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विश्व धरोहर महाकुंभ

रमेश पोखरियाल निशंक


 

 

 

 

विश्व धरोहर

महाकुंभ

 

 

डॉ . रमेश पोखरियाल ' निशंक '

प्रभात प्रकाशन , दिल्ली

ISO 9001:2015 प्रकाशक

 

 

प्रकाशक • प्रभात प्रकाशन

4/19 आसफ अली रोड,

नई दिल्ली-110002

सर्वाधिकार • सुरक्षित

संस्करण • प्रथम, 2019

मूल्य • चार सौ रुपए

मुद्रक • आर-टेक ऑफसेट प्रिंटर्स, दिल्ली

 
 

VISHWA DHAROHAR MAHAKUMBH

by Dr. Ramesh Pokhariyal 'Nishank ₹ 400.00

Published by Prabhat Prakashan, 4/19 Asaf Ali Road, New Delhi-2

e-mail: prabhatbooks@gmail.com ISBN 978-93-5322-246-8

 

 

 

सत्यमेव जयते

 

प्रधान मंत्री

Prime Minister

नई दिल्ली

03 जनवरी, 2019

श्री रमेश पोखरियाल ' निशंक ' जी ,

आपके द्वारा लिखित पुस्तक 'विश्व धरोहर महापर्व' के प्रकाशन के बारे में जानकर प्रसन्नता हुई है।

कुंभ का स्वरूप अत्यंत विराट् है। जितना दिव्य उतना ही भव्य। कुंभ मेले में आस्था और श्रद्धा का जन-सागर उमड़ता है। एक साथ एक जगह पर देश-विदेश के लाखों-करोड़ों लोग जुड़ते हैं। कुंभ की परंपरा हमारी महान् सांस्कृतिक विरासत से पुष्पित और पल्लवित हुई है। इसके वैश्विक महत्त्व का अंदाजा इसी से लग जाता है कि यूनेस्को ने कुंभ मेले को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के रूप में चिह्नित किया है। कुंभ की दिव्यता से भारत की भव्यता पूरी दुनिया में अपना रंग बिखेरेगी।

इस सुअवसर पर महापर्व कुंभ से जुड़ी विभिन्न मान्यताओं व जानकारियों को पुस्तक का रूप देकर आपने एक सराहनीय कार्य किया है। आशा करता हूँ कि आपकी पुस्तक को पाठकों का भरपूर स्नेह मिलेगा।

पुस्तक के प्रकाशन के लिए आपको तथा उन सभी को, जिनका सहयोग आपको मिला, मेरी बधाई व शुभकामनाएँ।

आपका,

(नरेंद्र मोदी)

श्री रमेश पोखरियाल ' निशंक '

सांसद

 

 

 

भूमिका

महाकुंभ संबंधित यह महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'विश्व धरोहर महाकुंभ' दुनिया के विलक्षण और सांस्कृतिक एवं धार्मिक पर्व को समर्पित एक विश्वव्यापी अद्भुत धरोहर है। इस पुस्तक में महाकुंभ से संबंधित सभी वेदों, पुराणों, इतिहास ग्रंथों और विद्वानों के लेखों से 'अर्क' रूप में महत्त्वपूर्ण सामग्री अन्वेषित की गई है। साथ ही उन्हें यथास्थान देकर उनका विस्तृत विवेचन भी प्रस्तुत किया गया है। कल्पना और यथार्थ में कितना अंतर होता है और इन दोनों के समन्वय से किस प्रकार साहित्य का ताना-बाना बुना जाता है; किस तरह लाक्षणिक शब्दों की क्रीडाभूमि में ज्ञान की चौसर बिछाई जाती है, इसकी सम्यक जानकारी भी आपको इस शोधपरक पुस्तक को पढ़ने से मिल सकेगी।

हमारे वेद, उपनिषद आदि की विश्वसनीय बातें भी सीधी-सपाट नहीं हैं। उन्हें 'रूपक' अलंकार से वर्णित किया गया है। वेद के शब्दों का अर्थ, निर्वचन आदि जैसे 'निघंटु' से होता है। वैसे भी लौकिक साहित्य की व्याख्या और उसका अर्थ 'प्रतीक एवं बिंबों' के बिना नहीं जाना जा सकता है, इसलिए हमारे पुराने लोग कहते थे- 'खग की भाषा खग ही जाने।' वेद और पुराणों के बहुश्रुत विद्वानों के साथ आज भी हम अपने पूर्वजों के ऋणी हैं, जिन्होंने अपने बनाए लोकोक्ति और मुहावरों का विशाल कोष हमारे लिए एक अमूल्य धरोहर के रूप में संरक्षित किया है। इस दृष्टि में हमारा वाचिक लोक साहित्य भी बहुत धनी है।

आदिकाल से ऋषि हमारे गुरु और नीति-निर्माता रहे हैं। उनका वैदिक ज्ञान-विज्ञान विश्व को आज भी चमत्कृत कर रहा है। कोई भी ज्ञान-विज्ञान का ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिस पर हमारे पूर्वजों ने चिंतन-मनन न किया हो। वेद पर ही 'सायण' से लेकर ऋषि दयानंद' तक अनेक भाष्य हैं। पाणिनी, पतंजलि, व्यास, भरद्वाज, कुमारिल और आद्य शंकराचार्य तक अनेक ऋषि हमारे मार्गदर्शक रहे हैं। कुंभपर्व हमारे इन ऋषियों की ज्ञानराशि के मंथन से निकला हुआ अमृत है।

यदि जीवन-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में हम कुंभ को समझें तो हम पाएँगे कि आज मंथनोपरांत निकलनेवाली हर वस्तु जीवन का सार देती है। यथा हमारा चिंतन विश्व को शांति के पथ पर चलने की शिक्षा दे सके; हम सबका भला सोच सकें; भगवान् शंकर की तरह विष स्वयं पिएँ और अमृत सबको बाँटें। धरती की संपदाओं पर प्रत्येक प्राणी का अधिकार है। कोई दुखी न हो, सब सुखी हों। ऐसी सोच और कार्य-संस्कृति हम विश्व में पनपा सकें, यही प्राचीन काल से चले आ रहे इन कुंभ-पर्वो की हमारे लिए शिक्षा है।

यों भी सामाजिक-आध्यात्मिक मंथन से अमृत ही निकलता है, जो समाज के लिए हितकारक होता है। आज आतंकवाद और वैमनस्यता भरे विश्व को सही दिशा देने का ठोस प्रयास आपसी विचार-विमर्श ही है, दूसरा कुछ नहीं।

अतः इस अर्थ में हमें एक और विश्व कुंभ (विश्व विचार मंच) की आवश्यकता सदा ही रहेगी। अन्यथा इस स्थिति में देवासुर संग्राम कभी समाप्त नहीं हो सकेगा और इसकी आग में जलकर समस्त विश्व धू-धू कर जल उठेगा। अतएव शांति का अमृत पान करना है तो विश्व के सभी राष्ट्राध्यक्षों, बुद्धिजीवियों और संघर्षरत मानव समाज को एक स्थान पर एकत्र होकर चिंतन करना ही पड़ेगा। प्राचीनकाल से चले आ रहे महाकुंभों के ये आयोजन हमें यही शिक्षा देते आ रहे हैं कि हम मिलकर एक साथ रहें, परस्पर सहयोग से कार्य करें, हम तेजस्वी हों और किसी से बैर न करें।

सहनाववतु सहनौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहे।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहे।

 

इसी विचार को आत्मसात् करके वर्ष 2010 में उत्तराखंड सरकार ने हरिद्वार में महाकुंभ का आयोजन किया। जिसका सफल संचालन एवं नियंत्रण 'प्रबंधन प्रवीण' तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंक' के हाथों में था। पूरा देश ही नहीं, दुनिया भर के लोग इस महाकुंभ में सम्मिलित हुए।'भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन' (इसरो) ने इस विशाल जन समूह की ऐतिहासिकता पर मोहर लगाकर इस बृहत् आयोजन की 'सुव्यवस्था' को भी सराहा और इसे विश्व का आज तक का एक 'सफल आयोजन' माना। पुस्तक में साहित्यिकता तथा इतिहास को कल्पना और यथार्थ के साँचे में ढालने का भी प्रयास किया गया है--हरिद्वार, प्रयाग, उज्जयिनी और नासिक की अमृत-संचिता भूमि में आयोजित होनेवाले, अर्धकुंभ एवं द्वादश वर्षीय 'महाकुंभ' विश्व के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं हैं। यह हमारी सांस्कृतिक उपलब्धि तथा पूर्वजों की एक बड़ी देन है।

कुंभ पर लिखी अनेक पुस्तकों, मत-मतांतरों और इतिहास-तत्त्वों की छान-बीन के उपरांत कुंभ के उस विशाल तरंगायित सागर से अपने मतलब की शंख-सीपी और मणियों को चुनकर इस पुस्तक का निर्माण किया गया है। यह पुस्तक एक वास्तु पुरुष है, ऐसा कुंभघट है, जिसमें सागरांबरा धरती समाई हुई है। अपने श्रमजल और श्रद्धा के आम्र-पल्लवों तथा सुविचारों के दधि-दुर्वांकुरों, मंगलद्रव्यों से इसे अभिमंत्रित करके संस्कृति के सर्वतोभद्र आसन पर विराजमान करने का यह लघु प्रयास है। आशा है, बिज्ञ पाठक और सुधी विद्वज्जन पुस्तक में त्रुटियाँ न देखकर इसके गुणों और सारगर्भित संकलन व शोधपरक सामग्री को सराहेंगे।

इस कुंभ के संचालन की जिम्मेदारी डॉ. निशंक पर थी। नवोदित उत्तराखंड अभी महज नौ वर्ष का था, संसाधन इतने सीमित कि एक स्थान पर लाखों लोगों की भीड़ को नियंत्रित करना आसमाँ से तारे तोड़ लाने के बराबर था। चुनौती निश्चित रूप से पहाड़ से भी ऊँची थी, किंतु डॉ. निशंक को भरोसा था माँ गंगा पर, उस परम शक्ति पर और स्वयं पर उन्होंने इस आयोजन के पूर्णरूप से सफल बनाया और सौभाग्य से हुआ भी यही। यह कुंभ अभी तक धरती पर हुए सांस्कृतिक-धार्मिक उत्सवों में विश्व इतिहास की पूँजी बन गया।

अतएव सर्वदा सदाशयता को ग्रहण करनेवाली और 'असत्' का त्याग, सत् को अपनाने वाली, अपनी सार्वभौम संस्कृति के महत् आदेश को शिरोधार्य करते हुए धर्मप्राण सुधी पाठकों एवं माँ गंगा के आराधकों के कर-कमलों में सादर समर्पित की जा रही है।

-डॉ. नागेंद्र ध्यानी 'अरुण'

 

 

अपनी बात

हम सौभाग्यशाली हैं कि जीवनदायिनी माँ गंगा का अवतरण देवभूमि उत्तराखंड (हिमालय) में हुआ। माँ गंगा के स्पर्श से एक-एक कण पवित्र हो जाता है। इसी कारण गंगा के तट पर आदिकाल से ही कई गाँव और शहर बसे। माँ गंगा के साथ जिस भी नदी का मिलन हुआ, वह स्थान तीर्थ बन गया। पूर्वाभिमुखी माँ गंगा जहाँ उत्तरवाहिनी होती है, वह स्थान सर्वाधिक पुण्यदायी हो जाता है। अत: पतित पावनी माँ गंगा के किनारे बसे गाँव और शहर तीर्थ कहलाने लगे, विशेष पर्व, त्योहारों, उत्सवों और महत्त्वपूर्ण तिथियों पर स्नान करने की परंपरा ने इन तीर्थों का महत्त्व और भी बढ़ा दिया। भारतीय संस्कृति में तीर्थों पर स्नान का सर्वाधिक महत्त्व कहा गया है। इन्हीं में से एक विश्वविख्यात स्नान महापर्व कुंभ भी है। यह महापर्व भारतीय सभी पर्यों में सर्वाधिक पुरातन व जीवनदायी है। समग्र विश्व को उद्वेलित एवं आश्चर्यचकित करनेवाला यह महापर्व 'कुंभ' भारत की ही नहीं, अपितु विश्व की धरोहर है। 'कुंभ' महापर्व का भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान है, 'कुंभ' अर्थात् 'घट', एक ऐसा घट, जिसमें विविध संस्कृतियों, सभ्यताओं और धर्मों का सम्मिश्रण अमृत रूप में विद्यमान है। एक ऐसा समागम, जहाँ अलग-अलग वैचारिक अनुयायियों ने एकमत होकर मात्र विश्वकल्याण के निहितार्थ विचार-विमर्श व विनिमय के साथ-साथ अपेक्षित जप, तप, पूजन और अर्चन कर भारतीय सनातन संस्कृति के मूल मंत्र 'वसुधैव कुटुंबकम्' से संपूर्ण विश्व को अभिप्रेरित किया। भारतीय संस्कृति ने वसुधैव कुटुंबकम् के उद्घोष के साथ अपने विश्वरूपी परिवार के सुखी और स्वस्थ रहने की भी कामना की है

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्॥

हम उस संस्कृति के वंशज हैं, जो 'मैं अकेला' न कहकर 'हम सब' की भावना से ओत-प्रोत है। प्रांत, क्षेत्र, धर्म, कर्म, रंग-रूप, वेश-भूषा, वाणी-भाषा से भले ही भारत विविध रंगों मं रँगा हो, लेकिन अनेकता में एकता ही हमारी विशेषता है और आत्मा सभी की एक ही है, जिसका मूल विश्वकल्याण है, सौहार्द है, प्रेम है और भाईचारा है। अलग-अलग रूप में हम केवल और केवल उस अदृश्य परमशक्ति के उपासक हैं, जो इस सृष्टि को निरंतर और सुव्यवस्थित रूप से संचालित कर रही है। उसी के प्रेम के वशीभूत हम अपनी सनातन संस्कृति के प्रति श्रद्धावनत हैं। सामान्यतः अपने-अपने क्षेत्रों में, एक दैनिक कार्य की भाँति धर्मगुरु अपने-अपने ढंग से भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार करते हैं। ग्रह, नक्षत्र और राशियों के आधार पर 12 वर्ष पश्चात् जब दुर्लभ संयोग बनता है, तब गंगा के स्पर्श एवं दर्शन मात्र से ही मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति तथा उसकी सभी गतागत पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है, इसी कामना के वशीभूत होकर, ऐसे समय में पूरा विश्व हरिद्वार के सदृश सभी कुंभ-स्थलों के प्रति गतिमान हो जाता है।

कुंभ के संदर्भ में जो ऐतिहासिक तथ्य हमारे समक्ष हैं, उनमें यह सर्वमान्य है कि देवासुर संग्राम में अमृत प्राप्ति हेतु समुद्र-मंथन जैसी ऐतिहासिक और अद्वितीय घटना घटित हुई। इसी मंथन में विष निकला तो अमृत भी; अमृत कलश को पाने के लिए छीना-झपटी शुरू हुई तो इंद्रपुत्र जयंत अमृत-कलश लेकर भागा और इसी भागदौड़ में जिन-जिन स्थानों पर अमृत की बूंदें छलकीं, उन-उन स्थानों पर कुंभ पर्व आयोजित होते हैं। चिरकाल से चली आ रही इस परंपरा का निर्वाह निर्बाध रूप से आज भी हो रहा है। देवताओं ने 'अमृत पान' कर अमरत्व प्राप्त किया। देवार्चन के साथ ही मानव अमृतपान और अमरत्व की कामना हेतु महापर्व कुंभ पर स्नान करने के लिए लालयित रहता है।

समस्त विश्व समाज में विष और अमृत गहन रूप में व्याप्त है, तब तो भगवान् शंकर ने विष धारण कर इस सृष्टि को नष्ट होने से बचा लिया था और आज समाज में फैली बुराइयों, पापकर्म, दुराचार, आपसी वैमनस्य, आतंकवाद जैसे विष को नष्ट करने के लिए महाकुंभ के रूप में भगवान् शिव स्वयं प्रकट हुए हैं। धर्म, संस्कृति, सदाचार, उच्च विचार सौहार्द रूपी अमृत और अध्यात्म की उस ईश्वरीय शक्ति को भाईचारे के साथ संपूर्ण मानव जाति को पहुँचने का पर्व 'महाकुंभ' है।

वर्ष 2010 में उत्तराखंड का मुख्यमंत्री रहते हुए मुझे सदी के पहले महाकुंभ को हरिद्वार में आयोजित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस महापर्व पर विश्व के एक सौ से अधिक देशों के लोगों ने पवित्र गंगा माँ का स्पर्श करके अमृतपान का पुण्य अर्जित किया। इससे यह सिद्ध हो गया कि कुंभ न केवल हिंदुस्तान की धरोहर है, अपितु संपूर्ण विश्व की धरोहर है, इसीलिए तब मेरे द्वारा महाकुंभ को विश्व धरोहर घोषित किए जाने की माँग की गई थी, यह हम सभी भारतवासियों के लिए परम हर्ष का विषय है कि देश और दुनिया के प्राणिमात्र के जीवन के लिए प्रेरणाप्रद इस पर्व को आठ वर्षों बाद यूनेस्को द्वारा 'अमूर्त विश्व धरोहर' घोषित कर दिया गया।

हरिद्वार महाकुंभ के सफलतापूर्वक संपन्न हो जाने के पश्चात् मेरे मन में कंभ पर एक पुस्तक लिखने का विचार आया। अनेक विद्वज्जनों के आलेखों. संदर्भो, इतिहास एवं पौराणिक कथाओं तथा ग्रंथों के आधार पर इस महासमुद्र से कुछ मोती चुनकर इस पुस्तक के रूप में आपको सौंप रहा हूँ। इस पुस्तक को अधिक और सटीक जानकारियों से सुसज्जित करने के लिए मैं डॉ. विष्णुदत्त राकेशजी एवं प्रो. देवीप्रसाद त्रिपाठीजी को धन्यवाद देता हूँ, जिनके सत्प्रयासों ने इस पुस्तक के महत्त्व को अधिक बढ़ा दिया।

-डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंक'

 

अनुक्रम

भूमिका

अपनी बात

1. कुंभ : अनमोल मानवीय विरासत

2. माँ गंगा की अनुपम देन 'कुंभ'

3. गंगा की व्युत्पत्ति और महत्ता

4. इसलिए पड़ा 'कुंभ' नाम

5. मानवता का कालजयी उपक्रम

6. आस्था एवं राष्ट्र-चिंतन का दुर्लभ समागम

7. पाठशाला ही नहीं, कार्यशाला भी है

8. सदियों पुरानी सांस्कृतिक महायात्रा

9. अंत:स्नान का भी महापर्व

10. लोक-परलोक को जोड़ता 'कुंभ'

