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सिनेमा

कैसे बचे कस्बाई फिल्म संस्कृति?

उमेश चतुर्वेदी


बुद्धू बक्से की ड्राइंग रुम में अस्सी के दशक में पहुँच क्या बढ़ी, देहाती समाज का भी सिनेमा के प्रति रवैया बदल गया। देहाती समाज के लिए सिनेमा देखना चरित्र से जुड़ा मामला था। अस्सी के दशक के आखिरी दिनों और नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों को अगर धुर देहाती और सुदूरवर्ती समाज में भी क्रांतिकारी बदलाव के गवाह के तौर पर देखा-बूझा-समझा जा सकता है। ऐसा नहीं कि तब तक सिनेमा देखने का चलन नहीं था, यही वह दौर था, जब राजेश खन्ना के रूमानी स्टारडम को एंग्री यंग मैन की छवि के साथ अमिताभ बच्चन ने ना सिर्फ छीन लिया था, बल्कि सुपरस्टार का दर्जा भी हासिल कर लिया था। बड़ा सवाल यह है कि जब देश के तत्कालीन करीब 70 फीसदी आबादी वाले धुर-देहाती समाज में सिनेमा के लेकर सोच दकियानुसी थी, तब फिल्में कामयाब कैसे होती थी? और अगर फिल्में कामयाब नहीं होती थीं, तो भला राजकपूर, राजकुमार और राजेश खन्ना से होते हुए अमिताभ तक की पीढ़ी को स्टारडम का दर्जा कैसे हासिल होता रहा? सवाल यह भी है कि अगर फिल्मों को लेखक वितृष्णा का यही भाव था तो भला भारत में हर साल तब भी करीब डेढ़ हजार फिल्में कैसे बनती थीं?

इन सवालों का जवाब ढूंढ़ने और उन पर मीमांसा करने से पहले इन पंक्तियों के लेखक के जीवन में घटी दो घटनाओं का जिक्र जरुरी है। 1987 की बात है। तब यह लेखक बी.ए. प्रथम वर्ष का छात्र था और रोजाना अपने गांव से पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिला मुख्यालय स्थित कॉलेज तक की आवाजाही मीटरगेज की छुक-छुक ट्रेन के जरिए करता था। बी.ए. प्रथम वर्ष हिंदी के पाठ्यक्रम में मशहूर कथाकार जयशंकर प्रसाद का नाटक 'ध्रुवस्वमिनी' भी था। वाराणसी के किसी प्रकाशक द्वारा प्रकाशित 'ध्रुवस्वामिनी' का कवर पृष्ठ किसी फिल्मी तरीके के फोटो से मिलता था। 1987 के जाड़ों की एक शाम ट्रेन में लौटते वक्त उस नाटक को इन पंक्तियों का लेखक पढ़ रहा था, तभी रोजाना साथ यात्रा करने वाले राजस्व विभाग में प्रैक्टिस करने वाले एक वकील साहब की निगाह इन पंक्तियों के लेखक पर पड़ी। उन्हें लगा कि वह पुस्तक सिनेमा से जुड़े विषय से है। लिहाजा टोकने से उन्होंने देर नहीं लगाई... स्थानीय भोजपुरी में उनका सवाल था- 'क्या फिल्म-सिनेमा पढ़कर ही डिग्री हासिल होगी?' सवाल में उलाहना और वितृष्णा का भी भाव था। यहाँ यह बताना भी जरुरी है कि मशहूर कथाकार की उस रचना को पाठ्यक्रम की पुस्तक बताने-समझाने में उस दिन की पूरी यात्रा का वक्त ही बीत गया।

दूसरी घटना गांव के मंदिर पर साफ-सफाई का श्रद्धाभाव से पालन करने वाले एक व्यक्ति और उसके भतीजे से जुड़ी है। भतीजा होनहार था। आजकल इंजीनियर है। उस वक्त हाईस्कूल की परीक्षा की मेरिट में उसने स्थान हासिल किया था। एक दिन उसकी गलती यह थी कि उस वक्त की मशहूर राजनीतिक पत्रिका 'मामा' का अंक किसी छुट्टी के दिन गांव के मंदिर पर लेकर पढ़ रहा था। तभी उस व्यक्ति की नजर उस पत्रिका पर पड़ी और उसने भी उलाहना मिला और डांट सुनाने में देर नहीं लगाई-'हीरो-हीरोइन' को पढ़ रहे हो?

