धर्मो विश्वस्य जगत: प्रतिष्ठा लोके धर्मिष्ठं प्रजा उपसर्पन्ति।
धर्मेण पापमपनुदन्ति धर्मे सर्वं प्रतिष्ठितं तस्माद्धर्मं परमं वदन्ति।।
धर्म ही सारे जगत् की प्रतिष्ठा (मूलाधार) है। संसार में प्रजा लोग धर्मशील
पुरूष के पास पहुँचते हैं। धर्म से पाप को दूर करते हैं। धर्म में सब
प्रतिष्ठित है; अर्थात् धर्म के मूलाधार पर सब स्थित है, इसलिए धर्म को सबसे
बड़ा कहते हैं।
विद्या रूपं धनं शौर्यं कुलीनत्वमरोगिता।
राज्यं स्वर्गच्श्र मोक्षश्र्च सर्वं धर्मादवाप्यते।।
विद्या, रूप, धन, शौर्य, वीरता, कुलीनता, आरोग्य, राज्य, स्वर्ग और
मोक्ष-ये सब धर्म से प्राप्त होते हैं। सबसे बड़ा उपकार जो किसी प्राणी का
कोई कर सकता है, वह यह है कि उसको धर्म का ज्ञान करा दे, धर्म में उसकी
श्रद्धा उत्पन्न कर दे अथवा दृढ़ कर दे। संसार में धर्म के ज्ञान के समान
कोई दूसरा दान नहीं है। सनातनधर्म सब मतों के अनुयायियों के उपकार के लिए है।
इस सनातनधर्म का उत्तम वर्णन श्रीमद्भागवत के 7वें स्कन्ध के 11वें अध्याय
से लेकर 15वें अध्याय तक पाया जाता है। उसमें लिखा है कि-
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।
संतोष: समदृग्सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे: संविभागो भूतेभ्यच्क्ष यथार्हत:।
तेष्वात्मदेवता बुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्त्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिंशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।।
हे राजन् ! यह तीस लक्षणवाला धर्म, समस्त मनुष्यमात्र का परम धर्म है, जिसके
पालन से घट-घट में व्याप्त परमात्मा प्रसन्न होते हैं।
महाभारत में इस धर्म के मूलतत्व का वर्णन है-
एष धर्मो महायोगो दानं भूतदया तथा।
ब्रह्मचर्यं तथा सत्यमनुक्रोशो धृति: क्षमा।।
सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत्सनातनम् ।
(महाभारत, अश्वमेघ पर्व, अ.91, श्लोक32)
यह धर्म बड़े-बड़े गुणों का समूह है। दान, प्राणिमात्र पर दया, ब्रह्मचर्य और
इन्द्रियों को वश में रखना तथा सत्य का पालन, प्राणियों के दु:ख में
सहानुभूति, धीरज और क्षमा, ये सनातन धर्म के मूल हैं। यह धर्म ऐसे हैं कि
संसार के सब धर्मों और सब संप्रदायों के अनुयायी इनका पालन कर इस लोक में सुख,
शांति और सुयश तथा परलोक में उत्तम गति पा सकते हैं।
भगवान् मनु कहते हैं-
वेदोऽखिलो धर्ममूलम्।
वेद सब धर्म के मूल हैं। याज्ञवल्क्य ऋषि कहते हैं-
पुराण-न्याय-मीमांसा-धर्मशास्त्राङ्गमिश्रिता: ।
वेदा: स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश।।
वेदांग, स्मृति, पुराण सहित चारों वेद सब विद्याओं और सब धर्म के स्थान हैं।
इस बात को पश्चिम के विद्वान् भी मानते हैं कि संसार में सबसे पुराना ग्रंथ
ऋग्वेद है।
आज सनातनधर्म के मानने वालों को धर्म का मार्ग-दर्शन कराने के लिए श्रुति
(वेद), स्मृति और पुराणों के साथ आगम भी सम्मिलित हैं; किन्तु इन सब
शास्त्र समूह में जो धर्म के मूल सिद्धांत हैं, वे सनातन हैं; अर्थात् सबसे
पुराने हैं, उनसे पहले का कोई सिद्धांत संसार में विदित नहीं है। इन
सिद्धांतों में कुछ मूल सिद्धांत हैं। सनातनधर्म का शुद्ध स्वरूप और इसकी
महिमा जानने के लिए इन सिद्धांत का जानना आवश्यक है। वे ये हैं-
