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कहानी संग्रह

मेरे संकल्प

रमेश पोखरियाल निशंक


मेरे संकल्प

 

 

 

 

डॉ . रमेश पोखरियाल ' निशंक '

 

 

 

 

वाणी प्रकाशन

21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली- 110002

फोन : 011-23273167, 23275710

Email: vaniprakashan@gmail.com

Website: www.vaniprakashan.com

प्रथम सं. 2008 ISBN: 978-81-8143-775-4

 

 

अनुक्रमणिका

भाग्य की लकीर

संकल्प

परीक्षा

ठीया

छलावा

भय

प्रतीक्षा

कीमत

कहाँ हुई भूल

आदमखोर

आश्रय

 

 

भाग्य की लकीर

अस्पताल के उस आपातकालीन वार्ड में चारपाई पर लेटे अपने बीमार पिता की बिगड़ती स्थिति को देखकर मनवेन्द्र ने पूरी रात झपकी नहीं ली थी। सच पूछें, तो उसकी आँखों में नींद तक न थी। उसकी नींद तो पिता की बीमारी के बढ़ने के साथ ही गायब हो चुकी थी। पिता के कैंसर जैसे असाध्य रोग से पीड़ित होने की खबर से उसके पाँव तले जमीन खिसक गई थी। लगता था मानों उसकी सारी खुशियों एवं हौसलों को किसी की बुरी नजर लग गई हो।

उसकी व्यक्तिगत खुशियों एवं उपलब्धियों का रंग भी फीका पड़ गया था। पिता की लाइलाज बीमारी ने तो मनवेन्द्र की खुशियों पर तुषारापात कर दिया।

कई बार वह सोचता कि वह कोई बुरा सपना देख रहा है, जो शायद नींद खुलते ही टूट जायेगा, परंतु दूसरे ही पल वह महसूस करता कि वह तो पूरे होशोहवाश में है और जगा हुआ है। उसके सामने बेड पर उसके पिता का रुग्ण शरीर पड़ा है।

उस पिता का शरीर, जिन्हें उसने अपने जीवन में एक क्षण भी आराम करते नहीं देखा था। जब भी देखा, कुछ न कुछ करते ही देखा। कभी साग-सगोड़ों में निराई गुड़ाई करते, कभी खेतों में जूझते, तो कभी घास लकड़ी का गट्ठर ढोते हुये। अब तो डॉक्टरों ने भी हाथ खड़े कर दिये और कह दिया कि ईश्वर से दुआ करो। कोई चमत्कार ही उन्हें बचा सकता है। मनवेन्द्र सोचने लगा कि डॉक्टर बीमारी का इलाज तो करते हैं, परंतु मृत्यु का तो उनके पास भी कोई इलाज नहीं है। पिता की मरणासन्न देह को देखकर मनवेन्द्र उस पलंग पर बैठे-बैठे कहीं अतीत की स्मृतियों में डूब गया।

बात उन दिनों की है, जब आठवीं की बोर्ड परीक्षा हुआ करती थी। परीक्षाएँ देने के बाद छुट्टियों में वह हर रोज गांव के ऊपर चंदेणा के जंगल में काफल खाने दोस्तों के साथ जाया करता था। उस साल काफल के पेड़ फलों से लक-दक भरे हुए थे।

कुलदीप और सोहन को पेड़ों पर चढ़ने का शौक था। वे कुछ खास किस्म के पेड़ों पर ही ऊपर चढ़ कर बंदरों की तरह कूदते-फांदते, काफल बीनते, कुछ खाते और कुछ कंधे पर लटकाए झोले में भरते जाते। कई बार तो वह काफल के एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर छलांग लगा कर पहुँच जाते।

लोग इनके करतबों को देखकर चिढ़ाते की कुलदीप और सोहन ने तो चिड़िया के जूठे संतरे खाये हैं। चिड़िया के जूठन खाने से ही वे पेड़ों पर फटाफट चढ़ने की कला में पारंगत हो गये हैं।

उस दिन दोपहर का खाना खाने से पहले गांव के दोस्तों की टोली काफल लेने दूर जंगल में चली गयी थी। जंगल जाते समय पीट ने कहा था, 'बेटा' काफल लेने खाना खाने के बाद जाना', परंतु दोस्तों की टोली में शामिल हम कहाँ किसी का कहा मानते? हमने उनकी सलाह को नजरंदाज कर दिया था। आज मैं सोचता हूँ कि बुजुर्गों का कहा हुआ और आँवले का स्वाद सचमुच बाद में ही लाभ देता है।

चंदेणा के जिस काफल के पेड़ पर कुलदीप और सोहन टहनियों में कूद-फांद कर अपने करतब दिखा रहे थे, उसी काफल के पेड़ की टहनियाँ मेरे लिए जानलेवा बन गईं थीं। उन दोनों की देखादेखी एक ऊँची टहनी पर चढ़ने के प्रयास में, मैं पेड़ से नीचे गिरकर बेहोश हो गया था।

साथियों ने चंदेणा के जंगल से पिता को आवाज लगाई कि मनवेन्द्र गिर गया है। उतनी चढ़ाई पर हाँफते-काँपते पिता जी चंदेणा पहुँचे। मेरी हालत देखकर वे कुछ देर तक तो सिर पकड़कर वहीं पर बैठ गये, फिर जैसे तैसे मुझे पास के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में पहुँचा कर पिता जी ने तब चैन की साँस ली, जब डॉक्टर ने बताया कि खतरे की कोई बात नहीं है। मेरे पाँव में यदि कभी काँटा भी चुभता था, तो वे सिहर उठते थे।

एक पिता के पुत्र के प्रति इस तरह का लगाव आज कहाँ खो गया? आज दुनियादारी से बेखबर वे बिस्तर पर पड़े अंतिम साँसें गिन रहे हैं। मनवेन्द्र सोचने लगा कि उन्होंने मेरे लिए कितने दुख-दर्द झेले। आज मैं जिस मुकाम पर हूँ, वह सब कुछ उन्हीं के त्याग, परिश्रम और संघर्षों का परिणाम है।

वह जब तीन साल का था, तो माँ का साया सिर से उठ गया। लोगों ने पिता जी पर तरह-तरह के दबाव डाले कि 'अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है! शादी कर लो। तुम्हारी घर गृहस्थी भी संभल जायेगी, साथ ही तुम्हारे नन्हें से बेटे को माँ का प्यार भी नसीब हो जायेगा, किंतु पिता जी ने मेरी खातिर इतना लंबा पहाड़ सा विधुर जीवन-यापन करना बेहतर समझा, अन्यथा पच्चीस-छब्बीस वर्ष की आयु में कौन उन्हें अपनी बेटी न देता। उन्होनें मेरे जीवन-निर्माण में अपने सुखों की आहुति दे दी और तिल-तिल कर अपना जीवन मेरी खुशियों के लिए समर्पित कर दिया। पिता की इस कठिन तपस्या के बल पर ही तो आज वह इस मुकाम पर पहुँच पाया है अन्यथा आज वह इतना बड़ा वैज्ञानिक न होकर, दिल्ली जैसे महानगर में किसी होटल की बैयरागिरी कर रहा होता या जूठे बर्तन साफ कर रहा होता।

अपनी मंजिल को पा लेने के बाद पिता जी को लेकर कैसे-कैसे सपने सजाए थे। मनवेन्द्र ने सोचा था, इस बार जब दिवाली में घर जायेगा तो पिताजी को अपने साथ ले आएगा। उनसे साफ शब्दों में कह देगा कि अब वे कुछ भी काम नहीं करेंगे, बल्कि सिर्फ आराम करेंगे। उनके संघर्ष और कठिनाइयों भरे बीते दिनों का मीठा फल अब उन्हें मिलना ही चाहिये।

उसे आज भी याद है, कुमेड़ा गांव उसके इर्द-गिर्द के इलाके में इस बात की चर्चा रहती थी कि लड़का हो तो मनवेन्द्र जैसा! कितना सौम्य, सुशील व प्रतिभावान। आठवीं की बोर्ड परीक्षा में अपने जनपद में प्रथम तो आया ही, साथ ही हाईस्कूल की बोर्ड परीक्षा में पूरे प्रदेश की मेरिट लिस्ट में पहला स्थान पाकर मनवेन्द्र ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया था।

जब अखबार और इलेक्ट्रोनिक मीडिया वाले पत्रकार और छायाकर कुमेणा गांव के नंदन सिंह के यहाँ पहुँचने लगे थे, तो लोगों की आँखें खुली की खुली रह गई थीं। गांव-गलियों में लोग खुसर-फुसर करते रहे, कि अखबार वाले मनवेन्द्र की फोटो खींचने आए हैं। मेरिट में नाम आते ही मनवेन्द्र की चर्चा पूरे इलाके में ही नहीं, पूरे प्रदेश में होने लगी।

आखिरकार माध्यमिक शिक्षा परिषद की इंटरमीडिएट परीक्षा में भी मनवेन्द्र ने प्रदेश की योग्यता सूची में पहला स्थान बनाकर अपने स्वर्णिम भविष्य की राह निश्चित कर ली थी।

उसी के फलस्वरूप टाटा, बिड़ला, तथा मफ़तलाल जैसे बड़े औद्योगिक घरानों की निगाहों में मनवेन्द्र आ चुका था।

'टाटा फ़ाउंडेशन' द्वारा मनवेन्द्र को छात्रवृत्ति देकर अमेरिका भेजने के लिए चयनित कर लिया गया और नन्दन सिंह का यह इकलौता लाल मनवेन्द्र अपनी प्रखर प्रतिभा के बल पर सात समंदर पार जा पहुँचा। अमेरिका में अपने हुनर व योग्यता के बल पर मनवेन्द्र नासा जैसे विश्वविख्यात अन्तरिक्ष अनुसंधान केंद्र से जुड़ गया, किंतु अपनी माटी के प्रति उसका जुड़ाव और लगाव उसे वापस भारत ले आया। अब मनवेन्द्र अपनी सेवाएँ भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान परिषद में बतौर वरिष्ठ वैज्ञानिक दे रहा था।

कुदरत भी कभी-कभी अपना खेल कितने निष्ठुर तरीके से खेलती है। जब मुसीबत के दिन थे तो अभाव में ही जीवन व्यतीत हुआ। अब सुख के दिन आए, तो बीमारियों ने जकड़ लिया। क्या नियति ने पिता जी के हिस्से में सिर्फ संघर्ष करना ही लिखा था? वह जीवन भर संघर्ष करते रहे और संघर्ष करते-कराते ही उनकी हालत यहाँ तक पहुँच गई। कभी गांव के बंजर खेतों को आबाद करने में उन्होने जी-तोड़ मेहनत की थी, बंजर धरती को काट कर उन्होंने वहाँ सीढ़ीनुमा खेतों का ही निर्माण नहीं किया, वरना वहाँ तक गूल पहुँचाने में भी अपना जीवन समर्पित कर दिया।

गांव के उन खेतों में आज भी फसलें लहलहा रही हैं और उन सीढ़ीनुमा खेतों से सटे बुरांश,बांज के पेड़ों की हरियाली गांव के किसानों में नवजीवन का संचार करती प्रतीत होती है। काश! वही जीवन प्रवाह उसके पिता के शरीर में भी दौड़ पड़ता। सोचते-सोचते मनवेन्द्र ने बेंच पर बैठे-बैठे न जाने कब अपना सिर पिता के बिस्तर पर टिका दिया। कई रातों से सोया नहीं था वह। ना जाने कब, क्षण भर के लिए आंख लग गई।

आंख तब खुली, जब एक स्वर उसके कानों में पड़ा 'मनवेन्द्र सर!' मनवेन्द्र ने बिना सिर उठाए ही धीरे से आंखें खोली। उसने महसूस किया कि पिताजी ने उसके सिर पर अपना हाथ रखा है आशीर्वाद की मुद्रा में। सामने स्टाफ नर्स खड़ी थी। सर! बेड खाली कर दीजिएगा, 'प्लीज' स्टाफ नर्स बोली। आश्चर्यचकित नजरों से उसने एक पल स्टाफ नर्स को घूरा, फिर उसकी बात का अर्थ समझ कर वह अचानक हड़बड़ा कर उठ गया और उसके सिर पर रखा पिताजी का हाथ एक ओर झूल गया उसने आतुर नजरों से पिता की ओर देखा। उसकी गर्दन एक ओर लुढ़क कर निढाल हो चुकी थी।

संकल्प

मनवर को पुलिस पकड़ कर ले गई तो गांव में हड़कंप मच गया। हर सायं कच्ची शराब को हलक में उतारने वालों के लिए यह बुरी खबर थी। देखते ही देखते यह खबर पूरे इलाके में जंगल की आग की तरह फैल गई। करछूना गांव की महिला पंचायत की यह हाल के दिनों में सबसे बड़ी सफलता थी और उस रात गांव की महिलाओं ने पधान काका के बड़े चौक में 'झूमैलो' लगाकर अपनी खुशी का इजहार किया था।

गांव में इस शराब विरोधी मुहिम को परवान चढ़ते देख, इर्द-गिर्द के दारू प्रेमियों की बेचैनी बढ़ गई थी और उन्होंने शराब विरोधी आंदोलन को हवा देने वाली महिलाओं को सबक सिखाने की ठान ली।

सीमंध के सेरे वाली खेतों की हरियाली इसी कच्ची शराब की भेंट चढ़ गई थी। वहाँ के सोना उगलते खेतों के बासमती चावल की खुशबू पूरे इलाके में फैली थी। लहलहाते धान के खेतों को देखते ही मन प्रफुल्लित हो जाता और लोग कहते न थकते कि 'बासमती हो तो सीमंध जैसी'।

सीमंध के उपजाऊ खेतों के हक़-हकूकों को लेकर गडूना और करछूना के काश्तकारों में कई बार मुकदमें चले, कोर्ट कचहरी तक जाते-जाते गांववालों की एड़ियाँ घिसती रहीं।

गृहणियों ने अपने महंगे जेवरात तक बेच डाले, लेकिन दोनों गांव की इस पुश्तैनी जमीनी लड़ाई में एक भी पक्ष हार मानने को तैयार न था। कोर्ट ने इस जमीन के मालिकाना हक़ पर यथास्थिति का निर्णय दे दिया। फलतः करछूना के काश्तकारों की फसलें इन खेतों में कई वर्षों से लहलहा रही थीं। दोनों गांवों के बीच की यह लड़ाई किसी से छिपी न थी। पिछले साल जब से गडूना के ग्रामीणों ने रातों रात सीमंध की खड़ी फसल को कटवा दिया, तब से दोनों गांव के सामान्य होते संबंधो को फिर से ग्रहण लग गया और दोनों गांव के लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये।

मनवर की बनाई हुई शराब की इस इलाके में खासी मांग थी। लगभग एक दर्जन से अधिक नशेड़ियों की विचित्र हरकतों और रातों की सैरगाह बना करछूना गांव आखिर कब तक मूकदर्शक बना रहता। इन दोनों गांवों में एक पारस्परिक समानता भी थी। जिस प्रकार शराब पीने के लिए दोनों गांवों के पुरुष एक ही अड्डे पर जाते थे, उसी प्रकार शराब विरोधी मुहिम को लेकर दोनों गांवों की महिलायें एकजुट होकर अपने पुराने पुश्तैनी झगड़ों को भूलकर 'महिला पंचायत' के बैनर तले अपनी लड़ाई में खुलकर सामने आ जातीं। कुंती के नेतृत्व में महिलाओं की शराब विरोधी मुहिम परवान चढ़ चुकी थी, किंतु एक समय शौच के लिए गई कुंती की आबरू को वहशी भूखे भेड़ियों ने तार-तार कर दिया।

इस घटना ने सारे इलाके में लोगों के रोंगटे खड़े कर दिये। लोग समझ गये थे कि कुंती की इज्जत से खेलने वाले दरिंदों को शराब विरोधी मुहिम में उसकी अगुवाई खटक गई थी और कुंती के साथ हुआ बलात्कार उसी प्रतिशोध की भावना का परिणाम था। कुंती का नेतृत्व-कौशल इतना प्रखर था कि उसने विरोधी गांव की महिलाओं को भी एक मंच पर लाकर यह साबित कर दिया कि ग्रामीण महिलाओं की समस्याओं की एक ही जड़ है, और वह है,'शराब'! जब तक शराब का उन्मूलन नहीं होगा, तब तक महिलाओं की समस्याओं का अंत नहीं होगा। शराब का कारोबार जब तक गाँवों में चलता रहेगा तब तक महिलायें बलात्कार जैसे कलंक को ढ़ोती रहेंगी, जिससे समाज का ताना-बाना ही छिन्न-भिन्न हो जाएगा और नई पीढ़ी भी इस अभिशाप से बच न सकेगी।

कोई और महिला होती, तो इज्जत के नाम अपर अपनी जान दे बैठती। उस घटना के बाद कुंती के मन में कई बार आत्महत्या करने के विचार आया, लेकिन फिर वह सोचती कि इज्जत भी मेरी लुटी और जान भी मैं ही गवाऊंगी? कुंती का कठोर मन इस बात को स्वीकारने के लिए कतई तैयार न था कि बलात्कार के कलंक को धोने के लिए उसे आत्महत्या कर लेनी चाहिए।

