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उपन्यास

निशान्त

रमेश पोखरियाल निशंक


निशान्त

(उपन्यास)

डॉ. रमेश पोखरियाल ' निशंक '

 

 

 

भावना प्रकाशन

109-A, पटपड़ गंज, दिल्ली - 110091

दूरभाष- 011-22756734

संस्करण- 2008

ISBN : 978-

81-7667-213-9

 

निशान्त

हिंदी साहित्यकारों में डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंक' ने दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह अपनी उपस्थिति दर्ज की है। 'निशंक' की निरंतर अबाध गति से चल रही साहित्य यात्रा हिंदी की समृद्धि और श्रीवृद्धि कर एक नया आयाम स्थापित करेगी। ऐसी रचनाएँ लोगों में देश भक्ति का जज्बा पैदा करती हैं। सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय रहने वाले डॉ. 'निशंक' के अब तक डेढ़ दर्जन से भी अधिक पुस्तकों का प्रकाशन उनकी प्रखरता, संकल्पशीलता, रचनाधर्मिता तथा संवेदनशीलता का प्रमाण देती है। निश्चित ही 'निशंक' ने ऐसी कृतियों की रचना कर राष्ट्र का गौरव बढ़ाया है।

डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम

पूर्व राष्ट्रपति, भारत

 

एक

तेज हवा के झोंकों के साथ खिड़की के पट ज़ोर की आवाज के साथ खुल गए तो कमरे में बेचैनी से टहलती मीताली ने शॉल कसकर लपेट लिया। खिड़की को बंद करने के लिए मीताली ज्यों ही उधर बढ़ी इतने में आसमान में ज़ोर की गर्जना हुई और बिजली गुल हो गयी। 'उफ़्फ़! आज तो लगता है भीषण तूफान आएगा।' मीताली ने मन ही मन सोचा और खिड़की बंद कर ली।

पता नहीं निशान्त कहाँ होगा, अब तक पहुँचा नहीं। लगभग तीन घंटे पहले उसका फोन आया था। कहीं रुकने की बात भी नहीं थी फिर अब तक पहुँचा क्यों नहीं? किसी अनजानी आशंका से दिल घबरा उठा मीताली का।

फिर स्वयं को ही सांत्वना देते हुए सोचने लगी, नहीं-नहीं वह पहुँचने ही वाला होगा। हो सकता है रास्ते में कार खराब हो गयी हो, टेलीफोन पर जब उससे बात हुई थी तो वह बिलकुल सामान्य ही लग रहा था, ठीक वही चिरपरिचित अंदाज था उसका। 'निशान्त कहाँ पहुँचे हो? कितनी देर में पहुँचोगे? पूछा था मीताली ने।

'एक साथ इतने सवाल?' उत्तर दिया निशान्त ने- 'अभी चिड़ियाघर पहुँचा हूँ। बस एक घंटे के अंदर पहुँच जाऊँगा।

'अच्छा! क्या कर रहे हो चिड़ियाघर में? चिड़िया पकड़ रहे हो क्या?' मीताली ने मजाकिये स्वर में पूछा।

एक जोरदार ठहाका लगाया निशान्त ने और फिर कुछ गंभीर स्वर में बोला, 'क्या करूँगा अब चिड़िया पकड़ कर? मेरे पास तो पहले से ही एक मौजूद है, जिसकी किसी से तुलना नहीं।'

गंभीर हो गयी थी मीताली भी। 'इस चिड़िया को तो तुमने ही अहसास कराया कि इसके पंख हैं, वरना वह तो उड़ना ही भूल गयी थी। इसकी उड़ान को दिशा एवं पंखों को ताकत तो तुमने ही दी है। मीताली की इच्छा हुई कि वह यह सब कह दे किंतु कह न पायी।

'हे! हेलो! कहाँ खो गयी तुम, मेरी बात सुन रही हो न? मीताली की तरफ से कोई उत्तर न पाकर निशान्त ने पूछा।

'हाँ हाँ! चौंकी मीताली- हाँ...हाँ सुन रही हूँ सब कुछ। बस तुम जल्दी से लौट आओ।'

'ठीक है पहुँचकर फोन करता हूँ। निशान्त बोला और फिर फोन काट दिया।

एक घंटे के अंदर लौट आने की बात की थी निशान्त ने और अब पूरे चार घंटे गुजर चुके थे। किसी अनहोनी की आशंका से न जाने कैसे-कैसे ख्याल आने लगे अब मीताली के मन में।

'न जाने कहाँ होगा निशान्त इस समय। तूफान भी तो बहुत ज़ोर का चल रहा है। कहीं कोई परेशानी...? नहीं-नहीं सब ठीक ही होगा। तूफान और बारिश के कारण कहीं रुक गया होगा।'

मीताली सोच ही रही थी कि तभी टेलीफोन की घंटी घनघनायी। मीताली ने लपककर रिसीवर उठाकर कान से लगा लिया।

'हैलो! बेताबी से मीताली ने कहा।

'हाँ दीदी! मैं हूँ शेखर! उधर से आवाज आयी।

'ओह शेखर तुम हो?' बुझी आवाज आयी।

'क्यों किसी और के फोन का इंतजार था क्या? व्यंग्यात्मक लहजा था शेखर का।

'क्या हो गया शेखर को? मीताली सोच रही थी, शायद शेखर बदल रहा था। किंतु नहीं उसे न सुधरना था और न वह सुधरेगा। वही ढाक के तीन पात। कितना अंतर है निशान्त और शेखर में। एक तरफ शेखर उसका सगा छोटा भाई और दूसरी तरफ निशान्त, जिससे उसका दूर-दूर तक का भी कोई रिश्ता नहीं, फिर भी कितना समझता है उसके मन को, लेकिन शेखर...। वह आज तक अपनी बड़ी बहन की पीड़ा को समझ नहीं पाया।'

मीताली मन ही मन सोच रही थी। सोचते हुए प्रत्यक्षतः बोली, 'अरे नहीं, मैंने सोचा इतनी रात गये न जाने किसका फोन होगा?'

'दीदी मैं काम से शहर आया हूँ, दो-तीन दिन में लौट आऊँगा। शेखर ने ऐसे कहा मानो उसे कोई जल्दी हो।

'ठीक है शेखर!' मीताली बोली और फोन रख दिया।

उसे संतोष हुआ, चलो कम-से-कम शेखर काम में तो मन लगा रहा है। वरना एक समय था जब शेखर की हरकतों से परेशान होकर मीताली को अपनी जमी-जमाई नौकरी छोड़कर इस छोटे से कस्बे में आकर नयी नौकरी की शुरुआत करनी पड़ी थी।

अच्छा-खासा जीवन व्यतीत हो रहा था उसका। शहर में सीमित वेतन में उसने तीनों भाई-बहनों को पढ़ाया-लिखाया। छोटी बहन सोनाली की शादी की और भाई राहुल को इंजीनियर बनाया। वह चाहती थी कि शेखर भी पढ़-लिखकर कुछ अच्छी नौकरी पर लग जाये किंतु उसका सोचा हुआ उसी के पास ही रह गया।

हाईस्कूल पास करने के बाद शेखर में न जाने क्या बदलाव आ गया। उसे न घर की चिंता रहती और न दीदी का डर, कुछ अलग किस्म की संगत हो गयी थी उसकी और उसी की वजह से रोज रात गये घर आना, घूमना-फिरना और बस। पढ़ाई चौपट हो गयी थी उसकी। किसी तरह इंटरमीडिएट पास कर पाया था वह। मीताली उसे आगे पढ़ाना चाहती थी, किंतु उसने खुद ही हाथ खड़े कर दिये।

अब उसने ठेकेदारी शुरू कर दी, लेकिन वह भी दादागीरी और गुंडागिरी के बल पर। आए दिन उसकी शिकायतें आने लगीं। कभी लड़ाई-झगड़ा और कभी मारपीट। तंग आ गयी थी मीताली रोज-रोज की इस झंझट से। वर्षों से बनाई अपनी मान-प्रतिष्ठा पर भी उसे अब आँच आती महसूस होने लगी थी।

उसने कई तरह से शेखर को समझाया, अपने पिता की प्रतिष्ठा और अपनी मर्यादा का वास्ता दिया किंतु शेखर था कि 'हाँ, हूँ' करता और एक-दो दिन गंभीर रहने के बाद फिर उसकी वही हरकतें शुरू हो जातीं। मीताली को सबसे अधिक चिंता उसके दोस्तों के चयन की थी। इस उम्र में संगत का असर भी बहुत बुरा होता है। समझाने पर भी उस पर कोई विशेष असर नहीं होता था।

कितना संघर्ष किया है मीताली ने। किया नहीं, अब तक संघर्ष कर रही है।

अपने लिए नहीं अपितु अपने तीन भाई-बहनों के लिए उसने अपना सारा जीवन दाँव पर लगा दिया है।

उसे खुशी है कि उसका एक भाई इंजीनियर बनकर विदेश में अच्छे पद पर कार्यरत है। अपना परिवार बसा लिया है उसने। छोटी बहन अपने परिवार में खुश है। चिंता है तो बस शेखर और उसके भविष्य की।

शेखर कुछ न कर पाता और कुछ न बन पाता तो भी कोई बात नहीं थी, किंतु उसने तो अपनी हरकतों से मीताली का जीना मुश्किल कर दिया था।

दादागिरी के बल पर सरकारी ठेके हथियाने के मंसूबे लिये कई बार उसका झगड़ा हो जाया करता था। यह एक दिन की बात नहीं थी, अब तो आये दिन ऐसा सुनने को मिलने लगा था।

एक दिन तो मीताली हतप्रभ रह गयी जब उसे पता चला कि मारपीट करने के जुर्म में शेखर थाने में बंद हो गया है। किसी तरह से उसने शेखर को छुड़वाया। उस दिन उसे लगा कि वर्षों से बनाई उसकी मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा को शेखर ने आज धूल-धूसरित कर दिया है और उसी दिन उसने उस शहर को छोड़ने का निश्चय कर लिया था।

मीताली का मन घर से बाहर निकलने को नहीं होता था, परंतु क्या करे वह? कहाँ जाये? उसे कुछ सूझ नहीं रहा था।

इसी बीच उसने अध्यापिका के पद के लिए अखबार में विज्ञापन देखा जो कि एक छोटे से कस्बे में लड़कियों के स्कूल के लिए था। स्कूल पूर्ण आवासीय था। अतः रहने का प्रबंध भी विद्यालय परिसर में ही था। उसे लगा इस शहर से निकलने का इससे अच्छा मौका उसे नहीं मिलेगा, इसलिए बिना किसी से पूछे उसने इसके लिए आवेदन कर लिया। इंटरव्यू के लिए उसे बुलावा आया और एक माह बाद उसे वहाँ नियुक्ति भी मिल गयी।

यहीं आकर उसे निशान्त के रूप में एक सहारा मिला तो उसके जीवन में एक नयी आशा का संचार हुआ, किंतु शेखर यहाँ भी उसे चैन से रहने देगा या नहीं, यह उसके लिए चिंता का विषय था।

बहुत लंबा संघर्षपूर्ण रास्ता तय किया है उसने। माँ और पिता की मृत्यु के बाद एक-एक क्षण, एक-एक पल उसने किस तरह से अपना जीवन जिया है यह तो सिर्फ वही जानती है। उसे याद है जब पिताजी की मृत्यु हुई थी तो वह किस कदर निराशा में घिर गयी थी। सोचते-सोचते मीताली की आँखों के आगे अपने गुजरे जीवन के एक-एक क्षण किसी चलचित्र की तरह उभरने लगे।

दो

चार भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी मीताली! माँ का देहांत तब हो गया, जब वह मात्र बारह वर्ष की थी। पिता एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे।

छोटी-सी उम्र में ही पढ़ाई के साथ-साथ घर की देखभाल का बोझ भी मीताली के सिर पर आ गया। उम्र अधिक न होते हुए भी परिस्थितिवश उसके स्वभाव में परिपक्वता आ गई थी। छोटे भाई-बहनों से माँ की तरह स्नेह रखना सीख लिया था उसने। इस सबके बीच उसका बचपन तो जैसे खो ही गया था।

माँ की मृत्यु की बाद पिताजी भी जैसे टूट गये थे। मीताली पर पड़े काम का बोझ महसूस करके वह और भी दु:खी रहने लगे, आखिर वे बेचारे करते भी क्या, धीरे-धीरे अंदर ही अंदर वे बीमार रहने लगे।

कुछ पारिवारिक लोगों और शुभचिंतकों ने उन्हें दूसरा विवाह करने की सलाह भी दी, लेकिन उन्होंने अबोध बच्चों के भविष्य का वास्ता देकर इस प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया था।

इस सबके बीच मीताली ने अपनी बारहवीं की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर दीं। घर की स्थिति देखते हुये उसने पिता से अध्यापिका का प्रशिक्षण लेने की इच्छा जाहिर की। पिता चाहते थे कि मीताली पहले कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर ले और उसके बाद नौकरी के बारे में सोचे जबकि मीताली जल्दी से जल्दी स्वावलंबी बनने का सपना सँजोये थी। आखिरकार मीताली की जिद के चलते पिता को बुझे मन से स्वीकृति देने हेतु विवश होना पड़ा।

किंतु ईश्वर को तो कुछ और ही मंजूर था। आघात सहते-सहते पिता का हृदय कमजोर हो चला था। एक रात पिता ऐसे सोये कि सोते ही रह गये। मीताली तो उस हादसे से हतप्रभ रह गयी। उसे लगा मानो उसके सिर की छत कोई तूफान उड़ा ले गया हो, अब वह क्या करे? खुद सँभले या छोटे भाई-बहनों को संभाले।

छोटी बहन सोनाली उस समय ग्यारहवीं में पढ़ रही थी। राहुल नौवीं में और सबसे छोटा शेखर सातवीं में पढ़ रहा था।

कुछ दिनों तक तो मीताली की समझ में ही नहीं आया कि वह क्या करे। पिता की अंतिम क्रियाओं को करने और छोटे भाई-बहनों को सँभालने में ही वह इतना व्यस्त हो गई कि उसे आँसू बहाने का समय ही नहीं मिला। उसे लगा जैसे उसकी जिंदगी मशीन हो गई हो।

समस्त कार्य सम्पन्न हो जाने के बाद जब सभी नाते-रिश्तेदार एक-एक कर वापिस लौट गये एकाएक मीताली को पिता के चले जाने का एहसास होने लगा। क्या करेगी और कैसे छोटे भाई-बहिनों को पालेगी-पढ़ायेगी? अब यह उसकी चिंता का विषय था।

जमा-पूँजी के नाम पर पिता जी के फ़ंड का कुछ पैसा था जिसे निकालने में एक महीने के लगभग समय लग गया। इसी भागदौड़ के दौरान ही जब पिता की पेंशन भी स्वीकृत हो गयी तो कुछ सहारा जैसा प्रतीत हुआ वरना फंड की छोटी सी रकम से कब तक घर का खर्च चल पाता।

कुछ ही दिनों पश्चात मीताली ने घर-परिवार को इस तरह संभाल लिया था जैसे न जाने कितनी अनुभवी हो। पिता की पेंशन के साथ ही उसने आस-पड़ोस से तीन-चार ट्यूशन भी ले ली तो घर का खर्च और भी सुविधापूर्वक चलने लगा। कुछ महीनों बाद उसका अध्यापिका का प्रशिक्षण भी पूर्ण होने वाला था। वह सोचने लगी थी कि नौकरी लग जाये तो फिर घर सँवर जायेगा, साथ ही भाई-बहनों को पढ़ाने और उन्हें किसी लायक बनाने की उसकी मन इच्छा भी पूरी हो पायेगी।

इन्हीं उम्मीदों में उसके बचपन और यौवन के सुनहरे पल कब निकल गये, उसे खुद इसका आभास ही नहीं हो पाया। दोनों भाई अभी तक पढ़ाई में अव्वल थे जबकि सोनाली को पढ़ाई में तनिक भी रुचि नहीं थी। उसका ध्यान घर के कामों और साफ-सफाई में अधिक था। खाना बनाने और घर सँवारने में उसकी रुचि ज्यादा थी। उसकी इसी रुचि के कारण मीताली को हाँलाकि काफी मदद भी मिलती, जिस कारण वह अपनी पढ़ाई और ट्यूशन के लिए अधिक समय निकाल पाती थी।

किंतु इससे अधिक उसे सोनाली के भविष्य की चिंता होती। क्या करेगी वह? पढ़ाई-लिखाई नहीं करेगी तो कैसे जीवन जी पायेगी? इतना पैसा है नहीं कि किसी अच्छे घर में शादी हो सके।

मीताली सुबह उठती तो सोनाली उसी के साथ उठ जाती। उठते ही सबसे पहले वह मुँह-हाथ धोकर चाय बना देती और गरमागरम चाय का गिलास दीदी के हाथ में पकड़ा देती। एक तरफ मीताली को यह सब अच्छा भी लगता और वह सोचती कि चलो कोई है जो उसके काम में हाथ बँटा रहा है, किंतु फिर उसके भविष्य और उसकी पढ़ाई का ध्यान आते ही वह उसे टोक देती।

'सोनाली तुम्हें कितनी बार कहा है कि तुम किचन में न जाया करो। तुम जाकर अपनी किताब निकालकर बैठो, चाय मैं खुद बना देती हूँ।'

'दीदी चाय बनाने में वक्त ही कितना लगता है। लो बस अब मैं बैठ गई पढ़ने।' सोनाली चंचलता से कहती तो मीताली मुस्कुरा देती।

इसके तुरंत बाद प्रारंभ हो जाती मीताली की दिनचर्या। राहुल और शेखर को जगाकर उन्हें चाय देना, तीनों भाई-बहनों के लिए सब्जी-रोटी तैयार करना और परोस कर उन्हें खिलाना।

जब तक मीताली रसोई का काम निपटाती, सोनाली इतने में झाड़ू पोछा और बिस्तर ठीक कर देती, फिर तीनों भाई-बहन स्कूल चले जाते। मीताली तब घर के अन्य कामों को तेजी से निपटाती और सुबह दस बजे से पहले ही स्वयं भी समय पर अपने स्कूल पहुँच जाती।

स्कूल जाने से पहले वह दाल उबाल कर रख देती, चावल बीनकर साफ कर देती ताकि दिन के खाने के लिए किसी प्रकार की देर न हो।

अपराह्न वह दो बजे घर लौटती और आते ही चावल चूल्हे पर चढ़ा देती। उसके बाद कपड़े इत्यादि बदलकर हाथ-मुँह धोती और दाल में तड़का दे देती। इतने में तीनों भाई-बहन भी घर पहुँच जाते तो फिर मिलकर दोपहर का सामूहिक भोज होता।

बरतन धोने के लिए सोनाली खुद ही मीताली से पहले किचन में घुस जाती। 'सोनाली तुम छोड़ो, मैं खुद बर्तन धो लूँगी'। मीताली कहती।

'नहीं दीदी बरतन धोने से मेरे हाथ थोड़े ही घिस जायेंगे। आप भी तो थकी हैं। कितना काम करती हैं आप'। सोनाली बुजुर्गों वाले अंदाज में कहती।

बरबस उसकी बातों से मीताली मुस्कुरा उठती, 'न जाने कब कल की यह छोटी सी गुड़िया इतनी समझदार हो गई है'?

'अरे मुझे नहीं लगती थकान'। मीताली फिर उसे चिढ़ाने वाले अंदाज में कहती।

'हाँ-हाँ आपको थकान थोड़े ही लगती है। आप तो मशीन हैं। सोनाली बात का जवाब तपाक से देती और फिर दोनों बहनें खिलखिलाकर हँस देती।

राहुल पढ़ाई के प्रति गंभीर था। खाना खाने के पश्चात तुरंत अपना होमवर्क निपटाने के लिए बैठ जाता। जबकि शेखर कुछ न कुछ लेकर बैठ जाता। कभी रेडियो चला देता तो कभी घर से बाहर निकल कर आँगन में दोस्तों से गप्पबाजी करने लगता। छोटा था, इसलिए मीताली उस पर पढ़ाई के लिए अधिक दबाव भी नहीं देती थी। वह सोचती कि समझ जाएगा धीरे-धीरे, उम्र के साथ ही अक्ल भी आ जायेगी।

सायं को मीताली दो-दो घरों में ट्यूशन पढ़ाने जाती और फिर एक ट्यूशन वह घर में भी पढ़ाती। आठ बजे रात्रि को जैसे ही वह ट्यूशन की कक्षा छोड़ती तो तुरंत ही सोनाली उसे गर्म चाय की प्याली पकड़ा देती। सोनाली रसोई में घुसती तो उसे सब्जी कटी हुई मिलती। जीवन इसी तरह चल रहा था। हँसी-खुशी समय निकलता जा रहा था और उसी के साथ अपनी-अपनी मंजिल की ओर आगे बढ़ते जा रहे थे चारो भाई-बहन भी।

 

तीन

आज का दिन मीताली के जीवन में खुशियों की बहार लेकर आया था। उसे लगा जैसे उसकी तपस्या अब सफल होने जा रही थी।

राहुल दौड़ते हुए घर आया, 'दीदी, देखो मैं अखबार लेकर आ गया हूँ'। इतना कहते ही राहुल ने पूरा का पूरा अखबार दीदी के हाथ में रख दिया। आज हाईस्कूल और इंटरमीडिएट बोर्ड का रिज़ल्ट निकला था और सोनाली व राहुल दोनों का भविष्य अखबार के रूप में इस समय मीताली के हाथ में था।

धड़कते दिल से उसने अखबार का पन्ना पलटते हुए हाईस्कूल का रिज़ल्ट देखा पहले। राहुल और सोनाली भी अखबार पर नजरें गड़ाए हुए थे। एक-एक नंबर पर उँगली सरकती हुई राहुल के नंबर पर आकर रुक गई तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा, फर्स्ट क्लास आया था राहुल। उसने राहुल का चेहरा हथेलियों में भरकर चूमा तो राहुल भी लिपट गया दीदी से।

'शाबाश मेरे भाई! मीताली ने उसे बधाई दी। तभी व्यग्र सोनाली ने उसे बीच में ही टोक दिया, दीदी मेरा रिजल्ट भी तो देखो'। खुशी के इन लम्हों में एक पल के लिए मीताली भूल ही गई थी कि अभी सोनाली का भी रिज़ल्ट देखना है। इंटर परीक्षा परिणाम वाले पेज पर एक-एक नंबर को गौर से देखते हुए मीताली यकायक चिल्ला उठी,

'अरे वाह, सोनाली भी द्वितीय श्रेणी में पास'! और फिर दोनों भाई-बहन मारे खुशी के लिपट गई। आँसू छलछला आये उसके। न जाने कितने वर्षों बाद आँसू आए थे उसकी आँखों में। पिताजी की मृत्यु के बाद तो मानों वह हँसना और रोना भूल ही गई थी।

'दीदी! दीदी! पैसे दो।' सुनते ही तीनों अलग हो गये। शेखर सामने हाथ फैलाये खड़ा था।

'पैसे किसलिए?' मीताली ने उसे आश्चर्य से पूछा।

'मिठाई लाने के लिए।' राहुल मासूमियत से बोला तो तीनों खिल-खिलाकर हँस दिये।

मीताली ने पचास रुपये का नोट शेखर के साथ में रखा तो वह उछलता हुआ घर से बाहर निकल गया।

सचमुच खुशी का दिन था आज मीताली के लिए। दिन ही क्या यह महीना ही उसके जीवन में नयी खुशियाँ लेकर आया था। महीने की शुरुआत में ही उसका प्रशिक्षण भी संपन्न हो चुका था और वह उत्तीर्ण भी हो गयी थी।

पिता के मित्र की सलाह पर उसने पिता के स्थान पर नौकरी हेतु आवेदन कर दिया। उसके घर की स्थिति को देखते हुए लड़कियों के एक स्कूल में विभाग द्वारा उसे अध्यापिका की नौकरी दे दी गयी थी। अभी कल ही उसने अपनी नौकरी की शुरुआत की थी।

ईश्वर जब खुशियाँ देता है तो हर तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ मिलती हैं, यही मीताली के साथ हुआ था।

चूँकि राहुल ने प्रदेश में विशेष स्थान प्राप्त किया था, इसलिए उसकी आँखों में इंजीनियर बनने का सपना पल रहा था। मीताली भी हर कीमत पर उसके इस सपने को पूरा करना चाहती थी।

अभी तक उसने भाई-बहनों को माता-पिता की कमी का अहसास नहीं होने दिया था। दु:ख और मुसीबतें स्वयं ही झेलते हुए उसने भाई-बहनों के लिए कोई कमी नहीं होने दी।

अब मीताली को अपने भाई-बहनों के सपने साकार करना और भी आसान हो गया था। पिता की पेंशन, अपनी नौकरी और ट्यूशन से प्राप्त होने वाले रुपये से घर का सारा खर्च आराम से चलने लगा था।

मीताली ने अब अपने आप को और व्यस्त कर दिया। अपने भाई-बहनों की खुशी में ही उसने अपनी खुशी तलाश ली थी।

एक दिन चुपचाप पीछे से आकर राहुल ने मीताली की आँखें बंद कर दी, मीताली ने जैसे ही उसके हाथों को स्पर्श किया, 'समझ गयी राहुल है!' मीताली ने आत्मविश्वास के साथ कहा।

'दीदी आपको कैसे मालूम पड़ा?' राहुल ने पूछा।

'अरे पगले! तुम्हारी एक-एक भावना एक-एक साँस मेरे दिल में बसी हुई है तो फिर मुझे क्यों मालूम नहीं पड़ेगा।' मीताली हँसते हुए बोली, 'चलो हाथ हटाओ।'

'नहीं दीदी पहले अपना हाथ आगे बढ़ाओ।' राहुल ने बच्चों वाली जिद करते हुए कहा।

मीताली ने हाथ आगे बढ़ा दिया, 'क्या है? अब तो हाथ छोड़ो।' इतने में राहुल ने उसके हाथ पर एक लिफाफा रख दिया।

'क्या है यह?' मीताली लिफाफा खोलते हुए बोली।

'चिट्ठी।' राहुल ने उसी मासूमियत से कहा।

चिट्ठी पढ़कर सचमुच मीताली की खुशी का ठिकाना न रहा और उसने राहुल का माथा चूम लिया। उसे प्रदेश सरकार की ओर से छात्रवृत्ति स्वीकृत हुई थी, उसकी सूचना थी यह। मीताली की खुशी का ठिकाना न रहा। एक-एक कर उसकी खुशियों में नित नयी खुशियाँ जुड़ती जा रही थीं।

राहुल को प्रतिमाह मिलने वाली छात्रवृत्ति से अब उसकी आर्थिक स्थिति और अच्छी हो जायेगी। मीताली सोच रही थी।

सोनाली भी अब कॉलेज जाने लगी थी, यह भी उसकी खुशी का एक प्रमुख कारण था। बारहवीं के बाद वह खुद कॉलेज में नहीं पढ़ पायी थी। पारिवारिक परिस्थितियों ने उसे करने की इजाजत नहीं दी थी, अपने मन में दबी इच्छा अब उसे सोनाली के कॉलेज पढ़ने पर पूरी होती दिख रही थी।

जितनी खुशी उसे सोनाली और राहुल की प्रगति से हो रही थी, उससे कहीं अधिक चिंता उसे शेखर के भविष्य को लेकर होने लगी।

'न जाने शेखर का मन पढ़ाई में क्यों नहीं लगता? पढ़ाई के प्रति या अपने भविष्य के प्रति वह तनिक भी गंभीर नहीं दिखता।'

प्रारंभ में तो मीताली यही सोचती रही कि बच्चा है, उम्र के साथ अक्ल आ जायेगी, किंतु उम्र बढ़ने पर भी शेखर में कोई बदलाव नहीं आया, बल्कि अब वह और ज्यादा लापरवाह सा हो गया था। घूमने-फिरने और यारी-दोस्ती में ही उसका अधिक मन था। हाईस्कूल में पहुँच गया था वह अब, किंतु जरा भी चिंतित नहीं।

उस दिन तो मीताली को बहुत बड़ा झटका लगा जब शेखर धूल-मिट्टी और गंदगी से सने कपड़ों के साथ चेहरे पर जगह-जगह चोट-खरोचों के निशान सहित घर पहुँचा था। लाख पूछने पर भी उसने कुछ नहीं बताया था। इधर-उधर से उसके साथ पढ़ने वाले छात्रों से पता किया, तब जाकर मालूम पड़ा कि उसने किसी अन्य स्कूल के छात्रों के साथ मारपीट की थी, जिसमें वह स्वयं भी घायल हुआ था। बहुत गुस्सा आया था उसे पहली बार शेखर पर। मन हुआ कि दो तमाचे उसके गाल पर जड़ दे परंतु किसी तरह अपने को काबू कर लिया।

किसी तरह से वे अपना समय गुजार रहे हैं। कितनी मेहनत कर रही है वह उसके भविष्य के लिए, इससे शेखर को जैसे कुछ मतलब न था। सोनाली व राहुल से भी वह प्रेरणा नहीं ले पाया था। एक ही माँ-बाप की संतानों के आचार-व्यवहार में कितना अंतर होता है, यह मीताली की समझ में आ गया था।

किसी तरह अपने गुस्से को काबू में कर उसने शेखर को प्यार से समझाना ही उचित समझा, 'शेखर! आज तुमने जो कुछ किया वह ठीक नहीं है। हम सुसंस्कारित लोग हैं, यह सब हमको ठीक नहीं लगता। देखो अभी तुम्हारी उम्र पढ़ाई करने की है। इस उम्र में लड़ाई-झगड़ा करना कोई अच्छी बात नहीं। आगे से मैं तुम्हारी किसी प्रकार की शिकायत नहीं सुनना चाहती, ठीक है।'

शेखर गर्दन झुकाकर बुत के समान खड़ा रहा, बस अंत में इतना बोला, 'अच्छा दीदी।' उस रात मीताली ठीक से सो नहीं पायी।

कुछ देर तक करवटें बदलते हुए न जाने क्या-क्या खयाल उसके मन में आते-जाते रहे।

माँ-बाप की यादों से लेकर सुख-दु:ख के अनेक क्षण उसके जेहन में लहरों की भाँति हलचल मचाते रहे। न जाने कब आँख लग गयी, उसे आभास न हो पाया।

 

चार

मीताली ट्यूशन पढ़ाने के लिए घर से बाहर निकलने ही वाली थी कि तभी दरवाजे पर खटखटाहट सुनकर चौंक गयी। कौन आया होगा इस वक्त?