प्रथम यह है कि इस ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन और संहार करने वाला, त्रिकाल में
सत्य (अर्थात् जो सदा रहा भी, अब भी है और सदा रहेगा भी), चैतन्य अर्थात
ज्ञानस्वरूप और आनन्दस्वरूप पुरूष है जिसको परमात्मा कहते हैं। वह आदि (जो
सब सृष्टि से पहले), अज (जिसका कभी जन्म नहीं हुआ और जिसका न कोई पिता है, न
माता है) और अविनाशी (जिसका कभी नाश नहीं होता) है।
वेद स्पष्टत: कहते हैं कि सृष्टि के पहले यह जगत् अंधकारमय था। उस अंधकार के
बीच में और उससे परे, केवल एक ज्ञानस्वरूप स्वयंभू (अपने आप हुए) भगवान्
विराजमान थे। उन्होंने उस अंधकार में अपने आप को प्रकट किया और अपने तप से
अर्थात् अपनी ज्ञानमयी शक्ति के संचालन से सारी सृष्टि को रचा।
सनातनधर्म के सब धर्मग्रंथ दुंदुभीनाद करते हैं कि वह परमात्मा एक ही है। वेद
कहते हैं 'एकमेवाद्वितीयम्' अर्थात् एक अकेला है, उसके समान कोई दूसरा नहीं।
स्मृति कहती है (मनु, याज्ञवल्क्य आदि)- सब जगत् का शासन करनेवाला, छोटे से
छोटा और बड़े से बड़ा, जिसको आँखों से देख नहीं सकते, केवल बुद्धि से ही पहचान
सकते हैं, एक परमात्मा है। महाभारत आदि से अंत तक बार-बार घोषणा करता है-
तस्यैकत्वं महत्वत्र्च स चैक: पुरूष: स्मृत:।
महापुरूषशब्दं स बिभर्त्येक: सनातन:।।
भागवत कहता है-
एक: स आत्मा पुरूष: पुराण: सत्य: स्वयंज्योतिरनन्तमाद्य: ।
नित्योऽक्षरोऽजस्त्रसुखो निरत्र्जन: पूर्णोऽद्वयोऽयुक्त उपाधितोऽमृत:
।।
शिवपुराण कहता है-
एक एव तदा रुद्रो न द्वितीयोऽस्ति कश्चन।।
वेद, स्मृति, पुराणों के इसी सिद्धांत को आगम गाते हैं और इसी को आधुनिक संत
महात्माओं के अपने-अपने शब्दों में गाया है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने थोड़े
अक्षरों में इस तत्त्व का पूर्णरीति से वर्णन किया है-
व्यापक एक ब्रह्म अबिनासी।
सत चेतन घन आनँदरासी।।
आदि अन्त कोउ जासु न पावा।
मति अनुमान निगम अस गावा।।
बिनु पद चलै सुनै बिनु काना।
कर बिनु कर्म करै बिधि नाना।।
आननरहित सकल रसभोगी।
बिनु बाणी वक्ता बड़ जोगी।।
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा।
ग्रहै घ्राण बिनु बास असेखा।।
अस सब भाँति अलौकिक करनी।
महिमा तासु जाइ किमि बरनी।।
सनातनधर्म पृथ्वी पर सबसे पुराना और पुनीत धर्म है। यह वेद, स्मृति और पुराण
से प्रतिपादित है। संसार के सब धर्मों से यह इस बात में विशिष्ट है कि यह
सिखाता है कि इस जगत् का सृजन, पालन और संहार करनेवाला आदि, सनातन, अज,
अविनासी, सत्चित्त, आनन्दस्वरूप, पूर्ण प्रकाशमय, परब्रह्म परमात्मा है।
यह परमात्मा सदा, निरन्तर घट-घट वासी रहा है, और रहेगा; अर्थात् यह कि यह
परमात्मा मनुष्य से लेकर सिंह, हाथी, घोड़े, गौ, हिरन आदि सब थैली से
उत्पन्न होनेवाले जीवों में, अण्डों से उत्पन्न सब पखेरुवों में, पृथ्वी
फोड़कर उगने वाले सब वृक्षों में, और पसीने मैल से उत्पन्न होनेवाले सब कीट
पतंगों में समान रूप से बस रहा है। इसी तत्त्वज्ञान के कारण-
एष धर्मो महायोगो दानं भूतदया तथा।
ब्रह्मचर्यं तथा सत्यमनुक्रोशो धृति: क्षमा।।
सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत् सनातनम्।।
यह धर्म बड़े-बड़े गुणों का समूह है। दान, जीवमात्र पर दया, ब्रह्मचर्य,
सत्य, दयालुता, धीरज और क्षमा इन गुणों का योग सनातनधर्म का सनातन मूल है। इन
गुणों के कारण ही सनातन धर्म अन्य धर्मों से विशिष्ट है।