जीवन को अपनी शर्तों पर जीना आसान नही होता है, इसके लिए कीमत चुकानी पड़ती है। समाज और परिस्थितियों का दबाव अंत तक बना रहता है, जिसे झेलने की क्षमता हर किसी में नही होती है। यह एक साधना है, जिसमें साधक का मूल्यांकन उसके व्यक्तिगत जीवन के साथ सामाजिक योगदान को रखकर ही किया जा सकता है। सृजनात्मक लेखन, विभिन्न अनुशासनों का चिंतन एवं वैज्ञानिक खोज अति भौतिक जीवन के विभिन्न कार्य-व्यापार और एकांतिकता के बीच आवागमन से ही संभव होता है। कुछ लेखक, दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनों के बीच संतुलन साधने में अपनी ऊर्जा नष्ट करते हैं और उसमें सफल-असफल रहते हैं लेकिन अधिकतर इसकी परवाह नहीं करते हैं। दूधनाथ जी दूसरे किस्म के हिंदी साहित्य के लेखक थे, पत्नी घर में बीमार रहती थी लेकिन जब उन्हें वर्धा हिन्दी विश्वविद्यालय में अतिथि लेखक के लिए आमंत्रित किया गया तो वे तत्काल चले गए, जैसे वह घर से निकल भागने का अवसर खोज रहे थे। घर में जैसा माहौल बन गया था उसमें लिखना पढ़ना कुछ भी संभव नहीं हो पा रहा था। वे अपने बचे हुए जीवन को अपने स्वाभाविक अंदाज में जीने के साथ पूरी तरह लेखन को समर्पित करना चाहते थे। वर्धा में उन्हें ऊर्जा से भरपूर ताजगी का माहौल मिला, जहाँ उन्होंने 78 वर्ष की उम्र में 85 प्रेम कविताएं लिखीं, जिनमें 71 का चयन कर 'तुम्हारे लिए' नाम से प्रकाशित करने के लिए राजकमल प्रकाशन को दिया और वह संग्रह वर्ष 2014 में प्रकाशित हुआ। कुछ लोग कहते हैं कि वर्धा में वे किसी स्त्री के प्रेम के चक्कर में पड़े भी, लेकिन क्या सच-मुच प्रेम इतना सतही चीज है जिसे कहीं भी कभी भी किया जा सकता है? जो दूधनाथ जी पर बार-बार आरोपित किया जाता रहा है।
वर्धा प्रवास ने दूधनाथ जी के भीतर जीने का एक नया उत्साह पैदा किया था, इसका प्रमाण उनके द्वारा लिखी गईं प्रेम कविताएँ हैं। जिसके संबंध में वे लिखते हैं- "ये कविताएँ बीते जुलाई-अगस्त में लिखीं गईं- एक 'अवसेरि' (अवस्मृति) की स्थिति में, जब देवी साधक के भीतर उतरती है और वह 'खेलने' लगता है। तब वह, वह नहीं होता जो वास्तव में होता है। तब वह साधना के सम्मोहन में होता है। 'अवसेरि' कबीर का शब्द है। यह एक प्रकार का अति भौतिक विमोह है। सारी कलाएँ इसी अवस्मृति, ऐसी ही सम्मोहित अवस्था की उपज होतीं हैं। फिर...उसके बाद? जब हम देवी के 'थान' पर सिज्दा लेते हैं, मत्था टेकते हैं, तो उस अवस्मृति, उस सम्मोहित अवस्था से विदा लेते हैं। तब हमारा इति-अथि का भौतिक संसार शुरू होता है। थके मांदे, निढाल हम इस दुनिया में लौटते हैं, जो नीरस, शुष्क, बार-बार फेंटी गयी, निरर्थक, लेकिन जीने के लिए बेहद जरुरी होती है।" ('तुम्हारे लिए' संग्रह की एक बात से) महात्मा गांधी और विनोवा भावे की कर्मभूमि में फ़ैली शान्ति, दूधनाथ जी को 'अवसेरि' की अवस्था में ले गई जहाँ मृत्यु के अंतिम छोर पर पहुँचकर जीने की इच्छा बलवती हो जाती है-
