पातंजल योगसूत्र
(मूल संस्कृत सूत्र
, सूत्रार्थ और व्याख्या सहित)
उपक्रमणिका
योगसूत्रों को हाथ में लेने से पहले मैं एक ऐसे प्रश्न की चर्चा करने का
प्रयत्न करूँगा, जिस पर योगियों के सारे धार्मिक मत प्रतिष्ठित हैं। ऐसा मालूम
पड़ता है कि संसार के सभी श्रेष्ठ मनीषी इस बात में एकमत हैं--और यह बात भौतिक
प्रकृति के अनुसंधान से भी एक प्रकार से प्रमाणित ही हो गई है--कि हम लोग अपने
वर्तमान सविशेष (सापेक्ष) भाव के पीछे विद्यमान एक निर्विशेष (निरपेक्ष) भाव
के परिणाम एवं व्यक्त रूप हैं, और हम फिर से उसी निर्विशेष भाव में लौटने के
लिए लगातार अग्रसर हो रहे हैं। यदि यह बात स्वीकार कर ली जाए, तो प्रश्न यह
उठता है कि वह निर्विशेष अवस्था श्रेष्ठतर है अथवा यह वर्तमान अवस्था? संसार
में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो समझते हैं कि यह व्यक्त अवस्था ही मनुष्य की
सबसे ऊँची अवस्था है। कई चिंतनशील मनीषियों का मत है कि हम एक निर्विशेष सता
के व्यस्त रूप है, और यह सविशेष अवस्था निर्विशेष अवस्था से श्रेष्ठ है। वे
सोचते हैं कि निर्विशेष सत्ता में कोई गुण नहीं रह सकता, अतः वह अवश्य अचेतन
है, जड़ है, प्राणशून्य है, और यह सोचकर वे धारणा कर लेते हैं कि केवल इस जीवन
में ही सुखभोगसंभव है, अतएव इस जीवन के सुख में ही हमें आसक्त रहना चाहिए। अब
हम पहले देखें, इस जीवन समस्या के और कौन कौन से समाधान है, पहले उनके बारे
में चर्चा की जाए। इस संबंध में एक प्राचीन सिद्धांत यह था कि मनुष्य मरने के
बाद, जैसा पहले था, वैसा ही रहता है, केवल उसके सारे अशुभ चले जाते हैं और
उसका जो कुछ शुभ है, वही अनंत काल के लिए बच रहता है। यदि तर्कसंगत भाषा में
इस सत्य को रखा जाए, तो वह ऐसा रूप लेता है कि यह संसार ही मनुष्य का चरम
लक्ष्य है और इस संसार की ही कुछ उच्चावस्था को, जहाँ उसके सारे अशुभ निकल
जाते हैं और केवल शुभ ही शुभ बच रहता है, स्वर्ग कहते हैं। यह बड़ी आसानी से
समझा जा सकता है कि यह मत नितांत असंगत और बच्चों की बात के समान है, क्योंकि
ऐसा हो ही नहीं सकता। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि शुभ है, पर अशुभ नहीं, अथवा
अशुभ है, पर शुभ नहीं। जहाँ कुछ भी अशुभ नहीं है, सब शुभ ही शुभ है, ऐसे संसार
में वास करने की कल्पना, भारतीय नैयायिकों के अनुसार, शिवा-स्वप्न देखना है।
फिर, एक और मतवाद बहुत से संप्रदायों से सुना जाता है; वह यह कि मनुष्य लगातार
उन्नति कर रहा है, चरम लक्ष्य तक पहुँचने का सतत संघर्ष कर रहा है, किंतु कभी
भी वहाँ तक पहुँच न सकेगा। यह मत ऊपर से सुनने में तो बड़ा युक्तिसंगत मालूम
होता है, पर यह भी वस्तुतः बिल्कुल असंगत ही है, क्योंकि कोई भी गति एक सरल
रेखा में नहीं होती। प्रत्येक गति वर्तुलाकार में ही होती है। यदि तुम एक
पत्थर लेकर आकाश में फेंको, उसके बाद यदि तुम्हारा जीवन काफ़ी हो और पत्थर के
मार्ग में कोई बाधा न आए, तो घूमकर वह ठीक तुम्हारे हाथ में वापस आ जाएगा। यदि
एक सरल रेखा अनंत दूरी तक बढ़ाईजाए, तो वह अंत में एक वृत्त का रूप धारण कर
लेगी। अतएव यह मत कि मनुष्य का भाग्य सदैव अनंत उन्नति की ओर है--उसका कहीं भी
अंत नहीं, सर्वथा असंगत है। प्रसंग के थोड़ा बाहर होने पर भी मैं अब इस
पूर्वोक्त मत के बारे में दो-एक बातें कहूँगा। नीतिशास्त्र कहते हैं, किसी के
भी प्रति घृणा मत करो--सबको प्यार करो। नीतिशास्त्र के इस सत्य का स्पष्टीकरण
पूर्वोक्त मत से हो जाता है। विद्युत्-शक्ति के बारे में आधुनिक मत यह है कि
वह डाइनेमो से बाहर निकल, घूमकर फिर से उसी यंत्र में लौट आती है। प्रेम और
घृणा के बारे में भी यही नियम लागू होता है। अतएव किसीसे घृणा करनी उचित नहीं,
क्योंकि यह शक्ति--यह घृणा, जो तुममें से बहिर्गत होगी, घूमकर कालांतर में फिर
तुम्हारे ही पास वापस आ जाएगी। यदि तुम मनुष्यों को प्यार करो, तो वह प्यार
धूम-फिरकर तुम्हारे पास ही लौट आएगा। यह अत्यंत निश्चित सत्य है कि मनुष्य के
मन से घृणा का जो कुछ अंश बाहर निकलता है, वह अंत में उसीके पास अपनी पूरी
शक्ति से लौट आता है। कोई भी इसकी गति रोक नहीं सकता। इस प्रकार प्रेम का
प्रत्येक संवेग भी उसीके पास लौट आता है।
हम और भी अन्यान्य प्रत्यक्ष बातों पर आधारित बहुत सी युक्तियों से यह
प्रमाणित कर सकते हैं कि यह अनंत उन्नति संबंधी मत ठहर नहीं सकता। हम तो यह
प्रत्यक्ष देखते हैं कि सारी भौतिक वस्तुओं की एक ही अंतिम मति है, और वह है
विनाश। हमारे ये सारे संघर्ष, सारी आशाएँ, भय और सुख-इन सबका आखिर परिणाम क्या
है? मृत्यु ही हम सबकी चरम गति है। इससे अधिक निश्चित और कुछ भी नहीं। तब फिर
यह सरल रेखा में गति कहाँ रही? यह अनंत उन्नति कहाँ रही? यह तो केवल थोड़ी दूर
जाना है और फिर से उस केंद्र में लौट आना है, जहाँ से गति शुरू होती है। देखो,
निहारिका (nebulae) से किस प्रकार सूर्य, चंद्रमा और तारे पैदा होते हैं, और
फिर से उसीमें समा जाते हैं। ऐसा ही सर्वत्र हो रहा है। पेड़-पौधे मिट्टी से
ही सार ग्रहण करते हैं और सड़ गलकर फिर से मिट्टी में ही मिल जाते हैं।
प्रत्येक रूपाकार पदार्थ अपने चारो ओर वर्तमान परमाणुओं से पैदा होकर फिर से
उन परमाणुओं में ही मिल जाता है। यह कभी हो नहीं सकता कि एक ही नियम अलग -अलग
स्थानों में अलग अलग रूप से कार्य करे। नियम सर्वत्र ही समान है। इससे अधिक
निश्चित बात और कुछ नहीं हो सकती। यदि यही प्रकृति का नियम हो, तो वह
अंतर्जगत् पर क्यों नहीं लागू होगा? मन भी अपने उत्पत्ति-स्थान में जाकर लय को
प्राप्त करेगा। हम चाहें या न चाहें, हमें अपने उस आदि कारण में लौट ही जाना
पड़ेगा, जिसे ईश्वर या निरपेक्ष सत्ता कहते हैं। हम ईश्वर से आए हैं, और पुनः
ईश्वर में ही लौट जाएंगे। इस ईश्वर को फिर किसी भी नाम से क्यों न पुकारो--गॉड
(God) कहो, निरपेक्ष सत्ता कहो, अथवा प्रकृति कहो, सब एक ही बात है। यतो वा
इमानि भूतानि जाएते। येन जातानि जीवन्ति। यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।
[1]
--'जिनसे सब पैदा हुए हैं, जिनमें उत्पन्न हुए समस्त प्राणी स्थित हैं और
जिनमें सब फिर से लौट जाएंगे।' यह एक निश्चित तथ्य है। प्रकृति सर्वत्र एक ही
नियम से कार्य करती है। एक लोक में जो नियम कार्य करता है, दूसरे लाखों लोकों
में भी वह नियम कार्य करेगा। ग्रहों में जो व्यापार देखने में आता है, इस
पृथ्वी, मनुष्य और सभी में भी वही व्यापार चल रहा है। एक बड़ी लहर लाखों छोटी
छोटी लहरों से बनी होती है। उसी प्रकार सारे जगत का जीवन लाखों छोटे छोटे
जीवनों की एक समष्टि मात्र है; और इन सब लाखों छोटे छोटे जीवों की मृत्यु ही
समस्त जगत की मृत्यु है।
अब प्रश्न उठता है कि भगवान् में वापस जाना उच्चतर अवस्था है या निम्नतर?
योगमतावलंबी दार्शनिकगण इस बात के उत्तर में दृढ़तापूर्वक कहते हैं, "हाँ, यह
उच्चतर अवस्था है।" वे कहते हैं कि मनुष्य की वर्तमान अवस्था एक अवनत अवस्था
है। इस धरती पर ऐसा कोई धर्म नहीं, जो कहता हो कि मनुष्य पहले की अपेक्षा आज
अधिक उन्नत है। इसका भाव यह है कि मनुष्य प्रारंभ में शुद्ध और पूर्ण रहता है,
फिर उसकी अवनति होने लगती है और एक अवस्था ऐसी आ जाती है, जिसके नीचे वह और
भ्रष्ट नहीं हो सकता। तब वह पुनः अपना वृत्त पूरा करने के लिए ऊपर उठने लगता
है। उसे वृत्त की पूर्ति करनी ही पड़ती है। वह कितने भी नीचे क्यों न चला जाए,
अंत में उसे वृत्त का ऊपरी मोड़ लेना ही पड़ता है अपने आदिकारण भगवान् में
वापस आना ही पड़ता है। मनुष्य पहले भगवान् से आता है, मध्य में वह मनुष्य के
रूप में रहता है और अंत में पुनः भगवान् के पास वापस चला जाता है। यह हुई
द्वैतवाद की भाषा। अद्वैतवाद की भाषा में यह भाव व्यक्त करने पर कहना पड़ेगा
कि मनुष्य भगवान् है, और घूमकर फिर उन्हीं में लौट जाता है। यदि हमारी वर्तमान
अवस्था ही उच्चतर अवस्था हो, तो संसार में इतने दुःख-कष्ट, इतनी सब भयावह
घटनाएँ क्यों भरी पड़ी हैं? यदि यही उच्चतर अवस्था हो, तो इसका अवसान क्यों
होता है? जिसमें भ्रष्ट और पतन होता हो, वह कभी भी सबसे ऊँची अवस्था नहीं हो
सकती। यह जगत इतने पैशाचिक भावों से क्यों भरा हो--वह इतना अतृप्तिकर क्यों
हो? इसके पक्ष में बहुत हुआ, तो इतना ही कहा जा सकता है कि इसमें से होकर हम
एक उच्च तर रास्ते में जा रहे हैं। पुनः उन्नत अवस्था प्राप्त करने के लिए
हमें इसमें से होकर गुज़रना पड़ रहा है। जमीन में बीज बो दो, वह गलकर--विशिष्ट
होकर कुछ समय बाद मिट्टी के साथ बिल्कुल मिल जाएगा, फिर उसी विश्लिष्ट अवस्था
से एक महाकाय वृक्ष उत्पन्न होगा। इस महाकाय वृक्ष के उत्पन्न होने के लिए
प्रत्येक बीज को सड़ना पड़ेगा। उसी प्रकार ब्रह्मभावापन्न होने के
लिए--ब्रह्मस्वरूप हो जाने के लिए प्रत्येक जीवात्मा को इस अवनति की अवस्था
में से होकर जाना पड़ेगा। अतएव यह स्पष्ट है कि हम जितनी जल्दी इस
'मानव'-संज्ञक अवस्था विशेष का अतिक्रमण कर उसके ऊपर चले जाएँ, उतना ही हमारा
कल्याण है। तो क्या आत्महत्या करके हमें इस अवस्था के बाहर होना होगा नहीं,
कभी नहीं। वरन् उससे तो उलटा ही फल होगा। शरीर को ध्यर्थ में कष्ट देना अथवा
संसार को वृथा कोसना इस संसार से तरने का उपाय नहीं है। उसके लिए तो हमें इस
नैराश्य के पंकिल सरोवर में से होकर जाना पड़ेगा; और जितनी जल्दी हम उसे पार
कर जाएँ, उतना ही मंगल है। पर यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य अवस्था ही
सबसे ऊँची अवस्था नहीं है।
यहाँ यह बात समझना सचमुच कठिन है कि जिस निर्विशेष अवस्था को सबसे ऊँची अवस्था
कही जाती है, वह, जैसा कि बहुत से लोग शंका करते हैं, पत्थर या
अर्घजंतु-अर्धवृक्षवत् कोई जीवविशेष के समान नहीं है। जो लोग ऐसा सोचते है
उनके मत से संसार भर के सारे अस्तित्व केवल दो भागों में विभक्त हैं--एक तो
वह, जो पत्थर आदि के समान जड़ की अवस्था है, और दूसरा वह, जो विचार की अवस्था
है। किंतु हम उनसे पूछते हैं कि सारे अस्तित्व को इन दो ही भागों में सीमित कर
देने का उन्हें क्या अधिकार है? क्या विचार से अनंतगुनी अधिक ऊँची और कोई
अवस्था नहीं है? आलोक का कंपनअत्यंत मृदु होने पर वह हमे दृष्टिगोचर नहीं
होता। जब वह कंपन अपेक्षाकृत कुछ तीव्र होता है, तब नह हमारी दृष्टि का विषय
हो जाता है--तब हमारी आँखों के सामने वह आलोक के रूप में दीख पड़ता है। पर जब
वह और भी तीव्र हो जाता है, तब हम पुनः उसे नहीं देख पाते। वह हमें अंधकार के
समान ही प्रतीत होता है। तो क्या यह बाद का अंधकार उस पहले अंधकार के समान है?
