देश
हम जलने न देंगे
(राष्ट्रीय अस्मिता की कविताएँ)
रमेश पोखरियाल 'निशंक'
हिंदी साहित्य निकेतन, बिजनौर
डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंक'
जन्म : 15 अगस्त सन् 1959, ग्राम पिनानी, पट्टी घुडदौड़स्यूँ
जनपद पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड (हिमालय) भारत।
प्रकाशित कृतियाँ : समर्पण, नवांकुर, मुझे विधाता बनना है, तुम भी मेरे साथ चलो, देश हम जलने न देंगे, मातृभूमि के लिए, जीवन-पथ में, कोई मुश्किल नहीं, प्रतीक्षा, ए वतन तेरे लिए, संघर्ष जारी है (काव्य-संकलन): रोशनी की एक किरण, बस एक ही इच्छा, क्या नहीं हो सकता, भीड़ साक्षी है, खड़े हुए प्रश्न, विपदा जीवित है, एक और कहानी, मेरे संकल्प (कथा-संग्रह): मेरी व्यथा, मेरी कथा (शहीदों के पत्रों का संकलन): निशांत, मेजर निराला, बीरा, पहाड़ से ऊँचा (उपन्यास), हिमालय का महाकुंभ-नंदा राजजात (यात्रा-वृतांत)।
देश-विदेश की अन्य भाषाओं में अनुवाद : 'ए वतन तेरे लिए' व 'खड़े हुए प्रश्न' का तमिल व तेलुगु भाषा में अनुवाद। खड़े हुए प्रश्न' व 'क्या नहीं हो सकता' का मराठी में अनुवाद। हैम्बर्ग विश्वविद्यालय द्वारा 'बस एक ही इच्छा', 'प्रतीक्षा' व 'तुम और मैं' कृतियों का जर्मनी में अनुवाद। 'भीड़ साक्षी है' कृति का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद हैम्बर्ग विश्वविद्यालय में प्रो० तात्यानिया द्वारा कई कहानियों का रूसी भाषा में अनुवाद।
साहित्य पर शोधकार्य : गढ़वाल, कुमाऊँ, मेरठ, मद्रास, रुहेलखंड व कुरुक्षेत्र सहित अनेक विश्वविद्यालयों में साहित्य पर शोधकार्य।
राजनीतिक पृष्ठभूमि : 1993 व 1996 में लगातार तीन बार कर्णप्रयाग क्षेत्र से उत्तर प्रदेश विधानसभा हेतु निर्वाचित; सन् 1997 में उ०प्र० में पर्वतीय विकास विभाग व तदुपरांत संस्कृति, पूत धर्मस्व व कला विभाग के कैबिनेट मंत्री। उत्तरांचल राज्य गठन के उपरांत वित्त सहित बारह विभागों के कैबिनेट मंत्री। मार्च 2007 से मई 2009 तक स्वास्थ्य सहित अनेक विभागों के कैबिनेट मंत्री। वर्तमान में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री।
सम्मान : उत्कृष्ट साहित्य-सृजन हेतु तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह, डॉ शंकरदयाल शमा व डॉ एपीजे अब्दल कलाम द्वारा राष्ट्रपति भवन में सम्मानित, अंतर्राष्ट्रीय मक्त विश्वविद्यालय, कोलंबो, श्रीलंका द्वारा साहित्य व समाजसेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य हेतु 'डॉक्टर ऑफ़ साइंन्स' की मानद उपाधि, हैम्बर्ग विश्वविद्यालय जर्मनी के अतिरिक्त हालैंड, नार्वे, रूस सहित कई यूरोपीय देशों व विश्वविद्यालयों सहित देश-विदेश की अनेक सामाजिक/सांस्कृतिक/साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
संप्रति : प्रधान संपादक 'सीमांत वार्ता' दैनिक व उत्तराखंड सरकार में मुख्यमंत्री।
संपर्क : 37/1 विजय कॉलोनी, रवींद्रनाथ टैगोर मार्ग, देहरादून, उत्तराखंड, भारत।
e-mail: nishankramesh@gmail.com
website : rameshpokhriyalnishank.com
ISBN 97881-89790-68-4
प्रकाशक : हिंदी साहित्य निकेतन
16 साहित्य विहार
बिजनौर (उ०प्र०)
फोन : 01342-263232
ई-मेल : giriraj3100@gmail.com
वैब साइट : www.hindisahityaniketan.com
टाइप सैटिंग : अनुभूति ग्राफ़िक्स, बिजनौर (उ.प्र.)