नई अहोनी फिर सुन पड़े
असूनी- इस धरती माता को
मृत्यु किनारे कलकल-छलछल
शान्त नींद में प्रथम जन्म के
पुनर्जन्म की वह मुस्काहट लौटे
और तुम कहो यह तो हँसता है
भरा पूरा जीवन जी लेने के बाद एक और जीवन जीने की लालसा उसी में होती है जिसका इस दुनिया से अटूट लगाव होता है। नया जीवन माँ ही दे सकती है इसलिए रचनाकार उसको और साथ ही धरती माता को याद करता है, जो उसके जीवन को विस्तार देती है। उसकी एक मासूम कल्पना है कि इधर मरे और उधर फिर जन्म ले ले और उसके जीवन की निरंतरता बनी रहे। लेकिन जितना जीवन सत्य है उतना मृत्यु भी है, इसीलिए इन कविताओं में यदि जीवन से प्रेम है तो मृत्यु से भी सहज लगाव है। ' जब मैं हार गया सब कुछ करके' शीर्षक कविता में इसकी सटीक अभिव्यक्ति हुई है-
मैं हूँ तुम्हारा सदियों का वह बूढ़ा अश्व
जिसकी पीठ पर ढेर सारी मक्खियाँ
टूटी हुई नाल से खूँदता
सूना रणस्थल< p/>
लो, अब संभालो
अपनी रणभेरी
मैं जाता हूँ।
इस संसार में जीवन निर्वाह किसी युद्ध से कम नही है। हार-जीत के बीच सुख-दुःख की अनुभूति का अनुभव करते हुए व्यक्ति एक समय जर्जर अवस्था में पहुँच जाता है और अंत में मृत्यु को प्राप्त होता है। पुरानी पीढ़ी की जगह नई पीढ़ी लेती है और यह क्रम निरंतर चलता रहता है। कविता में रचनाकार जीवन के अंतिम छोर पर पहुँचकर आत्म-मूल्यांकन करते हुए अपनी विरासत नई पीढ़ी को सौपते हुए मृत्यु की तैयारी उतनी ही सिद्दत से करता है जितने उत्साह से उसने जीवन को जिया।
दूधनाथ जी की कविताओं में स्त्री कई तरह से उपस्थित होती है। वह अगर माँ है तो प्रेमिका भी है। सामान्य प्रेमिका को संदर्भित कई कविताएँ स्मृति में लिखीं गई हैं तो कई को पढ़कर उसके वर्तमान होने का भ्रम होता है। जैसे एक कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं- हम दोनों हैं साँप-सपोले/ इस विदर्भ के घने दर्भ में/ अनजाने ही डोल रहे हैं । इसी तरह एक और कविता है-
अभी तुम हो रास्ते में
अभी तुम हो धाम नदी के उस पार
अभी तुम पवनार में हो
वृद्ध-जर्जर साध्वियों के संग
अभी तुम हो प्रार्थना की व्यर्थता में
अभी तुम बापू कुटी में
अभी तुम शान्ति के स्तूप के
उस गोल घेरे में
अभी तुम हो नाशवान शरीर-मंदिर में
अभी तुम हो फूल
जिसमें शूल-सा मैं चुभ रहा हूँ।
इन कविताओं में आये विदर्भ स्थित वर्धा के प्रसिद्ध स्थलों धाम नदी, पवनार, शांति स्तूप, बापू कुटी, केवल जगहों के नाम नही हैं बल्कि ये समता, प्रेम, शांति और सद्भाव के प्रतीक हैं, जहाँ दिनया भर से लोग घूमने आते हैं। दूधनाथ जी वर्धा प्रवास के दौरान इन जगहों पर अक्सर जाते थे और वहाँ घंटों समय बिताते थे। लेकिन विनोवा भावे, महात्मा गांधी और फ्यूजी गुरूजी ने दुनिया को बदलने का जो रास्ता दिखाया उसमें उनका विश्वास नही था, इसलिए प्रेमिका के माध्यम से वे इसकी व्यर्थता को प्रकट करते हैं। उन्हें तो प्रेम का यथार्थ धरातल और क्रांति ही प्रिय है।