आमतौर पर उनके घर में किसी का आना-जाना है ही नहीं। कभी-कभार सोनाली की सहेली या फिर राहुल के दोस्त ही आते हैं। किंतु वह भी तब, जब सायं को मीताली भी घर में होती है। सब लोग जानते हैं कि दीदी चार बजे से छः बजे तक ट्यूशन पढ़ाने जाती है और यह समय उसके तीनों भाई-बहनों के पढ़ने का होता है। उसने स्वयं भी उन्हें हिदायत दे रखी थी कि अपने दोस्तों और सहेलियों से मिलना हो तो सायं के छः बजे के बाद बुलाये ताकि उस समय वह भी घर में रहे।

'सोनाली! देखो तो कौन आया है?' मीताली ने पर्स उठाकर कंधे पर लटकाते हुए कहा।

सोनाली ने दरवाजा खोला तो हतप्रभ रह गयी। सामने उसके कॉलेज के प्राध्यापक डॉ. रामकुमार खड़े थे। उन्हें कमरे में बैठाकर सोनाली अंदर गई।

'कौन है?' सोनाली के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ते देख मीताली ने पूछा।

'प्रोफ़ेसर रामकुमार जी!' सोनाली बड़ी मुश्किल से बोल पायी।

'प्रोफ़ेसर रामकुमार? हमारे घर क्यों?'

मीताली ने उसे ऐसे देखा मानो वह झूठ बोल रही हो।

'मुझे नहीं मालूम दीदी।' सोनाली बोली।

'फिर!' मीताली ने जैसे अपने आप से प्रश्न किया।

'दीदी मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मेरी कोई शिकायत नहीं है।' सोनाली ने अपने आप अपनी सफाई दी।

चिंतित मीताली ट्रे में पानी का गिलास लेकर बाहर गयी। प्रणाम करके प्रो. रामकुमार को पानी का गिलास देते हुए वह स्वयं भी सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गयी। उससे कुछ बोलते नहीं बन रहा था।

प्रो. रामकुमार ने तसल्ली से पानी पिया और फिर मीताली के मन में छुपी शंका को भांपते हुए स्वयं ही बिना लाग-लपेट किये बोले, 'बेटी तुम सोच रही होगी कि मैं अचानक तुम्हारे घर क्यों आया?'

खामोश रही मीताली, फिर प्रो. रामकुमार बात को आगे बढ़ाते हुए बोल पड़े, 'दरअसल मुझे तुमसे कुछ काम की बात करनी थी।'

'जी मुझसे...? कहीं सोनाली की शिकायत...'

'नहीं-नहीं' प्रो. रामकुमार शर्मा बीच में ही बोल पड़े, 'वह तो कॉलेज की सबसे सुशील और सरल प्रकृति की छात्राओं में है।'

मीताली अभी तक समझ नहीं पायी थी कि प्रो. शर्मा को उससे क्या काम हो सकता है? प्रश्नवाचक नजरों से वह उन्हें देखने लगी थी। प्रो. शर्मा ने ही बात आगे बढ़ायी।

'बेटी! दरअसल मुझे तुम्हारी छोटी बहन अपने बेटे दिव्यांशु के लिए पसंद है। मैं जानता हूँ कि बड़ी बहन के अविवाहित होते हुए यह सब कहना गलत है लेकिन...।' बात अधूरी छोड़ दी प्रो. शर्मा ने।

'नहीं सर! ऐसी बात नहीं है।' मीताली बोली- 'जब राहुल और शेखर घर की ज़िम्मेदारी उठाने लायक नहीं हो जाते तब तक तो मैं स्वयं की शादी के बारे में सोच भी नहीं सकती, लेकिन...?

'लेकिन क्या बेटी?' प्रो. बीच में ही बोल पड़े- 'क्या तुम्हें रिश्ता पसंद नहीं है?'

'नहीं सर! ये बात नहीं है, हमारा इतना सौभाग्य कहाँ कि हम आपकी बराबरी कर सकें।' मीताली ने अपने मन की बात होठों पर ला दी।

'अरे नहीं बेटी! बराबरी गरीबी-अमीरी और रुपये-पैसे से नहीं होती, अपितु बराबरी होती है संस्कारों से चरित्र से।' प्रो. शर्मा बोल पड़े।

'फिर भी सर आपसे हमारे घर की स्थिति छिपी नहीं है।' मीताली ने झिझकते हुए कहा।

'विवाह के खर्च की चिंता मत करो बेटी। हमे कुछ नहीं चाहिए, भगवान का दिया सब कुछ है हमारे पास, बस तुम एक बार सोनाली से पूछ लो। दिव्यांशु से मैं पूछ चुका हूँ।' प्रो. शर्मा ने मीताली को समझाया।

प्रो. रामकुमार की बातें सुनकर मीताली की खुशी का ठिकाना न रहा। आखिर एक प्रतिष्ठित परिवार से एक अच्छे लड़के का रिश्ता आया था उसकी बहन के लिए, और वह भी उनकी पारिवारिक हैसियत से बढ़कर। अपने मन की खुशी को मन में ही दबाये मीताली प्रत्यक्षतः बोली- 'अरे सोनाली! जल्दी से चाय तो बना प्रोफ़ेसर साहब के लिए।'

'नहीं बेटी मैं चलता हूँ। चाय फिर कभी पी लूँगा।' कहकर प्रो. शर्मा उठने वाले ही थे कि सोनाली दो कप चाय ट्रे में रखकर ले आयी।

गर्दन झुकाये उसने चाय मेज पर रख दी, शर्म के मारे सुर्ख हो आए उसके गालों और आँखों में लज्जाभाव को भांपते हुए मीताली मुस्करा दी और मन ही मन यकीन कर बैठी कि सोनाली इस रिश्ते के तैयार है।

चाय पीने के पश्चात् प्रो. शर्मा बोले- 'तो बेटी मैं अभी तो चलता हूँ, तुम सोनाली से पूछकर मुझे बता देना।'

'ठीक है सर! मैं आज ही उससे बात करती हूँ।' मीताली ने कहा।

'मुझे विश्वास है सोनाली मना नहीं करेगी।' जाते-जाते प्रोफ़ेसर बोले।

मीताली ने औपचारिकतावश हाथ जोड़े और मुस्करा भर दी। आखिर उसकी समझदार बहन ऐसे रिश्ते के लिए इनकार क्यों करेगी।

प्रो. शर्मा के जाने के बाद मीताली सोनाली के पास आई और उसे छेड़ा - 'क्यों मेरी गुड़िया! तुम कब इतनी बड़ी हो गई मुझे तो पता ही नहीं चला।'

'छि: दीदी! तुम भी मज़ाक करती हो, मुझे नहीं करनी शादी-वादी।' बनावटी गुस्से में सोनाली बोली।

'अच्छा तो बता कैसा है तेरा होने वाला पति दिव्यांशु?' फिर छेड़ा मीताली ने।

'हटो दीदी, परेशान मत करो।' कहते हुए सोनाली दूसरे कमरे में भाग गयी।

मीताली समझ गयी कि सोनाली इस रिश्ते के लिए पूरी तरह तैयार है इसलिए अब पूछने की औपचारिकता करना बेकार है। उसने सोचा की कल ही प्रो. शर्मा को संदेश भेजकर रिश्ते की मंजूरी दे देगी।

अपनी किस्मत पर फूली नहीं समा रही थी मीताली। अब उसके सारे सपने पूरे होने का समय जो आता जा रहा था। मीताली सोचने लगी, काश माँ-पिताजी जिंदा होते तो आज उन्हें कितनी खुशी मिलती।

राहुल भी इंटरमीडिएट करने वाला है, अभी उसे इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा की तैयारी भी करवानी है। सोनाली की शादी हो जाए और, राहुल इंजीनियरिंग कर ले तो मीताली सारी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाए।

रहा सवाल शेखर का, तो वह भी कुछ न कुछ कर ही लेगा। उसके लिए भी कुछ कमी नहीं रहेगी। घर में पैसा आना शुरू हो जाएगा तो वह अपना स्वयं का कोई काम-धंधा भी शुरू कर सकता है।

किंतु मीताली ने अपने बारे में सोचा ही नहीं। सोचेगी भी कैसे? उसने अपनी सारी आशाएँ, सारे भाई-बहनों में ढूँढने शुरू कर दिये थे। अपना तो अब उसका कुछ है ही नहीं। बस एक लक्ष्य है, एक संकल्प है और एक समर्पण है भाई-बहनों के प्रति। इन्हीं सबको पूरा करने में उसकी खुशी है, जीवन का आनंद है।

उसका क्या है? कैसे भी काट लेगी। नौकरी है बस उसी के भरोसे जी लेगी। कितना खाएगी वह, एक प्राणी और क्या जरूरत होगी उसकी। हाँ कभी सुख-दु:ख हुआ तो उसके अपने भाई-बहन तो हैं ही, जिनके लिए वह जी रही है।

 

पाँच

रात्रि के लगभग दस बजे का समय। मूसलाधार बारिश और साथ ही तूफान भी। भयानक अंधेरे को चीरती हुई कर्नल विक्रम सिंह की जीप आगे बढ़ती जा रही थी। ड्राइवर रामसिंह बड़ी सतर्कता के साथ कीचड़ भरी सड़कों से जीप को कुशलता से आगे बढ़ाता जा रहा था, जबकि बगल में बैठे कर्नल सिगरेट के गहरे कश लेकर छल्ले के रूप में धुएँ को मुँह से बाहर निकाल रहे थे। यद्यपि मौसम में हल्की-सी ठंठ भी थी किंतु सहने योग्य। कई दिनों के पश्चात् आज वर्षा हुई थी और वह भी ऐसे कि आसमान थमने का नाम ही नहीं ले रहा था।

कर्नल विक्रम सिंह शहर से अपने फार्म हाउस जा रहे थे। बारिश इतनी तेज थी कि जीप की विंडस्क्रीन से आगे कुछ नजर नहीं आ रहा था। फलस्वरूप ड्राइवर रामसिंह ने लगातार वाइपर तो चला ही रखा था, परंतु थोड़ी-थोड़ी देर बाद स्क्रीन पर उभरती आती भाप जैसे पानी की परत को हाथ से ही साफ भी करता जा रहा था।

सावधानीपूर्वक गाड़ी चलाते रामसिंह ने अचानक ब्रेक मारी तो कर्नल विक्रम सिंह बरबस आगे झुक गए, 'क्या हुआ?' कर्नल ने सामने देखकर पूछा।

'साहब वह देखो!' रामसिंह ने मुख्य सड़क से दायी तरफ गन्ने के खेतों के बीच निकलती कच्ची सड़क की ओर इशारा किया। कर्नल विक्रम सिंह ने दायीं तरफ नजर दौड़ायी तो जीप की हल्की धुंधली-सी रोशनी में उन्होंने देखा कि चार-पाँच लोग किसी व्यक्ति को बुरी तरह पीट रहे थे।

'जल्दी गाड़ी उधर मोड़ो रामसिंह!' कर्नल चिल्लाये। रामसिंह ने तेजी से गाड़ी का स्टीयरिंग काटते हुए जीप को कच्चे रास्ते पर आगे बढ़ा दिया। जीप की रोशनी पड़ते ही सभी हमलावर तेजी के साथ गन्ने के खेत में घुसकर ओझल हो गए, जबकि युवक घायल होकर गिर पड़ा।

'बड़ा समाजसेवी बनता है साला' कर्नल विक्रम सिंह के कानों में भागते हुए किसी हमलावर के ये शब्द सुनाई दिये।

रामसिंह ने गाड़ी रोकी तो कर्नल विक्रम सिंह अपनी सीट से लगभग छलांग लगाते हुए घायल व्यक्ति के पास पहुँचे। औंधे मुँह गिरे घायल की अँधेरे में पहचान नहीं हो पाई। जैसे ही उन्होंने उसे पलटा तभी आसमान में तेज कड़कड़ाहट के साथ बिजली चमकी। घायल व्यक्ति का चेहरा देखकर कर्नल हतप्रभ रह गए। बरबस उनके मुँह से निकल पड़ा। 'निशान्त! और सुनकर रामसिंह भी चौंक गया। 'अरे रामसिंह! जल्दी उठाकर गाड़ी में डालो इसे। यह तो अपना निशान्त है'। कर्नल विक्रम सिंह ने चीख कर कहा।

'क्या कहते हो बाबूजी? निशान्त बाबू जैसे व्यक्ति से भला क्या दुश्मनी हो सकती है किसी की?' रामसिंह ने आश्चर्य से कहा।

'तुरंत अस्पताल ले चलो इसे। खून काफी बह गया है'। कर्नल ने कहा और दोनों ने उठाकर निशान्त को जीप में लिटा दिया। जीप वापस शहर की तरफ तेजी से दौड़ने लगी।

'पता नहीं कैसे जानवर होंगे, जिन्होंने निशान्त बाबू के साथ ऐसा किया। ऐसे लोगों को तो भगवान नरक में जगह देगा'। रामसिंह बड़बड़ाये जा रहा था। जबकि कर्नल विक्रम सिंह भी ठीक यही सोच रहे थे।

आखिर क्या दुश्मनी हो सकती है निशान्त से किसी की। इतने सज्जन, ईमानदार और चरित्रवान व्यक्ति से भला किसी की क्या रंजिश हो सकती है? बचपन से जानते थे निशान्त को वे। उसके पिता ठाकुर जगन्नाथ कर्नल के अच्छे मित्र थे। दसवीं कक्षा तक साथ पढ़ा था उन्होंने। प्रतिष्ठित परिवार था उनका। निशान्त के दादा जी ठाकुर दीनानाथ क्षेत्र के जमींदार थे और अंग्रेजों ने उन्हें 'रायबहादुर' की पदवी से नवाजा था।

निशान्त के पिता ठाकुर जगन्नाथ अकेली संतान थे रायबहादुर दीनानाथ की। अकूत धन-दौलत और संपत्ति ने जगन्नाथ को हठी, अहंकारी, लापरवाह और व्यसनी बना दिया था।

दीनानाथ दूरदर्शी थे। पुत्र के लक्षण भाप कर उन्होंने जवानी की दहलीज पर पाँव रखते ही उसका विवाह पास के ही गाँव के जमींदार परिवार की एक सुशील व सुंदर कन्या से करवा दिया। रायबहादुर दीनानाथ की सोच थी कि घर-गृहस्थी से बंधकर रहकर उसमें कुछ सुधार आयेगा।

आरंभ में उन्हें लगा कि उनका यह कदम उनके पुत्र के हित में रहा। शादी होते ही जगन्नाथ अपनी पत्नी चंद्रलेखा के शांत व सौन्दर्य में डूब गए, किन्तु शादी के कुछ ही महीनों बाद वे फिर अपनी पुरानी आदतों पर आ गए। दोस्तों ने एक-दो बार ताने क्या दिये कि मन फिर भटकने लगा। जगन्नाथ एक बार घर से निकलते तो फिर आने का ठिकाना ही नहीं रहता। चंद्रलेखा भूखी-प्यासी सायं को पति के घर लौटने का इंतजार करती तो पति से सुनने को मिलता कि वह खाना खाकर आए हैं।

दीनानाथ बहू की स्थिति भली-भाँति समझते थे। उसको कोई तकलीफ न पहुँचे इसका भी वे पूरा ध्यान रखते थे। बहू की सूनी आँखों में देखकर उनका मन अपराधबोध स ग्रस्त हो जाता। वे सोचते, 'क्यों इतनी सुशील और सौम्य कन्या को अपने दुर्व्यसनी पुत्र के साथ बाँध दिया उन्होंने?

इस बात की भी उन्हें चिंता रहती कि इतनी मुश्किलों से सँजोया हुआ उनका कारोबार उनका पुत्र सँभाल भी पायेगा या नहीं। उन्हें लगता कि उनकी संचित की हुई संपत्ति को जगन्नाथ यूँ ही अपनी मित्र मंडली के साथ ऐशोआराम में लूटा देगा।

इस बीच उन्हें पता लगा कि उनकी बहू चंद्रलेखा गर्भवती है तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। सोचा चलो चंद्रलेखा और उन्हें एक जीने का बहाना तो मिल जाएगा कम से कम।

समय तेजी से निकलता जा रहा था। दीनानाथ और चंद्रलेखा एक नये सवेरे की आस में एक-एक दिन जी रहे थे। उन्हें लग रहा था कि शायद संतान का मोह जगन्नाथ को फिर से परिवार की ओर खींच लायेगा। पिता बनने के बाद उसे अपनी जिम्मेदारियों का एहसास होगा।

लेकिन जो होना होता है वह होकर रहता है और जो नहीं होना होता है, वह कल्पनाओं से कभी भी साकार नहीं किया जा सकता। चंद्रलेखा ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया 'निशान्त'। इस अवसर पर दीनानाथ ने एक भव्य पार्टी का आयोजन किया। जगन्नाथ भला कैसे पीछे रहते, उन्होंने अपनी पूरी मित्र मंडली को समारोह में आमंत्रित किया और अपनी पत्नी से मिलवाया।

देर रात तक समारोह चलता रहा, जगन्नाथ की मित्र मंडली ने शराब पीकर जो उत्पात मचाया तो दीनानाथ हैरान रह गये। जगन्नाथ का यह रूप पहली बार खुलकर उनके सामने आया था।

हालाँकि उन्हें पहले से मालूम था कि जगन्नाथ की मित्र मंडली अच्छी नहीं है। उन्हें यह भी मालूम था कि जगन्नाथ शराब पीता है, किंतु शराब पीकर हो-हल्ला और उत्पात करना उनकी कल्पनाओं से परे था। आज वह भी दीनानाथ ने अपनी आँखों से देख लिया। बाकी दिन तो जगन्नाथ पिता के सोने के बाद ही लौटता था, इसलिए दीनानाथ इस सब से बेखबर थे।

चंद्रलेखा ने अब तक सारी बातें अपने माता-पिता से छिपाये रखी, लेकिन आज सब कुछ जगन्नाथ ने स्वयं ही सार्वजनिक कर दिया था। सबके सामने जगन्नाथ को शराब पीकर यूँ बहकता देखकर और उनकी मित्र मंडली की हरकतों से अपमान और क्षोभ के कारण उसकी आँखें छलक आई थीं।

दीनानाथ क्या कर सकते थे। इस खुशी के मौके पर उन्हें बहू की आँखों में आँसू अच्छे न लगे, किंतु वह भी मन मसोसकर रह गये। उन्होंने निश्चय किया कि वे जगन्नाथ से इस विषय पर बात करेंगे।

ऋषिकेश तक बस फर्राटे लेते हुए दौड़ी। प्लेन रास्ता जो है। ऋषिकेश के बाद ऊँची-नीची घुमावदार सड़क पर बस की गति में भी कुछ कमी आयी। सर्पीली सड़कों पर बस कभी दायीं ओर मुड़ती, तो कभी बायीं ओर। मुड़ते समय बस काफी तिरछी भी होती, लगता है अब पलटी तब पलटी।

किंतु यहाँ सबके कलेजे मोटे हैं। डरता कोई नहीं है। आदत पड़ गयी है रोज-रोज के सफर में। कुछ जगहों को छोड़ दें तो बाकी सारे पहाड़ की सड़कें ऐसी ही हैं। तभी तो हादसे होते रहते हैं। कुछ तो ड्राईवरों की लापरवाही से भी बस दुर्घटनाएँ होती हैं।

ऋषिकेश के आगे बढ़ने के बाद से ही मेजर को एक आत्मिक शांति का अहसास हुआ। मानो अपने घर में पहुँच चुका हो। सड़क के नीचे की ओर हरे-भरे पेड़ों के मध्य बहती पवित्र गंगा नदी कलकल करके अवरोधों को पार करती हुई अविरल बह रही है। सड़क के दूसरी ओर बड़ी-बड़ी पहाड़ियाँ हरे-भरे वृक्षों से लदी हुई। बस आगे दौड़ रही है और नदी तथा पेड़-पौधे उतनी ही तेजी से पीछे की ओर दौड़ते प्रतीत हो रहे हैं।

 

छह

तीन धारा में बस रुकी। छोटी-सी जगह है। कभी यहाँ पर पहाड़ी से निकलते शीतल जल के तीन धारे हुआ करते थे। उन्हीं धारों के अगल-बगल ककड़ी, खीरा, मकई और जलजीरा की अस्थाई दुकाने लगाकर स्थानीय गाँव के कुछ लोग भरपूर अपना व्यवसाय करते थे। समय बदला, वनों के अत्यधिक दोहन, पर्यावरण असंतुलन और खनन आदि अन्य कारणों से जल स्त्रोत नीचे बैठ गये हैं। अब यहाँ पर तीन धारे तो नहीं हैं, अलबत्ता कई जगह पहाड़ी से पानी की बारीक धार और कई जगह से पानी टपकता हुआ प्रतीत होता है। खीरा, मकई और जलजीरे का व्यवसाय छोड़कर अब लोगों ने यहाँ पर बड़े-बड़े होटल बना लिये हैं। यहाँ पर अब यात्री खाना खाते हैं।

बस के रुकते ही सवारियाँ बाहर उतर गयीं। मेजर ने भी वृध्दा की पोटली थामी और सहारा देकर बाहर उतार दिया। वृदधा आशीर्वाद देकर सड़क किनारे 'डैन्कण' के वृक्ष की घनी छाँह में बैठ गयी।

सवारियों ने खाना खाया और बस चल पड़ी। मेजर को अब अपनी सीट मिल गयी थी। सारे रास्ते चढ़ती-उतरती रही थीं सवारियाँ। अब कोई भी सवारी खड़ी नहीं थी। काली घुमावदार सड़क पर दौड़ती बस की खिड़कियों से ताजा सुगंधित हवा के झोंके जैसे जीवन में नयी ताजगी भर रहे थे। मेजर को अत्यंत आनंद की अनुभूति हो रही थी।

बस की सीट पर आराम से पसरकर मेजर ने सिर पीछे की ओर पुस्त पर टिका दिया।

एक साल भी कितनी जल्दी गुजर गया -मेजर सोचने लगा, ऐसा लग रहा है मानो कल ही छुट्टी काटकर गया होऊंगा। पिछली छुट्टियों में ढेर सारे कार्य छूट गये थे। अबकी 15 दिन की इन छुट्टियों में सबसे पहले वे ही कार्य पूरे करूँगा।

गबरू काका के आँगन का पुस्ता, मूसी दीदी की झोंपड़ी की मरम्मत, कोतवाल दादा के पेड़ की कटाई, सबके सब छूट गये थे पिछले वर्ष।

हाँ अपनी गौशाला भी तो टपकने लगी थी, उसकी छवाँई भी तो करनी पड़ेगी इस बार।

भगत भाई के पिता जी को भी शहर ले जाना है आँखें चेकअप कराने के लिए। देख नहीं पाते बेचारे।

हाँ सावित्री के मायके वालों के यहाँ भी तो इसी दौरान पुजाई है। वहाँ भी जाना पड़ेगा। सावित्री स्वयं भी तीन साल से नहीं गयी है वहाँ।

हाँ सबसे महत्वपूर्ण बात तो भूल ही गया था। अपने बबलू को रोज एक घंटे पढ़ाना है। अब तो काफी बड़ा हो गया होगा। बड़ा उद्दंड है और जिद्दी भी। खैर आ जायेगी उसे भी उम्र के साथ धीरे-धीरे अक्ल। उसको सब सुविधाएँ मिल रही है न, इसलिए बिगड़ गया। अब उसे क्या मालूम कि गरीबी क्या चीज होती है, वह क्या जाने कि हमने किन-किन अभावों में जीवन गुजारा है, कितने संघर्ष किये हैं।

वह तो सिर्फ यह जानता है कि उसके पिता मिलिट्री के बहुत बड़े अफसर हैं।

सोचते-सोचते मेजर को न जाने कब नींद आ गयी। नींद भी इतनी गहरी कि कब पौड़ी आ गयी, पता नहीं चला।

एक-एक कर सारी सवारियाँ उतर गयीं। किंतु मेजर की आँख नहीं खुली। अंत में कंडक्टर ने उसे झकझोरा- 'मेजर साहब! उठो पौड़ी आ गया। लगता है कुछ ज्यादा ही चढ़ा ली'।

मेजर हड़बड़ाते हुए उठा, बेल्ट टोपी ठीक की- 'नहीं भाई ऐसी बात नहीं है, कुछ सोच रहा था, तो थोड़ी सी आँख लग गयी'।

'साहब घर की याद में डूबे होंगे और इतने में घर भी आ गया'- कंडक्टर ने चुटकी ली।

मेजर मुस्कराया फिर बोला- 'जरा छत से बक्सा उतार देंगे क्या?'

कंडक्टर भी कम न था- 'उतार क्या देंगे साब, यह लड़का घर तक भी छोड़ देगा'- फिर शरारत से बोला- 'साब सिर्फ दो घूँट टॉनिक तो मिल जायेगी न इसको'। उसका इशारा शराब की तरफ था।

'सामान तो मैं अपने आप ले जाऊँगा'। मेजर बोला- 'हाँ टॉनिक चाहिए तो कभी गाँव में आ जाना। बस एक मील के लगभग है यहाँ से पैदल। टॉनिक वहीं मिल जायेगी, कोई शक?