उस रात वह एक पल के लिए भी झपकी तक न ले सकी थी।

सुबह होते ही उसने मनवर के चौक से सटे खेत की मिट्टी उठाकर, धरती माँ की सौगंध खाते हुए, चिल्ला-चिल्ला कर कहा, 'मैंने तुझे आत्महत्या के लिए मजबूर न किया, तो मेरा नाम भी कुंती नहीं'। प्रतिशोध की ज्वाला में जल रही कुंती की आँखें आग उगल रही थीं और चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था। कुंती के रणचंडी रूप को देख सभी लोग सहम गए थे।

गांव की दो-चार महिलाओं को साथ लेकर कुंती ने अपने साथ हुए बलात्कार की रिपोर्ट राजस्व पुलिस में दर्ज करवानी चाही, तो पटवारी ने रिपोर्ट दर्ज करने से ही साफ माना कर दिया। फिर तो कुंती और उसकी साथी महिलाओं के गुस्से का ठिकाना न रहा और उन्होंने मन बना लिया था कि वे अब रिपोर्ट रेगुलर पुलिस को करेंगी। गांव से दस मील दूर नागधार के बाज़ार जाकर कुंती ने अपने साथ हुये बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज करायी।

रेगूलर पुलिस ने तत्काल कार्यवाही करते हुए करछूना में दबिश दी और बलात्कार के लिए नामजद मनवर पुत्र रणवीर सिंह व बबलू पुत्र डूंडा सिंह को गांव जाकर गिरफ्तार कर जेल भेज दिया।

मनवर और बबलू को जेल की सलाखों के पीछे करने के बाद भी कुंती के मन में जल रही आग शांत न हुई। कुंती ने अब संकल्प ले लिया था कि वह बलात्कारियों व शराबियों का नामो निशां मिटाकर ही दम लेगीं।

मनवर को पुलिस पकड़ कर ले गई, तो उसने सरेआम कुंती को जलील करना चाहा, लेकिन कुंती के दृढ़ आत्मविश्वास एवं इच्छाशक्ति के सामने उसकी एक न चली। उसकी हरकतों को देखकर कुंती कह उठी,'तुझे तो भगवान भी कभी माफ नहीं करेगा! तूने सारे इलाके के लोगों को जहर बाँट कर कई हँसते-खेलते घरों को उजाड़ दिया, पापी! तुझे नर्क में भी जगह नसीब न होगी।' कुंती के मन का जैसे गुबार फूट चुका था। मनवर भले ही जेल चला गया था, परंतु उसके साथी फिर भी उन्हीं हरकतों को अंजाम देने में लिप्त थे। वे गांव की फिजा को खराब करना चाहते थे। वे जानते थे कि यदि गांव व इलाके का माहौल अच्छा हुआ तो उनकी दुकानदारी ही बंद हो जाएगी।

उन्होंने गांव में कुंती के खिलाफ अनर्गल दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया। कुंती जैसी महिलाओं की भावनाओं को ठेस पहुँचाने एवं उसे हतोत्साहित करने के लिए उन्होंने उसी रास्ते को चुना, जो सदियों से महिलाओं के विरुद्ध पुरुष प्रधान समाज अपनाता रहा है,किंतु कुंती अपने ऊपर लगे कलंक से डरने वाली नहीं थी। उसने पूरे क्षेत्र की महिलाओं को एकजुट कर शराब-विरोधी अभियान को पूरी गति दी और उसे पूरे अंजाम तक पहुँचाकर ही दम लिया।

करछूना गांव की अशांत वादियों में अब फिर से अमन-चैन लौट आया है। सीमंध के सेरे वाले खेतों की हरियाली और भी गहरा गई है। जमीन को लेकर दो गाँवों के बीच का वर्षों पुराना जो टकराव था, वह अब समाप्त हो गया है। गांव व पूरे इलाके में शराब की जगह दूध-घी की नदियाँ फिर से बहने लगी हैं। यह सब देख आज कुंती सूकून महसूस कर रही थी।

कुंती को लग रहा था कि उसके जीवन भर का व्रत अब सफल हो रहा है और जब गांववालों ने उसे निर्विरोध गांव का प्रधान चुना, तो उसके संकल्प को और ताकत मिल गई। उसकी गहरी नीली आँखों में जो सपने तैर रहे थे, वे वास्तव में एक आदर्श व समृद्ध गांव की कल्पनाओं से कहीं ऊपर थे। गाँवों में 'नशा उन्मूलन' के संकल्प की चमक कुंती के चेहरे पर दमक रही थी।

परीक्षा

प्रदीप ने जब बी॰ए॰ फ़ाइनल में पूरे विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त किए, तो पूरे इलाके में इस बात की चर्चा हो गई कि देखो बसंतू के बेटे ने क्या कमाल कर दिखाया। कहते हैं,'होनहार बिरवान के होत चिकने पात।'

बी॰ए॰ करने के बाद प्रदीप ने प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी का मन बनाया था, लेकिन पिता बसंतू लाल की बीमारी ने उसके सपनों को जैसे ग्रहण लगा दिया। गांव के खेतों को एक-एक कर गिरवी रख बसंतू ने किसी तरह प्रदीप के बी.ए. तक का खर्चा तो वहन कर लिया, किंतु अब इलाहाबाद आई॰ए॰एस॰ कोचिंग के लिए कहाँ से पैसों की व्यवस्था हो पाएगी? सोच में डूबा अशक्त व बीमार बसंतू लाल मन ही मन टूट चुका था।

गांव में खेती बड़ी के काम के अलावा बसंतू लाल मेहनत मजदूरी कर किसी तरह अपने घर परिवार का बोझ उठा रहा था, परंतु इस साल गर्मियों में अचानक उल्टी-दस्त के बाद बसंतू ने चारपाई पकड़ ली थी।

एक बार चारपाई क्या पकड़ी कि वह फिर खड़ा ही नहीं हो पाया। गांव के आस पास न तो कोई अस्पताल था, न ही कोई डॉक्टर। पास के गांव से वैद्य जी को बुलवाकर दिखवाया तो बसंतू की हालत देख वैद्य जी ने तुरंत सतपुली अस्पताल में डॉक्टरों को दिखाने की सलाह दी।

दूसरी सुबह प्रदीप गांववालों के साथ पिता को चारपाई पर रख, सात-आठ मील दूर सतपुली अस्पताल ले गया, तो पता चला कि आज तो कोई भी डॉक्टर उपलब्ध नहीं है, एक तो मीटिंग के लिये आज सुबह जी पौड़ी गए हैं, जबकी दूसरा पिछले आठ-दस दिन से अस्पताल में हैं ही नहीं, अपने घर मेरठ गया हुआ है। डॉक्टर के नाम पर आज तो अस्पताल में एक वार्ड बॉय व एक सफाईकर्मी ही उपलब्ध था। इस तपती दुपहरी में सात-आठ मील दूर से चारपाई पर लेटे-लेटे बसंतू की स्थिति और बिगड़ गई थी।

प्रदीप ने पिता को चारपाई से उठाकर अस्पताल के बाहर पेड़ के नीचे लगे बेंच पर लिटाया और पास में लगे नल से पानी लाकर पिलाया, तो बसंतू की साँस में साँस आयी। प्रदीप ने बसंतू के साथ अस्पताल के बरामदे में ही लेटकर रात व्यतीत कर दी। अगली सुबह डॉक्टर को दिखाया तो बसंतू की चलती-थमती साँसे देखते ही डॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिए और बोला कि इसकी बीमारी तो पकड़ में ही नहीं आ रही है, कोटद्वार अथवा देहरादून के किसी बड़े अस्पताल में ले जाकर दिखाओ। डॉक्टर के मुँह से ऐसा सुन प्रदीप हताश हो गया।

कहाँ तो वह कोचिंग के लिए इलाहाबाद जाने के सपने देख रहा था और कहाँ आज पिता को इलाज के लिये कोटद्वार तक ले जाने की सामर्थ्य भी उसमें नहीं है।

शहर के अस्पताल के लिये पैसे कहाँ से आएंगे? मेहनत मजदूरी करके घर का खर्चा चलाने वाले पिता तो आज लाचार बीमार पड़े हैं, इलाज के लिये कोई रुपये कर्ज भी देगा तो क्यों?

प्रदीप इसी उधेड़बुन में उलझा हुआ था कि गांव के भुवन लाला की नजर उस पर पड़ी, तो पास आकार उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा,'बेटा प्रदीप निराश न हो, बसंतू का इलाज मैं करवाऊंगा। जितना भी खर्चा आयेगा, मैं वहन कर लूँगा। सुनकर प्रदीप को लगा कि उसकी बहुत बड़ी समस्या हल हो गई है और वह भुवन लाला के पैरों में गिर गया।

भुवन लाला उसे ढाढ़स बंधाते और हिम्मत देते हुए बसंतू को लेकर कोटद्वार आ गए और बसंतू को तुरंत अस्पताल में भर्ती करवा दिया। अपताल में डॉक्टरों ने बसंतू के कई टेस्ट करवाए। जाँच में आंतों के कैंसर की बीमारी निकली।

अब तो प्रदीप की रही सही हिम्मत भी जवाब दे गई थी। आई॰ए॰एस॰ बनने की तमन्ना उसे दम तोड़ती नज़र आने लगी थी। कितना उत्साह और उमंग था उसके मन में, जिस दिन उसने विश्वविद्यालय में सर्वोच स्थान प्राप्त किया था।

हताशा में डूबे बेटे की आँखों में पढ़कर अस्पताल के बेड में पड़े-पड़े बसंतू ने भुवन लाला की ओर लाचारगी भरी निगाहों से देखा था और खाँसते कहा था- 'लाला जी! मेरे बेटे का क्या होगा, वह नौकरी की तैयारी के लिए इलाहाबाद जाना चाहता था?

सुनते ही भुवन लाला तुरंत कह उठा 'बसंतू ! चिंता न कर, तेरा बेटा आज से मेरा बेटा है। मैं इसको इलाहाबाद भेजूँगा और तेरा व तेरे बेटे का संकल्प पूरा कर के दिखाऊँगा। मुझ पर विश्वास रख बसंतू।' यह सुन बसंतू की आँखें डबडबा गईं और वह रुँधे हुए कंठ से बोला,'लाला जी आप तो मेरे परमेश्वर निकले, मैं आपका यह अहसान कभी नहीं भुला पाऊँगा।'

भुवन लाला ने प्रदीप की हौसला अफजाई करते हुए कहा,'बेटा! तेरे बाप को कुछ नहीं होगा। तू कल सुबह ही इलाहाबाद जाने की तैयारी कर, मेरे से जितनी आवश्यकता हो, उतने रुपये ले जा। अगर बसंतू की दिली तमन्ना है कि उसका बेटा बड़ा आदमी बने, तो मैं भी इसके इस पावन संकल्प को पूर्ण करने में उसका साथ अवश्य दूंगा।'

भुवन लाला की बातें सुन प्रदीप का आत्मविश्वास लौट आया और उसने मन बनाया कि वह और कुछ नहीं, तो अपने बीमार पिता व भुवन लाला के अरमानों को जरूर पूरा करेगा। भुवनलाला की सलाह मानकर प्रदीप पिता को कोटद्वार अस्पताल में बीमारी की हालत में ही छोड़कर इलाहाबाद चला गया। बसंतू की हालत दिन प्रतिदिन खराब होती गई और प्रदीप के जाने के पंद्रह बीस दिनों के बाद ही बसंतू इस दुनिया से हमेशा के लिए विदा ले चुका था।

इलाहाबाद जाकर प्रदीप आई.ए.एस. परीक्षा की तैयारी में दिन-रात जुट गया। भुवन लाला ने भी प्रदीप को किसी तरह की कमी नहीं होने दी। इलाहाबाद में कोचिंग की महंगी फीस से भुवन लाला की हालत भी दिन-प्रतिदिन डगमगाती गई। हर माह हजारों रुपये का मनीऑर्डर भेज-भेज कर भुवन लाला की सतपुली वाली दुकान भी कब की बिक चुकी थी।

गांववालों ने भुवन लाला की डगमगाती आर्थिक स्थिति को देखकर व्यंग्य बाणों भरे ताने कसने शुरू कर दिये, 'किस का बेटा किस का क्या? लाला जी क्यों इतने धर्मात्मा बनते हो। पहले बसंतू लाल की बीमारी पर लाखों खर्च किए और अब उसके बेटे पर लाखों लुटा रहे हो, अरे इतना तो कोई अपनों पर नहीं लुटवाता। आखिर भुवन लाला का दिमाग क्यों खराब हो गया? लोगों के गले यह बात नहीं उतर पर रही थी कि भुवन लाला ऐसा क्यों कर रहा है?

दो-तीन साल यूं ही बीत गए और प्रदीप अभी तक किसी भी परीक्षा में नहीं निकल पाया था,किंतु भुवन लाला को प्रदीप की योग्यता पर पूरा भरोसा था, इसीलिए भुवन लाला ने उसे खर्चा देना बंद नहीं किया। भुवन लाला के संकल्प व निश्चय को देखकर धीरे-धीरे गांव वालों ने भी भुवन लाला के खिलाफ बोलना बंद कर दिया।

कहते हैं, हर रात के पीछे एक सुबह जरूर छिपी होती है और हर दु:ख के पीछे सुख होता है। भुवन लाला की पूरी संपत्ति यद्यपि प्रदीप की कोचिंग में समाप्त हो गई और वह प्रदीप की खातिर कंगाल बन गया था,किंतु 15 जून का सूरज उसके जीवन में उल्लास की नई किरणें लेकर आया, जब प्रदीप ने फोन पर भुवन लाला को बताया कि वह आई.ए.एस. की परीक्षा पास कर चुका है।

उस दिन भुवन लाला इतने प्रसन्न होकर सबसे गले मिल रहे थे मानो उनका अपना बेटा ही आई.ए.एस. बना हो।

भुवन लाला सोचता रहा कि 'काश! आज बसंतू जिंदा होता, तो उसे सीना ठोककर बताता कि देख बसंतू! मैंने अपना संकल्प पूरा कर दिया है।' कुछ दिनों बाद प्रदीप जब घर लौटा तो गांववालों ने उसी घर में भुवन लाला और प्रदीप को घेर लिया, जिस दिन घर में संकट और मुसीबत के क्षण में उन्हें अकेला छोड़ दिया था। प्रदीप ने जब सारे गांव के सामने भुवन लाला से लिपटकर उन्हें अपना असली पिता कहकर पुकारा, तो भुवन लाला की आँखें भर आई।

ठीया

रितेश का मन आज बेचैन था। कई-कई दिनों से उसकी रातों की नींद गायब थी। सड़क दुर्घटना में जवान बेटे की मौत ने उसे अंदर ही अंदार खोखला बना दिया था। उसे वही शहर अब मनहूस लगने लगा था, जहाँ एक सुंदर आशियाना बनाने की उसने कभी कल्पना की थी।

अमरोहा शहर के पॉश इलाके में आलीशान कोठी बनाने के बाद रितेश की पत्नी मधु ने कहा था कि अब हमारी सारी समस्यायेँ हल हो गईं। जन्नत की सारी खुशियाँ हमारे इस आशियाने में होंगी, जिसे बनाने में वर्षों लग गए। रितेश की जीवन भर की कमाई उसको बनाने व साज-सज्जा में लग गई। वह एक घर से अधिक भावनाओं, संवेदनाओं, जीवन की आशाओं एवं आकांक्षाओं का एक ऐसा ठीया था, जहाँ भविष्य की सतरंगी कल्पनाएं मूर्त रूप लेती सी प्रतीत हो रही थीं।

जिस घर की चारदीवारी के अंदर साँसों का प्रवाह नित नव जीवन का उल्लास पल्लवित करता था, उस घर के आँगन में सुस्ताते, एकांत क्षणों में वह किसी विजयी 'योद्धा' की तरह अपने को महसूस करते, जिसने मानो जीवन के कठिनतम संघर्षों व विषम परिस्थितियों से जूझ-जूझकर 'विजयश्री' का वरण किया हो।

रितेश सोचता कि मधु उसे कैसे बार-बार उलाहना देती थी कि तुम्हारे बस का कुछ नहीं है। तुम कभी मकान बना पाओगे, ऐसा मुझे विश्वास नहीं और आज जब मकान बन कर तइया हो गया, तो मधु ने कितने उमंग और अरमानों से का नाम का नाम 'आशियाना' रखा था।

शहर की जिंदगी भी कितनी एकाकी हो गई है। सुख के दिन तो चार दिवारी के अंदर ही पंख लगा कर फुर्र उड़ जाते हैं, परंतु दुःख की बोझिल लंबी-लंबी भयावह रातों को कौन उनके साथ बांटेगा? आज इतने बड़े शहर में रितेश व उसकी पत्नी मधु नितांत अकेले थे। एक मई 2002 की उस काली रात के बारे में सोचते ही उनकी रूह काँप जाती है।