11. सार्थक जीवन जीने की कला

12. हरिद्वार बिना 'कुंभ' अधूरा

13. कुंभनगरी है हरिद्वार

14. इसलिए मनाया जाने लगा अर्धकुंभ

15. चार प्रमुख कुंभ स्थल

16. विविध स्थानों पर कुंभ

17. पुराणों से जुड़े हैं 'कुंभ' के सूत्र

18. स्वर्णाक्षरों में दर्ज कुंभ 2010

19. महाशिवरात्रि स्नान बना इतिहास

20. निर्मल अविरल गंगा अगला पड़ाव

21. अद्भुत है 'कुंभ' आयोजन परंपरा

22. अखाड़ों के लिए प्रस्थान से होता है 'कुंभ' का आगाज

23. अखाड़ों के बिना कुंभ' अधूरे

24. कुल तेरह अखाड़े हैं देश भर में

25. धर्मरक्षा का स्वर्णिम इतिहास

26. हरिद्वार पहली कुंभ नगरी

27. तीनों शक्तियों का गढ़ हरिद्वार

28. पौराणिक काल की है कुंभनगरी

29. हरिद्वार में सिंधु सभ्यता के भी प्रमाण

30. कुंभ की व्यापकता

31. बड़ा व्यापक है कुंभ नाम

32. कुंभ एक विराट् लोक-दर्शन

33. मनीषियों की नजर में कुंभ

34. 'समुद्र-मंथन' को मान्यता

35. लोककथाओं में कुंभ

36. 'कुंभ स्नान' का विशेष महत्त्व

37. विज्ञान संगत है 'कुंभ'

38. आज और भी प्रासंगिक है 'कुंभ'

39. सागर मंथन : एक बड़ी सीख

40. पर्व-महोत्सव हमारी धरोहर

41. आकाश ही ब्रह्मा का कमंडलु है

 

 

कुंभ : अनमोल मानवीय विरासत

'कुंभ' को हम आस्था के उस महापर्व के रूप में जानते हैं, जिसमें देश-दुनिया के कोने-कोने से करोड़ों जन माँ गंगा के प्रति श्रद्धा के वशीभूत हो गंगा किनारे सदियों से अनवरत जुटते रहे हैं और स्नान-ध्यान कर पुण्य प्राप्त करते रहे हैं। मानव-मिलन की यह चमत्कृत कर देनेवाली स्वतःस्फूर्त परंपरा दुनिया में अनूठी है। इतनी अनूठी और अनुपम कि आम श्रद्धालुओं के साथ-साथ जंगलों व कंदराओं में साधनारत् साधु-संन्यासी भी श्रद्धावनत होकर इस महापर्व में माँ गंगा के शरणागत होते हैं। संत-गृहस्थ, धनी-निर्धन, राजा-रंक का यह समागम दुर्लभ है।

वैदिक काल से चला आ रहा यह सिलसिला

कुंभ यानी दुनिया में सदियों से चली आ रही परंपराओं और संस्कृतियों का महासंगम है। इसका उल्लेख हमें मानव संस्कृति की विकास यात्रा के उषाकाल से ही मिलना शुरू हो जाता है। समझा जाता है कि हमारे तत्त्वज्ञदृष्टा ऋषि मुनियों ने विखंडित और बिखरे समाज को एकता के सूत्र में बाँधने के लिए यह तरकीब निकाली। विद्वानों का मानना है कि यह काल ऋग्वेद का रहा होगा। विद्वज्जनों ने सामाजिक जीवन को उन्नत बनाने और आपसी प्रेम व भावनात्मक एकता जगाने के लिए इस महापर्व की आधारशिला रखी। धीरे-धीरे इस पर्व को विभिन्न तीर्थों से जोड़ा गया, ताकि अधिक-से-अधिक लोग न सिर्फ धार्मिक, आध्यात्मिक शांति पा सकें बल्कि भावनात्मक रूप से भी जुड़ सकें।

जन - जन को जोड़ने की जादुई जुगत

'समग्र भारत' की झलक देता दुनिया का यह विराटतम मेला सिर्फ एक धार्मिक मेला भर नहीं है, बल्कि जन-जन को जोड़ने और जगाने की अनूठी जुगत भी है। विभिन्न रंग-रूप, रहन-सहन, खान-पान, ऊँच-नीच यहाँ आकर सिर्फ भक्ति के रंग में रंगकर एकरूप हो जाते हैं। मानव का सिर्फ एक सरल, शील, सदाचारी श्रद्धालु रूप नजर आता है। अकल्पनीय एकात्मता की यह झलक चमत्कारी है। यहाँ सब 'स्व' भूलकर 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की अपनी सनातन संस्कृति के साक्षात् दर्शन करते हैं।

इस तरह 'कुंभ' पर्व हमारे समूचे राष्ट्र को तो एकसूत्र में बाँधता ही है, साथ ही सदियों से यह पर्व शांति, समता और सहिष्णुता का संदेश देता आया है। इसलिए यूनेस्को ने भी इसे आज मानवता की अनमोल सांस्कृतिक विरासत करार दिया है।

करोड़ों खर्च कर भी न जुट पाए इतनी भीड़

मानव को मानवीय बनाने की ओर ले जाता यह महापर्व दुनिया का अकेला अद्वितीय उदाहरण है। वास्तव में अगर इतना बड़ा मेला आयोजित करना पड़े और इतने लोग एकत्र करने हों तो करोड़ों रुपए खर्च हो जाएंगे, फिर भी इतनी और ऐसी उत्साही भीड नहीं जुट पाएगी। यह हमारे पुरखे ऋषियों का चमत्कार है। हमारी सनातन संस्कृति इसी से अक्षुण्ण है। सदियों से यह आस्था, यह उत्साह बने रहना वाकई चामत्कारिक है।

हरिद्वार से है ' कुंभ ' का जन्म का नाता

तमाम ऐतिहासिक व पुरातात्त्विक दस्तावेज बताते हैं कि हमारी संस्कृति और सभ्यता यहीं गंगा-सरस्वती के मैदानों में पल्लवित-पुष्पित हुई। कालांतर में इसका विस्तार सिंधु घाटी तक हो गया। अब तो तमाम तथ्यों से यह भी प्रमाणित हो चुका है कि यह भू-भाग ही वह मूल क्षेत्र है, जहाँ से सभ्यता संस्कृति का प्रसार शेष भारत समेत एशिया व यूरोप में हुआ। यही सभ्यता बाद में उत्तर-वैदिक और फिर सरस्वती-सिंधु सभ्यता कहलाई। हरिद्वार तत्कालीन गंगाद्वार का इससे अभिन्न संबंध रहा है। विद्वान् कुंभ पर्व जैसे महापर्व की शुरुआत यहीं से मानते हैं। पौराणिक ग्रंथों में यहाँ तमाम धार्मिक, आध्यात्मिक आयोजन का भी उल्लेख मिलता है।

कुल मिलाकर एक आदर्श समाज और देश को एकता के सूत्र में बाँधने का यह अनुपम और अभिनव कालजयी अभियान रहा। साथ ही लोगों को मर्यादित और मानवीय बनाने की कुदरती कार्यशाला भी।

यह ऐसा महायज्ञ है, जिसका माहौल ही लोगों को सात्त्विक, सदाचारी बना देता है और फिर इस महापर्व के दौरान आयोजित धार्मिक सत्रों में यह सीख भी दी जाती है कि तीर्थ में पहुंचे लोग संयम से रहना सीखें, जमीन में शयन करें, पत्तल में भोजन करें, ताकि हाथ-पाँव, मन-बुद्धि सब संयत रहें। ज्ञान दिया जाता है कि इन मानवीय मूल्यों को जीवन में उतारनेवालों को ही तीर्थ का पुण्य फल मिलता है।


 

माँ गंगा की अनुपम देन ' कुंभ '

प्राचीनकाल में गंगा घाटी में ऐसी अनुकूल परिस्थितयाँ थीं और ऐसा वातावरण बन गया था, जिसमें दर्शन और मनोविज्ञान का विकास संभव था। वैदिक काल में इसी माँ गंगा के सान्निध्य में वेद अवतरित हुए तो उत्तर-वैदिक काल में संहिताओं, ब्राह्मण गंथों, उपनिषदों और सूत्रों की उत्पत्ति हुई। जिन लोगों में जोखिम से जूझने की भावना थी, वे यमुना तथा गंगा के दोआब के क्षेत्रों में बस गए थे। ये स्थान उस समय कौशल, विदेह, मगध और अंग के नाम से जाने जाते थे।

ये जीवंत और आत्मविश्वास से भरे हुए लोग, जिनकी सभ्यता पूरी थी, जब कम उन्नत संस्कृतिवाले लोगों के संपर्क में आए तो एक नई धार्मिक मानसिकता का प्रार्दुभाव हुआ।

गंगा घाटी में दो से अधिक तत्त्वों या सांस्कृतिक धाराओं के सम्मिलन से जिस भारतीय मानसिकता ने जन्म लिया, उसमें एक ओर तो भौतिकवाद था, जिसमें सुख-दुख का द्वैत था और दूसरी ओर 'मानव के आध्यात्मिक स्वभाव की गंभीरता और उसकी शाश्वतता थी; इन लोगों ने शाश्वत सिद्धांतों तक पहुँचने के लिए कई पंथों की खोज की। परिवेश के प्रभाव से चिंतन में किस प्रकार परिवर्तन आता है, कैसे उसका विकास होता है, उसे देखते हुए यह स्वाभाविक और तर्कसंगत ही था कि ऋग्वेद की जीवंतता, यजुर्वेद के कर्मकांड और सामवेद की प्रार्थनाओं का अंत अंततोगत्वा वेदांत में जाकर हुआ।

आश्चर्य की बात तो यह है कि विजयी जातियों की आक्रामकता और हिंसक प्रवृत्तियाँ भी यहाँ आकर समाप्त हो गईं। यहीं गंगा द्वार में कुंभ महापर्व का प्रस्फुटन हुआ। इस तरह कुंभ गंगा के साथ आदिकाल से चला आ रहा है।

बाल्मीकि रामायण में गंगा और हरिद्वार तीर्थ

रामायण के अयोध्या कांड में गंगा का अवतरण किस प्रकार हुआ और वह कैसे त्रिपथगा बनी। इसका अत्यंत सुंदर वर्णन है, जिसमें बताया गया है कि गंगा अपने जल के साथ किस-किस प्रकार के जीव-जंतु और वनस्पतियाँ अपने साथ पृथ्वी पर लाईं।

वाल्मीकि रामायण में राम ऋषि विश्वामित्र से कहते हैं-"हे ब्रह्मर्षि, इस नदी का जल इतना शुभ है कि नीचे की रेत भी दिखाई दे रही है। यह गहरी भी नहीं है और संभवतः इसे पार करने के लिए नाव की भी आवश्यकता नहीं है।"

दोपहर तक चलते-चलते ऋषियों ने पवित्र नदी जाह्नवी के दर्शन प्राप्त किए, जिसकी पूजा मुनि लोग करते हैं।

( बालकांड 35.6)

नदी में हंस और कई जलपक्षी थे। ऋषि लोग इस बात पर प्रसन्न थे कि वे उन विश्वामित्र के साथ हैं, जो राम और लक्ष्मण को अपने साथ ले जा रहे हैं।

( बालकांड 35.7)

उन सभी ने नदी तट पर विश्राम किया। उसके बाद स्नान करके अपने पूर्वजों और देवताओं को तर्पण दिया।

( बालकांड 35.8)

फिर जाह्नवी के तट पर कर्मकांड सहित अग्निहोत्र किया।

( बालकांड 35.9)

बाल्मीकि रामायण में राम के प्रश्न का उत्तर देते हुए विश्वामित्र ने गंगा के त्रिपथगा स्वरूप का वर्णन किया है।

इस तरह बाल्मीकि रामायण की गंगावतरण की कथा को महाभारत के बाद पुराण और भारतीय साहित्य में आदर के साथ लिखा गया। आज भी गंगा के माहात्म्य पर हजारों पुस्तकें उपलब्ध हैं। इसका कारण भारतीय जनमानस में गंगाजी के प्रति प्रेम और श्रद्धा भावना की प्रमुखता रही है। उसे माँ का दर्जा दिया गया है, सैकड़ों मंदिरों और मूर्तियों की स्थापना हुई है। गंगा के बिना भारतीय संस्कृति को परिभाषित ही नहीं किया जा सकता है। यह निर्विवाद सत्य है कि कृषि प्रधान देश भारत के लिए गंगाजी वरदान हैं।

'गंगावतरण' की कथा को यदि हम यथार्थ के धरातल पर लाकर देखें और गंगाजी के प्रवाह-पथ का भौगोलिक सर्वेक्षण करें, तो हम देखते हैं कि गंगाजी की धाराएँ, चाहे वह भागीरथी हो या अलकनंदा, दोनों दो पर्वतों के बीच में से आई हैं। जैसे कूल में पानी अपनी निश्चित दिशा और गति में बहता है, उसी प्रकार गंगाजी भी इन दो पहाड़ों के अंदर प्रवाहित होती हैं।

राजा भगीरथी के समय के भू-वैज्ञानिक एवं जलप्रबंधन विभाग के लोगों की इस तकनीक पर क्या आपको आश्चर्य नहीं हो रहा है? गंगाजल से सगर के साठ हजार पुत्र, जो संभवतः उसकी कृषक प्रजा थी, का सहसा उद्धार हो गया था और गंगाजी को स्वर्ग अर्थात् (हिमालय क्षेत्र) से धरती (मैदानी क्षेत्र) में लाने में सफल होने के कारण राजा भगीरथी अमर हो गए

और गंगाजी भी भागीरथी कहलाने लगीं। गंगा की यह धारा गंगोत्तरी गौमुख से निकलकर देवप्रयाग में अपनी दूसरी धारा अलकनंदा से मिल जाती है। पुराणों में लिखा है-गंगा की तीसरी धारा 'भोगवती' नाम से पाताल में अर्थात् नागलोक में बहती है। गंगा को 'नाग निलया' भी कहा गया है। 'भोगी' शब्द भी 'फन' को धारण करनेवाले नाग का पर्यायवाची है। हरिद्वार की गंगा भोगपुर क्षेत्र, जिससे होकर गंगा नहर निकल रही है। क्या पता वहाँ के विद्वानों को भी गंगाजी के भोगवती नाम के कारण अपने इलाके का नाम गंगा भोगपुर रखने की युक्ति सूझी हो? हमारे विचार से तो वह नागलोक, जिसका पुराणों में वर्णन है, उत्तराखंड का नागपुर परगना है, जिससे होकर गंगा की कई सहायक धाराएँ बहती हुईं अलकनंदा में मिलती हैं।

इसी नागपुर क्षेत्र में एक नदी पिंडर नाम की है। पिंडारक नाग के लिए कहा जाता है। महाभारत में उल्लेख मिलता है कि कर्ण ने पिंडारकों (नागों) का दमन करके वह भूमि अपने अधिकार में ली थी। पिंडर और अलकनंदा के संगम पर बसा 'कर्णप्रयाग' इस ओर विद्वानों का ध्यान अवश्य आकृष्ट करेगा। देवप्रयाग के बाद अलकनंदा और भागीरथी मिलकर गंगा कहलाती हैं।

कुंभ परंपरा एवं प्रतीक

अथर्ववेद की एक ऋचा में कुंभ शब्द का प्रयोग करते हुए कहा गया है कि काल (समय) के ऊपर भरा हुआ कुंभ रखा है। काल में ज्ञान समाहित है और इसी से वेदों की उत्पत्ति हुई है। इससे स्पष्ट है कि 'कुंभ' ज्ञान का प्रतीक है। ज्ञान ही अमृत है। इसी अमृत की प्राप्ति कुंभ पर्व का उद्देश्य है।

 

 

गंगा की व्युपत्ति और महत्ता

'गंगा' संभवतः आस्ट्रिक भाषा का शब्द है। इसी से मिलता-जुलता 'आधुनिक बंगाली भाषा के 'गंग' शब्द का अर्थ है नदी या गूल। बर्मा, हिंद, चीन और दक्षिणी चीन में भी मूल आस्ट्रिक भाषा अभी तक मिलती है। भारत में गंग शब्द का पर्याय हिंद-चीन में खंग हो जाता है। जैसे कि माँ-खंग और दक्षिणी चीन में क्यांग, खंग, धंग आदि लगभग एक दर्जन शब्द नदियों के नामांत में जुड़े हैं। ऐसा लगता है कि यह सभी शब्द 'गंग' शब्द से ही उत्पन्न हुए हैं।

भारतीय संस्कृति में नदियों का एक विशेष महत्त्व है। नदियों को माता अथवा देवी के रूप में पूजा जाता है। ऐसी मान्यता है कि नदियों में स्नान करने अथवा डुबकी लगाने से पापों का नाश होता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो नदियों के जल में अनेक जड़ी बूटियों का रस, गंधक, अभ्रक इत्यादि अनेकानेक रासायनिक तत्त्व घुले होते हैं। इनमें शरीर को स्वस्थ रखने के साथ-साथ बीमारियों से लड़ने की क्षमता भी प्राप्त होती है। इसलिए नदियों को पवित्र कहा जाता है। गंगा भारत की प्राचीन एवं पवित्र नदियों में से एक है।

गंगा मात्र एक नदी नहीं हैं, वह एक आस्था है, धर्म है। गंगा जीवनदायिनी है, मंगलकारिणी है। यही कारण है कि हमने उसे देवनदी का स्वरूप व उसके जल को चरणामृत के रूप में ग्रहण किया है। इसी सत्य को अपने शब्दों में अभिव्यक्त करते हुए रामभक्त गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं ---

गंग सकल मुद मंगल मूला।

सब सुख करनि हरनि सब सूला।

वेदों से लेकर अद्योपरांत वाङ्मय का शायद कोई ऐसा गौरव गंथ होगा. जिसमें गंगा की महिमा का वर्णन न हो। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-- स्थावराणां हिमालयः "स्थावरों में मैं हिमालय हूँ।" उसी प्रकार पतितपावनी गंगा के लिए भी कहा है-- स्रोतसामस्ति जाह्नवी " नदियों में मैं गंगा हूँ।" ऋग्वेद के नदी सूक्त से लेकर आधुनिक काल तक विभिन्न ग्रंथों में 'गंगा' का नाना रूपों से स्मरण व पूजन किया गया है। पंडितराज जगन्नाथ की 'गंगालहरी', कालिदास के 'कुमारसंभवम्' और आदिगुरु शंकराचार्य के 'गंगाष्टक' में गंगा के विविध स्वरूपों का जितना उत्कृष्ट स्तवन व वर्णन हुआ है, ऐसा शायद ही अन्य किसी ग्रंथ में हुआ होगा। आदि शंकराचार्य लिखते हैं--

