भारत के आधुनिक इतिहासकारों ने यह माना है कि बुद्ध का पथ वैदिक-व्यवस्था के
विरूद्ध विद्रोह था क्योंकि बुद्ध ने वेद-प्रतिपादित ईश्वरवाद, आत्मवाद और
वर्ण-व्यवस्था के साथ-साथ यज्ञ का भी प्रतिरोध किया है। इसके लिए आधुनिक
इतिहास के यूरण्ड-पंथी लेखकों के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि चार
वर्णों की अवधारणा दैवी सिद्धांत है और इसकी दिव्यता को अस्वीकार करके बुद्ध
ने वेदों के आत्यन्तिक प्रामाण्य को अस्वीकार करते हुए समस्त वैदिक परंपरा
को अस्वीकार कर दिया। परंतु यह सत्य का केवल एक भाग ही देखकर किया गया
अभिकथन है। संपूर्ण सत्य यह है कि बुद्ध ने सनातन धर्म में काल-प्रवाह से आई
विकृतियों का विरोध करते हुए धर्म के मूल स्वरूप को स्थापित करने का यत्न
किया। उन्होंने किसी नए धर्म का प्रचार करने की अपेक्षा सनातन धर्म को ही
पुनर्व्याख्यायित करने का कार्य किया है। सत्य, अहिंसा, करूणा और मैत्री
जैसे मूल्यों को मानव मात्र के आचरण का आधाररूप धर्म स्थापित करना ही भगवान
के धर्मोंपदेश का मूल उत्स है। यह प्राणी मात्र की तात्त्विक एकरूपता के
प्रतिपादन के वैदिक पथ से अलग न होकर काल के प्रवाह के साथ आचरण में आई
विकृतियों का प्रतिरोध है।
वेद-प्रतिपादित पथ चार वर्ण और चार आश्रम पर आधारित है। बुद्ध के काल तक यह
मान्यता बद्धमूल हो गई थी कि वर्ण ईश्वरकृत है और किसी भी वर्ग में व्यक्ति
का जन्म उसके पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर होता है; यह वर्ण
अपरिवर्तनशील है। अर्थात् जन्म के आधार पर ही सामाजिक श्रेष्ठता का निर्धारण
होता है। व्यक्ति के सामाजिकदाय और अधिकारों का निर्धारण वर्ण के आधार पर
होने के कारण यह शक्ति के दैवी पृथक्कीकरण की व्यवस्था है। इस मान्यता को
पूर्वपक्ष के रूप में प्रतिपादित करते हुए आधुनिक इतिहासकारों ने यह प्रस्तुत
किया है कि बुद्ध का रास्ता वर्ण-व्यवस्था, आत्मवाद तथा कर्मकाण्डमूलक
वैदिक धर्म का प्रतिरोध है। इतिहास की यह मान्यता नित्यतावाद और
अनित्यतावाद के बीच किसी संघर्ष को प्रतिपादित करते हुए अनित्यतावाद को
नित्यतावाद की समस्त व्यवस्था को उलटने के उपक्रम के रूप में देखने के
पूर्वाग्रह के कारण है। अर्थात् बुद्ध का पथ भारत के इतिहास का वह पक्ष है
जिसमें पूर्ववर्ती समस्त व्यवस्था समूलोच्छेद किया गया है। परंतु यह
एकांतिक प्रतिपादन है सत्य के एक ही आयाम को देखने का स्वाभाविक परिणाम है।
यह सत्य है कि भगवान बुद्ध ने अपने काल की कुछ विकृतियों को दूर करने का
प्रयास किया किंतु यह भी सत्य है कि भगवान बुद्ध ने भारत की मूल सामाजिक
व्यवस्था को जड़ से समाप्त करने का अभियान न चलाकर परंपरागत समाज में
परिष्कार के साथ विद्वेषपूर्ण स्थितियों के परिष्कार का ही प्रयास किया था।
वस्तुत: बुद्ध का मत समाज को उच्चतर मूल्यों पर ले जाने का वह प्रयास है
जिसमें नैतिकता और करूणा पर बल दिया गया। प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए कठोर
रूप से नीति का पालन करने वाला तथा अन्यों के प्रति करूण हो। सही शब्दों में
कहा जाए तो बुद्ध ने पारंपरिक रूप से दार्शनिक चिंतन के विषय तत्त्वमीमांसीय
प्रश्नों की उपेक्षा करते हुए आचरण और नैतिकता पर बल देने वाले को प्रतिपादित
किया है यह वैदिक परंपरा का विरोध न होकर उसका पल्लवन है।
बुद्ध का उद्देश्य जगत् के कर्ता की खोज नहीं है। जबकि वेद ''कस्मै देवाय
हविषा विधेम'' के उद्घोष के साथ ही जगत् के निर्माता को खोजते हैं। अर्थात्
वेदमत तथा बौद्ध पक्ष दोनों ही दो अलग-अलग किंतु परस्पर पूरक पथ का प्रतिपादन
करते हैं। बुद्ध का रास्ता तत्त्वमीमांसीय प्रश्नों (metaphysical
questions) को सुलझाने की अपेक्षा मानव जीवन और उसकी व्यष्टि-समष्टि
समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न है। बुद्ध के चिंतन का मूल प्रश्न है कि
'क्या कुशल एवं श्रेष्ठ है?' 'सम्यक्त्त्व क्या है?' जिसके आधार पर आचार
एवं विचारों की श्रेष्ठता को प्रमाणित किया जाए। पाप और पुण्य क्या है?
