hindisamay head


अ+ अ-

कविता संग्रह

जीवन-पथ में

रमेश पोखरियाल निशंक


जीवन-पथ में

(राष्ट्रीय अस्मिता की कविताएँ)

 

 

 

 

 

 

 

 

 

रमेश पोखरियाल ' निशंक '

 

 

 

 

 

 

 

 

हिंदी साहित्य निकेतन , बिजनौर (उ.प्र.)

प्रकाशक :

हिंदी साहित्य निकेतन

16 साहित्य विहार

बिजनौर (उ.प्र.)

फोन : 01342-263232

वेबसाइट: www.hindisahityaniketan.com

संस्करण: 2009

ISBN: 97881-89790-65-3

 

 

भूमिका

मुझे श्री रमेश पोखरियाल 'निशंक' जी की सभी काव्य-कृतियों को पढ़ने का सुअवसर मिला है। उनकी काव्य-यात्रा युवकों के लिए प्रेरणादायक है। श्री 'निशंक' एक अध्यवसायी व्यक्ति हैं, जो सार्वजनिक जीवन में सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यों में सक्रिय हैं; लेकिन इन सबसे आगे वे एक सहृदय कवि हैं। कवि 'निशंक' की काव्य-साधना का नवीनतम पुष्प यह काव्य-संग्रह है।

'जीवन-पथ' नाम के इस संग्रह में 'निशंक' जी की प्रायः छोटी कवितायें हैं। छोटी कविताएँ अपने आकार में भले ही लघु हों, पर उनका प्रभाव व्यापक होता है। इसका प्रमुख कारण है कविताओं का कसाव। कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक भावों और विचारों की अभिव्यक्ति करने में कम ही लोग सफल हो पाते हैं। इस कवि की ये कविताएँ पढ़कर ऐसा लगता है कि कवि अभिव्यक्ति के इस कौशल के बहुत निकट है। लंबी काव्य-साधना के बाद यह क्षमता विकसित हो पाती है। कवि भाषण, एकलाप, अनावश्यक विस्तार और बड़बोलेपन का शिकार नहीं है। ये बातें वास्तव में कविता के लिए घातक हुआ करती हैं, इस बात का कवि 'निशंक' जी को भान है।

सहजता कवि की सबसे बड़ी विशेषता है। यह उसके व्यक्तित्व से आती है। 'निशंक' जी जिस तरह के कवि हैं, उनकी कविताएँ भी वैसी ही सहज, सरल और सीधी हैं। दूसरी बात सारी कविताएँ पढ़कर ऐसा लगता है कि उनकी कविताएँ मुक्ति, समर्पण, कर्म एवं जीवन की कविताएँ हैं। उनकी कविताओं का यह गुण उन्हें अन्य समवयस्क कवियों से अलग करता है। उनकी कविताओं में जीवटता है और अलग राह बनाने की बेचैनी भी। लेकिन, अलग एकाकी चलने की स्वार्थपरक नीति के वे प्रबल विरोधी हैं। सभी को साथ लेकर चलने की बात वे कहते हैं। वे आज के जीवन के संघर्षों, विडंबनाओं, द्वंदों को समझते हैं, इसलिए आकाश की बात नहीं करते, धरती की बात करते हैं।

मुझे चाहिए था कि इन सब बातों के लिए मैं उनकी कविताएँ उदाहरण रूप में साथ-साथ उद्धृत करता, लेकिन मुझे लगा कि ऐसा करने में तो उनका पूरा संग्रह ही उद्धृत हो जाता। फिर भी एक उदाहरण अवश्य दूँगा-

तोड़ सको तो तोड़ो बंधन,

जो तुमको जकड़े हैं।

कर्म करो वह कारा तोड़ो,

जो तुमको पकड़े हैं।

''संभवतः यही निशंक जी का संदेश है।

मेरी कामना है कि श्री रमेश पोखरियाल 'निशंक' अपनी कविताओं से हिंदी-कविता का भंडार भरेंगे, समाज में नई चेतना जाग्रत करेंगे और निरंतर अविचल अपने काव्य-मार्ग पर अग्रसर होते रहेंगे। जो शिल्प अभी सधा नहीं है, उसे साधेंगे और अपनी कविताओं में भावों, विचारों, अनुभूतियों को नवीन शिल्प में बाँधेंगे।

अनेक शुभकामनाओं के साथ।

डॉ. हरिमोहन

निदेशक

कन्हैयालाल मुंशी भाषा संस्थान

आगरा विश्वविद्यालय, आगरा (उ.प्र.)