'कोई शक नहीं'। कंडक्टर बोला, फिर ड्राईवर की ओर मुस्कुराते हुए बोला, 'ठीक है धीरु भाई कल चलेंगे मेजर साहब के गाँव, आज तो बारात लेने चलना है।

 

सात

'देखो जगन! अब तुम एक पुत्र के पिता बन गए हो, यूँ भी तुम रायबहादुर दीनानाथ के बेटे हो, समाज में तुम्हारी प्रतिष्ठा एक ऊँचे स्थान पर है'। दीनानाथ ने अपने सामने सोफे पर गर्दन झुकाकर बैठे जगन्नाथ से कहा, 'परिवार के प्रति तुम्हारी भी कुछ जिम्मेदारी है। मेरा क्या है, ढलती हुई उम्र है, अब सारा कामकाज तुमको ही सँभालना है, अकेले मुझसे सँभाला नहीं जाता यह सब'।

दीनानाथ बोले जा रहे थे और जगन्नाथ चुपचाप नजरें झुकाये सुने जा रहे थे। उस पर कोई प्रतिक्रिया न होते देख दीनानाथ फिर बोले, 'मैं तुमसे ही कह रहा हूँ जगन'।

'जी पिता जी!' अबकी बार जगन्नाथ ने छोटा सा उत्तर दिया। यों भी पिता से ज्यादा बातें करने की आदत नहीं थी उसे।

थोड़ी देर बाद दीनानाथ फिर बोले, 'कल जो कुछ तुमने किया वह बहुत ही शर्मनाक था। अपने मित्रों का स्तर सुधारो। इस समाज में हमारी अलग प्रतिष्ठा है। उसके अनुरूप ही तुम्हें आचरण करना चाहिए'।

जगन्नाथ कुछ न बोला, चुपचाप ऐसे सुनता रहा मानो कोई छोटा सा बच्चा हो।

अपनी बात समाप्त कर दीनानाथ स्वयं ही उठकर चले गये तो जगन्नाथ की मानो साँस में साँस आई हो। अगले ही दिन से जगन्नाथ ने सारा दिन कार्यालय में बैठना और समय पर घर आना शुरू कर दिया। दरअसल समारोह की रात जो हंगामा हुआ उससे जगन्नाथ स्वयं भी लज्जित था, इसलिए उसका असर कुछ दिनों तक रहना अवश्यंभावी था।

दीनानाथ और चंद्रलेखा को जगन्नाथ में यह परिवर्तन सुखद लगा। चंद्रलेखा अब निशान्त के लालन-पालन में व्यस्त रहने लगी, उसे खुश देखकर दीनानाथ भी राहत महसूस करने लगे।

इसी दौरान दीनानाथ जी को पक्षाघात का एक मामूली-सा दौरा पड़ा। डॉक्टर ने उन्हें ज्यादा दौड़-भाग न करने की सलाह दी। कारोबार की सारी ज़िम्मेदारी अब जगन्नाथ के सिर पर आन पड़ी थी।

दीनानाथ अब अधिकांश समय घर में ही बिताते। सुबह-शाम कभी-कभार वे बगीचे तक घूमने निकल जाते।

जगन्नाथ के हाथ में कारोबार आते ही उसकी मित्र मंडली ने अब उसे पुनः घेरना शुरू कर दिया। जगन्नाथ भी मानो पिंजरे से आजाद होने को तैयार बैठा था। फिर वही पार्टियों का दौर शुरू हो गया और जगन्नाथ का नशे में धुत होकर देर रात को घर लौटना फिर प्रारंभ हो गया।

शुरू में दीनानाथ को इस सबका पता ही नहीं चला। उन्हें लगता कि उनकी बीमारी के बाद जगन्नाथ कारोबार संभालने में कुछ ज्यादा व्यस्त हो गया जिससे समय पर घर नहीं लौट पाता।

दीनानाथ प्रांगण में बैठे अखबार पढ़ रहे थे। घर का पुराना वफादार नौकर रामू चाय की ट्रे लेकर पहुँचा, कप में चाय डालते हुए रामू धीरे से बोला, 'साहब कुछ बात करनी थी'।

'हाँ-हाँ बोलो!' जगन्नाथ ने अखबार पर नजर टिकाये हुए कहा।

'साहब छोटे साहब आजकल बहुत देर से घर आ रहे हैं। बहू सारा दिन निशान्त बाबा के साथ थक जाती है। ऐसे में तो उनका स्वास्थ्य खराब हो जायेगा। उन्हें थोड़ा भी आराम नहीं मिल पाता है।

चौंक गये थे दीनानाथ। रामू ने उन्हें संकेत मात्र किया था और वे रामू के संकेत को अच्छी तरह समझ गये थे। अप्रत्यक्ष रूप में रामू ने समझा दिया था कि जगन्नाथ फिर पुरानी राह पर चल निकला है।

'ठीक है तुम जाओ!' दीनानाथ बोले, 'बहू को भेज दो जरा'। कुछ देर बाद चंद्रलेखा चली आयी!

'बहू! जगन आजकल कुछ ज्यादा व्यस्त हो गया है, देर से घर लौटता है क्या?'

इस अप्रत्याशित प्रश्न से चंद्रलेखा हड़बड़ा गयी और कुछ बोल नहीं पायी। बहू की मनःस्थिति देख दीनानाथ की अनुभवी आँखें सब कुछ समझ गयीं। उन्हें अब आभास हो गया कि पानी अब सिर से ऊपर गुजर चुका है।

अगले ही दिन पारिवारिक वकील को बुलाकर दीनानाथ ने अपनी वसीयत लिखवा दी। इससे पहले कि उनकी आँखें बंद हों, निशान्त और बहू के लिए वे कुछ करना चाहते थे। वरना ऐसे में तो जगन्नाथ उनकी सारी जायदाद इसी तरह बर्बाद कर देगा।

निशान्त दो वर्ष का हो गया था। उधर जगन्नाथ की बुरी आदतें दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थीं और दीनानाथ इसी चिंता में डूबे जा रहे थे। आखिरकार पिछली रात पड़े दिल के दौरे ने उन्हें इन सब चिंताओं से मुक्ति दिला दी।

पिता की मृत्यु के बाद अब जगन्नाथ को कोई डर नहीं रह गया था। अब तक पिता की उपस्थिति में जो कार्यक्रम घर के बाहर हुआ करते थे, वे अब खुलेआम घर के अंदर होने लगे। देर रात तक घर में महफिलें चलती रहतीं और काफी शोर-शराबा बना रहता।

चंद्रलेखा घर की स्थिति देखकर अंदर ही अंदर घुटती रहती।

धीरे-धीरे उसे साँझ होते ही हल्का बुखार रहने लगा। उसकी सुंदर गोरी त्वचा अब लगातार कांतिविहीन होती जा रही थी। अब निशान्त की देखभाल पर भी असर पड़ने लगा तो किसी ने चंद्रलेखा की बीमारी की बात जगन्नाथ से कह दी। डॉक्टर को दिखाने पर चंद्रलेखा पर तपेदिक के लक्षणों की पुष्टि हुई।

परीक्षण करने के बाद डॉक्टर जगन से बोला, मैं दवाई लिख देता हूँ, किंतु इन्हें हवा बदलने की जरूरत है। यदि आप इन्हें किसी पहाड़ी स्थान पर ले जा सकें तो यह अच्छा रहेगा'।

डॉक्टर की सलाह पर साठ किलोमीटर दूर एक सुरम्य पहाड़ी स्थान पर चंद्रलेखा के रहने की व्यवस्था कर दी थी जगन्नाथ ने। स्वास्थ्य लाभ के लिए पूरे छः महीने वहाँ पर रही चंद्रलेखा।

इस बीच घर पर निशान्त की देख-रेख हेतु जगन्नाथ ने एक एंग्लो-इंडियन लड़की रूबी को रख दिया था जो निशान्त को पढ़ा भी दिया करती थी। उसी पर निशान्त को सभ्य समाज के तौर-तरीके सिखाने का दायित्व भी छोड़ दिया गया।

रूबी ने कुछ ही समय बाद निशान्त की देख-रेख पर कम और जगन्नाथ के दिल पर अधिक आधिपत्य जमा लिया। जगन्नाथ भूल गये कि उनकी पत्नी घर से साठ किलोमीटर दूर अपनी बीमारी से लड़ रही है। वास्तव में अब तो उसे पूछने वाला कोई था ही नहीं। दिन-रात शराब के नशे में चूर होकर दोनों हाथों से दोस्तों और रूबी पर खूब पैसा लुटाता रहा।

 

आठ

'गुड इवनिंग बोलो मम्मा को!' आधुनिक परिधान से सुसज्जित एक सुंदर-सी लड़की ने निशान्त से कहा तो चंद्रलेखा चौंक उठी।

आगे बढ़कर उसने निशान्त को सीने से लगा लिया। कितना बड़ा हो गया है मेरा बेटा। बरबस उसके होठ बुदबुदा उठे और उसके आँखों से अश्रुधारा बह निकली।

निशान्त को जी भर प्यार करने के बाद उसकी नजर उस अजनबी लड़की पर गयी। सुंदर छरहरी काया, उम्र कम से कम पच्चीस वर्ष, आधुनिक परिधानों से युक्त उस युवती को देख चंद्रलेखा मन ही मन सोचने लगी, 'तो क्या यही है रूबी, जिसे जगन्नाथ ने निशान्त की देखभाल के लिए रखा है?

आज पूरे छः माह बाद लौटी है वह अपने घर। कुछ दिन पूर्व डॉक्टर ने ही सलाह दी थी कि उसका स्वास्थ्य अब कुछ ठीक है अतः वह घर जा सकती है। कल जगन्नाथ उसे लेने वहाँ आ गया था। कल जगन्नाथ ने ही उसे बताया था कि निशान्त की देखभाल के लिए उसने एक युवती को रखा है। तो यही है शायद वह। चंद्रलेखा की आँखों में प्रश्नचिन्ह देखकर रूबी स्वयं ही बोल पड़ी, 'मैं रूबी हूँ, निशान्त बाबा की गवर्नेंस। आपके जाने के बाद इनकी देखभाल मैंने ही की है'।

गौर से देखा फिर उसने रूबी को। साँवला चेहरा, पतली नाक आकर्षक देह। कपड़े पहनने का सलीका ऐसा कि पहली नजर में कोई भी आकर्षित हो जाये।

'बहुत धन्यवाद आपका। निशान्त की देखभाल बहुत अच्छे तरीके से की है आपने'। आभार व्यक्त करने के लिए प्रत्यक्षतः इतना ही बोल पाई चंद्रलेखा।

'निशान्त! अब चलिये अपने स्टडी रूम में, पढ़ने का समय हो गया है। मम्मी भी थकी होंगी, उन्हें आराम करने दो'। रूबी निशान्त का हाथ पकड़ कर बोली।

लौटने के बाद कुछ दिन तो चंद्रलेखा को घर व्यवस्थित करने में ही लग गये। उधर जगन्नाथ अपने काम में व्यस्त थे अतः एक-आध बार ही मुलाक़ात हो पाती थी उनसे। एक हफ्ते के अंदर ही नौकरों की दबी जुबान और रूबी के हाव-भाव देखकर चंद्रलेखा को रूबी और जगन्नाथ के अमर्यादित संबंधो का आभास होने लगा।

'सर को ये पसंद है, वो पसंद नहीं है, ये खाना अच्छा लगता है वो खाना अच्छा नहीं लगता है, वो कपड़े अच्छे हैं' यही सब कहते हुए रूबी की आँखों में जो भाव होते, उन्हें चंद्रलेखा महसूस न कर पाती, वह इतनी भी मूर्ख नहीं थी।

आरंभ में रूबी चंद्रलेखा का आदर कर उसके सामने जगन्नाथ से दूरी बनाकर रखती रही, परंतु धीरे-धीरे उसका संकोच जाता रहा। जगन्नाथ की आँखों में पत्नी के प्रति उपेक्षा भाव भाँप गयी थी वह चतुर लड़की। इसलिए धीरे-धीरे वह खुलने लगी, यह सोचकर कि जब पति ही परवाह नहीं करता तो फिर उसे क्या जरूरत है डरने की।

रूबी और जगन्नाथ के संबंधो, अपने प्रति उपेक्षा का भाव और जगन्नाथ का रोज शराब पीकर घर आना चंद्रलेखा के दिल को चीर देता।

वह तो दीनानाथजी की दूरदृष्टि ही थी, जिन्होंने अपनी जायदाद का एक बड़ा हिस्सा चंद्रलेखा और निशान्त के नाम रख छोड़ा था। जगन्नाथ मनमसोस कर रह गया था। अगर ऐसा न होता तो आज चंद्रलेखा अपने ही घर से बेदखल हो जाती। रूबी ने जगन्नाथ की कमजोरी का पूरा फायदा उठाया और अपनी झोली भरती चली गयी।

दूसरी तरफ जगन्नाथ की उपेक्षा और रूबी की धृष्टता ने चंद्रलेखा की दबी हुई बीमारी को पुनर्जीवित कर दिया और धीरे-धीरे उसने बिस्तर पकड़ लिया। जगन्नाथ को तो जैसे इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। चंद्रलेखा की उपस्थिती उसके लिये कोई मायने नहीं रखती थी, किंतु उसकी देखभाल के लिये उसने घर पर ही एक नर्स रख ली।

डॉक्टर नियमित आते, उसका चेकअप करते और दवाई देकर चले जाते। किंतु पति द्वारा उपेक्षित कर दिये जाने पर चंद्रलेखा के दिल में जीने की इच्छा ने दम तोड़ दिया था। ऐसे में कौन सी दवाई असर कर पाती।

निशान्त अभी इतना बड़ा नहीं था कि यह सब कुछ समझ पता। रूबी का अनुशासात्मक रवैया अब और बढ़ गया था। उसका बाल-सुलभ मन कभी माँ के साथ सोने की जिद करता तो रूबी उसे दंड का भय दिखाकर रुकने को विवश कर लेती।

'माँ को बीमारी है, देखते नहीं कैसी शक्ल हो आई है उनकी। अगर तुम उनके पास गये तो इसकी सजा मिलेगी'।

और निशान्त....। वह शरारत करने पर पड़ने वाली बेंत के भय से माँ के पास जाने को भी तरस जाता। उस लंबे-चौड़े कक्ष के दरवाजे पर खड़ा होकर टुकुर-टुकुर माँ को निहारता और वहीं से बातें करता।

बिस्तर पर पड़े-पड़े चंद्रलेखा का मन बेटे को छाती से लगाने के लिए तड़प उठता, किंतु वह लाचार थी। एक उसको अपनी बीमारी और दूसरा निशान्त को रूबी की डाँट पड़ने का दुःख।

निशान्त के प्रति रूबी की कठोरता बढ़ने लगी थी और उसी अनुपात में बढ़ने लगी थी निशान्त की हठ। एक ओर पिता अगर अपनी दौलत अपनी अय्याशी पर लुटा रहे थे तो दूसरी ओर निशान्त जरूरतमंदों को अपनी वस्तुएँ देकर खुश होता।

जगन्नाथ को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था किंतु रूबी इससे आग बबूला हो उठती और निशान्त को दंड का भागी बनना पड़ता। चंद्रलेखा अपनी सूनी आँखों से सब कुछ देखकर मूक गवाह-सी बनी रहती। अब उसके शरीर में इतनी भी शक्ति नहीं रह गयी थी कि वह बिस्तर से उठ पाती।

निशान्त धीरे-धीरे जिद्दी होता चला गया था। रूबी द्वारा मना करने के बावजूद भी वह अब माँ के कमरे में बेधड़क आने-जाने लगा। चंद्रलेखा उसे समझती- 'बेटा अब जाओ भी रूबी आंटी ने देख लिया तो...'।

लेकिन निशान्त वहाँ से न उठता, नित्य प्रति के दंड ने उसे जिद्दी बना दिया था।

स्कूल से आज जब निशान्त घर पहुँचा तो रूबी ने उसके बदन पर कोट न देखकर पूछा- 'तुम्हारा कोट कहाँ है?

'वह मैंने खेत में काम कर रहे एक मजदूर के बेटे को दे दिया'। निशान्त बोला।

'क्यों'?

रूबी ने गुस्से में पूछा।

'उसे मुझसे ज्यादा ठंड लग रही थी- निशान्त ने दृढ़ता से कहा।

सुनकर रूबी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। लगभग चिल्लाते हुए वह जगन्नाथ से बोली, 'देखो-देखो! अपने लड़के की हरकत, अपना स्कूल का कोट किसी को दे आया। अगर ऐसा ही सब कुछ लुटाता रहा तो इसका भविष्य क्या होगा?'

'अरे रूबी तुम क्यों परेशान होती हो। इसके दादा जी बहुत कुछ छोड़ गये हैं इसके लिये। अपने बेटे पर भरोसा नहीं था, इसलिए पोते को दे गये आधा से ज्यादा'। जगन्नाथ ने नशे में अपनी अमीरी की हकीकत उजागर कर दी।

'अरे तो क्या हुआ संरक्षक तो आप ही हैं इसके'। रूबी बोली।

'अरे मैं कहाँ का संरक्षक? संरक्षक तो इसकी माँ को बना गये हैं वो'। जगन्नाथ नशे की रौब में बोल गया। जगन्नाथ के मुँह से यह सुनकर रूबी को झटका लगा। निशान्त के नाम पर आधा से अधिक जायदाद होना और उसकी माँ का संरक्षक होना नयी सूचना थी उसके लिए।

अब वह निशान्त को अपनी राह से दूर करना चाहती थी। चंद्रलेखा मृत्युशैय्या पर है, ज्यादा से ज्यादा साल-छः महीने की मेहमान होगी। इसके बाद होगा सब कुछ जगन का ही। यह सब कुछ सोचकर वह जगन्नाथ को समझाते हुए बोली, 'अगर तुम निशान्त का भविष्य बनाना चाहते हो तो इसे किसी बोर्डिंग स्कूल में डाल दो'।

'ठीक है, तुम कहती हो तो ऐसा ही कर लेते हैं। नैनीताल और मसूरी में से किसी अच्छे स्कूल का पता करो'। जगन्नाथ लापरवाही से बोले।

रूबी के मोहपाश में फँसे जगन्नाथ ने बिना किसी से सलाह-मशविरा किये निशान्त को नैनीताल के एक बोर्डिंग स्कूल में दाखिला दिला दिया।

बस यहीं से शुरू हुआ चंद्रलेखा की जिंदगी का अंतिम अध्याय और निशान्त के मन में पिता के प्रति नफरत तथा घृणा का भाव....।

 

नौ

सावित्री घास का गट्ठर सिर में रखे गोशाला पहुँची। उसे अभी गाय दुहनी है। फिर जानवरों को घास देकर 'अड्या मोर' लगाना है। उफ्फ कितनी थकान भरी जिंदगी है। रोज-रोज की घास, लकड़ी और पानी की किल्लत। घास, लकड़ी सिर से ढोते-ढोते तो बाल भी निकल गये। बड़ा कठिन जीवन है पहाड़ में महिलाओं का। पुरुष बेचारे ठीक हैं। बाहर नौकरी करते हैं। वर्षभर में एक बार आ गये छुट्टी। खूब मौज-मस्ती मारी और फिर चले।

महिलाओं को कितना काम करना पड़ता है घर का। सुबह मुँह अँधेरे उठो, सबसे पहले अड्या खोलो, जानवरों को घास-चारा खिलाओ। फिर पानी लेने जाओ धारे पर, उसके बाद चूल्हा जलाओ, बच्चों का चाय-नाश्ता तैयार करो। तब जाकर कहीं थोड़ी फुर्सत मिलती है है एक कुल्ला चाय पीने की।

सावित्री भी थक गयी है यह सब करते-करते। इतने बड़े फौजी अफसर की पत्नी है। किंतु वही घास, लकड़ी और पानी लाना पड़ता है आम महिलाओं की तरह। फिर फर्क क्या रह गया उसमें और गाँव की अन्य महिलाओं में।

पिछले दो-तीन वर्ष से वह कह रही है मेजर से कि पौड़ी शहर में किराये का मकान ले लो। किंतु मेजर कुछ न कुछ बहाना मारकर...।

 

दस

चींs…s…s…।

ब्रेक की जोर की आवाज के साथ गाड़ी रुक गयी। कर्नल विक्रम सिंह की तंद्रा टूटी तो देखा कि गाड़ी अस्पताल के प्रांगण में पहुँचकर रुक गयी थी।

गाड़ी के रुकते ही अस्पताल में मौजूद आपातकालीन स्टाफ तुरंत स्ट्रेचर ले आया और निशान्त को उसमें लिटाकर अंदर पहुँचा दिया।

निशान्त को पहचानकर रात्रि की ड्यूटी पर तैनात डॉक्टर ने आनन-फानन में तीन-चार अन्य डॉक्टर भी बुला लिये।

कर्नल विक्रम सिंह ने स्थिति की गंभीरता से डॉक्टरों को अवगत कराते हुए चर्चा की।

'खून बहुत अधिक बह गया है। सबसे पहले ऑपरेशन करना होगा क्योंकि चोटें काफी गंभीर हैं।' सीनियर डॉक्टर ने कर्नल विक्रम सिंह को अवगत कराते हुए कहा।

निशान्त को ऑपरेशन थियेटर में ले जाया गया और तुरंत ही डॉक्टरों का पैनल उसके ऑपरेशन में जुट गया। अब तक निशान्त पूर्ण बेहोशी की स्थिति में था।

कर्नल विक्रम सिंह ऑपरेशन कक्ष के बाहर बेचैनी से टहल रहे थे। क्या करें, वह किसको इस घटना की सूचना दें, किसको न दें, उनकी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। निशान्त का इस दुनिया में अपना है ही कौन? स्कूल, आश्रम और अन्य प्रतिष्ठानों के हजार से ज्यादा कर्मचारी तो हैं, लेकिन कहने को अपना कोई नहीं।

निशान्त को उसके सभी कर्मचारी देवतास्वरूप मानते हैं इसीलिए तो एक-एक व्यक्ति उसके लिए जान देने को तैयार हैं।

लेकिन क्या उनको इतनी रात इस घटना की सूचना देनी चाहिये? कर्नल विक्रम सिंह सोच में पड़ गये। अगर सूचित कर दिया गया तो हजारों की संख्या में लोग यहाँ एकत्रित हो जायेंगे।

नहीं, नहीं यह ठीक नहीं होगा। इससे निशान्त के इलाज में ही व्यवधान आयेगा। हाँ, मीताली को तो जरूर सूचना देनी चाहिए। यदि उसे इसी वक्त सूचना न मिली तो वह कल कर्नल पर बहुत नाराज होगी।

फिर कुछ पल रुककर विक्रम ने सोचा कि इतनी रात गये यदि मीताली को सूचना दी गयी तो वह और अधिक व्यग्र हो जायेगी। फिर कस्बे से यहाँ शहर तक आने के लिए उसके पास कोई साधन भी नहीं है। साधन हो भी तो अकेली और जवान लड़की किसी भी स्थिति में यहाँ पहुँच नहीं सकती। फिर फायदा क्या होगा इस समय उसे सूचना देकर। इससे तो उल्टा वह रात भर परेशान रहेगी।

इसी उधेड़बुन में कर्नल ने निश्चय किया कि फिलहाल तो वे किसी को भी घटना की जानकारी नहीं देंगे।

बेचैनी से टहलते हुए उनकी नजर बार-बार ऑपरेशन कक्ष के दरवाजे पर जा टिकती। रामसिंह उनकी स्थिति देखकर भाँपकर पास जा पहुँचा। 'सर चाय की व्यवस्था करूँ कहीं से? रामसिंह ने पूछा।

'नहीं रामसिंह! इस समय इच्छा नहीं है।' कहते हुए कर्नल ऑपरेशन कक्ष के बाहर पड़ी बेंच पर बैठ गये। कौन लोग हो सकते हैं जिन्होंने निशान्त पर हमला किया? निशान्त से ऐसी किसी की क्या दुश्मनी?

निशान्त ने आज तक न किसी को बुरा कहा और न किसी का बुरा किया। फिर यह दुश्मन कहाँ से पैदा हो गये निशान्त के? निशान्त को बचपन से ही देखते आये थे कर्नल विक्रम। देखते क्या आये थे उसे तो गोद में खिला रखा है कर्नल विक्रम ने।

बचपन से ही दु:ख झेले हैं निशान्त ने।

महज सात साल की उम्र में उसे हॉस्टल में डाल दिया गया था। हॉस्टल जाने से पूर्व तक वह सारे दिन माँ के कमरे में रहा। किंतु रूबी ने इस बार डाँटा नहीं, यह सोचकर कि कल तो जा रहा है, क्या फर्क पड़ता है। सोचकर वह चुप रही।

चंद्रलेखा की आँखों में आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे किंतु निशान्त था कि एकदम शांत लग रहा था। अभी उम्र ही क्या थी उसकी। घर के वातावरण में विगत एक-दो वर्षों से वह अपनी आयु से अधिक लगने लगा था।

निशान्त नैनीताल चला गया। पीछे छोड़ गया माँ के लिए सूनापन और रूबी के लिए मनमानी। छः माह बाद जब वह छुट्टियों में घर आया तो देखा कि माँ एकदम कंकाल हो चुकी थी। अपनी कमजोर बाँहें फैलाकर जब माँ ने निशान्त को सीने से लगाया तो उसकी एक-एक हड्डी निशान्त को चुभने लगी। आँखें पूरी तरह अंदर धँस गयी थीं उनकी।

दूसरी ओर जगन्नाथ और रूबी के खर्चे इतने अधिक बढ़ गये थे कि अब आमदनी कम पड़ने लगी थी। उसके मनमानेपन पर अब अंकुश लगाने वाला कोई न था।

 

ग्यारह

जगन्नाथ अब पूरी तरह रूबी का हो चुका था। जो वह कहती वही सब वह करता। चंद्रलेखा भी आखिरकार कब तक अपनी बीमारी को झेल पाती। निशान्त के हॉस्टल लौट जाने के कुछ दिनों बाद ही उसने दुनिया को अलविदा कह दिया।

निशान्त का मन अब हॉस्टल में ही अधिक लगता और घर में कम। अब उसने छुट्टियों में भी घर आना लगभग बंद कर दिया था। कभी अतिरिक्त कक्षाओं का बहाना, तो कभी ट्यूशन का बहाना बनाकर वह घर से बाहर रहता। अब उसे अपने पिता और रूबी के अमर्यादित सम्बन्धों की पूरी समझ आ गयी थी।

इंटरमीडिएट उत्तीर्ण करते ही वह दिल्ली चला गया और वहीं एक अच्छे कॉलेज में दाखिला ले लिया। दादाजी की वसीयत के अनुसार अब उसके हिस्से के कारोबार और कृषि से होने वाली आय उसी को मिलने लगी थी।

रूबी जगन्नाथ से पत्र लिखवाकर अक्सर उसे घर बुलवा लेती। स्वयं तो कुछ न कहती लेकिन जगन्नाथ के माध्यम से ही उस आय का हिस्सा घर में माँग लेती।

निशान्त का मन वितृष्णा से भर उठता, आखिर इतने कायर क्यों बन गए उसके पिता? अपने हिस्से की जायदाद वह पहले ही बेचकर रूबी को भेंट चढ़ा चुके थे। अब क्या चाहती है रूबी?

