बीरा
डॉ . रमेश पोखरियाल ' निशंक '
वाणी प्रकाशन
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प्रथम सं . 2008 ISBN: 978-81-8143-777-8
डॉ. निशंक ने अपने कथा साहित्य में उत्तराखंड को प्राथमिकता के साथ उकेरते हुए पर्वतीय जनजीवन को सजीव रूप में चित्रित किया है। वास्तविकता यह है कि आजादी के साठ साल बीत जाने पर भी हमारे पर्वतीय राज्यों, आदिवासी क्षेत्रों तथा अभी तक इन इलाकों में रहने वाले करोड़ो लोग किस कठिनाईयों में जी रहे हैं इसकी ओर शासन सत्ता का ध्यान बहुत ही कम गया है या फिर गया ही नहीं है। इन्हीं कठिनाईयों से उभरे जमीनी लेखक डॉ. निशंक लोकतंत्र के सजग प्रहरी के रूप में शासन सत्ता से जुड़े रहे हैं और उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड की राज्य सरकारों में मंत्री पद पर रहते हुए उन्होंने दलितों, वंचितों की पीड़ा को निकट से देखा और महसूस किया है।
जहाँ पर्वतीय जीवन के यथार्थ को अपने कथा साहित्य का आधार बनाने वाले डॉ. निशंक ने पर्वतपुत्रों की त्रासदी को जहाँ यथार्थ रूप में चित्रित किया है, वहीं उन्होंने पर्वतीय महिलाओं की जीवन तथा परिश्रम की गाथाओं को भी चित्रित किया है।
मैं दृढ़ता के साथ कह सकता हूँ कि कथाकार के रूप में डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंक' पर्वतीय जीवन की त्रासदी को ऐसी सजीव अभिव्यक्ति देते हैं कि उनका कथा यथार्थ पाठक के सरोकारों को जीवंत रूप देता है निश्चय ही कथाओं में निर्द्वंद्व सच को उकेरने वाले कथाकार डॉ. निशंक मानवीय संवेदनाओं के सिद्धहस्त शिल्पी हैं।
- डॉ . योगेन्द्र नाथ शर्मा ' अरुण '
सदस्य साहित्य अकादमी
सूरज लगभग अपना सफर तय कर चुका था। ऊँचे-ऊँचे पेड़ों पर डूबते सूरज की स्वर्णिम आभा झिलमिला रही थी। पशु-पक्षी अपनी दिनचर्या समाप्त कर अपने-अपने रैन बसेरों की ओर लौटने लगे थे। संध्या का आभास होते ही ग्वाले अपने-अपने पशुओं को विभिन्न संबोधनों से पुकारते घर चलने को कह रहे थे। दूर रक्तिम आभामय आकाश में इक्का दुक्का गौरैया का जोड़ा आपस में छेड़खानी कर लेता था, मानो अपनी दिनभर की कमाई को घोसलों तक ले जाने हेतु परस्पर तकरार कर रहे हों।
अपने एक कमरे के घर में अकेली बैठी बीरा इस सारे दृश्य को चुपचाप निहार रही थी। कुछ ही देर में सूर्य पूरी तरह अस्त हो जायेगा और फिर धीरे-धीरे चारों ओर अंधकार फैल जायेगा। इस पहाड़ी गाँव में भी चारों ओर नीरवता और निस्तब्धता छ जायेगी। इस गाँव के अधिकांश पुरुष रोजी-रोटी की तलाश में गाँव से दूर शहरों में पलायन कर चुके हैं। घर में जो भी खेती योग्य भूमि है, वह घर की महिलाओं के हवाले है।
प्रातः होते ही यहाँ की महिलाओं की दिनचर्या जो शुरू होती है, वह रात तक रुकने का नाम नहीं लेती। सुबह उठते ही गाय-भैसों को घास देने से लेकर गौशालाओं की सफाई करना, दूर बांज के पेड़ों की जड़ों से निकलकर आते धारे से पानी लाना, घास लकड़ी के लिए जंगल जाना, सुबह के नाश्ते से लेकर दिन का खाना बनाना और बाकी बचे समय में खेतों का काम करना। फिर जानवरों के काम से लेकर रात का खाना बनाना और बच्चों को खाना खिलाने तक पूरा दिन और आधी रात बस यूं ही बीत जाती है।
गाँव के ठीक सामने वाली पहाड़ी की तलहटी में बहती काली गंगा की आवाज अब अधिक सुनायी देने लगी थी। पेड़-पौधे जैसे किसी गहन चिंतन में खो गये हों, बाँयीं ओर की पहाड़ी पर बसा कुणेथ गाँव अब पूरी तरह रात की चादर ओढ़ने लगा था।
महिलाएँ घास-लकड़ी बटोरकर कोई पन्देरे की ओर जा रही थीं, तो कुछ गाय-भैंसों को दुहती नजर आ रही थीं। कुछ एक डिंडालो और तिबारियों में हुक्के की गुड़गुड़ाहट भी सुनाई दे रही थी। कुछ ही देर में महिलाएँ चूल्हा फूँककर उसमें चाय की केतली रखकर सब्जी काटने और कुछ आटा गूँथने की तैयारी करने लगीं। कुछ घरों में चिमनी के सामने और कहीं चूल्हे की रोशनी में बच्चे अपनी किताब को टटोलते नजर आ रहे थे। बिजली के खंभे तो खड़े हैं गाँव में, लेकिन धुप धुप टिमटिमाते बल्बों को दिया दिखाना पड़ता था।
आज बीरा जैसे किसी गहरी सोच में डूबी थी। पास के छोटे से स्वास्थ्य केंद्र में नर्स की नौकरी पाने के लिए उसे क्या-क्या नहीं करना पड़ा था। उसे अपना गाँव, चाचा-चाची का व्यवहार, और मामा-मामी का प्यार चाहे-अनचाहे याद आ जाता था। वह अपने बचपन में खो गयी थी। गाँव में सभी प्रकार के लोग थे, किंतु अधिकांश उसके हँसमुख स्वभाव और लगन को देखकर उसे प्यार करते थे।
पाँच वर्ष की उम्र में ही माता-पिता उसे तथा उसके एक वर्ष के अबोध भाई को बिलखता छोड़कर दुनिया से चल बसे थे। गाँव में आई महामारी में यों तो अनेक लोगों की जानें गयी थी, लेकिन माँ-बाप दोनों एक साथ चले गये हों, यह दुर्भाग्य उसी के परिवार के लिए आया था। उसी दिन से मानों बीरा के दुर्दिन शुरू हो गये थे।
संयुक्त परिवारों की प्रथा अब पहाड़ में भी धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। एक-दूसरे को सहन करने की क्षमता कम होती जा रही है। अहं बढ़ रहे हैं। तभी तो अभी कुछ साल पहले चाचा-चाची झगड़ा करके अलग रहने लगे थे। दोनों भाइयों में बातचीत तक नहीं होती थी, फिर भी गाँव वालों की लोक लाज के डर से वे इन अभागे भाई-बहिन को अपने साथ ले आये थे।
यों ही समाप्त हो पाँच साल की बीरा को क्या पता था कि इस अवस्था में ही उसे भाग्य की विडंबना को इस सीमा तक झेलना पड़ेगा कि रात खुलने से लेकर रात पड़ने तक उसे प्यार और दुलार की जगह फटकार और प्रताड़ना का ही सामना करना पड़ेगा।
चाची अपने छोटे-मोटे काम डांट-डपट कर बीरा से कराने लगी। बीरा तो चाची के काम में मददगार साबित होने लगी, किंतु नन्हा 'हरि' तो उनका काम ही बढ़ा देता था। निरंतर लापरवाही और उपेक्षा के चलते वह कुपोषण का शिकार हो गया। बीरा की स्थिति यह थी कि वह रोते बिलबिलाते 'हरि' को प्यार से पकड़ भी नहीं सकती थी। पकड़ने को होती कि चाची की फटकार मिल जाती 'क्या हो रहा है उसे !' पहले अपना काम तो कर...' और अबोध बीरा केवल दूर से उसे निहारने के सिवाय कुछ भी नहीं कर पाती थी और एक दिन कुपोषण का शिकार हरि काल के गाल में समा गया, बीरा को बिल्कुल अकेला छोड़कर।
नन्हे 'हरि' के दुनियाँ से चले जाने के बाद तो बीरा बुरी तरह मुरझा गयी थी। वह गुमसुम सी रहने लगी थी। जब-तब माता-पिता और भाई को याद कर कमरे के किसी अंधेरे कोने में रोने के सिवाय उसके पास बचा भी क्या था?
लोग कहते, 'क्या हो गया इस नन्ही सी बच्ची को, किसी से भी बोलना-चालना बंद। यदि कोई सामने आ भी गया तो मुँह उठाकर नहीं तक देखती बीरा।' मास्टर चाचा को लोग कहते 'मास्टर जी, इस बच्ची को कहीं दिखाओ, माँ-बाप के कहीं चले जाने के बाद छोटे भाई के मरने के सदमे से नहीं उबर पायी है यह बच्ची। कुछ तो करो...'
चाचा परेशान हो गये थे। वे बीरा को प्यार तो करते थे, लेकिन पत्नी के डर से कुछ कह नहीं पाते थे। शुरू में उन्होंने कहा भी कि बीरा की अब स्कूल जाने की उम्र हो गयी, क्यों न उसे प्राइमरी पाठशाला में दाखिला दिलवा दिया जाये! लेकिन चाची ने इस बात को सिरे से नकार दिया था। 'क्या करेगी स्कूल पढ़कर, कौन सा नौकरी करनी है इसे। घर पर रहेगी तो थोड़ा बहुत हाथ बंटा देगी, बाकी काम भी क्या कर सकती है ये... चाची की कर्कशवाणी और तर्कों के आगे चाचा मन मसोस कर रह गये।
चाचा पास के ही गाँव में एक प्राथमिक पाठशाला में अध्यापक थे। सुबह घर से निकलकर देर शाम को ही घर वापिस पहुँचते थे। बीरा के साथ होती ज़्यादतियों का कई बार तो उन्हें पता ही नहीं लग पाता था। एकाध बार चाची की अनुपस्थिति में चाचा ने पुचकारकर पूछा, तो बीरा की आँखों में आँसुओ की बरसात निकल आयी थी। वे समझ गये थे कि इस घर में इस बच्ची को गहरा दु:ख है, परंतु कुछ कहने पर घर की कलह से बचने का प्रयास करने में बेचारी बीरा ही बलि का बकरा बनती। इसीलिए चाचा ने 'जैसा चल रहा है, चलने दो' वाला सिद्धांत अपनाया हुआ था।
उधर बीरा अपने साथ के बच्चों को बस्ता लेकर स्कूल जाते देखती, तो उसका मन भी होता था स्कूल जाने और पढ़ने का, परंतु बोले भी तो किसे और कैसे? चाची से तो वैसे ही डरती थी। चाचा से बोले तो पता नहीं चाची क्या-क्या बोल बैठेंगी उसे। अतः अपनी पीड़ा को मन में दबाये रखने के सिवाय उसके पास कोई दूसरा चारा न था।
जिंदगी यूँ ही चल रही थी। ऐसे में उसके लिए देवदूत बनकर उसके मामा उससे मिलने पहुँच गये। 'बीरा' नाम लेते ही जैसे उन्होंने आवाज दी, चाची तुरंत छज्जे पर आ गयी। चौंककर बोली 'अरे, भाई साहब आप! आने की खबर तो की होती।'
चौक में आकर चाची ने सेवा लगाकर मामा को तिबार में बिठा दिया।
'मैं चाय बना कर लाती हूँ, थके होंगे' कहकर वह अंदर चूल्हे में आग जलाने लगी।
चाची के छोटे-छोटे बच्चों के साथ बीरा को देखकर मामा बोले 'बीरा नहीं दिखाई दे रही है ?'
'गयी होगी पड़ोसियों के घर, शायद खेल रही होगी बच्चों के साथ'
'लेकिन रात पड़ गयी, बच्ची का घर से बाहर रहना...' अभी मामा बात पूरी भी नहीं कर पाये थे कि बीरा घास की छोटी सी गठरी सिर पर लिए चौक में पहुँच गयी।
घास को नीचे उतारते ही जैसे उसकी नजर मामी पर पड़ी, बस क्या था जैसे उसमें बिजली का करंट दौड़ आया हो। मामा कुछ कहते और उठकर उसकी ओर लपकते कि उसने छलांग लगाते हुए मामा को ज़ोर से पकड़ लिया और बहुत देर तक छोड़ा ही नहीं। सिसकियाँ लेती चली जा रही थी। उसे लगा जैसे सदियों से जिसकी उसे प्रतीक्षा थी, वह देवता उसे मिल गया और अब वह किसी भी कीमत पर देवस्वरूप मामा का हाथ नहीं छोड़ना चाहती थी।
लकड़ी की तरह सूख चुकी बीरा का पीला पड़ा चेहरा देखकर तो मामा का भी दिल पसीज गया और उनकी आँखों में भी आँसू छलक आये। बीरा के आँसू तो रुकने का नाम ही नहीं लेते थे, मानो इतने दिन की पीड़ा अश्रु बनकर उसकी आँखों से फूट पड़ी हो।
मैले-कुचले कपड़े, फटे हुए नंगे पैर और उलझे हुए मैले बालों को देखकर सहजता से अनुमान लगाया जा सकता था कि बीरा कैसे अपने दिन गुजार रही होगी। मामा का मन बहुत खराब हो गया था, नि:संतान मामा के लिए अपने आँगन को बच्चे की खुशियों से भरने का यह ऐसा मौका मिल गया था, जिसे अब वे हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे। उन्होंने बीरा के आँसू पोछते हुए कहा 'धैर्य रखो बेटी! सब ठीक हो जाएगा, दिल छोटा नहीं करते...'
और फिर चालाकी से चाची की ओर ईशारा करते हुए बोले -
'तुम्हारी चाची इतनी अच्छी हैं कि कुछ दिन के लिए तो तुम्हें मेरे साथ मामी को मिलने के लिए भेज ही देंगी। फिर मैं तुम्हें यहाँ छोड़ दूँगा, क्यों बहिन जी? ठीक है ना!'
'ये क्या बोल रहे हैं भाई साहब आप! हम बीरा के बिना कैसे रहेंगे यहाँ पर?...' चाची चिंता में पड़ गयी। 'देखिये न घर का इतना कामकाज रहता है, बीरा का कम सहारा नहीं मुझे, इन बच्चों को पूरा संभाल लेती है। घर इसी पर छोड़ कर जाती हूँ मैं। चाहे लकड़ी के लिए जंगल जाना हो या खेतों में घास अथवा निराई-गुड़ाई के लिए, इसके रहते एकदम निश्चिंत होकर जाती हूँ।' धारे से पानी तो वह स्वयं ही ले आती है।
मामा समझ गये थे कि चाची को चिंता बीरा की नहीं, बल्कि चिंता अपने बच्चों और अपने कामकाज की है। चाची की बातें सुनकर वे सोच में डूब गये कि ले जायें तो ले जायें कैसे? इसलिए वे चाची को मनाने में जुट गये। 'आप चिंता न करें, बस इसकी मामी की जिद है कि मैं परेशान हो गया हूँ।
एकबार तो सोचा कि उसे ही यहाँ ले आऊँ, पर फिर विचार किया कि बीरा छोटी बच्ची है, कुछ दिन के लिए मामी के पास आ जायेगी, तो उसका मन भी ठीक हो जाएगा। इतने बरसों से तो हमने कुछ कहा नहीं, बस कुछ दिनों की बात है...।'
मामा अभी चाची से बात कर ही रहे थे कि चाचा भी आ पहुँचे। उन्होंने बात सुनी तो अंदर ही अंदर अति प्रसन्न हुए और सोचने लगे कि अच्छा ही है कि इस नरक से तो बीरा को कुछ दिन के लिए मुक्ति मिलेगी। लेकिन पत्नी का भय उन्हें मन की बात बाहर व्यक्त करने का साहस नहीं दिला पाया। बोले-
'जैसे भी इसकी चाची कहेगी। वैसे तो दो चार दिन की बात है, कोई बड़ी बात नहीं। फिर भी बीरा और उसकी चाची जाने!'
मामा चाचा के इशारों को समझ चुके थे और उन्होंने पूरी तरह ठान लिया था कि वह बीरा को किसी भी हाल में यहाँ नहीं छोड़ेंगे। बातों के धनी मामा ने किसी तरह बीरा को कुछ दिन के लिए ले जाने की सहमति ले ली, जिस पर चाची बड़बड़ाने लगी 'लोग क्या कहेंगे कि एक बेटी को भी नहीं पाल सके।'
अंततोगत्वा चाची, चाचा और मामा में फैसला हो ही गया कि एक महीने के लिए बीरा मामी के पास चली जायेगी। बीरा को उस रात खुशी से नींद नहीं आई, किंतु एक महीने की बात यद्यपि उसके उत्साह पर पानी फेर रही थी, फिर भी उसे लगा कि एक बार निकल तो जाऊँ इस नरक से बाहर, एक महीने में ही वह मामा और मामी को वहीं रहने हेतु किसी तरह मनवा लेगी। उसने रात को ही निश्चय कर लिया था कि वहाँ पहुँचने के बाद वह किसी भी कीमत पर यहाँ नहीं लौटेगी।
ऊँची नीची पहाड़ियों से घिरा गाँव अब रात की चादर ओढ़ चुका था। बीरा ने इसी बीच बत्ती जलाकर वातावरण में व्याप्त अन्धकार को दूर करने का प्रयास किया, तो एक धीमी सी पीली लौ के साथ बल्ब जल उठा। पहाड़ के कुछ गाँवों में बिजली पहुँच तो गयी है, लेकिन सौ वाट का बल्ब भी ऐसा जलता है मानों लालटेन की रोशनी हो।
बीरा की अंधकार भरी जिंदगी में उसके मामा रोशनी और उम्मीद की किरण बनकर आये थे। एक-एक पल वह रात खुलने की प्रतीक्षा करने लगी। उसका मन कई बार शंकाओं से घिर जाता कि सुबह उठकर कहीं चाची अपनी बात से मुकर न जाये।
*****
अभी रात पूरी तरह खुली भी नहीं थी कि बीरा ने जल्दी जल्दी तैयार होकर चुपके से मामा को जगाया और रात खुलने से पहले वे गाँव से चल दिये।
पहाड़ी टेढे मेढे मार्ग, घनघोर जंगल, कई बार खड़ी चढ़ाई और फिर ठेठ उतराई पर उतराई। कई मील पैदल चलकर भी बीरा को कोई थकान महसूस नहीं हो रही थी।
यूं तो वह पहले से ही कर्मठ है, लेकिन आज तो मारे खुशी के उसके पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। इतने पहाड़ों और नदी-नालों को पार कर वह कब बूंगीधार पहुँच मामी से लिपट गयी, उसे पता ही न चला।
बीरा को पाकर मामा-मामी की जिंदगी में जैसे बहार आ गयी थी। गाँव में थोड़ी सी जमीन थी, इसी पर गुजारे लायक अनाज पैदा हो जाता है। मामा-मामी हैं तो अकेले, पर घर में गाय, भैंस और बकरियाँ भी पाली हुई हैं। गाँव की तलहटी में बहती हुई पहाड़ी नदी के किनारे मामा के सोना उगलने वाले कई सिंचित खेत हैं और इसी नदी पर आटा पीसने हेतु पानी की शक्ति से चलने वाले कई घराट इस गाँव की विशेषता बयाँ करते हैं।
अब गाँव के पास वाले स्कूल में मामा ने बीरा का दाखिला करा दिया था। मामी ने भी अपने हृदय में वर्षों से पल रहे ममत्व एवं प्यार को उस पर पूर्णतया न्यौछावर कर दिया था।
साफ सुथरे कपड़ों और तेल लगे बालों में दो चोटी बनाकर, रंग-बिरंगे रिबन लगाये बीरा जब भी स्कूल के लिए निकलती, सबका मन मोह लेती। तीव्र बुद्धि बीरा को जो भी कक्षा में पढ़ाया जाता, वह उसे झट से ग्रहण कर लेती। कुछ ही दिनों में बीरा गाँव में सबकी लाड़ली बेटी बन गयी।
समय यूँ ही पंख लगाकर उड़ता रहा। चाचा-चाची द्वारा दो एक बार रैबार भेजने पर जब मामा ने बीरा को उनके पास गाँव भेजने से पूरी तरह इन्कार कर दिया, तो वे समझ गये कि अब बीरा उनके पास लौटने वाली नहीं है।
साल बीतते गये। बीरा पढ़ाई के साथ-साथ घर के काम-काज में भी मामा-मामी का हाथ बँटाती। हाईस्कूल के बाद इण्टर कालेज पास न होने के कारण बीरा को मामा आगे पढ़ाएँ भी तो कैसे? पर मामी थी कि रट लगाये जा रही थी, 'कुछ भी करो बीरा के मामा, हमारी बीरा पढ़ने में बहुत होशियार है उसे आगे पढ़ाना ही है, चाहे दो खेत बेचो पर इसे पढ़ाई के लिए भेजो।'
परंतु घर से बाहर दूर शहर में अकेले पढ़ने के लिए बीरा को भेजने का साहस मामा नहीं जुटा पाये। बीरा भी मामा की मजबूरियों को समझती थी, इसलिए आगे पढ़ने की इच्छा के बाबजूद भी वह मन मसोसकर रह गयी।
मामा बार-बार मामी को यही तो समझाते थे, 'तुम नहीं समझती दुनियाँ कितनी खराब हो गयी। जवान लड़की है, भगवान न करे कहीं कोई ऊँच-नीच हो गयी तो कहीं के नहीं रहेंगे हम' और इस पर तो मामी भी हूँ पर हूँ करके अपनी सहमति दे देती थी।
मामी एक दिन पड़ोस में बैठी श्यामा दीदी के साथ अपनी बीरा के बारे में चर्चा कर रही थी कि उनकी बातों को सुनकर दीपक दूर से ही बोल पड़ा।
'ताई, यदि इतना ही पढ़ने का मन है उसका और उसे रेगुलर नहीं पढ़ा सकते हैं तो क्या हुआ? प्राइवेट फार्म भर कर भी आगे पढ़ाई कर सकती है। मैं अपनी किताबें उसे दे दूँगा, और भी कोई मदद होगी तो मैं कर दूँगा।'
दीपक अपनी माँ का इकलौता बेटा है। पिता कई बरस पहिले किसी कार्य से शहर गये, तो वापस ही नहीं लौटे थे। यात्रा मार्ग पर एक जीप दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी थी। कितना बड़ा हादसा हुआ था। पूरी की पूरी जीप चट्टान से नीचे गहरी खाई में गिर गयी थी। बताते हैं कि उस जीप में सवार एक भी आदमी बच नहीं पाया था।
दीपू इस समय मुश्किल से रहा होगा चार-पाँच बरस का, श्यामा भी तबसे लेकर आज तक अपनी पहाड़ सी जिंदगी का एक एक पल अपने दीपू के लिए ही खपा रही है। पूरी खेती-पाती के साथ-साथ गाँव-गली के सभी नाते-रिश्तों को भी सम्भाला था उसने। दीपक ही तो उसके जीने का बहाना था अन्यथा उसकी इस जिंदगी में रह ही क्या गया था?
श्यामा की परिस्थितियों को महसूस करते हुए बीरा के मामा-मामी अक्सर उसके सभी कार्यों में मदद के लिए आगे दिखाई देते थे। बीरा का भी दीपक के घर काफी आना जाना था। एकदम अपने परिवार जैसा माहौल बन गया था। बीरा तो जैसे श्यामा की लाड़ली बेटी ही बन गयी थी। जब भी उसे समय मिलता, पहाड़ी हिरनी सी उछालें मारती वह काकी के पास पहुँच जाती थी। 'काकी आज खाने में क्या बनाया है? काकी तुम तो बहुत ही अच्छा खाना बनाती हो, तुम्हारे बनाये खाने में तो स्वाद ही कुछ और होता है'
दीपक मजाक करते हुए बोला था, 'भुक्कड़! ये बोल न कि मुझे भूख लगी है...इतनी लम्बी चौड़ी बात करने की क्या जरूरत है? अरे माँ तुम नहीं जानती इसे! ये तुम्हारी तारीफों के पुल बाँध-बाँधकर तुमको भी बिगाड़ देगी...।'
श्यामा धीरे से मुस्कराते हुए बोली- 'दीपक, तू उसे परेशान न किया कर, इतनी प्यारी बच्ची है, मैं तो कहती हूँ कि बेटी हो तो बस ऐसी...।'
बीरा भी कोई कम नहीं थी। काकी के बोल सुनकर दीपक की ओर लम्बी जीभ निकालकर उसे चिढ़ाने लगी। 'अरे काकी! आज का जमाना खराब है न, दूसरे की प्रशंसा किसी के गले नहीं उतरती'।
और फिर आपस में काफी देर तक श्यामा उन दोनों की नोक-झोंक का मजा लेती। ऐसी नोक-झोंक उनमें अक्सर होती ही रहती थी। एक दूसरे के साथ शरारतें करते पंख लगाकर कब दोनों यौवन की दहलीज पर पहुँच गये, पता ही न लगा। बचपन में तो दीपक बात-बात में बीरा की चोटी खींचकर उसे परेशान किया करता था, पर अब दूर से ही बात कर उसका मजाक उड़ाया करता है।
गाँव की पगडंडियों में खेलते हुए वे बड़े हुए थे, साथ-साथ खेत-खलिहान का काम करते-करते उनका आपसी लगाव बिल्कुल एक परिवार की तरह हो गया था।
ईश्वर ने बीरा से बचपन में ही माता-पिता का प्यार तो छीन लिया था, पर मानो जमाने भर की सारी सुन्दरता उसकी झोली में डाल दी थी। ऊपर से पहाड़ी झरने सी उसकी मीठी हँसी तो उसकी सुन्दरता में चार-चाँद लगा देती थी।
दीपक समय-समय पर उससे पढ़ाई करने को तो कहता ही रहता था, साथ में सारी किताबें ला-लाकर उसने बीरा को उपलब्ध भी करा दी थी। उसे छेड़ते हुए बोलता 'कभी अपनी बुद्धि इन किताबों पर भी लगा लिया करो। वैसे तो मुझे पता है कि जैसी मोटी तू है, वैसी ही मोटी है तेरी अक्ल। पढ़ती रहेगी, तो समझ में धीरे-धीरे आता रहेगा, बेवकूफ।'
पहले की बात रहती तो बीरा भी तपाक से उठती और उसे मारने दौड़ पड़ती, लेकिन अब भुनभुनाकर चुप्पी साधना ही उसने उचित समझा था।
समय बीतता गया और दीपक की मदद से बीरा अपनी प्राइवेट परीक्षाओं में भी अव्वल नम्बरों से पास होती चली गयी।
उधर दीपक को इण्टर परीक्षा में अच्छे अंक मिलने पर सभी को खुशी हुई थी और माँ तो इस बात से बेहद खुश थी कि आगे की पढ़ाई के लिए सरकार दीपक को छात्रवृत्ति देगी। यदि ऐसा नहीं होता, तो वह आगे पढ़ा भी कैसे पाती दीपक को? भगवान को लाख-लाख धन्यवाद देती नहीं थकती है श्यामा काकी।
दीपक के सामने आगे की पढ़ाई का यक्ष प्रश्न खड़ा था। लाचार माँ तमाम अभावों में दीपक को इतना भी पढ़ा पायी थी, क्या यही कम था? आगे की पढ़ाई के लिए तो उसे और भी दूर शहर जाना पड़ेगा। अभी तक तो गाँव से 50 मील दूर पर ही कई गाँवों के बीच उस इण्टर कालेज में दूर की एक मौसी के पास रहकर पढ़ रहा था। वहाँ से रविवार को तो वह माँ के पास आ ही जाता था, किंतु अब तो दूर शहर में जाकर माँ के कामों में हाथ तक नहीं बँटा पायेगा।
एक तो खर्चे की परेशानी और फिर इससे भी बड़ी समस्या कि माँ को अकेला कैसे छोड़े? कौन रहेगा उसके पास? रोज ही तो कहती है 'बस मैं तो दीपू को देख-देखकर ही जीती हूँ', फिर वह कैसे रह सकती है मेरे बिना?
इसी चिन्ता में एक शाम वह घूमता हुआ पन्देरे के आगे पीपल के पेड़ के नीचे बनी मुण्डेर पर बैठा गहरी सोच में न जाने कहाँ खोया था। तभी अचानक पीछे से एक कंकड़ उसके सामने आकर गिरा। उसने सिर उठाकर इधर-उधर देखा, लेकिन कोई नजर नहीं आया। उसने सोचा कि पेड़ से कोई सूखी टहनी का टुकड़ा आकर गिरा होगा।
थोड़ी देर बाद ही एक और कंकड़ आकर उसकी गोदी में आ गिरा, तो दीपक समझ गया कि किसी की शरारत है। उसने खड़े होकर नजर दौड़ायी तो देखा कि पास की झाड़ियों में कुछ सरसराहट हो रही है। आगे बढ़कर उसने देखा कि झाड़ियों में छिपी बीरा तीस कंकड़ फेंकने की तैयारी में जुटी उसकी ओर शरारतपूर्ण दृष्टि से देख रही है।
'किस सोच में डूबा है दीपू? ज्यादा पढ़-लिखकर दिमाग ज्यादा चलने लगा है क्या? अब तो बात करना भी जैसे अहसान होने लगा है' कहती हुई बीरा झाड़ियों से निकलकर उसके पास पहुँच गयी।
'नहीं बीरा, ऐसी बात नहीं है।'
'तो फिर कैसी बात है?'
'बस सोच नहीं पा रहा हूँ कि क्या करूँ?'
'इसमें सोचने की क्या बात है?'
'सोचने की बात यह है कि आगे पढ़ाई कैसे करूँ?'
'जैसे आज तक की है?'
'आज तक तो माँ के पास था। घर के, गाँव के, नाते-रिश्तेदारों के और खेत खलिहान के कामों में मैं को परेशानी नहीं आने देता था। अब गाँव छोड़कर शहर जाऊँगा तो ये सब...।'
'ये सब भी हो तो जायेगा।'
'लेकिन कैसे? और फिर माँ के अकेले रहने के अलावा खर्चा भी तो कहाँ से आयेगा शहर का? सरकार फीस ही तो देगी? गाँव आना-जाना, शहर में कमरा लेकर रहना और खाने-पीने से लेकर तमाम खर्चे हैं...मुझे तो लगता नहीं कि इन परिस्थितियों में आगे पढ़ पाऊँगा, तू बता क्या सोचती है?'
शहर जाने की बात सुनकर तो बीरा का कलेजा जैसे मुँह को ही आ गया था। क्या सचमुच दीपक पढ़ाई के लिए गाँव छोड़ शहर चला जायेगा? यदि पढ़ने के लिए भी नहीं जा पाया, फिर भी नौकरी के लिए तो उसे गाँव छोड़ना ही पड़ेगा, इससे अच्छा तो वह और लिख-पढ़ जाता तो बड़ी नौकरी पा सकता था।
सोचकर बीरा तपाक से बोली- 'देख, तू काकी की चिन्ता तो कर मत, मैं तो हूँ न उनके साथ! मैं उनकी पूरी देखभाल कर लूँगी। तेरे से तो ज्यादा ही ध्यान रखूंगी काकी का, मुझे कौन सी पढ़ाई करने कहीं जाना है? तू पढ़कर आयेगा तो हम सबको अच्छा लगेगा, पर तब तो तू शहरी हो जायेगा न। कहाँ याद रहेंगे हम लोग। अभी तो काकी की इतनी चिन्ता हो रही है, पर क्या पता तब क्या होता है?
'क्या तू ये कहना चाहती है कि मैं शहर जाकर बदल जाऊँगा? अरे लौटूंगा तो गाँव ही, और फिर तुझ जैसी बंदरिया को तो भुला भी कैसे पाऊँगा, जिसने हमेशा मेरी नाक में दम किया है...।'
और एक बार फिर बोझिल वातावरण हँसी-मजाक में बदल गया था। दोनों बात ही कर रहे थे कि बीरा अचानक गंभीर हो गयी और उसकी आँखों में यकायक आँसू डबडबाने लगे। उसे लगा जैसे शहर इस गाँव के दीपू को उनसे छीन लेगा। शहर में जाने के बाद तो लोग यूँ ही बदलकर परदेशी हो जाते हैं।
बीरा को दुःखी देख दीपक ने उसका हाथ पकड़ा और उसके आँसू पोंछने की कोशिश की, किंतु बीरा ने मुँह मोड़कर उसे घर चलने के लिए कहा। बीरा का मुँह बुरांस के फूल की तरह लाल हो गया था। तभी सामने से कुछ आहट हुई, तो दोनों चुपचाप घर की ओर चल दिये।
****
बीरा अपनी गागर को धारे में छोड़कर गयी थी। लौटकर आयी तो देखा, वहाँ पर विमला बैठी है। हमेशा प्रसन्न रहने वाली बीरा की चुप्पी देखकर विमला समझ गयी थी कि कोई बात तो जरूर है। उसने बीरा से जानने की कोशिश भी की, किंतु बीरा बात को टाल गयी। विमला ने दीपक और बीरा को साथ-साथ मुँह लटकाये आते देख लिया था।
'बीरा! बता न क्या बात हुई, दीपक से कोई झगड़ा हुआ क्या?'
'नहीं तो'
'कुछ बात तो हुई है जो इतनी गुमसुम दिखाई दे रही हो?'
'बात तो कुछ भी नहीं, और है भी' कहकर एक बार फिर उसने विमला को टालने की कोशिश की।
विमला बीरा से मुखातिब होकर बोली--
'मेरी सलाह मानना, ऐसी कोई गलती मत कर बैठना, जिससे जीवन भर पछताना पड़े।'
बीरा की समझ में नहीं आया कि आखिर विमला उससे कहना क्या चाहती है। 'क्या कह रही हो भाभी! बताओ तो सही...।'
'देख बीरा! औरत की जिंदगी में दुःख कब और कहाँ से चला आता है, कुछ पता नहीं चल पाता। किसी पर भी आज के दिन विश्वास करने का जमाना नहीं रह गया है...' और कहते-कहते विमला ने बहुत दिनों बाद आज अपना दिल खोलकर बीरा के सामने रख दिया था।
विमला की बातों को सुनकर बीरा तो हतप्रभ सी रह गयी।
विमला गंगापार दोगी भरदार गाँव की रहने वाली थी। पिता जगत सिंह गाँव के प्रधान थे। विमला दो भाई और दो बहिनों में सबसे छोटी थी। छोटी होने के कारण माता-पिता, भाई-बहिन का उसे खूब प्यार मिला। पिता के प्रधान होने के कारण सरकारी विभागों के कर्मचारियों और अधिकारियों का उनके यहाँ अक्सर आना लगा रहता था। घर में सबसे छोटी होने के कारण विमला ही उनकी इज्जत खातिर किया करती थी।
गाँव में एक छोटा सा स्वास्थ्य केन्द्र था, जिसमें डॉक्टर तो कभी उपस्थित रहता नहीं था, हाँ कभी-कभार कम्पाउण्डर जरूर दिखाई दे जाता था। गाँव के लोग उसे ही डॉक्टर समझ कर अपनी छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज करवा लिया करते थे। कई वर्ष हो गये थे उसे गाँव में, अतः लगभग सभी से बहुत घुल-मिल चुका था।
जगत सिंह का मकान काफी बड़ा था, इसलिए कम्पाउण्डर राकेश उसी के घर में किराये पर रहने लगा था। अकेला लड़का है, यह सोचकर माँ विमला के हाथ उसके लिए हर रोज सुबह शाम चाय और कभी-कभी खाना तक भिजवा दिया करती थी। अपनी परम्परा के अनुसार मेहमानों का पूर्ण सम्मान करना और दूर दराज से आये लोगों की यथासंभव मदद करने के स्वभाव ने राकेश को जैसे उनके परिवार का एक अंग ही बना दिया था।
इसी सबके बीच विमला की राकेश से निकटता बढ़ती चली गयी और एक दिन पूरे गाँव और क्षेत्र में यह अफवाह आग की तरह फैल गयी कि प्रधान जी की बेटी का कंपाउन्डर से रिश्ता तय हो गया है। विमला तो खुश थी, किंतु राकेश अपनी सीमाओं को तोड़ता जा रहा था।
प्रधान जी को लगा कि गाँव में बहुत बदनामी हो रही है, इसलिए अब इनके सम्बन्ध को रिश्ते में बदल देना ही ठीक रहेगा। यही सोचकर उन्होंने राकेश के सामने विमला से विवाह करने का प्रस्ताव रखा, तो राकेश ने दो-टूक जबाब दे दिया। जगत सिंह तो उसके हाव-भाव को देखते ही रह गये! वर्षों से घर में परिवार का अंग रहने वाला राकेश आज एकदम अनजान सा बन गया था।
जगत सिंह गुस्से में आ गये। मौके की नजाकत को देख राकेश उल्टे जगत सिंह के खिलाफ धमकी देने की रिपोर्ट दर्ज करवाने पर उतारू हो गया। होते करते एक दिन राकेश ने चुपचाप जिले से बाहर अपना स्थानांतरण करवा लिया। जहाँ भी पिता जगत सिंह विमला के रिश्ते की बात करते, वहीं कम्पाउण्डर राकेश का प्रकरण सामने आ जाता। पूरे भरदार इलाके में ही नहीं, गंगा पार सलाण तक में विमला और राकेश के सम्बन्धों की खबर फैल गयी थी।
पूरे इलाके में हुई बदनामी से परेशान जगत सिंह ने अपनी इज्जत बचाने के लिए मजबूर होकर ऐसी जगह विमला के रिश्ते की हामी भर दी, जहाँ विमला अपनी बराबर की लड़कियों की माँ बनकर ससुराल चली आयी। बालमन की थोड़ी की चंचलता ने आज उसकी जिंदगी को चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया था।
इसलिए लम्बी साँस लेकर विमला ने बीरा को समझाया था 'कभी कोई ऐसा कदम न उठाना कि मेरी तरह जिंदगी भर पश्चाताप करना पड़े। ये दुनियाँ विचित्र है। यहाँ किस पर भरोसा किया जाये और किस पर नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। हर इन्सान अपने चेहरे पर मुखौटा लगाये हुए है, पता नहीं कब मुखौटा उतरे और इन्सान की हैवानियत सामने आ जाये?'