नहीं, कभी नहीं; उन दोनों में तो दो ध्रुवों का--जमीन-आसमान का--अंतर है। क्या
पत्थर की विचार शून्यता और भगवान् की विचारशून्यता दोनों एक हैं? बिल्कुल
नहीं। भगवान् सोचते नहीं--वे तर्क करते नहीं। वे भला करेंगे भी क्यों? उनके
लिए क्या कुछ अज्ञात है, जो वे तर्क करेंगे? पत्थर तर्क करता नहीं, और ईश्वर
तर्क करता नहीं--बस, यहीं अंतर है। ये दार्शनिकगण सोचते हैं कि विचार के परे
जाना अत्यंत भयानक बात है। वे विचार के परे कुछ भी नहीं पाते।
युक्ति-तर्क के परे अस्तित्व की अनेक उच्चतर अवस्थाएँ हैं। वास्तव में धर्म
जीवन की पहली अवस्था तो बुद्धि की सीमा लाँघने पर शुरू होती है। जब तुम विचार,
बुद्धि, युक्ति-इन सबके परे चले जाते हो, तभी तुमने भगवत्प्राप्ति के पथ में
पहला कदम रखा है। वही जीवन का सच्चा प्रारंभ है। जिसे हम साधा रणतः जीवन कहते
हैं, वह तो असल जीवन की भ्रूण-अवस्था मात्र है।
अब प्रश्न हो सकता है कि विचार और युक्ति-तर्क के अतीत की अवस्था ही सबसे ऊँची
अवस्था है, इसका क्या प्रमाण? पहले तो, संसार के श्रेष्ठ महापुरुष गण--कोरी
लंबी-चौड़ी हाँकनेवालों की अपेक्षा कहीं श्रेष्ठ महापुरुषगण, जिन्होंने अपनी
शक्ति के बल से संपूर्ण जगत को हिला दिया था, जिनके हृदय में स्वार्थ का
लेशमात्र न था, जगत के सामने घोषणा कर गए हैं कि हमारा यह जीवन उस सर्वातीत
अनंतस्वरूप में पहुँचने के लिए रास्ते में केवल एक क्षुद्र अवस्था है। दूसरे,
उन्होंने केवल मुख से ऐसा कहा हो, सो नहीं, वरन् उन्होंने सभी को वहां जाने का
रास्ता बतला दिया है, अपनी साधन-प्रणाली सभी को समझा दी है, जिससे सब लोग उनका
पदानुसरण कर आगे बढ़ सके। तीसरे, पहले जो व्याख्या दी गई है, उसको छोड़
जीवन-समस्या की और किसी प्रकार से संतोषजनक व्याख्या नहीं दी जा सकती। यदि मान
लिया जाए कि इसकी अपेक्षा उच्चतर अवस्था और कोई नहीं है, तो भला हम लोग चिरकाल
इस वृत्त के माध्यम से क्यों जा रहे हैं? किस युक्ति के आधार पर इस दृश्यमान
जगत की व्याख्या की जाए? यदि हममें इससे अधिक दूर जाने की शक्ति न रहे, यदि
हमारे लिए इसकी अपेक्षा कुछ अधिक चाहने को न रहे, तब तो यह पंचेन्द्रिय
ग्राह्य जगत ही हमारे ज्ञान की चरम सीमा रह जाएगा। इसीको अज्ञेयवाद कहते हैं।
किंतु प्रश्न यह है कि इन इंद्रियों की गवाही में विश्वास करने के लिए भला
हमारे पास कौन सी युक्ति है? मैं तो उन्हींको यथार्थ अज्ञेयवादी कहूँगा, जो
रास्ते में चुप खड़े रहकर मर सकते हैं। यदि युक्ति ही हमारा सर्वस्व हो, तो वह
तो हमें इस शून्यवाद को लेकर संसार में स्थिर होकर कहीं रहने न देगी। यदि कोई
धन और नाम-यश की स्पृहा को छोड़ शेष सभी विषयों के संबंध में अजेयवादी हो, तो
वह केवल पाखंडी है। कान्ट (Kant) ने नि संदिग्ध रूप से प्रमाणित किया है कि हम
युक्ति-तकरूपी दुर्भेद्य दीवार का अतिक्रमण कर उसके उस पार नहीं जा सकते।
किंतु भारत में तो समस्त विचारधाराओं की पहली बात है--युक्ति के उस पार चले
जाना। योगीगण अत्यंत साहस के साथ इस राज्य की खोज में प्रवृत्त होते हैं, और
अंत में ऐसी एक अवस्था को प्राप्त करने में सफल होते हैं, जो समस्त
युक्ति-तर्क के परे है और जिसमें ही केवल हमारी वर्तमान परिदृश्यमान अवस्था का
स्पष्टीकरण मिलता है। यही लाभ है उसके अध्ययन से, जो हमें जगत के अतीत ले जाता
है। त्वं हि नः पिता, योऽस्माकमविद्यायाः परं पार तारयति। "तुम हमारे पिता हो,
तुम हमें अज्ञान के उस पार ले जाओगे।"
[2]
यही धर्मविज्ञान है, और कुछ भी नहीं।
प्रथम अध्याय
समाधिपाद
अथ योगानुशासनम् ॥१॥
१. अब योग को व्याख्या करते हैं।
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥२॥
२. चित्त को वृत्तियों अर्थात् विभिन्न आकार में परिणत होने से रोकना ही योग
है।
यहाँ बहुत सी बातें समझाने की आवश्यकता है। पहले हमें यह समझ लेना होगा कि यह
चित्त और ये वृत्तियाँ क्या है। मेरी ये आँखें हैं। आँखें वास्तव में नहीं
देखतीं। यदि मस्तिष्क में स्थित दर्शनेन्द्रिय या दर्शन-शक्ति को नष्ट कर दो,
तो भले ही तुम्हारी आँखें रहें, आँखों की पुतलियाँ भी साबूत रहें और आँख के
ऊपर जिस छबि के पड़ने से दर्शन होता है, वह भी रहे, पर फिर भी आँखें देख न
सकेंगी। अतः आँख दर्शन का गौण यंत्र मात्र हुई। वह वास्तव में दर्शनेन्द्रिय
नहीं है। दर्शनेन्द्रिय तो मस्तिष्क के अंतर्गत स्नायु-केंद्र में अवस्थित है।
अतएव हमने देखा कि दर्शन-क्रिया के लिए केवल दो आँखें ही पर्याप्त नहीं हैं।
कभी कभी मनुष्य आँखें खुली रखकर सो जाता है। वस्तु का चित्र आँखों पर बना हुआ
है, दर्शनेन्द्रिय भी है, पर और एक तीसरी वस्तु की आवश्यकता है और वह है मन।
मन को इंद्रिय के साथ संयुक्त रहना चाहिए। अतः दर्शन-क्रिया के लिए चक्षुरूप
बहिर्यन्त्र, मस्तिष्क में स्थित स्नायु-केंद्र और मन--ये तीन चीजें चाहिए।
कभी कभी ऐसा होता है कि रास्ते से गाड़ियाँ दौड़ती हुई निकल जाती हैं, पर तुम
उन्हें सुन नहीं पाते। क्यों? इसलिए कि तुम्हारा मन श्रवणेन्द्रिय के साथ
संयुक्त नहीं रहता। अतएव, प्रत्येक अनुभव-क्रिया के लिए पहले तो बाहर का
यंत्र, उसके बाद इंद्रिय, और तृतीयतः, इन दोनों के साथ मन का योग चाहिए। मन,
विषय के अभिघात से उत्पन्न हुई संवेदना को और भी अंदर ले जाकर निश्चयात्मिका
बुद्धि के सामने पेश करता है। तब बुद्धि से प्रतिक्रिया होती है। इस
प्रतिक्रिया के साथ अहं-भाव जाग उठता है। फिर क्रिया और प्रतिक्रिया का यह
मिश्रण पुरुष अर्थात् प्रकृत आत्मा के सामने लाया जाता है। तब वे पुरुष इस
मिश्रण को एक (ससीम) वस्तु के रूप में अनुभव करते हैं। पाँचों इंद्रिय, मन,
निश्चयात्मिका बुद्धि और अहंकार को मिलाकर अंतःकरण कहते हैं। ये सब मन के
उपादानस्वरूप चित्त के भीतर होनेवाली भिन्न-भिन्न प्रक्रियाएँ हैं। चित्त में
उठने वाली विचार-तरंगों को वृत्ति (भँवर) कहते हैं। अब प्रश्न यह है कि यह
विचार है क्या चीज? गुरुत्वाकर्षण या विकर्षण-शक्ति के समान विचार भी एक शक्ति
है। प्रकृति के अनंत शक्ति-भंडार से चित्त नामक करण कुछ शक्ति को ग्रहण कर
लेता है, अपने में आत्मसात कर लेता है और उसे विचार के रूप में बाहर भेजता है।
यह शक्ति हमें खाद्यान्न के जरिये प्राप्त होती है और इस खाद्यान्न से शरीर
गति आदि की शक्ति प्राप्त करता है। दूसरी अर्थात् सूक्ष्मतर शक्तियों को वह
विचार के रूप में बाहर भेजता है। अतएव मन चेतन नहीं है। फिर भी वह चेतन सा
प्रतीत होता है। क्यों? इसलिए कि चेतन आत्मा उसके पीछे है। तुम्ही एकमात्र
चेतन पुरुष हो--मन तो केवल एक करण अर्थात् यंत्र मात्र है, जिसके माध्यम से
तुम बाह्य जगत की उपलब्धि करते हो। इस पुस्तक की ही बात लो; बाहर इसका
पुस्तकरूपी अस्तित्व नहीं है। बाहर वस्तुतः जो है, वह तो अज्ञात और अज्ञेय है।
वह केवल संकेत देनेवाला कारण मात्र है। जैसे पानी में एक पत्थर फेंकने पर पानी
प्रवाहाकार में बँटकर उस पत्थर पर प्रतिघात करता है, ठीक वैसे ही वह अज्ञात
वस्तु जाकर मन में आघात प्रदान करती है, और मन से पुस्तक के रूप में एक
प्रतिक्रिया होती है। यथार्थ बहिर्जगत् तो संकेत देनेवाला कारण मात्र है,
जिससे मानसिक प्रतिक्रिया होती है। एक पुस्तक का रूप, हाथी का रूप या मनुष्य
का रूप बाहर कोई अस्तित्व नहीं रखता; हम जो कुछ जानते हैं, वह बाहर के संकेत
से होनेवाली हमारी मानसिक प्रतिक्रिया मात्र है। जॉन स्टुअर्ट मिल ने कहा है,
'संवेदना की नित्य सम्भाव्यता का नाम भौतिक पदार्थ है।' बाहर जो है, वह है
केवल इस प्रतिक्रिया को उत्पन्न करने वाला संकेत मात्र। उदाहरणार्थ, मोती की
एक सीप को लो। तुम लोग जानते हो, मोती किस तरह पैदा होता है। कोई पराश्रयी
कीटाणु सीप में घुस जाता है और उसमें क्षोभ उत्पन्न करने लगता है। इससे वह सीप
उस कीटाणु के चारों ओर 'एनामेल' के समान एक प्रकार का लेप सा डालने लगती है।
बस, उसी से मोती तैयार होता है। यह सारा अनुभवात्मक जगत मानो हमारे अपने उस
लेप के समान है, और यथार्थ जगत मानो केंद्र के रूप में कीटाणु है। सामान्य
मनुष्य उसे कभी समझ न सकेगा, क्योंकि जब कभी वह उसे समझने की कोशिश करता है,
त्यों ही वह बाहर मानो अपना लेप डालने लगता है, और वस, अपने उस लेप को ही
देखता है। अब हम समझे कि वृत्ति का सच्चा अर्थ क्या है। मनुष्य का जो असल
स्वरूप है, वह मन के अतीत है। मन तो उसके हाथों एक यंत्रस्वरूप है। उसी का
चैतन्य इस मन के माध्यम से अनस्रवित हो रहा है। जब तुम इस मन के पीछे
द्रष्टारूप से स्थित हो जाते हो, तभी वह चैतन्यमय होता है। जब मनुष्य इस मन को
बिल्कुल त्याग देता है, तो उस मन का संपूर्ण नाश हो जाता है, उसका अस्तित्व ही
नहीं रह जाता। अब समझ में आया कि चित्त का क्या तात्पर्य है। वह मन का
उपादानस्वरूप है, और वृत्तियाँ उस पर उठनेवाली लहरें और तरंगें हैं। जब बाहर
के कुछ कारण उस पर कार्य करने लगते हैं, त्यों ही वह तरंग रूप धारण कर लेता
है। हम जिसे जगत कहते हैं, वह तो इन वृत्तियों की समष्टि मात्र है।
हम लोग सरोवर की तली को नहीं देख सकते, क्योंकि उसकी सतह छोटी छोटी लहरों से
व्याप्त रहती है। उस तली की झलक मिलनी तभी संभव है, जब ये सारी लहरें शांत हो
जाएँ और पानी स्थिर हो जाए। यदि पानी गँदला हो, या सारे समय उसमें हलचल होती
रहे, तो वह तली कभी दिखाई न देगी। पर यदि पानी निर्मल हो और उसमें एक भी लहर न
रहे, तब हम उस तली को अवश्य देख सकेंगे। यह चित्त मानो उस सरोवर के समान है और
हमारा असल स्वरूप मानो उसकी तली है। वृत्तियाँ उस पर उठनेवाली लहरें हैं। फिर
यह भी देखा जाता है कि यह मन तीन प्रकार की अवस्थाओं में रहता है। एक है तम की
अर्थात् अंधकारमय अवस्था, जैसा कि हम पशुओं और अत्यंतमूर्खों में पाते हैं।
ऐसे मन की प्रवृत्ति केवल औरों को अनिष्ट पहुँचाने में ही होती है। मन की इस
अवस्था में और दूसरा कोई विचार ही नहीं सूझता। दूसरा है--रज अर्थात् मन की
क्रियाशील अवस्था, जिसमें केवल प्रभुत्व और भोग की इच्छा रहती है। उस समय यही
भाव रहता है कि मैं शक्तिमान होऊँगा और दूसरों पर प्रभुत्व करूँगा। तीसरा
है--सत्त्व अर्थात् मन की गंभीर और शांत अवस्था, जिसमें समस्त तरंगें शांत हो
जाती हैं और मानस-सरोवर का जल निर्मल हो जाता है। यह कोई जड़ावस्था नहीं है,
प्रत्युत यह तो तीन क्रियाशील अवस्था है। शांत होना शक्ति की महत्तम
अभिव्यक्ति है। क्रियाशील होना तो सहज है। बस लगाम ढीली कर दो, तो घोड़े स्वयं
तुम्हें भगा ले जाएंगे। यह तो कोई भी कर सकता है। पर शक्तिमान पुरुष तो वह है,
जो इन तेज घोड़ों को थाम सके। किसमें अधिक शक्ति लगती है लगाम ढीली कर देने
में अथवा उसे थामे रखने में? शांत मनुष्य और मंदबुद्धि वाले मनुष्य एक समान
नहीं हैं। सत्व को कहीं मंदबुद्धि या आलस्य न समझ बैठना। शांत मनुष्य वह है,
जो मन की इन लहरों को अपने वश में लाने में समर्थ हुआ है। क्रियाशीलता निम्नतर
शक्ति की अभिव्यक्ति है और शांत भाव उच्चतर शक्ति की।
यह चित्त अपनी स्वाभाविक पवित्र अवस्था को फिर से प्राप्त करने के लिए सतत
चेष्टा कर रहा है, किंतुइंद्रियाँ उसे बाहर खींचे रखती हैं। उसका दमन करना,
उसकी इस बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकना और उसे लौटाकर उस चैतन्यघन पुरुष के
पास ले जानेवाले रास्ते पर लाना--यही योग का पहला सोपान है; क्योंकि केवल इसी
उपाय से चित्त अपने यथार्थ रास्ते पर आ सकता है।
यद्यपि उच्चतम से लेकर निम्नतम तक सभी प्राणियों में यह चित्त विद्यमान है,
तथापि केवल मनुष्य-शरीर में ही हम उसे बुद्धि-रूप में विकसित देख पाते हैं। जब
तक यह चित्त बुद्धि का रूप धारण नहीं कर लेता, तब तक उसके लिए इन सब विभिन्न
सोपानों में से होते हुए लौटकर आत्मा को मुक्त करना संभव नहीं। यद्यपि गाय या
कुत्ते के भी मन है, पर उनके लिए सद्योमुक्ति असंभव है; क्योंकि उनका चित्त
अभी बुद्धि का रूप धारण नहीं कर सकता।
यह चित्त अवस्था-भेद से बहुत से रूप धारण करता है, जैसे--क्षिप्त, मूढ़,
विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। क्षिप्त में मन चारों ओर बिखर जाता है और कर्म
वासना प्रबल रहती है। इस अवस्था में मन की प्रवृत्ति केवल सुख और दुःख, इन दो
भावों में ही प्रकाशित होने की होती है। मूढ़ अवस्था तमोगुणात्मक है और इसमें
मन की प्रवृत्ति केवल औरों का अनिष्ट करने में होती है। विक्षिप्त (क्षिप्त से
विशिष्ट) अवस्था वह है, जब मन अपने केंद्र की ओर जाने का प्रयत्न करता है।
यहाँ पर भाष्यकार कहते हैं कि विक्षिप्त अवस्था देवताओं के लिए स्वाभाविक है
और क्षिप्त तथा मूढ़ावस्था असुरों के लिए। एकाग्र अवस्था तभी होती है, जब मन
निरुद्ध होने के लिए प्रयत्न करता है और निरुद्ध अवस्था ही हमें समाधि में ले
जाती है।
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्॥३॥
३. उस समय (अर्थात् इस निरोष की अवस्था में) अष्टा (पुरुष) अपने
(अपरिवर्तनशील) स्वरूप में अवस्थित रहते हैं।
ज्यों ही लहरें शांत हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है, त्यों ही हम सरोवर
की तली को देख पाते हैं। मन के बारे में भी ठीक ऐसा ही समझो। जब यह शांत हो
जाता है, तब हम देख पाते हैं कि अपना असल स्वरूप क्या है। फिर हम उन तरंगों के
साथ अपने आपको एकरूप नहीं कर लेते, वरन् अपने स्वरूप में अवस्थित रहते हैं।
वृत्तिसारूप्यमितरत्र ॥४॥
४. (इस निरोध को अवस्था को छोड़कर) दूसरे समय में द्रष्टा वृत्ति के साम एकरूप
होकर रहते हैं।
उदाहरणार्थ, मान लो, किसीने मेरी निंदा की। बस, वह मेरे मन में एक वृत्ति उठा
देता है और मैं उसके साथ अपने आपको एकरूप कर देता हूँ। इसका परिणाम होता
है--दुःख।
वृत्तयः पंचतय्य: क्लिष्टाक्लिष्टाः॥५॥
५. वृत्तियों पाँच प्रकार की हैं--(कुछ) क्लेशयुक्त और (कुछ) क्लेशशून्य।
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ॥६॥
६. (ये हैं) प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति अर्थात् सत्यज्ञान,
भ्रमज्ञान, शब्द-भ्रम, निद्रा और स्मृति।
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ॥७॥
७. प्रत्यक्ष अर्थात् साक्षात् अनुभव, अनुमान और आगम अर्थात् विश्वस्त लोगों
के वाक्य--(ये तीन) प्रमाण हैं।
जब हमारी दो अनुभूतियाँ आपस में विरोधी नहीं होती, तब उसे हम प्रमाण कहते हैं।
मान लो, मैंने कुछ सुना; यदि वह पहले अनुभव की हुई किसी बात का खंडन करे, तो
मेरे भीतर उसके विरुद्ध तर्क-वितर्क होने लगते हैं और मैं उस पर विश्वास नहीं
करता। प्रमाण के फिर तीन प्रकार हैं। साक्षात् अनुभव या प्रत्यक्ष--यह एक
प्रकार का प्रमाण है। यदि हम किसी प्रकार आँख और कान के प्रेम में न पड़े हों,