अधिक शराब पीने के कारण पिता की तबियत भी अब खराब रहने लगी थी। पिछली बार जब वह घर आया था तो पिता की काया पहले की अपेक्षा बहुत कमजोर नजर आयी। उसे एक पल के लिए उन पर दया आई किंतु दूसरे ही क्षण माँ का चेहरा उसकी आँखों में घूम गया।

बी.ए. की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद उसने एम.ए. में दाखिला ले लिया। इसी बीच एक दिन पिता के मित्र कर्नल विक्रम सिंह का तार उसे मिला, 'तुम्हारे पिता बीमार हैं, तुरंत घर पहुँचो'।

वह दूसरे ही दिन घर पहुँच गया था। पिता की दयनीय स्थिति देखकर उसका मन पसीज गया। कर्नल अंकल ने ही बताया कि पिछले दो माह से उनकी तबियत ज्यादा खराब थी, इसलिए बुलाया है। कर्नल ने बताया कि रूबी पंद्रह दिन पूर्व ही घर से नकदी-जेवर आदि समेट कर लापता हो गयी है और इन्हें इसी अवस्था में छोड़ गयी। अब वह बोल तक नहीं पा रहे थे।

निशान्त पिता के पास खड़ा हुआ तो जगन्नाथ ने कसकर उसका हाथ पकड़ लिया औए एकटक उसकी ओर देखने लगे। उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे। याचना और पश्चाताप का भाव था उनकी आँखों में। निशान्त उनकी मूकदृष्टि में छिपे इस भाव को समझ चुका था।

सचमुच लाचारी इंसान को कितना कमजोर बना देती है। निशान्त को उन पर दया हो आई और उसने अपना हाथ पिता के हाथ पर रख दिया। मानो कह रहा हो कि उसने अपने पिता को माफ कर दिया।

न जाने क्या जादू था निशान्त के स्पर्श में कि जगन्नाथ के शरीर में अचानक ऊर्जा आ गयी हो। किसी को क्या पता था कि यह बुझते हुए दीपक की अंतिम लौ थी। अटकते हुए रुँधे गले से उन्होंने कुछ कहना चाहा किंतु कह न पाये थे और उनकी गर्दन एक ओर लुढ़क गयी।

कर्नल विक्रम सिंह ने उसे ढांढस बँधाया और सारे क्रिया-कर्म सम्पन्न कराने में उसकी मदद भी की। निशान्त उसके बाद दिल्ली नहीं जा पाया। यहीं पर बहुत कुछ था उसके करने के लिए। समाजसेवा की ललक उसके मन में पहले से ही कूट-कूटकर भरी थी। उसने दादाजी के नाम से एक संस्था बनाकर अनेक सामाजिक कार्य शुरू कर दिये। निर्धन और साधनहीन बच्चों के लिए स्कूल तथा गरीब, असहाय, पीड़ित और बेसहारा महिलाओं के लिए आश्रम का गठन वह कर चुका था।

कई रोजगारपरक उद्योगों की भी उसने उस कस्बे में स्थापना कर दी। बहुत कम समय में ही वह पूरे इलाके में लोकप्रिय हो गया। पूरे इलाके में अब उसकी अपनी एक अलग पहचान थी। उसकी समाजसेवी मनोवृत्ति को देख लोग उसके पिता के नाम के साथ जुड़ी बुराइयों को लगभग भूल चुके थे।

 

बारह

चिड़ियों की चहचहाहट से मीताली की नींद खुली तो चौंककर उसने घड़ी देखी, 'अरे सात बज गये। आज तो स्कूल के लिए देर हो गयी।

वह तुरंत बिस्तर से उठी और हाथ-मुँह धोकर स्कूल के लिए जल्दी-जल्दी तैयार होने लगी। स्कूल पहुँची तो वहाँ का वातावरण आज उसे कुछ गंभीर-सा प्रतीत हुआ।

'सोहन क्या हुआ है आज?' उसने स्कूल के माली से पूछा।

'अरे बहन जी क्या बतायें, आपको मालूम नहीं क्या? निशान्त बाबू को कल रात किसी ने चाकू मार दिया' सोहन बोला।

'क्या?' चौंकी मीताली। ऐसे, मानो सातवें आसमान से गिर गयी हो। अनहोनी की आशंका से उसने सोहन से और कुछ पूछने की हिम्मत नहीं की और उसके कदम स्वतः ही अस्पताल की ओर तेजी से बढ़ गये।

'हे भगवान! उनकी रक्षा करना, बड़े ही नेक इंसान हैं।' स्कूल से अस्पताल के लिए निकलते हुए सोहन के ये शब्द उसके कानों में गूँजे थे।

धड़कते हुए दिल से वह अस्पताल की ओर तेजी से बढ़ रही थी। बरबस उसकी आँखें नाम हो आयीं।

'हे भगवान तू उनकी रक्षा करना।' कल देर रात्रि तक वह निशान्त के लौटने की प्रतीक्षा करती रही थी और प्रतीक्षा करते हुए ही आधी रात के बाद न जाने कब उसे नींद आ गयी थी, इस कारण आज सुबह नींद देर से खुली थी।

'क्या दुश्मनी हो सकती है किसी की निशान्त से?' वह सोचने लगी। पहली बार उसकी जिंदगी में किसी ने प्रवेश किया था। उसका अपना यौवन जिम्मेदारियों के निर्वहन की भेंट चढ़ गया था। तीस वर्ष की उम्र में जब निशान्त उसकी ज़िंदगी में आया तो उसे लगा कि उसका जीवन बदल गया है। कितना स्नेह करता है निशान्त उसे। सचमुच में प्यार किसी की जिंदगी में कितने रंग घोल देता है, यह पहली बार महसूस हुआ था मीताली को।

अस्पताल में काफी भीड़ थी। लोग आपस में चर्चा कर रहे थे। भीड़ से पूछने पर पता चला कि कल रात में कुछ लोगों ने निशान्त पर जानलेवा हमला किया था। वह तो अच्छा हुआ कि कर्नल विक्रम सिंह वहाँ से गुजर रहे थे और उन्होंने ही उसे यहाँ अस्पताल तक पहुँचाया था। खून अधिक बह जाने के कारण लगातार चार घंटे तक ऑपरेशन चला। स्थिति अभी भी खतरे से बाहर नहीं थी।

सारी रात अस्पताल में गुजारने के पश्चात् कर्नल विक्रम सिंह अभी-अभी घर गये थे। मीताली ने आई.सी.यू. से बाहर निकले एक युवा डॉक्टर से पूछा, 'डॉक्टर! निशान्त जी अब कैसे हैं?'

'अभी होश नहीं आया है, लेकिन अब स्थिति खतरे से बाहर है', डॉक्टर बोला तो मीताली ने राहत की साँस ली।

'क्या मैं उन्हें देख सकती हूँ?' उसने व्यग्रता से डॉक्टर से पूछा।

'नहीं! अभी किसी को इसकी इजाजत नहीं है।'

डॉक्टर ने कहा और दूसरी ओर चला गया। हताश मीताली वहीं बेंच पर बैठ गयी। अस्पताल में भीड़ बढ़ती जा रही थी मानो सारा कस्बा जुट आया हो। लोग तरह-तरह की चर्चा कर रहे थे। मीताली के पास वाले बेंच पर ही पुलिस के चार जवान बैठे हुए थे जबकि इंस्पेक्टर अस्पताल के प्रांगण में चहलकदमी कर रहा था।

एक-एक क्षण काटना मीताली को भारी पड़ रहा था। रह-रहकर उसकी नजर आई.सी.यू. वार्ड के दरवाजे पर टिक जाती, न जाने कब डॉक्टर दरवाजा खोल दे कहे कि निशान्त को होश आ गया है।

तभी पीछे से किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। मीताली चौंककर पीछे मुड़ी तो देखा कर्नल विक्रम थे। वह झटके से खड़ी हो गयी, सुबह से उसकी आँखों में रुका हुआ सब्र का बाँध मानो एक झटके में टूट गया हो। वह कर्नल विक्रम सिंह की छाती से लगकर फफक-फफककर रोने लगी। कर्नल विक्रम ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरकर सांत्वना दी और उसे रोने दिया।

जब वह कुछ संभली तो सीने से अलग होकर आँखें पोंछते हुए शिकायती लहजे में बोली, 'अंकल आपने मुझे कल रात को ही सूचना क्यों नहीं दी?'

'बेटी तुम्हें रात के एक बजे क्या सूचना देता? अस्पताल तो तुम पहुँच नहीं पाती, फिर रात भर परेशान अलग से रहती' कर्नल सफाई पेश करते हुए उससे बोला।

'लेकिन अंकल मैं नाराज हूँ आपसे! कम से कम सुबह तो सूचना देते' वह पुनः बोली।

'मैं सोच रहा था निशान्त को होश आ जाये तो फिर तुम्हें सूचना दूँ' कर्नल बोले।

कर्नल को मीताली और निशान्त के संबंधों का कुछ-कुछ ज्ञान था। वह जानते थे कि दोनों एक दूसरे को पसंद करते हैं। स्वयं कर्नल भी यही चाहते थे कि दोनों दांपत्यसूत्र में बंध जायें। इसके लिए उन्होने निशान्त से एक दिन पूछा भी था, किन्तु वह मुस्कुराकर टाल गया था।

तभी डॉक्टर वार्ड से बाहर आ गया और पुलिस इंस्पेक्टर से बोला, 'इंस्पेक्टर उन्हें होश आ गया है, अब आप बयान ले सकते हैं।'

सुनते ही वहाँ भीड़ जमा हो गयी। भीड़ में खड़ा हर व्यक्ति दरवाजे की ओर पहुँचने को आतुर था। पुलिस के जवानों ने दरवाजे पर खड़े होकर भीड़ को रोक लिया जबकि इंस्पेक्टर दो जवानों के साथ अंदर कमरे में दाखिल हो गया। कर्नल विक्रम और मीताली भी भीड़ के बीच दरवाजे के पास खड़े हो गये और जवानों ने उन्हें भी रोक दिया।

कुछ देर बाद इंस्पेक्टर बाहर आ गया तो डॉक्टर कर्नल की ओर इशारा करते हुए बोला, 'कर्नल आप अंदर जाइए प्लीज।'

डॉक्टर का इशारा पाते ही कर्नल मीताली को लेकर तुरंत अंदर चले गये। धड़कते दिल से मीताली ने निशान्त पर नजर डाली। निशान्त धीरे से मुस्कुरा दिया। शायद अधिक खून बहने के कारण चेहरा पीला पड़ गया था उसका।

'कैसे हो निशान्त अब?' कर्नल ने पूछा।

'ठीक हूँ अंकल, आपकी कृपा से।' धीरे से बोला निशान्त।

'अरे मेरी कैसी कृपा? कृपा तो ऊपरवाले की है जिसने तुम्हें नया जीवन दिया है वरना...।' कर्नल ने कहा।

'मुझे डॉक्टर ने सब बता दिया अंकल। कल आप नहीं होते तो शायद...' निशान्त ने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया।

'लेकिन कौन लोग थे वह?' कर्नल सवाल पूछा।

'मुझे नहीं मालूम, मैंने किसी को नहीं पहचाना।' निशान्त ने कहा।

'लेकिन ऐसे कैसे हो सकता है?' कर्नल ने आश्चर्य से कहा, 'उन्होंने तुम पर बहुत नजदीक से हमला किया और वह चेतावनी के लहजे में तुमसे कुछ बोल भी रहे थे।'

'मुझे नहीं मालूम अंकल वे कौन लोग थे।' निशान्त ने सपाट-सा जबाब दिया।

कर्नल विक्रम को लगा निशान्त जरूर कुछ छुपा रहा है तो उन्होंने ज्यादा कुरेदना उचित नहीं समझा।

'कैसे हुआ यह सब?' मीताली जो बहुत देर से एकटक निशान्त को निहारे जा रही थी, पहली बार बोली।

'अरे कुछ नहीं चोर-लुटेरे रहे होंगे, सोचा होगा बहुत माल मिलेगा। मेरे पास जब कुछ नहीं मिला तो बौखला गये और मारपीट पर आ गये।' निशान्त ने समझाया।

'तुम इसे साधारण मारपीट कह रहे हो परंतु वे लोग तुम्हारी जान लेना चाहते थे।' कर्नल विक्रम बोले।

निशान्त मौन रहा। कर्नल विक्रम उठते बोले। 'अच्छा मैं जरा डॉक्टर से सलाह ले लूँ।'

कर्नल के जाते ही मीताली के आँसू निकल पड़े। वातावरण को हल्का बनाने के उद्देश्य से निशान्त बोला, 'अरे यह क्या कर रही हो तुम? मैं इतनी जल्दी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाला, कुछ नहीं होगा मुझे।'

'चुप रहो तुम, जो मर्जी आती है बोले जाते हो।' मीताली ने उसे लगभग झिड़कते हुए ही कहा, कभी तो अपने बारे में गंभीर हुआ करो।'

'अच्छा तुम रोओगी नहीं तो मैं नहीं बोलूँगा।' निशान्त ने उसका हाथ थाम लिया, मीताली ने उसके बालों पर उँगलियाँ फेरते हुए कहा, 'अच्छा चलो! अब कुछ देर आराम कर लो।'

कुछ ही देर बाद निशान्त को नींद आ गयी। मीताली ने उसके हाथ से अपना हाथ छुड़ाना चाहा किंतु नींद में होने पर भी निशान्त ने उसे कसकर पकड़ा हुआ था अतः वह अपना हाथ न छुड़ा पायी। कर्नल विक्रम कमरे में पहुँचे और निशान्त को सोता हुआ देखकर फुसफुसाकर बोले, 'मीताली मुझे लगता है निशान्त कुछ छिपा रहा है। तुम उससे कुछ पूछकर देखना।'

'ठीक है अंकल! मैं पूछूंगी,' बोली मीताली।

'अच्छा मैं जरा पुलिस स्टेशन होकर आता हूँ।' तुम निशान्त का ख्याल रखना!' इतना कहकर कर्नल फिर कमरे से बाहर निकल गये।

कर्नल के जाने के बाद मीताली निशान्त के चहरे को गौर से देखते हुए सोचने लगी, 'कितना सच्चा और सीधा इंसान है। इससे किसी की क्या दुश्मनी हो सकती है? निशान्त जबसे उसके जीवन में आया है, कितना बदल गया है, उसका जीवन', बरबस उसे अपने जीवन की पिछली यादें और निशान्त से पहली मुलाक़ात के लम्हें याद आ गये और वह अतीत के झरोखों से उतरती चली गयी।

 

तेरह

राहुल की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए वह अमेरिका चला गया था। सोनाली की शादी हो चुकी थी। वह एक लड़की की माँ भी बन चुकी है। मीताली ने अब तक बहुत सारी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली थी अपनी।

फुर्सत के पलों में वह सोचती, 'अब राहुल की नौकरी लग जाए तो एक सुंदर सी लड़की देखकर उसकी भी शादी कर दूँ, एक और ज़िम्मेदारी पूरी हो जायेगी।'

सोनाली हफ्ते-दो हफ्ते में मीताली से मिलने आ जाया करती थी। शेखर का अधिकांश समय घर से बाहर ही कटता था, ऐसे में कभी-कभार अकेलेपन का अहसास उसे जरूर कचोटता। सोनाली को अब एक ही रट लगी रहती और वह जब भी आती तो यही कहती, 'दीदी आप ऐसे अकेले कब तक रहोगी? अब तो राहुल की नौकरी भी लग ही जायेगी। शेखर भी अपना काम करने लगा है। आपको अब अपने बारे में भी सोचना चाहिए। आप इजाजत दें तो मैं दीव्यांशु और ससुरजी से बात करके देखती हूँ।

सोनाली की यह बात हर बार हँस कर टाल जाती मीताली, 'अरे मैं अकेली कहाँ हूँ? तुम लोग हो न मेरे पास। जब तक राहुल की शादी नहीं हो जाती, शेखर ढंग से नौकरी पर नहीं लगता तब तक मैं कैसे कुछ सोच सकती हूँ अपने बारे में?

'दीदी तब तक तो बहुत देर हो जायेगी'। सोनाली कह उठती। मीताली उसे हँसकर ही टाल देती।

दरअसल मीताली की जिंदगी इतनी सरल नहीं थी, बहुत बड़ा बोझ था उसपर परिवार का। साधारण लड़कियों की तरह नहीं था उसका जीवन। उसे तो बचपन से ही पुरुष की तरह काम करना पड़ा है। कभी माँ बनकर तो कभी पिता बनकर गृहस्थी का संचालन करना पड़ा है। अपने बारे में तो उसे कभी सोचने की फुर्सत ही नहीं मिली। सोचना भी क्या है।

सब कुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था परंतु एक दिन उसे सूचना मिली कि शेखर का किसी के साथ झगड़ा हो गया है और वह अपने दो साथियों सहित थाने में बंद है। सुनकर तो नींद ही उड़ गयी मीताली की।

'हे भगवान! अब यही दिन देखना बाकी रह गया था? क्या सोचेंगे लोग उसके बारे में? शर्म से पानी-पानी हो गयी थी वह। कस्बे में कैसे मुँह दिखायेगी वह? अब उसे थाने के चक्कर भी काटने पड़ेंगे'। सोच रही थी मीताली।

किसी तरह से उसने शेखर की जमानत तो करवा ली किंतु उसने दृढ़ निश्चय करके अब यह शहर छोड़ने का मन बना लिया।

और फिर लगी-लगाई नौकरी और जमा-जमाया घर छोड़कर पहुँच गयी थी वह उस छोटे से कस्बे रामपुर में।

यह पहाड़ी की तलहटी में बसा एक छोटा सा कस्बा था। हरे-भरे खेत और ऊँची-नीची पहाड़ियाँ, एकदम शांत और सुंदर। शहर की भागदौड़ से एकदम अलग यहाँ का माहौल उसे भा गया था।

किसी जमींदार की रियासत हुआ करती थी कभी यहाँ। अब यह एक छोटा सा औद्योगिक कस्बा हो चुका था। जमींदार के पोते ने ही अधिकांश उद्योग लगाये हैं यहाँ पर। यह स्कूल भी उसी का अंग है। संस्था द्वारा संचालित इस स्कूल में निर्धन और गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती है यहाँ पर।

स्कूल के संचालक से उसकी अब तक मुलाकात नहीं हुई थी। बहुत कुछ सुना था उसने उनके बारे में। निशान्त बाबू तो ऐसे हैं, निशान्त बाबू तो वैसे हैं। बड़े नेक हैं, सबकी मदद करते हैं, आदि-आदि।

स्कूल का वार्षिकोत्सव धूमधाम से मनाया जा रहा था। सांस्कृतिक समारोह में संस्थापक निशान्त बाबू को बतौर मुख्य अतिथि बुलाया गया था। उसी दिन पहली बार मीताली ने निशान्त को देखा था।

मीताली की कल्पना के विपरीत निशान्त तीस-पैंतीस वर्षीय एक सुदर्शन युवक था। मीताली को आश्चर्य हुआ कि इतनी कम उम्र में इतनी प्रगति और ख्याति उसने कैसे अर्जित कर ली।

उसने स्कूल के स्टाफ के मुँह सुना था कि अपना सम्पूर्ण जीवन इन्होंने समाजसेवा के नाम पर ही समर्पित कर दिया, वरना इनके पुरखे जितनी जमीन-जायदाद और संपत्ति छोड़ गये थे, उसमें तो ये पूरा जीवन आराम से गुजार सकते थे। किंतु इन्होंने समाजसेवा की कठिन राह चुनी थी अपने लिए और अपना सर्वस्व न्यौछावर कर पूर्णतः अपने आप को अर्पित कर दिया था।

मीताली सोचती, ये सब तो चोंचले होते हैं अमीरों के। ढेर सारी धन-संपत्ति में कुछ गरीबों के हित में भी लगा दिया तो क्या फर्क पड़ता है। अपने पुरखों के नाम पर समाजसेवा करके ये समाज को तो कुछ देते नहीं, हाँ अपने पुरखों को अमर जरूर बना देते हैं।

समारोह का पूरा संचालन मीताली ने किया। समारोह की समाप्ति के पश्चात निशान्त ने खुले मन से कार्यक्रम की तारीफ की। मीताली को संबोधित करके वह बोला, 'बहुत सुंदर आयोजन किया था आपने और कार्यक्रम भी बहुत सुंदर थे'।

'जी धन्यवाद!' औपचारिकतावश ही कहा मीताली ने।

निशान्त फिर बोला, 'एक छोटा सा आश्रम भी है हमारा जिसमें कुछ निराश्रित और गरीब महिलाएँ रहती हैं। वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकें इसके लिए उन्हें अलग-अलग व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। आप कभी वहाँ आइये। आपको बहुत अच्छा लगेगा'।

'जी मैं अवश्य आऊँगी'। मीताली बोली और हाथ जोड़ लिए।

मीताली को लगा जैसे निशान्त उस पर जबरन अपनी अमीरी का रौब दिखा रहा हो। ये अमीर लोग होते ही ऐसे हैं। अपनी अमीरी के आगे ये किसी को कुछ समझते ही नहीं हैं। छोटे आदमी तो इनके लिए कीड़े-मकोड़े या फिर काम करने वाली मशीन की तरह होते हैं।

गरीब लोग काम करते हैं और ये उनके द्वारा कमाई गयी दौलत पर ऐश करते हैं। निशान्त के आमंत्रण में भी उसको कुछ गड़बड़ नजर आया, फिर भी मीताली ने बाहरी मन से हाँ कर दिया।

इसके पश्चात काफी अरसा गुजर गया। न तो मीताली आश्रम में गयी और न निशान्त उस स्कूल में आया। इस बीच एक दिन उसे स्कूल में ही अपने नाम एक लिफाफा मिला। खोलकर देखा तो उसमें मीताली को स्वतन्त्रता दिवस कार्यक्रमों के संचालन करने का आश्रम से आमंत्रण दिया गया था।

स्वतंत्रता दिवस पर उसके स्कूल में भी प्रातः के समय झंडारोहण के साथ छोटा-सा कार्यक्रम रखा गया था।

आश्रम में इस बार बहुत बड़ा आयोजन किया गया था जिसमें वहाँ की महिलाओं द्वारा बनाई गयी वस्तुओं की प्रदर्शनी के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी भव्य आयोजन किया गया था। मीताली के साथ-साथ सारे स्कूल स्टाफ को भी आमंत्रित किया गया था।

मीताली को यह सब तो मालूम था, किंतु कार्यक्रम के संचालन की उसे ज़िम्मेदारी दी जायेगी, यह उसने नहीं सोचा था।

'चलो इसी बहाने ही सही वह आश्रम भी देख लेगी'। मीताली ने सोचा। बार-बार एक ख्याल उसके मन में कौंध रहा था कि आखिर कार्यक्रम संचालन की ज़िम्मेदारी उसे क्यों सौंपी गयी? कहीं इसमें कोई चाल तो नहीं है। आखिर इतने वरिष्ठ अध्यापक और अध्यापिकाएँ हैं इस विद्यालय में, फिर उसे ही यह कार्य क्यों दिया गया? वह समझ नहीं पा रही थी।

दूसरी ओर वह सोचती, 'शायद पिछली बार जब उसने स्कूल में कार्यक्रम का संचालन किया था तो वह निशान्त को अच्छा लगा होगा। उन्होंने उसकी प्रशंसा भी की थी किंतु वह प्रशंसा उसे औपचारिकता भरी लगी थी, तो क्या सचमुच उन्हें कार्यक्रम पसंद आया था?'

'बहरहाल जो भी हो, छोड़ो'। मीताली ने गर्दन झटक ली, 'देखा जाएगा। जब उसे यह ज़िम्मेदारी दी गयी है तो उसे जरूर निभानी है और अपनी प्रतिभा का पूरा उपयोग करना है'।

'रही बात कुछ गड़बड़ की तो कुछ नहीं होता'। मीताली ने पूरे आत्मविश्वास को एकत्रित करके अपने मन को ढांढस दिया, 'मीताली तुम एक सुदृढ़ महिला हो, चिंता मत करो जो होगा सब अच्छा ही होगा।

 

चौदह

'बहुत बढ़िया! बहुत बढ़िया!' मीताली ने मंच से जब कार्यक्रम समाप्त किया तो तालियों की गड़गड़ाहट के साथ अनेकों स्वर एक साथ उभरे।

आत्मविश्वास से लकदक मीताली मंच से उतरी और अपने स्थान पर आ गयी तो लोगों ने उसे घेर लिया, 'बहुत सुंदर मीतालीजी! बहुत अच्छा कार्यक्रम प्रस्तुत किया आपने'। निशान्त ने खुले मन से तारीफ की।

'जी धन्यवाद!' मीताली ने सबको धन्यवाद देते हुए हाथ जोड़ दिये।

कार्यक्रम की समाप्ति के पश्चात जलपान हुआ और फिर आश्रम के संस्थापक निशान्त द्वारा आश्रम की महिलाओं द्वारा उत्पादित वस्तुओं की प्रदर्शनी का उद्घाटन किया गया। काफी अच्छी मेहनत की गयी थी महिलाओं द्वारा। विभिन्न प्रकार के ऊनी वस्त्र, खिलौने और अचार, मुरब्बे आदि रखे गये थे प्रदर्शनी में।

सभी अतिथियों के साथ निशान्त ने प्रदर्शनी का निरीक्षण किया, 'चलिये इसी बहाने आप आईं तो सही'। निशान्त मीताली से बोला, 'देखिये इन बेसहारा महिलाओं द्वारा कितनी लगन और मेहनत से इन वस्तुओं का निर्माण किया गया है। एक समय बिलकुल टूट चुकी इन महिलाओं में इस काम ने इतना आत्मविश्वास जगा दिया कि अब इन्हें किसी सहारे की जरूरत नहीं है।

'जी हाँ बहुत मेहनत की गयी है'। मीताली ने सचमुच तारीफ करते हुए कहा।

'छोटा सा कस्बा है, जितना सीख पाती हैं यहीं पर सीखती हैं'। निशान्त ने बात आगे बढ़ायी, 'आप तो शहर से आयी हैं, इन लोगों को कुछ और भी सिखाइए। बाजार में किन वस्तुओं की कितनी माँग है, यह भी इन्हें समझाइये।

'जी हाँ! शहर में भी मैं एक स्कूल में अध्यापिका थी। मैं जो भी मदद कर सकूँगी इन महिलाओं की जरूर करूँगी। थोड़ी-बहुत जानकारी है मुझे इस सबकी'। मीताली ने उत्तर दिया।

मीताली को लगा कि निशान्त उससे नजदीकी बनाने हेतु इस तरह की बातें कर रहा है। उसकी इस बात की पुष्टि भी शीघ्र ही हो गयी जब निशान्त ने बातचीत आगे बढ़ाते हुए कहा, 'दरअसल मैं संस्थाओं के कार्य से अधिकतर बाहर रहता हूँ। इस आश्रम के लिए मुझे एक सुयोग्य अधीक्षिका की तलाश है। अगर आप अन्यथा न लें तो एक आग्रह करूँ आपसे?'

'हाँ-हाँ कहिये? मीताली ने शंकित होते हुए कहा।

'यदि आप स्कूल समय के पश्चात् कुछ पल आश्रम की देखभाल में लगाने की कोशिश करें तो इन महिलाओं के बीच रहकर आपको सचमुच में संतोष मिलेगा। जरूरतमंद और दु:खी लोगों के लिए कुछ सार्थक कर पाने का आनंद ही अलग होता है।

'अच्छा तो ये बात है, आदर्शवादिता का पाठ पढ़ा रहा है मुझे?' मीताली सोचने लगी, 'कोई उनसे पूछे कि अगर दो जून की रोटी कमानी पड़ती तो सारी समाज सेवा की भावना की हवा निकल जाती। इन्हें तो मुफ्त में इतना बड़ा साम्राज्य मिला है, तब जाकर समाज सेवा का दंभ भर रहे हैं।' मन ही मन मीताली ने सोचा। किंतु प्रत्यक्षतः बोली, 'वैसे तो समय मिलता नहीं। स्कूल के बाद घर के कामकाज भी हो जाते हैं। फिर भी मैं कोशिश करूंगी कि कुछ समय निकाल सकूँ।'

यदि आपके मन में इनकी मदद करने की इच्छा होगी तो आप अवश्य निकालेंगी। वैसे भी तो अकेले ही रहती हैं आप यहाँ पर?'

