक्ति की साधना के लिए मनुष्‍य-शरीर ही उपयुक्‍त है। इसके बाद चाहिए मुमुक्षुत्‍व। सम्‍प्रदाय और व्‍यक्ति-भेद से हमारी साधन प्रणालियाँ भिन्‍न भिन्‍न हैं। विभिन्‍न व्‍यक्ति यह भी दावा कर सकते हैं कि ज्ञानोपार्जन के उनके विशेष अधिकार एवं साधन हैं और जीवन में श्रेणी-भेद के कारण उनमें भी विभेद है, किन्‍तु यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि मुमुक्षुत्‍व के बिना ईश्‍वरोपलब्धि असम्‍भव है। मुमुक्षुत्‍व क्‍या है? इस संसार के सुख-दु:ख से छुटकारा पाने की तीव्र इच्‍छा, इस संसार से प्रबल निर्वेद। जिस समय भगवान के दर्शन के लिए यह तीव्र व्‍याकुलता होगी उसी समय समझना कि तुम ईश्‍वर-प्राप्ति के अधिकारी हुए हो।

इसके बाद चाहिए ब्रह्यदर्शी महापुरुष का संग अर्थात् गुरु लाभ। गुरु-परम्‍परा से बिना क्रमभंग के जो शक्ति प्राप्‍त होती है, उसी के साथ अपना संयोग स्‍थापित करना होगा, क्‍योंकि वैराग्‍य और तीव्र मुमुक्षुत्‍व रहने पर भी उसके बिना कुछ न हो सकेगा। शिष्‍य को चाहिए कि वह अपने गुरु को परामर्शदाता, दार्शनिक, सुह्द् और पथप्रदर्शक के रूप में अंगीकार करे। गुरु करना आवश्‍यक ही नहीं, अनिवार्य है। श्रोत्रियोSवृजितोSकामहतो यो ब्रह्यवित्तम:। (विवेकचूड़ामणि 33)

- 'जिसे वेदों का रहस्‍य-ज्ञान है, जो निष्‍पाप है, जिसे कोई इच्‍छा न हो, जो ब्रह्य-ज्ञानियों में श्रेष्‍ठ हो अर्थात् श्रोत्रिय हो, जो केवल शास्‍त्रों का पंडित ही न हो, वरन्‍ उनके सूक्ष्‍म रहस्‍यों का भी ज्ञाता हो और जिसे शास्‍त्रों के वास्‍तविक तात्‍पर्य का बोध हो' - वही गुरु होने योग्‍य है। 'विविध शास्‍त्रों को पढ़ने मात्र से तो वे बस तोते बन गये हैं। उस व्‍यक्ति को वास्‍तविक पंडित समझना चाहिए जिसने शास्‍त्रों को केवल एक अक्षर पढ़कर (दिव्‍य) प्रेम का लाभ कर लिया। [1] केवल पोथी ज्ञान से पंडित हुए लोगों से काम न चलेगा। आजकल प्रत्‍येक व्‍यक्ति गुरु बनना चाहता है। कंगाल भिक्षुक लाख रुपये का दान करना चाहता है! तो गुरु अवश्‍य ही ऐसा व्‍यक्ति होना चाहिए जिसे पाप छू तक न गया हो, जो अकामहत हो, अर्थात् जो कामनाओं से सन्‍तप्‍त न हो, विशुद्ध परोपकार के सिवा जिसका दूसरा कोई इरादा न हो, जो अहेतुक दयासिन्‍धु हो और जो नाम-यश के लिए अथवा किसी स्‍वार्थ-सिद्ध‍ि के लिए धर्मोपदेश न करता हो। जो ब्रह्य को भली भाँति जान चुका है, अर्थात् जिसने ब्रह्य-साक्षात्‍कार कर लिया है, जिसके लिए ईश्‍वर 'करतलामलकवत्' है- श्रुति का कहना है कि वही गुरु होने योग्‍य है। जब यह आध्‍यात्मिक संयोग स्‍थापित हो जाता है तब ईश्‍वर का साक्षात्‍कार होता है- तब ईश्‍वर दृष्टि सुलभ होती है।

गुरु से दीक्षा लेने के पश्‍चात् सत्‍यान्‍वेषी साधक के लिए आवश्‍यकता पड़ती है अभ्‍यास की। गुरुपदिष्‍ट साधनों के सहारे इष्‍ट के निरन्‍तर ध्‍यान द्वारा सत्‍य को कार्यरूप में परिणत करने के सच्‍चे और बारंबार प्रयास को अभ्‍यास कहते हैं। मनुष्‍य ईश्‍वर-प्राप्ति के लिए चाहे कितना ही व्‍याकुल क्‍यों न हो चाहे कितना ही अच्‍छा गुरु क्‍यों न मिले, साधना-अभ्‍यास बिना किये उसे कभी ईश्‍वरोपलब्धि न होगी। जिस समय अभ्‍यास दृढ़ हो जायगा, उसी समय ईश्‍वर प्रत्‍यक्ष होगा।

इसीलिए कहता हूँ कि है हिन्‍दुओं, हे आर्य सन्‍तानो, तुम लोग हमारे धर्म के हिन्‍दुओं के इस महान आदर्श को कभी न भूलो। हिन्‍दुओं का प्रधान लक्ष्‍य इस भवसागर के पार जाना है- केवल इसी संसार को छोड़ना होगा, ऐसा नहीं है, अपितु स्‍वर्ग को भी छोड़ना पड़ेगा-अशुभ के ही छोड़ने से काम नही चलेगा, शुभ का भी त्‍याग आवश्‍यक है; और इसी प्रकार सृष्टि-संसार, बुरा-भला इन सबके अतीत होना होगा और अन्‍ततोगत्‍वा सच्चिदानन्‍द ब्रह्य का साक्षात्‍कार करना होगा।

[1] पोथी पढ़ तृती भयो, पंडित भया न कोय।
अक्षर एक जो प्रेम से, पढ़े तो पंडित होय।।


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