 

 

अपनी बात

आज हर दिशा में द्वंद्व है, आक्रोश ही आक्रोश है । जनता को गुमराह कर राष्ट्र निर्माण के लिए समर्पण का भाव दिखाने वाले कठित आदर्शवादी जातिवाद और क्षेत्रवाद के दलदल में फँसकर सत्ता की होड़ में बेगुनाह लोगों की हत्या करवाने में लिप्त हैं ।

आज व्यक्ति स्वयं असहाय महसूस कर रहा है । जिधर देखो उधर त्राहि-त्राहि मची है । हर व्यक्ति सहमा हुआ है कि न जाने किस वेश में कब कौन उससे छल-कपट कर जाए, किंतु मेरी इन कविताओं ने जहाँ ऐसे छल-कपटी लोगों को चुनौती दी है, वहीं व्यक्ति को निपटने की शक्ति भी प्रदान की है ।

पाठकगण, मेरी इन कविताओं में कदम-कदम पर गहरे जख्म मिले हैं, किंतु इन जख्मों को भी इन्होंने सहलाया है; तभी तो हँसते-गाते-मुस्कुराते जन-जन ने इनको अपनाया है ।

अधिकांश कवितायें जीवन रूपी पथ में आगे बढ़ने के संघर्ष से जन्मी हैं । ये काल्पनिक नहीं, वास्तविक हैं । इन कविताओं में वह अव्यक्त पीड़ा व्यक्त हुई है, जिसने संघर्षशील जीवन को आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दी है ।

पाठकवृंद, विपरीत परिवेश में भी मेरे गीतों ने आपा स्वर नहीं दबाया है, इन्हें शूली पर चढ़ाने की कोशिशे हुईं, किंतु मेरी ये कवितायें अबाध गति से बढ़ती रहीं । कहीं अपनापन न मिलने पर भी ये निराश नहीं हुईं, बल्कि इन्होंने आशा की किरण को दिखाया है ।

कभी भी इन्होंने घोर अंधेरी रातों की परवाह नहीं की, इन्होंने तो घोर निशा में भी जलकर प्रकाश किया है ।

बारूद के ढेर पर खड़ा मनुष्य सिर्फ मांस का पिंड रह गया है; लेकिन मुझे विश्वास है कि बेगुनाह यह सुबह अब काली रात में नहीं बदलेगी । मेरी कवितायें बारूद के ढेर पर खड़े इस दानव को पुनः एकबार मानव बनाएँगी ।

गरीबों का खून चूसकर आपके पाँवों की थिरकन में तूफान भरेंगी और यदि आवश्यकता हुई, तो समय आने पर आपकी भुजाओं में आँधियाँ भी समाहित करेंगी ।

मृत्यु से डरने वाला कभी सफलता नहीं पा सका है और निरुद्देश्य व्यक्ति तो बिना मरे हुए भी मरे हुए के समान है ।

इसलिए मेरी कवितायें आपको किसी लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए आतुर हैं । मुझे आशा है कि आपका स्नेह पाकर ये कविताएँ अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सफल होंगी ।

प्रस्तुत संग्रह के प्रकाशन में साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली के सदस्य श्रद्धेय डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा 'अरुण' एवं मेरे मित्र तथा हिंदी साहित्य निकेतन, बिजनौर के सचिव डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल का सहयोग प्राप्त हुआ है उसके लिए मैं उनका विशेष रूप से आभारी हूँ ।

-रमेश पोखरियाल ' निशंक '

 

 