मुद्रक : आदर्श प्रिंटर्स, दिल्ली 32
संस्करण : 2009
मूल्य : एक सौ पचास रुपये
DESH HAM JALNE NA DENGE (POETRY) BY RAMESH POKHARIYAL 'NISHANK'
Rs. 150.00
समर्पण
उस पीड़ा को
जिसने मेरे गीतों को
जन्म दिया
' निशंक ' की काव्य-यात्रा
राष्ट्र को कंकर-पत्थर का ढेर नहीं बल्कि अपनी आत्मा मानने वाले गढ़वाल हिमालय की गोद में साधनारत कवि रमेश पोखरियाल 'निशंक' अल्पायु में ही अनेक काव्य-खंडों को लेकर साहित्य के क्षेत्र में तेज़ी से उभरकर आए हैं।
कवि 'निशंक' की काव्य-साधना अबाध गति से प्रवाहमान है, उसमें जन-जीवन के प्रति, समाज के प्रति, राष्ट्र के प्रति एक वेदना है, एक पीड़ा है, एक दर्द है। जब भी वे सुख-दुःख, हर्ष-विषाद के मनोभावों से आंदोलित होते हैं, तो उनमें एक आकुलता का स्पंदन महसूस किया जा सकता है। उनकी यह आकुलता बहुजन हिताय से प्रेरित होती है। उनमें कुछ कर गुज़रने की उत्कट चाह है।
अब तो यह बात और अधिक भी उभरकर सम्मुख आ चुकी है कि उनका काव्य अनेक पड़ावों से गुजरते हुए आम जीवन की भावनाओं को एक नई दिशा, एक नई चेतना प्रदान कर रहा है।
कवि 'निशंक' की काव्य-यात्रा 'समर्पण' की समर्पित भावना, 'नवांकुर' की नव चेतना, 'मुझे विधाता बनना है' की सामाजिक चुनौती, 'तुम भी मेरे साथ चलो' की समष्टि संपृक्तता से होती हुई अब 'देश हम जलने न देंगे' के आक्रोशजन्य विद्रोही एवं चुनौती-भरे तेवर के माध्यम से हमारी सुप्त चेतना को उबुद्ध कर रही है।
कवि 'निशंक' की अपनी एक साफ़-सुथरी जीवन-दृष्टि है। उस दृष्टि के अनुकूल ही उनके भाव, उनके विचार, उनकी चिंतनधारा निरंतर अग्रसर होती है। उनकी दृष्टि में एक पैनापन है, एक वैचारिक ओजस्विता है। यह सब उनके काव्य में हस्तामलकवत् स्पष्ट है, उनमें सामाजिक राष्ट्रीय चेतना ही नहीं है अपितु सम्यक् कर्तव्यबोध भी है। जीवन-संघर्ष से वे घबराते नहीं, विचलित नहीं होते बल्कि अंतर्निहित संघर्ष उन्हें आंतरिक शक्ति, ऊर्जा और प्रेरणा प्रदान करता है।
निशंक के काव्य में भाव तो स्पष्ट होते ही हैं, साथ ही उनमें आवश्यक वैचारिक एवं बौद्धिक संगीत भी होता है। यह उनके काव्य का सबसे बड़ा गुण है। काव्य की विषयवस्तु में विविधता है। देशप्रेम, राष्ट्रीय एकता का स्पंदन, राष्ट्रीय अखंडता, शांति-सहयोग, लोककल्याण, सामाजिक जनचेतना, राजनीतिक हलचल, ऐतिहासिक, अतीतकालीन गौरवगाथा, वर्तमान की दुर्व्यवस्था एवं भविष्य के प्रति एक आशा-भरी दृष्टि आदि उनके काव्य की विषयवस्तु है। 'निशंक' के काव्य में यथार्थ की अभिव्यक्ति है, जो उनकी बहुविध अनुभूतियों का प्रतिफल है। तिमिर में भी आलोक को बिखेरने की अभिलाषा उनकी सांस्कृतिक धरोहर है।