विमला की बातों को सुनकर बीरा मन ही मन गाँठ बाँध रही थी।
'राकेश तब से कभी मिला?'
'नहीं! और मैं उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहती, अब मिलकर करूँगी भी क्या? मेरी जिंदगी तो उसने नरक में डाल ही दी...अब तो यही मेरी दुनियाँ है, इसी में मुझे जीना-मरना है।'
****
खिन्न मन लिए बीरा घर लौटी, तो काफी देर हो गयी थी। मामी गुस्से में बोली। 'कहाँ थी तू इतनी देर से? कितना अँधेरा हो गया।'
'मामी विमला भाभी के साथ बतिया रही थी, बेचारी कैसे दिन गुजारेगी...।'
'अब तू जवान हो गयी है, पहले अपना तो ख्याल रख।'
'मामी, मैं ठीक तो हूँ?"
'अरे, तुझे कुछ मालूम भी है कि विमला के ये हाल क्यों हुए? क्यों आज भी लोग ताने मारने से बाज नहीं आते?'
'लेकिन मामी उसके साथ बहुत अन्याय हुआ!'
'बीरा! जो भी हुआ उसकी जिंदगी तो बेकार हो गयी न! तभी तो कहती हूँ दुनिया देख...।'
रात में मामा जब घर पहुँचे तो चिंतित होकर मामी बोली -
'देख रहे हो, अपनी बीरा सयानी हो गयी है, कहीं तो इसकी शादी की बात करनी होगी।'
'तू पागल हो गयी? अभी हमारी बीरा की उमर ही क्या हुई, अटठारह साल की भी तो पूरी नहीं हुई।'
'बीरा के मामा! मैं कहती हूँ जमाना बहुत खराब है और फिर लड़का ढूंढ़ने में भी तो समय लगेगा। लड़का कौन सा बगल में कहीं रक्खा है? एक डेढ साल तो घर-बार देखने में और रिश्ता पक्का करने में लग ही जायेंगे। कुलदेवी ने चाहा तो तब तक बीरा इण्टर भी पढ़ लेगी। '
इन सब बातों से बेखबर बीरा अगले दिन श्यामा काकी के पास पहुँची, तो दीपक अटैची तैयार कर कपड़े रख रहा था और पास खड़ी श्यामा काकी सिसकियाँ लेते आँसू बहाये जा रही थी।
'बेटा! हमारी गरीबी की लाज रखना। खूब मन लगाकर पढ़ना और अपने पिता का नाम रौशन करना। आज तक तूने पूरे इलाके में हमारी नाक ऊँची रखी है, अब शहर जाकर अपने दिनों को भूल मत जाना...।'
'माँ तू क्यों ऐसी आशंका भरी बातें करती है? पढ़ने शहर ही तो जा रहा हूँ, कोई विलायत तो जा नहीं रहा हूँ, फिर तू इतनी चिन्ता क्यों कर रही है?'
'चिन्ता मैं नहीं करूँगी तो कौन करेगा, कौन है तेरा यहाँ?'
श्यामा काकी अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पायी थी कि बहुत देर से दरवाजे के पीछे खड़े होकर माँ बेटे की बातें सुन रही बीरा भागते हुए काकी के पास आयी और आते ही काकी के गले में हाथ डालते हुए बोली--
'काकी! एक मैं भी तो हूँ!'
'हाँ बीरा! तू तो है ही।'
दीपक ने माँ को बीच में टोका--
'माँ, ये नकचढ़ी कहाँ से बीच में टपक आती है, कमाल की है तुम्हारे हाथ बँटाने की जगह तुम्हारे काम जरूर बढ़ाया करेगी...।'
'नहीं बेटा! इसने हमेशा मदद की है मेरी, जब से मिली है लगता है बेटी की कमी को पूरा कर दिया इसने...।'
बीरा हल्की सी मुस्करायी और दीपक को चिढ़ाते हुए बोली--
'जलने वाले जलते रहें।' काकी बोल उठी--
'जलें इसके दुश्मन! पर तुम दोनों लड़ा मत करो, जब देखो, लड़ते रहते हो।'
'अरे माँ अब तो इसे खुश होना चाहिए, मैं शहर जो जा रहा हूँ पढ़ने के लिए। आज से झगड़ने वाला ही नहीं रहेगा, तो फिर झगड़ा कहाँ से...।' .
बीरा को लगा जैसे उसके दुखते घाव पर किसी ने नमक छिड़क दिया हो।
"एक तो दीपक हमें छोड़ शहर जा रहा है, उस पर यह कहना कि उसके जाने पर वह खुश होगी, जान बूझकर उसकी भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं तो और क्या है?' वह अपने मन में छिपे दुख को रोक न सकी और उसकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली। उसने काकी की पीठ पर अपना सिर टिका दिया और सिसकियाँ लेती चली गयी।
'बीरा इसका कहा बुरा न माना कर। तुम्हें चिढ़ाने के लिए पता नहीं क्या-क्या कह देता है...।'
बीरा कुछ नहीं बोली थी। दीपक भी तो अंदर ऊहापोह की स्थिति से गुजर रहा था, बोला--
'बुरी लग गयी तुझे मेरी बात, तो बाबा मैं वापस लेता हूँ अपनी बात को, पर तू माँ का ध्यान जरूर रखना।'
उसकी आवाज भर्रा गयी थी। जल्दी-जल्दी में अपनी पुरानी किताबों को निकालकर उसने बीरा के हाथों में थमा दिया।
'पढ़ने के लिए दे रहा हूँ, दिवाली की छुट्टियों में पूछूंगा जरूर' यह कहते हुए अपनी माँ के चरण छू दीपक घर से निकल पड़ा। आज से श्यामा की जिंदगी के सूनेपन को भरने के लिए बीरा के सिवा अन्य कोई नहीं रह गया था।
****
कुछ दिनों की मायूसी के बाद जिंदगी धीरे-धीरे फिर से अपने ढर्रे पर चलने लगी। बीरा प्रतिदिन काकी के पास जाती और काकी की खैर खबर पूछने के साथ ही दीपक की बातें करती। कभी-कभी तो घण्टों तक बस पुरानी बातों को याद कर करके दोनों अपना दिल बहलाती रहती।
बहुत दिन बीत जाने के बाद भी शहर से दीपक की कोई खोज खबर न आने पर श्यामा को उसकी चिन्ता सताने लगी, तरह तरह की आशंकाओं से मन बेचैन होने लगा... 'क्या हो सकता है ऐसा कि उसे दो शब्द लिखने की भी फुर्सत नहीं मिल पायी? चौंरीखाल से डाकिया ससुर जी भी तो नहीं दिखाई दिये पिछले एक महीने से गाँव में...'
इसी उधेड़-बुन में दूसरी सुबह श्यामा स्वयं ही चौंरीखाल पोस्ट ऑफिस पहुँच गयी। डाकिया ससुर जी ने जब बताया कि अभी तक तो कोई चिट्ठी नहीं आयी और अगर आयी होती, तो वे जरूर स्वयं गाँव आकर दे जाते, तो श्यामा और भी अधिक चिंतित हो गयी थी।
इसी चिंता में वह उदास मन लिए अपने घर लौट आयी। दो एक दिन बाद ही जब डाकिया ससुर जी ने घास लेकर लौट रही श्यामा को आवाज दी, तो काकी की खुशी का ठिकाना न रहा। घास की गठरी जल्दी जल्दी में वहीं फेंक चिट्ठी ली और बीरा से एक ही झटके में चिट्ठी पढ़ा डाली।
चिट्ठी पढ़ते हुए बीरा को लगता, मानो दीपक सामने खड़ा होकर अपनी सारी कहानी बयाँ कर रहा हो! किस तरह से वह गाँव से शहर पहुँचा, पहली बार बस से यात्रा करते हुए उसे कितनी उल्टियाँ हुईं और कितनी कठिनाइयों के बाद उसे एक छोटा सा कमरा मिला, जिसमें भी कोई विशेष सुविधाएँ नहीं हैं। कमरा भी केवल छः माह के लिए ही मिला है क्योंकि फिर तो मकान मालिक का बेटा आ जायेगा। हर वाक्य की समाप्ति के बाद वह जरूर लिखता कि 'माँ चिंता न करो सब ठीक होगा' किंतु बीरा के बारे में पूरी चिट्ठी में कहीं भी एक शब्द दीपक ने नहीं लिखा था।
यही सब ढूँढ़ने के लिए तो बीरा ने उलट-पुलट कर चिट्ठी कई बार पढ़ ला थी। बार बार चिट्ठी पढ़कर भी उसे संतुष्टि ही नहीं हो पा रही थी। जहाँ उस दीपक की चिट्ठी आने की बेहद प्रसन्नता थी, वहीं दीपक का उसके बारे में कुछ भी जिक्र न करने का उसे मलाल भी था।
क्या है बीरा! कितनी बार पढ़ ली तूने चिट्ठी? तू उदास क्यों हो गयी, क्या बात है बेटी? कहीं मुझसे कुछ छिपा तो नहीं रही है?'
'नहीं काकी बस यों ही...' वह अपनी पीड़ा दबाते हुए बोली।
'तो फिर चिट्ठी भी तो लिखनी है दीपू को, नहीं तो बेचारा परेशान हो जायेगा। चिट्ठी का ही तो सहारा है उसे परदेश में।'
आज कई दिनों बाद श्यामा के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव साफ झलक रहे थे।
****
गाँव से पहली बार बाहर निकला दीपक शहर की चकाचौंध देखकर खो सा गया था। कॉलेज में उसे मुश्किल से प्रवेश तो मिल गया, लेकिन इस अनजान शहर में कापी-किताबों सहित अन्य व्यवस्थाओं को जुटाने में उसका पसीना निकल आया।
अगले दिन जब वह कालेज गया, तो रैगिंग के नाम पर पुराने छात्रों ने जो असभ्य व्यवहार करना शुरू किया तो एक पल के लिए दीपक का मन सब कुछ छोड़कर गाँव जाने को हो रहा था।
'अरे देखो! लगता है अजायबघर से जैसे सीधे कॉलेज चला आया है...ओए इधर आ! देखता नहीं इधर तेरे सीनियर खड़े हैं?'
हीरोनुमा उन सीनियर छात्रों की बात पर वह जैसे ही उनके पास पहुँचा तो सामने खड़ी एक छात्रा की ओर इशारा करते वे हुए बोले
'जा! तेरी बड़ी बहिन खड़ी है, जाकर उसके पैर छू ले...।'
दीपक सहम गया था, टकटकी निगाह से वह इन छात्रों को देखने लगा, तो उग्र होकर उनमें से एक सीनियर गुस्से में बोला,,
'देख क्या रहा है? सुना है न, हमने क्या कहा?
दीपक को लगा कि पैर छूने की तो कोई बात नहीं, लेकिन यदि उस लड़की ने उसे अन्यथा लिया तो उधर भी लेनी की देनी पड़ेगी। परंतु सीनियर छात्रों का रुख देखकर वह डरते-डरते उस लड़की के पास पहुँचा और उसके पाँव छूने को जैसे ही झुका, तो लड़की ने उसके हाथ पकड़ लिए और बोल पड़ी--
'चिन्ता न करो, मैं समझ रही हूँ तुम नये हो, और ये लड़के किसी नये लड़के की मदद करने की बजाय उसे और हतोत्साहित करते हैं। पर तुम परेशान न होना, एक आध दिन की ही तो बात है...।'
लड़की ने तो जैसे उसके टूटते मनोबल को बचा ही लिया था। यहाँ से किसी तरह जान बचाकर आगे निकला ही था कि--
'अरे लड़के! नये आये हो?' 'जी'
'किस जंगल से आये हो जो कपडे पहनने भी नहीं आते?'
दीपक अपने कपड़ों की ओर देखने लगा तो वे छात्र ठहाका मारकर उपहास करने लगे।
'सब कुछ सिखा देंगे। चिंता न करो, नये-नये रंगरूट हो...।'
दिनभर की नोक-झोंक और परेशानियों के बाद वह शाम को कमरे में पहुँचा, तो सोच ही नहीं पा रहा था कि क्या करे। इसके साथ कमरे में रहने वाला आशीष तो बुरी तरह घबरा गया था। आधी रात तक दोनों दिनभर के घटनाक्रम पर चर्चा करते रहे। कल का दिन कॉलेज में कैसे कटेगा, यही सोच-सोचकर उनकी हालत खराब हो रही थी और इसी चिन्ता में दोनों उस रात ठीक से सो भी नहीं पाये थे।
परंतु हर दिन घटते इस तरह के घटनाक्रमों ने उनको और मजबूत बना दिया था। गाँव से आया दीपक भले ही पढ़ने में बहुत होशियार था किंतु शहर की चपलता से वह अब भी कोसों दूर ही था।
दूसरी ओर गाँव में बीरा उदास रहने लगी। कई लोगों ने टोका भी था उसे कि अचानक उसे क्या हो गया। हँसती खेलती बिल्कुल गुमसुम सी हो गयी थी वह। कई बार उसका मन होता था कि वह दीपक को चिट्ठी लिखकर अपने दिल में छिपे भावों को प्रकट कर दे, किंतु फिर यह सोचकर कि दीपक बेवजह अनजान शहर में और परेशान हो जायेगा, वह अपने आप को सम्भाल लेती थी।
जब श्यामा चिट्ठी लिखाने बीरा के पास आयी, तो बीरा ने पूरी चिट्ठी तो लिख दी, लेकिन उसमें अपनी ओर से एक शब्द भी नहीं लिखा।
पत्र पाते ही दीपक खुश हो गया था। बाहर लिखे पते में बीरा का हस्तलेख देखकर तो वह फूला नहीं समाया। वह तरह-तरह की कल्पनाओं में डूब गया। बीरा ने क्या-क्या लिखा होगा? कितनी याद आती होगी उसे मेरी? जरूर उसने सब कुछ लिखा होगा। इतने वर्षों बाद पहली बार बीरा ने पत्र लिखा, यह सोचकर दीपक ने जल्दी से पत्र पढ़ना प्रारंभ कर दिया। एक एक शब्द पढ़ते हुए उसकी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।
कक्षा में सबके सामने वह पत्र ठीक से पढ़ नहीं पाया था। कक्षा खत्म हुई तो वह जल्दी से जल्दी कमरे में पहुँचने का प्रयास करने लगा। रास्ते में पत्र पढ़कर वह पत्र का मजा किरकिरा करना नहीं चाहता था। यही सोचकर आशीष को कॉलेज में ही छोड़कर वह चंद मिनटों में ही कमरे पर पहुँच गया। कमरे का ताला खोलते ही वह चारपाई पर बैठ पत्र पढ़ने लगा।
पत्र पढ़कर माँ की राजी खुशी का समाचार तो मिल गया, लेकिन जो वह सोच रहा था, उस पर तो पानी फिर गया। पूरे पत्र को वह कई-कई बार पढ़ गया और इधर से उधर टटोलता चला गया, किंतु कहीं भी बीरा की ओर से उसके लिए लिखा एक शब्द भी नहीं मिला, तो वह परेशान हो गया। ये कैसे सम्भव हो सकता है कि बीरा पत्र लिखे और दीपक के बारे में कुछ न लिखे। इसी उधेड़बुन में वह इधर से उधर यूँ ही चक्कर लगाने लगा।
आशीष कमरे पर पहुँच कर दीपक से गुस्से में कुछ कहता, उससे पहिले ही उसे लगा कि दीपक आज कुछ ज्यादा ही परेशान नजर आ रहा है। अपना गुस्सा थूकते हुए उसने पूछ डाला...
'क्या हो गया?'
'यार कुछ भी नहीं
'अरे कोई तो बात है?'
'घर से पत्र आया है 'तो क्या कोई..., माँ ठीक तो है न!'
'नहीं....नहीं. माँ बिल्कुल ठीक है।
तो फिर क्या बात है'
'आशीष भाई, बता दूँगा बाद में, चलो अभी तो सामान लेकर आते हैं बाजार से...'
कालेज से घर आते ही तुरन्त पढ़ाई में जुट जाने वाला दीपक आज उदास सा बाजार घूमने की बात करने लगा, तो आशीष को आश्चर्य होना ही था।
रात को दीपक पत्र लिखने बैठा। कई बार उसने पत्र लिखा और फिर फाड़कर कूड़े की टोकरी में डाल दिया।
'यदि बीरा मेरे लिए दो शब्द भी चिट्ठी में नहीं लिख सकती तो मैं ही फिर क्यों उसे पत्र लिखू?'
आशीष ने पूछा-"क्या हो रहा है दीपक...।'
'यार कुछ नहीं, बस माँ को चिट्ठी लिखना चाहता हूँ, लेकिन समझ में ही नहीं आ रहा है कि क्या लिखू।'
'अरे इसमें समझ आने की क्या बात है। माँ को चिट्ठी लिख रहा है तो अपनी राजी खुशी ही तो लिखेगा या फिर यहाँ की कहानी लिखेगा? वैसे भी अगले हफ्ते तो तीन दिन की छुट्टियाँ हैं। जब तक तुम्हारी चिट्ठी पहुँचेगी, उससे पहले ही तो तू माँ के पास पहुँच जायेगा।'
'हाँ आशीष! ये तो तूने ठीक कहा। जब चिट्ठी से पहले ही मैं माँ के पास पहुँच जाऊँगा, तो बिना बात चिट्ठी लिखने पर समय और पैसा क्यों खर्च किया जाये...।'
दीपक और आशीष इसी तरह बातें करते-करते सो गये। दीपक रातभर ठीक से सो नहीं सका था। जहाँ माँ की कुशलक्षेम पाकर उसे खुशी हुई थी, वहीं इस बात की चुभन भी हुई थी कि जो बीरा बात-बात में कहती न थकती थी कि मेरे परदेश चले आने पर माँ और उसका तो जीना ही दूभर हो जायेगा, वह मेरे शहर आते ही इतनी जल्दी बदल गयी? इसकी तो कल्पना तक नहीं की थी उसने।
यही चुभन उसे बेचैन किये जा रही थी और इस घुटन के बीच अब तो कहीं भी उसका मन नहीं लग रहा था। छुट्टियों के इंतजार का एक-एक दिन तो क्या, एक-एक पल उसे भारी लग रहा था।
****
साँझ धीरे-धीरे ढल रही थी, दूर आसमान में लालिमा लिए सूर्य की मद्धिम किरणें साँझ ढलने की प्रतीक्षा में मन्द मन्द गति से विदा लेने को उत्सुक थीं। अंधकार गहराता जा रहा था और उसी के साथ गहराता जा रहा था दीपक और आशीष के मन का खौफ। न जाने कब 'सीनियर' आ धमकें और फिर शुरू हो जाये उन के उल्टे सीधे सवालों का सिलसिला?
सच पूछो तो तंग आ गया था दीपक इतने दिनों से इस रैगिंग के चक्कर से। मन करता था कि सब छोड़छाड़ कर गाँव लौट जाये। इसी उलझन में खोया दीपक उत्साहित नहीं दिखता था दमकते दीपक की तरह।
दोनों किताबें लिए बैठे थे, किंतु मन कतई पढ़ाई में नहीं था। कमरे में पसरे सन्नाटे को तोड़ते हुए आशीष बोला-'दीपक! क्या सोच रहा है यार?'
'कुछ नहीं, बस यूँ ही घर गाँव की याद आ गयी थी।'-दीपक बोला।
'घर की याद आ गयी या किसी और की?' आशीष ने उसकी दुःखती रग पर मानो अँगुली रख दी हो। 'मैं देख रहा हूँ कि जब से तेरे घर से चिट्ठी आयी है, तू कुछ ज्यादा ही बेचैन हो रहा है?'
-'नहीं यार ये बात नहीं।' जानबूझ कर टालना चाहा दीपक ने।
'दोस्त! कुछ न कुछ बात तो जरूर है। मुझे लगता है तू मुझसे कुछ छुपाना तो चाहता है, किंतु छुपा नहीं पा रहा है।' आशीष ने फिर कुरेदा।
'आशीष, तू मेरा दोस्त है, तुझसे क्या छिपाना।' दीपक ने अपने अंदर की उदासी को दबाते हुए सफेद झूठ बोला- 'बस यार! चिट्ठी मिलने के बाद से ही माँ की याद आ रही है।'
'दीपक! तू तो बहुत खुशनशीब है, जो तुझे माँ का प्यार मिल रहा है। अपना तो बस इस दुनियाँ में...' उदास स्वर में आशीष आगे कुछ बोल नहीं पाया।
'क्या मतलब?' चौंक कर दीपक ने पूछा-'तो क्या तेरे माँ पिताजी...'
'माँ तो मुझे तब छोड़ कर चली गयी थी, जब मैं चार साल का था। पिताजी हैं तो, लेकिन उनका होना न होना मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता।' आशीष ने गमगीन स्वर में कहा।
एक महीने से अधिक हो गया था दोनों को एक ही कमरे में एक साथ रहते हुए, किंतु एक दूसरे के परिवार के बारे में बहुत ज्यादा जानने की कोशिश अभी तक नहीं कर पाये थे वे।
'तो आशीष की माँ नहीं है। आज ही पता चल पाया था दीपक को उसे इतना तो पहले ही महसूस होने लगा था कि आशीष किसी बड़े घर से है। उसके कीमती कपड़े और खर्च करने का तरीका देखकर उसे यह अंदाजा हो गया था।
चार पाँच सौ रुपया उसके पर्स में हर समय यूँ ही पड़ा रहता था। हाँ, एक बार आशीष ने मजाकिया लहजे में उससे कह भी दिया था कि वह तो यहाँ पर केवल समय व्यतीत करने आया है, यहाँ रहकर उसे कौन सी पढाई करनी है? सुनकर दिल बैठ गया था दीपक का।
उसके मुँह से पिता के प्रति नकारात्मक विचार सुनकर दीपक ने उसे टोकते हुए कहा,
'यार, ऐसा नहीं कहते, पिता तो आखिर पिता ही होते हैं। मुझे देख मेरे पिता नहीं हैं और मुझे कदम कदम पर उनकी कमी महसूस होती है। काश! आज वे होते तो हमारे घर के हालात भी बेहतर होते।
दीपक, तुझे कम से कम माँ का प्यार तो मिल रहा है यार। हालात अच्छे होने या न होने से कुछ नहीं होता। आशीष ने तर्क दिया।
'इन्सान को प्यार चाहिए, संवेदनायें चाहिए और रुपया पैसा इसकी कभी पूर्ति नहीं कर सकता।'
सुनकर झटका सा लगा दीपक को। 'कहता तो आशीष ठीक ही है, तो इसे पिता का प्यार क्यों नही मिला, आखिर क्या कारण है?' अपनों के प्यार एवं सहानुभूति से वंचित आशीष के स्वभाव में कभी उग्रता और कभी उदासी के जो भाव उसने विगत एक महीने में महसूस किये थे, उसी का प्रतिफल था कि आशीष के अंदर कुछ कर गुजरने की ललक नहीं दीखती थी, मात्र समय व्यतीत करना ही उसका लक्ष्य हो जैसे। तो आज मालूम पड़ा कि वह इतना लापरवाह क्यों है कॉलेज में।
दीपक के पास खर्चे के लिए पैसे सीमित थे, दूसरी ओर आशीष के पास पैसों की कोई कमी नहीं थी। कॉलेज की कैंटीन में भी घंटों बैठकर वह खाने पीने में साथियों पर खूब पैसा उड़ाया करता था।
जब दोनों बाजार से अपने लिए किताब खरीदने गये, तो दीपक ने उससे कहा था- 'यार ऐसा करते हैं किताबों का एक ही सेट खरीदते हैं। आधा-आधा पैसा मिलाकर दे देंगे और मिल जुलकर काम चला लेंगे।'
सुनकर खूब हँसा था आशीष। तब उसकी हँसी को अपना उपहास समझा था दीपक ने। आशीष ने दीपक की भावनाओं को समझते हुए तुरंत बात पलटते हुए कहा, 'एक नहीं, दो सेट ही लेगें हम। और दोनों का पैसा मैं ही दूँगा। क्यों चिंता कर रहा है तू?'
आशीष ने किताबों के दो अलग अलग बंडल पैक करवा दिये और उनका मूल्य भी स्वयं ही चुका दिया। कमरे में आते ही जब दीपक ने अपने हिस्से की किताबों का पैसा उसे लौटाना चाहा, तो अपनी दोस्ती का हवाला देकर दीपक पर नाराज पर होते हुए उसने पैसे लेने से एकदम इंकार कर दिया।
'आशीष! क्या हो गया था तुम्हारी माँ को?' दीपक ने प्रश्न किया।
'मेरी माँ ने आत्महत्या की है?' सपाट स्वर में कहा आशीष ने।
'क्यों?'
'बस क्या बताऊँ यार। मुझे तो सिर्फ इतना याद है कि पिताजी का रोज माँ से झगडा होता था और एक दिन माँ ने इस अध्याय का सदा के लिए अंत कर दिया।'
'तो फिर पिता के प्रति तुम्हारा ये रवैया...?' वाक्य आधा छोड़ दिया था दीपक ने।
'सच कहूँ तो मैं माँ की मौत के लिए पिताजी को ही पूरी तरह जिम्मेदार मानता हूँ। तभी से मुझे उनके प्रति नफरत सी हो गयी है।' आशीष के स्वर में पीड़ा साफ झलक रही थी।
'लेकिन यार ऐसा क्यों मानता है तू? आखिर तू उनका बेटा है और उनका भी तुझसे कुछ न कुछ लगाव तो होगा ही?' पूछा दीपक ने।
'नहीं यार। माँ की मौत के बाद मुझे बहुत कडुवे अनुभवों से गुजरना पड़ा। उसी ने मेरे जीवन की विचारधारा बदल दी। जीवन में कोई चाह, कोई रुचि नहीं रही तब से।' आशीष बोलता चला गया।
'ऐसा क्या हो गया था?' दीपक ने उसकी बातों में रुचि लेते हुए पूछा।
'लंबी कहानी है यार। माँ के मरने से लेकर अब तक का जीवन पूरा एक उपन्यास है। सुनकर तू भी बोर हो जायेगा', आशीष ने टालने की कोशिश की, किंतु दीपक तो जैसे आशीष से सब कुछ जान लेना चाहता था आज।
'तू बता तो सही। अपना दुःख-दर्द हमेशा बाँट लेना चाहिए। इससे मन हल्का हो जाता है। फिर मैं तो तेरा दोस्त हूँ। अगर तेरे किसी भी काम आ पाया, तो यह मेरी खुशनसीबी होगी। 'दीपक ने उसके घावों पर मरहम लगाने का प्रयास किया।
दीपक की बात सुनकर भावुक हो गया था आशीष। इतने बरसों से आज तक उसके मन की पीड़ा किसी ने पढने की कभी कोशिश नहीं की थी। दोस्त तो कई मिले थे, किंतु सब चापलूसी करते थे उसकी। उसके रुपये-पैसों से मौज उड़ाकर उसे खुश करने के नये-नये तरीके आजमाते रहते थे। किसी ने भी उसके मन के अंदर झांककर देखने की कोशिश नहीं की थी आजतक।
पहली बार आशीष को दीपक के रूप में एक ऐसा दोस्त मिला, जो उसके रुपये पैसे के रौब में नहीं आया, बल्कि स्वाभिमानपूर्वक पिछले एक महीने से साथ साथ रह भी रहा है और उसके दुःख दर्द को समझ कर उस पर मरहम लगाने की कोशिश जिसने की है, वह सिर्फ दीपक ही तो है।
सुना तो आशीष ने भी था कि अपना दुःख दर्द दूसरे को सुनाकर मन हल्का हो जाता है, लेकिन किसे सुनाता? सुनने के लिए कोई मिलता तब ही तो सुनाता? आज दीपक ने उसके जख्मों पर कुछ मरहम लगाया तो सचमुच मन भर आया उसका और अपनी अब तक के उतार चढावों भरी जिंदगी की सारी कहानी वह दीपक से कहता चला गया।
****
शम्भू प्रसाद नाम था उसके पिता का। छः फीट लम्बा तगड़ा शरीर। फौज से हवलदार रिटायर आये थे वह।
पिता जी नये-नये रिटायर आये थे, अतः रोज घर में मिलने जुलने वालों का ताँता लगा रहता था। सिर्फ गाँव के ही नहीं, इलाके भर से लोग आते थे।
गाँव में सबसे ऊपर का घर था उनका। अकेला मकान और मकान के इर्द गिर्द लगभग 60 नाली पुस्तैनी कृषि योग्य भूमि और कई एकड़ में फैला हुआ घास लकड़ी का जंगल। आसपास के करीब चार पाँच गाँवों का रास्ता गुजरता था उनके घर के बगल से। लिहाजा आने-जाने वाले लोग एक बार जरूर उनके चौक की मुण्डेर में अमरूद के पेड़ की छाँव में कुछ देर ठहर जाते थे।
उसकी माँ उर्मिला देवी धार्मिक महिला थी। हर आने जाने वाले को पहले पानी और फिर चाय जरूर पिलाती थी और साथ ही खाने के बारे में जरूर पूछती थी।
खाने का समय हो, तो बिना पूछे थाली परोस देती थी। सारे इलाके में चर्चा थी उसकी माँ की। दादी थी जो आँखों से लाचार हो चुकी थी। इतने बड़े एकान्तवास वाले घर में अकेली रह रही माँ की हिम्मत देख लोग तारीफ करते नहीं थकते थे। इतने बड़े इलाके में फैली खेती अकेले अपने बलबूते पर थाम रखी थी उसने।
दो भाई बहिन थे वे। दीदी ऊषा सातवीं में और स्वयं आशीष चौथी कक्षा में पढ़ रहा था तब।
शम्भू प्रसाद के सेवानिवृत हो जाने के बाद घर में आवत-जावत बढ़ गयी थी। माँ का अधिकांश समय अब लोगों की आतिर-खातिर में ही व्यतीत होने लगा था।
उषा और आशीष भी अब ज्यादा खुश थे। घर में भीड़-भाड़ लगी रहना उन्हें अच्छा लगता। यूँ तो पिता जब तक फौज में थे, तब भी लोगों का आना जाना तो था, किंतु अब तो जैसे मेला ही लगा रहता था हर वक्त उनके घर में। आशीष और ऊषा फुदक-फदक कर आने जाने वालों को कभी पानी के गिलास, तो कभी चाय की प्यालियाँ देने जाते, तो लोग उनकी तारीफ कर आशीर्वाद दिया करते थे। तारीफ सुनकर दोनो भाई बहिन फूले नहीं समाते थे।
इसी बीच आशीष के पिताजी को किसी ने आने वाले पंचायत चुनाव में प्रमुख का चुनाव लड़ने की सलाह दे डाली और पिताजी ने छः माह बाद होने वाले चार के लिए अभी से तैयारी करनी शुरू कर दी।
जैसे- जैसे चुनाव का समय नजदीक आता गया, चाय पानी की यह महफिल अब धीरे-धीरे बदलने लगी। शाम को कभी-कभार पिताजी शराब की बोतल भी खोल देते और देर रात तक गप्प शप्प और बातें चलती रहतीं। अब माँ पर कई-कई लोगों के लिए खाना बनाने का बोझ भी बढ़ता गया था।
धीरे-धीरे यह बातें रोजमर्रा का हिस्सा ही बनती गयी। अब आये दिन घर में शराब के दौर चलने लगे। पिताजी के इर्द गिर्द अब आस पास के गाँवों के कुछ खास लोगों का जमावड़ा लगा रहने लगा।
रात तो रात, अब तो कई-कई बार दिन में भी गिलास खनकने लगते। इससे माँ और पिताजी के बीच अक्सर तनाव रहने लगा। माँ देर रात तक बर्तन पोंछा करके निपटती थी, तो पिताजी झूमते हुए सोने के कमरे में प्रवेश करते।
आये दिन शोर शराबे के कारण हमारा दिल भी पढाई में नहीं लगता था। पढ़ने से ज्यादा हम दोनो भाई बहिन पिताजी और उनके साथियों की बातों में रुचि लेते और यह देख माँ को और दुःख होता और हर रात यही बात झगड़े का कारण बनती थी।
पिताजी तो जैसे हमको प्यार करना ही भूल गये थे। प्यार करना तो दूर, अब वे हम से बात भी कम ही करते थे। यह देख माँ और अधिक तनाव में रहने लगी।
दादी एक कोने में बैठी जब तब पूछती रहती-'ए उषा, ए आशीष तेरे पिता कहाँ हैं?'
कभी-कभी हम दादी को भी बता देते कि पिताजी अपने कमरे में हैं।
'क्या कर रहा है?' पूछती दादी।
'शराब पी रहे हैं।'
'क्या हो गया इस शम्भू को, सारे परिवार को बर्बाद कर देगा।' दादी स्वभाव के अनुसार बड़बड़ाती।
माँ का अधिकांश समय खाना बनाने, चाय नाश्ता बनाने और बर्तन धोने में ही गुजर जाता। ऊपर से घास, लकड़ी, पानी लाना, गाय भैंसों की देखभाल करना उसकी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा होता। दादी को यद्यपि हम ठीक समय पर हम खाना दे देते थे, फिर भी दादी का बड़बड़ाना जारी रहता।
'ऐ ब्वारी! शम्भू ने खा लिया?'
'ऐ आशीष! तेरे पिता क्या कर रहे हैं?
'ऐ उषा! तूने पिता को खाना लगा दिया?'
हर घड़ी कुछ न कुछ पूछने और बड़बड़ाते रहने की दादी की इस आदत से हमने अब उसकी बातों पर ज्यादा ध्यान देना ही छोड़ दिया था।
माँ तो कभी कभी उनके सवालों पर झल्ला उठती थी- 'इस बुढ़िया ने भी नाक में दम कर रखा है। बैठे बैठे शोर मचाती रहती है। इसे तो मौत भी नहीं आती।'
एक दिन जब मैं खाने की थाली लेकर दादी के पास गया, तो वह अपने कमरे में दिखाई नहीं दी। सोचा दादी आज जल्दी सो गयी है। आवाज देने पर भी वह उठी नहीं। जब मैंने दादी को झिंझोड़ा तो उसकी गर्दन एक ओर लुढक गयी। सचमुच! पिताजी की चिन्ता करते-करते दादी चल बसी थी।
पहाड़ के अधिकांश गाँवों में अन्तिम संस्कार अभी तक भी नदियों अथवा गाड गदेरों के किनारे किये जाते हैं। हमारे गाँव का मुर्दाघाट भी खांकरा के नजदीक अलकनन्दा नदी के किनारे है। गाँव से लोग अर्थी उठाकर पगडंडी से पैदल चलते हुए खांकरा पहुचते हैं, यही कोई दो मील के लगभग पैदल होगा।
पिताजी ने दादी के अन्तिम संस्कार के लिए एक नयी प्रथा शुरु कर दी। शवयात्रा के लिए उन्होंने बड़ी बस बुक करवाई थी, जिसमें बैठकर 25 मील का सफर तय करके शव यात्रा खांकरा पहुंची।
शाम को जब शवयात्री अपने-अपने घर में पहुँचे तो अधिकांश शराब के नशे में धुत थे। यह देखकर माँ आग बबूला हो गयी। घर में यूँ तो मुर्दा मरा था और मुर्दाफरोश नशे में धुत थे।
रात को माँ ने पिताजी को डाँटते हुए कहा था-'शर्म नहीं आती तुम्हें? घर में माँ की मौत हुई है और तुम लोगों को शराब पिला रहे हो, जैसे कोई खुशी का माहौल हो।'
मुझे याद है, उस दिन पिताजी का रौद्र रूप मैंने पहली बार देखा था।
'चुप साली!' पिताजी खूब जोर से चिल्लाये। 'मुझे सिखाती है?'
और फिर एक जोर का थप्पड़ पड़ा था माँ के गाल पर-'तड़ाक'
माँ सिसकियाँ लेती हुई चुपचाप लेट गयी और रात भर सुबकती रही। हम भाई बहिन अपाहिज से सब कुछ देखते रहे।
यूँ भी घर में उस दिन खाना तो बनना नहीं था, इसलिए हम भी भूखे ही लेट गये, जबकि पिताजी अपनी मण्डली के साथ देर रात तक शराब पीते रहे। एक तरफ माँ की सिसकियाँ और दूसरी ओर शराबियों के हुड़दंग के बीच हमें कब नींद आ गयी, पता ही नहीं चला।
सुबह जब आँख खुली तो मेरी चीख निकल गयी। माँ का शरीर रस्सी के सहारे छत से लटका हुआ था और उनकी जीभ बाहर निकली हुई थी। मेरी चीख सुनकर दीदी भी जाग गयी और सामने का दृश्य देखकर वह तो जोर-जोर से रोने लगी।
रोना चिल्लाना सुनकर पिताजी भी उस कमरे में आ गये और माँ को छत से लटका हुआ देखकर पल भर के लिए हतप्रभ रह गये, किंतु दूसरे ही क्षण सामान्य होते हुए उन्होंने रस्सी खोल कर माँ का शरीर चारपाई पर लिटा दिया और रात के नशे से अभी तक मदहोश लाल लाल आँखें दिखाते हुए कहा था, 'खबरदार, जो किसी से कुछ कहा तो!