विधिर्विष्णु शम्भुस्त्वमसि पुरुषत्वेन सकला : ,

रमोमागीसख्या त्वमसिललना जनुतनये।

निराकारागाधा भगवति ! सदा त्वं विहरसि ,

क्षितो नीराकारा हरसि जनतापान्स्वकृपया॥

अर्थात् 'हे गंगे! पुरुष रूप में तुम ब्रह्मा, विष्णु और महेश हो। स्त्री रूप में रमा, उमा और सरस्वती हो। हे परम ऐश्वर्यशालिनी गंगे! तुम निराकर ब्रह्ममयी हो, तो साथ ही अपार महिमावाली भी हो।

"हे भगवती गंगा ! तुम इस पृथ्वी पर जल का रूप धारण कर सांसारिक प्राणियों का दुख अपनी अनुकंपा से दूर करती रहती हो।"

आयुर्वेद में गंगा जल को हर प्रकार से उपयोगी बताया गया है। चरक संहिता में पर्वतराज हिमालय के हिम पिघलने से जन्मी गंगा के जल को शक्ति और आरोग्यवर्धक बताया गया है, 'हिम्वप्रभवाः पथ्या'। आचार्य वाग्भट्ट के अनुसार, 'हिमालय से निकलनेवाली नदियों का जल पत्थरों विभिन्न प्रकार के लवणयुक्त चट्टानों से टकराकर औषधिगुण युक्त हो जाता है।'

सन् 1060 में हुए आयुर्वेदाचार्य चक्रमणि दत्त के अनुसार, तीव्र प्रवाही नदियों का जल स्वास्थ्यकर और मंद प्रवाही नदियों का जल अस्वाथ्यकारी होता है। इस नाते देखें तो गंगा का अत्यंत तीव्र प्रवाह हरिद्वार तक रहता है, जो औषधिस्वरूप है। इलाहाबाद, वाराणसी तक आते-आते प्रदूषण के कारण यह जल अपने बहुत से गुण खो देता है।

जगद्गुरु शंकराचार्य ने ही नहीं अपितु रामानुज, बल्लभाचार्य, रामानंद, चैतन्य महाप्रभु, स्वामी रामतीर्थ, स्वामी प्रणवानंद आदि अनेक संत-महात्माओं ने गंगा की महिमा का गुणगान किया है। इसी प्रकार सभी महान् साहित्कारों व काव्यकारों ने गंगा माता के गुणगान से अपनी रचनाओं का गौरव बढ़ाया है।

नगाधिराज देवात्मा हिमालय का अपना विशिष्ट स्थान है। वह भारतीय संस्कृति एवं जनजीवन में होनेवाले निरंतर परिवर्तन का साक्षी है। गंगा इसी हिमालय के मध्य भाग (गढ़वाल) के सतोपंथ हिमानी से निस्सृत होती है। गंगा को दो धाराएँ, विपरीत दिशाओं में अलकनंदा तथा भागीरथी के नाम से बहती हुई देवप्रयाग नामक स्थान पर एक-दूसरी में मिल जाती हैं। यहीं से वह गंगा के नाम से जानी जाती है।

कई वर्षों तक खराब नहीं होता गंगाजल

'हठयोगी' अमृत कुंभ और जयंत की कथा को हठयोग साधना का प्रतीक मानते हैं। वे इस शरीर में ही समस्त तीर्थों का निवास मानते हैं। 'कुंभ का अर्थ इनकी भाषा में ब्रह्मरंध्र स्थित सहस्त्रार चक्र है, जो अमृत से परिपूर्ण है। अतः योग द्वारा इसका अमृत पान कराना ही कुंभ पर्व का महास्नान है।'

समाज के दृष्टिकोण से मकर संक्रांति से लेकर माघ मास की पूर्णिमा तक चलनेवाले कुंभ पर्व में गंगा स्नान, दान, पूजा-पाठ करने का विशिष्ट महत्त्व है। जिससे पाप नष्ट हो जाते हैं और स्वर्ग की प्राप्ति होती हैं। अरोग्यशात्र के अनसार, 'गंगा' के जल में हिमालय क्षेत्र की ब्राह्मी, रत्नज्योति आदि जड़ी बटियाँ तथा शिलाजीत आदि खनिज, उसके जल-स्रोत्रों के जल में घुलकर मिलते रहते हैं। जिससे इसका जल पवित्र, सर्वरोग नाशक, मीठा, पाचक, रुचिकर, पथ्यकारक, त्रदोष नाशक, आयुबर्द्धक और गुणयुक्त बना रहता है।

मैंने स्वयं गंगोत्री से एक किमी. नीचे सोडावाटर जैसे स्वाद वाली जलधारा को भागीरथी में मिलते देखा है। ऐसी अनेक औषधीय गुण वाली नदियाँ गंगा में मिलती है। यही कारण है कि गंगाजल कई वर्षों तक रखा रहने पर भी खराब नहीं होता है जबकि अन्य नदियों के जल दूषित हो जाते हैं।


 

इसलिए पड़ा ' कुंभ ' नाम

'कुंभ' नाम को सार्थक करता 'कुंभ' महापर्व का इससे बेहतर और कोई प्रतीक नाम नहीं हो सकता। भारतीय जीवन में 'कुंभ', यानी कलश का विशेष महत्त्व रहा है। यह पवित्रता और परोपकार का प्रेरणादायी और पुण्यदायी प्रतीक है। इसलिए हमारी कला और संस्कृति का भी शिखर प्रतीक होने के साथ-साथ यह व्यष्टि और समष्टि का भी परम प्रतीक है। 'कुंभ' यानी कलश को देव-अर्चना में स्थापित करने की परंपरा सदियों पुरानी है। पंच पल्लव, पंचगव्य, नारियल आदि जड़ित कलश के बगैर हमारे मांगलिक कार्यों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कलश शुभकारी, कल्याणकारी कामना का प्रतीक है।

भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म में किसी भी शुभ कार्य को प्रारंभ करने से पर्व कलश स्थापना की परंपरा है। स्थापना के पश्चात कलश की पजा अर्चना की जाती है, कोई भी धार्मिक कार्य कलश पूजा की बिना संभव नहीं होता। गणेशजी की स्तुति और दीप प्रज्वलित करके पूजा को विधिपूर्ण संपन्न किया जाता है। माना जाता है कि कलश में सभी देवताओं का वास होता है।

कलशस्य मुखे विष्णु कण्ठे रुद्र समाश्रितः।

मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः॥

कुक्षौ तु सागराः सर्वे सह्यदीपा वसुन्धरा।

ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवेदो ह्यथर्वणः॥

अङ्गश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिताः॥

अर्थात् कलश के मुख वष्णु, कंठ में रुद्र, मूल में ब्रह्मा, मध्य में मातृगण, कोख में समस्त सागर, पृथ्वी एवं सभी वेद अंगों सहित निवास करते हैं।

कुल मिलाकर भारतीय दर्शन में 'कुंभ' सृजन व मंगल का प्रतीक है। इसलिए कोई भी मांगलिक कार्य इसके बगैर अधूरा है। मूलत: 'कुंभ' 'घट' का पर्याय है और घट 'शरीर' का। इसी घट में 'घट-घट व्यापी' आत्मा का अमृतरस व्याप्त रहता है। 'कुंभ', कलश व घड़ा पर्यायवाची शब्द हैं। 'कुंभ' 'माटी' का यानी 'नश्वर' होता है और अपना उद्देश्य पूरा कर खंडित हो जाता है। यानी फिर माटी में ही मिल जाता है। यही मानव काया के साथ भी होता है। अत: इस कायनात, यानी सृष्टि के साथ-साथ मानव काया का भी प्रतीक है 'कुंभ'।

जहाँ तक कुंभ पर्व की बात है, यह महापर्व मानव काया को सार्थकता प्रदान करने का न सिर्फ संदेश और प्रेरणा देता है, बल्कि सेवा, परोपकार, संतोष आदि संस्कारी भावों को आत्मसात् करवाकर कार्यान्वित भी कराता है। 'कुंभ' इन्हीं सात्त्विक वृत्तियों का पावन प्रतीक है। इसीलिए हमारे मनीषियों ने इस महापर्व का भी यह 'कुंभ' नाम दे दिया।

शब्दकोश में कुंभ के अनेक अर्थ है। कुंभ अर्थात् कलश, मिट्टी का घड़ा, हाथी के सिर का दोनों ओर उभरा भाग, ज्योतिष विद्या में इसका अर्थ एक राशि विशेष है।

पुराणों, शास्त्रों एवं वैदिक मत्रों में भी अनेक स्थानों पर कुंभ की चर्चा

चतुरः कुम्भाश्चतुर्धा ददामि

अथर्ववेद 4/37/7

वेद में कुंभ के विषय में वर्णन है

कुं पृथ्वी भावयन्ति सङ्केतयन्ति भविष्यत्कल्याणादि

आस्था एवं विश्वास के देश भारत में जनमन में कुंभ अर्थात् कलश का एक विशिष्ट महत्त्व है। सजा-धजा कुंभ हमारी कला और संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है, वहीं दूसरी ओर कुंभ संपूर्ण सृष्टि एवं पूर्ण व्यक्तित्व का प्रतीक भी माना जाता है। कलश को ब्रह्मा, विष्णु और महेश का साक्षात् रूप भी माना गया है।

कुंभ की पूजा करने का विधान सनातन धर्म के आस्थावान भारतीयों में सर्वत्र पाया जाता है। पुराणों में कलश को अमृत घट कहा गया है, इसका निर्माण सागर मंथन के पश्चात् निकले अमृत (पीयूष) को रखने के लिए किया गया था।

पीयूषधारणार्थाय निर्मितो विश्वकर्मणा


 

मानवता का कालजयी उपक्रम

कुंभपर्व हमारे चिंतक एवं मनीषी वर्ग के ऋषि-मुनियों की अनूठी देन है। उनकी सोच कितनी उदार, उद्भट और उन्नत रही होगी, यह कुंभ जैसे महापर्व से स्पष्ट हो जाता है। सामाजिक समरसता, समृद्धि और संस्कार इस महापर्व का मूल मकसद है। इसी मूल भावना से इस महापर्व की परिकल्पना की गई। यह उस दौर की बात है, जब हमारे समाज के नीति-नियंता हमारे ऋषि-मुनि प्रखर और प्रभावी भूमिका में रहे और समाज उन्हीं के दिशा-निर्देशों पर चला करता था। यह उन्हीं का पुण्य प्रयास था कि भारतीय सनातन संस्कृति आज सदियों बाद भी अक्षुण्ण है। इसी संस्कृति का प्रतीक हमारा कुंभ महापर्व भी है, जिसमें बिना न्योता-निमंत्रण के करोड़ों जन सदियों से एकत्र होते आ रहे हैं।

समृद्ध - संस्कारित समाज मूल ध्येय

जाहिर है, कुंभ जैसे धार्मिक व आध्यात्मिक पर्व को लेकर हमारे मनीषियों ने खूब माथा-पच्ची की होगी और अंततः इस परम निष्कर्ष पर पहुँचे होंगे कि विचारों के मंथन से ही सन्मार्ग यानी सुखमय जीवन जीने की कला का सूत्र मिल सकता है। इस तरह तमाम कसौटियों पर कसते हुए यह तय किया होगा कि समाज के चिंतक-मनीषी एक निशिचित अवधि के अंतराल में किसी स्थान विशेष पर मिला करेंगे। यहाँ एक और उल्लेखनीय बात यह है कि इसमें सांसारिक जनों के साथ-साथ साधु-संन्यासियों को भी जोड़ा गया। इस तरह मिल-बैठकर विचार करने और कोई रास्ता निकालने के लिए योगियों, यानी साधु-संतों और भोगियों, मतलब सांसारिकों अर्थात् गृहस्थों का यह अनूठा समागम शुरू हुआ। धीरे-धीरे कालांतर में इस महा समागम ने विकसित होकर वर्तमान में कुंभ का रूप ले लिया। आगे हम इस विराट महापर्व पर भी विस्तार से बातचीत करेंगे।

' ज्ञान सत्र ' के रूप में हुई शुरुआत

तमाम जानकारियाँ मिलती हैं कि प्राचीन काल में हमारे तत्त्वज्ञ ऋषि मुनि 'मोक्ष' कामना व लोक-कल्याण की भावना जगाने के लिए गंगा आदि पावन नदियों के तटों पर 'ज्ञान-सत्र' आयोजित किया करते थे। इन सत्रों का मूल उद्देश्य था, मानव जाति का सर्वविध कल्याण, यानी समाज जगे, उसे नई चेतना मिले और वह धर्म पर चले। कुल मिलाकर लौकिक-पारलौकिक विषयों पर मंथन-चिंतन इन आयोजनों का ध्येय हुआ करता था। इस तरह ये आयोजन न केवल समाज को शिक्षित-संस्कारित करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाते थे, बल्कि सामाजिक सुदृढ़ता, सामाजिक समरसता के साथ साथ सामाजिक समस्याएँ सुलझाने में भी इनका गजब का योगदान रहता था।

धीरे - धीरे बन गया राष्ट्रीय महापर्व

धीरे-धीरे इन आयोजनों को पवित्र तीर्थ स्थलों पर पर्यों के रूप में समारोहपूर्वक मनाया जाने लगा, इससे भारतीय 'धर्म-प्राण' जनता धार्मिक व आध्यात्मिक तौर पर गहरी जुड़ती चली गई। यही नहीं, इन आयोजनों को समारोहपूर्वक मनाने से भारतीय सनातन संस्कृति की समृद्ध परंपरा के दर्शन के साथ-साथ, धार्मिक मर्यादा की भी झलक मिलती है। विविधता में एकता और बंधुत्व की भावना प्रगाढ़ होती है। इसी परंपरा में मनाया जानेवाला चिरंतरकालीन राष्ट्रीय महापर्व है 'कुंभ'।

लौकिक व आध्यात्मिक भूमिका बनी रीढ़

हमारे मनीषियों ने इस महापर्व के माध्यम से जहाँ गृहस्थजनों की भूमिका सुनिश्चित की, वहीं साधु समाज का भी दायित्व तय कर दिया, ताकि समाज के सर्वांगीण विकास में लौकिक व आध्यात्मिक, दोनों की महती भूमिका बनी रहे।


 

आस्था एवं राष्ट्र - चिंतन का

दुर्लभ समागम

'कुंभ' वह महासंगम है, जहाँ 'जलधाराओं' की तरह ही विभिन्न 'जनधाराएँ' एक-दूसरे में घुल-मिल जाती हैं। यहाँ तक कि साधु समाज की 'दिव्यता' और आम समाज की 'दीनता' भी यहाँ खो जाती है, फिर न कोई दिव्य संन्यासी रह जाता है और न दीन संसारी। यहाँ सभी अहंकार आडंबर त्यागकर शील-सदाचारी श्रद्धालु बन जाते हैं। कुल मिलाकर इस समागम का ध्येय यह है कि योगियों एवं भोगियों के सामूहिक सहयोग से एक मर्यादित और सुखमयी समाज का मार्ग प्रशस्त हो सके। 'कुंभ' इसी का प्रतीक है और इसी 'प्रेरणामयी मानव स्वरूप' को बनाए रखने का संकल्प एवं दिव्य प्रदर्शन भी।

चमत्कृत करती दुनिया की अनूठी परंपरा

महाकुंभ में हमें सांसारिक व्यस्तताओं और चिंताओं से मुक्त हफ्तों महीनों से घर-बार त्यागे सेवा-सत्संग व आत्म-चिंतन में जुटे सात्त्विक जनों के सान्निध्य का सौभाग्य मिलता है। साथ ही हमारा अपनी अनूठी चमत्कृत कर देनेवाली परंपरा से परिचय होता है। इसके साथ ही हम सदियों से चली आ रही इस परंपरा को आनेवाली पीढ़ियों के लिए सहेज जाते हैं। यही सीख, यही प्रेरणा असंत को भी संत बना देती है। यह सिलसिला अक्षुण्ण रहे और भी सुदृढ़, समृद्ध हो, यही कुंभ का मूल उद्देश्य है।

मानवता को समर्पित यह दुनिया का एकमात्र ऐसा दुर्लभ महापर्व है, जो संन्यासियों और संसारियों के स्वतःस्फूर्त तालमेल से मानवता की अनमोल विरासत बन गया।

हमारे अनेक इतिहासकार एवं विद्वान् कुंभ स्नान की परंपरा को वेदस्थल से जोड़ते हैं। वेदों में हालाँकि कुंभ का वर्णन है, किंतु कुंभ स्नान से उसका स्पष्ट अर्थ नहीं मिलता। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि वेदकाल के तुरंत बाद कुंभ स्नान की परंपरा पड़ी होगी।

वेदकाल में चार आश्रमों का वर्णन बताया गया है। संन्यास आश्रम के संन्यासियों का कार्य विरक्त जीवन जीते हुए राष्ट्र कल्याण के लिए कार्य करने और राष्ट्र के दिए सद्बुद्धि देने का था। ये साधु सामान्य जन को ज्ञानोपदेश देते थे और प्रत्येक छठे और बारहवें वर्ष एक स्थान पर इकट्ठा होकर राष्ट्रहित के लिए चिंतन मनन करते थे। इन्हीं स्थानों पर राजा-महाराजा भी आते थे, जिन्हें संन्यासियों द्वारा कर्तव्य-पाठ पढ़ाया जाता था।

कथाओं के अनुसार महाभारत काल में पांडवों ने कुंभ योग में डुबकी लगाई थी, जिसके बाद ही उन्हें ब्रह्महत्या और बंधु-बांधवों के वध के पाप से मुक्ति प्राप्त हुई थी। भारतीय इतिहास में देवों और दानवों की सागर-मंथन की घटना प्रासंगिक है, समुद्र-मंथन से निकला अमृत हरिद्वार, उज्जैन, प्रयाग, नासिक चार स्थानों पर छलका, ये चारों स्थान समाज के वैचारिक मंथन के केंद्रबिंदु भी बने हैं। 12 वर्ष के अंतराल के पश्चात् पड़नेवाले इन कुंभपर्यों पर विचार किए जानेवाले प्रश्नों के दूरगामी परिणाम निकलते हैं। सही विचारों का मंथन और उससे निकलनेवाले परिणाम ही वास्तविक रूप से अमृत हैं। कुंभ का अर्थ केवल स्नान करना ही नहीं, अपितु यह आध्यात्मिक उन्नति के साथ ही देश एवं राष्ट्र की ज्वलंत समस्याओं के निराकरण करने हेतु एक विचार मंच भी है। इस मंच से निकला संदेश पूरे राष्ट्र में नहीं, वरन् पूरे विश्व में जाता है और उसके सकारात्मक परिणाम भी निकलते हैं। इस प्रकार किसी भी कुंभ में दंत समस्याओं का मंथन होता है और सार्थक परिणामों के साथ ही कुंभ पर्व के सार्थकता भी परिलक्षित होती है।