उस रात को याद करते ही मानों रितेश की साँसें फिर अटक गई हों, गला सूख गया और कंठ रूँध गया। 'आखिर हमारे ही साथ ऐसा क्यों हुआ? मधु! हमने तो कभी किसी का बुरा भी नहीं किया, न सोचा'। छोटे बेटे के हार्ट की बाईपास सर्जरी में लाखों खर्च हो गए। बड़ा बेटा सड़क दुर्घटना में मारा गया। जवान बहू को देख उसकी छाती पर साँप रेंगने लगते। कुछ लोगों ने कहा था कि बड़े बेटे की बहू नीतू की शादी छोटे बेटे से कर लो,किंतु ऐसा सोचते ही मन काँप जाता। वह हार्ट का मरीज है। एस्कॉर्ट के डॉक्टरों ने उसकी शादी न करने की सलाह जो दी है।

कुछ लोगों ने यहाँ तक कहा कि नीतू के घर में कदम रखते ही इस घर को किसी की नज़र लग गई। नाते-रिश्तेदारी के बुजुर्ग कहते, बड़ी मनहूस बहू निकली, वह अच्छा-खासा खुशहाल घर नरक में तब्दील हो गया। रितेश सोचता, बेचारी बहू का इसमें क्या दोष? लोग तो जितने मुँह उतनी बातें करते ही हैं। अब उसका भी इस घर में मन नहीं लगता।

सुंदर, सौम्य व सुशील नीतू के भविष्य के बारे में सोच-सोच कर रितेश का मन दरर जाता। जवान विधवा बहू, कभी कोई ऊँच-नीच हुई, तो समाज में मुँह दिखने के काबिल भी नहीं रहेंगे। सुख-चैन तो सब छिन गाया, पर इज्जत तो अभी बाकी है।

कई बार मन में खयाल आता कि बहू के हाथ पीले कर दूँ। किसी अच्छे लड़के को ढूँढकर उसका घर बसा लूँ। आखिर वह जिएगी भी तो किसके सहारे? अगर बड़े बेटे के नाम पर उसकी कोख से बेटा-बेटी जो भी होता, तो भी संतोष कर लेता, लेकिन ईश्वर को ऐसा भी मंजूर न था, उसने गोद तो खाली की ही, उस पर कोख भी खाली कर दी।

बड़े बेटे की जगह जवान विधवा बहू को ऑफिस जाते देख रितेश को ऐसा लगता, जैसे सौ-सौ बिच्छुओं ने उसे एक साथ डंक मार दिया हो। रितेश ने अपने समधी रामशरण को फोन कर कहा था,'समधी जी हमारी बहू आपके घर से ही दफ्तर जाएगी, वहाँ बहू का मन भी थोड़ा रमा रहेगा'।

बुझे मन से रितेश ने समधी से कहा था कि 'हम बच्चों की बेहतरी के लिए केवल प्रयत्न ही कर सकते हैं। यह बात अलग है कि हमारी कोशिशों को किसी की नजर लग गई है'। इतना कहते हुए उनका कंठ रूँध गया और उन्होंने फोन का रिसीवर नीचे रख दिया।

रितेश मई, 2002 की उस काली मनहूस रात को शायद ही कभी भूल पाएं, जिस दिन उनकी खुशियों को हमेशा के लिए ग्रहण लग गया था। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कहना शुरू कर दिया था कि उन्होंने अपने पैतृक कुल देवता की वर्षों से पूजा नहीं की, इसलिये उनके कोप का शिकार उनके दोनों बेटे हो गए हैं।

इस बीच उन्होंने ज्योतिषविदों, तांत्रिकों व गणनाकारों के कई चक्कर काटे। एक पूछेरे ने कहा कि उनकी सौतेली दादी ने उनके लिये 'घात' डाली हुई है। उस 'घात' अहंकार को पूजने के लिए उस पुछेरे ने जो विधि-विधान बताए, वे कम चौंकाने वाले न थे। मुर्गा व बकरे काटने के साथ सूअर को चौराहे पर दफनाने जैसे विधान बताकर उस 'तांत्रिक' पुछेरे ने कहा कि इस तांत्रिक अनुष्ठान के बाद ही उनके परिवार पर मंडरा रहे दुःखों की छाया दूर हो पायेगी और तभी वह शहर के अपने मकान में खुशहाली से अपन शेष जीवन जी सकेंगे।

मरता क्या न करता? रितेश ने अपने पैतृक गांव में इस तरह के अनुष्ठान करने की सोच डाली। वह शहर के अपनी उस आलीशान कोठी के प्रांगण में बैठे-बैठे गांव की स्मृतियों में डूब गया।

कितना सौहार्द्र व एकांत था गांव में! सारा गांव अपना घर सा लगता था। एक दूसरे के दुःख-दर्द में हमेशा साथ निभाते थे लोग। गांव में कोई छोटी सी घटना भी किसी के साथ घट गई, तो सारा गांव एक हो, उस संकट को दूर करने का प्रयास करता, लेकिन इतने बड़े कंक्रीट और सीमेंट से बने मकानों के जंगल में वे नितांत अकेले थे। कोई भी तो नहीं आया, विपत्ति के क्षणों में उनके आँसू पोछने।

शहर का हर शख्स आज झूठे दिखावे व छलावे में जी रहा है। किसी को किसी से कोई मतलब नहीं। हर कोई अपने स्वार्थ में जी रहा है। किसी को किसी से कोई मतलब नहीं। हर कोई अपने स्वार्थों व निजी जिंदगी में इतना खो गया है कि उसे अपने लोगों के बारे में सोचने का भी समय ही नहीं है। संकीर्ण मानसिकता लिये भौतिकवाद के सहारे अनजान मंजिल की तरफ अंधी दौड़ लगाते अपने घर की चारदीवारी तक समेटे हुए इन लोगों को दूसरे के दु:खों से आखिर क्या सरोकार !

छलावा

शोलापुर जैसे हाईटेक महानगर में पहुँचते ही मवलेश प्रसाद की अक्ल ने जैसे काम करना बंद कर दिया हो। कई-कई मंजिलों ऊँचे विशालकाय मकानों के सामने वह खुद को असहाय व बेसहारा महसूस कर रहा था। कहने को तो वह एक सीधा व सच्चा पहाड़ी छोरा था, लेकिन उसके पहाड़ीपन में स्वाभिमान एवं बहुत कुछ कर गुजरने की तमन्ना साफ झलक रही थी।

कम पढ़ा-लिखा होना और कम समय में अधिक पाने की लालसा उसे अंदर ही अंदर कहीं झकझोर भी रही थी। जिंदगी की सुख-सुविधाओं को पाने के लिए अब उसने जो रास्ता चुना है, वह उसे किस ओर ले जाएगा, वह आज समझ नहीं पा रहा था।

शोलापुर के कुख्यात बिल्डर 'मनजीत ब्रदर्स प्रॉपर्टीज़' के कार्यालय में आने-जाने वाले लोगों को पानी पिलाने की नौकरी शुरू करने वाले मवलेश प्रसाद को इस बात का अफसोस तो था कि जिन लोगों के साथ वह नौकरी कर रहा है, उनके दामन पर गरीबों के खून के छीटों का रंग इस कदर चढ़ा हुआ है कि हजारों पुण्य करने के बाद सात जन्म में भी वे दाग धुल नहीं पायेंगे, किंतु वहाँ की चकाचौंध में वह ऐसा रम गया कि मवलेश को पता ही नहीं चल पाया कि कब वह उनके काले कारनामों का मुख्य सूत्रधार बन बैठा और देखते-देखते शोलापुर शहर की रातों की रंगीनियाँ उसके आगोश में आ गई।

अपनी शानो शौकत व अय्याशी के लिए दबे कुचले गरीब लोगों की जमीन हड़प कर, उनके खून-पसीने की गाढ़ी कमाई पर आखिर वह कब तक ऐश करता? जमीने कब्जाकर बेचने व रातों-रात धनकुबेर बनने की चाहत लिये मवलेश प्रसाद शोलापुर पुलिस की निगाहों में तब से चढ़ गया था, जब शोलापुर देहात के एक बड़े भू-खंड को कब्जाने के दौरान उसे भूस्वामी नि:संतान वृद्ध दंपत्ति को अपनी अवैध राइफल से मौत के घाट उतार दिया था।

इस दोहरे हत्याकांड में मवलेश की संलिप्तता ने अंततः उसे शोलापुर छोड़ने पर विवश कर दिया। कुछ दिनों बाद वह पुलिस की आँखों में धूल झोंक कर अपने कारनामों को अंजाम देता रहा, किंतु पुलिस के साथ यह आँख-मिचौली का खेल आखिर कब तक चलता?

मवलेश को पुलिस से बचने की सबसे महफूज जगह पहाड़ ही लगी और आखिरकार जिस पहाड़ में उसने जन्म लिया था, आज वही पहाड़ उसके गुनाहों पर पर्दा डालने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त व सुरक्षित स्थल बन गया।

लगभग एक दशक तक प्रॉपर्टी डीलर के नाम पर ज़मीनों की अवैध खरीद-फरोख्त के काले धंधे में मवलेश प्रसाद मालामाल बन बैठा। शोलापुर शहर में उसके गुनाह इतने बढ़ गए थे कि अब उसका वहाँ रह पाना मुमकिन न था। आखिर कानून से कब तक बच पाता वह। पहाड़ी राज्य पांडुला के के सीधे-सादे लोग अपने बुनियादी हक-हकूकों की लड़ाई लड़कर अपनी वर्षों की उपेक्षा की कीमत वसूलना चाहते थे।

शासन की जन कल्याणकारीयोजनाएँ आम लोगों तक नहीं पहुँच पा रही थीं। लोगों की पेयजल, चिकित्सा, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं बिजली जैसी मूलभूत समस्याएँ जस की तस स्थिति में थी। कुछ दुर्गम पहाड़ी पर बसे गाँवों में तो विकास पहले पायदान पर भी न पहुँच पाया था। सड़क, यातायात व परिवहन के कोई भी माध्यम वहाँ पर न थे। पांडुला प्रदेश के बथेड़ी गांव का मवलेश जब घर लौटा, तो गांव के लोग उसकी चकाचौंध को देखकर ठगे से रह गए। हर किसी को लगता, काश! वह भी शोलापुर भाग जाता, तो आज उसी की तरह चमचमाती हुई लग्जरी कार में कुंड तक आता। कुंड सड़क यातायात का यहाँ का अंतिम पड़ाव है, जहां से पाँच मील की खड़ी चढ़ाई चढ़कर बथेड़ी तक पैदल जाना पड़ता है। सारा गांव आज पाँच मील पैदल चलकर कुंड में केवल मवलेश की कार देखने आया था।

चंद्रू चाचा बताते कि हाई स्कूल में पहली दफा बुरी तरह फेल होने के बाद मवलेश एक सुबह अचानक गांव से गायब हो गया था। उसकी विधवा माँ को उन्होंने दिलासा दिया था कि वह भाग गया, अच्छा ही हुआ। कहीं बड़े शहर के होटल में बर्तन भी मांजेगा तो कम से कम अपना पेट तो भरेगा। यहाँ घर में क्या खाएगा वह? यहाँ तो दो जून की रोटी के भी लाले पड़े हुए हैं।

परार के साल उसकी विधवा माँ भी दमे के रोग से हारकर स्वर्ग सिधार गई। मवलेश ऐसा कुपुत्र निकला कि माँ को कंधा देने भी नहीं आया। इतना बड़ा लाट-साब तो वह था नहीं कि चिट्ठी या फोन करके उसको घर बुला लेते। माँ का क्रिया कर्म भी मगनू दा ने आनन-फानन में किया था।

उस दिन मगनू दा ने कहा था,'भगवान ऐसी मौत भी किसी क न दे'।वह सोच रहा था कि मवलेश के बाप के किये की सजा आखिर उसकी माँ को क्यों मिली? उसका बाप नंबर एक का धूर्त जो था। गांव के सीधे-सादे लोगों के बीच वह आतंक का पर्याय बन चुका था।शराब पी पीकर उसका कलेजा सड़ गया। बीमारी में भी उसकी शराब की लत नहीं गई थी। एक सायं जाखधार से नीचे खाई में गिर गया। चील-कौवे उसके शव को कई दिनों तक नोचते रहे। लोग चाहकर भी शव को उस खाई से नहीं निकाल पाये थे।

इस एक दशक में ही गांव का माहौल पूरी तरह बदल चुका था। मवलेश ने आते ही लोगों का दिल जीतने की कोशिश शुरू कर दी। वह युवाओं के साथ बैठ-बैठकर शोलापुर के झूठे-सच्चे किस्से सुनाता व कहता,'वहाँ तो मेरी बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियाँ हैं, बड़ी-बड़ी आलीशान कोठियाँ हैं, यहाँ गांव तो वह वापिस इसलिए लौटा है कि वह अपने बाप के पापों का प्रायश्चित जन सेवा के रूप में करना चाहता है।

वह बड़े गर्व से सीना तानकर कहता कि,'उसने अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य पहाड़ और पहाड़वासियों की सेवा करना बना दिया है, जिसके लिए वह अपनी जान भी कुर्बान कर सकता है'। गांव व क्षेत्र के बेचारे भोले-भाले लोग उसके बहकावे में आ गए।

उसने युवाओं को तरह-तरह के सब्जबाग दिखने शुरू कर दिये और उनका व उनके परिवार का विश्वास जीतकर, इसी का फायदा उठाने की नीयत से प्रदेश के विधानसभा चुनाव में वह सात-जामणीधार विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुनाव के लिए उठ गया। उसने सियासी दलों के बड़े नेताओं की गणेश-परिक्रमा शुरू कर दी और उनको मोटा चढ़ावा चढ़ाकर वह एक एक राजनीतिक दल से टिकट लेने में कामयाब भी हो गया।

उसने गांव के हर युवा को रोजगार देने का वायदा किया। यही नहीं, बेरोजगार युवाओं को शराब के अंतहीन नशे की ओर धकेल कर, उसने उनका भविष्य भी अंधकारमय बना दिया। आये दिन गांव में व उसके इर्द-गिर्द के इलाकों में बकरे कटने लगे, मुर्गों की तो जैसे शामत ही आ गई।

गांव की चौपालों में जहाँ कभी बुजुर्गों की पंचायत बैठ कर गांव के विकास व प्रगति की रूप-रेखा तैयार करती थी, उन चौपालों पर शराबियों का कब्जा हो गया।

पारंपरिक थड़िया चौपालों के मीठे बोल व धार्मिक अनुष्ठानों की पवित्र वाणी की जगह शराबियों की जमघट व हुड़दंग ने ले ली। गांव के खेत खलिहानों व राहों पर बहू-बेटियों का चलना-फिरना अत्यंत दूभर हो गया। गांव के ही युवा शराब के नशे में चूर होकर गांव की अपनी बहिन, भाभी, घसेरियों पर अश्लील फब्तियाँ कसते थे। पूरा गांव दहशत में था।

पूरे इलाके में शराबखोरों की दिन प्रतिदिन बढ़ती उच्छृंखल हरकतों से तंग आकर सूखसारी के दिगपाल व परखोला के कुन्दन दादा तथा सिलंगैर के बैसाखू लाल ने मिलकर गांव व क्षेत्र में युवाओं के इस तरह के आचरण के लिये मवलेश प्रसाद को दोषी ठहराते हुए पंचायत में उसकी गांव से बेदखली की बात तो चलाई थी, लेकिन मवलेश ने उसी रात उनके घरों में जाकर उन्हें धमाका दिया कि ज्यादा होशियार बनने की कोशिश कि, तो गला रेत कर चौबट्टा के पीपल के पेड़ पर उल्टा टंगवा देगा। उसके बाद मवलेश के खौफ के आगे गांव के बुजुर्ग लोगों ने अपनी जुबान बंद रखने में ही समझदारी समझी।

विधानसभा चुनावों में भी मवलेश का जादू युवाओं के सर चढ़कर बोल रहा था। उसने पैसा और शराब पानी की तरह बहाकर लोकतंत्र कि आत्मा को भी छिन्न-भिन्न कर दिया। आखिरकार शराब और रुपया नैतिक मूल्यों व ईमानदार प्रत्याशियों पर भरी पड़ गया और बड़ेथी का चकड़ेत मवलेश प्रसाद चुनाव जीतकर विधायक बन गया।

मवलेश की जीत को नैतिकता, सामाजिक शुचिता, उच्च मानवीय मूल्यों की पराजय के रूप में सामाजिक व राजनीतिक पर्यवेक्षक देख रहे थे। शोलापुर पुलिस के लिए आज भी मोस्ट वांटेड मवलेश प्रसाद अपराध, अय्याशी व दलाली की दुनिया से एकाएक लोगों का भाग्य विधाता बन बैठा।

चुनाव जीतने से पहले व बाद में भी वह लोगों को लगातार छलता रहा। उसने गांव के लोगों की कमेटी बनाकर उसमे लोगों का धन यह कहके जमा करवा दिया कि पाँच साल बाद दुगुने रुपये मिलेंगे। लोगों ने खून पसीने की गाढ़ी कमाई को उसकी कमेटी में डाल दिया।

पूरे इलाके में बराबर प्रचारित किया जाता रहा कि वह तो गरीबों का मसीहा है। पाँच साल बाद एक दिन अचानक शोलापुर पुलिस मवलेश को उठा कर ले गई। उसके अपराधों, दलाली एवं काले कारनामों को सुनकर लोग दंग रह गये।

कानून ने तो हत्या व अन्य जघन्य अपराधों में वांछित मवलेश को जेल की सलाखों के पीछे डालकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली, लेकिन पिछले पाँच वर्षों में जामणीधार विधानसभा क्षेत्र के लोगों ने मवलेश का साथ देकर जो कीमत चुकाई, क्या उसकी कभी भरपाई हो पायेगी? क्या उन युवाओं की अमूल्य जवानी फिर लौट पायेगी, जो मवलेश जैसे अपराधी व मक्कार जनप्रतिनिधि के छलावे में आकर अपना सब कुछ खो चुके थे।

मवलेश की गिरफ्तारी के बाद लोग अच्छी तरह समझ गये थे कि पहाड़ संघर्ष के साथी, साक्षी और प्रेरणास्त्रोत तो तो हो सकते हैं, परंतु पहाड़ किसी के गुनाहों पर पारद नहीं डाल सकते। सदियों से चली आ रही यही इस पहाड़ की रीत है, जिस पर प्रत्येक पहाड़वासी को गर्व है।

भय

रेल का डिब्बा यात्रियों से खचाखच भरा था। कुछ यात्री भोजन करने के बाद सोने की तैयारी में तए, तो कुछ आपस में बतिया रहे थे। इतने में रेल में बहुतायत से होने वाली डकैतियों पर ही चर्चा चल पड़ी। एक साहब बोले 'क्या नायाब तरीका अपनाया है इन लुटेरों ने! यात्रियों के बीच में घुल मिल जाते हैं ये डकैत, जिससे किसी को शक न हो। सुनसान जगह देखते ही लूटमार करके, चेन खींचकर, ट्रेन रुकवा, वीरान जंगलों में गुम हो जाते।

इतने में दूसरा यात्री बोला 'भगवान के लिए ऐसा मत कहिए, हो सकता है कि हमारे बीच ही कोई डकैत शरीफ यात्री के रूप में बैठा ट्रेन के जंगल से गुजरने की प्रतीक्षा कर रहा हो?'