तो हम जो कुछ देखते या अनुभव करते हैं, उसे प्रत्यक्ष कहा जाएगा। मैं इस
दुनिया को देखता हूँ; बस, यह उसके अस्तित्व का पर्याप्त प्रमाण है। दूसरा है
अनुमान--लक्षण से लक्ष्य वस्तु पर आना। तुमने कोई संकेत देखा और उससे तुम उस
लक्ष्य वस्तु पर आ गए, जिसका कि वह संकेत है। तीसरा है आप्तवाक्य--योगियों
अर्थात् सत्यद्रष्टा ऋषियों की प्रत्यक्ष अनुभूति। हम सभी ज्ञान की प्राप्ति
के लिए सतत संघर्ष कर रहे हैं। पर तुम्हें और मुझे उसके लिए कठोर संघर्ष करना
पड़ता है, दीर्घ काल तक विचाररूप क्लान्तिकर रास्ते से होकर अग्रसर होना पड़ता
है; किंतु विशुद्धसत्त्व योगी इन सबके पार चले गए हैं। उनके मनश्चक्ष के सामने
भूत, भविष्य और वर्तमान सब एक हो गए हैं, उनके लिए वे सब मानो एक पाठ्य पुस्तक
के समान हैं। हम लोगों को ज्ञान-लाभ के लिए जिस क्लान्तिकर प्रक्रिया में से
होकर जाना पड़ता है, उनके लिए उसकी फिर और आवश्यकता नहीं रह जाती। उनका वाक्य
ही प्रमाण है, क्योंकि वे अपने भीतर ही सारे ज्ञान की उपलब्धि करते हैं। ऐसे
व्यक्ति ही पवित्र शास्त्रग्रंथों के प्रणेता हैं, और इसीलिए शास्त्र प्रमाण
हैं। यदि वर्तमान समय में ऐसे मनुष्य कोई हों, तो उनकी बात भी अवश्य प्रमाण
होगी। दूसरे दार्शनिकों ने इस आप्त के बारे में बहुत से तर्क वितर्क किए हैं।
उनका प्रश्न है कि आप्तवाक्य को सत्य क्यों माना जाए? इसका उत्तर यह है कि वह
उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति है। यदि वह पहले किए हुए अनुभव की विरोधी न हो, तो मैं
जो कुछ देखता हूँ, वह प्रमाण है और तुम भी जो कुछ देखते हो, वह प्रमाण है। ठीक
इसी तरह इंद्रियों के भी अतीत एक ज्ञान है। और जव कभी यह ज्ञान युक्ति और
मनुष्य की पूर्वानुभूति का खंडन नहीं करता, तब वह भी प्रमाण है। यदि कोई पागल
इस कमरे में घुस आए और कहने लगे, "मैं चारों ओर देवदूत देख रहा हूँ", तो वह
प्रमाण न कहा जाएगा। पहले तो, वह ज्ञान सत्य होना चाहिए। दूसरे, वह पहले के
किसी ज्ञान का खंडन न करे। और तीसरे, वह उस मनुष्य के चरित्र पर आधारित हो।
मैंने बहुतों को यह कहते सुना है कि मनुष्य का चरित्र उतने महत्त्व का नहीं
है, जितना कि उसके शब्द; वह क्या कहता है, बस, उसी को पहले सुनो। अन्य विषयों
के संबंध में यह बात भले ही सत्य हो, पर धर्म के संबंध में तो यह संभव नहीं।
एक व्यक्ति दुष्ट स्वभाववाला होता हुआ भी ज्योतिष के बारे में कुछ आविष्कार कर
सकता है, पर धर्म के बारे में बात अलग है; क्योंकि कोई भी अपवित्र मनुष्य धर्म
के यथार्थ सत्य को किसी काल में प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव, सबसे पहले हमें
देखना होगा कि जो व्यक्ति अपने आपको आप्त कहकर ढिंढोरा पीटता है, वह पूर्णतया
नि:स्वार्थ और पवित्र है अथवा नहीं। दूसरे, उसने अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति
की है या नहीं। तीसरे, वह जो कुछ कहता है, वह मनुष्य-जाति के किसी पूर्व ज्ञान
या पूर्वानुभव का खंडन तो नहीं करता। आविष्कृत कोई भी नया सत्य पूर्वकालीन
किसी सत्य का खंडन नहीं करता, वरन् वह तो पूर्व सत्य के साथ पूरी तरह मेल खाता
है। और चौथे, दूसरों के लिए उस सत्य की प्राप्ति करना संभव होना चाहिए। यदि
कोई मनुष्य कहे कि मुझे एक दर्शन हुआ है और साथ ही यह भी बोले कि उसे मैं ही
देख सकता हूँ--और किसी के वश की वह बात नहीं, तो मैं उसकी बात पर विश्वास नहीं
करता। प्रत्येक मनुष्य स्वयं प्रत्यक्ष उपलब्धि करके यह देख सके कि वह सत्य है
या नहीं। फिर, जो व्यक्ति अपना शान बेचता फिरता है, वह आप्त नहीं है। ये सब
शर्ते अवश्य पूरी होनी चाहिए। तुम्हें पहले देखना होगा कि वह व्यक्ति पवित्र
और निःस्वार्थ है, उसमें रुपया-कौड़ी या नाम यश की तृष्णा नहीं। दूसरे, उसके
जीवन से यह प्रकट होना चाहिए कि वह अति चेतन भूमि पर पहुँच गया है। तीसरे, उसे
हम लोगों को ऐसा कुछ देना चाहिए, जो हम इंद्रियों से न पा सकते हों और जो
संसार के कल्याण के लिए हो। साथ हो, वह किसी दूसरे सत्य का खंडन न करे; यदि वह
दूसरे वैज्ञानिक सत्यों का खंडन करता हो, तो उसे तुरंत त्याग दो। और चौथे, वह
व्यक्ति किसी सत्य की ठेकेदारी न करे, अर्थात् वह ऐसा न कहे कि इस सत्य में
मेरा ही अधिकार है, किसी दूसरे का नहीं। वह अपने जीवन में उसी को कार्यरूप में
परिणत करके दिखाये, जो दूसरों के लिए भी प्राप्त करना संभव हो। अतएव, प्रमाण
तीन प्रकार के हुए प्रत्यक्ष अर्थात् इंद्रियों द्वारा विषयों की अनुभूति,
अनुमान और आप्तवाक्य। मैं इस 'आप्त' शब्द का अंग्रेज़ी में अनुवाद नहीं कर
सकता। इसे दिव्य प्रेरित (inspired) शब्द द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता,
क्योंकि यह प्रेरणा बाहर से आती है, और यहाँ जिस ज्ञान की बात हो रही है, वह
भीतर से आता है। इसका शाब्दिक अर्थ है--'जिन्होंने पाया है।'
विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् ॥८॥
८. विपर्यय का अर्थ है मिथ्याज्ञान, जो उस वस्तु के यथार्थ स्वरूप में
प्रतिष्ठित नहीं है।
दूसरे प्रकार की वृत्ति है--एक वस्तु में किसी दूसरे वस्तु की भ्रांति; जैसे
शुक्ति में रजत का भ्रम। इसे विपर्यय कहते हैं।
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ॥९॥
९. यदि किसी शब्द से सूचित वस्तु का अस्तित्व न रहे, तो उस शब्द से जो एक
प्रकार का ज्ञान उठता है, उसे विकल्प अर्थात् शब्दजात भ्रम कहते हैं।
विकल्प नामक और एक प्रकार की वृत्ति है। कोई बात हम सुनते हैं, और उसके अर्थ
पर शांत भाव से विचार न कर झट से एक सिद्धांत गढ़ लेते हैं। यह चित्त की
कमजोरी का लक्षण है। अब संयमवाद अच्छी तरह समझ में आ सकेगा। मनुष्य जितना
कमजोर होता है, उसकी संयम की शक्ति उतनी ही कम रहती है। तुम अपने आपको सदा इस
संयम की कसौटी पर कसो। जब तुममें क्रोध या दुःखित होने का भाव आए, तो उस समय
विचार करके देखना कि यह कैसे हो रहा है। यह कैसे है कि कोई खबर तुम्हारे पास
आते ही तुम्हारे मन को वृत्तियों में परिणत किए दे रही है।
अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा ॥१०॥
१०. जो वृत्ति शून्यभाव का अवलंबन करके रहती है, उसे निद्रा कहते हैं।
और एक प्रकार की वृत्ति का नाम है निद्रा और स्वप्न। हम जब जाग उठते हैं, तब
हम जान पाते हैं कि हम सो रहे थे। केवल अनुभूति विषय की ही स्मृति हो सकती है।
हम जिसका अनुभव नहीं करते, उस विषय की हमें कोई स्मृति नहीं आ सकती। हर एक
प्रतिक्रिया मानो चित्तरूपी सरोवर की एक तरंग है। अब, यदि निद्रा में मन की
किसी प्रकार की वृत्ति न रहती, तो उस अवस्था में हमें सकारात्मक या नकारात्मक
कोई भी अनुभूति न होती। अतः हम उसका स्मरण भी नहीं कर पाते। हम जो निद्रावस्था
का स्मरण कर सकते हैं, उसी से यह प्रमाणित हो जाता है कि निद्रावस्था में मन
में एक प्रकार की तरंग थी। स्मृति भी एक प्रकार की वृत्ति है।
अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः ॥११॥
११. अनुभव किए हुए विषयों का मन से लोप न होना (और संस्कारवश उनका ज्ञान के
स्तर पर आ उठना) स्मृति कहलाता है।
ऊपर जिन चार प्रकार की वृत्तियों के बारे में कहा गया है, उनमें से प्रत्येक
से स्मृति आ सकती है। मान लो, तुमने एक शब्द सुना। यह शब्द चित्तरूपी सरोवर
में फेंके गए एक पत्थर के समान है; उससे एक छोटी सी लहर पैदा हो जाती है और यह
लहर फिर बहुत सी छोटी छोटी लहरों को उत्पन्न करती है। यही स्मृति है। निद्रा
में भी यही घटना होती रहती है। जब निद्रा नामक लहर विशेष चित्त के अंदर
स्मृतिरूप लहर उत्पन्न कर देती है, तब उसे स्वप्न कहते हैं। जाग्रत अवस्था में
जिसे स्मृति कहते हैं, निद्राकाल में उसी प्रकार की वृत्ति को स्वप्न कहते
हैं।
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१२॥
१२. अभ्यास और वैराग्य से उन (वृत्तियों) का निरोग होता है।
इस वैराग्य को प्राप्त करने के लिए यह विशेष रूप से आवश्यक है कि मन निर्मल,
सत् और विवेकशील हो। अभ्यास करने की क्या आवश्यकता है? प्रत्येक कार्य से मानो
चित्तरूपी सरोवर के ऊपर एक तरंग खेल जाती है। यह कंपन कुछ समय बाद नष्ट हो
जाता है। फिर क्या शेष रहता है? --केवल संस्कारसमूह। मन में ऐसे बहुत से
संस्कार पड़ने पर वे इकट्ठे होकर आदत के रूप में परिणत हो जाते हैं। ऐसा कहा
जाता है कि 'आदत ही द्वितीय स्वभाव है।' केवल द्वितीय स्वभाव नहीं, वरन् वह
'प्रथम' स्वभाव भी है--मनुष्य का समस्त स्वभाव इस आदत पर निर्भर रहता है।
हमारा अभी जो स्वभाव है, वह पूर्व अभ्यास का फल है। यह जान सकने से कि सब कुछ
अभ्यास का ही फल है, मन में शांति आती है। क्योंकि यदि हमारा वर्तमान स्वभाव
केवल अभ्यासवश हुआ हो, तो हम चाहें, तो किसी भी समय उस अभ्यास को नष्ट भी कर
सकते हैं। हमारे मन में जो विचारधाराएँ वह जाती हैं, उनमें से प्रत्येक अपना
एक एक चिह्न या संस्कार छोड़ जाती है। हमारा चरित्र इन सब संस्कारों की
समष्टिस्वरूप है। जब कोई विशेष वृत्ति-प्रवाह प्रबल होता है, तब मनुष्य उसी
प्रकार का हो जाता है। जब सद्गुण प्रबल होता है, तब मनुष्य सत् हो जाता है।
यदि खराब भाव प्रबल हो, तो मनुष्य खराब हो जाता है। यदि आनंद का भाव प्रबल हो,
तो मनुष्य सुखी होता है। असत् अभ्यास का एकमात्र प्रतिकार है--उसका विपरीत
अभ्यास। हमारे चित्त में जितने असत् अभ्यास संस्कारबद्ध हो गए हैं, उन्हें सत्
अभ्यास द्वारा नष्ट करना होगा। केवल सत्कार्य करते रहो, सर्वदा पवित्र चिंतन
करो; असत् संस्कार रोकने का बस, यही एक उपाय है। ऐसा कभी मत कहो कि अमुक के
उद्धार की कोई. आशा नहीं है। क्यों? इसलिए कि वह व्यक्ति केवल एक विशिष्ट
प्रकार के चरित्र का--कुछ अभ्यासों की समष्टि का द्योतक मात्र है, और ये
अभ्यास नए और सत् अभ्यास से दूर किए जा सकते हैं। चरित्र बस, पुनः पुनः अभ्यास
की समष्टि मात्र है और इस प्रकार का पुनः पुनः अभ्यास ही चरित्र का सुधार कर
सकता है।
तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः ॥१३॥
१३. उन (वृत्तियों) को पूर्णतया वश में रखने के लिए जो सतत प्रयत्न है, उसे
अभ्यास कहते हैं।
अभ्यास किसे कहते हैं? मन को दमन करने की चेष्टा अर्थात् प्रवाह-रूप में उसकी
बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकने की चेष्टा ही अभ्यास है।
स तु दीर्घकालनरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः ॥१४॥
१४. दीर्घकाल तक परम श्रद्धा के साथ (उस परमपद की प्राप्ति के लिए) सतत चेष्टा
करने से वह (अभ्यास) दृढ़ भूमि (अर्थात् दृढ़ अवस्थावाला) हो। जाता है।
यह संयम एक दिन में नहीं आता, इसके लिए तो दीर्घ काल तक निरंतर अभ्यास करना
पड़ता है।
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्॥१५॥
१५. देखे और सुने हुए विषयों के प्रति तृष्णा का सर्वथा त्याग कर देने वाले के
पास जो एक अपूर्व भाव आता है, जिससे वह समस्त विषय-वासनाओं का दमन करने में
समर्थ होता है, उसे वैराग्य या अनासक्ति कहते हैं।
दो प्रेरक शक्तियाँ हमारे सारे कार्यों की नियामक हैं। एक है हमारा अपना अनुभव
और दूसरा है, दूसरों का अनुभव। ये दो शक्तियाँ हमारे मानस सरोवर में नाना
प्रकार की तरंगें पैदा करती रहती हैं। इन दोनों शक्तियों के विरुद्ध लड़ाई
ठानने और मन को वश में रखने के लिए हमें वैराग्यरूपी शक्ति की सहायता लेनी
पड़ती है। इन दोनों का त्याग ही हमारा अभीष्ट है। मान लो, मैं एक सड़क से जा
रहा हूँ। एक मनुष्य आता है और मेरी घड़ी छीन लेता है। यह मेरा निजी अनुभव हुआ।
यह मैं स्वयं देखता हूँ। वह तुरंत मेरे चित्त में एक तरंग उत्पन्न कर देता है,
जो क्रोध का आकार ले लेती है। अब मुझे चाहिए कि मैं उस भाव को न आने दें। यदि
मैं उसे न रोक सकूँ, तो फिर मुझमें है ही क्या? कुछ भी नहीं। यदि मैं रोक सका,
तभी समझा जाएगा कि मुझमें वैराग्य है। फिर, संसारी लोगों का अनुभव हमें सिखाता
है कि विषय-भोग ही जीवन का चरम लक्ष्य है। ये सब हमारे लिए भयानक प्रलोभन हैं।
उन सबके प्रति पूर्णतया उदासीन हो जाना और उन सबसे प्रभावित होकर मन को तद्रूप
वृत्ति के आकार में परिणत न होने देना ही वैराग्य है। स्वयं अपने अनुभव किए
हुए और दूसरों के अनुभव किए हुए विषयों से हममें जो दो प्रकार की
कार्य-प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें दबाना और इस प्रकार चित्त को
उनके वश में नहीं आने देना ही वैराग्य कहलाता है। वे सब मेरे अधीन रहें, मैं
उनके अधीन न होऊँ इस प्रकार के मनोबल को वैराग्य कहते हैं, और यह बैराग्य ही
मुक्ति का एकमात्र उपाय है।.....
तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ॥१६॥
१६. जो (वैराग्य) पुरुष के (असल स्वरूप के) ज्ञान से आता है और जो गुणों का भी
सर्वथा त्याग कर देता है, वह परवैराग्य है।
वैराग्य की शक्ति का उच्चतम विकास तो तब होता है, जब वह गुणों के प्रति हमारी
आसक्ति को भी दूर हटा देता है। पहले हमें समझ लेना होगा कि यह पुरुष या आत्मा
क्या है, ये गुण क्या हैं। योगशास्त्र के मत से, यह सारी प्रकृति
त्रिगुणात्मिका है। ये गुण हैं--तम, रज और सत्व। ये तीनों गुण बाह्य जगत में
क्रमश: तम (अंधकार) या जड़ता, आकर्षण या विकर्षण और उन दोनों का सामंजस्य, इन
तीन प्रकारों में प्रकाशित होते हैं। प्रकृति की सारी वस्तुएँ, यह सारा का
सारा प्रपंच ही इन तीनों शक्तियों के विभिन्न मेल से उत्पन्न हुआ है। सांख्य
मतवालों ने प्रकृति को विविध तत्त्वों में विभक्त किया है। मनुष्य की आत्मा इन
सबके परे, प्रकृति के भी परे है; वह स्वयंप्रकाश, शुद्ध और पूर्णस्वरूप है।
प्रकृति में हम जो कुछ चैतन्य का प्रकाश देख पाते हैं, वह सभी प्रकृति में
आत्मा का प्रतिबिंब मात्र है। प्रकृति स्वयं जड़ है। यह स्मरण रखना चाहिए कि
मन भी प्रकृति शब्द के अंतर्भूत है, वह प्रकृति के भीतर की वस्तु है। हमारे जो
कुछ विचार हैं, वे सबके सब प्रकृति के ही अंतर्गत हैं। विचार से लेकर सबसे
स्थूलतम भौतिक पदार्थ तक सभी प्रकृति के अंतर्गत हैं--प्रकृति की विभिन्न
अभिव्यक्ति मात्र हैं। इस प्रकृति ने मनुष्य की आत्मा को आवृत कर रखा है, और
जब वह अपने इस आवरण को हटा लेती है, तब आत्मा आवरणमुक्त हो अपनी महिमा में
प्रकाशित हो जाती है। पंद्रहवें सूत्र में जिस वैराग्य की बात बतलाईगई है,
जिसके द्वारा समस्त विषयों को अर्थात् प्रकृति को वश में लाया जाता है, वह
आत्मा के प्रकाशित होने में सबसे बड़ा सहायक है। अगले सूत्र में समाधि या
पूर्ण एकाग्रता के लक्षण का वर्णन किया मया है। यह समाधि ही योगी का चरम
लक्ष्य है। . .
वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात् सम्प्रज्ञातः॥१७॥
१७. वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता--इन चारों के संबंध से मुक्त (जो समाधि
है, वह) संप्रज्ञात या सम्यक् ज्ञानपूर्वक समाधि कहलाती है।
समाधि दो प्रकार की है। एक है संप्रज्ञात और दूसरी, असंप्रज्ञात। इस
संप्रज्ञात समाधि में प्रकृति को वश में करने की समस्त शक्तियों आती हैं।
संप्रज्ञात समाधि के चार प्रकार हैं। इसके प्रथम प्रकार को सवितर्क समाधि कहते
हैं। सब समाधियों में ही मन को अन्य सब विषयों से हटाकर विशिष्ट विषय के ध्यान
में पुनः पुनः नियुक्त करना पड़ता है। इस तरह के विचार या ध्यान के विषय दो
प्रकार के हैं। एक तो, चौबीस जड़तत्त्व और दूसरा, चेतन पुरुष। योग का यह अंश
संपूर्णतया सांख्य दर्शन पर आधारित है। इस सांख्य दर्शन के बारे में मैं तुमसे
पहले ही कह चुका हूँ। तुम्हें शायद याद होगा कि मन, बुद्धि और अहंकार की एक
साधारण आधार-भूमि है, जिसे चित्त कहते हैं और जिससे उनकी उत्पत्ति हुई है। यह
चित प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को लेकर उन्हें विचार के रूप में परिणत करता
है। फिर यह भी अवश्य स्वीकार करना होगा कि शक्ति और जड़ पदार्थ, दोनों का
कारणस्वरूप एक और वस्तु है, जहाँ पर वे दोनों एक हैं। यह अव्यक्त कहलाता
है--वह सृष्टि के पूर्व प्रकृति की अनभिव्यक्त अवस्था है। उसमें एक कल्प के
बाद सारी प्रकृति लौट आती है, फिर दूसरे कल्प में उससे पुनः सब प्रादुर्भूत
होते हैं। इन सबके अतीत चैतन्यधन पुरुष विद्यमान है। ज्ञान ही शक्ति है। किसी
वस्तु का ज्ञान प्राप्त होने पर ही हम उस पर अपना अधिकार चलाने में समर्थ होते
हैं। इसी प्रकार, जब हमारा मन इन सब विभिन्न तत्त्वों पर ध्यान करने लगता है,
तो उन पर अधिकार प्राप्त करता जाता है। जिस प्रकार की समाधि में बाहा स्थूल
भूत ही ध्यान के विषय होते हैं, उसे सवितर्क कहते हैं। वितर्क का अर्थ है
प्रश्न, और सवितर्क का अर्थ है प्रश्न के साथ--मानो उन स्थूल भूतों से पूछना,
जिससे वे अपने अंतर्गत सत्य और अपनी सारी शक्ति अपने ऊपर ध्यान करनेवाले पुरुष
को दे दें--इसीको सवितर्क कहते हैं। किंतु सिद्धियाँ प्राप्त करने से ही
मुक्ति नहीं मिल जाती। वे तो भोग के लिए साधन मात्र हैं। पर यहाँ, इस जीवन
में, यथार्य भोग-सुख है ही नहीं। संसार में यही सबसे पुराना उपदेश है कि यहाँ
भोग सुख का अन्वेषण वृथा है; पर मनुष्य के लिए इसे समझना अत्यंत कठिन है।
किंतु जब वह सचमुच यह पाठ सीख लेता है, तब इस जगत-प्रपंच से अतीत होकर मुक्त
हो जाता है। जिन्हें साधारणतः सिद्धियाँ कहते हैं, उनको प्राप्त करने का अर्थ
है तीव्र दुनियादारी तथा अंत में दुःख को और भी तीव्र करना। यह सत्य है कि
विज्ञान की दृष्टि को अपनाते हुए पतंजलि ने इस योगशास्त्र की संभावना को
स्वीकार किया है, पर साथ ही वे इन सब सिद्धियों के प्रलोभन से हमें सावधान
करते रहने में भी कभी नहीं चूके।
फिर, उसी ध्यान में जब उन भूतों को देश और काल से अलग करके उनके स्वरूप का
चिंतन किया जाता है, तब उस समाधि को निर्वितर्कसमाधि कहते हैं। जब और एक कदम
आगे बढ़कर तन्मात्राओं को ध्यान का विषय बनाया जाता है और उन्हें देश-काल के
अंतर्गत समझकर उन पर ध्यान किया जाता है, तब उसे सविचार समाधि कहते हैं। फिर
जब इसी समाधि में देश-काल के अतीत जाकर उन सूक्ष्म भूतों के स्वरूप का चिंतन
किया जाता है, तब उसे निर्विचार समाधि कहते हैं। इसके बाद का कदम वह है,
जिसमें सूक्ष्म और स्थूल, दोनों प्रकार के भूतों का चिंतन छोड़कर अंतःकरण को
ध्यान का विषय बनाया जाता है। जब अंतःकरण को रज और तम, इन दोनों गुणों में
रहित सोचा जाता है, तब उसे आनंद समाधि कहते है। जब स्वंय मन ध्यान का विषय
होता है, जब ध्यान बिल्कुल परिपक्व और एकाग्र हो जाता है, जब स्थल बार सूक्ष्म
भूतों की समस्त भावनाएँ त्याग दी जाती है और जब अन्य मन विषयों से पृथक् होकर
अहंकार की केवल सत्वावस्था ही शेष रहती है, तब उसे अस्मिता समाधि कहते है। जिस
मनुष्य ने इस अवस्था की प्राप्ति कर ली है, उसे वेदों में 'विदेह' कहा गया है।
ऐसा व्यक्ति स्वयं का स्थूल देह से रहित रूप में चिंतन कर सकता है, पर तो भी
उसे स्वयं को एक सूक्ष्म शरीरधारी के रूप में सोचना ही पड़ता है। जो लोग इस
अवस्था में रहते हुए, उम परम ध्येय की प्राप्ति बिना किए, प्रकृति में लीन हो
जाते हैं, उन्हें प्रकृतिलय कहते है। पर जो लोग वहां पर भी नहीं रुकते हैं, वे
ही चरम लक्ष्य-मुक्ति--प्राप्त करते हैं।
विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ॥१८॥
१८. दूसरे प्रकार की समाधि में समस्त मानसिक क्रियाओं के विराम का सतत अभ्यास
किया जाता है (उसमें व्युत्थान-प्रत्ययहीन) संस्कार मात्र ही शेष रहता है।
यही वह पूर्ण अतिचेतन असंप्रज्ञात समाधि है, जो हमें मुक्त कर देती है। पहले
जिस समाधि की बात कही गई है, वह हमें मुक्ति नहीं दे सकती--आत्मा को मुक्त
नहीं कर सकती। भले ही कोई मनुष्य समस्त शक्तियाँ प्राप्त कर ले, पर तो भी उसका
पतन हो सकता है। जब तक आत्मा प्रकृति के परे नहीं चली जाती, तब तक पतन का भय
बना ही रहता है। यद्यपि इसकी साधन-प्रणाली बहुत सरल मालूम होती है, पर इसे
प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। यह साधन प्रणाली ऐसी है कि इसमें स्वयं मन पर
ध्यान करना पड़ता है, और जब कमी कोई विचार उठता है, तो तत्क्षण उसे दवा देना
पड़ता है; मन के अंदर किसी प्रकार के विचार को स्थान न देकर उसे संपूर्णतया
शून्य कर देना पड़ता है। जब हम सचमुच यह करने में समर्थ हो जाएंगे, तो बस, उसी
क्षण हम मुक्त हो जाएंगे। जो लोग पूर्व-साधन या पूर्व-तैयारियाँ किए बिना ही
मन को शून्य करने का प्रयत्न करते हैं, उनका मन अज्ञानात्मक तमोगुण से आवृत हो
जाता है, और वह उनके मन को आलसी एवं अकर्मण्य कर देता है, यद्यपि वे सोचते हैं
कि वे मन को शून्य कर रहे हैं। इसके साधन में सचमुच समर्थ होना उच्चतम शक्ति
की अभिव्यक्ति है--मन को शून्य करने में समर्थ होना यानी सयम की चरमावस्था
प्राप्त कर लेना है। जब इस असंप्रज्ञात या अतिचेतन अवस्था की प्राप्ति हो जाती
है, तब यह समाधि
निर्बीज हो जाती है। समाधि के निर्बीज होने का तात्पर्य क्या है? संप्रज्ञात
समाधि में चित्तवृत्तियों का केवल दमन भर होता है, पर तब भी वे संस्कार या
बीजाकार में विद्यमान रहती हैं। अवसर पाते ही वे पुन: तरंगाकार में प्रकट हो
जाती हैं। पर जब संस्कारों को भी निर्मूल कर दिया जाता है, जब मन को भी लगभग
नष्ट कर दिया जाता है, तब समाधि निर्बीज हो जाती है; तब मन में ऐसा कोई
संस्कार-बीज नहीं रह जाता, जिससे यह जीवन-लता फिर से लहलहा सके, जिससे यह
अविराम जन्म-मृत्यु का चक्र और भी घूम सके।
तुम लोग पूछ सकते हो कि वह फिर ऐसी कौन सी अवस्था है, जहाँ मन नहीं, जिसमें
कोई ज्ञान नहीं? जिसे हम ज्ञान कहते हैं, वह तो उस अतिचेतन अवस्था की तुलना
में एक निम्नतर अवस्था मात्र है। यह हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि किसी विषय की
सर्वोच्च और सर्वनिम्न अवस्थाएँ प्रायः एक ही प्रकार की मालूम होती हैं। ईथर
(आकाश-तत्त्व) का कंपन निम्नतम होने से उसे अंधकार कहते हैं, मध्य कोटि का
होने से आलोक और फिर उसका उच्चतम कंपन भी अंधकार के समान दिखता है। इसी
प्रकार, अज्ञान सबसे निम्नावस्था है और ज्ञान मध्यावस्था। और इस ज्ञान के भी
अतीत एक उच्च अवस्था है। पर अज्ञानावस्था और ज्ञानातीत अवस्था, दोनों देखने
में एक ही समान हैं। हम जिसे ज्ञान कहते हैं, वह एक उत्पन्न द्रव्य है--एक
मिश्र पदार्थ है, वह प्रकृत सत्य नहीं है।
प्रश्न उठ सकता है, इस उच्चतर समाधि के लगातार अभ्यास का फल क्या होगा? इस
अम्यास के पहले अस्थिरता और जड़त्व की ओर हमारे मन को जो गति थी, इस अभ्यास से
वह तो नष्ट होगी ही, साथ ही सत्प्रवृत्ति का भी नाश हो जाएगा। बिना साफ़ किए
हुए सोने में, मल निकालने के लिए कोई रासायनिक वस्तु मिलाने पर जो कुछ होता
है, यहाँ भी ठीक वैसा ही होता है। जब खान से निकाली हुई अपरिष्कृत धातु को
गलाया जाता है, तब जो रासायनिक पदार्थ उसके साथ मिलाये जाते हैं, वे भी उसके
मैल के साथ गल जाते हैं। इसी प्रकार, पूर्वोक्त समाधि के सतत अम्यास से जो
संयम-शक्ति प्राप्त होती है, उससे पहले की असत् प्रवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं
और अंत में सत्प्रवृतियाँ भी। इस तरह सत् और अस्त, दोनों प्रकार की
प्रवृत्तियों के निरोष से आत्मा सब प्रकार के बंधनों से विमुक्त हो जाती है और
अपनी महिमा में, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान एवं सर्वज्ञ रूप से अवस्थित रहती
है। तब मनुष्य जान पाता है कि न कभी उसका जन्म था, न मृत्यु; न उसे कभी इहलोक
की जरूरत थी, न परलोक की। तब वह जान पाता है कि न वह कहीं से आया था, न कहीं
गया; वह तो प्रकृति थी, जो यहाँ-वहाँ आवागमन कर रही थी, और प्रकृति की यह हलचल
ही आत्मा में प्रतिबिंबित हो रही थी। कांच में से प्रतिबिंबित होकर प्रकाश
दीवाल पर पड़ता है और हिलता-डुलता है। दीवाल मूर्ख के समान शायद सोचती हो कि
मैं ही हिल-डुल रही हूँ। ठीक ऐसा ही हम सबों के बारे में भी है। चित्त ही
लगातार इधर-उधर जा रहा है, अपने को नाना रूपों में परिणत कर रहा है, पर हम लोग
सोचते हैं कि हमीं ये विभिन्न रूप धारण कर रहे हैं। असंप्रज्ञात समाधि के
अभ्यास से यह सारा अज्ञान दूर हो जाएगा। जब वह मुक्त आत्मा कोई आदेश
देगी--भिखारी की भाँति प्रार्थना करेगी या मांगेगी नहीं, वरन् आदेश देगी--तब
वह जो कुछ चाहेगी, सब तुरंत पूर्ण हो जाएगा; वह जो कुछ इच्छा करेगी, वही करने
में समर्थ होगी। सांख्य दर्शन के मतानुसार ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। यह
दर्शन कहता है कि जगत का कोई ईश्वर नहीं हो सकता, क्योंकि यदि वह हो, तो अवश्य
वह एक आत्मा ही होना चाहिए, और आत्मा या तो बद्ध होगी या मुक्त। जो आत्मा
प्रकृति के अधीन है, प्रकृति ने जिस पर अपना आधिपत्य जमा लिया है, वह भला कसे
सृष्टि कर सकेगी? वह तो स्वयं एक दास है। और दूसरी ओर, यदि आत्मा मुक्त हो, तो
वह क्यों इस जगत-प्रपंच की रचना करेगी, क्यों इस पूरे संसार की क्रिया आदि का
संचालन करेगी? उसकी तो कोई अभिलाषा नहीं रह सकती, अत: उसके सृष्टि या जगत-शासन
आदि करने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। द्वितीयतः, यह सांख्य दर्शन कहना है कि
ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रकृति को मानने से
ही जब सभी का स्पष्टीकरण हो जाता है, तो फिर किसी ईश्वर को लाने की आवश्यकता
क्या? कपिल मुनि कहते हैं कि बहुत से व्यक्ति ऐसे हैं, जो सिद्धावस्था के
नजदीक जाकर भी विभूति-लाभ की वासना पूर्णतया छोड़ने में समर्थ न होने के कारण
योगभ्रष्ट हो जाते हैं। उनका मन कुछ काल तक प्रकृति में लीन होकर रहता है। जब
वे पुनः पैदा होते हैं, तब प्रकृति के मालिक होकर आते हैं। यदि इन्हें ईश्वर
कहो, तो ऐसे ईश्वर अवश्य हैं। हम सभी एक समय ऐसा ईश्वरत्व प्राप्त करेंगे।
सांख्य दर्शन के मतानुसार, वेद में जिस ईश्वर की बात कही गई है, वह ऐसी ही एक
मुक्तात्मा का वर्णन मात्र है। इसके अतिरिक्त जगत का अन्य कोई नित्य मुक्त,
आनंदमय सृष्टिकर्ता नहीं है। दूसरी ओर, योगीगण कहते हैं, "नहीं, ईश्वर है;
अन्य सभी आत्माओं से--सभी पुरुषों से अलग एक विशेष पुरुष है; वह समग्र सृष्टि
का नित्य प्रभु है, वह नित्य मुक्त है और सभी गुरुओं का गुरुस्वरूप है।"
सांख्यमतवाले जिन्हें प्रकृतिलय कहते हैं, योगीगण उनका भी अस्तित्व स्वीकार
करते हैं। वे कहते हैं कि ये योगभ्रष्ट योगी हैं। कुछ समय तक के लिए उनकी चरम
लक्ष्य की ओर गति में बाधा होती है, और उस समय वे जगत के वंशविशेष के
अधिपतिरूप से अवस्थान करते हैं।
भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ॥१९॥
१९. (यह समाधि यदि परवैराग्य के साथ अनुष्ठित न हो, तो) वही देवताओं और
प्रकृतिलीनों को पुनरुत्पत्ति का कारण है।
भारतीय दर्शन-प्रणालियों में देवता कुछ उच्च पदविशेष का प्रतिनिधित्व करते
हैं। भिन्न-भिन्न जीवात्मा एक के बाद एक इन पदों की पूर्ति करते हैं। पर इनमें
से कोई भी पूर्ण नहीं हैं।
श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ॥२०॥
२०. दूसरों को श्रद्धा अर्थात् विश्वास, वीर्य अर्थात् मन का तेज, स्मृति,
समाधि अर्थात् एकाग्रता और प्रशा अर्थात् सत्य वस्तु के विवेक से (यह समाधि)
प्राप्त होती है।
जो लोग देवतापद या किसी कल्प के शासनकर्ता होने की भी कामना नहीं करते,
उन्हींकी बात कही जा रही है। वे मुक्ति प्राप्त करते हैं।
तीसंवेगानामासन्नः ॥२१॥
२१. जिनके साधन की गति तीव्र है, उनके लिए (यह योग) शीघ्र (सिद्ध) हो जाता है।
मृदुमध्याधिमात्रल्वात् ततोऽपि विशेषः॥२२॥
२२. साधन की हल्की, मध्यम और उच्च मात्रा के अनुसार योगियों को सिद्धि में भी
भेद हो जाता है।
ईश्वरप्रणिधानाद्वा ॥२३॥
२३. अथवा ईश्वर के प्रति भक्ति से भी (समाधि सिद्ध होती है)।
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ॥२४॥
२४. दुःख, कर्म, कर्मफल और वासना के संबंध से रहित पुरुषविशेष ईश्वर (परम
नियंता) है।
हमें यहाँ फिर से स्मरण करना होगा कि पातंजल-योगदर्शन सांख्य दर्शन पर आधारित
है। भेद केवल इतना है कि सांख्य दर्शन में ईश्वर का स्थान नहीं है, जब कि
योगीगण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। ईश्वर को मानने पर भी योगी गण
ईश्वर संबंधी सृष्टि-कर्तृत्व आदि विविध भावों की कोई बात नहीं उठाते। योगियों
के ईश्वर से जगत के सृष्टिकर्ता ईश्वर का बोध नहीं होता। वेद के मतानुसार
ईश्वर जगत-स्रष्टा है। चूँकि जगत में सामंजस्य देखा जाता है, अतः जगत अवश्य एक
इच्छा- शक्ति की ही अभिव्यक्ति होगा। योगीगण ईश्वर का अस्तित्व स्थापित करने
के लिए अपनी एक नए प्रकार की यक्ति काम में लाते हैं। वे कहते हैं:
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञत्वबीजम् ॥२५॥
२५. औरों में जिस सर्वज्ञत्व का बीज मात्र रहता है, वही उनमें निरतिशेय
अर्थात् अनंत भाव धारण करता है।
मन को सदैव अति बृहत् और अति क्षुद्र, इन दो चरम भावों के भीतर ही घूमना पड़ता
है। तुम एक ससीम देश की बात भले ही सोचो, पर वही भावना तुम्हारे भीतर असीम देश
का भाव भी जगा देगी। यदि आँखें बंद करके तुम एक छोटे से देश के बारे में सोचो,
तो देखोगे, उस मोटे से देशरूप वृत्त के साथ ही उसके चारों और अमर्यादित
विस्तारवाला एक दूसरा वृत्त भी है। काल के बारे में भी ठीक यही बात है। मान
लो, तुम एक सेकेंड समय के बारे में सोच रहे हो। तो उसके साथ ही साथ तुमको अनंत
काल की भी बात सोचनी पड़ेगी। ज्ञान के बारे में भी ठीक ऐसा ही समझना चाहिए।
मनुष्य में ज्ञान का केवल बीज-भाव है; पर इस क्षुद्र ज्ञान की बात मन में लाने
के साथ ही अनंत ज्ञान के बारे में भी सोचना पड़ेगा। इस प्रकार हमारे, मन की
गठन से ही यह बिल्कुल स्पष्ट है कि एक अनंत ज्ञान है। इस अनंत ज्ञान को ही
योगीगण ईश्वर कहते हैं।
स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥२६॥
२६. वे प्राचीन गुरुगणों के भी गुरु हैं, क्योंकि ये काल से सीमित नहीं हैं।
यह सत्य है कि समस्त ज्ञान हमारे भीतर ही निहित है, पर उसे एक दूसरे ज्ञान के
द्वारा जाग्रत करना पड़ता है। यद्यपि जानने की शक्ति हमारे अंदर ही विद्यमान
है, फिर भी हमें उसे जगाना पड़ता है। और योगियों के मतानुसार, ज्ञान को इस
प्रकार जगाना अर्थात् ज्ञान का उन्मेष एक दूसरे ज्ञान के सहारे ही हो सकता है।
अचेतन जड़ पदार्थ ज्ञान का विकास कभी नहीं करा सकता--केवल ज्ञान की शक्ति से
ही ज्ञान का विकास होता है। हमारे अंदर जो ज्ञान है, उसको जगाने के लिए
ज्ञानीपुरुषों का हमारे पास रहना सदैव आवश्यक है। यही कारण है कि इन गुरुओं को
आवश्यकता सदा ही बनी रही है। जगत कभी भी इन आचार्यों से रहित नहीं हुआ। उनकी
सहायता बिना कोई भी ज्ञान नहीं आ सकता। ईश्वर सारे गुरुओं का भी गुरु है,
क्योंकि ये सब गुरु कितने ही उन्नत क्यों न रहे हों, वे देवता या स्वर्गदूत ही
क्यों न रहे हों, पर वे सबके सब बद्ध थे और काल से सीमित थे; किंतु ईश्वर काल
से आबद्ध नहीं है। योगियों के दो विशेष सिद्धांत हैं। एक तो यह कि शांत वस्तु
की भावना करते ही मन बाध्य होकर अनंत की भी बात सोचेगा, और यदि उस मानसिक
अनुभूति का एक भाग सत्य हो, तो उसका दूसरा भाग भी अवश्यमेव सत्य होगा। क्यों?