 

पाठशाला ही नहीं , कार्यशाला भी है

'कुंभ' सद्बुद्धि व सन्मति देने का महापर्व है। यह हमें समतामयी समाज की सीख देता है। सदाचारी बनने का संदेश व प्रेरणा देता है। यों भी हमारे मेले-पर्व सिर्फ मन बहलाव या मनोरंजन के साधन भर नहीं हैं, बल्कि इनके जरिए हमारी सांस्कृतिक परंपराएँ सुरक्षित रहती हैं। एक समृद्ध संस्कारी समाज की सीख व संदेश इसमें समाहित रहते हैं। चूँकि पुरातन काल से ही सन्मार्ग और सुखमयी समाज के लिए हमारे यहाँ चर्चा परिचर्चा, पंचायत आदि की परंपरा रही है। ऐसे में राष्ट्रीय फलक पर बड़े समाधानों के लिए 'कुंभ' जैसे आयोजन को व्यापक दूरदर्शी कल्पना की उपज कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

भारतीय संस्कृति में तीर्थों को लेकर विशेष आस्था रही है। इसलिए हमारे तत्त्वज्ञ ऋषियों ने मानव मन को प्रेरित करने के लिए तीर्थों पर इन आयोजनों की आधारशिला रखी और इन्हें समारोहपूर्वक मनाने की परंपरा डाली।

एकसूत्र में बाँधने का अद्भुत प्रयोग

इस तरह ये आयोजन हमारे उत्सव और संस्कृति के प्रतीक तो होते ही हैं, साथ ही अच्छे विचारों के प्रचार-प्रसार में मददगार भी होते हैं। हमारी तमाम सामाजिक समस्याएँ सुलझाने, सामाजिक विघटन को रोकने और आपसी समन्वय व सद्भाव बढ़ाने में भी ये आयोजन अहम भूमिका निभाते आए हैं। इसीलिए हमारे पवित्र तीर्थों में तमाम धार्मिक आयोजन और विभिन्न पर्यों को समारोहपूर्वक मनाए जाने का विधान बनाया गया है। इन आयोजनों में हमारी समृद्ध संस्कृति की झलक तो मिलती ही है, साथ में धार्मिक आस्था और मर्यादा के दर्शन भी होते हैं। 'कुंभ' में हमारे समग्र भारत और उसकी धर्मप्राण जनता के बंधुत्व की भी झलक देखने को मिलती है। 'कुंभ' में देश के कोने-कोने से वृद्ध, युवा व बच्चों से लेकर संत-महात्मा सभी श्रद्धा से भाग लेते हैं और कई-कई दिनों तक अपनी सारी चिंताओं व व्यस्तताओं को भूलकर स्नान-ध्यान के साथ-साथ आत्मचिंतन, सत्संग का पुण्यलाभ अर्जित करते हैं।

आस्था के साथ - साथ चिंतन का भी पर्व

'कुंभ' पीढ़ियों से चली आ रही हमारी सनातन संस्कृति व परंपरा से जुड़ा एक बड़ा आयोजन है। यह परंपरा आनेवाली पीढ़ियों के लिए भी अक्षुण्ण बनी रही, इसके लिए तय हुआ होगा कि समाज के चिंतक, मनीषी एक निश्चित अवधि पर एक जगह एकत्र होंगे और समाज को अपनी संस्कृति से जोड़े रखते हुए उसका मार्गदर्शन भी करेंगे। इस पावन उद्देश्य से हमारे महापुरुषों ने इस महापर्व को 'कुंभ' नाम देकर संपूर्ण भारतवासियों को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बाँधने का अभूतपूर्व उपक्रम किया।

भारतीय संस्कृति का विराटतम सम्मेलन

विश्व कल्याण और मानव हितार्थ गोष्ठियों और कार्यशाला के रूप में शुरू हुआ यह क्रम वैदिक काल के पूर्व से ही चला आ रहा है। इसमें गृहस्थों से लेकर तपस्वी, ऋषि-मुनि, संत-महंत, धर्माचार्यगण आदि पूरी आस्था से भाग लेते आए हैं, साथ ही दान-धर्मादि अनुष्ठानों के साथ-साथ ईश वंदना व नैतिक और समृद्ध समाज के निर्माण की चर्चा परिचर्चा आयोजित करते रहे हैं। यह भारतीय संस्कृति का एक विराटतम सम्मेलन है, जो सदियों से निर्वाध आयोजित होता आ रहा है, वह भी बिना आमंत्रण-निमंत्रण या बिना किसी लोभ-लालच के। दुनिया के इस विराटतम समागम से चमत्कृत विदेशी मनीषी आज इस पर गहन शोध में भी लगे हैं।

 

सदियों पुरानी सांस्कृतिक महायात्रा

गोत्र यानी गुरु-परंपरा से अर्जित संस्कार पीढ़ियों तक पहुँचाने की सदियों पुरानी संस्कृति रही है इस देश की। कुंभ भी इसी गोत्र संस्कृति का सदियों से निर्वहन करता आ रहा है और यह जिम्मेदारी विराट रूप में पूरे मानव समाज के लिए निभाता आ रहा है। इसलिए 'महागोत्र' है यह कुंभ, किंतु इसे बड़ी विडंबना ही कहिए कि जिस महापर्व की विराटता और विशिष्टता से दुनिया चमत्कृत और चकित है, हम उसके सही-सटीक इतिहास तक से अनभिज्ञ हैं। इस महापर्व की प्राचीनता और परंपरा आज भी पूरी तरह कयासों और मिथकों-मान्यताओं पर ही टिकी है। हम अपने वेद-पुराणों के संदर्भो को लेकर भी अनमनस्क और मौन हैं। 'कुंभ' शब्द इन पावन ग्रंथों में आत्मा की तरह समाया हुआ है, मगर तीर्थ और महापर्व से इसका संदर्भ हम आज तक स्पष्ट नहीं कर पाए हैं, जबकि लोगों को जोड़ने और जगाने की यह 'कुंभ गोत्रीय' परंपरा आदिकाल से चली आ रही है।

कुंभ से घर - घर पहुँचा आध्यात्म का अभियान

महाकुंभ की विराटता और इसकी स्वयंस्फूर्तता व व्यवस्थित विशिष्टता ने दुनिया को रोमांचित किया है। देश-दुनिया के तमाम विद्वान् इसका मर्म जानने में जुटे पड़े हैं। यह सिर्फ एक धार्मिक मेला ही नहीं, आस्था के साथ साथ विचार मंथन और उसके प्रेषण का भी महा केंद्र रहा है। यही वजह है प्रत्येक धार्मिक आचार्य, दार्शनिक, समाज-सुधारक, संप्रदाय प्रवर्तकों से लेकर संत-महात्माओं तक ने अपने विचारों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए इस महा समागम का समय-समय पर उपयोग किया।

समय के साथ-साथ कुंभ के स्वरूप में भी बदलाव आया है, किंतु समाज में आज भी कुंभ के प्रति वही आधार और आस्था है।

प्रत्येक समाज की अपने युग की कुछ-न-कुछ समस्याएँ होती हैं। उनका समाधान विचार-मंथन के माध्यम से निकाला जाता रहा है।

विचार-मंथन एक सतत प्रक्रिया है। संभवतः हमारे ऋषि-मुनियों ने इसी उद्देश्य से प्रत्येक बारह वर्षों के कालखंड में चार कुंभ और अर्धकुंभों की व्यवस्था की। इसका उद्देश्य वृहद् समागमों के माध्यम से विश्व, देश, समाज एवं धर्म में व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों को समाप्त करके उन्हें समयोचित ज्ञान की व्यवस्था देना था। यह व्यवस्था आज तक चली आ रही है। कुंभ के अवसर पर हमारे ऋषियों, मुनियों, महर्षियों और तत्त्वज्ञानियों द्वारा धार्मिक आयोजनों की पुनर्व्याख्या, प्रकृति के तत्त्वों की खोज, ज्ञान के नए क्षितिजों की खोज की गई है। देशकाल और परिस्थितियों के अनुसार कुंभ के अवसर पर संत महात्माओं, ऋषियों, मुनियों द्वारा समाज को नई राह दिखलाई जाती रही है।

 

अंतःस्नान का भी महापर्व

मानव जीवन में 'आलोक' और 'अंत:चेतना' का संचार करनेवाला यह एक ऐसा सांस्कृतिक समागम है, जो राष्ट्रचेतना और अखंडता के साथ-साथ आध्यात्मिक चेतना का भी आधारस्तंभ है। सदियों से अपनी निरंतरता को अक्षुण्ण रखते हुए यह महापर्व अपनी सर्वमान्य महत्ता और विशालता के साथ-साथ करोड़ों लोगों को धर्म-संस्कृति से जोड़े हुए है।

'अंत:परिशुद्धि' यानी 'चित्त-निर्माण' के इस चिरंतन सत्य और अमृतोपम संदेश को जन-जन तक पहुँचाने के उद्देश्य से ही हमारे तत्त्वज्ञ दृष्टा ऋषियों ने लोक कल्याण व लोकमंगल की पावन भावना को लेकर महाकुंभ के आयोजन का विधान किया। इसके तहत तीन-तीन वर्ष के अंतर में चार पावन तीर्थों, क्रमशः हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन, नासिक में बारह वर्षीय 'कुंभ' की शास्त्र सम्मत व्यवस्था की।

यही नहीं, इस विराट् धार्मिक आयोजन को जन-जन से जोड़ने के लिए हमारे उद्भट ऋषि-मुनियों ने विभिन्न देवी-देवताओं से लेकर तमाम तीर्थों-पर्वो व उत्सवों से जोड़कर ऐसी सुदृढ़ व्यवस्था बनाई कि पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक देश के सभी क्षेत्रों से लोग समय-समय पर मिलकर, इन पर्वो और उत्सवों को मनाते हैं। हमारे तमाम धार्मिक सांस्कृतिक मेले और उत्सव इसके उदाहरण हैं। इन्हीं आयोजनों में सबसे विराट् आयोजन और अनुष्ठान है हमारा 'कुंभ महापर्व।'

भारतीय मनीषियों ने देवी-देवताओं एवं ज्ञान-विज्ञान ग्रंथों तथा प्राकृतिक संपदाओं की कल्पना भी कुंभ के स्वरूप में ही की है।

यह बात सर्वविदित है। भारतीयों के प्रत्येक पर्व एवं त्योहारों की नींव किसी ठोस वैज्ञानिक तथा तार्किक आधार पर रखी गई है। इन सभी पर्यों और त्योहारों की जड़ में कुछ-न-कुछ वैज्ञानिक रहस्य अवश्य होता है। यही रहस्य मनुष्य के लिए आत्मशुद्धि तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभदायक होता है।

इसी तरह कुंभ पर्व के स्थान, दिवस, समय एवं स्नान आदि भी गृह एवं नक्षत्रों के विशेष योग, संधि एवं सम्मिलन से ही संचालित होते हैं। इन्हीं विशेष तिथियों में 'स्नान' के पीछे भी कई वैज्ञानिक कारण हैं।

पृथ्वी अपनी विशेषताओं के कारण ग्रह, उपग्रह एवं नक्षत्रों के सापेक्ष अपनी स्थिति बदलती रहती है। किसी काल या किसी विशेष समय अथवा विशेष अवसर पर पृथ्वी के किस भाग पर किन परिस्थितियों और किस मौसम में मनुष्यों और जीव-जंतुओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसकी गणना हमारे मनीषियों द्वारा हजारों वर्षों पूर्व कर दी गई थी। ज्योतिष विज्ञान के आधार पर की गई इस गणना में उन स्थानों को तीर्थ' और उन तिथियों को 'पर्व' कहा गया।

भारत-भूमि आस्था और धार्मिक भावनाओं की भूमि रही है, यहाँ आस्थामयी धार्मिक आयोजनों में जनमानस सारे भेदभाव व वैमनस्य भूलकर समता, समर्पण का वरण कर लेता है और आत्मचिंतन व आत्ममंथन पर उतर आता है।

इसी मनोविज्ञान के पारखी हमारे ऋषि-मुनियों ने तीर्थों-पर्वो की ऐसी व्यवस्था बनाई कि उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक देश के कोने कोने से लोग समय-समय पर आकर इन तीर्थों-पर्यों में शिरकत करें, ताकि अपनी संस्कृति को समझने के साथ-साथ सद्भाव व बंधुत्व के एकसूत्र में बँध सकें।

 

लोक - परलोक को जोड़ता ' कुंभ '

ग्रहों का इससे बड़ा प्रभाव और क्या हो सकता है कि नियत तिथि और "समय पर करोड़ों लोग आस्था की डुबकी लगाने स्वतःस्फूर्त होकर कुंभ में आते हैं और 'स्व:' का त्याग कर सर्वे भवन्तु सुखिनः' की कामना करते हैं। काम-धंधा, घर-बार की परवाह न कर दान-पुण्य में जुटे रहते हैं। दंभ-त्यागकर शील-सदाचार अपना लेते हैं। यह हृदय-परिवर्तन इसी ग्रह योगों का माहात्म्य है। ग्रहों के योग पर आधारित हमारे धार्मिक आयोजन विज्ञान की कसौटी पर खरे पाए गए हैं। इनका लौकिक ही नहीं, पारलौकिक नाता भी है।

'कुंभ' महापर्व भी इन्हीं में से एक है। तमाम पौराणिक अध्ययनों व शोधों से प्रमाणित हआ है कि ग्रह योगों का मानव जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। 'कुंभ' के अवसर पर जो ग्रह योग बनते हैं, वे मानव प्रवृत्ति समेत उसके स्वभाव, स्वास्थ्य और मनोदशा को भी प्रभावित करते हैं। ग्रहों के इन योगों का संपूर्ण सृष्टि और जीव-जंतुओं पर भी प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।

विज्ञान आधारित है ग्रह - नक्षत्रों का योग

हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन व नासिक चारों 'कुंभों' के समय के ग्रहयोग तामसी वृत्तियों के विनाश में सहायक और समाजिक-धार्मिक सद्भाव बढ़ाने में कारगर होते हैं। वैज्ञानिक सत्य है कि संसार दो प्रकार के विशिष्ट तत्त्वों से निर्मित है, एक, जीवन रक्षक और दूसरा, जीवन संहारक। ग्रहों के योग-संयोग से ये दोनों तत्त्व प्रभावित होते हैं। ग्रहों में आकृति में सर्वाधिक बृहत् और गुरुत्वाकर्षण में भी सभी ग्रहों से अधिक गुरुत्ववाला ग्रह गुरु, जिसे बृहस्पति भी कहते हैं। बृहस्पति को ही सर्वाधिक जीवनवर्धक तत्त्वों का केंद्र माना गया है, इसलिए बृहस्पति का एक नाम 'जीव' भी है। इसी प्रकार शनि को जीवन संहारक ग्रह कहा गया है। यही कारण है, वैदिक साहित्य में बृहस्पति को 'जीवात्मा या देवगुरु' कहा गया है। सूर्य तो जीवनवर्धक तत्त्वों से भरा है ही, साथ ही चंद्रमा भी जीवनवर्धक है, लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों, जैसे अमावस्या आदि में यह जीवन संहारक प्रभाव भी छोड़ता है। यही कारण है सारे तंत्र-मंत्र व नकारात्मक कार्य अमावस्या में ही किए जाने का विधान है।

हमारे तीर्थ - पर्वों का माहात्म्य भी इसीलिए है

खगोलीय दृष्टि से सूर्य, बृहस्पति व चंद्रमा का विशेष महत्त्व है। विभिन्न ग्रहों के साथ इनकी मौजूदगी विशेष असरकारी होती है। इन्हीं को ध्यान में रखते हुए, हमारे तीर्थ-पर्यों की व्यवस्था की गई है। मानव शरीर पर आत्मारूपी सूर्य, मनरूपी चंद्रमा और ज्ञानरूपी बृहस्पति का 'कुंभ' योग में विशेष प्रभाव होता है।

परिणामस्वरूप मानव के तन-मन व नक्षत्र प्रभावित भू-भाग की विशेष नदियों पर जीवनवर्धक तत्त्वों की वृद्धि होती है। कुंभ' पर्व तथा बारह वर्ष के सौर चक्र का योग मानव जीवन व सृष्टि पर विशेष प्रभावकारी होता है। कुल मिलाकर 'कुंभ' पर्व के समय गंगा, गोदावरी, क्षिप्रा आदि नदियों के जल के कुंभकाल में मंगलकारी होने की मान्यता का वैज्ञानिक आधार है। इस तरह हमारे ऋषि-मुनियों के ज्ञान-विज्ञान का समय के साथ घटित रूपांतरण ही 'कुंभ' महापर्व है।

एकात्म हो जाने का महापर्व है -- कुंभ

जैसे बूंद-बूंद समाहित होकर सरोवर, सरिता और सागर बन जाते हैं, ठीक उसी तरह मानव मानव से मिलकर मानव-मिलन का महाकुंभ बन जाते हैं। मानव के एकात्म हो जाने का महापर्व है महाकुंभ। मानव की भीतरी तरलता और सद्भाव सत्संग के द्वारा बाहर निकलकर प्रवाह रूप में प्रकट हो जाते हैं और इस तरह 'जनधाराओं' का यह संगम 'जलधाराओं के संगम सदृश सृजनात्मक और प्रेरणामयी हो उठता है।

कुल मिलाकर 'कुंभ' तत्त्वत: 'आत्म-साक्षात्कार' का भी पर्व है। वेद मर्मज्ञों का कहना है, चंद्रमा मन का, सूर्य आत्मा का और बृहस्पति बुद्धि का प्रतीक है। ये तीनों देहरूपी 'कुंभ' की रक्षा करते हैं। मन, बुद्धि व आत्मा का संतुलित योग देह में निहित दिव्य शक्तियों को जाग्रत् करता है, सात्त्विक वृत्तियों व विचारों को जन्म देता है तथा आसुरी प्रवृत्तियों व विचारों को दूर भगाता है।

अमृतत्त्व 'आत्मा-साक्षात्कार से उत्पन्न अलौकिक आनंद' देवगणों अर्थात् सात्त्विक वृत्तिवाले साधकों को प्राप्त होता है। 'कुंभ' का आध्यात्मिक पक्ष यही है। सात्त्विक वृत्ति की ओर प्रेरित लोग यहाँ से मोक्ष-कामना और परोपकार की भावना लेकर जाते हैं।

