पातंजल योगसूत्र
(मूल संस्कृत सूत्र
, सूत्रार्थ और व्याख्या सहित)
उपक्रमणिका
योगसूत्रों को हाथ में लेने से पहले मैं एक ऐसे प्रश्न की चर्चा करने का
प्रयत्न करूँगा, जिस पर योगियों के सारे धार्मिक मत प्रतिष्ठित हैं। ऐसा मालूम
पड़ता है कि संसार के सभी श्रेष्ठ मनीषी इस बात में एकमत हैं--और यह बात भौतिक
प्रकृति के अनुसंधान से भी एक प्रकार से प्रमाणित ही हो गई है--कि हम लोग अपने
वर्तमान सविशेष (सापेक्ष) भाव के पीछे विद्यमान एक निर्विशेष (निरपेक्ष) भाव
के परिणाम एवं व्यक्त रूप हैं, और हम फिर से उसी निर्विशेष भाव में लौटने के
लिए लगातार अग्रसर हो रहे हैं। यदि यह बात स्वीकार कर ली जाए, तो प्रश्न यह
उठता है कि वह निर्विशेष अवस्था श्रेष्ठतर है अथवा यह वर्तमान अवस्था? संसार
में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो समझते हैं कि यह व्यक्त अवस्था ही मनुष्य की
सबसे ऊँची अवस्था है। कई चिंतनशील मनीषियों का मत है कि हम एक निर्विशेष सता
के व्यस्त रूप है, और यह सविशेष अवस्था निर्विशेष अवस्था से श्रेष्ठ है। वे
सोचते हैं कि निर्विशेष सत्ता में कोई गुण नहीं रह सकता, अतः वह अवश्य अचेतन
है, जड़ है, प्राणशून्य है, और यह सोचकर वे धारणा कर लेते हैं कि केवल इस जीवन
में ही सुखभोगसंभव है, अतएव इस जीवन के सुख में ही हमें आसक्त रहना चाहिए। अब
हम पहले देखें, इस जीवन समस्या के और कौन कौन से समाधान है, पहले उनके बारे
में चर्चा की जाए। इस संबंध में एक प्राचीन सिद्धांत यह था कि मनुष्य मरने के
बाद, जैसा पहले था, वैसा ही रहता है, केवल उसके सारे अशुभ चले जाते हैं और
उसका जो कुछ शुभ है, वही अनंत काल के लिए बच रहता है। यदि तर्कसंगत भाषा में
इस सत्य को रखा जाए, तो वह ऐसा रूप लेता है कि यह संसार ही मनुष्य का चरम
लक्ष्य है और इस संसार की ही कुछ उच्चावस्था को, जहाँ उसके सारे अशुभ निकल
जाते हैं और केवल शुभ ही शुभ बच रहता है, स्वर्ग कहते हैं। यह बड़ी आसानी से
समझा जा सकता है कि यह मत नितांत असंगत और बच्चों की बात के समान है, क्योंकि
ऐसा हो ही नहीं सकता। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि शुभ है, पर अशुभ नहीं, अथवा
अशुभ है, पर शुभ नहीं। जहाँ कुछ भी अशुभ नहीं है, सब शुभ ही शुभ है, ऐसे संसार
में वास करने की कल्पना, भारतीय नैयायिकों के अनुसार, शिवा-स्वप्न देखना है।
फिर, एक और मतवाद बहुत से संप्रदायों से सुना जाता है; वह यह कि मनुष्य लगातार
उन्नति कर रहा है, चरम लक्ष्य तक पहुँचने का सतत संघर्ष कर रहा है, किंतु कभी
भी वहाँ तक पहुँच न सकेगा। यह मत ऊपर से सुनने में तो बड़ा युक्तिसंगत मालूम
होता है, पर यह भी वस्तुतः बिल्कुल असंगत ही है, क्योंकि कोई भी गति एक सरल
रेखा में नहीं होती। प्रत्येक गति वर्तुलाकार में ही होती है। यदि तुम एक
पत्थर लेकर आकाश में फेंको, उसके बाद यदि तुम्हारा जीवन काफ़ी हो और पत्थर के
मार्ग में कोई बाधा न आए, तो घूमकर वह ठीक तुम्हारे हाथ में वापस आ जाएगा। यदि
एक सरल रेखा अनंत दूरी तक बढ़ाईजाए, तो वह अंत में एक वृत्त का रूप धारण कर
लेगी। अतएव यह मत कि मनुष्य का भाग्य सदैव अनंत उन्नति की ओर है--उसका कहीं भी
अंत नहीं, सर्वथा असंगत है। प्रसंग के थोड़ा बाहर होने पर भी मैं अब इस
पूर्वोक्त मत के बारे में दो-एक बातें कहूँगा। नीतिशास्त्र कहते हैं, किसी के
भी प्रति घृणा मत करो--सबको प्यार करो। नीतिशास्त्र के इस सत्य का स्पष्टीकरण
पूर्वोक्त मत से हो जाता है। विद्युत्-शक्ति के बारे में आधुनिक मत यह है कि
वह डाइनेमो से बाहर निकल, घूमकर फिर से उसी यंत्र में लौट आती है। प्रेम और
घृणा के बारे में भी यही नियम लागू होता है। अतएव किसीसे घृणा करनी उचित नहीं,
क्योंकि यह शक्ति--यह घृणा, जो तुममें से बहिर्गत होगी, घूमकर कालांतर में फिर
तुम्हारे ही पास वापस आ जाएगी। यदि तुम मनुष्यों को प्यार करो, तो वह प्यार
धूम-फिरकर तुम्हारे पास ही लौट आएगा। यह अत्यंत निश्चित सत्य है कि मनुष्य के
मन से घृणा का जो कुछ अंश बाहर निकलता है, वह अंत में उसीके पास अपनी पूरी
शक्ति से लौट आता है। कोई भी इसकी गति रोक नहीं सकता। इस प्रकार प्रेम का
प्रत्येक संवेग भी उसीके पास लौट आता है।
हम और भी अन्यान्य प्रत्यक्ष बातों पर आधारित बहुत सी युक्तियों से यह
प्रमाणित कर सकते हैं कि यह अनंत उन्नति संबंधी मत ठहर नहीं सकता। हम तो यह
प्रत्यक्ष देखते हैं कि सारी भौतिक वस्तुओं की एक ही अंतिम मति है, और वह है
विनाश। हमारे ये सारे संघर्ष, सारी आशाएँ, भय और सुख-इन सबका आखिर परिणाम क्या
है? मृत्यु ही हम सबकी चरम गति है। इससे अधिक निश्चित और कुछ भी नहीं। तब फिर
यह सरल रेखा में गति कहाँ रही? यह अनंत उन्नति कहाँ रही? यह तो केवल थोड़ी दूर
जाना है और फिर से उस केंद्र में लौट आना है, जहाँ से गति शुरू होती है। देखो,
निहारिका (nebulae) से किस प्रकार सूर्य, चंद्रमा और तारे पैदा होते हैं, और
फिर से उसीमें समा जाते हैं। ऐसा ही सर्वत्र हो रहा है। पेड़-पौधे मिट्टी से
ही सार ग्रहण करते हैं और सड़ गलकर फिर से मिट्टी में ही मिल जाते हैं।
प्रत्येक रूपाकार पदार्थ अपने चारो ओर वर्तमान परमाणुओं से पैदा होकर फिर से
उन परमाणुओं में ही मिल जाता है। यह कभी हो नहीं सकता कि एक ही नियम अलग -अलग
स्थानों में अलग अलग रूप से कार्य करे। नियम सर्वत्र ही समान है। इससे अधिक
निश्चित बात और कुछ नहीं हो सकती। यदि यही प्रकृति का नियम हो, तो वह
अंतर्जगत् पर क्यों नहीं लागू होगा? मन भी अपने उत्पत्ति-स्थान में जाकर लय को
प्राप्त करेगा। हम चाहें या न चाहें, हमें अपने उस आदि कारण में लौट ही जाना
पड़ेगा, जिसे ईश्वर या निरपेक्ष सत्ता कहते हैं। हम ईश्वर से आए हैं, और पुनः
ईश्वर में ही लौट जाएंगे। इस ईश्वर को फिर किसी भी नाम से क्यों न पुकारो--गॉड
(God) कहो, निरपेक्ष सत्ता कहो, अथवा प्रकृति कहो, सब एक ही बात है। यतो वा
इमानि भूतानि जाएते। येन जातानि जीवन्ति। यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।
[1]
--'जिनसे सब पैदा हुए हैं, जिनमें उत्पन्न हुए समस्त प्राणी स्थित हैं और
जिनमें सब फिर से लौट जाएंगे।' यह एक निश्चित तथ्य है। प्रकृति सर्वत्र एक ही
नियम से कार्य करती है। एक लोक में जो नियम कार्य करता है, दूसरे लाखों लोकों
में भी वह नियम कार्य करेगा। ग्रहों में जो व्यापार देखने में आता है, इस
पृथ्वी, मनुष्य और सभी में भी वही व्यापार चल रहा है। एक बड़ी लहर लाखों छोटी
छोटी लहरों से बनी होती है। उसी प्रकार सारे जगत का जीवन लाखों छोटे छोटे
जीवनों की एक समष्टि मात्र है; और इन सब लाखों छोटे छोटे जीवों की मृत्यु ही
समस्त जगत की मृत्यु है।
अब प्रश्न उठता है कि भगवान् में वापस जाना उच्चतर अवस्था है या निम्नतर?
योगमतावलंबी दार्शनिकगण इस बात के उत्तर में दृढ़तापूर्वक कहते हैं, "हाँ, यह
उच्चतर अवस्था है।" वे कहते हैं कि मनुष्य की वर्तमान अवस्था एक अवनत अवस्था
है। इस धरती पर ऐसा कोई धर्म नहीं, जो कहता हो कि मनुष्य पहले की अपेक्षा आज
अधिक उन्नत है। इसका भाव यह है कि मनुष्य प्रारंभ में शुद्ध और पूर्ण रहता है,
फिर उसकी अवनति होने लगती है और एक अवस्था ऐसी आ जाती है, जिसके नीचे वह और
भ्रष्ट नहीं हो सकता। तब वह पुनः अपना वृत्त पूरा करने के लिए ऊपर उठने लगता
है। उसे वृत्त की पूर्ति करनी ही पड़ती है। वह कितने भी नीचे क्यों न चला जाए,
अंत में उसे वृत्त का ऊपरी मोड़ लेना ही पड़ता है अपने आदिकारण भगवान् में
वापस आना ही पड़ता है। मनुष्य पहले भगवान् से आता है, मध्य में वह मनुष्य के
रूप में रहता है और अंत में पुनः भगवान् के पास वापस चला जाता है। यह हुई
द्वैतवाद की भाषा। अद्वैतवाद की भाषा में यह भाव व्यक्त करने पर कहना पड़ेगा
कि मनुष्य भगवान् है, और घूमकर फिर उन्हीं में लौट जाता है। यदि हमारी वर्तमान
अवस्था ही उच्चतर अवस्था हो, तो संसार में इतने दुःख-कष्ट, इतनी सब भयावह
घटनाएँ क्यों भरी पड़ी हैं? यदि यही उच्चतर अवस्था हो, तो इसका अवसान क्यों
होता है? जिसमें भ्रष्ट और पतन होता हो, वह कभी भी सबसे ऊँची अवस्था नहीं हो
सकती। यह जगत इतने पैशाचिक भावों से क्यों भरा हो--वह इतना अतृप्तिकर क्यों
हो? इसके पक्ष में बहुत हुआ, तो इतना ही कहा जा सकता है कि इसमें से होकर हम
एक उच्च तर रास्ते में जा रहे हैं। पुनः उन्नत अवस्था प्राप्त करने के लिए
हमें इसमें से होकर गुज़रना पड़ रहा है। जमीन में बीज बो दो, वह गलकर--विशिष्ट
होकर कुछ समय बाद मिट्टी के साथ बिल्कुल मिल जाएगा, फिर उसी विश्लिष्ट अवस्था
से एक महाकाय वृक्ष उत्पन्न होगा। इस महाकाय वृक्ष के उत्पन्न होने के लिए
प्रत्येक बीज को सड़ना पड़ेगा। उसी प्रकार ब्रह्मभावापन्न होने के
लिए--ब्रह्मस्वरूप हो जाने के लिए प्रत्येक जीवात्मा को इस अवनति की अवस्था
में से होकर जाना पड़ेगा। अतएव यह स्पष्ट है कि हम जितनी जल्दी इस
'मानव'-संज्ञक अवस्था विशेष का अतिक्रमण कर उसके ऊपर चले जाएँ, उतना ही हमारा
कल्याण है। तो क्या आत्महत्या करके हमें इस अवस्था के बाहर होना होगा नहीं,
कभी नहीं। वरन् उससे तो उलटा ही फल होगा। शरीर को ध्यर्थ में कष्ट देना अथवा
संसार को वृथा कोसना इस संसार से तरने का उपाय नहीं है। उसके लिए तो हमें इस
नैराश्य के पंकिल सरोवर में से होकर जाना पड़ेगा; और जितनी जल्दी हम उसे पार
कर जाएँ, उतना ही मंगल है। पर यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य अवस्था ही
सबसे ऊँची अवस्था नहीं है।
यहाँ यह बात समझना सचमुच कठिन है कि जिस निर्विशेष अवस्था को सबसे ऊँची अवस्था
कही जाती है, वह, जैसा कि बहुत से लोग शंका करते हैं, पत्थर या
अर्घजंतु-अर्धवृक्षवत् कोई जीवविशेष के समान नहीं है। जो लोग ऐसा सोचते है
उनके मत से संसार भर के सारे अस्तित्व केवल दो भागों में विभक्त हैं--एक तो
वह, जो पत्थर आदि के समान जड़ की अवस्था है, और दूसरा वह, जो विचार की अवस्था
है। किंतु हम उनसे पूछते हैं कि सारे अस्तित्व को इन दो ही भागों में सीमित कर
देने का उन्हें क्या अधिकार है? क्या विचार से अनंतगुनी अधिक ऊँची और कोई
अवस्था नहीं है? आलोक का कंपनअत्यंत मृदु होने पर वह हमे दृष्टिगोचर नहीं
होता। जब वह कंपन अपेक्षाकृत कुछ तीव्र होता है, तब नह हमारी दृष्टि का विषय
हो जाता है--तब हमारी आँखों के सामने वह आलोक के रूप में दीख पड़ता है। पर जब
वह और भी तीव्र हो जाता है, तब हम पुनः उसे नहीं देख पाते। वह हमें अंधकार के
समान ही प्रतीत होता है। तो क्या यह बाद का अंधकार उस पहले अंधकार के समान है?
नहीं, कभी नहीं; उन दोनों में तो दो ध्रुवों का--जमीन-आसमान का--अंतर है। क्या
पत्थर की विचार शून्यता और भगवान् की विचारशून्यता दोनों एक हैं? बिल्कुल
नहीं। भगवान् सोचते नहीं--वे तर्क करते नहीं। वे भला करेंगे भी क्यों? उनके
लिए क्या कुछ अज्ञात है, जो वे तर्क करेंगे? पत्थर तर्क करता नहीं, और ईश्वर
तर्क करता नहीं--बस, यहीं अंतर है। ये दार्शनिकगण सोचते हैं कि विचार के परे
जाना अत्यंत भयानक बात है। वे विचार के परे कुछ भी नहीं पाते।
युक्ति-तर्क के परे अस्तित्व की अनेक उच्चतर अवस्थाएँ हैं। वास्तव में धर्म
जीवन की पहली अवस्था तो बुद्धि की सीमा लाँघने पर शुरू होती है। जब तुम विचार,
बुद्धि, युक्ति-इन सबके परे चले जाते हो, तभी तुमने भगवत्प्राप्ति के पथ में
पहला कदम रखा है। वही जीवन का सच्चा प्रारंभ है। जिसे हम साधा रणतः जीवन कहते
हैं, वह तो असल जीवन की भ्रूण-अवस्था मात्र है।
अब प्रश्न हो सकता है कि विचार और युक्ति-तर्क के अतीत की अवस्था ही सबसे ऊँची
अवस्था है, इसका क्या प्रमाण? पहले तो, संसार के श्रेष्ठ महापुरुष गण--कोरी
लंबी-चौड़ी हाँकनेवालों की अपेक्षा कहीं श्रेष्ठ महापुरुषगण, जिन्होंने अपनी
शक्ति के बल से संपूर्ण जगत को हिला दिया था, जिनके हृदय में स्वार्थ का
लेशमात्र न था, जगत के सामने घोषणा कर गए हैं कि हमारा यह जीवन उस सर्वातीत
अनंतस्वरूप में पहुँचने के लिए रास्ते में केवल एक क्षुद्र अवस्था है। दूसरे,
उन्होंने केवल मुख से ऐसा कहा हो, सो नहीं, वरन् उन्होंने सभी को वहां जाने का
रास्ता बतला दिया है, अपनी साधन-प्रणाली सभी को समझा दी है, जिससे सब लोग उनका
पदानुसरण कर आगे बढ़ सके। तीसरे, पहले जो व्याख्या दी गई है, उसको छोड़
जीवन-समस्या की और किसी प्रकार से संतोषजनक व्याख्या नहीं दी जा सकती। यदि मान
लिया जाए कि इसकी अपेक्षा उच्चतर अवस्था और कोई नहीं है, तो भला हम लोग चिरकाल
इस वृत्त के माध्यम से क्यों जा रहे हैं? किस युक्ति के आधार पर इस दृश्यमान
जगत की व्याख्या की जाए? यदि हममें इससे अधिक दूर जाने की शक्ति न रहे, यदि
हमारे लिए इसकी अपेक्षा कुछ अधिक चाहने को न रहे, तब तो यह पंचेन्द्रिय
ग्राह्य जगत ही हमारे ज्ञान की चरम सीमा रह जाएगा। इसीको अज्ञेयवाद कहते हैं।
किंतु प्रश्न यह है कि इन इंद्रियों की गवाही में विश्वास करने के लिए भला
हमारे पास कौन सी युक्ति है? मैं तो उन्हींको यथार्थ अज्ञेयवादी कहूँगा, जो
रास्ते में चुप खड़े रहकर मर सकते हैं। यदि युक्ति ही हमारा सर्वस्व हो, तो वह
तो हमें इस शून्यवाद को लेकर संसार में स्थिर होकर कहीं रहने न देगी। यदि कोई
धन और नाम-यश की स्पृहा को छोड़ शेष सभी विषयों के संबंध में अजेयवादी हो, तो
वह केवल पाखंडी है। कान्ट (Kant) ने नि संदिग्ध रूप से प्रमाणित किया है कि हम
युक्ति-तकरूपी दुर्भेद्य दीवार का अतिक्रमण कर उसके उस पार नहीं जा सकते।
किंतु भारत में तो समस्त विचारधाराओं की पहली बात है--युक्ति के उस पार चले
जाना। योगीगण अत्यंत साहस के साथ इस राज्य की खोज में प्रवृत्त होते हैं, और
अंत में ऐसी एक अवस्था को प्राप्त करने में सफल होते हैं, जो समस्त
युक्ति-तर्क के परे है और जिसमें ही केवल हमारी वर्तमान परिदृश्यमान अवस्था का
स्पष्टीकरण मिलता है। यही लाभ है उसके अध्ययन से, जो हमें जगत के अतीत ले जाता
है। त्वं हि नः पिता, योऽस्माकमविद्यायाः परं पार तारयति। "तुम हमारे पिता हो,
तुम हमें अज्ञान के उस पार ले जाओगे।"
[2]
यही धर्मविज्ञान है, और कुछ भी नहीं।
प्रथम अध्याय
समाधिपाद
अथ योगानुशासनम् ॥१॥
१. अब योग को व्याख्या करते हैं।
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥२॥
२. चित्त को वृत्तियों अर्थात् विभिन्न आकार में परिणत होने से रोकना ही योग
है।
यहाँ बहुत सी बातें समझाने की आवश्यकता है। पहले हमें यह समझ लेना होगा कि यह
चित्त और ये वृत्तियाँ क्या है। मेरी ये आँखें हैं। आँखें वास्तव में नहीं
देखतीं। यदि मस्तिष्क में स्थित दर्शनेन्द्रिय या दर्शन-शक्ति को नष्ट कर दो,
तो भले ही तुम्हारी आँखें रहें, आँखों की पुतलियाँ भी साबूत रहें और आँख के
ऊपर जिस छबि के पड़ने से दर्शन होता है, वह भी रहे, पर फिर भी आँखें देख न
सकेंगी। अतः आँख दर्शन का गौण यंत्र मात्र हुई। वह वास्तव में दर्शनेन्द्रिय
नहीं है। दर्शनेन्द्रिय तो मस्तिष्क के अंतर्गत स्नायु-केंद्र में अवस्थित है।
अतएव हमने देखा कि दर्शन-क्रिया के लिए केवल दो आँखें ही पर्याप्त नहीं हैं।
कभी कभी मनुष्य आँखें खुली रखकर सो जाता है। वस्तु का चित्र आँखों पर बना हुआ
है, दर्शनेन्द्रिय भी है, पर और एक तीसरी वस्तु की आवश्यकता है और वह है मन।
मन को इंद्रिय के साथ संयुक्त रहना चाहिए। अतः दर्शन-क्रिया के लिए चक्षुरूप
बहिर्यन्त्र, मस्तिष्क में स्थित स्नायु-केंद्र और मन--ये तीन चीजें चाहिए।
कभी कभी ऐसा होता है कि रास्ते से गाड़ियाँ दौड़ती हुई निकल जाती हैं, पर तुम
उन्हें सुन नहीं पाते। क्यों? इसलिए कि तुम्हारा मन श्रवणेन्द्रिय के साथ
संयुक्त नहीं रहता। अतएव, प्रत्येक अनुभव-क्रिया के लिए पहले तो बाहर का
यंत्र, उसके बाद इंद्रिय, और तृतीयतः, इन दोनों के साथ मन का योग चाहिए। मन,
विषय के अभिघात से उत्पन्न हुई संवेदना को और भी अंदर ले जाकर निश्चयात्मिका
बुद्धि के सामने पेश करता है। तब बुद्धि से प्रतिक्रिया होती है। इस
प्रतिक्रिया के साथ अहं-भाव जाग उठता है। फिर क्रिया और प्रतिक्रिया का यह
मिश्रण पुरुष अर्थात् प्रकृत आत्मा के सामने लाया जाता है। तब वे पुरुष इस
मिश्रण को एक (ससीम) वस्तु के रूप में अनुभव करते हैं। पाँचों इंद्रिय, मन,
निश्चयात्मिका बुद्धि और अहंकार को मिलाकर अंतःकरण कहते हैं। ये सब मन के
उपादानस्वरूप चित्त के भीतर होनेवाली भिन्न-भिन्न प्रक्रियाएँ हैं। चित्त में
उठने वाली विचार-तरंगों को वृत्ति (भँवर) कहते हैं। अब प्रश्न यह है कि यह
विचार है क्या चीज? गुरुत्वाकर्षण या विकर्षण-शक्ति के समान विचार भी एक शक्ति
है। प्रकृति के अनंत शक्ति-भंडार से चित्त नामक करण कुछ शक्ति को ग्रहण कर
लेता है, अपने में आत्मसात कर लेता है और उसे विचार के रूप में बाहर भेजता है।
यह शक्ति हमें खाद्यान्न के जरिये प्राप्त होती है और इस खाद्यान्न से शरीर
गति आदि की शक्ति प्राप्त करता है। दूसरी अर्थात् सूक्ष्मतर शक्तियों को वह
विचार के रूप में बाहर भेजता है। अतएव मन चेतन नहीं है। फिर भी वह चेतन सा
प्रतीत होता है। क्यों? इसलिए कि चेतन आत्मा उसके पीछे है। तुम्ही एकमात्र
चेतन पुरुष हो--मन तो केवल एक करण अर्थात् यंत्र मात्र है, जिसके माध्यम से
तुम बाह्य जगत की उपलब्धि करते हो। इस पुस्तक की ही बात लो; बाहर इसका
पुस्तकरूपी अस्तित्व नहीं है। बाहर वस्तुतः जो है, वह तो अज्ञात और अज्ञेय है।
वह केवल संकेत देनेवाला कारण मात्र है। जैसे पानी में एक पत्थर फेंकने पर पानी
प्रवाहाकार में बँटकर उस पत्थर पर प्रतिघात करता है, ठीक वैसे ही वह अज्ञात
वस्तु जाकर मन में आघात प्रदान करती है, और मन से पुस्तक के रूप में एक
प्रतिक्रिया होती है। यथार्थ बहिर्जगत् तो संकेत देनेवाला कारण मात्र है,
जिससे मानसिक प्रतिक्रिया होती है। एक पुस्तक का रूप, हाथी का रूप या मनुष्य
का रूप बाहर कोई अस्तित्व नहीं रखता; हम जो कुछ जानते हैं, वह बाहर के संकेत
से होनेवाली हमारी मानसिक प्रतिक्रिया मात्र है। जॉन स्टुअर्ट मिल ने कहा है,
'संवेदना की नित्य सम्भाव्यता का नाम भौतिक पदार्थ है।' बाहर जो है, वह है
केवल इस प्रतिक्रिया को उत्पन्न करने वाला संकेत मात्र। उदाहरणार्थ, मोती की
एक सीप को लो। तुम लोग जानते हो, मोती किस तरह पैदा होता है। कोई पराश्रयी
कीटाणु सीप में घुस जाता है और उसमें क्षोभ उत्पन्न करने लगता है। इससे वह सीप
उस कीटाणु के चारों ओर 'एनामेल' के समान एक प्रकार का लेप सा डालने लगती है।
बस, उसी से मोती तैयार होता है। यह सारा अनुभवात्मक जगत मानो हमारे अपने उस
लेप के समान है, और यथार्थ जगत मानो केंद्र के रूप में कीटाणु है। सामान्य
मनुष्य उसे कभी समझ न सकेगा, क्योंकि जब कभी वह उसे समझने की कोशिश करता है,
त्यों ही वह बाहर मानो अपना लेप डालने लगता है, और वस, अपने उस लेप को ही
देखता है। अब हम समझे कि वृत्ति का सच्चा अर्थ क्या है। मनुष्य का जो असल
स्वरूप है, वह मन के अतीत है। मन तो उसके हाथों एक यंत्रस्वरूप है। उसी का
चैतन्य इस मन के माध्यम से अनस्रवित हो रहा है। जब तुम इस मन के पीछे
द्रष्टारूप से स्थित हो जाते हो, तभी वह चैतन्यमय होता है। जब मनुष्य इस मन को
बिल्कुल त्याग देता है, तो उस मन का संपूर्ण नाश हो जाता है, उसका अस्तित्व ही
नहीं रह जाता। अब समझ में आया कि चित्त का क्या तात्पर्य है। वह मन का
उपादानस्वरूप है, और वृत्तियाँ उस पर उठनेवाली लहरें और तरंगें हैं। जब बाहर
के कुछ कारण उस पर कार्य करने लगते हैं, त्यों ही वह तरंग रूप धारण कर लेता
है। हम जिसे जगत कहते हैं, वह तो इन वृत्तियों की समष्टि मात्र है।
हम लोग सरोवर की तली को नहीं देख सकते, क्योंकि उसकी सतह छोटी छोटी लहरों से
व्याप्त रहती है। उस तली की झलक मिलनी तभी संभव है, जब ये सारी लहरें शांत हो
जाएँ और पानी स्थिर हो जाए। यदि पानी गँदला हो, या सारे समय उसमें हलचल होती
रहे, तो वह तली कभी दिखाई न देगी। पर यदि पानी निर्मल हो और उसमें एक भी लहर न
रहे, तब हम उस तली को अवश्य देख सकेंगे। यह चित्त मानो उस सरोवर के समान है और
हमारा असल स्वरूप मानो उसकी तली है। वृत्तियाँ उस पर उठनेवाली लहरें हैं। फिर
यह भी देखा जाता है कि यह मन तीन प्रकार की अवस्थाओं में रहता है। एक है तम की
अर्थात् अंधकारमय अवस्था, जैसा कि हम पशुओं और अत्यंतमूर्खों में पाते हैं।
ऐसे मन की प्रवृत्ति केवल औरों को अनिष्ट पहुँचाने में ही होती है। मन की इस
अवस्था में और दूसरा कोई विचार ही नहीं सूझता। दूसरा है--रज अर्थात् मन की
क्रियाशील अवस्था, जिसमें केवल प्रभुत्व और भोग की इच्छा रहती है। उस समय यही
भाव रहता है कि मैं शक्तिमान होऊँगा और दूसरों पर प्रभुत्व करूँगा। तीसरा
है--सत्त्व अर्थात् मन की गंभीर और शांत अवस्था, जिसमें समस्त तरंगें शांत हो
जाती हैं और मानस-सरोवर का जल निर्मल हो जाता है। यह कोई जड़ावस्था नहीं है,
प्रत्युत यह तो तीन क्रियाशील अवस्था है। शांत होना शक्ति की महत्तम
अभिव्यक्ति है। क्रियाशील होना तो सहज है। बस लगाम ढीली कर दो, तो घोड़े स्वयं
तुम्हें भगा ले जाएंगे। यह तो कोई भी कर सकता है। पर शक्तिमान पुरुष तो वह है,
जो इन तेज घोड़ों को थाम सके। किसमें अधिक शक्ति लगती है लगाम ढीली कर देने
में अथवा उसे थामे रखने में? शांत मनुष्य और मंदबुद्धि वाले मनुष्य एक समान
नहीं हैं। सत्व को कहीं मंदबुद्धि या आलस्य न समझ बैठना। शांत मनुष्य वह है,
जो मन की इन लहरों को अपने वश में लाने में समर्थ हुआ है। क्रियाशीलता निम्नतर
शक्ति की अभिव्यक्ति है और शांत भाव उच्चतर शक्ति की।
यह चित्त अपनी स्वाभाविक पवित्र अवस्था को फिर से प्राप्त करने के लिए सतत
चेष्टा कर रहा है, किंतुइंद्रियाँ उसे बाहर खींचे रखती हैं। उसका दमन करना,
उसकी इस बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकना और उसे लौटाकर उस चैतन्यघन पुरुष के
पास ले जानेवाले रास्ते पर लाना--यही योग का पहला सोपान है; क्योंकि केवल इसी
उपाय से चित्त अपने यथार्थ रास्ते पर आ सकता है।
यद्यपि उच्चतम से लेकर निम्नतम तक सभी प्राणियों में यह चित्त विद्यमान है,
तथापि केवल मनुष्य-शरीर में ही हम उसे बुद्धि-रूप में विकसित देख पाते हैं। जब
तक यह चित्त बुद्धि का रूप धारण नहीं कर लेता, तब तक उसके लिए इन सब विभिन्न
सोपानों में से होते हुए लौटकर आत्मा को मुक्त करना संभव नहीं। यद्यपि गाय या
कुत्ते के भी मन है, पर उनके लिए सद्योमुक्ति असंभव है; क्योंकि उनका चित्त
अभी बुद्धि का रूप धारण नहीं कर सकता।
यह चित्त अवस्था-भेद से बहुत से रूप धारण करता है, जैसे--क्षिप्त, मूढ़,
विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। क्षिप्त में मन चारों ओर बिखर जाता है और कर्म
वासना प्रबल रहती है। इस अवस्था में मन की प्रवृत्ति केवल सुख और दुःख, इन दो
भावों में ही प्रकाशित होने की होती है। मूढ़ अवस्था तमोगुणात्मक है और इसमें
मन की प्रवृत्ति केवल औरों का अनिष्ट करने में होती है। विक्षिप्त (क्षिप्त से
विशिष्ट) अवस्था वह है, जब मन अपने केंद्र की ओर जाने का प्रयत्न करता है।
यहाँ पर भाष्यकार कहते हैं कि विक्षिप्त अवस्था देवताओं के लिए स्वाभाविक है
और क्षिप्त तथा मूढ़ावस्था असुरों के लिए। एकाग्र अवस्था तभी होती है, जब मन
निरुद्ध होने के लिए प्रयत्न करता है और निरुद्ध अवस्था ही हमें समाधि में ले
जाती है।
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्॥३॥
३. उस समय (अर्थात् इस निरोष की अवस्था में) अष्टा (पुरुष) अपने
(अपरिवर्तनशील) स्वरूप में अवस्थित रहते हैं।
ज्यों ही लहरें शांत हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है, त्यों ही हम सरोवर
की तली को देख पाते हैं। मन के बारे में भी ठीक ऐसा ही समझो। जब यह शांत हो
जाता है, तब हम देख पाते हैं कि अपना असल स्वरूप क्या है। फिर हम उन तरंगों के
साथ अपने आपको एकरूप नहीं कर लेते, वरन् अपने स्वरूप में अवस्थित रहते हैं।
वृत्तिसारूप्यमितरत्र ॥४॥
४. (इस निरोध को अवस्था को छोड़कर) दूसरे समय में द्रष्टा वृत्ति के साम एकरूप
होकर रहते हैं।
उदाहरणार्थ, मान लो, किसीने मेरी निंदा की। बस, वह मेरे मन में एक वृत्ति उठा
देता है और मैं उसके साथ अपने आपको एकरूप कर देता हूँ। इसका परिणाम होता
है--दुःख।
वृत्तयः पंचतय्य: क्लिष्टाक्लिष्टाः॥५॥
५. वृत्तियों पाँच प्रकार की हैं--(कुछ) क्लेशयुक्त और (कुछ) क्लेशशून्य।
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ॥६॥
६. (ये हैं) प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति अर्थात् सत्यज्ञान,
भ्रमज्ञान, शब्द-भ्रम, निद्रा और स्मृति।
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ॥७॥
७. प्रत्यक्ष अर्थात् साक्षात् अनुभव, अनुमान और आगम अर्थात् विश्वस्त लोगों
के वाक्य--(ये तीन) प्रमाण हैं।
जब हमारी दो अनुभूतियाँ आपस में विरोधी नहीं होती, तब उसे हम प्रमाण कहते हैं।
मान लो, मैंने कुछ सुना; यदि वह पहले अनुभव की हुई किसी बात का खंडन करे, तो
मेरे भीतर उसके विरुद्ध तर्क-वितर्क होने लगते हैं और मैं उस पर विश्वास नहीं
करता। प्रमाण के फिर तीन प्रकार हैं। साक्षात् अनुभव या प्रत्यक्ष--यह एक
प्रकार का प्रमाण है। यदि हम किसी प्रकार आँख और कान के प्रेम में न पड़े हों,
तो हम जो कुछ देखते या अनुभव करते हैं, उसे प्रत्यक्ष कहा जाएगा। मैं इस
दुनिया को देखता हूँ; बस, यह उसके अस्तित्व का पर्याप्त प्रमाण है। दूसरा है
अनुमान--लक्षण से लक्ष्य वस्तु पर आना। तुमने कोई संकेत देखा और उससे तुम उस
लक्ष्य वस्तु पर आ गए, जिसका कि वह संकेत है। तीसरा है आप्तवाक्य--योगियों
अर्थात् सत्यद्रष्टा ऋषियों की प्रत्यक्ष अनुभूति। हम सभी ज्ञान की प्राप्ति
के लिए सतत संघर्ष कर रहे हैं। पर तुम्हें और मुझे उसके लिए कठोर संघर्ष करना
पड़ता है, दीर्घ काल तक विचाररूप क्लान्तिकर रास्ते से होकर अग्रसर होना पड़ता
है; किंतु विशुद्धसत्त्व योगी इन सबके पार चले गए हैं। उनके मनश्चक्ष के सामने
भूत, भविष्य और वर्तमान सब एक हो गए हैं, उनके लिए वे सब मानो एक पाठ्य पुस्तक
के समान हैं। हम लोगों को ज्ञान-लाभ के लिए जिस क्लान्तिकर प्रक्रिया में से
होकर जाना पड़ता है, उनके लिए उसकी फिर और आवश्यकता नहीं रह जाती। उनका वाक्य
ही प्रमाण है, क्योंकि वे अपने भीतर ही सारे ज्ञान की उपलब्धि करते हैं। ऐसे
व्यक्ति ही पवित्र शास्त्रग्रंथों के प्रणेता हैं, और इसीलिए शास्त्र प्रमाण
हैं। यदि वर्तमान समय में ऐसे मनुष्य कोई हों, तो उनकी बात भी अवश्य प्रमाण
होगी। दूसरे दार्शनिकों ने इस आप्त के बारे में बहुत से तर्क वितर्क किए हैं।
उनका प्रश्न है कि आप्तवाक्य को सत्य क्यों माना जाए? इसका उत्तर यह है कि वह
उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति है। यदि वह पहले किए हुए अनुभव की विरोधी न हो, तो मैं
जो कुछ देखता हूँ, वह प्रमाण है और तुम भी जो कुछ देखते हो, वह प्रमाण है। ठीक
इसी तरह इंद्रियों के भी अतीत एक ज्ञान है। और जव कभी यह ज्ञान युक्ति और
मनुष्य की पूर्वानुभूति का खंडन नहीं करता, तब वह भी प्रमाण है। यदि कोई पागल
इस कमरे में घुस आए और कहने लगे, "मैं चारों ओर देवदूत देख रहा हूँ", तो वह
प्रमाण न कहा जाएगा। पहले तो, वह ज्ञान सत्य होना चाहिए। दूसरे, वह पहले के
किसी ज्ञान का खंडन न करे। और तीसरे, वह उस मनुष्य के चरित्र पर आधारित हो।
मैंने बहुतों को यह कहते सुना है कि मनुष्य का चरित्र उतने महत्त्व का नहीं
है, जितना कि उसके शब्द; वह क्या कहता है, बस, उसी को पहले सुनो। अन्य विषयों
के संबंध में यह बात भले ही सत्य हो, पर धर्म के संबंध में तो यह संभव नहीं।
एक व्यक्ति दुष्ट स्वभाववाला होता हुआ भी ज्योतिष के बारे में कुछ आविष्कार कर
सकता है, पर धर्म के बारे में बात अलग है; क्योंकि कोई भी अपवित्र मनुष्य धर्म
के यथार्थ सत्य को किसी काल में प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव, सबसे पहले हमें
देखना होगा कि जो व्यक्ति अपने आपको आप्त कहकर ढिंढोरा पीटता है, वह पूर्णतया
नि:स्वार्थ और पवित्र है अथवा नहीं। दूसरे, उसने अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति
की है या नहीं। तीसरे, वह जो कुछ कहता है, वह मनुष्य-जाति के किसी पूर्व ज्ञान
या पूर्वानुभव का खंडन तो नहीं करता। आविष्कृत कोई भी नया सत्य पूर्वकालीन
किसी सत्य का खंडन नहीं करता, वरन् वह तो पूर्व सत्य के साथ पूरी तरह मेल खाता
है। और चौथे, दूसरों के लिए उस सत्य की प्राप्ति करना संभव होना चाहिए। यदि
कोई मनुष्य कहे कि मुझे एक दर्शन हुआ है और साथ ही यह भी बोले कि उसे मैं ही
देख सकता हूँ--और किसी के वश की वह बात नहीं, तो मैं उसकी बात पर विश्वास नहीं
करता। प्रत्येक मनुष्य स्वयं प्रत्यक्ष उपलब्धि करके यह देख सके कि वह सत्य है
या नहीं। फिर, जो व्यक्ति अपना शान बेचता फिरता है, वह आप्त नहीं है। ये सब
शर्ते अवश्य पूरी होनी चाहिए। तुम्हें पहले देखना होगा कि वह व्यक्ति पवित्र
और निःस्वार्थ है, उसमें रुपया-कौड़ी या नाम यश की तृष्णा नहीं। दूसरे, उसके
जीवन से यह प्रकट होना चाहिए कि वह अति चेतन भूमि पर पहुँच गया है। तीसरे, उसे
हम लोगों को ऐसा कुछ देना चाहिए, जो हम इंद्रियों से न पा सकते हों और जो
संसार के कल्याण के लिए हो। साथ हो, वह किसी दूसरे सत्य का खंडन न करे; यदि वह
दूसरे वैज्ञानिक सत्यों का खंडन करता हो, तो उसे तुरंत त्याग दो। और चौथे, वह
व्यक्ति किसी सत्य की ठेकेदारी न करे, अर्थात् वह ऐसा न कहे कि इस सत्य में
मेरा ही अधिकार है, किसी दूसरे का नहीं। वह अपने जीवन में उसी को कार्यरूप में
परिणत करके दिखाये, जो दूसरों के लिए भी प्राप्त करना संभव हो। अतएव, प्रमाण
तीन प्रकार के हुए प्रत्यक्ष अर्थात् इंद्रियों द्वारा विषयों की अनुभूति,
अनुमान और आप्तवाक्य। मैं इस 'आप्त' शब्द का अंग्रेज़ी में अनुवाद नहीं कर
सकता। इसे दिव्य प्रेरित (inspired) शब्द द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता,
क्योंकि यह प्रेरणा बाहर से आती है, और यहाँ जिस ज्ञान की बात हो रही है, वह
भीतर से आता है। इसका शाब्दिक अर्थ है--'जिन्होंने पाया है।'
विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् ॥८॥
८. विपर्यय का अर्थ है मिथ्याज्ञान, जो उस वस्तु के यथार्थ स्वरूप में
प्रतिष्ठित नहीं है।
दूसरे प्रकार की वृत्ति है--एक वस्तु में किसी दूसरे वस्तु की भ्रांति; जैसे
शुक्ति में रजत का भ्रम। इसे विपर्यय कहते हैं।
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ॥९॥
९. यदि किसी शब्द से सूचित वस्तु का अस्तित्व न रहे, तो उस शब्द से जो एक
प्रकार का ज्ञान उठता है, उसे विकल्प अर्थात् शब्दजात भ्रम कहते हैं।
विकल्प नामक और एक प्रकार की वृत्ति है। कोई बात हम सुनते हैं, और उसके अर्थ
पर शांत भाव से विचार न कर झट से एक सिद्धांत गढ़ लेते हैं। यह चित्त की
कमजोरी का लक्षण है। अब संयमवाद अच्छी तरह समझ में आ सकेगा। मनुष्य जितना
कमजोर होता है, उसकी संयम की शक्ति उतनी ही कम रहती है। तुम अपने आपको सदा इस
संयम की कसौटी पर कसो। जब तुममें क्रोध या दुःखित होने का भाव आए, तो उस समय
विचार करके देखना कि यह कैसे हो रहा है। यह कैसे है कि कोई खबर तुम्हारे पास
आते ही तुम्हारे मन को वृत्तियों में परिणत किए दे रही है।
अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा ॥१०॥
१०. जो वृत्ति शून्यभाव का अवलंबन करके रहती है, उसे निद्रा कहते हैं।
और एक प्रकार की वृत्ति का नाम है निद्रा और स्वप्न। हम जब जाग उठते हैं, तब
हम जान पाते हैं कि हम सो रहे थे। केवल अनुभूति विषय की ही स्मृति हो सकती है।
हम जिसका अनुभव नहीं करते, उस विषय की हमें कोई स्मृति नहीं आ सकती। हर एक
प्रतिक्रिया मानो चित्तरूपी सरोवर की एक तरंग है। अब, यदि निद्रा में मन की
किसी प्रकार की वृत्ति न रहती, तो उस अवस्था में हमें सकारात्मक या नकारात्मक
कोई भी अनुभूति न होती। अतः हम उसका स्मरण भी नहीं कर पाते। हम जो निद्रावस्था
का स्मरण कर सकते हैं, उसी से यह प्रमाणित हो जाता है कि निद्रावस्था में मन
में एक प्रकार की तरंग थी। स्मृति भी एक प्रकार की वृत्ति है।
अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः ॥११॥
११. अनुभव किए हुए विषयों का मन से लोप न होना (और संस्कारवश उनका ज्ञान के
स्तर पर आ उठना) स्मृति कहलाता है।
ऊपर जिन चार प्रकार की वृत्तियों के बारे में कहा गया है, उनमें से प्रत्येक
से स्मृति आ सकती है। मान लो, तुमने एक शब्द सुना। यह शब्द चित्तरूपी सरोवर
में फेंके गए एक पत्थर के समान है; उससे एक छोटी सी लहर पैदा हो जाती है और यह
लहर फिर बहुत सी छोटी छोटी लहरों को उत्पन्न करती है। यही स्मृति है। निद्रा
में भी यही घटना होती रहती है। जब निद्रा नामक लहर विशेष चित्त के अंदर
स्मृतिरूप लहर उत्पन्न कर देती है, तब उसे स्वप्न कहते हैं। जाग्रत अवस्था में
जिसे स्मृति कहते हैं, निद्राकाल में उसी प्रकार की वृत्ति को स्वप्न कहते
हैं।
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१२॥
१२. अभ्यास और वैराग्य से उन (वृत्तियों) का निरोग होता है।
इस वैराग्य को प्राप्त करने के लिए यह विशेष रूप से आवश्यक है कि मन निर्मल,
सत् और विवेकशील हो। अभ्यास करने की क्या आवश्यकता है? प्रत्येक कार्य से मानो
चित्तरूपी सरोवर के ऊपर एक तरंग खेल जाती है। यह कंपन कुछ समय बाद नष्ट हो
जाता है। फिर क्या शेष रहता है? --केवल संस्कारसमूह। मन में ऐसे बहुत से
संस्कार पड़ने पर वे इकट्ठे होकर आदत के रूप में परिणत हो जाते हैं। ऐसा कहा
जाता है कि 'आदत ही द्वितीय स्वभाव है।' केवल द्वितीय स्वभाव नहीं, वरन् वह
'प्रथम' स्वभाव भी है--मनुष्य का समस्त स्वभाव इस आदत पर निर्भर रहता है।
हमारा अभी जो स्वभाव है, वह पूर्व अभ्यास का फल है। यह जान सकने से कि सब कुछ
अभ्यास का ही फल है, मन में शांति आती है। क्योंकि यदि हमारा वर्तमान स्वभाव
केवल अभ्यासवश हुआ हो, तो हम चाहें, तो किसी भी समय उस अभ्यास को नष्ट भी कर
सकते हैं। हमारे मन में जो विचारधाराएँ वह जाती हैं, उनमें से प्रत्येक अपना
एक एक चिह्न या संस्कार छोड़ जाती है। हमारा चरित्र इन सब संस्कारों की
समष्टिस्वरूप है। जब कोई विशेष वृत्ति-प्रवाह प्रबल होता है, तब मनुष्य उसी
प्रकार का हो जाता है। जब सद्गुण प्रबल होता है, तब मनुष्य सत् हो जाता है।
यदि खराब भाव प्रबल हो, तो मनुष्य खराब हो जाता है। यदि आनंद का भाव प्रबल हो,
तो मनुष्य सुखी होता है। असत् अभ्यास का एकमात्र प्रतिकार है--उसका विपरीत
अभ्यास। हमारे चित्त में जितने असत् अभ्यास संस्कारबद्ध हो गए हैं, उन्हें सत्
अभ्यास द्वारा नष्ट करना होगा। केवल सत्कार्य करते रहो, सर्वदा पवित्र चिंतन
करो; असत् संस्कार रोकने का बस, यही एक उपाय है। ऐसा कभी मत कहो कि अमुक के
उद्धार की कोई. आशा नहीं है। क्यों? इसलिए कि वह व्यक्ति केवल एक विशिष्ट
प्रकार के चरित्र का--कुछ अभ्यासों की समष्टि का द्योतक मात्र है, और ये
अभ्यास नए और सत् अभ्यास से दूर किए जा सकते हैं। चरित्र बस, पुनः पुनः अभ्यास
की समष्टि मात्र है और इस प्रकार का पुनः पुनः अभ्यास ही चरित्र का सुधार कर
सकता है।
तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः ॥१३॥
१३. उन (वृत्तियों) को पूर्णतया वश में रखने के लिए जो सतत प्रयत्न है, उसे
अभ्यास कहते हैं।
अभ्यास किसे कहते हैं? मन को दमन करने की चेष्टा अर्थात् प्रवाह-रूप में उसकी
बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकने की चेष्टा ही अभ्यास है।
स तु दीर्घकालनरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः ॥१४॥
१४. दीर्घकाल तक परम श्रद्धा के साथ (उस परमपद की प्राप्ति के लिए) सतत चेष्टा
करने से वह (अभ्यास) दृढ़ भूमि (अर्थात् दृढ़ अवस्थावाला) हो। जाता है।
यह संयम एक दिन में नहीं आता, इसके लिए तो दीर्घ काल तक निरंतर अभ्यास करना
पड़ता है।
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्॥१५॥
१५. देखे और सुने हुए विषयों के प्रति तृष्णा का सर्वथा त्याग कर देने वाले के
पास जो एक अपूर्व भाव आता है, जिससे वह समस्त विषय-वासनाओं का दमन करने में
समर्थ होता है, उसे वैराग्य या अनासक्ति कहते हैं।
दो प्रेरक शक्तियाँ हमारे सारे कार्यों की नियामक हैं। एक है हमारा अपना अनुभव
और दूसरा है, दूसरों का अनुभव। ये दो शक्तियाँ हमारे मानस सरोवर में नाना
प्रकार की तरंगें पैदा करती रहती हैं। इन दोनों शक्तियों के विरुद्ध लड़ाई
ठानने और मन को वश में रखने के लिए हमें वैराग्यरूपी शक्ति की सहायता लेनी
पड़ती है। इन दोनों का त्याग ही हमारा अभीष्ट है। मान लो, मैं एक सड़क से जा
रहा हूँ। एक मनुष्य आता है और मेरी घड़ी छीन लेता है। यह मेरा निजी अनुभव हुआ।
यह मैं स्वयं देखता हूँ। वह तुरंत मेरे चित्त में एक तरंग उत्पन्न कर देता है,
जो क्रोध का आकार ले लेती है। अब मुझे चाहिए कि मैं उस भाव को न आने दें। यदि
मैं उसे न रोक सकूँ, तो फिर मुझमें है ही क्या? कुछ भी नहीं। यदि मैं रोक सका,
तभी समझा जाएगा कि मुझमें वैराग्य है। फिर, संसारी लोगों का अनुभव हमें सिखाता
है कि विषय-भोग ही जीवन का चरम लक्ष्य है। ये सब हमारे लिए भयानक प्रलोभन हैं।
उन सबके प्रति पूर्णतया उदासीन हो जाना और उन सबसे प्रभावित होकर मन को तद्रूप
वृत्ति के आकार में परिणत न होने देना ही वैराग्य है। स्वयं अपने अनुभव किए
हुए और दूसरों के अनुभव किए हुए विषयों से हममें जो दो प्रकार की
कार्य-प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें दबाना और इस प्रकार चित्त को
उनके वश में नहीं आने देना ही वैराग्य कहलाता है। वे सब मेरे अधीन रहें, मैं
उनके अधीन न होऊँ इस प्रकार के मनोबल को वैराग्य कहते हैं, और यह बैराग्य ही
मुक्ति का एकमात्र उपाय है।.....
तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ॥१६॥
१६. जो (वैराग्य) पुरुष के (असल स्वरूप के) ज्ञान से आता है और जो गुणों का भी
सर्वथा त्याग कर देता है, वह परवैराग्य है।
वैराग्य की शक्ति का उच्चतम विकास तो तब होता है, जब वह गुणों के प्रति हमारी
आसक्ति को भी दूर हटा देता है। पहले हमें समझ लेना होगा कि यह पुरुष या आत्मा
क्या है, ये गुण क्या हैं। योगशास्त्र के मत से, यह सारी प्रकृति
त्रिगुणात्मिका है। ये गुण हैं--तम, रज और सत्व। ये तीनों गुण बाह्य जगत में
क्रमश: तम (अंधकार) या जड़ता, आकर्षण या विकर्षण और उन दोनों का सामंजस्य, इन
तीन प्रकारों में प्रकाशित होते हैं। प्रकृति की सारी वस्तुएँ, यह सारा का
सारा प्रपंच ही इन तीनों शक्तियों के विभिन्न मेल से उत्पन्न हुआ है। सांख्य
मतवालों ने प्रकृति को विविध तत्त्वों में विभक्त किया है। मनुष्य की आत्मा इन
सबके परे, प्रकृति के भी परे है; वह स्वयंप्रकाश, शुद्ध और पूर्णस्वरूप है।
प्रकृति में हम जो कुछ चैतन्य का प्रकाश देख पाते हैं, वह सभी प्रकृति में
आत्मा का प्रतिबिंब मात्र है। प्रकृति स्वयं जड़ है। यह स्मरण रखना चाहिए कि
मन भी प्रकृति शब्द के अंतर्भूत है, वह प्रकृति के भीतर की वस्तु है। हमारे जो
कुछ विचार हैं, वे सबके सब प्रकृति के ही अंतर्गत हैं। विचार से लेकर सबसे
स्थूलतम भौतिक पदार्थ तक सभी प्रकृति के अंतर्गत हैं--प्रकृति की विभिन्न
अभिव्यक्ति मात्र हैं। इस प्रकृति ने मनुष्य की आत्मा को आवृत कर रखा है, और
जब वह अपने इस आवरण को हटा लेती है, तब आत्मा आवरणमुक्त हो अपनी महिमा में
प्रकाशित हो जाती है। पंद्रहवें सूत्र में जिस वैराग्य की बात बतलाईगई है,
जिसके द्वारा समस्त विषयों को अर्थात् प्रकृति को वश में लाया जाता है, वह
आत्मा के प्रकाशित होने में सबसे बड़ा सहायक है। अगले सूत्र में समाधि या
पूर्ण एकाग्रता के लक्षण का वर्णन किया मया है। यह समाधि ही योगी का चरम
लक्ष्य है। . .
वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात् सम्प्रज्ञातः॥१७॥
१७. वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता--इन चारों के संबंध से मुक्त (जो समाधि
है, वह) संप्रज्ञात या सम्यक् ज्ञानपूर्वक समाधि कहलाती है।
समाधि दो प्रकार की है। एक है संप्रज्ञात और दूसरी, असंप्रज्ञात। इस
संप्रज्ञात समाधि में प्रकृति को वश में करने की समस्त शक्तियों आती हैं।
संप्रज्ञात समाधि के चार प्रकार हैं। इसके प्रथम प्रकार को सवितर्क समाधि कहते
हैं। सब समाधियों में ही मन को अन्य सब विषयों से हटाकर विशिष्ट विषय के ध्यान
में पुनः पुनः नियुक्त करना पड़ता है। इस तरह के विचार या ध्यान के विषय दो
प्रकार के हैं। एक तो, चौबीस जड़तत्त्व और दूसरा, चेतन पुरुष। योग का यह अंश
संपूर्णतया सांख्य दर्शन पर आधारित है। इस सांख्य दर्शन के बारे में मैं तुमसे
पहले ही कह चुका हूँ। तुम्हें शायद याद होगा कि मन, बुद्धि और अहंकार की एक
साधारण आधार-भूमि है, जिसे चित्त कहते हैं और जिससे उनकी उत्पत्ति हुई है। यह
चित प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को लेकर उन्हें विचार के रूप में परिणत करता
है। फिर यह भी अवश्य स्वीकार करना होगा कि शक्ति और जड़ पदार्थ, दोनों का
कारणस्वरूप एक और वस्तु है, जहाँ पर वे दोनों एक हैं। यह अव्यक्त कहलाता
है--वह सृष्टि के पूर्व प्रकृति की अनभिव्यक्त अवस्था है। उसमें एक कल्प के
बाद सारी प्रकृति लौट आती है, फिर दूसरे कल्प में उससे पुनः सब प्रादुर्भूत
होते हैं। इन सबके अतीत चैतन्यधन पुरुष विद्यमान है। ज्ञान ही शक्ति है। किसी
वस्तु का ज्ञान प्राप्त होने पर ही हम उस पर अपना अधिकार चलाने में समर्थ होते
हैं। इसी प्रकार, जब हमारा मन इन सब विभिन्न तत्त्वों पर ध्यान करने लगता है,
तो उन पर अधिकार प्राप्त करता जाता है। जिस प्रकार की समाधि में बाहा स्थूल
भूत ही ध्यान के विषय होते हैं, उसे सवितर्क कहते हैं। वितर्क का अर्थ है
प्रश्न, और सवितर्क का अर्थ है प्रश्न के साथ--मानो उन स्थूल भूतों से पूछना,
जिससे वे अपने अंतर्गत सत्य और अपनी सारी शक्ति अपने ऊपर ध्यान करनेवाले पुरुष
को दे दें--इसीको सवितर्क कहते हैं। किंतु सिद्धियाँ प्राप्त करने से ही
मुक्ति नहीं मिल जाती। वे तो भोग के लिए साधन मात्र हैं। पर यहाँ, इस जीवन
में, यथार्य भोग-सुख है ही नहीं। संसार में यही सबसे पुराना उपदेश है कि यहाँ
भोग सुख का अन्वेषण वृथा है; पर मनुष्य के लिए इसे समझना अत्यंत कठिन है।
किंतु जब वह सचमुच यह पाठ सीख लेता है, तब इस जगत-प्रपंच से अतीत होकर मुक्त
हो जाता है। जिन्हें साधारणतः सिद्धियाँ कहते हैं, उनको प्राप्त करने का अर्थ
है तीव्र दुनियादारी तथा अंत में दुःख को और भी तीव्र करना। यह सत्य है कि
विज्ञान की दृष्टि को अपनाते हुए पतंजलि ने इस योगशास्त्र की संभावना को
स्वीकार किया है, पर साथ ही वे इन सब सिद्धियों के प्रलोभन से हमें सावधान
करते रहने में भी कभी नहीं चूके।
फिर, उसी ध्यान में जब उन भूतों को देश और काल से अलग करके उनके स्वरूप का
चिंतन किया जाता है, तब उस समाधि को निर्वितर्कसमाधि कहते हैं। जब और एक कदम
आगे बढ़कर तन्मात्राओं को ध्यान का विषय बनाया जाता है और उन्हें देश-काल के
अंतर्गत समझकर उन पर ध्यान किया जाता है, तब उसे सविचार समाधि कहते हैं। फिर
जब इसी समाधि में देश-काल के अतीत जाकर उन सूक्ष्म भूतों के स्वरूप का चिंतन
किया जाता है, तब उसे निर्विचार समाधि कहते हैं। इसके बाद का कदम वह है,
जिसमें सूक्ष्म और स्थूल, दोनों प्रकार के भूतों का चिंतन छोड़कर अंतःकरण को
ध्यान का विषय बनाया जाता है। जब अंतःकरण को रज और तम, इन दोनों गुणों में
रहित सोचा जाता है, तब उसे आनंद समाधि कहते है। जब स्वंय मन ध्यान का विषय
होता है, जब ध्यान बिल्कुल परिपक्व और एकाग्र हो जाता है, जब स्थल बार सूक्ष्म
भूतों की समस्त भावनाएँ त्याग दी जाती है और जब अन्य मन विषयों से पृथक् होकर
अहंकार की केवल सत्वावस्था ही शेष रहती है, तब उसे अस्मिता समाधि कहते है। जिस
मनुष्य ने इस अवस्था की प्राप्ति कर ली है, उसे वेदों में 'विदेह' कहा गया है।
ऐसा व्यक्ति स्वयं का स्थूल देह से रहित रूप में चिंतन कर सकता है, पर तो भी
उसे स्वयं को एक सूक्ष्म शरीरधारी के रूप में सोचना ही पड़ता है। जो लोग इस
अवस्था में रहते हुए, उम परम ध्येय की प्राप्ति बिना किए, प्रकृति में लीन हो
जाते हैं, उन्हें प्रकृतिलय कहते है। पर जो लोग वहां पर भी नहीं रुकते हैं, वे
ही चरम लक्ष्य-मुक्ति--प्राप्त करते हैं।
विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ॥१८॥
१८. दूसरे प्रकार की समाधि में समस्त मानसिक क्रियाओं के विराम का सतत अभ्यास
किया जाता है (उसमें व्युत्थान-प्रत्ययहीन) संस्कार मात्र ही शेष रहता है।
यही वह पूर्ण अतिचेतन असंप्रज्ञात समाधि है, जो हमें मुक्त कर देती है। पहले
जिस समाधि की बात कही गई है, वह हमें मुक्ति नहीं दे सकती--आत्मा को मुक्त
नहीं कर सकती। भले ही कोई मनुष्य समस्त शक्तियाँ प्राप्त कर ले, पर तो भी उसका
पतन हो सकता है। जब तक आत्मा प्रकृति के परे नहीं चली जाती, तब तक पतन का भय
बना ही रहता है। यद्यपि इसकी साधन-प्रणाली बहुत सरल मालूम होती है, पर इसे
प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। यह साधन प्रणाली ऐसी है कि इसमें स्वयं मन पर
ध्यान करना पड़ता है, और जब कमी कोई विचार उठता है, तो तत्क्षण उसे दवा देना
पड़ता है; मन के अंदर किसी प्रकार के विचार को स्थान न देकर उसे संपूर्णतया
शून्य कर देना पड़ता है। जब हम सचमुच यह करने में समर्थ हो जाएंगे, तो बस, उसी
क्षण हम मुक्त हो जाएंगे। जो लोग पूर्व-साधन या पूर्व-तैयारियाँ किए बिना ही
मन को शून्य करने का प्रयत्न करते हैं, उनका मन अज्ञानात्मक तमोगुण से आवृत हो
जाता है, और वह उनके मन को आलसी एवं अकर्मण्य कर देता है, यद्यपि वे सोचते हैं
कि वे मन को शून्य कर रहे हैं। इसके साधन में सचमुच समर्थ होना उच्चतम शक्ति
की अभिव्यक्ति है--मन को शून्य करने में समर्थ होना यानी सयम की चरमावस्था
प्राप्त कर लेना है। जब इस असंप्रज्ञात या अतिचेतन अवस्था की प्राप्ति हो जाती
है, तब यह समाधि
निर्बीज हो जाती है। समाधि के निर्बीज होने का तात्पर्य क्या है? संप्रज्ञात
समाधि में चित्तवृत्तियों का केवल दमन भर होता है, पर तब भी वे संस्कार या
बीजाकार में विद्यमान रहती हैं। अवसर पाते ही वे पुन: तरंगाकार में प्रकट हो
जाती हैं। पर जब संस्कारों को भी निर्मूल कर दिया जाता है, जब मन को भी लगभग
नष्ट कर दिया जाता है, तब समाधि निर्बीज हो जाती है; तब मन में ऐसा कोई
संस्कार-बीज नहीं रह जाता, जिससे यह जीवन-लता फिर से लहलहा सके, जिससे यह
अविराम जन्म-मृत्यु का चक्र और भी घूम सके।
तुम लोग पूछ सकते हो कि वह फिर ऐसी कौन सी अवस्था है, जहाँ मन नहीं, जिसमें
कोई ज्ञान नहीं? जिसे हम ज्ञान कहते हैं, वह तो उस अतिचेतन अवस्था की तुलना
में एक निम्नतर अवस्था मात्र है। यह हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि किसी विषय की
सर्वोच्च और सर्वनिम्न अवस्थाएँ प्रायः एक ही प्रकार की मालूम होती हैं। ईथर
(आकाश-तत्त्व) का कंपन निम्नतम होने से उसे अंधकार कहते हैं, मध्य कोटि का
होने से आलोक और फिर उसका उच्चतम कंपन भी अंधकार के समान दिखता है। इसी
प्रकार, अज्ञान सबसे निम्नावस्था है और ज्ञान मध्यावस्था। और इस ज्ञान के भी
अतीत एक उच्च अवस्था है। पर अज्ञानावस्था और ज्ञानातीत अवस्था, दोनों देखने
में एक ही समान हैं। हम जिसे ज्ञान कहते हैं, वह एक उत्पन्न द्रव्य है--एक
मिश्र पदार्थ है, वह प्रकृत सत्य नहीं है।
प्रश्न उठ सकता है, इस उच्चतर समाधि के लगातार अभ्यास का फल क्या होगा? इस
अम्यास के पहले अस्थिरता और जड़त्व की ओर हमारे मन को जो गति थी, इस अभ्यास से
वह तो नष्ट होगी ही, साथ ही सत्प्रवृत्ति का भी नाश हो जाएगा। बिना साफ़ किए
हुए सोने में, मल निकालने के लिए कोई रासायनिक वस्तु मिलाने पर जो कुछ होता
है, यहाँ भी ठीक वैसा ही होता है। जब खान से निकाली हुई अपरिष्कृत धातु को
गलाया जाता है, तब जो रासायनिक पदार्थ उसके साथ मिलाये जाते हैं, वे भी उसके
मैल के साथ गल जाते हैं। इसी प्रकार, पूर्वोक्त समाधि के सतत अम्यास से जो
संयम-शक्ति प्राप्त होती है, उससे पहले की असत् प्रवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं
और अंत में सत्प्रवृतियाँ भी। इस तरह सत् और अस्त, दोनों प्रकार की
प्रवृत्तियों के निरोष से आत्मा सब प्रकार के बंधनों से विमुक्त हो जाती है और
अपनी महिमा में, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान एवं सर्वज्ञ रूप से अवस्थित रहती
है। तब मनुष्य जान पाता है कि न कभी उसका जन्म था, न मृत्यु; न उसे कभी इहलोक
की जरूरत थी, न परलोक की। तब वह जान पाता है कि न वह कहीं से आया था, न कहीं
गया; वह तो प्रकृति थी, जो यहाँ-वहाँ आवागमन कर रही थी, और प्रकृति की यह हलचल
ही आत्मा में प्रतिबिंबित हो रही थी। कांच में से प्रतिबिंबित होकर प्रकाश
दीवाल पर पड़ता है और हिलता-डुलता है। दीवाल मूर्ख के समान शायद सोचती हो कि
मैं ही हिल-डुल रही हूँ। ठीक ऐसा ही हम सबों के बारे में भी है। चित्त ही
लगातार इधर-उधर जा रहा है, अपने को नाना रूपों में परिणत कर रहा है, पर हम लोग
सोचते हैं कि हमीं ये विभिन्न रूप धारण कर रहे हैं। असंप्रज्ञात समाधि के
अभ्यास से यह सारा अज्ञान दूर हो जाएगा। जब वह मुक्त आत्मा कोई आदेश
देगी--भिखारी की भाँति प्रार्थना करेगी या मांगेगी नहीं, वरन् आदेश देगी--तब
वह जो कुछ चाहेगी, सब तुरंत पूर्ण हो जाएगा; वह जो कुछ इच्छा करेगी, वही करने
में समर्थ होगी। सांख्य दर्शन के मतानुसार ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। यह
दर्शन कहता है कि जगत का कोई ईश्वर नहीं हो सकता, क्योंकि यदि वह हो, तो अवश्य
वह एक आत्मा ही होना चाहिए, और आत्मा या तो बद्ध होगी या मुक्त। जो आत्मा
प्रकृति के अधीन है, प्रकृति ने जिस पर अपना आधिपत्य जमा लिया है, वह भला कसे
सृष्टि कर सकेगी? वह तो स्वयं एक दास है। और दूसरी ओर, यदि आत्मा मुक्त हो, तो
वह क्यों इस जगत-प्रपंच की रचना करेगी, क्यों इस पूरे संसार की क्रिया आदि का
संचालन करेगी? उसकी तो कोई अभिलाषा नहीं रह सकती, अत: उसके सृष्टि या जगत-शासन
आदि करने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। द्वितीयतः, यह सांख्य दर्शन कहना है कि
ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रकृति को मानने से
ही जब सभी का स्पष्टीकरण हो जाता है, तो फिर किसी ईश्वर को लाने की आवश्यकता
क्या? कपिल मुनि कहते हैं कि बहुत से व्यक्ति ऐसे हैं, जो सिद्धावस्था के
नजदीक जाकर भी विभूति-लाभ की वासना पूर्णतया छोड़ने में समर्थ न होने के कारण
योगभ्रष्ट हो जाते हैं। उनका मन कुछ काल तक प्रकृति में लीन होकर रहता है। जब
वे पुनः पैदा होते हैं, तब प्रकृति के मालिक होकर आते हैं। यदि इन्हें ईश्वर
कहो, तो ऐसे ईश्वर अवश्य हैं। हम सभी एक समय ऐसा ईश्वरत्व प्राप्त करेंगे।
सांख्य दर्शन के मतानुसार, वेद में जिस ईश्वर की बात कही गई है, वह ऐसी ही एक
मुक्तात्मा का वर्णन मात्र है। इसके अतिरिक्त जगत का अन्य कोई नित्य मुक्त,
आनंदमय सृष्टिकर्ता नहीं है। दूसरी ओर, योगीगण कहते हैं, "नहीं, ईश्वर है;
अन्य सभी आत्माओं से--सभी पुरुषों से अलग एक विशेष पुरुष है; वह समग्र सृष्टि
का नित्य प्रभु है, वह नित्य मुक्त है और सभी गुरुओं का गुरुस्वरूप है।"
सांख्यमतवाले जिन्हें प्रकृतिलय कहते हैं, योगीगण उनका भी अस्तित्व स्वीकार
करते हैं। वे कहते हैं कि ये योगभ्रष्ट योगी हैं। कुछ समय तक के लिए उनकी चरम
लक्ष्य की ओर गति में बाधा होती है, और उस समय वे जगत के वंशविशेष के
अधिपतिरूप से अवस्थान करते हैं।
भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ॥१९॥
१९. (यह समाधि यदि परवैराग्य के साथ अनुष्ठित न हो, तो) वही देवताओं और
प्रकृतिलीनों को पुनरुत्पत्ति का कारण है।
भारतीय दर्शन-प्रणालियों में देवता कुछ उच्च पदविशेष का प्रतिनिधित्व करते
हैं। भिन्न-भिन्न जीवात्मा एक के बाद एक इन पदों की पूर्ति करते हैं। पर इनमें
से कोई भी पूर्ण नहीं हैं।
श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ॥२०॥
२०. दूसरों को श्रद्धा अर्थात् विश्वास, वीर्य अर्थात् मन का तेज, स्मृति,
समाधि अर्थात् एकाग्रता और प्रशा अर्थात् सत्य वस्तु के विवेक से (यह समाधि)
प्राप्त होती है।
जो लोग देवतापद या किसी कल्प के शासनकर्ता होने की भी कामना नहीं करते,
उन्हींकी बात कही जा रही है। वे मुक्ति प्राप्त करते हैं।
तीसंवेगानामासन्नः ॥२१॥
२१. जिनके साधन की गति तीव्र है, उनके लिए (यह योग) शीघ्र (सिद्ध) हो जाता है।
मृदुमध्याधिमात्रल्वात् ततोऽपि विशेषः॥२२॥
२२. साधन की हल्की, मध्यम और उच्च मात्रा के अनुसार योगियों को सिद्धि में भी
भेद हो जाता है।
ईश्वरप्रणिधानाद्वा ॥२३॥
२३. अथवा ईश्वर के प्रति भक्ति से भी (समाधि सिद्ध होती है)।
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ॥२४॥
२४. दुःख, कर्म, कर्मफल और वासना के संबंध से रहित पुरुषविशेष ईश्वर (परम
नियंता) है।
हमें यहाँ फिर से स्मरण करना होगा कि पातंजल-योगदर्शन सांख्य दर्शन पर आधारित
है। भेद केवल इतना है कि सांख्य दर्शन में ईश्वर का स्थान नहीं है, जब कि
योगीगण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। ईश्वर को मानने पर भी योगी गण
ईश्वर संबंधी सृष्टि-कर्तृत्व आदि विविध भावों की कोई बात नहीं उठाते। योगियों
के ईश्वर से जगत के सृष्टिकर्ता ईश्वर का बोध नहीं होता। वेद के मतानुसार
ईश्वर जगत-स्रष्टा है। चूँकि जगत में सामंजस्य देखा जाता है, अतः जगत अवश्य एक
इच्छा- शक्ति की ही अभिव्यक्ति होगा। योगीगण ईश्वर का अस्तित्व स्थापित करने
के लिए अपनी एक नए प्रकार की यक्ति काम में लाते हैं। वे कहते हैं:
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञत्वबीजम् ॥२५॥
२५. औरों में जिस सर्वज्ञत्व का बीज मात्र रहता है, वही उनमें निरतिशेय
अर्थात् अनंत भाव धारण करता है।
मन को सदैव अति बृहत् और अति क्षुद्र, इन दो चरम भावों के भीतर ही घूमना पड़ता
है। तुम एक ससीम देश की बात भले ही सोचो, पर वही भावना तुम्हारे भीतर असीम देश
का भाव भी जगा देगी। यदि आँखें बंद करके तुम एक छोटे से देश के बारे में सोचो,
तो देखोगे, उस मोटे से देशरूप वृत्त के साथ ही उसके चारों और अमर्यादित
विस्तारवाला एक दूसरा वृत्त भी है। काल के बारे में भी ठीक यही बात है। मान
लो, तुम एक सेकेंड समय के बारे में सोच रहे हो। तो उसके साथ ही साथ तुमको अनंत
काल की भी बात सोचनी पड़ेगी। ज्ञान के बारे में भी ठीक ऐसा ही समझना चाहिए।
मनुष्य में ज्ञान का केवल बीज-भाव है; पर इस क्षुद्र ज्ञान की बात मन में लाने
के साथ ही अनंत ज्ञान के बारे में भी सोचना पड़ेगा। इस प्रकार हमारे, मन की
गठन से ही यह बिल्कुल स्पष्ट है कि एक अनंत ज्ञान है। इस अनंत ज्ञान को ही
योगीगण ईश्वर कहते हैं।
स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥२६॥
२६. वे प्राचीन गुरुगणों के भी गुरु हैं, क्योंकि ये काल से सीमित नहीं हैं।
यह सत्य है कि समस्त ज्ञान हमारे भीतर ही निहित है, पर उसे एक दूसरे ज्ञान के
द्वारा जाग्रत करना पड़ता है। यद्यपि जानने की शक्ति हमारे अंदर ही विद्यमान
है, फिर भी हमें उसे जगाना पड़ता है। और योगियों के मतानुसार, ज्ञान को इस
प्रकार जगाना अर्थात् ज्ञान का उन्मेष एक दूसरे ज्ञान के सहारे ही हो सकता है।
अचेतन जड़ पदार्थ ज्ञान का विकास कभी नहीं करा सकता--केवल ज्ञान की शक्ति से
ही ज्ञान का विकास होता है। हमारे अंदर जो ज्ञान है, उसको जगाने के लिए
ज्ञानीपुरुषों का हमारे पास रहना सदैव आवश्यक है। यही कारण है कि इन गुरुओं को
आवश्यकता सदा ही बनी रही है। जगत कभी भी इन आचार्यों से रहित नहीं हुआ। उनकी
सहायता बिना कोई भी ज्ञान नहीं आ सकता। ईश्वर सारे गुरुओं का भी गुरु है,
क्योंकि ये सब गुरु कितने ही उन्नत क्यों न रहे हों, वे देवता या स्वर्गदूत ही
क्यों न रहे हों, पर वे सबके सब बद्ध थे और काल से सीमित थे; किंतु ईश्वर काल
से आबद्ध नहीं है। योगियों के दो विशेष सिद्धांत हैं। एक तो यह कि शांत वस्तु
की भावना करते ही मन बाध्य होकर अनंत की भी बात सोचेगा, और यदि उस मानसिक
अनुभूति का एक भाग सत्य हो, तो उसका दूसरा भाग भी अवश्यमेव सत्य होगा। क्यों?
इसलिए कि जब दोनों उस एक ही मन की अनुभूतियाँ हैं, तो दोनों अनुभूतियों का
मूल्य समान ही होगा। मनुष्य का ज्ञान अल्प है अर्थात् मनुष्य अल्पज्ञ है--इसी
से जाना जाता है कि ईश्वर का ज्ञान अनंत है, ईश्वर अनंत ज्ञानसंपन्न है। यदि
हम इन दोनों अनुभूतियों में से एक को ग्रहण करें, तो दूसरे को भी क्यों न
ग्रहण करेंगे? युक्ति तो कहती है या तो दोनों को मान लो, या फिर दोनों को ही
छोड़ दो। यदि मैं विश्वास करूं कि मनुष्य अल्पज्ञानसंपन्न है, तो मुझे यह भी
अवश्य मानना पड़ेगा कि उसके पीछे कोई असीम ज्ञानसंपन्न पुरुष है। दूसरा
सिद्धांत यह है कि गुरु बिना कोई भी ज्ञान नहीं हो सकता। आजकल के दार्शनिकों
का जो कथन है कि मनुष्य का ज्ञान उसके स्वयं के भीतर से उत्पन्न होता है, यह
सच है; सारा ज्ञान मनुष्य के भीतर ही विद्यमान है, पर उस ज्ञान के विकास के
लिए कुछ अनुकूल परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। हम गुरु बिना कोई ज्ञान
प्राप्त नहीं कर सकते। अब बात यह है कि यदि मनुष्य, देवता अथवा कोई स्वर्गदूत
हमारे गुरु हों, तो वे भी तो ससीम हैं। फिर उनसे पहले उनके गुरु कौन थे? हमें
मजबूर होकर यह चरम सिद्धांत स्थिर करना ही होगा कि एक ऐसे गुरु हैं, जो काल के
द्वारा सीमाबद्ध या अवच्छिन्न नहीं हैं। उन्हीं अनंत शानसंपन्न गुरु को, जिनका
आदि भी नहीं और अंत भी नहीं, ईश्वर कहते हैं।
तस्य बाचकः प्रणवः ॥२७॥
२७. प्रणव अर्थात् ओंकार उनका वाचक (प्रकाशक) है।
तुम्हारे मन में जो भी भाव उठता है, उसका एक प्रतिरूप शब्द भी रहता है। इस
शब्द और भाव को अलग नहीं किया जा सकता। एक ही वस्तु के बाहरी भाग को शब्द और
अंतर्भाग को विचार या भाव कहते हैं। कोई भी व्यक्ति विश्लेषण के बल से विचार
को शब्द से अलग नहीं कर सकता। बहुतों का मत है कि कुछ लोग एक साथ बैठकर यह
स्थिर करने लगे कि किस भाव के लिए कौन से शब्द का प्रयोग किया जाए, और इस
प्रकार भाषा की उत्पत्ति हो गई। किंतु यह प्रमाणित हो चुका है कि यह मत
भ्रमात्मक है। जब से मनुष्य विद्यमान है, तब से शब्द और भाषाएँ रही हैं। अब
प्रश्न यह है कि एक भाव और एक शब्द में परस्पर क्या संबंध है। यद्यपि हम देखते
हैं कि एक भाव के साथ एक शब्द का रहना अनिवार्य है, तथापि ऐसा नहीं कि एक भाव
एक ही शब्द द्वारा प्रकाशित हो। बीस विभिन्न देशों में भाव एक ही होने पर भी
भाषाएँ बिल्कुल भिन्न-भिन्न हो सकती हैं। प्रत्येक भाव को प्रकट करने के लिए
एक न एक शब्द की आवश्यकता अवश्य होगी, किंतु इन शब्दों का एक ही ध्वनिविशिष्ट
होना कोई आवश्यक नहीं। विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न ध्वनिविशिष्ट शब्दों का
व्यवहार होगा। इसीलिए टीकाकार ने कहा है, "यद्यपि भाव और शब्द का परस्पर संबंध
स्वाभाविक है,तथापि एक ध्वनि और एक भाव के बीच एक नितांत अलंघनीय संबंध ही
रहे, ऐसी कोई बात नहीं।"
[3]
यद्यपि ये सब ध्वनियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, तो भी ध्वनि और भाव का परस्पर
संबंध स्वाभाविक है। यदि वाच्य और वाचक के बीच प्रकृत संबंध रहे, तभी यह कहा
जा सकता है कि भाव और ध्वनि के बीच परस्पर संबंध है। यदि ऐसा न हो, तो वह वाचक
शब्द कभी सर्वसाधारण के उपयोग में नहीं आ सकता। वाचक वाच्य पदार्थ का प्रकाशक
होता है। यदि वह वाच्य वस्तु पहले से अस्तित्व में रहे, और हम यदि पुनः पुनः
परीक्षा द्वारा यह देखें कि उस वाचक शब्द ने उस वस्तु को अनेक बार सूचित किया
है, तो हम निश्चित रूप से यह मान सकते हैं कि उस वाच्य और वाचक के बीच एक
यथार्थ संबंध है। यदि ये वाच्य पदार्थ न भी रहें, तो भी हजारों मनुष्य उनके
बाचकों के द्वारा ही उनका ज्ञान प्राप्त करेंगे। पर हाँ, वाच्य और वाचक के बीच
एक स्वाभाविक संबंध रहना अनिवार्य है। ऐसा होने पर, ज्यों ही उस वाचक-शब्द का
उच्चारण किया जाएगा, ही ज्यों ही वह उस वाच्य पदार्थ की बात मन में ला देगा।
सूत्रकार कहते हैं, ओंकार ईश्वर का वाचक है। सूत्रकार ने विशेष रूप से 'ॐ'
शब्द का ही उल्लेख क्यों किया है? 'ईश्वर'--इस भाव को व्यक्त करने के लिए तो
सैकड़ों शब्द हैं। एक भाव के साथ हजारों शब्दों का संबन्ध रहता है।
'ईश्वर'--इस भाव का सैकड़ों शब्दों के साथ संबंध है और उनमें से प्रत्येक ही
लो ईश्वर का वाचक है। फिर उन्होंने 'ॐ' को ही क्यों चुना? हाँ, ठीक है; पर
वैसा होने पर भी उन शब्दों में से एक सामान्य शब्द चुन लेना चाहिए। उन सारे
वाचकों का एक सामान्य आधार निकालना होगा, और जो वाचक-शब्द सबका सामान्य वाचक
होगा, वही सर्वश्रेष्ठ, समझा जाएगा, और वास्तव में वही उसका यथार्थ वाचक होगा।
किसी ध्वनि के लिए हम कंठ-नली और ताल का ध्वनि के आधार-रूप में व्यवहार करते
हैं। क्या ऐसी कोई भौतिक ध्वनि है, जिसकी कि अन्य सब ध्वनियाँ अभिव्यक्ति हैं,
जो स्वभावतः ही दूसरी सब ध्वनियों को समझा सकती है हो, 'ओम्' (अउम्) ही वह
ध्वनि है। वही सारी ध्वनियों की भित्तिस्वरूप है। उसका प्रथम अक्षर 'अ' सभी
ध्वनियों का मूल है--वह सारी ध्वनियों की कुंजी के समान है, वह जिह्वा या तालु
के किसी अंश को स्पर्श किए बिना ही उच्चारित होता है। 'म्' ध्वनि-श्रृंखला की
अंतिम ध्वनि है, उसका उच्चारण करने में दोनों ओठों को बंद करना पड़ता है। और
'उ' ध्वनि जिह्वा के मूल से लेकर मुख के मध्यवर्ती ध्वनि के आधार की अंतिम
सीमा तक मानो ढुलकता आता है। इस प्रकार 'ॐ' शब्द के द्वारा ध्वनि-उत्पादन की
संपूर्ण क्रिया प्रकट हो जाती है। अतएव वही स्वाभाविक वाचक-ध्वनि है, वही सब
विभिन्न ध्वनि की जननीस्वरूप है। जितने प्रकार के शब्द उच्चारित हो सकते
हैं--हमारी ताकत में जितने प्रकार के शब्द के उच्चारण की संभावना है, 'ओम्' उन
सभी का सूचक है। यह सब तात्त्विक चर्चा छोड़ देने पर भी, हम देखते हैं कि
भारतवर्ष में जितने सारे विभिन्न धर्मभाव हैं, यह ओंकार उन सबका केंद्रस्वरूप
है, वेद के सब विभिन्न धर्मभाव इस ओंकार का ही अवलंबनकिए हुए हैं। अब प्रश्न
यह है कि इसके साथ अमेरिका, इंग्लैंड और अन्यान्य देशों का क्या संबंध है?
उत्तर यह है कि सब देशों में इस ओंकार का व्यवहार हो सकता है। कारण, भारत में
धर्म के विकास की प्रत्येक अवस्था--में उसके प्रत्येक सोपान में ओंकार को
अपनाया गया है, उसका आश्रय लिया गया है और वह ईश्वर संबंधी सारे विभिन्न भावों
को व्यक्त करने के लिए व्यवहृत हुआ है। अद्वैतवादी, द्वैतवादी,
द्वैताद्वैतवादी, भेदवादी, यहाँ तक कि नास्तिकों ने भी अपने उच्चतम आदर्श को
प्रकट करने के लिए इस ओंकार का अवलंबन किया था। मानव-जाति के अधिकांश के लिए
यह ओंकार उनकी अपनी धार्मिक स्पृहा का एक प्रतीक बन गया है। अंग्रेजी गॉड
(God) शब्द को लो। वह जिस भाव को प्रकट करता है, वह कोई अधिक दूर तक नहीं जा
सकता। यदि तुम उसके अतिरिक्त अन्य कोई भाव उस शब्द से व्यक्त करने की इच्छा
करो, तो तुम्हें उसमें विशेषण लगाना पड़ेगा जैसे सगुण (personal), निर्गुण
(impersonal), निविशेष (absolute) आदि -आदि। अन्य दूसरी भाषाओं में ईश्वर-वाचक
जो सब शब्द हैं, उनके बारे में भी यही बात घटती है, उनमें बहुत कम भाव प्रकट
करने की शक्ति है; किंतु 'ॐ' शब्द में ये सभी प्रकार के भाव विद्यमान हैं।
अतएव सर्वसाधारण को उसका ग्रहण करना चाहिए।
तज्जपस्तदर्थभावनम् ॥२८॥
२८. इस (ओंकार) का जप और उसके अर्थ का ध्यान (समाधि-लाभ का उपाय है।)
जप अर्थात् बारंबार उच्चारण की आवश्यकता क्या है? हम संस्कारविषयक मतवाद को न
भूले होंगे, हमें स्मरण होगा कि समस्त संस्कारों की समष्टि हमारे मन में
विद्यमान है। ये संस्कार क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होकर अब्यक्त भाव धारण
करते हैं। पर वे बिल्कुल लुप्त नहीं हो जाते, वे मन के अंदर ही रहते हैं, और
ज्यों ही उन्हें यथोचित उद्दीपना मिलती है, बस, त्यों ही में चित्तरूपी सरोवर
की सतह पर उठ आते हैं। परमाणु-कंपन कभी बंद नहीं होता। जब यह सारा संसार नाश
को प्राप्त होता है, तब सब बड़े बड़े कंपन या प्रवाह लुप्त हो जाते हैं;
सूर्य, चंद्रमा, तारे, पृथ्वी, सभी लय को प्राप्त हो जाते हैं; पर कंपन
परमाणुओं में बच रहते हैं। इन बड़े बड़े ब्रह्मांडों में जो कार्य होता है,
प्रत्येक परमाणु वही कार्य करता है। ठीक ऐसा ही चित्त के बारे में भी है।
चित्त में होने वाले सब कंपन अदृश्य अवश्य हो जाते हैं, फिर भी परमाणु के कंपन
के समान उनकी सूक्ष्म गति अक्षुण्ण बनी रहती है, और ज्यों ही उन्हें कोई संवेग
मिलता है, बस, त्यों ही वे पुनः बाहर आ जाते हैं। अब हम समझ सकेंगे कि जप
अर्थात् बारंबार उच्चारण का तात्पर्य क्या है। हम लोगों के अंदर जो आध्यात्मिक
संस्कार हैं, उन्हें विशेष रूप से उद्दीप्त करने में यह प्रधान सहायक है।
क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका। भवति भवार्णवतरणे नौका।--'साधुओं का एक क्षण का भी
सत्संग भवसागर पार होने के लिए नौकास्वरूप है।" सत्संग की ऐसी जबरदस्त शक्ति
है! बाह्य सत्संग की जैसी शक्ति बतलायी गई है, वैसी ही आंतरिक सत्संग की भी
है। इस ओंकार का बारंबार जप करना और उसके अर्थ का मनन करना ही आंतरिक सत्संग
है। जप करो और उसके साथ उस शब्द के अर्थ का ध्यान करो। ऐसा करने से, देखोगे,
हृदय में ज्ञानालोक आएगा और आत्मा प्रकाशित हो जाएगी।
'ॐ' शब्द पर मनन तो करोगे ही, पर साथ ही उसके अर्थ पर भी मनन करो। कुसंग छोड़
दो; क्योंकि पुराने घाव के चिह्न अभी भी तुममें बने हुए हैं। उन पर कुसंग की
गर्मी लगने भर की देर है कि बस, वे फिर से ताजे हो उठेंगे। ठीक इसी प्रकार हम
लोगों में जो उत्तम संस्कार हैं, वे भले ही अभी अव्यक्त हों, पर सत्संग से वे
फिर जाग्रत--व्यक्त हो जाएंगे। संसार में सत्संगसे पवित्र और कुछ भी नहीं है,
क्योंकि सत्संग से ही शुभ संस्कार चित्तरूपी सरोवर की तली से ऊपरी सतह पर उठ
आने के लिए उन्मुख होते हैं।
ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ॥२९॥
२९. उससे अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है और (योग के) विघ्नों का नाश होता है।
इस ओंकार के जप और चिंतन का पहला फल यह देखोगे कि क्रमशः अंतर्दृष्टि विकसित
होने लगेगी और योग के मानसिक एवं शारीरिक विघ्नसमूह दूर होते जाएंगे। योग के
ये विघ्न क्या है?