कोई पूछे तो कहना कि रात को माँ के पेट में बहुत तेज दर्द हुआ था।' उस दिन मुझे पहली बार अहसास हुआ कि कितने धूर्त आदमी हैं मेरे पिता? मेरी माँ के हत्यारे पिता के बारे में उस दिन से मेरी सारी अवधारणायें बदल गईं। सच पूछो तो उसी दिन से मेरे मन में पिता शब्द के प्रति ही नफरत पैदा हो गयी।
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दहकते अंगारों की तरह हो गयी थी आँखे उसकी। लाल सुर्ख और साथ में भीग गयी थी पलकें। आशीष की आँखों में एक ओर पिता के प्रति आक्रोश था तो दूसरी ओर माँ की मृत्यु का दुःख भी साफ झलक रहा था।
सिर्फ आशीष की ही नहीं, दीपक की भी आँखे छलछला आयीं थीं उसकी करुण व्यथा सुनकर। माँ की मृत्यु के बाद निःसन्देह बच्चों का मनोबल टूट जाता है। साथ ही उनके बचपन का भी माँ के साथ ही अंत हो जाता है। यही हुआ आशीष और उसकी बहिन उषा के साथ।
किंतु एक जिज्ञासा फिर भी दीपक के दिल में बार बार उठ रही थी। आशीष की माँ की मृत्यु के बाद क्या आशीष के पिता ने बच्चों के प्रति अपना व्यवहार नहीं बदला? आशीष अब तक पिताजी से इतना विमुख क्यों है? न जाने कितने सवाल खड़े थे दीपक के सामने।
यूँ तो हर व्यक्ति का अपनी निजी जीवन होता है, जिसे वह हर किसी के सामने सार्वजनिक नहीं करना चाहता। सवाल यह उठता है कि क्या हमें किसी की निजी जिंदगी के हर पहलू को जानने का अधिकार है? निश्चित रूप से नहीं। दीपक भी नहीं चाहता था आशीष को और अधिक कुरेदना, किंतु वह उसका रूम पार्टनर था और उसका स्वभाव, उसकी आदतें देखकर उसे हर बार लगता था कि आशीष के साथ कुछ न कुछ असामान्य है जरूर!
आज जब आशीष ने खुद ही उसे अपने बारे में बताना शुरू कर दिया, तो आधी अधूरी कहानी सुनकर कई और प्रश्न खड़े हो गये दीपक के सामने, जिनका उत्तर जानने के लिए वह और व्यग्र हो उठा था। है।
इसी उधेड़बुन में न चाहते हुए भी दीपक ने आशीष से सवाल कर ही लिया- 'तुम्हारी माँ की मृत्यु के बाद क्या तुम्हारे पिताजी के स्वभाव में कछ फर्क पड़ा?'
'नहीं! उसके बाद तो उन्होंने और भी ज्यादा शराब पीनी शुरू कर दी। उनकी मित्र मण्डली की महफिल में अब और ज्यादा देर तक शराब का दौर चलने लगा था' आशीष ने बताना शुरू किया। 'अब रसोई सहित सारे घर का काम दीदी के कन्धों पर आ गया। छोटी सी जान और ढेर सारा काम। परिणामस्वरुप दीदी अपनी पढ़ाई लिखाई में पिछड़ती चली गयी और सातवीं कक्षा में फेल हो गयी। तब से दीदी ने स्कूल जाना छोड़ दिया और पूरी तरह घर गृहस्थी में ही रम गयी।
इसी दौरान पंचायत चुनावों की घोषणा हो गयी। पिताजी अब अपने दल बल के साथ अन्य गाँवों में भी प्रचार के लिए जाने लगे। कई कई बार तो वे दो तीन दिन के बाद घर लौटते थे। उन्हें हमारी कोई चिन्ता ही नहीं रह गयी थी।
दीदी सूख कर कांटा हो गयी थी। घास, लकड़ी, चूल्हा, चौका आदि सब करते करके वह जवानी की दहलीज पर भी पहुंच चुकी थी। पिताजी की शह पर घर में आने वाले लोग वक्त बेवक्त खुद ही रसोई में घुस जाते और चाय नाश्ता सहित जो उनकी मर्जी होती, बनाते और खाते। एकदम धर्मशाला जैसा हो गया था हमारे घर का माहौल।
इसी दौरान पिताजी प्रमुख का चुनाव जीत गये। अब तो घर में बधाई देने वालों का हर वक्त ताँता लगा रहता। पिताजी का रुतबा अब कई गुना बढ़ गया था, किंतु इसी दौरान एक ऐसी घटना हो गयी, जिससे पिताजी के कान खड़े हो गये।
एक दिन मेरे स्कूल के प्रधानाध्यापक घर आये, तो पिताजी ने उन्हें आदर के साथ बिठाया। चाय पानी के बीच ही उन्होंने पिताजी को प्रमुख बनने की बधाई दी।
पिताजी ने औपचारिकतावश उनसे पूछा- 'और बताइये रावत जी! कैसे चल रहा है आपका विद्यालय?'
'विद्यालय तो आपकी कृपा से ठीक ठाक ही चल रहा है, किंतु...।' प्रधानाध्यापक जी ने बात अधूरी छोड़ दी।
'किंतु क्या?' कोई परेशानी है तो बताइये?' पिताजी ने पूछा
'नहीं परेशानी तो कुछ नहीं।' प्रधानाध्यापक झिझकते हुए बोले- 'बस जरा आशीष के बारे में बात करनी थी।'
'आशीष के बारे में?' चौंके पिताजी- 'क्या बात करनी है उसके बारे में?'
'जी वो क्या है कि वह पढ़ाई में बहुत पिछड़ गया है। इस वार्षिक परीक्षा में छः में से चार विषय में बुरी तरह फेल है। आपकी प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए मैंने उसे किसी तरह से पास कर दिया है कक्षा पाँच में, किंतु अब बड़े स्कूल में जायेगा तो...।' प्रधानाध्यापक जी ने पूरी बात बताई।
सुनकर पिताजी के पैरों तले जमीन खिसक गयी। शायद पहली बार उन्होंने मेरी पढ़ाई के बारे में सोचा होगा। तो क्या यह स्कूल में पढ़ता नहीं है?' उन्होंने प्रधानाध्यापक जी से पूछा।
'स्कूल में तो पढ़ता है, हम भी जितना हो सकता है उससे मेहनत करवाते हैं, किंतु स्कूल के अतिरिक्त घर पर भी तो बच्चे को मेहनत करनी पड़ती है जिसमें माता पिता को अपना कुछ समय देना पड़ता है।' प्रधानाध्यापक जी ने समझाया। जो कोई उत्तर देते नहीं बना था पिताजी से। उन्हें शायद पहली बार अहसास हुआ था कि बच्चों को माता-पिता का समय और निर्देशन भी अवश्य चाहिए। काफी देर खामोशी छाई रही। आशीष दरवाजे की ओट से सब कुछ सुन रहा था। पिताजी के चेहरे पर गुस्से के भाव उसने साफ पढ़ लिए थे और उसे लगा था कि प्रधानाध्यापक के जाने के बाद आज पिताजी का डंडा उस पर बरसकर ही रहेगा। सोचकर ही उसकी रूह काँप उठी।
'तो क्या करना है?' कुछ देर की खामोशी के बाद असहाय होकर पूछा था पिताजी ने।
'देखिये प्रमुख जी! भगवान की कृपा से आपके पास मान-सम्मान और धन दौलत की कोई कमी नहीं है। एक ही बेटा है आपका। मैं तो सिर्फ यही चाहता हूँ कि उसकी ओर थोड़ा सा भी ध्यान देगें, तो पढ़ लिख कर वह आपकी इज्जत ही बढ़ायेगा।' प्रधानाध्यापक जी ने सपाट शब्दों में बोल दिया था।
पिताजी फिर मौन हो गये। इसी बीच प्रधानाध्यापक जी ने जाने की इजाजत ली, तो पिताजी कुछ दूर तक उन्हें छोड़ने भी गये।
पिताजी के डर से आशीष गौशाला में छुप गया। एक कोने में गाय के कीले के पीछे वह चुपचाप बैठा रहा। रात भर गाँव के लोग उसे जंगल में तलाशते रहे। दिन भर से भूखा प्यासा होने के कारण न जाने उसे कब नींद आ गयी। सुबह देखा तो गाय उसका चेहरा चाट रही थी। शायद स्नेह करने का उसका अपना तरीका था यह।
पहली बार उसे लगा कि मनुष्यों से ज्यादा संवेदनशील तो जानवर होते हैं। 'पिताजी ने इतने बरसों में कभी भूल से भी मेरे सिर पर प्यार का हाथ नहीं फेरा और एक यह गाय है जो मेरी भावनायें समझते हुए मुझे दुलार रही है।' आशीष यह सोच ही रहा था कि दीदी 'अड्या' खोलने पहुँच गयी। उसने आशीष को वहाँ दुबके देखा, तो उसे सीने से लगा लिया और गोद में उठाकर उसे घर ले गयी।
उसे देखकर पिताजी आग बबूला हो गये- 'कहाँ था यह हरामजादा रात भर?'
वे आशीष की ओर लपके किंतु दीदी उसकी ढाल बन गयी- 'पिताजी, मारना मत इसे वरना...'
दीदी की बात सुन कर तो पिताजी और उत्तेजित हो गये- 'वरना? वरना तू क्या करेगी?' 'जान खो दूँगी अपनी।' दीदी ने भी उसी उग्रता से पलटकर जबाब देते हुए कहा।
पहली बार अपनी दीदी को इतना उग्र देखा था आशीष ने। सदा सौम्य सुशील और चुपचाप अपना काम करने वाली दीदी का यह रूप देखकर उसे कुछ हिम्मत बँधी। दीदी का जबाव सुनकर पिताजी की भावमुद्रा एकाएक बदल गयी। ऐसा लगा मानो दूध में आया उबाल एकाएक समाप्त हो गया हो। वे बिना कुछ बोले अपने कमरे में चले गये।
अगले दिन सुबह ही पिताजी ने एक बक्से में आशीष के सारे कपड़े बंद किये और दीदी से उसे तैयार करने को कहा। उसे कुछ पता नहीं था कि क्या होने जा रहा है? या पिताजी उसे लेकर कहाँ जा रहे हैं? दीदी ने उसका हाथ मुँह धोकर कपड़े पहनाये और चुपचाप चौक के कोने में खड़ी हो गयी। पिताजी आशीष का हाथ पकड़कर आगे आगे चलते गये और पीछे से वृद्ध चाचा बक्सा लेकर चलने लगा।
उसने पलटकर दीदी की ओर देखा, दीदी की आँखों से आँसुओं की धार बह निकली थी। डर के मारे वह चुपचाप पिताजी के साथ चलता गया। खांकरा से बस पकड़कर उसी दिन वे लैन्सडौन पहुँच गये।
जब आशीष दसवीं में था, तभी पिताजी ने दीदी की शादी तय कर दी। अच्छा घर मिला था दीदी को। जीजा जी खिर्रा के पास ही हाईस्कूल में मास्टर थे। दीदी उन्हीं के साथ रहने लगी। दीदी की शादी के बाद जब आशीष घर जाता, तो दीदी के बिना घर में पसरे सन्नाटे को भांपते ही बेचैन हो जाता। माँ के असामयिक निधन के बाद दीदी ने ही तो उसके सुख दुख का खयाल रखते हुए कभी माँ की कमी महसूस नहीं होने दी थी अन्यथा पिताजी से तो इसकी सिर्फ मतलब की ही बात होती थी।
कुछ समय बाद ही पता चला कि पिताजी ने दूसरी शादी कर ली है। कोई विधवा औरत थी वह। बहुत दूर इलाके से लेकर आये थे वे उसे। तब से एक बरस से अधिक हो गया, लेकिन आशीष गाँव नहीं गया।
इण्टर करने के बाद उसने यहाँ बी.एस.सी. में दाखिला ले लिया है। पिताजी हर महीने खर्चा भेजते जाते हैं और वह उसे खर्च किये जाता है, बस यही रिश्ता शेष रह गया है अब, पिता और पुत्र के दोनों के बीच।
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आशीष ने अपनी कहानी खत्म की, तो दीपक की आँखे सजल हो गयीं। सचमुच कितनी दर्द भरी कहानी है बेचारे की! माँ का प्यार नहीं मिला अलग बात है, लेकिन खेलने कूदने की उम्र में भी उसे घर से बाहर रहना पड़ा।
दीपक सोचने लगा, आशीष को माँ का प्यार नहीं मिला और दीपक को पिता का प्यार नहीं मिला, लेकिन दोनों की परिस्थितियों में बहुत अन्तर है। दीपक के पिता भले ही न रहे हों, लेकिन माँ ने उसे पिता का भी पूरा प्यार दिया है। कभी कुछ कमी नहीं होने दी है उसे। यह अलग बात है कि पैसे की कमी जरूर उसके हमेशा आड़े आती रही, लेकिन तब भी माँ ने कुछ न कुछ व्यवस्था करके उसे इस कमी का कभी भी अहसास नहीं होने दिया।
दूसरी ओर आशीष को बचपन से ही पैसे की तो कोई कमी नहीं रही, किंतु उसे जिस चीज की आवश्यकता थी, वह कभी नसीब नहीं हो पाई। दीपक को पहली बार लगा कि व्यक्ति के जीवन में माँ का स्थान कितना महत्त्वपूर्ण होता है और माँ के प्यार की कीमत कभी रुपये पैसे से नहीं आंकी जा सकती है।
इस एक महीने में उसने आशीष को बहुत नजदीक से देखा, परखा और उसके स्वभाव की असामान्यताओं का विश्लेषण करने की भी कोशिश की थी, लेकिन कुछ समझ नहीं पाया था वह।
आज उसकी समझ में सब कुछ आ गया पूरी तरह। शुरू शुरू के दिनों में तो उसे लगा था कि उसको गलत रूम-पार्टनर मिल गया। आशीष को पढ़ाई में खास रुचि नहीं थी। वक्त काटना ही सिर्फ उसका उद्देश्य लगता था। किंतु दीपक...। दीपक तो यहाँ पढ़ने आया था। उसे अपनी माँ के अरमान पूरे करने थे। माँ के सपनों के साथ ही उसे पूरा करना था दबे, कुचले और अशिक्षित समाज को जागृत करने का अपना प्रण।
किंतु यदि आशीष जैसे बड़े बाप के उदण्ड, खर्चीले और अकड़ेल बेटे के साथ वह इस कमरे में रहा, तो उसकी पढ़ाई भी चौपट हो जायेगी। बर्बाद हो जायेगा वह तो। कई बार तो उसने निश्चय भी किया कि वह हॉस्टल वार्डन से कहकर अपना कमरा बदलवा ले किंतु फिर आशीष के बारे में सोचता कि आखिर वह इतना बुरा भी तो नहीं है! आर्थिक रूप से उसने कई बार दीपक की मदद भी की है, यहाँ तक कि उसकी कापी किताबों के पैसे भी उसने जबरन खुद ही अदा कर दिये।
उसने निश्चय किया कि दो एक महीने आशीष के साथ रहकर देखा जाये कि कैसे चलता है? यदि इस बीच कोई समस्या हुई, तो फिर वह कमरा बदलने के विषय में सोच लेगा।
परंतु आज उसने अपना निर्णय बदल दिया। उसने सोच लिया कि वह आशीष का साथ कभी नहीं छोड़ेगा, बल्कि प्रयत्न करके उसे किसी भी तरह रास्ते पर लायेगा और जीवन के प्रति उसमें उमंग पैदा करेगा।
उसे आज आशीष से बहुत हमदर्दी हो गयी थी। सच पूछो तो आज उस पर दीपक को बहुत प्यार भी हो आया था। सचमुच! दया और हमदर्दी का पात्र तो था ही आशीष।
चलो, अपना अपना नसीब होता है। हर एक इन्सान को कुछ न कुछ दुख दर्द तो होता है ही। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है इस संसार में, जो पूर्णरूपेण सुखी हो। इसी दुख सुख के बीच हर आदमी तब भी जी रहा है, संघर्ष कर रहा है। सभी को मन के भावों को अंदर छिपाए, मुखौटा लगा कर समाज में स्वयं को प्रस्तुत करना होता है।
आशीष की कहानी समाप्त होने के बाद सन्नाटा पसर गया था कमरे में। सन्नाटा ऐसा कि एक सुई भी फर्श पर गिरे तो उसकी आवाज भी साफ सुनाई दे। दीपक न जाने विचारों में कहाँ से कहाँ भटक गया था। पलकें भीगी हुई थीं उसकी, आँखें शून्य में स्थिर।
झकझोरा उसे आशीष ने तो चौंक उठा दीपक। और फिर गालों पर लुढ़क आयी आँसुओं की बूंदों को हथेली से पोंछकर कुछ सामान्य होने की असफल कोशिश की उसने। 'कहाँ खो गया मेरे यार दीपक?' टोकते हुए पूछा आशीष ने। 'तेरी सूरत देखकर तो ऐसा लगता है जैसे मुझ पर नहीं, बल्कि तुझ पर ही गुजरा हो यह सब।'
'सचमुच यार, बहुत दर्द पाये हैं तूने इस छोटी सी उम्र में।' भावुक होकर दीपक बोला।
'पर यार, तू क्यों टेंशन पाल रहा है?, अपना तो ऐसा ही है। कुछ कट गयी है, बाकी भी कट जायेगी' बनावटी लापरवाही दिखाते हुए आशीष बोला।
किंतु भाँप गया था दीपक उसके बनावटीपन को। उसके अंदर छुपे दुख दर्द तक पहुँच गया था वह। 'नहीं आशीष! ऐसा नहीं है मेरे दोस्त' दीपक ने उसे हौसला दिया-'सब ठीक हो जायेगा। तुझे पढ़ना है, कुछ करना है। अपने लिए और अपने परिवार की प्रतिष्ठा के लिए।
'किस परिवार की प्रतिष्ठा के लिए?' उदास स्वर में बोला आशीष- 'बेरुख पिता और सौतेली माँ के लिए?'
'अपने पूर्वजों की प्रतिष्ठा के लिए, समाज के लिए और गाँव के लिए। अपने लिए न सही, अपने जैसे बच्चों के लिए तुझे कुछ करना होगा। ऐसा कुछ ताकि किसी और आशीष का जीवन भविष्य में खराब न हो', दीपक ने उसके जख्मों पर भावों का मरहम लगाने की कोशिश करते हुए कहा।
यह सब सुनकर गंभीर हो गया आशीष। अपनी बात का असर आशीष पर होता देख दीपक ने उसे और प्रेरित किया-'आशीष! क्या तू चाहता है कि समाज में तेरे जैसे बच्चों को भी बचपन में ही दुख दर्द का सामना करना पड़े? उन्हें भी कम उम्र में वह सब झेलना पड़े, जिसे तू झेल चुका है? नहीं न! तो फिर निश्चय कर मेरे दोस्त! कि तू पढ़ेगा और कुछ करेगा। अपना लक्ष्य तय करना होगा तुम्हें, आज ही।'
दीपक की बातों ने बिजली के करेंट जैसा प्रभाव डाला आशीष के दिलो-दिमाग पर। आशीष की आँखों में एक चमक उभर आयी थी। एक ऐसी चमक जिसमें कुछ जिज्ञासा थी, प्रबल जिजीविषा थी और था एक दृढ़ निश्चय।
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बीरा के मन मस्तिष्क में अनेक आशंकायें तैर रहीं थीं। आज ठीक दो महीने हो गये हैं दीपक को श्रीनगर गये हुए, तब से उसकी एक ही चिट्ठी आयी, जिसका तुरन्त जवाब लिखवा दिया था श्यामा काकी ने। जवाब दिये हुए भी बीस पच्चीस दिन से अधिक हो गये, परंतु दूसरी चिट्ठी अब तक नहीं आयी थी।
चिट्ठी में उसने बीरा के लिए कुछ नहीं लिखा था। कुछ लिखना तो दूर रहा, उसका नाम तक किसी कोने में नजर नहीं आया था उसे दीपक की चिट्ठी में। कई बार उलट पलट कर पत्र पढ़ दिया था उसने इसी उधेड़बुन में।
जब श्यामा काकी ने उससे दीपक के लिए चिट्ठी लिखवाई थी, तो उसने भी गुस्से में अपनी तरफ से दीपक को कुछ नहीं लिखा था। मन के किसी कोने में बहुत नाराजगी थी दीपक के इस उदासीन व्यवहार के प्रति। आखिर वह चिट्ठी के एक कोने में सिर्फ यही लिख देता कि बीरा को याद करना तो उसका क्या बिगड़ जाता?
लेकिन आज वह दीपक के पत्र की प्रतीक्षा क्यों कर रही है? उसे खुद समझ में नहीं आ रहा था। विचारों का झंझावात उसके दिलो-दिमाग में चल रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि दीपक उसे भूल गया हो। शहरी चमक दमक और वहाँ भौंरों की तरह मंडराती लड़कियों के आकर्षण ने बीरा को उसके मस्तिष्क के किसी अन्धेरे कोने में डाल दिया हो।
मन को तसल्ली देती हुई फिर वह सोचती, 'नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। उसकी कुछ लाचारी रही होगी। लाचारी कैसी? चिट्ठी में बीरा के लिए कुछ लिखने में कैसी लाचारी? वह भी तब, जब उसे मालूम है कि माँ को चिट्ठी पढ़कर बीरा ही सुनायेगी और चिट्ठी का जबाब भी बीरा ही लिखेगी।
चलो कोई बात नहीं, वह भी तब तक अपनी तरफ से दीपक को कुछ नहीं लिखेगी, जब तक वह उसके लिए कुछ नहीं लिखेगा।'
विचारों की तंद्रा में डूबी बीरा न जाने कब गौशाला में पहुँच गयी। सिर पर रखे भारी भरकम घास के गट्ठर के बोझ का उसे कुछ अहसास ही नहीं हुआ। घास का गट्ठर जमीन पर पटक कर उसने एक गहरी साँस ली और चेहरे पर आयी पसीने की बूंदों को चुन्नी के पल्लू से साफ किया।
साँझ ढल आयी थी। आकाश में डूबते सूर्य की लालिमाँ अपने चरम पर थी। यह वही समय है जब पहाड़ी गाँवों में सबसे अधिक सक्रियता, उत्साह और कोलाहल रहता है। यह समय पहाड़वासियों की सारी थकान को दूर कर देता है। उगते और डूबते सूर्य की लालिमा प्रत्येक व्यक्ति में नयी स्फूर्ति का संचार कर देती है।
स्फूर्ति से भरी बीरा भी घर पहुँची। अभी उसे धारे से एक गागर पानी भी लाना है। गाय दुहनी है और गौशाला बंद करके ही घर पहुँचना है।
चौक में पहुँचते ही उसकी नजर 'तिबार' में बैठे कुछ लोगों पर पड़ी। मामा के अतिरिक्त दो मेहमान बैठे थे वहाँ। इससे पहले कि वह उनके बारे में मामी से कुछ पूछती, मामी खुद ही उसके पास आकर बोली-'बीरा जल्दी से कपड़े बदल, कुछ मेहमान आये हैं।
अचकचा गयी बीरा, आश्चर्य से मामी से पूछा- 'मामी जी! मेहमानों को मेरे कपड़ों से क्या मतलब?'
'अरे पगली, इतनी बड़ी हो गयी परंतु अभी तक अक्ल नहीं आयी तुझे।' मामी ने जैसे पहेली बूझी।
'क्या मतलब?' अभी भी नहीं समझी थी बीरा।
मामी ने हल्की सी चपत उसके गालों पर मारते हुए कहा-'बेटी! तेरे लिए ही तो आये हैं।' और सुनकर कुछ देर के लिए जैसे सुन्न हो गयी बीरा। उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मामी सच कह रही है। लेकिन दो मेहमान मामा जी के साथ ऊपर बैठे हुए थे, यह उसने अपनी आँखों से देख लिया था।
मामी रसोई में चली गयी और बीरा मामी की बात सुन यंत्रवत खड़ी सी रह गयी। फिर उसने ऊपर बैठे लोगों की बातों पर ध्यान देना शुरू किया।
'जन्मपत्री ठीक मिल गयी है। अब आप दोनों जजमान लोग आपस में बात कर लो तो ठीक रहेगा', उनमें से एक आदमी का स्वर सुनाई दिया। बोलने वाला शायद पण्डित होगा, बातें सुनकर अनुमान लगाया उसने।
'बारहवीं पास है हमारा राजू, दिल्ली में नौकरी कर रहा है। इकलौता बेटा है और घर में भी कोई कमी नहीं है। हमारी तरफ से हाँ है, तो क्या हम आपकी तरफ से भी हाँ समझें?' दूसरा स्वर शायद लड़के के पिता का था।
'ठाकुर साहब! मेरी तरफ से तो हाँ है, फिर भी एक बार मैं बीरा और उसकी मामी से भी पूछ लेता हूँ', अबकी बार मामा जी बोले थे 'जमाना बदल गया है, जिन्हें साथ-साथ जिंदगी गुजारनी है उन्हें पूछना भी जरूरी है।'
'जैसा आप ठीक समझें। संस्कारी बच्चे हैं माँ बाप का कहना टालेंगे नहीं' लड़के के पिता बोलते गये। 'आप लड़के के बारे में बतायेंगे तो वे लोग भी मना नहीं करेंगे। बारहवीं पास है राजू। प्राइवेट कम्पनी में नौकरी है। घर में भी अच्छी जमीन जायजाद और अपना बड़ा मकान है। राज करेगी आपकी बेटी वहाँ पर।'
'हमारी बीरा भी लाखों में एक है, दसवीं पास कर चुकी है और इण्टर के लिए प्राईवेट फॉर्म भर दिया है। घर-बाहर के सारे कामों में अपनी मामी का हाथ बँटाती है। इतनी बड़ी खेती है, उसी के दम पर सम्भाल रखी है हमने' मामा जी बोले।
इससे पहले बीरा कुछ और बातचीत सुन पाती, मामी हुक्का भरकर बीरा को देखकर बोली, 'अरी, तुझे क्या हुआ?, क्या सुन रही है खड़ी-खड़ी? जल्दी जाकर पहले कपड़े तो बदल ले, फिर चाहे तो ससुर के सामने ही बैठ जाना' इतना कह मामी मुस्करा कर हुक्का लिए ऊपर तिबार में चली गयी।
मामी की बात रखते हुए मन मसोसकर बीरा अंदर गयी और जल्दी से कपड़े बदल लिए। तभी ऊपर से मामा जी की आवाज सुनाई दी-'बीरा! बेटी खाना लगाओ।'
वह रसोई में आयी। खाना मामी बना चुकी थी। किसी अनजानी आशंका से बीरा का दिल धड़क रहा था। उसे लगा मानो कोई उसके शरीर से जान निकाल रहा हो। चेहरा पीला पड़ गया उसका। चुपचाप खड़ी होकर खाने के बर्तनों को निहार रही थी वह।
मामी रसोई में आयी और उसकी हालत समझ कर प्यार से बोली-'अरे तू घबरा क्यों रही है? हमारी चाँद सी बेटी को कोई मना कर सकता है क्या?' जा तू पानी रख कर आ, खाना मैं लेकर आऊँगी।
मामी के स्नेह से उसकी आँखें भर आयीं। मामी को क्या मालूम कि उसके दिल में क्या चल रहा है।
सिर को चुनरी से ढककर वह ऊपर पानी रख आयी। परम्परानुसार दोनों अतिथियों के पैर छूकर वह सीढ़ियाँ उतरने लगी।
'क्यों ठाकुर साहब, बेटी पंसद आयी हमारी?' मामा जी पूछ रहे थे।
'अजी साहब! हमारी तरफ से तो एकदम हाँ है, बस एक बार जरा राजू को भी पूछ लें, वैसे हमारे सामने उसकी हिम्मत नहीं है कुछ कहने की। कान पकड़कर लाऊँगा यहाँ, आपकी बेटी को देखकर ना नहीं कर पायेगा।'
फिर तीनों जोरदार ठहाका लगाते हुए हुक्का गुड़गुड़ाने लगे।
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श्रीनगर आने के बाद दो माह में पहली बार घर जा रहा था दीपक। सिर्फ तीन दिन की छुट्टी थी कॉलेज की। उसे माँ की बहुत याद आ रही थी। सिर्फ माँ की ही नहीं, बीरा की भी उसे बहुत याद आ रही थी। जब से माँ की चिट्ठी मिली, उसमें बीरा की तरफ से अपने लिए कुछ न लिखा देखकर वह व्यग्र हो उठा था। तुरन्त समझ नहीं पाया कि बीरा क्यों नाराज है। फिर उसे अपनी गलती का अहसास हो आया कि उसने भी तो चिट्ठी में बीरा के लिए कुछ नहीं लिखा था। शायद इसीलिए बीरा नाराज हो गयी होगी।
'चलो कोई बात नहीं, आज रात की ही तो बात है। कल शाम तक तक वह गाँव पहुँच ही जायेगा और मना लेगा बीरा को। वैसे भी उसका दिल बहुत कोमल है, मन में कोई भी बात नहीं रख पाती।
दीपक ने कुछ किताबें और दो जोड़ी कपड़े बैग में रख दिये। घर जाने की तैयारी करते हुए आशीष उसे चुपचाप देखता रहा। घर जाने के लिए उसके उत्साह को देखकर आशीष सोच रहा था कितना खुशनसीब है दीपक! अपने घर के प्रति कितना लगाव है उसे। दूसरी तरफ वह है, जिसे आज तक अपने घर के प्रति कभी लगाव का आभास ही नहीं हुआ। होता भी कैसे? घर जैसा माहौल तो उसमें कभी रहा ही नहीं। फिर भी यदा कदा वह अपने घर जाता ही रहा है। वहाँ तो वह दीदी के पास ही जाता रहा है। फिर भी दीदी के कहने पर जब-जब भी वह घर गया, दो तीन दिन से ज्यादा कभी रुक नहीं पाया।
दीदी के रहने तक भी बात कुछ और थी। अब तो घर में सौतेली माँ भी आ गयी है। सोचकर नफरत से मन कड़वा हो गया उसका। सुना है सौतेली माँ बहुत खराब होती हैं। सुना ही नहीं किस्से कहानियों में उसने पढ़ा भी है कि सौतेली माँ ने अक्सर अपने सौतेले बच्चों को जहर देकर मार दिया।
उसे नफरत सी हो गयी अपनी सौतेली माँ से। अब तक वह उसे देख भी नहीं पाया था, किंतु उसके मन में सौतेली माँ की जो प्रतिमूर्ति बनी थी, वह बड़ी भयानक थी। काश! उसकी भी अपनी माँ जिन्दा होती, तो दीपक की तरह कितना उत्साह होता उसे अपने घर जाने के लिए।
आशीष को खोया हुआ देखकर दीपक बोला, 'क्या सोच रहे हो दोस्त?
'सोच रहा हूँ कि मेरी भी माँ होती तो मैं भी कितना खुश होता घर जाना लिए।' आशीष ने आहत स्वर में कहा,
'चल यार, तू भी मेरे साथ चल हमारे गाँव, वहाँ तुझे बहुत अच्छा लगेगा। मेरी माँ बहुत अच्छी है, तुझे बहुत प्यार करेगी', दीपक ने उसे दुःखी देखकर कहा।
'नहीं दीपक, इस बार नहीं।' बोला आशीष। 'जब लम्बी छुट्टी होगी, तब जरूर चलूँगा। अगर दो चार दिन तुम्हारे इलाके में नहीं घूमूं, तो फिर फायदा ही क्या?' आशीष ने कहा।
'हाँ! कहता तो तू ठीक ही है। चल ऐसा करेगें, दशहरे की छुट्टियों का कार्यक्रम रखते हैं।' दीपक बोला। 'ठीक है, डन, हो गया। आज से एक महीने बाद ही तो दशहरा आने वाला है'। आशीष उत्साहित होकर बोला 'ठीक है, पूरी छुट्टियाँ गाँव में ही कटेंगी।' दीपक ने भी खुश होकर कहा, 'पर यार तू यहाँ करेगा क्या अकेला तीन दिन तक?'
'अकेला कहाँ हूँ? सारे लड़के तो हैं यहाँ पर'। आशीष ने कहा, 'फिर भी तू जरूर आ जाना रविवार तक। ऐसा न हो कि वहीं मस्त हो जाये।
'अरे नहीं यार! मैं जरूर आ जाउंगा। फिर मुझे पढ़ाई की चिन्ता भी तो है और पढाई से ज्यादा चिन्ता मुझे तेरी है'। दीपक ने अन्तिम वाक्य कुछ इस अन्दाज में कहा कि दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े।
फिर दोनों रजाई के अंदर घुस गये। आशीष ने लाइट बंद कर दी और कुछ देर बाद ही वह खर्राटें लेकर सोने लगा।
दीपक की आँखों से नींद कोसों मील दूर थी। बीरा से मिलने की कल्पना मात्र से ही उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा था। एक माह के बाद मिलेगा बीरा से वह। न जाने कैसी हो गयी होगी बीरा इस एक महीने में?
जब से वह श्रीनगर आया, तब से एक भी दिन वह बीरा को भुला नहीं पाया। हर रोज उसे बीरा की याद जरूर आयी। यहाँ आकर ही उसे महसूस हुआ कि वह बीरा को कितना चाहता है।
लेकिन यह कैसी चाहत है? कुछ समझ नहीं पा रहा था दीपक। आज तक तो उसे इस प्रकार का अहसास कभी हुआ नहीं था।
बचपन से आज तक वह बीरा के साथ खेला कूदा, हँसी मजाक करता रहा। कभी कभार दोनों में झगड़ा भी हो जाता था। एक सामान्य दोस्त की तरह उसने बीरा को देखा था हमेशा। अब न जाने क्यों वह बीरा के बारे में इतना सोचने लगा?
बीरा की बातें और उसका चेहरा मोहरा बार-बार क्यों उसकी आँखों में नाचने लगा है? आज तक उसने कभी भी गंभीरता से बीरा के बारे में नहीं सोचा था, लेकिन अब...।
अब बीरा के प्रति उसकी सोच का दृष्टिकोण भी बदल सा गया है। ऐसा क्यों हो रहा है, उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
क्या उसे बीरा से प्यार हो गया है? प्यार? हाँ-हाँ शायद ऐसा ही होता होगा प्यार। कितनी अजीब अनुभूति है, कितनी कसक है। तो मतलब यह है कि वह बीरा से प्यार करने लगा है, किंतु बीरा?'
क्या बीरा भी उसके बारे में ऐसा ही सोचती होगी? क्या उसको भी मेरी याद आती होगी? जरूर आती होगी। या नहीं भी आती होगी। यह तो वही जाने, परंतु क्या बीरा भी उससे प्यार करती होगी? क्या मालूम उसके दिल में क्या है?
आज तक तो ऐसा कभी महसूस नहीं किया था उसने। अब इस छोटी सी अवधि के दौरान ही वह बीरा के बारे में ज्यादा संजीदा होने लगा है। शायद लोग ठीक ही कहते हैं कि बिछुड़ने के बाद प्यार और प्यार का अहसास ज्यादा ही बढ़ता है।
यदि यही हालत बीरा की भी हुई होती, तो उसने चिट्ठी में लिखा क्यों नहीं। नहीं-नहीं चिट्ठी में क्यों लिखती वह! कौन सा मैंने उसे कुछ लिखा था। फिर वह तो लड़की है, कैसे लिख देगी यह सब?
लेकिन यह तो सच है कि उसे बीरा से प्यार हो गया है। कल वह घर जाकर सबसे पहले बीरा को ही मिलेगा। उसे अपने दिल की हालत बतायेगा और फिर इजहार कर देगा अपने प्यार का।
इजहार करना क्या ठीक रहेगा? 'और यदि बीरा उससे प्यार न करती हो तो...। तो उसको बहुत बुरा महसूस होगा। हाँ पहले उसके दिल की बात जान लेना जरूरी है। कहीं मेरा प्यार इकतरफा तो नहीं है?'