कवि का जीवन संघर्षों से आच्छादित रहा तथा उसका प्रभाव उनकी कविताओं पर भी है। वह अपनी अनुभूतियों के प्रति ईमानदार हैं, इसीलिए उसके वर्णन में अभिव्यक्ति की तदनुकूल सहजता एवं सशक्तता देखने को मिलती है। कवि 'निशंक' को काव्य-सृजन के लिए शिल्प के अन्वेषण की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उनकी कविताओं में आंतरिक संगीत के साथ लयात्मकता, भावों के सहस्रोद्गार के साथ-साथ भाषा की प्रखरता स्वत:स्फूर्त है, इस अर्थ में 'निशंक' का कवि शब्दशिल्पी है। यद्यपि उनके काव्य में नपे-तुले प्रयोग भाव-गांभीर्य को उत्कृष्टता प्रदान करते हैं, तथापि अब भी उन्हें अपनी आकुलता के अनुकूल उचित शब्दों की सार्थक तलाश की अपेक्षा है।
अपनी प्रारंभिक रचनाओं में 'निशंक' मातृभूमि के प्रति समर्पित हैं, जिसका भाव द्रष्टव्य है-
सैकड़ों मस्तक चढ़े माँ,
मैं भी उनमें एक हूँ।
चाहता हूँ वंदनीय माँ,
क्षण व कण प्रत्येक हूँ।
स्वतंत्रता से पूर्व भारतीय सपूतों का लक्ष्य बंदिनी माँ को मुक्ति की साँस देना था, किंतु आज राष्ट्रद्रोही तत्त्वों के कारण देश की अस्मिता ही कवि को खतरे में लगती है। वह क्षुब्ध होकर कहता है-
मंत्र एक था इन वीरों का,
भारत माँ को मुक्त करें।
आज राष्ट्रघाती तत्त्वों का,
क़दम-क़दम पर रक्त हरें।
ऐसे में कवि का आह्वान है कि हमें निरंतर समय की चुनौती स्वीकार करते हुए 'चरैवेति-चरैवेति' के महामंत्र पर चलते रहना चाहिए, बढ़ते रहना चाहिए, सफलता स्वयमेव चरण चूमेगी। विघ्न-बाधाओं की चिंता किए बिना ही "हमें लाँघना है इन सबको, ध्येय-मार्ग लेकर धीरों में।' कवि स्वयं को और समाज के पुरुषार्थियों को प्रेरित करता है। उसे धन-दौलत की अपेक्षा, भारतभूमि की धूल प्रिय है। यह प्रेम-धूलि किसे प्रिय नहीं होगी। यदि व्यक्ति ऊँच-नीच, पंथ, जाति की भावना छोड़ दे।
व्यर्थ जीवन-भार ढोने की अपेक्षा कवि अमूल्य जीवन को अपनी शक्ति, भक्ति और आत्मिक बल से वह सार्थक बनाना चाहता है। बड़े सरल व सहज ढंग से कवि ने अपनी जिजीविषा व्यक्त की है।