हमारे समाज में अगर संबंध सुनिश्चित हैं तो आयु के अनुसार उसकी भूमिकाएं भी तय हैं। सामान्य प्रेमी-प्रेमिका के प्रेम को भारतीय समाज युवा अवस्था में ही स्वीकारोक्ति देता है, किंतु दूधनाथ जी प्रेम करने की कोई उम्र नहीं मानते हैं। समाज के अपने अनुशासन होते हैं और रचनाकार उनको तोड़ता है, इस प्रक्रिया में कई बार वह खुद भी टूट जाता है लेकिन नई पीढ़ी को एक रास्ता दिखा देता है। 'साँझ हो रही थी' कविता में कुछ इसी तरह के भाव प्रकट हुए हैं-
साँझ हो रही थी
जब मैं चला तुम्हारी ओर
अंधे की तरह, तुम्हें
टटोलता हुआ।
लोगों की नजर थी मुझ पर
कोई दौड़ा- 'बाबा उधर नहीं
इधर'
जिधर तुम नहीं थीं
मृत्यु का तट था।
प्रेम व्यक्ति को जीवन देता है और उससे अलगाव उसे मृत्यु की ओर ले जाती है। यह भाव एक रचनाकार से बेहतर और कौन समझ सकता है? दूधनाथ जी ने प्रेम को जीवन का पर्याय माना और अपना जीवन खुलकर जिया। उन्होंने सामाजिक बंदिशें और खोखली नैतिकता को कभी नहीं ढोया, बनावटी जीवन वालों का हमेशा मजाक उड़ाया। प्रेम के नैतिक और अनैतिक बंटवारे के भी दूधनाथ जी खिलाफ नजर आते हैं। ' मुझे' कविता में वे नैतिकता का दिखावा करने वाले लोगों के बारे में लिखते हैं-
अपनी महत्ता की दमक में रहो
जो दिन शेष हैं
सुखी और अपूर्ण
दर्शन देते हुए
नैतिकता के स्वांग
में मुस्कुराओ
घिरे हुए
चीरे हुए
बस याद करो कभी-कभी
उसको जो
था।
इस कविता में ऐसे लोगों की आलोचना है जो अहम् के कारण प्रेम से दूर हो जाते हैं। रचनाकार का मानना है कि प्रेम से रहित झूठी महत्ता और दिखावा करने वाले मनुष्य सुखी होने का ढोंग करते हुए अपूर्ण जीवन जीते हैं। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में प्रेम करने का अवसर आता है, वह चाहे तो उसे अभिव्यक्त या स्वीकार कर उसकी निरंतरता में जिए अथवा कोरी नैतिकता और सामजिक बंदिशों का वरण करके बेजान और नीरस जीवन को आत्मसात करे। वे लोग जो नैतिकता के कारण प्रेम को छोड़ देते हैं, भीतर से सुख का अनुभव नहीं करते हैं बल्कि कभी जीवन में आये प्रेम के उन क्षणों को यादकर अतीत-जीवी बने रहते हैं।
संग्रह की कुछ कविताएँ ऐसी हैं जैसी रचनाकार युवा अवस्था में या अपनी प्रारंभिक रचनाओं में लिखते हैं। जीवन के अंतिम पड़ाव की कविताओं में सामाजिक, दार्शनिक चिंतन ज्यादा होता है लेकिन दूधनाथ जी के साथ उल्टा है, उनके पहले काव्य संग्रह 'अपनी शताब्दी के नाम' में संकलित कविताएँ चिंतन के स्तर पर इन कविताओं से कहीं अधिक गंभीर हैं। इन प्रेम कविताओं में दार्शनिक चिंतन से अधिक शब्दों और पंक्तियों के बीच भावों की सघनता है। कई कविताएँ तो ऊपर से देखने में बाल कविताएं लगती हैं लेकिन उनके भीतर गहरे अर्थ छुपे हैं, जैसे ' चुन्नी तुम कहाँ गई' कविता जिसे उन्होंने अपनी पोती को समर्पित किया है-
चुन्नी, तुम कहाँ गई
चुन्नी, तुम कहाँ गई !