अनुक्रम

1. उद्बोधन

2. द्वंद्व

3. कथित आदर्शवादी

4. अजनबी हो गया

5. वेदना

6. अहसास

7. विवशता

8. यदि रोते रहे

9. सफ़र ज़िंदगी

10. परिवर्तन

11. सत्ता के दलाल

12. मरे हुए लोग

13. माया

14. मौत भी डरती है

15. चिंतन के पल

16. तोड़ो बंधन

17. मैं

18. सुखद क्षण

19. आशंका

20. मानवता

21. कौन आया

22. ख़ुशक़िस्मत

23. विभ्रम

24. आडंबर

25. जीने की चाह

26. ताने-बानों के बीच

27. तुम्हारी चाह

28. पैसे की ख़ातिर

29. पहचान रहा हूँ

30. हर ज़ख्म

31. मन से काले

32. वे पुरस्कार पाते हैं

33. मदद कोई नहीं करेगा

34. काँटे क्यों ठुकराते हो

35. मर्म न जाना है

36. दर्द छिपाता हूँ

37. क्षणिक जीवन

38. श्वासें

39. धोखा किया

40. भ्रम

41. भटकन

42. विपरीत परिवेश

43. कहूँ मैं किससे

44. बिना मौत

45. हमने नहीं भुलाया

46. हर जगह बारूद है

47. ग़लती मेरी नहीं

48. सौदा किया

49. प्रलय करूँगा

50. मरने के बाद

51. ग़म

52. क्षणभंगुरता

53. केवल हंसते देखा है

54. प्रहार दुःख पर

55. मेरे गान

56. कुछ पूछ रहा हूँ

57. डरते नहीं

58. जीवन भर

59. बोझिल ज़िंदगी

60. विस्मय

61. अहंकार मिटा

62. समय मिले तो

63. अहंकार क्यों

64. अंदर-बाहर

65. साथ लिए जा

66. उसको अपनाया

67. मैं वह नहीं

68. किसे दोष दूँ

69. उनकी नियति

70. तुम आवाज़ दो

71. वेदना घेरती है

72. मुझे मारने के लिए

73. अहं

74. ज़िंदगी

75. भ्रष्ट कारनामे

76. भविष्य के लिए

77. मेरा मूल्य

 

 

उद्बोधन

लीक-लीक तो कायर चलते

तुम वीर बनो

पथ को जानो।

तोड़ सभी कारा के बंधन

तुम बात सुनो

मेरी मानो।

 

द्वंद्व

द्वंद्व है चारों दिशाओं में

हर व्यक्ति इतना पक चुका है,

आक्रोश का बन चुका गोला

विस्फोट होना बस रुका है।

 

कथित आदर्शवादी

दिनभर निठल्ले रहकर

हम बहुत व्यस्त हैं कहकर

आदर्श का चोला ओढ़े

ये कथित आदर्शवादी

बात बहुत करते हैं,

किंतु

व्यर्थ का दंभ भरने वाले

ये चाटुकार हैं, जो

नव-निर्माण से डरते हैं।

 

अजनबी हो गया

अपने ही लोगों के बीच

आज

आज अजनबी हो गया हूँ।

स्वयं को ही ढूँढता

आज

स्वयं में खो गया हूँ।

 

वेदना

क्या बताऊँ इस हृदय की

वेदना की उस व्यथा को,

इतिहास लंबा है जिसका

कहूँ कैसे उस कथा को?

 

अहसास

सुख-दुःख के बीच के

ये क्षण,

कभी डराते हैं मुझे,

और कभी

संघर्ष-भरी ज़िंदगी का

अहसास कराते हैं मुझे।

 

विवशता

भागना चाहता है तू

पर भागेगा कहाँ?

हर जगह धोखा है

बस धोखा है यहाँ।

 

यदि रोते रहे

यदि तुम ज़िंदगी भर,

यों ही रोते रहोगे,

तो पास है जो भी तुम्हारे

उसको भी खोटते रहोगे।

 

सफ़र ज़िंदगी

मैं स्वयं ही सफ़र हूँ या

सफ़र मुझमें है,

मुझको कुछ मालूम नहीं।

एक सफ़र बन गई ज़िंदगी।

 

सत्ता के दलाल

बेगुनाह लोगों की

हत्या करने वाले

पहिचानो!

ये कौन?किसके दलाल हैं।

आतंकवाद, जातिवाद

और क्षेत्रवाद फैलाने वाले

ये बिके हुए

अपने आपको

क्यों कहते भारत के भाल हैं?