व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिम्रान्तिदर्शनालब्धभूमि
करवानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेन्तरायाः॥३०॥
३०. रोग, मानसिक जड़ता, संदेह, उद्यमशून्यता, आलस्य, विषम-तृष्णा, मिथ्या
अनुभव, एकाग्रता न पाना, और उसे पाने पर भी उससे च्युत हो जाना-ये जो चित्त के
विक्षेप हैं, वे ही विघ्न हैं।
व्याधि : इस जीवन-समुद्र के उस पार जाने के लिए यह शरीर ही एकमात्र नाव है।
इसे स्वस्थ रखने के लिए विशेष यत्न करना चाहिए। जिसका शरीर अस्वस्थ है, वह
योगी नहीं हो सकता। मानसिक जड़ता आने पर हमारी योगविषयक सारी सजीव रुचि खो
जाती है। और इस रुचि के अभाव में, साधन करने के लिए न तो दृढ़ संकल्प होगा, न
शक्ति ही मिलेगी। इस विषय में हमारा विचारजनित विश्वास कितना भी बलशाली क्यों
न रहे, पर जब तक दूरदर्शन, दूरश्रवण आदि अलौकिक अनुभूतियाँ नहीं होतीं, तब तक
इस विद्या की सत्यता के बारे में बहुत से संशय उपस्थित होंगे। जब इन सबका
थोड़ा-थोड़ा आभास होने लगता है, तब साधक भी साधन-मार्ग में और अध्यवसायशील
होता जाता है। अनवस्थितत्त्व : साधन करते करते देखोगे कि कुछ दिन या कुछ
सप्ताह तो मन अनायास ही एकान और स्थिर हो जाता है। उस समय ऐसा मालूम होगा कि
तुम साधन-मार्ग में बहुत शीघ्र उन्नति कर रहे हो। अचानक एक दिन देखोगे कि
तुम्हारा यह उन्नति-स्रोत बंद हो गया है, मानो जहाज दलदल में फंस गया हो। पर
उससे कहीं हताश मत हो जाना, अध्यवसाय मत खो बैठना। लगे रहो। इस प्रकार उत्थान
और पतन में से होते हुए ही उन्नति होती है।
दु:खदौर्मनस्यांगमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः ॥३१॥
३१. दुःख, मन खराब होना, शरीर हिलना, अनियमित श्वास-प्रश्वास--ये सब (चित्त
के) विक्षेपों के साथ-साथ उत्पन्न होते हैं।
जब कभी एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है, तभी मन और शरीर पूर्ण स्थिर भाव धारण
करते हैं। जब साधना ठीक तरीके से नहीं होती, अथवा जब चित्त पर्याप्त संयत नहीं
रहता, तभी ये सब विघ्न आ उपस्थित होते हैं। ओंकार के जप और ईश्वर के प्रति
आत्मसमर्पण से मन दृढ़ होता है तथा नया बल प्राप्त होता है। साधन-मार्ग में
ऐसी स्नायविक चंचलता प्रायः सभी को आती है। उधर तनिक भी ध्यान न दे साधना करते
रहो। साधना से ही वे सब चले जाएंगे, और तब आसन स्थिर हो जाएगा।
तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः ॥३२॥
३२. उनको दूर करने के लिए एक तत्त्व का अभ्यास (करना चाहिए)।
कुछ समय तक के लिए मन को किसी विशिष्ट विषय के आकार में परिणत करने की चेष्टा
करने से पूर्वोक्त विघ्न दूर हो जाते हैं। यह उपदेश आत्यन्त साधारण रूप से
दिया गया है। अगले सूत्रों में यही उपदेश विस्तृत रूप से समझाया जाएगा और
विशिष्ट ध्येय-विषयों के संबंध में इस साधारण उपदेश का प्रयोग बतलाया जाएगा।
एक ही प्रकार का अभ्यास सबके लिए उपयोगी नहीं हो सकता, इसी लिए विभिन्न उपायों
की बात कही गई है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं यथार्थ अनुभव द्वारा अपने लिए जो
उपाय सहायक है, उसे चुन ले सकता है।
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां
भावनातश्चित्तप्रसादनम् ॥३३॥
३३. सुख, दुःख, पुण्य और पाप--इन भावों के प्रति क्रमशः मित्रता, दया, आनंद और
उपेक्षा का भाव धारण कर सकने से चित्त प्रसन्न होता है।
हममें ये चार प्रकार के भाव रहने ही चाहिए। यह आवश्यक है कि हम सबके प्रति
मैत्री-भाव रखें, दीन-दुःखियों के प्रति दयावान हों, लोगों को सत्कर्म करते
देख सुखी हों, और दुष्ट मनुष्य के प्रति उपेक्षा दिखायें। इसी प्रकार, जो भी
विषय हमारे सामने आते हैं, उन सबके प्रति भी हमारे ये ही भाव रहने चाहिए। यदि
कोई विषय सुखकर हो, तो उसके प्रति मित्रता अर्थात् अनुकूल भाव धारण करना
चाहिए। इसी तरह, यदि हमारी भावना का विषय दुःखकर हो, तो हमारे अंतःकरण को उसके
प्रति करुणापूर्ण होना चाहिए। यदि वह कोई शुभ विषय हो, तो हमें आनन्दित होना
चाहिए, तथा अशुभ विषय होने पर उसके प्रति उदासीन रहना ही श्रेयस्कर है। इन सब
विभिन्न विषयों के प्रति मन के इस प्रकार विभिन्न भाव धारण करने से मन शांत हो
जाएगा। मन की इस प्रकार के विभिन्न भावों कोधारण करने की असमर्थता ही हमारे
दैनिक जीवन की अधिकांश गड़बड़ी एवं अशांति का कारण है। मान लो, किसीने मेरे
प्रति कोई अनुचित व्यवहार किया। तो मैं तुरंत उसका प्रतिकार करने को उद्यत हो
जाता हूँ। और इस प्रकार बदला लेने की भावना ही यह दिखाती है कि हम चित्त को
दबा रखने में असमर्थ हो रहे हैं। वह उस वस्तु की ओर तरंगाकार में प्रवाहित
होता है, और बस, हम अपनी मन की शक्ति खो बैठते हैं। हमारे मन में घृणा अथवा
दूसरों का अनिष्ट करने की प्रवृत्ति के रूप में जो प्रतिक्रिया होती है, वह मन
की शक्ति का अपचय मात्र है। दूसरी ओर, यदि किसी अशुभ विचार या घृणाप्रसूत
कार्य अथवा किसी प्रकार की प्रतिक्रिया की भावना का दमन किया जाए, तो उससे
शुभकरी शक्ति उत्पन्न होकर हमारे ही उपकार के लिए संचित रहती है। यह बात नहीं
कि इस प्रकार के संयम से हमारी कोई क्षति होती हो, वरन् उससे तो हमारा आशातीत
उपकार ही होता है। जब कभी हम घृणा अथवा क्रोध की वृत्ति को संयत करते हैं, तभी
वह हमारे अनुकूल शुभ शक्ति के रूप में संचित होकर उच्चतर शक्ति में परिणत हो
जाती है।
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ॥३४॥
३४. अथवा प्राणवायु को बाहर निकालने और धारण करने से भी (चित्त स्थिर होता
है)।
यहाँ पर 'प्राण' शब्द का व्यवहार हुआ है। प्राण ठीक श्वास नहीं है। समग्र जगत
में जो ऊर्जा शक्ति व्याप्त हुई है, उसी का नाम है प्राण। संसार में तुम जो
कुछ देखते हो, जो कुछ हिलता-डुलता या कार्य करता है, जिसमें भी जीवन है--वह सब
इस प्राण की ही अभिव्यक्ति है। जगत में जितनी भी शक्तियाँ विद्यमान हैं, उनकी
समष्टि को प्राण कहते हैं। कल्प-आरंभ के पूर्व यह प्राण एक प्रकार से बिल्कुल
गतिहीन अवस्था में रहता है, और कल्प के शुरू होने पर वह फिर से व्यक्त होना
प्रारंभ करता है। यह प्राण ही गति के रूप में--मनुष्यों अथवा अन्य प्राणियों
में स्नायविक गति के रूप में--प्रकाशित होता है। फिर यही विचार तथा अन्य
शक्तियों के रूप में भी प्रकाशित होता है। यह सारा जगत इस प्राण एवं आकाश की
समष्टि है। मनुष्य-देह के बारे में भी ठीक यही बात है। जो कुछ तुम देखते हो या
अनुभव करते हो, वे सारे पदार्थ आकाश से उत्पन्न हुए हैं और प्राण से सारी
विभिन्न शक्तियाँ। इस प्राण को बाहर निकालने और धारण करने का नाम ही प्राणायाम
है। योगदर्शन के जनक पतंजलि ने इस प्राणायाम के बारे में कोई विशेष विधान नहीं
किया है, परंतु उनके बाद दूसरे योगियों ने इस प्राणायाम के संबंध में अनेक
तत्त्वों का आविष्कार कर उसकी एक महान विद्या तैयार कर दी। पतंजलि के मतानुसार
यह प्राणायाम चित्तवृत्ति-निरोध के विभिन्न उपायों में से केवल एक उपाय है,
परंतु उन्होंने इस पर कोई विशेष जोर नहीं दिया है। उनका अभिप्राय इतना ही रहा
है कि श्वास को बाहर निकालकर फिर से अंदर खींच लो और कुछ देर तक उसे धारण किए
रखो, उससे मन अपेक्षाकृत कुछ स्थिर हो जाएगा। किंतु बाद में इसी से प्राणायाम
नामक एक विशेष विद्या की उत्पत्ति हो गई। अब हम देखेंगे कि ये सब परवर्ती योगी
उसके बारे में क्या कहते हैं।
इस संबंध में मैंने पहले ही कुछ कहा है, यहाँ पर उसकी कुछ पुनरावृत्ति करने से
वह मन में पक्का बैठ जाएगा। पहले तो, यह ध्यान रखना होगा कि यह प्राण ठीक
श्वास-प्रश्वास नहीं है; वरन् जिस शक्ति के बल से श्वास-प्रश्वास की गति होती
है, जो वस्तुतः श्वास-प्रश्वास की भी जीवनी-शक्ति है, वही प्राण है। फिर, यह
'प्राण' शब्द सब इंद्रियों के लिए भी व्यवहार में लाया जाता है; वे सबकी सब
प्राण कहलाती हैं; मन को भी प्राण कहा जाता है। अतएव हम देखते हैं कि प्राण का
अर्थ है शक्ति। तो भी इसे हम शक्ति नाम नहीं दे सकते, क्योंकि शक्ति तो इस
प्राण की अभिव्यक्ति मात्र है। यह प्राण ही शक्ति तथा नाना प्रकार की गति के
रूप में प्रकाशित होता है। चित्त यंत्रस्वरूप होकर चारों ओर से प्राण को भीतर
खींचता है और उससे शरीर रक्षा करनेवाली विभिन्न जीवनी-शक्तियाँ तथा विचार,
इच्छा एवं अन्य सब शक्तियाँ उत्पन्न करता है। पूर्वोक्त प्राणायाम-क्रिया से
हम शरीर की समस्त भिन्न-भिन्न गतियों को तथा शरीर के अंतर्गत समस्त
भिन्न-भिन्न स्नायविक शक्ति-प्रवाहों को वश में ला सकते हैं। पहले हम उनको
पहचानने लगते हैं, उनका साक्षात् अनुभव करने लगते हैं, और फिर धीरे- धीरे उन
पर अधिकार प्राप्त करते जाते हैं--उनको वशीभूत करने में सफल होते जाते हैं।
पतंजलि के बाद के इन योगियों के मतानुसार मनुष्य-देह में तीन मुख्य
प्राण-प्रवाह अर्थात् नाड़ियां हैं। वे एक को इड़ा, दूसरे को पिंगला और तीसरे
को सुषुम्णा कहते हैं। उनके मतानुसार, पिंगला मेरुदंड के दाहिनी ओर विद्यमान
हैं और इड़ा बापी ओर, और उस मेरदंड के मध्य में से होते हुए सुषुम्णा नाम की
एक खोखली नली है। उनके मतानुसार इड़ा और पिंगला, ये दो नाड़ियाँ प्रत्येक
मनुष्य में कार्य करती हैं, उनके सहारे ही हमारा जीवन चलता है। सुषुम्णा का
कार्य सभी में होना संभव अवश्य है, किंतु असल में योगी के शरीर में ही वह
कार्यशील है। तुम्हें याद रखना चाहिए कि योगी योग-साधन के बल से अपने शरीर को
परिवर्तित कर लेते हैं। तुम जितना ही साधन करोगे, तुम्हारा शरीर उतना ही
परिवर्तित होता जाएगा। साधन के पूर्व तुम्हारा शरीर जैसा था, बाद में वैसा
नहीं रह जाएगा। यह बात कोई अयाक्तिक नहीं है; युक्ति के द्वारा इसको समझाया जा
सकता है। हम जो कुछ नए विचार सोचते हैं, वे मानो हमारे मस्तिष्क में एक नया
मार्ग तैयार कर देते हैं। इसस हम समझ सकते हैं कि मनुष्य-स्वभाव इतना प्रबल
रूढ़िवादी या गतानुगतिक क्या है। मनुष्य-स्वभाव ही ऐसा है कि वह पहले चले हुए
रास्ते में ही चलना पसंद करता है, क्योंकि वह सरल होता है। यदि दृष्टांत के
रूप में हम सोचें कि मन एक सुई के समान है और मस्तिष्क उसके सामने एक कोमल
पिंड, तो हम देखेंगे कि हमारा प्रत्येक विचार मस्तिष्क के अंदर मानो एक
रास्ता--एक लीक तैयार कर देता है; और यदि मस्तिष्क के अंदर का धूसर पदार्थ उस
रास्ते के चारों ओर एक सीमा खड़ी न कर दे, तो वह रास्ता बंद हो जाएगा। यदि वह
धूसर रंगवाला पदार्थ न रहता, तो हमारी स्मृति ही संभव न होती; क्योंकि स्मृति
का अर्थ है--मानो इन पुराने रास्तों पर से होकर जाना--जो विचार एक बार उठ चुके
हैं, उनका मानो पदानुगमन करना। तुम लोगों ने शायद गौर किया होगा, जब कोई
व्यक्ति सब लोगों के परिचित कुछ विषयों को लेकर, उन्हीं को घुमा-फिराकर कुछ
बोलता है, तो तुम सब अनायास ही मेरी बात समझ लेते हो। इसका कारण बस, इतना ही
है कि इस विचार की प्रणालियाँ हर एक के मस्तिष्क में विद्यमान हैं, और उन पर
से होकर केवल बारंबार आना-जाना मात्र आवश्यक होता है। परंतु जब कभी कोई नया
विषय हमारे सामने आता है, तब मस्तिष्क में एक नए मार्ग के निर्माण की आवश्यकता
होती है। इसीलिए वह विषय उतनी सरलता से समझ में नहीं आता। यही कारण है कि
मस्तिष्क (मनुष्य नहीं, मस्तिष्क ही) बिना जाने ही किसी नए प्रकार के भाव
द्वारा परिचालित होने से इंकार करता है। वह मानो बलपूर्वक इस नए प्रकार के भाव
की गति को रोकने का प्रयत्न करता है। प्राण नएनए मार्ग बनाने का प्रयत्न कर
रहा है, और मस्तिष्क उसे करने नहीं देता। बस, यही मनुष्य की रूढ़िवादिता का
रहस्य है। मस्तिष्क में ये मार्ग जितने थोड़े परिमाण में होंगे और प्राणरूप
सुई उसके भीतर जितनी कम लीकें तैयार करेगी, मस्तिष्क उतनाही रूढ़िवादी होगा,
वह उतना ही नए प्रकार के विचार और भाव के विरुद्ध लड़ाई ठानेगा। मनुष्य जितना
ही चिंतनशील होता है, उसके मस्तिष्क के भीतर के मार्ग उतने ही अधिक जटिल होते
हैं, और उतनी ही सुगमता से वह नएनए भाव ग्रहण कर सकता है तथा उन्हें समझ सकता
है। प्रत्येक नवीन भाव के संबंध में ऐसा ही समझना चाहिए। मस्तिष्क में एक नवीन
भाव आते ही उसके भीतर एक नया मार्ग तैयार हो जाता है। यही कारण है कि
योगाभ्यास के समय हमारे सामने पहले इतनी शारीरिक बाधाएं आती हैं; (क्योंकि योग
संपूर्णतया नवीन प्रकार के विचारों एवं भावों की समष्टि है) इसीलिए हम देखते
हैं कि धर्म का वह अंश, जो प्राकृतिक, जागतिक भाव को लेकर व्यस्त रहता है,
सर्वसाधारण के लिए बहुत मान्य होता है, और उसका दूसरा अंश अर्थात् दर्शन या
मनोविज्ञान, जो केवल मनुष्य के आभ्यंतरिक प्रकृति को लेकर संलग्न रहता है, वह
प्राय: लोगों द्वारा उपेक्षित होता है।
हमें अपने इस जगत की व्याख्या स्मरण रखनी चाहिए। हमारा यह जगत क्या है? वह तो
हमारे ज्ञान के स्तर पर प्रक्षिप्त अनंत सत्ता मात्र है। अनंत का केवल कुछ अंश
हमारे ज्ञान के भीतर प्रक्षिप्त हुआ है, जिसे हम अपना जगत कहते हैं। अतएव हमने
देखा कि जगत के अतीत एक अनंत सत्ता वर्तमान है। और धर्म को इन दोनों को लेकर
व्यस्त रहना पड़ता है। अर्थात् यह क्षुद्र पिंड, जिसे हम अपना जगत कहते हैं,
और जगत के अतीत अनंत सत्ता--ये दोनों ही धर्म के विषय हैं। जो धर्म इन दोनों
में से केवल एक को लेकर रहता है, वह अपूर्ण है। धर्म को इन दोनों को ही अपना
विषय बनाना चाहिए। अनंत का जो भाग हम अपने इस ज्ञान के भीतर से अनुभव करते
हैं, जो मानो देश-काल-निमित्तरूप चक्र के भीतर आ पड़ा है, उसको धर्म के जिस
अंश ने अपना विषय बनाया है, वह अंश अनायास हमें बोधगम्य हो जाता है, क्योंकि
हम तो पहले से ही उसी केअंदर हैं और लगभग स्मरणातीत काल से ही जगत संबंधी भाव
से हम परिचित हैं। पर धर्म का वह अंश, जो सीमाहीन अनंत को लेकर संलग्न रहता
है, वह हमारे लिए सर्वथा नवीन है; इसीलिए उसके चिंतन से मस्तिष्क में नई लीक
तैयार होती रहती है, जिससे सारा शरीर-मन ही मानो उलट-पलट जाता है। यही कारण है
कि साधन करते समय साधारण मनुष्य पहले-पहल अपने मार्ग से विच्युत हो जाता है ।
इन विघ्न-बाधाओं को यथासंभव कम करने के लिए ही पतंजलि ने इन सब उपायों का
आविष्कार किया है, ताकि हम उनमें से ऐसी किसी एक साधन-प्रणाली को चुनकर अपना
लें, जो हमारे लिए सर्वथा उपयोगी हो।
विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी॥३५॥
३५. जिन सब समाधियों में अलौकिक इंद्रिय-विषयों की अनुभूति होती है, वे मन की
स्थिति का कारण होती हैं।
यह बात धारणा अर्थात् एकाग्रता से अपने आप आती रहती है; योगी कहते हैं कि यदि
नासिका के अग्र भाग में मन को एकाग्र किया जाए, तो कुछ दिनों में ही अद्भुत
सुगन्धि का अनुभव होने लगता है। इसी प्रकार जिह्वामूल में मन को एकाग्र करने
पर सुंदर शब्द सुनाई देता है। जिह्वा में ऐसा करने पर दिव्य रसास्वादन होता
है। जिह्वा के बीच में संयम करने पर प्रतीत होता है कि मैंने मानो किसी एक
वस्तु का स्पर्श किया। तालु में संयम करने पर दिव्य रूप दीख पड़ते हैं। यदि
कोई अस्थिरचित्त व्यक्ति इस योग के कुछ साधनों का अवलंबन करना चाहे और फिर भी
उनकी सचाई में संदिग्धचित्त हो, तो कुछ दिन साधन करने के बाद, ये सब
अनुभूतियाँ होने पर, फिर उसे संदेह नहीं रहेगा। तब फिर वह अध्यवसाय के साथ
साधन करता रहेगा।
विशोका वा ज्योतिष्मती॥३६॥
३६. अथवा शोक से रहित ज्योतिष्मान पदार्थ के (ध्यान) से भी (समाधि होती है)।
यह और एक प्रकार की समाधि है। ऐसा ध्यान करो कि हृदय में मानो एक कमल है; उसकी
पंखुड़ियाँ अधोमुखी हैं और उसके भीतर से सुषुम्णा गई है। उसके बाद पूरक करो,
फिर रेचक करते समय सोचो कि वह कमल पँखुड़ियों सहित ऊर्ध्वमुखी हो गया है और
कमल के भीतर एक महाज्योति विद्यमान है। उस ज्योति का ध्यान करो।
वीतरागविषयं वा चित्तम् ॥३७॥
३७. अथवा जिस हृदय ने इंद्रिय-विषयों के प्रति समस्त आसक्ति छोड़ दी है, (उसके
ध्यान से भी चित्त स्थिर होता है)।
किन्हीं महापुरुष या साधु को लो, जो पूर्ण रूप से अनासक्त हों और जिन पर
तुम्हारी अत्यंत श्रद्धा हो। उनके हृदय के बारे में चिंतन करो। उनका अंतः करण
सर्वविषयों में अनासक्त हो गया है, अतः उनके अंतःकरण के बारे में चिंतन करने
पर तुम्हारा अंतःकरण शांत हो जाएगा। यदि यह न कर सको, तो और एक उपाय है :
स्वप्ननिद्राशानालंबनं वा ॥३८॥
३८. अथवा स्वनावस्था में कभी कभी जो अपूर्व जान-लाभ होता है, उसका, तथा सुप्ति
माल्या में प्राप्त सात्त्विक सुख का ध्यान करने से भी (पित प्रशांत होता है।)
कभी कभी मनुष्य ऐसा स्वप्न देखता है कि उसके पास देवता आकर बातचीत कर रहे हैं;
वह मानो एक प्रकार से भावावेश में चूर हो गया है; वायु में एक अपूर्व संगीत की
ध्वनि वहती हुई चली आ रही है और वह उसे सुन रहा है। उस स्वप्नावस्था में वह
आनंद में मस्त रहता है। जब वह जागता है, तब स्वप्न की वे घटनाएँ उसके मन पर एक
गहरी छाप छोड़ जाती हैं। उस स्वप्न को सत्य मानकर उसका ध्यान करो। यदि तुम
इसमें भी समर्थ न होओ, तो जो कोई पवित्र वस्तु तुम्हें अच्छी लगे, उसी का
ध्यान करो।
यथाभिमतध्यानाद्वा ॥३९॥
३९. अथवा जिसे जो कोई चीज अच्छी लगे, उसीके ध्यान से (समाधि प्राप्त होती है)।
इससे यह न समझ लेना चाहिए कि किसी असत् वस्तु का भी ध्यान करने से बनेगा। जो
कोई सत् वस्तु तुम्हें अच्छी लगे, जो स्थान तुम्हें पसंद हो, जो दृश्य या जो
भाव तुम्हें बहुत अच्छा लगता हो, जिससे तुम्हारा चित्त एकाग्र हो जाता हो,
उसीका चिंतन करो।
परमाणुपरममहत्त्वान्तोऽस्य वशीकारः ॥४०॥
४०. इस प्रकार ध्यान करते करते परमाणु से लेकर परम बृहत् पदार्थ तक सभी में
उनके मन की गति अव्याहत हो जाती है।
मन इस अभ्यास के द्वारा अत्यंत सूक्ष्म से लेकर बृहत्तम वस्तु तक सभी पर
सुगमता से ध्यान कर सकता है। ऐसा होने पर ये मनोवृत्ति-प्रवाह भी धीरे- धीरे
क्षीण होने लगते हैं।
क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु।
तत्स्थतदंजनता समापत्तिः ॥४१॥
४१. जिन योगी की चित्तवृत्तियाँ इस प्रकार क्षीण हो चुकी हैं (वश में आ चुकी
हैं), उनका चित्त उस समय ग्रहीता (आत्मा), ग्रहण (अंतःकरण और इंद्रियाँ) और
ग्राह्य (पंचभूत और विषयों) में उसी प्रकार एकाग्रता और एकीभाव को प्राप्त
होता है, जिस प्रकार शुद्ध स्फटिक (भिन्न- भिन्न रंग वाली वस्तुओं के सामने
भिन्न- भिन्न रंग धारण करता है)।
इस प्रकार लगातार ध्यान करते करते कौन सा फल प्राप्त होता है? हमें यह स्मरण
होगा कि पूर्वोक्त एक सूत्र में पतंजलि ने विभिन्न प्रकार की समाधियों का
वर्णन किया है। पहली समाधि है स्थूल विषय को लेकर, और दूसरी है सूक्ष्म विषय
को लेकर। आगे चलकर, क्रमशः और भी सूक्ष्मतर वस्तुएँ हमारी समाधि का विषय होती
जाती हैं, यह भी पहले कहा जा चुका है। इन सब समाधियों के अभ्यास का फल यह है
कि हम जितनी सुगमता से स्थूल विषयों का ध्यान कर सकते हैं, उतनी ही सुगमता से
सूक्ष्म विषयों का भी। इस अवस्था में योगी तीन वस्तुएँ देखते हैं--ग्रहीता,
ग्राह्य और ग्रहण, अर्थात् आत्मा, विषय और मन। हमें ध्यान के लिए तीन प्रकार
के विषय दिएगए हैं। पहला है स्थूल, जैसे--शरीर या भौतिक पदार्थ; दूसरा है
सूक्ष्म, जैसे--मन या चित्त; और तीसरा है गुणविशिष्ट पुरुष अर्थात् मस्मिता या
अहंकार। यहाँ आत्मा का अर्थ उसके यथार्थ स्वरूप से नहीं है। अभ्यास के द्वारा
योगी इन सब ध्यानों में दृढ़प्रतिष्ठ हो जाते हैं। तब उन्हें ऐसी
एकाग्रता-शक्ति प्राप्त हो जाती है कि ज्यों ही वे ध्यान करने बैठते हैं,
त्यों ही अन्य सभी वस्तुओं को मन से हटा दे सकते हैं। वे जिस विषय का ध्यान
करते हैं, उस विषय के साथ एक हो जाते हैं; जब वे ध्यान करते हैं, तब वे मानो
स्फटिक के एक टुकड़े के समान हो जाते हैं। यह स्फटिक यदि फूल के पास रहे, तो
वह फूल के साथ मानो एकरूप हो जाता है। यदि वह फूल लाल हो, तो स्फटिक भी लाल
दिखाई देता है, और यदि फूल नीले रंग का हो, तो स्फटिक भी नीला दिखाई देता है।
तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः ॥४२॥
४२. शब्द, अर्थ और उससे उत्पन्न ज्ञान जब मिश्रित होकर रहते हैं, तब वह
सवितर्क अर्थात् वितर्कयुक्त समाधि (कहलाती) है।
यहाँ शब्द का अर्थ है कंपन। अर्थ का मतलब है वह स्नायविक शक्ति-प्रवाह, जो उसे
भीतर ले जाता है। और ज्ञान का अर्थ है प्रतिक्रिया। हमने अब तक जितने प्रकार
की समाधि की बात सुनी है, पतंजलि इन सभी को सविसर्क कहते हैं। इसके बाद वे
हमें क्रमशः और भी उच्चतर समाधियों की शिक्षा देंगे। इन सवितर्क समाधियों में
हम विषयी और विषय, इन दोनों को संपूर्ण रूप से पृथक् रखते हैं। यह पार्थक्य या
भेद शब्द, उसके अर्थ और तत्प्रसूत ज्ञान के मिश्रण से उत्पन्न होता है। पहले
तो है बाह्य कंपन--शब्द; जब वह इंद्रिय-प्रवाह द्वारा भीतर प्रवाहित होता है,
सब उसे अर्थ कहते हैं। उसके बाद चित्त में एक प्रतिक्रिया प्रवाह आता है; उसे
जान कहा जाता है। जिसे हम बाह्य वस्तु की अनुभूति कहते हैं, वह वस्तुतः इन
तीनों की समष्टि (संकीर्ण) मात्र है। हमने अब तक जितने प्रकार की समाधियों की
बात सुनी है, उन सबमें यह समष्टि ही हमारे ध्यान का विषय होती है। इसके बाद
जिस समाधि के बारे में कहा जाएगा, वह अपेक्षाकृत श्रेष्ठ है।
स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निवितर्का ॥४३॥
४३. जब स्मृति शुद्ध हो जाती है, अर्थात् स्मृति में जब और किसी प्रकार के गुण
का संपर्क नहीं रह जाता, जब वह केवल ध्येय वस्तु का अर्थ मात्र प्रकाशित करती
है, तब उसे निर्वितर्क अर्थात् वितर्कशून्य समाधि कहते हैं।
पहले जिस शब्द, अर्थ और ज्ञान की बात कही गई है, उन तीनों का एक साथ अभ्यास
करते करते एक समय ऐसा आता है, जब वे और अधिक मिश्रित नहीं होते; तब हम अनायास
ही इन त्रिविध भावों का अतिक्रमण कर सकते हैं। अब पहले हम यही समझने की विशेष
चेष्टा करेंगे कि ये तीन क्या हैं। देखो, यह चित्त हैं। यह हमेशा याद रखना कि
चित्त अर्थात् मनस्तत्त्व की उपमा सरोवर से दी गई है और स्पंदन--शब्द या ध्वनि
सरोवर के सतह पर आए हुए कंपन के समान है। तुम्हारे अपने भीतर ही यह स्थिर
सरोवर विद्यमान है। मान लो, मैंने 'गाय' शब्द का उच्चारण किया। ज्यों ही वह
तुम्हारे कान में प्रवेश करता है, त्यों ही तुम्हारे चित्तरूपी सरोवर में एक
कंपन उठा देता है। यह कंपन ही 'गाय' शब्द से सूचित भाव या अर्थ है। तुम जो
सोचते हो कि मैं एक गाय को जानता हूँ, वह केवल तुम्हारे मन के भीतर रहने वाली
एक तरंग मात्र है। वह बाह्य एवं आभ्यंतर ध्वनि-स्पंदन की प्रतिक्रिया के रूप
में उत्पन्न होती है। उस ध्वनि के साथ वह तरंग भी नष्ट हो जाती है; ध्वनिजनित
क्षोभ के बिना तरंग रह ही नहीं सकती। तुम पूछ सकते हो कि जब हम गाय के बारे
में केवल सोचते हैं, पर बाहर से कोई ध्वनि कानों में नहीं पहुँचती, तब भला
ध्वनि कहाँ रहती है? उत्तर यह है कि तब वह ध्वनि तुम स्वयं करते हो। तब तुम
अपने मन ही मन 'गाय' शब्द का धीरे- धीरे उच्चारण करते रहते हो, और बस, उसी से
तुम्हारे भीतर एक तरंग आ जाती है। ध्वनि के इस संवेग के बिना कोई तरंग नहीं आ
सकती; और जब यह संवेग बाहर से नहीं आता, तब भीतर से ही आता है। ध्वनि के साथ
ही लहर का भी नाश हो जाता है। तब फिर बच क्या रहता है? तब उस प्रतिक्रिया का
परिणाम भर बच रहता है। वही ज्ञान है। हमारे मन के अंदर ये तीनों इतने
दृढ़संबद्ध हैं कि हम उन्हें अलग नहीं कर सकते। ज्यों ही ध्वनि आती है, त्यों
ही इंद्रियाँस्पंदित हो उठती हैं और प्रतिक्रिया के रूप में एक तरंग उठ जाती
है। ये तीनों क्रियाएँ एक के बाद एक इतनी शीघ्रता से होती हैं कि उनमें एक को
दूसरे से अलग करना अत्यंत कठिन है। यहाँ जिस समाधि की बात कही गई है, उसका
दीर्घ काल तक अभ्यास करने पर स्मृति--समस्त संस्कारों की आधारभूमि शुद्ध हो
जाती है, और तब हम उनमें से एक दूसरे को अलग कर सकते हैं। इसीको निर्वितर्क या
तर्करहित समाधि कहते हैं।
एतयैव सविचारा निविचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता॥४४॥
४४. पूर्वोक्त दो सूत्रों में सवितर्क और निर्वितर्क, जिन दो समाधियों की बात
कही गई है, उन्हींके द्वारा सूक्ष्मतर विषयवाली सविचार और निविचार समाधियों की
भी व्याख्या कर दी गई है।
यहाँ पहले के ही समान समझना चाहिए। भेद केवल इतना है कि पूर्वोक्त दोनों
समाधियों के विषय स्थूल हैं और यहाँ वे विषय सूक्ष्म हैं।
सूक्ष्मविषयत्वं चालिंगपर्यवसानम् ॥४५॥
४५. सूक्ष्म विषयों की अवधि प्रधान पर्यंत है।
पंच महाभूत और उनसे उत्पन्न समस्त वस्तुओं को स्थूल कहते हैं। सूक्ष्म वस्तु
तंमात्रा से शुरू होती है। इंद्रिय, मन
[4]
, अहंकार, महत्तत्त्व (जो समस्त अभिव्यक्ति का कारण है), सत्त्व, रज और तम की
साम्यावस्थारूप प्रधान, प्रकृति या अव्यक्त--ये सभी सूक्ष्म वस्तु के अंतर्गत
हैं, केवल पुरुष अर्थात् आत्मा को छोड़कर।
ता एव सबीजः समाधिः ॥४६॥
४६. ये सभी सबीज समाधि हैं।
इन सब समाधियों में पूर्व कर्मों का बीज नष्ट नहीं होता; अतः उनसे मुक्ति
प्राप्त नहीं होती। तो फिर उनसे होता क्या है? यह आगे के सूत्र में बतलाया गया
है।
निविचारवैशार्द्येऽध्यात्मप्रसादः ॥४७॥
४७. निर्विचार समाधि निर्मल होने पर चित्त की स्थिति दृढ़ हो जाती है।
ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ॥४८॥
४८. उसमें जिस ज्ञान की प्राप्ति होती है, उसे ऋतम्भर यानी सत्यपूर्ण ज्ञान
कहते हैं।
अगले सूत्र में इसकी व्याख्या होगी।
श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ॥४९॥
४९. जो ज्ञान विश्वस्त मनुष्यों के वाक्य और अनुमान से प्राप्त होता है, वह
सामान्य वस्तुविषयक होता है। जो विषय आगम और अनुमान से उत्पन्न ज्ञान के गोचर
नहीं हैं, वे पूर्वोक्त समाधि द्वारा प्रकाशित होते हैं।
तात्पर्य यह है कि हमें सामान्य वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव, उस पर
आधारित अनुमान और विश्वस्त मनुष्यों के वाक्यों से होता है। 'विश्वस्त
मनुष्यों से योगियों का तात्पर्य है 'ऋषि', और ऋषि का अर्थ है--वेद में
लिपिबद्ध मंत्रों के द्रष्टा। उनके मतानुसार, शास्त्रों का प्रामाण्य केवल यह
है कि वे विश्वस्त मनुष्यों के वचन हैं। शास्त्र विश्वस्त मनुष्य के वचन होने
पर भी, वे कहते हैं कि केवल शास्त्र हमें आत्मानुभूति कराने में कभी समर्थ
नहीं हैं। हम भले ही सारे वेदों को पढ़ डालें, पर तो भी हो सकता है कि हमें
किसी तत्त्व की अनुभूति न हो। पर जब हम उनमें वर्णित उपदेशों को अपने जीवन में
उतारते हैं--उनके अनुसार कार्य करते हैं, तब हम ऐसी एक अवस्था में पहुँच जाते
हैं, जिसमें शास्त्रोक्त बातों की प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है और जहाँ तर्क,
प्रत्यक्ष या अनमान किसीकी भी पहुँच नहीं है, वहाँ आप्त वाक्य की भी कोई
उपयोगिता नहीं है। यही इस सूत्र का तात्पर्य है।
प्रत्यक्ष उपलब्धि ही यथार्थ धर्म है, वही धर्म का सार है, और शेष
सब--उदाहरणार्थ, धर्म संबंधी भाषण सुनना, धार्मिक ग्रंथों का पाठ करना, या
विचार करना--उस उपलब्धि के लिए जमीन की तैयारियाँ मात्र हैं। वह यथार्थ धर्म
नहीं है। केवल किसी मत के साथ-चौद्धिक सहमति अथवा असहमति धर्म नहीं है।
योगियों का मूल भाव यह है कि जैसे इंद्रियों के विषयों के साथ हम लोगों का
साक्षात् संबंध होता है, उसी प्रकार धर्म भी प्रत्यक्ष किया जा सकता है। और
इतना ही नहीं, बल्कि वह तो और भी तीव्रतर रूप से उपलब्ध हो सकता है। ईश्वर,
आत्मा बादि जो सब धर्म के प्रतिपाद्य सत्य हैं, वे बहिरिन्द्रियों से
प्रत्यक्ष नहीं हो सकते। मैं आँखों से ईश्वर को नहीं देख सकता, या हाथ से उनका
स्पर्श नहीं कर सकता। हम यह भी जानते हैं कि युक्ति-तर्क हमें इंद्रियों के
परे नहीं ले जा सकता; वह तो हमें सर्वथा एक अनिश्चित स्थल में छोड़ आता है। हम
भले ही जीवन भर विचार करते रहें, जैसा कि दुनिया हजारों वर्षों से करती आ रही
है, पर आखिर उसका फल क्या होता है? यही कि धर्म के सत्यों को प्रमाणित या
अप्रमाणित करने में हम अपने को असमर्थ पाते हैं। हम जिसका इंद्रियों से
प्रत्यक्षतः अनुभव करते हैं, उसीके आधार पर हम तर्क, विचार आदि किया करते हैं।
अतः यह स्पष्ट है कि तर्क को इंद्रिय-प्रत्यक्ष की इस चारदीवारी के भीतर ही
चक्कर काटना पड़ता है। वह उसके परे कभी नहीं जा सकता। अतएव आत्मानुभूति के
समग्र क्षेत्र इंद्रिय-प्रत्यक्ष के परे हैं। योगी कहते हैं कि मनुष्य
इंद्रिय-प्रत्यक्ष के परे और तर्क के परे भी जा सकता है। मनुष्य में अपनी
बुद्धि को भी लाँघ जाने की शक्ति, सामर्थ्य है, और यह शक्ति प्रत्येक प्राणी
में, प्रत्येक जंतु में निहित है। योग के अभ्यास से यह शक्ति जाग्रत हो जाती
है और तब मनुष्य युक्ति-तर्क की साधारण सीमा को पार करता है और तर्क के अगम्य
विषयों का साक्षात्कार करता है।
तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी ॥५०॥
५०. यह समाधिजात संस्कार दूसरे सब संस्कारों का प्रतिबंधी होता है, अर्थात्
दूसरे संस्कारों को फिर आने नहीं देता।
हमने पहले के सूत्र में देखा है कि उस अतिचेतन भूमि पर जाने का एकमात्र उपाय
है--एकाग्रता। हमने यह भी देखा है कि पूर्व संस्कार ही उस प्रकार की एकाग्रता
पाने में हमारे प्रतिबंधक हैं। तुम सबों ने गौर किया होगा कि ज्यों ही तुम लोग
मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करते हो, त्यों ही तुम्हारे अंदर नाना प्रकार के
विचार भटकने लगते हैं। ज्यों ही ईश्वर-चिंतन करने की चेष्टा करते हो, ठीक उसी
समय ये सब संस्कार जाग उठते हैं। दूसरे समय वे उतने कार्यशील नहीं रहते; किंतु
ज्यों ही तुम उन्हें भगाने की कोशिश करते हो, वे अवश्यमेव आ जाते हैं और
तुम्हारे मन को बिल्कुल आच्छादित कर देने का भरसक प्रयत्न करते हैं। इसका कारण
क्या है? इस एकाग्रता के अभ्यास के समय ही वे इतने प्रबल क्यों हो उठते हैं?