'तो जनाब के पास पूरी जीवनी उपलब्ध है।' मीताली मन ही मन कुढ़ गयी, लेकिन क्या जवाब दे वह उसे, आखिर मर्यादा की कोई सीमा तो नहीं लाँघी थी उसने। मन की कड़वाहट को अंदर छिपाते हुए मीताली बोली, हाँ! रहती तो अकेली ही हूँ।'

'अच्छा आप प्रदर्शनी देखिये, मैं मेहमानों से मिल लेता हूँ।' इतना कहकर निशान्त दूसरी ओर चला गया।

'उफ़्फ़! चलो बला टली।' मीताली ने चैन की साँस ली, 'पीछे ही पड़ गया था यह तो।' उसकी इच्छा हुई कि घर लौट जाये, किंतु ऐसा करना ठीक नहीं समझा उसने, क्योंकि स्कूल का पूरा स्टाफ यहीं मौजूद था।

साँझ ढल चुकी थी और मेहमान एक-एक कर जाने लगे थे। स्कूल का कुछ स्टाफ भी जा चुका था। कुछ जाने के लिए तैयार था। लोग मुख्य दरवाजे पर खड़े निशान्त को धन्यवाद देकर एक-एक कर जा रहे थे। उनके बीच ही मीताली भी जाने के लिए आगे बढ़ी।

'अच्छा अब चलती हूँ, धन्यवाद आपका।' उसने हाथ जोड़कर निशान्त से कहा।

'अरे धन्यवाद कैसा, यह तो मेरा सौभाग्य है, जो आप यहाँ आयीं।' निशान्त ने शालीनता से हाथ जोड़कर कहा।

'जल-भुन गयी मीताली, 'बहुत चालाक मालूम होता है, कैसी चिकनी-चुपड़ी बातें कर रहा है।' मीताली को खामोश देखकर निशान्त पुनः बोला, 'आप अकेली कैसे जायेंगी? अंधेरा हो गया है, मैं किसी कर्मचारी को आपके साथ भेज देता हूँ।'

'नहीं-नहीं, आप परेशान मत होइए, मैं चली जाऊँगी।' मीताली हड़बड़ाकर बोली।

'वैसे तो यह कस्बा शहरों की अपेक्षा शांत और सुरक्षित है, पर अतिथि होने के नाते हमारा फर्ज बनता है कि आपको कोई परेशानी न हो। मैं आपको आश्रम की गाड़ी से भिजवा देता हूँ।' निशान्त ने फिर आग्रह किया।

'ओह! तो अब गाड़ी का रौब भी दिखा रहे हैं। अभी तक तो हमेशा ही हर जगह अकेली ही गयी हूँ, फिर आज कौन सी बड़ी बात है। इस सबकी परवाह की होती तो संभाल ली थी घर-परिवार की ज़िम्मेदारी।' मीताली सोचने लगी, 'ये साहब कुछ ज्यादा ही मेहरबानी दिखा रहे हैं। उसके दिमाग में तो शहर में रहकर भी कभी डर पनपा ही नहीं। उसने कभी सोचा ही नहीं कि यदि उसने कहीं अकेले आना-जाना पड़े तो इसमें कुछ क्षति हो सकती है। फिर ये मुझे डरा क्यों रहे हैं?'

'नहीं-नहीं, चली जाऊँगी मैं अकेली। धन्यवाद आपका।' मीताली ने दृढ़ता से कहा और तेजी से बाहर निकल गयी।

उस रात मीताली ठीक से सो नहीं पायी। अनेकों ख्याल उसके जेहन में बार-बार उमड़ते-घुमड़ते रहे।

निशान्त के बारे में भी वह गुणा-भाग करती रही और उसके वास्तविक चरित्र का आकलन करती रही, किंतु दुविधा में फँसा उसका मन कोई भी निष्कर्ष निकालने में नाकामयाब रहा।

निशान्त या तो बहुत सरल, सज्जन और अच्छा आदमी है, जो वास्तविक रूप में गरीबों का मददगार है, अथवा बहुत चालाक और धूर्त आदमी जो अपने चेहरे पर समाजसेवा और सज्जनता का आवरण ओढ़े हुए है।

मीताली कुछ समझ नहीं पा रही थी। अपनी इतनी लंबी उम्र में उसने किसी के बारे में इस तरह नहीं सोचा और न ही उसने किसी का आकलन करने की कोशिश की थी। फिर निशान्त के बारे में वह यह सब क्यों कुछ सोच रही है?

करवटें बदलते हुए उसे काफी समय हो गया। वह उन सब विचारों को मन-मस्तिष्क से झटककर सो जाना चाहती थी, किंतु नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी।

'छोड़ो जो भी हो जैसा भी हो, मुझे क्या लेना-देना। मुझे अपनी नौकरी से मतलब है। अपना समय निकालने से काम है बस। किसी के बारे में जानने और सोचने से फायदा क्या है?'

मीताली ने करवट बदलकर विचारों के भँवर से निकलने का प्रयास किया और अगले दिन की दिनचर्या के बारे में सोचने लगी।

 

पंद्रह

आश्रम में हड़कंप मच गया था। आश्रम की महिलाओं को कुछ सूझ नहीं रहा था, क्या करें, क्या न करें? वे आपस में चर्चा कर रही थी। घटना ही कुछ ऐसी थी। संचालक निशान्त जी कस्बे से बाहर गए हुए थे और आश्रम की एक लड़की ने आत्महत्या का प्रयास भी किया था।

आश्रम की किसी महिला ने ही मीताली को सूचना दे दी थी। मानवतावश मीताली तुरंत आश्रम पहुँची और उस लड़की को अस्पताल में भर्ती कराया। कोई उन्नीस वर्षीया युवती थी वह! केवल चार रोज पूर्व ही आश्रम में आई थी। आश्रम में अपना अता-पता कुछ भी नहीं बतलाया था उसने, लिहाजा लाख पूछने के बाद भी वह कतराती रही तो किसी ने उससे कुछ पूछना उचित नहीं समझा।

और आज अचानक उसके द्वारा आत्महत्या करने की कोशिश की गयी तो आश्रम की सभी महिलाओं के पसीने छूट गये। जहर खा लिया था उसने। जहर उसके शरीर पर घातक असर डालता इससे पूर्व ही महिलाओं को उसकी स्थिति का पता लग गया और मीताली की मदद से समय पर इलाज उपलब्ध हो जाने के कारण उसकी जान बच गयी थी।

डॉक्टर ने आकर बताया, 'लड़की को बचा लिया गया है किंतु उसके बच्चे को हम नहीं बचा पाये।' सुनकर स्तब्ध रह गयी मीताली। मतलब ये कि लड़की गर्भवती थी, शायद किसी ने धोखा दिया होगा। तभी आत्महत्या करने की कोशिश की है उसने।

'डॉक्टर क्या हम उससे मिल सकती हैं? मीताली ने पूछा।

'हाँ! लेकिन कुछ देर के लिए।'

डॉक्टर बोला, 'और हाँ, ज्यादा लोग उसके पास मत जाइये।

मीताली जैसे ही अंदर गयी, उसे देखते ही युवती ने नजरें झुका ली। चेहरा पीला पड़ गया था उसका। शायद जहर ने आंशिक असर दिखाया था।

'क्या नाम है तुम्हारा? और ऐसा क्यों किया तुमने?' मीताली ने उससे सवाल किया।

युवती कुछ देर चुप रही, फिर बोली, 'मैंने ऐसा क्यों किया, आप लोगों को अब तो पता चल ही गया है। मैं कैसे मुँह दिखाती किसी को।' इतना कहते ही उसकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली।

'अच्छा अब चुप हो जाओ और आराम करो। मैं तुमसे बाद में बात करूँगी। मीताली ने उसके सिर पर हाथ फेरा और कमरे से बाहर आ गयी।

अस्पताल से घर लौटकर मीताली का मन किसी काम में नहीं लगा। लड़की का मासूम चेहरा उसकी आँखों में बार-बार घूम जाता। मीताली ने सोचा, 'लड़की को इस समय सहारे की बहुत जरूरत है।' और वह सायं को फिर हॉस्पिटल पहुँच गयी। युवती सुबह की अपेक्षा कुछ ठीक लग रही थी।

'कैसी हो अब?' मीताली ने उसे प्यार से पूछा।

'ठीक हूँ दीदी अब, परंतु आपने मुझे क्यों बचाया?' लड़की ने भीगे हुए नेत्रों से कहा।

'जीवन बहुत कीमती होता है। आत्महत्या वो लोग करते हैं जो कायर होते हैं।' मीताली ने उसे समझाया। वह चुपचाप सुनती रही।

'कुछ खाया-पिया भी?' फिर पूछा मीताली ने।

भूख नहीं है दीदी।' उसने मासूमियत से कहा।

'अच्छा तुमने अब तक अपना नाम तो बताया ही नहीं? क्या कहकर संबोधित करूँ तुम्हें?' पूछा मीताली ने।

'सुगंधा!' लड़की बोली, 'बस अब आगे कुछ और मत पूछियेगा, कुछ नहीं है मेरे पास बताने के लिए।'

'सुगंधा!' बहुत अच्छा नाम है।' मीताली बोली, 'सुगंधा! मैं तुमसे कुछ नहीं पूछूँगी, किंतु तुमने मुझे दीदी कहा है तो मैं तुम्हें एक आदेश देती हूँ कि सायं को खाना जरूर खा लेना। इस तरह खुद को दंड देकर कुछ भी हासिल नहीं होगा। विपरीत परिस्थितियों में जीना सीखो, फिर हम सब तुम्हारे साथ हैं।' सुनते ही सुगंधा ने सिर हिला दिया।

अगले दिन मीताली अस्पताल की समस्त औपचारिकताएँ पूर्ण करने के पश्चात् उसे आश्रम में वापस ले आयी।

'सुगंधा तुम्हारा घर कहाँ है?' मीताली ने पूछा और सलाह देते हुए कहा, 'अब तुम्हें अपने घर चले जाना चाहिए।'

'कौन-सा घर दीदी? कोई प्रतीक्षा नहीं कर रहा होगा वहाँ मेरी।' दु:खित स्वर में बोली सुगंधा, 'माँ-बाप के मुँह पर कालिख पोत कर आयी हूँ तो वापस नहीं जा सकती। इससे अच्छा तो मर ही जाती।' इतना कहते ही उसकी आँखों में आँसुओं की बरसात होने लगी।

मीताली ने प्यार से उसका सिर सहलाया, 'रोते नहीं पगली! घर नहीं जाना चाहती तो यहीं आश्रम में रह सकती हो।'

मीताली का प्यार भरा स्पर्श पाकर सुगंधा पिघल गयी और उसने अपनी कहानी मीताली ने समक्ष बयां कर दी।

कॉलेज में पढ़ रही थी वह, वहीं पर एक लड़के से मित्रता हो गयी उसकी और मित्रता न जाने कब प्यार में बादल गयी।

लेकिन प्यार में वह ऐसी गलती कर बैठी, जिसने उसे आज कहीं का भी नहीं छोड़ा।

उसने अपनी गर्भवती होने की बात लड़के को बताई, तो वह भी चिंतित हो गया, फिर दोनों ने निर्णय लिया कि किसी दूसरे शहर में चले जायेंगे और वहाँ शादी करके जीवन शुरू करेंगे।

बिना किसी को बताये दोनों ने घर से भाग जाने का निर्णय लिया और निश्चित तिथि को रेलवे स्टेशन पर मिलने का वादा कर लिया।

सुगंधा निश्चित समय पर रेलवे स्टेशन पहुँच गयी थी लेकिन बहुत देर तक प्रतीक्षा के बाद भी लड़का नहीं पहुँचा। उसे लगा कि वह छली गयी है। अब वह वापस जाने की स्थिति में भी नहीं थी और रात भी हो चुकी थी, इसलिए स्टेशन पर जो भी गाड़ी लगी थी उसी में बैठ गयी।

तीन-चार घंटे के सफर के बाद उसका दिल घबराने लगा। कहाँ जायेगी वह? किसके पास जायेगी? अजनबी शहर में क्या होगा उसके साथ? इन्हीं बातों की कल्पना करके उसका दिल तेजी से धड़कने लगा। लिहाजा वह गाड़ी के रुकते ही अगले स्टेशन पर उतर गयी।

देर तक वह स्टेशन पर लगी बेंच पर बैठी विचार करती रही। रात गहरा गयी थी। एक-एक कर सब लोग अपने गंतव्य की ओर चले गये और स्टेशन खाली हो गया।

एक अकेली लड़की को इस तरह बैठा हुआ देखकर एक व्यक्ति उसके पास आया और पूछा, 'कहाँ जायेंगी आप, यहाँ क्यों बैठी हैं? अब तो इस स्टेशन पर कोई भी गाड़ी नहीं रुकती।'

शायद रेलवे का कोई कर्मचारी था वह, उसकी बात सुनकर वह रो दी।

भला मानुष था वह। उसकी स्थिति देखकर वह सज्जन उसे इस आश्रम में ले आये। आश्रम का सहारा पाकर उसे कुछ राहत तो मिली, किंतु अब उसका मन इस संसार से उचट गया था। क्या करेगी जीकर? जिस इंसान पर इतना विश्वास किया, जिसके लिए अपने माँ-बाप को व घर-परिवार तक को छोड़ दिया, जब वही इतना धोखेबाज निकला तो फिर इस दुनिया में किस पर विश्वास करेगी वह? इसलिए उसने आत्महत्या करने का कदम उठाया।

उसकी कहानी सुनकर मीताली को भी रोना आ गया। उसने अपनी पूरी कहानी तो बताई किंतु अपने माँ-पिता का नाम और पता नहीं बताया। मीताली उसका सिर अपनी गोद में रखकर प्यार से बहुत देर तक सहलाती रही।

'देखो सुगंधा! जो हुआ उसे अब एक बुरा सपना समझकर भूल जाओ और आज से एक नया जीवन शुरू करो। तुम अभी छोटी हो, समय के साथ धीरे-धीरे सारे जख्म भर जायेंगे। मीताली ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा।

सुगंधा फफककर रो पड़ी। मीताली ने उसे रोने दिया ताकि उसके मन का बोझ कुछ हल्का हो जाये। सुगंधा की जब हिचकियाँ बंद हुई तो मीताली ने प्यार से कहा, 'अच्छा अब बहुत देर हो चुकी है, मैं चलती हूँ। मैं तुमसे फिर मिलने आऊँगी। आश्रम में कोई भी परेशानी महसूस करोगी तो अपनी इस दीदी को अवश्य बताना।' और मीताली भारी मन से अपने घर चल दी।

 

सोलह

खट! खट! खट!

दरवाजे पर खटखटाहट सुनकर मीताली चौंक गयी। कौन हो सकता है? यहाँ उसके घर पर तो किसी का आना-जाना है ही नहीं।

दरवाजा खोला तो वह हैरान हो गयी। निशान्त परेशान हाल सा दरवाजे पर खड़ा था। निशान्त तो बाहर गया हुआ था, शहर गया हुआ, फिर लौटकर आया है तो इतनी रात यहाँ मेरे घर आने का क्या मतलब? मीताली शंकित होकर सोचने लगी।

'अरे आप?' उसने चौंककर पूछा।

'हाँ! माफ कीजिए आपको बेवक्त परेशान किया। किंतु...।' निशान्त बोला।

'नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, आइये बैठिये।' मीताली दरवाजे से पीछे हट गयी।

'नहीं-नहीं, इस समय मैं बैठूँगा नहीं।' निशान्त बोला, दरअसल अभी-अभी शहर से लौटा तो आश्रम में हुए हादसे की जानकारी मिली। पता चला कि आपने उस लड़की को तुरंत चिकित्सा सहायता दिलाकर उसकी जान बचाई है, तो आपको शुक्रिया कहने से अपने आपको नहीं रोक पाया।'

निशान्त अपनी रौब में ही कहता चला गया था।

'ऐसा कुछ भी तो नहीं किया मैंने। किसी की जान पर बनी हो तो मानवता का तकाजा है कि उसकी हर संभव सहायता की जाये।' मीताली बोली।

'नहीं मीताली जी आपको नहीं मालूम आपने क्या किया है? आपने तो बहुत बड़ा उपकार किया है मुझ पर। वह बेचारी लड़की तीन-चार दिन पूर्व ही हमारे आश्रम में आई है। यदि उसे कुछ हो जाता तो हम किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रह जाते।' निशान्त ने गंभीरता से कहा और साथ ही हाथ जोड़ दिये। कहते-कहते आवाज भर्रा गयी थी उसकी।

मीताली ने निशान्त की ओर देखा, उसे समझ में नहीं आया कि ऐसा उसने क्या किया, जिसका इतना उपकार निशान्त मान रहा है। निशान्त से उसकी नजरे मिलीं तो निशान्त ने आँखें झुका लीं और तेज कदमों से वापस लौट गया।

न जाने क्या था उसकी आँखों में कि मीताली को मन की गहराई तक छू गया। अब तक दो-तीन बार ही तो वह निशान्त से मिली है। वह उसे एक धनी और मस्त खुशमिजाज़ इंसान ही लगा था, किंतु आज मीताली को उसके एक और चरित्र का पता चला है। वह है उसकी संवेदनशीलता।

वास्तव में आज मीताली ने महसूस किया कि वह सिर्फ एक अमीर इंसान ही नहीं बल्कि एक संवेदनशील युवक भी है।

मीताली अब स्कूल से आने के बाद लगभग रोज ही आश्रम जाने लगी। इसका एक कारण था सुगंधा से उसका जुड़ाव और दूसरा निशान्त के बारे में और कुछ जानने की जिज्ञासा।

आश्रम की महिलाएँ निशान्त की हर समय प्रशंसा करते नहीं थकती थीं। उन्हें लगता कि यदि निशान्त बाबू नहीं होते तो न जाने क्या होता उनकी जिंदगी का? यह सब सुनकर निशान्त के बारे में मीताली की सोच भी बदलने लगी।

सुगंधा अब पूरी तरह ठीक हो गयी थी। मीताली चाहती थी कि अब उसे उसके घर पहुँचा दिया जाना चाहिए, लेकिन्न सुगंधा थी कि घर का पता बताने के लिए मुँह खोलने को तैयार ही नहीं थी।

निशान्त से अब कभी-कभी दो-एक दिन छोड़कर मुलाक़ात हो जाती थी। अब वह उससे काफी हद तक खुल भी गयी थी। निशान्त भी अब आश्रम के कार्यों में उसकी सलाह लेने लगा।

कभी-कभी मीताली को लगता कि निशान्त की आँखों में एक सूनापन है। बाते करते-करते कभी वह अचानक कहीं खो सा जाता। मीताली पूछना चाहती, किंतु हिम्मत नहीं होती।

मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता ही रहा, लेकिन अब तक उनके बीच की बातों का विषय सिर्फ आश्रम और स्कूल पर ही केंद्रित होता। एक-दूसरे के बारे में जानने का, समझने का उन्हें अवसर ही नहीं मिला। न ही एक-दूसरे ने कभी ऐसा करने का प्रयास किया।

बातों ही बातों में एक दिन निशान्त पूछ ही बैठा, 'मीताली! आपके घर-परिवार में कौन-कौन है?'

निशान्त का प्रश्न सुनकर मीताली ने उसे गौर से देखा तो निशान्त सकपका गया, 'दरअसल किसी को भी आपके साथ देखा नहीं, इसलिए पूछ लिया।'

उसकी सकपकाहट देखकर मीताली मुस्कुरा दी और बोली, 'माँ बचपन में ही गुजर गयी थी। थोड़ा बड़ी हुई तो पिता का साया भी जाता रहा। दो भाई और एक बहन और हैं। बहन की शादी कर चुकी हूँ। एक भाई अमेरिका में इंजीनियरिंग की अंतिम कक्षा में है, और छोटा भाई कॉलेज में पढ़ रहा है।' छोटे भाई की कॉलेज वाली बात वह साफ झूठ बोल गयी।

'अच्छा तब तो बहुत कर्मठ हैं आप, इस सबके बीच अपनी पढ़ाई कैसे की आपने?' निशान्त ने आश्चर्य से पूछा।

'कहाँ पढ़ पाई मैं। बारहवीं के बाद टीचिंग का प्रशिक्षण लिया फिर नौकरी और घर-परिवार की ज़िम्मेदारी। छोटे भाई-बहन पढ़ जायें बस यही सपना था मेरा। मीताली ने कहा और साथ ही सोचा, 'चलो अच्छा हुआ निशान्त ने शेखर के बारे में और अधिक नहीं पूछा, वरना क्या जबाब देती वह?'

'तो अब क्यों पढ़ाई नहीं कर लेतीं आप?' शेखर ने सलाह दी।

'अब क्या पढ़ना, बहुत साल हो गए पढ़ाई छोड़े हुए, अब तो उम्र भी हो गयी है।' मीताली तनिक लापरवाहीपूर्वक बोली।

'पढ़ाई की कोई उम्र नहीं होती मीताली! अब तो आपके पास समय भी है। आज ही तय कर लो कि इस बार आपको बी.ए. का फार्म भरना है।' निशान्त ने मानों निर्णयात्मक स्वर में कहा।

निशान्त का यह आदेशात्मक स्वर उसे अच्छा लगा, किंतु जो अपेक्षा वह उससे कर रहा है, क्या वह उसे पूरा कर पायेगी? क्या उसे इतना समय मिल सकेगा कि वह पढ़ सके?

निशान्त अगले ही दिन ढ़ेर सारी किताबें ले आया। आते ही किताबें मेज पर रखते हुए बोला, 'लीजिए आज से ही आपकी पढ़ाई शुरू।'

मीताली ने मुस्कुराकर स्वीकृति में गर्दन हिलायी।

'हाँ, यह तो बताइये आपका छोटा भाई किस कक्षा में है? आप उससे भी तो मदद ले सकती हैं।' निशान्त ने पूछा तो मीताली की जान निकल गयी। आखिर जिस बात से वह परहेज करना चाह रही थी, वह निशान्त ने पूछ ही लिया। एक पल के लिए वह घबरा गयी एकाएक पूछे गये इस सवाल से।

'कौन से वर्ष में है? मुझे मालूम नहीं।' वह घबराहट में ही बोली।

'अरे कमाल करती हैं आप भी। आपको यही पता नहीं कि आपका भाई किस कक्षा में है?' निशान्त ने आश्चर्य से पूछा और फिर स्वयं ही बोल पड़ा, 'लगता है आप मुझसे कुछ छिपा रही हैं।'

मीताली चुप रही, क्या जबाब देती उसे। उसके मौन को तोड़ते हुए फिर निशान्त बोला, यदि आप मुझ पर विश्वास करें तो मुझे बता सकती हैं।'

और फिर मन में दबी बातें, जिन्हें अब तक वह घुट-घुट कर सहती आ रही थी, एक-एककर उसके होठों पर उभर आयीं। उसने निशान्त को अपनी पूरी जिंदगी और शेखर की आवारगी के बारे में सच-सच बता दिया।

'इसी सबके कारण यहाँ आई हूँ। वरना अपना पुश्तैनी घर और माँ, पिताजी की यादों को छोड़कर क्यों चली आती?' पूरी कहानी सुनाने के बाद मीताली बोली। उस वक्त उसकी आँखें सजल हो आई थीं।

वर्षों से उसके मन में दबा गुबार आंसुओं के रूप में बहने लगा। निशान्त चुप रहा। काफी देर तक मीताली के आँसू न रुके तो वह उसके पास जाकर खड़ा हो गया। उसने अपना हाथ मीताली की पीठ पर रखा, जैसे उसे ढांढस दे रहा हो।

कई वर्षों के बाद किसी का प्रेम भरा स्पर्श मीताली को मिला। उसने निशान्त का हाथ पकड़कर अपने गीले गालों पर रख दिया। फिर एकाएक न जाने क्या हुआ कि उसने झटके से हाथ छोड़ दिया और आँसू पोछते हुए बोल पड़ी, 'मैं भी कहाँ की बातों को लेकर बैठ गयी? प्लीज आप बैठिए, मैं चाय बनाकर लाती हूँ।' और वह उठकर जाने लगी।

निशान्त ने उसका हाथ पकड़ लिया, नहीं मीताली, इस समय मुझे चाय नहीं पीनी। कल शहर जाना है, दो-तीन दिन के लिए। कुछ आवश्यक कार्य है, शहर जाने से पूर्व निबटाने हैं।'

इतना कहते हुए दोनों की नजरे मिलीं तो मीताली ने लज्जावश नजरें झुका लीं। वह निशान्त की नजरों का सामना नहीं कर पायी। दिल धड़क रहा था उसका।

'अच्छा अब मैं चलता हूँ।' निशान्त एक प्यार भरी निगाह मीताली पर डालकर आश्रम की ओर चल पड़ा।

 

सत्रह

कर्नल विक्रम सिंह आई.सी.यू. में दाखिल हुए। मीताली उसी मुद्रा में बेंच पर निशान्त के हाथ में अपना हाथ दिये बैठी थी, जिस मुद्रा में वे उसे छोड़ कर गये थे। फर्क सिर्फ इतना था उसने अपनी गर्दन निशान्त के बिस्तर से टिकाई हुई थी। शायद बैठे-बैठे थक गयी होगी और आँख लग गयी होगी', कर्नल ने सोचा।

निशान्त गहरी नींद में सो रहा था, उन्होंने उसे उठाना उचित नहीं समझा। हल्के से उन्होंने मीताली के कंधे पर हाथ रखा। चौंककर गर्दन उठा दी मीताली ने।

'अंकल आप कब आये?' मीताली हड़बड़ाकर उठते हुए बोली।

'बस अभी-अभी आया हूँ'। कर्नल ने होठों पर उँगली रखकर मीताली को धीरे से बात करने का इशारा करते हुए कहा ताकि कहीं निशान्त जाग न जाये।

'अंकल कहाँ तक पहुँची पुलिस की जाँच?' मीताली ने धीरे से पूछा।

'कुछ नहीं, जहाँ की तहाँ। खानापूर्ति के लिए अँधेरे में हाथ-पैर मार रही है'। कर्नल ने जवाब देते हुए कहा, 'क्या तुमने निशान्त से कुछ पूछा'।

'कुछ नहीं बताया उन्होंने। या तो उन्हें कुछ मालूम नहीं, या फिर कुछ छिपाना चाहते हैं'। मीताली बोली।

इससे पहले की कर्नल विक्रम कुछ बोलते, निशान्त ने आँखें खोल दी।

'कैसे हो निशान्त?' कर्नल ने पूछा।

'अच्छा हूँ अंकल। लेकिन लगता है मैंने आप लोगों को खूब परेशान कर दिया है'। निशान्त बोला।

'अरे नहीं ऐसी बात नहीं है। मैं तो फौजी हूँ, न जाने कितनी रातें गुजारी हैं जागते हुए। हाँ मीताली थक गयी होगी। चाय वगैरह पी कि नहीं?' कर्नल ने मीताली को पूछा।

'नहीं अंकल मैं एकदम ठीक हूँ और चाय-वाय की इच्छा कुछ भी नहीं है'। मीताली ने उत्तर दिया।

'आप कहाँ गये थे अंकल? निशान्त ने पूछा।

मैं पुलिस इंस्पेक्टर के पास गया था, ताकि पता चल सके कि उनकी जाँच कहाँ तक पहुँची'। कर्नल बोले।

'तो क्या पता चला?' पूछा निशान्त ने।

'कुछ नहीं। अभी तो उनके शक की सुई संस्था के कर्मचारियों की ओर ही घूम रही है'। कर्नल ने निशान्त के चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश की, 'वे संस्था के एक-एक कर्मचारी से पूछताछ कर रहे हैं।'

चौंक गया था निशान्त और उसका यह भाव कर्नल ने साफ-साफ पढ़ा।

'क्या? पुलिस कर्मचारियों पर शक कर रही है? अंकल इंस्पेक्टर से मेरी बात कराइये। मैं उन्हें बताऊंगा कि कर्मचारियों का इस घटना से कोई लेना-देना नहीं है।' निशान्त के स्वर में उत्तेजना थी।

'तुम आराम करो निशान्त, अभी तुम्हारी स्थिति ठीक नहीं है। मैं स्वयं इंस्पेक्टर से कह दूंगा कि वे तुम्हारे कर्मचारियों को परेशान न करें।' कर्नल ने उसे शांत करते हुए कहा और फिर मीताली की तरफ मुखातिब होते हुए बोले, 'मीताली अब तुम घर जाओ, अँधेरा घिर आया है। वैसे भी सुबह से तुम थक चुकी होगी। चलो मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूँ।'

'नहीं अंकल! मैं स्वयं चली जाऊँगी।' मीताली कहती रह गयी किंतु कर्नल उसके साथ हो लिये और उसको घर के दरवाजे तक छोड़कर ही वापस लौटे।

मीताली को रात भर नींद नहीं आयी। निशान्त का चेहरा बार-बार उसकी आँखों में घूम जाता। शेखर दो दिन से अभी तक घर नहीं आया था। यों भी वह अक्सर बाहर ही रहता था। शेखर का ध्यान आते ही उसके दिल के किसी कोने में एक शंका-सी उभरी, 'कहीं शेखर का हाथ तो नहीं इस घटना के पीछे। नहीं, नहीं ऐसा भला क्यों होगा। शेखर तो अब अच्छा आदमी बन गया है। उसे सुधारने में भी तो निशान्त का हाथ है, फिर वह क्यों...? छिः कितने गंदे ख्याल आ रहे हैं उसके दिल में?'