ट्रेन काफी लंबे रास्ते तक बीहड़ जंगलों के बीच से गुजर रही थी। बिल्कुल सुनसान वातावरण में खामोश यात्रियों में से तीसरे यात्री ने शेख़ी झाड़ते हुए कहा 'शुभ-शुभ बोलिए। डराइए मत यात्रियों को, वैसे भी रात काफी हो चुकी है'।

एक महिला यात्री, जो अकेले ही लखनऊ से देहरादून जा रही थी, भयभीत मुद्रा में बोली 'वैसे तो ट्रेन में जी॰आर॰पी॰ के जवान मौजूद रहते हैं, पर मैंने आज तक तो देखे नहीं। जब लूट हो जाती है, तब जरूर दिखाई देते होंगे'। महिला यात्री को भयभीत देख अगल-बगल के यात्रियों ने उसे ढांढस बंधाया।

इधर-उधर की चर्चाओं के बाद सभी यात्री अपने-अपने स्लीपर पर सोने की तैयारी करने लगे। अभी यात्री सोये ही थे कि रेल झटके से रुक गई। रेल के इस तरह अचानक रुकने से यात्रियों में हलचल हुई। खिड़की से झाँककर बाहर देखा, तो घुप्प अंधेरा था। सभी के मन में कुछ अनहोनी की आशंका कौंधने लगी। इतने में बाहर कुछ लोगों की पदचाप सुनाई पड़ी।

एक बुजुर्ग यात्री चिल्लाये, 'अरे दोनों तरफ के दरवाजे ढंग से बंद कर दो। देखों कोई अंदर न आने पाये'। एक युवा यात्री ने फुर्ती से जाकर दोनों तरफ के दरवाजों को अंदर से बंद कर दिया।

दरवाजा खटखटाने की आवाज सुनते ही डिब्बे के अंदर बैठे लोगों को मानों साँप सूंघ गया हो। सभी लोग अपनी-अपनी सीटों पर बैठे अपने दिलों की धड़कनों पर काबू पाने का प्रयास कर रहे थे। इतनी बड़ी मुसीबत सिर पर मंडरा रही है, इससे पीछा कैसे छुड़ाया जाए? वो तो अच्छा हुआ, डकैत उनके डिब्बे के अंदर नहीं, बाहर हैं, वरना क्या होता... यह सोच-सोच कर सभी की जान निकली जा रही थी।

एक साहसी यात्री ने खिड़की खोलकर बाहर देखने का प्रयास किया तो दो-तीन लोग चिल्ला उठे।

'अरे मरवाओगे क्या! इतनी भी क्या जल्दी है? दिन तो निकलने दीजिए।' कुछ ही देर में बगल वाले डिब्बे से यात्रियों की आवाजें सुनायी देने लगी, तो एक ने कहा कि बगल वाले डिब्बे से तो आराम से हँसने-बोलने की आवाज आ रही है।

सभी की सहमति से खिड़की का दरवाजा खोला गया, तो देखा कि कुछ यात्री आराम से चहलकदमी कर रहे हैं। पूरी तरह आश्वस्त होकर दरवाजा खोला गया और फिर दो-चार यात्री उत्सुकतावश नीचे उतार आए। गाड़ी कहीं जंगल में खड़ी थी।

एक यात्री ने पूछा,'आखिर हुआ क्या है?

'कुछ नहीं, ट्रेन का इंजन अचानक फेल हो गया था। पूरी रात ट्रेन यहीं खड़ी रही। अभी तक पास के स्टेशन से दूसरा इंजन नहीं आ पाया। रेलवे विभाग भी अभी तक गहरी नींद सो रहा है।' दूसरे डिब्बे के कुछ यात्री बोले, 'हमने तो रात में यही बताने के लिए आपके डिब्बे का दरवाजा भी खटखटाया था था, लेकिन आप सब लोग शायद सो रहे थे।

'अरे भाई साहब! सो कहाँ रहे थे?' हम सब तो डर गए थे। पूरे डिब्बे के लोगों ने सारी रात यूं ही जागरण करते गुजार दी।

डकैती का अहसास होते ही मारे डर के सब की जान निकली जा रही थी। हमने कहा भी कि देख तो लें,किंतु डिब्बे के लोग तो खाने को दौड़ते थे कि मरवाओगे सबको? यहाँ तो हर रोज ट्रेन जो लुटती हैं।'

कहते-कहते यात्री जब अपने डिब्बे में आए और रेलगाड़ी के रुकने का कारण बताया, तो दिल थामकर बैठे लोगों की सांस में सांस आई। लंबी सांस लेकर लोगों ने एक दूसरे को गले-मिलकर भगवान का धन्यवाद किया और सब धीरे-धीरे सामान्य होकर बातें करते-करते अपनी मंजिल की ओर बढ़ चले। आखिर पाँच घंटे विलंब से ही सही, दूसरा इंजन जो आ पहुँचा था उन्हें उनकी मंजिल तक छोड़ने...!


प्रतीक्षा

सी॰बी॰आर॰आई॰ का अतिथि गृह। उन्हें एक कमरा ऊपर व एक नीचे मिला था। नीचे ड्राईवर व उसके साथ अन्य लोग। केशव ऊपरी मंजिल के कमरे में चले गए। पिछली बार की अपेक्षा अतिथि गृह की सजावट में काफी अंतर दिखाई दिया था। रात दस बजे के करीब अचानक बिजली गुल हो गई।

बिजली जाते ही एक खनकदार आवाज कानों में गूँजी 'आसाराम! जनरेटर चलाओ जल्दी। बिजली जाने के कारण किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए'। केशव इस निर्जन इलाके में बने अतिथि गृह में किसी महिला का स्वर सुनकर चौंक पड़ा। कक्ष सेवक ने केशव के चेहरे के भाव पढ़ लिये थे, बोला 'सर' ये गुंजन मैडम हैं। कुछ महीने पहले ही इस अतिथि गृह में संरक्षिका के रूप में तैनात हुई हैं'। संरक्षिका वह भी लड़की?

केशव ने कक्ष-सेवक सुखवीर से कहा 'तुम जाओ, आशाराम! को जेनरेटर चलाने को कहो और अपनी गुंजन मैडम से कहो कि वे जाकर आराम करें, ज्यादा परेशान न हो।'

अरे सर! आप क्यों चिंता करते हो। गुंजन मैडम बहुत साहसी और कर्मठ हैं। उन्हें बुरा लगेगा अगर कमजोर समझ मैं उनकी मदद करने जाऊंगा। उन जैसी बोल्ड महिला मैंने जीवन में पहली बार देखी है सर।' सुखवीर अपनी गुंजन मैडम की तारीफ़ों के कशीदे काढ़ने लगा। बिजली आने के तुरंत बाद वह रसोइये के साथ-साथ चाय लेकर कमरे में पहुँच गई।

सुंदर देहयष्टि, आकर्षक नयननक्श। उसकी बड़ी-बड़ी दिलकश आँखों में भरपूर आत्मविश्वास झलक रहा था। उसके अभिवादन करने के सलीके में भी चुंबकीय खिंचाव था। उसके कमरा खोलते ही ऐसा लगा, जैसे शीतल मंद हवा के झोंके निर्जन कमरे की खिड़कियों व वस्तुओं में नया जीवन संचार कर गये हों।

वह चाय के साथ समोसे भी ले आई थी।

'भाई,मैं तो खाऊँगा नहीं, सर्दी जुकाम से पीड़ित हूँ।' केशव के स्वर छूटते ही वह तपाक से बोल पड़ी,'आप चाय समोसे तो ले लें, दवाई भी मिल जाएगी।' उसकी आत्मीयता के सामने केशव की झूठी ऐंठ बौनी पड़ गई।

'सर, रात्रि के भोजन में आप क्या लेंगे? गुंजन ने पूछा।

'तुम इतना कुछ खिला चुकी हो कि अब है ही नहीं।' केशव ने चाय का कप मेज पर रखते हुए कहा।

'नहीं सर, ऐसा कैसे हो सकता है? मेरी नियुक्ति के बाद आप पहली बार यहाँ आए हैं! भोजन नहीं करेंगे, तो ये मेरे साथ नाइंसाफी होगी, सर। चिंता मत कीजिए, बिल्कुल घर जैसा खाना ही मिलेगा।' इतना कहकर गुंजन भोजन की व्यवस्था में जुट गई।

'बहुत आत्मविश्वासी लड़की है यह। उम्र में गुंजन के पिता के समतुल्य कक्ष सेवक सुखवीर ने कहा। सुखवीर जैसे ही मेज में पड़े कप और प्लेट उठाने लगा, तो केशव ने उससे उत्सुकता से पूछा ,'सुखवीर जी, आपकी मैडम में इतना सेवा भाव और समर्पण भाव कहाँ से आया।

'सर! कई वर्षों से अकेली रह रही हैं। यहाँ तो इनकी नियुक्ति अभी छः महीने पहले ही हुई है। अपने पिता की एक मात्र संतान हैं। माँ का बचपन में ही साया उठ गया, तो पिता ने ही माँ-बाप दोनों का प्यार दिया। जब से वह इस अतिथि गृह की संरक्षिका बन कर आई, सारे अतिथिगृह का नक्शा ही बदल गया। अभी तो आपने कमरा ही देखा है, सुबह उठकर बाहर का दृश्य देखिएगा, चारों तरफ हरियाली ही हरियाली नजर आएगी। सच कहूँ तो इस अतिथि गृह के कोने में उनकी उपस्थिति महसूस होती है। उनका व्यवहार भी इतना मृदुल है कि कोई भी सेवक उनके किसी काम के लिए मना नहीं करता। जितनी मदद वह हम सब की करती हैं, ईश्वर उतनी ही मदद उनकी भी करें।' ये शब्द कहकर सुखवीर चाय के बर्तन लेकर बाहर चला गया।

सुखवीर ने गुंजन के बारे में थोड़ा बहुत बताकर केशव की उत्सुकता और अधिक बढ़ा दी। केशव ने घंटी बजाई। सुखवीर पुनः कमरे में दाखिल हो गया।

'एक विल्स सिगरेट की डिबिया ले आना।' कुछ ही देर बाद सुखवीर सिगरेट लेकर आ गया। इस बहाने केशव ने सुखवीर से गुंजन के बारे में बहुत कुछ पूछ डाला। पता चला कि गुंजन ने लिखकर अपने आप नौकरी ढूँढी और तब से अकेली रह रही है। पिता उसके विवाह के लिए परेशान रहते हैं, दो तीन जगह बात चली, लेकिन कहीं उसके खुद मना कर दिया और कहीं लड़के वालों ने।

'गुंजन ने रिश्ते के लिए मना क्यों किया? केशव ने उत्सुकता दिखाते हुए सुखवीर से पूछा।

'दरअसल मैडम को उस लड़के के शराबी होने का पता चल गया था। यद्यपि लड़का अच्छी नौकरी पर था, फिर भी लड़के के बारे में ऐसा पता चलते ही मैडम ने इस रिश्ते से इंकार कर दिया।

'फिर' पूछा केशव ने।

'पिछली बार एक और लड़का गुंजन मैडम को पसंद कर गया था,किंतु दोनों जब आपस में मिले तो बात बिगड़ गई। गुंजन ने उस रिश्ते के लिए भी साफ तौर पर मना कर दिया'।

इतनी देर में गुंजन भी कमरे में चली आई। 'खाना तैयार है, यहीं भिजवा दूँ या भोजन कक्ष में चलेंगे?'

'नहीं-नहीं यहाँ नहीं! भोजन कक्ष में चलेंगे।' केशव ने कहा। दरअसल केशव गुंजन के सुरुचिपूर्ण व्यक्तित्व की छाप वहाँ भी देखना चाहता था।

सीढ़ियों से उतरते हुए केशव ने गुंजन से पुछने का साहस कर ही लिया 'गुंजन कब तक अकेली रहने का इरादा है, विवाह नहीं करना चाहती क्या?

उसने बड़ी चपलता से विषय ही बदल दिया, लेकिन खाना खाने के बाद गुंजन से बतियाते हुए केशव बोला 'खाना अच्छा बना था। लग रहा था, मानो घर पर ही खाना खा रहे हों।'

आपने बताया था कि आपको खांसी है तो मैंने रसोइये को कह दिया था, 'ज्यादा तेल मसाले का प्रयोग न करना। आप अपने कमरे में आराम कीजिये, कोई परेशानी हो तो बुलवा लीजियेगा। मैं भी इसी परिसर के स्टाफ क्वार्टर में रहती हूं। ' वह पूरे आत्मविश्वास के साथ बोली।

केशव ने गुंजन को दोबारा टटोलना चाहा। गुंजन जैसे लड़के से विवाह करना चाहती हो? शायद तुम्हारी पसंद का लड़का ढूँढने में मैं तुम्हारी मदद कर सकूँ।

वह तपाक से बोली 'सर! रिश्ते तो भगवान के घर में ही तय हो जाते हैं,किंतु आखिर पूरी जिंदगी का सवाल है, तो हम अपनी ओर से सही प्रयास क्यों न करें? जिसे हम जीवनसाथी बनाने जा रहे हैं, उसकी बुरी आदतों का पता यदि समय रहते पता चल जाता है, तो आँखें देखी मक्खी क्यों निगली जाए? मैं चाहती हूँ कि मेरा जीवन साथी मेरी इच्छाओं का मान रखे, मेरी भावनाओं की कद्र करे, मेरे कार्य का सम्मान करे, मुझे बराबरी का दर्जा देते हुए सदैव आगे बढ़ने की प्रेरणा देकर प्रोत्साहित करता रहे और सबसे महत्वपूर्ण वह बुरी आदतों का शिकार न हो, बस यही चाहती हूँ मैं!

गुंजन ने एक ही झटके में दृढ़ता व आत्मविश्वास के साथ केशव के सवालों का जबाब दिया और धीरे-धीरे कमरे से बाहर निकल गई।

उसके जाते ही केशव सोचने लगा कि उसकी शक्ल को किसी और में देखने अथवा उसे अपना बनाने में उसे न जाने कितनी बहारों का और इंतजार करना पड़ेगा,किंतु इतनी लंबी प्रतीक्षा के उपरांत भी क्या वह उसे अपने प्यार, आकर्षण और अपनत्वपन का अहसास दिला पाने में सफल हो पाएगा?