इसलिए कि जब दोनों उस एक ही मन की अनुभूतियाँ हैं, तो दोनों अनुभूतियों का
मूल्य समान ही होगा। मनुष्य का ज्ञान अल्प है अर्थात् मनुष्य अल्पज्ञ है--इसी
से जाना जाता है कि ईश्वर का ज्ञान अनंत है, ईश्वर अनंत ज्ञानसंपन्न है। यदि
हम इन दोनों अनुभूतियों में से एक को ग्रहण करें, तो दूसरे को भी क्यों न
ग्रहण करेंगे? युक्ति तो कहती है या तो दोनों को मान लो, या फिर दोनों को ही
छोड़ दो। यदि मैं विश्वास करूं कि मनुष्य अल्पज्ञानसंपन्न है, तो मुझे यह भी
अवश्य मानना पड़ेगा कि उसके पीछे कोई असीम ज्ञानसंपन्न पुरुष है। दूसरा
सिद्धांत यह है कि गुरु बिना कोई भी ज्ञान नहीं हो सकता। आजकल के दार्शनिकों
का जो कथन है कि मनुष्य का ज्ञान उसके स्वयं के भीतर से उत्पन्न होता है, यह
सच है; सारा ज्ञान मनुष्य के भीतर ही विद्यमान है, पर उस ज्ञान के विकास के
लिए कुछ अनुकूल परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। हम गुरु बिना कोई ज्ञान
प्राप्त नहीं कर सकते। अब बात यह है कि यदि मनुष्य, देवता अथवा कोई स्वर्गदूत
हमारे गुरु हों, तो वे भी तो ससीम हैं। फिर उनसे पहले उनके गुरु कौन थे? हमें
मजबूर होकर यह चरम सिद्धांत स्थिर करना ही होगा कि एक ऐसे गुरु हैं, जो काल के
द्वारा सीमाबद्ध या अवच्छिन्न नहीं हैं। उन्हीं अनंत शानसंपन्न गुरु को, जिनका
आदि भी नहीं और अंत भी नहीं, ईश्वर कहते हैं।
तस्य बाचकः प्रणवः ॥२७॥
२७. प्रणव अर्थात् ओंकार उनका वाचक (प्रकाशक) है।
तुम्हारे मन में जो भी भाव उठता है, उसका एक प्रतिरूप शब्द भी रहता है। इस
शब्द और भाव को अलग नहीं किया जा सकता। एक ही वस्तु के बाहरी भाग को शब्द और
अंतर्भाग को विचार या भाव कहते हैं। कोई भी व्यक्ति विश्लेषण के बल से विचार
को शब्द से अलग नहीं कर सकता। बहुतों का मत है कि कुछ लोग एक साथ बैठकर यह
स्थिर करने लगे कि किस भाव के लिए कौन से शब्द का प्रयोग किया जाए, और इस
प्रकार भाषा की उत्पत्ति हो गई। किंतु यह प्रमाणित हो चुका है कि यह मत
भ्रमात्मक है। जब से मनुष्य विद्यमान है, तब से शब्द और भाषाएँ रही हैं। अब
प्रश्न यह है कि एक भाव और एक शब्द में परस्पर क्या संबंध है। यद्यपि हम देखते
हैं कि एक भाव के साथ एक शब्द का रहना अनिवार्य है, तथापि ऐसा नहीं कि एक भाव
एक ही शब्द द्वारा प्रकाशित हो। बीस विभिन्न देशों में भाव एक ही होने पर भी
भाषाएँ बिल्कुल भिन्न-भिन्न हो सकती हैं। प्रत्येक भाव को प्रकट करने के लिए
एक न एक शब्द की आवश्यकता अवश्य होगी, किंतु इन शब्दों का एक ही ध्वनिविशिष्ट
होना कोई आवश्यक नहीं। विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न ध्वनिविशिष्ट शब्दों का
व्यवहार होगा। इसीलिए टीकाकार ने कहा है, "यद्यपि भाव और शब्द का परस्पर संबंध
स्वाभाविक है,तथापि एक ध्वनि और एक भाव के बीच एक नितांत अलंघनीय संबंध ही
रहे, ऐसी कोई बात नहीं।"
[3]
यद्यपि ये सब ध्वनियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, तो भी ध्वनि और भाव का परस्पर
संबंध स्वाभाविक है। यदि वाच्य और वाचक के बीच प्रकृत संबंध रहे, तभी यह कहा
जा सकता है कि भाव और ध्वनि के बीच परस्पर संबंध है। यदि ऐसा न हो, तो वह वाचक
शब्द कभी सर्वसाधारण के उपयोग में नहीं आ सकता। वाचक वाच्य पदार्थ का प्रकाशक
होता है। यदि वह वाच्य वस्तु पहले से अस्तित्व में रहे, और हम यदि पुनः पुनः
परीक्षा द्वारा यह देखें कि उस वाचक शब्द ने उस वस्तु को अनेक बार सूचित किया
है, तो हम निश्चित रूप से यह मान सकते हैं कि उस वाच्य और वाचक के बीच एक
यथार्थ संबंध है। यदि ये वाच्य पदार्थ न भी रहें, तो भी हजारों मनुष्य उनके
बाचकों के द्वारा ही उनका ज्ञान प्राप्त करेंगे। पर हाँ, वाच्य और वाचक के बीच
एक स्वाभाविक संबंध रहना अनिवार्य है। ऐसा होने पर, ज्यों ही उस वाचक-शब्द का
उच्चारण किया जाएगा, ही ज्यों ही वह उस वाच्य पदार्थ की बात मन में ला देगा।
सूत्रकार कहते हैं, ओंकार ईश्वर का वाचक है। सूत्रकार ने विशेष रूप से 'ॐ'
शब्द का ही उल्लेख क्यों किया है? 'ईश्वर'--इस भाव को व्यक्त करने के लिए तो
सैकड़ों शब्द हैं। एक भाव के साथ हजारों शब्दों का संबन्ध रहता है।
'ईश्वर'--इस भाव का सैकड़ों शब्दों के साथ संबंध है और उनमें से प्रत्येक ही
लो ईश्वर का वाचक है। फिर उन्होंने 'ॐ' को ही क्यों चुना? हाँ, ठीक है; पर
वैसा होने पर भी उन शब्दों में से एक सामान्य शब्द चुन लेना चाहिए। उन सारे
वाचकों का एक सामान्य आधार निकालना होगा, और जो वाचक-शब्द सबका सामान्य वाचक
होगा, वही सर्वश्रेष्ठ, समझा जाएगा, और वास्तव में वही उसका यथार्थ वाचक होगा।
किसी ध्वनि के लिए हम कंठ-नली और ताल का ध्वनि के आधार-रूप में व्यवहार करते
हैं। क्या ऐसी कोई भौतिक ध्वनि है, जिसकी कि अन्य सब ध्वनियाँ अभिव्यक्ति हैं,
जो स्वभावतः ही दूसरी सब ध्वनियों को समझा सकती है हो, 'ओम्' (अउम्) ही वह
ध्वनि है। वही सारी ध्वनियों की भित्तिस्वरूप है। उसका प्रथम अक्षर 'अ' सभी
ध्वनियों का मूल है--वह सारी ध्वनियों की कुंजी के समान है, वह जिह्वा या तालु
के किसी अंश को स्पर्श किए बिना ही उच्चारित होता है। 'म्' ध्वनि-श्रृंखला की
अंतिम ध्वनि है, उसका उच्चारण करने में दोनों ओठों को बंद करना पड़ता है। और
'उ' ध्वनि जिह्वा के मूल से लेकर मुख के मध्यवर्ती ध्वनि के आधार की अंतिम
सीमा तक मानो ढुलकता आता है। इस प्रकार 'ॐ' शब्द के द्वारा ध्वनि-उत्पादन की
संपूर्ण क्रिया प्रकट हो जाती है। अतएव वही स्वाभाविक वाचक-ध्वनि है, वही सब
विभिन्न ध्वनि की जननीस्वरूप है। जितने प्रकार के शब्द उच्चारित हो सकते
हैं--हमारी ताकत में जितने प्रकार के शब्द के उच्चारण की संभावना है, 'ओम्' उन
सभी का सूचक है। यह सब तात्त्विक चर्चा छोड़ देने पर भी, हम देखते हैं कि
भारतवर्ष में जितने सारे विभिन्न धर्मभाव हैं, यह ओंकार उन सबका केंद्रस्वरूप
है, वेद के सब विभिन्न धर्मभाव इस ओंकार का ही अवलंबनकिए हुए हैं। अब प्रश्न
यह है कि इसके साथ अमेरिका, इंग्लैंड और अन्यान्य देशों का क्या संबंध है?
उत्तर यह है कि सब देशों में इस ओंकार का व्यवहार हो सकता है। कारण, भारत में
धर्म के विकास की प्रत्येक अवस्था--में उसके प्रत्येक सोपान में ओंकार को
अपनाया गया है, उसका आश्रय लिया गया है और वह ईश्वर संबंधी सारे विभिन्न भावों
को व्यक्त करने के लिए व्यवहृत हुआ है। अद्वैतवादी, द्वैतवादी,
द्वैताद्वैतवादी, भेदवादी, यहाँ तक कि नास्तिकों ने भी अपने उच्चतम आदर्श को
प्रकट करने के लिए इस ओंकार का अवलंबन किया था। मानव-जाति के अधिकांश के लिए
यह ओंकार उनकी अपनी धार्मिक स्पृहा का एक प्रतीक बन गया है। अंग्रेजी गॉड
(God) शब्द को लो। वह जिस भाव को प्रकट करता है, वह कोई अधिक दूर तक नहीं जा
सकता। यदि तुम उसके अतिरिक्त अन्य कोई भाव उस शब्द से व्यक्त करने की इच्छा
करो, तो तुम्हें उसमें विशेषण लगाना पड़ेगा जैसे सगुण (personal), निर्गुण
(impersonal), निविशेष (absolute) आदि -आदि। अन्य दूसरी भाषाओं में ईश्वर-वाचक
जो सब शब्द हैं, उनके बारे में भी यही बात घटती है, उनमें बहुत कम भाव प्रकट
करने की शक्ति है; किंतु 'ॐ' शब्द में ये सभी प्रकार के भाव विद्यमान हैं।
अतएव सर्वसाधारण को उसका ग्रहण करना चाहिए।
तज्जपस्तदर्थभावनम् ॥२८॥
२८. इस (ओंकार) का जप और उसके अर्थ का ध्यान (समाधि-लाभ का उपाय है।)
जप अर्थात् बारंबार उच्चारण की आवश्यकता क्या है? हम संस्कारविषयक मतवाद को न
भूले होंगे, हमें स्मरण होगा कि समस्त संस्कारों की समष्टि हमारे मन में
विद्यमान है। ये संस्कार क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होकर अब्यक्त भाव धारण
करते हैं। पर वे बिल्कुल लुप्त नहीं हो जाते, वे मन के अंदर ही रहते हैं, और
ज्यों ही उन्हें यथोचित उद्दीपना मिलती है, बस, त्यों ही में चित्तरूपी सरोवर
की सतह पर उठ आते हैं। परमाणु-कंपन कभी बंद नहीं होता। जब यह सारा संसार नाश
को प्राप्त होता है, तब सब बड़े बड़े कंपन या प्रवाह लुप्त हो जाते हैं;
सूर्य, चंद्रमा, तारे, पृथ्वी, सभी लय को प्राप्त हो जाते हैं; पर कंपन
परमाणुओं में बच रहते हैं। इन बड़े बड़े ब्रह्मांडों में जो कार्य होता है,
प्रत्येक परमाणु वही कार्य करता है। ठीक ऐसा ही चित्त के बारे में भी है।
चित्त में होने वाले सब कंपन अदृश्य अवश्य हो जाते हैं, फिर भी परमाणु के कंपन
के समान उनकी सूक्ष्म गति अक्षुण्ण बनी रहती है, और ज्यों ही उन्हें कोई संवेग
मिलता है, बस, त्यों ही वे पुनः बाहर आ जाते हैं। अब हम समझ सकेंगे कि जप
अर्थात् बारंबार उच्चारण का तात्पर्य क्या है। हम लोगों के अंदर जो आध्यात्मिक
संस्कार हैं, उन्हें विशेष रूप से उद्दीप्त करने में यह प्रधान सहायक है।
क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका। भवति भवार्णवतरणे नौका।--'साधुओं का एक क्षण का भी
सत्संग भवसागर पार होने के लिए नौकास्वरूप है।" सत्संग की ऐसी जबरदस्त शक्ति
है! बाह्य सत्संग की जैसी शक्ति बतलायी गई है, वैसी ही आंतरिक सत्संग की भी
है। इस ओंकार का बारंबार जप करना और उसके अर्थ का मनन करना ही आंतरिक सत्संग
है। जप करो और उसके साथ उस शब्द के अर्थ का ध्यान करो। ऐसा करने से, देखोगे,
हृदय में ज्ञानालोक आएगा और आत्मा प्रकाशित हो जाएगी।
'ॐ' शब्द पर मनन तो करोगे ही, पर साथ ही उसके अर्थ पर भी मनन करो। कुसंग छोड़
दो; क्योंकि पुराने घाव के चिह्न अभी भी तुममें बने हुए हैं। उन पर कुसंग की
गर्मी लगने भर की देर है कि बस, वे फिर से ताजे हो उठेंगे। ठीक इसी प्रकार हम
लोगों में जो उत्तम संस्कार हैं, वे भले ही अभी अव्यक्त हों, पर सत्संग से वे
फिर जाग्रत--व्यक्त हो जाएंगे। संसार में सत्संगसे पवित्र और कुछ भी नहीं है,
क्योंकि सत्संग से ही शुभ संस्कार चित्तरूपी सरोवर की तली से ऊपरी सतह पर उठ
आने के लिए उन्मुख होते हैं।
ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ॥२९॥
२९. उससे अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है और (योग के) विघ्नों का नाश होता है।
इस ओंकार के जप और चिंतन का पहला फल यह देखोगे कि क्रमशः अंतर्दृष्टि विकसित
होने लगेगी और योग के मानसिक एवं शारीरिक विघ्नसमूह दूर होते जाएंगे। योग के
ये विघ्न क्या है?
व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिम्रान्तिदर्शनालब्धभूमि
करवानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेन्तरायाः॥३०॥
३०. रोग, मानसिक जड़ता, संदेह, उद्यमशून्यता, आलस्य, विषम-तृष्णा, मिथ्या
अनुभव, एकाग्रता न पाना, और उसे पाने पर भी उससे च्युत हो जाना-ये जो चित्त के
विक्षेप हैं, वे ही विघ्न हैं।
व्याधि : इस जीवन-समुद्र के उस पार जाने के लिए यह शरीर ही एकमात्र नाव है।
इसे स्वस्थ रखने के लिए विशेष यत्न करना चाहिए। जिसका शरीर अस्वस्थ है, वह
योगी नहीं हो सकता। मानसिक जड़ता आने पर हमारी योगविषयक सारी सजीव रुचि खो
जाती है। और इस रुचि के अभाव में, साधन करने के लिए न तो दृढ़ संकल्प होगा, न
शक्ति ही मिलेगी। इस विषय में हमारा विचारजनित विश्वास कितना भी बलशाली क्यों
न रहे, पर जब तक दूरदर्शन, दूरश्रवण आदि अलौकिक अनुभूतियाँ नहीं होतीं, तब तक
इस विद्या की सत्यता के बारे में बहुत से संशय उपस्थित होंगे। जब इन सबका
थोड़ा-थोड़ा आभास होने लगता है, तब साधक भी साधन-मार्ग में और अध्यवसायशील
होता जाता है। अनवस्थितत्त्व : साधन करते करते देखोगे कि कुछ दिन या कुछ
सप्ताह तो मन अनायास ही एकान और स्थिर हो जाता है। उस समय ऐसा मालूम होगा कि
तुम साधन-मार्ग में बहुत शीघ्र उन्नति कर रहे हो। अचानक एक दिन देखोगे कि
तुम्हारा यह उन्नति-स्रोत बंद हो गया है, मानो जहाज दलदल में फंस गया हो। पर
उससे कहीं हताश मत हो जाना, अध्यवसाय मत खो बैठना। लगे रहो। इस प्रकार उत्थान
और पतन में से होते हुए ही उन्नति होती है।
दु:खदौर्मनस्यांगमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः ॥३१॥
३१. दुःख, मन खराब होना, शरीर हिलना, अनियमित श्वास-प्रश्वास--ये सब (चित्त
के) विक्षेपों के साथ-साथ उत्पन्न होते हैं।
जब कभी एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है, तभी मन और शरीर पूर्ण स्थिर भाव धारण
करते हैं। जब साधना ठीक तरीके से नहीं होती, अथवा जब चित्त पर्याप्त संयत नहीं
रहता, तभी ये सब विघ्न आ उपस्थित होते हैं। ओंकार के जप और ईश्वर के प्रति
आत्मसमर्पण से मन दृढ़ होता है तथा नया बल प्राप्त होता है। साधन-मार्ग में
ऐसी स्नायविक चंचलता प्रायः सभी को आती है। उधर तनिक भी ध्यान न दे साधना करते
रहो। साधना से ही वे सब चले जाएंगे, और तब आसन स्थिर हो जाएगा।
तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः ॥३२॥
३२. उनको दूर करने के लिए एक तत्त्व का अभ्यास (करना चाहिए)।
कुछ समय तक के लिए मन को किसी विशिष्ट विषय के आकार में परिणत करने की चेष्टा
करने से पूर्वोक्त विघ्न दूर हो जाते हैं। यह उपदेश आत्यन्त साधारण रूप से
दिया गया है। अगले सूत्रों में यही उपदेश विस्तृत रूप से समझाया जाएगा और
विशिष्ट ध्येय-विषयों के संबंध में इस साधारण उपदेश का प्रयोग बतलाया जाएगा।
एक ही प्रकार का अभ्यास सबके लिए उपयोगी नहीं हो सकता, इसी लिए विभिन्न उपायों
की बात कही गई है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं यथार्थ अनुभव द्वारा अपने लिए जो
उपाय सहायक है, उसे चुन ले सकता है।
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां
भावनातश्चित्तप्रसादनम् ॥३३॥
३३. सुख, दुःख, पुण्य और पाप--इन भावों के प्रति क्रमशः मित्रता, दया, आनंद और
उपेक्षा का भाव धारण कर सकने से चित्त प्रसन्न होता है।
हममें ये चार प्रकार के भाव रहने ही चाहिए। यह आवश्यक है कि हम सबके प्रति
मैत्री-भाव रखें, दीन-दुःखियों के प्रति दयावान हों, लोगों को सत्कर्म करते
देख सुखी हों, और दुष्ट मनुष्य के प्रति उपेक्षा दिखायें। इसी प्रकार, जो भी
विषय हमारे सामने आते हैं, उन सबके प्रति भी हमारे ये ही भाव रहने चाहिए। यदि
कोई विषय सुखकर हो, तो उसके प्रति मित्रता अर्थात् अनुकूल भाव धारण करना
चाहिए। इसी तरह, यदि हमारी भावना का विषय दुःखकर हो, तो हमारे अंतःकरण को उसके
प्रति करुणापूर्ण होना चाहिए। यदि वह कोई शुभ विषय हो, तो हमें आनन्दित होना
चाहिए, तथा अशुभ विषय होने पर उसके प्रति उदासीन रहना ही श्रेयस्कर है। इन सब
विभिन्न विषयों के प्रति मन के इस प्रकार विभिन्न भाव धारण करने से मन शांत हो
जाएगा। मन की इस प्रकार के विभिन्न भावों कोधारण करने की असमर्थता ही हमारे
दैनिक जीवन की अधिकांश गड़बड़ी एवं अशांति का कारण है। मान लो, किसीने मेरे
प्रति कोई अनुचित व्यवहार किया। तो मैं तुरंत उसका प्रतिकार करने को उद्यत हो
जाता हूँ। और इस प्रकार बदला लेने की भावना ही यह दिखाती है कि हम चित्त को
दबा रखने में असमर्थ हो रहे हैं। वह उस वस्तु की ओर तरंगाकार में प्रवाहित
होता है, और बस, हम अपनी मन की शक्ति खो बैठते हैं। हमारे मन में घृणा अथवा