......................
बाबा, खिला लेंगें
बाबा, सुला लेंगें ।
पापा फिर आयेंगे झख् मार
मम्मी फिर आयेंगी
मुँह का गुब्बारा फुलाए हुए ।
...................
बाबा, मैं आती हूँ
जल्दी से बड़ी हो जाती हूँ ।
बाबा, तुम मरना मत
पापा से डरना मत ।
दूधनाथ जी एक ऐसे रचनाकार हैं जिनकी कृतियों में उनके आस-पास के जीवन की कुछ न कुछ झलक दिखाई पड़ ही जाती है। यह कविता भी उनके पारिवारिक संबंधों के बारे में बहुत कुछ कहती है। जो लोग उनसे जुड़े थे वे जानते हैं कि जीवन के अंतिम कुछ सालों में दूधनाथ जी का अपने बच्चों से संबंध औपचारिक रह गये थे लेकिन पोते पोतियों से वे बेहद प्रेम करते थे। इस कविता में उनके वही भाव प्रकट हुए हैं। वर्धा, घर पर बीमार पत्नी को छोड़कर गए थे, जाने से पूर्व उन्होंने अपने बेटे बेटियों को फोन किया कि उनसे निर्मला की सेवा नहीं हो पा रही है इसलिए वे उसे अपने साथ रख लें लेकिन इसके लिए कोई तैयार नही हुआ। एक भरा पूरा परिवार होते हुए भी वर्धा का कार्यकाल पूरा कर दूधनाथ जी के इलाहाबाद लौटने तक निर्मला ठाकुर नौकरानियों और विवेक के भरोसे रहीं और 20 नवंबर 2014 को उनकी मृत्यु हो गई।
'तुम्हारे लिए' संग्रह की एक कविता दूधनाथ जी ने 'एक विद्रोहिणी लड़की' को समर्पित की है, जिसका शीर्षक है 'सोनू जिज्जी अच्छी-अच्छी'। ये कविता भी बाल कविता जैसी ही है, लेकिन इसमें बड़ा संदेश है। आज समाज में जहाँ विरोध और प्रतिकार का तरीका आक्रामक और हिंसक होता जा रहा है वहीं इस कविता में सहज और मजबूत इरादों की लड़की का चित्रण है, जो पितृ-प्रधान समाज व्यवस्था को बड़ी शालीनता से अस्वीकार करती है-
सोनू जिज्जी बोल पड़ी है
अपने पैरों आन खड़ी है
मैं सुख-दुख को नहीं जानती
मैं दुनिया को नहीं ध्यानती।
उसमें सब गड़बड़ झाला है
औरत को विष का प्याला है
विष पीने को नहीं बनी मैं
दुख जीने को नहीं बनी मैं।
सामान्य दिखने वाले जीवन में यह प्रतिकार वही कर सकता है जिसके सिद्धांत और व्यवहार में कोई फाँक न हो। इसके लिए कठोर निर्णय और उस पर चलने के लिए कदम-कदम पर संघर्ष करना पड़ता है। दूधनाथ जी ने इस तरह का जीवन जीते हुए जिस लड़की को देखा उसे आसानी से पहचाना जा सकता है। यह उनकी रचनाओं की सबसे बड़ी कमजोरी भी है और ताकत भी, कमजोरी इसलिए कि उसका विस्तृत अर्थबोध नही होता है और ताकत यह कि ऐसी रचनाएं प्रकाशित होते ही पाठकों के बीच लोकप्रिय हुई हैं। ऐसा लगता है कि दूधनाथ जी इस तरह की जो कुछ रचनाएं की हैं, उनमें पात्रों के पहचान का संकेत वे जानबूझकर छोड़ते हैं, जिससे ऐसे आलोचकों को आकर्षित कर सकें जो उनको चर्चा परिचर्चा के केंद्र में लाएं और वो साहित्य के 'सेलीब्रेटी' बने रहें। क्योंकि दूधनाथ सिंह जैसे मंजे लेखक के बारे में यह कहना अनुचित होगा कि पात्रों की पहचान छुपाकर लेखन करने की क्षमता उनके पास नहीं थी। इस कविता के वास्तविक चरित्र को भी दूधनाथ जी के आलोचक खोज सकते हैं और वह मिल भी जायेगी, लेकिन क्या यह रचना का सही मूल्यांकन होगा? और ऐसी खोज और आलोचना से साहित्य का कितना भला होगा। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि वह कौन है? जिससे प्रेरित होकर दूधनाथ जी ने यह कविता लिखी, महत्वपूर्ण यह है कि स्त्री प्रतिरोध और संघर्ष का एक रास्ता यह भी है।