कीमत

'अरे कोई इसको रुलाने की कोशिश तो करो। देखो तो! कैसी पत्थर हो गई है। ऐसे में तो यह पागल ही हो जाएगी। अगर इसी को कुछ हो गया तो इसके बच्चों का क्या होगा? विमला काकी ये कहते हुए कमली के बगल में बैठ गई। फिर उसे झकझोरते हुए कहने लगी,'अरे सुंदर चला गया, लौट कर नहीं आयेगा, इन बच्चों की तरफ देख! कौन है इनका तेरे सिवा? लेकिन कमली थी कि जैसे उसने कुछ सुना ही नहीं। यूं ही निढाल होकर शून्य में ताकती हुई बैठी रही।

'ऐसे नहीं रोएगी ये! श्यामा काकी ने उठकर उसके सर पर मरते हुए कहा 'अरे ये सिंदूर मिटा अपने माथे से! कोई इसकी चुड़ियाँ तो निकाल दो, ये नाक में क्यों अभी तक पहना हुआ है?'

श्यामा काकी जानबूझकर अपने स्वर को कर्कश बनाये हुए थी, ताकि कमली की पथरायी आँखों में दो बूँद आँसू ला सके। वरना तो सभी का मन कमली की हालत देखकर दुःखी हो रहता। अभी उमर ही क्या थी उसकी, मुश्किल से पच्चीस छब्बीस बरस।

लगभग छः वर्ष पूर्व सुंदर की दुल्हन बनकर इस गांव में आई थी। दमकता हुआ चेहरा और उसपर सौम्य मुस्कान। गांव में आते ही कमली ने सबका मन मोह लिया था। सुंदर के माता-पिता की पूर्व में ही मृत्यु हो चुकी थी और एक बहन थी जो पास के गांव में ही ब्याही थी। ज्यादा पढ़ा-लिखा तो था नहीं, बस गुजरे लायक कमा लेता था। विवाह के लिये मुश्किल से दस दिन का अवकाश स्वीकृत हुआ था। कमली के हाथों की मेहंदी का रंग भी नहीं छूटा था कि सुंदर को नौकरी पर वापिस जाना पड़ा।

'जल्दी ही कमरे की व्यवस्था कर तुझे अपने साथ ले जाऊंगा'। रोती हुई कमली से इतना ही कह पाया था सुंदर। दो महीने बाद आकर कमली को शहर ले गया, परंतु गांव के खुले वातावरण में साँस लेने वाली कमली को शहर का एक छोटा सा घुटन भरा कमरा रास नहीं आया और फिर सुंदर की कमाई भी इतनी नहीं थी कि गुजारा ठीक से चल पाता।

'यहाँ रहकर खर्चा तो चल नहीं पाता, ऐसी जिंदगी जीने से अच्छा तो यह है कि अपने गांव में रहें। दो-चार खेत भी हैं ही और एक-दो गाय भी पाल लूँगी। अपने लोगों के बीच में रहूँगी, तो तुम्हें चिंता भी नहीं होगी'। सुंदर को समझा कर तीन-चार महीने बाद ही कमली गांव वापिस लौट आई थी।

सब कुछ ठीक ठाक ही चल रहा था। दो एक महीने में सुंदर भी गांव का चक्कर लगा लेता। कमली ने सुंदर के वीरान पड़े घर को संवार दिया था। सुंदर की माँ की मृत्यु के पश्चात तो घर, घर जैसा लगता ही नहीं था। दोनों ही खुश थे। देखते ही देखते छह वर्ष बीत गये। कमली व सुंदर अब दो बच्चों के माता-पिता थे। बड़ा बेटा पाँच वर्ष का हो चुका था व बेटी तीन वर्ष की। अब सुंदर एक बार फिर कमली को शहर चलने के लिए मनाने की कोशिश कर रहा था।

'देख कमली, मैं तो ढंग से पढ़-लिख नहीं पाया, लेकिन बच्चों को मैं ढंग से पढ़ाना-लिखाना चाहता हूँ। बच्चों के भविष्य की खातिर अब हम शहर में ही रहेंगे। इतने सालों में कुछ पैसा बचा भी लिया है, जिससे हम बच्चों को भी ढंग से रख पायेंगे'। अगली बार सबको शहर ले जाने का वादा कर सुंदर चला गया।

कमली का मन शहर जाने का नहीं था, लेकिन बच्चों के सुनहरे भविष्य के सपने सँजोये वह जाने की तैयारी करने लगी। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। सुंदर उसके बाद कभी घर नहीं आया। खबर आई कि एक सड़क दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गई है। जब तक गांव से उसके रिश्तेदार शहर पहुँचते, उसका अंतिम संस्कार किया जा चुका था।

कमली उसके आखिरी दर्शन भी नहीं कर पाई। जब उसे सूचना दी गई तो उसके मुँह से इतना ही निकाल,'कैसी बातें कर रहे हैं आप लोग? वे तो अगले महीने हम सब को यहाँ से ले जाने आने वाले हैं'।

'नहीं बेटी! अब वह कभी नहीं आयेगा'। दिनू काका ने उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहा।

लेकिन कमली ने तो जैसे कुछ सुना ही नहीं। तब से यूँ ही पत्थर बनी बैठी थी। न आँखों से आँसू निकलते थे, न मुँह से बोल फूटते थे।

श्यामा काकी के कहने पर दो तीन महिलाएँ उठ कर कमली के पास गईं और कोई उसकी चूड़ियाँ उतारने लगा, कोई उसकी बिंदी व मांग का सिंदूर पोछने लगा। न जाने कौन सी यादें थीं उन चूड़ियों में कि उनके उतरते ही कमली दहाड़े मार कर रो पड़ी।

कुछ दिन शोक मनाने व सुंदर के क्रिया कर्म में ही बीत गए। अब कमली के सामने यक्ष-प्रश्न था, बच्चों का भविष्य और उनका लालन-पालन। शहर जाने की तैयारी में उसने अपनी गायें भी बेच दी थी। उनसे जो कुछ पैसा मिला वह सुंदर के क्रिया कर्म में खर्च हो चुका था।

शायद सुंदर के फ़ंड का कुछ पैसा होगा, ये सोचकर दिनू काका के साथ मेरठ जाकर फैक्ट्री मालिक से मिली। वहाँ जब वे सुंदर के एक मित्र से मिले, तो दबी जुबान में उसने बताया कि सुंदर की मृत्यु फैक्ट्री में घटी दुर्घटना में हुई थी। मालिक ने अपनी लापरवाही छुपाने के लिए पुलिसवालों को ले-देकर इसे फैक्ट्री के बाहर दुर्घटना का झूठा केस बनवा दिया था।

अगले दिन दीनू काका कमली को साथ लेकर मालिक से मिलने गये। कमली तो जैसे भव्य कार्यालय को देखकर गूंगी ही हो गई थी। दिनू काका ने ही फैक्ट्री मालिक से विनती की कि कमली की उम्र व उसके दोनों छोटे बच्चों की जिम्मेदारी को ध्यान रखते हुए उसे उसके पति की फैक्ट्री में हुई मृत्यु का उचित मुआवजा दे दिया जाये।

यह सुनते ही फैक्ट्री मालिक ने मानो जलता तवा छू लिया हो 'किसने कहा आपसे की उसकी मौत फैक्ट्री में हुई है? पता नहीं शराब पीकर कहाँ दुर्घटना का शिकार हुआ और आप हम पर दोष मढ़ रहे हैं। उसका जो पैसा जमा है, बाहर मुंशी से मिलकर उसे ले जाइए। ज्यादा इधर-उधर की बातें करेंगे, तो उस पैसे से भी हाथ धोना पड़ सकता है'।

दिनू काका और कमली तो उसके रौद्र रूप को देखकर सहम से गये और चुपचाप कमरे से बाहर निकाल आये। पीछे से मालिक के बड़बड़ाने की आवाज आ रही थी 'न जाने कहाँ-कहाँ से चले आते हैं, मानो मैंने कोई धर्मशाला खोल रखी हो।'

उधर दिनू काका सोच रहे थे कि कितना अमीर आदमी है, परंतु कितने छोटे दिल का है! अगर कमली के ऊपर टूटी विपत्ति को देखकर उसकी मदद कर भी देता, तो कौन सी कमी हो जाती इसे? लेकिन ये बड़े लोग जितने बड़े होते हैं, उतना ही इनका दिल छोटा होता है।

विक्षुब्ध मन लिये शहर से लौटकर कमली अपने गम को कम करने के लिए अधिकतर समय बच्चों के बीच व्यतीत करने लगी। पति के जमा फ़ंड के जो भी पैसे मिले थे, वे भी धीरे-धीरे खत्म होने लगे। दो-चार खेतों से क्या होता? किसी ने सुझाया 'सरकार विधवाओं के लिए पेंशन देती है। क्यों न कमली के लिए भी बात की जाये?'

पास ही के गांव में इस क्षेत्र के प्रधान का घर था। प्रधान अभी युवा ही था। पिछले वर्ष ही चुनाव जीतकर प्रधान बना था। दिनू काका उसके पास गये और कमली की विधवा पेंशन स्वीकृत करवाने हेतु विनती की। 'बेटा बहुत छोटी है वह अभी, दो छोटे-छोटे बच्चों की जिम्मेदारी है उस पर, उसका यह काम करवा दोगे, तो बड़ी कृपा होगी तुम्हारी उस पर और हम सभी पर'।

'अरे नहीं चाचा जी! कैसी बातें कर रहे हैं? कल उन्हें मेरे पास भेज दीजिएगा। मैं जरूरी प्रार्थना पत्र लिखवा दूँगा।' प्रधान बोला।

अगले दिन दीनू काका कमली को लेकर प्रधान के पास पहुँच गए। ग्राम प्रधान ने तिरछी नजरों से कमली को देखा, देखते ही रह गया। न जाने क्या था उसकी नजरों में कमली सहम गई। प्रार्थना पत्र पर हस्ताक्षर करवाने के बहाने जब उसने कमली का हाथ छूने की कोशिश की तो कमली का मन वितृष्णा से भर उठा।

इसी बीच प्रधान ने किसी-न-किसी बहाने से कई बार कमली से मिलने का प्रयास किया। कमली भी बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखकर चुप हो रही।

'बस आप का काम होने ही वाला है, केवल एक रसीद पर आप के हस्ताक्षर चाहिए।' एक दिन उसी बहाने ग्राम प्रधान घर पर पहुँच गया। कमली उसी समय घर पर अकेली थी।

'कोई और काम होगा, तो सेवा का मौका दीजिएगा। मुझे आपसे पूरी हमदर्दी है।' कहते हुए उसने अपना हाथ कमली के सिर पर रख दिया, जो धीरे-धीरे फिसलकर कमली के पीठ पर जा टिका।

कमली इस वक्त लाचार थी। किस्मत की मारी अवश्य थी, लेकिन बेवकूफ नहीं थी। उसके कुत्सित स्पर्श को समझ गई। झटके से अलग हो कमरे से बाहर निकल आई और चाची को पुकारने लगी।

प्रधान तिलमिलाता हुआ कमरे से बाहर निकाल गया और एक बरस बाद भी आज तक कमली की पेंशन स्वीकृत नहीं हो पायी।

कमली जहाँ से चली थी, फिर वहीं खड़ी थी। क्या करे, खर्चे की परेशानी बढ्ने लगी थी। जिन बच्चों के लिए जी रही थी, उन्हीं के लिए कॉपी, किताबें, स्कूल की फीस तक नहीं जुटा पा रही थी कमली।

इसी बीच उसे पता चला कि पास के गांव में एक सामाजिक संस्था काम कर रही है, जो कि उसकी तरह गरीब विधवा महिलाओं को बैंक से अपना काम करने हेतु ऋण दिलवा सकती है। कमली ने सोचा, क्योंन वह भी एक-दो भैंसें खरीदने के लिए ऋण ले ले। थोड़ी बहुत आमदनी भी हो जाएगी और बैंक की किश्त भी निकाल जाएगी। साथ ही पूर्व में भी उसे इस काम का अच्छा अनुभव था। एक बार फिर दीनू काका को साथ लेकर वह उस संस्था के प्रमुख से मिलने गई। वह कमली का ही हम उम्र युवा था। उसकी बातों से ऐसा लग रहा था मानों उसके अंदर कुछ कर गुजरने का जज्बा हो। लगता था मानों पहाड़ से गरीबी और बेरोजगारी मिटा देने का संकल्प किया हो उसने। स्वावलंबन विषयक उसकी प्रभावपूर्ण व धाराप्रवाह बातों से बहुत दिनों बाद कमली के मन को कुछ सुकून मिला था। किसी सरकारी योजना में ऋण स्वीकृत कराने की बात हुई थी, कुछ सरकारी अनुदान भी मिल जाएगा। ऐसा बताया था संस्था के प्रमुख ने।

कमली से कुछ कागजों पर हस्ताक्षर करवाए गए और एक दिन उसे बताया गया कि ऋण संबंधी दस्तावेज़ बैंक में पहुँच गए हैं। उसे कुछ औपचारिकताएँ पूरी करनी हैं, उसके बाद ही उसे ऋण वितरित किया जाएगा।

एक-दो दिन बाद ही संस्था का प्रमुख कमली से मिलने घर आया और कहने लगा कि 'दरअसल एक परेशानी है, आपको कुछ करना पड़ेगा।'

उसका आशय भाँपकर कमली का कलेजा मुँह को आ गया। उसे आज फिर ग्राम प्रधान की याद हो आई, जो विधवा पेंशन स्वीकृति के बदले में उससे कुछ चाहता 'हे भगवान! अब यह मुझसे क्या चाहता है?, लगता तो नहीं था यह ऐसा?' उसने मन ही मन सोचा। फिर अपने आप को संभालते हुए साहस बटोरकर तुरंत पूछा 'जी बताइए?'

'आपको तो पता ही होगा कि आपको इस ऋण के साथ-साथ पच्चीस हजार रुपये का सरकारी अनुदान भी प्राप्त होगा'। अब कैसे कहूँ कि मैं आपसे कि सरकारी विभाग व बैंक वाले को उसमें से पाँच हजार रुपये देने होंगे, तभी ऋण आसानी से मिल पाएगा। आपको तो मालूम ही है कि हम लोग भी बेरोजगार हैं, संस्था के साथ जुड़े हैं और किसी तरह अपना गुजारा कर रहे हैं। आज यदि मैं किसी लायक होता तो आपकी दयनीय स्थिति देखकर यह दुस्साहस कदापि न करता और सरकारी विभाग और बैंक वालों से अपने दम पर निपट लेता।' संस्था प्रमुख ने सिर झुकाकर विवशता प्रकट करते हुए कहा।

'ओह! तो यह बात है।' उसने मन ही मन कुलदेवी का स्मरण कर उन्हें धन्यवाद दिया, वरना उस युवक की बात सुनकर वह तो पता नहीं, अब तक क्या-क्या सोच बैठी थी इस युवक के प्रति। आखिर जिस कीमत की उससे विधवा पेंशन के बदले में ग्राम प्रधान द्वारा उम्मीद की गई थी, उसके सामने तो यह कुछ भी नहीं।

'मैं तैयार हूँ। ' कमली ने दृढ़तापूर्वक कहा।

प्रमुख ने एक लंबी साँस ली, मानों उसके सिर से एक बड़ा बोझ उतर गया हो।

कहाँ हुई भूल ?