दूसरों का अनिष्ट करने की प्रवृत्ति के रूप में जो प्रतिक्रिया होती है, वह मन
की शक्ति का अपचय मात्र है। दूसरी ओर, यदि किसी अशुभ विचार या घृणाप्रसूत
कार्य अथवा किसी प्रकार की प्रतिक्रिया की भावना का दमन किया जाए, तो उससे
शुभकरी शक्ति उत्पन्न होकर हमारे ही उपकार के लिए संचित रहती है। यह बात नहीं
कि इस प्रकार के संयम से हमारी कोई क्षति होती हो, वरन् उससे तो हमारा आशातीत
उपकार ही होता है। जब कभी हम घृणा अथवा क्रोध की वृत्ति को संयत करते हैं, तभी
वह हमारे अनुकूल शुभ शक्ति के रूप में संचित होकर उच्चतर शक्ति में परिणत हो
जाती है।
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ॥३४॥
३४. अथवा प्राणवायु को बाहर निकालने और धारण करने से भी (चित्त स्थिर होता
है)।
यहाँ पर 'प्राण' शब्द का व्यवहार हुआ है। प्राण ठीक श्वास नहीं है। समग्र जगत
में जो ऊर्जा शक्ति व्याप्त हुई है, उसी का नाम है प्राण। संसार में तुम जो
कुछ देखते हो, जो कुछ हिलता-डुलता या कार्य करता है, जिसमें भी जीवन है--वह सब
इस प्राण की ही अभिव्यक्ति है। जगत में जितनी भी शक्तियाँ विद्यमान हैं, उनकी
समष्टि को प्राण कहते हैं। कल्प-आरंभ के पूर्व यह प्राण एक प्रकार से बिल्कुल
गतिहीन अवस्था में रहता है, और कल्प के शुरू होने पर वह फिर से व्यक्त होना
प्रारंभ करता है। यह प्राण ही गति के रूप में--मनुष्यों अथवा अन्य प्राणियों
में स्नायविक गति के रूप में--प्रकाशित होता है। फिर यही विचार तथा अन्य
शक्तियों के रूप में भी प्रकाशित होता है। यह सारा जगत इस प्राण एवं आकाश की
समष्टि है। मनुष्य-देह के बारे में भी ठीक यही बात है। जो कुछ तुम देखते हो या
अनुभव करते हो, वे सारे पदार्थ आकाश से उत्पन्न हुए हैं और प्राण से सारी
विभिन्न शक्तियाँ। इस प्राण को बाहर निकालने और धारण करने का नाम ही प्राणायाम
है। योगदर्शन के जनक पतंजलि ने इस प्राणायाम के बारे में कोई विशेष विधान नहीं
किया है, परंतु उनके बाद दूसरे योगियों ने इस प्राणायाम के संबंध में अनेक
तत्त्वों का आविष्कार कर उसकी एक महान विद्या तैयार कर दी। पतंजलि के मतानुसार
यह प्राणायाम चित्तवृत्ति-निरोध के विभिन्न उपायों में से केवल एक उपाय है,
परंतु उन्होंने इस पर कोई विशेष जोर नहीं दिया है। उनका अभिप्राय इतना ही रहा
है कि श्वास को बाहर निकालकर फिर से अंदर खींच लो और कुछ देर तक उसे धारण किए
रखो, उससे मन अपेक्षाकृत कुछ स्थिर हो जाएगा। किंतु बाद में इसी से प्राणायाम
नामक एक विशेष विद्या की उत्पत्ति हो गई। अब हम देखेंगे कि ये सब परवर्ती योगी
उसके बारे में क्या कहते हैं।
इस संबंध में मैंने पहले ही कुछ कहा है, यहाँ पर उसकी कुछ पुनरावृत्ति करने से
वह मन में पक्का बैठ जाएगा। पहले तो, यह ध्यान रखना होगा कि यह प्राण ठीक
श्वास-प्रश्वास नहीं है; वरन् जिस शक्ति के बल से श्वास-प्रश्वास की गति होती
है, जो वस्तुतः श्वास-प्रश्वास की भी जीवनी-शक्ति है, वही प्राण है। फिर, यह
'प्राण' शब्द सब इंद्रियों के लिए भी व्यवहार में लाया जाता है; वे सबकी सब
प्राण कहलाती हैं; मन को भी प्राण कहा जाता है। अतएव हम देखते हैं कि प्राण का
अर्थ है शक्ति। तो भी इसे हम शक्ति नाम नहीं दे सकते, क्योंकि शक्ति तो इस
प्राण की अभिव्यक्ति मात्र है। यह प्राण ही शक्ति तथा नाना प्रकार की गति के
रूप में प्रकाशित होता है। चित्त यंत्रस्वरूप होकर चारों ओर से प्राण को भीतर
खींचता है और उससे शरीर रक्षा करनेवाली विभिन्न जीवनी-शक्तियाँ तथा विचार,
इच्छा एवं अन्य सब शक्तियाँ उत्पन्न करता है। पूर्वोक्त प्राणायाम-क्रिया से
हम शरीर की समस्त भिन्न-भिन्न गतियों को तथा शरीर के अंतर्गत समस्त
भिन्न-भिन्न स्नायविक शक्ति-प्रवाहों को वश में ला सकते हैं। पहले हम उनको
पहचानने लगते हैं, उनका साक्षात् अनुभव करने लगते हैं, और फिर धीरे- धीरे उन
पर अधिकार प्राप्त करते जाते हैं--उनको वशीभूत करने में सफल होते जाते हैं।
पतंजलि के बाद के इन योगियों के मतानुसार मनुष्य-देह में तीन मुख्य
प्राण-प्रवाह अर्थात् नाड़ियां हैं। वे एक को इड़ा, दूसरे को पिंगला और तीसरे
को सुषुम्णा कहते हैं। उनके मतानुसार, पिंगला मेरुदंड के दाहिनी ओर विद्यमान
हैं और इड़ा बापी ओर, और उस मेरदंड के मध्य में से होते हुए सुषुम्णा नाम की
एक खोखली नली है। उनके मतानुसार इड़ा और पिंगला, ये दो नाड़ियाँ प्रत्येक
मनुष्य में कार्य करती हैं, उनके सहारे ही हमारा जीवन चलता है। सुषुम्णा का
कार्य सभी में होना संभव अवश्य है, किंतु असल में योगी के शरीर में ही वह
कार्यशील है। तुम्हें याद रखना चाहिए कि योगी योग-साधन के बल से अपने शरीर को
परिवर्तित कर लेते हैं। तुम जितना ही साधन करोगे, तुम्हारा शरीर उतना ही
परिवर्तित होता जाएगा। साधन के पूर्व तुम्हारा शरीर जैसा था, बाद में वैसा
नहीं रह जाएगा। यह बात कोई अयाक्तिक नहीं है; युक्ति के द्वारा इसको समझाया जा
सकता है। हम जो कुछ नए विचार सोचते हैं, वे मानो हमारे मस्तिष्क में एक नया
मार्ग तैयार कर देते हैं। इसस हम समझ सकते हैं कि मनुष्य-स्वभाव इतना प्रबल
रूढ़िवादी या गतानुगतिक क्या है। मनुष्य-स्वभाव ही ऐसा है कि वह पहले चले हुए
रास्ते में ही चलना पसंद करता है, क्योंकि वह सरल होता है। यदि दृष्टांत के
रूप में हम सोचें कि मन एक सुई के समान है और मस्तिष्क उसके सामने एक कोमल
पिंड, तो हम देखेंगे कि हमारा प्रत्येक विचार मस्तिष्क के अंदर मानो एक
रास्ता--एक लीक तैयार कर देता है; और यदि मस्तिष्क के अंदर का धूसर पदार्थ उस
रास्ते के चारों ओर एक सीमा खड़ी न कर दे, तो वह रास्ता बंद हो जाएगा। यदि वह
धूसर रंगवाला पदार्थ न रहता, तो हमारी स्मृति ही संभव न होती; क्योंकि स्मृति
का अर्थ है--मानो इन पुराने रास्तों पर से होकर जाना--जो विचार एक बार उठ चुके
हैं, उनका मानो पदानुगमन करना। तुम लोगों ने शायद गौर किया होगा, जब कोई
व्यक्ति सब लोगों के परिचित कुछ विषयों को लेकर, उन्हीं को घुमा-फिराकर कुछ
बोलता है, तो तुम सब अनायास ही मेरी बात समझ लेते हो। इसका कारण बस, इतना ही
है कि इस विचार की प्रणालियाँ हर एक के मस्तिष्क में विद्यमान हैं, और उन पर
से होकर केवल बारंबार आना-जाना मात्र आवश्यक होता है। परंतु जब कभी कोई नया
विषय हमारे सामने आता है, तब मस्तिष्क में एक नए मार्ग के निर्माण की आवश्यकता
होती है। इसीलिए वह विषय उतनी सरलता से समझ में नहीं आता। यही कारण है कि
मस्तिष्क (मनुष्य नहीं, मस्तिष्क ही) बिना जाने ही किसी नए प्रकार के भाव
द्वारा परिचालित होने से इंकार करता है। वह मानो बलपूर्वक इस नए प्रकार के भाव
की गति को रोकने का प्रयत्न करता है। प्राण नएनए मार्ग बनाने का प्रयत्न कर
रहा है, और मस्तिष्क उसे करने नहीं देता। बस, यही मनुष्य की रूढ़िवादिता का
रहस्य है। मस्तिष्क में ये मार्ग जितने थोड़े परिमाण में होंगे और प्राणरूप
सुई उसके भीतर जितनी कम लीकें तैयार करेगी, मस्तिष्क उतनाही रूढ़िवादी होगा,
वह उतना ही नए प्रकार के विचार और भाव के विरुद्ध लड़ाई ठानेगा। मनुष्य जितना
ही चिंतनशील होता है, उसके मस्तिष्क के भीतर के मार्ग उतने ही अधिक जटिल होते
हैं, और उतनी ही सुगमता से वह नएनए भाव ग्रहण कर सकता है तथा उन्हें समझ सकता
है। प्रत्येक नवीन भाव के संबंध में ऐसा ही समझना चाहिए। मस्तिष्क में एक नवीन
भाव आते ही उसके भीतर एक नया मार्ग तैयार हो जाता है। यही कारण है कि
योगाभ्यास के समय हमारे सामने पहले इतनी शारीरिक बाधाएं आती हैं; (क्योंकि योग
संपूर्णतया नवीन प्रकार के विचारों एवं भावों की समष्टि है) इसीलिए हम देखते
हैं कि धर्म का वह अंश, जो प्राकृतिक, जागतिक भाव को लेकर व्यस्त रहता है,
सर्वसाधारण के लिए बहुत मान्य होता है, और उसका दूसरा अंश अर्थात् दर्शन या
मनोविज्ञान, जो केवल मनुष्य के आभ्यंतरिक प्रकृति को लेकर संलग्न रहता है, वह
प्राय: लोगों द्वारा उपेक्षित होता है।
हमें अपने इस जगत की व्याख्या स्मरण रखनी चाहिए। हमारा यह जगत क्या है? वह तो
हमारे ज्ञान के स्तर पर प्रक्षिप्त अनंत सत्ता मात्र है। अनंत का केवल कुछ अंश
हमारे ज्ञान के भीतर प्रक्षिप्त हुआ है, जिसे हम अपना जगत कहते हैं। अतएव हमने
देखा कि जगत के अतीत एक अनंत सत्ता वर्तमान है। और धर्म को इन दोनों को लेकर
व्यस्त रहना पड़ता है। अर्थात् यह क्षुद्र पिंड, जिसे हम अपना जगत कहते हैं,
और जगत के अतीत अनंत सत्ता--ये दोनों ही धर्म के विषय हैं। जो धर्म इन दोनों
में से केवल एक को लेकर रहता है, वह अपूर्ण है। धर्म को इन दोनों को ही अपना
विषय बनाना चाहिए। अनंत का जो भाग हम अपने इस ज्ञान के भीतर से अनुभव करते
हैं, जो मानो देश-काल-निमित्तरूप चक्र के भीतर आ पड़ा है, उसको धर्म के जिस
अंश ने अपना विषय बनाया है, वह अंश अनायास हमें बोधगम्य हो जाता है, क्योंकि
हम तो पहले से ही उसी केअंदर हैं और लगभग स्मरणातीत काल से ही जगत संबंधी भाव
से हम परिचित हैं। पर धर्म का वह अंश, जो सीमाहीन अनंत को लेकर संलग्न रहता
है, वह हमारे लिए सर्वथा नवीन है; इसीलिए उसके चिंतन से मस्तिष्क में नई लीक
तैयार होती रहती है, जिससे सारा शरीर-मन ही मानो उलट-पलट जाता है। यही कारण है
कि साधन करते समय साधारण मनुष्य पहले-पहल अपने मार्ग से विच्युत हो जाता है ।
इन विघ्न-बाधाओं को यथासंभव कम करने के लिए ही पतंजलि ने इन सब उपायों का
आविष्कार किया है, ताकि हम उनमें से ऐसी किसी एक साधन-प्रणाली को चुनकर अपना
लें, जो हमारे लिए सर्वथा उपयोगी हो।
विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी॥३५॥
३५. जिन सब समाधियों में अलौकिक इंद्रिय-विषयों की अनुभूति होती है, वे मन की
स्थिति का कारण होती हैं।
यह बात धारणा अर्थात् एकाग्रता से अपने आप आती रहती है; योगी कहते हैं कि यदि
नासिका के अग्र भाग में मन को एकाग्र किया जाए, तो कुछ दिनों में ही अद्भुत
सुगन्धि का अनुभव होने लगता है। इसी प्रकार जिह्वामूल में मन को एकाग्र करने
पर सुंदर शब्द सुनाई देता है। जिह्वा में ऐसा करने पर दिव्य रसास्वादन होता
है। जिह्वा के बीच में संयम करने पर प्रतीत होता है कि मैंने मानो किसी एक
वस्तु का स्पर्श किया। तालु में संयम करने पर दिव्य रूप दीख पड़ते हैं। यदि
कोई अस्थिरचित्त व्यक्ति इस योग के कुछ साधनों का अवलंबन करना चाहे और फिर भी
उनकी सचाई में संदिग्धचित्त हो, तो कुछ दिन साधन करने के बाद, ये सब
अनुभूतियाँ होने पर, फिर उसे संदेह नहीं रहेगा। तब फिर वह अध्यवसाय के साथ
साधन करता रहेगा।
विशोका वा ज्योतिष्मती॥३६॥
३६. अथवा शोक से रहित ज्योतिष्मान पदार्थ के (ध्यान) से भी (समाधि होती है)।
यह और एक प्रकार की समाधि है। ऐसा ध्यान करो कि हृदय में मानो एक कमल है; उसकी
पंखुड़ियाँ अधोमुखी हैं और उसके भीतर से सुषुम्णा गई है। उसके बाद पूरक करो,
फिर रेचक करते समय सोचो कि वह कमल पँखुड़ियों सहित ऊर्ध्वमुखी हो गया है और
कमल के भीतर एक महाज्योति विद्यमान है। उस ज्योति का ध्यान करो।
वीतरागविषयं वा चित्तम् ॥३७॥
३७. अथवा जिस हृदय ने इंद्रिय-विषयों के प्रति समस्त आसक्ति छोड़ दी है, (उसके
ध्यान से भी चित्त स्थिर होता है)।
किन्हीं महापुरुष या साधु को लो, जो पूर्ण रूप से अनासक्त हों और जिन पर
तुम्हारी अत्यंत श्रद्धा हो। उनके हृदय के बारे में चिंतन करो। उनका अंतः करण
सर्वविषयों में अनासक्त हो गया है, अतः उनके अंतःकरण के बारे में चिंतन करने
पर तुम्हारा अंतःकरण शांत हो जाएगा। यदि यह न कर सको, तो और एक उपाय है :
स्वप्ननिद्राशानालंबनं वा ॥३८॥
३८. अथवा स्वनावस्था में कभी कभी जो अपूर्व जान-लाभ होता है, उसका, तथा सुप्ति
माल्या में प्राप्त सात्त्विक सुख का ध्यान करने से भी (पित प्रशांत होता है।)
कभी कभी मनुष्य ऐसा स्वप्न देखता है कि उसके पास देवता आकर बातचीत कर रहे हैं;
वह मानो एक प्रकार से भावावेश में चूर हो गया है; वायु में एक अपूर्व संगीत की
ध्वनि वहती हुई चली आ रही है और वह उसे सुन रहा है। उस स्वप्नावस्था में वह
आनंद में मस्त रहता है। जब वह जागता है, तब स्वप्न की वे घटनाएँ उसके मन पर एक
गहरी छाप छोड़ जाती हैं। उस स्वप्न को सत्य मानकर उसका ध्यान करो। यदि तुम
इसमें भी समर्थ न होओ, तो जो कोई पवित्र वस्तु तुम्हें अच्छी लगे, उसी का
ध्यान करो।
यथाभिमतध्यानाद्वा ॥३९॥
३९. अथवा जिसे जो कोई चीज अच्छी लगे, उसीके ध्यान से (समाधि प्राप्त होती है)।
इससे यह न समझ लेना चाहिए कि किसी असत् वस्तु का भी ध्यान करने से बनेगा। जो
कोई सत् वस्तु तुम्हें अच्छी लगे, जो स्थान तुम्हें पसंद हो, जो दृश्य या जो
भाव तुम्हें बहुत अच्छा लगता हो, जिससे तुम्हारा चित्त एकाग्र हो जाता हो,
उसीका चिंतन करो।
परमाणुपरममहत्त्वान्तोऽस्य वशीकारः ॥४०॥
४०. इस प्रकार ध्यान करते करते परमाणु से लेकर परम बृहत् पदार्थ तक सभी में
उनके मन की गति अव्याहत हो जाती है।
मन इस अभ्यास के द्वारा अत्यंत सूक्ष्म से लेकर बृहत्तम वस्तु तक सभी पर
सुगमता से ध्यान कर सकता है। ऐसा होने पर ये मनोवृत्ति-प्रवाह भी धीरे- धीरे
क्षीण होने लगते हैं।
क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु।
तत्स्थतदंजनता समापत्तिः ॥४१॥
४१. जिन योगी की चित्तवृत्तियाँ इस प्रकार क्षीण हो चुकी हैं (वश में आ चुकी
हैं), उनका चित्त उस समय ग्रहीता (आत्मा), ग्रहण (अंतःकरण और इंद्रियाँ) और
ग्राह्य (पंचभूत और विषयों) में उसी प्रकार एकाग्रता और एकीभाव को प्राप्त
होता है, जिस प्रकार शुद्ध स्फटिक (भिन्न- भिन्न रंग वाली वस्तुओं के सामने
भिन्न- भिन्न रंग धारण करता है)।
इस प्रकार लगातार ध्यान करते करते कौन सा फल प्राप्त होता है? हमें यह स्मरण
होगा कि पूर्वोक्त एक सूत्र में पतंजलि ने विभिन्न प्रकार की समाधियों का
वर्णन किया है। पहली समाधि है स्थूल विषय को लेकर, और दूसरी है सूक्ष्म विषय
को लेकर। आगे चलकर, क्रमशः और भी सूक्ष्मतर वस्तुएँ हमारी समाधि का विषय होती
जाती हैं, यह भी पहले कहा जा चुका है। इन सब समाधियों के अभ्यास का फल यह है
कि हम जितनी सुगमता से स्थूल विषयों का ध्यान कर सकते हैं, उतनी ही सुगमता से
सूक्ष्म विषयों का भी। इस अवस्था में योगी तीन वस्तुएँ देखते हैं--ग्रहीता,
ग्राह्य और ग्रहण, अर्थात् आत्मा, विषय और मन। हमें ध्यान के लिए तीन प्रकार
के विषय दिएगए हैं। पहला है स्थूल, जैसे--शरीर या भौतिक पदार्थ; दूसरा है
सूक्ष्म, जैसे--मन या चित्त; और तीसरा है गुणविशिष्ट पुरुष अर्थात् मस्मिता या
अहंकार। यहाँ आत्मा का अर्थ उसके यथार्थ स्वरूप से नहीं है। अभ्यास के द्वारा
योगी इन सब ध्यानों में दृढ़प्रतिष्ठ हो जाते हैं। तब उन्हें ऐसी
एकाग्रता-शक्ति प्राप्त हो जाती है कि ज्यों ही वे ध्यान करने बैठते हैं,
त्यों ही अन्य सभी वस्तुओं को मन से हटा दे सकते हैं। वे जिस विषय का ध्यान
करते हैं, उस विषय के साथ एक हो जाते हैं; जब वे ध्यान करते हैं, तब वे मानो
स्फटिक के एक टुकड़े के समान हो जाते हैं। यह स्फटिक यदि फूल के पास रहे, तो
वह फूल के साथ मानो एकरूप हो जाता है। यदि वह फूल लाल हो, तो स्फटिक भी लाल