 

मरे हुए लोग

पीड़ा को देखकर

जो लोग

डरे हुए हैं।

बिना मरे ही,

वे लोग

मरे हुए हैं।

 

माया

जीवन के नाना बंधन

बाँधे हैं जो कसकर हमको,

'मिथ्या'का बोध कराते हैं।

सुरमय जल माया के

रिश्तों की डोर,

जो फँसे छूट नहीं पाते हैं।

 

मौत भी डरती है

संघर्षों की पीड़ा है मुझमें

जो नव ऊर्जा भरती है।

मैंने उसको जीवन माना

जिससे मौत भी डरती है।

 

मैं

मैं स्वयं उत्साह से भरा हूँ,

निज के लिए नहीं मरता हूँ।

काल स्वयं भी आ जाए,

मैं नहीं काल से डरता हूँ।

'कर्मण्येवाधिकारस्ते' हित,

स्वयं बना मैं गीता हूँ।

मैं संघर्षों की एक कहानी,

सौ बार मरा फिर जीता हूँ।

 

तोड़ो बंधन

तोड़ सको तो

तोड़ो बंधन,

जो तुमको जकड़े हैं।

कर्म करो

वह कारा तोड़ो,

जो तुमको पकड़े हैं।

 

चिंतन के पल

ढूँढो!

स्वयं को ढूँढो,

तुम

तुम नहीं

मैं

मैं नहीं

इस क्षण यहाँ

कौन है?

तुम कहीं तो

मैं कहीं?

 

सुखद क्षण

कितने सुखदा क्षण हैं मेरे,

जब पीड़ा मुझको घेरे है।

सागर के समभाव हृदय में,

क़लम हाथ में मेरे है।

 

आशंका

बस!

नहीं चला वश

यदि इस रात का

वाश चलता

तो ये निगल गई होती

मेरी सारी सुबहों को।

 

मानवता

मुझे पता नहीं कौन

है दुश्मन

किससे प्यार रहा मेरा।

ये तेरा-मेरा सब मिथ्या

कण-कण में है मेरा डेरा।

 

विभ्रम

तुम्हारा यह मानना

कि मेरे सिवा

यहाँ कोई नहीं है,

मेरा जो निर्णय है

बस वही सही है।

बिल्कुल ग़लत है

क्योंकि मैं

हर जगह व्याप्त हूँ

तुम जहाँ हो

मैं भी वहीं हूँ।

 

पैसे की ख़ातिर

तुमने

पैसे कि ख़ातिर

अपना

सब-कुछ खो दिया

क्योंकि

ये पैसा ही तुम्हारा

सब-कुछ हो गया।

 

कौन आया

उन्मुक्तता के गगन में

ये न जाने

कौन आया?

उन्मुक्त निश्छल

हँसी को मैंने

स्वयं ही मौन पाया।

 

ख़ुशक़िस्मत

मैं मुक्त हूँ

उन बंधनों से

जो मृत्यु तक

हैं कैद कर जाते।

ख़ुशक़िस्मत

कहता उन्हें मैं

जो नेह कि

ज़ंजीर पाते

 

तुम्हारी चाह

तुमने

जी-तोड़ कोशिश की

मुझे

मझधार में लटकाने की।

न जाने तुम्हारी

क्यों चाह रही

मुझे

सघन वन में भटकाने की।

चाह कर भी ऐसा

नहीं कर पाओगे तुम

क्योंकि मेरी चाह है

कुछ कर दिखाने की।

 

आडंबर

अंदर से खोखले हैं वे

जो बाहर दिखावा करते हैं।

पुरुषार्थ युक्त व्यक्ति सदैव

आडंबर से डरते हैं।

 

जीने की चाह

सी सका यदि

तो

बिखरे हुए क्षणों को

मैं कोशिश में हूँ

सिने की।

कुछ क्षण भी

जी सका तो

लक्ष्य-शिखर पर

चढ़ना है

चाह यही है

जीने की।

 

ताने-बानों के बीच

रेशम के कीड़े की तरह

अपने ही ताने-बानों के बीच

तू भी फँसता जा रहा है।

जो बाहर निकलने के लिए

छटपटाने पर भी

जाल अनगिन पा रहा है।

 