कवि 'निशंक' का मन लहलहाती शस्य-श्यामला धरती, पेड़-पौधे, हिमालय की शुभ्रता, गुंजार करते भ्रमर, प्रस्फुटित पुष्य, चंद्र-सूर्य, रात-दिन आदि प्राकृतिक उद्दीपनकारी भावनाओं की मधुरिमा की अपेक्षा क्रंदन, वेदना, अटलता, प्रकाश आदि संश्लिष्ट भावों से अधिक प्रभावित है। उनके काव्य में हरित वन एवं पहाड़ को लेकर कवि की सिसकती वेदना को महसूस किया जा सकता है। काँटों में जीते हुए भी कवि अन्यों को फूलों से भरना चाहता है।
कवि की यह आस्था उत्तरोत्तर दृढ़ होती जा रही है। कवि 'निशंक' का नूतन काव्य-संग्रह 'देश हम जलने न देंगे' एक नई आशा, एक नई दिशा और एक नई चेतना को लेकर काव्य-जगत् में अवतरित हुआ है। भाव वही हैं, किंतु उनकी भंगिमा और तेवर बदले हुए हैं। कविताएँ शालीनता व शिष्टता का आवरण भेदकर आक्रोश एवं विद्रोह का आमंत्रण दे रही हैं। कवि मानव-जाति को संबोधित करते हुए कहता है-
हे मनुज!
जिन्होंने हमारे दिल की दूरी को बढ़ाया है
निर्दोष लोगों को शली पर चढ़ाया है,
आज अपनी आन बचाने के लिए
इन्हें मिलकर कुचलना पड़ेगा
आज तक ये हमें जलाते रहे
अब हमें इन्हें जलाना पड़ेगा।
राष्ट्रीय विघटन-हेतु दुष्चक्र रचनेवालों, भाई-भाई के बीच दीवार खड़ी करने वालों और विभेद की नीति अपनाने वालों के लिए कवि आगे कहता है-
शांत हँ पर सोच लो
प्रचंड बन जाता हूँ क्षण में
दुष्टता भू से मिटाने
काल बन आता हूँ रण में।
भारतभूमि के अन्न-जल से पालित-पोषित एवं वर्द्धित होकर भी जो व्यक्ति भारत के प्रति देशद्रोह करता है, गद्दारी करता है, आस्तीन का साँप बनकर अस्थिरता पैदा करना चाहता है एवं अपनी आंतरिक कुटिल नीति और छल-प्रपंच पर खुश होता है तो कवि उनको कठोर शब्दों में चेतावनी देता है-
व्यक्ति तो होता वहाँ का
अन्न जो खाता जहाँ का,
अन्न खाकर द्रोह करना
अब अधिक चलने न देंगे,
हम स्वयं जल जाएँगे पर
देश हम जलने न देंगे।
राष्ट्रीयता की भावना तो कवि में कूट-कूट कर भरी हुई है। 'तुमने मेरी झोपड़ी जलाई है', 'शांत हूँ पर', 'देश हम जलने न देंगे', 'गिरे हुए लोग', 'उनकी शर्त' आदि शीर्षक कविताएँ कवि की इसी भावना की द्योतक हैं। यातना, दु:ख-दर्द, पीड़ा, वेदना, संघर्ष आदि शब्द उनके जीवन साथी बन चुके हैं।
जीवन क्या है यह न पूछो
दुख ही मेरा जीवन है,
ओ सुख, हट! क्षणभर के साथी
मित्र कहूँ क्या मैं तुमको?