दिखाई देता है, और यदि फूल नीले रंग का हो, तो स्फटिक भी नीला दिखाई देता है।
तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः ॥४२॥
४२. शब्द, अर्थ और उससे उत्पन्न ज्ञान जब मिश्रित होकर रहते हैं, तब वह
सवितर्क अर्थात् वितर्कयुक्त समाधि (कहलाती) है।
यहाँ शब्द का अर्थ है कंपन। अर्थ का मतलब है वह स्नायविक शक्ति-प्रवाह, जो उसे
भीतर ले जाता है। और ज्ञान का अर्थ है प्रतिक्रिया। हमने अब तक जितने प्रकार
की समाधि की बात सुनी है, पतंजलि इन सभी को सविसर्क कहते हैं। इसके बाद वे
हमें क्रमशः और भी उच्चतर समाधियों की शिक्षा देंगे। इन सवितर्क समाधियों में
हम विषयी और विषय, इन दोनों को संपूर्ण रूप से पृथक् रखते हैं। यह पार्थक्य या
भेद शब्द, उसके अर्थ और तत्प्रसूत ज्ञान के मिश्रण से उत्पन्न होता है। पहले
तो है बाह्य कंपन--शब्द; जब वह इंद्रिय-प्रवाह द्वारा भीतर प्रवाहित होता है,
सब उसे अर्थ कहते हैं। उसके बाद चित्त में एक प्रतिक्रिया प्रवाह आता है; उसे
जान कहा जाता है। जिसे हम बाह्य वस्तु की अनुभूति कहते हैं, वह वस्तुतः इन
तीनों की समष्टि (संकीर्ण) मात्र है। हमने अब तक जितने प्रकार की समाधियों की
बात सुनी है, उन सबमें यह समष्टि ही हमारे ध्यान का विषय होती है। इसके बाद
जिस समाधि के बारे में कहा जाएगा, वह अपेक्षाकृत श्रेष्ठ है।
स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निवितर्का ॥४३॥
४३. जब स्मृति शुद्ध हो जाती है, अर्थात् स्मृति में जब और किसी प्रकार के गुण
का संपर्क नहीं रह जाता, जब वह केवल ध्येय वस्तु का अर्थ मात्र प्रकाशित करती
है, तब उसे निर्वितर्क अर्थात् वितर्कशून्य समाधि कहते हैं।
पहले जिस शब्द, अर्थ और ज्ञान की बात कही गई है, उन तीनों का एक साथ अभ्यास
करते करते एक समय ऐसा आता है, जब वे और अधिक मिश्रित नहीं होते; तब हम अनायास
ही इन त्रिविध भावों का अतिक्रमण कर सकते हैं। अब पहले हम यही समझने की विशेष
चेष्टा करेंगे कि ये तीन क्या हैं। देखो, यह चित्त हैं। यह हमेशा याद रखना कि
चित्त अर्थात् मनस्तत्त्व की उपमा सरोवर से दी गई है और स्पंदन--शब्द या ध्वनि
सरोवर के सतह पर आए हुए कंपन के समान है। तुम्हारे अपने भीतर ही यह स्थिर
सरोवर विद्यमान है। मान लो, मैंने 'गाय' शब्द का उच्चारण किया। ज्यों ही वह
तुम्हारे कान में प्रवेश करता है, त्यों ही तुम्हारे चित्तरूपी सरोवर में एक
कंपन उठा देता है। यह कंपन ही 'गाय' शब्द से सूचित भाव या अर्थ है। तुम जो
सोचते हो कि मैं एक गाय को जानता हूँ, वह केवल तुम्हारे मन के भीतर रहने वाली
एक तरंग मात्र है। वह बाह्य एवं आभ्यंतर ध्वनि-स्पंदन की प्रतिक्रिया के रूप
में उत्पन्न होती है। उस ध्वनि के साथ वह तरंग भी नष्ट हो जाती है; ध्वनिजनित
क्षोभ के बिना तरंग रह ही नहीं सकती। तुम पूछ सकते हो कि जब हम गाय के बारे
में केवल सोचते हैं, पर बाहर से कोई ध्वनि कानों में नहीं पहुँचती, तब भला
ध्वनि कहाँ रहती है? उत्तर यह है कि तब वह ध्वनि तुम स्वयं करते हो। तब तुम
अपने मन ही मन 'गाय' शब्द का धीरे- धीरे उच्चारण करते रहते हो, और बस, उसी से
तुम्हारे भीतर एक तरंग आ जाती है। ध्वनि के इस संवेग के बिना कोई तरंग नहीं आ
सकती; और जब यह संवेग बाहर से नहीं आता, तब भीतर से ही आता है। ध्वनि के साथ
ही लहर का भी नाश हो जाता है। तब फिर बच क्या रहता है? तब उस प्रतिक्रिया का
परिणाम भर बच रहता है। वही ज्ञान है। हमारे मन के अंदर ये तीनों इतने
दृढ़संबद्ध हैं कि हम उन्हें अलग नहीं कर सकते। ज्यों ही ध्वनि आती है, त्यों
ही इंद्रियाँस्पंदित हो उठती हैं और प्रतिक्रिया के रूप में एक तरंग उठ जाती
है। ये तीनों क्रियाएँ एक के बाद एक इतनी शीघ्रता से होती हैं कि उनमें एक को
दूसरे से अलग करना अत्यंत कठिन है। यहाँ जिस समाधि की बात कही गई है, उसका
दीर्घ काल तक अभ्यास करने पर स्मृति--समस्त संस्कारों की आधारभूमि शुद्ध हो
जाती है, और तब हम उनमें से एक दूसरे को अलग कर सकते हैं। इसीको निर्वितर्क या
तर्करहित समाधि कहते हैं।
एतयैव सविचारा निविचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता॥४४॥
४४. पूर्वोक्त दो सूत्रों में सवितर्क और निर्वितर्क, जिन दो समाधियों की बात
कही गई है, उन्हींके द्वारा सूक्ष्मतर विषयवाली सविचार और निविचार समाधियों की
भी व्याख्या कर दी गई है।
यहाँ पहले के ही समान समझना चाहिए। भेद केवल इतना है कि पूर्वोक्त दोनों
समाधियों के विषय स्थूल हैं और यहाँ वे विषय सूक्ष्म हैं।
सूक्ष्मविषयत्वं चालिंगपर्यवसानम् ॥४५॥
४५. सूक्ष्म विषयों की अवधि प्रधान पर्यंत है।
पंच महाभूत और उनसे उत्पन्न समस्त वस्तुओं को स्थूल कहते हैं। सूक्ष्म वस्तु
तंमात्रा से शुरू होती है। इंद्रिय, मन
[4]
, अहंकार, महत्तत्त्व (जो समस्त अभिव्यक्ति का कारण है), सत्त्व, रज और तम की
साम्यावस्थारूप प्रधान, प्रकृति या अव्यक्त--ये सभी सूक्ष्म वस्तु के अंतर्गत
हैं, केवल पुरुष अर्थात् आत्मा को छोड़कर।
ता एव सबीजः समाधिः ॥४६॥
४६. ये सभी सबीज समाधि हैं।
इन सब समाधियों में पूर्व कर्मों का बीज नष्ट नहीं होता; अतः उनसे मुक्ति
प्राप्त नहीं होती। तो फिर उनसे होता क्या है? यह आगे के सूत्र में बतलाया गया
है।
निविचारवैशार्द्येऽध्यात्मप्रसादः ॥४७॥
४७. निर्विचार समाधि निर्मल होने पर चित्त की स्थिति दृढ़ हो जाती है।
ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ॥४८॥
४८. उसमें जिस ज्ञान की प्राप्ति होती है, उसे ऋतम्भर यानी सत्यपूर्ण ज्ञान
कहते हैं।
अगले सूत्र में इसकी व्याख्या होगी।
श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ॥४९॥
४९. जो ज्ञान विश्वस्त मनुष्यों के वाक्य और अनुमान से प्राप्त होता है, वह
सामान्य वस्तुविषयक होता है। जो विषय आगम और अनुमान से उत्पन्न ज्ञान के गोचर
नहीं हैं, वे पूर्वोक्त समाधि द्वारा प्रकाशित होते हैं।
तात्पर्य यह है कि हमें सामान्य वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव, उस पर
आधारित अनुमान और विश्वस्त मनुष्यों के वाक्यों से होता है। 'विश्वस्त
मनुष्यों से योगियों का तात्पर्य है 'ऋषि', और ऋषि का अर्थ है--वेद में
लिपिबद्ध मंत्रों के द्रष्टा। उनके मतानुसार, शास्त्रों का प्रामाण्य केवल यह
है कि वे विश्वस्त मनुष्यों के वचन हैं। शास्त्र विश्वस्त मनुष्य के वचन होने
पर भी, वे कहते हैं कि केवल शास्त्र हमें आत्मानुभूति कराने में कभी समर्थ
नहीं हैं। हम भले ही सारे वेदों को पढ़ डालें, पर तो भी हो सकता है कि हमें
किसी तत्त्व की अनुभूति न हो। पर जब हम उनमें वर्णित उपदेशों को अपने जीवन में
उतारते हैं--उनके अनुसार कार्य करते हैं, तब हम ऐसी एक अवस्था में पहुँच जाते
हैं, जिसमें शास्त्रोक्त बातों की प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है और जहाँ तर्क,
प्रत्यक्ष या अनमान किसीकी भी पहुँच नहीं है, वहाँ आप्त वाक्य की भी कोई
उपयोगिता नहीं है। यही इस सूत्र का तात्पर्य है।
प्रत्यक्ष उपलब्धि ही यथार्थ धर्म है, वही धर्म का सार है, और शेष
सब--उदाहरणार्थ, धर्म संबंधी भाषण सुनना, धार्मिक ग्रंथों का पाठ करना, या
विचार करना--उस उपलब्धि के लिए जमीन की तैयारियाँ मात्र हैं। वह यथार्थ धर्म
नहीं है। केवल किसी मत के साथ-चौद्धिक सहमति अथवा असहमति धर्म नहीं है।
योगियों का मूल भाव यह है कि जैसे इंद्रियों के विषयों के साथ हम लोगों का
साक्षात् संबंध होता है, उसी प्रकार धर्म भी प्रत्यक्ष किया जा सकता है। और
इतना ही नहीं, बल्कि वह तो और भी तीव्रतर रूप से उपलब्ध हो सकता है। ईश्वर,
आत्मा बादि जो सब धर्म के प्रतिपाद्य सत्य हैं, वे बहिरिन्द्रियों से
प्रत्यक्ष नहीं हो सकते। मैं आँखों से ईश्वर को नहीं देख सकता, या हाथ से उनका
स्पर्श नहीं कर सकता। हम यह भी जानते हैं कि युक्ति-तर्क हमें इंद्रियों के
परे नहीं ले जा सकता; वह तो हमें सर्वथा एक अनिश्चित स्थल में छोड़ आता है। हम
भले ही जीवन भर विचार करते रहें, जैसा कि दुनिया हजारों वर्षों से करती आ रही
है, पर आखिर उसका फल क्या होता है? यही कि धर्म के सत्यों को प्रमाणित या
अप्रमाणित करने में हम अपने को असमर्थ पाते हैं। हम जिसका इंद्रियों से
प्रत्यक्षतः अनुभव करते हैं, उसीके आधार पर हम तर्क, विचार आदि किया करते हैं।
अतः यह स्पष्ट है कि तर्क को इंद्रिय-प्रत्यक्ष की इस चारदीवारी के भीतर ही
चक्कर काटना पड़ता है। वह उसके परे कभी नहीं जा सकता। अतएव आत्मानुभूति के
समग्र क्षेत्र इंद्रिय-प्रत्यक्ष के परे हैं। योगी कहते हैं कि मनुष्य
इंद्रिय-प्रत्यक्ष के परे और तर्क के परे भी जा सकता है। मनुष्य में अपनी
बुद्धि को भी लाँघ जाने की शक्ति, सामर्थ्य है, और यह शक्ति प्रत्येक प्राणी
में, प्रत्येक जंतु में निहित है। योग के अभ्यास से यह शक्ति जाग्रत हो जाती
है और तब मनुष्य युक्ति-तर्क की साधारण सीमा को पार करता है और तर्क के अगम्य
विषयों का साक्षात्कार करता है।
तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी ॥५०॥
५०. यह समाधिजात संस्कार दूसरे सब संस्कारों का प्रतिबंधी होता है, अर्थात्
दूसरे संस्कारों को फिर आने नहीं देता।
हमने पहले के सूत्र में देखा है कि उस अतिचेतन भूमि पर जाने का एकमात्र उपाय
है--एकाग्रता। हमने यह भी देखा है कि पूर्व संस्कार ही उस प्रकार की एकाग्रता
पाने में हमारे प्रतिबंधक हैं। तुम सबों ने गौर किया होगा कि ज्यों ही तुम लोग
मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करते हो, त्यों ही तुम्हारे अंदर नाना प्रकार के
विचार भटकने लगते हैं। ज्यों ही ईश्वर-चिंतन करने की चेष्टा करते हो, ठीक उसी
समय ये सब संस्कार जाग उठते हैं। दूसरे समय वे उतने कार्यशील नहीं रहते; किंतु
ज्यों ही तुम उन्हें भगाने की कोशिश करते हो, वे अवश्यमेव आ जाते हैं और
तुम्हारे मन को बिल्कुल आच्छादित कर देने का भरसक प्रयत्न करते हैं। इसका कारण
क्या है? इस एकाग्रता के अभ्यास के समय ही वे इतने प्रबल क्यों हो उठते हैं?
इसका कारण यही है कि तुम उनको दबाने की चेष्टा कर रहे हो और वे अपने सारे बल
से प्रतिक्रिया करते हैं। अन्य समय वे इस प्रकार अपनी ताक़त नहीं लगाते। इन सब
पूर्व संस्कारों की संख्या भी कितनी अगणित है! चित्त के किसी स्थान में वे
चुपचाप बैठे रहते हैं और बाघ के समान झपटकर आक्रमण करने के लिए मानो हमेशा घात
में रहते हैं! उन सबको रोकना होगा, ताकि हम जिस भाव को मन में रखना चाहें, वही
आए और दूसरे सब भाव चले जाएँ। पर ऐसा न होकर वे सब तो उसी समय आने के लिए
संघर्ष करते हैं। मन की एकाग्रता में बाधा देनेवाली ये ही संस्कारों की विविध
शक्तियाँ हैं। अतएव जिस समाधि की बात अभी कही गई है, उसका अभ्यास सबसे उत्तम
है; क्योंकि वह उन संस्कारों को रोकने में समर्थ है। इस समाधि के अभ्यास से जो
संस्कार उत्पन्न होगा, वह इतना शक्ति मान होगा कि वह अन्य सब संस्कारों का
कार्य रोककर उन्हें वशीभूत करके रखेगा।
तस्यापि निरोधे सर्व निरोधान्निर्बीजः समाधिः॥५१॥
५१. उसका भी (अर्थात् जो संस्कार अन्य सभी संस्कारों को रोक देता है) निरोध हो
जाने पर, सबका निरोध हो जाने के कारण, निर्बीज समाधि (हो जाती है)।
तुम लोगों को यह अवश्य स्मरण है कि आत्म-साक्षात्कार ही हमारे जीवन का चरम
लक्ष्य है। हम लोग आत्म-साक्षात्कार नहीं कर पाते, क्योंकि इस आत्मा का
प्रकृति, मन और शरीर के साथ तादात्म्य हो गया है। अज्ञानी मनुष्य अपने शरीर
कोही आत्मा समझता है। उसकी अपेक्षा कुछ उन्नत मनुष्य मन को ही आत्मा समझता है।
किंतु दोनों ही भूल में हैं। अच्छा, आत्मा इन सब उपाधियों के साथ कैसे एकाकार
हो जाती है? चित्त में ये नाना प्रकार की लहरें (वृत्तियाँ) उठकर आत्मा को
आच्छादित कर लेती हैं और हम इन लहरों में से आत्मा का कुछ प्रति बिंब मात्र
देख पाते हैं। यही कारण है कि जब क्रोध-वृत्तिरूप लहर उठती है, तो हम आत्मा को
क्रोधयुक्त देखते हैं, कहते हैं कि हम क्रुद्ध हुए हैं; जब चित्त में प्रेम की
लहर उठती है, तो उस लहर में अपने को प्रतिबिंबित देखकर हम सोचते हैं कि हम
प्यार कर रहे हैं। जब दुर्बलतारूप वृत्ति उठती है और आत्मा उसमें प्रतिबिंबित
हो जाती है, तो हम सोचते हैं कि हम कमजोर हैं। ये सब पूर्व संस्कार जब आत्मा
के स्वरूप को आच्छादित कर लेते हैं, तभी इस प्रकार के विभिन्न भाव उदित होते
रहते हैं। चित्तरूपी सरोवर में जब तक एक भी लहर रहेगी, तब तक आत्मा का यथार्थ
स्वरूप दिखाई नहीं देगा। जब तक समस्त लहरें बिल्कुल शांत नहीं हो जाती, तब तक
आत्मा का प्रकृतस्वरूप कभी प्रकाशित नहीं होगा। इसी लिए पतंजलि ने पहले यह
समझाया है कि ये तरंगरूप वृत्तियाँ क्या हैं और बाद में उनको दमन करने का
सर्वश्रेष्ठ उपाय सिखलाया है। और तीसरी बात यह सिखलाई है कि जैसे एक बृहत्
अग्निराशि छोटे छोटे अग्निकणों को निगल लेती है, उसी प्रकार एक लहर को इतनी
प्रबल बनाना होगा, जिससे अन्य सब लहरें बिल्कुल लुप्त हो जाएँ। जब केवल एक ही
लहर बच रहेगी, तब उसका भी निरोध कर देना सहज हो जाएगा। और जब वह भी चली जाती
है, तब उस समाधि को निर्बीज समाधि कहते हैं। तब और कुछ भी नहीं बच रहता और
आत्मा अपने स्वरूप में अपनी महिमा में प्रकाशित हो जाती है। तभी हम जान पाते
हैं कि आत्मा यौगिक पदार्थ नहीं है, संसार में एकमात्र वही नित्य अयौगिक
पदार्थ है; अतएव उसका जन्म भी नहीं है और मृत्यु भी नहीं--वह अमर है, अविनश्वर
है, नित्य चैतन्यधन सत्ता स्वरूप है।
द्वितीय अध्याय
साधनपाद
तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ॥१॥
१. तपस्या, अध्यात्मशास्त्रों के पठन-पाठन और ईश्वर में समस्त कर्मफलों के
समर्पण को क्रियायोग कहते हैं।
पिछले अध्याय में जिन सब समाधियों की बात कही गई है, उन्हें प्राप्त करना
अत्यंत कठिन है। इसलिए हमें धीरे धीरे--विभिन्न सोपानों में से होते हुए उन सब
समाधियों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना होगा। इसके पहले सोपान को क्रिया
योग कहते हैं। इसका शब्दार्थ है--कर्म के सहारे योग की ओर बढ़ना। हमारी देह
मानो एक रथ है, इंद्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथी है और आत्मा
रथी है। यह गृहस्वामी, यह राजा, यह मनुष्य की आत्मा रथ में सबार है। यदि घोड़े
बड़े तेज़ हों और लगाम खिची न रहे, यदि बुद्धिरूपी सारथी उन घोड़ों को संयत
करना न जाने, तो रथ की दुर्दशा हो जाएगी। पर यदि इंद्रियरूपी घोड़े अच्छी तरह
से संयत रहें और मनरूपी लगाम बुद्धिरूपी सारथी के हाथों अच्छी तरह थमी रहे, तो
वह रथ ठीक अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच जाता है। अब यह समझ में आ जाएगा कि इस
तपस्या शब्द का अर्थ क्या है। तपस्या शब्द का अर्थ है--इस शरीर और इंद्रियों
को चलाते समय लगाम अच्छी तरह थामे रहना, उन्हें अपनी इच्छानुसार काम न करने
देकर अपने वश में किए रहना। उसके बाद है पठन-पाठन या स्वाध्याय। यहाँ पाठ का
तात्पर्य क्या है? नाटक, उपन्यास या कहानी की पुस्तक का पाठ नहीं, वरन् उन