मीताली को अच्छे से याद है कि जब वह शेखर को बिना बताये सब कुछ छोड़-छोड़कर इस कस्बे में आ गयी थी तो छह महीने बाद शेखर उसे ढूंढते हुए वहाँ पहुँच गया था। न जाने कहाँ से उसे पता चला गया था कि दीदी इस कस्बे में हैं।

शेखर अत्यंत घबराया हुआ और परेशान-सा था। निशान्त ने ही उसे समझाया था और सब कुछ छोड़कर इस कस्बे से नया जीवन शुरू करने हेतु प्रेरित किया था। शेखर ने उससे माफी माँगते हुए कहा था, 'दीदी थक गया हूँ अब इस छिपने-छिपाने के खेल से। अब व्यवस्थित होना चाहता हूँ। मीताली ने फिर भी विश्वास नहीं किया था उस पर, इस पर निशान्त ने कहा था, 'देखो मीताली! शेखर को मौका दिया जाना चाहिए।' फिर निशान्त ने उसे अपनी संस्था में ही काम दे दिया था। तब से शेखर ठीक-ठाक काम कर रहा था। वह अक्सर संस्था के काम से बाहर ही रहता था। मीताली की नजरों में वह अब सुधर चुका था।

मीताली सोचने लगी, 'क्या सचमुच निशान्त ने अपने हमलावारों को पहचाना नहीं या फिर जान-बूझकर वह उनकी पहचान छुपाना चाहता था?'

पिछले कुछ दिनों से उसने निशान्त को कुछ परेशान-सा व विचलित-सा महसूस किया था। इस बीच जब निशान्त घर आया था तो मीताली ने पूछा था उससे, 'क्या बात है निशान्त! कुछ परेशान से लग रहे हो?'

'नहीं ऐसी कोई बात नहीं, तुम्हें ऐसा क्यों लग रहा है?' निशान्त ने उल्टा उसी से प्रश्न किया।

'मुझसे कुछ छिपा रहे हो निशान्त! तुम्हारी शक्ल और तुम्हारी आवाज बता रही है।' मीताली बोली।

'ऐसी क्या बात है मेरी शक्ल और आवाज में आज?' निशान्त ने फिर प्रश्न किया।

'ये तो पता नहीं, किंतु कुछ न कुछ तो है जो तुम मुझसे छिपा रहे हो।' मीताली मासूमियत से बोली।

कुछ देर खामोश रहा निशान्त, मानो कुछ सोच रहा हो। खामोशी को भंग करते हुये मीताली ने फिर उसे छोड़ा, 'क्या सोच रहे हैं?'

'अच्छा ये बताओं तुम कैसे समझ लेती हो? तीसरी आँख है क्या तुम्हारे पास?' निशान्त बोला। लगता था मानो हथियार डाल दिये हों उसने मीताली के सामने।

'हाँ तीसरी आँख तो है ही, जो तुम्हारी भावना, तुम्हारी मनःस्थिति और तुम्हारे दिल की बातों को भाँप जाती हूँ। तुम्हारे मन के अंदर सीधे झाँक लेती हूँ।'

'वैसे कुछ खास नहीं, तुम मानोगी नहीं। थोड़ा-बहुत तो ऐसा चलता रहता है।' निशान्त बोला। परंतु उसे खुद प्रतीत हुआ जैसे उसकी आवाज किसी गहरे कुएँ से निकल रही हो।

'जो कुछ भी है बता दो। तुम्हारा मन भी हल्का हो जायेगा।' मीताली ने उसे उकसाया।

निशान्त ने मीताली का हाथ अपने हाथ में ले लिया, 'मीताली कुछ लोग आजकल हमारी संस्था का दुष्प्रचार कर रहे हैं। कुछ दिनों पहले एक स्थानीय समाचार-पत्र को किसी ने ऐसा ही अनर्गल समाचार भेजा था। अखबार का संपादक चूँकि मेरा मित्र था इसलिए उसने वह मिथ्या खबर समाचार-पत्र में छपने से रोक दी थी वरना...।' निशान्त के हाथों का दबाव मीताली की हथेलियों पर बढ़ता जा रहा था। इस दबाव को मानक मानकर मीताली ने उसके तनाव की तीव्रता का आकलन कर लिया था।

'समाज में अच्छा काम करोगे तो कुछ लोगों को तो बुरा लगेगा ही।' मीताली बोली, 'कुछ लोग स्वयं अच्छा तो नहीं कर पाते किंतु अच्छा कार्य करने वाले की टाँग जरूर खींचते हैं।'

'यही तो मैं भी कह रहा था कि यह कोई खास बात नहीं है, किंतु तुम तो मानती ही नहीं।' निशान्त बोला।

'तो तुमने पता नहीं किया कौन लोग हैं वे?' मीताली ने पूछा।

'नहीं।' निशान्त ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, 'अच्छा अब हम इस विषय पर बात नहीं करेंगे।'

मीताली सोच रही थी, 'बाहर से इतना मजबूत और शांत-सा दिखने वाला निशान्त उसके पास आकर इतना छोटा कैसे बन जाता है? न तो अपनी खुशी छुपा पाता है और न ही दु:ख। इसका कारण तलाशने पर मीताली को लगा शायद निशान्त के बचपन का वातावरण इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदार हो सकता है।

रात भर मीताली कुछ न कुछ सोचती रही। कभी अपने बारे में कभी निशान्त के बारे में, लेकिन हर बार उसकी सोच निशान्त के हमलावरों पर आकर ठहर जाती। आखिर वे लोग होंगे कौन? और क्यों निशान्त की जान लेना चाहते थे? हमलावरों के बारे में सोचते हुए बार-बार शेखर पर आकार शंका टिक जाती...।

 

अठारह

'कहाँ से आ रही हो इतनी रात गये?' घर में मौजूद शेखर ने मीताली को घर के अंदर प्रवेश करते ही पूछा। न दुआ न सलामी, तीसरे दिन घर में लौटा है और अचानक यह सवाल। मीताली अचकचा गयी थी इस अचानक किये सवाल से।

शेखर के सवाल को अनसुना कर मीताली ने उससे ही पूछा, 'तुम कब आये शेखर?' लेकिन शेखर ने उसका जबाब नहीं दिया उसने अगला प्रश्न दागा, 'मेरे सवाल का जबाब नहीं दिया तुमने?'

'अस्पताल से।' मीताली ने संक्षिप्त जबाब दिया।

'निशान्त से मिलने गयी होगी।' व्यंग्यात्मक भाव से बोला शेखर।

'तुम जानते हो तो पूछ क्यों रहे हो?' मीताली ने कड़वाहट के साथ कहा।

'जानता था, फिर भी तुम्हारे मुँह से सुनना चाहता था।' शेखर ने भी उसी अंदाज में कहा।

तनाव पसर गया था घर के अंदर। मीताली अब क्या जवाब दे। आज जैसे ही वह अस्पताल से घर पहुँची तो घर के अंदर बत्तियाँ जली देखकर उसने अंदाज लगाया कि शेखर घर पहुँच गया है। लेकिन शेखर का तो जैसे मिजाज ही बदला हुआ था। आते ही सवाल-जबाब शुरू कर दिये थे। कल रात भर नींद नहीं आयी थी मीताली को। सुबह की प्रतीक्षा में बार-बार वह दीवार पर लगी घड़ी की तरफ देखती, समय मानो थम गया हो। पाँच बजते ही वह बिस्तर से उठ खड़ी हो गयी। समय काटे नहीं कट रहा था। उसने चाय बनायी, एक कप चाय खुद पी और दो कप थर्मस में भर दी। बाहर हल्का उजाला हो गया था वह तैयार होकर अस्पताल के लिए चल दी थी।

अस्पताल पहुँचते-पहुँचते उसे छह बज गये। कर्नल विक्रम सिंह उठ चुके थे जबकि निशान्त अभी सोया हुआ था। उसे देखते ही कर्नल बोले, 'अरे बेटी आज तो तुम सुबह-सवेरे ही आ गयी! चलो अच्छा है गर्मा-गर्म चाय मिल गयी।'

अपने उतावलेपन पर लज्जित हो गयी थी मीताली। उसने थर्मस से एक कप चाय निकालकर कर्नल की तरफ बढ़ा दी।

चाय पीकर कर्नल बाथरूम में घुस गये, मीताली ने हल्के से निशान्त के सिर पर हाथ फेरा तो उसने आँखें खोल दीं।

'कैसे हो अब?' मीताली ने पूछा।

'अच्छा हूँ! लेकिन तुम इतनी सुबह?' निशान्त ने आश्चर्य से पूछा।

'बस चली आयी। जल्दी नींद खुल गयी थी तो घर में बैठे-बैठे भी क्या करती?' मीताली ने सफाई दी।

'मैंने तुम सब लोगों को काफी परेशान कर दिया।' निशान्त ने मानो लज्जित होकर कहा।

'हम लोग क्यों परेशान होने लगे भला, तुम अच्छे हो जाओ यही हम सबके लिए बड़ी बात है,' मीताली प्यार से बोली।

पिछले तीन दिनों से वह लगातार निशान्त की सेवा में जुटी हुई थी। सुबह ही अस्पताल पहुँच जाती और फिर अँधेरा घिरने पर ही घर लौटती।

आज घर में शेखर पहले से ही मौजूद था, पूरे तीन दिन बाद लौटा है। उसी दिन उसने फोन पर शहर जाने की खबर दी थी, जिस दिन निशान्त शहर से लौट रहा था और उस पर हमला हुआ था।

लेकिन आने के बाद उसने निशान्त के हालचाल के बारे में कुछ न पूछते हुए उल्टे सवाल करने शुरू कर दिये थे। क्या हो गया है इस लड़के को? आखिर निशान्त ने ही तो उसे नयी दिशा दी थी, यह भी भूल गया क्या वह?

'शेखर निशान्त जी पर किसी ने जानलेवा हमला किया है, वह तीन दिन से अस्पताल में भर्ती हैं।' मीताली ने शांत होकर कहा।

'मालूम है।' शेखर लापरवाही से बोला, 'अपने कर्मों की सजा मिली है उसे, जरा पूछो तो उससे क्यों हमला हुआ है उस पर?

'शेखर बोलने से पहले सोच लिया करो, निशान्त ने नयी जिंदगी दी है तुम्हें, उनके बारे में ऐसी बातें करना तुम्हें शोभा नहीं देता।' मीताली ने तनिक कठोर लहजे में कहा।

'ठीक कह रहा हूँ मैं! तुम नहीं जानती उसके बारे में, समाज सेवा के नाम पर ढोंग करता है वह।'

दंग रह गयी मीताली उसकी बातों से, आज इसे हो क्या गया है। ठीक-ठाक तो काम रहा था पिछले दिनों संस्था में, फिर अचानक निशान्त के प्रति यह नफरत क्यों?'

'शेखर तुम पागल हो गये हो, सोच समझकर बोला करो। कहीं किसी ने सुन लिया...?

मीताली अपना वाक्य पूरा कर पाती इससे पहले ही शेखर बोल उठा, 'सोच-समझकर ही बोल रहा हूँ। ढोंगी है वह, समाजसेवा की आड़ में आश्रम में रहने वाली लड़कियों का शोषण करता है।'

'चुप करो शेखर!' मीताली अब की बार लगभग चिल्लाकर बोली, 'क्या प्रमाण है इसका तुम्हारे पास?'

'प्रमाण भी दूँगा दीदी, तुम तो अंधी हो गयी हो इसके प्यार में, बिना प्रमाण के नहीं मानोगी।' और शेखर पाँव पटकते हुए तेजी से अपने कमरे में चला गया।

उसकी बातें सुनकर दंग रह गयी मीताली, आज से पहले उसने निशान्त के लिए कभी ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं किया था, फिर यह अचानक...?

उस रात दोनों ने खाना नहीं खाया, बल्कि घर में खाना बना भी नहीं। मीताली सोचती रही आखिर क्यों शेखर ने निशान्त के बारे में ऐसी बातें कही हैं? कहीं निशान्त...। नहीं-नहीं, उसका निशान्त ऐसा नहीं हो सकता, वह दो वर्षों से लगातार निशान्त को देख रही है। उसके हर रूप और हर रंग से रु-ब-रु है वह, जरूर शेखर को कुछ गलतफहमी हुई है या फिर किसी ने भड़काया है उसे।

...कहीं शेखर उन हमलावरों के दबाव में तो नहीं है, लेकिन ऐसा होता तो उसे कुछ तो आभास होता, वह तो सब ठीक-ठाक मानकर ही चल रही थी। पिछले एक वर्ष से आश्रम का काम कर रहा था शेखर।

...कहीं शेखर फिर अपनी पुरानी राह पर तो नहीं चल दिया? क्या पता...? नवयुवक है। परंतु नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। यहाँ नौकरी करने के बाद तो उसने कभी शिकायत का मौका दिया नहीं।

सोचती रही मीताली और सोचते-सोचते न जाने उसे कब नींद आ गयी उसे नहीं मालूम। सुबह जब उसकी नींद खुली तो शेखर का कमरा बंद था। वह जा चुका था। मीताली भी जल्दी से तैयार हुई, आज निशान्त भी अस्पताल से आश्रम लौटने वाला है। चार दिन हो गये हैं, वह अब चिंतित भी हो गयी थी। कहीं शेखर फिर पुरानी राहों का राहगीर न बन गया हो...?

अपनी चिंता वह किससे व्यक्त करे। अभी निशान्त इस स्थिति में था कि उसे कुछ भी बताना ठीक नहीं था।

वह अस्पताल पहुँची तो निशान्त आज पहले की अपेक्षा कुछ अधिक स्वस्थ और प्रसन्नचित्त था, शायद घर जाने की खुशी थी उसे। हालाँकि वह पूरी तरह स्वस्थ नहीं था, फिर भी डॉक्टर ने उसे आराम करने की सलाह दी थी और घर में ही नियमित उसकी जांच और इलाज हेतु स्वयं आ जाने का आश्वासन भी दिया था।

मीताली निशान्त को लेकर अस्पताल से आश्रम लौट आई थी।

 

उन्नीस

मीताली ने शेखर के साथ घर पर आई उस युवती को अर्थपूर्ण नजरों से देखा। वह उसे अच्छी तरह पहचानती थी। शालिनी नाम था उसका, पिछले एक वर्ष से आश्रम में रह रही थी वह। सुंदर और आकर्षक। माँ-बाप नहीं थे, दर-दर की ठोकर खा रही थी तो किसी ने आश्रम में पहुँचा दिया था।

'दीदी तुम्हें प्रमाण चाहिए था न, ये शालिनी है प्रमाण! जीता-जागता प्रमाण।' शेखर ने मीताली से कहा।

ओह! तो निशान्त के विरुद्ध गवाह बनाकर लाया है शेखर इसे। मीताली ने उसे बैठने का इशारा किया तो वह बैठ गयी।

'बताओ शालिनी दीदी को सब कुछ बता दो।' शेखर ने शालिनी से कहा और स्वयं कमरे से बाहर चला गया।

किसी टेपरिकॉर्डर की तरह शुरू हो गयी शालिनी।

'दीदी निशान्त जैसा दिखता है, दरअसल वैसा नहीं है। आश्रम में रहने वाली महिलाओं और खासकर कम उम्र की लड़कियों का शोषण करता है वह। शुरू में उनके बारे में शुभचिंतक होने का ढोंग रचता है। धीरे-धीरे उनके बारे में पता लगाता है और जब उसे विश्वास हो जाता है कि लड़की गरीब और बेसहारा है तो उसका मानसिक और शारीरिक शोषण शुरू कर देता है।'

अपनी बात कहकर शालिनी ने सिर झुका दिया। मीताली की इच्छा हुई कि उसके गाल पर दो थप्पड़ रसीद कर दे, किंतु कुछ सोचकर वह चुप रह गयी।

'तुम यह सब कैसे जानती हो?' मीताली ने पूछा।

'क्योंकि मैं खुद उसके शोषण का शिकार हूँ।'

'तो फिर आज तक विरोध क्यों नहीं किया?'

'कैसे विरोध करेंगे उसका? सभी बड़े-बड़े लोगों और अधिकारियों से उसके संपर्क हैं।' शालिनी बोली।

'तो फिर क्यों सह रही हो सब कुछ, चली क्यों नहीं गयी यहाँ से? सरकार ने तो कई आश्रम बना रखे हैं बेसहारा महिलाओं के लिये।' मीताली ने फिर सवाल किया।

'दीदी क्या जाने वहाँ इससे भी बुरे हालात हों, यहाँ तो एक ही निशान्त है वहाँ न जाने और कितने निशान्त होंगे? शालिनी व्यंग्य के साथ बोली।

कोई जवाब न देते बना और न कोई सवाल पूछते बना मीताली से। शालिनी ही आगे बोली, 'दीदी तीन माह का गर्भ है मुझे किंतु मैंने उसे नहीं बताया, वरना वह इस पाप को कब का गिरा चुका होता। अस्पताल के डॉक्टर और आश्रम की अन्य महिलाएँ मिली हुई हैं उससे।' कहते-कहते शालिनी की आँखों में आँसू आ गये, 'दीदी मैं शेखर से प्यार करती हूँ वह भी मुझसे विवाह करना चाहता है। मेरी हालत देखकर बौखलाया हुआ है और कहता है कि निशान्त का पर्दाफाश करके रहेगा। मुझे तो लगता है, कहीं शेखर का कुछ बुरा न हो जाये।' और वह फफक-फफककर रोने लगी।

कर्तव्यविमूढ़ हो गयी मीताली। किस पर विश्वास करे और किस पर नहीं? उसकी समझ में नहीं आ रहा था। अपने मन पर, जिसने निशान्त को चाहा, देखा और परखा है? या फिर शालिनी और शेखर पर जो दृढ़ता से निशान्त पर आरोप लगा रहे हैं?

एकाएक विश्वास नहीं किया था उसने भी निशान्त पर। दो वर्षों तक उसको देखा और परखा है, उसके चरित्र और आचरण के एक-एक पहलू का स्वयं विश्लेषण किया है उसने।

सुगंधा वाले प्रकरण के बाद उसका आश्रम में लगभग रोज ही आना-जाना हो गया था। मीताली के कहने पर ही निशान्त ने सुगंधा के बारे में इधर-उधर से जानकारी जुटानी शुरू की थी। रेलवे के कर्मचारियों से लेकर सुगंधा के कॉलेज तक कहाँ-कहाँ नहीं भटका था निशान्त और फिर सुगंधा के सुशांत का पता-ठिकाना तक ढूंढ लिया था उसने।

सुशांत को आश्रम तक लाया था वह। तब पता चला कि दोनों के बीच एक छोटी-से गलती से सुगंधा की जान पर बन आई थी। दरअसल जिस रात सुशांत ने सुगंधा को रेलवे स्टेशन बुलाया था उसी दिन उसे अपनी माँ की मृत्यु का समाचार मिला तो वह गाँव चला गया था। सुगंधा को सूचना तक नहीं दे पाया था। और गलतफहमी की शिकार हुई सुगंधा यहाँ तक पहुँच गयी थी।

सुशांत का मन उसे धोखा देने का नहीं था, वह अभी भी सुगंधा को बहुत प्यार करता था। वापिस लौटने पर उसने सुगंधा की बहुत खोज की और आज तक उसे ढूँढ रहा था।

अंततः निशान्त ने सुगंधा के परिवार से संपर्क करके आश्रम में ही उनकी शादी करवाई और उनका एक नया संसार बसाया था।

सुगंधा की विदाई के वक्त बहुत भावुक हो गया था निशान्त। स्वयं मीताली की भी आँखें भर आई थी। उसको दो-तीन महीनों में सुगंधा से बहुत लगाव हो गया था।

यदि निशान्त के दिल में पाप होता तो वह सुगंधा की मदद क्यों करता? उसका शोषण क्यों नहीं किया उसने? किंतु...। मीताली फिर नकारात्मक भी सोचने लगी, किंतु ऐसा भी हो सकता है कि मीताली पर प्रभाव डालने के लिये ही उसने यह सब किया हो?

और जब मीताली नकारात्मक दिशा में सोचने लगी तो और भी कई बातों में उसे शंका नजर आने लगी। उसे याद आया, बात-बात में निशान्त ने उससे आश्रम में आने के लिये भी मना करते हुए कहा था, 'तुम्हारे पास समय कम है। तुम अपनी पढ़ाई किया करो, आश्रम का काम तो कोई और भी देख लेगा।' मीताली ने सोचा, तो क्या यह भी उसे आश्रम से दूर रखने का बहाना था?

शालिनी अभी भी सुबक रही थी। मीताली उठकर चहलकदमी करने लगी। उसके मन में अंतर्द्वंद्व का एक बवंडर जो खड़ा हो गया था, वह उसे कैसे शांत करे? किस्से अपने मन की बात कहे? पिता की मृत्यु के बाद आज पहली बार उसे अहसास हुआ कि वह इस दुनिया में पूरी तरह अकेली है। निशान्त के दूसरे रूप की कल्पना मात्र से ही उसके सारे सपने किसी रेत के महल की तरह भरभराकर ध्वस्त हो गये।

क्या उसकी किस्मत में सुख-चैन और प्यार नहीं है? युवावस्था में घर-परिवार के बोझ तले दबी रही। जिम्मेदारियों के अतिरिक्त कुछ भी नजर आया ही नहीं उसे। उसकी आँखों में कोई सपना नहीं पला था कभी।

लोगों के प्यार-प्रेम के किस्से सुनकर वह सोचती थी, इन लोगों के पास काम धाम नहीं होगा करने के लिये, जो ऐसी अनर्गल बातों पर समय बर्बाद करते हैं।

लेकिन जब उसे इसका अहसास हुआ तो उसे लगा कि वह आज तक खूबसूरत और सुखद अहसास से क्यों वंचित रही? निशान्त के प्यार ने उसके जीवन में एक बहार लाकर रख दी थी। एक उत्साह भर गया था उसके जीवन में। मानो मन का पंछी मुक्त गगन में उड़ान भरने लगा था।

लेकिन आज...। आज जैसे एकाएक पर कतर गये हों इस पंछी के, और हकीकत की जमीन पर घायल होकर धम्म से गिर पड़ा हो जैसे।

'चलो शालिनी मैं तुम्हें छोड़ आता हूँ।' शेखर ने कमरे में आकर कहा तो मीताली की तंद्रा टूटी, अपने को सामान्य कर लिया उसने। दिल का दर्द वहीं दबा कर चेहरे पर नहीं आने दिया।

'दीदी आपको आगाह करना मेरा फर्ज था, सो कर दिया। आगे आप जैसा चाहो, करो। आपकी मर्जी।' शेखर ने अपेक्षाकृत नम्र स्वर में कहा और शालिनी को लेकर बाहर निकल गया।

उनके जाते ही जैसे मीताली अपने आप को संभाल नहीं पायी और धम्म से बिस्तर पर गिर गयी। रुलाई फूट गयी उसकी, खूब रो लेने के बाद उसका मन कुछ हल्का हुआ। शालिनी और शेखर की बातें उसके जेहन से बाहर नहीं हो पा रही थी।

उसका मन दुविधा में फँसा हुआ था। उसने निशान्त के जिस रूप की कल्पना तक नहीं की थी, आज उस रूप का खाका खींचा था शालिनी और शेखर ने उसके दिल में। लेकिन क्या उन पर आँख मूँदकर विश्वास कर लेना चाहिए? उसने तनिक ठंडे मन से सोचा। आखिर एक बार निशान्त को भी तो पूछना चाहिए, उसकी सफाई भी तो सुननी चाहिए।

मीताली ने निर्णय लिया कि आखिर जो भी हो वह निशान्त से इस विषय पर साफ-साफ बात करेगी। निष्कर्ष चाहे जो भी निकले वह तभी आगे की राह तय करेगी।

अपने को सहज कर निशान्त से पूछने आश्रम की ओर चल दी थी मीताली, किंतु निशान्त की हालत देख उससे कुछ पूछने का साहस नहीं जुटा पायी।

 

बीस

'हेलो!' फोन की घंटी बजते ही मीताली ने फोन उठाया।

'हेलो!' मीताली कैसी हो तुम?' निशान्त का स्वर था।

'मैं ठीक हूँ, तुम कैसे हो?' मीताली ने बुझे स्वर में कहा।

'मैं एकदम ठीक हूँ, लेकिन तुम ठीक नहीं लग रही हो।' निशान्त उसके भाव को पहचानता हुआ बोला।

'नहीं, मैं ठीक हूँ।' बोली मीताली।

'झूठ बोलती हो, अच्छा ऐसा करो तुम स्कूल से आज सीधे मेरे घर चली आना।' निशान्त उसका मूड भांपते हुए बोला।

'नहीं, आज नहीं।'

'क्यों, आज क्यों नहीं?' निशान्त ने आश्चर्य से पूछा, 'क्यों तबीयत खराब है क्या?'

'नहीं तो।' मीताली फिर बोली।

'तो फिर मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा।' कहते ही निशान्त ने रिसीवर रख दिया।

एक लंबी साँस छोड़ी मीताली ने। आज सचमुच में निशान्त से बात करने का उसका मन नहीं कर रहा था। मीताली सोचने लगी आखिर ऐसा कब तक चलेगा, निशान्त से सीधी तौर पर तो बात करनी ही पड़ेगी। यदि वह इसी तरह कटती रहेगी तो स्वयं भी धोखे में रहेगी और निशान्त को भी धोखे में रखेगी। इसलिए उसने आज सायं निशान्त के घर जाने का मन बना लिया।

सायं को स्कूल से छुट्टी के पश्चात् वह सीधे निशान्त के घर चली गयी।

'आओ मीताली।' उसको देखते ही निशान्त प्रसन्नता से बोला, 'सीधी स्कूल से आ रही हो न, खाना भी नहीं खाया होगा?'