फिर भी वह इजहार करेगा और जरूर करेगा। इससे पता चल जायेगा कि बीरा उसके बारे में क्या सोचती है। वह कल ही उससे कहेगा-'बीरा! मैं तुमसे प्यार करता हूँ...बहुत प्यार।
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'बीरा की मामी! बहुत अच्छा रिश्ता मिला है अपनी बीरा के लिए। अच्छे खानदानी लोग हैं। लड़का दिल्ली में नौकरी पर है, साथ ही पढ़ा लिखा भी है। तुम एक बार बीरा से पूछ लो। तुम्हीं तो उसकी माँ हो। उससे पूछे बिना हम हाँ नहीं करेंगे। उसके सिवा हमारा है भी कौन?' मामा जी मामी से फुसफुसा कर बात कर रहे थे और उनके चेहरे पर प्रसन्नता साफ झलक रही थी।
मामी भी ठीक उसी तरह फुसफुसा कर बोली- वैसे तो बीरा हमारे खिलाफ नहीं जायेगी, वह समझदार हो गयी है और यह भी जानती है कि हम उसका बुरा नहीं करेंगे, फिर भी तुम कहते हो तो पूछ लेती हूँ उससे।'
मेहमानों के सोने की व्यवस्था करके मामा अपने कमरे में आकर मामी से विचार विमर्श कर रहे थे। उन्हें संतोष था कि बीरा के लिए पहली बार में ही बहुत अच्छा रिश्ता मिल गया था।
मामी कमरे से निकल कर बीरा के दरवाजे पर पहुंची। दरवाजा भिड़ा हुआ तो था, किंतु कुंडी नहीं लगी थी। मामी ने सोचा शायद बीरा पढ़ रही होगी। वैसे भी रात को खाना खाने के बाद दो घण्टे रोज पढ़ना उसकी आदत में शामिल था।
मामी धीरे से दरवाजा खोलकर बीरा के पास पहुँच गयी। किंतु यह क्या? बीरा चारपाई पर किताब खोलकर बैठी हुई तो थी, किंतु उसकी नजरें किताब पर न होकर सामने की दीवार पर स्थिर थीं।
मामी कमरे में कब आयी, उसे अब तक पता ही न चला था। वह दीवार को एकटक ऐसे निहार रही थी, मानो पलकें झपकाना भी भूल गयी हो।
'बीरा! बेटी कहाँ खो गयी है तू?' मामी ने उसे झकझोरा तो चौंक गयी बीरा।
सावधान होकर ऐसे बैठ गयी, मानो उसकी चोरी पकड़ी गयी हो। 'क्या सोच रही थी बेटी?' मामी ने दुलार से उसके सिर पर हाथ फेरा तो आँखें भर आयीं बीरा की।
'मामी जी! क्या मैं आप पर बोझ बन गयी हूँ जो मुझे घर से निकालने की सोच रहे हो? अभी तो मुझे अपने पैरों पर खड़ा होना है।'
'बीरा! मेरी बच्ची। लड़कियाँ कहाँ हमेशा अपने घर पर रहती हैं। हम भी तो कन्या दान करके अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं। फिर अच्छा घर-बार है। लड़का अच्छा है। ऐसे रिश्ते बार-बार थोड़े ही आते हैं।' मामी ने उसे समझाया।
'मामी जी, मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहती, मुझे नहीं करनी शादी-वादी' आँसुओं से भरे चेहरे को उठाकर बोली बीरा।
मामी ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया।
'नहीं मेरी बेटी! ऐसी अपशगुन भरी बातें नहीं करते। बेटी तो पराया धन होती है, उसे एक न एक दिन तो घर छोड़कर जाना ही पड़ता है। मामी ने उसके गालों पर गिरते आँसुओं की बूंदों को अपनी धोती के पल्लू से पोंछते हुए कहा।
मामी की स्नेह भरी बातें सुनकर पिघल गयी बीरा। परंतु वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करें। कैसे मामी से अपने दिल की बात कहे? मामी उसकी मनोदशा भाँपने का प्रयास कर रही थी, उसको फिर उकसा कर बोली 'बेटी, तू ही तो हम दोनों की आँखों की रोशनी है, तेरे अलावा हमारा कोई नहीं है। यदि तू खुश नहीं रह पायेगी, तो हमारी खुशी के कुछ मायने ही नहीं हैं।
बीरा की कुछ हिम्मत बँध गयी।
'मामी जी, क्या मैं इसी गाँव में नहीं रह सकती हमेशा के लिए? अपने दिल की बात को वह होंठों पर ले आयी।
'तेरा मतलब है हम घर जवाँई रख लें?' मामी उसकी बात का अर्थ निकालकर बोली- 'नहीं बेटी, घर जॅवाई की कोई इज्जत नहीं होती। ऐसे में तू भी हमेशा दुखी रहेगी।
'नहीं मामी जी, मेरा मतलब यह नहीं था' बीरा ने और स्पष्ट किया 'मेरा मतलब यह है कि मैं इस गाँव में तो रह सकती हूँ न?'
चौंक गयी मामी। मतलब यह कि बीरा किसी और को चाहती है? लेकिन बाल सफेद हो गये हैं मामी के। आज तक वह इस बात को क्यों नहीं भाँप पाई?
'अरे हमारी बीरा के लायक इस गाँव में कौन सा लड़का है, जरा हमें भी तो बता?' मामी ने आश्चर्य से पूछा।।
'मामी जी। संकुचाते हुए बीरा बोली-'श्यामा काकी का बेटा दीपक।'
'दीपक?' चौंक कर पूछा मामी ने, 'लेकिन बेटी, वह तो अभी पढ़ रहा है, यह कैसे सम्भव है?
'मामी जी हम अभी रुक जायेंगे। इतनी जल्दी क्या है? मैं भी तब तक बारहवीं पास कर लूँगी और वह भी कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके कहीं न कहीं नौकरी पर लग जायेगा।' सपाट स्वर में बोल गयी बीरा।
'लेकिन बेटी हम ठहरे ठाकुर लोग और वे हैं ब्राह्मण। पहले तो दीपक की मां ही इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करेगी। वह तो तेरे हाथ का बना भात तक नहीं खायेगी। माना कि वह तैयार हो भी जाये, तो भी समाज कहाँ इस रिश्ते को स्वीकार कर पायेगा? तेरे मामाजी भी तो समाज से बाहर कभी नहीं जायेंगे।' मामी ने बीरा को समझाया।
बीरा की आँखों से आँसू झरने लगे। मायूस स्वर में बाली-'मामी जी, मुझे बचा लो। मैं दीपक के बिना नहीं रह सकती। आप मामाजी से बात करो।'
हतप्रभ सी रह गयी मामी। आज तक बीरा के दिल में पनपते प्यार को कतई महसूस नहीं कर पाई थी मामी। बीरा और दीपक का मिलना जुलना तो उसको अच्छी तरह मालूम था। दीपक की मदद से ही बीरा ने हाईस्कूल पास किया था। किंतु उन्हें नहीं मालूम था कि बीरा के दिल में दीपक के लिए प्यार का अंकुर फूट चुका है। आज जब मालूम पड़ा, तो चिन्तित हो गयी मामी। कहीं कोई ऊँच नीच तो नहीं कर बैठी बीरा?
झिझकते हुए उसने बीरा से पूछ ही लिया- 'बीरा, तुझसे कहीं कोई भूल तो नहीं हो गयी बेटी? दीपक और तेरा रिश्ता...।'
बीच में ही टोक दिया बीरा ने- 'नहीं मामी जी! तुम्हारी बेटी कभी कुछ गलत नहीं कर सकती और न ही दीपक ऐसा है। मैं तो उसे मन से चाहती हूँ बस।
मामी ने चैन की साँस ली। 'ठीक है बेटी! मैं तेरे मामा जी से बात करके देखती हूँ।'
मामी चली गयी, तो बीरा और अधिक बेचैन हो उठी। 'क्या कहेगें मामाजी, हाँ या ना? क्या बीरा के लिए वे समाज से टक्कर ले पायेंगे?'
कुछ सूझ नहीं रहा था बीरा को। सवाल एक दिन का नहीं, जिंदगी भर का था। आखिर उसने दीपक को प्यार किया है, वह कैसे उसके बिना रह पायेगी? किंतु दीपक ने तो आज तक उससे यह बात कभी कही ही नहीं। क्या दीपक भी उससे प्यार करता है? जरूर करता होगा। यदि नहीं करता, तो क्यों बार-बार उसको मिलकर कदम कदम पर उसकी हिम्मत बढ़ाता रहता। जिस दिन वह पहली बार श्रीनगर आगे की पढ़ाई के लिए जा रहा था, सचमुच कितना दुखी था उस दिन।
वह भी जरूर उससे प्यार करता होगा। यह बात अलग है कि वह अपने प्यार का इजहार नहीं कर पाया है आज तक।
सोचते सोचते रात काफी गहरा गयी। नींद उसकी आँखों से कोसों दूर जा चुकी थी। करवटें बदलते हुए उसने सोने की नाकाम कोशिश की, किंतु न चाहते हुए भी दीपक का चेहरा बार-बार उसकी आँखों के सामने आ जाता था।
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'तुमने बीरा से पूछ लिया?' मेहमानों को विदा करने के पश्चात मामा ने मामी से पूछा।
मामी ने कुछ संकुचाते हुए कहा- 'बीरा अभी शादी नहीं करना चाहती, बल्कि आगे पढ़ना चाहती है।'
'अरे कितना और पढ़ेगी अब?' मामा बोले- 'दसवीं पास तो कर लिया, फिर ज्यादा पढ़ेगी तो लड़का मिलना मुश्किल हो जायेगा। अच्छा खानदानी घर-वर मिल रहा है तो क्या मुश्किल है?'
मामी चुप रही। मामाजी ने पत्नी के चेहरे को पढ़ते हुए कहा- 'तुम शायद मुझसे कुछ छिपा रही हो।
'नहीं तो, ऐसी कोई बात नहीं है। वो तो बस बीरा...' मामी ऐसे नजरें चुराकर बोली मानों कोई चोरी पकड़ी गयी हो।
'हाँ...हाँ...बोलो!' मामा ने प्रोत्साहन देते हुए कहा।
'बीरा के मामा, हमारी बेटी खुश नहीं है इस रिश्ते से। वह वहाँ शादी नहीं करना चाहती' मामी ने कहा।
'वहाँ शादी नहीं करना चाहती का मतलब!' मामा ने कुछ कुछ बात समझते हुए पूछा-'तो फिर कहाँ करना चाहती है? उसे कोई लड़का पसन्द है क्या?'
'हाँ बस ऐसा ही समझ लीजिये' मामी ने थूक गटकते हुए कहा।
'कौन है वह?'
'दीपक।'
'दीपक! श्यामा का बेटा?'
'हाँ!' बड़ी मुश्किल से कह पाई थी मामी।
'क्या कह रही हो तुम? यह कैसे सम्भव हो सकता है, तुम्हें उसके पिता का चरित्र मालूम नहीं है क्या?'
मामाजी मानो आगबबूला हो उठे थे।
"लेकिन दीपक अच्छा लड़का है। मामी शान्त स्वर में बोली।
'अच्छा लड़का है नहीं, अच्छा लड़का लगता है। है तो उसी बाप का बेटा।
पिता के संस्कार कभी जाते नहीं हैं। कभी न कभी सिर उठा ही देते हैं।' मामाजी धारा प्रवाह बोलते चले गये- 'उसका पिता कच्ची शराब बना बनाकर पूरे इलाके में सप्लाई करवाता था। कई घर परिवार इसी के कारण बर्बाद हो गये थे और उसकी इस शराब के कारण। किंतु मरते दम तक उसने लोगों को शराब बनाकर परोसना बंद नहीं किया।
अपने जवान भाई की मौत मैं कैसे भूल सकता हूँ? मेरा भाई उसकी बनाई जहरीली शराब पीकर तड़फते हुए मर गया था। माना कि उसके पिता अब नहीं हैं और मैं पिछली बातें भूलकर इस रिश्ते के लिए हामी भर भी दूं, तब भी दूसरी जाति में विवाह भला कैसे हो सकता है? हमको इसी गाँव में और इसी समाज में रहना है, जो इस प्रकार के रिश्तों की कदापि इजाजत नहीं देगा।'
'देखिये, बीरा हमारी इकलौती बेटी है। गाँव समाज में कुछ दिन जरूर खुसर फुसर होगी, किंतु धीरे धीरे सब ठीक हो जायेगा। हमें कौन से आगे कोई रिश्तेदारी करनी है। दीपक की माँ से बात करके देखते हैं। बच्चे खुश रह सकें, इसी में हमारी खुशी है।' मामी ने अपनी बात तर्कपूर्ण ढंग से रखी।
'नहीं...नहीं। ये रिश्ता नहीं जुड़ सकता। बीरा को समझाओ कि शादी सिर्फ दो लोगों के बीच ही नहीं होती, बल्कि दो परिवारों के बीच भी होती है तथा मुझे राजू और राजू का परिवार बेहद पसन्द है, बस।' मामा जी अपना अन्तिम फैसला सुनाकर एक झटके में कमरे से बाहर चले गये।
बीरा दरवाजे की ओट से सब कुछ सुन रही थी। मामाजी के जाने के बाद मामी सामान्य बनने की कोशिश करती हुई अन्य कामों में जुट गयी। बीरा भी अनजान बनकर ऐसा अभिनय कर रही थी, मानो उसे कुछ भी मालूम ही नहीं।
मामी आखिर मामाजी के फैसले को कब तक बीरा से छिपाती। बात तो बीरा से करनी ही पड़ेगी। दोपहर का खाना खाने के बाद चौका बरतन आदि निपटा कर बीरा अपने कमरे में आराम करने चली आयी। कुछ देर बाद मामी भी बीरा के कमरे में आ गयी।
'बीरा बेटी! मैंने तेरे मामाजी से बात की थी।' मामी ने भूमिका बनाते हुए कहा-'वे तेरे और दीपक के रिश्ते के लिए तैयार नहीं हैं।'
बीरा चुप रही। उसे तो पहले से ही मालूम था कि मामी क्या कहेंगी। मामी ने आगे कहा-'देख बेटी! यदि दोनों परिवारों की नाराजगी मोल लेते हुए तुम लोग शादी कर भी लोगे, तो भी क्या खुश रह पाओगे? फिर सोच, तेरे मामा जी के दिल पर क्या गुजरेगी? क्या उनका मान सम्मान और प्रतिष्ठा तुम्हारे लिए कुछ नहीं है? एक बार ठंडे दिमाग से सोच बेटी। मैं तुझसे शाम को बात करूँगी।
मामी अपनी बात पूरी करके घास लेने जंगल चली गयी। बीरा को लगा जैसे किसी ने उसकी साँसे छीन ली हों। संयत स्वर में वह बोली-'ठीक है मामी जी।'
बीरा सोच रही थी 'कितनी अभागन है वह। बचपन में माँ-बाप का साया सिर से उठ गया। चाचा-चाची ने कितने कष्ट दिये। बड़ी मुश्किल से मामा-मामी ने उसे नरक से निकालकर नयी जिंदगी दी। इतना प्यार करते हैं मामाजी उससे, तो फिर उन्होंने मेरी यह छोटी सी खुशी क्यों नहीं देखी? क्यों एक झटके में मेरे सारे अरमानों पर पानी फेर दिया?'
किंतु दूसरे ही पल वह फिर सोचने लगी, 'नहीं-नहीं, मामा जी की जरूर कोई बहुत बड़ी मजबूरी होगी, जो उन्होंने इस रिश्ते के लिए मना कर दिया। वरना आज तक हर खुशी तो दी है उन्होंने मुझे। मामा जी नहीं होते तो आज भी मैं चाची के साथ उसी नरक में पड़ी होती। सचमुच माँ-बाप से भी बढ़कर प्यार दिया है मामा मामी ने उसे।
बीरा ने मन में सोचा-'फिर आज वह इतनी स्वार्थी क्यों हो गयी? उसे भी तो उनकी इच्छा का सम्मान करना चाहिए।' विचारों का तूफान चल रहा था उसके मन और मस्तिष्क में और अपने आप से सवाल जवाब किये जा रही थी बीरा।
'ठीक है मामाजी की भावनाओं की खातिर वह उस अनजान रिश्ते के लिए आज ही हामी भर देगी।
लेकिन दीपक!' उसके अर्न्तमन से आवाज आयी। उसने कितना विश्वास किया है तुझ पर। हमेशा सम्बल बनकर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है उसने तुझे। भूल सकेगी क्या तू उसे?'
'हाँ, उसे भूल जाना ही हितकर होगा। यदि मामा-मामी ने सहारा न दिया होता, तो दीपक भी कहाँ से उसकी मदद कर पाता? जिन लोगों ने उसे अपने बच्चे से अधिक प्यार और ममत्व दिया है, आज उनकी भावनाओं की अनदेखी कर, उनके अरमानों को कैसे ठोकर मार सकती है वह?
और दीपक को ठोकर मार देगी?' बीरा का अन्तर्मन चीख पड़ा-'सोच! तू कितना प्यार करती है दीपक को। दिल टूट जायेगा उसका, जब उसे पता चलेगा कि तेरी मँगनी कहीं और हो चुकी है।'
'लेकिन एक दीपक का दिल टूटने से बचाने के लिए मैं मामा-मामी का दिल नहीं तोड़ सकती। इतनी भी स्वार्थी नहीं हूँ मैं कि मात्र अपनी खुशी के लिए मामा-मामी की भावनाओं की कद्र न कर सकूँ।'
इन्हीं शंकाओं और समाधानों के बीच भटकता बीरा का अन्तर्मन चीत्कार करता रहा और अंत में मस्तिष्क के आगे लाचार हो गया। बीरा निश्चय कर चुकी थी कि उसे अब क्या करना है।
मन में दृढ संकल्प लेकर और इच्छा शक्ति को प्रबल बनाते हुए वह नीचे उतरी। लाल सुर्ख हो आयी आँखों पर उसने पानी के छींटे मारे और पानी की गागर उठा कर धारे की ओर चल दी। मामी उसे यह सब करते हुए चुपचाप देख रही थी।
उसके अंदर उठते तूफान को भांपकर मामी का दिल भी चीत्कार कर उठा। 'क्या कर सकती है वह अपनी बीरा के लिए? नाते, रिश्तेदारी, समाज और उसकी मान्यताओं के साथ-साथ मामा के निर्णय के आगे तो वह भी मजबूर थी।'
राजू के पिता और पंडित जी से मामा ने कुछ दिन बाद निर्णय से अवगत करवाने की बात कहकर उन्हें पहले ही विदा कर दिया था। अब तो बस उन्हें स्वयं बीरा के मुँह से इस रिश्ते के लिए हामी भरने की प्रतीक्षा मात्र थी।
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'अरे बीरा! इधर तो आ, कहाँ थी तू दो दिन से?' गागर लेकर पानी के धारे की ओर जाती बीरा पर नजर पड़ते ही श्यामा काकी जोर से चिल्लाई, तो बीरा मुस्कराते हुए उनके चौक में पहुँच गयीं
'प्रणाम चाची' बीरा बोली।
'सदा खुश रहो बेटी। तू कहाँ थी दो दिन से? सुना है तेरा रिश्ता लेकर दूर के गाँव से मेहमान आये थे? क्या हुआ वहाँ? ढेर सारे प्रश्न एक साथ किये काकी ने।
'अरे काकी! तुम तो साँस भी नहीं लेने दोगी। इतने सारे सवाल एक साथ पूछोगी तो जबाब कैसे दूँगी?' --बीरा ने आराम से मुंडेर पर बैठते हुए कहा-'दो तीन दिन से मैं घर पर ही हूँ। बीच में आपके घर भी आयी थी, किंतु आप घर पर नहीं थी।'
'अच्छा, चल बता तेरे रिश्ते का क्या हुआ? पसन्द आ गयी तू उन लोगों को? काकी ने सवाल किया और साथ ही अपने सवाल का उत्तर भी दे दिया-'कौन मूर्ख होगा जो तुझे पंसद नहीं करेगा?'
बीरा हँस दी। चाची ने फिर कुरेदा 'बागदान कब है?'
'मालूम नहीं। लजाकर बोली बीरा।
श्यामा काकी ने इस बारे में अधिक कुछ नहीं पूछा और विषय बदलते हुऐ बोली-'सुन बहुत दिन हो गये, दीपक की कोई खबर नहीं आयी। तू शाम को आकर एक चिट्ठी लिख देगी उसे?'
'जरूर लिख दूँगी काकी, लेकिन कल, क्योंकि आज देर हो चुकी है और मुझे अभी ढेर सारे काम करने हैं।'
बीरा अपनी गागर उठाकर धारे की ओर जाते हुए बोली।
'ठीक है बेटी! कल सुबह मैं तेरा इन्तजार करूँगी' श्यामा काकी बोली।
पानी के धारे पर बीरा को विमला चाची मिल गयी। छूटते ही विमला बोली-'कैसी है बीरा तू? जो खबर मैंने सुनी है, क्या सच है वो?'
'कौन सी खबर?' बीरा ने अनजान बनते हुए पूछा।
'यही कि तेरा रिश्ता पक्का हो गया है?'
' हाँ खबर तो ठीक सुनी आपने' बीरा बात को टालने का प्रयास करते हुए बोली।
'तू खुश तो है न बीरा?' विमला ने सवाल किया।
'हाँ! मामा-मामी खुश हैं, तो मैं भी खुश हूँ।' बीरा सपाट स्वर में बोली।
'मैं तो तेरी खुशी की बात रही रही हूँ पगली।' विमला ने उसे और कुरेदते हए कहा, 'क्या मैं जानती नहीं तेरे मन में क्या है?'
'चाची' इतना कहते ही बीरा की आँखों में आँसू छलक पड़े। मामी के बाद पहली बार किसी ने उसका दुख दर्द समझने की कोशिश की थी। 'क्या करूँ विमला चाची! अपना प्यार पाने के लिए मामा मामी के स्नेह और प्यार का गला कैसे घोंट दूं? जो मुझे चाची के चंगुल से छुड़ाकर इस वात्सल्यमय संसार में लाये, उनके सम्मान को ठेस पहुँचाने का साहस नहीं है मुझमें। मैंने बहुत सोचा चाची! और तब मैंने निश्चय किया है कि मुझे मामा-मामी की भावनाओं, उनकी इच्छाओं का सम्मान करते हुए इस रिश्ते के लिए हामी भर देनी चाहिए। अब आप ही बताइये चाची कि क्या मेरा निर्णय गलत है?' बीरा ने अपने दिल का दर्द बयां करते हुए कहा।
'नहीं बीरा! तूने ठीक ही किया। यदि तू इस समय जिद करके दीपक को पा भी लेती, तब भी जीवन भर तुझे यह दुःख सालता रहता कि तूने गाँव, समाज, मामा-मामी सभी का दिल तोड़ा है। मैं समझ सकती हूँ कि प्यार की टीस कितनी दर्दनाक हो सकती है। किंतु याद रखना, समय बहुत शक्तिशाली होता है, सारे घावों को भर देता है।' विमला ने उसके दुःख में भागीदार बनते हुए उसकी बात का समर्थन किया।
'हाँ चाची! वैसे भी मामा-मामी मेरा बुरा तो चाहेंगे नहीं। आगे मेरी किस्मत में जो लिखा होगा उसे स्वीकार करना ही पड़ेगा।' बीरा गहरी साँस लेते हुए बोली।
'भगवान तुझे सदा सुखी रखे बेटी।' विमला ने बात समाप्त करते हुए कहा, 'चल अब बहुत देर हो गयी, घरवाले राह तेरी देख रहे होंगे।'
दोनों ने भरी गागर सिर पर उठाई और धारे से चल दी। घर पहुँचते ही जब बीरा अन्य दिनों की तरह घर का काम काज सामान्य होकर करने लगी, तो मामी संतोष हुआ। आखिर चाहती तो वह भी थी कि बिन माँ-बाप की इस बच्ची को जमाने भर की खुशियाँ मिल जायें, किंतु समय और परिस्थितियों के आगे वह भी तो लाचार थी।
'बीरा! क्या सोचा तूने?' मामी ने थोड़ी देर बाद धीरे से पूछा।
'मामी जी! इसमें सोचना क्या है? आप लोग मुझे माँ-बाप से भी बढ़कर प्यार करते हैं, मेरे लिए बुरा थोड़ा ही सोचेंगे। आप और मामाजी जो भी फैसला करेंगे, मुझे मंजूर है।' बीरा ने अपने भावों पर नियन्त्रण पाते हुए कहा। उसकी बातों में दृढ़ता भाँप कर मामी सोचने लगी, 'क्या यह वही बीरा है, जो कल तक इस रिश्ते से ना-नुकुर करते हुए रो-रोकर बेहाल हो रही थी।
बीरा ने भी यह सोचकर परिस्थितियों से समझौता करना ही बेहतर समझा कि जिस समस्या का हल निकलने की सम्भावना न हो, उसके बारे में व्यर्थ ही सोच-सोचकर क्यों मन को और पीड़ा पहुँचायी जाये। अब बीरा ने अपने आप को घर और खेती के काम में पूरी तरह जुटा दिया ताकि उसे सोचने का कम से कम मौका मिले। किंतु रात को जैसे ही वह किताब निकाल कर बैठती, तो उसकी आँखों के आगे अनायास ही दीपक का चेहरा आ जाता और वह फिर अतीत की यादों में गुम हो जाती। आखिर दीपक की प्रेरणा से ही तो वह आगे पढ़ाई करने के बारे में सोच पाईं थी, वरना अपनी सहेलियों की तरह पाँचवी पास करने के बाद वह भी मामी के साथ घर के काम काज में ही हाथ बँटा रही होती।
बीरा ने एक दीर्घ निःश्वास छोड़ी, और उसके होंठ स्वतः ही बुदबुदा उठे- 'हे कुलदेवी! मुझे शक्ति दो।'
****
'अरे आइये आइये गुमान सिंह जी! अचानक कैसे आना हुआ?' चौक में अचानक राजू के पिता को पहुँचा देखकर बीरा के मामा बोले।
'जै राम जी की कृपाल सिंह जी!' गुमान सिंह ने हाथ जोड़ते हुए कहा- 'बीस पच्चीस दिन गुजर चुके हैं और आप लोगों की तरफ से जब कोई रैबार नहीं आया, तो फिर मैं खुद ही चला आया।
'जै राम जी की! आइये बैठिये।' कृपाल सिंह ने मुण्डेरी पर दरी बिछाते हुए कहा।
गुमान सिंह बैठ गये। मामा ने आवाज दी- 'अरे बीरा की मामी! जरा पानी तो पिलाओ! देखो मेहमान आये हैं।'
मामी धोती का पल्लू सिर पर ओढ़कर पानी का लोटा और दो गिलास ले आयी। गुमान सिंह और कृपाल सिंह आपस में राजी खुशी पूछते रहे। इतने में मामी हुक्का भर कर ले आयी।
बीरा जब गौशाला से लौट कर आयी, तो घर की मुण्डेर पर मेहमान को बैठा देख कर उसका दिल धड़क उठा। चौक में पहुँच कर उसने नजरें झुका गुमान सिंह को सेवा लगाकर प्रणाम किया और सीधे अंदर चली गयी। तभी बाहर से उसे मामा जी की आवाज सुनाई दी- 'बेटी बीरा! जरा चाय तो बना दो, मेहमान थककर आये हैं।'
बीरा ने चाय की केतली चूल्हे पर रखी और दरवाजे की ओट में खड़ी होकर उनकी बातें सुनने का प्रयास करने लगी।
'हाँ, तो कृपाल सिंह जी! क्या सोचा आपने? भई हमने तो लड़के को बिना पूछे ही हाँ कर दी। संस्कारों वाला लड़का है, मना कैसे करेगा?' गुमान सिंह ने शुरूआत की- 'आपने अपनी बेटी से तो बात कर ही ली होगी?'
'अरे गुमान सिंह जी! हमारी बेटी तो लाखों में एक है। वह कैसे अपने मामा से बाहर जा सकती थी।' मामा ने हेकड़ी जताते हुए कहा 'उसे क्या अपने कुल की मान मर्यादा और प्रतिष्ठा की चिन्ता नहीं होगी?'
'तो फिर देर किस बात की है! बागदान की तैयारी शुरू कर दो।' गुमान सिंह ने प्रसन्नतापूर्वक कहा।
'हाँ..हाँ! शुभ काम में देर किस बात की? पर इतना समय तो दीजिये कि मैं कुछ व्यवस्था कर सकूँ।' मामाजी बोले।
बीरा कान लगाये उनकी बातें सुन रही थीं। उसे लगा मानों किसी ने उसके शरीर से सारा लहू निचोड़ दिया हो। किंतु दूसरे ही क्षण वह अपने मन को समझाने लगी- 'बीरा धैर्य से काम ले। अपना मन दृढ़ कर।' चूहे पर रखी चाय उबल कर गिरने लगी, तो बीरा की विचार तंद्रा टूटी।
'व्यवस्था के लिए हम जरूर समय देगें आपको, वैसे भी हमारा परिवार काफी बड़ा है। फिर परिवार में पहली शादी है, इसलिए सबको उम्मीदें हैं इस शादी से। इतने लोगों के लिए कपड़े-लत्ते लेने में तो समय लगेगा ही आपको,' गुमान सिंह ने पहला पाँसा फेंकते हुए कहा।
चौंक गये कृपाल सिंह। तो बागदान में ही इतना खर्चा? फिर शादी में क्या होगा? लेकिन प्रत्यक्षतः बोले- 'सो तो ठीक है। आप समय रहते बता दीजिये कि आपके निकटस्थ सगे सम्बन्धी कितने हैं?'
तब तक बीरा चाय ले आयी थी। चाय लेकर आते हुए लेन देन की भनक उसके कानों में भी पड़ गयी थी। सुनकर बहुत बुरा लग रहा था उसे। पहली ही नजर में उसे लग गया कि ये लोग बहुत लालची हैं, फिर भी लाजवश वह कुछ बोली नहीं।
शाम को गुमान सिंह चले गये। बागदान की तारीख पक्की हो गयी। ठीक एक महीने बाद यानी पहली नवरात्रि को।
मामी ने अकेले में मामाजी से पूछा- 'क्या कह रहे थे गुमान सिंह जी?'
'कहना क्या था? बागदान की तारीख पक्की कर गये हैं, पहले नवरात्र को।' मामा के चेहरे पर तनाव की रेखायें साफ दिखाई दे रही थीं।
'देन-लेन के बारे में कुछ कहा?' मामी ने अगला सवाल किया।
'पहली शादी है उनके भरे पूरे परिवार में, इसलिए उन्हें कुछ ज्यादा ही आशायें हैं।' थके स्वर में बोले कृपाल सिंह।
'देखो जी! मैं कहती हूँ पहले ही बता देना ठीक होता है।' मामी ने समझाते हुए कहा- 'कह दो कि हम गरीब लोग हैं गौ-कन्या, पीढा-पंलग और घर गृहस्थी के बर्तन आदि ही दे पायेंगे, गाँव की तुलना शहरों से तो करें न। बस हम बारातियों का आदर सत्कार धूम धाम से कर देंगे।'
'हाँ...हाँ, बागदान से पहले बता दूँगा सब कुछ।' कृपाल सिंह झुंझलाकर बोले।
झुंझलाहट भी स्वाभाविक ही थी कृपाल सिंह जी की। पर्वतीय अंचल में विवाह समारोह चलता तो तीन चार दिन तक है, किंतु बहुत दिखावा कहीं नहीं होता है। दान दहेज के रूप में वर वधू के कपड़े, पारम्परिक गहने और कुछ बर्तन भाड़ा दिये जाते हैं। अगर बहू के घर से शादी में बड़े बर्तन जैसे देग, चाशनी, परात आदि मिलें, जो कि घर गाँवों में शुभ समारोहों में काम आ सकें, तो यह बहुत बड़ी बात समझी जाती है।
किंतु अब धीरे-धीरे शहरी परिवेश की छाया पहाड़ी गाँवों के विवाह समारोह पर भी पड़ने लगी है। पीढा पंलग की जगह अब डबल बैड, सोफा, स्टील आलमारी टेलीविजन और टेपरिकार्डर दुल्हन को मिलने वाले दहेज की सूची में अपनी जगह बना चुके हैं। हालांकि गाँव के पारम्परिक मकानों के छोटे दरवाजों के अंदर कभी-कभी यह सामान खिसकाना बड़ा ही मुश्किल कार्य हो जाता है। बड़े-बड़े पारम्परिक बर्तनों की जगह भी अब डिनर सैट ने ले ली है। किंतु फिर भी दहेज के रूप में किसी ने इन वस्तुओं की माँग की हो, ऐसी घटनायें ना के बराबर ही हैं।
बीरा को गुमसुम देख मामी ने उसे छेड़ा- 'अरे बीरा ! तेरा ससुर आया था आज, उनको सेवा लगा दी थी?'
'क्या मामीजी आप भी! बागदान तो अभी हुआ नहीं और पहले ही ससुर हो गया वह मेरा।'-बीरा ने मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहा।
'अरे, दिन बता कर चला गया है। तू भी तैयारी कर ले अपनी।' मामी ने कहा। बीरा कुछ नहीं बोली और बात टालने के लिए गौशाला की तरफ चली गयी। उसे अभी तक तो यह आस थी कि शायद लड़के वालों की तरफ से ही ना हो जाये। किंतु वह आस भी अब जाती रही। दीपक भी आजकल में छुट्टी आने वाला होगा। कैसे सामना करेगी वह उसका? किन शब्दों में बतायेगी उसे कि वह हमेशा के लिए गाँव छोड़ कर जा रही है? उसे याद आया बचपन में खेल खेलते हुए वे दोनों अपने गुड्डे गुड़िया की शादी रचा रहे थे, तो दीपक ने अपनी माँ से कहा था-'माँ मैं तो बीरा के साथ शादी करूंगा।'
'चुप रह बंदर।' बीरा ने उसे टोक कर श्यामा काकी से कहा था 'काकी, मैं इसके साथ शादी नहीं करूँगी। मेरा दुल्हा तो गुड्डे की तरह सुन्दर होगा।'
उस वक्त काकी हँस दी थी, किंतु दीपक को गुस्सा आ गया था और उसने गुस्से में बीरा की गुड़िया जमीन पर पटक दी थी। चूर-चूर हो गयी थी मिट्टी की गुड़िया। आज सचमुच ही बीरा के सपने भी चूर-चूर हो गये। लेकिन बीरा फिर अधीर क्यों हो रही है? जब उसने मन पक्का कर लिया है, तो फिर दीपक की याद क्यों बार-बार आ रही हैं? गर्दन झटक कर उसने अपने आप से कहा- 'अब दीपक की बात मन में लाना भी तेरे लिए पाप है बीरा। अब तो तुझे मामा-मामी की इज्जत का ध्यान रखना है बस।
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बस का चार घण्टे का सफर चार दिन के बराबर प्रतीत हुआ दीपक को। एक-एक पल भारी पड़ता जा रहा था उस पर। छुट्टियाँ सिर्फ तीन दिन की थीं। उसे बस आज और कल ही तो घर पर रहना था। परसों उसे किसी भी हाल में कॉलेज पहुँचना था। एक दिन अगर क्लास छूट भी जाय, तो कोई बात नहीं, लेकिन वह आशीष से हर कीमत पर परसों वापिस आने का वायदा करके आया था।
आशीष अब उसका अभिन्न मित्र बन गया था। वह महसूस कर सकता था कि आशीष को उसके बिना कितना बुरा लगेगा। किंतु घर आना भी तो उसकी मजबूरी थी। एक तो माँ की चिन्ता हो रही थी और दूसरी तरफ बीरा की भी उसे बहुत याद आ रही थी। 'बहुत बेवकूफ लड़की है। दो चिट्ठियाँ भेजी है उसने माँ की तरफ से, किंतु एक शब्द भी अपनी तरफ से नहीं लिखा उसने।'
'दीपक! तूने स्वयं भी तो अपनी चिट्ठी में बीरा के लिए कुछ नहीं लिखा था। तब वह नये माहौल में एडजस्ट नहीं कर पाया था, साथ ही रैगिंग का भूत भी उन दिनों कुछ ज्यादा परेशान कर रहा था। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि बीरा इतना बुरा मान जाये।' दीपक सोच रहा था।
कोई बात नहीं घर जाकर सबसे पहले वह बीरा को ही मिलेगा। उसकी चुटिया खींचकर कहेगा- 'बंदरी बता तूने चिट्ठी में अपनी राजी खुशी क्यों नहीं लिखी?' फिर वह स्वयं भी अपनी गलती के लिए माफी माँग लेगा।
बस स्टाप पर उतर कर उसने ताजी हवा में साँस ली और लम्बे लम्बे डग भरता हुआ गाँव की पगडंडी पर बढ़ता चला गया। आधा घण्टे के लगभग का पैदल रास्ता है। यहीं से गाँव का जंगल शुरू हो जाता है। कई कई बार गाँव की घसेरियाँ जंगलों में घास काटते हुए नजर आ जाती हैं। क्या पता आज बीरा भी उसे यहीं दिख जाये। उसने घड़ी पर नजर डाली। दोपहर के बारह बज चुके थे। नहीं-नहीं, समय काफी हो गया है। अब घसेरियाँ घर चली गयी होंगी। कोई बात नहीं, वह बीरा के घर ही चला जायेगा। बीरा के लिए वह शहर से एक मोतियों की माला ले कर आया था। वह बीरा से आँखें बंद करने को कहेगा और फिर अपने हाथों से माला उसके गले में पहना देगा। भावनाओं के सागर में डूबता उतराता दीपक आधे घण्टे की खड़ी चढ़ाई नापकर कब घर पहुँच गया, उसे पता ही न चला।
माँ के पैर छूकर उसने आशीर्वाद लिया। माँ ने तीन बार उसकी ठुड्डी को छूकर अपने हाथों को चूमा। पर्वतीय क्षेत्र में प्यार जताने या चुंबन लेने का यही तरीका है।
हाथ-मुँह धोकर दीपक ने कपड़े बदले। इतने में माँ ने कढ़ी और झंगोरा परोस दिया। यह उसका सबसे पसन्दीदा भोजन था। खाना खाकर दीपक ने बीरा के घर जाने से पहले मोतियों की माला चुपचाप अपनी जेब में रख ली और भूमिका बाँधते हुए माँ से कहा-'माँ! गाँव में सब ठीक-ठाक तो हैं न?'
हाँ, बेटा सब ठीक-ठाक है। तू बता, तू ठीक-ठाक रहा वहाँ पर? कमजोर कितना हो गया है। पढ़ाई कैसे चल रही है तेरी?'
भाड़ में गयी पढ़ाई। दीपक तो माँ के मुँह से बीरा के बारे में कुछ सुनना चाहता था, ताकि फिर बीरा के घर जाने की बात कह सके। फिर भी घुमा फिरा कर दीपक बात को वहीं ले गया।
'पढ़ाई ठीक चल रही है माँ। कृपाल चाचा और चाची कैसे हैं?
'ठीक हैं वे भी।' माँ ने उत्तर दिया।
'और बीरा?'