ग्रंथों का पाठ है, जो यह शिक्षा देते हैं कि आत्मा की मुक्ति कैसे होती है।
फिर स्वाध्याय से तर्क या वाद-विवाद की पुस्तक का पाठ नहीं समझना चाहिए। जो
योगी हैं, वे तो वाद-विवाद करके तृप्त हो चुके रहते हैं। वाद-विवाद में उनकी
और कोई रुचि नहीं रह जाती। वे पठन पाठन करते हैं, केवल अपनी धारणाओं को दृढ़
करने के लिए। शास्त्रीय ज्ञान दो प्रकार के हैं। एक है वाद (जो तर्क-युक्ति और
विचारात्मक है), और दूसरा है सिद्धांत (मीमांसात्मक)। अज्ञानावस्था में मनुष्य
प्रथमोक्त प्रकार के शास्त्रीय ज्ञान के अनुशीलन में प्रवृत्त होता है, वह
तर्कयुद्ध के समान है--प्रत्येक वस्तु के सब पहलू देखकर विचार करना; इस विचार
का अंत होने पर वह किसी एक मीमांसा या सिद्धांत पर पहुँचता है। किंतु केवल
सिद्धांत पर पहुँचने से नहीं हो जाता। इस सिद्धांत के बारे में मन की धारणा को
दूर करना होगा। शास्त्र तो अनंत है और समय अल्प है; अत: ज्ञान-प्राप्ति का
रहस्य है--सब वस्तुओं का सार-भाग ग्रहण करना। उस सार-भाग को ग्रहण करो और उसे
अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करो। भारत में एक पुरानी किंवदंती है कि यदि
तुम किसी राजहंस के सामने एक कटोरा भर पानी मिला हुआ दूध रख दो, तो वह दूध-
दूध पी लेगा और पानी- पानी छोड़ देगा। उसी प्रकार ज्ञान का जो अंश आवश्यक है,
उसे लेकर असार भाग को हमें फेंक देना चाहिए। पहले-पहल बुद्धि की कसरत आवश्यक
होती है। अन्धे के समान कुछ भी ले लेने से नहीं बनता। पर जो योगी हैं, वे इस
युक्ति-तर्क की अवस्था को पारकर एक ऐसे सिद्धांत पर पहुँच चुके हैं, जो पर्वत
के समान अचल-अटल है। इसके बाद उनका सारा प्रयत्न उस सिद्धांत के दृढ़ करने में
होता है। वे कहते हैं, वाद-विवाद मत करो; यदि कोई तुम्हें वाद-विवाद करने को
बाध्य करे, तो चुप रहो। किसी वाद-विवाद का जवाब न देकर शांतभाव से वहां से चले
जाओ; क्योंकि वाद-विवाद द्वारा मन केवल चंचल ही होता है। वाद-विवाद की
आवश्यकता थी, केवल बुद्धि को तेज करने के लिए; जब वह संपन्न हो चुका, तब और
उसे बेकार चंचल करने की क्या जरूरत? बुद्धि तो एक दुर्बल यंत्र मात्र है, वह
हमें केवल इंद्रियों के घेरे में रहनेवाला ज्ञान दे सकता है। पर योगी इंद्रिय
के परे जाना चाहते हैं, अतएव उनके लिए बुद्धि चलाने की और कोई आवश्यकता नहीं
रह जाती। उन्हें इस विषय में पक्का विश्वास हो चुका है, अतएव वे वाद-विवाद
नहीं करते, चुपचाप रहते हैं। क्योंकि वाद-विवाद करने से मन समता से च्युत हो
जाता है, चित्त में एक हलचल मच जाती है। और चित्त की ऐसी हलचल उनके लिए एक
विघ्न ही है। ये सब वाद-विवाद, युक्ति-तर्क केवल प्रारंभिक अवस्था के लिए हैं।
इस युक्ति-तर्क के अतीत और भी उच्चतर तत्त्वसमूह हैं। सारे जीवन भर केवल
विद्यालय के बच्चों के समान विवाद या तर्क-वितर्क समिति लेकर ही रहना पर्याप्त
नहीं है। ईश्वर में कर्मफल अर्पित करने का तात्पर्य है--कर्म के लिए स्वयं कोई
प्रशंसा या निंदा न लेकर इन दोनों को ही ईश्वर को समर्पित कर देना और शांति से
रहना।
समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च ॥२॥
२. समाधि की सिद्धि के लिए और क्लेशजनक विघ्नों को क्षीण करने के लिए (इस
क्रियायोग की आवश्यकता है।)
हममें से अनेकों ने मन को लाड़-प्यार के लड़के के समान कर डाला है। वह जो कुछ
चाहता है, उसे वही दे दिया करते हैं। इसीलिए क्रियायोग का सतत अभ्यास आवश्यक
है, जिससे मन को संयत करके अपने वश में लाया जा सके। इस संयम के अभाव में ही
योग के सारे विघ्न उपस्थित होते हैं और उनसे फिर क्लेश की उत्पत्ति होती है।
उन्हें दूर करने का उपाय है--क्रियायोग द्वारा मन को वशीभूत कर लेना, उसे अपना
कार्य न करने देना।
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: क्लेशाः॥३॥
३. अविद्या, अस्मिता (अहंकार), राग, द्वेष और अभिनिवेश (जीवन के प्रति
ममता)--(ये पाँचों) क्लेश है।
ये ही पंचक्लेश हैं, ये पाँच बंधनों के समान हमें इस संसार में बांध रखते हैं।
इनमें से अविद्या ही कारण है और शेष चार क्लेश इसके कार्य है। यह अविद्या ही
हमारे दुःख का एकमात्र कारण है। भला और किसकी शक्ति है, जो हमें इस प्रकार
दुःख में रख सके? आत्मा तो नित्य आनंदस्वरूप है। उसे अज्ञान-प्रम--माया के
सिवा और कौन दुःखी कर सकता है? आत्मा के ये समस्त दुःख केवल भ्रम मात्र हैं।
अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥४॥
४. अविद्या ही उन शेष चार का उत्पादक क्षेत्रस्वरूप है। वे कभी यौनभाव से, कभी
सूक्ष्मभाव से, कभी अन्य वृत्ति के द्वारा विच्छित्र अर्थात् अभिभूत होकर और
कभी प्रकाशित होकर रहते हैं।
अविद्या ही अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश का कारण है। ये संस्कारसमूह
विभिन्न मनुष्यों के मन में विभिन्न अवस्थाओं में रहते हैं। कभी कभी वे
प्रसुप्त रूप से रहते हैं। तुम लोग अनेक समय 'शिशु के समान भोला'--यह वाक्य
सुनते हो; परंतुसंभव है, इस शिशु के भीतर ही देवता या असुर का भाव विद्यमान
हो, जो धीरे- धीरे समय पाकर प्रकाशित होगा। योगी में पूर्व कर्मों के फलस्वरूप
ये संस्कार सूक्ष्म भाव से रहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वे अत्यंत
सूक्ष्म अवस्था में रहते हैं और योगी उन्हें दबाकर रख सकते हैं। उनमें उन
संस्कारों को प्रकाशित न होने देने की शक्ति रहती है। कभी कभी कुछ प्रवल
संस्कार अन्य कुछ संस्कारों को कुछ समय तक के लिए दबाकर रखते है, किंतु ज्यों
ही वह दबा रखने वाला कारण चला जाता है, त्यों ही ये पहले के संस्कार फिर से उठ
जाते हैं। इस अवस्था को विच्छिन्न कहते हैं। अंतिम अवस्था का नाम है उदार। इस
अवस्था में संस्कारसमूह अनुकूल परिस्थितियों का सहारा पाकर बड़े प्रबल भाव से
शुभ या अशुभ रूप से कार्य करते रहते हैं।
अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ॥५॥
५. अनित्य, अपवित्र, दु:खकर और आत्मा से भिन्न पदार्य में (क्रमशः) नित्य,
पवित्र, सुखकर और आत्मा की प्रतीति 'अविद्या है।
इन समस्त संस्कारों का एकमात्र कारण है अविद्या। हमें पहले यह जान लेना होगा
कि यह अविद्या क्या है। हम सभी सोचते हैं, "मैं शरीर हूँ--शुद्ध, ज्योतिर्मय,
नित्य, आनंदस्वरूप आत्मा नहीं।" यह अविद्या है। हम लोग मनुष्य को शरीर के रूप
में ही देखते और जानते हैं। यह महान भ्रम है।
दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतैवास्मिता ॥६॥
६. दृक्-शक्ति और दर्शन-शक्ति का एकीभाव ही अस्मिता है।
आत्मा ही यथार्थ द्रष्टा है; वह शुद्ध, नित्य पवित्र, अनंत और अमर है। और
दर्शन-शक्ति अर्थात् उसके व्यवहार में आनेवाले यंत्र कौन कौन से हैं? चित्त,
बुद्धि अर्थात् निश्चयात्मिका वृत्ति, मन और इंद्रियाँ--ये उसके यंत्र हैं। ये
सब बाह्य जगत को देखने के लिए उसके यंत्रस्वरूप हैं, और उसकी इन सबके साथ
एकरूपता को अस्मितारूप अविद्या कहते हैं। हम कहा करते हैं, 'मैं मन हूँ', 'मैं
क्रुद्ध हुआ हूँ', 'मैं सुखी हूँ।' पर सोचो तो सही, हम कैसे क्रुद्ध हो सकते
हैं, कैसे किसी के प्रति घृणा कर सकते हैं? आत्मा के साथ हमें अपने को अभिन्न
समझना चाहिए। आत्मा का तो कभी परिणाम नहीं होता। यदि आत्मा अपरिणामी हो, तो वह
कैसे इस क्षण सुखी, और दूसरे ही क्षण दुःखी हो सकती है? वह निराकार, अनंत' और
सर्वव्यापी है। उसे कौन परिणामी बना सकता है? आत्मा सर्व प्रकार के नियमों के
परे है। उसे कौन विकृत कर सकता है? संसार में कोई भी, आत्मा पर किसी प्रकार का
कार्य नहीं कर सकता। तो भी हम लोग अज्ञानवश अपने आप को मनोवृत्ति के साथ एकरूप
कर लेते हैं और सोचा करते है कि हम सुख या दुःख का अनुभव कर रहे हैं।
सुखानुशयी रागः ॥७॥
७. जो मनोवृत्ति केवल सुखकर पदार्थ के ऊपर रहना चाहती है, उसे राग कहते हैं।
हम किसी किसी विषय में सुख पाते हैं। जिसमें हम सुख पाते हैं, मन एक प्रवाह के
समान उसकी ओर प्रवाहित होता है। सुख-केंद्र की ओर दौड़नेवाले मन के इस प्रवाह
को ही राग या आसक्ति कहते हैं। हम जिस विषय में सुख नहीं पाते, उधर हमारा मन
कभी भी आकृष्ट नहीं होता। हम लोग कभी-कभी नाना प्रकार की विचित्र चीजों में
सुख पाते हैं, तो भी राग की जो परिभाषा दी गई है, वह सर्वत्र ही लागू होती है।
हम जहाँ सुख पाते हैं, वहीं आकृष्ट हो जाते हैं।
दुःखानुशयी द्वेषः ॥८॥
८. दुःखकर वस्तु पर पुनः पुनः स्थितिशील एक विशेष अंतःकरण-वृत्ति को द्वेष
कहते हैं।
जिसमें हम दुःख पाते हैं, उसे तत्क्षण त्याग देने का प्रयत्न करते हैं ।
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः ॥९॥
९. जो (पहले के मृत्यु के अनुभवों से) स्वभावतः चला आ रहा है, एवं जो विवेकशील
पुरुषों में भी विद्यमान देखा जाता है, वह अभिनिवेश अर्थात् जीवन के प्रति
ममता है।
जीवन के प्रति यह ममता जीव मात्र में प्रकट रूप से देखी जाती है। इस पर
भविष्य-जीवन संबंधीसिद्धांतों को स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है। मनुष्य
ऐहिक जीवन से इतना प्यार करता है कि उसकी यह आकांक्षा रहती है कि वह भविष्य
में भी जीवित रहे। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इस युक्ति का कोई विशेष मूल्य
नहीं है--पर इसमें सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि पाश्चात्यों के मतानुसार
इस जीवन के प्रति ममता से भविष्य-जीवन की जो संभावना सूचित होती है, वह केवल
मनुष्य के बारे में सत्य है, दूसरे प्राणियों के बारे में नहीं। भारत में,
पूर्व संस्कार और पूर्व जीवन को प्रमाणित करने के लिए यह अभिनिवेश एक
युक्तिस्वरूप हुआ है। मान लो, यदि समस्त ज्ञान हमें प्रत्यक्ष अनुभूति से
प्राप्त हुए हों, तो यह निश्चित है कि हमने जिसका कभी प्रत्यक्ष अनुभव नहीं
किया, उसकी कल्पना भी कभी नहीं कर सकते, अथवा उसे समझ भी नहीं सकते। मुर्गी के
बच्चे अण्डे में से बाहर आते ही दाना चुगना आरंभ कर देते हैं। बहुधा ऐसा भी
देखा गया है कि यदि कभी मुर्गी के द्वारा बतख का अण्डा सेया गया, तो बतख का
बच्चा अण्डे में से बाहर आते ही पानी में चला गया, और उसकी मूर्ती-माँ इधर
सोचती है कि शायद बच्चा पानी में डूब गया। यदि प्रत्यक्ष अनुभूति ही ज्ञान का
एकमात्र उपाय हो, तो इन मुर्गी के बच्चों ने कहाँ से दाना चुगना सीखा? अथवा
बतख के इन बच्चों ने यह कैसे जाना कि पानी उनका स्वाभाविक स्थान है? यदि तुम
कहो कि यह जन्मजात-प्रवृत्ति (instinct) मात्र है, तो उससे कुछ भी बोध नहीं
होता; वह तो केवल एक शब्द का प्रयोग मात्र हुआ--वह कोई स्पष्टीकरण तो है नहीं।
ये जन्मजात-प्रवृत्तियों क्या हैं? हम लोगों में भी ऐसी बहुत सी
जन्मजात-प्रवृत्तियाँ हैं। उदाहरणार्थ, तुममें से अनेक महिलाएं पियानो बजाती
हैं; तुमको यह अवश्य स्मरण होगा, जब तुमने पहले-पहल पियानो सीखना आरंभ किया
था, तब तुमको सफ़ेद और काले परदों में, एक के बाद दूसरे में कितनी सावधानी के
साथ अंगुलियाँ रखनी पड़ती थीं, किंतु कुछ वर्षों के अभ्यास के बाद अब शायद तुम
किसी मित्र के साथ बातचीत भी कर सकती हो और साथ ही तुम्हारी अँगुलियाँ भी
पियानो पर अपने आप चलती रहती हैं। अर्थात् वह अब तुम लोगों की
जन्मजात-प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो गया है--वह तुम लोगों के लिए अब पूर्ण
रूप से स्वाभाविक हो गया है। हम जो अन्य सब कार्य करते हैं, उनके बारे में भी
ठीक ऐसा ही है। अभ्यास से वह सब जन्मजात-प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो जाता
है, स्वाभाविक हो जाता है। और जहाँ तक हम जानते हैं, आज जिन क्रियाओं को हम
स्वाभाविक या जन्मजात-प्रवृत्तियों से उत्पन्न कहते हैं, वे सब पहले
तर्कपूर्वक ज्ञान की क्रियाएँ थी और अब निम्न भावापन्न होकर इस प्रकार
स्वाभाविक हो पड़ी हैं। योगियों की भाषा में, जन्मजात-प्रवृत्ति तक की निम्न
भावापन्न क्रमसंकुचित अवस्था मात्र है। विचार या तर्कजन्य ज्ञान क्रम संकुचित
होकर स्वाभाविक संस्कार के रूप में परिणत हो जाता है। अतएव यह बात पूर्णरूपेण
युक्तिसंगत है कि हम इस जगत में जिसे जन्मजात-प्रवृत्ति कहते हैं, वह तर्कजन्य
ज्ञान की संकुचित निम्नावस्था मात्र है। पर चूँकि यह तर्क प्रत्यक्ष-अनुभूति
बिना नहीं हो सकता, इसलिए समस्त जन्मजात-प्रवृत्तियाँ पूर्व प्रत्यक्ष-अनु
भूतियों के फल हैं। मुर्गी के बच्चे चील से डरते हैं, बतख के बच्चे पानी पसंद
करते हैं, ये दोनों पूर्व प्रत्यक्ष-अनुभूतियों के फल हैं। अब प्रश्न यह है कि
यह अनुभूति जीवात्मा की है, अथवा केवल शरीर की? बतख अभी जो कुछ अनुभव कर रही
है, वह उस बतख के पूर्वजों की अनुभूति से आया है, अथवा वह उसकी अपनी
प्रत्यक्ष-अनुभूति है? आधुनिक वैज्ञानिक कहते हैं, वह केवल उसके शरीर का धर्म
है; पर योगी कहते हैं कि वह मन की अनुभूति है, जो शरीर के माध्यम से संचारित
होकर आ रही है। इसीको पुनर्जन्मवाद कहते हैं।
हमने पहले देखा है कि हमारा समस्त ज्ञान--प्रत्यक्ष, तर्क या जन्मजात--एकमात्र
प्रत्यक्ष-अनुभूतिरूप मार्ग के माध्यम से होकर ही आ सकता है; और जिसे हम
जन्मजात-प्रवृत्ति कहते हैं, वह हमारी पूर्व प्रत्यक्ष अनुभूति का फल है, वह
पूर्वानुभूति ही आज अवनत होकर जन्मजात-प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो गई है और
यह जन्मजात-प्रवृत्ति फिर से तर्कजन्य ज्ञान में उन्नस हो जाती है। सारे संसार
भर में यही क्रिया चल रही है। इस पर ही भारत में पुनर्जन्मवाद की एक प्रधान
युक्ति आधारित हुई है। पूर्वानुभूत बहुत से भय के संस्कार कालांतर में इस जीवन
के प्रति ममता के रूप में परिणत हो जाते हैं। यही कारण है कि बालक बिल्कुल
बचपन से ही अपने आप डरता रहता है, क्योंकि उसके मन में दुःख का पूर्व
अनुभूतिजनित संस्कार विद्यमान है। अत्यंत विद्वान् मनुष्यों में भी--जो जानते
हैं कि यह शरीर एक दिन चला जाएगा, जो कहते हैं कि 'आत्मा की मृत्यु नहीं,
हमारे तो सैकड़ों शरीर हैं, अतएव भय किस बात का'-ऐसे विद्वान् पुरुषों में भी,
उनके सारे विचारजनित दृढ़ विश्वास के बावजूद भी हम इस जीवन के प्रति प्रगाढ़
ममता देखते हैं। जीवन के प्रति यह ममता कहाँ से आई? हमने देखा है कि यह हमारे
लिए जन्मजात या स्वाभाविक हो गई है। योगियों की दार्शनिक भाषा में कह सकते हैं
कि वह संस्कार के रूप में परिणत हो गई है। ये सारे संस्कार सूक्ष्म (तनु) और
गुप्त (प्रसुप्त) होकर मन के भीतर मानो सोए हुए पड़े हैं। मृत्यु के ये सब
पूर्वानुभव--वह सब, जिसे हम जन्मजात-प्रवृत्ति कहते हैं--मानो अवचेतन अर्थात्
ज्ञान की निम्न भूमि में पहुँच गए हैं। वे चित्त में ही वास करते हैं। वे वहाँ
निष्क्रिय रूप से अवस्थान करते हों, ऐसी बात नहीं, वरन् भीतर ही भीतर कार्य
करते रहते हैं।
स्थूल रूप में प्रकाशित चित्तवृत्तियों को हम समझ सकते हैं और उनका अनुभव कर
सकते हैं; उनका दमन अधिक सुगमता से किया जा सकता है। पर इन सब सूक्ष्मतर
संस्कारों का दमन कैसे होगा? उन्हें कैसे दबाया जाए? जब मैं क्रुद्ध होता हूँ,
तब मेरा सारा मन मानो क्रोध की एक बड़ी तरंग में परिणत