उसके आकलन में व्यक्ति और उसके संबंधों का क्या महत्त्व है? इस प्रकार के
नीतिगत प्रश्नों को प्रसंग में व्यक्ति और समाज के संबंधों की व्याख्या
करना बौद्ध चिंतन की विशेषता है। बुद्ध की विशेषता है कि सम्यक्-सम्बुद्ध
अर्थात बोधि-संपन्न शास्ता होने के बाद भी वे प्राणी मात्र के दु:ख, शोक और
परिवेदना को दूर करने के लिए बार-बार जीवन धारण करने का उपदेश देते हैं।
बोधिसत्त्व के रूप में सभी दु:ख-विमोचन के लिए समस्त कलि-कलुष को अपने ऊपर
आने का आह्वान करते हैं। परिणामत: बौद्ध परंपरा में जो विचार विकसित हुआ वह
सबको सभी प्रकार के दु:खों से मुक्त करने के मानवी प्रयत्न का विचार है।
समरस समाज के निर्माण में बुद्ध की देशना इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि समरसता एक
भाव है यह समता के समान बाह्य भौतिक वृत्ति नहीं है। इसलिए मनुष्य के चित्त
को कुशल बनाना, करना, उसे अहिंसा, करूणा आदि गुणों से आप्लावित करना ही बौद्ध
शासन का प्रतिपाद्य रहा है। बुद्ध परंपरा में ब्रह्मविहार ही एकमात्र आचरण का
निकष है। यह प्रणाली समरसता की प्रतिपादक है। सभी मनुष्यों में सामरस्य का
उद्भावक है।
बुद्ध भारत के इतिहास के प्रथम सामाजिक परिष्कारक हैं, जिन्होंने कर्ममूलक
यज्ञ की जड़ हो रही वैयक्तिक मुक्ति और सामाजिक पृथक्कीकरण की प्रक्रिया को
रोककर समाज के प्रति उत्तरदायी जीवन-प्रणाली के निर्माण में भूमिका निभाई और
मोक्ष जैसे पारमार्थिक पद को भी ऐहिक मूल्यों के आधार पर नियोजित कर मानव
जीवन को मूल्यवान बनाया। मैत्री, मुद्रिता, करूणा और उपेक्षा चार ऐसे उदात्त
मूल्य है जिनसे सम्पृक्त चित्त के साथ विहार करना ब्रह्मविहार माना गया है
यह विहार असीम है-
मैत्री - सभी प्राणी सुखी हों, यह मैत्री-सम्पृक्त चित्तविहार है।
करूणा - सभी प्राणी दु:ख-विरहित हों यह करूणा-सहगत चित्तविहार है।
मुद्रिता - उत्तरोत्तर विकासोन्मुख सुख से सम्पन्न प्राणियों के प्रति
आनन्द प्रतिलाभ मुद्रिता - सम्प्रयुक्त चित्तविहार है।
उपेक्षा - अबोध जन की अबोधता के प्रति उपेक्षायुक्त उनके सम्यक् अवबोध की
उदात्त कामनापूर्वक दिशादर्शन उपेक्षा-सम्प्रयुक्त चित्त है।
सामान्यत: आधुनिक विचारक यह समझाते हैं कि बौद्धमत का रास्ता वेदानुयायी मत
से नितांत अलग है क्योंकि आत्मवाद के स्थान पर अनात्मवाद, हिंसामूलक बलि के
विरूद्ध अहिंसा, वर्ण-व्यवस्था के स्थान पर सर्वप्राणी समता, ईश्वरवाद के
स्थान पर निरीश्वरवाद इत्यादि की नितांत विरोधी विचारसरणि को देखकर इस
प्रकार के निष्कर्ष निकालना आश्चर्यजनक नहीं लगता किंतु स्वयं बौद्ध चिंतन
में समता का उतना महत्त्व नहीं है जितना कि विषमताओं का निषेध कर विशेष
व्यवहार एवं व्यवस्था के रूप में समरसता के भाव का प्रकटीकरण। समता का
तात्तिक अस्तित्व बुद्ध को स्वीकार नहीं था क्योंकि ऐसी स्थिति में एक
सामान्य प्रत्यय को स्वीकार ही करना पड़ता। इसके स्थान पर समता भावात्मक
समरसता मैत्री, करूणा, मुद्रिता और उपेक्षा को चित्तवृत्ति के रूप में
परिकल्पित किया गया है। समता से जोड़ने वाला तत्त्व मैत्री है। समरसता को
उत्पन्न करने वाला तत्त्व मुद्रिता और उपेक्षा है। इन सबको परिव्याप्त