सार्थक जीवन जीने की कला

कुंभ हमें हमारी संस्कृति और इतिहास से परिचय कराता है। यह पर्व हमें धार्मिक, आध्यात्मिक और कुल मिलाकर मानवीय गुणों को बनाता है। हमें आपस में जोड़ता और जगाता है। यही नहीं, यह हमारे साधु-संतों की महिमा और गरिमा से भी हमें परिचित कराता है। हमें अज्ञानता के अंधकार से बाहर निकालकर ज्ञानी और विवेकी बनाता है। वेद मात्र किताबी ज्ञान नहीं है। कुंभ इस ज्ञान को आत्मसात् कर जीवन में उतारने की प्रक्रिया है। इस तरह जीवन की एक मुकम्मल कार्यशाला है कुंभ, जो सार्थक जीवन जीने की कला सिखाता है।

कहते हैं, हमारे ऋषि-मुनियों ने समग्र, समुन्नत और संवेदनशील समाज के निर्माण के लिए मिल-बैठकर जो चर्चा परिचर्चा की परंपरा शुरू की, वही कालांतर में 'कुंभ' रूप में विकसित हुई। हम जानते हैं, हमारे मंत्रों में चामत्कारिक शक्ति है। मंत्र रूप में संकल्प का उच्चारण अभीष्ट फल देता है। इसी तरह वेद-पुराणों में वर्णित कुंभ भी साक्षात् मंत्र है। कुंभ का संकल्प के साथ उच्चारण में मंगलकामना की सिद्धि समाहित है। यह मंत्र रूप में सर्वहिताय संकल्प है। शास्त्रकारों का मानना है कि मंत्ररूप में संकल्प का उच्चारण ही काफी नहीं है। कुंभ पर्व इसे आत्मसात् कर कार्यरूप में परिणित करता है, इसलिए महाकुंभ कहलाता है।

वैदिक काल से ही तपस्वी, ऋषि-मुनि, संत-महंत और धर्माचार्यगण अपनी शिष्य मंडलियों के साथ कुंभ पर्व पर एकत्र होते आए हैं और ईश चर्चा के साथ-साथ सुदृढ़ और नैतिक समाज के निर्माण के लिए पहल करते रहे हैं।

आद्य गुरु शंकराचार्यजी ने भारतीय संस्कृति धर्म और सभ्यता को एक सूत्र में बाँधने का कार्य किया। उन्होंने संपूर्ण भारत में सनातन धर्म को जीर्णोद्धार करके इसे पल्लवित और पुष्पित किया। देश को एक सूत्र में बाँधने के लिए उनके द्वारा ज्योतिर्मठ, शृगेरीमठ, गोवर्धनमठ एवं शारदमठ नाम से चार मठों की स्थापना की गई।

जगद्गुरु शंकराचार्य ने देश में फैले साधु-संतों को एकत्र करके उन्हें दशनाम संन्यासियों की श्रेणी में बाँटकर प्रत्येक मठ से संबंधित कर दिया। उन्होंने संन्यासियों के लिए यह भी व्यवस्था की कि वे चारों दिशाओं में लगने वाले कुंभ मेलों में एकत्र होकर धर्म पर चर्चा करें, आपसी विचार-विमर्श करके राष्ट्र एवं समाज के लिए रीति, नीति एवं नियमों का निर्धारण करें। कुंभ पर्वो पर तभी से साधु-संन्यासियों के एकत्र होने की परंपरा प्रारंभ हुई।

 

हरिद्वार बिना ' कुंभ ' अधूरा

कुंभ परंपरा वैदिक काल से भी पूर्व से चली आ रही है। माना जाता है कि कुंभ की शुरुआत निश्चित तौर पर हमारी संस्कृति की शुरुआत के साथ ही हुई, लेकिन इसका हमें कहीं कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। ऐसे में हमें तमाम संदर्भो को जोड़कर शोधपरक निष्कर्ष निकालना होगा। वेदों-पुराणों से लेकर हमारे तमाम धार्मिक ग्रंथों के संदर्भो का शोधपरक अध्ययन करना होगा। साथ ही जनश्रुतियों के साथ-साथ वर्तमान से जुड़ी सामाजिक परंपराओं को भी जोड़कर देखना होगा।

यही नहीं, हम जानते हैं कि कुंभ की उत्पत्ति समुद्र-मंथन से हुई और कुंभ पर्व महापर्व समुद्र-मंथन से निकले अमृत कुंभ की स्मृति में आयोजित होता है। अत: कुंभ को कुंभ पर्व से जोड़ना कोई प्रज्ञापराध नहीं, बल्कि बिल्कुल न्यायसंगत है। यों भी हमारे वेदों, पुराणों की भाषाशैली रूपक व अलंकारों में है। जिसके कई अर्थ निकाले जाते हैं, लेकिन इस समुद्र-मंथन से कुंभ की पौराणिकता साबित हो जाती है।

सिंधु सभ्यता में भी कुंभ जैसे आयोजन के प्रमाण

वैदिक और पौराणिक साहित्य को अगर छोड़ दिया जाए तो 'कुंभ' के प्रमाणित दस्तावेज हमें मुगलकाल और इससे पूर्व सम्राट हर्षवर्धन (612-647 ई.) के समय तक का ही ब्योरा दे पाते हैं। वह भी बहुत सीमित और काल विशेष के मतलब भर का। उदाहरण के लिए, सातवीं शताब्दी के चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण (629-645 ई.) में लिखा है कि राजा शीलादित्य (हर्षवर्धन) पाँच वर्ष तक संग्रह की हुई अपनी सारी संपत्ति अपने पूर्वजों की तरह प्रयाग की पुण्य भूमि में आकर दान कर देता था। इससे कुछ लोगों का मानना है कि सम्राट हर्षवर्धन ने ही 'कुंभ' का शुभारंभ किया, पर पूर्वजों का अनुसरण करते हुए इस परंपरा के निवर्हन के उल्लेख से स्पष्ट हो जाता है कि यह आयोजन उससे पूर्व भी होता आ रहा था। वैसे अब पुरातत्त्वविदों ने सिंधु घाटी सभ्यता से भी कुंभ के तमाम प्रमाण एकत्र किए हैं।

हरिद्वार से मिले हैं तमाम पुरातात्त्विक दस्तावेज

कुछ लोग 'कुंभ' को शंकराचार्य से भी जोड़ते हैं। कहते हैं कि उन्होंने ही वर्तमान 'कुंभ' पर्यों का स्वरूप स्थापित किया। कुछ विद्वान् 'कुंभ' को सिंधु घाटी सभ्यता से भी कहीं पहले का बताते हैं। हरिद्वार के आस-पास पुरातत्त्व विशेषज्ञों ने सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान के मृद्भांड व अन्य सामग्रियाँ बरामद की हैं। इसका उल्लेख विस्तार से इसी पुस्तक में हरिद्वार से संबंधित सामग्री में आगे किया गया है। कुछ विद्वान् भारतीय इतिहास के स्वर्णिम युग 'गुप्त साम्राज्य' (320-600 ई.) को इसके वर्तमान स्वरूप का निर्धारण काल बताते हैं। उनकी दलील है कि जैसे पुराण आदि साहित्य इस दौरान संपादित होकर वर्तमान स्वरूप में आए ठीक उसी तरह ज्योतिष आधार पर 'कुंभ' पर्यों का स्थान काल नए रूप में सामने आया, पर इस सबसे भी जाहिर है कि 'कुंभ' पर्व इससे पहले भी आयोजित होता रहा है।

नौवीं सदी का मिला पाषाण फलक

हरिद्वार से नवीं सदी में निर्मित पाषाण फलक भी मिला है, जिसमें 'समुद्र-मंथन' का दृश्य उत्कीर्ण है, जो आज गुरुकुल के संग्रहालय में सुरक्षित है। नारद पुराण (सातवीं से नौवीं सदी) में भी हरिद्वार 'कुंभ' योग का जिक्र है, जबकि प्रयाग 'कुंभ' योग को लेकर ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। उसके लिए सिर्फ मकर राशिगत सूर्य अर्थात् मकर संक्रांति पर ही स्नान-दान का महत्त्व लिखा है, जबकि हरिद्वार 'कुंभ' का उल्लेख करते हुए नारद पुराण का कथन है

योऽस्मिन् क्षेत्रे नरः स्नायात् , कुम्भगेज्येऽजगे रवौ।

स तु स्यादृत्वापतिः साक्षात् प्रभाकर इवापरः।

( नारद , 64/44, 45)

ईसा से 2000 वर्ष पूर्व की भी मिली है संस्कृति

गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय के संग्रहालय के क्यूरेटर रहे पुरातत्त्ववेत्ता डॉ. सूर्यकांत श्रीवास्तव बताते हैं कि इस क्षेत्र में उत्खनन कर्ता ने सिंधु सभ्यता की तिथि 1600-1300 ईसा पूर्व मानी है, लेकिन नसीरपुर से प्राप्त गेरुए रंग वाली संस्कृति की तिथि के संदर्भ में यह कहना अनुपयुक्त नहीं होगा कि 1500 ई. पूर्व ही सिंधु काल के लोगों ने यहाँ निवास किया था। गंगा-यमुना के दोआब में लगभग दो हजार वर्ष ई.पूर्व संस्कृति के अवशेष मिलते हैं। उसे पुराविद् गेरुए रंग वाली मृद्भांड संस्कृति की संज्ञा देते हैं। इस संस्कृति के अवशेष लगभग 88 स्थानों के सर्वेक्षण में प्राप्त हुए हैं।

 

कुंभनगरी है हरिद्वार

जिस तरह प्रयाग समस्त प्रयागों में राजा यानी 'प्रयागराज' कहलाता है, उसी तरह हरिद्वार कुंभों में 'सर्वोपरि कुंभ' है। प्रयाग का मतलब होता है--संगम। आध्यात्मिक संदर्भ में जहाँ दो या दो से अधिक पावन नदियाँ आपस में मिलती हैं, उसे प्रयाग कहते हैं। देवभूमि उत्तराखंड में हर पवित्र संगम प्रयाग है। लोगों की जुवान पर चढ़े 'पंचप्रयाग' भी यहीं हैं। माना जाता है कि पवित्र तीर्थ बदरीनाथ मार्ग पर स्थित होने से ही इन पाँच प्रयागों को इतनी प्रसिद्धि मिली, जबकि ऐतिहासिक व लोक श्रुतियों में इन पंचप्रयागों के अलावा भी यहाँ कई और प्रसिद्ध प्रयाग हैं। जल समाधि ले चुकी टिहरी स्थित भागीरथी व भिलंगना का संगम 'गणेश प्रयाग' तो इस पूरे क्षेत्र का कभी हरिद्वार ही था। यहाँ के लोग यहीं स्नान-ध्यान कर डुबकी लगाते और यहीं से गंगा जल भी ले जाया करते थे। इस प्रकार तमाम संगमों से प्रयागराज बनता है। हरिद्वार को कुंभों के संदर्भ में महाकुंभ नगरी कहा जाता है।

कुंभ स्नान का महत्त्व यों तो हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयाग में एक समान माना जाता है, किंतु ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कुंभ राशि में बृहस्पति की युति मात्र हरिद्वार के कुंभ में ही स्वीकारी गई है। हरिद्वार के अतिरिक्त शेष तीन स्थानों पर कुंभ पर्व की तिथियों में वृष और सिंह राशियों पर विचार किया जाता है और ग्रह भी बदल जाते हैं, किंतु हरिद्वार कुंभ में ऐसा नहीं होता है।

कुंभ का उत्तम योग हरिद्वार में ही

विद्वान् लोग हरिद्वार के कुंभ को ही वास्तविक कुंभ मानते हैं और जोर देकर कहते हैं, संभवत: यहीं से महाकुंभ पर्व की परंपरा शुरू हुई होगी। उनकी दलील है कि 'कुंभ' विशेषण हरिद्वार पर ही सटीक बैठता है। दरअसल देश के जिन चार तीर्थों में महाकुंभ आयोजित होता है, उनमें सिर्फ हरिद्वार ही है, जहाँ कुंभ राशि में बृहस्पति होने से कुंभ मनाया जाता है, इसीलिए इसे 'कुंभस्थ' भी कहा गया है। जबकि प्रयाग समेत उज्जैन व नासिक में वृष और सिंह राशियाँ कुंभ निर्धारित करती हैं। इस तरह ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, मेष में सूर्य और 'कुंभ' में बृहस्पति ही कुंभ नाम का उत्तम योग बनाता है। इस तरह हरिद्वार से ही कुंभ आरंभ होने का विचार विद्वानों को विचारसंगत लगता है। 'विष्णुयोग' में गंगाद्वार यानी हरिद्वार 'कुंभ' का निरूपण कुछ इस तरह किया गया है--

पदिमनीनायके मेषे कुम्भराशिगतो गुरुः।

गंगाद्वारे भवेद्योगः कुम्भनामा तदोत्तमः॥

चारों कुंभों में प्रमुख कुंभ हरिद्वार

हरिद्वार 'कुंभ' चारों तीर्थों के 'कुंभों' में प्रमुख है। कुंभ राशिगत बृहस्पति के कारण 'कुंभ' योग हरिद्वार में ही होता है। अतः हरिद्वार का पर्व ही 'कुंभ' नाम को सार्थक करता है। विद्वानों का मत है कि 'कुंभ' परंपरा की शुरुआत हरिद्वार से ही हुई है। प्रयाग इसके बाद तथा फिर उज्जैन व नासिक का जिक्र आता है। विष्णुयाग के अनुसार इन चारों महापर्यों में गंगाद्वार, यानी हरिद्वार की गणना सर्वप्रथम की गई है--

गङ्गाद्वारे प्रयागे च धारागोदावरीतटे।

कलशाख्यो हि योगोऽयं प्रोच्यते शङ्कारादिभिः॥

हरिद्वारादि तीर्थेषुचतुर्धा च पृथक् पृथक्।

इसी तरह स्कंद पुराण में सिर्फ हरिद्वार 'कुंभ' माहात्म्य का ही जिक्र है

पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते।

चतुऽस्थले : निपतनासुधाकुम्भस्य भारते॥

हरिद्वारादितीर्थेषु चतुर्धा च पृथक् - पृथक्।

कुम्भपर्वः समयो यथाकुम्भमुदीरयेत्॥

 

शंकराचार्य ने घर - घर पहुँचाया कुंभ को

इन चार महातीर्थों को इस महापर्व से जोड़ने के साथ ही विद्वज्जन मानते हैं कि कुंभ शब्द हरिद्वार से ही उपजा और शंकराचार्य ने कुंभ को इस महापर्व का प्रतीक चिह्न बना दिया। कहते हैं, इसके बाद यह पर्व कुंभ नाम से ही घर-घर चर्चित हो गया।

हरिद्वार 'कुंभ' का जिक्र ह्वेनसांग की आठवीं सदी के यात्रा विवरण में भी मिलता है। वह लिखता है, 'ब्रह्मकुंड में बड़ी संख्या में तीर्थयात्री स्नानार्थ जुटे थे', पर वह उसे 'कुंभ' नाम से नहीं जानता, इसीलिए उसके उल्लेख में 'कुंभ' नाम का जिक्र नहीं मिलता। हरिद्वार महाकुंभ को लेकर महंत गोविंदानंद ब्रह्मचारी ने पूरे साढ़े सात सौ वर्षों के 'कुंभ' की तिथियों की तालिका प्रस्तुत की है। यह तालिका 1262 ई. से शुरू होती है (आचार्य डॉ. विष्णुदत्त राकेश)।

कुंभ को बनाया राष्ट्रीय महापर्व

कहते हैं, आदिगुरु शंकराचार्य ने हरिद्वार कुंभ को 'राष्ट्रीय महापर्व' का रूप दिया। उन्होंने ही वर्तमान कुंभ पर्यों का स्वरूप स्थापित किया और 'कुंभ' नाम प्रयाग, उज्जैन व नासिक से भी जोड़कर देश में चार 'कुंभ' परंपराओं की नींव डाली। 'कुंभ' मेलों के वर्तमान स्वरूप को लेकर एक मत यह भी है कि भारतीय इतिहास के स्वर्णिम युग में 'गुप्त साम्राज्य' (320-600 ई.) के समय जैसे पुराण आदि साहित्य पुनः संपादित होकर वर्तमान रूप में आए, उसी प्रकार पुराण व ज्योतिष आधार पर 'कुंभ' पर्वो के स्थान तथा काल स्थायी रूप से निर्मित किए गए।

 

इसलिए मनाया जाने लगा अर्धकुंभ

बारह वर्ष बाद 'महाकुंभ' और छह वर्ष के बाद 'अर्धकुंभ' का योग पड़ता है। पहले कुंभपर्व ही मनाया जाता था। विद्वज्जनों का मानना है, अर्धकुंभ की परिकल्पना इसलिए की कि बारह वर्ष की पुण्य लाभ की प्रतीक्षा लंबी हो जाती है। छह वर्ष बाद अर्धकुंभ हो तो पुण्य प्रसार के अवसर अधिक मिलेंगे। साथ ही समस्त भारत के लोग छठे वर्ष एकत्र होकर अपने-अपने क्षेत्रों की समस्याओं पर विचार-विमर्श भी कर सकेंगे। इसी बात का चिंतन करके चारों शंकराचार्यों ने मिलकर धार्मिक महोत्सव के रूप में अर्धकुंभ की मान्यता प्रदान की। यह विचारणीय बात है कि जिन-जिन स्थानों पर कुंभ पर्व होते हैं, उन्हीं स्थानों पर अर्धकुंभ भी होते हैं, वह भी सिर्फ हरिद्वार व प्रयाग में ही।

'कुंभ' पर्व की तरह ही अर्धकुंभ भी हरिद्वार से ही सर्वप्रथम शुरू होने के प्रमाण मिलते हैं। यहाँ अर्धकुंभ का पहला ऐतिहासिक उल्लेख 1318 ई. का मिलता है, तब तैमूर लंग ने हरिद्वार में जमकर लूट-पाट और खून-खराबा किया। इस तरह स्पष्ट है कि अर्धकुंभ की शुरुआत भी हरिद्वार से ही हुई, क्योंकि दूसरी अर्धकुंभ स्थली तीर्थराज प्रयाग में अर्धकुंभ का जिक्र बहुत बाद का मिलता है।