पहचान रहा हूँ

मैं तुम्हें पहचानने में

भूल नहीं कर सकता हूँ।

खाई चाहे

जितनी खोदो

उसको भी भर सकता हूँ।

 

वे पुरस्कार पाते हैं

अपने दोषों को

छिपाने के लिए

वे

झट से

आलोचना कर देते हैं।

किसी की

अच्छी बात तो नहीं

छोटी ग़लती पर जाते हैं

साफ़-सुथरा दिखा स्वयं को

दुनिया-भर में छाते हैं,

पर पीड़ा पहुँचाने वाले

वे पुरस्कार भी पाते हैं।

 

मदद कोई नहीं करेगा

तुम्हारी मदद

कोई नहीं कर सकेगा

और कभी नहीं,

क्योंकि तुम

स्वयं की मदद

नहीं कर सकते हो।

तुम रो तो सकते हो

चिल्ला-चिल्लाकर,

किन्तु अपने त्रास

नहीं हर सकते हो।

 

हर ज़ख्म

दुनिया का दिया हर ज़ख्म

मेरे दर्द में

बदल जाता है।

जिसकी न कोई सीमा है

न समय है

जब चाहे तब चला आता है।

 

मन से काले

सूरत से तो श्वेत छटा,

पर मन से तुम काले हो।

बातें करते चिकनी-चुपड़ी,

डंक हज़ारों पाले हो।

 

काँटे क्यों ठुकराते हो

यही न,की फूलों से

घाव नहीं होते!

तुम्हें फूल बहुत भाते हैं।

अरे!काँटों को

क्यों ठुकराते हो

ये तो सीख सिखलाते हैं।

 

मर्म न जाना है

जिसको दर्द सुनाया मैंने

उसका मर्म न जाना है।

देता रहा मात मृत्यु को

कण-कण को भी छाना है।

हर पल शोर मचाया मैंने

नूतन गीत रचाया है।

धरती के चप्पे-चप्पे को

अपना गीत सुनाया है।

लेकिन फ़ुर्सत किसे कहाँ है

इन गीतों को सुनने की।

होड़ लगी प्राणी में अपने

ताने-बाने बुनने की।

 

परिवर्तन

जो कभी नव-पल्लव थे,

अब क्यों बने दिल दिल पत्थर हैं।

कहाँ लुप्त हुआ मधु कोष्ठों का,

जो उड़ते थे वे बिन पर हैं।

जो तब प्यार के सागर थे,

वे आज बाने दिल पत्थर हैं।

जो कभी चहकते थे,

वे सब सूने-सूने बेघर हैं।

क्यों बदलाव हुआ ऐसा,

नियति क्रूर हो,ठीक नहीं।

इतिहास रहा इस धरती का,

यहाँ मधुगान रहा, चीख़ नहीं।

 

दर्द छिपाता हूँ

क्या दर्द है तुम्हें

हर बार पुछते हो मुझसे,

जब भी पास मैं आता हूँ।

पर कहीं दर्द न हो तुमको

इस डर से मैं

अपना दर्द छिपाता हूँ।

 

क्षणिक जीवन

इस क्षण हमें,

बहुत कुछ करना,

जो सब-कुछ हम,

कर सकते हैं

इस जीवन का,

क्या है भरोसा,

किसी क्षण भी,

मर सकते हैं।

 

श्वासें

ये श्वासें

हर घड़ी

हर पल,

बादल जाती हैं।

न जाने

कहाँ से आती हैं,

और कहाँ

चली जाती हैं।

 

धोखा किया

जो चौराहे पर चिल्ला सके

जो निठल्लों को खिला-पीला सके।

जो करे भ्रष्टाचार पर व्याख्यान

अपना चाहे हो न ईमान।

उसे क्या कुछ नहीं

बना दिया हमने।

किसी के साथ नहीं,

मित्रों!

अपने और अपने ही

देश के साथ अन्याय

और धोखा किया हमने।

 

भ्रम

हमारे

टूटने और जुड़ने का जो

क्रम है।

यही हमारे

जीने और मरने का

भ्रम है।

 

विपरीत परिवेश

सोचता हूँ आज के दिन

भाव और ये भावनाएँ

परिवेश है विपरीत पूरा

ओह!कैसे मैं बचाऊँ?