जाहिर है कि फिल्मों को लेकर उस वक्त तक बुजुर्ग हो चुकी पीढ़ी का नजरिया नहीं बदल पाया था। फिल्मों में काम करने वाले बेशक बड़े नाम रहे हों, उनके पास अकूत धन-दौलत हो, लेकिन उस पीढ़ी की नजर में फिल्मों में काम करने वाले कलाकारों की औकात 'नचनिए-गवनिए' से ज्यादा नहीं थी। तब उसे समाज को भ्रष्ट करने वाला माना जाता था। लेकिन यह समाज का एक पहलू था। समाज में खासकर जवान हो रही पीढ़ी या किशोरावस्था की ओर बढ़ रहे बच्चों में सिनेमा को लेकर क्रेज था। तब सिनेमा को लेकर नई और पुरानी पीढ़ी के बीच लुका-छिपी का खेल चलता था। पुरानी हो रही पीढ़ी, जिसमें बच्चों के माता-पिता, संरक्षक और अध्यापक होते थे, कस्बे के सिनेमा घरों पर धावा बोलने और अपने बच्चों छात्रों को मौके पर ही पकड़ने की ताक में रहते थे, तो नई पीढ़ी उनकी आँख बचाकर उन्हें धोखा देकर रोमानी दुनिया में सिल्वर स्क्रीन के जरिए डूबने, दबाव-संत्रास और गरीबी में जीते अपने समाज से निकलने का सपना देखने का मौका लपकने की फिराक में रहती थी। इस लुका-छिपी के खेल में कई बार प्रहसन वाले दृश्य भी उभर जाते, जब पुरानी पीढ़ी का मन बदल जाता और अपनी भावी पीढ़ी को पथ भ्रष्ट होने से बचाने की कवायद और क्रम में खुद भी भ्रष्ट होने पहुँच जाती। इन पंक्तियों के लेखक के छात्रावस्था के दिनों में एक दोस्त थे विद्याचरण शुक्ल। जिला मुख्यालय के एक सिनेमा हॉल में उन दिनों भारत कुमार उर्फ मनोज कुमार की बनाई फिल्म 'पेंटर बाबू' लगी। तीन-चार सहपाठियों के साथ पथ-भ्रष्ट और चरित्रहीन बनने की तैयारी हुई। चंदा जुटान के बाद टिकट खिड़की की भीड़ से मुकाबला करने की जिम्मेदारी शुक्ला जी ने ही संभाली और टिकट हासिल करने के जुगाड़ में लग गए। लेकिन यह क्या, बाहर इंतजार कर रहे एक साथी निगाह लाल रंग की छींटदार गमछा लिए टिकट के लिए जद्दोजहद में थे। बहरहाल जहाँ बाप भ्रष्ट बनने की लाइन या भीड़ में हो, वहाँ बेटा और दोस्त भला कैसे चरित्रहीन होने का खतरा उठा सकते थे। शुक्ला जी को खतरे की जानकरी दी गई और दूसरे टॉकीज में चरित्रहीनता की राह तलाशने की यात्रा में सभी दोस्त वहाँ से रफू-चक्कर हो लिए।

फिल्में देखना तब चरित्रहीनता की इतनी बड़ी निशानी मानी जाती थी, कि कई बार शादियाँ तक टूट जाती थी। सिनेमा देखने वालों के बारे में माना जाता था कि वे जिंदगी में कोई मुकाम हासिल नहीं कर सकते। कुछ उसी अंदाज में कि पढ़ोगे-लिखोगे, बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदेगो, होगे खराब।