अँधेरा घिर आया था। अपने कमरे में अकेले कुर्सी पर बैठे नारायण सिंह को अपनी दुनिया भी ऐसे ही अँधेरी नजर आ रही थी। उन्होने चाहा कि उठ कर लाइट जला दें, लेकिन हिम्मत नहीं हुई,'यह अँधेरा ही ठीक है अब मेरे लिए, उजाले में तो घर की हर वस्तु मुझे बीते हुए दिनों की याद ही दिलाएगी।' स्वयं से ही बोले थे नारायण सिंह।

इस अफरा-तफरी और दु:खद माहौल में, घर में शायद किसी को पता नहीं है कि इस सब से भागकर वे इस समय कहाँ बैठे हैं? वरना घर का कोई सदस्य या नौकर आकर कमरे में रोशनी कर जाता। चलो, अच्छा ही हुआ। उजाले में दिखने वाले वर्तमान से उन्हें डर लगने लगा था। यही अँधेरा उन्हें वर्तमान से भूतकाल में ले गया।

पहाड़ पर स्थित एक छोटे से गांव के निवासी हुकुम सिंह की छः संतानों में सबसे छोटे थे नारायण सिंह। घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। थोड़ी सी खेती योग्य जमीन थी, जिससे इतने बड़े परिवार का गुजारा होना असंभव था। पिता व बड़े भाई गांव के अन्य लोगों के खेतों में हल चलकर व गाय बकरी पालकर घर की आमदनी बढ़ाने का प्रयास करते। गांव के पास ही एक प्राथमिक विद्यालय था। दो बड़े भाई व बहन वहीं से पाँचवी की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् घर के काम में हाथ बंटाने लगे थे। पिता की न तो पढ़ाने की हिम्मत थी, न ही उन्होने आवश्यकता समझी। शेष दोनों भाई उसी पाठशाला में क्रमशः तीसरी व चौथी कक्षा में पढ़ रहे थे।

जब नारायण ने छः वर्ष की उम्र होने पर पहली कक्षा में प्रवेश लिया, तो वर्षों से चली आ रही फटी-पुरानी किताबें उसे विरासत में मिली थी। अन्य भाई-बहिनों की अपेकषा नारायण का दिमाग तेज था। नारायण ने जब पहली कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया तो अचानक ही वह गुरुजनों की आँख का तारा व गांव के अन्य धनी व संपन्न सहपाठियों के बीच ईर्ष्या का कारण बन गया। अपनी खिसियाहट उतारने के लिए वे नारायण की फटी-पुरानी किताबों व साधारण से कपड़ों का मज़ाक उड़ाया करते।

आरंभ में तो नारायण ने इस पर अधिक ध्यान नहीं दिया व शांत रहा, परंतु जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया, तथाकथित संपन्न व धनी लोगों के प्रति उसके मन में विद्रोह बढ़ता गया। ऐसे ही कुछ लोगों के प्यार व कुछ लोगों की ईर्ष्या के बीच समय बीतता रहा। नारायण अब चौथी कक्षा में पढ़ रहा था। जैसे-जैसे वह हर कक्षा में अपनी योग्यता के आधार पर अपने सभी सहपाठियों के बीच अव्वल साबित होता, उतना ही उसके सुविधा संपन्न सहपाठी उसकी दरिद्रता को निशाना बना, उसे नीचा दिखाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते। एक दिन तो हद ही हो गई। उसके एक सहपाठी ने उसकी पहले से ही फटी कमीज में उँगली डालकर उसे पूरा ही फाड़ डाला। कमीज जीर्ण-शीर्ण अवस्था में वैसे ही थी, खींचते ही फट गई और नारायण की दुबली-पतली काया फटी कमीज के अंदर से झाँकने लगी।

'अरे इसकी कमीज तो कागज की बनी थी।' वह लड़का ज़ोर से हँसा और इसी के साथ पूरी कक्षा ठहाकों से गूँज उठी। अपमान और गुस्से से नारायण का चेहरा तमतमा गया और गुस्से में न जाने कहाँ से इस दुबली-पतली काया में गजब की ताकत आ गई। अचानक ही उसने ज़ोर-ज़ोर से हँसते हुए उस सहपाठी को अपनी ओर खींचा और जब तक कि कोई कुछ समझ पाता, नारायण ने उस पर घूंसों से ताबड़तोड़ तीन-चार प्रहार कर दिये।

नारायण के इस रूप को पूरी कक्षा सहम गई और उस लड़के ने तो ज़ोर-ज़ोर से रोना आरंभ कर दिया। शोर सुनकर अध्यापक कक्षा में आ गये। उनके आते ही सारी कक्षा शांत हो गई। अध्यापक कुछ पूछते, उससे पहले ही एक पहले ही एक छात्र बोल उठा 'मास्टर जी, नारायण ने कमल को मारा।'

'नारायण! लेकिन ऐसा क्यों किया तुमने?' और उनका ध्यान नारायण की फटी हुई कमीज और कमल की ओर गया, जो अभी भी रो रहा था।

नारायण अपने अपमान के साथ-साथ इस बात को लेकर भी दु:खी था कि कल वह स्कूल क्या पहनकर आएगा। उसके पास तो एक ही कमीज थी।

मास्टर जी ने दोनों को डांट-फटकार कर मामला वहीं शांत कर दिया, किंतु अभी तो इसकी सुनवाई गांव में भी होगी, यह नारायण को पता नहीं था।

कमीज फटने पर मार पड़ने के भय से नारायण देर से घर पहुँचा। किंतु अभी इसकी सुनवाई गांव में भी होगी, यह नारायण को पता नहीं था।

कमीज फटने पर मार पड़ने के भय से नारायण देर से घर पहुँचा, लेकिन घर पहुँचने पर पता चला की मार तो पड़ने वाली है, परंतु कमीज फटने पर नहीं, किसी और कारण से। पिता गुस्से में बड़बड़ा रहे थे,'पता नहीं क्या समझता है अपने आप को? पढ़ाई में अव्वल क्या आने लगा, चला गांव के जमींदारों से मुक़ाबला करने। अबे, अन्नदाता हैं हमारे वे।'

ज्यों ही नारायण ने घर की देहरी पर कदम रखा, पिता ने आव देखा न ताव दो थप्पड़ जड़ दिये उसके,'बहुत बड़ा बदमाश बन गया है तू। जमीदारों के बच्चे को मारेगा? कल से तेरा स्कूल जाना बंद।'

'लेकिन उसने मेरी कमीज फाड़ी थी और पूरी कक्षा में मेरा मज़ाक बनाया था।' नारायण रुआंसी आवाज में बोला।

'तो क्या हुआ? सोना जड़ा था तेरी कमीज में क्या? फट गई तो कौन सा आसमान टूट पड़ा। चल मेरे साथ, अभी माफी माँग उनसे।' पिता का क्रोध अभी शांत नहीं हुआ था।

'मैं नहीं माँगूंगा माफी, मेरी क्या गलती है?' नारायण अड़ गया था।

'नहीं माँगेगा माफी?' इतने में पिता ने गुस्से में उसके दो थप्पड़ और जड़ दिये थे। उसका हाथ पकड़कर लगभग घसीटते हुए उसे कमल के घर की ओर ले गए।

वहाँ पहुँचकर उन्होंने नारायण को कमल के पिता के सामने खड़ा कर दिया। साहब मेरे बेटे से गलती हो गई। छोटा है न अभी, नहीं समझता किसके साथ कैसा व्यवहार करना है? नारायण के पिता स्पष्टीकरण देते हुए बोले।

कमल के पिता जो कि तिबार में बैठे हुक्का पी रहे थे, ने आँख उठाकर नारायण की ओर देखा 'हूँ तो ये तुम्हारा बेटा है। समझाओ इसे कि बड़ों और छोटों में अंतर करना सीखे।' फिर नारायण की फटी कमीज की तरफ इशारा करते हुए बोले,'अरे इसकी कमीज तो पूरी फट गई। कल स्कूल कैसे जाएगा? ऐसा करो थोड़ी देर में आना, हम कमल की पुरानी कमीज इसके लिए दे देंगे', इतना कहकर वे उठकर अंदर चले गए।

'आपका ही सहारा है मालिक ! आप नहीं होते तो बच्चे भूखे मर जाते मेरे।' नारायण के पिता की आवाज और अधिक दयनीय होती चली गई।

'देखा तूने, ऐसे होते हैं बड़े लोग? तूने उनके बेटे को मारा, तब भी उन्हें तेरे स्कूल जाने की चिंता है।' पिता नारायण को समझाने के स्वर में कह रहे थे और नारायण सोच रहा था कि कोई उससे ये क्यों नहीं पूछता कि उसने कमल को क्यों मारा? उसकी कमीज कैसे फटी?

घर पहुँचकर सीधे माँ के पास जाकर रसोई में बैठ गया। सबसे छोटा होने के कारण माँ का लाडला था। उसे उम्मीद थी कि माँ उसका पक्ष लेगी, लेकिन माँ तो चुप थी, उन्हें चुप देख नारायण स्वयं ही बोल पड़ा-

'माँ! उसने मेरी कमीज फाड़ी, उसको तो किसी ने कुछ नहीं कहा और सब मुझे ही क्यों डांट रहे हैं?

'बेटा, वे बड़े लोग हैं। तेरे पिता और भाई उनके खेतों में मजदूरी करते हैं, हल चलाते हैं, कभी विपत्ति पड़े, तो दो पैसा उधार भी मिल जाता है। हम उनकी बराबरी नहीं कर सकते।' माँ ने विवशता प्रकट करते हुए नारायण को सीने से लगा लिया।

'माँ वे इतने अमीर और हम इतने गरीब क्यों है? ऐसा क्यों होता है? माँ से इसका कोई उत्तर न पाकर नारायण पुनः बोला 'थू! मैं भीख में दी हुई उनकी कमीज पहनकर स्कूल नहीं जाऊँगा। कोई पुरानी कमीज होगी, उसे ही ठीक कर देना। मुझे इनका कुछ नहीं चाहिए। एक दिन मैं भी उनकी तरह बड़ा बन कर दिखाऊँगा।'

नारायण की बातें सुनते ही माँ की आँखें छलछला आई थीं। उन्होंने नारायण को कसकर सीने से लगा लिया और रोते हुए बोली 'ठीक है, बेटा तेरी फटी हुई कमीज आज रात को ही सिलाई मारकर ठीक कर दूँगी। और यहीं से नारायण के भीतर विद्रोह की भावना पनपती चली गई।

पाँचवीं की परीक्षा में नारायण ने पूरे विकास खंड में प्रथम स्थान प्राप्त किया, तो सरकार ने उसे आगे की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति स्वीकृत कर दी।

गांव से लगभग चार मील की दूरी पर हाईस्कूल और उसके साथ ही छात्रावास भी थी। दूरस्थ गाँवों के सुविधासंपन्न विद्यार्थी छात्रावास भी था। अधिकांश गरीब विद्यार्थी या तो छात्रावास में ही रहा करते थे। अधिकांश गरीब विद्यार्थी या तो पाँचवी के पश्चात् ही स्कूल छोड़ देते या नित्य प्रति तीन-चार मील पैदल चलकर पढ़ने आते। नारायण भी इन्हीं बच्चों में से एक था। चूंकि छात्रवृत्ति मिल रही थी, तो नारायण के पिता आगे पढ़ाने से मना भी नहीं कर पाये, साथ ही नारायण के अध्यापकों के आग्रह को भी वे टाल नहीं पाये। 'बहुत होनहार बेटा है आपका, आगे चलकर नाम कमायेगा और लगता है आपकी भी जिंदगी सुधर जायेगी।' अध्यापक कहते तो नारायण के पिता को कुछ सुकून मिलता।

और इसके पश्चात् नारायण ने मुड़कर नहीं देखा। हाईस्कूल व इंटरमीडिएट में अच्छे अंकों के बल पर उसे कॉलेज में भी छात्रवृत्ति मिल गई।

नारायण की प्रखरता अब बढ़ती जा रही थी। कॉलेज में आकार धीरे-धीरे वह छात्र राजनीति में भी सक्रिय रहने लगा। गरीबों और दबे हुए लोगों के लिए कुछ कर गुजरने की इच्छा, उसे राजनीति मे ले आई। लेकिन मन अभी भी गांव में अटका हुआ था। उसने स्नातक की परीक्षा अच्छे अंकों से पास कर ली। इसी बीच गांव के पास स्थित विकास खंड मुख्यालय में ग्राम-विकास अधिकारी पद हेतु चयनित हो गया।

इस पद पर रहते हुए उसने मेहनत और लगन से काम कर आस-पास के क्षेत्र के लोगों में अपनी प्रभावी साख बना ली थी। गांव में ही कुछ कृषि योग्य भूमि खरीद कर अपने पिता व भाइयों को एक सम्मानजनक जिंदगी जीने योग्य बना दिया था उसने। इसी बीच पिता ने पड़ोस के गांव की सुंदर, सुशील युवती कमला से नारायण का विवाह करा दिया। दस वर्ष पलक झपकते ही कैसे बीत गये, नारायण को पता भी न चला। इसी बीच वह पुत्रियों का बाप बन चुका था।

आखिरकार नारायण की क्षेत्र में अच्छी साख और छात्र जीवन में राजनीति में उसके अनुभव को देखते हुए एक राजनीतिक पार्टी ने उसे चुनाव लड़ने का न्यौता दिया, तो नारायण के अंदर की दबी ही इच्छा जागृत हो उठी और उसने चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया।

एक तो उसका विनम्र व्यवहार, साथ ही नौकरी के दौरान उसके द्वारा क्षेत्रवासियों के लिए किये गये कार्यों ने उसे भारी बहुमत से विजयश्री दिलवा दी और यहीं से आरंभ हुआ नारायण का राजनीतिक जीवन सफर। अगले ही वर्ष कमला ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया, आदित्य।

इसके बाद नारायण ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। राजनीतिक जीवन में दो बार मंत्री पद पर रहने के बाद भी नारायण ने अपनी स्वच्छ छवि पर आंच नहीं आने दी। भाई-भतीजावाद का आरोप न लगे, इसके लिए उसने परिवार के सदस्यों को राजनीति से दूर ही रखा। बच्चों को हमेशा अच्छी पढ़ाई व अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए प्रेरित किया। इसी का परिणाम था कि दोनों बेटियाँ अपनी पढ़ाई पूरी करने के उपरांत स्वयं की योग्यता के बल पर उच्च पदों पर कार्यरत थीं, किंतु आदित्य दिमाग तेज होने के बावजूद पढ़ाई में अधिक ध्यान नहीं देता था। ऊपर से कमला के लाड़-प्यार ने उसे बिगाड़ दिया था। यद्यपि नारायण चाहते थे कि जिस अभाव में उनका जीवन बीता है, उसकी छाया भी उनके बच्चों पर न पड़े। साथ ही वह बच्चों से अनुशासित होने की अपेक्षा भी रखते थे।

सच तो यह था कि आदित्य के मामले में कमला के आगे उनकी एक न चल पाती थी। साथ ही जैसे-जैसे वे राजनीति में ऊँचे पायदान पर चढ़ते गये, वैसे-वैसे घर के लिए उनका वक्त कम होता चला गया।

कॉलेज पहुँचते ही आदित्य और अधिक निरंकुश हो गया। उसके मित्रों की मंडली भी अच्छी नहीं थी। उसकी हरकतों के अधिकांश समाचार तो घर तक पहुँच ही नहीं पाते थे, क्योंकि ऐसा करने पर समाचार देने वाले को नतीजा भुगतने की तुरंत धमकी मिल जाती।

कमला आदित्य की हरकतों को जानती थी, लेकिन कुछ तो नारायण के कठोर स्वभाव से और कुछ व्यस्तता के कारण उसकी करतूतों पर कोई जल्दी कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था।

इन्हीं दिनों शहर में नगर निगम के चुनाव घोषित हो गये। आदित्य के मित्रों ने उसे लगे हाथ मेयर का चुनाव लड़ने की सलाह दे डाली। 'यार, तू अपने पिता से बात क्यों नहीं करता? वे तुझे आसानी से अपनी पार्टी से टिकट दिलवा देंगे। एक बार राजनीति में दाखिल हो जा, फिर तो आगे सब ठीक ही चलेगा।'

'कह तो तू ठीक रहा है, यार! लेकिन पिताजी इसके लिए कभी नहीं मानेंगे। मेयर के लिए तो वे अपनी पार्टी के किसी कार्यकर्ता को ही टिकट दिलवाएँगे।'

'अरे यार, तेरे पिता इतना सा काम भी नहीं कर सकते? लोगों ने तो अपने परिवार के लिए क्या-क्या नहीं किया? तू एक बार बात तो कर वैसे भी तू और कर भी क्या पाएगा? नौकरी तो करने से रहा। तुझे भी तो अपनी जिंदगी संवारनी है। हमेशा ऐसे ही तो नहीं भटकता रहेगा।' दोस्तों ने आदित्य को उकसाने का कुत्सित प्रयास जारी रखते हुए कहा।

मित्रों के उकसावे पर आदित्य की हिम्मत बढ़ गई। उसकी समझ में उनकी बात आ रही थीं,'पिताजी अभी तो दिल्ली गये हैं, दो दिन बाद लौटेंगे, तभी उनसे बात करूँगा।

दो दिन बाद आदित्य के मुँह से मेयर के टिकट की बात सुनकर नारायण चौंक गये। 'क्या कहा? मेयर का टिकट? पागल हो गया है क्या? इतना आसान होता है टिकट पाना? लोग तो वर्षों से पार्टी के लिए तन-मन लगाये हुए हैं। वर्षों से लोगों के बीच काम कर रहे हैं। टिकट उन्हें नहीं मिलेगा, तो क्या तुझे मिलेगा?

'लेकिन पिताजी! आपका प्रभाव किस दिन काम आएगा? आप मेरे भविष्य के लिए इतना तो कर ही सकते हैं।'आदित्य दोस्तों की जुबान बोल रहा था।

इतना सुनते ही नारायण आग बबूला हो उठे। 'अच्छा तो मेरे जीवन भर की मेहनत का फल पाना चाहता है तू? जानता है किन परिस्थितियों को झेलते हुए यहाँ तक पहुँचा हूँ और आज तक अपने ऊपर आंच नहीं आने दी।'

'हाँ! आपको तो सिर्फ अपनी परवाह है। आपकी प्रतिष्ठा, आपका मान-सम्मान, इसके आगे तो आप किसी की चिंता ही नहीं करते। सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं आप।' और आदित्य दनदनाता हुआ घर से बाहर निकाल गया।

'कमला !' पत्नी को पुकारते हुए नारायण बोले 'ये आदित्य कह क्या रहा है? आजकल पता नहीं कहाँ से राजनीति का भूत सवार हुआ है? समझाओ उसे, यह सब इतना आसान नहीं है।'

'जी, मैं बात करूंगी उससे।' कमला ने कह तो दिया लेकिन वह स्वयं नहीं जानती थी कि आदित्य से वह कब बात कर पाएगी?