'बीरा भी ठीक है। शादी तय हो गयी है उसकी।' माँ ने बताया।
'क्या?' एकाएक उछल पड़ा दीपक। उसे अपने कानों पर मानो विश्वास ही नहीं हुआ हो।
'बीरा की शादी तय हो गयी?' उसने फिर पूछा।
'हाँ! पहले नवरात्र को आयेंगे बागदान के लिए।'--माँ ने बताया।
दीपक को लगा मानो उसका दिल ही उछल कर बाहर आ जायेगा। बरबस उसका हाथ जेब में चला गया। जेब में पड़ी मोतियों की माला उसने अपनी मुट्ठी में कसकर भींच ली।
ऐसा कैसे हो सकता है? तो क्या इसीलिए बीरा ने चिट्ठी में कुछ नहीं लिखा था। क्या बीरा उसे प्यार नहीं करती? शायद यही सच है। वह आज तक भ्रम में ही जीता रहा है। बीरा के प्रति उसका प्यार एकतरफा ही रहा है। यदि बीरा भी उसे चाहती, तो शादी तय होने से पहले एक बार चिट्ठी तो भेजती। कुछ भी होता, वह घर आकर माँ को मना लेता और बीरा के मामा मामी के भी पैरों में गिर पड़ता लेकिन...।
लेकिन उसकी सोच सिर्फ उसी तक सीमित है। ऐसी स्थिति तो आयी ही नहीं। इसका सीधा सा मतलब तो यही है कि बीरा अपने और मेरे सम्बन्धों को सामान्य रूप से लेती रही।
गलती मेरी ही है, जो मैंने समय रहते बीरा को अपने दिल की भावनायें नहीं बताई। बता देता तो कम से कम उसकी हाँ या ना तो पता चल जाती। गलतफहमी में तो नहीं रहता मैं। इस तरह दिल तो नहीं टूटता मेरा।
सोचते सोचते दीपक को लगा मानो अब एक पल भी धरती पर खड़ा नहीं रह पायेगा वह। अगर थोड़ी सी देर भी और खड़ा रहा, तो चक्कर खा कर गिर पड़ेगा।
उसकी अजीबो गरीब स्थिति देखकर माँ शंकित हो गयी। उसको झिंझोड़ कर पूछा-'दीपक! क्या हो गया तुझे?'
माँ को लगा इस भरी दोपहरी में जंगल के रास्ते आया है। भूत पिशाच या आंछरी न लग गयी हों इसे। तुरन्त अंदर गयी और मुट्ठी में उड़द की दाल और चावल मिला कर ले आयी। यही रिवाज है गाँव में बुरी नजर और बुरी आत्माओं से रक्षा करने का। दाल-चावल व्यक्ति के ऊपर घुमाकर चारों दिशाओं में फेंक दिया जाता है। दाल चावल तो माँ दीपक के ऊपर तब घुमाती, जब वह वहाँ होता। वह तो कब का जा चुका था। माँ आश्चर्यचकित हो उसके मनोभावों को कुछ-कुछ समझने की कोशिश कर रही थी।
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'चाची प्रणाम! कैसे हैं आप लोग?' दीपक बीरा के चौक में पहुँच कर बोला।
'अरे दीपक, चिरंजीव! कब आये बेटा?' चाची ने पूछा। 'बस चाची आज ही पहुँचा हूँ।'।
'ठीक-ठाक चल रही है तेरी पढ़ाई?' पूछा चाची ने।
'हाँ चाची! सब ठीक चल रहा है।' दीपक ने जबाव तो दिया किंतु मन से नहीं। मन तो उसका दूसरी ही जगह था। उसकी नजरें बीरा को तलाश रही थी।
दूसरी ओर मामी का मन अज्ञात आंशका से काँप उठा। कहीं बीरा के मन में दीपक को देखकर भावनाओं का ज्वार न उमड़े।
'कितनी छुट्टी है बेटा?' पूछा चाची ने।
'बस केवल कल तक। परसों जाना है। सोचा आप लोगों से मिल लूँ। दीपक के मुँह पर मतलब की बात आ ही गयी--'बीरा नहीं दिख रही है, कहाँ है वह?'
चाची को लगा कि अब तो सचमुच गड़बड़ हो ही जायेगी। फिर भी उसने बीरा को आवाज लगाई--'बीरा कहाँ है तू? देख तो कौन आया है?'
'हाँ मामी जी! आती हूँ। कौन आया है?' कहते-कहते बीरा ऊपर के कमरे से बाहर निकल आयी। दीपक को देख कर दरवाजे पर ही ठिठक गयी वह।
'बीरा, कैसी है तू?' दीपक ने उसे गौर से देख कर पूछा। 'मैं ठीक हूँ। तू कैसा है? कब आया?' 'आज ही! माँ कह रही थी कि बीरा दो तीन दिन से नहीं आयी।' दीपक बोला।
'हाँ, समय ही नहीं मिला। आज ही आने वाली थी मैं काकी के पास।' बीरा ने जबाव दिया और फिर मामी से कहा- 'मामी, आप दीपक को चाय पिलाओ, मैं गाय भैंस को घास डाल आती हूँ।'
बीरा गौशाला की ओर चल दी, तो दीपक ठगा सा रह गया। मामी ने राहत की साँस ली। बीरा सचमुच सामान्य थी या फिर सामान्य दिखने का प्रयास कर रही थी, यह मामी की समझ में नहीं आया। दीपक भी इस पहेली को नहीं बूझ पाया। वह तो बीरा से ढेर सारी बातें करने आया था, किंतु बीरा ने तो समय ही नहीं दिया।
और बीरा...। उसकी मनस्थिति समझने वाला तो कोई नहीं था। अब वहाँ पर बैठे रहना दीपक के लिए मुश्किल हो गया था। चलने का उपक्रम करते हुए दीपक बोला- 'अच्छा चाची चलता हूँ।'
'अरे बेटा, चाय पीकर तो जाओ।' चाची ने आग्रह किया।
'नहीं चाची, अभी-अभी खाना खाया है।' और दीपक वहाँ से निकल गया। वह बीरा से बात करना चाहता था, किंतु बीरा का व्यवहार उसे नागवार गुजरा था।
गौशाला से लौटती बीरा उसे रास्ते में ही मिल गयी।
'बीरा!' दीपक बोला। 'मुझसे इस तरह दूर क्यों जा रही हो? सुना है तेरा रिश्ता पक्का हो गया?
'हाँ दीपक! मामा-मामी की ऐसा ही इच्छा थी। बीरा ने संक्षिप्त सा जबाब दिया।
'और तेरी इच्छा क्या थी? क्या तू इस रिश्ते के लिए तैयार है?' दीपक ने प्रश्न किया।
हाँ दीपक! मेरी हामी के बाद ही मामा-मामी ने यह रिश्ता पक्का किया। वे मुझे इतना प्यार करते हैं, फिर मेरी मर्जी के बिना ऐसा कैसे कर सकते थे?'
लेकिन तेरे सपनों का क्या हुआ? तू तो अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी?' दीपक ने प्रश्न किया।
अपने स्वर को यथासम्भव संयत बनाते हुए बीरा बोली-- 'दीपक! यदि ससुराल में तुम जैसे अच्छे लोग हुए, तो आगे भी पढ़ लूँगी वरना यूँ ही जिंदगी कट जायेगी। ऐसा कहीं होता है कि इन्सान को सब कुछ मिल जाये? माँ-बाप को खोने के बाद मैं प्यार के दो बोल सुनने के लिए भी तरस गयी थी। मामा-मामी ही तो हैं वे, जिनके प्यार और स्नेह की बदौलत आज ये दिन देखने नसीब हुए हैं।
दीपक की समझ में कुछ-कुछ आने लगा था। इसका मतलब मामा-मामी की इच्छाओं की खातिर बीरा ने शादी के लिए हामी भरी है। दीपक बीरा के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रहा था।
बीरा ने टोका- 'ऐसे क्या देख रहा है? चल मुझे देर हो रही है मामीजी मेरी बाट जोह रही होंगी।'
और बीरा रास्ता बनाते हुए निकल गयी। दीपक का मन तड़प उठा। वह क्या करे, कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। जाती हुई बीरा को उसने फिर आवाज दी 'बीरा, सुन तो।'
बीरा रुक गयी। वह नजदीक पहुँच गया।
'बीरा कल शहर जा रहा हूँ, कुछ लाना है तेरे लिए?' उसने पूछा।
'नहीं दीपक, सब कुछ है मेरे पास। बस तू बागदान में जरूर आना। उस समय तेरी दशहरे की छुट्टियाँ भी पड़ जायेंगी। यहाँ पर मामा-मामी अकेले हैं। तू रहेगा तो उन्हें सहारा मिल जायेगा।
बीरा के स्वर में कंपन साफ महसूस किया दीपक ने और अंदर तक हिल गया वह। इससे पहले कि दीपक कुछ और बोल पाता, बीरा मुँह फेरकर चली गयी।
'जरूर आऊँगा।' घर लौटती हुयी बीरा से कहा दीपक ने।
दूर तक बीरा को एकटक देखता रहा वह, जो मुट्ठी में भरी रेत की तरह धीरे-धीरे उसकी जिंदगी से फिसलती जा रही थी।
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दो दिन गाँव में बिताने के बाद तीसरे दिन सुबह सुबह ही दीपक श्रीनगर लौट आया। कमरे में पहुँचते ही पता चला कि आशीष बाजार गया है। गया होगा घूमने, कौन सी उसे पढ़ाई में रुचि है। बस समय काटना ही तो उद्देश्य है उसका।
आशीष कुछ देर में ही धमक गया, आते ही खुश होकर बोला- 'अरे पार्टनर, आ गया तू?' गाँव की ताजी हवा से आ रहा है, फिर भी चेहरे पर यह मर्दानगी क्यों है?'
'पूरे दो घण्टे हो गये हैं मुझे गाँव से आये हुए, इतनी देर में ही शहर की हवा ने अपना असर दिखा दिया।
'तो फिर बता कैसी कटी तेरी दो दिन की छुट्टी?' पूछा आशीष ने।
'बस यार मत पूछ। माँ को देख आया, यही काफी है।' दीपक के स्वर में उदासी थी।
'नहीं यार, तेरा चेहरा बता रहा है कि कुछ गड़बड़ जरूर है।' आशीष बोला- देख इतना थका हुआ और इतना बोझिल तो मैंने तुझे आज तक नहीं देखा।'
'कुछ नहीं यार! बस सफर की थकान है।'
दीपक ने छुपाना चाहा।
'नहीं यार! छुपा मत मुझसे।' फिर प्रश्न किया आशीष ने-'तू मुझे अपना दोस्त कहता है न?
'हाँ।'
'तो फिर बता मुझे क्या बात है?' आशीष ने कुरेदा।
उसकी बातों से टूट गया दीपक और फिर पूरा घटनाक्रम उसने आशीष को सुना दिया। पूरी कहानी सुनने के बाद आशीष बोला 'तो इतना छुपा रुस्तम है मेरा यार! आज तक कोई खबर ही नहीं लगने दी मुझे।'
'आज तक ऐसा कुछ नहीं था यार! फिर क्या बताता?' दीपक ने सफाई दी।
'ठीक है। चल मै तेरे गाँव चलता हूँ। बीरा के मामा-मामी और तेरी माँ से मैं बात करके देखता हूँ। 'आशीष ने उत्तेजित होकर कहा।
'नहीं यार, कोई फायदा नहीं। बीरा बहुत समझदार लड़की है। अब यदि हमने ऐसा-वैसा कुछ किया, तो उसके दिल को ठेस लगेगी।' दीपक ने कहा।
'अरे यार ऐसा सोचता रहेगा, तो फिर कुँवारा रह जायेगा जिंदगी भर।' आशीष बोला, 'रहने दे यार कुँवारा ही रह लूँगा।' दीपक ने गहरा निःश्वास छोड़कर कहा।
आशीष ने अब तक दुःख के अलावा कुछ नहीं देखा था। ठोकरें खाते-खाते वह इतना कठोर हो गया था कि सुख अथवा दुःख के उसके जीवन में अब कोई मायने ही नहीं रह गये थे।
किंतु आज दीपक का दुःख देखकर वह भी दुःखी हो उठा। बरसों बाद आज उसे अहसास हुआ कि उसके अंदर अभी भी मानवीय संवेदनायें शेष हैं।
दूसरी ओर दीपक महसूस कर रहा था कि आशीष को कितना दुःख हुआ उसकी परिस्थिति जानकर। बेचारा खुद तो हमेशा दुःख उठाता ही रहा, अब उसके दुःख से भी दुःखी हो उठा।
'काश! उसके वश में कुछ होता, तो वह भी आशीष के लिए अवश्य ही कुछ करता। हाँ वह कुछ जरूर करेगा, समय आने पर जरूर आशीष की मदद करेगा।'
'दीपक?' आशीष ने पूछा 'दशहरे की छुट्टी में तेरा क्या कार्यक्रम है?'
'घर जाना है यार!' दीपक ने कहा।
'नहीं यार, अबकी बार तू मेरे घर चल! एक बार तनिक मेरा दुःखड़ा भी तो देख ले। आशीष ने आग्रह किया।
'नहीं यार, मैंने बीरा से वायदा किया है कि उसके बागदान में जरूर जाऊंगा। पहले नवरात्र को सगाई है उसकी और उस वक्त गाँव में मेरा उपस्थित रहना जरूरी है।' दीपक ने कहा।
आशीष ने हैरानी से उसकी तरफ देखा-'कमाल है यार, कैसा प्यार है तेरा? व्यक्त भी नहीं करना चाहता है और छोड़ना भी नहीं चाहता?'
'यही तो सच्चे प्यार की परिभाषा है दोस्त' दीपक आहत स्वर में बोला। आशीष की समझ में कुछ नहीं आया, सिर झटक कर बोला- 'मुझे नहीं मालूम ये प्यार-व्यार का चक्कर।'
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बीरा के मामाजी कुछ दिन बाद गुमान सिंह को मिलने उनके गाँव पहुँचे। सोचा चलो इस बहाने बीरा की होने वाली ससुराल भी देख आऊँगा।
गुमान सिंह उन्हें देखकर बहुत प्रसन्न हुए। 'धन्य भाग हमारे, आप आये तो सही हमसे मिलने। और कैसे हैं सब लोग गाँव में?'
'सब ठीक हैं, मैंने सोचा बागदान से पहले एक बार आपसे मिल लूँ। तैयारियाँ भी तो करनी है।'
'हाँ सो तो ठीक कहा आपने। पहले हाथ मुँह धोकर कुछ देर सुस्ता लीजिये, फिर विस्तार से बात कर लेंगे।' फिर आवाज देते हुए बोले, 'राजू की माँ, देखो तो कौन आया है? झट से चाय नाश्ते का प्रबन्ध करो।'
कुछ ही देर में उनकी पत्नी चाय-नाश्ता लेकर चली आयी। ये हैं राजू की माँ और राजू की माँ ये हैं बीरा के मामा, जिन्होंने अपनी अनाथ भान्जी को अपने बच्चों से अधिक प्यार दुलार देते हुए पाला है। ईश्वर ऐसे मामा सब को दें।' राजू के पिता परिचय कराते हुए बोले।
'मैंने क्या खास किया? उस छोटी सी बच्ची ने हमारे सूने घर आँगन में खुशियाँ बिखेर दी हैं। सचमुच बहुत भली लड़की है बीरा। आप सबको भी बहुत खुश रखेगी वह।' बीरा के मामा भावुक होते हुए बोले।
भाई साहब, आप चिन्ता न करें, जैसे आपकी बेटी है, वैसे ही हमारी। हम भी दो-दो बेटियों का विवाह कर चुके हैं। हमें पता है बेटी को विदा करने का दर्द क्या होता है? और फिर हमारा राजू भी कुछ कम नहीं। शहर में नौकरी कर रहा है, पर अभिमान तो उसे छू तक नहीं पाया है।' इस बार राजू की माँ बोली।
'भाई साहब खाना खाकर ही जाइयेगा। मैं खाने की तैयारी करती हूँ, तब तक आप लोग बात कीजिए।' राजू की माँ उठते हुए बोली।
'हाँ तो कृपाल सिंह जी, कैसी चल रही है बागदान की तैयारी?' राजू के पिता बोले।
'इसीलिए तो आपसे मिलने आया हूँ, जो कुछ भी व्यवस्था करनी हो, आप मुझे बता दीजिए ताकि कोई कमी न रह जाये' बीच में मामा बोले।
'वैसे तो हम साधारण लोग हैं, लेकिन राजू हमारा इकलौता बेटा है। इसलिए सभी उसके बागदान से उम्मीद लगाये बैठे हैं। हम लोग चार भाई हैं तो पत्नियों के लिए और मेरी दोनों विवाहित बेटियों के लिए कपडे लत्ते तो होंगे ही। बाकी राजू के लिए जो आप करेंगे, वह आपकी श्रद्धा है। हाँ मेरी माँ और ताई के लिए भी धोतियाँ दे दीजिएगा। क्या करें साहब! वृद्ध महिलाएँ हैं। उन्हीं का आशीर्वाद है, उन्हें प्रसन्न रखना भी आवश्यक है। आखिर उन्हें भी तो लगना चाहिए कि उनके इकलौते नाती का बागदान हुआ है।'
बीरा के मामा मन ही मन हिसाब लगाने लगे। छः साड़ियाँ, कम से कम छः सात जोड़ी पैंट शर्ट, राजू के लिए सूट और कपड़े और शगुन के तौर पर एक अंगूठी भी तो बनानी होगी। फिर पान मिठाई, दान दक्षिणा में भी तो काफी खर्चा हो जायेगा। कहाँ से करूँगा इतना?
'कहाँ खो गये समधी जी! हम भी कुछ कमी नहीं करेंगे बीरा के लिए। आपके सम्मान पर आँच न आने देंगे। आज ही राजू को पत्र लिख देता हूँ, कपड़े-लत्ते वहीं से खरीद लेगा।' राजू के पिता शेखी बघारते हुए बोले।
और बागदान में कितने लोगों के आने की सम्भावना है? ये भी बता दीजिए ताकि स्वागत सत्कार में कोई कमी न रह जाये।' बीरा के मामा ने झिझकते हुए पूछ ही लिया।
'उसकी आप चिन्ता न करें। सभी अपने ही परिवार के लोग होंगे हम चारों भाई, उनके बच्चे, हमारे दामाद। कुल मिलाकर यही कोई पच्चीस तीस लोग हो जायेंगे। अष्टमी की शाम को पहुँच जायेंगे। नवमी को बागदान की रस्म पूरी कर के लौट आयेंगे।' राजू के पिता ने यूँ कहा मानो इस सब की व्यवस्था करना कोई बड़ी बात न हो।
भोजन करने के पश्चात राजू के माता पिता से विदा लेकर रास्ते भर खर्चे का हिसाब लगाते बीरा के मामा घर पहुंचे। उनके चेहरे पर तनाव की स्पष्ट रेखायें देखकर बीरा की मामी समझ गयी कि कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है, लेकिन क्या है? वह समझ न पाई।
रात्रि को सब काम निपटाने के पश्चात पूछ बैठी- 'क्या बात है आप जब से आये हैं, परेशान से लग रहे हैं?'
'नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। बागदान की तैयारी करनी है। समय भी कम रह गया है, इसलिए थोड़ा सा तनाव है।' बीरा के मामा वास्तविकता छिपाते हुए बोले।
'क्या ज्यादा कुछ करना पड़ेगा? क्या-क्या कहा उन्होंने?' बीरा की मामी ने आतुरता से पूछा।
'नहीं-नहीं ज्यादा कुछ नहीं। परंतु उनका तो परिवार ही इतना बड़ा है कि उनके कपड़े लत्ते खरीदने में ही काफी खर्च हो जायेगा। फिर लड़के के लिए कम से कम एक अंगूठी तो बनानी ही होगी। कुल मिलाकर पच्चीस तीस मेहमान तो आयेंगे ही, तो उनकी दो वक्त की पान पिठाई (टीका) के लिए भी व्यवस्था करनी होगी।' चिन्तित स्वर में कहा बीरा के मामा ने।
'सुनो! क्या लगा आपको? कहीं वे ज्यादा लालची लोग तो नहीं हैं? एक ही बेटा है, तो सोच रहे होंगे कि सब कुछ मिल जाये इसी रिश्ते से। यदि ऐसा है, तो मैं कहती हूँ कि अभी भी समय है, साफ-साफ बात कर लो, बाद में कहीं कुछ और माँग रख दी तो हमारे लिए परेशानी हो जायेगी और अगर माँग पूरी न कर पाये तो पूरे इलाके में बदनामी अलग से हो जायेगी।' बीरा की मामी की आशंका बढ़ती जा रही थी।
'बात-व्यवहार से लालची लगते तो नहीं। अब उनका स्वयं का परिवार ही इतना बड़ा है, तो वे क्या कर सकते हैं? किसी चीज की माँग तो उन्होंने की नहीं, परम्परा के अनुसार ही ये सब व्यवस्थाएँ करने का इशारा भर ही तो किया है।' बीरा के मामा उसकी मामी को सांत्वना देते हुए समझा रहे थे।
'अरे ये तो पूछना ही भूल गयी कि बीरा की होने वाली सास कैसी है? कैसा घर है, हमारी बीरा खुश तो रह पायेगी न वहाँ?' मामी ने आतुरता से पूछा।
'अच्छी महिला लगी मुझे तो। घर भी हम लोगों से काफी बड़ा है अच्छे खाते-पीते लोग लगे। बाकी बीरा की किस्मत।
'काफी रात हो गयी है, अब सो जाओ, ईश्वर सब ठीक करेगा।' और मामी बीरा को यह सब बताने के लिए उसके कमरे की ओर चल दी।
बीरा बिस्तर पर औंधी लेटी दीपक द्वारा दी गयी कोई किताब पढ़ने में मग्न थी। उसे मामी के आने का पता ही नहीं चला।
मामी ने पुकारा तो चौंक गयी! 'क्या मामीजी! डरा ही दिया आपने तो।' 'अरे मेरी बेटी! इतनी ध्यानमग्न मत हुआ कर किताबों में। अच्छा सुन, तेरे मामाजी तेरी ससुराल देख आये हैं। अच्छा बड़ा घर है, लोग भी खानदानी हैं, राज करेगी हमारी बेटी वहाँ।' बीरा की मामी खुशी-खुशी बीरा को उसके भावी ससुराल के बारे में बता रही थी।
'अच्छा।' बीरा ने इतने निर्लिप्त स्वर में कहा कि मामी का सारा उत्साह ही ठण्डा हो गया। बीरा की आँखों में झाँकती हुई बोली 'बीरा तू अब भी खुश नहीं है क्या?'
'नहीं मामीजी, ऐसी बात नहीं है, मैं बहुत खुश हूँ।' मामी को दुःखी नहीं करना चाहती थी बीरा। मामी सब कुछ जानती है फिर क्यों बार-बार पूछकर मेरे घावों को हरा कर रही है? क्या उन्हें नहीं पता मेरे मन-प्राण कहाँ बसते हैं? बीरा सोच रही थी।
'अच्छा चल सो जा अब। इतनी देर रात तक क्या पढ़ती रहती है तू।' कहकर मामी अपने कमरे की ओर चल दी।
कैसे बताऊँ मामी तुम्हें कि क्या पढ़ती हूँ मैं इन किताबों में? इन्हें पढ़ने से मुझे दीपक के अपने समीप होने का एहसास होता है। ये सुख तो मुझसे कोई कभी नहीं छीन सकता। बीरा ने ठण्डी साँस ली।
गुमान सिंह ने उसी दिन राजू को पत्र लिख दिया था। 'बेटा नवमी के शुभ दिन तुम्हारा बागदान है। लड़की का जेवर कपड़ा ये सब तू दिल्ली से ही ले आना। यदि मुझे वहाँ आने की आवश्यकता हो, तो फौरन सूचित कर देना, मैं आ जाऊँगा। वैसे तू खुद ही समझदार है।
पत्र मिलने के एक सप्ताह के अंदर ही राजू गाँव चला आया। पिता जी मेरा रिश्ता किस जगह पक्का किया आपने? मैं शहर में रहता हूँ और मुझे तो पढ़ी लिखी लड़की चाहिए। मुझसे कम से कम एक बार पूछा तो होता आपने?' राजू अपनी धुन में बोले चला जा रहा था और गुमान सिंह जी हतप्रभ खड़े चुपचाप सुने जा रहे थे।
यह वही राजू है, जिस पर उन्हें इतना गुमान था। कुछ देर तक तो वे उसकी बात सुनते रहे, फिर उच्च स्वर में बोले
'चुप हो जाओ! क्या इसी के लिए शहर गये थे? वहाँ जाकर माँ-बाप की ये इज्जत करनी सीखी है तुमने? पहले लड़की के बारे में सुन तो लो, फिर अपनी राय प्रकट करना। लड़की सुन्दर, सुशील है, गुणी है, दसवीं तक पढ़ी है और तेरी इच्छा होगी तो आगे भी पढ़ लेगी। इससे ज्यादा क्या चाहिए तुझे।' राजू के पिता समझाने वाले स्वर में बात कर रहे थे।
पति का उच्च स्वर सुन कर राजू की माँ भी कमरे में आ गयी थी। 'हे भगवान! क्या हो गया। वैसे तो इन्हें गुस्सा आता नहीं और जब आता है तो जमीन आसमान एक कर डालते हैं।'
'चल बेटा मुँह हाथ धोकर चाय नाश्ता कर ले, फिर बात करना।
'हाँ तुमने ही तो बिगाड़ा है इसे लाड़ प्यार में। जरा सुनो अपने सपूत की बातें कि इसे तो शहर की लड़की से विवाह करना है।' राजू के पिता गुस्से में बोले।
माहौल में गर्मी देख राजू कमरे से बाहर निकल गया- 'सुनो! अभी तो आया ही है। बच्चा है, उल्टा सीधा डाँट देते हो। प्यार से समझायेंगे तो समझ जायेगा। इतनी जल्दबाजी मत करो।' पति को समझाते हुए बोली राजू की माँ।
रात का खाना खाने के बाद पिता ने राजू को बुलाकर कहा, 'राजू! अब बता, क्या कह रहा था तू?'
'पिताजी मैं शहर में रहा रहा हूँ। मुझे ऐसी लड़की चाहिए जो वहाँ के माहौल में भी ढल सके। दिल्ली में ही यहाँ के बहुत सारे परिवार रहते हैं, जो अपनी लड़कियों की शादी वहीं काम कर रहे लड़कों से करना चाहते हैं, तो फिर आप इस गाँव के चक्कर में क्यों पड़ रहे हैं?' राजू उन्हें जैसे समझा रहा था।
गुमान सिंह को गुस्सा तो बहुत आया, पर अपने स्वर को संयत बनाने का प्रयत्न करते हुए बोले। 'बेटा! तुम हमारे अकेले बेटे हो। हमारी भी कुछ उम्मीदें हैं नयी बहू से, दिल्ली की लड़की क्या कुछ दिन भी हमारे साथ गाँव में रह पायेगी? हम तो गाँव के सीधे-सादे लोग हैं, शहर की लड़कियों के नखरे कौन सहन करेगा? अपनी माँ को देख क्या सारी जिंदगी चूल्हा चौका ही करती रहेगी वह?'
'मैं तो पहले से ही कह रहा हूँ कि आप लोग भी दिल्ली चलो मेरे साथ। गाँव की इस थोड़ी सी खेती में क्या रखा है? सब साथ-साथ रहेंगे।' राजू आवेश में आकर बोला।
'वाह बेटा!' गुमान सिंह व्यथित स्वर में बोले। 'यहाँ की ताजा हवा पानी और इतना बड़ा मकान छोड़कर तेरे एक कमरे के घर में जाकर रहें और शहर का धूल धुंआ फाँकते रहें? यह नहीं कर सकते हैं हम' फिर एक ठण्डी साँस लेकर बोले। 'ठीक है, इसी दिन के लिए पाल पोसकर बड़ा किया था कि बुढ़ापे में तू इसी तरह नाक कटवायेगा पूरे परिवार की। मैं तो सीना ठोककर बोल आया था कि मेरा बेटा इतना आज्ञाकारी है कि हमारे फैसले से बाहर जाने की दूर दूर तक सोच भी नहीं पायेगा, लेकिन अब अच्छी तरह महसूस कर रहा हूँ कि जब अपना सिक्का ही खोटा हो, तो किसी और को क्या दोष देना?'
पिता का व्यथित स्वर सुनकर राजू थोड़ी देर तो चुप रहा, फिर धीरे से बोला- 'पिताजी शहरों में शादी कितनी धूमधाम से होती है, आप भी देखेंगे तो चकित रह जायेंगे! दान-दहेज भी यहाँ से कई गुना ज्यादा और अच्छा उपयोगी सामान मिलता है। यहाँ तो क्या है, पीढा-पलंग, एक दो बक्शे और कुछ बर्तन, जो कभी कभार ही काम आते हैं।'
तो ये बात है, राजू का मन शहर की चकाचौंध में इसलिए भटकता जा रहा है। गुमान सिंह ने सोचा और फिर बोले- 'बेटा! बीरा कृपाल सिंह की अकेली बेटी है। उनका जो कुछ भी है, वह सब उसी का है। वे उसके लिए किसी भी तरह से कोई कमी नहीं करेंगे और यदि तू नहीं चाहता कि वे यहाँ का पारम्परिक सामान दहेज में दें, तो उसके बदले में जो तू चाहता है, वही बात उनसे कर लेंगे।'
'यह सब तो ठीक है पिताजी! लेकिन क्या गाँव में पली बढ़ी बीरा दिल्ली जैसे इतने बड़े शहर में व्यवस्थित हो पायेगी? 'राजू ने फिर शंका जाहिर की।
'तू तो ऐसे कह रहा है जैसे तू शहर में ही जन्मा हो। इतने लोग जो शहरों में रह रहे हैं, क्या वे सभी हमेशा से वहीं रहे हैं? बीरा समझदार लड़की है, वह तो शहर और गाँव में भली प्रकार सामंजस्य बिठा पायेगी।' गुमान सिंह ने समझाया।
तो ठीक है पिताजी! जैसा आप ठीक समझें।' राजू ने हथियार डालते हुए कहा। 'आप भी मेरे साथ दिल्ली चलिए और बागदान के लिए जो कपड़े जेवर लेने हैं, आप साथ आकर लिवा दीजिए, इसी बहाने आप दिल्ली आकर मेरा घर भी देख पायेंगे वरना माँ और आपको इस घर गाँव से फुर्सत ही कहाँ है?'
'ठीक है बेटा! बहुत दिल्ली की बातें करता है तू, इस बहाने शहर भी देख लूँगा। बेटा मेरे सिर से बहुत बड़ा बोझ उतार दिया तूने, वरना मैं तो पूरे परिवार और कृपाल सिंह जी को मुँह दिखाने लायक नहीं रह जाता। बेटी का रिश्ता इस तरह टूटने का गम वे सीधे सच्चे लोग भी सहन नहीं कर पाते।' राजू के पिता ने खुशी प्रकट करते हुए कहा।
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कृपाल सिंह यमकेश्वर ब्लाक मुख्यालय स्थित एक मात्र ग्रामीण बैंक की शाखा में अपनी जमा पूंजी का हिसाब जानने गये, जिसमें उन्होंने वक्त-वेवक्त अपनी छोटी-छोटी बचत की राशि जमा की थी। उन्हें ये भी तो हिसाब लगाना था कि बागदान में कितना पैसा खर्च करना है, ताकि शादी के लिए भी कुछ बचा रहे।
खाते में कुछ ज्यादा रकम अपने बैंक नहीं थी। थोड़ा बहुत हिसाब लगाकर बीरा के मामा ने कुछ रकम खाते से निकाल ली। सोचा कुछ दिन बाद कोटद्वार जाकर खरीददारी कर लूँगा। जो काम जितनी जल्दी निपटे, उतना ही अच्छा।
दिन यूँ ही बीतते जा रहे थे। बीरा के मामा कोटद्वार से बागदान के लिए अधिकांश खरीददारी कर आये थे। इस काम में मदद के लिए उन्होनें श्रीनगर से दीपक को भी कोटद्वार बुलवा लिया था।
'दीपक बेटा! सगाई में दो-तीन दिन पहले घर आ जाना। गाँव के सारे बच्चे किसी न किसी बहाने गाँव से बाहर शहरों में चले गये हैं। शादी ब्याह जैसा कोई बड़ा कार्य हो, तो मदद करने वाला भी कोई नहीं होता' कृपाल सिंह बोले।
'चाचा जी, मैं जरूर आ जाऊँगा। इस बीच भी यदि मेरी मदद की आवश्यकता महसूस हो तो रैबार दे दीजिएगा। मैं यहाँ के सारे काम निपटा लूँगा। आप कहाँ बार-बार यहाँ के चक्कर लगाकर सामान खरीदते रहेंगे।' दीपक ने अपनेपन से कहा।
बीरा के बागदान का सामान खरीदवाते हुए दीपक का मन पता नहीं क्यों बेचैन हो रहा था तो क्या अब बीरा पराई हो जायेगी? लेकिन क्या बीरा कभी उसकी थी? ऐसा कब कहा था बीरा ने अपने मुँह से? लेकिन कहने से ही तो सब कुछ नहीं होता। क्या उसकी आँखों ने कभी उससे नहीं कहा कि वह उससे प्यार करती है? परंतु अब यह सब सोचकर क्या फायदा? पहले बीरा के बागदान और फिर शादी में जितनी मदद कर सकूँ, वही मेरे लिए बीरा के प्यार का प्रतिदान होगा।
बीरा के मामा को गाँव की बस में बिठाकर दीपक वापिस श्रीनगर चला आया और अपनी पढ़ाई में तल्लीन हो गया।
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शाम ढले जब बस दिल्ली पहुंची, तो चारों तरफ ऊँची ऊँची इमारतें रोशनी से जगमगाती हुई सड़कें, सड़कों पर वाहनों की रफ्तार तथा लम्बी लम्बी कतारें देखकर गुमान सिंह ने दाँतों तले अंगुली दबा ली। ये इतनी भीड़, इतने वाहन, इतने बड़े-बड़े मकान? बहुत अमीर लोग ही रह पाते होंगे यहाँ। बस से उतरते ही उन्हें यह सब देखकर यकायक राजू पर गर्व हो आया। उनका राजू भी तो इसी भव्य शहर में रह रहा है, सोचकर उनका सीना गर्व से चौड़ा हो गया।
अंतर्राज्यीय बस टर्मिनल अर्थात आई.एस.बी.टी. पहुँचते ही यह सोचकर कि उसके पिता सिटी बस की धक्का मुक्की सहन नहीं कर पायेंगे, राजू ने ऑटो रिक्शा कर लिया। शहर की भीड़ भरी चिकनी सड़कों से निकलकर जब ऑटों अंधेरी सड़ी गली गलियों में घुसा, तो गुमान सिंह का माथा ठनका। तो ये भी दिल्ली है?
'पिताजी उतरिये! यहाँ से पैदल चलना होगा। आगे ऑटो नहीं जा सकता।' राजू की आवाज पर गुमान सिंह की तंद्रा टूटी। पाँच-सात मिनट पैदल चलकर राजू एक तीन मंजिले मकान के सामने रुका। मकान क्या, यों लगता था जूते के डिब्बे को सीधा खड़ा कर दिया हो। दो मंजिल चढ़कर ऊपर पहुँचने पर राजू ने कमरा खोलकर बत्ती जला दी।
अंदर पहुँचते ही गुमान सिंह को अजब सी घुटन महसूस हुई--'राजू खिड़की नहीं है तेरे घर में? जल्दी से खिड़की तो खोल, दम घुट रहा है मेरा तो यहाँ।'
'अरे पिताजी! यहाँ इतनी छोटी सी जमीन के टुकड़े पर ही इतने बड़े मकान बन जाते हैं। आस पास के सभी घरों की दीवारें एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं तो कहाँ से खिड़की निकलेगी?' राजू ने समझाया।
सुबह होने पर पिता ने ढंग से राजू का घर देखा। एक कमरा, उसके अंदर ही कोने में छोटा सा किचन और दूसरे किरायेदारों के साथ बाँटा जाने वाला सम्मिलित शौचालय। तो ये है राजू का घर, जिसमें वह हम सबके एक साथ रहने की बात करता है?
बाहर छत पर निकल कर चारों तरफ देखा। छोटी-छोटी तंग गलियाँ, खुली नालियाँ और जगह-जगह गंदगी का ढेर। ये दिल्ली कल रात देखी गयी दिल्ली से कितनी अलग थी। उन्हें अनायास ही गाँव के बुजुर्गों की कही बातें याद आ गयीं, 'दिल्ली में क्या मक्खियाँ नहीं रहती?'