सोचता हूँ गीत अपना

आज मैं किसको सुनाऊँ?

 

भटकन

निशि-दिन भटका है दर-दर

भाव-विह्वल

यह विकल मन।

अंतस्-अंतस् तक

पहुँचाहै पर

कहीं मिला न अपनापन।

 

कहूँ मैं किससे

घोर निराशा,सघन निशा में

हर पग

कड़वा घूँट पिया।

कहूँ मैं कैसे

किस-किसने

भावुक मन क़त्ल किया।

 

बिना मौत

अपने स्वार्थों के

दलदल में फँस वे

कई बार हमला करते हैं,

दूसरों को मारकर

ज़िंदा रहने वाले

बिना मौत ही मरते हैं।

 

ग़लती मेरी नहीं

इस अंधेरी रात को मैंने

स्वयं जलकर प्रकाश दिया,

यह सब मैंने

तुम्हारे अंधेरे में

न रहने के लिए किया,

यदि तुम फिर भी न समझो,

तो ग़लती मेरी नहीं है।

तब ये निश्चित समझो

की तुम कहीं

और रोशनी कहीं है।

 

हर जगह बारूद है

मानव कहीं मर मिट गया,

शेष दिखती अस्थियाँ हैं।

आदमी की लाश है या,

राख बनती बस्तियाँ हैं।

हर जगह बारूद है बस,

कहाँ है मैदान खाली।

बेगुनाह हर प्रातः भी अब,

बन रही है रात काली।

 

हमने नहीं भुलाया

हमने सपने में भी

उन्हें नहीं भुलाया।

जिन्होंने

जाने-अनजाने

सदा हमें रुलाया।

 

सौदा किया

ग़रीबों का ख़ून चूसकर

बन मोटे मुस्टंड जिन्होंने

देशभक्ति का मुँह सिया है,

वही देश के दुश्मन हैं

जिन्होंने हमें बेचकर

वतन तक का सौदा किया है।

वतन के सौदागरों को

मिलकर हमें मिटाना है,

ले संकल्प देशभक्ति का

सर पर ताज बिठाना है।

 

प्रलय करूँगा

देखा नहीं तुमने मुझे

मैं स्वयं ज्वालामुखी हूँ,

प्रकृति पर अन्याय देखे

छटपटाता मैं दुःखी हूँ

सह रहा हूँ बहुत कुछ

कब तलक मैं चुप रहूँगा,

एक दिन मजबूर होकर

प्रचंड बन प्रलय करूँगा।

 

मरने के बाद

तुम निश्चित करोगे याद

मुझे

मेरे मरने के बाद।

क्योंकि तब भी

मेरा हर शब्द

तुम्हारे अंतस्तल में गूँजेगा,

आज नहीं तो कल

तुम्हारा मन

असलियत को ढूँढेगा।

 

ग़म

जिसने मुझे

चैन से न रहने दिया

जिसका मुझ पर

रहा घेरा।

ये ग़म है

इस ग़म ने

बहुत कुछ मुझसे

छीना है मेरा।

 

केवल हंसते देखा है

तुमने मुझे हँसते देखा,

कभी नहीं देखा रोते,

केवल मुझको पाते देखा,

नहीं कभी देखा खोते।

 

क्षणभंगुरता

उसने जीने के लिए

दुनिया की ढेर सारी

वस्तुओं को जोड़ा,

कुछ को कहीं से तोड़ा

कुछ को काही से मोड़ा।

वह रात-दिन

जोड़-तोड़ करता रहा,

अपने पास

बहुत-कुछ होने का

दंभ भरता रहा।

वह ज़िंदगी-भर

इस खेल को

खेलता रहा।

इस खेल को

खेलने के लिए

वह

बहुत-कुछ झेलता रहा।

किंतु

वह झूठ का महल

जो उसने ख़ूब सँजोया था,

जिस स्वार्थ के कारण उसने

अपने तक को खोया था।

आज

एक क्षण में वह ढह गया

देखो मरते वक़्त वह

हाथ खाली रह गया।

 

प्रहार दुःख पर

शांत प्रिय मुख बहुत प्यारा,

झुलस काला पड़ा सारा।

किंतु फिर भी हँसी मुख पर,

यह कड़ा प्रहार दुःख पर।

 

मेरे गान

भुजाओं में

आँधियाँ समाई हैं,

पाँवो की

थिरकन में तूफ़ान है।

हुंकार है

पाञ्चजन्य-सी मेरी

और

गीता-सदृश यह गान है।

 

कुछ पूछ रहा हूँ

क्यों?