कुछ दिन सब शांत रहा। नारायण ने भी इसे गंभीरता से नहीं लिया और अपने काम में व्यस्त हो गये। एक दिन आदित्य घबराया हुआ सा घर आया और बैग में कुछ सामान लेकर तेजी से घर से निकल गया। जब तक कमला कुछ समझ पाती, अदित्य घर से बाहर निकाल चुका था।

कुछ देर बाद घर का नौकर जो अभी बाजार से लौटा था, कमला के पास आया और कहने लगा,'मेम साहब! बाजार में बहुत गड़बड़ हो गयी है। आज वो धर्मवीर है न, हाँ-हाँ वही जो मेयर का चुनाव लड़ रहे हैं।'

'क्या हुआ उन्हें? कमला ने नौकर को बीच में ही रोककर पूछा।

'हाँ, वही अम्मा, उन्हें किसी ने गोली मार दी और घटनास्थल पर ही उनकी मृत्यु हो गयी।' और फिर बहुत बहुत धीमी और घबराई से आवाज में बोला 'अम्मा, लोग भैया जी के बारे में...।'

'कौन? आदित्य! क्या कह रहे थे उसके बारे में? कमला ने व्यग्रता से पूछा।

'अम्मा, वो मैं नहीं कह रहा हूँ, लोग कह रहे हैं कि धर्मवीर जी का खून भैया जी ने किया।' उसने घबराते हुए ही बात पूरी की।

'तो क्या इसीलिए आया था आदित्य घबराया सा?' कमला मन ही मन सोचते हुए बोली।

'अच्छा, तुम जाओ। पता नहीं क्या-क्या सुनकर आते हो?

कमला अपनी घबराहट छुपते हुए बोली, लेकिन उसके जाते ही उसने तुरंत पति का फोन मिलाकर उनसे वस्तुस्थिति जानने का प्रयत्न किया, लेकिन संपर्क नहीं हो पाया।

शाम होने को आ गई, किंतु अभी तक कमला का नारायण से संपर्क नहीं हो पाया। उसे लग रहा था कि घर में हर तरफ खुसुर-फुसुर हो रही है, लेकिन उसे देखते ही सब चुप हो जाते हैं।

लगभग आधी रात के बाद नारायण घर लौटे। कमला की आँखों से नींद कोसों दूर थी। आदित्य भी अब तक घर नहीं लौटा था, वैसे तो वह अक्सर आधी रात के बाद घर लौटता था, लेकिन आज बात कुछ और थी। अनजानी आशंका से कमला का दिल बैठा जा रहा था। पति के आते ही उसे थोड़ा सहारा मिला।

'अरे, आप आ गये। मैं तो कब से आपको फोन मिला रही थी। कमबख्त लाइन ही नहीं मिल रही थी। वैसे आप अचानक कैसे आ गये? कोई कार्यक्रम तो नहीं था आपके आने का? कमला एक साँस में ही बहुत सारी बातें पूछ बैठी।

नारायण कुछ नहीं बोले, निढाल से कमरे में रखे सोफ़े पर बैठ गये।

कमला ने पति की ओर देखा, तो चौंक गयी। उनका चेहरा उतरा हुआ था, आँखें ऐसी हो रही थी मानों खूब रोये हों।

'क्या हुआ आपको? आप ठीक तो हैं न?

'सब कुछ खत्म हो गया, कमला इतने वर्षों की मेहनत से अर्जित मान-सम्मान सब मिट्टी हो गया।' नारायण की आवाज़ में हताशा थी।

'ये क्या कह रहे हैं आप? ऐसा क्या हो गया!'

'आदित्य ने कर्मवीर का खून कर दिया है कमला! और शहर से बाहर भागते हुए पकड़ा गया। इस समय वह जेल में हैं।'

तो क्या जो उसने नौकर से सुना था, वह सच था? 'लेकिन आदित्य ऐसा क्यों करेगा।' नारायण से बोली 'आपको जरूर कोई गलत फहमी हुई है, आदित्य ऐसा क्यों करेगा? उसको इस सब से क्या लेना देना? आप...।'

'कमला!' नारायण ने उसे बीच में ही रोक दिया 'आदित्य ने यह सब दिन-दहाड़े किया है, कई लोगों ने देखा है उसे, और फिर शहर छोडकर भागना, यह सब क्या दर्शाता है?'

'फिर भी, आप पता तो कीजिए।' कमला अब भी यकीन नहीं कर पा रही थी कि आदित्य ऐसा भी कर सकता है।

'ठीक है, कल पता करूँगा।' पत्नी को तो ताल दिया नारायण ने,किंतु स्वयं से क्या छुपाएंगे? सब कुछ तो पता कर आए थे। झूठ की कोई गुंजाइश नहीं थी। धर्मवीर उन्हीं की पार्टी का उम्मीदवार था। उन्होंने सोचा भी नहीं था कि आदित्य की अपरिपक्व राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा इस रूप में सामने आएगी।

क्यों उन्होने उस दिन आदित्य की बात को गंभीरता से नहीं लिया! अगर वे उसको थोड़ा भी समय देकर ठीक से समझाते, तो शायद यह नौबत नहीं आती और न उनकी पद-प्रतिष्ठा इस तरह से धूल-धुसरित होती लेकिन अब क्या हो सकता है?

इस घटना को दस दिन हो चुके हैं। ये दस दिन नारायण ने ऐसे गुजारे, मानों एक सदी जी ली हो। बहुत सारे मित्रों, संबंधियों की असलियत नजर आई है, इन दस दिनों में। पहले लोग दूर-दूर की जान-पहचान निकालकर कभी मिलने का बहाना ढूंढते नजर आते थे। आज निकट के संबंधियों ने भी मुँह मोड़ लिया है।

'हे भगवान! कहाँ से गलती हो गयी मुझसे? जो आज यह दिन देखना पड़ रहा है। नारायण ने लंबी साँस ली। तभी कमला ने कमरे की बत्ती जलाकर उनकी तंद्रा भंग कर दी और लाइट जलते ही वे वर्तमान के धरातल पर लौट आए थे।

'आप यहाँ बैठे हैं और मैं आपको सब जगह ढूंढ आई, चलिए खाना लग गया है।'

'चलो कमला ! मैं आता हूँ पाँच मिनट में।'

कल आदित्य के मुकदमे की सुनवाई है। केस इतना साफ है कि जज को फैसला देने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। आज यह दिन देखने के लिए भी उन्हें जीवित रहना होगा, ये कभी नहीं सोचा था उन्होने! यही सोचते-सोचते वे धीरे-धीरे भोजन कक्ष की ओर बढ़ चले।...

आदमखोर

गांव के सीढ़ीनुमा खेतों में लहलहाती फसलें हवा के मंद-मंद झोकों के साथ अठखेलियाँ करती हुई सायं होने का इंतजार कर रही थीं। लोग अपने-अपने दिन भर के कार्यों से निवृत्त होकर घरों को लौट रहे थे। तौली गांव के बच्चों की किलकारियाँ भी धीरे-धीरे रुकने लगी थीं। दूसरी ओर काण्डई गांव लगभग अंधेरे के आगोश में समा चुका था।

क्षेत्र में पिछले कई दिनों से बिजली पूरी तरह गुल थी। केवल दिखावे मात्र के ही बिजली के पोल खड़े थे। धीरे-धीरे घरों से रोशनी दिखाई देने लगी। तभी अचानक जगत सिंह के आँगन में लगे पानी के नल के पास बच्चे के चिल्लाने की आवाज आई।

देखते ही देखते जगत सिंह के घर में लोगों का जमावड़ा लग गया। 'क्या हुआ? क्या हुआ? घरों से सारे लोग भयभीत होकर बाहर निकाल आए। हर कोई जानना चाहता था कि आखिर इतनी ज़ोर की चीख किस की थी? तब तक दानेधार से बल्लू ने आवाज लगाई कि जगत सिंह के छोटे बेटे किशोर को आदमखोर बाघ उठा ले गया है।

आदमखोर बाघ का नाम सुनते ही सारा गांव भय से सन्न रह गया था। जगत सिंह का पूरा परिवार गम में डूबा चीखता-चिल्लाता जा रहा था। 'सभी लोग मसालें लेकर ऊपर आ जाएँ! जसपुर के घने जंगलों की ओर बच्चे की तलाश में जाना होगा'। हवलदार काका ने पूरे गांव को आवाज दी थी।

जहाँ से बाघ बच्चे को उठाकर ले गया, वहाँ से लोग हाथ पर मशाल लिए जंगल की तरफ बढ़ने लगे। रात के अंधेरे में ओस की बूँदों पर खून की बूँद दिखाई देने लगीं और लोग उन्हीं निशानों के बल पर जंगल की ओर निकल पड़े, किंतु तब तक काफी देर हो चुकी थी।

उधर 'कंडारी खोला' में जगत सिंह की पत्नी बेहोश पड़ी हुई थी। बाघ के मुँह से बच्चे को छुड़ाते समय हमले में जख्मी उसके हाथ पर पास में ही किराये पर रह रहे आयुर्वेदिक चिकित्सालय के फार्मेसिस्ट गोपाल राम ने लाल दवा लगाकर पट्टी बाँध दी थी।

अनायास आदमखोर के हमले से वह गहरे सदमे में थी और इस समय कुछ भी बताने की स्थिति में नहीं थी कि किशोर कहाँ गया? आदमखोर द्वारा अचानक हमला करने से वह बेहोश हो गई थी। स्टैंड पोस्ट पर ही बच्चे के पाँव की एक चप्पल और सिर की टोपी गिरी हुई थी।

कांडई गांव में पिछले तीन दिनों से बिजली नदारद थी। गांव में बिजली होती, तो बाघ को शिकार करने का इतना आसान मौका न मिलता। चार दिन पहले 'नाकतोली' में शिवराज के बेटे को भी बाघ ने अपना निवाला बना दिया था, उस दिन भी बिजली गुल थी। देवेंद्र प्रधान ने चिल्ला-चिल्ला कर कहा 'नाकतोली के शिवराज के बेटे बंटी और जगत सिंह के बेटे की मौत के लिए वन विभाग व बिजली विभाग समान रूप से दोषी है। अरे! आखिर कितने लोगों की मौत के बाद चेतेगा वन विभाग? क्या आदमी की जान की कीमत पर बाघों के संरक्षण का ढ़ोल पीटा जाना चाहिए?'

इस इलाके में छ: माह के अंदर यह सातवीं घटना है। सात मासूमों की जान चली गयी,किंतु अभी तक भी प्रशासन की कान में जूं तक न रेंगी। आखिर लोग फरियाद करने भी जाएँ तो किसके पास?' हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्ता क्या होगा? वाली कहावत चरितार्थ हो रही है यहाँ तो !

अब तो खुद लोग बंदूकें उठाकर बाघ व उसके संरक्षण का दंभ भरने वाले ठेकेदारों को ही गोली से उड़ाने की सोचने लगे थे। देवेंद्र प्रधान के गुस्से से सभी गांव वाले सहमत थे। उनके अंदर का आक्रोश अब सड़कों पर फूट पड़ेगा, ऐसा ग्रामीणों की आपसी बातचीत से साफ जाहिर होता था। गांव के लोग अब-अपने परिवार एवं बच्चों की इन आदमखोरों से रक्षा के लिए रात-रात भर जागकर बारी-बारी से गांव की रखवाली में बैठे रहने को विवश थे।

पौष के महीने की ठंडी सर्द रात। कड़ाके की ठंड, लेकिन इतनी ठंड में भी कांडई गांव का तापमान मानों कई गुना बढ़ गया था। बाहर तो ठंड थी, लेकिन लोगों के दिलो-दिमाग में गुस्से की आग उबल रही थी। आदमखोर बाघ के बढ़ते हमलों से सहमे लोगों में प्रशासन की उदासीनता व उपेक्षापूर्ण व्यवहार के प्रति दिनों-दिन आक्रोश बढ़ता ही जा रहा था।

रात और गहरा हो चुकी थी। इतनी अंधेरी स्याह काली रात लोगों ने शायद कभी न देखी थी। धीरे-धीरे आसमान पर काले बादलों का हुजूम बढ्ने लगा और हल्की-हल्की बूँदा-बाँदी भी शुरू हो गयी थी। फिर भी लोग बच्चे को ढूँढने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे।

गांव से लगभग डेढ़ मील दूर चलकर भी जंगल में किशोर का कहीं पता नहीं चल पाया था। उधर चौरी के गधेरे झड़ियों में लोग किशोर को ढूँढ-ढूँढ कर थक गए थे। जब सुबह के चार बज गए, तो देवेंद्र प्रधान ने कहा 'जसपाल भाई! अब मुझे लगता है कि दिन निकलने पर ही कहीं कुछ पता चल पाएगा।' और फिर सारे लोग अंततः थक-हारकर खाली हाथ घर वापिस आ गए।

सुबह होने तक भी गांव वालों की आँख से नींद गायब थी। लड़के का चेहरा उनकी आँखों में बार-बार घूम रहा था। किसी को विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि सच में किशोर के साथ यह घटना हो गई है। तेरह साल का किशोर पढ़ाई में भी बहुत होशियार था। जब कभी भी गांव में बच्चों की चर्चा होती, तो किशोर का नाम ही सबसे ऊपर होता। हो भी क्यों न? वह था भी पढ़ाई में होशियार। हमेशा कक्षा में होशियार। हमेशा कक्षा में प्रथम स्थान पर रहता। किशोर देखने में काफी सुंदर और गोरा चिट्टा था।

'आखिर एक जंगली जानवर की भूख की हवस के लिए गांव की प्रतिभाएं ऐसे ही स्वाहा हो जाएंगी? आज भगत सिंह के बेटे को उठा ले गया, कल न जाने किसकी शामत हो?' यह सवाल भी लोगों को बेचैन कर रहा था।

बेचारा भगत सिंह, कितना भला आदमी! पंद्रह बीस दिन पहिले ही दो महीने की छुट्टी बिताकर जम्मू-कश्मीर ड्यूटी पर वापिस लौटा था। जगत सिंह जब भी फौज से छुट्टी लेकर गांव आता, तो उन दिनों गांव की रौनक देखते ही बनती थी। किशोर भी बिलकुल अपने बाप पर गया था, उतना ही मिलनसार व खुश मिजाज।

वैसे अब लोगों को उम्मीद कम थी कि किशोर अब तक जिंदा होगा। सुबह होते ही लोग फिर जंगल की ओर गए, तो गांव से आधा किलोमीटर दूर चौंरी के गधेरे में एक झाड़ी पर किशोर का क्षत-विक्षत शव मिल गया। आखिर वही हुआ, जिसकी आशंका थी, गांव में मातम छा गया।

किशोर की माँ थोड़ी देर के लिए होश में आई तो फिर 'किशोर-किशोर' चिल्लाते हुए बेहोश हो गई। रो-रो कर गांव की महिलाओं की आँखों के आँसू सूख गए थे। उसी दिन गांव में पंचायत हुई। पंचायत में यह तय किया गया कि किशोर के शव को लेकर जिला मुख्यालय पर प्रदर्शन किया जाए।

कांडई गांव ही नहीं, वरन् पूरे इलाके के हजारों लोग बसों में भर-भरकर मुख्यालय आ गए और मुख्यालय में जिलाधिकारी के दफ्तर मुख्यालय आ गए और मुख्यालय में जिलाधिकारी के दफ्तर सामने किशोर के शव के साथ आमरण अनशन पर बैठ गए। 'जिला प्रशासन मुर्दाबाद, वन विभाग मुर्दाबाद, विद्युत विभाग मुर्दाबाद' के नारे लगाकर लोगों ने कलेक्टर को कार्यालय से बाहर आने पर मजबूर कर दिया।

जिला स्तर की सभी राजनीतिक पार्टी के लोगों का समर्थन गांव के लोगों को मिल रहा था। प्रशासन के प्रति जनाक्रोश बढ़ता ही जा रहा था। लोग इतने उत्तेजित थे कि मरने-मारने स्थिति खड़ी हो गयी थी। गांव के लोगों ने जिलाधिकारी से जानना चाहा कि 'आखिर उस आदमखोर बाघ को क्यों नहीं मारा जा रहा है, जिसने अब तक दशौली क्षेत्र के आधा दर्जन से अधिक लोगों को अपना निवाला बना लिया? क्या नरभक्षी बाघों का संरक्षण लोगों की जान की कीमत पर किया जाना चाहिए। अगर नहीं तो गांव के खेत खलिहानों में दिन-दहाड़े घूम रहे इन आदमखोरों को क्यों नहीं मारा जा रहा है? और कितनी मौतों के बाद इन बाघों को मारने का आदेश मिलेगा?