दुख को पलभर छोड़ न सकता
ये मेरा, मैं हूँ इसका।
'हर जगह परीक्षा है', 'मैं स्वयं ही', 'दहकते स्वर', 'मेरे घाव हुए बचपन से', 'दिल में दर्द लिया', 'जग से न्यारा हूँ', 'फिर कहाँ तू है अकेला', 'पीड़ा', 'जीवन छोटा कथा बड़ी है', 'इसी की खातिर', 'अनोखी कहानी', 'मेरा दर्द' आदि शीर्षक कवि के वैयक्तिक दु:ख-दर्द के साथ जुड़े हुए हैं, किंतु उसकी अनुभूतियाँ समष्टिगत संवेदनशीलता एवं चेतना से अभ्युक्त हैं।
आज का मनुष्य दोहरी मानसिकता में जी रहा है। वह, वह नहीं है, जो सचमुच में वह है, बल्कि वह, वह है, जो नहीं है। बाहर-भीतर के द्वंद्व में एक ऐसा लम्हा आता है, जहाँ संवाद होते-होते व्यक्ति खो जाता है, उसकी कथनी और आचरण में अंतर आ जाता है। 'निशंक' को व्यक्ति की इस दोहरी मानसिकता के कारण व्यक्तित्व की पहचान खोने की आशंका है-
'निशंक' आज का मानव
अपनी पहचान खो रहा है,
दुनिया-भर की सारी दौलत
यह घर में भरना चाहता है,
रटे हुए उपदेश को देकर
शासन करना चाहता है।
इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि व्यक्ति अपने धर्म-ईमान को बेच रहा है, पशु श्रेणी में आ रहा है। कथनी-करनी का अंतराल तो यह है कि-
उन्होंने
लच्छेदार भाषण में कहा,
मैं राष्ट्र की
सेवा करना चाहता हूँ,
किंतु शर्त एक ही है उनकी
कि तुम्हें माँग पूरी करनी होगी
सारे राष्ट्र की धन-संपत्ति
मेरे घर भरनी होगी।
किंतु भौतिक सुख-सुविधाओं को प्राप्त करके उनका भोग करने वाले व्यक्तियों की पीड़ा और पुरुषार्थ से श्रम करके जीविकोपार्जन करने वाले 'ग्राम देवता' श्रमिक की आनंदमयी स्थिति की तुलना करके कवि जीवन का सार प्रस्तुत करता है-
दिन-भर पत्थरों को तोड़ने के बाद
ग्राम-देवता को मैंने पत्थरों पर
सुख की नींद सोते पाया।
किंतु आरामदेह गद्दियों पर बैठे
उस कोमल तन बड़े पुरुष को
लेटने पर रोते पाया।
जिसने थोड़ी-सी नींद को पाने के लिए
नींद की गोली खाई है।
लाख प्रयत्न करने पर भी
उसे सुख की नींद नहीं आई है।
कवि जीवन की वास्तविक वृत्तियों का विचार करते हुए नया इतिहास गढ़ने की बात करता है और कंटकाकीर्ण अंधकारपूर्ण पथ को 'स्वयं अब किरण बनकर, निशा को भी प्रभा दूँगा' तथा 'मैं स्वयं नव राह बन, नव चेतना संचित करूँगा', 'स्वयं बन इतिहास नूतन, सत्य का शोधन करूँगा' एवं 'छोटा सा सूरज बनकर, नव राह तुम्हें दिखाऊँगा' का विकास-भरा आशावान् संदेश देता है। इस विश्वास और आशा हेतु निराला के 'वर दे, वीणावादिनि वर दे' की भाँति वह दिव्यशक्ति से शक्ति प्रदान करने का निवेदन करता है-
हे विश्ववंदिता, विश्वअर्चिता
दिव्य शक्ति, हे चिर निधान,
नवरस, गति दे नई प्रेरणा
जग-जीवन कर सदा महान्,
कलहयुक्त इस जीवन में माँ
प्रेम-प्रणय दे, कर कल्याण।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि कवि 'निशंक' का काव्य स्वयं में युगसाक्षी है। आज के बदलते जीवन-प्रतिमान और मानवमूल्यों के संदर्भ में 'निशंक' जी की कविताएँ मनुष्य-मात्र को आशामय जीवन की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरणा प्रदान करती हैं। काव्य-जगत में कवि की इन कविताओं का अपेक्षित स्वागत होगा, ऐसा मेरा विश्वास है। इस मंगलकामना के साथ मेरी बधाई।
डॉ. श्यामधर तिवारी
विभागाध्यक्ष हिंदी
गढ़वाल विश्वविद्यालय, पौड़ी परिसर
पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)
अपनी बात
पाठक गण!