'तुम्हारे लिए' संग्रह की एक कविता दूधनाथ जी ने 'निराला को याद करते हुए' उन्हें और एक 'विनोद कुमार शुक्ल के दाम्पत्य' को समर्पित किया है। निराला दूधनाथ जी के प्रिय कवि थे, उन्हें याद करना कोई नई बात नहीं है लेकिन विनोद कुमार शुक्ल के दाम्पत्य को समर्पित कविता इसलिए लिख सके क्योंकि नागार्जुन सराय में रहते हुए उन्होंने पति-पत्नी के संबंध को करीब से देखा। शुक्ल जी का स्वभाव उस समय वर्धा विश्वविद्यालय के नागर्जुन सराय में रहने वाले दोनों अतिथि लेखकों- दूधनाथ जी और ऋतुराज जी से भिन्न था। दूधनाथ सिंह अपनी एक पत्नी को पहले ही छोड़ चुके थे और एक को बीमारी की हालत में घर छोड़कर आये थे और ऋतुराज जी की पत्नी वर्धा घूमने के लिए आयीं तो कुछ समय उनके साथ रहीं जबकि विनोद कुमार शुक्ल जी हमेशा पत्नी के साथ रहे। घर जाते तो वो पत्नी को लेकर जाते और वापस लौटते तब भी वे साथ होतीं, कैम्पस में भी कहीं घूमते तो पत्नी साये की तरह लगी रहतीं। ऐसा दाम्पत्य अराजक जीवन जीने वाले दूधनाथ जी की कल्पना से परे था लेकिन इसे वह वास्तविक जीवन में देख रहे थे इसलिए खीझकर उन्होंने व्यंग्यपूर्ण कविता लिखी।
तुम पूरब की ओर देख रही हो
मैं भी पूरब की ओर देखता हूँ
.................................
तुम्हारी कमर में दर्द है?
मुझे भी होने लगा।
तुम गर्भवती हो?
काश, मैं भी हो जाऊँ....
अरे तुम छत ताकती हो?
मेरा चश्मा दो मैं भी ताकूँगा।
क्या वहाँ मकड़ी का जाला है
मैं भी फसूँगा।
.............................
सुनो, कुछ काम अकेले भी होते हैं
पता नहीं....
होते हैं।
हिंदी साहित्य में आलोचना के माध्यम से व्यक्तिगत जीवन को घसीटकर रचनाकारों की छवियों को बनाने और बिगाड़ने का काम खूब हुआ है, किन्तु सृजनात्मक लेखन में ऐसा कम ही दिखाई पड़ता है। दूधनाथ जी ने इस कविता को लिखकर वही कार्य किया है, इसके लिए उनके व्यक्तिगत और वैचारिक मतभेद के साथ जीवन को देखने की अलग दृष्टि रही है, जिसकी कसौटी पर उन्होंने विनोद कुमार शुक्ल के दाम्पत्य को कसा है।
दूधनाथ जी का व्यक्तित्व जितना जटिल था, 'तुम्हारे लिए ' संग्रह की कविताएँ उतनी ही सीधी, सरल और सपाट हैं। जिनमें सतरंगी प्रेम के सघन भावों की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति हुई है। यह प्रेम कविताओं से ज्यादा प्रेम के खोज की कविताएं लगती हैं, जिसमें रचनाकार अतीत, वर्तमान, जीवन और मृत्यु सभी जगह विचरण करता है।