इसका कारण यही है कि तुम उनको दबाने की चेष्टा कर रहे हो और वे अपने सारे बल
से प्रतिक्रिया करते हैं। अन्य समय वे इस प्रकार अपनी ताक़त नहीं लगाते। इन सब
पूर्व संस्कारों की संख्या भी कितनी अगणित है! चित्त के किसी स्थान में वे
चुपचाप बैठे रहते हैं और बाघ के समान झपटकर आक्रमण करने के लिए मानो हमेशा घात
में रहते हैं! उन सबको रोकना होगा, ताकि हम जिस भाव को मन में रखना चाहें, वही
आए और दूसरे सब भाव चले जाएँ। पर ऐसा न होकर वे सब तो उसी समय आने के लिए
संघर्ष करते हैं। मन की एकाग्रता में बाधा देनेवाली ये ही संस्कारों की विविध
शक्तियाँ हैं। अतएव जिस समाधि की बात अभी कही गई है, उसका अभ्यास सबसे उत्तम
है; क्योंकि वह उन संस्कारों को रोकने में समर्थ है। इस समाधि के अभ्यास से जो
संस्कार उत्पन्न होगा, वह इतना शक्ति मान होगा कि वह अन्य सब संस्कारों का
कार्य रोककर उन्हें वशीभूत करके रखेगा।
तस्यापि निरोधे सर्व निरोधान्निर्बीजः समाधिः॥५१॥
५१. उसका भी (अर्थात् जो संस्कार अन्य सभी संस्कारों को रोक देता है) निरोध हो
जाने पर, सबका निरोध हो जाने के कारण, निर्बीज समाधि (हो जाती है)।
तुम लोगों को यह अवश्य स्मरण है कि आत्म-साक्षात्कार ही हमारे जीवन का चरम
लक्ष्य है। हम लोग आत्म-साक्षात्कार नहीं कर पाते, क्योंकि इस आत्मा का
प्रकृति, मन और शरीर के साथ तादात्म्य हो गया है। अज्ञानी मनुष्य अपने शरीर
कोही आत्मा समझता है। उसकी अपेक्षा कुछ उन्नत मनुष्य मन को ही आत्मा समझता है।
किंतु दोनों ही भूल में हैं। अच्छा, आत्मा इन सब उपाधियों के साथ कैसे एकाकार
हो जाती है? चित्त में ये नाना प्रकार की लहरें (वृत्तियाँ) उठकर आत्मा को
आच्छादित कर लेती हैं और हम इन लहरों में से आत्मा का कुछ प्रति बिंब मात्र
देख पाते हैं। यही कारण है कि जब क्रोध-वृत्तिरूप लहर उठती है, तो हम आत्मा को
क्रोधयुक्त देखते हैं, कहते हैं कि हम क्रुद्ध हुए हैं; जब चित्त में प्रेम की
लहर उठती है, तो उस लहर में अपने को प्रतिबिंबित देखकर हम सोचते हैं कि हम
प्यार कर रहे हैं। जब दुर्बलतारूप वृत्ति उठती है और आत्मा उसमें प्रतिबिंबित
हो जाती है, तो हम सोचते हैं कि हम कमजोर हैं। ये सब पूर्व संस्कार जब आत्मा
के स्वरूप को आच्छादित कर लेते हैं, तभी इस प्रकार के विभिन्न भाव उदित होते
रहते हैं। चित्तरूपी सरोवर में जब तक एक भी लहर रहेगी, तब तक आत्मा का यथार्थ
स्वरूप दिखाई नहीं देगा। जब तक समस्त लहरें बिल्कुल शांत नहीं हो जाती, तब तक
आत्मा का प्रकृतस्वरूप कभी प्रकाशित नहीं होगा। इसी लिए पतंजलि ने पहले यह
समझाया है कि ये तरंगरूप वृत्तियाँ क्या हैं और बाद में उनको दमन करने का
सर्वश्रेष्ठ उपाय सिखलाया है। और तीसरी बात यह सिखलाई है कि जैसे एक बृहत्
अग्निराशि छोटे छोटे अग्निकणों को निगल लेती है, उसी प्रकार एक लहर को इतनी
प्रबल बनाना होगा, जिससे अन्य सब लहरें बिल्कुल लुप्त हो जाएँ। जब केवल एक ही
लहर बच रहेगी, तब उसका भी निरोध कर देना सहज हो जाएगा। और जब वह भी चली जाती
है, तब उस समाधि को निर्बीज समाधि कहते हैं। तब और कुछ भी नहीं बच रहता और
आत्मा अपने स्वरूप में अपनी महिमा में प्रकाशित हो जाती है। तभी हम जान पाते
हैं कि आत्मा यौगिक पदार्थ नहीं है, संसार में एकमात्र वही नित्य अयौगिक
पदार्थ है; अतएव उसका जन्म भी नहीं है और मृत्यु भी नहीं--वह अमर है, अविनश्वर
है, नित्य चैतन्यधन सत्ता स्वरूप है।
द्वितीय अध्याय
साधनपाद
तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ॥१॥
१. तपस्या, अध्यात्मशास्त्रों के पठन-पाठन और ईश्वर में समस्त कर्मफलों के
समर्पण को क्रियायोग कहते हैं।
पिछले अध्याय में जिन सब समाधियों की बात कही गई है, उन्हें प्राप्त करना
अत्यंत कठिन है। इसलिए हमें धीरे धीरे--विभिन्न सोपानों में से होते हुए उन सब
समाधियों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना होगा। इसके पहले सोपान को क्रिया
योग कहते हैं। इसका शब्दार्थ है--कर्म के सहारे योग की ओर बढ़ना। हमारी देह
मानो एक रथ है, इंद्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथी है और आत्मा
रथी है। यह गृहस्वामी, यह राजा, यह मनुष्य की आत्मा रथ में सबार है। यदि घोड़े
बड़े तेज़ हों और लगाम खिची न रहे, यदि बुद्धिरूपी सारथी उन घोड़ों को संयत
करना न जाने, तो रथ की दुर्दशा हो जाएगी। पर यदि इंद्रियरूपी घोड़े अच्छी तरह
से संयत रहें और मनरूपी लगाम बुद्धिरूपी सारथी के हाथों अच्छी तरह थमी रहे, तो
वह रथ ठीक अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच जाता है। अब यह समझ में आ जाएगा कि इस
तपस्या शब्द का अर्थ क्या है। तपस्या शब्द का अर्थ है--इस शरीर और इंद्रियों
को चलाते समय लगाम अच्छी तरह थामे रहना, उन्हें अपनी इच्छानुसार काम न करने
देकर अपने वश में किए रहना। उसके बाद है पठन-पाठन या स्वाध्याय। यहाँ पाठ का
तात्पर्य क्या है? नाटक, उपन्यास या कहानी की पुस्तक का पाठ नहीं, वरन् उन
ग्रंथों का पाठ है, जो यह शिक्षा देते हैं कि आत्मा की मुक्ति कैसे होती है।
फिर स्वाध्याय से तर्क या वाद-विवाद की पुस्तक का पाठ नहीं समझना चाहिए। जो
योगी हैं, वे तो वाद-विवाद करके तृप्त हो चुके रहते हैं। वाद-विवाद में उनकी
और कोई रुचि नहीं रह जाती। वे पठन पाठन करते हैं, केवल अपनी धारणाओं को दृढ़
करने के लिए। शास्त्रीय ज्ञान दो प्रकार के हैं। एक है वाद (जो तर्क-युक्ति और
विचारात्मक है), और दूसरा है सिद्धांत (मीमांसात्मक)। अज्ञानावस्था में मनुष्य
प्रथमोक्त प्रकार के शास्त्रीय ज्ञान के अनुशीलन में प्रवृत्त होता है, वह
तर्कयुद्ध के समान है--प्रत्येक वस्तु के सब पहलू देखकर विचार करना; इस विचार
का अंत होने पर वह किसी एक मीमांसा या सिद्धांत पर पहुँचता है। किंतु केवल
सिद्धांत पर पहुँचने से नहीं हो जाता। इस सिद्धांत के बारे में मन की धारणा को
दूर करना होगा। शास्त्र तो अनंत है और समय अल्प है; अत: ज्ञान-प्राप्ति का
रहस्य है--सब वस्तुओं का सार-भाग ग्रहण करना। उस सार-भाग को ग्रहण करो और उसे
अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करो। भारत में एक पुरानी किंवदंती है कि यदि
तुम किसी राजहंस के सामने एक कटोरा भर पानी मिला हुआ दूध रख दो, तो वह दूध-
दूध पी लेगा और पानी- पानी छोड़ देगा। उसी प्रकार ज्ञान का जो अंश आवश्यक है,
उसे लेकर असार भाग को हमें फेंक देना चाहिए। पहले-पहल बुद्धि की कसरत आवश्यक
होती है। अन्धे के समान कुछ भी ले लेने से नहीं बनता। पर जो योगी हैं, वे इस
युक्ति-तर्क की अवस्था को पारकर एक ऐसे सिद्धांत पर पहुँच चुके हैं, जो पर्वत
के समान अचल-अटल है। इसके बाद उनका सारा प्रयत्न उस सिद्धांत के दृढ़ करने में
होता है। वे कहते हैं, वाद-विवाद मत करो; यदि कोई तुम्हें वाद-विवाद करने को
बाध्य करे, तो चुप रहो। किसी वाद-विवाद का जवाब न देकर शांतभाव से वहां से चले
जाओ; क्योंकि वाद-विवाद द्वारा मन केवल चंचल ही होता है। वाद-विवाद की
आवश्यकता थी, केवल बुद्धि को तेज करने के लिए; जब वह संपन्न हो चुका, तब और
उसे बेकार चंचल करने की क्या जरूरत? बुद्धि तो एक दुर्बल यंत्र मात्र है, वह
हमें केवल इंद्रियों के घेरे में रहनेवाला ज्ञान दे सकता है। पर योगी इंद्रिय
के परे जाना चाहते हैं, अतएव उनके लिए बुद्धि चलाने की और कोई आवश्यकता नहीं
रह जाती। उन्हें इस विषय में पक्का विश्वास हो चुका है, अतएव वे वाद-विवाद
नहीं करते, चुपचाप रहते हैं। क्योंकि वाद-विवाद करने से मन समता से च्युत हो
जाता है, चित्त में एक हलचल मच जाती है। और चित्त की ऐसी हलचल उनके लिए एक
विघ्न ही है। ये सब वाद-विवाद, युक्ति-तर्क केवल प्रारंभिक अवस्था के लिए हैं।
इस युक्ति-तर्क के अतीत और भी उच्चतर तत्त्वसमूह हैं। सारे जीवन भर केवल
विद्यालय के बच्चों के समान विवाद या तर्क-वितर्क समिति लेकर ही रहना पर्याप्त
नहीं है। ईश्वर में कर्मफल अर्पित करने का तात्पर्य है--कर्म के लिए स्वयं कोई
प्रशंसा या निंदा न लेकर इन दोनों को ही ईश्वर को समर्पित कर देना और शांति से
रहना।
समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च ॥२॥
२. समाधि की सिद्धि के लिए और क्लेशजनक विघ्नों को क्षीण करने के लिए (इस
क्रियायोग की आवश्यकता है।)
हममें से अनेकों ने मन को लाड़-प्यार के लड़के के समान कर डाला है। वह जो कुछ
चाहता है, उसे वही दे दिया करते हैं। इसीलिए क्रियायोग का सतत अभ्यास आवश्यक
है, जिससे मन को संयत करके अपने वश में लाया जा सके। इस संयम के अभाव में ही
योग के सारे विघ्न उपस्थित होते हैं और उनसे फिर क्लेश की उत्पत्ति होती है।
उन्हें दूर करने का उपाय है--क्रियायोग द्वारा मन को वशीभूत कर लेना, उसे अपना
कार्य न करने देना।
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: क्लेशाः॥३॥
३. अविद्या, अस्मिता (अहंकार), राग, द्वेष और अभिनिवेश (जीवन के प्रति
ममता)--(ये पाँचों) क्लेश है।
ये ही पंचक्लेश हैं, ये पाँच बंधनों के समान हमें इस संसार में बांध रखते हैं।
इनमें से अविद्या ही कारण है और शेष चार क्लेश इसके कार्य है। यह अविद्या ही
हमारे दुःख का एकमात्र कारण है। भला और किसकी शक्ति है, जो हमें इस प्रकार
दुःख में रख सके? आत्मा तो नित्य आनंदस्वरूप है। उसे अज्ञान-प्रम--माया के
सिवा और कौन दुःखी कर सकता है? आत्मा के ये समस्त दुःख केवल भ्रम मात्र हैं।
अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥४॥
४. अविद्या ही उन शेष चार का उत्पादक क्षेत्रस्वरूप है। वे कभी यौनभाव से, कभी
सूक्ष्मभाव से, कभी अन्य वृत्ति के द्वारा विच्छित्र अर्थात् अभिभूत होकर और
कभी प्रकाशित होकर रहते हैं।
अविद्या ही अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश का कारण है। ये संस्कारसमूह
विभिन्न मनुष्यों के मन में विभिन्न अवस्थाओं में रहते हैं। कभी कभी वे
प्रसुप्त रूप से रहते हैं। तुम लोग अनेक समय 'शिशु के समान भोला'--यह वाक्य
सुनते हो; परंतुसंभव है, इस शिशु के भीतर ही देवता या असुर का भाव विद्यमान
हो, जो धीरे- धीरे समय पाकर प्रकाशित होगा। योगी में पूर्व कर्मों के फलस्वरूप
ये संस्कार सूक्ष्म भाव से रहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वे अत्यंत
सूक्ष्म अवस्था में रहते हैं और योगी उन्हें दबाकर रख सकते हैं। उनमें उन
संस्कारों को प्रकाशित न होने देने की शक्ति रहती है। कभी कभी कुछ प्रवल
संस्कार अन्य कुछ संस्कारों को कुछ समय तक के लिए दबाकर रखते है, किंतु ज्यों
ही वह दबा रखने वाला कारण चला जाता है, त्यों ही ये पहले के संस्कार फिर से उठ
जाते हैं। इस अवस्था को विच्छिन्न कहते हैं। अंतिम अवस्था का नाम है उदार। इस
अवस्था में संस्कारसमूह अनुकूल परिस्थितियों का सहारा पाकर बड़े प्रबल भाव से
शुभ या अशुभ रूप से कार्य करते रहते हैं।
अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ॥५॥
५. अनित्य, अपवित्र, दु:खकर और आत्मा से भिन्न पदार्य में (क्रमशः) नित्य,
पवित्र, सुखकर और आत्मा की प्रतीति 'अविद्या है।
इन समस्त संस्कारों का एकमात्र कारण है अविद्या। हमें पहले यह जान लेना होगा
कि यह अविद्या क्या है। हम सभी सोचते हैं, "मैं शरीर हूँ--शुद्ध, ज्योतिर्मय,
नित्य, आनंदस्वरूप आत्मा नहीं।" यह अविद्या है। हम लोग मनुष्य को शरीर के रूप
में ही देखते और जानते हैं। यह महान भ्रम है।
दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतैवास्मिता ॥६॥
६. दृक्-शक्ति और दर्शन-शक्ति का एकीभाव ही अस्मिता है।
आत्मा ही यथार्थ द्रष्टा है; वह शुद्ध, नित्य पवित्र, अनंत और अमर है। और
दर्शन-शक्ति अर्थात् उसके व्यवहार में आनेवाले यंत्र कौन कौन से हैं? चित्त,
बुद्धि अर्थात् निश्चयात्मिका वृत्ति, मन और इंद्रियाँ--ये उसके यंत्र हैं। ये
सब बाह्य जगत को देखने के लिए उसके यंत्रस्वरूप हैं, और उसकी इन सबके साथ
एकरूपता को अस्मितारूप अविद्या कहते हैं। हम कहा करते हैं, 'मैं मन हूँ', 'मैं
क्रुद्ध हुआ हूँ', 'मैं सुखी हूँ।' पर सोचो तो सही, हम कैसे क्रुद्ध हो सकते
हैं, कैसे किसी के प्रति घृणा कर सकते हैं? आत्मा के साथ हमें अपने को अभिन्न
समझना चाहिए। आत्मा का तो कभी परिणाम नहीं होता। यदि आत्मा अपरिणामी हो, तो वह
कैसे इस क्षण सुखी, और दूसरे ही क्षण दुःखी हो सकती है? वह निराकार, अनंत' और
सर्वव्यापी है। उसे कौन परिणामी बना सकता है? आत्मा सर्व प्रकार के नियमों के
परे है। उसे कौन विकृत कर सकता है? संसार में कोई भी, आत्मा पर किसी प्रकार का
कार्य नहीं कर सकता। तो भी हम लोग अज्ञानवश अपने आप को मनोवृत्ति के साथ एकरूप
कर लेते हैं और सोचा करते है कि हम सुख या दुःख का अनुभव कर रहे हैं।
सुखानुशयी रागः ॥७॥
७. जो मनोवृत्ति केवल सुखकर पदार्थ के ऊपर रहना चाहती है, उसे राग कहते हैं।
हम किसी किसी विषय में सुख पाते हैं। जिसमें हम सुख पाते हैं, मन एक प्रवाह के
समान उसकी ओर प्रवाहित होता है। सुख-केंद्र की ओर दौड़नेवाले मन के इस प्रवाह
को ही राग या आसक्ति कहते हैं। हम जिस विषय में सुख नहीं पाते, उधर हमारा मन
कभी भी आकृष्ट नहीं होता। हम लोग कभी-कभी नाना प्रकार की विचित्र चीजों में
सुख पाते हैं, तो भी राग की जो परिभाषा दी गई है, वह सर्वत्र ही लागू होती है।
हम जहाँ सुख पाते हैं, वहीं आकृष्ट हो जाते हैं।
दुःखानुशयी द्वेषः ॥८॥
८. दुःखकर वस्तु पर पुनः पुनः स्थितिशील एक विशेष अंतःकरण-वृत्ति को द्वेष
कहते हैं।
जिसमें हम दुःख पाते हैं, उसे तत्क्षण त्याग देने का प्रयत्न करते हैं ।
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः ॥९॥
९. जो (पहले के मृत्यु के अनुभवों से) स्वभावतः चला आ रहा है, एवं जो विवेकशील
पुरुषों में भी विद्यमान देखा जाता है, वह अभिनिवेश अर्थात् जीवन के प्रति
ममता है।
जीवन के प्रति यह ममता जीव मात्र में प्रकट रूप से देखी जाती है। इस पर
भविष्य-जीवन संबंधीसिद्धांतों को स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है। मनुष्य
ऐहिक जीवन से इतना प्यार करता है कि उसकी यह आकांक्षा रहती है कि वह भविष्य
में भी जीवित रहे। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इस युक्ति का कोई विशेष मूल्य
नहीं है--पर इसमें सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि पाश्चात्यों के मतानुसार
इस जीवन के प्रति ममता से भविष्य-जीवन की जो संभावना सूचित होती है, वह केवल
मनुष्य के बारे में सत्य है, दूसरे प्राणियों के बारे में नहीं। भारत में,
पूर्व संस्कार और पूर्व जीवन को प्रमाणित करने के लिए यह अभिनिवेश एक
युक्तिस्वरूप हुआ है। मान लो, यदि समस्त ज्ञान हमें प्रत्यक्ष अनुभूति से
प्राप्त हुए हों, तो यह निश्चित है कि हमने जिसका कभी प्रत्यक्ष अनुभव नहीं
किया, उसकी कल्पना भी कभी नहीं कर सकते, अथवा उसे समझ भी नहीं सकते। मुर्गी के
बच्चे अण्डे में से बाहर आते ही दाना चुगना आरंभ कर देते हैं। बहुधा ऐसा भी
देखा गया है कि यदि कभी मुर्गी के द्वारा बतख का अण्डा सेया गया, तो बतख का
बच्चा अण्डे में से बाहर आते ही पानी में चला गया, और उसकी मूर्ती-माँ इधर
सोचती है कि शायद बच्चा पानी में डूब गया। यदि प्रत्यक्ष अनुभूति ही ज्ञान का
एकमात्र उपाय हो, तो इन मुर्गी के बच्चों ने कहाँ से दाना चुगना सीखा? अथवा
बतख के इन बच्चों ने यह कैसे जाना कि पानी उनका स्वाभाविक स्थान है? यदि तुम
कहो कि यह जन्मजात-प्रवृत्ति (instinct) मात्र है, तो उससे कुछ भी बोध नहीं
होता; वह तो केवल एक शब्द का प्रयोग मात्र हुआ--वह कोई स्पष्टीकरण तो है नहीं।
ये जन्मजात-प्रवृत्तियों क्या हैं? हम लोगों में भी ऐसी बहुत सी
जन्मजात-प्रवृत्तियाँ हैं। उदाहरणार्थ, तुममें से अनेक महिलाएं पियानो बजाती
हैं; तुमको यह अवश्य स्मरण होगा, जब तुमने पहले-पहल पियानो सीखना आरंभ किया
था, तब तुमको सफ़ेद और काले परदों में, एक के बाद दूसरे में कितनी सावधानी के
साथ अंगुलियाँ रखनी पड़ती थीं, किंतु कुछ वर्षों के अभ्यास के बाद अब शायद तुम
किसी मित्र के साथ बातचीत भी कर सकती हो और साथ ही तुम्हारी अँगुलियाँ भी
पियानो पर अपने आप चलती रहती हैं। अर्थात् वह अब तुम लोगों की
जन्मजात-प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो गया है--वह तुम लोगों के लिए अब पूर्ण
रूप से स्वाभाविक हो गया है। हम जो अन्य सब कार्य करते हैं, उनके बारे में भी
ठीक ऐसा ही है। अभ्यास से वह सब जन्मजात-प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो जाता
है, स्वाभाविक हो जाता है। और जहाँ तक हम जानते हैं, आज जिन क्रियाओं को हम
स्वाभाविक या जन्मजात-प्रवृत्तियों से उत्पन्न कहते हैं, वे सब पहले
तर्कपूर्वक ज्ञान की क्रियाएँ थी और अब निम्न भावापन्न होकर इस प्रकार
स्वाभाविक हो पड़ी हैं। योगियों की भाषा में, जन्मजात-प्रवृत्ति तक की निम्न
भावापन्न क्रमसंकुचित अवस्था मात्र है। विचार या तर्कजन्य ज्ञान क्रम संकुचित
होकर स्वाभाविक संस्कार के रूप में परिणत हो जाता है। अतएव यह बात पूर्णरूपेण
युक्तिसंगत है कि हम इस जगत में जिसे जन्मजात-प्रवृत्ति कहते हैं, वह तर्कजन्य
ज्ञान की संकुचित निम्नावस्था मात्र है। पर चूँकि यह तर्क प्रत्यक्ष-अनुभूति
बिना नहीं हो सकता, इसलिए समस्त जन्मजात-प्रवृत्तियाँ पूर्व प्रत्यक्ष-अनु
भूतियों के फल हैं। मुर्गी के बच्चे चील से डरते हैं, बतख के बच्चे पानी पसंद
करते हैं, ये दोनों पूर्व प्रत्यक्ष-अनुभूतियों के फल हैं। अब प्रश्न यह है कि
यह अनुभूति जीवात्मा की है, अथवा केवल शरीर की? बतख अभी जो कुछ अनुभव कर रही
है, वह उस बतख के पूर्वजों की अनुभूति से आया है, अथवा वह उसकी अपनी
प्रत्यक्ष-अनुभूति है? आधुनिक वैज्ञानिक कहते हैं, वह केवल उसके शरीर का धर्म
है; पर योगी कहते हैं कि वह मन की अनुभूति है, जो शरीर के माध्यम से संचारित
होकर आ रही है। इसीको पुनर्जन्मवाद कहते हैं।
हमने पहले देखा है कि हमारा समस्त ज्ञान--प्रत्यक्ष, तर्क या जन्मजात--एकमात्र
प्रत्यक्ष-अनुभूतिरूप मार्ग के माध्यम से होकर ही आ सकता है; और जिसे हम
जन्मजात-प्रवृत्ति कहते हैं, वह हमारी पूर्व प्रत्यक्ष अनुभूति का फल है, वह
पूर्वानुभूति ही आज अवनत होकर जन्मजात-प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो गई है और
यह जन्मजात-प्रवृत्ति फिर से तर्कजन्य ज्ञान में उन्नस हो जाती है। सारे संसार
भर में यही क्रिया चल रही है। इस पर ही भारत में पुनर्जन्मवाद की एक प्रधान
युक्ति आधारित हुई है। पूर्वानुभूत बहुत से भय के संस्कार कालांतर में इस जीवन
के प्रति ममता के रूप में परिणत हो जाते हैं। यही कारण है कि बालक बिल्कुल
बचपन से ही अपने आप डरता रहता है, क्योंकि उसके मन में दुःख का पूर्व
अनुभूतिजनित संस्कार विद्यमान है। अत्यंत विद्वान् मनुष्यों में भी--जो जानते
हैं कि यह शरीर एक दिन चला जाएगा, जो कहते हैं कि 'आत्मा की मृत्यु नहीं,
हमारे तो सैकड़ों शरीर हैं, अतएव भय किस बात का'-ऐसे विद्वान् पुरुषों में भी,
उनके सारे विचारजनित दृढ़ विश्वास के बावजूद भी हम इस जीवन के प्रति प्रगाढ़
ममता देखते हैं। जीवन के प्रति यह ममता कहाँ से आई? हमने देखा है कि यह हमारे
लिए जन्मजात या स्वाभाविक हो गई है। योगियों की दार्शनिक भाषा में कह सकते हैं
कि वह संस्कार के रूप में परिणत हो गई है। ये सारे संस्कार सूक्ष्म (तनु) और
गुप्त (प्रसुप्त) होकर मन के भीतर मानो सोए हुए पड़े हैं। मृत्यु के ये सब
पूर्वानुभव--वह सब, जिसे हम जन्मजात-प्रवृत्ति कहते हैं--मानो अवचेतन अर्थात्
ज्ञान की निम्न भूमि में पहुँच गए हैं। वे चित्त में ही वास करते हैं। वे वहाँ
निष्क्रिय रूप से अवस्थान करते हों, ऐसी बात नहीं, वरन् भीतर ही भीतर कार्य
करते रहते हैं।
स्थूल रूप में प्रकाशित चित्तवृत्तियों को हम समझ सकते हैं और उनका अनुभव कर
सकते हैं; उनका दमन अधिक सुगमता से किया जा सकता है। पर इन सब सूक्ष्मतर
संस्कारों का दमन कैसे होगा? उन्हें कैसे दबाया जाए? जब मैं क्रुद्ध होता हूँ,
तब मेरा सारा मन मानो क्रोध की एक बड़ी तरंग में परिणत हो जाता है। मैं वह
अनुभव कर सकता हूँ, उसे देख सकता हूँ, उसे मानो हाथ में लेकर हिला डुला सकता
हूँ, उसके साथ अनायास ही, जो इच्छा हो, वही कर सकता हूँ, उसके साथ लड़ाई कर
सकता हूँ पर यदि मैं मन के अत्यंत गहरे प्रदेश में न जा सकूँ, तो कभी भी मैं
उसे जड़ से उखाड़ने में सफल न हो सकूँगा। कोई मुझे दो कड़ी बातें सुना देता
है, और मैं अनुभव करता हूँ कि मेरा खून गरम होता जा रहा है। इसके और भी कुछ
कहने पर मेरा खून उबल उठता है और मैं अपने आपे से बाहर हो जाता हूँ,
क्रोध-वृत्ति के साथ मानो अपने को एक कर लेता हूँ। जब उसने मुझे सुनाना आरंभ
किया था, उस समय मुझे अनुभव हो रहा था कि मुझमें क्रोध जा रहा है। उस समय
क्रोध अलग था और मैं अलग; किंतु जब मैं क्रुद्ध हो उठा, तो मैं ही मानो क्रोध
में परिणत हो गया। इन वृत्तियों को जड़ से--उनकी सूक्ष्मावस्था से ही उखाड़ना
पड़ेगा; वे हमारे ऊपर कार्य कर रही हैं, यह समझने के पहले ही उन पर संयम करना
पड़ेगा। संसार के अधिकांश मनुष्यों को तो इन वृत्तियों की सूक्ष्मावस्था,
जिसमें ये वृत्तियाँ अवचेतन अर्थात् ज्ञान की निम्न भूमि से थोड़ी थोड़ी करके
उदित होती हैं, के अस्तित्व तक का पता नहीं। जब किसी सरोवर की तली से एक
बुलबुला ऊपर उठता है, तब हम उसे देख नहीं पाते; केवल इतना ही नहीं, जब वह सतह
के बिल्कुल नजदीक आ जाता है, तब भी हम उसे देख नहीं पाते; पर जब वह ऊपर उठकर
फट जाता है और एक लहर फैला देता है, तभी हम उसका अस्तित्व जान पाते हैं। इसी
प्रकार जब हम इन वृत्तियों को उनकी सूक्ष्मावस्था में ही पकड़ सकेंगे, तभी हम
उन्हें रोकने में समर्थ हो सकेंगे। उनके स्थूल रूप धारण करने के पहले ही यदि
हम उनको पकड़ न सके, उनको संयत न कर सके, तो फिर किसी भी वासना पर संपूर्ण रूप
से जय प्राप्त कर सकने की आशा नहीं। वासनाओं को संयत करने के लिए हमें उनके
मूल में जाना पड़ेगा। तभी हम उनके बीज तक को दग्ध कर डालने में सफल होंगे।
जैसे भुने हुए बीज जमीन में बो देने पर फिर अंकुरित नहीं होते, उसी प्रकार ये
वासनाएँ भी फिर कभी उदित नहीं होंगी।
ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्मा: ॥१०॥
१०. उन सूक्ष्म संस्कारों को प्रतिप्रसव यानी प्रतिलोम-परिणाम के द्वारा
(अर्थात् चित्त को अपने कारण में विलीन करने के साधन द्वारा) नाश करना पड़ता
है।
ध्यान के द्वारा जब चित्तवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं, तब जो बच रहता है, उसे
सूक्ष्म संस्कार या वासना कहते हैं। उसको नष्ट करने का उपाय क्या है? उसे
प्रतिप्रसव अर्थात् प्रतिलोम-परिणाम के द्वारा नष्ट करना पड़ता है। प्रतिलोम
परिणाम का अर्थ है--कार्य का कारण में लय। चित्तरूप कार्य जब समाधि के द्वारा
अस्मितारूप अपने कारण में लीन हो जाता है, तभी चित्त के साथ ये सब संस्कार भी
नष्ट हो जाते हैं। केवल ध्यान ये सब सूक्ष्म संस्कार नष्ट नहीं कर सकता।
ध्यानहेयास्तद्वृत्तय: ॥११॥
११. ध्यान के द्वारा उनको (स्थूल) वृत्तियाँ नष्ट करनी पड़ती है।
ध्यान ही इन बड़ी तरंगों की उत्पत्ति को रोकने का एक महान उपाय है। ध्यान के
द्वारा मन की ये वृतिरूपी लहरें दब जाती हैं। यदि तुम दिन पर दिन, मास पर मास,
वर्ष पर वर्ष, इस ध्यान का अभ्यास करो--जब तक वह तुम्हारे स्वभाव में न
भिड़जाए, जब तक तुम्हारी इच्छा न करने पर भी वह ध्यान आपसे आप आने लगे--तो
क्रोध, घृणा आदि वृत्तियाँ संयत हो जाएँगी।
क्लेशमूल: कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः॥१२॥
१२. ये सब पूर्वोक्त क्लेश ही कर्म-संस्कारों के समुदाय की जड़ हैं। वर्तमान
या भविष्य में होने वाले जीवन में वे फल प्रसव करते हैं।
कर्माशय का अर्थ है, इन संस्कारों की समष्टि। हम जो भी कार्य करते हैं, वह
चित्तरूपी सरोवर में एक लहर उठा देता है। हम सोचते हैं कि इस काम के समाप्त
होते ही वह लहर भी चली जाएगी; पर वास्तव में वैसा नहीं होता। वह तो बस,
सूक्ष्म आकार भर धारण कर लेती है, पर रहती वहीं है। जब हम उस कार्य को स्मरण
में लाने का प्रयत्न करते हैं, त्यों ही वह फिर से उठ आती है और लहररूप धारण
कर लेती है। इससे यह स्पष्ट है कि वह मन के ही भीतर छिपी हुई थी; यदि ऐसा न
होता, तो स्मृति ही संभव न होती। अतएव हर एक कार्य, हर एक विचार, वह चाहे शुभ
हो, चाहे अशुभ, मन के गहरे प्रदेश में जाकर सूक्ष्म भाव धारण कर लेता है और
वहीं संचित रहता है। शुभ और अशुभ, दोनों प्रकार के विचार को क्लेश कहते हैं,
क्योंकि योगियों के मतानुसार दोनों से ही अंत में दुःख उत्पन्न होता है।
इंद्रियों से जो सुख मिलता है, वह अंत में दुःख ही लाता है। क्योंकि भोग से और
अधिक भोग की तृष्णा होती है और इसका अनिवार्य फल होता है--दुःख। मनुष्य की
वासना का कोई अंत नहीं, वह लगातार वासना पर वासना रचता जाता है और जब ऐसी
अवस्था में पहुँचता है, जहाँ उसकी वासना पूर्ण नहीं होती, तो फल होता
है--दुःख। इसीलिए योगी शुभ या अशुभ समस्त संस्कारों की समष्टि को क्लेश कहते
हैं, वे सब आत्मा की मुक्ति में बाधक होते हैं।
हमारे सारे कार्यों के सूक्ष्म मूलस्वरूप संस्कारों के बारे में भी ऐसा ही
समझना चाहिए। वे कारणस्वरूप होकर इहजीवन अथवा परजीवन में फल प्रसव करते हैं।
विशेष स्थलों में ये संस्कार, विशेष प्रबल रहने के कारण बहुत शीघ्र अपना फल दे
देते हैं; अत्युत्कट पुण्य या पाप कर्म इहजीवन में ही अपना फल सामने ला देता
है। योगी कहते हैं कि जो मनुष्य इहजीवन में ही अत्यंत प्रबल शुभ संस्कार
उपार्जित कर सकते हैं, उन्हें मृत्यु तक बाट जोहने की आवश्यकता नहीं होती, वे
तो इसी जीवन में अपने शरीर को देव-शरीर में परिणत कर सकते हैं। योगियों के
ग्रंथों में इस प्रकार के कई दृष्टांतों का उल्लेख मिलता है। ये व्यक्ति अपने
शरीर के उपादान तक को बदल डालते हैं। ये लोग अपने शरीर के परमाणुओं को ऐसे नए
ढंग से ठीक कर लेते हैं कि उनको फिर और कोई बीमारी नहीं होती, और हम लोग जिसे
मृत्यु कहते हैं, वह भी उनके पास नहीं फटक सकती। ऐसी घटना न होने का तो कोई
कारण नहीं है। शरीरशास्त्र के अनुसार भोजन का अर्थ है--सूर्य से शक्ति-ग्रहण।
वह शक्ति पहले वनस्पति में प्रवेश करती है, उस वनस्पति को कोई पशु खा लेता है,
फिर उस पशु को कोई मनुष्य। इसे वैज्ञानिक भाषा में व्यक्त करना हो, तो कहना
पड़ेगा कि हमने सूर्य से कुछ शक्ति ग्रहण करके उसे अपने अंगीभूत कर लिया। यदि
यही बात हो, तो इस शक्ति को अपने अंदर लेने के लिए केवल एक ही तरीका क्यों
रहना चाहिए? पौधे हमारी तरह शक्ति ग्रहण नहीं करते; और हम जिस प्रकार शक्ति
संग्रह करते हैं, धरती उस प्रकार नहीं करती। परतो भी सभी किसी न किसी प्रकार
से शक्ति संग्रह करते ही हैं। योगियों का कहना है कि वे केवल मन की शक्ति के
द्वारा शक्ति संग्रह कर सकते हैं। वे कहते हैं कि हम बिना किसी साधारण उपाय का
अवलंबनकिए ही यथेच्छ शक्ति भीतर ले सकते हैं। जैसे एक मकड़ी अपने ही उपादान से
जाला बनाकर उसमें बद्ध हो जाती है और जाले के तंतुओं का सहारा लिए बिना कहीं
नहीं जा सकती, उसी प्रकार हमने भी अपने ही उपादान से इस स्नायु-जाल को
प्रक्षिप्त किया है और अब उस स्नायु-मार्ग का बिना अवलंबनकिए कोई काम ही नहीं
कर सकते। योगी कहते हैं, हम क्यों उसमें बद्ध हों?