आशा-निराशा के बीच जूझता
थपेड़े खाता रहा,
कभी छल-कपट
तो कभी स्वार्थांधता के साथ-साथ
असहिष्णुता से टकराता रहा।
मैंने शूलों को भी फूल समझ
हृदय से लगाया,
छिद-छिदकर लहूलुहान हुआ, पर
मेरे गीतों ने लोगों को जगाया,
कष्टों को झेलते-झेलते
असह्य पीड़ा, वेदना, दु:ख और दर्द
मेरे अभिन्न अंग बन गए।
लोग चैन से सोते रहे
और मैं जिंदगी-मौत से लड़ता रहा,
तभी तो विषम परिस्थितियों में भी
जीता रहा।
और करता रहा संघर्ष!
संघर्ष सिर्फ संघर्ष के लिए नहीं।
और इन्हीं संघर्षों
आक्रोशजन्य विद्रोह
और चुनौती के प्रश्न उठा रहा है
यह 'देश हम जलने न देंगे' कविता-संग्रह।
रमेश पोखरियाल ' निशंक '
अनुक्रम
नया इतिहास गढ़ना पड़ेगा
तुमने मेरी झोपड़ी जलाई है
शांत हूँ पर
अँधेरा मिटाने
पत्थर रोज़ चिनाते थे
देश हम जलने न देंगे
गिरे हुए लोग
हर जगह परीक्षा है
मैं स्वयं ही
आज निकट है लक्ष्य-शिखर
धधकते स्वर
मेरे घाव मिले बचपन से
जिंदगी बन गई
दिल में दर्द लिया
नव राह दिखाएगा
जग से न्यारा हूँ
हे दिव्य शक्ति
कविता-गंगा
पहचान
भिखारिन
तू अकेला नहीं
मैं कली हूँ
पीड़ा
जीवन छोटा, कथा बड़ी है
हाय, नन्हे पौधे
इसी की ख़ातिर
पुरुषार्थ
अनोखी कहानी
पहाड़ की कहानी
मेरा दर्द
प्रिय गढ़वाल
तब-तब मुझे
उनकी शर्त
ग्रामदेवता
समझ रहा हूँ
वेदना के आर्त स्वर
राग-द्वेष तम-कारा है
संवेदना को छीना
सीमा पार करनी है
बढता चल
मेरी यात्रा
मंदिर का दीपक
तुम्हारे रोड़े
हर जगह बहेलिया
वे बेरोजगार
मैं और समय
नया इतिहास गढ़ना पड़ेगा
हे मन! यहाँ से कहीं दूर जाओ
यहाँ हमारे हित में नहीं है,
अब तक सुना था मानव यहाँ है
मुझे तो कहीं भी दिखता नहीं है।
सोचा था कोई मिलेगा कहीं
ढूँढते-ढूँढते साँझ पड़ने लगी है,
पत्तियों के सहारे भी रहना कहाँ
अब डालों से पत्तियाँ भी झड़ने लगी हैं।
बहुत हो चुका अब रहम तो दिखाओ,
हे मन! यहाँ से कहीं दूर जाओ।
पर
जहाँ भी गया मैं ठिकाना रहा ना।
हम साथ तेरे, किसी ने कहा ना।
अब हित हो या अहित यहीं पर रहूँगा।
दर्द चाहे हो जितने मैं सारे सहूँगा।
'निशंक' चाहे दुर्मन से लड़ना पड़ेगा
अविरल ही चाहे जलना पड़ेगा,
पर तुम्हें लक्ष्य की ओर उन्मुक्त होकर
नया एक इतिहास गढ़ना पड़ेगा।
तुमने मेरी झोपड़ी जलाई है
तुमने मेरी झोपड़ी जलाई है
अपनी मंज़िलों को चढ़ाने के लिए।