कैसे?

कब?

किसके लिए?

ढेर सारे प्रश्न हैं

जिनसे

निशि-दिन जूझ रहा हूँ।

कभी भटकता

कभी तड़पता,

मैं

तुमसे

कुछ पूछ रहा हूँ।

 

डरते नहीं

मृत्यु से भी जो कभी

डरते नहीं हैं,

विपत्ति से समझौता वे

करते नहीं है।

सफलता तो चरण उनके

चूमती है,

रोशनी चारों दिशा में

घूमती है।

 

जीवन भर

पुष्पों, यदि नेह छिपाओगे तो

तुम पुष्प नहीं कहलाओगे।

अर्पण क यदि भाव तजा तो

तुम जीवन-भर अकुलाओगे।

 

बोझिल ज़िंदगी

उफ़!

कभी-कभी

बड़ी बोझ-सी लगती है यह ज़िंदगी

और मन

इस ज़िंदगी को छोड़

सीमाओं को तोड़

कहीं भाग जाने को कहता है।

जाता भी हूँ कहीं

ढूँढता भी हूँ किसी नए स्थान को

पर ये ज़िंदगी का बोझ

साथ-साथ ही आता है।

यह अपना घेरा डाल

चलते हुए हर एक चाल

मेरी उन्मुक्तता में

ज़हर घोल देता है।

एक पल भी

स्वच्छंद जीने के लिए,

इस बोझिल ज़िंदगी से भी

जीने का मोल लेता है।

 

विस्मय

सब-कुछ होते हुए भी

यह विस्मय रहा कैसे?

हमेशा से रहा ऐसा,

स्वयं अकेला हूँ जैसा।

 

अहंकार मिटा

अहंकार मिटा

संकीर्ण वृत्ति को पास न ला,

मन की सब सीमाएँ तोड़

अनंतता को निज से जोड़।

विपदा में यदि

तनिक न डोला

मिट जाएगा ग़म का चोला,

प्राणों को हाथों में रख लो

ग़म को पास न आने दो,

एकीभूत करो मानस को

बाक़ी सब मिट जाने दो।

 

समय मिले तो

जिसने खाक में

मिलना सीखा,

जो बुझी नहीं है

आँधी से।

समय मिले तो

ध्यान में रखना,

उस जलती हुई

चिंगारी को।

 

अहंकार क्यों

ज़मीं को भी देख तू

क्यों आसमाँ पर चढ़ा है,

एक दिन जाना तुझे भी

फिर अहंकार क्यों बढ़ा है।

 

अंदर-बाहर

चिकनी-चुपड़ी बातें करके

छद्म छवि जो पाली है,

बाहर दिखावा करते पर

अंदर पौरुष से खाली है।

भले बाने इस छद्मी की

असली कुंडली जाली है,

बाहर से तो सुंदर है पर

देखो अंदर से काली है।

 

साथ लिए जा

दुर्गम और भीषण

बड़ी चट्टानें पार कर,

उसको भी तू साथ लिए जा

जो बैठा है हारकर।

क़दम-क़दम तू क़दम बढ़ा

संघर्ष कर जोखिम उठा,

फेंक निराशा को कोसों

तू आशा के गाने गा।

और तभी यह तेरा

लक्ष्य तुझे मिल जाएगा,

घोर अँधेरा चीरकर

तू सदा रोशनी पाएगा।

 

उसको अपनाया

उन्होंने कहा-

क्या बात है?