दिन में राजू के साथ बाजार जाते हुए इसी दिल्ली को और नजदीक से देखने का मौका मिल गया था उन्हें। भव्य अट्टालिकाओं के दूसरी ओर झुग्गी बस्तियाँ, गन्दगी के ढेर से उठती सड़ांध। मक्खियाँ ही तो हैं, जो गन्दगी के ढेरों पर बैठी हैं।
बाजार पहुँचे तो बड़ी बड़ी दुकाने देखकर वे तो दंग रह गये। बीरा के लिए दो-तीन अच्छी साड़ियाँ छाँटते हुए धीरे से राजू से बोले-
'एक गुलुबंद भी बनावाना था, बेटा। यहाँ तो मिलेगा नहीं। चलो गाँव के सुनार से ही बनवा लूँगा।
'अरे पिताजी! यहाँ सब मिलता है। पहाड़ से आये हुए लोगों ने भी यहाँ पर अब अपना व्यवसाय जमा लिया है। उनके यहाँ पहाड़ का सब कुछ मिलता है।' राजू ने बताया।
'तो ठीक है, गुलुबंद भी यहीं से खरीद लेते है।' राजू के पिता निश्चिन्त होकर बोले। दो दिन किसी तरह दिल्ली में रुककर गुमान सिंह वापिस लौट आये।
गाँव की धरती पर पहुँचकर उन्होंने सुकून भरी लम्बी सी साँस ली। लग रहा था मानो कितने दिनों से खुलकर साँस ही नहीं ले पाये हैं वे।
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दशहरे की छुट्टियाँ पड़ गयी थीं। दीपक गाँव चला आया और आशीष भी अपनी बहिन के पास चला गया। आते ही दीपक ने स्वयं को बीरा के बागदान की तैयारियों में व्यस्त कर लिया था। पच्चीस तीस लोगों के बैठने-रहने की व्यवस्था, उनके खाने-पीने की व्यवस्था तो अब गांव में ही करनी थी। ये शहर तो था नहीं कि सब चीजें किराये पर मिल जायें। इधर-उधर के घरों और गाँवों से बिस्तरे, कुर्सियाँ व बर्तन मँगाये गये। मेहमानों के स्वागत में कोई कमी न रह जाये, इस बात का विशेष ध्यान रखना चाह रहे थे बीरा के मामा।
शाम ढलते ही बीरा के घर आँगन में गाँव की लड़कियों व महिलाओं का जमावडा लग जाता। पहाड़ी लोकगीतों की मिठास लिए मांगलिक बोलों से गाँव ही नहीं वरन पूरा इलाका गुंजायमान हो उठता। बीरा भी उनका साथ देने के लिए सबके बीच में बैठ जाती। मामी की तो खुशी का ठिकाना ही नहीं था।
बागदान से एक दिन पहले बीरा घर में अकेली बैठी थी, और मामा-मामी खेत में गये थे, तभी अचानक विमला बीरा से मिलने आ गयी।
'और बीरा! कैसी है तू?' विमला ने अपनत्वपन से बीरा के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा।
विमला का प्यार भरा स्पर्श पाकर बीरा पिघलने लगी। बहुत दिनों से उसके अंदर का लावा मानो पूफटकर बाहर आ जाना चाहता था। उसकी आँखों से आँसू बह निकले। जोर जोर से दहाड़ें मारकर रोने का जी कर रहा था उसका, विमला की गोद में सिर रखकर।
'बीरा! मेरी बच्ची, संभाल अपने आप को। जब तूने मामा-मामी के लिए इतनी दृढ़ता दिखा दी है, तो अब ये कमजोरी क्यों?' विमला ने समझाते हुए कहा। 'तू तो भाग्यशाली है कि तुझे दीपक जैसे संस्कारी लड़के का स्नेह मिला है। वरना आजकल के लड़के तो प्यार की आड़ में लड़की की जिंदगी बर्बाद करने से नहीं चूकते। विमला के घाव हरे हो गये।
'नहीं विमला चाची! मैं बिल्कुल ठीक हूँ।' बीरा आँसू पोंछते हुए बोली। 'कुछ समय बाद मुझ जैसी अभागन को इतना स्नेह देने वाले मामा-मामी और आप जैसी ममत्व लिए हुए माँ की साक्षात प्रतिमूर्ति धारण किये चाचियों से अलग होना पड़ेगा, यही सोचकर मन उदास हो रहा था। कुछ समय तक बीरा से बतियाने के बाद विमला वापस लौट गयी।
शाम होते ही बीरा के घर में गहमागहमी शुरू हो गयी थी। कहीं बड़े-बड़े भगोनों व कड़ाहों में खाना बन रहा था, कहीं मेहमानों के आने की तैयारियाँ हो रही थी।
मामाजी तो मानो हर काम के लिए दीपक पर ही पूरी तरह से निर्भर थे। वही तो एक जिम्मेदार लड़का था और दीपक भी तो कभी खाना बनाने वालों को सामान दे रहा था। तो कभी मामाजी की पुकार पर उनके पास जा पहुँचता था।
'दीपू बेटा! सब काम ठीक से हो रहा है न? '
'चाचा जी! आप कतई कोई चिन्ता न करें। कोई कमी नहीं रखेंगे हम लोग।' दीपक ने विश्वास दिलाते हुए कहा।
थोड़ी देर बाद ही बीरा की ससुराल से मेहमान पहुँच चुके थे। बीरा के मामा ने आगे बढ़कर मेहमानों का स्वागत किया। बच्चे बूढ़े सब मिलाकर लगभग अट्ठाईस तीस लोग रहे होंगे। पहाड़ की प्रथा के अनुसार लड़का स्वयं अपने बागदान में नहीं जाता, अतः परम्परा का निर्वाह करते हुए राजू भी नहीं आया था। वैसे राजू आना तो चाहता था, लेकिन पिता और बड़े-बूढ़ों की ना-नुकुर के डर से घर पर ही रुक गया था।
और समधी जी, कैसा है हमारा जंवाई? घर तो आया हुआ होगा?' बीरा के मामाजी ने भूमिका बनाते हुए पूछा।
'हाँ..हाँ..एक सप्ताह की छुट्टी आया है। बागदान सम्पन्न हो जाये, तो फिर इसी बीच एक दिन आपसे मिलवा देंगे उसे। 'राजू के पिता ने उत्सुकता से कहा।
अगले दिन सुबह ही बागदान की रस्म होनी थी। अतः मेहमानों को पिठाई लगाकर शीघ्र ही भोजन करवाकर सोने के स्थान पर भेज दिया गया।
अगले दिन मुँह अंधेरे से ही चहल पहल आरम्भ हो गयी थी। कुछ महिलायें दिन में बनने वाले भोजन के लिए सब्जियाँ काट रही थी तो कुछ लोग सुबह के नाश्ते की तैयारियाँ करने में व्यस्त थे।
बीरा को सुबह ही स्नान आदि निपटा कर तैयार होने का निर्देश देकर मामी अन्य कार्यों का निरीक्षण करने चल दी।
लगभग दो घण्टे चली पूजा की समाप्ति के पश्चात बीरा की ससुराल से आये हुए उपहारों को देखकर गाँव वाले चकित रहे गये। सुन्दर-सुन्दर साड़ियाँ, अच्छी बनावट का गुलुबंद, टोकरियों में भरा फल-फ्रूट और तरह-तरह की मिठाइयों के डिब्बे सभी कुछ तो बहुत अच्छा था।
'बीरा, तेरा ससुर तो बहुत पैसे वाला लगता है!' एक सहेली ने छेड़ा तो बीरा का मुँह लाल हो आया।'
दोपहर का भोजन करने के बाद मेहमान विदा हुए। मेहमानों के जाने के बाद फिर सामान को समेटना शुरू हुआ। जो चीज जहाँ से लाई गयी थी, उसे सही सलामत वापिस पहुँचाना। यही सब कुछ व्यवस्थित करते करते शाम ढल आयी थी।
दीपक थक कर इतना चूर हो चुका था कि उसकी आँखे जल रही थी और पैर तो मानों शरीर का साथ ही नहीं दे पा रहे थे। सब काम निपटाकर दीपक ऐसे सोया कि खाना खाने भी नहीं उठ पाया। श्यामा उठाती ही रह गयी- 'बेटा खाना तो खा ले।' पर दीपक! उसकी तो भूख ही मर चुकी थी।
उधर दूसरी तरफ बीरा! उसकी आँखों से तो नींद मानो गायब हो चुकी थी। कैसा होगा उसका होने वाला पति? क्या उसकी इच्छाओं और भावनाओं की कद्र करेगा वो? यही सोचती रह गयी सारी रात बीरा।
मामा-मामी निश्चिंत थे कि चलो बागदान तो निर्विघ्न सम्पन्न हो गया। अब शादी के लिए समधी जी से कुछ समय माँग लेंगे, ताकि तब तक पैसे का भी कुछ प्रबन्ध हो सके और शादी की तैयारी भी व्यवस्थित ढंग से हो जाये।
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उधर बीरा की ससुराल में भी खुशी और उल्लास का माहौल था। सभी लोग बीरा के मामा की भल मनसाहत तथा भावपूर्ण स्वागत सत्कार की तारीफ कर रहे थे।
'देख राजू! मैं कहता न था कि बीरा के सिवा उनका कोई नहीं है।' कोई कमी नहीं रखेंगे वे। सभी कुछ हमारी प्रतिष्ठा के अनुरूप किया है उन्होंने। तू तो बेकार में डर रहा था।' -गुमान सिंह जी संतुष्ट दिखाई दे रहे थे।
राजू कुछ नहीं बोला। ध्यान से अपनी अंगूठी और कपड़ों को देख रहा था।
'क्या देख रहा है ऐसे! जा गाँव में शगुन के लड्डू तो बाँट आ। देख! समधी जी ने कितनी मिठाई भेजी है?' इस बार राजू की माँ बोली।
'हाँ। और सुन, तेरे ससुर तुझसे मिलना चाहते हैं। कल परसों में मौका निकालकर तू भी मिल आ उनसे। मैं भी तेरे साथ चला चलूँगा। विवाह सम्बन्धी दूसरी बातें भी हो जायेंगी और तू अपनी ससुराल और होने वाली बहू को भी देख लेना।' राजू के पिता बोले।
'ठीक है पिताजी! फिर परसों ही चलते हैं फिर मेरी छुट्टियाँ भी समाप्त होने वाली हैं। वापस भी जाना है।' राजू ने बाहर निकलते हुए कहा।
अगले दिन राजू के पिता ने रैबार के रूप में सन्देशा भिजवा दिया कि राजू और वे कल बीरा के मामा से मिलने उनके गाँव आ रहे हैं।
दूसरे दिन शाम को दीपक बीरा के मामा-मामी से मिलने गया, तो बीरा घर में अकेली थी।
'बीरा! कल जा रहा हूँ मैं। चाचा-चाची कहाँ है? उनसे मिलने आया था।' दीपक ने पूछा।
'क्यों? क्या मुझसे नहीं मिल सकते अब? कल एक दिन और रुक जाओ। जब बागदान करवा ही गये हो, तो मेरे होने वाले पति से भी मिलते जाओ। कल ही आ रहे हैं वे यहाँ।' बीरा ने निवेदन के स्वर में कहा।
'बीरा! मैं जरूर रुक जाता पर कल ही कॉलेज की छुट्टियाँ समाप्त हो रही हैं और फिर पढ़ाई भी तो करनी है। दीपक जानता था कि एक दिन कॉलेज नहीं पहुँचेगा तो कोई नुकसान नहीं होगा, किंतु अब उसका मन कतई गाँव में रुकने का नहीं हो रहा था।
'हाँ! अब मेरा इतना हक भी कहाँ रह गया है तुम पर कि मैं तुम्हें एक दिन भी और रुकने को कह सकूँ। मुझे तो पराया बना दिया है सबने। कम से कम तुम तो ऐसा मत करो।' बीरा की आँखें छलछला आयी।
दीपक उस चेहरे का अधिक देर तक सामना नहीं कर पाया और वापिस घर चला आया। हाँ, इतना उसने जरूर किया कि बीरा के कहने पर अगले दिन श्रीनगर जाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। यह सोचकर कि शायद बीरा की उदासी इससे कुछ कम हो पाये।
'बेटी बीरा! आज तू घर पर ही रहना। घास-लकड़ी किसी और से मँगवा लेंगे। आज तो तेरे ससुर और पति आ रहे हैं। उनको अपने हाथ से खाना बनाकर खिलायेगी या नहीं?' बीरा को दरांती कमर में खोसते देखकर बीरा की मामी बोल पड़ी।
'ठीक है मामीजी!' कहकर बीरा रसोई में चली गयी।
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दोपहर में राजू अपने पिता के साथ अपनी होने वाली ससुराल पहुँच गया। राजू देखने में मध्यम कद काठी का साधारण सा लड़का था। उसके पहनावे और बात करने के सलीके से साफ झलक रहा था कि शहर की आबोहवा उस पर अपना असर दिखा चुकी है।
भोजन के वक्त बीरा की मामी जिद करके बीरा को भी भोजन परोसने हेतु ले गयी। बीरा ने कमरे में पहुँच कर अपने ससुर को सेवा लगाकर प्रणाम किया और निगाहें नीची किये भोजन परोसने लगी। राजू तो एकटक बीरा की सुन्दरता को निहारता ही रह गया। लम्बा पतला शरीर, गेहुँआ रंग, लम्बी नाक, गहरी नीली आँखें, चेहरे पर यौवन की चमक बिखेरे तो सचमुच परी जैसी लग रही थी बीरा। पिता से नजरें मिली तो राजू ने झेंपते हुए एकाएक बीरा की तरफ से नजरें फेर ली। पिता की अनुभवी आँखे समझ चुकी थी कि राजू को बीरा पहली नजर में ही भा गयी है।
खाना परोसकर बीरा भोजन कक्ष से बाहर चली गयी।
थोड़ी देर बाद दीपक किसी काम के बहाने चला आया। वह तो बीरा के होने वाले पति से मिलना चाहता था और देखना चाहता था कि बीरा जैसी गुणी लड़की जिसको मिली, वह भाग्यशाली कौन है?'
'आओ बेटा दीपक, आओ। देखो तो बीरा के पति और ससुरजी आये हैं।' बीरा के मामाजी उसे देखकर बोले, 'बड़ा होनहार लड़का है साहब! शहर में रहकर कॉलेज की पढ़ाई कर रहा है। लेकिन शहर में रहकर भी गाँव को भूला नहीं है, बीरा के बागदान में तो सारी भागदौड इसी ने की है', बीरा के मामा दीपक की तारीफ करते हुए बोले।
हाँ! ये तो हम भी देख रहे थे। काफी भाग-दौड़ कर रहा था ये लड़का उस दिन। यदि गाँव में दीपक जैसे कुछ लड़के रह जायें, तो किस्मत सुधर जाये इन सूनापन लिए गाँवों की।' गहरी साँस लेते हुए राजू के पिता बोले।
'गुमान सिंह को सेवा लगाकर प्रणाम कर के और राजू से हाथ मिलाते हुए दीपक बैठ गया।
'जा बेटा! राजू को अपना गाँव तो दिखा ला।' बीरा के मामा दीपक की ओर मुखातिब होते हुए बोले।
हाँ हाँ क्यों नहीं? चलिए आपको अपना गाँव दिखा लाता हूँ।' दीपक ने राजू से कहा।
राजू उठ खड़ा हुआ। मानो उसकी मन की मुराद पूरी हो गयी हो वरना उकता गया था वह यहाँ अपने पिताजी और मामाजी के बीच बैठे-बैठे।
और दीपक! क्या करने का इरादा है तुम्हारा पढ़ाई के बाद? गाँव में तो कुछ करने को है नहीं। वैसे कौन से विषय हैं तुम्हारे कॉलेज में।' राजू ने पूछा।
'बी.एस.सी. कर रहा हूँ। मेरी वनस्पति विज्ञान में रुचि है। शहर में रहना नहीं चाहता, मन करता है पढ़ लिखकर गाँव के लिए कुछ कर पाऊँ, तो जीवन सफल हो जाये,' दीपक ने दार्शनिक अंदाज में कहा।
'कहाँ गाँव के चक्कर में पड़े हो यार! ये भी कोई जिंदगी है? शहरों की जिंदगी की तो बात ही कुछ और है। फिर वहाँ तुम्हें तो आसानी से नौकरी मिल भी जायेगी।' राजू बोला
'चलो मेरी तो देखी जायेगी, क्या करता हूँ? फिलहाल तो पढ़ाई पूरी करना ही लक्ष्य है।' दीपक राजू की बात टालते हुए बोला। राजू का शहर के प्रति इतना लगाव और शेखी झाड़ना उसे कतई अच्छा नहीं लग रहा था।
जो आदमी दो तीन वर्ष के शहरी जीवन में ही इतना बदल जाये कि जिस मिट्टी में उसने जन्म लिया, जहाँ की गलियों में खेल कूदकर कर वह बड़ा हुआ, वही जिंदगी इतनी जल्दी उसे बुरी लगने लगे तो ऐसे इन्सान का भरोसा ही क्या? क्या बीरा खुश रह पायेगी इसके साथ? कहाँ वह विशुद्ध ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी लड़की और कहाँ शहरों की आबोहवा में पूरी तरह रंगा हुआ राजू? कैसे सामंजस्य बिठा पायेगी बेचारी बीरा?
'कहाँ खो गये यार? लगता है इतनी सी देर में ही शहर के सपने देखने लगे हो।' राजू के मुँह से यह सुनकर दीपक चौंक गया।
भाई! मेरे पिताजी तो चाहते हैं कि घर की खेती सँभालू, साथ में छोटी सी दुकान भी करवाना चाहते थे वे, जिसमें घर गाँव की हर जरूरत का सामान मिल जाये। लेकिन ये भी कोई जिंदगी है, यार? मैंने तो साफ-साफ कह दिया कि नौकरी तो शहर में ही करूँगा, आखिर असली जिंदगी तो वहीं है,' राजू अपनी लय में बोलता चला जा रहा था।
'यही तो है पहाड़ का दुर्भाग्य है कि छोटी सी नौकरी करने के लिए यहाँ का नवयुवक शहर तो जा सकता है, वहाँ घुटन भरी जिंदगी जी सकता है लेकिन यहाँ रहकर स्वयं का कोई काम करने में उसे शर्म महसूस होती है। लेकिन दीपक ऐसा नहीं करेगा, वह पढ़ाई पूरी करने के बाद अवश्य गाँव लौटेगा। अपने गाँव, जहाँ की माटी ने पाल पोस कर उसे बड़ा किया, उस मिट्टी के बहुत से ऐहसान हैं उस पर।' दीपक सोचता जा रहा था और दूसरी तरफ राजू शहर पुराण सुनाने में मस्त था।
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'क्यों बेटी! कैसा लगा राजू? राजू तो लग रहा था, मानो तेरी सुन्दरता में खो गया है।' मामी ने पिता और पुत्र के विदा होने के बाद बीरा को छेड़ते हुए कहा।
'मामीजी! आप भी कैसी बातें करती हो? मैंने तो उसे देखा तक नहीं और वैसे भी शक्ल-सूरत में रखा ही क्या है? इन्सान के स्वभाव का पता तो उसके साथ कुछ दिन गुजारने के बाद ही लगता है।' बीरा मुस्कराते हुए बोली।
'हाँ बेटी! आदमी का स्वभाव और गुण मुख्य होते हैं, हमसे तो उसने ज्यादा बात नहीं की, हाँ दीपक के साथ काफी देर तक रहा था। उसे उसके स्वभाव के बारे में अवश्य पता चल गया होगा। जाकर उसी से राजू के बारे में पूछती हूँ।' मामी ने उत्सुकता दिखाते हुए कहा।
'रहने दो न मामीजी! जैसा भी हो?' कुछ समय बाद तो पता लग ही जायेगा।
बीरा नहीं चाहती थी कि मामी दीपक से इस बारे में बात करे। वैसे ही वह क्या कम दुःखी होगा, जो राजू के बारे में पूछकर उसे और दुःखी किया जाये और चाहे अनचाहे उसके घावों को हरा किया जाये।
अगले दिन श्रीनगर जाने से पूर्व दीपक स्वयं ही बीरा से मिलने चला आया। बीरा उस समय घर पर अकेली थी।
'बीरा! आज तो जाना ही होगा। तेरे दूल्हे को देखना था सो देख लिया। राजू अच्छा लड़का है, थोड़ा सा शहर का रंग है उस पर। तेरे साथ रहकर सब ठीक हो जायेगा। तू तो है ही इतनी सुन्दर कि जिसका सानिध्य पाकर पत्थर भी सोना हो जाये।' दीपक बीरा को देखते हुए बोला।
'दीपक! इतना ऊंचा मत उठाओ मुझे। मैं तो बस मामा-मामी की इच्छाओं का सम्मान करते हुए उनके सपनों को पूरा करने का प्रयास मात्र कर रही हूँ। मुझ अभागन को इतना प्यार और सम्मान देकर जो अहसान किया है उन्होंने मुझ पर, उसे ही तो उतारने की कोशिश कर रही हूँ मैं।, बस और कुछ नहीं,' बीरा निर्लिप्त स्वर में बोली।
'बीरा, उनका सपना अब तेरा भी सपना है। तू खुश रहे सब यही चाहते हैं, पर देख इस खुशी में मुझे भूल मत जाना। बचपन का दोस्त तो मैं ही हूँ न तेरा?' बोलते बोलते दीपक का स्वर भीग गया था।
'कैसे भूल सकती हूँ दीपक ! तूने ही तो राह दिखाई है मुझे। इतनी दृढ़ता भर दी है मुझमें कि सब कुछ सहन कर सकती हूँ, यहाँ तक कि सदा के लिए अपनों का बिछोह भी।' अन्तिम वाक्य कहते-कहते बीरा की आँखें भी भर आयी।
दीपक का मन अत्यधिक उदास हो गया था। आखिर बीरा ने अपने मामा-मामी के प्यार, प्रतिष्ठा और अरमानों पर अपने प्यार को कुर्बान कर दिया था। अब तक दृढ़ता से परिस्थितियों का सामना करती आ रही थी, किंतु थी तो आखिर इन्सान ही। दीपक को अपने दिल से भुलाना सम्भव नहीं हो पा रहा था उसके लिए।
दीपक की स्थिति भी ऐसी ही थी, वह बीरा के सम्मुख नहीं आना चाहता था, परंतु जब तक एक गाँव में हैं, तो आमना-सामना टालना चाहकर भी सम्भव नहीं हो पा रहा था।
'दीपक! क्या सोच रहा है तू? बहुत परेशान करती हूँ न तुझे? तू भी सोच रहा होगा कि जल्दी से बला टले तो ठीक रहेगा।' बीरा ने मौन तोड़ने का प्रयत्न करते हुए परिहास के स्वर में कहा।
'नहीं बीरा। ऐसी बात नहीं है', फिर गंभीर स्वर में बोला- 'अगर मैं चाहूँ, तो क्या तू सारी जिंदगी रूक पायेगी यहीं हमारे पास, इसी गाँव में?'
दीपक के स्वर की गहराई को भाँप कर बीरा ने चौंक कर उसकी तरफ देखा। दीपक अजीब सी नजरों से एकटक बीरा को देख रहा था। क्या था उन नजरों में? प्यार, बिछुड़ने का दर्द या कुछ और...बीरा ने निगाहें फेर ली।
'बता बीरा! अब चुप क्यों है?' दीपक ने फिर पूछा।
'दीपक! ये कैसे सवाल कर रहे हो? सब कुछ जानते हुए भी,' बीरा ने उसे झिंझोड़ते हुए कहा। दीपक मानो स्वप्न से जागा 'माफ कर दे बीरा! पता नहीं क्या हो गया था मुझे? तू सदा खुश रहे, बस यही चाहता हूँ।' उसका स्वर भर्रा गया था।
दोनों की निगाहें पल भर के लिए मिलीं और फिर झुक गयी।
'मैं चलता हूँ बीरा! वरना बस नहीं मिलेगी।' दीपक चलने के लिए उठ खड़ा हुआ।
बीरा का मन तो हो रहा था कि उससे कहे कि थोड़ी देर और रुक जाये, किंतु किस अधिकार से कहती? वह तो दीपक को पहले ही खो चुकी थी। दीपक चला गया और उसके जाने के साथ ही बीरा का एक सुन्दर सपना भी जैसे टूट सा गया।
बीरा ने घर का सारा काम, मवेशियों के लिए घास लाना, चूल्हे के लिए लकड़ी लाना, खेत खलिहानों की देखभाल, सबकुछ अपने जिम्मे कर लिया था। मामी कहती थक जाती थी, लेकिन बीरा ने अपने को काम में डुबो दिया था ताकि कुछ और याद ही न रहे। रात को उसे थकान से इतनी गहरी नींद आ जाती कि कुछ सोचने का समय ही नहीं मिल पाता। आखिर वह चाहती भी तो यही थी।
'मामीजी, कुछ दिन तो आराम कर लो, फिर तो आपने मुझे पराये घर भेज ही देना है। जितने दिन इस घर में हूँ, आप दोनों की सेवा कर सकूँ तो बहुत सौभाग्यशाली समझूंगी अपने आप को।' बीरा की ये बातें सुन मामी की आँखों में पानी भर आता।
सगी बेटी होती तो भी इससे ज्यादा प्यार और सम्मान दे पाती क्या? जितना बीरा ने दिया है। मामा-मामी बीरा की प्रशंसा करते न थकते थे।
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दीपक श्रीनगर वापिस पहुँचा, तो आशीष कमरे में ही था। पता चला कि वह न तो छुट्टियों में घर गया और न ही बहिन के पास।
'तू छुट्टी में घर नहीं गया था क्या?'
'क्या करना था घर जाकर? कौन सी माँ प्रतीक्षा कर रही है घर पर? मैं तेरी तरह खुशकिस्मत नहीं।' दीपक की बात का जवाब दिया आशीष ने और पूछा- 'और तू बता! तेरी छुट्टियाँ कैसी रही?'
ठीक रहीं। बीरा का बागदान था, उसी में व्यस्त रहा। बस सारी छुट्टियाँ उसी में कट गयी।' दीपक उदास स्वर में बोला।
क्या तूने अपनी सारी छुट्टियाँ बीरा के बागदान की तैयारियों में ही बिता दी?'
आशीष ने आश्चर्य से पूछा और फिर शरारतपूर्ण स्वर में बोला- 'यार तेरा चेहरा तो कुछ और ही बता रहा है। कोई खास थी क्या?'
नहीं यार, कोई खास नहीं बस।' दीपक उदास स्वर में बोला। दीपक को उदास हुआ देख आशीष ने बात यहीं खत्म कर दी।
दीपक मन में सोचने लगा कि क्या वह दुःखी है? क्या उसके चेहरे पर उसका दर्द झलक रहा है? लेकिन क्यों दुःखी है वह? बीरा का विवाह तो एक न एक दिन होना ही था। जब बीरा स्वयं इस विवाह से प्रसन्न है, तो फिर वही दुःखी क्यों है? इतना स्वार्थी तो नहीं होना चाहिए उसे। लेकिन अगले ही पल फिर से सोचने लगा कि क्या बीरा ने उसे धोखा नहीं दिया? उसको एक बार तो बता देती कि उसका रिश्ता पक्का हो रहा है।
दूसरे ही पल उसने महसूस किया कि वह फिर गलत सोचने लगा है। क्या कर लेता वह, अगर बीरा उसे बता भी देती तो? बीरा ने जो कुछ किया, ठीक ही तो किया। धोखा तो तब होता, जब उसने कभी बीरा से कहा होता कि वह उससे विवाह करेगा।
आखिर कब तक प्रतीक्षा करती बीरा उसकी? उसने वही तो किया जो उसे अपने सुरक्षित भविष्य के लिए करना चाहिए था। दीपक! तुम्हारा तो अभी स्वयं का ही कोई भविष्य नहीं है, फिर तुम किसी और का क्या भविष्य बना पाओगे? अपने मन के साँप को फन उठाने से पहले ही कुचल दिया दीपक ने।
पढ़-लिखकर गाँव के लिए कुछ कर पाना अब उसकी दिली तमन्ना और प्राथमिकता थी और अपनी इस मंजिल को पाने के लिए उसने अपने आपको तन मन से पढ़ाई में जुटा लिया था।
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बागदान के बाद राजू भी नौकरी पर दिल्ली वापिस लौट गया था और उसके पिता शादी का दिन निकलवाने पंडित को कह आये थे। वे तो चाहते थे कि राजू का विवाह शीघ्र हो जाये, लेकिन वीरा के मामा की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हए उन्होंने पंडित से लगभग छः माह के बाद ही इस शुभ दिन के लिए आग्रह किया। पंचाग देखने के पश्चात् पंडित ने एक वर्ष बाद का ही समय बताया। इससे पूर्व राजू और बीरा की कुंडलियों के हिसाब से कोई और दिन विवाह के लिए शुभ नहीं बैठ रहा था।
यही सूचना राजू के पिता ने बीरा के मामा को भी भिजवा दी थी। बागदान और विवाह के बीच इतना लम्बा समय बीरा के मामा को अच्छा तो नहीं लगा था, लेकिन क्या करते? विवाह तो शुभ दिन पर ही करना था।
शादी के लम्बे समय तक टलने से सबसे अधिक प्रसन्न थी तो बीरा। 'भगवान जो कुछ करता है भले के लिए ही करता है। वह बारहवीं की परीक्षा पूरी तरह निश्चिन्त होकर दे पायेगी अब।' बीरा मन ही मन प्रसन्न हो रही थी।
बीरा ने धूल खा रही किताबों को अच्छी तरह झाड़ा-पोंछा और फिर से पढ़ाई के लिए समय निकालने लगी। इस बार दीपक घर आयेगा, तो उससे कहेगी कि उसका बारहवीं का फार्म भी भरवा दे। जब तक समय साथ दे रहा है, तब तक तो अपने मन की साध पूरी कर ही ले। उसके बाद किस्मत जहाँ ले जायेगी, वैसा ही कर लेगी।
दो दिन आशीष के गाँव में बिताने के बाद दीपक अपने गाँव पहुँच चुका था। पहुँचते ही उसे पता चला कि बीरा के विवाह में अभी काफी समय शेष है। दीपक ने राहत की साँस ली। विवाह में देरी की बात सुनकर लगा कि चलो इसी बहाने बीरा कुछ दिन और इसी गाँव में रह पायेगी।
अगले ही पल दीपक बीरा से मिलने उसके घर जा पहुँचा।
'आओ दीपक! मैं तो तुम्हारे पास ही आने वाली थी, काकी ने सुबह ही धारे पर बता दिया था कि तुम घर आ चुके हो।' बीरा ने प्रसन्नता से कहा।
उसकी प्रसन्नता देख कर दीपक को अच्छा लगा- 'क्यों प्रतीक्षा कर रही थी? फिर कोई खुराफात सूझ रही थी क्या तुझे? अब तो सुधर जा, शादी होने वाली है तेरी।' बीरा को प्रसन्न देख दीपक भी मजाक की तरंग में आ गया था।
'अरे नहीं दीपक। समय ने एक मौका दिया है। शादी में देरी है तो इस समय का सदुपयोग भला क्यों न कर लिया जाये। सोच रही हूँ कि बारहवीं का फार्म ही भर दूं। तो ये तेरी जिम्मेदारी है कि मेरा फार्म भरवा देगा और किताबें भी दिलवा देना कहीं से। तेरी किताबें तो साइंस साइड की हैं। केवल हिन्दी और अंग्रेजी की ही किताबें मेरे काम में आ पायेंगी। बीरा आत्मविश्वास से बोली।
'ठीक है बीरा! यदि तू आगे पढ़ने के लिए इतनी उत्साहित है, तो मैं कल ही अपने किसी दोस्त से तेरी बाकी पुस्तकों की व्यवस्था करता हूँ। तेरा फार्म भरवाने की जिम्मेदारी भी मेरी।' दीपक बीरा के किसी काम आ जाये, ये उसके लिए बहुत बड़ी संतुष्टि थी।
शहर वापिस जाने से पहले दीपक बीरा के लिए सारी किताबों की व्यवस्था कर गया था। इस बार दीपक को लगा था, मानो उसके पुराने दिन लौट आये हों। इसी धुन में तो मानो वह भूल ही गया था कि बीरा अब पराई हो चुकी है और कुछ ही समय बाद ही उसका विवाह होने वाला है।
समय यूँ ही बीतता जा रहा था। बीरा अपनी बारहवीं की परीक्षायें दे चुकी थी, जबकि दीपक की बी.एस.सी. द्वितीय वर्ष की वार्षिक परीक्षायें चल रही थीं। समय मानों पंख लगाकर उड़ता हुआ बीरा की शादी की बाट जोह रहा था।
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कालेज में शीतकालीन अवकाश पड़ गया था। कल से स्कूल बंद हो रहे थे। दीपक भी घर जाने के लिए बेचैन था। किंतु आशीष ने उसे वायदा याद दिलाया। 'दीपक! यार अब की बार तू मेरे गाँव चल। अपना वायदा याद है न तुझे?'
'हाँ याद तो है, लेकिन क्या अगली बार नहीं चल सकते?'
'नहीं यार! यह तो वादाखिलाफी है। इस बार तो तुझे चलना ही होगा।- आशीष ने जिद की।
आखिर आशीष की जिद के आगे झुकना ही पड़ा दीपक को, और दोनों पहुँच गये आशीष के गाँव।
गाँव से एकदम अलग मकान था आशीष का। मकान नहीं, पूरा का पूरा बंगला था।
आशीष की सौतेली माँ घर में ही थी। आशीष ने भी सौतेली माँ को पहली ही बार देखा था। दूर से ही लापरवाही से उसने प्रणाम किया।
माँ नजदीक पहुँची और आशीष के सिर पर हाथ फेरकर बोली- 'तू ही आशीष है न? मैं तुझसे मिलने के लिए न जाने कब से व्याकुल थी बेटा। कितनी बार तेरे पिता से कहा कि चिट्ठी लिखकर तुझे घर बुलायें, लेकिन उन्हें फुरसत हो तब न?'
आशीष चुप रहा। दीपक को अहसास हुआ कि वास्तव में वह जरूर आशीष से मिलना चाहती रही होंगी, तभी तो उसने आशीष को एक ही नजर में तुरन्त पहचान लिया।
शाम को पिताजी भी घर पहुँच चुके थे। दीपक ने आशीष के पिता के पाँव छुये किंतु आशीष ने दूर से ही दोनों हाथ जोड़ दिये थे।
माँ ने दोनों की खूब आवभगत की। रात्रि को एक साथ सबके लिए खाना परोसा गया, तो आशीष ने कह दिया कि वह बाद में खा लेगा।
दीपक की जिद के चलते उसे मजबूरन पिता के साथ ही खाने पर बैठना पड़ा। करीब पन्द्रह वर्ष बाद उसने पिता के साथ बैठकर खाना खाया होगा।
उसे उन दिनों की यादें ताजा हो आयी, जब माँ चूल्हे के समीप बैठकर सबको एक साथ खाना खिलाती थी। आज भी चूल्हे पर माँ बैठी थी, किंतु यह तो सौतेली माँ थी। बहुत फर्क होता है अपनी माँ और सौतेली माँ में। नम हो आयी आशीष की आँखें।
अनुभवी पिता ने शायद आशीष का दर्द भांप लिया। संयत स्वर में बोले- 'आशीष बेटा! मैंने तुझे बहुत दुःख दर्द दिये हैं। अनाथों जैसा जीवन व्यतीत करने पर मजबूर किया मैंने तुझे, मैं तेरा गुनाहगार हूँ।'
आशीष चुप रहा। 'अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत', किंतु दीपक को आशीष के पिता का इस तरह खुलकर पश्चाताप करना अच्छा लगा।
खाना खाकर दोनों अपने कमरे में सोने चले गये। कुछ ही देर बाद माँ दूध के दो गिलास लेकर आयी और सामने रखकर आशीष से बोली।
'कितनी छुट्टियाँ हैं तेरी?'
'बस पन्द्रह दिन।' नजरें फेरकर कहा आशीष ने।
'तो तू इन छुट्टियों में कहीं नहीं जायेगा। अपनी माँ के पास ही रहेगा।' माँ स्नेह से बोली और फिर दीपक की ओर देखकर कहा- 'क्यों दीपक?'