फिर भी फिल्में देखी जाती थीं। अध्यापकों की चैकस निगाहें, घर वालों की मार-प्रताड़ना और अड़ोस-पड़ोस के उलाहने भी फिल्में देखने की प्रवृत्ति पर लगाम नहीं लगा पाते थे। कहावत है न कि चोरी के अमरुद स्वादिष्ट होते हैं, उसी तर्ज पर तब सिनेमा चलता था। सिनेमा के रुपहले पर्दे पर दिखने वाली शख्सीयतें स्टार बन जाती थीं। उन्हें देखने के लिए लोगों की भीड़ लग जाती थी। हां, तब आंखें चार होने का मुहावरा कस्बे की रूखी माटी पर कहीं सही साबित होता तो वह जगह कस्बे का सिनेमा हाल ही होता था। यह बात और है सिनेमा के हीरो-हीरोइनों की तरह आँखें चार करने वाले जिंदगी में एकाकार नहीं हो पाते थे। उनके दिल के अरमां आँसुओं में ही बन के रह जाते थे। हाँ, कस्बे के सिनेमा घरों या टॉकीज में जाने, फिल्में देखने की छूट नव ब्याहताओं को होती थी। जीजाजी शादी के बाद पहली-दूसरी बार ससुराल आते तो सालियों-सलहजों के साथ सिनेमा देखने का कर्तव्‍य परम पुनीत भाव के साथ अंजाम दिया जाता था। इस पुनीत यज्ञ में छोटे सालों और घर की महिलाओं की भागीदारी होती। जीजाजी ने फिल्म नहीं दिखाई तो साले-सालियों की निगाह में उनकी 'वकत' कम हो जाती थी। तब सिनेमा देखने-दिखाने का यह क्रम कुछ दिनों तक चलता था। कहने का मतलब यह कि छात्रों के लिए सिनेमा देखना जहां पथ भ्रष्टता की, चरित्रहीनता की निशानी था। वहीं शादी-शुदा लोगों के लिए वैसी कड़ी पाबंदी और सामाजिक बंधन या उपबंध नहीं होते थे।

उदारीकरण की शुरुआत 1991 में पी.वी. नरसिंह राव के शासनकाल में बतौर वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने की। उदारीकरण शब्द यूं तो आर्थिक व्यवस्था को खोलते और उद्योगों-बाजार को विदेशी सामानों/कंपनियों के लिए खोलने के संदर्भ में किया गया। लेकिन हकीकत तो यह था कि इसने समाज की भी दृष्टि को भी उदार बना दिया। इसी उदारता में मनोरंजन के आधुनिक संसाधनों और तकनीक का विस्तार हुआ। नई तकनीक ने दुनिया की खुली-अधखुली, नंगी-अधनंगी, संभ्रात-सामानांतर सभी तरह की संस्कृतियों को भारतीय समाज के लिए भी खोल दिया। जाहिर है इसमें सिनेमा के लिए भी समाज का नजरिया बदला। अब सिनेमा देखना पथ-भ्रष्टता और चरित्रहीनता की निशानी नहीं रहा। अव्वल तो होना यह चाहिए कि ऐसे माहौल में सिनेमा विकसित होता और इसका असर कस्बे के टॉकीज के विकास पर भी नजर आता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आज कस्बे के सिनेमाघरों पर सन्नाटा है। उल्टे बड़े शहरों के मल्टीप्लेक्स पर भीड़ बढ़ी है और उनकी हालत ना सिर्फ सुधरी है, बल्कि इन मल्टीप्लेक्स बदौलत सिनेमा उद्योग नए सिरे से फल-फूल रहा है। इसके ठीक उलट छोटे-शहरों कस्बों के सिनेमाहाल बदहाल हैं। पहले इसका ठीकरा बुद्धू-बक्से यानी टेलीविजन के प्रसार के माथे फोड़ा गया। लेकिन सवाल यह है कि टेलीविजन और सेटेलाइट चैनलों का प्रसार देहातों की वनिस्पत बड़े शहरों में कहीं ज्यादा फैला है। शहरी इलाकों में टेलीविजन के भारी प्रसार के बावजूद वहाँ के मल्टीप्लेक्स गुलजार हैं। जबकि कस्बे के टॉकीज रो रहे हैं। अब वहाँ राका का शो तो चलता ही नहीं। दोपहर, मैटिनी और शाम के शो चल गए तो काफी समझिए... जबकि कस्बे के इन्हीं सिनेमा घरों में अस्सी-नब्बे के दशक में नदिया के पार, दूल्हा गंगा पार के, रुठ गइले संइया हमार, क्रांति, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, नटवर लाल, कुली आदि दस से लेकर 25 हफ्ते तक चल चुकी हैं।