'नहीं! मेरी इच्छा नहीं है खाने की।' मीताली बोली सचमुच में उसे भूख भी नहीं थी।

उसे याद आया, इसी घर में न जाने कितनी बार उसने स्वयं अपने हाथों से खाना बनाकर निशान्त को खिलाया है। अपने हाथों से बनाकर निशान्त को खिलाने में और उसके चेहरे पर संतुष्टि देखकर मीताली को बहुत प्रसन्नता होती और एक अलग तरह के आनंद की अनुभूति भी होती।

लेकिन आज यह घर उसे पराया-सा लग रहा है। सुबह से कुछ न खाने के बावजूद उसकी भूख मर गयी।

'मीताली कहाँ खो गयी तुम? कुछ परेशान-सी लग रही हो?' निशान्त की आवाज सुनकर मीताली चौंकी।

'नहीं ऐसी कोई बात नहीं।' मीताली ने जबाब दिया।

रामदीन काका दो कप चाय ले आया, 'बेटी थकी होंगी, पहले चाय पी लो, फिर खाना लगा देता हूँ।' मेज पर चाय रखते हुए रामदीन बोला।

चाय पीने के दौरान दोनों के बीच कोई विशेष बातचीत नहीं हुई। चाय पीने के पश्चात् मीताली बोली- 'निशान्त तुम शालिनी को कितना जानते हो?'

'ये कैसा सवाल है? मैं उसे उतना ही जानता हूँ जितना कि तुम।' निशान्त ने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसे देखा, 'परंतु ये सब क्यों पूछ रही हो?'

'क्या तुम सचमुच उतना ही जानते हो, जितना मैं? कल शालिनी मेरे पास आई थी और तुम्हारे बारे में मुझे सब कुछ बता दिया।' मीताली ने निशान्त के भाव पढ़ने की कोशिश की।

'मेरे बारे में ऐसी कौन-सी बात है जो तुम्हें पता नहीं और शालिनी ने तुम्हें बताई है? मुझे तो सिर्फ इतना पता है कि शालिनी आश्रम में रहने वाली एक बेसहारा लड़की है, ठीक अन्य महिलाओं की तरह।'

'तो फिर बताओ तुम पर ये हमला किसने और क्यों किया? कौन हैं वे लोग और क्यों तुम्हारे पीछे पड़े हैं? अखबार में समाचार देने वाला कौन था?' मीताली ने सीधे प्रश्नों की झड़ी लगा दी।

'मीताली, मैंने पहले भी कहा है कि मैं हमलावरों को नहीं जानता। मैंने यह भी कहा कि इस बात को यहीं समाप्त कर देना चाहिए।' निशान्त ने शांत भाव से कहा।

'क्यों समाप्त कर देना चाहिए, ताकि मैं तुम्हारी असलियत न जान सकूँ? तुम्हारे कारनामों की वजह से लोग तुम्हारे दुश्मन बन गये हैं, मैं यह बात न जान सकूँ?' आक्रमण पर आ गयी थी मीताली।

'ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे तुम जान जाओगी तो फर्क पड़ेगा। मैं इस बारे में कुछ भी बात नहीं करना चाहता। निशान्त ने उसे समझाने की कोशिश की।

'नहीं निशान्त! तुम्हें इस बारे में बात करनी ही होगी, क्योंकि इस पर हमारा भविष्य टिका है। शालिनी ने तुम पर जो आरोप लगाये हैं उसका स्पष्टीकरण चाहिये मुझे। मुझे यह भी बताओ कि उसके अलावा आश्रम की कितनी और महिलाओं से संबंध हैं तुम्हारे? शालिनी तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली है, छिः! मुझे तो यह कहते हुए भी शर्म आ रही है। मैंने क्या समझा था तुम्हें और तुम क्या निकले।' आवेश में मीताली बोलती चली गयी। बोलते हुए उसकी आँखों में आँसू भी निकल आये।

दूसरे ही क्षण उसने अपने आप को संभाल लिया, निशान्त के सामने कमजोर नहीं पड़ना चाहती थी वह।

और निशान्त को काटो तो खून नहीं। सफ़ेद पड़ चुका था उसका चेहरा।

'मीताली! तुम्हें इतना ही विश्वास है मुझ पर? बस इतना ही कह पाया वह।

'मुझे तुम पर कितना विश्वास है, सवाल इस बात का नहीं है? सवाल यह है कि शालिनी ने जो कुछ तुम्हारे बारे में कहा वह सच है या झूठ? इसका जबाब चाहिये मुझे। क्या तुम पर हुआ हमला इसी का परिणाम नहीं है? इसकी सच्चाई चाहिये मुझे।' मीताली किसी घायल शेरनी की भाँति उग्र हो उठी थी।

'मीताली, मुझे कुछ नहीं कहना, तुम चली जाओ यहाँ से, प्लीज मुझे अकेला छोड़ दो।' और निशान्त स्वयं ही उठकर कमरे से बाहर चला गया।

ठगी-सी रह गयी मीताली, निशान्त क्यों इस बारे में बात नहीं करना चाहता? क्यों अपनी सफाई नहीं देता? इसका मतलब...। मतलब कि शेखर और शालिनी के आरोपों में सच्चाई है।

मीताली कब आश्रम से निकलकर अपने घर पहुँच गयी उसे पता ही न चला। लड़खड़ाते कदमों से वह अपने कमरे में पहुंची और औधें मुँह बिस्तर पर गिर पड़ी। फूट-फूटकर रोने लगी वह, उसका मन चाहता था कि जी भर के रोये वह।

न जाने कितनी देर तक रोती रही वह, रोते-रोते जब थक गयी तो आँख लग गयी और जब आँख खुली तो अँधेरा घिर आया था। काला सन्नता पसरा था कमरे में। उठने की इच्छा न हुई, आज उसे न जाने क्यों यह अँधेरा ही भला लग रहा था।

पिताजी कहते थे संध्या के समय अँधेरा नहीं रखना चाहिये, अपशकुन होता है। लेकिन जो उसके साथ हुआ उससे ज्यादा अपशकुन अब और क्या होना है?

लेटे-लेटे अनेक विचार मन मस्तिष्क में आने लगे। अब वह कैसे जियेगी? सोनाली से क्या कहेगी वह, जो पिछले महीने परिवार सहित यहाँ आई थी? निशान्त के बारे में उसने खुद ही तो बताया सोनाली को। सुनकर सोनाली बहुत खुश हुई थी और जब उसकी भेट निशान्त से हुई तो फूली नहीं समा रही थी वह, 'दीदी आपको इतने वर्षों की तपस्या का बहुत मीठा फल मिला है। बहुत ही अच्छे इंसान हैं निशान्त जी।

अब क्या कहेगी वह सोनाली से कि इतने वर्षों की तपस्या का कितना मीठा फल मिला है उसे? सिर्फ सोनाली से ही नहीं, उन सब लोगों से क्या कहेगी वह जो उसके और निशान्त के संबंधों से विज्ञ थे? और तो और, उसके स्कूल का अधिकांश स्टाफ हमारे संबंध के बारे में जानता है। कैसे मुँह दिखायेगी सबको?

क्या-क्या सपने नहीं देखे थे उसने निशान्त को लेकर और क्या-क्या सपने नहीं दिखाये थे निशान्त ने उसे? उसे लग रहा था कि अब शीघ्र ही उसके सारे सपने सच होने जा रहे हैं।

उसका अपना घर होगा, अपनी एक अलग दुनिया होगी। किंतु आज वह स्वयं को इन सपनों के मकड़जाल में बुरी तरह फंसी हुई पा रही थी, जहाँ से निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था।

धोखा हुआ है उसके साथ, बहुत बड़ा धोखा। निशान्त पर आँख मूंदकर विश्वास करके स्वयं भी धोखा खाया है उसने, उसे एक-एक कर निशान्त की वे बातें याद आने लगी।

 

इक्कीस

'मीताली तुमने कभी समुद्र देखा है?' निशान्त ने उससे पूछा था।

नहीं तो? हमारे छोटे से शहर में कहाँ से समुद्र आया? लेकिन क्यों पूछ रहे हो? मीताली बोली।

'बस यूँ ही! तुम जानती हो समुद्र के पानी का अनंत विस्तार ऐसा लगता है मानो आकाश को छू रहा हो। समुद्र के किनारे गीली रेत पर नंगे पाँव चलना कितना सुकून देता है। लगता है मानो रेट के गीलेपन की ठंडक सिर्फ पैरों तक नहीं बल्कि मन तक पहुँच रही हो। मैं तुम्हारे साथ रेत के उसी स्पर्श को महसूस करना चाहता हूँ।'

मीताली को उसकी ये दार्शनिक बातें समझ में नहीं आयीं तो खिलखिलाकर हँस दी वह। लेकिन निशान्त और गंभीर हो उठा था, अपने दोनों हाथों के बीच मीताली का चेहरा लेकर वह पुनः बोला, मीताली जो कुछ मुझे अच्छा लगता है और जिस चीज से मेरे दिल को शांति मिलती है, वह सब मैं तुम्हारी उपस्थिति में महसूस करना चाहता हूँ। मैं तुम्हें उन सब स्थानों पर ले जाना चाहता हूँ जो मुझे अच्छे लगते हैं, जो मेरे मन को भाते हैं।'

मीताली एकटक उसकी आँखों में झाँकती रही और निशान्त बोलता रहा, 'तुमने पहाड़ भी नहीं देखे न? मैं तुम्हें वहाँ लेकर जाऊँगा। वहाँ आसपास की घाटियों से कोहरा ऊपर की ओर उठता है, तो लगता है जैसे बादल हवा में तैर रहे हों। कभी-कभी ये हमारे इतने समीप होते हैं कि इन्हें मुट्ठी में कैद करने का मन होता है। तुम चलोगी न मेरे साथ?'

मीताली ने हामी भरते हुए सिर हिलाया। भावावेश में उसकी आँखें भर आई तो उसने अपना चेहरा निशान्त के सीने में टीका दिया और निशान्त न जाने कितनी देर तक उसके बालों में अपनी उँगलियाँ फेरता रहा।

कितना प्यार करता है उसे, निशान्त के रूप में एक फरिश्ता दिया है। शायद इतने वर्षों के कड़े संघर्षों का नतीजा है यह।

निशान्त से मिलने के पश्चात् उसके सूने से जीवन में मानों बसंत आ गया हो। जीवन में जोश और उल्लास का संचार हो गया हो। उसके शरीर का एक-एक अंग स्फूर्ति से भरा हुआ लगता है।

उसे याद है निशान्त ने एक दिन गंभीर होकर उससे पूछा था, 'अच्छा बताओं लड़का चाहिए या लड़की?'

'मतलब?' उस अचानक पूछे सवाल पर कुछ समझ नहीं आया था मीताली को।

'मतलब तुम्हें पहले लड़की चाहिए कि लड़का?' फिर वही सवाल दोहराया था निशान्त ने और शरमा गयी थी मीताली।

'धत्! पहले शादी तो होने दो।' शरमाकर कहा मीताली ने।

'हाँ भई हाँ, शादी के बाद की ही तो बात कर रहा हूँ।' निशान्त ने समझाया तो और भी लजा गयी वह।

'मुझे तो लड़की चाहिए, बिलकुल तुम्हारी तरह, सुंदर चुलबुली और प्यारी-सी।' कहा निशान्त ने तो मीताली की नजरें शर्म से झुक गयी।

'छिः! तुम बहुत मज़ाक करते हो।' बड़ी मुश्किल से कह पाई थी वह।

बहुत दूर की सोचता था निशान्त और मीताली की सोच भी उसकी सोच के साथ मिलकर अनंत आकाश में विचरण करने लगती थी। अब कुछ ही समय बाद उनकी शादी भी हो जायेगी और फिर शुरू होगा एक नया संसार।

लेकिन उसका नया संसार शुरू होने से पूर्व ही मानो प्रलयकारी भूकंप आ गया हो। सारे सपने खंडहर में तब्दील हो गए उसके।

सिर्फ उसके ही नहीं, उसकी बहन सोनाली और भाई राहुल के भी सपने जुड़े थे उसके सपनों के साथ। अब वह क्या जवाब दे पायेगी सोनाली और राहुल को? सब अपने परिवार में खुश हैं, उनकी चिंता केवल मीताली को लेकर ही थी, किन्तु जब उन्हें मीताली और निशान्त के बारे में पता चला था, तब से उनकी भी खुशी का ठिकाना नहीं था।

राहुल ने तो अमेरिका में ही अपना घर बसा लिया था। शादी भी अपनी मर्जी से ही की थी उसने। वहीं अमेरिका में ही भारतीय मूल की लड़की निशा उसे पसंद आ गयी थी। उसे तब बहुत दु:ख हुआ जब राहुल ने टेलीफोन पर ही उसे अपनी शादी की सूचना दी थी और जल्दबाज़ी में परिवार के किसी अन्य सदस्य को सूचना तक नहीं दी थी।

आखिर माँ की तरह से ही तो पालन-पोषण, परवरिश की थी उसने राहुल की, किन्तु राहुल ने उसे एक भी बार संदेश देने तक की आवश्यकता नहीं समझी थी। यदि वह अपनी इच्छा बता देता तो मीताली उसके रास्ते में आने वाली नहीं थी। अब तक उनकी खुशियों में ही तो खुश रही थी वह।

दु:ख के साथ-साथ उसे गुस्सा भी आया था राहुल पर, किंतु अब तीन महीने बाद राहुल निशा को लेकर भारत आया तो उसका सारा गुसा काफूर हो गया था।

निशा सचमुच एक सुलझी हुई और संस्कारवान युवती थी। मीताली ने उनके आने से पूर्व ही कई उपहार उनके लिये खरीद लिये थे। निशा ने जब मीताली के पैर छूये तो वह अपने आपको गौरवान्वित महसूस करने लगी। सचमुच राहुल की पसंद भा गयी थी उसे।

'दीदी सचमुच निशान्त जी हीरो हैं। तभी मैं कहता था कि मेरी दीदी देर क्यों कर रही है?' उसने मीताली से कहा।

सुनकर खिलखिलाकर हँस दी थी मीताली, 'शरारती कहीं का।'

राहुल जब वापस अमेरिका लौटने लगा तो बार-बार कहता रहा, 'दीदी बताओ कब शादी है?'

'जब होगी तो तुझे जरूर बुलाउंगी। तेरी तरह थोड़ी ही हूँ मैं।' मीताली ने ऐन वक्त पर पत्ता मारा।

'लेकिन मुझे कम से कम एक माह पहले सूचना देनी पड़ेगी, तभी मैं आ पाऊँगा।' कहा था राहुल ने।

'एक माह नहीं पूरे तीन माह पहले बता दूँगी तुझे।' मीताली ने कहा।

परंतु अब क्या जबाब देगी वह राहुल को? यही कि जिस पर उसने इतना विश्वास किया था वह धोखेबाज निकला या फिर कुछ और?

अपने आप को एक गहरे भँवर में फंसी पा रही थी मीताली।

क्या करे! कहाँ जाये अब?

क्या एक बार फिर उसे यह कस्बा भी छोड़ना पड़ेगा?

इस उधेड़बुन में उसका दिमाग बिलकुल भी काम नहीं कर रहा था। आज अपना जीवन निरर्थक नजर आ रहा था उसे। अब किसके लिए जिये वह? क्यों जिये?

उसके जीने का उद्देश्य ही समाप्त हो चुका था और विचारों की भटकन उसे दूर बहुत दूर तक ले आई थी...।

 

बाईस

'दीदी! क्या आपने शालिनी के बारे में कुछ पूछा था?' बदहवास-सा शेखर घर के अंदर घुसा और मीताली पर नजर पड़ते ही तुरंत सवाल कर बैठा।

'क्यों ऐसा क्यों पूछ रहा है तू?' मीताली ने प्रश्न किया।

'दीदी शालिनी कल से आश्रम से गायब है।' शेखर बोला।

'हाँ, आपने निशान्त से कहा होगा उसके बारे में, और उसने शालिनी को आश्रम से गायब करवा दिया।' शेखर बेचैनी से बोला।

'शेखर! गयी होगी कहीं, हो सकता है।

आश्रम के काम से ही कहीं गयी हो, तुम इतना परेशान क्यों हो रहे हो?' मीताली ने लापरवाही से कहा।

'नहीं दीदी! मैंने सारा पता करवा दिया, वह कहीं नहीं मिली, जरूर निशान्त ने ही उसे गायब करवा दिया। देखो, ले लिया न उसने बदला?' परेशान शेखर बोला।

'यदि तुम्हें ऐसा लगता है तो पुलिस से संपर्क क्यों नहीं करते?' मीताली ने सलाह देते हुए पूछा।

'पुलिस? नहीं दीदी नहीं!' शेखर दोनों हाथों को कानों पर रखते हुए बोला, 'पुलिस तो निशान्त के कब्जे में है, वह उसके खिलाफ कुछ नहीं करेगी। अब तो मुझे ही कुछ करना होगा।' इतना कहकर शेखर जैसे आया था वैसे ही चला गया, फुर्ती के साथ। तो क्या सचमुच निशान्त ने शालिनी को गायब करवा दिया? क्या वह इस हद तक गिर सकता है कि अपना पाप छिपाने के लिये किसी बेसहारा लड़की के साथ ऐसा जुल्म करे?

क्रोध आ गया मीताली को। शेखर का परेशान हाल चेहरा इस बात की गवाही दे रहा था कि कहीं कुछ न कुछ गड़बड़ अवश्य है। कितना परेशान लग रहा था वह साथ शालिनी के लिए? पहली बार उसके जीवन में कोई लड़की आई है और उसके साथ ऐसी घटना घटे तो भला शेखर भी कैसे बर्दाश्त कर पायेगा?

मीताली का मन हुआ था कि अभी जाकर निशान्त को आड़े हाथों ले, किंतु वह अब उसकी शक्ल भी नहीं देखना चाहती थी, नफरत करती है वह ऐसे इंसान से। गुस्से में उसकी मुट्ठियाँ भिंच गयी।

वह टेलीफोन के नजदीक गयी और निशान्त का नंबर डायल किया 'हेलो!' वह बोली।

'…।' उधर से कोई आवाज नहीं। तो उसका मतलब है निशान्त उससे बात तक नहीं करना चाहता। मीताली का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया, फिर तो उसने एक तरफ से बोलना शुरू कर दिया, 'बहुत बड़े समाजसेवक बनते हो न, शालिनी ने तुम्हारी सेवा? इतना बड़ा नाटक करते हुए तनिक भी शर्म नहीं आती तुम्हें? शालिनी ने तुम्हारी करतूतों का पर्दाफाश करने की कोशिश की तो उसे ही रास्ते से हटा दिया, मुझे तो शर्म आती है अपने आप पर कि तुम जैसे गिरे हुए इंसान के साथ प्यार किया है मैंने।'

आवेश में उसकी आँखों में आँसू आ गये, उधर से कोई जबाब नहीं मिला तो उसने रिसीवर पटक दिया।

अब मीताली को शेखर की चिंता सताने लगी। कहाँ गया होगा शालिनी को ढूँढने के लिए? दर-दर भटकना पड़ रहा होगा उसे।

खट! खट! खट! दरवाजे पर दस्तक हुई तो मीताली हड़बड़ाकर उठी और दरवाजा खोलते ही उसकी साँस गले में अटक गयी। सामने पुलिस इंस्पेक्टर को खड़ा देखकर उसके पाँवों तले जमीन खिसक गयी? वह कहकर भी गया था कि मुझे ही कुछ करना पड़ेगा, मतलब कि वह निशान्त से जरूर मिला होगा। क्रोध और हताशा में कहीं उसने निशान्त के साथ...। और सोचकर ही मीताली की रूह काँप गयी। नहीं, नहीं... ऐसा नहीं हो सकता, शेखर ऐसा नहीं करेगा।

लेकिन... लेकिन प्यार के आगे व्यक्ति अंधा हो जाता है। शेखर भी अंधा हो गया है शालिनी के प्यार में, प्यार में अंधा आदमी कुछ भी कर गुजर सकता है। यही हालत तो शेखर की भी है आजकल।

मीताली भूल गयी थी कि उसके सामने पुलिस इंस्पेक्टर खड़ा है। उसकी तंद्रा तब टूटी जब स्वयं इंस्पेक्टर उससे बोला, 'मैडम मैं सूरजपुर थाने का इंचार्ज हूँ, इंस्पेक्टर रमेश यादव! आपको अभी मेरे साथ सूरजपुर चलना होगा।'

और मीताली चौंक गयी। सूरजपुर? लेकिन क्यों! सूरजपुर तो लगभग तीस किमी. दूर है यहाँ से। सूरजपुर से उनका कुछ लेना-देना भी नहीं है। आज तक तो वह सूरजपुर गयी तक नहीं, सिर्फ नाम सुना है उसने सूरजपुर का।

'सूरजपुर! आपके साथ? लेकिन क्यों? चौंककर प्रश्न किया मीताली ने।

'जी सूरजपुर अस्पताल में कोई आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।' इंस्पेक्टर बोला।

'किंतु सूरजपुर में तो मेरा कोई नहीं है। अस्पताल में कौन प्रतीक्षा कर रहा है? फिर मैं आपके साथ कैसे चल सकती हूँ?' एक साथ ढेर सारे प्रश्न कर दिये मीताली ने और जबाब में इंस्पेक्टर कुछ नहीं बोला सिर्फ मीताली के हाथ में एक कागज रख दिया। आश्चर्यचकित मीताली ने कागज की तहें खोली तो एक पत्र था, बहुत संक्षिप्त-सा।

'मीताली बेटी! आप तुरंत सूरजपुर पहुँचे। आपकी प्रतीक्षा हो रही है।' पत्र पढ़ते ही और उलझन में फँस गयी मीताली, तो कर्नल विक्रम भी सूरजपुर में हैं। लेकिन क्या बात हो गयी?

कर्नल विक्रमसिंह से पिछले एक सप्ताह से उसकी मुलाक़ात भी नहीं हुई। उनके द्वारा उसे सूरजपुर बुलवाना, वह भी एक पुलिस अधिकारी के द्वारा? बात समझ में नहीं आई मीताली की, कुछ गड़बड़ जरूर है।

कर्नल विक्रमसिंह निशान्त के बहुत करीबी माने जाते हैं, तो कहीं निशान्त की तबीयत तो...। नहीं, नहीं। ऐसा होता तो सूरजपुर क्यों जाता, शहर न जाता?

मीताली ने फिर सोचा, इसमें कुछ चाल तो नहीं है। कहीं निशान्त का बुना हुआ कोई जाल तो नहीं हैं इसमें? शालिनी की तरह कहीं उसको भी रास्ते से हटाने के लिए ...।

शंका की दृष्टि से उसने पुनः इंस्पेक्टर को सिर से पाँव तक एक नजर मारी। लगता तो असली इंस्पेक्टर है। लेकिन क्या पता।

'क्या सोच रही हैं मैडम?' इंस्पेक्टर ने फिर पूछा।

'न...न, नहीं कुछ नहीं!' मीताली सामान्य होकर बोली, 'परंतु मुझे क्यों बुलाया है कर्नल विक्रम ने?'

'आपके सब सवालों का जबाब वहीं मिल जायेगा। आप प्लीज जल्दी कीजिए।' इंस्पेक्टर ने मानो आदेश देते हुए कहा।

वह सोचने लगी, न जाने क्या बात है? शेखर भी घर से बाहर है। शालिनी का दो दिन से कुछ पता नहीं है। निशान्त की तबियत के बारे में उसे कुछ पता नहीं है, कुछ न कुछ गड़बड़ तो है। जो भी हो उसे जाना जरूर चाहिए। आखिर कर्नल विक्रमसिंह जैसे जिम्मेदार व्यक्ति ने बुलावा भेजा है। अपनी बेटी की तरह समझते हैं उसे। जब उन्होंने बुलाया है, तो कुछ जरूर होगा। मीताली ने मन दृढ़ करके जाने का निश्चय कर लिया।

'ठीक है आप प्रतीक्षा कीजिए, मैं तैयार होकर आती हूँ।' उसने इंस्पेक्टर से कहा और अंदर चली गयी।

 

तेईस

अस्पताल पहुँचते ही मीताली को कर्नल विक्रम सिंह गेट पर ही खड़े मिल गये। लगता था मानो उसी की प्रतीक्षा कर रहे हों।

'क्या बात है अंकल, मुझे यहाँ क्यों बुलाया? कौन भर्ती है यहाँ पर? दुआ न सलामी, मीताली ने छूटते ही कर्नल विक्रम सिंह से व्यग्रता से पूछा।

'बेटी परेशान मत होओ, आओ मेरे साथ अंदर आओ।' अंदर आओ, कर्नल ने धैर्य से कहा और उसका हाथ पकड़कर अंदर ले आये।

लंबे-चौड़े बरामदे को पार करते वक्त मीताली का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। उसे लग रहा था न जाने कब कलेजा मुँह से बाहर निकाल आएग। एक वार्ड के आगे होकर कर्नल उँगली के इशारे से कहा, वह तुमसे मिलना चाहती है।'

मीताली ने नजर उधर दौड़ाई तो उसके पाँवों तले की जमीन खिसक गयी। शालिनी बिस्तर पर लेटी हुई थी और उस पर ग्लूकोज चढ़ा हुआ था।

तो शेखर ठीक ही कहता था। आखिर निशान्त ने उसे अपने रास्ते से हटाने का नाकामयाब प्रयास किया, अच्छा ही हुआ जो उसकी जान बच गयी।

लपककर उसने वार्ड का दरवाजा खोला और शालिनी के पास पहुँच गयी। वह बुरी तरह घायल थी, चेहरे पर और बदन पर कई जगह चोट के निशान थे।

'शालिनी क्या तुम्हें? किसने किया यह सब तुम्हारे साथ?' मीताली ने उससे पूछा।

'दीदी आप मेरी चिंता छोड़ो। ध्यान से मेरी बात सुनो और अपना जीवन बर्बाद होने से बचा लो।' घायल शालिनी बोली।

'शालिनी मैं सुन रही हूँ, परंतु तुम्हारी यह हालत? कौन है वह, पहले मुझे यह बताओ?' मीताली ने फिर प्रश्न दोहराया।

'शेखर!' शालिनी बोली।

'क्या? सातवें आसमान से मानो जमीन पर आ गिरी थी मीताली। कुछ देर तक संभाल नहीं पाई अपने आपको।

कुछ समझ नहीं पाई वह। सिर्फ दो दिन पहले तो यह लड़की शेखर से प्यार करने का दम भर रही थी, फिर एकाएक यह क्या हो गया कि शेखर इसका दुश्मन बन बैठा।

'किंतु परसो तुम...?' बात पूरी भी नहीं कर पाई थी मीताली कि शालिनी स्वयं बोल पड़ी।

'हाँ! परंतु वह सब निशान्त बाबू के विरुद्ध एक षड्यंत्र था।

'षड्यंत्र?' मीताली चौंकी, 'लेकिन तुम षड्यंत्र में क्यों सम्मिलित हुई?'