दीपक ने हाँ में हाँ मिलाई- 'माँ ठीक कहती हैं।'
चुप रहा आशीष। माँ चली गयी। उसके जाने के बाद आशीष ने दूध के गिलास को घूरा। दीपक ने दूध पीने की चेष्टा करते हुए जैसे ही गिलास मुँह से लगाना चाहा, तो आशीष ने उसका हाथ बीच में ही रोक दिया- 'मत पी इसे! कुछ भी हो सकता है।'
दीपक समझ गया। आशीष के मन की आशंका स्वाभाविक थी। सौतेली माँ ने जो दिया था। फिर सौतेली माँ के बारे में किताबों में लिखी गयी उलूल-जलूल बातों का असर जो था उसके मन पर।
'अरे कुछ नहीं होता यार! क्यों घबराता है?' दीपक ने कहा।
'अरे यार! मैंने कहानियों और फिल्मों में देखा है, सौतेली माँ दूध में जहर मिला देती है।' आशीष ने आंशका व्यक्त की।
दीपक ने गिलास नीचे रखा और एक झटके में आशीष के सामने वाला दूध का गिलास उठा कर गटक लिया- 'ले! जो होगा मुझे होगा।'
आशीष हतप्रभ रह गया। तभी द्वार पर हल्की सी दस्तक हुई और आशीष के पिता अंदर आ गये।
'आशीष बेटा! अपने पिता को माफ नहीं करेगा क्या?' उन्होंने भावुक होकर कहा। आशीष चुप रहा, तो दीपक ने उसे कोहनी मारी- 'पिताजी कुछ कह रहे हैं तुझसे।'
इतने वर्षों बाद पिता के मुँह से प्रेम भरे शब्द सुनकर आशीष पिघल गया। पिता के सीने से लिपट कर फूट-फूटकर रोने लगा। पिता भी बहुत देर तक उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए उस पर बरसों का प्यार और स्नेह लुटाते रहे। पिता पुत्र का मिलन देखकर दीपक की आँखें भी भर आयीं। आशीष के साथ उसके गाँव आना सचमुच ही सुफल हो गया था।
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सुबह आशीष की नींद खुली, तो उसने महसूस किया कि उसके सिर पर कोई हाथ फेर रहा है। हड़बड़ाहट में वह उठा तो देखा कि माँ दो गिलास चाय ट्रे में लिए खड़ी थी।
'बेटा! चाय पी लो।' -माँ चाय रखकर चली गयी।
'दीपक! ओ दीपक! उठ जल्दी!' आशीष ने दीपक को झकझोरा- देख तेरी माँ चाय लेकर आ गयी।
'हाँ! माँ तो माँ होती है, चाहे वह मेरी हो या किसी और की।' उसके व्यंग्य का जवाब दिया दीपक ने। चाय पीकर दोनों तौलिया-साबुन उठाकर बाहर जंगल चले गये।
जब तक वे लौटे तो माँ ने नाश्ता तैयार कर लिया था। पिता ब्लाक प्रमुख थे इसलिए किसी काम से सुबह जल्दी ही घर से निकल गये।
नाश्ता परोसते हुए माँ ने धीरे से कहा- 'आशीष बेटा! तेरे साथ जो हुआ उसे भूल जा। देख मैं तेरी दुश्मन तो नहीं हूँ। मैं तुझसे वायदा करती हूँ कि तेरे खोये हुए दिन मैं फिर लौटा दूँगी।'
मौन ही रहना ठीक समझा आशीष ने। किंतु दीपक ने ही बोलना शुरू किया- 'मांजी! यह तो अब पत्थर की तरह हो गया एकदम बेरुखा।'
'मैं इसे प्यार दूँगी। माँ का प्यार। सौतेली हूँ तो क्या हुआ?' माँ बोली- लेकिन दुनियाँ को दिखलाऊँगी कि सौतेली माँ भी अपनी माँ से बढ़कर हो सकती है।'
बहुत देर से बात अपनी जुबान पर दबा रखी थी दीपक ने। अब उचित मौका देखकर बाहर निकालते हुए कहा- 'माँजी! आप अब तक कहाँ थी? थोड़ा पहले आशीष को मिल जाती तो...।'
'बेटा! मैं भी किस्मत की मारी हूँ। मुझे इस घर में सहारा मिल गया, वरना मैं भी दर-दर की ठोकरें खाती रहती।' माँ ने बोलना शुरू किया।
'मेरी शादी पन्द्रह वर्ष की उम्र में कठूड़ गाँव में कर दी गयी थी। मेरे पति फौज में थे। शादी के दस वर्ष तक मेरी जब कोई सन्तान पैदा नहीं हुई तो मेरे सास-ससुर और जेठ ने मुझे बाँझ कहकर ताने मारने शुरू कर दिये।
किसी तरह से मैं अपने दिन काटे जा रही थी, लेकिन इसी दौरान मुझ पर विपदाओं का एक पहाड़ टूट पड़ा गया। पति की सेना में सेवा के दौरान ही अकस्मात मुत्यु हो गयी।
मेरे परिवार वालों ने कुछ दिन तक तो मुझसे बहुत प्यार-प्रेम जताया किंतु ज्यों ही मेरे पति का सारा जमा फंड आदि मिल गया, तो उन्होंने मुझसे सब कुछ हड़प कर मुझे मार पीटकर घर से बेघर कर दिया।
मैं बेबस अपने मायके चली आयी। लेकिन मायके में भी भाई भाभियों ने मुझे विधवा और गरीब समझ कर डाँट डपट ही की और दर दर की ठोकरें खाने को विवश कर दिया।
दुनिया भर की सतायी इस अभागन को इस घर में सहारा मिला और मुझे बेटा भी मिल गया। आशीष के पिता ने भी अब शराब पीनी बंद कर दी है और सीधे रास्ते पर चलने की कसमें खाई हैं।'
माँ ने जब अपनी कहानी सुनाई तो उसकी आँखों से आँसुओं के रूप में सारा दर्द छलक आया। पहली बार आशीष को लगा कि वह माँ को अब तक बहुत गलत समझ रहा था।
भर्राये हुए स्वर में उसने पहली बार माँ को सम्बोधित किया- 'माँ, मुझे माफ कर दो, मैं तुम्हें गलत समझता रहा।' माँ ने बड़े ही प्यार से उसे सीने से लगा लिया।
'कोई बात नहीं मेरे बच्चे। अभी वक्त है। देर आये दुरस्त आये।'
सचमुच आशीष को ममता भरे इसी स्नेह की आवश्यकता थी, जो आज उसे माँ के रुप मे मिल गया था। दीपक को इस बात का संतोष था कि अब अवश्य ही आशीष की जीवनधारा और जीने का उददेश्य बदल जायेगा।
रात को खाना खाने के बाद सोते समय दीपक ने आशीष से कहा- 'आशीष, मुझे कल जाना है यार! अपने गाँव। चल दो एक दिन के लिए तू भी चल मेरे साथ।'
'नहीं यार।' आशीष बोला- 'मुझे पूरी छुट्टी यहीं काटनी हैं अपनी माँ के पास।'
दीपक ने आशीष के चेहरे पर लौट आयी रौनक को पहली बार देखा और महसूस किया था। आशीष के गाँव आकर सचमुच सुकून का अहसास हो रहा था दीपक को।
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बागदान के बाद राजू भी नौकरी पर दिल्ली वापिस लौट गया था और उसके पिता शादी का दिन निकलवाने पंडित को कह आये थे। वे तो चाहते थे कि राज का विवाह शीघ्र हो जाये, लेकिन वीरा के मामा की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने पंडित से लगभग छः माह के बाद ही इस शुभ दिन के लिए आग्रह किया। पंचाग देखने के पश्चात् पंडित ने एक वर्ष बाद का ही समय बताया। इससे पूर्व राजू और बीरा की कुण्डिलयों के हिसाब से कोई और दिन विवाह के लिए शुभ नहीं बैठ रहा था।
यही सूचना राजू के पिता ने बीरा के मामा को भी भिजवा दी थी। बागदान और विवाह के बीच इतना लम्बा समय वीरा के मामा को अच्छा तो नहीं लगा था, लेकिन क्या करते? विवाह तो शुभ दिन पर ही करना था।
शादी के लम्बे समय तक टलने से सबसे अधिक प्रसन्न थी तो बीरा। 'भगवान जो कुछ करता है भले के लिए ही करता है। वह बारहवीं की परीक्षा पूरी तरह निश्चिन्त होकर दे पायेगी अब।' बीरा मन ही मन प्रसन्न हो रही थी।
बीरा ने धूल खा रही किताबों को अच्छी तरह झाड़ा-पोंछा और फिर से पढ़ाई के लिए समय निकालने लगी।इस बार दीपक घर आयेगा, तो उससे कहेगी कि उसका बारहवीं का फार्म भी भरवा दे। जब तक समय साथ दे रहा है, तब तक तो अपने मन की साध पूरी कर ही ले। उसके बाद किस्मत जहाँ ले जायेगी, वैसा ही कर लेगी।
दो दिन आशीष के गाँव में बिताने के बाद दीपक अपने गाँव पहुँच चुका था। पहुंचते ही उसे पता चला कि बीरा के विवाह में अभी काफी समय शेष है। दीपक ने राहत की साँस ली। विवाह में देरी की बात सुनकर लगा कि चलो इसी बहाने बीरा कुछ दिन और इसी गाँव में रह पायेगी।
अगले ही पल दीपक बीरा से मिलने उसके घर जा पहुँचा।
'आओ दीपक! मैं तो तुम्हारे पास ही आने वाली थी, काकी ने सुबह ही धारे पर बता दिया था कि तुम घर आ चुके हो।' बीरा ने प्रसन्नता से कहा।
उसकी प्रसन्नता देख कर दीपक को अच्छा लगा-'क्यों प्रतीक्षा कर रही थी? फिर कोई खुराफात सूझ रही थी क्या तुझे? अब तो सुधर जा, शादी होने वाली है तेरी।' बीरा को प्रसन्न देख दीपक भी मजाक की तरंग में आ गया था।
'अरे नहीं दीपक। समय ने एक मौका दिया है। शादी में देरी है तो इस समय का सदुपयोग भला क्यों न कर लिया जाये। सोच रही हूँ कि बारहवीं का फार्म ही भर दूं। तो ये तेरी जिम्मेदारी है कि मेरा फार्म भरवा देगा और किताबें भी दिलवा देना कहीं से। तेरी किताबें तो साइंस साइड की हैं। केवल हिन्दी और अंग्रेजी की ही किताबें मेरे काम में आ पायेंगी।' बीरा आत्मविश्वास से बोली।
'ठीक है बीरा! यदि तू आगे पढ़ने के लिए इतनी उत्साहित है, तो मैं कल ही अपने किसी दोस्त से तेरी बाकी पुस्तकों की व्यवस्था करता हूँ। तेरा फार्म भरवाने की जिम्मेदारी भी मेरी।' दीपक बीरा के किसी काम आ जाये, ये उसके लिए बहुत बड़ी संतुष्टि थी।
शहर वापिस जाने से पहले दीपक बीरा के लिए सारी किताबों की व्यवस्था कर गया था। इस बार दीपक को लगा था, मानो उसके पुराने दिन लौट आये हों। इसी धुन में तो मानो वह भूल ही गया था कि बीरा अब पराई हो चुकी है और कुछ ही समय बाद ही उसका विवाह होने वाला है।
समय यूँ ही बीतता जा रहा था। बीरा अपनी बारहवीं की परीक्षायें दे चुकी थी, जबकि दीपक की बी.एस.सी. द्वितीय वर्ष की वार्षिक परीक्षायें चल रही थीं। समय मानों पंख लगाकर उड़ता हुआ बीरा की शादी की बाट जोह रहा था।
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राजू छुट्टी लेकर गाँव आया हुआ था। एक शाम पिता ने विवाह सम्बन्धी तैयारी की चर्चा के लिए उसे अपने पास बिठा लिया।
बेटा राजू, शादी में अब छः माह का समय रह गया है। अब जो भी तैयारी करनी है, वह आरम्भ कर देनी चाहिए। बहू और बाकी लोगों के लिए जो कपड़े लेने हैं, उसके लिए मैं और तेरी माँ दोनों ही दिल्ली आ जायेंगे। बाकी छोटा-मोटा सामान आसपास के शहर से ही खरीद लेंगे। तू बता तेरा क्या कार्यक्रम है?' पिता ने राजू से पूछा।
'पिताजी, ये सब तो ठीक है। आप एक बार लड़की वालों से भी तो बात कर लीजिए। मुझे बेकार की चीजें दहेज में नहीं चाहिए। मुझे बीरा को अपने साथ लेकर जाना है, तो सामान भी तो वहाँ के हिसाब से ही देना चाहिए उन्हें।' राजू ने अपनी मंशा प्रकट की।
'बेटा! यहाँ अभी ऐसा रिवाज नहीं है कि लड़की वालों से दहेज माँगा जाये। ऐसे लोगों को यहाँ नीच प्रवृत्ति का समझा जाता है। हमारे पास किस चीज की कमी है? ईश्वर की दया से धन, दौलत, पद, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान और भरा पूरा सम्पन्न परिवार सभी कुछ तो है अपने पास। फिर वे लोग खुशी-खुशी जो देंगे, हमें उसे ही स्वीकार करना चाहिए।' राजू के पिता समझाते हुए बोले।
'पिताजी, आप समझते क्यों नहीं, हम दहेज तो नहीं माँग रहे हैं। बजाय इसके कि वे बेकार का सामान दें, हम उनसे अपनी आवश्यकता का सामान देने को कह देते हैं। खर्चे में भी कोई खास अन्तर नहीं पड़ेगा।' राजू पलटकर अपने पिता को समझाने लगा।
'लेकिन बेटा...' पिता झिझकते हुए बोले।
'लेकिन...लेकिन कुछ नहीं पिताजी।' राजू ने बीच में ही टोक दिया- 'पहले तो आपने बड़े सब्जबाग दिखाये थे कि बीरा उनकी इकलौती बेटी है, दिल खोलकर खर्च करेंगे। अब आप ही उनसे बात करने से मुकर रहे हैं। आपके कहने से मैंने यह रिश्ता मंजूर किया वरना मुझे दिल्ली में लड़कियों की कोई कमी थी क्या?' राजू नाराज होने लगा था अब।
'क्या चाहता है तू। कुछ बता, तो मैं बात करूँ।' राजू को ताव में आता देख पिता ने हथियार डाल दिये थे।
'पिताजी गाँव के लिए बड़े-बड़े बर्तन देने के बदले वे हमें एक रंगीन टेलीविजन दे दें। दिल्ली में गर्मी भी बहुत है। गर्मियों में ठंडा पानी पीना हो, तो पड़ोसियों से माँगना पड़ता है। बहुत शर्म आती है, कई बार। फ्रिज भी होना जरूरी है। उन्हीं की बेटी को आराम होगा। मेरा क्या? मैं तो दिन भर ऑफिस में रहता हूँ।' राजू ने अपना मन्तव्य स्पष्ट किया।
'रंगीन टी. वी., फ्रिज...? ये क्या बात कर रहा है तू? गाँव में तो लोग जानते भी नहीं कि ये क्या होता है। दहेज में देने की बात तो दूर। क्यों शर्मिन्दा करवा रहा है तू मुझे सब लोगों के सामने?' पिता की स्थिति दयनीय हो चली थी।
'तो ठीक है पिताजी, आप ये बात नहीं कर सकते तो उन्हें इस शादी के लिए मना कर दीजिए। ये तो कर सकते हैं न आप? पता नहीं क्यों दिमाग फिर गया था उस समय मेरा, जो मैं आपकी मीठी बातों में आ गया।' राजू बिफरते हुए बोला।
'पागल हो गया है तू! किया कराया रिश्ता तोड़ दूँ? मेरी इज्जत की कुछ परवाह है तुझे, या नहीं? और उस लड़की का क्या होगा, ये भी सोचा है तूने कभी?' पिता आवेश में आकर बोले।
'तो ठीक है! आप अपनी और लड़की वालों की इज्जत संभालिए, मैं तो चला।' और राजू गुस्से में अपना सामान बाँधने लगा।
पिता विवश हो गये। अब इधर कुँआ और उधर खाई। दहेज की माँग करते हैं तो भी जग हँसाई होती है और नहीं करते हैं, तो राजू रिश्ता तोड़ देगा। यह और भी बड़ी समस्या थी। अजीब धर्मसंकट में उलझकर रह गये थे वे।
'रुक जा राजू! मैं उन लोगों से कल ही जाकर बात कर लूँगा।' पिता के स्वर में विवशता साफ झलकती थी।
'ठीक है पिताजी!' राजू सामान बाँधना छोड़ बाहर निकल गया।
गुमान सिंह सोचने लगे 'क्या हो गया है इस लड़के को? क्या शहर की हवा इतनी खराब है कि लोग चंद सपनों के लिए परिवार की मान मर्यादा और प्रतिष्ठा सब दाँव पर रख देते हैं? इस बुढ़ापे में मुझे ये दिन भी देखना पड़ेगा कि लड़की वालों से दहेज की मांग करनी पड़ेगी। क्या सोंचेगे बीरा के मामा-मामी और क्या धारणा बनायेगी हमारे परिवार के प्रति स्वयं हमारी होने वाली बहू बीरा?, लेकिन अपनी स्वयं की, अपने परिवार की पद प्रतिष्ठा, मान सम्मान को दाँव पर लगाते हुए विवश होकर जाना तो पड़ेगा ही, अन्यथा कहीं राजू ने विवाह से ही इनकार कर दिया तो...?
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गुमान सिंह जी को अचानक ही घर में आया देखकर कृपाल सिंह चौंक उठे।
'सब ठीक तो न है समधी जी, आपने तो आने की खबर ही नहीं दी।
'हाँ..हाँ. समधी जी सब ठीक है। पास के गाँव में कछ काम से आया था सोचा इसी बहाने आप से भी मिलता चलूँ। विवाह निकट है कुछ विचार विमर्श भी हो जायेगा।' सफाई देते हुए बोले राजू के पिता।
'बिल्कुल ठीक सोचा आपने। मैं भी सोच रहा था कि अब बीरा की शादी की तैयारियाँ आरम्भ कर देनी चाहिए। खरीददारी में कुछ तो समय लगता ही है।' मामा की आँखों में भी उत्साह था।
'कृपाल सिंह जी अधिक क्या खरीददारी करनी है? बड़े बरतन तो आप लीजिएगा मत। कितना काम आते हैं ये। फिर बच्चों को तो शहर में ही रहना है। ज्यादा अच्छा होगा यदि उन्हें उनके काम में आने वाले उपहार ही दिये जायें।' राजू के पिता मतलब की बात पर आते हुए बोले।
'कैसी बात कर रहे हैं आप?' बीरा के मामा आश्चर्य से बोले- 'बीरा हमारी इकलौती बेटी है। हम भी अपनी प्रतिष्ठा नीची नहीं होने देंगे। ये सब तो मैं अपनी खुशी से दूंगा।'
'ये बात नहीं है समधी जी।' गुमान सिंह संकुचाते हुए बोले- 'जी! आजकल के लड़कों का क्या कहना? शहर में रहने लगे हैं, तो सोचते हैं कि उनका विवाह भी वहीं के तौर तरीकों से हो। राजू घर आया हुआ है आजकल। उसका सुझाव है कि इन सब चीजों की जगह अगर और कुछ...।' बात अधूरी छोड़ दी उन्होंने।
बीरा के मामा का माथा ठनका, हे ईश्वर कहीं कोई ऐसी-वैसी माँग रख दी राजू ने, जो वे पूरी न कर सके तो क्या होगा? बोले- 'आप बताइये राजू की आवश्यकता क्या है? मैं उसकी इच्छापूर्ति का हर सम्भव प्रयास करूंगा।'
'दरअसल बात ये है कि राजू चाहता है कि उसे रंगीन टेलीविजन और फ्रिज दिया जाये। दिल्ली में गर्मी बहुत है न, ये सब आपकी बेटी के भी काम आयेगा।' गुमान सिंह राजू की बात दोहरा रहे थे।
'रंगीन टी वी और फ्रिज! गुमान सिंह जी इन सब चीजों का तो हमने सिर्फ नाम ही सुना है। आज तक देखा कभी नहीं है। फिर ये तो बहुत मंहगी होती होगी।
कहाँ से करूँगा मैं ये सब?' उनके माथे पर चिन्ता की लकीरें उभर आई।
'क्या करें कृपाल सिंह जी, देखी तो हमने भी नहीं है। पर बच्चों की जिद है, उनके आगे किसका वश चला है। फिर आपको बर्तन इत्यादि देने की आवश्यकता नहीं है, ये भी तो सोचिए आप।' बीरा के मामा को समझा रहे थे राजू के पिता।
'किंतु समधी जी! बरतनों की और टी वी, फ्रिज की कीमत में तो बहुत अन्तर होता होगा? आपने पहले तो कभी इस सम्बन्ध में बात नहीं की?' कृपाल सिंह को अब क्रोध आने लगा था।
'मैंने कहाँ पहले इस बारे में सोचा था? वह तो राजू शहर में ये सब देख आया है। कहता है शादी में ये सब तो मिलना ही चाहिए, वरना शादी नहीं करेगा,' गुमान सिंह ने तरकश से आखिरी तीर छोड़ा।
क्या कह रहे हैं समधी जी आप? विवाह नहीं करेगा, तो क्या सगाई तोड़ देगा? ऐसा कभी हुआ है हमारे इस समाज में और इस इलाके में कि दहेज के लिए रिश्ता तोड़ दिया जाये? हमारी तो इज्जत खाक में मिल जायेगी। कौन करेगा हमारी बीरा से विवाह? हमारी इज्जत तो अब आपके ही हाथ में है, समधी जी।' बीरा के मामा गिड़गिड़ाने लगे थे।
क्या करूँ समधी जी! मैं तो लाचार हूँ। राजू बार-बार धमकी भरे अन्दाज में कहता है कि उसे तो दिल्ली में रहने वाले ही किसी परिवार ने अपनी बेटी के लिए पसन्द कर कर लिया था, किंतु तब तक मैंने उसका रिश्ता आपके यहाँ तय कर दिया था, इसलिए वह समय रहते मुझसे उस बारे में बात नहीं कर पाया। वे लोग तो शहर के अनुसार सभी कुछ देने को तैयार थे।' राजू के पिता ने अब दबाव की रणनीति बना ली थी।
ये क्या हो गया। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। अब अचानक इतनी सारी और बेतुकी माँग? अगर पूरी नहीं करते, तो इनका तो कुछ बिगड़ेगा नहीं। तुरन्त अपने बेटे की कहीं और शादी कर देंगे, लेकिन हम क्या कहेंगे लोगों से? कौन यकीन करेगा हमारी बात पर? सोचेंगे लड़की में ही कोई खोट होगा और ये बहाना बना रहे हैं। बीरा बिटिया की जिंदगी तो हमेशा के लिए बरबाद हो जायेगी। उसका घर बस जाये यही तो सपना था निःसंतान मामा-मामी का। यह सपना पूरा होने में इतनी अड़चने क्यों आ रही हैं।' बीरा के मामा गहरी उलझन में उलझ गये थे।
'कहाँ खो गये समधी जी।' राजू के पिता ने टोका, तो चौंके बीरा के मामा।
'आपने बताया नहीं?'
'सोचना क्या समधी जी। बीरा के सिवाय हमारा है ही कौन? जो उसकी खुशी होगी, हम जरूर करेंगे।' बीरा के मामा ने हथियार डालते हुए कहा। आखिर बीरा का रिश्ता टूटने का दर्द वे कदापि सहन नहीं कर सकते थे। अब तो जो होगा, देखा जायेगा।
खुशी खुशी वापिस लौट गये राजू के पिता और तनाव दे गये बीरा के मामा-मामी को।
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'मैंने कहा था न कि बीरा के सिवाय उनका कोई नहीं, उसकी खुशी के लिए वे सब कुछ करेंगे, मान ली उन्होंने तेरी माँग।'
घर में कदम रखते ही विजयी मुद्रा में गुमान सिंह ने अपने बेटे को खुशखबरी सुनाई।
'आप तो जाने को तैयार ही नहीं थे, मैं जिद न करता, तो मिलते वही बरतन-भाँडे,' राजू खुश होता हुआ बोला।
एक-दो दिन बाद ही राजू वापिस शहर लौट गया।
इधर बीरा की मामी ने उसके मामा को पूछा, 'क्यों आये थे समधी जी? कोई खास काम था क्या? आपका चेहरा उतरा हुआ क्यों लग रहा है? कुछ ऐसी-वैसी बात है क्या? मेरा तो दिल बैठा जा रहा है।'
'ओफ्फोह! इतने सवाल एक साथ? समधी जी शादी की तैयारियों के विषय में बात करने आये थे। राजू भी घर आया हुआ है आजकल।' बीरा के मामा ने झल्लाते हुए कहा।
मामाजी के बात करने के लहजे से मामी समझ गयी कि कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ है, वरना इतना चिड़चिड़ाने की क्या जरूरत है? लगता है कोई बड़ी माँग रख गया है बीरा का ससुर। थोड़ी देर में गुस्सा शान्त होगा, तो अपने आप ही बतायेंगे। इस समय चुप रहने में ही भलाई है।
रात को भोजन करते वक्त वे धीरे से मामी से बोले। 'इनका तो मुँह खुलता ही जा रहा है। लगता है इस बात का फायदा उठा रहे हैं कि बीरा के सिवाय हमारा कोई नहीं।'
'क्यों, क्या कोई माँग लेकर आये थे वे?' मामी ने पूछा।
'हाँ! लड़का विवाह में रंगीन टेलीविजन और फ्रिज की माँग कर रहा है। कहता है दिल्ली का कोई परिवार तो उसे ये सब देने को राजी था, यहाँ तो उसने पिता के दबाव में ही रिश्ते के लिए हाँ की।' एक ठण्डी साँस लेते हुए बोले बीरा के मामा।
'तो क्या करोगे तुम अब? कहाँ से लाओगे इतना रुपया?' मामी ने पूछा।
'कुछ भी करूँगा। अपने खेत बेचूंगा और है क्या मेरे पास बेचने के लिए? ये सब बागदान से पहले पता चल जाता। तो कुछ कर सकता था। अब तो हम अपनी इज्जत और बीरा के भविष्य से बँध चुके हैं।' बीरा के मामा मायूस स्वर में बोले।
'बीरा के मामा! अगर खेत बेचे दोगे, तो हम खायेंगे क्या? हम नौकरी वाले तो हैं नहीं कि खेत नहीं होंगे, तो भी गुजारा चल जायेगा?' मामी मायूस होकर बोली।
तो फिर मैं क्या करूँ?' गुस्से में खाने की थाली एक तरफ पटकते हुए झल्लाकर बोले बीरा के मामा, 'तो क्या टूट जाने दूँ बीरा का यह रिश्ता?, मिल जाने दूँ अपनी इज्जत धूल में?' फिर समझाते हुए बोले 'ये तो आखिरी विकल्प है। मैं देखता हूँ और क्या हो सकता है? कहीं से उधार वगैरह मिल जाये, तो धीरे-धीरे चुका देंगे।'
अगली सुबह मामी के माथे पर चिन्ता की रेखायें देखकर बीरा ने पूछा' क्यों मामी! सुबह-सुबह चेहरा ऐसा क्यों बनाया हुआ है? मामाजी से झगड़ा हुआ है क्या?'
'नहीं..नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। ठीक तो हूँ मैं। रात को ढंग से नींद नहीं आयी शायद, इसलिए तुझे ऐसा लग रहा होगा। बात टालते हुए कहा मामी ने।
बीरा को याद आया कि काकी बता तो रही थी कि कल थोड़ी देर के लिए राजू के पिता भी तेरे मामा से मिलने आये थे। कहीं उन्होंने तो कुछ ऐसी वैसी बात नहीं कह दी। लेकिन क्या कह सकते हैं वे। पूछ भी तो नहीं सकती किसी से।
उधर कृपाल सिंह सोच में डूबे हुए थे। उनके पास तो इतने ही रुपये बचे हैं अब, जिनसे खींच तानकर पहाड़ की एक सामान्य शादी का खर्च ही पूरा हो पायेगा। अब इस नयी माँग के लिए पैसों की व्यवस्था कैसे करें? इसी उधेड़बुन में दिन निकल गया। कोई राह नहीं सूझ रही थी। गाँव में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था, जिससे पैसा उधार मिलने की आस की जा सके। क्या बैंक से कोई मदद मिल जायेगी? उनके मन में आशा की किरण जाग उठी। किसी और के आगे हाथ पसारने से अच्छा है बैंक से कर्जा ले लें। उम्मीद की इसी किरण के सहारे वे रात भर बिस्तर पर करवटें बदलते रहे और सुबह होते ही यमकेश्वर स्थित ग्रामीण बैंक की शाखा के लिए प्रस्थान कर गये।
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'हम आपको खेती के लिए ऋण दे सकते हैं। कल आप अपने भूमि सम्बन्धी कागजात ले आइयेगा। उससे ही पता लगेगा कि आपको कितना ऋण दिया जा सकता है?' बैंक अधिकारी के ये शब्द सुनते ही राहत की साँस ली बीरा के मामा ने।
बैंक से निकलकर थोड़ा सुकून महसूस करते हुए वे बैंक से सीधे पटवारी के पास जा पहुँचे और उससे उनकी भूमि सम्बन्धी खसरा-खतौनी निकालने को कहा। ये सब करते-करते शाम हो चली थी। अंधेरा होने से पहले ही वे घर पहुँचना चाहते थे। रास्ते में बियाबान जंगल पड़ने के कारण जंगली जानवरों का भय हर समय बना रहता था। दो दिन पहले ही तो राम सिंह के बच्चे को उठा ले गया था आदमखोर बाघ!
उधर घर पर पत्नी परेशान थी। सुबह से गये हैं और अब तक नहीं लौटे। पता नहीं सुबह से कुछ खाया पिया भी है या नहीं। बीरा की समझ में नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है? मामी सुबह से परेशान है, जबकि मामाजी सुबह के गये अब तक वापिस नहीं लौटे हैं। क्या कारण हो सकता है? कोई मुझे कुछ बताता भी तो नहीं। आशंकित हो गयी थी बीरा।
ज्यों ज्यों अंधेरा घिरता जा रहा था, बीरा की मामी के माथे पर चिन्ता की लकीरें बढ़ती जा रही थीं। देवदार के ऊँचे-ऊँचे पेड़ साँय-साँय करते हुए भयानक लग रहे थे। अनमने भाव से उन्होंने रात्रि के भोजन की तैयारी शुरू की, तो इतने में बाहर आहट सुनाई दी। देखा बीरा के मामाजी लौट आये हैं।
'इतनी देर कहाँ कर दी आपने? मुझे तो चिन्ता होने लगी थी।' बीरा की मामी रुँआसी होते हुए बोली।
'तुम्हें चिन्ता करने के सिवाय कुछ और भी आता है क्या? अरे काम से गया था देर तो होनी ही थी।' थकी सी आवाज में बोले कृपाल सिंह।
'चलो मुँह हाथ धो लो। फिर मैं खाना परोस देती हूँ। बाकी बात बाद में करेंगे।' मामी ने चूल्हें में लकड़ी डालते हुए कहा।
बीरा सामने ही बैठी थी, इसीलिए मामी स्पष्ट कोई बात नहीं कर पाई। सोचा यदि बीरा को पता लगेगा कि ये सब उसके विवाह के कारण हो रहा है, तो उसे बुरा लगेगा, इसलिए इस समय मामी ने चुप रहना ही बेहतर समझा।
उधर बीरा सोच रही थी कि ऐसा कौन सा काम था मामाजी को, जो सुबह के गये, अब वापस लौटे हैं? और मामी जिनको तुरन्त सब कुछ पूछना होता था, वे भी आज काम के बारे में कोई बात नहीं कर रही हैं।
भोजन कर चौका-बरतन से निवृत्त हो मामी ने पति के पास जाकर धीरे से पूछा- 'क्यों जी क्या हुआ? पैसे का कुछ इन्तजाम हुआ कि नहीं?'
हाँ, हो तो गया है। जमीन के कागजों के आधार पर बैंक से ऋण मिल जायेगा। पटवारी के पास कागज निकलवाने गया था। अब कितना पैसा मिल पायेगा, ये तो कल जमीन के कागज देखकर ही बतायेंगे बैंक वाले। किसी और के आगे हाथ फैलाने से तो अच्छा यही है कि हम बैंक से लोन लेकर किश्तों में चुका दें।'
पति का निश्चिन्त स्वर सुनकर बीरा की मामी की जान में जान आयी। कुलदेवी का स्मरण कर वह सोचने लगी कि किसी तरह से बीरा का विवाह सम्पन्न हो जाये, फिर हम दो प्राणी तो किसी भी तरह गुजारा कर ही लेंगे।
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'आपको हम पन्द्रह हजार रुपये तक का ऋण दे सकते हैं।' कृपाल सिंह के भूमि सम्बन्धी कागजात देखते हुए बैंक मैनेजर ने कहा।
'ठीक है साहब! आपकी बड़ी कृपा होगी। अब मुझे बाकी की औपचारिकतायें भी बता दीजिए, ताकि मैं जल्दी से जल्दी ऋण ले सकूँ।'
सारी औपचारिकतायें बताने के उपरान्त मैनेजर बोला- 'ये सब कागज लेकर आ जाना, आपको हम पैसा दे देंगे।' बोला, 'एक बात और कृपाल सिंह जी! समय पर किश्त चुकाते रहिएगा, वरना वसूली अमीन आकर आपकी जमीन की कुड़की कर जायेगा।
'नहीं साहब! मैं ऐसी नौबत नहीं आने दूंगा। बेटी का विवाह नहीं होता, तो मुझे ऋण लेने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। आप लोगों ने विपत्ति के समय मेरी मदद की है, मैं इस अहसान को कैसे भूल सकता हूँ?' कृतज्ञ स्वर में कहा कृपाल सिंह ने।
'अरे नहीं कृपाल जी, अहसान कैसा? ये तो हम बैंक वालों का काम है। अब आप निश्चिन्त रहिए। जब चाहेंगे, आकर हमसे पैसा ले लीजिएगा।' यह कहते हुए मैनेजर दूसरे ग्राहक के साथ व्यस्त हो गया।
शाम को बीरा के मामा पत्नी से बात कर रहे थे, तभी बाहर बैठी बीरा के कानों में पन्द्रह हजार कर्जा जैसे कुछ शब्द पड़े। ये क्या बात हो रही है कर्जे की? ध्यान से सुना तो बीरा ने...मामी धीरे से बीरा के मामा से पूछ रही थी- 'सुनो! इन पन्द्रह हजार रुपयों में क्या टेलीविजन और फ्रिज आ जायेगा?'
'कोटद्वार जाकर पूछना पड़ेगा। नहीं आयेगा तो कुछ पैसे तो हमारे पास भी जमा हैं ही, बीरा की मामी! जब भगवान ने ये रास्ता दिखाया है, तो आगे भी काम बन ही जायेगा।' कृपाल सिंह आश्वस्त स्वर में बोले। बाहर आते ही मामी ने बीरा को चौक में देखा, तो उनके चेहरे का रंग बदल गया। कहीं इस लड़की ने कुछ सुन तो नहीं लिया?
'मामी! मामाजी कर्जा क्यों ले रहे हैं?' बिना किसी भूमिका के बीरा ने सवाल दाग दिया।
'कौन सा कर्जा, कैसी बात कर रही है तू?' हे भगवान वही हुआ जिसका डर था, मामी सोचने लगी।
'छुपाओ मत मामी! मुझसे ये सब कुछ मत छुपाओ! ये टेलीविजन, फ्रिज की क्या बात चल रही थी?' बीरा ने मामी की आँखों में आँखें डालकर पूछा।
'अब कुछ भी छुपाने को नहीं रहा। बीरा को सब कुछ बताना ही पड़ेगा', सोचते हए बोली मामी, 'बेटी! दरअसल तेरी ससुराल वाले चाहते थे कि राजू शहर में रह रहा है, तो शादी में दान-दहेज भी उसी हिसाब से दिया जाये। तो बस यही बात हो रही थी' मामी सफाई देते हुए बोली।
तो मामीजी! क्या शहर के दहेज के लिए मामा को कर्जा लेने की जरूरत पड़ रही है? मुझ अभागन के लिए किसी के आगे हाथ फैलाना पड़ा है उन्हें ? चाची ठीक ही तो कहती थी कि मैं तो हूँ ही जन्मजात अपशकुनी। जहाँ भी जाऊँगी, बुरा ही करूँगी।' बीरा की आँखों में अनायास ही मोती झिलमिलाने लगे।
'नहीं बेटी! ऐसा मत कह। तेरे मामाजी ने किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया, अपितु उन्होंने बैंक से कर्जा लिया है, जिसे हम समय रहते किश्तों में चुका देंगे। बस इतनी सी बात है और तू व्यर्थ में परेशान हो रही है। तेरे सिवाय हमारा है ही कौन? ये सब कुछ तेरा ही तो है।' मामी ने प्यार से बीरा के सिर पर हाथ फेरा।
'लेकिन मामी! पता नहीं क्यों, मुझे तो वे लोग बड़े लालची लगते हैं। हमारे गाँव समाज में दहेज माँगने की कुप्रथा नहीं है, फिर भी उन्होंने खुद अपने मुँह से माँगा ये सब कुछ! ऐसे लोग हमारे पहाड़ और हमारे समाज के लिए तो कलंक हैं।' उत्तेजित होते हुए अपने मनोभावों को चाची के समक्ष प्रकट कर गयी थी बीरा। यद्यपि वह भली प्रकार जानती थी कि अपने विवाह और ससुराल पक्ष के विषय में ऐसी बातें करना गाँव में निर्लज्जता मानी जाती है, किंतु अपने आप को रोक नहीं पाई वह।
'नहीं बीरा! ऐसा नहीं है। ठीक ही तो सोचा उन्होंने। गाँव के रीति रिवाज के अनुसार दिया गया दहेज राजू के किस काम आयेगा? और मेरी बच्ची, तू इतना मत सोच। जा गाय-भैंसों को घास डालकर आ, न जाने कब से तेरी प्रतीक्षा कर रहे होगें वे भी।' मामी ने बात यहीं समाप्त कर दी थी।
बीरा बुझे मन से चुपचाप गौशाला की ओर चल दी, किंतु आज उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। इस रिश्ते के प्रति सारा उत्साह एक पल में ठण्डा पड़ गया था उसका। आखिर ससुराल पक्ष का असली चेहरा उसके सामने जो आ गया था आज...।
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दीपक की परीक्षायें समाप्त हो चुकी थीं और कॉलेज बंद हो चुके थे। वह गाँव वापिस लौट आया था।
'और चाचा जी! हो गयी बीरा के विवाह की तैयारियाँ?' अगले दिन दीपक ने बीरा के मामाजी से पूछा।
'अरे बेटा! आ बैठ तुझसे कुछ पूछना है। यह देख, बैंक ने मुझे ये कागज तैयार करने को कहा है कर्ज लेने के लिए। तू देख तो जरा, ठीक हैं ये?' मामा ने दीपक को कागज दिखाते हुए कहा।
उन सभी कागजों को ध्यान से देखने के बाद दीपक बोला - 'हाँ चाचा जी! हैं तो सब ठीक। मैं आपके ये कागज तैयार करवा दूंगा। किंतु आपको कर्ज लेने की क्या आवश्यकता पड़ी?'