दरअसल आज दर्शकों की दिलचस्पी बढ़ी है तो वह विकसित हुई है। उनकी रुचियां बढ़ी हैं। ठीक है बड़े शहरों में मसरुफियत ज्यादा है, लेकिन उदारीकरण ने छोटे शहरों और गांवों में भी जिंदगी को दुश्वार बनाया है। आमदनी के मुकाबले खर्च कहीं ज्यादा बढ़ा है। इसलिए समय और पैसे का दबाव छोटी जगहों पर भी बढ़ी हैं। फिर घर-घर खीड़ी यानी कॉम्‍पैक्ट डिस्क प्लेयर भी आ गए हैं। यानी कस्बाई सिनेमाई संस्कृति पर चौतरफा हमला बढ़ा है। यानी एक तरह के सिनेमा के प्रति जरुरी नहीं कि अपने दैनंदिन जीवन और आर्थिक दबाव के बीच एक साथ चार-छह सौ लोगों को एक फिल्म देखने के लिए वक्त और पैसे हों ही। कस्बे के सिनेमा हॉल में एक दौर में क्षमता के मुताबिक चार-छह सौ दर्शक जुट पाना कठिन नहीं था। लेकिन आज ऐसे हालात नहीं रहें। फिर कस्बाई सिनेमा के टॉकीज को चलाना भी आसान और किफायती नहीं रहा। बिजली पहले की तुलना में दस से बीस गुणा ज्यादा महंगी हो गई है। कर्मचारियों की तनख्वाहें भी ज्यादा हुई हैं। इस लिहाज से कस्बे के टॉकीज को चलाने की लागत बढ़ गई है। लेकिन दर्शक अपने दबावों की वजह से कस्बे के सिनेमाघरों के सामने नहीं जुट रहे। लिहाजा कस्बे के सिनेमाघरों के पास दर्शक नहीं रहे, वह नजारे भी बीते दिनों की बात हो गए हैं, जब पद्मा खन्ना या हेलन के आइटम गीत और नृत्य पर सीटियां बजती थीं और सिनेमा के पर्दे के सामने चवन्नी-अठ्न्नी से लेकर रुपए तक के सिक्कों की बरसात होती थी। सभ्यता और संस्कृति के बदलाव के दौर में सिनेमा देखने के इंतजार में टॉकीज के बाहर रात बिताने, खाना बनाने के दृश्य भी अब नहीं दिखते।

कस्बे की सिनेमाई संस्कृति को बचाने की जिम्मेदारी सरकारों की भी है। राज्यों में साठ-पैंसठ फीसदी तक हर टिकट पर मनोरंजन कर की कमाई होती रही है। एक आंकड़ें के मुताबिक 2014 में पूरे देश में 2890 कस्बाई सिनेमाघर हैं। इनमें सबसे ज्यादा 1900 तमिलनाडु में हैं। जबकि दूसरे नंबर पर केरल है। एक हद तक वहाँ कस्बाई सिनेमा संस्कृति उत्तर भारत के मुकाबले बची हुई है। इसका उदाहरण है उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में सिर्फ 960 कस्बाई सिनेमाघर हैं। यानी खोट कहीं न कहीं सरकारी व्यवस्था में भी है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या उत्तर प्रदेश या बिहार जैसे राज्यों में कस्बे की सिनेमाई संस्कृति बचाने की कोशिश रहेगी? सरकारें क्या इसकी तरफ ध्यान देंगी, सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव का वाहक बन चुकीं फिल्मों को दिखाने-बचाने के लिए कस्बाई फिल्म संस्कृति को बचाने के लिए सरकारें कदम आगे बढ़ाएंगी?


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