'शेखर के कहने पर।' मासूमियत से बोली शालिनी।

'परंतु क्यों? किसलिए?' हैरान और परेशान मीताली ने पूछा।

'दीदी शेखर का चरित्र अच्छा नहीं है। आरंभ में तो उसने संस्था में ईमानदारी से काम करना शुरू किया और निशान्त बाबू का विश्वासपात्र बन गया। धीरे-धीरे आश्रम के अंदर भी निर्विघ्न रूप से उसका आना-जाना बढ़ गया और उसने वहाँ लड़कियों से संपर्क बढ़ाना शुरू कर दिया। आश्रम अधीक्षिका को जब पता चला तो उन्होंने शेखर को समझाने का लाख प्रयत्न किया किंतु शेखर पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उसकी हिम्मत बढ़ती चली गयी।

उसने आश्रम की कुछ लड़कियों को अपने जाल में फांस लिया और उन्हें पैसा कमाने के उपाय समझाने लगा। अब आप से कैसे कहूँ कि आसानी से पैसा कमाने के लिए कुछ लड़कियों को अपना शरीर तक बेचने के लिए सहमत करने की कोशिश कर रहा था।

मीताली को काटो तो खून नहीं। उसे लगा कि काश, अभी धरती फट जाये तो वह उसमें समा जाये। उसने आरंभ में निशान्त से कहा था कि शेखर विश्वसनीय नहीं है, लेकिन निशान्त ही उसे एक और मौका देना चाहता था।

शालिनी कुछ देर तक खामोश रही फिर बोली, 'पानी सिर से ऊपर जाता देख आश्रम अधीक्षिका ने निशान्त बाबू से शेखर की शिकायत की तो शेखर बाबू ने भी उसे अलग बिठाकर समझाने की कोशिश की। उसे आपके त्याग और इज्जत का वास्ता देते हुए सुधर जाने की सलाह दी, किंतु शेखर भला कहाँ सुधरने वाला था।

शेखर ने विवाह करने का वादा कर मुझे भी अपने प्यार के जाल में फंसा दिया था। मैं अपनों के व्यवहार से दु:खी होकर यहाँ आई थी इसलिए मैं उस पर आँख मूंदकर विश्वास कर बैठी।

शेखर ने जब मुझे बताया था कि निशान्त बाबू के आश्रम की कई लड़कियों से संबंध हैं। वह उन्हें बाहर भी भेजते हैं इसलिए उनसे दूरी बनाकर रखना, तो मैंने सहजता से शेखर की बात पर यकीन कर लिया।' शालिनी अब बोलते-बोलते हाँफने भी लगी थी।

'परंतु तुमने मुझसे झूठ क्यों बोला कि तुम्हारे निशान्त से संबंध और तुम्हारे पेट में...?' मीताली ने आश्चर्य से पूछा।

'शेखर के कहने पर दीदी! शेखर ने मुझसे कहा कि निशान्त ने उसकी बड़ी बहन को अपने वश में कर रखा है। इसलिए दीदी को भी उसकी सच्चाई बतानी होगी। इसके लिए थोड़ा-बहुत झूठ भी बोलना होगा। मैंने उसकी बात पर यकीन करके आपसे वही सब कुछ कहा, जो उसने समझाया था।' शालिनी की आँखों में आँसू आ गये थे।

'लेकिन तुम्हें कैसे पता चला कि शेखर झूठ बोल रहा था? और तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?' मीताली ने अगला प्रश्न किया।

'दीदी आपसे मिलकर मैं बहुत खुश थी। मुझे लगा कि मैंने झूठ बोलकर ही सही, आपका जीवन बर्बाद होने से बचा लिया था। अगली रात को मैं शेखर को मिलने चोरी-चुपके उसके कार्यालय पहुँची तो वहाँ तीन-चार लोग पहले से ही मौजूद थे। मैं चौंक गयी और कुछ देर तक दरवाजे पर ही खड़ी होकर अंदर हो रहे वार्तालाप को सुनने की कोशिश करने लगी।'

'शेखर, कुछ भी कहो दिमाग तो है यार, तुझ पर।' उनमें से एक की आवाज आई।

'हाँ यार, दीदी के कान भरने के लिये तूने अच्छा पटाया शालिनी को।' दूसरे का स्वर था।

'हाँ यार, निशान्त को तो मैं देख लूँगा, लेकिन दीदी तो पागल बनी हुई थी उसके प्यार में। इसलिए यह सब नाटक करवाना पड़ा, क्योंकि अभी तक तो निशान्त ने कुछ बताया नहीं दीदी को मेरे बारे में। किंतु न जाने कब बता देता और फिर में बेघर हो जाता।' अबकी बार बोलने वाला शेखर ही था।

'लेकिन शालिनी का क्या करेगा, सचमुच शादी करेगा उससे?' एक ने पूछा। कभी किसी से बंधना नहीं सीखा। उसे भी ऐसा सबक सिखाऊँगा कि वह सपने में भी शादी करना भूल जायेगी।'

'शेखर की बात सुनकर एक पल के लिए मैं ठगी-सी रह गयी। अब मैं सब कुछ समझ गयी थी। मुझे अब और अधिक देर वहाँ पर रहना सुरक्षित नहीं लगा, मैं वापस मुड़कर भाग जाना चाहती थी। हड़बड़ाहट में मैं सामने वाले दरवाजे से टकरा गयी। आहट सुनकर सब लोग बाहर आ गये। मैं बचती-बचाती सड़क पर पहुँच गयी।

मुझे क्या पता था कि शेखर और उसके दोस्त अब भी काल के रूप में मेरा पीछा कर रहे हैं। मैं कुछ दूर ही पहुँची थी कि शेखर और उसके दोस्तों ने एक कार से मुझे टक्कर मार दी और मृत समझकर तीस किलोमीटर दूर यहाँ सूरजपुर के जंगल में फेंक गये। यहाँ कब और किसने मुझे अस्पताल पहुंचाया मुझे नहीं मालूम? होश में आने पर मैंने सबसे पहले आपकी तलाश की।' शालिनी ने शुरू से अंत तक अपनी सारी कहानी बयान कर मीताली के सम्मुख रख दी।

'मैंने इसे यहाँ अस्पताल में भर्ती करवाया है? पास खड़े कर्नल विक्रम सिंह ने इतनी देर में पहली बार अपनी जुबान खोली, 'दरअसल मैं शहर से वापस आ रहा था तो सुनसान सड़क के किनारे जंगल में मुझे एक वाहन सड़क पर आता नजर आया। मैंने अपने ड्राइवर से उधर चलने को कहा तो कुछ ही दूर जाने पर यह लड़की बेहोशी की हालत में वहाँ पड़ी मिली।'

'अंकल आप हर बार दुर्घटनास्थल पर कैसे पहुँच जाते हैं?' मीताली ने आश्चर्य से पूछा।

'यही तो कर्नल विक्रम सिंह का कमाल है। कोई शक?' कर्नल ने ठीक फौजी अंदाज में कहते हुए ठहाका मारा तो बरबस मीताली भी मुस्कुरा दी।

 

चौबीस

मीताली के मन में उपजी गलतफहमी ने निशान्त को बेचैन कर दिया था। नींद और भूख खत्म हो गयी थी उसकी। एक तो पिछले दिनों हुई घटना से आई कमजोरी और उसके ऊपर यह मानसिक तनाव। मात्र सप्ताह भर में ही रंग उड़ चुका था निशान्त के चेहरे का।

किससे बताये वह इस सबके बार में? कल मीताली ने फोन पर जिस तरह उसको जलील किया उससे वह और टूट गया।

पिछले एक-दो दिन से उसका घाव भी दर्द करने लगा था। डॉक्टर बार-बार कह रहे थे कि उसे आराम की आवश्यकता है। घाव गहरा है इसलिए लापरवाही बरतना ठीक नहीं है। उसके मन का तनाव उसके पूरे शरीर पर हावी हो चुका था। वह कुछ भी नहीं कर पा रहा था। आराम तो जैसे सपना हो गया था उसके लिये।

शाम के समय उसका पीला पड़ा चेहरा देखकर रामदीन काका से रहा नहीं गया, 'बेटा तुम्हारी हालत ठीक नहीं लग रही है हमें, दो दिन से तुमने एक कौर तक नहीं डाला मुँह में।'

रामदीन के कहने पर फीकी हँसी हँसा वह, 'काका मैं एकदम ठीक हूँ। खाने की इच्छा नहीं हो रही है, बस।'

'लेकिन बेटा! ऐसे कब तक काम चलेगा? तुम कहो तो मैं मीताली बिटिया को बुला लाऊँ, बहुत दिन से वह आई भी नहीं इधर। उसी का कहना मानते हो तुम, वही समझायेगी तुम्हें।' रामदीन काका बोले।

'नहीं काका! मीताली कहीं बाहर गयी है।' सफ़ेद झूठ बोला निशान्त ने और स्वयं महसूस भी किया कि ऐसा कहते हुए उसकी जुबान उसका साथ नहीं दे पा रही थी- 'तुम हो काका यहाँ पर, तुम्हारे रहते हुए मुझे किसी और की आवश्यकता नहीं है।'

'अरे बेटा, मेरी सुनता कौन है? जरा चेहरा तो देखो अपना, तब पता चलेगा।' रामदीन बड़बड़ाते हुए रसोई की तरफ चला गया।

निशान्त उसकी बड़बड़ाहट सुनकर हल्के से मुस्कुराया, मन ही मन बोला, 'तुम्हें कैसे बताऊँ काका। क्या हुआ है मुझे, एक तरफ मेरा प्यार और दूसरी तरफ प्यार की खुशी, किसे खोऊँ और किसे पाऊँ।'

सचमुच अपने आपको दोराहे पर खड़ा पा रहा था वह। बचपन से अब तक उसके जीवन में कई कठिन क्षण आये परंतु वह कभी भी विचलित नहीं हुआ। पहली बार उसे लगा कि वह दुनिया की भीड़ में अकेला खड़ा है, नितांत अकेला!

इतने वर्षों से घर से बाहर अकेले रहने के बाद भी कोई लड़की उसके मन को छू तक नहीं पाई थी। ऐसा नहीं है कि किसी लड़की ने उसे पाने का प्रयास नहीं किया था, लेकिन निशान्त को ही किसी भी लड़की में रुचि नहीं थी।

अच्छी सेहत और डीलडौल वाला सुदर्शन युवक था वह। ऊपर से धनी जमींदार परिवार का इकलौता वारिस भी। इसलिए कॉलेज में भी कई लड़कियां उससे सिर्फ बात करने के लिए तरसती थीं, किन्तु निशान्त था कि लड़कियों की तरफ से एकदम लापरवाह।

मीताली को उसने जब पहली बार स्कूल में देखा था तो उसकी सादगी और गज़ब का आत्मविश्वास देखकर वह आकर्षित हुए बिना नहीं रह सका था। उसका मधुर व्यवहार और शालीनता उसे भा गयी थी।

वह मीताली से नजदीकी बनाने की कोशिश करता तो मीताली और अधिक दूरी बनाती चली जाती। बस यही एक बात थी कि वह मन ही मन मीताली को चाहने लगा।

क्या नहीं था उसके पास। अच्छी ख़ासी धन-संपदा, मान-सम्मान, अच्छा रुतबा, कंपनी, फैक्ट्री, स्कूल, गाड़ी-घोड़ा सब कुछ। परंतु मीताली को इन सब साधनों ने तनिक भी आकर्षित नहीं किया था। मीताली का यही व्यवहार उसे अपना बनाता चला गया, वरना उसके संस्थानों में कई सुंदर पढ़ी-लिखी और खूबसूरत युवतियाँ नौकरी कर रही थीं। मीताली के सिवा उसने किसी पर नजर तक नहीं मारी।

मीताली के स्वाभिमान और आत्मविश्वास का कायल हो गया था। धीरे-धीरे उसे लगने लगा था कि मीताली उसके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। अब उसको पाना ही उसके जीवन का लक्ष्य हो गया हो जैसे।

बचपन से ही माँ को खो देने के पश्चात् उसे पिता की बेरुखी का भी सामना करना पड़ा था। प्यार के लिए निशान्त को मीताली में वह सब कुछ नजर आया, जिसकी उसे आवश्यकता थी। प्रभावशाली और धनी होने के कारण उसके इर्द-गिर्द अक्सर लोगों का जमावड़ा लगा रहता, लेकिन उन सबमें वह किसी को अपना मित्र का सके, ऐसी शख्सियत कोई नहीं थी।

मीताली की नजदीकी पाने के बाद उसे लगा था कि उसके जीवन में एक नया संचार हो गया था। बहुत कुछ और करने की इच्छा बलवती हो गयी थी उसके मन में। अब वह अपना हर सुख-दु:ख मीताली के साथ बाँटने लगा था। मीताली भी उसके मन के अंदर बहुत गहराई तक पहुँच गयी थी। कभी यदि वह किसी परेशानी में होता और मीताली को न बताना चाहता तो मीताली स्वयं ही उसकी मनःस्थिति भाँप जाती।

शेखर जब इधर-उधर से पता लगाकर भटकता हुआ मीताली के पास पहुँच गया था तो मीताली के माथे पर चिंता की जो लकीरें उभर आई थीं, वह निशान्त को भी व्यथित कर गयी। तब उसने मीताली को धैर्यपूर्वक समझा-बुझाकर शेखर को अपनी ही संस्था में काम दिला दिया था और मीताली से कहकर उसे एक अवसर और देने को मना लिया था।

उसके हर दु:ख की साझीदार बन गयी थी मीताली, इन दो वर्षों में उसने मीताली को अच्छी तरह देख एवं परख लिया था। संस्था के सारे कर्मचारी उनके सम्बन्धों से विज्ञ हो चुके थे।

कर्नल विक्रम सिंह ने कई बार दोनों की शादी की पहल भी की थी, अंततः दोनों ने कुछ माह बाद ही शादी करने का मन भी बना लिया था। कर्नल विक्रम ने तो बाकायदा शादी की तैयारियाँ भी शुरू कर दी थी।

मीताली जब उसका हर दु:ख, हर दर्द समझती है तो फिर इतनी बड़ी गलतफहमी का शिकार क्यों हो गयी? सिर्फ यही दु:ख बार-बार निशान्त के मन को ठेस पहुँचा रहा था। उसके मन में क्या है, आज वह क्यों परेशान है, यह तो मीताली सिर्फ निशान्त का चेहरा देखकर ही महसूस कर जाती थी।

फिर ऐसा कैसे हो गया कि आश्रम की एक साधारण सी लड़की शालिनी और शेखर द्वारा उसके खिलाफ लगाये चारित्रिक पतन के आरोपों को मीताली सच मान बैठी? बिना सोचे-समझे और वास्तविकता जाने उसने उनकी बात पर यकीन कैसे कर लिया?

निशान्त अपनी सफाई भी दे तो क्या दे? कैसे बताये उसे कि उसका अपना भाई शेखर ही उसका सबसे बड़ा दुश्मन बन बैठा है? वह मीताली को किसी भी तरह का दु:ख नहीं देना चाहता। सच तो यह है कि मीताली का दु:ख उससे बर्दाश्त ही नहीं होता, मीताली उसके बारे में जो चाहे सोच ले उसे मंजूर है। वह मीताली को हकीकत कैसे बता पाता इसलिए उसने मीताली को इस प्रकरण पर कुछ न बताने का पक्का निश्चय कर लिया था।

उसके इसी निश्चय का परिणाम था कि दोनों के बीच की दूरियाँ इतनी बढ़ती चली गयी थी, इसलिए उसने पुलिस से संपर्क कर शालिनी की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाकर अतिशीघ्र उसे ढूँढने का आग्रह भी किया था।

आज सुबह जब कर्नल अंकल ने उसे शालिनी के घायल अवस्था में सूरजपुर अस्पताल में होने का समाचार दिया था तो उसने कुछ राहत की साँस ली थी।

 

पच्चीस

'बेटा खाना लगा दूँ।' रामदीन काका ने निशान्त को आकर पूछा तो चौंक गया निशान्त।

कलाई पर बँधी घड़ी पर नजर डाली तो दोपहर के दो बज चुके थे।

'ओह खाने का समय हो गया क्या? कर्नल अंकल अभी तक क्यों नहीं लौटे, न जाने क्या होगा शालिनी के साथ और जाने कैसी होगी वह? निशान्त अपने आप में बड़बड़ाया।

तभी दरवाजे की घंटी बाजी, रामदीन ने दरवाजा खोला तो सामने कर्नल विक्रम सिंह थे।

'अरे अंकल आपने बहुत देर कर दी आने में, शालिनी कैसी है?' निशान्त ने छूटते ही सवाल किया।

'ठीक है अब, दरअसल उसने मीताली को वहाँ बुला लिया था। उससे कुछ कहना चाहती थी वह। शेखर के विरुद्ध भी पुलिस में बयान दे दिया है उसने, पुलिस उसे ढूँढ रही है।' कर्नल अंकल ने बताया। 'क्या? मीताली वहाँ गयी थी? क्या कहा उसने मीताली से? कहाँ है मीताली इस समय?' ढेर सारे सवाल एक साथ किये उसने।

'शेखर की सारी हकीकत बता दी उसने मीताली को।' कर्नल ने संक्षिप्त-सा जबाब दिया।

सुनकर झटका लगा निशान्त को। उसके मुँह से सिर्फ एक ही शब्द निकला, 'ओह!'

'जो हुआ ठीक ही हुआ। आखिर सच्चाई तो एक न एक दिन सामने आनी ही थी और मीताली को इस कड़वी सच्चाई का सामना करना ही था। जितनी जल्दी वह इससे रु-ब-रु हुई उतना ही अच्छा हुआ। आखिर तुम भी तो इस बात को इसीलिए छुपा रहे थे कि तुम पर हमला करने में शेखर का हाथ है और शेखर मीताली का सगा भाई है।' कर्नल ने अपनी बात पूरी की।

चौंककर कर्नल की ओर देखा निशान्त ने, 'आपको कैसे मालूम अंकल?'

'चौबीस साल फौज में नौकरी की है मैंने, शक्ल देखकर दिल की तह तक पहुँच सकता हूँ। कोई शक?' कर्नल ने बात साफ की।

निशान्त ने चुपचाप निगाहें झुका लीं। चुप्पी तोड़ते हुए कर्नल फिर बोले, मैं तो यह भी जानता हूँ कि तुम्हारे और मीताली के बीच आजकल कुछ खटपट चल रही है। कई दिन से यहाँ नहीं आई वह। मैं पहले उसे आज यहीं लाना चाहता था, किन्तु देर काफी हो गयी थी, इसलिए उसे उसके घर छोड़ आया।'

'ओह! तो मीताली अपने घर चली गयी है। शेखर की सच्चाई जानकर कितनी दु:खी होगी वह। इस समय उसे सहारे की जरूरत होगी, लेकिन क्या करे वह?, कैसे जाये वह उसके पास? पता नहीं क्या सोच रही होगी वह उसके बारे में?' निशान्त एक क्षण के लिये सोच में डूब गया।

'अच्छा बेटा मैं चलता हूँ।' उसे सोच में पड़ा देखकर कर्नल ने कहा, 'अपना ध्यान रखना।'

'अंकल खाना तैयार है। खाकर जाइए।' निशान्त ने आग्रह किया।

'नहीं बेटा! मुझे जरूरी काम है। फिर भूख भी नहीं है अभी।' कर्नल बोले और धीरे-धीरे कमरे से बाहर निकल गये।

उधर मीताली परेशान थी। अब वह निशान्त से मिलने का एक पल भी नहीं गवांना चाहती थी, किन्तु सुबह तक प्रतीक्षा करने के लिए मजबूर थी।

­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­अस्पताल में जब शालिनी ने उसे शेखर की हकीकत बताई तो वह शर्म से पानी-पानी हो गई थी। दूसरी ओर वह निशान्त के बारे में सोचने लगी। कितना पाप किया है उसने निशान्त के बारे में उल्टा सोचकर, कितना महान इंसान है निशान्त। सब कुछ चुपचाप सहता रहा, एक शब्द तक नहीं कहा, और वह स्वयं कितनी स्वार्थी हो गयी थी। शेखर और शालिनी की बातों में आकर उसने कितना बुरा भला कहा निशान्त को। अब वह कैसे उससे नजरें मिला पायेगी?

निशान्त उसे माफ करेगा भी या नहीं, उसे अपनायेगा भी या नहीं? आखिर वह भी तो इंसान है। उसे भी तो मेरा उस पर चारित्रिक पतन के बेबुनियाद और संगीन आरोप लगाना बुरा लगा होगा, कितना दिल टूटा होगा उसका!

मीताली का मन कर रहा था कि वह अभी निशान्त के पास जाकर उसके कदमों से लिपट जाये। अपने किये की माफी माँगे उससे, अपने द्वारा की गयी इस गलती के लिए वह हर सजा भुगतने को तैयार थी।

रातभर उसे नींद नहीं आयी। हर एक घंटे बाद नींद अचानक उचट जाती और बार-बार निशान्त का ध्यान उसे चौंका कर जागा देता।

सुबह चार बजे वह बिस्तर से खड़ी हो गयी और चाय बनाकर तैयार होने लगी। तैयार होकर फिर उसने घड़ी की ओर देखा तो पाँच बज रहे थे। 'हे भगवान आज यह रात इतनी लंबी क्यों हो रही है?' वह अपने आप से बोली, 'जल्दी से समय बीते वह निशान्त से मिलने जाये।'

फिर खुद ही जबाब देती, 'बुद्धू! रात तो रोज ही इतनी लंबी होती है। आज तुझे निशान्त से मिलने की जल्दी है, इसलिए तुझे ही ऐसा लग रहा है।'

किसी तरह उसने छह बजने की प्रतीक्षा की। मिनट की सुई बारह के अंक पर भी नहीं पहुँची थी कि वह घर से निकल कर निशान्त के बंगले की ओर प्रस्थान कर गयी।

अब तक हल्का-सा उजाला हो चुका था। रात बीत चुकी थी और दूर पहाड़ियों के पीछे सूरज की सुनहरी लालिमा नये सवेरे का संदेश दे रही थी। तेज कदमों से वह आगे बढ़ने लगी।

आज उसे निशान्त की सबसे पसंदीदा हल्की गुलाबी रंग की साड़ी पहनी हुई थी। उसे याद है एक दिन निशान्त ने एक पैकेट उसके हाथ में देकर कहा था, 'यह मेरा मन-पसंद रंग है, तुम पर बहुत अच्छा लगेगा।'

उसने पैकेट खोलकर देखा तो उसमें हल्के गुलाबी रंग की साड़ी थी, जो उसने आज पहनी हुई थी।

उसके बाद से जब वह किसी समारोह अथवा किसी विशेष स्थान पर निशान्त से मिलने जाती तो यही साड़ी पहनकर जाती।

­ निशान्त उसकी तारीफ करते नहीं थकता था, 'तुम सचमुच इस साड़ी में ऐसी लग रही हो जैसे आसमान से उतरी हुई परी।'

निशान्त की बात सुनकर शर्म से नजरें झुका लेती मीताली, धत! तुम बहुत खराब हो, मक्खनबाज हो।' 'सचमुच मीताली!' गंभीर होकर निशान्त, 'मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि यदि कभी तुमने मुझसे धोखा दिया तो मैं एक पल भी जिंदा नहीं रह पाऊँगा।'

मीताली ने झट से उसके मुँह पर अपनी हथेली रख दी थी, भगवान के लिए ऐसी अशुभ बातें मत करो, निशान्त।'

सोचते-सोचते मीताली न जाने कब बँगले के मुख्य दरवाजे पर पहुँच गयी। बहुत देर तक दरवाजा खोलने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। फिर उसने हिम्मत करके धीरे से दरवाजा खोला तो रामदीन काका बँगले के प्रांगण में ही नजर आ गये। उसे देखते ही बोले, 'अरे आओ बेटी आओ, कितने दिनों बाद आ रही हो, कहीं बाहर गयी थी क्या?'

'जी काका, निशान्त है क्या?' वह व्यग्रता से बोलो।

'हाँ बेटी अंदर हैं।' रामदीन बोला, किंतु रामदीन के बोलने से पहले ही वह लंबा प्रांगण पारकर अंदर पहुँच चुकी थी।

निशान्त खिड़की के पास कुर्सी पर बैठा हुआ बाहर का दृश्य देख रहा था, दरवाजे की तरफ उसकी पीठ थी। आहट हुई तो मुड़कर देखा सामने मीताली खड़ी थी। नजरें एक-दूसरे से मिली तो धड़कने तेज हो गईं। कुछ देर तक कोई कुछ नहीं बोला। एकटक एक-दूसरे को देखते रहे। वक्त मानो थम सा गया था दोनों के मिलन के लिये...।

'आओ मीताली।' बहुत देर बाद निशान्त ने भरे मन से कहा, 'मैं तो तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था।' और मीताली दौड़कर उससे लिपट गयी। 'मुझे माफ कर दो निशान्त! मैंने तुम पर अविश्वास करके बहुत बड़ा पाप किया है, मेरा यह पाप क्षमा योग्य नहीं है।'

मीताली की आँखों से अश्रुधारा बह निकली।

निशान्त ने उसे अपनी बाहों में समेट लिया।

'निशान्त तुम मेरे अपराधी भाई को बचाते रहे और मैं तुम पर अविश्वास करती रही। मैं तुम्हारी बहुत बड़ी गुनाहगार हूँ।' मीताली रोते-रोते बोली।

'कुछ मत कहो, मीताली! तुम्हारे सामने परिस्थितियाँ ही ऐसी थीं कि तुम भी क्या करती? दोषी तो मैं ही हूँ जो इतने समय बाद भी तुम्हारा विश्वास नहीं जीत पाया।' निशान्त मुरझाये स्वर में बोला। ­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­

और न जाने कितनी देर तक मीताली निशान्त के सीने से लगकर सुबकती रही और निशान्त उसके बालों पर उँगलियाँ फिराता हुआ उसे ढांढस बंधाता रहा।

'अरे पगली रोओ मत! अभी तो मुझे तुम्हारे साथ समुद्र के किनारे टहलना है। ठंडी रेत का स्पर्श पाँवों तले महसूस करना है, पहाड़ों पर चलना है और आकाश की ऊँचाइयाँ छोड़कर बादलों को मुट्ठी में कैद करना है। ऐसे में भला कैसे अलग हो जाते हम दोनों।' निशान्त भावुक हो उठा था।

इस बीच शेखर की गिरफ्तारी की खबर निशान्त को देने कर्नल विक्रम वहाँ पहुँच गये। कमरे में प्रवेश करते ही वे उल्टे पाँव वापस बरामदे में आ पहुँचे। मिलन के अथाह सागर में हिचकोले खाते हुए मीताली और निशान्त को उनके आने-जाने की खबर ही नहीं हुई।

कर्नल विक्रम बरामदे से ही ज़ोर से खाँसते हुए कड़कती आवाज में बोले 'रामदीन जरा चाय तो पिलाओ और साथ में मुँह मीठा तो करवाओ। आज हम सचमुच बहुत खुश हैं।'

कर्नल की आवाज सुनकर मीताली और निशान्त तुरंत एक-दूसरे से अलग होकर अपनी झेंप मिटाते सहज होने का प्रयास करते हुए बाहर बरामदे में आ चुके थे। मिलन की वास्तविक खुशी आज उनके चेहरे पर साफ पढ़ी और महसूस की जा रही थी...।

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सक्रिय राजनीति में रहते हुए भी जिस प्रखरता से डॉ. 'निशंक' साहित्य के क्षेत्र में लगातार संघर्षरत हैं वह आम आदमी के बस की बात नहीं है। मुझे डॉ. 'निशंक' की संघर्षशीलता और दृढ़ इच्छा शक्ति पर पूर्ण विश्वास है कि वह अपने राजनैतिक जीवन की व्यस्तताओं के उपरांत भी अपनी लेखनी के माध्यम से आम जनमानस की भावनाओं को उभारकर समाज एवं देश के सामने ऐसे प्रश्न खड़े करते रहेंगे, जिनके उत्तर के लिए कभी न कभी जिम्मेदार व्यक्तियों को अपने कर्तव्यों का एहसास जरूर हो जायेगा।

श्री अटल बिहारी वाजपेयी

पूर्व प्रधानमंत्री


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हिंदी समय में रमेश पोखरियाल निशंक की रचनाएँ