प्रयाग में तीन वर्ष बाद हुई शुरुआत

ऐतिहासिक उल्लेख है कि सन् 1837 में जब हरिद्वार में अर्धकुंभ पर्व मनाया गया था। उसके ठीक तीन वर्ष पश्चात् प्रयाग में भी संतों, महात्माओं ने अर्धकुंभ की घोषणा कर दी थी और सन् 1840 को प्रयाग में प्रथा अर्धकुंभ प्रारंभ हुआ। यह कहना कि हर्षवर्धन भी कुंभपर्व पर आते थे कहीं से भी उचित प्रतीत नहीं होता। कारण, कान्यकुब्जेश्वर राजा हर्ष प्रयाग में प्रत्येक पाँचवें वर्ष आते थे, न कि छठे वर्ष और उसका उल्ले 'ह्वेनसांग' ने अपने यात्रा विवरण में किया है।

बौद्ध मनाते थे इसे ' महादान ' पर्व के रूप में

सम्राट हर्षवर्धन द्वारा महामोक्ष का पर्व प्रयाग में छठे वर्ष मनाया जाता था। हर्षवर्धन के समय में आए चीनीयात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण में यह उल्लेख मिलता है कि 'सम्राट हर्षवर्धन प्रत्येक छठे वर्ष में संचित समस्त धनराशि प्रयाग में माघ मास में धार्मिक मेला लगाकर दान कर देते थे।' विचारणीय बात यह है कि छठी सदी में सम्राट हर्षवर्धन केवल 'प्रयाग' के माघ मेले में ही जाते थे और कुंभ स्थानों पर क्यों नहीं? इससे पता चलता है कि कुंभ पर्व के ये चार स्थान राजा हर्षवर्धन के लगभग दो सौ वर्ष बाद में आठवीं सदी में आद्य शंकराचार्य ने निर्धारित किए होंगे।

इन चारों स्थानों की योजना भारत की चारों दिशाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई, पूर्वांचल में प्रयाग, उत्तराखंड में हरिद्वार, मध्य प्रदेश में उज्जैन तथा दक्षिण में नासिक।

कहा जाता है कि आद्यगुरु शंकराचार्य ने वेदांत धर्म के प्रचार का अभियान प्रयाग के कुंभ से ही प्रारंभ किया और इन सभी स्थानों पर आयोजित पर्वों में भाग लिया।

बौद्ध प्रतिमा की पूजा से होती थी शुरुआत

ऐतिहासिक उल्लेख मिलता है कि यहाँ यह बौद्ध पर्व मनाया जाता था, जिसमें हर्षवर्धन भाग लेते थे और सर्वप्रथम बौद्ध प्रतिमा की पूजा से ही शुरुआत करते थे। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के किसी भी प्रमाणित गंथ, गणित, फलित, संहिता आदि में भी यहाँ तब के किसी अर्धकुंभ का उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। एक लेखक 'शक्तियामलक तंत्र' उदाहरण देते हुए एक श्लोक का उल्लेख करते हैं। जिसे वे अर्धकुंभ पर्व से जोड़ते हैं, किंतु यह श्लोक ही स्पष्ट कर देता है कि बिना प्रसंग के अन्य कथानक के मध्य यह श्लोक कहाँ से प्रविष्ट हो गया? श्लोक इस प्रकार है

तदर्धे वर्षमाने च कुम्भोर्ध्वं सार्द्धपञ्चकम्।

अर्धकुम्भं विजानीयात् फलार्थं मोक्षदायकम्।

इस प्रकार आधुनिक लेखक स्वतः छंद रचना करके कुंभ के नाम पर प्राचीन पुराणों का उल्लेख करते हुए लेख लिख रहे हैं। बिना प्रामाणिक दस्तावेजों के यह प्रज्ञापराध कहा जा सकता है, लेकिन यह भी सत्य है कि इस दिशा में कभी भी कोई शोधपरक कार्य या गंभीर चिंतन-मनन शायद हुआ ही नहीं, इसलिए धार्मिक, आध्यात्मिक व ऐतिहासिक, यहाँ तक कि वैज्ञानिक कसौटी पर भी खरा होने के बावजूद इस पर कभी कोई गहन मनन नहीं हुआ। इस श्लोक से ही ध्वनित है कि यह निश्चित ही अर्धकुंभ सिद्ध करने के लिए लिखा गया है, परंतु इसकी संबद्धता का भी कहीं कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता।

 

चार प्रमुख कुंभ स्थल

देश की सांस्कृतिक एकता और बंधुता जगाने में तीर्थों का बड़ा महत्त्व है। प्राचीन काल में हमारे ऋषियों और आचार्यों ने सामाजिक जीवन उन्नत बनाने के साथ-साथ आपसी सद्भाव और एकता बढ़ाने के लिए देश के कोने-कोने में तीर्थों की स्थापना की। इसके लिए वे स्थान चयनित किए गए, जिनका धार्मिक और ऐतिहासिक महत्त्व है और मुख्यत: नदियों से जुड़े रहे हैं। नदिया हमारी संस्कृति की स्रोत हैं। मानव संस्कृति इन्हीं नदियों के किनारे पल्लवित-पुष्पित हुई। ये नदियाँ हमारी धार्मिक, आध्यात्मिक उन्नति की भी आधार हैं।

कुंभपर्व आज जिन चार पावन स्थलों पर आयोजित होते हैं, वे भी पवित्र नदियों के किनारे ही हैं। हिमालय की उपत्यका में अवस्थित हरिद्वार पुण्य तोया जाह्नवी, यानी गंगा के तट पर स्थित है। इसी तरह तीर्थराज प्रयाग सरस्वती, गंगा व यमुना के संगम पर, नासिक गोदावरी किनारे और उज्जैन क्षिप्रा नदी के किनारे बसा है।

हरिद्वार --यह देवभूमि उत्तराखंड के शीर्षस्थ तीर्थों में एक है। हर यानी शिव और हरि यानी विष्णु के द्वार के नाम पर ही इसका यह नाम प्रचलित है। इसका पुराना नाम 'मायापुरी' भी रहा है, जो सप्त पुरियों में से एक है। गंगोत्तरी से चलकर यहीं हरिद्वार में गंगा पहली बार मैदान में प्रवेश करती है।

यहाँ बारह महीने मेले जैसा माहौल रहता है। यहाँ सभी संप्रदायों के प्रमुख अखाड़े और साधुओं व धर्माचार्यों के आश्रम स्थित हैं। यहाँ वैदिककालीन सात ऋषियों के तपस्थल भी हैं। सप्त ऋषि आश्रम के नाम से विख्यात इन पावन स्थलों पर गंगा सात धाराओं यानी सप्त धाराओं में विभक्त है। त्रेता से लेकर द्वापर तक के तमाम ऋषि-मुनियों, राजा-महाराजाओं महापुरुषों से भी यह धार्मिक-ऐतिहासिक नगरी जुड़ी है। उत्तराखंड के पहले राजा महाराज दक्ष का कनखल भी यहीं है। हर बारहवें वर्ष जब सूर्य और चंद्रमा मेष राशि और बृहस्पति कुंभ राशि में स्थित होते हैं, तो यहाँ कुंभ पर्व होता है और छह वर्ष पर अर्धकुंभ। अब तो तमाम जानकारियाँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि कुंभ की शुरुआत इसी महातीर्थ से हुई।

तीर्थराज प्रयाग --उत्तर प्रदेश में यह कुंभ नगरी सरस्वती, गंगा व यमुना की त्रिवेणी पर स्थित है। यहाँ जब बृहस्पति वृष राशि में और सूर्य मकर राशि में होता है, तब हर 12वें वर्ष कुंभ और छठे वर्ष अर्धकुंभ आयोजित होता है।

नासिक --महाराष्ट्र में यह कुंभस्थली गोदावरी तट पर स्थित है। यहाँ वह पंचवटी भी है, जहाँ सीता वन में रहीं और लक्ष्मण ने सूर्पणखा का तिरस्कार किया था। कहते हैं शंकर की कृपा से महर्षि गौतम ने गोदावरी को यहीं धरती पर अवतरित किया था। यहाँ हर बारह वर्ष में जब बृहस्पति सिंह राशि में होते हैं तो पूर्ण कुंभ आयोजित होता है।

उज्जैन --मध्य प्रदेश में स्थित यह कुंभस्थली प्राचीन संस्कृति का प्रमुख केंद्र रही है। सप्तपुरियों में एक इसे 'अवंतिका पुरी' भी कहते हैं।

क्षिप्रा नदी किनारे बसी यह नगरी महाराजा विक्रमादित्य के समय भारत की राजधानी भी रही। कहते है, महर्षि सांदीपनि का यहाँ आश्रम था, जहाँ श्रीकृष्ण, बलराम व सुदामा ने शिक्षा पाई थी। यहाँ बृहस्पति के सिंहस्थ होने पर कुंभ होता है।

 

विविध स्थानों पर कुंभ

भारतीय संस्कृति विश्व की अन्य संस्कृतियों में प्राचीनतम एवं विशिष्ट है। भारतीय संस्कृति को जीवंतता देने के लिए यहाँ समय-समय पर धार्मिक पर्यों का आयोजन होता रहता है, ऐसा ही एक अनूठा महापर्व है 'कुंभ'। शास्त्रों एवं धर्मग्रंथों में हमें बारह कुंभ पर्वो का उल्लेख मिलता है, मगर आज हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन व नासिक सिर्फ चार ही कुंभ पर्व बचे रह गए हैं, जबकि आठ अन्य समय और परिस्थितियों के चलते अपना अस्तित्व खो बैठे हैं। धर्मशात्र मर्मज्ञों के अनुसार संभवतः बार-बार विधर्मियों के आक्रमण से ये पर्व अपना मूल स्वरूप संभवतः कुंभ की पहचान खो बैठे और किसी अन्य मेले-उत्सव के रूप में मनाए जाने लगे।

ऐसे ही इन पर्वों में से तीन पर्वों की पहचान हो चली है। इनमें एक छत्तीसगढ़ का कुंभ पर्व है, जो आज 'राजिम मेला' या 'राजीव लोचन महोत्सव' के रूप में मनाया जाता है। इसी तरह दक्षिण भारत के तमिलनाडु स्थित 'कुंभकोणम' का 'महामाखम' मेला है। एक कुंभ वृंदावन में भी मनाए जाने की जानकारी मिली है। ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि 17वीं सदी में कुंभ के दौरान संघर्ष के बाद वैष्णव संत इसी कुंभ में जाने लगे। एक और कुंभ नेपाल में भी मनाए जाने की जानकारी मिली है। इस पर भी अब शोध अध्ययन हो रहा है।

दक्षिण भारत का कुंभ : महामाखम

इसे दक्षिण भारत का 'कुंभ' कहा जाता है। तमिलनाडु के कुंभकोणम में महामाखम सरोवर पर 'कुंभ' की यह जीवित-जाग्रत् परंपरा सदियों से चली आ रही है। कुंभकोणम' का संस्कृत नाम 'कुंभघोणम्' है। यहाँ प्रति बारहवें वर्ष महामाखम जलाशय के किनारे कुंभ राशि में ही गंगा तट जैसा पर्व-स्नान होता है। यहाँ प्रतिवर्ष साधारण मखम उत्सव मनाया जाता है, लेकिन बारह वर्षों में एक बार महामाखम में देशभर से लाखों लोग स्नान के लिए आते हैं। कुंभ राशि में पर्व स्नान होने के कारण ही महामखम को दक्षिण भारत का कुंभ मेला कहा जाता है। 'कुंभकोणम' कावेरी तट पर स्थित दक्षिण भारत का प्रमुख तीर्थस्थल है।

छत्तीसगढ़ का राजीव लोचन भी आदिकालीन ' कुंभ '

प्राचीन कुंभ स्थलियों में एक कुंभस्थली राजिम भी मानी जाती है। छत्तीसगढ़ की आध्यात्मिक राजधानी राजिम में तीन पवित्र नदियों महानदी, सौंढूर व पैरी की पावन त्रिवेणी में राजिम कुंभ का पावन आयोजन होता है। यहाँ राजिम में माघ पूर्णिमा से शिवरात्रि तक पुरातन काल से यह धार्मिक मेला लगता आ रहा है। राजिम को 'दक्षिणकौशल प्रयाग' भी कहा जाता है। तत्कालीन डॉ. रमन सिंह सरकार ने विधिवत् विधान सभा में 'कुंभ अधिनियम 2006' पारित कर कहा था कि "प्रतिवर्ष राजिम कुंभ का आयोजन होगा तथा बारहवें वर्ष में 'महाकुंभ' का आयोजन बेहतर प्रबंधन के साथ किया जाएगा।"

वृंदावन में भी आयोजित होता है ' कुंभ '

हरिद्वार महाकुंभ में ढाई सौ वर्ष पहले शैव व वैष्णव अखाड़ों के बीच हुए संघर्ष के बाद वैष्णव अखाड़ों का 'कुंभ' स्नान के लिए वृंदावन प्रस्थान कर जाने का उल्लेख मिलता है। कुछ आचार्यों के अनुसार वहाँ पूर्व से ही यह पर्व मनाया जाता रहा है। जनश्रुति है कि गरुड़ को अपनी माता विनीता को विमाता कद्रु के दासत्व से मुक्त कराने के लिए शर्त के अनुसार अमृत की आवश्यकता हुई। देवलोक में इंद्र को परास्त करके जब गरुड़जी इंद्र से अमृत लेकर चलते हैं, तो अमृत की बूंदें वृंदावन में छलकीं, तब से ही वृंदावन में कुंभपर्व मनाया जाने लगा।

वृंदावन का कुंभपर्व हरिद्वार कुंभ मेला से ठीक पूर्व बसंत पंचमी से आरंभ होकर होली तक चलता है तथा प्रत्येक बारहवें वर्ष वृंदावन में कुंभ मेले का आयोजन शताब्दियों से चला आ रहा है। भक्ति एवं प्रेम की स्थली वृंदावन के कुंभपर्व की ऐतिहासिकता निर्विवाद है। जिस समय औरंगजेब (1658 से 1707) ने हिंदुओं के धर्मस्थलों को नष्ट करते हुए वृंदावन के प्रसिद्ध श्रीगोविंददेव मंदिर पर आक्रमण किया, उस समय वृंदावन में कुंभ मेला लगा हुआ था। संत-महात्माओं ने औरंगजेब के इस दुष्कृत्य का जमकर मुकाबला किया, दुर्भाग्यवश हजारों साधुओं को मुगल सेना द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया था।

एतदर्थं महाकुम्भो वृन्दारण्ये शुभास्पदे।

यामुं तीरमासाद्य श्रीवैष्णवैविधीयते॥

श्रीमाघञ्चमीतो हि फाल्गुनपूर्णिमावधिः ।

कुम्भकालस्तु विज्ञेयः कृष्णलोकफलप्रदः॥

तेषामेव फलं रम्यं सर्वसौभाग्यकारकम्।

(साभार, वृंदावन कुंभ पर्व स्मारिका, 1998-99)

एक ' कुंभ ' नेपाल में भी

विश्व का एकमेव हिंदू राष्ट्र कहे जानेवाले देश नेपाल के काठमांडू से 50 किमी. दक्षिण-पूर्व स्थित कावरे जिले के पनौती पौराणिक नाम 'पुण्यावती' में त्रिवेणी संगम तट पर प्रति बारह वर्ष में मकर मेला के नाम से 'कुंभ' पर्व का आयोजन सदियों से होता आ रहा है। यहाँ रुद्रावती, लीलावती व पुण्यावती पावन नदियों के संगम पर यह तीर्थ स्थित है। यहाँ पूरे एक मास तक श्रद्धालुओं समेत साधु-संतों का विशाल जमावड़ा रहता है।



पुराणों से जुड़े हैं ' कुंभ ' के सूत्र

स्कंद पुराण में लिखा है कि देवासुर संग्राम में मरे हुए असुरों को जब शुक्राचार्य ने अपनी संजीवनी विद्या से पुनः जीवित कर दिया तो देवराज इंद्र को चिंता हुई। उस समय इंद्र ने ब्रह्माजी से परामर्श करके समुद्र मंथन का आयोजन किया। उस समुद्र-मंथन से तेरह रत्नों के पश्चात् चौदहवाँ रत्न अमृत निकला। कुंभ (घड़ा) अमृत से भरा था। इस अमृत कलश को धन्वंतरि से छीनकर बृहस्पति भागे। क्रोधित असुरों ने उनका पीछा करते हुए चार स्थानों पर संघर्ष किया, उन्हीं चार स्थानों पर कुंभपर्व मनाया जाता है।

पद्म पुराण में उल्लेख है कि देवगुरु बृहस्पति के इशारे पर इंद्रपुत्र जयंत इस अमृत कलश को ले भागा, जहाँ-जहाँ उसने यह कलश रखा, वहाँ कुंभ मनाया जाने लगा। वर्तमान में यह कुंभ पश्चिम दिशा में नासिक में गोदावरी के तट पर, दक्षिण दिशा में उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर व उत्तर दिशा में हरिद्वार गंगाजी के तट पर और पूर्व दिशा में प्रयाग में गंगा, यमुना के संगम पर आयोजित होता है।

इन चारों ही स्थानों पर देव-दानवों में अमृत कलश की छीना-झपटी के कारण अमृतकलश से कुछ बूंदें गिरी। अतएव ये चारों स्थान कुंभपर्व के पवित्र तीर्थ बन गए। कलश ही कुंभ है, अतएव इसका नामकरण कुंभपर्व किया गया। पद्म पुराण के अनुसार, देवगुरु बृहस्पति के संकेत से इंद्र का पुत्र 'जयंत' उस अमृतकलश को लेकर भागा। उस समय समस्त देव-दानवों ने उसका पीछा किया। उनमें परस्पर बारह दिन (देवताओं के दिन के अनुसार) मनुष्यों के अनुसार बारह वर्ष संघर्ष, चलता रहा। इस मध्य सुरक्षा की दृष्टि से अमृतकुंभ को बारह स्थानों पर रखा गया, जिसमें आठ स्थान स्वर्ग तथा चार स्थान पृथ्वी के थे। यहाँ पर विशेष उल्लेख किया है कि चंद्रमा ने कुंभ को ढकने से, सूर्य ने टूटने से, गुरु ने दैत्यों की छीना झपटी से तथा शनि ने जयंत के भय से रक्षा की थी। यथा--

पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्चते।

चतुःस्थले नितनात् सुधा कुम्भस्य भूतले॥

चन्द्र प्रस्रवणा रक्षा सूर्यों विस्फोटनात् दधौ।

दैत्येभ्यश्च गुरु रक्षा सौरिदेवेंद्रजात् भयात्॥

स्वर्णाक्षरों में दर्ज कुंभ 2010

उत्तराखंड के मुखिया बतौर मेरी निगरानी और मेरे निर्देशन में आयोजित हरिद्वार महाकुंभ 'कुंभ' के इतिहास में कई 'मील के पत्थर' दर्ज कर गया। संतों की सदियों की कटुता मिटाकर इस 'महाकुंभ' में, जहाँ सहिष्णुता की मिसाल कायम हुई, वहीं 'विश्व धरोहर कुंभ' का मार्ग भी प्रशस्त हुआ। पहली बार इस महाकुंभ से ही इस महापर्व को 'विश्वधरोहर' घोषित किए जाने की माँग की गई थी। साथ ही इस महाकुंभ को शांति का नोबेल पुरस्कार दिए जाने की भी पुरजोर माँग की गई। बड़ी संख्या में विदेशी अतिथियों और खासतौर से सांस्कृतिक प्रतिनिधियों व संस्कृति-दर्शनप्रेमियों को आमंत्रित किया, ताकि वे इस महापर्व के माहात्म्य से परिचित हो सकें। हमारी मेहनत रंग लाई। कुंभ शांति के नोबेल के लिए नामित हुआ। मुझे आश्चर्य इस बात का हुआ कि आखिर वे कौन से कारण थे जिसके फलस्वरूप यह नोबल प्राप्त नहीं कर पाया, क्योंकि न केवल हमने बल्कि मॉरीशस, यूगांडा, इंडोनेशिया आदि देशों ने भी विश्वशांति के इस महापर्व के सफल आयोजन हेतु मुझे बधाई दी एवं इसे 'नोबल' पुरस्कार जो कि दिया ही शांति व समरसता के क्षेत्र में उत्कृष्टता के लिए दिया जाता है, के लिए मजबूती से पैरवी भी की। कुंभ 2010 विश्व इतिहास का पहला ऐसा कुशल प्रबंधन का उदाहरण था, जिसमें बिना कोई विघ्न बाधा के करोड़ों लोगों ने एक साथ एक स्थान पर श्रद्धा की डुबकी लगाई। बस कुंभ को वैश्विक विरासत का भी इसे गौरव हासिल हुआ।

यूनेस्को ने माना कुंभ विश्व धरोहर है

यह मेरी और मेरे सहयोगियों के प्राण-प्रण प्रयासों का ही प्रतिफल है कि आज 'यूनेस्को' ने इसके 'विश्व धरोहर' होने पर मुहर लगाते हुए इस महाकुंभ को 'मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत' घोषित किया। दुनिया को चमत्कृत करते इस विराटतम और विलक्षण धार्मिक आयोजन को 'हरिद्वार महाकुंभ 2010' सही मायने में 'वैश्विक पहचान' ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय सम्मान' भी दिलाने में सफल रहा।

कुंभ के इतिहास में पहली बार इस महाकुंभ में उमड़े जन-सैलाब की सटीक वैज्ञानिक गणना हुई और भारतीय अंतरिक्ष अनुंधान संगठन 'इसरो' ने इस पर अपनी मुहर लगाई। सवा सौ ऊपर राष्ट्राध्यक्षों, प्रमुखों, प्रतिनिधियों समेत इस महाकुंभ में अब तक के सर्वाधिक साढ़े आठ करोड़ श्रद्धालु पहुँचे थे। एक ही दिन में एक ही जगह पौने दो करोड़ श्रद्धालुओं का जमावड़ा भी अपने आप में एक रिकॉर्ड है। इससे बड़ा आश्चर्य इतनी विराट् भीड़ का प्रबंधन और इस विराट् महापर्व का सफल आयोजन था।

संयुक्त राष्ट्र की संस्था 'यूनेस्को' ने इस महाकुंभ को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत करार दिया है। 'योग' विद्या के बाद किसी भारतीय परंपरा को मिला यह दूसरा 'अंतरराष्ट्रीय सम्मान' है। यूनेस्को की विशेषज्ञ समिति ने पहली बार यह माना है कि कुंभ इस धरती पर होनेवाला सबसे बड़ा 'शांतिपूर्ण धार्मिक आयोजन' है, जिसमें विभिन्न धर्म समुदायों के लोग बगैर किसी भेदभाव के एकात्म रूप में भाग लेते हैं। सहिष्णुता व समायोजन का यह दुनिया का अनूठा और अद्भुत आयोजन है। भारतीय सनातन संस्कृति का प्रतीक यह महापर्व निश्चित ही इस सर्वोच्च सम्मान का हकदार है। मुझे बेहद खुशी है कि महाकुंभ के दौरान हमने इसके विश्व धरोहर का प्रस्ताव भेजा था और अंतत: हमारी मेहनत रंग ले आई।

पहली बार कुंभ नोबेल के लिए भी नामित

स्वतः स्फूर्त दुनिया के इस विराट् समागम को देखते हुए हमने इस महाकुंभ को 'विश्व धरोहर' घोषित करने की माँग की थी, साथ ही शांति व सद्भावना के इस विराट् प्रतीक को नोबेल सम्मान दिए जाने का आग्रह भी किया था। इतिहास में पहली बार 'कुंभ' 'नोबेल' के लिए नामित किया गया, साथ ही इसे अब 'विश्व धरोहर' की मान्यता भी दे दी गई है। यह सम्मान मुझे भाव-विभोर कर गया है।

इस तरह वैश्विक सम्मान दिलाने के साथ-साथ 'सहिष्णुता' की मिसाल कायम कर यह महाकुंभ स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गया। यही नहीं कुंभ के इतिहास में पहली बार विशुद्ध वैज्ञानिक पद्धति से कुंभ में आए श्रद्धालुओं के सैलाब की सटीक गणना का काम हुआ। इसमें उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र और इसरो की भूमिका उल्लेखनीय रही। इस तरह एक ही दिन इस महाकुंभ में एक करोड़ साठ लाख श्रद्धालुओं के पहुंचने का रिकॉर्ड भी दर्ज हुआ। यह ऐतिहासिक दिन था 14 अप्रैल, 2010 का। इस दिन बैसाखी पर कुंभ का मुख्य और अंतिम शाही स्नान था। इसी तरह पहली बार कुंभ मेला क्षेत्र, कुंभ जिला भी घोषित कर दिया गया, ताकि मेले की प्रशासन और प्रबंधन संबंधी गतिविधियों में और कुशलता लाई जा सके। हमारा यह प्रयोग पूरी तरह सफल रहा। इस पर विस्तार से आगे लिखा गया है।

बरसों की कटुता मिटना सबसे बड़ी उपलब्धि

दुनिया के इस विराटतम और विलक्षण मेले के सफल आयोजन समेत कई उपलब्धियों के बीच में दो बड़ी उपलब्धियाँ मेरी और मेरे सहयोगियों की जीवटता और जुनून का असली ईनाम हैं। मेरा मन उस समय खिल उठा, जब ढाई सौ बरसों से चली आ रही संतों के बीच की कटुता इस महाकुंभ में हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो गई। इस तरह इस महाकुंभ में सदा के लिए नाता तोड़कर चल दिए वैष्णव अखाड़ों को न सिर्फ ससम्मान विनयपूर्वक लौटाया गया, बल्कि उन्होंने पहली बार इतिहास रचते हुए माँ गंगा की अमृतमयी धारा में एक साथ डुबकी भी लगाई। 'कुंभ' के इतिहास में यह ऐतिहासिक घड़ी थी।

तीन की जगह अब चार शाही स्नान

'कुंभ' के इतिहास में यह पहला अवसर था, जब संत समाज ने आगे बढ़कर आपसी सद्भाव व सहिष्णुता की मिसाल कायम की। हमारी मेहनत रंग लाई और सभी 13 अखाड़े न सिर्फ एक साथ नजर आए, बल्कि आगे के लिए दो नई परंपराओं की नींव भी पड़ी। पहला, 'प्रथम शाही स्नान' के दरवाजे सभी अखाड़ों के लिए खोल दिए गए और दूसरा, 'वैष्णव' संतों के चैत्र पूर्णिमा पर 'कुंभ स्नान' को भी 'शाही स्नान' का दर्जा मिल गया। इस तरह 'महाकुंभ 2010' से चौथे शाही स्नान की भी शुरुआत हो गई। निश्चित ही इन बड़ी उपलब्धियों से हरिद्वार महाकुंभ सफल और सार्थक हो गया।

इस प्रकार 2010 के इस कुंभ महापर्व पर पहला शाही स्नान 12 फरवरी महाशिवरात्रि के दिन हुआ। दूसरा शाही स्नान 15 मार्च को चैत्र अमावस्या पर, तीसरा चैत्र पूर्णिमा के दिन 30 मार्च को और चौथा बैसाखी पर 14 अप्रैल को संपन्न हुआ। मुझे यह कहते हुए अति प्रसन्नता हो रही है कि हरिद्वार कुंभ के मर्मज्ञ और संस्कृति व दर्शन के प्रकांड विद्वान् पंडित विष्णु दत्त राकेश ने न सिर्फ कुंभ प्रबंधन की मुक्तकंठ से सराहना की, बल्कि उन्होंने अपने पांडित्यपूर्ण लेख में विशेष रूप से उल्लेख किया कि यह स्नान कुंभ मेले के इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गया है। यह वाकई एक बड़ी उपलब्धि थी।

हर आठवाँ ' कुंभ ' 11 वर्ष में

वर्ष 1855 में कुंभ पड़ा और उसके बाद सातवाँ कुंभ 1927 में पड़ा। गुरु की गति के कारण उससे अगला कुंभ 1939 के बजाय 1938 में पड़ गया। यह कुंभ 11 वर्ष बाद पड़ा था। इसी प्रकार वर्तमान शताब्दी का सातवाँ कुंभ 2010 में पड़ रहा है, लेकिन आठवाँ कुंभ 2022 के बजाय 2021 में पड़ जाएगा। वर्ष 1938 के बाद हर आठवाँ कुंभ 11 वर्ष में होगा। प्रत्येक शताब्दी में ऐसा एक बार अवश्य होता है।

हर चौथे वर्ष में होता है कुंभ

'जयंत' द्वारा अमृत कलश बारह स्थानों पर रखा गया। इनमें से चार स्थान (हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन, नासिक) पृथ्वी पर तथा शेष आठ ब्रह्मांड में अदृश्य रूप से विद्यमान हैं, जिनका पता देहधारियों को नहीं है। धरती के चारों कुंभ नगरों में प्रत्येक तीन वर्ष बाद कहीं न कहीं कुंभ पर्व पड़ता है। देवताओं के बारह दिन, चूँकि धरती के बारह वर्ष बनते हैं, अतः एक स्थान पर बारह वर्ष बाद कुंभ आता है, जिन बारह स्थानों पर ब्रह्मांड में कुंभ रखा गया, वहाँ प्रत्येक वर्ष कहीं-न-कहीं कुंभ पर्व पड़ेगा।

 

महाशिवरात्रि स्नान बना इतिहास

एक महत्त्वपूर्ण बात को मैं अत्यंत हर्ष के साथ साझा करना चाहता हूँ कि अब तक 'कुंभ' के इतिहास में प्रथम 'शाही स्नान', यानी महाशिवरात्रि पर होनेवाला 'कुंभ' स्नान सिर्फ सात संन्यासी अखाड़ों तक ही सीमित था। श्री पंचायती निरंजनी अखाड़ा, श्री आनंद अखाड़ा, श्री जूना अखाड़ा, श्री आवाहन अखाड़ा, श्री पंचअग्नि अखाड़ा, श्री महानिर्वाणी अखाड़ा व श्री पंच अटल अखाड़ा के नागा साधु ही इस शाही स्नान में भाग ले सकते थे मगर इस महाकुंभ में बाकी के छह अखाड़ो को भी न सिर्फ इस पहले शाही स्नान में आमंत्रित किया गया, बल्कि पहली बार सभी अखाड़ों ने पावन स्नान भी किया।

इस तरह इस कुंभ के इस पहले शाही स्नान में जब अखाड़ा परिषद् के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास, आचार्य विष्णु देवानंद, महंत मित्रप्रकाश, महंत राजेंद्र दास आदि संत-संन्यासियों के सैलाब की अगुवाई करते हुए हर की पैड़ी पहुँचे तो कुंभ महापर्व का परम उद्देश्य सार्थक हो गया।

वैष्णव अखाड़ों की ससम्मान वापसी

दुर्भाग्य से 'कुंभ' में स्नान को लेकर पूर्व में कई बार खूनी संघर्ष हुआ है। सन् 1660 में 'कुंभ' में शैव जोगियों और वैष्णव वैरागियों के बीच अब तक का सबसे बड़ा रक्त रंजित संघर्ष हुआ, जिसमें अनुमानत: 18 हजार के ऊपर जानें गईं। कहा जाता है, इसी कुंभ से वैष्णव महात्माओं ने यहाँ 'कुंभ' में आना बंद कर दिया और वृंदावन में अपना अलग से 'कुंभ' मनाने लगे। हालाँकि बाद में धीरे-धीरे तमाम संत-महात्माओं की पहल और शासन-प्रशासन के प्रयासों से वैष्णव अखाड़ों का इधर आना शुरू हुआ, मगर 2010 के 'कुंभ' से पूर्व तक वैष्णव अखाड़े प्रथम शाही स्नान वृंदावन में ही करते आ रहे थे और दूसरे व तीसरे स्नान में वे अन्य अखाड़ों के साथ स्नान करते थे।

पहली बार 13 अखाड़े एक साथ

पूरे ढाई सौ बरस बाद 2010 के हरिद्वार महाकुंभ में वह ऐतिहासिक शुभ अवसर आया, जब अखाड़ों के बीच के न सिर्फ मतभेद व मनभेद दूर हए, बल्कि आपसी सौहार्द की मिसाल कायम करते हुए देश भर के सभी तेरह अखाड़ों ने 'पहले शाही स्नान' में पहली बार भागीदारी की। यही नहीं वैष्णव वैरागियों के प्रस्ताव पर मुहर लगाते हुए, तीन शाही स्नानों की परंपरा में चौथा शाही स्नान पर्व भी जुड़ गया। यह महाकुंभ को सार्थक करती सबसे बड़ी उपलब्धि थी।

मेरे लिए यह सबसे बड़ा पारितोषिक

यह इस महाकुंभ के आयोजन की बड़ी सफलता थी कि संन्यासी अखाड़ों ने बाकी के छह अखाड़ों के प्रस्ताव को न सिर्फ स्वीकार कर लिया, बल्कि सभी 13 अखाड़ों के मिलकर शाही स्नान की घोषणा भी कर दी। इस तरह महाकुंभ 2010 सदियों से चली आ रही कटुता व भूल-चूकों को तिलांजलि देने का एक बड़ा अविस्मरणीय निमित्त बना।

विद्वत् संत समाज का आशीर्वाद भी रहा अहम

मैं शुरू से ही जहाँ इस नवोदित राज्य के इस पहले महापर्व की महाचुनौती को लेकर चिंतित था, वहीं मेरी छटपटाहट समस्त संत समाज को एकजुट करने की भी रही। प्रदेश के मुखिया की जिम्मेदारी सँभालने के तुरंत बाद से ही मैं संत समाज के अग्रजों से लेकर महामंडलेश्वरों तक न सिर्फ

नियमित संपर्क में रहा, बल्कि समय-समय पर उनसे निवेदन कर उनका सा न्निध्य प्राप्त करता रहा। मिल-बैठकर बीच-बीच में मंत्रणाओं का सौभाग्य भी मिला। मैं अंतर्मन से इस विद्वत् संत समाज का आभारी हूँ कि उन्होंने इस महाकुंभ में इतिहास रचते हुए देश-दुनिया को सहिष्णुता की यह परम सौगात तो दी ही, साथ ही महाकुंभ के माहात्म्य को और महिमामंडित कर दिया। मेरे लिए यह सब जीवन की बड़ी और निज उपलब्धि भी है।

सार्थक हुआ महाकुंभ

इस तरह हरिद्वार महाकुंभ के पहले शाही स्नान में जब अखाड़ा परिषद् के साथ-साथ सभी अखाड़ों के संत-महंत एक साथ हर की पैड़ी पहुँचे तो जैसे 'राष्ट्रीय एकता' के इस महापर्व का 'एकात्म' हो जाने का महासंदेश सार्थक हो गया। सारे 13 अखाड़ों के बीच यह इस महाकुंभ की सबसे बड़ी उपलब्धि रही। यही नहीं, यह हरिद्वार महाकुंभ 2010 ही था, जिसमें सभी अखाड़ों ने मिलकर परंपरागत 'तीन शाही' स्नानों की जगह 'चार शाही' स्नानों की नई परंपरा का सूत्रपात भी किया। दरअसल अखाड़ों के बीच स्नान को लेकर पूर्व से तमाम लोमहर्षक घटनाओं के चलते, अब तक यहाँ नागा साधुओं के सात संन्यासी अखाड़े ही शाही स्नान करते आ रहे थे। महाकुंभ 2010 में हुई ऐतिहासिक पहल के बीच वैरागी, उदासी और निर्मल अखाड़ों ने अपने छह अखाड़ों समेत न सिर्फ शाही स्नान के आमंत्रण को सहर्ष स्वीकार किया, बल्कि भविष्य के लिए 'चैत्र पूर्णिमा' पर होनेवाले कुंभ स्नान को भी शाही स्नान का दर्जा दिए जाने की मांग भी की थी।

निर्मल अविरल गंगा अगला पड़ाव

हिमालय और गंगा बचपन से ही मेरे दिल में धड़कते रहे हैं। साँसों में घुले-मिले रहे हैं। ये दोनों भारत के लिए तो ईश्वरी देन हैं ही, साथ में ये दोनों वैश्विक धरोहर भी हैं। मानव इतिहास से लेकर मानव संस्कृति और मानव जीवन सब इनके ऋणी हैं। भारत की समृद्ध सनातन ऋषि संस्कृति हिमालय और गंगा के सान्निध्य में ही पल्लवित-पुष्पित हुई हैं। हरिद्वार 'कुंभ' नगर भी इसी हिमालय और माँ गंगा की ही देन है। मेरा 'स्पर्श गंगा अभियान' निर्मल-अविरल गंगा को ही समर्पित है। देवभूमि उत्तराखंड में लाखों भगीरथ स्वतःस्फूर्त मनोयोग से इस महा अभियान में जुटे पड़े हैं, ताकि माँ गंगा की निर्मलता अविरलता अक्षुण्ण बनी रहे।

पहली बार बना कुंभ जिला

मेला अधिनियम 1938 के तहत जहाँ कुंभ मेला क्षेत्र 1 जनवरी, 2010 से स्वतः पूरे कुंभ आयोजन तक अस्तित्व में आ गया, वहीं शासन की अधिसूचना ने इसे कुंभ जनपद का अधिकार भी प्रदान कर दिया। कुंभ जनपद सृजित करने का यह पहला अभिनव प्रयोग था और यह पूरी तरह अपने उद्देश्य में सफल भी रहा।