इस तत्त्व को और एक उदाहरण देकर समझाया जा सकता है। हम पृथ्वी के किसी भी भाग
में विद्युत्-शक्ति भेज सकते हैं। पर उसके लिए हमें तार की जरूरत पड़ती है।
किंतु प्रकृति तो बिना तार के ही बड़े परिमाण में यह शक्ति भेजती रहती है। हम
भी वैसा क्यों न कर सकेंगे? हम चारों ओर मानस-विद्युत् भेज सकते हैं। हम जिसे
मन कहते हैं, वह बहुत कुछ विद्युत्-शक्ति के ही सदृश है। स्नायु के भीतर जो
तरल पदार्थ है, उसमें थोड़ी विद्युत्-शक्ति है, क्योंकि विद्युत् के समान उसके
भी दोनों ओर विपरीत शक्तिद्वय दिखाई पड़ती हैं, तथा विद्युत् के अन्यान्य सब
धर्म उसमें भी देखे जाते हैं। इस विद्युत्-शक्ति को अभी हम केवल स्नायुओं में
से ही प्रवाहित कर सकते हैं। पर प्रश्न यह है कि स्नायुओं की सहायता लिए बिना
ही हम मानस-विद्युत् को क्यों नहीं प्रवाहित कर सकेंगे? योगी कहते हैं, हाँ,
यह पूरी तरह से संभव है; और संभव ही नहीं, वरन् इसे कार्य में भी परिणत किया
जा सकता है। और जब तुम इस में कृतकार्य हो जाओगे, तब सारे संसार भर में अपनी
इस शक्ति को परिचालित करने में समर्थ हो जाओगे। तब तुम किसी स्नायु-यंत्र की
सहायता लिए बिना ही किसी भी स्थान में, किसी भी शरीर द्वारा कार्य कर सकोगे।
जब तक आत्मा इस स्नायु यंत्ररूप प्रणाली के भीतर से काम करती रहती है, हम कहते
हैं कि मनुष्य जीवित है, और जब इन यंत्रों का कार्य बंद हो जाता है, तो कहते
हैं कि मनुष्य मर गया। पर जब मनुष्य इस प्रकार के स्नायु-यंत्र की सहायता से,
या बिना उसकी सहायता के भी, कार्य करने में समर्थ हो जाता है, तब उसके लिए
जन्म और मृत्यु का कोई अर्थ नहीं रह जाता। संसार में जितने शरीर हैं, वे सब
तन्मात्राओं से बने हुए हैं, उनमें भेद है केवल तन्मात्राओं के विन्यास की
प्रणाली में। यदि तुम्हीं उस विन्यास के कर्ता हो, तो तुम इच्छानुसार शरीर की
रचना कर सकते हो। यह शरीर तुम्हारे सिवाय और किसने बनाया है? अन्न कौन खाता
है? यदि कोई और तुम्हारे लिए भोजन करता रहे, तो तुम अधिक दिन जीवित न रहोगे।
उस अन्न से रुधिर भी कौन तैयार करता है? अवश्य तुम्हीं। उस रुधिर को शुद्ध
करके कौन धमनियों में प्रवाहित करता है? तुम्हीं। हम शरीर के मालिक हैं और
उसमें वास करते हैं। उसका किस प्रकार पुनर्गठन किया जाए, बस, इसी ज्ञान को हम
खो बैठे हैं। हम स्वभाव से चालित, भ्रष्ट हो गए हैं। हम शरीर के परमाणुओं की
विन्यास-प्रणाली भूल गए हैं। अत: आज हम जिसे यंत्रवत् किए जा रहे हैं, उसी को
अब जान-बूझकर करना होगा। हमी तो मालिक हैं--कर्ता हैं, अतः हमीं को इस
विन्यास-प्रणाली को नियमित करना होगा। और जब हम इसमें कृतकार्य हो जाएंगे, तब
अपनी इच्छानुसार शरीर का पुनर्गठन कर लेंगे, और तब हमारे लिए जन्म, मृत्य,
आधि-व्याधि कुछ भी न रह जाएगा।
सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः॥१३॥
१३. (मन में इस संस्काररूप) मूल के विद्यमान रहने तक उसका फलभोग (मनुष्य आदि
विभिन्न जाति, (भिन्न भिर) आयु और सुख-कुल के भोग (के रूप में) होता रहता है।
संस्काररूप जड़ अर्थात् कारण भीतर विद्यमान रहने के कारण वे ही व्यक्तभाव धारण
कर फल के रूप में परिणत होते हैं। कारण का नाश होकर कार्य अर्थात् फल का उदय
होता है, फिर कार्य सूक्ष्मभाव धारण कर बाद के कार्य का कारणस्वरूप होता है।
वृक्ष बीज को उत्पन्न करता है। बीज फिर बाद के वृक्ष की उत्पत्ति का कारण होता
है। हम इस समय जो कुछ कर्म कर रहे हैं, वे समस्त पूर्व संस्कार के फलस्वरूप
हैं। ये ही कर्म फिर संस्कार के रूप में परिणत होकर भावी कार्य के कारण हो
जाएंगे। बस इसी प्रकार कार्य-कारण-प्रवाह चलता रहता है। इसीलिए यह सूत्र कहता
है कि कारण विद्यमान रहने से उसका फल या कार्य अवश्यमेव होगा। यह फल पहले जाति
के रूप में प्रकाशित होता है--कोई लोग मनुष्य होंगे, तो कोई देवता, कोई पशु,
तो कोई असुर। फिर, जीवन में इस कर्म के विविध परिणाम होते हैं। एक मनुष्य पचास
वर्ष जीवित रहता है, तो दूसरा सौ वर्ष, और कोई दो वर्ष के बाद ही चल बसता, कभी
वयस्कताप्राप्त नहीं होता है। यह जो आयु की विभिन्नता है, वह पूर्व कर्म
द्वारा ही नियमित होती है। फिर इसी प्रकार, किसी को देखने पर प्रतीत होता है
कि मानो सुख-भोग के लिए ही उसका जन्म हुआ है--यदि वह वन में भी चला जाए, तो
वहाँ भी सुख मानो उसके पीछे पीछे जाता है। और कोई दूसरा व्यक्ति ऐसा होता है
कि उसके पीछे दुःख मानो छाया के समान लगा रहता है। यह सब उनके अपने अपने पूर्व
कर्मों का फल है। योगियों के मतानुसार पुण्य कर्म सुख लाते हैं और पाप कर्म
दुःख। जो मनुष्य कुकर्म करता है, वह क्लेश के रूप में अपने कर्म का फल अवश्य
भोगता है।
ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ॥१४॥
१४. वे (जाति, आय और भोग) हर्ष और शोकरूप फल के देने वाले होते हैं, क्योंकि
उनके कारण हैं पुण्य और पाप कर्म।
परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्व विवेकिनः ॥१५॥
१५. परिणाम-काल में परिणाम (नतीजा) रूप जो दुःख है, भोग-काल में भोग में विघ्न
होने की आशंकारूप जो दुःख है, अथवा सुख के संस्कार से उत्पन्न होने वाला
तृष्णारूप जो दुःख है--उस सबका जन्मदाता होने के कारण, तथा गुणवृत्तियों में
अर्थात् सत्व, रज और तम में परस्पर विरोध होने के कारण विवेकी पुरुष के लिए सब
दुःखरूप ही है।
योगी कहते हैं कि जिनमें विवेक-शक्ति है, जिनमें थोड़ी सी भी अंतर्दृष्टि है,
वे सुख और दुःख देनेवाली सर्वविध वस्तुओं के अंतस्तल तक को देख लेते हैं और
जान लेते हैं कि ये सुख और दुःख आपस में मानो गुंथे हुए हैं, एक ही दूसरे में
परिणत हो जाता है और इनसे संसार में कोई भी अछूता नहीं रहता--ये सबके पास आते
हैं। वे विवेकी पुरुष देखते हैं कि मनुष्य सारा जीवन मगजल के पीछे दौड़ता रहता
है और कभी अपनी वासनाओं को पूर्ण नहीं कर पाता। एक समय महाराज युधिष्ठिर ने
कहा था, "जीवन में सबसे आश्चर्यजनक घटना तो यह है कि हम प्रतिक्षण प्राणियों
को कालकवलित होते देखते हैं, फिर भी सोचते हैं कि हम कभी नहीं मरेंगे।" चारों
ओर मूर्खों से घिरे रहकर हम सोचते हैं कि हमी एकमात्र पंडित हैं। चारों ओर सब
प्रकार के अस्थायी अनुभवों से घिरे रहकर हम सोचते हैं कि हमारा प्यार ही
एकमात्र स्थायी प्यार है। यह कैसे हो सकता है? प्यार भी स्वार्थपरता से भरा
है। योगी कहते हैं, "अंत में हम देखेंगे कि दोस्तों का प्रेम, संतान का प्रेम,
यहाँ तक कि पति-पत्नि का प्रेम भी धीरे- धीरे क्षीण होकर नाश को प्राप्त हो
जाता है।" नाश ही इस संसार का धर्म है--वह किसी भी वस्तु को अछूता नहीं रखता।
जब मनुष्य संसार की समस्त वासनाओं में, यहाँ तक कि प्यार में भी निराश हो जाता
है, तभी क्षण भर के लिए यह भाव स्फुरित होता है कि यह संसार भी कैसा भ्रम है,
कैसा स्वप्न के समान है! तभी वैराग्य की एक किरण उसके हृदय में फैलती है, तभी
वह जगदतीत सत्ता की झलक पाता है। इस संसार को छोड़ने पर ही संसारातीत तत्त्व
हृदय में उद्भासित होता है; इस संसार के सुख में आसक्त रहने तक यह कभी संभव
नहीं होता। ऐसे कोई महात्मा नहीं हुए, जिन्हें अपनी महानता को प्राप्त करने के
लिए इंद्रिय-सुख और भोग त्यागना न पड़ा हो। दुःख का कारण है--प्रकृति की
विभिन्न शक्तियों का आपस में विरोध। प्रत्येक अपनी अपनी ओर खींचती है, और इस
प्रकार स्थायी सुख असंभव हो जाता है।
हेयं दुःखमनागतम् ॥१६॥
१६. जो दुःख अभी तक नहीं आया, उसका त्याग करना चाहिए।
कर्म का कुछ अंश हम पहले ही भोग चुके हैं, कुछ अंश हम वर्तमान में भोग रहे
हैं, और शेष अंश भविष्य में फल प्रदान करेगा। हमने जिसका भोग कर लिया है, वह
तो अब समाप्त हो चुका। हम वर्तमान में जिसका भोग कर रहे हैं, उसका भोग तो हमें
करना ही पड़ेगा; केवल जो कर्म भविष्य में फल देने के लिए बच रहा है, उसी पर हम
जय प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् उसका नाश कर सकते हैं। इसीलिए हमें अपनी पूरी
शक्ति उस कर्म के नाश के लिए प्रयुक्त कर देनी चाहिए, जिसने अभी तक कोई फल
पैदा नहीं किया है। संस्कारों पर विजय पाने के लिए उन्हें उनके कारणों में
पर्यवसित करना होगा--पतंजलि के इस कथन का यही अभिप्राय है।
द्रष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः ॥१७॥
१७. यह जो हेय है, अर्थात् जिस दुःख का त्याग करना होगा, उसका कारण है द्रष्टा
और दृश्य का संयोग।
द्रष्टा कौन है? मनुष्य की आत्मा--पुरुष। दृश्य क्या है? मन से लेकर स्थूल भूत
तक सारी प्रकृति। इस पुरुष और मन के संयोग से ही समस्त सुख दुःख उत्पन्न हुए
हैं। तुम्हें याद होगा, इस योगदर्शन के मतानुसार पुरुष शुद्धस्वरूप है; ज्यों
ही वह प्रकृति के साथ संयुक्त होता है और प्रकृति में प्रतिबिंबित होता है,
त्यों ही वह मुख अथवा दुःख का अनुभव करता हुआ प्रतीत होता है।
प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थ दृश्यम् ॥१८॥
१८. प्रकाश, क्रिया और स्थिति जिसका स्वभाव है, भूत और इंद्रियों जिसका
(प्रकट) स्वरूप है (पुरुष के) भोग और मुक्ति के लिए ही जिसका प्रयोजन है, वह
दृश्य है।
दृश्य अर्थात् प्रकृति भूतों और इंद्रियों से निर्मित है; भूत कहने से स्थूल,
सूक्ष्म सब प्रकार के भूतों का बोध होता है, जो सारी प्रकृति का निर्माण करते
हैं और इंद्रिय से आँख आदि समस्त इंद्रियाँ तथा मन आदि का भी बोध होता है।
उनके धर्म तीन प्रकार के हैं। जैसे--प्रकाश, कार्य और स्थिति यानी जड़त्व;
इन्हीं को दूसरे शब्दों में सत्त्व, रज और तम कहते हैं। समग्न प्रकृति का
उद्देश्य क्या है? यही कि पुरुष समुदय भोगों का अनुभव प्राप्त करे। पुरुष मानो
अपने महान ईश्वरीय स्वभाव को भूल गया है। इस संबंध में एक बड़ी सुंदर कहानी है
:
किसी समय देवराज इंद्र शूकर बनकर कीचड़ में रहते थे, उनके एक शूकरी थी--उस
शूकरी से उनके बहुत से बच्चे पैदा हुए थे। वे बड़े सुख से समय बिताते थे। कुछ
देवता उनकी यह दुरवस्था देखकर उनके पास आकर बोले, "आप देवराज हैं, समस्त देवगण
आपके शासन के अधीन हैं। फिर आप यहाँ क्यों हैं? " परंतु इंद्र ने उत्तर दिया,
"मैं बड़े मजे में हूँ। मुझे स्वर्ग की परवाह नहीं; यह शूकरी और ये बच्चे जब
तक हैं, तब तक स्वर्ग आदि कुछ भी नहीं चाहिए।" देवगण यह सुनकर तो
किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए--उन्हें कुछ सूझ न पड़ा। कुछ दिनों बाद उन्होंने मन ही
मन एक संकल्प किया कि वे एक के बाद एक सब बच्चों को मार डालेंगे। जब सभी बच्चे
मार डाले गए, तो इंद्र कातर होकर विलाप करने लगे। तब देवताओं ने इंद्र की
शूकर-देह को भी चीर डाला। तब तो इंद्र उस शूकर-देह से बाहर होकर हँसने लगे और
सोचने लगे, "मैं भी कैसा भयंकर स्वप्न देख रहा था! कहाँ मैं देवराज, और कहाँ
इस शूकर-जन्म को ही एकमात्र जन्म समझ बैठा था; यही नहीं, वरन् सारा संसार
शूकर-देह धारण करे, ऐसी कामना कर रहा था!' पुरुष भी बस, इसी प्रकार प्रकृति के
साथ मिलकर भूल जाता है कि वह शुद्ध और अनंतस्वरूप है। पुरुष को अस्तित्ववान
नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह स्वयं अस्तित्वस्वरूप है। आत्मा को ज्ञानवान
नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है। वह प्रेम नहीं करता,
वह स्वयं प्रेमस्वरूप है। आत्मा को अस्तित्ववान, ज्ञानवान अथवा प्रेममय कहना
सर्वथा भूल है। प्रेम, ज्ञान और अस्तित्व पुरुष के गुण नहीं, वे तो उसका
स्वरूप हैं। जब वे किसी वस्तु में प्रतिबिंबित होते हैं, तब चाहो, तो उन्हें
उस वस्तु के गुण कह सकते हो। किंतु वे पुरुष के गुण नहीं हैं, वे तो उस महान
आत्मा, उस अनंत पुरुष के स्वरूप हैं, जिसका न जन्म है, न मृत्यु और जो अपनी
महिमा में विराजमान है। किंतु वह यहाँ तक स्वरूपभ्रष्ट हो गया है कि यदि तुम
उसके पास जाकर कहो कि तुम शूकर नहीं हो, तो वह चिल्लाने लगता है और काटने
दौड़ता है।
इस माया के बीच, इस स्वप्नमय जगत के बीच हमारी भी ठीक वही दशा हो गई है। यहाँ
है केवल रोना, केवल दुःख, केवल हाहाकार! अजोब तमाशा है यहाँ का! यहाँ सोने के
कुछ गोले लुढ़का दिए जाते हैं और बस, सारा संसार उनके लिए पागलों के समान छूट
पड़ता है। तुम कभी भी किसी नियम से बद्ध नहीं थे। प्रकृति का बंधन तुम पर किसी
काल में नहीं था। योगी तुम्हें यही शिक्षा देते हैं; धैर्यपूर्वक इसको सीखो।
योगी यह दिखा देते हैं कि पुरुष किस प्रकार इस प्रकृति के साथ अपने को
मिलाकर--अपने को मन और जगत के साथ तादात्म्य करके अपने आपको दुःखी समझने लगता
है। योगी यह भी कहते हैं कि अनुभव के माध्यम से ही इस दुःखमय संसार से छुटकारा
पाने का उपाय है। ये सब अनुभव प्राप्त तो करना ही होगा, अतएव जितनी जल्दी वह
कर लिया जाए, उतना ही शुभ है। हमने अपने आपको इस जाल में फंसा लिया है, हमें
इसके बाहर आना होगा। हम स्वयं इस फंदे में फंस गए हैं, और अब अपने ही प्रयत्न
से उससे मुक्ति प्राप्त करनी पड़ेगी। अतएव, पति-पत्नी संबंधी, मित्र संबंधी
तथा और भी जो सब छोटी छोटी प्रेम की आकांक्षाएँ हैं, सभी का अनुभव पा लो। यदि
अपना स्वरूप तुम्हें सदा याद रहे, तो तुम शीघ्र ही निर्विघ्न इसके पार हो
जाओगे। यह कभी न भूलना कि यह अवस्था बिल्कुल अल्प समय के लिए है और हमें इसके
भीतर से बाध्य होकर जाना पड़ रहा है। भोंग--सुख-दुःख का यह अनुभव ही--हमारा
एकमात्र महान शिक्षक है, लेकिन स्मरण रहे, ये सब केवल अनुभव मात्र हैं; वे
क्रमशः हमें एक ऐसी अवस्था में ले जाते हैं, जहाँ संसार की समस्त वस्तुएँ
बिल्कुल तुच्छ हो जाती हैं। तब पुरुष विश्वव्यापी विराट के रूप में प्रकाशित
हो जाता है और तब यह सारा विश्व सिंधु में एक बिंदु सा प्रतीत होने लगता है और
अपनी ही इस क्षुद्रता के कारण इस शून्यता के कारण न जाने कहाँ विलीन हो जाता
है। सुख-दुःख का भोग तो हमें करना ही पड़ेगा, पर स्मरण रहे, हम अपना परम
लक्ष्य कभी न भूलें।
विशेषाविशेषलिंगमात्रालिंगानि गुणपर्वाणि ॥१९॥
१९. विशेष (भूतेन्द्रिय), अविशेष (तन्मात्रा, अस्मिता), केवल बिल मात्र (महत्)
और चिह्न शून्य (प्रकृति)--ये चार (सत्त्वादि) गुणों की अवस्थाएँ हैं।
यह पहले कहा जा चुका है कि योगशास्त्र सांख्य दर्शन पर स्थापित है; यहाँ पर
फिर से सांख्य दर्शन का ब्रह्मांड विज्ञान स्मरण कर लेना आवश्यक है। सांख्य के
अनुसार प्रकृति ही जगत का निमित्त और उपादान कारण है। यह प्रकृति तीन प्रकार
के उपादानों से निर्मित है--सत्त्व, रज और तम। तम पदार्थ केवल अंधकारस्वरूप
है। जो कुछ अज्ञानात्मक और भारी है, सभी तमोमय है। रज क्रिया-शक्ति है। और
सत्त्व स्थिर एवं प्रकाश स्वभाव है। सृष्टि के पूर्व प्रकृति जिस अवस्था में
रहती है, उसे अव्यक्त, अविशेष या अविभक्त कहते हैं; इसका तात्पर्य यह कि इस
अवस्था में नाम-रूप का कोई भेद नहीं रहता, इस अवस्था में ये तीनों उपादान
पूर्ण साम्यभाव से रहते हैं। उसके बाद जब यह साम्यावस्था नष्ट होकर
वैषम्यावस्था आती है, तब ये तीनों उपादान अलग अलग रूप से परस्पर मिश्रित होते
रहते हैं और उसका फल है यह जगत। प्रत्येक मनुष्य में भी ये तीन उपादान
विद्यमान हैं। जब सत्त्व प्रबल होता है, तब ज्ञान का उदय होता है; रज प्रबल
होने पर क्रिया की वृद्धि होती है; और तम प्रबल होने पर अंधकार, आलस्य और
अज्ञान आते हैं। सांख्य के अनुसार, त्रिगुणमयी प्रकृति का सर्वोच्च प्रकाश है
महत् या बुद्धि-तत्त्व--उसे सर्वव्यापी या सार्वजनीन बुद्धि-तत्त्व कहते हैं,
जिसका प्रत्येक मानव-बुद्धि एक अंश मात्र है। सांख्य मनोविज्ञान के अनुसार, मन
और बुद्धि में विशेष भेद है। मन का काम है, केवल विषय के आघात से उत्पन्न
संवेद नाओं को भीतर ले जाकर एकत्र करना और उन्हें बुद्धि अर्थात् व्यष्टि या
व्यक्तिगत महत् के पास पहुँचा देना। बुद्धि उन सब विषयों का निश्चय करती है।
महत् से अहं-तत्त्व और अहं-तत्त्व से सूक्ष्म भूतों की उत्पत्ति होती है। ये
सूक्ष्म भूत फिर परस्पर मिलकर इन बाहरी स्थूल भूतों में परिणत होते हैं; उसी
से इस स्थूल जगत की उत्पत्ति होती है। सांख्य दर्शन का मत है कि बुद्धि से
लेकर पत्थर के एक टुकड़े तक सभी एक ही पदार्थ से उत्पन्न हुए हैं, उनमें जो
भेद है, वह केवल उनकी सूक्ष्मता और स्थूलता में ही है। सूक्ष्म कारण है और
स्थूल कार्य। सांख्य दर्शन के अनुसार, समग्र प्रकृति के परे पुरुष है, वह जड़
नहीं है। पुरुष बुद्धि, मन, तन्मात्रा या स्थूल भूत, इनमें से किसी के भी सदृश
नहीं है। वह सर्वथा अलग है, उसका स्वभाव संपूर्णतः भिन्न है। इससे वे यह
सिद्धांत स्थिर करते हैं कि पुरुष को अवश्य मृत्युरहित, अजर और अमर होना
चाहिए, क्योंकि वह किसी प्रकार संघात का परिणाम नहीं है। और जो किसी प्रकार
संघात का परिणाम नहीं है, उसका कभी नाश भी नहीं हो सकता। ये पुरुष या आत्मा
असंख्य हैं।
अब हम इस सूत्र का तात्पर्य कि गुणों की विशेष, अविशेष, केवल चिह्न मात्र और
चिह्न शून्य--ये चार अवस्थाएँ हैं, समझ सकेंगे। 'विशेष' शब्द स्थूल भूतों को
लक्ष्य करता है--जिनकी हम इंद्रियों से उपलब्धि कर सकते हैं। 'अविशेष' का अर्थ
है सूक्ष्म भूत--तन्मात्रा; इन तन्मात्राओं की उपलब्धि साधारण मनुष्य नहीं कर
सकते। किंतु पतंजलि कहते हैं, "यदि तुम योग का अभ्यास करो, तो कुछ दिनों बाद
तुम्हारी अनुभव-शक्ति इतनी सूक्ष्म हो जाएगी कि तुम सचमुच तन्मात्राओं को भी
देख सकोगे।" तुम लोगों ने सुना होगा कि हर एक मनुष्य की अपनी चारों ओर एक
प्रकार की ज्योति होती है, प्रत्येक प्राणी से एक प्रकार का प्रकाश बाहर
निकलता रहता है। पतंजलि कहते हैं, योगी ही उसे देखने में समर्थ होते हैं।
हममें से सभी उसे नहीं देख पाते; फिर भी जिस प्रकार फूल में से सदैव फूल की
सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणुस्वरूप तन्मात्राएँ बाहर निकलती रहती हैं, जिसके
द्वारा हम उसकी गंध ले सकते हैं, उसी प्रकार हमारे शरीर से भी ये तन्मात्राएँ
सतत निकल रही हैं। प्रतिदिन हमारे शरीर से शुभ या अशुभ किसी न किसी प्रकाश की
शक्तिराशि बाहर निकलती रहती है। अतएव हम जहाँ भी जाएंगे, वहीं वातावरण इन
तन्मात्राओं से पूर्ण रहेगा। इसका असल रहस्य न जानते हुए भी, इसी से मनुष्य के
मन में अनजाने मंदिर, गिरजा आदि बनाने का भाव आया है। भगवान् को भजने के लिए
मंदिर बनाने की क्या आवश्यकता थी? क्यों, कहीं भी तो ईश्वर की उपासना की जा
सकती थी? फिर यह सब मंदिर आदि क्यों? इसका कारण यह है कि स्वयं इस रहस्य को न
जानने पर भी, मनुष्य के मन में स्वाभाविक रूप से ऐसा उठा था कि जहाँ पर लोग
ईश्वर की उपासना करते हैं, वह स्थान पवित्र तन्मात्राओं से परिपूर्ण हो जाता
है। लोग प्रतिदिन वहाँ जाया करते हैं; और मनुष्य जितना ही वहाँ आते-जाते हैं,
उतना ही वे पवित्र होते जाते हैं और साथ ही वह स्थान भी अधिकाधिक पवित्र होता
जाता है। यदि किसी मनुष्य के मन में उतना सत्त्वगुण नहीं है, और यदि वह भी
वहाँ जाए, तो वह स्थान उस पर भी अपना असर डालेगा और उसके अंदर सत्त्वगुण का
उद्रेक कर देगा। अब हम समझ सकेंगे कि मंदिर और तीर्थ आदि इतने पवित्र क्यों
माने जाते हैं। पर यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि साधु व्यक्तियों के समागम के
ऊपर ही उस स्थान की पवित्रता निर्भर रहती है। किंतु सारी गड़बड़ी तो यही है कि
मनुष्य उसका मूल उद्देश्य भूल जाता है--और भूलकर गाड़ी को बैल के आगे जोतना
चाहता है। पहले मनुष्य ही उस स्थान को पवित्र बनाते हैं, उसके बाद उस स्थान की
पवित्रता स्वयं कारण बन जाती है और मनुष्यों को पवित्र बनाती रहती है। यदि उस
स्थान में सदा असाधु व्यक्तियों का ही आवागमन रहे, तो वह स्थान अन्य स्थानों
के समान ही अपवित्र बन जाएगा। इमारत के गुण से नहीं, वरन् मनुष्य के गुण से ही
मंदिर पवित्र माना जाता है, पर इसीको हम सदा भूल जाते हैं। इसीलिए अधिक
सस्वगुणसंपन्न साधु-संत चारों ओर यह सत्त्वगुण बिखेरते हुए अपने परिवेश पर
रात-दिन प्रबल प्रभाव डाल सकते हैं। मनुष्य यहाँ तक पवित्र हो सकता है कि उसकी
वह पवित्रता बिल्कुल मूर्त हो जाती है और जो कोई व्यक्ति उस साधु पुरुष के
संस्पर्श में आता है, वही पवित्र हो जाता है।
अब देखें, 'चिह्न मात्र' का अर्थ क्या है। चिह्न मात्र कहने से बुद्धि
(महत्त्व) का बोध होता है। वह प्रकृति की पहली अभिव्यक्ति है; उसी से दूसरी सब
वस्तुएँ अभिव्यक्त हुई हैं। गुणों की अंतिम अवस्था का नाम है 'अलिंग' या
चिह्नशून्य। यहीं पर आधुनिक विज्ञान और समस्त धर्मों में एक भारी अंतर देखा
जाता है। प्रत्येक धर्म में यह एक साधारण सत्य देखने में आता है कि यह जगत
चैतन्य-शक्ति से उत्पन्न हुआ है। ईश्वर हमारे समान कोई व्यक्तिविशेष है या
नहीं, यह विचार छोड़कर केवल मनोविज्ञान की दृष्टि से ईश्वरवाद का तात्पर्य यह
है कि चैतन्य ही सृष्टि की आदि वस्तु है; उसी से स्थूल भूत का प्रकाश हुआ है।
किंतु आधुनिक दार्शनिकगण कहते हैं कि चैतन्य सृष्टि की आखिरी वस्तु है।
अर्थात् उनका मत यह है कि अचेतन जड़ वस्तुएँ धीरे- धीरे प्राणी के रूप में
परिणत हुई हैं, ये प्राणी क्रमशः उन्नत होते होते मनुष्यरूप धारण करते हैं। वे
कहते हैं, यह बात नहीं है कि जगत की सब वस्तुएँ चैतन्य से प्रसूत हुई हैं,
वरन् चैतन्य ही सृष्टि की आखिरी वस्तु है। यद्यपि धर्मों एवं विज्ञान के
सिद्धांत इस प्रकार आपस में ऊपर से विरुद्ध प्रतीत होते हैं, तथापि इन दोनों
सिद्धांतों को ही सत्य कहा जा सकता है। एक अनंतश्रृंखला या श्रेणी लो,
जैसे--क-ख-क-ख-क-स आदि; अब प्रश्न यह है कि इसमें 'क' पहले है या 'ख'? यदि तुम
इस श्रृंखला को क-ख क्रम से लो, तो 'क' को प्रथम कहना पड़ेगा, पर यदि तुम उसे
ख-क से शुरू करो, तो ख को आदि मानना होगा। अतः हम उसे जिस दृष्टि से देखेंगे,
वह उसी प्रकार प्रतीत होगा। चैतन्य अनुलोम-परिणाम को प्राप्त होकर स्थूल भूत
का आकार धारण करता है, स्थूल भूत फिर विलोम-परिणाम से चैतन्यरूप में परिणत
होता है और इस प्रकार क्रम चलता रहता है। सांख्य और अन्य सब धर्मों के आचार्य
गण भी चैतन्य को ही प्रथम स्थान देते हैं। उससे वह श्रृंखला इस प्रकार का रूप
धारण करती है कि पहले चैतन्य, और पीछे भूत। वैज्ञानिक भूत को पहले लेकर कहते
हैं कि पहले भूत, और पीछे चैतन्य। पर ये दोनों ही उसी एक श्रृंखला की बात कहते
हैं। किंतु भारतीय दर्शन इस चैतन्य और भूत, दोनों के परे जाकर उस पुरुष या
आत्मा का साक्षात्कार करता है, जो ज्ञान के भी अतीत है। यह ज्ञान तो मानो उस
ज्ञानस्वरूप आत्मा से उधार लिए हुए आलोक के समान है।
द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः॥२०॥
२०. द्रष्टा केवल चैतन्य मात्र है; यद्यपि यह स्वयं पवित्रस्वरूप है, तो भी वह
बुद्धि के भीतर से देखा करता है।
यहाँ पर भी सांख्य दर्शन की बात कही जा रही है। हमने पहले देखा है, सांख्य
दर्शन का यह मत है कि अत्यंत क्षुद्र पदार्थ से लेकर बुद्धि तक सभी प्रकृति के
अंतर्गत हैं, किंतु पुरुष (आत्माएँ) इस प्रकृति के बाहर हैं। इन पुरुषों के
कोई गुण नहीं है। तब फिर आत्मा क्योंकर सुखी या दुःखी होती है? केवल बुद्धि
में प्रतिबिंबित होकर वह वैसी प्रतीयमान होती है। जैसे स्फटिक के एक टुकड़े के
पास एक लाल फूल रखने पर वह स्फटिक लाल दिखाई देता है, उसी प्रकार हम जो सुख या
दुःख अनुभव कर रहे हैं, वह वास्तव में प्रतिबिंब मात्र है। वस्तुत: आत्मा में
यह सब कुछ भी नहीं है। आत्मा प्रकृति से संपूर्णतः पृथक् वस्तु है। प्रकृति एक
वस्तु है और आत्मा दूसरी---संपूर्ण पृथक् और सर्वदा पृथक्। सांख्य कहते हैं कि
ज्ञान एक यौगिक पदार्थ है, उसका ह्रास और वृद्धि, दोनों हैं, वह परिवर्तनशील
है; शरीर के समान उसमें भी परिणाम होता है। शरीर के जो सब धर्म हैं, उसके भी
प्रायः वैसे ही धर्म हैं। नख का शरीर के साथ जैसा संबंध है, वैसा ही देह का
ज्ञान के साथ। नख शरीर का एक अंशविशेष है, उसे सैकड़ों बार काट डालने पर भी
शरीर बचा रहेगा। ठीक इसी प्रकार, यह शरीर सैकड़ों बार नष्ट होने पर भी ज्ञान
युग-युगांतर तक बचा रहेगा। तो भी यह ज्ञान कभी अविनाशी नहीं हो सकता, क्योंकि
वह परिवर्तनशील है, उसका ह्रास है, वृद्धि है। और जो परिवर्तनशील है, वह कभी
अविनाशी नहीं हो सकता। यह ज्ञान एक सृष्ट पदार्थ है, और इसी से यह स्पष्ट है
कि इसके परे, इससे श्रेष्ठ एक दूसरा पदार्थ अवश्य है। सृष्ट पदार्थ कभी मुक्त
नहीं हो सकता; भूत के साथ संश्लिष्ट प्रत्येक वस्तु प्रकृति के अंतर्गत है और
इसलिए वह चिरकाल के लिए बद्ध है। तो फिर यथार्थ में मुक्त है कौन? जो
कार्य-कारण-संबंध के अतीत है, वही वास्तव में मुक्त है। यदि तुम कहो कि मुक्ति
की यह धारणा भ्रमात्मक है, तो मैं कहूँगा कि यह बद्धभाव भी भ्रमात्मक है।
हमारे ज्ञान में ये दोनों ही भाव सदैव वर्तमान हैं; वे आपस में एक दूसरे के
आश्रित हैं; एक के न रहने से दूसरा भी नहीं रह सकता। उनमें से एक भाव यह है कि
हम बद्ध हैं। मान लो, हमारी इच्छा हुई कि हम दीवार के बीच में से होकर चले
जाएँ। हम चेष्टा करते हैं और हमारा सिर दीवार से टकरा जाता है; तब हम देख पाते
हैं कि हम उस दीवार द्वारा सीमाबद्ध हैं। पर साथ ही हम अपनी एक इच्छा-शक्ति भी
देखते हैं और सोचते हैं कि इस इच्छा-शक्ति को हम जहाँ चाहें, लगा सकते हैं। पग
पग पर हम अनुभव करते हैं कि ये विरोधी भावद्वय हमारे सामने आ रहे हैं। हमें
विश्वास करना पड़ता है कि हम मुक्त हैं, पर इधर प्रतिमुहूर्त हम यह भी देखते
हैं कि हम मुक्त नहीं हैं। इन दोनों में से यदि एक भाव भ्रमात्मक हो, तो दूसरा
भी भ्रमात्मक होगा, और यदि एक सत्य हो, तो दूसरा भी सत्य होगा, क्योंकि दोनों
ही अनुभवरूप एक ही नींव पर स्थापित हैं। योगी कहते हैं कि ये दोनों भाव सत्य
हैं। बुद्धि तक लेने से हम सचमुच बद्ध हैं, पर आत्मा की दृष्टि से हम मुक्त
हैं। मनुष्य का यथार्थ स्वरूप--आत्मा या पुरुष--कार्य-कारणवाद के परे है।
आत्मा का यह मुक्त स्वभाव ही भूत के विभिन्न स्तरों में से--बुद्धि, मन आदि
नाना रूपों में से--प्रकाशित हो रहा है। वह इसी की ज्योति हैं, जो सबों के
माध्यम से प्रकाशित हो रही है। बुद्धि का अपना कोई चैतन्य नहीं है। प्रत्येक
इंद्रिय का मस्तिष्क में एक एक केंद्र है। समस्त इंद्रियों का एक ही केंद्र
नहीं है, वरन् प्रत्येक का केंद्र अलग अलग है। तो फिर हमारी ये अनुभूतियाँ
कहाँ जाकर एकत्व को प्राप्त होती हैं? यदि मस्तिष्क में वे एकत्व को प्राप्त
होती, तो आँख, कान, नाक सभी का एक ही केंद्र रहता; पर हम निश्चित रूप से जानते
हैं कि वैसा नहीं है--प्रत्येक के लिए अलग-अलग केंद्र है। फिर भी मनुष्य एक ही
समय में देख और सुन सकता है। इसी से प्रतीत होता है कि इस बुद्धि के पीछे
अवश्य एक एकत्व होना चाहिए। बुद्धि सदैव मस्तिष्क के साथ संबद्ध है; किंतु इस
बुद्धि के भी पीछे पुरुष--इकाई विद्यमान है, जहाँ विविध संवेदनाएँ और
अनुभूतियों संयुक्त होकर एकीभाव को प्राप्त होती हैं। आत्मा ही यह केंद्र है,
जहाँ समस्त भिन्न-भिन्न इंद्रिय-अनुभूतियाँ जाकर एकीभूत होती हैं। यह आत्मा
मुक्तस्वभाव है और उसका यह मुक्त स्वभाव ही तुम्हें प्रतिक्षण कह रहा है कि
तुम मुक्त हो। लेकिन भ्रम में पड़कर तुम उस मुक्त स्वभाव को प्रतिक्षण बुद्धि
और मन के साथ मिला दे रहे हो। तुम उस मुक्त स्वभाव को बुद्धि पर आरोपित करते
हो और दूसरे ही क्षण देखते हो कि बुद्धि मुक्तस्वभाव नहीं है। तुम फिर उस
मुक्त स्वभाव को देह पर आरोपित करते हो, और प्रकृति तुम्हें तुरंत बता देती है
कि तुम फिर से भूल रहे हो; मुक्ति देह का धर्म नहीं है। यही कारण है कि हमारी
मुक्ति और बंधन, ये दो प्रकार की अनुभूतियाँ एक ही समय देखने में आती हैं।
योगी मुक्ति और बंधन, दोनों का विचार करते हैं, और उनका अज्ञानाधंकार दूर हो
जाता है। वे जान लेते हैं कि पुरुष मुक्तस्वभाव है, ज्ञानधन है। वह बुद्धिरूप
उपाधि के भीतर से इस सान्त ज्ञान के रूप में प्रकाशित हो रहा है, बस, इसी
दृष्टि से वह बद्ध है।
तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा॥२१॥
२१. (उक्त) दृश्य अर्थात् प्रकृति का स्वरूप (यानी विभिन्न रूपों में परिणाम)
उस (द्रष्टा, चिन्मय पुरुष) के ही (भोग तथा मुक्ति के) लिए है।
प्रकृति का अपना कोई प्रकाश नहीं है। जब तक पुरुष उसके पास उपस्थित रहता है,
तभी तक उसका प्रकाश है, ऐसा बोध होता है। लेकिन यह प्रकाश उधार लिया हुआ है,
जैसे चंद्रमा का प्रकाश प्रतिबिंबित है। योगियों के मतानुसार, सारा व्यक्त जगत
प्रकृति से उत्पन्न हुआ है; पर प्रकृति का अपना कोई उद्देश्य नहीं है, केवल
पुरुष को मुक्त करना ही उसका प्रयोजन है।
कृतार्थं प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात्॥२॥
२२. जिन्होंने उस परम पद को प्राप्त कर लिया है, उनके लिए प्रकृति का नाश हो
जाने पर भी प्रकृति नष्ट नहीं होती; क्योंकि वह दूसरों के लिए साधारण है।
यह ज्ञात करा देना ही कि आत्मा प्रकृति से संपूर्णस्वतंत्र है, प्रकृति का एक
मात्र लक्ष्य है। जब आत्मा यह जान लेती है, तब प्रकृति उसे और किसी प्रकार
प्रलोभित नहीं कर सकती। जो लोग मुक्त हो गए हैं, केवल उन्हींके लिए यह सारी
प्रकृति बिल्कुल उड़ जाती है। पर ऐसे करोड़ों लोग हमेशा ही रहेंगे, जिनके लिए
प्रकृति कार्य करती रहेगी।
स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोगः॥२३॥
२३. दृश्य (प्रकृति) और उसके स्वामी (द्र्ष्टा पुरुष)--इन दोनों को शक्ति के
(भोग्यत्व और भोक्तृत्वरूप) स्वरूप की उपलब्धि का हेतु 'संयोग' है।
इस सूत्र के अनुसार, जब आत्मा प्रकृति के साथ संयुक्त होती है, तभी इस सयांग
के कारण दोनों की क्रम से द्रष्टुत्व और दृश्यत्व, इन दोनों शक्तियों का
प्रकाश होता है। तभी यह सारा जगत-प्रपंच विभिन्न रूपों में व्यक्त होता रहता
है। अज्ञान ही इस संयोग का हेतु है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि हमारे दुःख या
सुख का कारण है--शरीर के साथ अपना संयोग कर लेना। यदि मुझे यह निश्चित रूप से
ज्ञान रहता कि मैं शरीर नहीं हूँ, तो मुझे ठंड, गरमी या और किसी बात का ख्याल
नहीं रहता। यह शरीर एक समवाय या संहति मात्र है। यह कहना भूल है कि मेरा शरीर
अलग है, तुम्हारा शरीर अलग और सूर्य एक पृथक् पदार्थ है। यह सारा जगत महाभूत
के एक समुद्र के समान है। उस महासमुद्र में तुम एक बिंदु हो, मैं एक दूसरा
बिंदु और सूर्य एक तीसरा। हम जानते हैं कि यह भूत सदा ही भिन्न-भिन्न रूप धारण
कर रहा है। आज जो सूर्य का उपादान बना हुआ है, कल वही हमारे शरीर के उपादान के
रूप में परिणत हो सकता है।
तस्य हेतुरविद्या ॥२४॥
२४. उस संयोग का कारण है, अविद्या अर्थात् अज्ञान।
हमने अज्ञान के कारण अपने को एक निर्दिष्ट शरीर में आबद्ध करके अपने दुःख का
रास्ता खोल रखा है। यह धारणा कि 'मैं शरीर हूँ', एक कुसंस्कार मात्र है। यह
कुसंस्कार ही हमें सुखी या दुःखी करता है। अज्ञान से उत्पन्न इस कुसंस्कार से
ही हम शीत, उष्ण, सुख, दुःख आदि का अनुभव कर रहे हैं। हमारा कर्तव्य है--इस
कुसंस्कार के पार चले जाना। किस तरह इसे कार्य में परिणत करना होगा, यह योगी
दिखला देते हैं। यह प्रमाणित हो चुका है कि मन की एक विशेष अवस्था में देह-बोध
बिल्कुल नहीं रह जाता--उस समय शरीर भले ही दग्ध होता रहे, पर जब तक मन की वह
अवस्था रहती है, तब तक मनुष्य किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव नहीं करता। पर हो
सकता है, मन की ऐसी उच्चावस्था अचानक एक मुहूर्त के लिए आँधी के समान आए, और
दूसरे ही क्षण चली जाए। किंतु यदि हम इस अवस्था को योग के द्वारा, ठीक
शास्त्रीय ढंग से प्राप्त करें, तो हम सदैव आत्मा को शरीर से पृथक् रख सकते
हैं।
तदभावात् संयोगाभावो हानं तदृशेः कैवल्यम् ॥२५॥
२५. उस (अज्ञान) का अभाव होते ही (पुरुष-प्रकृति के) संयोग का अभाव (हो जाता
है। यही) हान (अज्ञान का परित्याग) है (और) वही द्रष्टा की कैवल्यपद में
अवस्थिति है।
योगशास्त्र के मतानुसार, आत्मा अविद्या के कारण प्रकृति के साथ संयुक्त हो गई
है। प्रकृति के पंजे से छुटकारा पाना ही हमारा उद्देश्य है। यही सारे धर्मों
का एकमात्र लक्ष्य है। प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अंतः
प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम
लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मनःसंयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी
उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही
धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मंदिर अथवा अन्य बाह्य
क्रिया कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं। योगी मनःसंयम के द्वारा इस चरम
लक्ष्य में पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। जब तक हम प्रकृति के हाथ से अपना
उद्धार नहीं कर लेते, तब तक हम गुलाम हैं; प्रकृति जैसा कहती है, हम उसी
प्रकार चलने को लाचार होते हैं। योगी यह दावा करते हैं कि जो मन को वशीभूत कर
सकते हैं, वे भूत को भी वशीभूत कर लेते हैं। अंतःप्रकृति बाह्य प्रकृति की
अपेक्षा कहीं उच्चतर है, और उस पर अधिकार जमाना--उस पर जय प्राप्त करना
अत्यधिक कठिन है। इसीलिए जो अंत: प्रकृति को वशीभूत कर सकते हैं, सारा जगत
उनके वशीभूत हो जाता है। वह उनका दास हो जाता है। राजयोग, प्रकृति को इस तरह
वश में लाने का उपाय दिखला देता है। हम बाल जगत में जिन सब शक्तियों के साथ
परिचित हैं, उनकी अपेक्षा उच्चतर शक्तियों को वश में लाना पड़ेगा। यह शरीर मन
का एक बाह्य आवरण मात्र है। शरीर और मन, दो अलग अलग वस्तुएँ नहीं हैं, वे तो
सीप और उसके खोल के समान हैं। वे एक ही वस्तु की दो विभिन्न अवस्थाएं हैं। सीप
के भीतर का जंतु बाहर से नाना प्रकार के उपादान लेकर उस खोल को तयार करता है।
उसी प्रकार मन नामक यह आंतरिक सूक्ष्म शक्ति समूह भी बाहर से स्थूल भूत को
लेकर उससे इस शरीररूपी ऊपरी खोल को तैयार कर रहा है। अत: हम यदि अंतर्जगत् पर
जय-लाभ कर सकें, तो बाह्य जगत को जीतना फिर बड़ा आसान हो जाएगा। फिर, ये दो
शक्तियाँ अलग अलग नहीं हैं। ऐसी बात नहीं है कि कुछ शक्तियाँ भौतिक हैं और कुछ
मानसिक। जैसे यह दृश्यमान भौतिक जगत सूक्ष्म जगत की स्थूल अभिव्यक्ति मात्र
है, उसी प्रकार भौतिक शक्तियाँ भी सूक्ष्म शक्तियों की स्थूल अभिव्यक्ति मात्र
हैं।
विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ॥२६॥
२६. निरंतर विवेक का अभ्यास ही अज्ञान-नाश का उपाय है।
सारे साधन का यथार्थ लक्ष्य यह सदसद्विवेक--यह जानना कि पुरुष प्रकृति से
भिन्न है। यह विशेष रूप से आनना कि पुरुष भूत भी नहीं है और मन भी नहीं, और
चूँकि यह प्रकृति भी नहीं है, इसलिए उसका किसी प्रकार का परिणाम असंभव है।
केवल प्रकृति में ही सर्वदा परिवर्तन हो रहा है, उसी का सदैव
संश्लेषण-विश्लेषण हो रहा है। जब निरंतर अभ्यास के द्वारा हम विवेक लाभ
करेंगे, तब अज्ञान चला जाएगा और पुरुष अपने स्वरूप में अर्थात् सर्वज्ञ, सर्व
शक्तिमान और सर्वव्यापी रूप में प्रतिष्ठित हो जाएगा।
तस्य सप्तधा प्रांतभूमिः प्रज्ञा॥२७॥
२७. उनके (ज्ञानी के) विवेक-ज्ञान के सात उच्चतम सोपान हैं।
जब इस ज्ञान की प्राप्ति होती है, तब मानो वह एक के बाद एक करके सात स्तरों
में आता है। और जब उनमें से एक अवस्था आरंभ हो जाती है, तब हम निश्चित रूप से
जान सकते हैं कि हमें अब ज्ञान की प्राप्ति हो रही है। पहली अवस्था आने पर मन
में ऐसा होने लगेगा कि जो कुछ जानने का है, जान लिया। मन में तब और किसी
प्रकार का असंतोष नहीं रह जाता। जब तक हमारी ज्ञान-पिपासा बनी रहती है, तब तक
हम इधर-उधर ज्ञान की खोज में लगे रहते हैं। जहाँ से भी कुछ सत्य मिलने की
संभावना रहती है, झट वहीं दौड़ जाते हैं। जब वहाँ उसकी प्राप्ति नहीं होती, तब
मन अशांत हो जाता है। फिर अन्य दिशा में हम सत्य की खोज में भटकते फिरते हैं।
जब तक हम यह अनुभव नहीं कर लेते कि समस्त ज्ञान हमारे अंदर है, जब तक यह दृढ़
धारणा नहीं हो जाती कि कोई भी हमें सत्य की प्राप्ति करने में सहायता नहीं
पहुँचा सकता, हमें स्वयं ही अपने आपकी सहायता करनी होगी, तब तक सारा
सत्यान्वेषण ही वृथा है। जब हम विवेक का अभ्यास आरंभ करेंगे, तो हमारे सत्य के
नजदीक आ जाने का पहला चिह्न यह प्रकाशित होगा कि वह पूर्वोक्त असंतोष की
अवस्था चली जाएगी। हमारी यह निश्चित धारणा हो आयगी कि हमने सत्य को पा लिया
है--और यह सत्य के सिवा और कुछ नहीं हो सकता। तब हम यह जान लेते हैं कि
सत्यस्वरूप सूर्य उदित हो रहा है, हमारी अज्ञान-रजनी पर प्रभात की लाली छा रही
है। और तब, हृदय में आशा भरकर, जब तक वह ध्येय प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक
हमें अवश्य अध्यवसायी होना होगा। दूसरी अवस्था में सारे दुःख चले जाएंगे। तब
जगत का बाहरी या भीतरी कोई भी विषय हमें दुःख नहीं पहुँचा सकेगा। तीसरी अवस्था
में हमें पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो जाएगी, अर्थात् हम सर्वज्ञ हो जाएंगे।
चौथी अवस्था में विवेक की सहायता से सारे कर्तव्यों का अंत हो जाएगा। उसके वाद
चित्त-विमुक्ति की अवस्था आएगी। तब हम समझ सकेंगे कि हमारी सारी विघ्न-बाधाएँ
चली गई हैं। जिस प्रकार किसी पर्वत के शिखर से एक पत्थर के टुकड़े को नीचे
लुढ़का देने पर वह फिर ऊपर नहीं जा सकता, उसी प्रकार मन की चंचलता, मनःसंयम की
असमर्थता आदि सभी गिर जाएंगे, अर्थात् नष्ट हो जाएंगे। छठी अवस्था में चित्त
समझ लेगा कि इच्छा मात्र से ही वह अपने कारण में लीन हो जा रहा है। अंत में हम
देख पाएँगे कि हम स्वस्वरूप में अवस्थित हैं और इतने दिन तक जगत में एकमात्र
हमीं अवस्थित थे। मन या शरीर के साथ हमारा कोई संबंध नहीं था--उनके साथ हमारे
युक्त होने की बात तो दूर ही रहे। वे अपना अपना काम आप कर रहे थे। और हमने
अज्ञानवश अपने आपको उनसे युक्त कर रखा था। पर हम तो सदा से अकेले ही रहे हैं।
इस संसार में केवल हमी सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सदानन्दस्वरूप हैं। हमारी
अपनी आत्मा इतनी पवित्र और पूर्ण है कि हमें और किसीकी आवश्यकता नहीं थी। हमें
सुखी करने के लिए और कुछ भी आवश्यक नहीं था, क्योंकि हमीं सुखस्वरूप हैं। हम
देख लेंगे कि यह ज्ञान और किसी के ऊपर निर्भर नहीं रहता। जगत में ऐसा कुछ भी
नहीं है, जो हमारे ज्ञानालोक से प्रकाशित न हो। यही योगी की अंतिम अवस्था है।
तब योगी धीर और शांत हो जाते हैं, वे और कोई कष्ट अनुभव नहीं करते, वे फिर कभी
अज्ञान-मोह से भ्रांत नहीं होते, दुःख उन्हें छू नहीं सकता। वे जान लेते हैं
कि "मैं नित्यानन्दस्वरूप, नित्यपूर्णस्वरूप और सर्वशक्तिमान हूँ।'
योगांगानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः ॥२८॥
२८. योग के विभिन्न अंगों का अनुष्ठान करते करते जब अपवित्रता का नाश हो जाता
है, तब ज्ञान प्रदीप्त हो उठता है। उसकी अंतिम सीमा है विवेक ख्याति।
अब साधन की बात कही जा रही है। अभी तक जो कुछ कहा गया, वह अपेक्षाकृत उच्चतर
है। वह अभी हमसे बहुत दूर हैकिंतु वही हमारा आदर्श है, हमारा एकमात्र लक्ष्य
है। उस लक्ष्यस्थल पर पहुँचने के लिए पहले शरीर और मन को संयत करना आवश्यक है
तभी उस आदर्श में हमारी अनुभूति स्थायी हो सकेगी। हमारा लक्ष्य क्या है, यह
हमने जान लिया है, अब उसे प्राप्त करने के लिए साधन आवश्यक है।
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान
समाधयोऽष्टावंगानि ॥२९॥
२९. यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि--ये आठ (योग
के) अंग है।
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ॥३०॥
३०. अहिंसा, सस्य, अस्तेय (चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (संग्रह का
अभाव)--ये पाँच यम कहलाते हैं।
जो पूर्ण योगी होना चाहते हैं, उन्हें स्त्री-पुरुष-भेद का भाव छोड़ देना
पड़ेगा। आत्मा के कोई लिंग नहीं है--उसमें न स्त्री है, न पुरुष; तब क्यों वह
स्त्री-पुरुष के भेद-ज्ञान द्वारा अपने आपको कलुषित करे? बाद में हम और भी
अच्छी तरह समझ सकेंगे कि ये सब भाव हमें क्यों बिल्कुल छोड़ देने चाहिए। उपहार
ग्रहण करनेवाले मनुष्य के मन पर दाता के मन का असर पड़ता है, इसलिए ग्रहण
करनेवाले के भ्रष्ट हो जाने की संभावना रहती है। दूसरे के पास से कुछ ग्रहण
करने से मन को स्वाधीनता चली जाती है और हम मोल लिए हुए गुलाम के समान दाता के
अधीन हो जाते हैं। अतएव किसी प्रकार का उपहार ग्रहण करना भी उचित नहीं।
जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम् ॥३१॥
३१. ये सब (उक्त यम) जाति, देश, काल और समय यानी उद्देश्य के द्वारा अवच्छिन्न
न होने पर सार्वभौम महाव्रत कहलाते हैं।
ये सब साधन अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह प्रत्येक
व्यक्ति के लिए--प्रत्येक पुरुष, स्त्री और बालक के लिए--बिना किसी जाति, देश
या अवस्था के भेद से अनुष्ठेय हैं।
शौचसंतोषतपःस्वाध्यायश्वरप्रणिधानानि नियमाः॥३२॥
३२. बाह्य एवं अंतःशौच, संतोष, तपस्या, स्वाध्याय (मंत्र-जप या
अध्यात्म-शास्त्रों का पठन-पाठन) और ईश्वरोपासना--(ये पाँच) नियम हैं।
बाह्य शौच अर्थात् शरीर को पवित्र रखना; अपवित्र मनुष्य कभी योगी नहीं होता;
इस बाह्य शौच के साथ साथ अंतःशौच भी आवश्यक है। समाधिपाद के ३३वें सूत्र में
जिन धर्मों (गुणों) की बात कही गई है, उनके पालन से यह अंतःशौच आता है। यह
सत्य है कि बाह्य शौच से अंतःशौच अधिक उपकारी है, किंतु दोनों की ही आवश्यकता
है; और अंतःशौच के बिना केवल बाह्य शौच कोई फल उत्पन्न नहीं करता।
वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् ॥३३॥
३३. वितर्क अर्थात् योग (यम और नियम) के विरोधी भाव उपस्थित होने पर उनके
प्रतिपक्षी विचारों का बारंबार चिंतन करना चाहिए।
ऊपर में जिन सब धर्मों (गुणों) की बात कही गई है, उनके अभ्यास का यही उपाय है।
उदाहरणार्थ, जब मन में क्रोध की एक बड़ी तरंग आती है, तब उसे कैसे वश में लाया
जाए? उसके विपरीत एक तरंग उठाकर। उस समय प्रेम की बात मन में लाओ। कभी-कभी ऐसा
होता है कि पत्नी अपने पति पर खूब गरम हो जाती है, उसी समय उसका बच्चा वहाँ आ
जाता है और वह उसे गोद में उठाकर चूम लेती है। इससे उसके मन में बच्चे के
प्रति प्रेमरूप तरंग उठने लगती है और वह पहले की तरंग को दबा देती है। प्रेम,
क्रोध के विपरीत है। इसी प्रकार जब मन में चोरी का भाव उठे, तो चोरी के विपरीत
भाव का चिंतन करना चाहिए। जब दान ग्रहण करने की इच्छा पैदा हो, तो उसके विपरीत
भाव का चिंतन करना चाहिए।
वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका
मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम् ॥३४॥
३४. वितर्क अर्थात् योग के विरोधी हैं, हिंसा आदि भाव; (वे तीन प्रकार के होते
हैं--) स्वयं किए हुए, दूसरों से करवाए हुए और अनुमोक्ति किए हुए; इनके कारण
है--लोभ, क्रोध और मोह इनमें भी कोई थोड़े परिमाण का, कोई मध्यम परिमाण का और
कोई बहुत बड़े परिमाण का होता है। इनके अज्ञान और क्लेशरूप अनंत फल हैं--इस
प्रकार (विचार करना हो) प्रतिपक्ष की भावना है।
मैं स्वयं यदि कोई झूठ कहूँ, तो उससे जो पाप होता है, उतना ही पाप तब भी होता
है, जब मैं दूसरे को झूठ बात कहने में लगाता हूँ, अथवा दूसरे की किसी झूठ बात
का अनुमोदन करता हूँ। वह झूठ भले ही जरा सा हो, तो भी झूठ तो है ही। पर्वत की
कंदरा में भी बैठकर यदि तुम कोई पाप-चिंतन करो, किसी के प्रति घृणा का भाव
पोषण करो, तो वह भी संचित रहेगा, और कालांतर में फिर से वह तुम्हारे पास कुछ
दुःख के रूप में आकर तुम पर प्रबल आघात करेगा। यदि तुम अपने हृदय से ईर्ष्या
और घृणा का भाव चारों ओर बाहर भेजो, तो वह चक्रवृद्धि ब्याज सहित तुम पर आकर
गिरेगा। दुनिया की कोई भी ताकत उसे रोक न सकेगी। यदि तुमने एक बार उस शक्ति को
बाहर भेज दिया, तो फिर निश्चित जानो, तुम्हें उसका प्रतिघात सहन करना ही
पड़ेगा। यह स्मरण रहने पर तुम कुकर्मों से बचे रह सकोगे।
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥३५॥
३५. भीतर अहिंसा के प्रतिष्ठित हो जाने पर, उसके निकट सब प्राणी अपना
स्वाभाविक वैर-भाव त्याग देते हैं।
यदि कोई व्यक्ति अहिंसा की चरम अवस्था को प्राप्त कर ले, तो उसके सामने जो सब
प्राणी स्वभावत: ही हिंस्र हैं, वे भी शांतभाव धारण कर लेते हैं। उस योगी के
सामने शेर और मेमना एक साथ खेलेंगे। इस अवस्था की प्राप्ति होने पर ही समझना
कि तुम्हारा अहिंसाव्रत दृढ़प्रतिष्ठ हो गया है।
सत्यप्रतिष्ठायाँ क्रियाफलाश्रयत्वम्॥३६॥
३६. जब सत्यव्रत हृदय में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब कोई कर्म बिना किए ही
अपने लिए या दूसरे के लिए कर्म का फल प्राप्त करने की शक्ति योगी में आ जाती
है।
जब सत्य की यह शक्ति तुममें प्रतिष्ठित हो जाएगी, तब स्वप्न में भी तुम झूठ
बात नहीं कहोगे। तब शरीर, मन और वचन से सत्य ही बाहर आएगा। तब तुम जो कुछ
कहोगे, वही सत्य हो जाएगा। यदि तुम किसी से कहो, "तुम कृतार्थ होओ", तो वह उसी
क्षण कृतार्थ हो जाएगा। किसी पीड़ित मनुष्य से यदि कहो, "रोगमुक्त हो जाओ", तो
वह उसी समय स्वस्थ हो जाएगा।
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ॥३७॥
३७. अस्तेय में प्रतिष्ठित हो जाने पर (उस योगी के सामने) सब प्रकार के
धन-रत्न प्रकट हो जाते हैं।
तुम जितना ही प्रकृति से दूर भागोगे, वह उतना ही तुम्हारा अनुसरण करेगी, और
यदि तुम उसकी जरा भी परवाह न करो, तो वह तुम्हारी दासी बनकर रहेगी।
ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ॥३८॥
३८. ब्रह्मचर्य की दृढ़ स्थिति हो जाने पर वीर्य-लाभ होता है।
ब्रह्मचर्यवान मनुष्य के मस्तिष्क में प्रवल शक्ति--महती इच्छा-शक्ति संचित
रहती है। ब्रह्मचर्य के बिना और किसी भी उपाय से आध्यात्मिक शक्ति नहीं आ
सकती। इसके द्वारा मनुष्य-जाति पर आश्चर्यजनक क्षमता प्राप्त की जा सकती है।
मानव-समाज के सभी आध्यात्मिक नेतागण ब्रह्मचर्यवान थे--उन्हें सारी शक्ति इस
ब्रह्मचर्य से ही प्राप्त हुई थी। बतएव योगी का ब्रह्मचर्यवान होना अनिवार्य
है।
अपरिग्रस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध: ॥३९॥
३९. अपरिग्रह के दृढ़प्रतिष्ठित हो जाने पर पूर्वजन्मों की बात स्मृति में उदित
हो जाती है।
अब योगी दूसरे के पास से कोई वस्तु स्वीकार नहीं करते, तब उन पर दूसरों का कोई
असर नहीं पड़ता, वे किसी के द्वारा अनुगृहीत नहीं होते और इसलिए वे स्वाधीन
एवं मुक्त रहते हैं। उनका मन शुद्ध हो जाता है। दान स्वीकार करने से दाता के
पाप भी लेने की संभावना रहती है। इस परिग्रह को त्याग देने पर मन शुद्ध हो
जाता है। और इससे जो सर फल प्राप्त होते हैं, उनमें पूर्व जन्म की स्मृति का
उदित होना प्रथम है। तभी वे योगी संपूर्ण रूप से अपने लक्ष्य में दृढ़ होकर रह
सकते हैं। वे देख लेते हैं कि इतने दिन तक वे केवल आवागमन कर रहे थे। तब वे
दृढ़ प्रतिज्ञा कर लेते हैं कि इस बार मैं अवश्य मुक्त होऊँगा, मैं अब और
आवागमन नहीं करूँगा, प्रकृति का दास नहीं होऊँगा।
शौचात् स्वांगजुगुप्सा परैरसंसर्ग:॥४०॥
४०. शौच के प्रतिष्ठित हो जाने पर अपने शरीर के प्रति घृणा का उद्रेक होता है,
दूसरों के साथ संग करने की भी फिर प्रवृत्ति नहीं रहती।
जब यथार्थ बाह्य और आभ्यंतर, दोनों प्रकार के शौच सिद्ध हो जाते हैं, तब शरीर
के प्रति उदासीनता आ जाती है--उसे कैसे अच्छा रखें, कैसे वह सुंदर दिखेगा, ये
सब भाव बिल्कुल चले जाते हैं। सांसारिक लोग जिसे अत्यंतसुंदर मुख कहेंगे,
उसमें यदि ज्ञान का कोई चिह्न न हो, तो वही योगी के निकट पशु के मुख के समान
प्रतीत होगा। संसार के मनुष्य जिस मुख में कोई विशेषता नहीं देखते, उसके पीछे
यदि चैतन्य का प्रकाश हो, तो योगी उसे स्वर्गीय मुखश्री करेंगे। यह देह-तृष्णा
मानव-जीवन के लिए एक अभिशापस्वरूप है। अतः शौच-प्रतिष्ठा का पहला लक्षण यह
दिखेगा कि तुम शरीर के प्रति उदासीन हो जाओगे--तुम्हारे मन में यह विचार तक न
उठेगा कि तुम्हारे शरीर है भी। जब यह पवित्रता हममें आती है, तभी हम देह-भाव
के ऊपर उठ सकते हैं।
सत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्र्येन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च ॥४१॥
४१. इसके सिवा (इस शौच से) सत्त्वशुद्धि, सौमनस्य अर्थात् मन का प्रफुल्ल भाव,
एकाग्रता, इंद्रियजय और आत्मदर्शन की योग्यता--ये पाँचों भी होते हैं।
इस शौच के अभ्यास द्वारा सत्त्व पदार्थ का प्राबल्य होता है और मन एकाग्र एवं
प्रफुल्ल हो जाता है। तुम धर्म-पथ में अपने अग्रसर होने का प्रथम लक्षण यह
देखोगे कि दुम दिन पर दिन बड़े प्रफुल्ल होते जा रहे हो। यदि कोई व्यक्ति
विषादयुक्त दिखे, तो वह अनी का फल ल ही हो, पर धर्म का लक्षण नहीं हो सकता।
सुख का भाव ही परम का स्वाभाविक धर्म है, सात्त्विक मनुष्य के लिए सभी सुखमय
प्रतीत होते हैं। अतः जब तुममें यह आनंद का भाव आता रहे, तो समझना कि तुम योग
में उन्नति कर रहे हो। सारे दुःख-कष्ट तमोगुण से उत्पन्न होते हैं। अतएव
तुम्हें उससे बचकर रहना होगा--उसको दूर कर देना होगा। विषादपूर्ण होकर चेहरा
उतारे रहना तमोगुण का एक लक्षण है। सबल, बृह, स्वस्थ, युवक और साहसी मनुष्य ही
मोगी बनने के योग्य हैं। योगी के लिए सभी सुखमय प्रतीत होते हैं; वे जिस किसी
मनुष्य को देखते हैं, उसी से उनको आनन्द होता है। यही धार्मिक मनुष्य का चिह्न
है। पाप ही कष्ट का कारण है, अन्य किसी कारण से कष्ट नहीं पाता। उतरा हुआ
चेहरा लेकर क्या होगा? कैसा भयानक दृश्य है वह! ऐसी सूरत लेकर बाहर मत जाना!