जिलाधिकारी ने मृतक आश्रित को मुआवजा राशि देने की घोषणा के साथ उस आदमखोर को मार गिराने के लिए शिकारी दल तैनात करने के निर्देश दे दिए। मुआवजे से मौत का मातम कभी कम हुआ है? क्या जगत सिंह के घर की रौनक फिर कभी लौट पाएगी? उस आदमखोर बाघ को मारने में शिकारी-दल कितना सफल रहता है, यह तो समय ही बताएगा। फिलहाल तो ग्रामीणों के सिर पर मौत का खौफ तो आज तक भी मंडरा ही रहा था। मूलभूत सुविधाओं से वंचित सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी लोग काली छाया से उबर नहीं पा रहे हैं। कभी तो ये लोग अपने घरों में अपने बाल-बच्चों सहित चैन की नींद सो पाएंगे, इसी आस में जीवनयापन को मजबूर हैं ये ! शायद यही इस पहाड़ की नियति है।

आश्रय

इस दुनिया में न जाने कितने परिवार होंगे, जिन्हें रात को रहने के लिए छत एवं खाने के लिए रोटी नसीब नहीं हो पाती। सड़कों, चौराहों व पगडंडियों पर कटोरा लेकर भीख माँगते बच्चों को देखकर आखिर किसी का दिल क्यों नहीं पसीजता? सीना क्यों नहीं फटता? आखिर इन मासूमों का क्या दोष! जो भगवान इन्हें इतनी बड़ी सजा दे रहा है?

रूपेश मन ही मन सोचता कि मैं इन सारी बातों पर क्यों सोचूँ? मैंने दुनिया का ठेका तो नहीं ले रखा है? आखिर मैं ही क्यों सोचूँ उन अनाथ बच्चों के बारे में? आखिर मेरे बारे में लोगों ने कितना सोचा? क्या मेरी तकलीफ़ों में किसी ने मेरा साथ दिया? लेकिन फिर बुरे समय में यादों से निकालने का प्रयत्न करते रूपेश सोचता कि मेरी तकलीफों से इन मासूम बच्चों का क्या लेना-देना?मुझे तो अपना फर्ज निभाना है। मेरी वजह से किसी बच्चे का भला हो जाए, तो उसमें मानवता का ही भला होगा और उसी भावना से प्रेरित होकर रूपेश ने अनाथ बच्चों के लिए एक अनाथाश्रम की स्थापना का मन बना लिया।

रूपेश भी तो अनाथ ही था। अनाथाश्रम में ही उसका पालन-पोषण हुआ था। यह अलग बात है कि रूपेश ने समाजसेवा और पत्रकारिता के क्षेत्र में जो स्थान अपने लिए अर्जित किया, वह उसके स्वयं के संघर्षों एवं परिश्रम का परिणाम था।

रूपेश मन ही मन सोचता, कि काश! मेरे जैसा कोई और अनाथ इस दुनियाँ में न भटके, इसलिए उसने अनाथ बच्चों की परवरिश के लिए एक छोटी से झोपड़ी में आश्रम की शुरुआत की थी। रूपेश की लगन व निष्ठा को देखकर धीरे-धीरे हर कोई उस पुनीत कार्य में अपना योगदान प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में देने लगा। देखते-देखते कुछ ही सालों में 'आश्रय' के नाम से रूपेश का अनाथाश्रम में पूरे क्षेत्र में ही नहीं, वरन् प्रदेश भर में लोकप्रिय हो गया और अनाथ एवं निस्सहाय बच्चों के लिए मानों यह वरदान-भवन बन गया।

रूपेश की निस्वार्थ सेवा के मूल मंत्र से आश्रम के लिए सारे संसाधन खुद-ब-खुद जुडने लगे। आश्रम के लिए धन की कोई कमी न रहे, इसके लिए रूपेश लगातार प्रयास कर रहा था। 'आश्रय' में बच्चों के लालन-पालन के लिए शहर के सारे बड़े सेठ रूपेश के अनाथाश्रम के लिए धन देने में फक्र समझते।

रूपेश ने इस आश्रम को समाज से ठुकराये हुए बच्चों की पढ़ाई-लिखाई एवं लड़कियों के विवाह समारोह और उनकी विदाई पर भी केन्द्रित कर दिया था।

गरीब एवं बेसहारा बच्चों के प्रति लोगों में लगाव पैदा करने के लिए रूपेश ने आश्रम से प्रकाशित साप्ताहिक समाचार पत्र 'आश्रय संदेश' के जरिए समाज के अनाथ बच्चों के प्रति लोगों का ध्यान जगाने का जो पुनीत कार्य किया, उससे आश्रम पर 'लक्ष्मी' की कृपा होने लगी और आज यही आश्रम सामाजिक गतिविधियों का एक ऐसा केंद्र बन चुका है कि वह केवल अनाथ बच्चों की परवरिश ही नहीं कर रहा है, वरन निर्धन कन्याओं के विवाह का भी बोझ उठाने लगा है।

रूपेश के आश्रम में अब वे बच्चे अट्ठारह बीस साल से ऊपर के हो गए हैं, जो सबसे पहिले इस आश्रम में आए थे। जब उसने यह आश्रम शुरू किया था, तो रीना और रश्मि छः माह की थीं और उन्हीं के साथ के अन्य बच्चे नीलाभ, पंकज, अक्षत और विक्रांत भी जब अट्ठारह-उन्नीस वर्ष की आयु से ऊपर के हो गए हैं।

इन दो दशकों के अंतराल में रूपेश की जिम्मेदारियाँ कुछ कम हुई हैं। रीना, रूपेश की अनुपस्थिति में आश्रम का सारा काम देखने लगी। धीरे-धीरे आश्रम के कार्यों में हाथ बंटाती ये दोनों लड़कियां जवानी की दहलीज पर खड़ी हो गयी, जिससे चिंतित रूपेश के माथे की लकीरें दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी।

रूपेश की चिंता रीना की शादी को लेकर थी, उसी के समान योग्य वर ढूँढने की चुनौती रूपेश के समक्ष थी। रीना लगती भी किसी राजकुमारी की तरह थी। उसके रूप-सौंदर्य को देखकर हर कोई मुग्ध हो जाता 'सुंदरता में बेमिसाल, व्यवहार में विनम्रता व आचरण में आभिजात्य शालीनता।'

रूपेश को अच्छी तरह याद है कैसे 'महिला अस्पताल' के पिछवाड़े लावारिस पड़ी रीना को अट्ठारह वर्ष पूर्व उसने देखा था। कुछ ही घंटे पूर्व जन्मा नवजात शिशु! वह नन्हीं सी जान एक मखमली कंबल में लिपटी हुई थी और उसके कान में चीटियाँ अपना भोजन तलाश रही थीं। संयोग से दो माह पूर्व ही रूपेश ने समाज से ठुकराये हुए ऐसे बच्चों के लिए आश्रम शुरू किया था।

उस समय रूपेश सोच रहा था कि शायद ईश्वर ने इसी नन्ही सी जान को बचाने के लिए उसे अनाथाश्रम खोलने की सद्बुद्धि दी हो। फरवरी माह की हल्की गुलाबी ठंड पूरे बदन में सिहरन सी पैदा कर रही थी। अपनी आदत के अनुसार रूपेश हर रोज की तरह सुबह की सैर के लिए आज जैसे ही अस्पताल की ओर से गुजर रहा था, तभी उसके कदम एकाएक सहम गए। सामने देखा तो एक नवजात बच्ची सड़क के किनारे बीमार हालत में पड़ी थी, उसकी साँसें चल रही थी। किसी भी संक्रमण से बचाने के लिए रूपेश ने उसे तत्काल अस्पताल के आपातकालीन कक्ष में भर्ती करवा दिया।

बच्चे को देखकर डॉक्टर ने रूपेश से सवाल किया ,'यह किसका बच्चा है?' तो रूपेश ने झट से जबाब दिया था,'मेरा।'

कुछ ही क्षणों में डॉक्टरों के प्रयास और उसकी दुआओं से बच्ची की जान बच गयी और उन्होंने रूपेश से कहा था 'थैंक्स गॉड! आपकी बच्ची की जान बच गई।'

बच्ची की जान बच जाने रूपेश ने सुकून की साँस लेते हुए कुलदेवता का धन्यवाद किया और फिर उस नन्हीं सी जान को लेकर आश्रम की ओर चल पड़ा। अस्पताल में डॉक्टर बार-बार बच्ची की माँ के बारे में उससे सवाल कर रहे थे, जिन्हें रूपेश लगातार टालने की कोशिश करता रहा था।

कौन नहीं जानता कि आश्रम में काम करने वाली 'ट्रेजा' के दूध पर पली थी रीना। सचमुच कितना ध्यान रखती थी वह रीना का ! अपनी बच्ची से भी ज्यादा प्यार करती थी वह रीना को। रीना के लाड़-प्यार में कई बार उसका अपना तीन माह का बेटा दूध पीने से वंचित रह जाता था।

एक बार शहर के मेयर ने रूपेश के आश्रम के लिए दस लाख रुपए का चैक दिया। रूपेश ने उसे सहजता से स्वीकार तो कर लिया, किंतु कुछ ही दिनों में मेयर ने बातों ही बातों में एक अजीब तरह की फरमाइश रख दी, जिसने रूपेश की उलझनें बढ़ा दी थीं।

'रूपेश जी, मेरा खयाल है कि आपने इन बच्चों की काफी सेवा कर ली है, अब इनकी सेवा का कुछ अवसर आप हमें भी दे दीजिएगा , तो हम धन्य हो जाएंगे।

'गुप्ता जी मैं समझा नहीं। रूपेश ने चौंकते हुए कहा।

'मतलब साफ है रूपेश जी, आप जान-बूझकर नासमझ बन रहे हैं। आपके आश्रम में रीना नाम की जो लड़की है, उसे आप मुझे दे दीजिएगा, उसका भरण-पोषण व अन्य सभी जिम्मेदारियाँ वहन करने में मुझे कोई हर्ज नहीं है।'

रूपेश ने सोचा कि शायद गुप्ता जी अपने बेटे की शादी रीना से कराना चाहते हैं। उसने मन ही मन सोचा कि प्रस्ताव तो अच्छा है। गुप्ता जी का करोड़ों का कारोबार है, कई फ़ैक्ट्रियाँ हैं, मेयर तो वे केवल सम्मान के लिए बने हैं।

रूपेश ने कुछ देर सोचकर फिर कहा,' गुप्ता जी रीना लाखों में एक है और आपके बेटे अविनाश के साथ उसकी जोड़ी भी खूब अच्छी जमेगी। मुझे कोई आपत्ति नहीं, ऐसा प्रस्ताव तो रीना के भाग्य से मिला है। यह कहकर रूपेश मन ही मन खुश हो गया।

'अरे रूपेश जी! आप क्या कह रहे हैं? अपने बेटे के लिए मैं अनाथाश्रम से दुल्हन ले जाऊँगा? अरे भाई, मुझे तो अपने फार्म हाउस के लिए रीना जैसी लड़की चाहिए, जब हम वहाँ ठहरें, तो रीना हमारी सेवा कर सके।' रूपेश को ऐसा लगा, मानों किसी ने हजार बोल्ट का करेंट उसके शरीर में दौड़ा दिया हो। रूपेश का माथा झनझना उठा।

तनिक अपने गुस्से पर काबू करते हुए वह सहज होने का प्रयत्न करते हुए बोला,'गुप्ता जी! ये आप क्या कह रहे हैं? आप हमारी रीना को कोई बाजारू या बिकाऊ वस्तु समझने की बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं।'

'अरे रहने दीजिए, अपना ये आदर्शवाद। खुद गले तक कीचड़ में धँसे हो और हमें नेकी का पाठ पढ़ा रहे हो?' झल्लाते हुए बोले थे मेयर साहब।

'मैं आपका मतलब समझा नहीं।' रूपेश बोला।

'सब समझ जाओगे, जब चिल्ला-चिल्लाकर सरेआम बताऊंगा कि रूपेश के इन लड़कियों के साथ अवैध संबंध हैं। इसी का फायदा उठाते हुए तुमने पैंतालीस वर्ष की उम्र होने के बाद भी शादी नहीं की। अरे! शादी करके करोगे भी क्या? जब दर्जनों बीबियाँ आश्रम के नाम पर चल रहे इस कोठे में रखी हुई हैं।' झुँझलाते हुए बोले थे गुप्ता जी।

गुप्ता जी की बातों को सुनकर अब तो रूपेश आपे से बाहर हो गया और चिल्ला उठा,'निकाल जाइए आप यहाँ से! आप जैसे कुत्सित विचार के लोगों के लिए इस आश्रम में कोई जगह नहीं।' उसने लगभग धक्का देते हुए गुप्ता जी को बाहर खदेड़ दिया।

मेयर साहब तो चले गए,किंतु आश्रम में सरे आम सबके बीच अपने ऊपर लगे आरोपों से क्षुब्ध रूपेश कुछ समझ नहीं पा रहा था कि अब उसे क्या करना चाहिए? जिन्हें उसने अपने बच्चों की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया, उनके बारे में ऐसे व्यंग्य बाणों से भरे जहरीले शब्द सुनकर उसके चेहरे की मुस्कान गायब हो चुकी थी और उसका पूरा शरीर कांपता हुआ निढाल होता जा रहा था।

एक पखवाड़े बाद अचानक एक दिन पुलिस आई और रूपेश को गिरफ्तार कर ले गई। रूपेश पर यौन-शोषण का आरोप था और आश्रम की आड़ में अवैध रूप से लड़कियों की खरीद-फरोख्त जैसा संगीन मामला भी उसके ऊपर था। आरोप लगाने वाला भी कोई साधारण व्यक्ति न होकर इस शहर का प्रथम नागरिक अर्थात मेयर साहब जैसा तथाकथित प्रतिष्ठित और जिम्मेदार व्यक्ति था। मामला गंभीर होना तो स्वाभाविक ही था।

रूपेश को पुलिस पकड़ कर ले गई, तो पूरे आश्रम में कोहराम मच गया। आश्रम के कर्मचारियों एवं वहाँ पर वास कर रहे लोगों को इस बात पर आश्चर्य था कि आखिर पुलिस बिना किसी साक्ष्य अथवा जांच के, बेबुनियाद आरोपों के दम पर रूपेश को कैसे गिरफ्तार करके ले गई?

रूपेश ने जाते समय आश्रमवासियों को आश्वस्त किया था कि वह जल्दी घर वापस आएगा और उन लोगों के खिलाफ मोर्चा संभालेगा, जिन्होंने इस तरह का षड्यंत्र कर, पूरे आश्रम की प्रतिष्ठा को धूमिल करने का कुत्सित प्रयास किया है। ऐसा कहते हुए रूपेश आत्म-विश्वास से लबरेज था।

रूपेश की अनुपस्थिति में आश्रम के मुख पत्र 'आश्रय संदेश' का नवीनतम अंक निकला, तो रीना के लिखे संपादकीय ने शहर में धूम मचा दी। गरीब व समाज द्वारा ठुकराये बच्चों और महिलाओं को आश्रय देने वाले रूपेश को झूठे आरोपों में फँसा कर उसके खिलाफ षड्यंत्र करने वालों को उसने अपने लिखे संपादकीय में बेनकाब किया था और पुलिस प्रशासन को मेयर के हाथों बिका हुआ बताकर प्रशासनिक हल्के में हड़कंप मचा दिया था। इतना ही नहीं, मेयर साहब के नापाक मंसूबों को भी उसने विस्तार से उजागर किया था।

'आश्रय संदेश' ने लोगों को मेयर गुप्ता जैसे सफ़ेदपोश लोगों के खिलाफ लामबंद करने में कामयाबी हासिल कर दी थी और शहर के आम लोग रूपेश के पक्ष में खड़े होकर जनांदोलन पर उतर आए थे। अंततः प्रशासन को अपनी गलती का अहसास हो गया और जनता के प्रतिरोध के सामने झुककर पुलिस ने रूपेश को ससम्मान रिहा कर दिया।

बचपन से फुटपाथों की ठोकर खाकर रूपेश ने कभी भी हिम्मत नहीं हारी थी। खुली छत के नीचे भगवान भरोसे दो जून की रोटी खाकर और कभी-कभी भूखे पेट सोकर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वह हमेशा संघर्षशील रहा। उसके संघर्षों की ही परिणति थी कि आज वह अन्य बेसहारों का सहारा बन बैठा है। कई बेसहारा बचपन, यौवन उसके आँगन में भविष्य की खुशियों को सँजोये सुकून की साँसें ले रहे हैं। आज रूपेश इन्हीं अनाथ व नि:सहाय बच्चों के बीच अपना सुख और अपना परिवार ढूँढता है।

रूपेश जेल से छूटा, तो सभी इलेक्ट्रॉनिक चैनलों व अखबारनवीसों ने 'एक महानायक की रिहाई' जैसे अलंकरणों से नवाजकर आश्रम में चल रही अनेक कल्याणकारी गतिविधियों को अपनी लीड खबर बनाया। अपनी रिहाई के समय बाहर खड़े विशाल जन समूह को देखकर रूपेश की आँखें भर गईं। उसे लगा कि उसने तो अनाथ, अशक्त, बेसहारा व समाज द्वारा ठुकराये हुये बच्चों व महिलाओं को आश्रय दिया था, लेकिन लोगों ने और समाज ने उसे सर-आँखों पर बिठा कर एक ऐसा आश्रय दे दिया है, जिसे कोई भी उससे छीन नहीं सकता।

लोगों के प्यार व सम्मान से अभिभूत रूपेश समझ चुका था कि जन-बल के धन-बल न कहीं टिक सका है और न ही कहीं टिक पायेगा।


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हिंदी समय में रमेश पोखरियाल निशंक की रचनाएँ