कुशल प्रशासनिक व्यवस्था के साथ-साथ महाकुंभ के सफल संचालन में इस व्यवस्था की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही। शासन द्वारा 130 वर्ग किमी. क्षेत्रफल में फैले कुंभ क्षेत्र को अधिसूचना के जरिए कुंभ जिला घोषित कर दिया गया। इस अधिसूचना के लागू होते ही कुंभ मेलाधिकारी कुंभ जनपद के जिलाधिकारी और मेला पुलिस अधिकारी, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के नाम से संबोधित किए जाने लगे।

कुंभ जनपद को 32 सेक्टरों में बाँटा गया। प्रत्येक सेक्टर को डिप्टी कलेक्टर अथवा सेक्टर मजिस्ट्रेट के अधीन रखा गया, साथ ही कुंभ जनपद में 32 स्थायी पुलिस स्टेशन भी स्थापित किए गए। कुंभ जिला बनने के बाद मेला पुलिस भी पुलिस ऐक्ट से संचालित होने लगी।

इस नई व्यवस्था के तहत प्रशासनिक व प्रबंधकीय कार्यों का संचालन सुगम हो गया। इस तरह कुंभ जिले में गढ़वाल मंडल के चार जनपदों से लगे इलाके क्रमशः हरिद्वार शहर के अलावा बहादराबाद क्षेत्र, देहरादून जनपद का ऋषिकेश, टिहरी जनपद की मुनि की रेती तथा पौड़ी जनपद का लक्ष्मणझूला, स्वर्गाश्रम व नीलकंठ महादेव मंदिर शामिल किया गया। इस तरह हरिद्वार महाकुंभ के इतिहास में कुंभ जिले का यह अभिनव प्रयोग पहली बार अमल में लाया गया और पूरी तरह सफल रहा।

 

अद्भुत है ' कुंभ ' आयोजन परंपरा

कुंभ विशुद्ध ग्रहों की गणनाओं पर आधारित पर्व है। सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति की ग्रहीय स्थिति 'कुंभ' का निर्धारण करती है। 'पंचांग' में तिथि की घोषणा होते ही बगैर किसी नामांकन, पंजीकरण के कोटि-कोटि श्रद्धालुजन 'कुंभ' यात्रा पर निकल पड़ते हैं। हरिद्वार में सूर्य के मेष, चंद्रमा के मकर और देवगुरु बृहस्पति के कुंभ राशि में आ जाने पर 'कुंभ' पर्व का योग बनता है, जबकि प्रयाग में वृष व उज्जैन और नासिक में सिंह में गुरु पर 'कुंभ' का योग बनता है। 'कुंभ' पर्व का शुभारंभ विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों के आयोजनों के साथ शुरू होता है।

त्रिशूल स्थापना से होती है शुरुआत

यह महाकुंभ के शुभारंभ का पहला धार्मिक अनुष्ठान है। महाकुंभ को निर्वाध व निर्विघ्न संपन्न कराने के लिए आद्यशक्ति के प्रतीक माँ दुर्गा की पौराणिक शक्तिपीठ 'मायादेवी' मंदिर के प्रांगण में 108 हाथ ऊँचा विशाल त्रिशूल स्थापित किया जाता है। इस त्रिशूल का निर्माण कुशल कारीगरों द्वारा कराया जाता है। इसे वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ विधि-विधान से स्थापित किया जाता है। मायादेवी हरिद्वार की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती हैं। यह विश्वविख्यात तीर्थ इसी देवी के नाम पर बसा है। आज भी गंगा पर संकल्प कराते समय इसे 'माया क्षेत्र' ही कहा जाता है।

यह स्थान वर्तमान में पंचदश जूना अखाड़ा, भैरव अखाड़े के अधीन है। भैरव अखाडे के नागा ही इस मंदिर में पूजा करते हैं। मान्यता है कि सती के शरीर के इक्यावन टुकड़े जिन-जिन स्थानों पर गिरे, वे शक्तिपीठ कहलाए। मायादेवी शक्तिपीठ को इन सभी शक्तिपीठों में सर्वोपरि स्थान प्राप्त है। कहते हैं, इस स्थान पर सती की नाभि गिरी थी, जो शरीर का मल स्थान है। विश्वास किया जाता है कि पीतल के इस शक्तिपीठ में स्थापित त्रिशल से निकलनेवाली अलौकिक शक्ति कुंभ' मेला क्षेत्र को संपूर्ण संकटों से बचाती है। त्रिशूल की प्रतिदिन विधिवत् पूजा की जाती है।

धर्मध्वजा आरोहण है दूसरा चरण

धर्मध्वजा एक तरह का 'ध्वजारोहण' है। अखाड़ों की धर्मध्वजा फहरने के साथ ही यह मान लिया जाता है कि 'कुंभ' महापर्व प्रारंभ हो चुका है। धर्मध्वजा फहराते ही 'कुंभ' नगर के बाहरी इलाकों में डेरा डाले साधु संन्यासी शाही सवारी के साथ अपने-अपने अखाड़ों के लिए प्रस्थान करते हैं। धर्मध्वजा के लिए 52 हाथ लंबे वृक्षों की तलाश की जाती है। वनाधिकारियों की मदद से सघन जंगलों में साधु-संन्यासी अपने-अपने अखाड़ों के लिए वृक्षों का चयन करते हैं। फिर विधि-विधान से पूजा-अर्चना कर उन पर डोरी बाँधी जाती है, उनका तिलक किया जाता है फिर इस वृक्ष देवता का 'कुंभ' महापर्व के लिए 'धर्मध्वजा' का रूप धारण करने का आह्वान किया जाता है। इस तरह पूजित वृक्षों को अखाड़े में लाकर उनकी सजावट की जाती है और क्रमवार मुहूर्तों के अनुसार अपनी-अपनी धर्मध्वजा स्थापित की जाती है।

नागा संन्यासियों द्वारा समय-समय पर राष्ट्र की रक्षा के साथ-साथ धर्म पर विपत्ति के समय महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि जब मंदिरों एवं राज्य की रक्षा के लिए नागा संन्यासियों ने लड़ाइयाँ तक लड़ीं। इतिहास गवाह है कि 1157 की ऐतिहासिक लड़ाई में नागा संन्यासियों ने आतताइयों के दाँत खट्टे कर दिए थे। इसके अतिरिक्त देश के विभिन्न भागों में होनेवाली अनेक लडाइयों में भी उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए योगदान दिया।

इतिहास के अनुसार पृथ्वीराज चौहान पर मोहम्मद गौरी ने तीन बार आक्रमण किया तथा तीनों बार उसे पराजित होना पड़ा। इसके पश्चात् मोहम्मद गौरी द्वारा पराजित होने पर क्षमा-याचना की गई। पृथ्वीराज चौहान ने उसे माफ कर दिया। पृथ्वीराज चौहान को आभास हो गया था कि एक न एक दिन उसकी शक्ति और वैभव समाप्त होना ही है, इसीलिए पृथ्वीराज चौहान ने राष्ट्र की ध्वजा अपने पास रखकर धर्मध्वजा को अखाड़ों के नागा संन्यासियों के सुपुर्द कर दिया। चौहान का मानना था कि राजधर्म तो पुनः स्थापित हो सकता है, लेकिन धर्म नष्ट होने पर कुछ भी नहीं बचता है।

बारहवीं शताब्दी में उन्होंने संन्यासियों को धर्मध्वजा सौंप दी। तभी से यह धर्मध्वजा साधु-संतों के पास है। ध्वजा ऊपर मोर के पंख बाँधे जाने की परंपरा है। सातों संन्यासी अखाड़ों में इसको अपनाया जाता है। उदासीन बड़ा और उदासीन नया अखाड़ों में ध्वजा का रंग लाल, संन्यासियों का गेरुआ, निर्माणी में लाल, निर्मोही में सफेद तथा दिगंबर अखाड़े में पाँच रंग की धर्मध्वजा स्थापित की जाती है। केवल निर्मल अखाड़ा को छोड़ शेष सभी धर्मध्वजाओं की स्थापना पेशवाई से पूर्व की जाती है। श्रीगुरुगोविंद सिंह द्वारा स्थापित निर्मल अखाड़ा में ध्वजा की स्थापना अखाड़ा की जमात की पेशवाई की छावनी में प्रवेश के बाद की जाती है।

 

अखाड़ों के लिए प्रस्थान से होता है

' कुंभ ' का आगाज

धर्मध्वजा फहरते ही साधु-संन्यासियों का अपने-अपने अखाड़ों की ओर पप्रस्थान होता है। 'कुंभ' मेला क्षेत्र में यह प्रवेश 'पेशवाई', यानी शाही सवारी कहलाती है। सही मायनों में यह अखाड़ों का शक्ति प्रदर्शन है। शाही सवारी के दिन ढोल-नगाड़ों के बीच तुरही व शंखनाद के साथ घोड़े पर विराजमान निशान देवता विशिष्ट झाँकियों के संग सजे-सँवरे हाथी घोड़े, रथों व बैंड-बाजों के साथ नगर-भ्रमण करते हुए साधु-संन्यासी अपने अपने अखाड़ों में प्रवेश करते हैं। इस यात्रा का जगह-जगह भव्य स्वागत होता है।

नागा संन्यासियों द्वारा अनेक हिंदू राजा और महाराजाओं की समय समय पर सहायता की गई। इस कारण राजा-महाराजाओं द्वारा उपहारस्वरूप इन संन्यासियों को धन-दौलत, जमीन-जायदाद दी गई। 17वीं सदी में संन्यासियों को जहाँगीर ने घोड़ा, हाथी, छत्र और वस्त्र आदि भेंटस्वरूप प्रदान किए और संपूर्ण नगर क्षेत्र में यह आदेश दिया कि जहाँ से भी नागा संन्यासी निकलें तो उनका स्वागत राजा की तरह ही होना चाहिए। कुंभ पर्व पर वर्तमान समय में नागा संन्यासियों की पेशवाई उसी अंदाज में निकाली जाती है। अखाड़े अपनी पेशवाई में भव्यता का प्रदर्शन करते हैं। इसमें विभिन्न प्रकार के अत्र-शत्रों का प्रदर्शन, झाँकियों और युद्ध का प्रदर्शन बैंड और बाजों के साथ करते हुए चलते हैं। जनता द्वारा पेशवाई का स्थान-स्थान पर भव्य स्वागत किया जाता है। अखाड़ों की पेशवाई का कुंभ में अपना एक अलग ही आकर्षण होता है।

कुंभ पर्व पर अखाड़ों द्वारा जो जुलूस निकाले जाते हैं, उसे 'पेशवाई' कहा जाता है। पेशवाई के पश्चात् अखाड़ों द्वारा स्नान किया जाता है, जिसे 'शाही स्नान' कहा जाता है। शाही स्नान का अपना एक अलग आकर्षण एवं महत्त्व है। शाही स्नान के लिए साधु-संतों को शीर्ष प्राथमिकता दी जाती है, क्योंकि अखाड़ों के स्नान के बिना कुंभ पर्व पूर्ण नहीं माना जाता है।

संन्यास दीक्षा अनुष्ठान भी एक अहम हिस्सा

पेशवाई के बाद अखाड़ों में धूनी, अग्निहोत्र, प्रवचन, भागवद् कथाएँ आदि का क्रम शुरू हो जाता है। इस तरह 'कुंभ' संपन्न होने तक यह सिलसिला जारी रहता है। इस दौरान अखाड़ों में दीक्षाएँ भी दी जाती हैं। नए साधु बनाए जाते हैं। उन्हें संस्कारित किया जाता है। अखाड़ों में पहुँचे नागा संन्यासियों को संन्यास दीक्षा आचार्यों द्वारा दी जाती है। इसके लिए परमहंस कोटि के विद्वान् तपस्वी संन्यासियों को आचार्य महामंडलेश्वर का पद दिया जाता है। यह परंपरा संन्यासियों के सात अखाड़ों में है। संन्यासियों से इतर उदासीन व निर्मल अखाड़ों में महामंडलेश्वर बनाने की परंपरा नहीं है।

 

अखाड़ों के बिना ' कुंभ ' अधूरे

साधु-संन्यासियों और उनके अखाड़ों की परंपरा से परिचित हुए बिना कुंभ और प्राचीन भारतीय दर्शन को समझा ही नहीं जा सकता। दरअसल कुंभ पर संसारियों के साथ-साथ लाखों की संख्या में संन्यासियों की भी सक्रिय उपस्थिति अनुपम और अनूठी है। स्वतःस्फूर्त इस विराट् समागम के कारण ही अखाड़ों, धार्मिक मर्मज्ञों, दार्शनिकों, समाज सुधारकों आदि ने देश व विश्वव्यापी सीख-संदेशों के लिए समय-समय पर इस संत-समागम व मानव-मिलन का भरपूर उपयोग किया। अखाड़ों की इस पर्व पर भूमिका हमारी समृद्ध परंपरा के लिहाज से और भी महत्त्वपूर्ण है।

अखाड़ों में साधु-संन्यासियों को प्रशिक्षित किया जाता है। उन्हें शस्त्र विद्या सिखाई जाती है। दरअसल संन्यासियों को पूर्व में शास्त्र और शस्त्र दो विधाओं में पारंगत किए जाने की परंपरा रही। इनमें शात्रधारी संन्यासी अध्ययन एवं अध्यापन कर, जहाँ आध्यात्मिक विकास में जुटते थे, वहीं शस्त्र प्रवीण साधुओं का काम धर्म रक्षा और समाज रक्षा का था। इसी निमित्त इन प्रशिक्षण स्थलों को 'अखंड' पुकारा जाता था, जो धीरे-धीरे 'अखाड़े' नाम से प्रचलित हो गए।

अखाड़े हमारी आन - बान - शान

इतिहास गवाह है, शत्रधारी व शात्रधारी इन अखाड़ों में संस्कृति की रक्षा के साथ-साथ समय-समय पर धर्मरक्षार्थ सशस्त्र प्रतिरोध कर आततायियों से रक्षा भी की है। दुनिया से आज कई सभ्यताएँ, संस्कृतियाँ मिट गईं, पर हमारी हस्ती सदियों बाद भी बची हुई है तो इन अखाड़ों का ही इसमें अविस्मरणीय योगदान है। हमारी आन-बान-शान हैं ये अखाड़े, साथ ही हमारी समृद्ध ऋषि-परंपरा के प्रतीक भी।

दुनिया में आज हमारी राष्ट्रीय पहचान, हमारे साधु-संत व संन्यासियों को लेकर भी है। दुनिया के किसी भी कोने में गेरुआ वस्त्रधारियों को देखते ही धर्म-संस्कृति परायण हिमालयी देश भारत का नाम बरबस ही जुबान पर आ जाता है। हमारी सनातन परंपरा में इन साधु-संन्यासियों के लिए जहाँ एक ओर जनता की आध्यात्मिक शिक्षा-दीक्षा को धर्मशात्र संबंधी ज्ञानार्जन का विधान है, तो दूसरी ओर पाश्वी शक्तियों से धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र विद्या का भी प्रावधान है। आदिगुरु शंकराचार्य ने इसी क्रम में साधु-संन्यासियों को दो दिशाओं में प्रशिक्षित कर विभिन्न नामों से उन्हें जिम्मेदारियाँ दीं। चार मठ और दस शाखाओं से जोड़ते हुए उन्हें हमारी सनातन संस्कृति का प्रतिनिधि बनाया।

 

कुल तेरह अखाड़े हैं देश भर में

सन्यासियों के लिए सांसारिक उन सभी वस्तुओं का त्याग करने की परंपरा है, जो धर्म रक्षा के पुनीत उद्देश्य में बाधक हों। यहाँ तक कि देह रक्षक वस्त्रों का भी उन्होंने त्याग कर दिया। इस तरह अस्त्र व आत्मिक शक्तियों में प्रवीण इन साधु-संन्यासियों को जनसमुदाय ने नग्न संन्यासी कहना शुरू कर दिया। कालांतर में यही 'नागा' संन्यासी कहे जाने लगे और उनके प्रशिक्षण स्थल 'अखंड' नाम से पुकारे गए, जो बाद में 'अखाड़े' के रूप में प्रचलित हो गए।

संत-महात्माओं और अखाड़ों की भागीदारी से ही कुंभ मेलों की महानता बनी हुई है। इस दिशा में जगदगुरु शंकराचार्य के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता। आद्य शंकराचार्य ने उस कठिन समय में हिंदू समाज को एकजुट किया, जब यूरोपीय मिशनरी संपूर्ण भारत में धर्मांतरण के लिए हर प्रकार के हथकंडे अपना रहे थे। दूसरी ओर राजा-महाराजा बौद्ध धर्म से प्रभावित हो रहे थे। पूरे भारत में हिंदू धर्म का अस्तित्व संकट में था। बिखरे हुए संत समाज को एक दिशा देने के लिए आद्य शंकराचार्य ने देश के चारों कुंभों में संत समाज के एकत्र होने की परंपरा को पुनर्जीवित किया।

संत समाज का देश की स्वतंत्रता सुनिश्चित रखने में भी बड़ा योगदान है। उन्होंने आवश्यकता पड़ने पर शास्त्र के साथ शस्त्रों को भी धारण किया। राजा और प्रजा दोनों का मार्गदर्शन किया। जब देश पर आक्रमण हुए, और राजा-महाराजा पराजित होने लगे, तब संतों ने शस्त्र धारण करके युद्ध भी किए। संन्यासियों की एक मात्र सेना नागा साधुओं के सैन्य बल के रूप में विश्वविख्यात है। जब-जब हिंदू धर्म को समाप्त करने के प्रयास किए गए साधु-संतों ने आत्मबलिदानी युवाओं को शास्त्रों के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी दी।

धर्म और राष्ट्र में चेतना जगानेवाले सशस्त्र नागा साधुओं के समूह को पहले अखंड कहा जाता था-'अखण्ड संज्ञा सङ्केतः कृतोधर्मविवर्धये।' प्रकारांतर में अखंड शब्द ही बिगड़ते-बिगड़ते अखाड़ा बना और बाद में अखाड़ा कहलाने लगा, 'अखाड़ा नामादिखण्डो, यत्र सः अखण्ड उदाहृत।' वास्तव में यह अखाड़ा वह स्थान कहलाता है, जहाँ मैं और तेरा कोई भेद न हो।

अखाड़ों के बारे में जनसामान्य को अधिक जानकारी नहीं है। यह ऐतिहासिक सत्य बहुत कम लोग ही जानते हैं कि जब खिलजी और तुगलक वंश के शासकों द्वारा अपने धर्म के प्रचार के लिए केवल हिंसा और शस्त्रों का सहारा लिया जा रहा था। उसी काल में कुंभ