'अरे बेटा! विवाह में खर्चा तो होता ही है। फिर राजू शहर में रहने वाला लड़का है, तो शादी भी उसके अनुसार ही करनी होगी। अच्छा टी.वी. और फ्रिज कितने में आता होगा, तुझे पता है क्या?' मामा जी ने सोचा कि दीपक शहर में रहता है। उसे शायद इन चीजों के मूल्य के बारे में जरूर पता होगा।
तो ये बात है। राजू पहली मुलाकात में ही उसे बहुत अच्छा नहीं लगा था। ओछापन था उसकी प्रवृत्ति में। तो टी.वी., फ्रिज की माँग की है उसने। बीरा के ससुराल वालों की इन बेतुकी माँगों के कारण ही चाचा को बैंक से कर्ज लेने के लिए विवश होना पड़ा है।
'नहीं चाचा जी! मुझे तो नहीं मालूम कि ये कितने में आते हैं। मैं शहर जाते ही पता कर के आपको सूचित कर दूंगा।'
दीपक बाहर निकला, तो चौक में बीरा धान कूट रही थी। शर्म से उसका चेहरा सुर्ख हो आया था और बालों की लटें रह-रह उसके माथे और गालों को चूम रही थीं। कुछ पल दीपक एकटक बीरा को निहारता ही रहा गया। बीरा की नजर दीपक पर पड़ी, तो सकपकाकर नजरें झुका लीं उसने।
'अरे दीपक! कब आया तू? तेरी परीक्षायें तो ठीक हो गयी होगी? कितने दिन तक रहेगा?' बीरा ने एक साथ कई प्रश्न पूछ डाले।
'मैं ठीक हूँ बीरा और तेरी परीक्षायें कैसी हुईं? अब तो तेरी शादी की तैयारियाँ भी जोरों पर होंगी?' दीपक बोला।
माथे पर आ पहुँची पसीने की बूंदों को पोंछते हुए बीरा बोली- 'अरे मेरा क्या? पास हो गयी तो ठीक। नहीं भी हुई तो किसी को क्या फर्क पड़ता है? तुझे तो पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बनना है न?' बड़े आदमी की जैसी भंगिमा बीरा ने बनाई, उसे देखकर दीपक की हँसी फूट पड़ी।
'नहीं बीरा! मैं छोटा ही ठीक हूँ, पढ़ लिख कर कुछ बन जाऊं तो अपने इस समाज के लिए कुछ करना चाहता हूँ। पहाड़ के इन गाँवों से अज्ञानता, अशिक्षा, कुरीतियों, कुप्रथाओं को मिटाना चाहता हूँ। यहाँ के युवा वर्ग को बताना चाहता हूँ कि जिंदगी सिर्फ शहरों में नहीं है, गाँव में रहकर भी जिंदगी को और अधिक सुगमता से जिया जा सकता है।' बीरा को ध्यान से अपनी तरफ टकटकी लगाये देख दीपक संकुचा गया। सोचा शायद कुछ ज्यादा ही बोल गया वह।
उधर बीरा तो कहीं दूसरी दुनिया में पहुँच गयी थी। एक तरफ राजू है, ज्यादा पढ़ा लिखा भी नहीं, फिर भी शहर की आबोहवा ने उसे इतना बदल दिया है कि वह अपने संस्कार, रीति-रिवाज, मान-मर्यादा सब भूल चुका है और दूसरी तरफ दीपक! कितना अन्तर है दोनों में। दीपक के चुप होते ही बीरा चौंकी। फिर चुहल करते हुए बोली। 'अरे तू तो शहर जाकर एकदम नेता हो गया है, बड़े जोशीले भाषण देने लगा है।'
झेंपता हुआ सा दीपक वहाँ से चल दिया और बीरा फिर से धान कूटने में व्यस्त हो गयी।
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गुमान सिंह के घर पर राजू का पत्र आया था, जिसमें प्रयुक्त भाषा ने उन्हें परेशान कर दिया था। लिखा था, 'पिताजी मेरे घर से कम्पनी का दफ्तर काफी दूरी पर है। सिटी बसों में रोज धक्के खाते-खाते परेशान हो जाता हूँ। सुबह जल्दी निकलना पड़ता है और देर रात घर पहुँचता हूँ। अगर एक स्कूटर या मोटरसाइकिल मेरे पास होती, तो बहुत आराम रहता।
अपनी सवारी में वक्त भी कम लगता है और परेशानी भी नहीं होती। पहले तक तो अकेला था कोई बात नहीं, लेकिन अब घर गृहस्थी वाला हो रहा हूँ, तो घर के लिए भी समय देना होगा। आप बीरा के मामा से बात कर यहाँ के लिए टी.वी. और फ्रिज के साथ एक स्कूटर का प्रबन्ध करने के लिए भी जरूर कह दें। मेरे ख्याल से इसमें उन्हें कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।'
पत्र मिलते ही गुमान सिंह ने दिल्ली जाने की तैयारी कर ली। 'पागल हो गया है ये लड़का! विवाह में मात्र चार महीने शेष हैं और अब ये स्कूटर या मोटर साइकिल की नयी बात। हमारी इज्जत का भी कुछ ख्याल है उसे या नहीं? बार-बार क्या समधी के सामने हाथ फैलाऊँगा मैं?' बड़बड़ाये गुमान सिंह।
ऑफिस से लौटने के बाद पिता को कमरे के बाहर खड़ा देख राजू आश्चर्यचकित रह गया।
'पिताजी! आपने खबर तो भेज दी होती। मैं लेने आ जाता।
'खबर भेजने को क्या बाकी रहा अब? तू तो मेरी रही-सही इज्जत भी धूल में मिलाने पर तुला हुआ है। किस मुँह से जाऊँ मैं अब कृपाल सिंह जी के पास कि मेरा बेटा दिल्ली की हवा पानी से अपाहिज हो गया है, इसलिए उसको दिल्ली की सड़कों पर मैराथन दौड़ के लिए अब स्कूटर या मोटर साइकिल भी चाहिए।' उत्तेजना में सिर हिलाते हुए बोले गुमान सिंह।
'पिताजी! आप तो ये सोच रहे हैं जैसे स्कूटर मिलने से मुझे ही फायदा होगा अरे लोग भी तो कहेंगे कि देखो गुमान सिंह जी का बेटा कितना बड़ा आदमी है सभी कुछ है उसके पास। तब आपका सीना गर्व से नहीं फूलेगा?' राजू उन्हें सब्जबाग दिखाते हुए बोला।
'बेटा, हमारे समाज में दहेज माँगने वालों का सीना कभी गर्व से नहीं फूलता, भिखमंगा कहता है समाज उन्हें। अगर तुझे बड़ा आदमी बनने की इतनी ही चाह है, तो बीरा के गरीब मामा द्वारा कर्ज के पैसों से जुटाये गये दहेज के सामान के दम पर नहीं, बल्कि खुद मेहनत कर के कमाई कर और इस लायक बन कि ये सब चीजें तू अपने दम पर जुटा सके। हम तो...।
'पिताजी, उपदेश मत दीजिए।' राजू बीच में ही टोकते हुए बोला, 'कान खोलकर एक बार फिर सुन लो पिताजी! मुझे दिल्ली में रिश्तों की कोई कमी नहीं है। यहाँ से ये सब कुछ मुझे आसानी से मिल जायेगा। आखिर हम क्यों और कब तक अपने समाज और सम्मान का रोना रोते रहेंगे? समाज बहुत आगे बढ़ चुका है, पिताजी! उसके साथ चलने में ही हमारी भलाई है, वरना इतना पीछे छूट जाओगे कि किसी को नजर भी नहीं आओगे और एक दिन फिर सदा के लिए ओझल हो जाओगे।'
'बस बेटा! बहुत देख लिया तेरा समाज। अगर तुम दूसरे समाज से कुछ लेना ही चाहते हो तो, उनकी अच्छाइयाँ लो, किंतु नहीं, तुमने इस समाज से कुरीतियाँ तो ग्रहण कर लीं और अपने समाज की अच्छाइयाँ छोड़ दीं। बेटा! आदमी को जमीन पर रहना चाहिए, जिसने आसमान की तरफ देखा, वही ठोकर खाकर गिरा।' पिता ने फिर समझाने की असफल कोशिश की।
'मुझे कुछ नहीं सुनना पिताजी, आप नहीं कह सकते, तो मैं उन्हें चिट्ठी लिख देता हूँ। टी.वी. और फ्रिज के साथ स्कूटर का भी प्रबन्ध कर सकते हैं, तो ठीक है, वरना यह शादी नहीं हो पायेगी।' राजू आवेश में बोला।
'यह क्या कह रहा है तू? विवाह से पहले ही इज्जत गँवायेगा अपनी और हमारी? जब ऐसे बेटे को जन्म दिया है, तो फल भी तो मुझे ही भुगतना होगा। मैं ही बात करूँगा उनसे। भिखारी बनकर फिर उनके द्वार पर चला जाऊँगा, लेकिन कोशिश करूँगा कि ये रिश्ता न टूटे।' पूरी तरह टूट चुके थे गुमान सिंह अब तक।
अगले ही दिन सुबह-सुबह ही पानी का घूट भी मुँह में डाले बिना गुमान सिंह हताश होकर बुझे मन से दिल्ली से अपने गाँव वापिस लौट आये थे। रह-रहकर बीरा का चेहरा उनकी आँखों के आगे आ जाता था। कितनी भली लड़की है बीरा और एक ये हमारा राजू है, शहर की पॉलिश चढ़ी झूठी चमक-दमक का पर्दा आँखों पर डाले असली हीरे की पहचान नहीं कर पा रहा है।
राजू के पिता को वापिस आया देख राजू की माँ चिन्तित स्वर में बोली - 'क्या हुआ? राजू मिला नहीं क्या? एक रात में ही लौट आये आप तो?'
'मेरी तो समझ में नहीं आता, मैं एक रात भी कैसे रहा वहाँ ? राजू की माँ, राजू हाथ से निकल गया हमारे।' एक दीर्घ निःश्वास लेकर बोले गुमान सिंह।
'ऐसी क्या बात हो गयी? क्या कह दिया हमारे राजू ने ऐसा? भला लड़का है वह तो।' माँ के लिए बेटे की बुराई सुनना सम्भव नहीं होता, खासतौर पर तब, जब वह इकलौता बेटा हो।
'इस बुढ़ापे में भिखारी बना दिया उसने मुझे। अब कहता है कि ससुराल से अगर स्कूटर नहीं मिला, तो विवाह नहीं करेगा। वहीं दिल्ली में किसी से शादी कर लेगा। मुझे तो इस लड़के के लक्षण कतई सही नहीं लगते।' राजू के पिता मायस होकर बोले। बीच में ही राजू की माँ बोल पड़ी, 'आपको जरूर कोई गलतफहमी हुई है। आखिर राजू अपना इकलौता बेटा...'
'इकलौता है तो क्या सिर पर चढ़कर नाचेगा? गलत बात पर उसका पक्ष मत लिया करो। पुत्र प्रेम में अंधी हो गयी हो तुम। दूसरो की बेटी का भविष्य नहीं दिखाई देता तुम्हें?' पति से जोर की झिड़की सुनकर सहम गयी थी राजू की माँ।
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अगले दिन यह सोचकर कि जितनी जल्दी हो सके बीरा के मामा से बात कर ली जाये, राजू के पिता सुबह सुबह ही कृपाल सिंह के घर पहुँच गये और सारी बातें बीरा के मामा को स्पष्ट रूप से बता दीं।
'ये सब बातें तो आपको पहले बतानी चाहिए थी। तब तो आप कहते थे कि राजू संस्कारी लड़का है। आपसे बाहर नहीं जायेगा।' काफी आवेश में आ चुके थे कृपाल सिंह।
'मुझे क्या पता था कि वह नालायक इतना गिर सकता है? मैंने उसे समझाने की भरसक कोशिश की है, किंतु उसके लक्षण देखकर लगता है कि लड़का हाथ से निकल चुका है। कल रात ही तो मैं दिल्ली से वापिस लौटा हूँ। इस रिश्ते को स्वीकारने के बदले में भिखारी बना दिया उसने मुझे।' लाचारी में बोले गुमान सिंह।
गुमान सिंह के चेहरे के भाव पढ़कर बीरा के मामा समझ गये कि कृपाल सिंह बेटे की हरकतों के आगे लाचार हो चुके हैं। उन पर गुस्सा निकालने से कोई फायदा नहीं होगा। लेकिन कहाँ से कर पायेंगे वे स्कूटर देने की व्यवस्था?
सारी जमीन भी बेच डालूँगा, तो भी भरपाई नहीं होगी। गाँव की साठ नाली जमीन की कीमत ही क्या होती है? किंतु दहेज की खातिर यदि राजू ने रिश्ता तोड़ दिया, तो कितनी जग हँसाई होगी उनकी?
ये कोई शहर तो है नहीं कि लोगों को पता नहीं चलेगा। छोटे-छोटे तो गाँव हैं। आस-पास पूरे इलाके में खबर फैलते देर नहीं लगेगी और फिर बीरा? उसका तो भविष्य ही अंधकारमय हो जायेगा। बिना माँ-बाप की बच्ची को क्या इसलिए उसके चाचा-चाची के पास से ले आये थे कि उम्र होने पर उसका विवाह भी नहीं कर पायेंगे।'
कुछ देर तक कमरे में सन्नाटा पसरा रहा, इस सन्नाटे को तोड़ा गुमान सिंह की आवाज ने-'अच्छा चलता हूँ अब मैं।
'चाय नाश्ता तो कर जाइये। अरे बीरा की मामी...?' कृपाल सिंह ने आवाज लगाई।
तब तक बीरा की मामी स्वयं ही चाय-नाश्ता लेकर पहुँच चुकी थी। उसने चाय रख दी और स्वयं भी वहीं बैठ गयी।
कोई आपस में बात नहीं कर रहा था। दोनों के चेहरों के भावों को समझने की कोशिश करने लगी बीरा की मामी, लेकिन कुछ समझ नहीं पाई।
'क्यों आया था बीरा का ससुर? फिर कोई माँग रख दी है क्या उसके बेटे ने पत्नी के पूछने पर फट पड़े बीरा के मामा, 'अब कहता है स्कूटर भी लूँगा दहेज में। राम जाने कितने में आता है ये स्कूटर। अपना घर द्वार भी बेच दूँगा, तो भी नहीं कर पाऊँगा यह सब। बड़ी गलत जगह फँस गये हम। अब रिश्ता तोड़ते हैं, तो लोग बीरा पर उंगलियाँ उठायेंगे। उसका तो भविष्य ही चौपट हो जायेगा और ले देकर किसी तरह विवाह कर देते हैं, तो क्या दहेज लोभी उस राजू के साथ बीरा उस घर में प्रसन्न रह पायेगी? बीरा की मामी! अब तो इधर कुँआ और उधर खाई वाली स्थिति हो गयी है हमारी।'
'अब क्या करोगे आप?' इसके आगे बोल नहीं फूटा मामी के मुँह से।
'क्या करूँगा?' इतना तो उधार कहीं से मिलने से रहा। अपने खेत ही बेचने की कोशिश करता हूँ। हमें क्या करना है खेत रख कर? बीरा का विवाह हो जाये, हम फिर देख लेंगे।' एकदम मायूस हो चुके थे कृपाल सिंह। 'खेत बेच देंगे तो हम खायेंगे क्या और बैंक का कर्जा उसे कैसे वापिस लौटायेंगे?' चिन्ता की स्पष्ट लकीरें थी मामी के चेहरे पर। 'पता नहीं क्या होगा। ईश्वर सब भला करेगा।
कृपाल सिंह ने अपने आप को भगवान के भरोसे छोड़ दिया था।
कृपाल सिंह अपने खेत बेचने की कोशिश कर रहा है। यह बात दबी जुबान से गाँव के लोग कहने लगे। किंतु बीरा के सामने सब चुप हो जाते। यह अफवाह जब दीपक के कानों तक भी पहुंची, तो उसने बीरा से मिलने की ठान ली।
अगले दिन दोपहर के वक्त जब घर में कोई नहीं था, दीपक बीरा के पास गया और बोला, 'तुझे पता है तेरे घर में क्या हो रहा है? तेरे मामा तेरी शादी के लिए अपने खेतों को बेच रहे हैं। पहले से ही कर्जदार हैं वे, खेत बिक जायेंगे तो क्या खायेंगे और कहाँ से बैंक का कर्जा चुकायेंगें? मुझे तो पहले ही राजू के रंग ढंग अच्छे नहीं लगे थे। शहर का जुनून सवार था उस पर। उसका यही जुनून किसी परिवार को विनाश के कगार पर खड़ा कर देगा, यह मैंने कभी नहीं सोचा था।' बिना किसी भूमिका के दीपक आवेश में बोल गया।
बीरा बुत बनी खड़ी की खड़ी रह गयी। तो ये चल रहा था इतने दिन से घर में। मामा-मामी की परेशानी का कारण बीरा है, जिसकी वजह से मामाजी अपनी रोजी-रोटी तक खोने को तैयार हैं। आत्मग्लानि से उसका चेहरा स्याह पड़ गया। यह सब नहीं होने देगी वह। उसने निश्चय कर लिया था उसी पल...।
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'मामाजी, मैं आपसे कुछ बात करना चाहती हूँ।' बीरा के चेहरे की दृढ़ता देख मामा-मामी चौंक गये।
'क्या कहना है तुझे! जरा हम भी तो सुनें।' मामी लाड़ से बोली। -'अब तक मैं चुप रही। मैंने सोचा विवाह सम्बन्धी बात में बीच में बोलूँगी तो निर्लज्जता समझी जायेगी। लेकिन अब सारी सीमायें टूट चुकी हैं।'
'लेकिन बीरा! तुझे इससे क्या?' मामा ने बीच में कहा, तो बीरा दृढ़ता से बोली- 'आप पहले मेरी बात पूरी सुन लीजिए।' बीरा के स्वर की दृढ़ता और चेहरे का तेज देख कर दोनों चुप्पी साध गये। बीरा बोलती चली गयी। 'मुझे अब यह रिश्ता मंजूर नहीं। रुपये पैसे से खरीदा गया माँस का पिण्ड नहीं चाहिए मुझे। ये नासूर मेरी जिंदगी को अंदर से खोखला कर देगा। जिस इन्सान के अंदर इतनी मानवता नहीं रही है कि वह अपने परिवार की मान मर्यादाओं का कुछ खयाल रख सके, वह भला मेरी भावनाओं का क्या सम्मान करेगा? वह अन्य लोगों की क्या इज्जत करेगा? वे क्या मना करेंगे इस रिश्ते के लिए? उनसे पहले मैं ही मना करती हूँ। आप लोग भी कान खोलकर सुन लीजिये, मुझे नहीं करना राजू से विवाह! आप कल ही रैबार भेजकर इस रिश्ते के लिए इंकार कर दीजिए और यदि आप नहीं कर सकते, तो मैं इंकार कर देती हूँ, दहेज लोभी इन भूखे भेड़ियों को पत्र लिखकर।' बीरा अपनी बात पूरी कर चुकी थी।
मामा-मामी बीरा के दृढ़ निश्चय से हैरान थे। 'बेटी! तेरी जिंदगी बर्बाद हो जायेगी। लोग क्या कहेंगे? समाज क्या कहेगा?'
'कुछ नहीं कहेगा समाज। जो आदमी जितना डरकर चलता है, उसे लोग उतना ही डराते हैं। और रही बात मेरे भविष्य की तो आप क्या समझते हैं, वहाँ विवाह करके मेरा भविष्य अच्छा रहेगा? नहीं मामाजी आप भूल कर रहे हैं। आपने मेरे विवाह के नाम पर बैंक से जो कर्ज लिया है, उससे मुझे आगे पढ़ा दीजिए, तब मैं अपने पैर पर खड़ा होकर दिखाऊँगी आपको।' बीरा के चेहरे पर विचारों की दृढ़ता थी।
उसकी दृढ़ता के आगे मामा-मामी की एक न चली। अगले ही दिन कृपाल सिंह राजू के पिता से विवाह के लिए मना कर आये। साथ ही बागदान में ससुराल पक्ष द्वारा बीरा को दिये गये सारे उपहार भी लौटा आये।
'गुमान सिंह जी, हमारे बस से बाहर है आपकी माँगे पूरी करना। फिर हमारी बेटी भी आपके बेटे से विवाह करने के लिए अब कतई तैयार नहीं है।' मामाजी ने एक ही झटके में कह डाला था।
सुनते ही गुमान सिंह के चेहरे पर मानो कालिख पुत गयी हो। गाँव क्या पूरे इलाके के इतिहास में शायद पहली बार किसी लड़की ने अपने रिश्ते के लिए इंकार किया था। वरना यह एकाधिकार तो लड़के का ही माना जाता था।
दो एक दिन में ही यह बात आग की तरह पूरे इलाके में फैल गयी। 'बीरा का रिश्ता टूट गया।' जितने मुँह उतनी ही बातें। जिनको राजू के लालची स्वभाव के बारे में पता था, वे तो बीरा के साहस की प्रशंसा किये जा रहे थे, बाकी लोग अपने मन से ही कुछ सोच रहे थे।
बात श्यामा काकी तक पहुंची, तो उसने खाना खाते हुए दीपक से पूछते हुए कहा- 'बीरा का रिश्ता टूट गया। सुना है बीरा ने खुद ही इंकार करते हुए रिश्ता तोड़ा है? आज ही सारा सामान भी लौटा आया है कृपाल सिंह।
दीपक के मुँह का कौर मुँह में ही रह गया। दृढ़ निश्चयी बीरा जो कर जाये, वही कम है। कहीं उसका बीरा से यह सब कहना ही तो इसका कारण नहीं बना? कारण जो भी हो, राजू बीरा के लायक था ही नहीं।
अगले दिन दीपक से रहा नहीं गया और सुबह सुबह ही वह बीरा से मिलने पहुँच गया।
'बीरा! जो मैं सुन रहा हूँ, वह सच है क्या? तूने इस रिश्ते से इन्कार किया है क्या?।' मन के किसी कोने में प्रसन्नता भी थी दीपक के बीरा से प्रश्न पूछते हुए। आखिर बीरा पराई होने से बच जो गयी थी।
'हाँ दीपक!' बीरा के स्वर में निश्चय भरी दृढ़ता थी। मेरी खुशी के लिए मामा-मामी भिखारी बनकर दर-दर की ठोकरें खाने को विवश हो जायें, यह मैं सहन नहीं कर सकी। चलो इस अध्याय को अब यहीं पर समाप्त कर दें, तो उचित रहेगा।
'दीपक! तू हमेशा मेरी प्रेरणा रहा है। इस प्रकरण के बाद मैं अब अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हूँ। आगे मैं कौन सा ऐसा कोर्स करूँ जिससे मुझे अपने पैरों पर खड़े होने का अवसर उपलब्ध हो जाये। स्वावलम्बी बनकर मैं इस समाज के लिए भी कुछ कर गुजरना चाहती हूँ। मेरा यह निश्चय तभी सफल हो पायेगा, जब तुम समय-समय पर मेरा मार्गदर्शन करते रहोगे। बोलो दीपक!
बीरा इस वक्त दीपक से अधिक बातें नहीं करना चाहती थी। वरना ये कहते भी लोगों को देर नहीं लगती कि दीपक की वजह से ही बीरा ने जानबूझकर यह रिश्ता तोड़ा है।
'ठीक है बीरा! मेरा कॉलेज भी खुलने वाला है। मैं शहर जाकर इस बारे में विस्तार से पता करता हूँ कि तुझे आगे क्या करना चाहिए। उसके फार्म भी मैं भेज दूंगा। प्राइवेट बी.ए. करने का कोई खास फायदा है नहीं। इससे अच्छा तो कोई व्यावसायिक कोर्स कर लेना। तब आगे के बहुत से रास्ते खुल जायेंगे। मेरी शुभकामनायें हमेशा तेरे साथ रहेंगी, बीरा। इस समय तूने जिस दृढ़ता का परिचय दिया है, उससे तू मेरी नजरों में और भी ऊँची उठ गयी है।' दीपक भावुक होने लगा था।
'चल बहुत हो गयी मेरी तारीफ! अब स्वावलम्बन की दिशा में कुछ कर पाऊँ, उसमें मेरी सहायता कर दे बस।' बीरा उत्साहित होते हुई बोली।
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कुछ दिन बाद ही दीपक शहर चला आया। अब अपने भविष्य के बारे में विचार करने के साथ-साथ बीरा के भविष्य के बारे में सोचना भी उसकी जिम्मेदारी थी।
इन्हीं दिनों नर्सिंग कोर्स के लिए प्रवेश हो रहे थे। इस कोर्स को बीरा गाँव के पास ही छोटे शहर जाकर भी कर सकती थी। खर्चा भी अधिक नहीं था। उसे बीरा के लिए यही व्यावसायिक कोर्स सर्वाधिक उपयुक्त लगा। दीपक के मार्गदर्शन और उसकी प्रेरणा से बीरा गाँव छोड़कर नर्सिंग का कोर्स करने हेतु शहर आ गयी थी।
एक वर्ष का कोर्स पूरा करते ही बीरा की नियुक्ति नीलकंठ के समीप स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में हो गयी, जो उसके मूल गाँव से पन्द्रह बीस मील की दूरी पर ही था। बीरा के मामा ने जो धन बीरा की शादी के लिए कर्ज लिया था, उसे बीरा की पढाई में लगा दिया था। नौकरी लगते ही बीरा ने बैंक से लिए गये कर्ज को समय से पूर्व ही चुकता भी कर दिया है।
पहाड़ के दुर्गम गाँवों में आज भी शहर से कोई नौकरी करने आना नहीं चाहता, इसलिए बीरा को नियुक्ति मिलने में कोई कठिनाई नहीं हुई और तब से लेकर आज तक बीरा ने अशक्त, लाचार, बीमारजनों की सेवा में अपने आप को अर्पित कर दिया है। मानवता की सेवा का व्रत लिए इसी प्रकार के स्वास्थ्य केन्द्र अब उसके जीने का उददेश्य बन चुके हैं।
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सुबह चिड़ियों के चहचहाने से बीरा की आँखें खुलीं, तो उसने देखा कि पेड़ों से धूप छन-छनकर अंदर तक आ रही थी। कितनी देर तक सोती रही वह आज। कमरे की लाइट भी जल रही थी। कल रात बीती जिंदगी की यादों में इतना खो गयी थी बीरा कि रात के लिए बना खाना भी भूल गयी।
वह जल्दी से तैयार हुई और नाश्ता कर तुरन्त अस्पताल की ओर चल दी। वहाँ जाकर पता चला कि नये कम्पाउंडर ने पदभार ग्रहण कर लिया है। विगत कई वर्षों से यह पद खाली था। कोई आना ही नहीं चाहता था गाँव में। चलो कम्पाउडर के आने से उसे थोड़ी सी राहत मिले जायेगी। सुना है ये अपनी मर्जी से यहाँ पर नियुक्ति कराके आये हैं।
शिष्टाचारवश बीरा सर्वप्रथम उनसे मिलने उनके कमरे में गयी, उनकी उम्र अधिक नहीं थी लेकिन सारा चेहरा और हाथ सफेद दागों से भरा हुआ था।
कुछ दिनों में ही बीरा को नये कम्पाउंडर की दर्द भरी जिंदगी के बारे पता लग गया। हँसता खेलता परिवार था, सुन्दर पत्नी और एक बच्चा। अचानक इस परिवार की खुशियों को मानों ग्रहण लग गया। पति के शरीर पर सफेद दागों की बढ़ती संख्या को देखकर उनकी पत्नी अपने बच्चे सहित मायके चली गयी और फिर लौटकर नहीं आयी। बिल्कुल अकेले कम्पाउण्डर शान्ति और सुकून की तलाश में शहर छोड़कर गाँव में अपनी नियुक्ति कराकर आये हैं।
बाद में पता चला कि वे पहले भी पहाड़ों पर सेवा कर जा चुके हैं। बीरा ने उनसे गाँव का नाम पूछा तो चौंक गयी! ये तो विमला चाची का गाँव है। अपना नाम आर. प्रसाद लिखते हैं वे। तो क्या 'आर' का मतलब है राकेश...।
अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के उददेश्य से बीरा ने कम्पाउण्डर के स्थानान्तरण आदेश देखे, तो उसका शक एकदम सही निकला। तो ये ही राकेश है। इसका पूरा नाम राकेश प्रसाद है।
विमला की जिंदगी बीरा की आँखो के आगे घूम गयी। उनके चेहरे का वह दर्द बदनामी के डर से पिता की मृत्यु, कुँवारी माँ बनने के डर से पिता समान उम्र के व्यक्ति से विवाह, क्या-क्या नहीं झेलना पड़ा विमला को! और वह सब भी राकेश के विश्वासघात की वजह से। अगर राकेश उस समय विमला से विवाह कर लेता तो हो सकता है यह स्थिति ही नहीं आती। ईश्वर ने राकेश को उसके विश्वासघात का दंड दे दिया था। सब कुछ होते हुए भी राकेश के पास अब कुछ नहीं है। न पत्नी और न बच्चा। अपने कर्मो का नरक भुगत रहा है राकेश, बीरा ने सोचा।
क्या विमला से इस बात का जिक्र करे बीरा? नहीं, ये ठीक नहीं होगा। विमला ने अब उसी दुनिया में रहना सीख लिया है। अब तो एक पुत्र भी है उसका। राम सिंह काका कितने प्रसन्न और स्वस्थ नजर आते हैं। अब दोबारा से राकेश का जिक्र करके विमला की जिंदगी के उन पृष्ठों को जिन्हें वह बेदर्दी से फाड़ चुकी है, जोड़ना ठीक नहीं होगा।
राकेश से भी विमला के बारे में बात करना ठीक नहीं। यदि कभी राकेश को किसी और से यह पता लग जाये कि बीरा भी उसी गाँव की है, जहाँ विमला की ससुराल है, तब की, तब ही देखी जायेगी। अभी तो राकेश को अपने कर्मों की आग में जलने दो।
समय गुजरता जा रहा था। बीरा को नौकरी करते हुए दो वर्ष से अधिक बीत चुके थे। बीरा जब भी घर आती, उसकी सूनी माँग देखकर मामा-मामी सोचने लगते कि बीरा अपनी जिंदगी क्या ऐसे ही बिताने वाली है? उसकी सारी सहेलियाँ हँसी खुशी अपने-अपने परिवार में पति-बच्चों के साथ रह रही थीं।
किंतु बीरा तो अपने काम में इतना मशगूल थी कि उसे यह सब सोचने की फुरसत ही नहीं थी। नौकरी के साथ-साथ आस-पास के गाँवों के सामाजिक संगठनों से भी उसने अपने आप को जोड़ दिया था। गरीब, दुखियारे, अनपढ़ अशिक्षित लोगों की सेवा को ही अपना जीवन लक्ष्य बना लिया था उसने।
कभी मामा-मामी बीरा से मिलने उसके अस्पताल आते, तो गाँव वालों के मुख से बीरा की प्रशंसा के मीठे बोल सुन उनका माथा गर्व से ऊंचा हो जाता। मामी कई बार कहती 'बीरा! क्या सारी उम्र ऐसे ही बिता देगी? किसी ऐसे व्यक्ति से ही विवाह कर ले, जो तेरी तरह दीन दुखियों की सेवा करने वाला हो, फिर दोनों मिलकर खूब सेवा कर लेना।'
'अरे मामी! मेरा विवाह तो हो चुका है गाँव के लोगों के दुःख दर्द से, और दूसरा विवाह करना तो गैरकानूनी होता है न?' बीरा हँस कर टाल जाती।
इस बार दीवाली की छुट्टियों में गाँव आयी, तो पता चला दीपक घर आया है, एम.एस.सी कर लिया है उसने और किसी बड़ी कम्पनी की पैसे वाली नौकरी ठुकरा कर गाँव के लोगों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने किसी गैर सरकारी संगठन से जुड़कर गाँव लौट आया है।
बीरा ने सोचा, 'दीपक ने जो कहा, कर दिखाया, वह भी तो शहरी जिंदगी की चकाचौंध में पड़कर अच्छी सी नौकरी करके पैसे कमा सकता था, किंतु उसने कठिनता भरा गाँव की सेवा का मार्ग चुना।
इतना होनहार विद्यार्थी होने पर भी अपनी जड़ों को नहीं भूला वह और गाँव वालों की उन्नति का पथ प्रदर्शक बनने गाँव वापिस चला आया।
कुछ महीनों बाद संगठन के काम से दीपक बीरा की नियुक्ति वाले गाँव में आया। बीरा बहुत दिनों बाद दीपक से मिल रही थी। गंभीर प्रवृत्ति का लग रहा था वह! अपने कार्य निपटाने के पश्चात शाम को बीरा के कमरे पर चला आया था वह।
'बीरा! बुरा न मानो तो एक बात कहूँ', दीपक बोला।
'तुझे मुझसे बात करने के लिए आज्ञा की जरूरत कब से पड़ने लगी? पढ़ लिखकर ज्यादा ही औपचारिक हो गया है तू, पहले ये तो बता तुम्हारा संगठन काम क्या करता है? बीरा को दीपक द्वारा किये जाने वाले काम में अधिक रुचि थी।
'कुछ खास नहीं बीरा! गाँव के लोगों को खेती करने के उत्तम तरीके समझा रहे हैं, खेती के लिए अच्छे किस्म के बीजों, खाद इत्यादि की व्यवस्था करते हैं, साथ ही यहाँ के उत्पादनों के लिए बाजार उपलब्ध कराने में उनकी मदद कर रहे हैं। अब सोच रहे हैं कि महिला साक्षरता पर भी कुछ काम किया जाये और इसी क्रम में महिला स्वयं सहायता समूह की सदस्याओं से सम्पर्क करने के उद्देश्य से ही तुम्हारे गाँव में आ पहुँचा हूँ मैं।' दीपक ने अपने संगठन के कार्यों पर संक्षेप में बीरा को समझाया।
'अरे! यह महिला साक्षरता वाला कार्य तो बहुत अच्छा है। बहुत भला होगा इससे महिलाओं का और इसके साथ-साथ पूरे गाँव का और पूरे समाज का। अच्छा तू तो बता, क्या पूछने वाला था।' बीरा ने पूछा?
'बीरा! दरअसल बात ये है कि यहाँ आने से पहले मैं तेरे मामा-मामीजी से मिलकर आ रहा हूँ। वे लोग तेरा विवाह न होने के कारण काफी परेशान रहने लगे हैं। हमारे आपस के लगाव के बारे में भी उन्हें पता है। वे हमारे विवाह के लिए एकदम सहमत हैं। माँ भी तुझ जैसी लड़की को बहू के रूप में देखकर धन्य होगी। यदि तेरी सहमति हो, तो हम विवाह कर एक बार फिर एक नयी जिंदगी शुरू कर सकते हैं।' दीपक ने अपना मन्तव्य स्पष्ट करते हुए कहा।
दीपक की मुख मुद्रा गंभीर हो गयी। थोड़ी देर कमरे में सन्नाटा रहा फिर बीरा बोली 'दीपक! यह सच है कि तेरे और मेरे बीच में स्नेह बन्धन है, इस बात की जानकारी मेरे मामा-मामी को थी, किंतु तब समाज के डर से उन्होंने इस रिश्ते के लिए मना कर दिया था। उसके बाद मेरी जिंदगी में क्या हुआ? यह तुझसे बेहतर कौन जानता है? तब से मुझे विवाह शब्द से ही घृणा हो गयी है।'
कुछ क्षण मौन रहने के बाद बीरा ने दीपक से पूछा, - 'क्या आवश्यक है कि प्रेम की परिणति विवाह के रूप में ही हो?'
'नहीं बीरा! यह आवश्यक नहीं कि हर प्रेम की परिणति विवाह के रूप में हो। बिना विवाह के भी हम अच्छे मित्र बने रह सकते हैं। एक दूसरे के कार्यो में सहयोग कर सकते हैं। सच्चा स्नेह कभी एक दूसरे को कमजोर नहीं बनाता, बल्कि उसे शक्ति देता है, दृढ़ता देता है।' दीपक ने कहा।
'तो ठीक है दीपक! हम जैसे पूर्व में थे, वैसे ही मित्र बने रहेंगे। आज से हमारा संकल्प है कि साथ-साथ चलकर हम इस पिछड़े पहाड़ी क्षेत्र को एक नयी दिशा देने का हर सम्भव प्रयत्न करेंगे। जिन पुनीत कार्यों का तुम अपनी संस्था के साथ संचालन कर रहे हो, उसमें मैं भी कदम से कदम मिलाकर तुम्हारी हर सम्भव मदद ही नहीं करूँगी, बल्कि एक स्वावलम्बी महिला होने के नाते तुमसे भी दो कदम आगे बढ़कर इस भगीरथ अभियान में हमेशा आहुति देती रहूँगी। यही होगी हमारे इतने वर्षों के सच्चे स्नेह की परिणति।' बीरा के स्वर में दृढ़ निश्चय था।
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दीपक के चेहरे पर मुस्कुराहट लौट आयी। वह सोच रहा था, 'कैसे हैं ये बन्धन, जिनमें एक अनाम रिश्ता समाहित है जो जुड़कर टूटता है और टूटकर फिर जुड़ जाने को आतुर है।' दीपक को अनायास ही यह कथन स्मरण हो आया कि आत्मीय मित्र अन्ततः कहीं एक जगह पर जाकर नहीं मिलते, अपितु वे तो निरन्तर एक दूसरे के साथ होते हैं।
दूर आकाश में लालिमा छाने लगी थी, पक्षी चह चहाकर अपने-अपने घोसलों की ओर लौटने लगे थे। पहाड़ी गाँव में खेलते-कूदते बच्चे पंचायती चौक में जमा होकर धमाचौकड़ी मचाने लगे थे, जबकि गाँव की बहू बेटियाँ और महिलायें घास, लकड़ी, खेत खलिहानों के दिन भर के कार्यों से निवृत्त होकर वापिस घर लौटने लगी थीं। धारे पर पन्देरों की भीड़ जमा होने लगी थी और इसी के साथ दिन भर से सूने पड़े घर, चौक और तिबारियों में अचानक हलचल बढ़ गयी थी।
पल भर में ही सूर्य अस्त होने वाला था फिर से नवजीवन की उल्लास भरी नवतरंगे लिए एक नयी सुबह लाने के लिए...।