कठिनाइयों में भी तुम हँसते हो,

तुम्हें धकेला कीचड़ में पर

नहीं वहाँ भी फँसते हो।

मैंने कहा-

कठिनाइयों को तो

मैंने गले लगाया है,

पीड़ाएँ जिसने दी मुझको

उसको भी अपनाया है।

 

मैं वह नहीं

मैं

उनकी तरह नहीं हूँ,

जो

मीठी वाणी से

जन-जन को डँसते हैं,

और

अहित कर दूजों का

जो अकेले में हँसते हैं।

मैंने तो निश्छल,निशंक हो

सबको पुचकारा है,

द्वेषभाव न रहा किसी से

मेरा तो जग सारा है।

 

किसे दोष दूँ

किसे दोष दूँ,क्यों दोष दूँ?

किसको दोषी ठहराऊँ मैं?

कितने गीत गाए हैं अब तक

अब कौनसा गीत सुनाऊँ मैं?

ख़ुश होना था नहीं तुम्हें

नहीं कभी मुस्कुराना था

मेरा गीत न अच्छा लगना

सिर्फ़ एक बहाना था।

 

तुम आवाज़ दो

दशों दिशाओं में

हर श्वास में,

गुनगुनाते गीत

मेरे रहते हैं।

तुम आवाज़ दो,

हम साथ हैं

हर व्यक्ति से

ये कहते हैं।

 

उनकी नियति

उनकी नियति

सदा हमें

सताने की ही रही है।

जिनके लिए हमने

बड़ी-से-बड़ी

पीड़ा भी सही है।

 

वेदना घेरती है

कभी-कभी

आलस्य प्रवेश करता है

निराशा से मेरा मन डरता है।

तब असह्य वेदना मेरी

मुझे घेर लेती है

शिथिल पड़ते मेरे अंग-प्रत्यंग

झकझोर देती है।

 

भ्रष्ट कारनामे

अपने कारनामों को

छिपाने के लिए

तुम जिस मुखौटे को ओढ़े हो,

वह एक दिन

बेनक़ाब हो जाएगा।

आज भले ही गर्व कर लो

कल दुनिया तमाशा देखेगी

आज भीड़ से घिरे हो

कल स्वयं को अकेला पाओगे।

 

ज़िंदगी

ज़िंदादिली का नाम ही

ज़िंदगी माना है मैने।

नीरस नीराशा रात को

बस मौत ही जाना है मैंने।

 

अहं

क्षणभंगुर इस जीवन में

यह अहं भरा तुझमें कैसा?

दुनिया तो मर सकती है

तू अमर बना है जैसा?

 

मुझे मारने के लिए

उन निहायत स्वार्थी तत्वों ने

मुझे जान से मारने क लिए

मुझ पर

सशस्त्र हमला किया।

और मैंने

प्रतिरोध में उन्हें

उनकी ही सुख-समृद्धि का

एक गमला दिया

कि

इस गमले को

पनि देना

सुख-सुंदरता भी लेना,

मुरझाए यदि पुष्प तो

दोष न गमले को देना।

और

इस पौधे को जीवन देना

तब ही जीवित भी रहना,

तालाब न बनना गंदे जल का

तुम गंगा के सम बहना।

 

भविष्य के लिए

मैं सदा

संघर्षों की वेदी पर

अँधेरों की देहरी पर

अभावों की ज़िंदगी जीता रहा

तुम्हारी उपेक्षा

और तुम्हारे तिरस्कार का

हर घूँट पीता रहा।

तुम्हारी मार

तुम्हारी हर दरार

मैं दर्दों को छिपा

भरता रहा हूँ,

सिर्फ़ इसलिए

कि भावी पीढ़ी के साथ

अन्याय न हो

मैं भविष्य के लिए

जीता रहा हूँ।

 

मेरा मूल्य

तुम अपने ही धंधों में व्यस्त

दुनिया के सभी कार्य

व्यर्थ मानते रहे,

बस अपने ही स्वार्थों को

दुनिया में

सब-कुछ जानते रहे।

तुम एक ही लाठी से

सबको हाँकते रहे।

झूठी दीवारों कि आड़ में

सच्चाई झाँकते रहे।

तुम सच्चाई को जानते थे

फिर भी तुम इसे

झूठी उड़ानों से लाँघते रहे,

न जाने क्यों तुम

अपनी इन व्यवसायी आँखों से

मेरा मूल्य आँकते रहे।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में रमेश पोखरियाल निशंक की रचनाएँ