किसी दिन ऐसा होने पर दरवाजा बंद करके समय बिता देना। संसार में इस बीमारी को
संक्रमित करने का तुम्हें क्या अधिकार है? जब तुम्हारा मनसंयत हो जाएगा, जब
तुम पूरे शरीर को वश में रख सकोगे। तब फिर तुम इस यंत्र के दास नहीं बने
रहोगे; यह देह-यंत्र ही तुम्हारा वास होकर रहेगा। तब यह देह-यंत्र आत्मा को
खींचकर नीचे की ओर न ले जाकर उसकी मुक्ति में महान सहायक हो जाएगा।
संतोषादनुत्तमः सुखलाभः ॥४२॥
४२. संतोष से परम सुख प्राप्त होता है।
कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः ॥४३॥
४३. तपस्या से जब अशुद्धि का नाश हो जाता है, तब शरीर और इंद्रियों की सिद्धि
हो जाती है अर्थात् उनमें नाना प्रकार की शक्तियाँ आती हैं।
तपस्या का फल कभी कभी अचानक दूरदर्शन, दूरश्रवण इत्यादि रूप से प्रकाशित होता
है।
स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः ॥४४॥
४४. मंत्र के पुनः पुनः उच्चारण या अभ्यास से इष्टदेवता के दर्शन होते हैं।
जिसने उच्च स्तर के जीव (देवता, ऋषि, सिद्ध) देखने की इच्छा करोगे, उतना ही
कठोर अभ्यास करना पड़ेगा।
समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् ॥४५॥
४५. ईश्वर में समस्त अर्पण करने से समाधि-लाभ होता है।
ईश्वर पर आत्म-समर्पण से समाधि की पूर्णता होती है।
स्थिरसुखमासनम् ॥४६॥
४६. स्थिर भाव से सुखपूर्वक बैठने का नाम आसन है।
अब आसन की बात कही जाएगी। जब तक तुम स्थिर भाव से बहुत समय तक बैठे रहने में
समर्थ नहीं होते, तब तक प्राणायाम एवं अन्य साधनों में किसी प्रकार सफल नहीं
हो सकोगे। आसन के स्थिर होने का तात्पर्य है--शरीर के अस्तित्व का बिल्कुल भान
तक न होना। साधारणतः यह देखा जाता है कि ज्यों ही तुम चन्द मिनट के लिए बैठते
हो, त्यों ही शरीर में नाना प्रकार के विकार आने लगते हैं। पर जब तुम स्थूल
देहभाव के परे चले जाओगे, तब तुम्हें शरीर का भान तक न रहेगा। फिर तुम सुख या
दुःख कुछ भी अनुभव नहीं करोगे। जब फिर से तुम्हें शरीर का ज्ञान आएगा, जब तुम
आसन से उठोगे, तो ऐसा लगेगा कि तुमने बहुत समय तक विश्राम किया है। यदि शरीर
को संपूर्ण विश्राम देना संभव हो, तो वह इसी प्रकार हो सकता है। जब तुम इस
प्रकार शरीर को अपने अधीन करके उसे दृष्ट रख सकोगे, तब जानना कि तुम्हारा साधन
भी दृढ़ हुआ है। किंतु जब शारीरिक विघ्न-बाधाओं से विचलित हो जाओगे, तब
तुम्हारे स्नायु चंचल रहेंगे और तुम किसी भी प्रकार मन को एकाग्र न कर सकोगे।
प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम्॥४॥
४७. शरीर में एक प्रकार का जो स्वाभाविक प्रयत्न है (अर्थात् चंचलता की ओर
शरीर की जो एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है), उसे शिथिल कर देने से और अनंत के
चिंतन से (आसन स्थिर और सुखकर होता है)।
अनंत के चिंतन के द्वारा आसन अविचलित (स्थिर) हो सकता है। पर हाँ, हम उस
सर्वद्वंद्वातीत अनंत (ब्रह्म) के बारे में (सरलता से) चिंतन नहीं कर सकते,
किंतु हम अनंत आकाश के बारे में सोच सकते हैं।
ततो द्वन्द्वानभिघात: ॥४८॥
४८. इस प्रकार आसन सिद्ध हो जाने पर, तब द्वंद्व-परंपरा और कुछ विघ्न उत्पन्न
नहीं कर सकती।
द्वंद्व का अर्थ है शुभ-अशुभ, शीत-उष्ण, आलोक-अँधेरा, सुख-दुःख आदि 'विपरीत
धर्मवाली युग्मता। ये सब फिर तुम्हें चंचल नहीं कर सकेंगे।
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः॥४९॥
४९. उस आसन की सिद्धि होने के पार पास मौर प्रश्वास, दोनों की गति को संयत
करना प्राणायाम कहलाता है।
जब यह आसन सिद्ध हो जाता है, तब इस श्वास-प्रश्वास की गति को रोककर उस पर जय
प्राप्त करना पड़ेगा। अत: अब प्राणायाम का विषय आरंभ होता है। प्राणायाम क्या
है? शरीरस्थित जीवनी शक्ति को वश में लाना। यद्यपि 'प्राण' शब्द बहुधा श्वास
के अर्थ में प्रयुक्त होता है, तो भी वास्तव में वह श्वास नहीं है। प्राण का
अर्थ है जागतिक समस्त शक्तियों की समष्टि। यह वह शक्ति है, जो प्रत्येक देह
में अवस्थित है, और उसका ऊपरी प्रकाश है--फेफड़े की यह गति। प्राण जब श्वास को
भीतर की ओर खींचता है, तभी यह गति शुरू होती है। प्राणायाम करने के समय हम उसी
को संयत करने का प्रयत्न करते हैं। इस प्राण पर अधिकार प्राप्त करने के लिए हम
पहले श्वास-प्रश्वास को संयन करना शुरू करते हैं, क्योंकि वही प्राण-जय का
सबसे सरल मार्ग है।
बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिः देशकालसंख्याभिः परिदृष्टोदीर्घसूक्ष्मः ॥५०॥
५०. बाहावृत्ति, आभ्यंतरवृत्ति और स्तंभवृत्ति के भेद से यह प्राणायाम तीन
प्रकार का है। देश काल और संस्था पारा नियमित समापन होने के कारण उनमें भी फिर
माना प्रकार के भेद है।
यह प्राणायाम तीन प्रकार की क्रियाओं में विभक्त है। पहली--जब हम श्वास को
अंदर खींचते हैं; दूसरी--जब हम उसे बाहर निकालते हैं। तीसरी--जब उसे फेफड़े के
भीतर या उसके बाहर रोकते हैं। ये फिर देश, काल और संख्या के अनुसार भिन्न-
भिन्न रूप धारण करते है। देश का अर्थ है--प्राण को शरीर के किसी अंशविशेष में
आबद्ध रखना। समय का अर्थ है--प्राण को किस स्थान में कितने समय तक रखना होगा,
इस बात का ज्ञान; और संख्या का अर्थ है--यह जान लेना कि कितनी बार ऐसा करना
होगा। इसीलिए कहाँ पर, कितने समय तक और कितनी बार रेचक आदि करना होगा, इत्यादि
कहा जाता है। इस प्राणायाम का फल है उद्घात अर्थात् कुंडलिनी का जागरण।
बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः ॥५१॥
५१. चौथे प्रकार का प्राणायाम वह है, जिसमें प्राणायाम के समय बाद या आभ्यंतर
किसी विषय का चिंतन किया जाता है।
यह चौथे प्रकार का प्राणायाम है। इसमें चिंतन के साथ दीर्घ काल तक अभ्यास करते
रहने से कुंभक होता है। दूसरे प्राणायामों में चिंतन का संपर्क नहीं रहता।
ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्॥५॥
५२. उस (प्राणायाम के अभ्यास) से (चित्त के) प्रकाश का आवरण क्षीण हो जाता है।
चित्त में स्वभावतः समस्त ज्ञान भरा है, वह सत्य पदार्थ द्वारा निर्मित है, पर
रज और तम पदाथों से ढका हुआ है। प्राणायाम के द्वारा चित्त का वह आवरण हट जाता
है।
धारणास् च योग्यता मनसः॥५॥
५३. (उसी से) धारणा में मन की योग्यता भी होती है।
यह आवरण हट जाने पर हम मन को एकाग्र करने में समर्थ होते है।
स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ॥५४॥
५४. जब इंद्रियाँ अपने अपने विषय को छोड़कर मानो चित्त का स्वरूप ग्रहण करती
हैं, तब उसे प्रत्याहार कहते हैं।
ये इंद्रियाँ मन की ही विभिन्न अवस्थाएँ मात्र हैं। मैं एक पुस्तक देखता हूँ।
वास्तव में, वह पुस्तक-आकृति बाहर नहीं है। वह तो मन में है। बाहर की कोई चीज
उस आकृति को केवल जगा भर देती है। वास्तव में तो वह चित्त में ही है। इन
इंद्रियों के सामने जो कुछ बाता है, उसके साथ ये मिश्रित होकर, उसी का आकार
धारण कर लेती हैं। यदि तुम चित्त को ये सब विभिन्न आकृतियाँ धारण करने से रोक
सको, तभी तुम्हारा मन शांत होगा और इंद्रियों भी मन के अनुरूप हो जाएँगी।
इसीको प्रत्याहार कहते हैं।
ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम् ॥५५॥
५५. उस (प्रत्याहार) से इंद्रियों पर पूर्णरूप से जय प्राप्त हो जाती है।
जब योगी इंद्रियों को इस प्रकार बाहरी वस्तु का आकार धारण करने से रोक सकते
हैं और चित्त के साथ उन्हें एक करके रखने में सफल होते हैं, तभी इंद्रियों पर
पूर्ण रूप से जय प्राप्त होती है। और जब इंद्रियाँ पूरी तरह विजित हो जाती
हैं, तब एक एक स्नाय, एक एक मांसपेशी तक हमारे वश में आ जाती है, क्योंकि
इंद्रियाँ ही सब प्रकार की संवेदना और कार्य की केंद्र हैं। ये इंद्रियाँ
ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय, इन दो भागों में विभक्त हैं। अतः जब इंद्रियाँ
संयत होंगी, तब योगी सब प्रकार के भावों और कार्यों पर जय-लाभ कर सकेंगे। सारा
शरीर ही उनके अधीन हो जाएगा। ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर ही मनुष्य देह-धारण
में आनंद अनुभव करने लगता है। तभी वह सचमुच कह सकता है, "मैं धन्य हूँ, जो
मेरा जन्म हुआ!" जब इंद्रियों पर ऐसा अधिकार प्राप्त हो जाता है, तभी हम यह
अनुभव कर सकते हैं कि यह शरीर भी सचमुच कैसी अद्भुत चीज है।
तृतीय अध्याय
विभूतिपाद
अब हम विभूतिपाद में आते हैं।
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा॥१॥
१. चित्त को किसी विशेष वस्तु में धारण करके रखने का नाम है धारणा।
जब मन शरीर के भीतर या उसके बाहर किसी वस्तु के साथ संलग्न होता है और कुछ समय
तक उसी तरह रहता है, तो उसे धारणा कहते हैं।
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ॥२॥
२. वह वस्तुविषयक ज्ञान निरंतर एक रूप से प्रवाहित होते रहने पर उसे ध्यान
कहते हैं।
मान लो, मन किसी एक विषय को सोचने का प्रयत्न कर रहा है, किसी एक विशेष स्थान
में-जैसे, मस्तक के ऊपर अथवा हृदय आदि में-अपने को पकड़ रखने का प्रयत्न कर
रहा है। यदि मन शरीर के केवल उस अंश के द्वारा संवेदनाओं को ग्रहण करने में
समर्थ होता है, शरीर के दूसरे भागों के द्वारा नहीं, तो उसका नाम धारणा है। और
जब वह अपने को कुछ समय तक उसी अवस्था में रखने में समर्थ होता है, तो उसका नाम
है ध्यान।
तदेवार्थमात्रनिर्भांस स्वरूपशून्यमिव समाधिः॥३॥
३. वही (ध्यान) जब समस्त बाहरी उपाधियों को छोड़कर अर्थ मात्र को ही प्रकाशित
करता है तब उसे समाधि कहते है।
जब ध्यान में वस्तु का रूप या बाहरी भाग परित्यक्त हो जाता है, तभी यह
समाधि-अवस्था आती है। मान लो, मैं इस पुस्तक के बारे में ध्यान कर रहा हूँ और
सोचो, मैं उसमें चित्त-संयम करने में सफल हो गया। तब केवल, बिना किसी रूप में
प्रकाशित, अर्थ नामक आभ्यंतरिक संवेदनाएँ ही मेरे ज्ञान में आने लगती हैं।
ध्यान की इस अवस्था को समाधि कहते हैं।
त्रयमेकत्र संयमः॥४॥
४. इन तीनों का जब एक साथ अर्थात् एक ही वस्तु के संबंध में अभ्यास किया जाता
है, तब उसे संयम कहते हैं।
जब कोई व्यक्ति अपने मन को किसी निर्दिष्ट वस्तु की ओर ले जाकर उस वस्तु में
कुछ समय तक के लिए धारण कर सकता है, और फिर उसके अंतर्भाग को उसके बाहरी आकार
से अलग करके बहुत समय तक रख सकता है, तभी समझना चाहिए कि संयम हुआ। अर्थात्
धारणा, ध्यान और समाधि, ये तीनों क्रमश: एक के बाद एक, किसी एक वस्तु के ऊपर
होने पर एक संयम हुआ। तब उस वस्तु का बाहरी आकार न जाने कहाँ चला जाता है, मन
में केवल उसका अर्थ मात्र उद्भासित होता रहता है।
तज्जयात् प्रज्ञालोकः॥५॥
५. उसको जीत लेने से ज्ञानालोक का प्रकाश होता है।
जब कोई मनुष्य इस संयम के साधन में सफल हो जाता है, तब सारी शक्तियाँ उसके हाथ
में आ जाती हैं। यह संयम ही योगी के ज्ञान-लाभ का प्रधान यंत्र स्वरूप है।
ज्ञान के विषय अनंत हैं। वे स्थूल, स्थूलतर, स्थूलतम और सूक्ष्म, सूक्ष्मतर,
सूक्ष्मतम आदि नाना विभागों में विभक्त हैं। इस संयम का प्रयोग पहले स्थूल
वस्तु पर करना चाहिए, और जब स्थूल का ज्ञान प्राप्त होने लगे, तब थोड़ा थोड़ा
करके सोपान-क्रम से सूक्ष्मतर वस्तु पर उसका प्रयोग करना चाहिए।
तस्य भूमिषु विनियोगः ॥६॥
६. उस (संयम) का प्रयोग सोपान-क्रम से करना चाहिए।
जल्दबाजी मत करना। यह सूत्र इस प्रकार हमें सावधान कर दे रहा है।
त्रयमन्तरंगं पूर्वेभ्यः ॥७॥
७. पहले कहे गए (साधनों) को अपेक्षा ये तीनों (साधन अधिक) अंतरंग हैं।
इनके पहले यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार की बात कही गई है। वे
धारणा, ध्यान और समाधि की अपेक्षा बहिरंग हैं। इन धारणा आदि अवस्थाओं को
प्राप्त करने पर मनुष्य सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान अवश्य हो सकता है, पर
सर्वज्ञता अथवा सर्वशक्तिमत्ता तो मुक्ति नहीं है। केवल इन तीन प्रकार के
साधनों द्वारा मन निर्विकल्प अर्थात् परिणामशून्य नहीं हो सकता; इन त्रिविध
साधनों का अभ्यास होने पर भी देह-धारण का बीज रह जाता है। जब वह बीज, जैसा कि
योगी कहते हैं, भून दिया जाता है, तभी उसकी पुनः वृक्ष उत्पन्न करने की शक्ति
नष्ट हो जाती है। ये सिद्धियाँ उस बीज को कभी भून नहीं सकती।
तदपि बहिरंगं निर्बीजस्य॥८॥
८. पर वे (धारणा आदि तीनों) भी निर्बीज (समाधि) की तुलना में बहिरंग (साधन)
हैं।
इसी कारण निर्बीज समाधि के साथ तुलना करने पर इनको भी बहिरंग कहना पड़ेगा।
संयम-लाभ होने पर हम वस्तुत: सर्वोच्च समाधि-अवस्था की प्राप्ति नहीं कर लेते,
वरन् एक निम्नतर भूमि में अवस्थित रहते हैं। उस अवस्था में यह परिदृश्यमान जगत
विद्यमान रहता है, और सब सिद्धियाँ इस जगत के ही अंतर्गत हैं।
व्युत्थाननिरोधसंस्कारयोरभिभवप्रादुर्भावौ निरोधपरिणामः
चित्तान्दयो निरोधपरिणामः ॥९॥
९. जब व्युत्थान अर्थात् मन की चंचलता का अभिभव (नाश) और निरोध संस्कार का
आविर्भाव हो जाता है, उस समय चित्त निरोध नामक संस्कार के अनुगत होता है, उसे
निरोध-परिणाम कहते हैं।
इसका तात्पर्य यह है कि समाधि की पहली अवस्था में मन की समस्त वृत्तियाँ
निरुद्ध अवश्य होती हैं, किंतुसंपूर्ण रूप से नहीं, क्योंकि वैसा होने पर तो
किसी प्रकार की वृत्ति ही न रह जाती। मान लो, मन में एक ऐसी वृत्ति उठी है, जो
मन को इंद्रिय की ओर ले जा रही है, और योगी उस वृत्ति को संयत करने का प्रयत्न
कर रहे हैं। इस अवस्था में उस संयम को भी एक वृत्ति कहना पड़ेगा। एक लहर मानो
दूसरी लहर द्वारा रोकी गई है, अत: वह समस्त लहरों की निवृत्तिरूप समाधि नहीं
है, क्योंकि वह संयम भी एक लहर है। फिर भी, जिस अवस्था में मन में तरंग के बाद
तरंग उठती रहती है, उसकी अपेक्षा यह निम्नतर समाधि उस उच्चतर समाधि के अधिक
समीपवर्ती है।
तस्य प्रशांतवाहिता संस्कारात् ॥१०॥
१०. अभ्यास के द्वारा इसकी स्थिरता होती है।
प्रतिदिन नियमित रूप से अभ्यास करने पर मन का यह नियत संयम प्रवाहाकार में
चलता रहता है एवं उसकी स्थिरता होती है, और तब मन सदैव एकाग्रशील रह सकता है।
सर्वार्थतैकाग्रतयो: क्षयोदयौ चित्तस्य समाधिपरिणामः॥१२॥
११. सब प्रकार के विषयों का चिंतन करने की वृत्ति का क्षय हो जाना और किसी एक
ही ध्येय-विषय का चिंतन करनेवाली एकाग्रता-शक्ति का उदित हो जाना-यह चित्त का
समाधि-परिणाम है।
मन सर्वदा ही नाना प्रकार के विषय ग्रहण कर रहा है, सदैव सब प्रकार की वस्तुओं
में जा रहा है। फिर मन की ऐसी भी एक उच्चतर अवस्था है, जब वह केवल एक ही वस्तु
को ग्रहण करके अन्य सब वस्तुओं को छोड़ दे सकता है। इस एक वस्तु को ग्रहण करने
का फल है समाधि।
शान्तोदितौ तुल्यप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रतापरिणामः ॥१२॥
१२. जब मन शांत और उदित अर्थात् अतीत और वर्तमान, दोनों अवस्थाओं में ही
तुल्य-प्रत्यय हो जाता है, अर्थात् दोनों को ही एक साथ ग्रहण कर सकता है, तब
उसे चित्त का एकाग्रता-परिणाम कहते हैं।
मन एकाग्र हुआ है, यह कैसे जाना जाए? मन के एकाग्र हो जाने पर समय का कोई
ज्ञान न रहेगा। जितना ही समय का ज्ञान जाने लगता है, हम उतने ही एकाग्र होते
जाते हैं। हम अपने दैनिक जीवन में भी देख पाते हैं कि जब हम कोई पुस्तक पढ़ने
में तल्लीन रहते हैं, तब समय की ओर हमारा बिल्कुल ध्यान नहीं रहता। जब हम
पढ़कर उठते हैं, तो अचरज करने लगते हैं कि इतना समय बीत गया! सारा समय मानो
एकत्र होकर वर्तमान में एकीभूत हो जाता है। इसीलिए कहा गया है कि अतीत,
वर्तमान और भविष्य आकर जितना हो एकीभूत होते जाते हैं, मन उतना ही एकाग्र होता
जाता है।
एतेन भतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्थापरिणामा व्याख्याताः ॥१३॥
१३. इसी से भूतों में और इंद्रियों में होने वाले धर्म-परिणाम, लक्षण-परिणाम
और अवस्था परिणाम--इन तीनों की व्याख्या की जा चुकी।
पीछे के तीन सूत्रों में चित्त के निरोध आदि परिणामों की जो बात कही गई है,
उसके द्वारा भूतों और इंद्रियों के धर्म, लक्षण और अवस्थारूप तीन प्रकार के
परिणामों की भी व्याख्या कर दी गई। मन लगातार वृत्ति के रूप में परिणत हो रहा
है, यह मन का धर्मरूप परिणाम है। वह अतीत, वर्तमान और भविष्य, इन तीन कालों के
भीतर से होकर चल रहा है, यह मन का लक्षणरूप परिणाम है। कभी निरोध-संस्कार
प्रबल और व्युत्थान-संस्कार दुर्बल हो जाता है, तो कभी ठीक इसका उल्टा होता
है, यह मन का अवस्थारूप परिणाम है। मन के इन तीन परिणामों के समान भूतों और
इंद्रियों के भी त्रिविध परिणाम समझना चाहिए। जैसे, सोने का पिंड जब अपना
पिंडरूप धर्म छोड़कर कंगन और झुमके में परिणत हो जाता है, तब उसे धर्म-परिणाम
कहते हैं। जब इसी घटना को हम समय की दृष्टि से देखते हैं अर्थात् उसके
वर्तमान, अतीत और भविष्य, अवस्थारूप परिणामों को देखते हैं, तब उसे
लक्षण-परिणाम कहते हैं। फिर उनके नवीनत्व, पुरातनत्व आदि अवस्थारूप परिणामों
को अवस्था परिणाम कहते हैं। पहले के सूत्रों में जिन सब समाधियों की बात कही
गई है, उनका उद्देश्य यह है कि योगी मन के परिणामों पर इच्छापूर्वक क्षमता
प्राप्त कर सके। उससे पूर्वोक्त संयम शक्ति प्राप्त होती है।
शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती धर्मी॥१४॥
१४. शांत (अतीत), उदित (वर्तमान) और अव्यपदेश्य (आनेवाले) धर्म जिसमें अवस्थित
हैं, वह धर्मी है।
धर्मी उसे कहते हैं, जिस पर काल और संस्कार कार्य कर रहे हैं, जिसमें सतत
परिणाम हो रहा है और जो हरदम व्यक्त भाव धारण कर रहा है।
क्रमान्यत्वं परिणामान्यत्वे हेतुः ॥१५॥
१५. भिन्न-भिन्न परिणाम होने का कारण है, क्रम की भिन्नता (पूर्वापर
पार्थक्य)।
परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम्॥१६॥
१६. पूर्वोक्त तीन परिणामों में चित्त-संयम करने से अतीत और अनामत (भविष्य) का
ज्ञान उत्पन्न होता है।
पहले संयम की जो परिभाषा दी गई है, हम उसे न भूलें। जब मन वस्तु के बाहरी भाग
को छोड़कर उसके आभ्यंतरिक भावों के साथ अपने को एकरूप करने की उपयुक्त अवस्था
में पहुँच जाता है, जब दीर्घ अभ्यास के द्वारा मन केवल उसीकी धारणा करके क्षण
भर में उस अवस्था में पहुँच जाने की शक्ति प्राप्त कर लेता है, तब उसे संयम
कहते हैं। इस अवस्था को प्राप्त करके यदि योगी भूत और भविष्य जानने की इच्छा
करें, तो उन्हें केवल संस्कार के परिणामों में संयम का प्रयोग करना होगा। कुछ
संस्कार वर्तमान अवस्था में कार्य कर रहे हैं, कुछ का भोग समाप्त हो चुका है
और कुछ अभी भी फल प्रदान करने के लिए संचित हैं। इन सबों में संयम का प्रयोग
करके वे भूत और भविष्य सब जान लेते हैं।
शब्दार्थप्रत्ययानामितरेतराध्यासात् संकरस्तत्प्रविभाग
संयमात् सर्वभूतरुतज्ञानम्॥१७॥
१७. शब्द, अर्थ और प्रत्यय (ज्ञान)--इनकी आपस में अभ्यास हो जाने के कारण, जो
संकरावस्था हो रही है, उसके विभाग में संयम करने से समस्त प्राणियों की वाणी
का ज्ञान (हो जाता है)।
शब्द से उस बाह्य विषय का बोध होता है, जो मन में किसी वृत्ति को जाग्रत कर
देता है। अर्थ कहने से वह आंतरिक स्पंदन समझना चाहिए, जो इंद्रिय मार्ग के
माध्यम से मस्तिष्क में पहुँचता है और बाल संवेदना को मन में पहुँचा देता है।
ज्ञान कहने से मन की उस प्रतिक्रिया को समझना चाहिए, जिससे विषयानुभूति होती
है। इन तीनों के मिश्रित होने से ही हमारे इंद्रियग्राह्य विषय उत्पन्न होते
हैं। मान लो, मैंने एक शब्द सुना, पहले बाहर एक कंपन हुआ, तत्पश्चात्
श्रवणेन्द्रिय द्वारा मन में एक आंतरिक संवेदनानीत हुई, उसके बाद मन ने
प्रतिक्रिया की, और मैं उस शब्द को जान सका। मैंने यह जो उस शब्द को जाना है,
वह तीन पदार्थों का मिश्रण है--पहला, कंपन; दूसरा, संवेदना; और तीसरा,
प्रतिक्रिया। साधारणतः, ये तीन व्यापार पृथक् नहीं किए जा सकते पर अभ्यास के
द्वारा योगी उनको पृथक कर सकते हैं। जब मनुष्य इनको अलग करने की शक्ति प्राप्त
कर लेता है, तब वह फिर जिस किसी शब्द में संयम का प्रयोग करे, यह उसी क्षण उस
अर्थ को समझ सकता है, जिसको प्रकाशित करने के लिए वह शब्द उच्चारित हुआ है,
फिर वह शब्द चाहे मनुष्य द्वारा किया गया हो, चाहे अन्य किसी प्राणी द्वारा।
संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम् ॥१८॥
१८. संस्कारों को प्रत्यक्ष कर लेने से पूर्वजन्म का ज्ञान (हो जाता है)।
हम जो कुछ अनुभव करते हैं, वह समस्त हमारे चित्त में तरंग के रूप में आया करता
है। वह फिर चित्तरूपी सरोवर की तली में चला जाता है और क्रमशः सूक्ष्म से
सूक्ष्मतर होता जाता है। वह बिल्कुल नष्ट नहीं हो जाता। वह वहाँ जाकर अत्यंत
सूक्ष्म भाव से रहता है। यदि हम उस तरंग को फिर से ऊपर ला सके, तो वही स्मृति
कहलाती है। अतएव योगी यदि मन से इन सब पूर्व संस्कारों में संयम कर सकें, तो
वे पूर्वजन्म की बातें स्मरण करना आरंभ कर देंगे।
प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम्॥१९॥
१९. दूसरे के शरीर में जो सब चिह्न है, उनमें संयम करने से उस व्यक्ति के मन
का ज्ञान (हो जाता है)।
प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में कुछ विशिष्ट चिह्न रहते हैं, जिनके द्वारा उसको
दूसरे व्यक्तियों से पृथक् करके पहचाना जाता है। जब योगी किसी मनुष्य के इन
विशेष चिह्नों में संयम करते हैं, तब वे उस मनुष्य के मन का स्वभाव जान लेते
हैं।
न च तत् सालम्बनं तस्याविषयीभूतत्वात् ॥२०॥
२०. किंतु उस पित्त का अवलंबन क्या है, यह वे नहीं जान सकते, क्योंकि वह उनके
संयम का विषय नहीं है।
ऊपर के सूत्र में शरीर के चिह्नों में संयम की जो बात कही गई है, उसके द्वारा
उस व्यक्ति के मन में उस समय क्या चल रहा है, यह नहीं जाना जा सकता। उसको
जानने के लिए तो दो बार संयम करने की आवश्यकता होगी; पहले, शरीर के लक्षणों
में, और उसके बाद मन में। तब योगी उस व्यक्ति के मन के समस्त भाव जान लेंगे।
कायरूपसंयमात् तद्ग्राह्यशक्तिस्तम्भे चक्षुःप्रकाशा
संयोगेऽन्तर्धानम्॥२॥
२१. शरीर के रूप में संयम कर लेने से जब उस रूप को अनुभव करने की शक्ति रोक ली
जाती है, तब आँख की प्रकाश-शक्ति के साथ उसका संयोग न रहने के कारण योगी
अंतर्धान हो जाते हैं।
मान लो, कोई योगी इस कमरे में खड़े हैं। वे आपातदृष्टि से सबके सामने से
अंतर्धान हो सकते हैं। वे वास्तव में अंतर्धान हो जाते हों, सो बात नहीं; पर
हाँ, कोई उन्हें देख न सकेगा, बस, इतना ही। शरीर का रूप और शरीर-इन दोनों को
मानो वे अलग-अलग कर डालते हैं। जब योगी ऐसी एकाग्रता-शक्ति प्राप्त कर लेते
हैं कि वे वस्तु के रूप और उस वस्तु को एक दूसरे से अलग कर डालते हैं, तभी इस
प्रकार की अंतर्धान-शक्ति उन्हें प्राप्त होती है। उसमें अर्थात् रूप और उस
रूपवान वस्तु के पार्थक्य में संयम का प्रयोग करने से उस रूप को अनुभव करने की
शक्ति में मानो एक बाधा पड़ती है; क्योंकि रूप और उस रूपविशिष्ट वस्तु के
परस्पर संयुक्त होने पर ही हमें उस वस्तु का ज्ञान होता है।
एतेन शब्दाद्यन्तर्धानमुक्तम् ॥२२॥
२२. इसके द्वारा ही शब्द आदि के अंतर्धान होने की बात अर्थात् शब्द आदि को
दूसरों को इंद्रियगोचर न होने देने की भी व्याख्या कर दी गई।
सोपक्रमं निरूपक्रमं च कर्म तत्संयमादपरान्त
ज्ञानमरिष्टेभ्यो वा ॥२॥
२३. शीघ्र फल उत्पन्न करने वाला और देर से फल देने वाला--ऐसे दो प्रकार के
कर्म होते हैं। इनमें संयम करने, अथवा अरिष्ट नामक मृत्यु-लक्षणों से भी, योगी
देह-त्याग का ठीक समय जान लेते हैं।
जब योगी अपने कर्म में--अर्थात् अपने मन के उन संस्कारों में, जिनका कार्य
आरंभ हो गया है तथा उनमें, जिनका कार्य अभी आरंभ नहीं हुआ है--संयम का प्रयोग
करते हैं, तब वे उन संस्कारों के द्वारा, जिनका कार्य अभी आराम नहीं हुआ है,
यह ठीक जान लेते हैं कि उनकी मृत्यु कब होगी। किस समय, किस दिन, कितने बजे,
यहाँ तक कि कितने मिनट पर उनकी मृत्यु होगी-यह सब उन्हें ज्ञात हो जाता है।
हिंदू लोग मृत्यु को इस निकटता को जान लेना विशेष आवश्यक समझते हैं, क्योंकि
गीता
[5]
में यह उपदेश है कि मृत्यु-समय के विचार महान शक्तिशाली हैं, जिनसे परवर्ती
जीवन निर्धारित होता है।
मैत्र्यादिषु बलानि ॥२४॥
२४. मैत्री आदि गुणों (१।३३) में संयम करने से वे सब गुण अत्यंत प्रबल भाव
धारण करते हैं।
बलेषु हस्तिवलादीनि ॥२५॥
२५. हाथी आदि के बल में संयम का प्रयोग करने से योगी के शरीर में उस उस प्राणी
के सदृश बल आ जाता है।
जब योगी यह संयम-शक्ति प्राप्त कर लेते हैं, तब यदि वे बल की इच्छा करे तो
हाथी के बल में संयम का प्रयोग करके वे हाथी के समान बल प्राप्त कर लेते हैं।
प्रत्येक मनुष्य में अनंत शक्ति निहित है। यदि वह उपाय जानता हो, तो वह उस
शक्ति का इच्छानुसार व्यवहार कर सकता है। योगी ने उसे प्राप्त करने की विद्या
खोज निकाली है।
प्रवृत्त्यालोकन्यासात् सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टज्ञानम् ॥२६॥
२६. महाज्योति (१।३६) में संयम करने से सूक्ष्म, व्यवधानयुक्त और दूरवर्ती
वस्तुओं का ज्ञान जाता है।
हृदय में जो महाज्योति है, उसमें संयम करने से योगी अत्यंत दूरवर्ती वस्तु को
भी देख सकते हैं। यदि कोई वस्तु पहाड़ के अंतराल में रहे, तो उसे भी वे देख
लेते हैं, और अत्यंत सूक्ष्म वस्तुओं का भी उन्हें ज्ञान हो जाता है।
भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात् ॥२७॥
२७. सूर्य में संयम करने से संपूर्ण जगत का ज्ञान (प्राप्त हो जाता है)।
चन्द्रे तारा व्यूहज्ञानम् ॥२८॥
२८. चंद्रमा में (संयम करने से) तारा समूह का ज्ञान (हो जाता है)।
ध्रुवे तद्गतिज्ञानम् ॥२९॥
२९. ध्रुव तारे में (संयम करने से)ताराओं की गति का ज्ञान (हो जाता है)।
नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् ॥३०॥
३०. नाभिचक्र में (संयम करने से) शरीर की बनावट ज्ञात (हो जाती) है।
कंठकूपे क्षुत्पिपासानिवृत्तिः ॥३१॥
३१. कण्ठकूपे में (संयम करने से) भूख और प्यास की निवृत्ति (हो जाती) है।
अत्यंत भूखा मनुष्य यदि
कंठनली में चित्त का संयम कर सके, तो उसकी भूख शांत हो जाती है।
कूर्मनाड्यां स्थैर्यम्॥३२॥
३२. कूर्मनाड़ी में (संयम करने से) शरीर की स्थिरता होती है।
जब दे साधना करते हैं, तब उनका शरीर चंचल नहीं होता।
मूर्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम् ॥३३॥
३३. सिर की ज्योति में (संयम करने से) सिद्ध पुरुषों के दर्शन होते हैं।
यहाँ सिद्ध का तात्पर्य भूतयोनि की अपेक्षा थोड़ी उच्च योनि से है। जब योगी
अपने सिर के ऊपरी भाग में मनःसंयम करते हैं, तब वे इन सिद्धों के दर्शन करते
हैं। यहाँ पर 'सिद्ध' शब्द से मुक्त पुरुष नहीं समझना चाहिए।
प्रातिभाद्वा सर्वम् ॥३४॥
३४. अथवा प्रातिभ ज्ञान उत्पन्न होने से समस्त ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
प्रातिभ ज्ञान अर्थात् प्रतिभा की शक्ति अर्थात् पवित्रता के द्वारा लब्ध
ज्ञानविशेष के प्राप्त हो जाने पर बिना किसी प्रकार के संयम के ही समस्त ज्ञान
प्राप्त हो सकता है। जब मनुष्य उच्च प्रतिभा-शक्ति प्राप्त कर लेता है, तब उसे
इस महा आलोक की प्राप्ति हो जाती है। उसके ज्ञान से समस्त प्रकाशित हो जाता
है। बिना किसी प्रकार का संयम किए ही उसे आपसे आप समस्त ज्ञान प्राप्त हो जाता
है।
हृदये चित्तसंवित् ॥३५॥
३५. हृदय में (संयम करने से) मनोविषयक ज्ञान प्राप्त (हो जाता) है।
सत्त्वपूरुषयोरत्यन्तासंकीर्णयोः प्रत्ययाविशेषाद् भोगः
परार्थत्वात् अन्यस्वार्थसंयमात् पुरुषज्ञानम्॥३६॥
३६. पुरुष और सत्व, जो कि अत्यंत पृथक् हैं--उनके विवेक के अभाव से हो भोग
होता है। वह भोग परार्थ है अर्थात् किसी अन्य या पुरुष के लिए है। सत्त्व को
एक दूसरी अवस्था का नाम है स्वार्थ; उसमें संयम करने से पुरुष का ज्ञान होता
है।
प्रकृति का एक विकार--सत्त्व गुण की सभी क्रियाएँ, जो कि स्वयं प्रकृति की एक
प्रकाश एवं आनंदसमन्वित अवस्थाविशेष है, आत्मा के लिए हैं। जब यह सत्त्व
अहंभाव से मुक्त और पुरुष की शुद्धि बुद्धि से आलोकित रहता, तो इसे आत्म
केंद्रस्थ या स्वार्थ कहते हैं, क्योंकि इस अवस्था में यह सभी प्रकार के
संबंधों के अतीत हो जाता है।
ततः प्रातिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवार्ता जाएन्ते ॥३७॥
३७. उससे प्रातिभ ज्ञान और (अलौकिक) श्रवण, स्पर्श, दर्शन, स्वाद एवं वार्ता
(घ्राण)--ये (छः सिद्धियाँ) प्रकट होती हैं।
ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः ॥३८॥
३८. ये (सिद्धियाँ) समाधि में उपसर्ग (कृष्ण) है, पर व्युत्थान (संसार अवस्था)
में सिद्धिस्वरूप हैं।
योगी जानते हैं कि संसार के यावत् भोग पुरुष और मन के संयोग द्वारा होते हैं।
यदि वे इस सत्य में कि 'आत्मा और प्रकृति एक दूसरे से पृथक् वस्तु हैं, चित्त
का संयम कर सकें, तो उन्हें पुरुष का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उससे
विवेकज्ञान उदित होता है। जब वे इस विवेक को प्राप्त कर लेते हैं, तब उन्हें
प्रातिभ नामक अत्यंत उच्च कोटि का आलोक प्राप्त होता है। पर ये सब सिद्धियाँ
उस उच्चतम लक्ष्य अर्थात् उस पवित्रस्वरूप आत्मा के ज्ञान और मुक्ति की
प्रतिबंधकस्वरूप हैं। ये सब तो मानो रास्ते में प्राप्त होनेवाली चीजें भर
हैं। यदि योगी इन सिद्धियों का परित्याग कर दें, तभी वे उस उच्चतम ज्ञान को
प्राप्त कर सकते है। यदि वे इनमें अटक जाएँ, तो फिर उनकी उन्नति रुक जाती है।
बंधकारणशैथिल्यात् प्रचारसंवेदनाच्च चित्तस्यपरशरीरावेशः ॥३९॥
३९. जब बंधन का कारण शिथिल हो जाता है और योगी चित्त के प्रचार-स्थानों को
(अर्थात् शरीरस्थ नाड़ीसमूह को) जान लेते हैं, तब वे दूसरे के शरीर में प्रवेश
कर सकते हैं।
योगी एक देह में रहकर और उस देह में क्रियाशील रहते हुए भी अन्य किसी मृत देह
में प्रवेश करके उसे गतिशील कर सकते हैं। इसी प्रकार, वे किसी जीवित शरीर में
प्रवेश करके उस व्यक्ति के मन और इंद्रियों को निरुद्ध कर सकते हैं, तथा उस
समय तक के लिए उस शरीर के भीतर से काम कर सकते हैं। प्रकृति और पुरुष के विवेक
को प्राप्त करने पर ही ऐसा करना उनके लिए संभव होता है। यदि वे दूसरे के शरीर