करती हुई करूणा है। करूणा परदु:ख-कातरता मात्र नहीं है अपितु सम्यक्-ज्ञान
का उदय है। समस्त संसार विषमतामूलक अनंत और असीम दु:ख का प्रवाह है। इस
यथार्थ दु:ख का अवबोध (दर्शन या अनुभव) ही करूणा का उदय है। किंतु यहाँ अवबोध
मात्र ही करूणा नहीं है। दु:खों के ज्ञानपूर्वक सभी को दु:खमुक्त कराने का
भाव जब मन में जन्म लेता है तो ज्ञानी होने के अहं भाव के स्थान पर करूणा
उत्पन्न होती है-
यदात्मन: परेषां च भयं दु:खं च न प्रियम्।
तदात्मन: को विशेषों यत्तं रक्षामि नेतरम् ।।
- माध्यमक योगाचार तृतीय परिच्छेद, 21
बौद्ध पथ की यह करूणा दृष्टि पुनर्जन्म और कर्मफलवाद की सनातन धर्म की
अवधारणा का ही परिणाम है। जन्म-मृत्यु के चक्र की अवधारणा बुद्ध को भी उतनी
ही मान्य है जितनी वैदिक ऋषियों को। अनादिकालीन जन्म परंपरा में सभी प्राणी
कभी-न-कभी, किसी-न-किसी जन्म में हमारे बंधु रहे हैं। उनका भी अन्य
प्राणियों से वैसा ही संबंध रहा है जैसा कि आज हमारा है। इसका अर्थ है कि
मनुष्य के व्यक्तित्व-निर्माण में समष्टि का योगदान है। संपूर्ण समाज और
परिवेश का हम पर ऋण है, संपूर्ण समाज में परिव्याप्त जो दु:ख है, उस दु:ख
में भी सबका हाथ है। करूणा पर दु:ख-कातरता मात्र नहीं है अपितु सामाजिक ऋण को
समझते हुए दु:ख के प्रवाह और उसके स्रोत का उच्छेद करने का भार स्वीकार करना
ही करूणा है। एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण में संपूर्ण समाज का
योगदान है तो समाज को दु:ख मुक्त किए बिना स्वयं की मुक्ति अर्थात् एकाकी
मुक्ति की साधना बुद्ध के अनुसार स्वार्थपूर्ण कामना है। अत: बुद्ध-शासन में
करूणा स्व की मुक्ति न होकर समस्त समाज को दु:खों से मुक्त कराते हुए सबको
सुख उपलब्ध कराना ही है। यह सुख केवल आत्यन्तिक आध्यात्मिक सुख को प्राप्त
कराना ही है। यह सुख केवल आत्यन्तिक आध्यात्मिक सुख को प्राप्त कराना नहीं
है अपितु पारमार्थिक सुख के साथ सबको लौकिक सुख भी प्राप्त हो इसका भी उपक्रम
करना करूणा ही है। इसी को बोधिचर्यावतार (VIII.108) में कहा गया है कि-
मुच्यमानेषु सत्त्वेषु येते प्रमोध सागरा:।
तैरेव ननु पर्याप्तं मोक्षेणासिकेन् किम्।।
करूणा-संपन्न व्यक्ति पहले दु:खी व्यक्ति और बाद में निरवैयक्तिक दु:ख मात्र
हो जाता है। करूणावान वही है जो व्यक्ति और समाज के हित में अपना सामाजिकीकरण
कर अपने व्यक्तित्व को तिरोहित कर देता है। करूणा-संपन्न व्यक्ति बुद्ध का
आदर्श है। ऐसा व्यक्ति, जिन-जिन स्रोतों से दु:ख जन्म लेता है उन स्रोतों के
लिए सर्वदा तत्पर रहता है। सकृद्व्यवहार (सामाजिक व्यवहार) इस प्रकार के
अधिकतम दु:ख का कारण है क्योंकि समाज में अनेक ऐसे व्यवहार होते हैं जो
विभेद और अलगाव उत्पन्न करते हैं इन दोषों को दूर करने का और समाज जीवन में
बहुजनहित और बहुजन सुख उत्पन्न करने वाली व्यवस्थाओं के निर्माण का यत्न
करना ही करूणा का सार्थक अर्थ है। यह तभी संभव है जब संबोधिकामी भिक्षु समरस
हो समाज में परिव्रजा करे। विशिष्टता से अलगाव संभव है इसलिए विशिष्टता का
परित्याग करते हुए समाज के सभी स्तरों व वर्गों के बीच अपनत्व एवं करूणा के
साथ मैत्री, मुदिता और करूणा के जागरण का यत्न करते रहना बुद्ध की
सम्यक्-देशना है।