में प्रवेश करने की इच्छा करें, तो उस शरीर में संयम का प्रयोग करने से ही वह
सिद्ध हो जाएगा, क्योंकि उनके मतानुसार, उनको आत्मा ही सर्वव्यापी नहीं है,
वरन् उनका मन भी सर्वव्यापी है। उनका मन उस सर्वव्यापी (समष्टि ) मन का एक अंश
मात्र है। पर अभी वह इस शरीर के स्नायुओं के भीतर से ही काम कर सकता है। किंतु
जब योगी इन स्नायविक प्रवाहों से अपने को मुक्त कर लेते हैं, तब वे दूसरे शरीर
के द्वारा भी काम कर सकते हैं।
उदान जयाज्जलपंककण्टकादिष्वसंग उत्क्रान्तिश्च ॥४०॥
४०. उदान नामक स्नायु-प्रवाह पर जय प्राप्त कर लेने से योगी के शरीर से पानी
या कीचड़ का संयोग नहीं होता, काटों पर बल सकते हैं और इच्छामृत्यु होते हैं।
उदान नामक जो स्नायविक शक्ति-प्रवाह फेफड़े और शरीर के सारे ऊपरी भाग को चलाता
है, उस पर जब योगी जय प्राप्त कर लेते हैं, तब वे अत्यंत हल्के हो जाते हैं।
वे फिर जल में नहीं डूबते, कोठों पर या तलबार की धार पर वे अनायास चल सकते
हैं, आग में खड़े रह सकते हैं और इच्छा मात्र से ही इस शरीर को छोड़ दे सकते
हैं।
समान जयात्प्रज्वलनम् ॥४१॥
४१. समान वायु को जीत लेने से (उनका शरीर) दीप्तिमान हो जाता है।
वे जब कभी इच्छा करते हैं, तभी उनके शरीर से ज्योति बाहर निकल आती है।
श्रोत्राकाशयोः संबंधसंयमाद्दिव्यं श्रोत्रम् ॥४२॥
४२. कान और आकाश का जो परस्पर संबंध है, उसमें संयम करने से दिव्य कर्म
प्राप्त होता है।
यह है आकाश-तत्त्व, और यह उसका अनुभव करने के लिए यंत्रस्वरूप कान है। इनमें
संयम करने से योगी दिव्य कर्ण प्राप्त करते हैं, जिससे वे सब कुछ सुन सकते
हैं। अत्यंत दूर कोई बातचीत या शब्द होने पर भी वे उसे सुन सकते हैं।
कायाकाशयोः संबंधसंयमाल्लघुतूलसमापत्तेश्चाकाशगमनम्॥४३॥
४३. शरीर और आकाश के संबंध में चित्त-संयम करने से और (रुई आदि) हल्की वस्तु
में संयम करने से योगी आकाश में गमन कर सकते हैं।
आकाश ही इस शरीर का उपादान है; आकाश ने ही एक प्रकार से विकृत होकर इस शरीर का
रूप धारण किया है। यदि योगी शरीर के उपादानभूत उस आकाश-धातु में संयम का
प्रयोग करें, तो वे आकाश के समान हल्के हो जाते हैं और जहाँ इच्छा हो, वायु
में से होकर जा सकते हैं। ऐसा ही दूसरे के संबंध में भी है।
वहिरकल्पिता वृत्तिमहाविदेहा ततः प्रकाशावरणक्षयः॥४४॥
४४. शरीर के बाहर मन की जो यथार्थ वृत्ति अर्थात् मन की धारणा है, उसका नाम है
महाविदेहा; उसमें संयम का प्रयोग करने से, प्रकाश का जो आवरण है, वह नष्ट हो
जाता है।
अज्ञानवश मन सोचता है कि वह इस देह में से कार्य कर रहा है। यदि मन सर्वव्यापी
हो, तो हम केवल एक ही प्रकार के स्नायुओं द्वारा क्यों आवद्ध रहेंगे, इस अहं
को एक ही शरीर में सीमाबद्ध करके क्यों रखेंगे? ऐसा करने का तो कोई कारण नहीं
दिखता। योगी अपने इस अहंभाव को, जहाँ कहीं इच्छा हो, वहीं अनुभव करना चाहते
हैं। अहंभाव के चले जाने पर इस देह में जो मानसिक वृत्ति-प्रवाह जाग्रत होता
है, उसे 'अकल्पिता वृत्ति' या 'महाविदेहा' कहते हैं। जब वे उसमें संयम करने
में सफल होते हैं, तब प्रकाश के सारे आवरण नष्ट हो जाते हैं और समस्त अंधकार
एवं अज्ञान नष्ट हो जाने के कारण सब कुछ उन्हें चैतन्यमय प्रतीत होता है।
स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थवत्त्वसंयमाद्भूतजयः॥४५॥
४५. भूतों को स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय और अर्थवत्व--इन पाँच प्रकार की
अवस्थाओं में संयम करने से पाँचों भूतों पर विजय प्राप्त हो जाती है।
[6]
योगी समस्त भूतों में संयम करते हैं। पहले, स्थूल भूत में और फिर उसके बाद
उसकी अन्य सूक्ष्म अवस्थाओं में संयम करते हैं। बौद्धों के एक संप्रदाय में यह
संयम विशेष रूप से प्रचलित है। वे मिट्टी का एक लोंदा लेकर उसमें संयम का
प्रयोग करते हैं, फिर क्रमशः, वह जिन सब सूक्ष्म भूतों से निर्मित हुआ है,
उन्हें देखना शुरू करते हैं। जब वे उसकी समस्त सूक्ष्म अवस्थाओं के बारे में
जान लेते हैं, तब वे उस भूत पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा ही अन्य सब
भूतों के बारे में भी समझना चाहिए। योगी सभी पर जय प्राप्त कर सकते हैं।
ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसम्पत्तद्धर्मानभिघातश्च॥४६॥
४६. उससे अणिमा आदि सिद्धियों का आविर्भाव होता है, कायसम्पत् की प्राप्ति
होती है और सारे शारीरिक धर्मों से बाधा नहीं होती।
इसका तात्पर्य यह है कि योगी अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति कर लेते हैं। वे अपने
को इच्छानुसार परमाणु के समान छोटा या पर्वत के समान बड़ा कर सकते हैं। वे
अपने को पृथ्वी के समान भारी और वायु के समान हल्का कर सकते हैं; वे जहाँ
चाहें, जा सकते हैं; जिस पर चाहें, प्रभुत्व कर सकते हैं; जिस पर चाहें, विजय
प्राप्त कर सकते हैं। सिंह उनके पैरों के पास मेमने के समान शांतभाव से बैठा
रहेगा, और वे जो भी चाहें, उनकी समस्त कामनाएं पूर्ण होंगी।
रूपलावण्यवलवज्रसहननत्वानि कायसंपत् ॥४७॥
४७. रूप, लावण्य, बल और वज्र के समान दृढ़ता--ये कायसंपत् हैं।
तब शरीर अविनाशी हो जाता है, कोई भी वस्तु उसे किसी प्रकार का नुकसान नहीं
पहुँचा सकती। यदि योगी स्वयं इच्छा न करें, तो दुनिया की कोई भी ताकत उनके
शरीर का नाश नहीं कर सकती। 'कालदंड को भग्न कर वे इस जगत में शरीर लेकर वास
करते हैं।' वेदों में कहा है कि ऐसे व्यक्ति को बीमारी, मृत्यु या अन्य कोई
क्लेश नहीं होता।
ग्रहणस्वरूपास्मितान्वयार्थवत्त्वसंयमादिन्द्रियजयः ॥४८॥
४८. इंद्रियों को बाह्य पदार्थ की ओर गति, उससे उत्पन्न ज्ञान, इस ज्ञान से
विकसित अहं-प्रत्यय, इंद्रियों के त्रिगुणमयत्व और उनके भोगदातृत्त्व--इन
पाँचों में संयम करने से इंद्रियों पर विजय प्राप्त हो जाती है।
बाह्य वस्तु की अनुभूति के समय इंद्रियाँ मन से बाहर जाकर विषय की ओर दौड़ती
हैं, तभी ज्ञान होता है। इस कार्य में अस्मिता भी सर्वदा साथ रहती है। जब योगी
उनमें तथा अन्य दोनों में भी क्रमशः संयम का प्रयोग करते हैं, तब वे इंद्रियों
पर जय प्राप्त कर लेते हैं। जो कोई वस्तु तुम देखते या अनुभव करते हो--जैसे एक
पुस्तक--उसे लेकर उसमें संयम का प्रयोग करो। उसके बाद पुस्तक के रूप में जो
ज्ञान है, उसमें; फिर जिस अहंभाव के द्वारा उस पुस्तक का दर्शन होता है, उसमें
संयम करो। इस अभ्यास से समस्त इंद्रियाँ विजित हो जाती हैं।
ततो मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च॥४९॥
४९. उस (इंद्रियजय) से शरीर को मन के सदश गति, शरीर के बिना भी विषयों का
अनुभव करने की शक्ति और प्रकृति पर विजय--ये तीनों सिद्धियाँ प्राप्त होती है।
जैसे भूत-जय से कायसम्पत् की प्राप्ति होती है, वैसे ही इंद्रिय-जय से
उपर्युक्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वंसर्वज्ञातृत्वं च ॥५०॥
५०. पुरुष और बुद्धि के परस्पर पार्थक्य-मान में संयम करने से सब वस्तुओं पर
अधिष्ठातृत्त्व और सर्वज्ञातृत्व प्राप्त हो जाता है।
अब हम प्रकृति पर जय प्राप्त कर लेते हैं तथा पुरुष और प्रकृति का भेद अनुभव
कर लेते हैं अर्थात् जान लेते हैं कि पुरुष अविनाशी, पवित्र और पूर्णस्वरूप
है, तब सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है।
तद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम्॥५१॥
५१. इन सब (सिद्धियों) को भी त्याग देने से दोष का बीज नष्ट हो जाता है, और
उससे कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है।
तब वे कैवल्य की प्राप्ति कर लेते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। जब वे
सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता, इन दोनों को भी त्याग देते हैं, तब वे सारे
प्रलोभन, यहाँ तक कि देवताओं द्वारा दिएगए प्रलोभनों का भी अतिक्रमण कर सकते
हैं। जब योगी इन सब अद्भुत शक्तियों को प्राप्त करके भी उन्हें त्याग देते
हैं, तब वे चरम लक्ष्य पर पहुँच जाते हैं। वास्तव में ये शक्तियाँ हैं क्या?
--केवल अभिव्यक्तियाँ। स्वप्न की अपेक्षा उनमें भला कौन सी श्रेष्ठता है?
सर्वशक्तिमत्ता भी तो एक स्वप्न है। वह केवल मन पर निर्भर रहती है। जब तक मन
का अस्तित्व है, तभी तक सर्वशक्तिमत्ता संभव हो सकती है। पर हमारा लक्ष्य तो
मन के भी अतीत है।
स्थान्युपनिमंत्रणे संगस्मयाकरणं पुनरनिष्टप्रसंगात्॥५२॥
५२. देवताओं द्वारा प्रलोभित किए जाने पर भी उसमें आसक्त होना या आनंद का
अनुभव करना उचित नहीं है, क्योंकि उससे पुनः अनिष्ट होना संभव है।
और भी बहुत से विघ्न हैं। देवता आदि योगी को प्रलोभित करने आते हैं। वे नहीं
चाहते कि कोई पूर्ण रूप से मुक्त हो। हम लोग जैसे ईर्ष्यापरायण है, वे भी वैसे
ही हैं, वरन् कभी कभी तो वे इस बात में हम लोगों से भी आगे बढ़ जाते हैं। वे
डरते हैं कि कहीं वे अपने पद को न खो बैठें। जो योगी पूर्ण सिद्ध नहीं होते,
वे शरीर त्यागने के बाद देवता बन जाते हैं। वे सीधे रास्ते को छोड़कर मानो बगल
के एक रास्ते से चले जाते हैं और इन सब शक्तियों को प्राप्त करते हैं। उनको
फिर से जन्म लेना पड़ता है। पर जो इतने शक्तिसंपन्न हैं कि इन प्रलोभनों का उन
पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वे सीधे उस लक्ष्य-स्थल पर पहुँच जाते हैं और मुक्त
हो जाते हैं।
क्षणतत्क्रमयो: संयमाद्विवेकज ज्ञानम्॥५३॥
५३. क्षण और उसके क्रम में संयम करने से विवेकजनित ज्ञान उत्पन्न होता है।
देवता, स्वर्ग और शक्तियों से बचने का फिर उपाय क्या है? उपाय है विवेक--सदसत्
विचार। इस विवेक-ज्ञान को दृढ़ करने के उद्देश्य से ही इस संयम का उपदेश दिया
गया है। 'क्षण' का अर्थ है, काल का सूक्ष्मतम अंश। एक क्षण के पहले जो क्षण
बीत चुका है, और उसके बाद जो क्षण प्रकट होगा--इस लगातार सिलसिले को 'क्रम'
कहते हैं। अतः उपर्युक्त विवेकजनित ज्ञान को दृढ़ करने के लिए क्षण और उसके
क्रम में संयम करना होगा।
जातिलक्षणदेशैरन्यतानवच्छेदात्तुल्ययोस्ततः प्रतिपत्तिः॥५४॥
५४. जाति, लक्षण और देश-भेद से जिन वस्तुओं का भेद न किए जा सकने के कारण जो
तुल्य प्रतीत होती हैं, उनको भी इस उपर्युक्त संयम द्वारा अलग करके जाना जा
सकता है।
हम जो दुःख भोगते हैं, वह अज्ञान से, सत्य और असत्य के अविवेक से उत्पन्न होता
है। हम सभी बुरे को भला समझते हैं. और स्वप्न को वास्तविक। एकमात्र आत्मा ही
सत्य है, पर हम यह भूल गए हैं। शरीर एक मिथ्या स्वप्न मात्र है, पर हम सोचते
हैं कि हम शरीर हैं। यह अविवेक ही दुःख का कारण है। और यह अविवेक अविद्या से
उत्पन्न होता है। विवेक के उदय के साथ ही बल भी आता है, और तभी हम इस शरीर,
स्वर्ग तथा देवता आदि की कल्पनाओं को त्यागने में समर्थ होते हैं। जाति, लक्षण
और स्थान के द्वारा हम वस्तुओं को अलग करते हैं। उदाहरणार्थ, एक गाय की बात ले
लो। गाय का कुते से जो भेद है, वह जातिगत है। और दो गायों में परस्पर भेद हम
कैसे करते हैं? लक्षण के द्वारा फिर दो वस्तुएँ सर्वधा समान होने पर हम
स्थानगत भेद के द्वारा उन्हें अलग कर सकते हैं। किंतु जब वस्तुएँ ऐसी मिली हुई
रहती हैं कि अलग करने के ये सब विभित्र उपाय बिल्कुल काम में नहीं आते, तब
उपर्युक्त साधन-प्रणाली के अभ्यास से लब्ध विवेक के बल से हम उन्हें पृथक कर
सकते हैं। योगियों का उच्चतम दर्शन इम सत्य पर आधारित है कि पुरुष शुद्धस्वभाव
एवं नित्य पूर्णस्वरूप है और संसार में वही एकमात्र अयौगिक वस्तु है। शरीर और
मन तो यौगिक वस्तुएँ हैं, फिर भी हम सदैव अपने आपको उनके साथ मिला दे रहे हैं।
सबसे बड़ी गलती यही है कि यह पार्थक्य-ज्ञान नष्ट हो गया है। जब यह
विवेक-शक्ति प्राप्त होती है, तब मनुष्य देख पाता है कि जगत की सारी वस्तुएँ,
वे फिर बहिर्जगत् को ही, या अंतर्जगत् की, यौगिक पदार्थ हैं, अतएव वे पुरुष
नहीं हो सकतीं।
तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम्॥५५॥
५५. जो विवेकज्ञान समस्त वस्तुओं को तथा वस्तुओं की सब प्रकार को अवस्थाओं को
एक साथ ग्रहण कर सकता है, उसे तारकज्ञान कहते हैं।
इस ज्ञान का नाम तारक इसीलिए है कि यह योगी को जन्म-मृत्यु के सागर से तारण
करता है। सारी प्रकृति की सूक्ष्म और स्थूल सर्वविध अवस्थाएँ इस ज्ञान की
ग्राह्य है। इस ज्ञान में किसी प्रकार का क्रम नहीं है। यह सारी वस्तुओं को
क्षण भर में एक साथ ग्रहण कर लेता है।
सत्त्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति॥५६॥
५६. जन सत्व (बुद्धि) और पुरुष--इन दोनों को समानभाव से शुद्धि हो जाती है, तब
कैवल्य की प्राप्ति होती है।
जब आत्मा जान लेती है कि जगत के छोटे से छोटे परमाणु से लेकर देवता तक किसी पर
उसके निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है तब आत्मा की उस अवस्था को कैवल्य और
पूर्णता कहते हैं। जब शुद्धि और अशुद्धि, दोनों से मिला हुआ सत्त्व अर्थात्
बुद्धि, पुरुष के समान शुद्ध हो जाती है, तब यह कैवल्य प्राप्त हो जाता है, तब
वह बुद्धि केवल निर्गुण, पवित्रस्वरूप पुरुष को प्रतिबिंबित करती है।
चतुर्थ अध्याय
कैवल्यपाद
जन्मौषधिमंत्रतपः समाधिजाः सिद्धयः॥१॥
१. सिद्धियाँ जन्म, औषधि, मंत्र, तपस्या और समाधि से प्राप्त होती हैं।
कभी कभी मनुष्य पूर्वजन्म में प्राप्त सिद्धि या शक्ति को लेकर जन्मग्रहण करता
है। इस बार वह मानो उनके फल का भोग करने के लिए ही जन्म लेता है। सांख्य दर्शन
के महान जनक कपिल के बारे में कहा जाता है कि वे जन्म से ही सिद्ध थे। 'सिद्ध'
शब्द का अर्थ है--जो कृतकार्य हो चुके हैं।
योगी दावा करते हैं कि रसायनविद्या अर्थात् औषधि आदि के द्वारा ये सब शक्तियाँ
प्राप्त हो सकती हैं। तुम सभी जानते हो कि रसायनविद्या का प्रारंभ आलकेमि के
रूप से हुआ।
[7]
मनुष्य पारस मणि (Philosopher's stone), संजीवनी अमृत
[8]
(elixir of life) आदि का अन्वेषण करते थे। भारत में 'रासायन' नामक एक संप्रदाय
था। उसका यह मत था कि सूक्ष्म तत्त्वप्रियता, ज्ञान,आध्यात्मिकता, धर्म-ये सब
सत्य (अच्छे) अवश्य हैं, पर शरीर ही वह यंत्र है, जिससे इन्हें प्राप्त किया
जा सकता है। यदि बीच-बीच में शरीर भग्न अर्थात् मृत्युग्रस्त होता रहे, तो
उससे उस चरम लक्ष्य पर पहुँचने में काफी अधिक समय लग जाएगा। मान लो, कोई
मनुष्य योगाभ्यास करने का या आध्यात्मिक होने का इच्छुक है। अधिक दूर उन्नति
करने के पहले हो, मान लो, उसकी मृत्यु हो गई। तब उसने और एक देह लेकर फिर से
साधना करनी शुरू की। कुछ समय बाद फिर उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार बारंबार
मरने और जन्म लेने से तो उसका काफी समय नष्ट हो गया। अब यदि शरीर को इतना सबल
और निर्दोष बनाया जा सके कि उसके जन्म और मृत्यु बिल्कुल बंद हो जाएँ, तो
आध्यात्मिक उन्नति के लिए उतना ही अधिक समय मिल सकेगा। इसीलिए ये 'रासायन'
संप्रदायवाले कहते हैं कि पहले शरीर को सबल बनाओ। उनका दावा है कि शरीर को अमर
बनाया जा सकता है। उनका अभिप्राय यह है कि यदि मन ही शरीर का गठन करने वाला
हो, और यह यदि सत्य हो कि प्रत्येक व्यक्ति का मन उस अनंत शक्ति के प्रकाश का
एक विशेष मार्ग मात्र हो, तो ऐसे प्रत्येक मार्ग के लिए बाहर से इच्छानुसार
शक्ति संग्रह करने की कोई निर्दिष्ट सीमा नहीं हो सकती। अतः हम सदा के लिए इस
शरीर को क्यों न रख सकेंगे? हम जितने शरीर धारण करते हैं, उन सबका गठन हमें ही
करना पड़ता है। ज्यों ही इस शरीर का पतन होगा, त्यों ही फिर से हमें एक और
शरीर गढ़ना पड़ेगा। जब हमने यह शक्ति है, जो इस शरीर से बाहर न जाकर, हम यहीं
और अभी वह गठन-कार्य क्यों न कर सकेंगे? यह मत पूर्ण रूप से सत्य है। यदि यह
संभव हो कि हम मृत्यु के पश्चात् भी जीवित रहकर अपना शरीर पुनः गढ़ लें, तो
फिर शरीर को पूरा ध्वंस किए बिना, उसे केवल क्रमशः परिवर्तित करते हुए, इसी
जन्म में शरीर तैयार करना हमारे लिए क्यों असंभव होगा? उनका यह भी विश्वास था
कि पारा और गंधक में बड़ी अद्भुत शक्ति निहित है। इन द्रव्यों से एक विशेष तौर
ने बनी हुई चीजों द्वारा मनुष्य जितने दिन इच्छा हो, शरीर को अक्षुण्ण बनाए रख
सकता है। दूसरे कुछ लोगों का विश्वास था कि कुछ विशिष्ट औषधियों के सेवन से
आकाश-गमन आदि सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं। आजकल की आश्चर्य जनक औषधियों का
अधिकांश, विशेषतः औषधि में धातु का व्यवहार, हमने 'रासायन' संप्रदायवालों से
पाया है। कोई कोई योगी-संप्रदाय कहते हैं कि हमारे बहुतेरे प्रधान गुरुगण अभी
भी अपनी पुरानी देहों में विद्यमान हैं। योग के बारे में जिनका प्रामाण्य
अकाट्य है, वे पतंजलि इसे अस्वीकार नहीं करते।
मंत्र-शक्ति--'मंत्र' का अर्थ है, कुछ पवित्र शब्द, जिनका निर्दिष्ट नियम से
उच्चारण करने पर उनसे ये अद्भुत शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। हम दिन-रात ऐसी
अद्भुत घटनाओं के बीच रह रहे हैं कि हमें उनका कोई महत्त्व नहीं मालूम पड़ता,
हम उन्हें साधारण समझते हैं। मनुष्य की शक्ति की, शब्द की शक्ति की और मन की
शक्ति की कोई निर्दिष्ट सीमा नहीं है।
तपस्या--तुम देखोगे कि यह तप प्रत्येक धर्म में है। धर्म के इन सब अंगों के
साधन में हिंदू सबसे बड़े-बड़े हैं। तुम ऐसे अनेक लोग पाओगे, जो सारे जीवन भर
अपना हाथ ऊपर उठाये रखते हैं, यहाँ तक कि अंत में उनके हाथ सूखकर नष्ट हो जाते
हैं। बहुत से लोग दिन-रात खड़े ही रहते हैं, और अंत में उनके पैर फूल जाते
हैं। वे इतने कड़े हो जाते हैं कि वे फिर मोड़े नहीं जा सकते। सारे जीवन भर
उन्हें खड़ा ही रहना पड़ता है। मैंने एक समय ऊपर हाथ उठाये हुए एक व्यक्ति को
देखा था। मैंने उससे पूछा, "जब तुम पहले-पहल इसका अभ्यास करते थे, तब तुम्हें
कैसा लगता था? " उसने कहा, "पहले-पहल भयानक पीड़ा मालूम होती थी, इतनी कि मुझे
नदी में जाकर पानी में डूबे रहना पड़ता था; उससे कुछ समय के लिए पीड़ा थोड़ी
कम मालूम होती थी। एक महीने बाद फिर कोई विशेष कष्ट नहीं हुआ।" इस प्रकार के
अभ्यास से सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
समाधि--यही यथार्थ योग है, इस शास्त्र का यही मुख्य विषय है--और यही सिद्धि का
प्रधान साधन है। पहले जिन सबके बारे में कहा गया है, वे गौण साधन मात्र हैं।
उनके द्वारा वह परमपद प्राप्त नहीं होता। समाधि के द्वारा हम मानसिक, नैतिक या
आध्यात्मिक, जो कुछ चाहें, सब प्राप्त कर सकते हैं।
जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात्॥२॥
२. (यह) एक जाति से दूसरी जाति में बदल जाना रूप जात्यन्तरपरिणाम प्रकृति के
पूर्ण होने से होता है।
पतंजलि ने कहा है कि ये शक्तियाँ जन्म से प्राप्त होती हैं, कभी- कभी वे
औषधिविशेष से भी प्राप्त होती हैं, फिर तपस्या से भी उन्हें पाया जा सकता है।
उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि इस शरीर को जब तक इच्छा हो, रखा जा सकता
है। अभी वे यह बता रहे हैं कि इस शरीर के एक जाति से दूसरी जाति में परिणत
होने का क्या कारण है। वे कहते हैं कि यह प्रकृति के पूर्ण होने से होता है।
अगले सूत्र में वे इसकी व्याख्या करेंगे।
निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत् ॥३॥
३. सत् और असत् कर्म प्रकृति के परिणाम (परिवर्तन) के प्रत्यक्ष कारण नहीं
हैं, वरन् वे उसकी बाधाओं को दूर कर देने वाले निमित्त मात्र हैं--जैसे, किसान
जब पानी के वहने में रुकावट डालने वाली मेड़ को तोड़ देता है, तो पानी अपने
स्वभाव से ही वह जाता है।
जब कोई किसान खेत में पानी सींचने की इच्छा करता है, तब उसे अन्य किसी जगह से
पानी लाने की आवश्यकता नहीं होती; खेत के समीपवर्ती जलाशय में पानी संचित है,
बीच में बांध रहने के कारण पानी खेत में नहीं आ पा रहा है। किसान उस बाँध को
खोल भर देता है, और बस, पानी गुरुत्वाकर्षण के नियमानुसार, अपने आप खेत में वह
आता है। इसी प्रकार, सभी व्यक्तियों में सब प्रकार की उन्नति और शक्ति पहले से
ही निहित है। पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, केवल उसके किवाड़ बंद हैं, वह
अपना यथार्थ रास्ता नहीं पा रही है। यदि कोई इस बाधा को दूर कर सके, तो उसकी
वह स्वाभाविक पूर्णता अपनी शक्ति के बल से अभिव्यक्त होगी ही। और तब मनुष्य
अपने भीतर पहले से ही विद्यमान शक्तियों को प्राप्त कर लेता है। जब यह बाधा
दूर हो जाती है और प्रकृति को अपनी अप्रतिहत गति प्राप्त हो जाती है, तब हम
जिन्हें पापी कहते हैं, वे भी साधु के रूप में परिणत हो जाते हैं। प्रकृति ही
हमें पूर्णता की ओर ले जा रही है, कालांतर में वह सभी को वहाँ ले जाएगी।
धार्मिक होने के लिए जो कुछ साधनाएँ और प्रयत्न हैं, वे सब केवल निषेधात्मक
कार्य हैं--वे केवल बाधा को दूर कर देते हैं, और इस प्रकार उस पूर्णता के
किवाड़ खोल देते हैं, जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है; जो हमारा स्वभाव है।
प्राचीन योगियों का विकासवाद आज आधुनिक विज्ञान के शोध से अपेक्षाकृत अच्छी
तरह समझ में आ सकेगा। फिर भी योगियों की व्याख्या आधुनिक व्याख्या से कहीं
श्रष्ठ है। आधुनिक मत कहता है, विकास के दो कारण हैं--यौन निर्वाचन (sexual
selection) और बलिष्ठ-अतिजीविता (survival of the fittest) |
[9]
पर ये दो कारण पर्याप्त नहीं मालूम होते। मान लो, मानव-ज्ञान इतना उन्नत हो
गया कि शरीर-धारण तथा पति या पत्नी की प्राप्ति संबंधी प्रतियोगिता जल गई। तब
तो आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं के मतानुसार, मानवीय उन्नति-प्रवाह रुद्ध हो जाएगा
और जाति की मृत्यु हो जाएगी। फिर, इस मत के फलस्वरूप तो प्रत्येक अत्याचारी
व्यक्ति अपने विवेक से छुटकारा पाने की एक युक्ति पा लेता है। ऐसे मनुष्यों की
कमी नहीं, जो दार्शनिक नामधारी बनकर जितने भी दृष्ट और अनुपयुक्त मनुष्य हैं
(मानो ये ही उपयुक्तता-अनुपयुक्तता के एकमात्र विचारक हैं), उन सबको मार डालकर
मनुष्य-जाति की रक्षा करनी चाहते हैं!किंतु प्राचीन विकासवादी महापुरुष पतंजलि
कहते हैं कि परिणाम या विकास का वास्तविक रहस्य है--प्रत्येक व्यक्ति में जो
पूर्णता पहले से ही निहित है, उसी की अभिव्यक्ति या विकास मात्र। वे कहते हैं
कि इस पूर्णता की अभिव्यक्ति में बाधा हो रही है। हमारे अंदर यह पूर्णतारूप
अनंत ज्वार अपने को प्रकाशित करने के लिए संघर्ष कर रहा है। ये संघर्ष और होड़
केवल हमारे अज्ञान के फल हैं। ये इसलिए होते हैं कि हम यह नहीं जानते कि यह
दरवाजा कैसे खोला जाए और पानी भीतर कैसे लाया जाए। हमारे पीछे जो अनंत ज्वार
है, वह अपने को प्रकाशित करेगा ही। वही समस्त अभिव्यक्ति का कारण है। केवल
जीवन-धारण या इंद्रिय-सुखों को चरितार्थ करने की चेष्टा इस अभिव्यक्ति का कारण
नहीं है। ये सब संघर्ष तो वास्तव में क्षणिक हैं, अनावश्यक हैं, बाह्य व्यापार
मात्र हैं। वे सब अज्ञान से पैदा हुए हैं। सारी होड़ बंद हो जाने पर भी, जब तक
हममें से प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक हमारे भीतर निहित यह
पूर्णस्वभाव हमें क्रमश: उन्नति की ओर अग्रसर कराता रहेगा। अत: यह विश्वास
करने का कोई कारण नहीं कि होड़ या प्रतियोगिता उन्नति के लिए आवश्यक है। पशु
के भीतर मनुष्य गूढ़ भाव से निहित है; ज्योंही किवाड़ खोल दिया जाता है,
अर्थात् ज्यों ही बाधा हट जाती है, त्यों ही वह मनुष्य प्रकाशित हो जाता है।
इसी प्रकार, मनुष्य के भीतर भी देवता अव्यक्त भाव से विद्यमान है, केवल अज्ञान
का आवरण उसे प्रकाशित नहीं होने देता। जब ज्ञान इस आवरण को चीर डालता है, तब
भीतर का वह देवता प्रकाशित हो जाता है।
निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात् ॥४॥
४. बनाए हुए चित्त केवल अस्मिता (अहं-तत्त्व) से होते हैं।
कर्मवाद का तात्पर्य यह है कि हमें अपने भले-बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ता
है, और सारे दर्शनशास्त्रों का एकमात्र उद्देश्य यह है कि मनुष्य अपनी महिमा
को जान ले। सभी शास्त्र मनुष्य की--आत्मा की--महिमा की घोषणा कर रहे हैं, फिर
उसके साथ साथ कर्मवाद का भी प्रचार कर रहे हैं। शुभ कर्मों का शुभ फल और अशुभ
कर्मों का अशुभ फल होता है। यदि शुभ और अशुभ कर्म आत्मा पर प्रभाव डाल सकते
हों, तो फिर आत्मा तो कुछ भी नहीं रही। वास्तव में अशुभ कर्म तो पुरुष के अपने
स्वरूप के प्रकाश में बाधा भर डालते हैं, और शुभ कर्म उन बाधाओं को दूर कर
देते हैं, तभी पुरुष की महिमा प्रकाशित होती है। स्वयं पुरुष में कभी परिवर्तन
नहीं होता। तुम चाहे जो करो, तुम्हारी महिमा को--तुम्हारे अपने स्वरूप को कुछ
भी नष्ट नहीं कर सकता; क्योंकि कोई भी वस्तु आत्मा पर प्रभाव नहीं डाल सकती।
उससे आत्मा पर मानो एक आवरण भर पड़ जाता है, जिससे आत्मा की पूर्णता ढक जाती
है।
योगी जल्दी जल्दी कर्म का क्षय कर डालने के लिए काय-व्यूह (शरीरसमूह) का सृजन
करते हैं। फिर इन, सब शरीरों के लिए वे अपनी अस्मिता या अहं-तत्त्व से बहुत से
चित्तों की सृष्टि करते हैं। इन निर्मित चित्तों को, मूल चित्त से उनका भेद
स्पष्ट करने के लिए, 'निर्माणचित्त' कहते हैं।
प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकं चित्तमेकमनेकेषाम् ॥५॥
५. यद्यपि इन विभिन्न बनाए हुए चित्तों के कार्य नाना प्रकार के हैं, तो भी वह
एक आदि (मूल) चित्त ही उन सबों का नियंता है।
ये अलग अलग मन (चित्त), जो अलग अलग देहों में कार्य करते हैं, 'निर्माण चित्त'
कहलाते हैं और इन निर्मित शरीरों को 'निर्माणदेह' कहते हैं। भूत और मन मानो दो
अनंतभंडार के समान हैं। योगी होने पर ही तुम उन पर अधिकार प्राप्त करने का
रहस्य जान सकोगे। तुम्हें तो वह सदैव विदित था, पर तुम उसे भूल भर गए थे। तुम
जब योगी हो जाओगे, तो वह फिर से तुम्हारी स्मृति में आ जाएगा। तब तुम उसे लेकर
जो इच्छा हो, वही कर सकोगे। जिस उपादान से इस बृहत ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति
होती है, यह निर्माणचित्त भी उसी उपादान से निर्मित होता है। मन और भूत आपस
में एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न पदार्थ नहीं हैं, वे तो एक ही पदार्थ की दो
विभिन्न अवस्थाएँ मात्र हैं। अस्मिता ही वह उपादान, वह सूक्ष्म वस्तु है,
जिससे योगी के ये निर्माणचित्त और निर्माणदेह तैयार होते हैं। अतएव, योगी जब
प्रकृति की इन शक्तियों का रहस्य जान लेते हैं, तब वे अस्मिता नामक पदार्थ से
जितनी इच्छा हो, उतने मन और शरीर निर्माण कर सकते हैं।
तत्र ध्यानजमनाशयम्॥६॥
६. उन विभिन्न चित्तों में से जो चित्त समाधि द्वारा उत्पन होता है, वह
वासनाशून्य होता है।
विभिन्न व्यक्तियों में हम जो विभिन्न प्रकार के मन देखते हैं, उनमें वही मन
सबसे ऊंचा है, जिसे समाधि-अवस्था प्राप्त हुई है। जो व्यक्ति औषधि, मंत्र या
तपस्या के बल से कुछ शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है, उसकी तब भी वासनाएँ बनी ही
रहती है; पर जो व्यक्ति योग के द्वारा समाधि प्राप्त कर लेता है, केवल वही
समस्त वासनाओं से मुक्त होता है।
कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् ॥७॥
७. योगियों के कर्म शुक्ल भी नहीं और कृष्ण भी नहीं; (पर) दूसरों के कर्म तीन
प्रकार के होते हैं शुक्ल, कृष्ण और मिश्र।
जब योगी इस प्रकार की पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं, तब उनके कार्य और उन
कार्यों के फल उन्हें फिर बाँध नहीं सकते; क्योंकि उनमें वासना का संस्पर्श
नहीं रह जाता है। वे केवल कर्म किए जाते हैं। वे दूसरों के हित के लिए काम
करते हैं, दूसरों का उपकार करते हैं, किंतु वे उसके फल की चाह नहीं रखते; अतः
वह उनके पास नहीं आता। पर साधारण मनुष्यों के लिए, जिन्हें यह सर्वोच्च अवस्था
प्राप्त नहीं हुई है, कर्म त्रिविध होते हैं--कृष्ण (पाप कर्म), शुक्ल (पुण्य
कर्म) और मिश्र (पाप और पुण्य मिले हुए)।
ततस्तद्विपाकानुगुणानामेवाभिव्यक्तिर्वासनानाम्॥८॥
८. इन त्रिविध कर्मों से प्रत्येक अवस्था में वे हो वासनाएँ प्रकाशित होती
हैं, जो केवल उस अवस्था में प्रकाशित होने के योग्य हैं। (अन्य सब उस समय के
लिए स्तिमित रूप से रहती हैं।)
मान लो, मैंने पाप, पुण्य और मिश्रित, ये तीन प्रकार के कर्म किए। उसके बाद,
मान लो, मेरी मुत्यु हो गई और मैं स्वर्ग में देवता हो गया। मनुष्य-देह की
वासना और देव-देह की वासना एक समान नहीं है। देव-देह खाना-पीना कुछ नहीं करती।
यदि बात ऐसी हो, तो फिर आत्मा के जो पूर्व अभुक्त कर्म हैं, जो अपने फलस्वरूप
खाने-पीने की वासना को जन्म देते हैं, वे सब भला कहाँ जाते हैं? जब मैं देवता
हो जाता हूँ, तब ये कर्म कहाँ रहते हैं? इसका उत्तर यह है कि वासना उपयुक्त
वातावरण और क्षेत्र को पाने पर ही प्रकाशित होती है। जिन सब वासनाओं के
प्रकाशित होने के उपयुक्त वातावरण आता है, उस समय केवल वे ही प्रकाशित होंगी।
शेष सब संचित रहेंगी। इस जीवन में हमारी बहुत सी देवोचित वासनाएँ हैं, बहुत सी
मनुष्योचित और बहुत सी पाशविक। जब हम देव-देह धारण करते हैं, तो केवल शुभ
वासनाएँ ही प्रकाशित होती हैं, क्योंकि तब उनके प्रकाशित होने का उपयुक्त अवसर
आता है। जब हम पशु देह धारण करते हैं, तो केवल पाशविक वासनाएँ ही ऊपर आती हैं,
और शुभ वासनाएँ बाट देखती रहती हैं। इससे क्या पता चलता है? यही कि वातावरण की
सहायता से हम इन वासनाओं का दमन कर सकते हैं। जो कर्म उस वातावरण के उपयुक्त
और अनुकूल हैं, केवल वे ही प्रकाशित होंगे। इससे यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित
होता है कि वातावरण की शक्ति स्वयं कर्म का भी दमन कर सकती है।
जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानंतर्यंस्मृतिसंस्कार-
योरेकरूपत्वात् ॥९॥
९. स्मृति और संस्कार एकरूप होने के कारण, जाति, देश और काल का व्यवधान रहने
पर भी, वासनाओं (कर्म-संस्कारों) का आनंतर्य रहता है अर्मात् उनमें व्यवधान
नहीं होता।
समस्त अनुभूतियाँ सूक्ष्म आकार धारण कर संस्कार के रूप में परिणत हो जाती हैं।
जब वे संस्कार फिर से जाग्रत होते हैं, तब उसी को स्मृति कहते हैं।
ज्ञानपूर्वक किए गए वर्तमान कर्म के साथ, संस्कार के रूप में परिणत
पूर्व-अनुभूतियों का जो परस्पर अज्ञानयुक्त संबंध है, यहाँ पर उसका भी
'स्मृति' शब्द से बोध होता है। प्रत्येक देह में वही संस्कार-समष्टि कर्म का
कारण होती है, जो उसी जाति की देह से प्राप्त हुई है। भिन्न जाति की देह से
लब्ध संस्कार-समष्टि उस समय स्तिमित रूप से रहती है। प्रत्येक शरीर इस प्रकार
कार्य करता है, मानो वह उसी जाति की देह-परंपरा का एक वंशज हो। इस तरह हम
देखते हैं कि वासनाओं का क्रम नष्ट नहीं होता।
तासामनादित्वं चाशिषो नित्यत्वात् ॥१०॥
१०. सुख की तृष्णा नित्य होने के कारण वासनाएँ भी अनादि हैं।
हम जो कुछ अनुभव या भोग करते हैं, वह सुखी होने की इच्छा से ही उत्पन्न होता
है। इस भोग का कोई आदि नहीं है, क्योंकि प्रत्येक नया भोग पहले किए हए भोग से
उत्पन्न प्रवृत्ति या संस्कार पर आधारित रहता है। अतएव वासना अनादि है।
हेतुफलाश्रयालम्बनै: संगृहीतत्वादेषामभावे तदभावः ॥११॥
११. हेतु, फल, आश्रय और (शब्दादि) विषय--इनसे वासनाओं का संग्रह होता है,
इसलिए इन (चारों) का अभाव होने से उन (वासनाओं) का भी अभाव हो जाता है।
वासनाएँ कार्य-कारणसूत्र
[10]
से ग्रथित हैं। मन में कोई वासना उदित होने पर वह अपना फल उत्पन्न किए बिना
नष्ट नहीं होती। फिर, चित्त समस्त पूर्व वासनाओं (कर्म-संस्कारों) का आश्रय
है--एक बड़ा भंडार स्वरूप है। ये वासनाएँ संस्कार के रूप में संचित रहती हैं।
जब तक उनका कार्य समाप्त नहीं हो जाता, तब तक वे नष्ट नहीं होती। फिर, जब तक
इंद्रियाँ बाहरी विषयों को ग्रहण करती रहेंगी, तब तक नई-नई वासनाएँ भी उठती
रहेंगी। यदि वासना के हेतु, फल, आश्रय और विषय नष्ट कर दिए जा सकें, तभी उसका
समूल विनाश हो सकता है।
अतीतानागतं स्वरूपतोऽस्त्यध्वभेदाद्धर्भाणाम् ॥१२॥
१२. वस्तु के धर्म विभिन्न रूप धारण कर सब कुछ हुए हैं, इसलिए अतीत और अनागत
(भविष्य) स्वरूपतः विद्यमान हैं।
तात्पर्य यह है कि असत् से कभी सत् की उत्पत्ति नहीं होती। इसलिए अतीत और
अनागत यद्यपि व्यक्त रूप से नहीं रहते, फिर भी वे सूक्ष्म अवस्था में रहते
हैं।
ते व्यक्तसूक्ष्मा गुणात्मानः॥१३॥
१३. वे (धर्म) कभी व्यक्त अवस्था में रहते हैं, फिर कभी सूक्ष्म अवस्था में
चले जाते हैं, और गुण ही उनकी आत्मा अर्थात् स्वरूप हैं।
गुण का तात्पर्य है, सत्त्व, रज और तम--ये तीन पदार्थ। उनकी स्थूल अवस्था ही
यह परिदृश्यमान जगत है। भूत और भविष्य, इन तीन गुणों की अभिव्यक्ति की विभिन्न
प्रणाली से उत्पन्न होते हैं।
परिणामैकत्वाद्वस्तुतत्त्वम् ॥१४॥
१४. परिणाम में एकत्व रहने के कारण वस्तु वास्तव में एक है।
यद्यपि वस्तुएँ तीन हैं अर्थात् सत्त्व, रज और तम, फिर भी उनके परिणामों में
एक पारस्परिक संबंध रहने के कारण सभी वस्तुओं में एकत्व है, ऐसा समझना चाहिए।
वस्तुसाम्ये चित्तभेदात्तयोर्विभक्तः पन्थाः ॥१५॥
१५. वस्तु के एक होने पर भी, चित्त भिन्न-भिन्न होने के कारण, विभिन्न प्रकार
की वासनाएँ और अनुभूतियाँ होती है।
तात्पर्य यह कि मन से स्वतंत्र, बाह्य जगत का अस्तित्व है। यहाँ पर बौद्धों के
विज्ञानवाद का खंडन किया जा रहा है। चूँकि भिन्न-भिन्न लोग एक ही वस्तु को
विभिन्न रूप से देखते हैं, इसलिए वह किसी व्यक्ति विशेष की कल्पना मात्र नहीं
हो सकती।
[11]
तदुपरागापेक्षित्वाच्चित्तस्य वस्तु ज्ञाताज्ञातम् ॥१६॥
१६. चित्त में वस्तु के प्रतिबिंब पड़ने की अपेक्षा रहने के कारण वस्तु कभी
ज्ञात और कभी अज्ञात होती है।
सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्यापरिणामित्वात्॥१७॥
१७. चित्त-वृत्तियाँ सदा ज्ञात रहती हैं, क्योंकि उस (चित्त) का स्वामी पुरुष
अपरिणामी है।
अब तक जिस सिद्धांत की बात कही गई है, उसका सारांश यह है कि जगत मनोमय और
भौतिक, इन दो प्रकार का है। ये मनोमय और भौतिक जगत सतत परिवर्तनशील हैं। यह
पुस्तक क्या है? यह नित्य परिवर्तनशील कुछ परमाणुओं की समष्टि मात्र है। कुछ
परमाणु बाहर जा रहे हैं और कुछ भीतर आ रहे हैं। यह बस, एक भँवर के समान है। पर
प्रश्न यह है कि ऐसा होने पर फिर एकत्व-बोध कैसे हो रहा है? यह पुस्तक सर्वदा
एक ही रूप में कैसे दिखती है? कारण यह है कि ये सब परिणाम लयबद्ध (नियमित) रूप
से हो रहे हैं; वे मेरे मन में लयबद्ध रूप से अनुभव-प्रवाह भेज रहे हैं। और
यद्यपि उनके विभिन्न अंश सतत परिवर्तनशील हैं, तो भी वे ही एकत्र होकर एक
अविच्छिन्न चित्र का ज्ञान उत्पन्न कर रहे हैं। मन स्वयं सतत परिवर्तनशील है।
मन और शरीर मानो विभिन्न मात्रा में गतिशील एक ही पदार्थ के दो स्तर मात्र
हैं। तुलना में एक धीमी और दूसरी द्रुततंर होने के कारण हम उन दोनों गतियों को
सहज ही पृथक् कर सकते हैं। जैसे एक रेल चल रही है, और एक गाड़ी उसके पास से जा
रही है। कुछ परिमाण में इन दोनों की ही गतियाँ निर्णीत हो सकती हैं किंतु तो
भी दूसरे एक पदार्थ की आवश्यकता है। एक निश्चल वस्तु रहने पर ही गति का अनुभव
किया जा सकता है पर जहाँ दो-तीन वस्तुएँ विभिन्न मात्रा में गतिशील हैं, वहां
हमें पहले सबसे ज़ोर से चलने वाली वस्तु का अनुभव होता है, और फिर उससे धीरे
चलने वाली वस्तुओं का। अब प्रश्न यह है कि मन कैसे अनुभव करे? वह तो हमेशा
गतिशील है। अतः, दूसरी एक वस्तु का रहना आवश्यक है, जो अपेक्षाकृत धीमे रूप से
गतिशील हो, उसके बाद उसकी अपेक्षा धीमी गतिशील वस्तु चाहिए, फिर उसकी भी
अपेक्षा धीमी--इस प्रकार चलते चलते तो इसका कहीं अंत न होगा। अतएव, युक्ति
हमें किसी एक स्थान में रुक जाने के लिए बाध्य करती है। किसी अपरिवर्तनशील
वस्तु को जानकर हमें इस अनंत शृंखला की समाप्ति करनी ही पड़ेगी। इस कभी समाप्त
न होने वाली गति-शृंखला के पीछे अपरिणामी, असंग, शुद्धस्वरूप पुरुष वर्तमान
है। जिस प्रकार मैजिक लैन्टर्न से आलोक की किरणें आकर सफ़ेद कपड़े पर
प्रतिबिंबित हो, उस पर सैकड़ों चित्र उत्पन्न करती हैं, पर किसी तरह उसे
कलंकित नहीं कर पातीं, ठीक उसी प्रकार विषयानुभूति से उत्पन्न संस्कार पुरुष
में प्रतिबिंबित मात्र होते हैं।
न तत् स्वाभासं दृश्यत्वात् ॥१८॥
८. चित्त दृश्य होने के कारण स्वप्रकाश नहीं है।
प्रकृति में सर्वत्र महाशक्ति की अभिव्यक्ति देखी जाती है, किंतु वह स्वप्रकाश
नहीं है, स्वभाव से चैतन्यस्वरूप नहीं है। केवल पुरुष ही स्वप्रकाश है, उसके
प्रकाश से ही प्रत्येक वस्तु उद्भासित हो रही है। उसी की शक्ति समस्त जड़
पदार्थ और शक्ति के माध्यम से प्रकाशित हो रही है।
एकसमये चोभयानवधारणम्॥१९॥
१९. एक समय में दो वस्तुओं को समझ न सकने के कारण मन स्वप्रकाश नहीं है।
यदि मन स्वप्रकाश होता, तो वह एक साथ ही अपना तथा अपने विषय का अनुभव कर पाता।
किंतु, ऐसा नहीं होता। मन जब किसी विषय-वस्तु में तल्लीन रहता है, तो यह अपने
संबंध में कुछ चिंतन नहीं कर सकता। अतः, मन स्वप्रकाश नहीं है, केवल पुरुष ही
स्वप्रकाश है।
चित्तान्तरदृश्ये बुद्धिबुद्धेरतिप्रसंगः स्मृतिसंकरश्च ॥२०॥
२०. एक मन को दूसरे मन का दृश्य मान लेने पर वह दूसरा मन फिर तीसरे मन का
दृश्य होगा--इस प्रकार अनवस्था प्राप्त होगी और स्मृति का भी सम्मिश्रण हो
जाएगा।
मान लो, एक दूसरा मन है, जो इस पहले मन का अनुभव करता है। तब तो एक ऐसे तीसरे
मन की आवश्यकता होगी, जो उस दूसरे मन का अनुभव करे। अतएव, इस प्रकार इसका कहीं
अंत न होगा। इससे स्मृति की भी गड़बड़ी उपस्थित हो जाएगी, क्योंकि तब स्मृति
का कोई निर्दिष्ट भंडार नहीं रह जाएगा।
चितेरप्रतिसंकमायास्तदाकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनम् ॥२१॥
२१. चित् (पुरुष) अपरिणामी है; मन जब उसका आकार धारण करता है तब वह ज्ञानमय हो
जाता है।
ज्ञान पुरुष का गुण नहीं है, यह हमें स्पष्ट रूप से समझा देने के लिए पतंजलि
ने यह बात कही है। मन जब पुरुष के पास आता है, तब पुरुष मानो उसमें
प्रतिबिंबित होता है और उस समय के लिए मन ज्ञानवान हो जाता है। तब ऐसा प्रतीत
होता है, मानो वही स्वयं पुरुष है।
द्रष्टृदृश्योपरक्तं चित्तं सर्वार्थम् ॥२२॥
२२. चित्त जब द्रष्टा और दृष्य, इन दोनों से रँग जाता है, तब यह सब कुछ समझने
में समर्थ होता है।
एक ओर दृश्य अर्थात् बाह्य जगत मन में प्रतिबिंबित हो रहा है, और दूसरी ओर
द्रष्टा अर्थात् पुरुष उसमें प्रतिबिंबित हो रहा है;इसी से उसमें सब प्रकार के
ज्ञान को प्राप्त करने की शक्ति आती है।
तदसंख्येयवासनाभिश्चित्रमपि परार्थं संहत्यकारित्वात् ॥२३॥
२३. वह (चित्त) असंख्य वासनाओं से चित्रित होने पर भी दूसरे (अर्थात् पुरुष)
के लिए है, क्योंकि यह संहत्यकारी (संयुक्त होकर कार्य करने वाला) है।
यह मन नाना प्रकार के पदार्थों की समष्टिस्वरूप है; अतः वह अपने लिए काम नहीं
कर सकता। इस संसार में जितने संहत पदार्थ हैं, सभी का प्रयोजन किसी दूसरी
वस्तु से है--ऐसी किसी तीसरी वस्तु से, जिसके लिए वे पदार्थ इस तरह से संहत
हुए हैं। अतएव, मन की यह संहति केवल पुरुष के लिए है।
विशेषदर्शिन आत्मभावभावनाविनिवृत्तिः॥२४॥
२४. विशेषदर्शी अर्थात् विवेकी पुरुष के मन में आत्मभाव नहीं रह जाता।
विवेक बल से योगी जान लेते हैं कि पुरुष मन नहीं है।
तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भावं
[12]
चित्तम्॥२५॥
२५. उस समय मन विवेकप्रवण होकर कैवल्य के पूर्व लक्षण को प्राप्त करता है।
इस प्रकार योगाभ्यास से विवेक-शक्तिरूप दृष्टि की शुद्धता प्राप्त होती है।
हमारी आँखों के सामने से आवरण हट जाता है, और तब हम वस्तु के यथार्थ स्वरूप की
उपलब्धि करते हैं। हम तब जान लेते हैं कि प्रकृति एक यौगिक पदार्थ है और उसके
ये सारे दृश्य केवल साक्षीस्वरूप पुरुष के लिए हैं। तब हम जान लेते हैं कि
प्रकृति ईश्वर नहीं है। इस प्रकृति की सारी संहति, सारे संयोग केवल हमारे
हृदय-सिंहासन में विराजमान राजा पुरुष को यह सब दृश्य दिखाने के लिए हैं। जब
दीर्घ काल तक अभ्यास के फलस्वरूप विवेक का उदय होता है, तब भय चला जाता है और
कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है।
तच्छिद्रेषु प्रत्ययांतराणि संस्कारेभ्यः ॥२६॥
२६. उसके विघ्नस्वरूप बीच बीच में जो विचार उत्पन्न होते हैं, वे संस्कारों से
आते हैं।
'हमें सुखी करने के लिए कोई बाहरी वस्तु आवश्यक है, ऐसा विश्वास पैदा करनेवाले
जो सब भाव हममें उठते हैं, वे सिद्धि-लाभ में बाधक हैं। पुरुष स्वभाव से
सुखस्वरूप और आनंदस्वरूप है। पर यह ज्ञान पूर्व संस्कारों से ढका हुआ है। इन
सब संस्कारों का क्षय होना आवश्यक है।
हानमेषां क्लेशवदुक्तम् ॥२७॥
२७. जिन उपायों से क्लेशों के नाश की बात (योग० २।१०)कही गई है। इन
(संस्कारों) को भी ठीक उन्हीं उपायों से नष्ट करना होगा।
प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेर्धर्ममेघःसमाधिः ॥२८॥
२८. तत्त्वों के विवेकजान से उत्पन्न ऐश्वर्य में भी जिनका वैराग्य हो जाता
है, उनका विवेकज्ञान सर्वथा प्रकाशमान रहने के कारण उन्हें धर्ममेघ समाधि
प्राप्त हो जाती है।
जब योगी इस विवेकज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं, तब उनके पास पूर्व अध्याय में
बतलायी गई सिद्धियाँ आती हैं, पर सच्चे योगी इन सबका परित्याग कर देते हैं।
उनके पास धर्ममेघ नामक एक विशेष प्रकार का ज्ञान, एक विशेष प्रकार का आलोक आता
है। इतिहास ने संसार के जिन सब महान धर्माचार्यों का वर्णन किया है, उन सभी को
यह धर्ममेघ समाधि हुई थी। उन्होंने ज्ञान का मूल स्त्रोत अपने भीतर ही पाया
था। सत्य उनके निकट अत्यंत स्पष्ट रूप से प्रकाशित हुना था। पूर्वोक्त
सिद्धियों की असारता को छोड़ देने के कारण शांति, समता और पूर्ण पवित्रता उनका
स्वभाव ही बन गई थी।
ततः क्लेशकर्मनिवृत्तिः ॥२९॥
२९. उस (धर्ममेघ समाधि) से क्लेश और कर्मों का सर्वथा नाश हो जाता है।
जब यह धर्ममेघ समाधि होती है, तब पतन की आशंका फिर नहीं रह जाती, तब योगी को
कुछ भी नीचे नहीं खींच सकता। तब उनके लिए न कोई बुराई रह जाती है, न कोई कष्ट।
तदा सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्थानन्त्याज्ज्ञेयमल्पम् ॥३०॥
३०. उस समय शान, सब प्रकार के आवरण और अशुद्धि से रहित होने के कारण, अनंत हो
जाता है, अतः ज्ञेय अल्प हो जाता है।
ज्ञान तो भीतर में ही है, केवल उसका आवरण चला जाता है। किसी बौद्ध शास्त्र ने
'बुद्ध' (यह एक अवस्था का सूचक है) शब्द की परिभाषा दी है--अनंत आकाश के समान
अनंत ज्ञान। ईसा इस अवस्था की प्राप्ति कर क्राइस्ट हो गए थे। तुम सभी उस
अवस्था की प्राप्ति करोगे। तब ज्ञान अनंत हो जाएगा, अतः ज्ञेय अल्प हो जाएगा।
तब यह सारा जगत, अपनी सब प्रकार की ज्ञेय वस्तुओं के साथ, पुरुष के समक्ष
शून्य रूप से प्रतिभासित होगा। साधारण मनुष्य अपने को अत्यंत क्षुद्र समझता
है, क्योंकि उसको ज्ञेय वस्तु अनंत प्रतीत होती है।
ततः कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिर्गुणानाम् ॥३१॥
३१. जब गुणों का काम समाप्त हो जाता है, तब गुणों के जो विभिन्न परिणाम है, वे
भी समाप्त हो जाते हैं।
तब गुणों के ये सब विभिन्न परिणाम (एक जाति से उनकी दूसरी जाति में परिणत
होना) बिल्कुल समाप्त हो जाते हैं।
क्षणप्रतियोगी परिणामापरान्तनिर्ग्राह्यः क्रमः ॥३२॥
३२. जो सब परिणाम प्रत्येक क्षण से संबंधित है, और जो दूसरे छोर में (अर्थात्
एक परिणाम-परंपरा के अंत में) समझ में आते हैं, वे क्रम हैं।
पतंजलि ने यहाँ 'क्रम' शब्द की परिभाषा दी है। क्रम शब्द से उन सब परिणामों का
बोध होता है, जो प्रत्येक क्षण से संबंधित हैं। मैं सोच रहा हूँ, इसमें कितने
क्षण चले गए! इस प्रत्येक क्षण के साथ भाव का परिवर्तन होता है, पर मैं उन सब
परिणामों को एक श्रेणी के अंत में ही अर्थात् एक परिणाम परंपरा के बाद ही पकड़
सकता है। इसे क्रम कहते हैं। किंतु जो मन सर्वव्यापी हो गया है, उसके लिए फिर
क्रम नहीं रह जाता। उसके लिए सब कुछ वर्तमान हो गया है। उसके लिए केवल वर्तमान
ही रहता है, भूत और भविष्य उसके ज्ञान से बिल्कुल चले जाते हैं। तब वह मन काल
पर विजय प्राप्त कर लेता है और उसके पास समस्त ज्ञान एक क्षण में आकर उपस्थित
हो जाता है। उसके पास सब कुछ झलक के समान झट से प्रकाशित हो जाता है।
पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठावा
चितिशक्तेरिति ॥३३॥
३३. गुणों से जब पुरुष का कोई प्रयोजन नहीं रहता, तब प्रतिलोम-कम से गुणों के
लय को कैवल्य कहते हैं, अथवा यों कहिए कि द्रष्टा (चित् शक्ति) का अपने स्वरूप
में प्रतिष्ठित हो जाना कैवल्य है।
प्रकृति का काम समाप्त हो गया।हमारी परम कल्याणमयी धात्री प्रकृति ने
इच्छापूर्वक जिस निःस्वार्थ कार्य का भार अपने कंधों पर लिया था, वह समाप्त हो
गया। उसने मानो आत्मविस्मृत जीवात्मा का हाथ पकड़कर उसे धीरे-धीरे संसार के
समस्त भोगों का अनुभव कराया, अपनी समस्त अभिव्यक्ति दिखाई, सारे विकार दिखाये,
और इस प्रकार वह उसे विभिन्न शरीरों में से ले जाते हुए क्रमश: उच्च से उच्चतर
अवस्था में उठाती गई। अंत में आत्मा ने अपनी खोयी हुई महिमा फिर से प्राप्त कर
ली, अपना स्वरूप फिर से उसके मानस में उदित हो गया। तब वह करुणामयी जननी जिस
रास्ते से आई थी, उसी रास्ते से वापस चली गई और उन लोगों को रास्ता दिखाने में
प्रवृत्त हो गई, जो इस जीवन के पथचिह्नविहीन मरुभूमि में अपना पथ खो बैठे हैं।
वह अनादि, अनंत काल से इस प्रकार काम करती चली आ रही है। बस, इसी प्रकार सुख
और दुःख, भले और बुरे के माध्यम से होते हुए जीवात्मा की अनंत नदी सिद्धि और
आत्म साक्षात्काररूप समुद्र की ओर प्रवाहित हो रही है।
जिन्होंने अपने स्वरूप का अनुभव कर लिया है, उनकी जय हो। वे हम सबको आशीर्वाद
दें!
परिशिष्ट
योग के विषय में अन्यान्य शास्त्रों के मत
श्वेताश्वतरोपनिषद्
द्वितीय अध्याय
अग्निर्यत्राभिमभ्यते वायुर्यत्राविरुध्यते।
सोमो यत्रातिरिच्यते तत्र संजाएते मनः ॥६॥
६. जहाँ अग्नि का मथन किया जाता है, जहाँ वायु को रुद्ध किया जाता है और जहाँ
सोमरस की अधिकता होती है, वहीं (सिद्ध) मन की उत्पत्ति होती है।
त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिवेश्य।
ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ॥८॥
८. वक्ष, ग्रीवा और शिर को उन्नत रखते हुए शरीर को सीधा रख, मन के द्वारा
इंद्रियों को हृदय में सन्निविष्ट कर ज्ञानी व्यक्ति ब्रह्मरूप नौका के द्वारा
सारे भयावह जल-प्रवाहों के पार हो जाते हैं।
प्राणान् प्रपीडचेह संयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छ्वसीत।
दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान् मनो धारयेताप्रमसः॥९॥
९. संयुक्तचेष्ट मनुष्य प्राण को संयत करते हैं। जब वह शांत हो जाता है, तब
नाक के द्वारा प्रश्वास का परित्याग करते हैं। जिस प्रकार सारथि चंचल अश्वों
को धारण करता है, उसी प्रकार अध्यवसायशील योगी भी मन को धारण करें।
समे शुचौ शर्करावह्निवालुकाविवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः।
मनोनुकूले न तु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत् ॥१०॥
१०. जो समतल और शुचि हो, पत्थर, आग और बालू ले रहित हो, मनुष्य द्वारा किएगए
या किसी जलप्रपात से उत्पन्न मन को चंचल कर देने वाले शब्दों से वर्जित हो,
तथा मन के अनुकूल और आँखों को सुखकर हो, ऐसे पर्वत-गुहा आदि निर्जन स्थान में
बैठकर योग का अभ्यास करना चाहिए।
नीहारधूमार्कानिलानलानां खद्योतविद्युत्स्फटिकशशिनाम् ।
एतानि रूपाणि पुरःसराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे॥११॥
११. नीहार, धूम, सूरज, वायु, आग, जुगनू, विद्युत्, स्फटिक, चंद्रमा--ये सब रूप
सामने आकर क्रमशः योग में ब्रह्म को अभिव्यक्त करते हैं।
पृथ्व्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पंचात्मके योगगुणे प्रवृत्ते।
न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् ॥१२॥
१२. जब पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश, इन पंचभूतों से योग की अनुभूतियाँ होने
लगती हैं, तब समझना चाहिए कि योग आरंभ हो गया है। जिन्हें इस प्रकार का
योगाग्निमय शरीर प्राप्त हो गया है, उनके लिए फिर बीमारी, जरा या मृत्यु नहीं
रहती।
लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादं स्वरसौष्ठवं च।
गन्धः शुभो मूत्रपुरीषल्पं योगप्रवृत्तिं प्रथमां वदन्ति ॥ १३॥
१३. शरीर की लघुता, स्वास्थ्य, लोभशून्यता, सुंदर रंग, स्वर-सौंदर्य, मल-मूत्र
की अल्पता तथा शरीर की एक सुंदरसुगंध--इन सबको योग की पहली सिद्धि कहते हैं।
यथैव बिम्बं मृदयोपलितं तेजोमयं भ्राजते तत् सुधान्तम्।
तद्वात्मतत्वं प्रसमीक्ष्य देही एकः कृतार्थो भवते वीतशोकः ॥१४॥
१४. जिस प्रकार मिट्टी से सना हुआ सोने या चांदी का टुकड़ा शोधन किए जाने पर
तेजोमय होकर चमकने लगता है, उसी प्रकार देही आत्म-तत्त्व का साक्षात्कार कर
अद्वितीय, कृतकृत्य और शोकरहित हो जाता है।
शंकर-उद्धृत याज्ञवल्क्य
आसनानि समभ्यस्य वाञ्छितानि यथाविधि।
प्राणायामं ततो गार्गि जितासनगतोऽभ्यसेत्
मृद्वासने कुशान् सम्यगास्तीर्याजिनमेव च।
लम्बोदरं च संपूज्य फलमोदकभक्षणैः॥
तदासने सुखासीनः सव्ये न्यस्येतरं करम्।
समग्रीवशिराः सम्यक् संवृतास्यः सुनिश्चलः॥
प्राङमुखोदङमुखो वापि नासाग्रन्यस्तलोचनः ।
अतिभुक्तमभुक्तं च वर्जयित्वा प्रयत्नतः॥
नाडीसंशोधनं कुर्यादुक्तमार्गेण यत्नतः।
वृथा क्लेशो भवेत्तस्य तच्छोधनमकुर्वतः॥
नासाग्रे शशभृद्वीजं चन्द्रातपवितानितम्।
सप्तमस्य तु वर्गस्य चतुर्थ बिंदुसंयुक्तम्॥
विश्वमध्यस्थमालोक्य नासाग्रे चक्षुषी उभे।
इडया पूरयेद्वायुं बाह्यं द्वादशमात्रकं॥
ततोऽग्निं पूर्ववद्ध्यायेत् स्फुरज्ज्वालावलीयुतम्।
रेफं च बिंदुसंयुक्तं शिखिममंडलसंस्थितम् ॥
ध्यायेद्विरेचयेद्वायुं मन्दं पिंगलया पुनः।
पुनः पिंगलयापूर्य घ्राणं दक्षिणतः सुधीः॥
तद्वद्विरेचयेद्वायुमिडया तु शनैः शैनेः।
त्रिचतुर्वत्सरं चापि त्रिचतुर्मासमेव वा ॥
गुरुणोक्तप्रकारेण रहस्येवं समभ्यसेत् ।
प्रातर्मध्यन्दिने सायं स्नात्वा षट्कृत्व आचरेत् ॥
सन्ध्यादिकर्म कृत्वैव मध्यरात्रेऽपि नित्यशः ।
नाडीशुद्धिमवाप्नोति तच्चिह्न्नं दृश्यते पृथक् ॥
शरीरलघुता दीप्तिर्जठराग्निविवर्धनम् ।
नादाभिव्यक्तिरित्येतल्लिंगं तच्छुद्धिसूचनम्॥
* * *
प्राणायामं ततः कुर्याद्रेचकपूरककुम्भकैः।
प्राणापानसमायोगः प्राणायामः प्रकीर्तितः ॥
* * *
पूरयेत् षोडशैर्मात्रैरापादतलमस्तकम्
मात्रैर्द्वात्रिंशकैः पश्चाद्रेचयेत् सुसमाहितः।
संपूर्णकुम्भवद्वायोर्निश्चलं मूर्ध्नि देशतः।
कुम्म्भकं धारणं गार्गि चतुःषष्ट्या तु मात्रया॥
ऋषयस्तु वन्त्यन्ये प्राणायामपरायणाः।
पवित्रभूताः पूतान्त्राः प्रभञ्जनजये रताः॥
तत्रादौ कुम्भकं कृत्वा चतुःषष्टया तु मात्रया।
रेचयेत् षोडशैत्रैर्मात्रैर्नासेनैकेन सुन्वरि।
तयोश्च पूरयेद्वायुं शनैः षोडशमात्रया।
प्राणायामैर्दहेद्दोषान् धारणाभिश्च किल्बिषान्।
प्रत्याहाराच्च संसर्गान् ध्यानेनानीश्वरान् गुणान् ॥
--'यथाविधि वांछित आसनों का अभ्यास करके, तदनंतर, हे गार्गि, आसन पर जय
प्राप्त कर प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। कोमल आसन पर सम्यक् प्रकार से कुश
बिछा, उस पर मृगचर्म बिछाकर, फल और मोदक आदि के द्वारा गणेश की पूजा करके, उस
आसन पर सुखासीन होकर, बायें हाथ पर दाहिना हाथ रखकर, समग्रीवशिर हो, मुँह बंद
करके, निश्चल होकर, पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठकर, नासाग्र में दृष्टि
को स्थापित करके, यत्नपूर्वक अतिभोजन या एकदम अनाहार का त्यागकर पूर्वोक्त
प्रकार से यत्नपूर्वक नाड़ी का शोधन करे; यह नाड़ी शोधन न करने पर उसके साधन
के सारे क्लेश निष्फल होते हैं। पिंगला और इड़ा के संयोगस्थल में (दाहिने और
बायें नथुने के संयोग स्थल में) 'हुं' बीज का चिंतन करके इड़ा के द्वारा
द्वादश मात्रा-क्रम से बाह्य वायु को भीतर खींचे, उसके बाद उस स्थान में अग्नि
का चिंतन तथा 'रं' बीज का ध्यान करे; इस तरह ध्यान करने के समय धीरे-धीरे
पिंगला (दाहिने नथुने) के द्वारा वायु का रेचन करे। पुनः पिंगला के द्वारा
पूरक करके पूर्वोक्त प्रकार से धीरे- धीरे इड़ा के द्वारा रेचन करे। श्री गुरु
के उपदेशानुसार इसका तीन-चार वर्ष या तीन-चार मास अभ्यास करे। प्रातःकाल,
मध्याह, सायंकाल तथा मध्य रात्रि में, जब तक नाड़ी-शुद्धि नहीं हो जाती, तब तक
एकांत में अभ्यास करना होगा। तब उनमें ये सब लक्षण प्रकाशित होते हैं, जैसे,
शरीर का हल्कापन, सुंदर वर्ण, क्षुधा तथा नादश्रवण। तत्पश्चात् रेचक,
प्रतिबिंबित और पूरकात्मक प्राणायाम करना होगा। अपान के साथ प्राण के योग करने
का नाम है प्राणायाम। १६ मात्राओं में मस्तक से लेकर पद तक पूरक, ३२ मात्राओं
में रेचक और ६४ मात्राओं में प्रतिबिंबित करे।
और एक प्रकार का प्राणायाम है। उसमें पहले ६४ मात्राओं में प्रतिबिंबित, फिर
३२ मात्राओं में रेचक और तत्पश्चात् १६ मात्राओं में पूरक करना पड़ता है;
प्राणायाम के द्वारा शरीर के सारे दोष दग्ध हो जाते हैं। धारणा से मन की
अपवित्रता दूर हो जाती है, प्रत्याहार से संग-दोष नष्ट हो जाता है तथा समाधि
से आत्मा के ईश्वरभाव को आवृत कर रखने वाला सारा आवरण नष्ट हो जाता है।
[13]
सांख्य-प्रवचन-सूत्र
तृतीय अध्याय
भावनोपचयात् शुद्धस्य सर्व प्रकृतिवत् ॥२९॥
२९. गंभीर ध्यान के बल से, शुद्धस्वरूप पुरुष के पास प्रकृति की सारी शक्तियाँ
आ जाती हैं।
रागोपहतिया॑नम् ॥३०॥
३०. आसक्ति के नाश को ध्यान कहते हैं।
वृत्तिनिरोधात् तत्सिद्धिः ॥३१॥
३१. ध्यान की सिद्धि समस्त वृत्तियों के निरोध से होती है।
धारणासनस्वकर्मणा तत्सिद्धिः ॥३२॥
३२. धारणा, आसन और अपने कर्तव्य-कमों के पालन से ध्यान सिद्ध होता है।
निरोधश्छर्दिविधारणाभ्याम् ॥३३॥
३३. श्वास की छर्दि (त्याग) और विधारण (धारण) के द्वारा प्राणवायु का निरोध
होता है।
स्थिरसुखमासनम् ॥३४॥
३४. जिससे स्थिर और सुखकर रूप से बैठा जा सके, उसका नाम आसन है।
वैराग्यादभ्यासाच्च ॥३६॥
३६. वैराग्य और अभ्यास से भी (ध्यान सिद्ध होता है)।
तत्त्वाभ्यासान्नेति नेतीति त्यागाद्विवेकसिद्धिः॥७४॥
७४. प्रकृति के प्रत्येक तत्त्व को 'यह नहीं', 'यह नहीं', ऐसा कहकर त्याग सकने
से विवेक सिद्ध होता है।
चतुर्थ अध्याय
आवृत्तिरसकृदुपदेशात् ॥३॥
३. वेद में एक से अधिक बार श्रवण का उपदेश है, अतएव पुनः पुनः श्रवण आवश्यक
है।
श्येनवत् सुखदुःखी त्यागवियोगाभ्याम् ॥५॥
५. जैसे बाज़ पक्षी, मांस छीन लिए जाने पर, दुःखी और स्वयं इच्छापूर्वक उसको
त्याग देने से सुखी होता है, (वैसे ही साधु पुरुष इच्छापूर्वक सबका त्याग करके
सुखी होते हैं)।
अहिनिर्ल्वयनीवत् ॥६॥
६. जैसे सर्प शरीरस्थ जीर्ण केंचुली को हेय समझकर अनायास त्याग देता है।
असाधनानुचिन्तनं बन्धाय भरतवत् ॥८॥
८. जो विवेकज्ञान का साधन नहीं है, उसका चिंतन न करे, क्योंकि वह बंधन का हेतु
है; दृष्टांत--राजा भरत।
बहुभिर्योगे विरोधो रागादिभिः कुमारीशंखवत् ॥९॥
९. बहुत से लोगों का संग, रागादि का कारण होने से, ध्यान में विघ्नस्वरूप है;
दृष्टांत--कुमारी के हाथ में शंख के कंगन।
द्वाम्यामपि तथैव ॥१०॥
१०. दो मनुष्यों के एक साथ रहने पर भी ऐसा ही है।
निराशः सुखी पिंगलावत् ॥११॥
११. आशा को त्याग देनेवाला सुखी होता है; दृष्टांत--पिंगला नाम की लड़की।
बहुशास्त्रगुरूपासनेऽपि सारादानं षट्पदवत् ॥१३॥
१३. जिस प्रकार मधुकर बहुत से फूलों से मधु संग्रह करता है, उसी प्रकार यद्यपि
बहुत से शास्त्रों और गुरुओं की उपासना की जाती है, तो भी उनमें से केवल सार
को लेना चाहिए।
इषुकारवकचित्तस्य समाविहानिः॥१४॥
१४. बाण बनानेवाले के समान एकाग्रचित्त रहने पर समाधि भंग नहीं होती।
कृतनियमलंघनादानर्थक्यं लोकवत् ॥१५॥
१५. जैसे लौकिक विषय में कृतनियमों का उल्लंघन करने पर महा अनर्थ होता है,
वैसे ही इसमें भी।
प्रणतिब्रह्मचर्योपसर्पणानि कृत्था सिद्धिबहुकालात्तद्वत् ॥१९॥
१९. प्रणति, ब्रह्मचर्य और गुरुसेवा के द्वारा (इंद्र के समान) बहुत समय के
बाद सिद्धि प्राप्त होती है।
न कालनियमो वामदेववत् ॥२०॥
२०. ज्ञानोत्पत्ति का कोई काल-नियम नहीं है। जैसे, वामदेव मुनि को (गर्भावस्था
में ज्ञान का उदय) हुआ था।
लब्धातिशययोगाद्वा तद्वत् ॥२४॥
२४. अथवा जिस मनुष्य ने अतिशय यानी ज्ञान की पराकाष्ठा को प्राप्त कर लिया है,
उसके संग के द्वारा भी विवेक प्राप्त होता है ।
न भोगात् रागशांतिर्मुनिवत् ॥२७॥
२७. जिस प्रकार भोग से (सौभरि) मुनि की आसक्ति दूर नहीं हुई थी, उसी प्रकार
दूसरों की भी भोग के द्वारा आसक्ति नष्ट नहीं होती।
पंचम अध्याय
योगसिद्धपोऽप्यौषधादिसिद्धिवन्नापनीयाः॥१२८॥
१२. औषधि आदि के द्वारा आरोग्य-सिद्धि होने के कारण जिस प्रकार मनुष्य औषधि
आदि की शक्ति को अस्वीकार नहीं करते, उसी प्रकार योगज सिद्धि को भी अस्वीकार
नहीं किया जा सकता।
षष्ठ अध्याय
स्थिरसुखमासनमिति न नियमः ॥२४॥
२४. जिस प्रकार बैठना सुखकर हो और जिससे शरीर और मन विचलित न हों, वही आसन है।
इसके सिवा और कोई नियम नहीं है।
व्याससूत्र
चतुर्थ अध्याय--प्रथम पाद
आसीनः सम्भवात् ॥७॥
७. उपासना बैठकर ही संभव है, अतः बैठकर उपासना करनी चाहिए।
ध्यानाच्च ॥८॥
८. ध्यान के कारण भी (बैठे हुए, अंग-संचालन-क्रिया से रहित इत्यादि लक्षणयुक्त
पुरुष को देखकर लोग कहते हैं, 'ये ध्यान कर रहे हैं, अतएव ध्यान बैठे हुए
पुरुष में ही संभव है)।
अचलत्वं चापेक्ष्य ॥९॥
९. क्योंकि ध्यानी पुरुष की तुलना निश्चल पृथ्वी के साथ की गई है।
स्मरन्ति च ॥१०॥
१०. क्योंकि स्मृति में भी यही बात कही गई है।
यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् ॥११॥
११. जहाँ एकाग्रता होती हो, उसी स्थान में बैठकर ध्यान करना चाहिए। कारण, किस
स्थान में बैठकर ध्यान करना होगा, इसका कोई विशेष विधान नहीं है।
इन कुछ उद्धृत अंशों को देखने से यह ज्ञात हो जाएगा कि अन्य भारतीय दर्शन योग
के बारे में क्या कहते हैं।
[1]
तैत्तिरीयोपनिषद् ॥३॥१॥
[3]
सर्वे एव शब्दाः सर्वाकारार्याभिधानसमर्था--इति स्थित एवैषां
सर्वाकारैरर्थें: स्वाभाविक: सम्बन्धः।
--व्यास-भाष्य को वाचस्पति मिश्र कृत टीका।
[4]
मन अर्थात् समस्त संवेदनाओं का सामान्य अधिष्ठान-समस्त इन्द्रियों का
समष्टिस्वरूप। स०
[6]
स्वरूप--पृथ्वी को ठोसता, जल की तरलता आदि। अन्वय--सत्त्व, रज और तम
प्रत्येक भूत में व्याप्त हैं, यह जानना। अर्थवत्व--विशेष विशेष
भोग-प्रदान का सामर्थ्य। स०
[7]
आलकेमि--ताँबा आदि कम कीमतवाली धातुओं से सोना-चाँदी आदि बनाने की
विद्या। पहले यूरोप में गुप्त रूप में इस विद्या का बहुत प्रचार था।
स.
[8]
'संजीवनी अमृत' का अर्थ है, एक प्रकार का काल्पनिक रस, जिससे मनुष्य
अमर हो सकता है।
[9]
डार्विन का मत है कि जगत् का क्रमविकास कुछ निर्दिष्ट नियमों के
अनुसार होता है; उनमें यौन-निर्वाचन और बलिष्ठ-अतिजीविता ही प्रधान
है। प्रत्येक जीव अपना उपयुक्त पति या पत्नी निर्वाचित कर लेता है और
जो सबसे योग्य है, वही अन्त तक मचा रहता है, यही इन दोनों बातों का
अर्थ है। स.
[10]
क्लेश (साधनपाद ३) और कर्म (कैवल्यपाद ७) कारण है, और जाति, आयु तथा
भोग (साधनपाद १३) कार्य है। स०
[11]
किसी किसी संस्करण में यहां एक और सूत्र भी है--
न चकचित्ततन्त्रं वस्तु तवप्रमाणकं तदा किं स्यात्।
--'फिर, दृश्य वस्तु किसी एक चित्त के अधीन नहीं है, (क्योंकि) वैसा
होने से जब वह (उस चित्त के) प्रत्यक्षादि प्रमाण का अविषय हो जायगी,
उस समय उस वस्तु का क्या होगा?'
यदि बाह्य वस्तु की प्रत्यक्ष-अनुभूति ही उसके अस्तित्व को कारण हो,
तो जब मन किसी विषय में तन्मय हो जाता है अथवा समाधिस्थ होता है, तब
दूसरे किसीसे उस वस्तु का प्रत्यक्ष नहीं होगा, और तब यह भी कहना
पड़ेगा कि उस वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है। लेकिन यह निष्कर्ष गलत
है। स०
[12]
पाठान्तर--कंवल्याग्भारं। तब अर्थ होगा : उस समय मन गम्भीर रूप मैं
विवेकवान होता है और कैवल्य की ओर उम्मुख हो जाता है। स०
[13]
श्वेताश्वतरोपनिषद् (२।८) पर शंकराचार्य का भाष्य द्रष्टव्य। स.