तुम्हारी शान बढ़ाने के लिए
मैंने कहा कोई बात नहीं
मेरी झोपड़ी जलने दो
इस झोपड़ी का पत्थर-पत्थर भी ढलने दो।
इतना ही नहीं, तो
मेरी झोपड़ी वाले
बिलबिलाते रहे।
एक ग्रास रोटी के लिए
सदियों तक चिल्लाते रहे।
मैंने कहा कोई बात नहीं
इस बात को भी चलने दो,
देश के वैभव और हित की ख़ातिर
हम ग़रीबों को मरने दो।
लेकिन
मैं देख रहा हूँ,
मेरी झोपड़ी की जगह
गगन छूने वाला भवन खड़ा है,
और इसके भीतर वह जन पड़ा है,
जिसने नफ़रत की दीवारों को
हमारे सीने में खड़ा किया है।
जगमगाते जीवन को मिटाने के लिए
हमें बारूद का जहर दिया है।
भाई को भाई से दूर किया है,
मार-काट के नग्न नृत्य से
शहर खाली किया है।
हे मनुज!
जिन्होंने हमारे दिलों की दूरी को बढ़ाया है,
निर्दोष लोगों को शूली पर चढ़ाया है,
आज अपनी आन बचाने के लिए
इन्हें मिलकर कुचलना पड़ेगा।
आज तक ये हमें जलाते रहे,
अब हमें इन्हें जलाना पड़ेगा।
शांत हूँ पर
कौन आ मेरी धरा पर,
आज मुझको है मिटाता।
राष्ट्र के मणिमय मुकुट में,
कौन आ निज को बिठाता।
कौन आ बंधुत्व में,
देकर दरारें चल दिया है।
चिनगियों को फेंक मन में,
आज मुझसे छल किया है।
शांत हूँ पर सोच लो,
प्रचंड बन सकता हूँ क्षण में।
दुष्टता भू से मिटाने,
काल बन सकता हूँ रण में।
अँधेरा मिटाने
अँधेरा बहुत है
घनेरे हैं कंटक
विकट पथ निशा में
स्वयं ही चला हूँ।
प्रकाश मत दो, पर
बुझाओ न मुझको
देखो स्वयं ही मैं
तिल-तिल जला हूँ।
प्रकाश देने
कुछ भी न लेने
अँधेरा मिटाने
स्वयं ही चला हूँ।
पत्थर रोज़ चिनाते थे
रोकेंगे हम सूर्य सोचकर
तुम दीवार बनाते थे।
बेबुनियादी दीवारों पर
पत्थर रोज़ चिनाते थे।
ऊँची दीवार बनाने पर भी
सूर्य नहीं रुक पाया था।
अन्य दिनों की भाँति आज,
वह जल्दी ही उग आया था।
दीवार उठाते वक़्त आपने
चोट बहुत-सी खाई थीं।
दीवार लुढ़कने तक भी तुमको,
नहीं चेतना आई थी।
आश्चर्य करूँ तो क्या कम है?
अपने सारे छूट गए।
बनी नहीं दीवार आपकी
कहो! स्वयं क्यों टूट गए?
देश हम जलने न देंगे
हर क़दम इतिहास स्वर्णिम,
हम इसे गलने न देंगे।
हम स्वयं जल जाएँगे पर,
देश हम जलने न देंगे।
सभी को बांधव समझना,
रही मानवता हमारी।
बंधु से ही कपट करना,
नियति दूषित थी तुम्हारी।
सहिष्णुता के साधकों को,
हम अधिक छलने न देंगे।
हम स्वयं जल जाएँगे पर,
देश हम जलने न देंगे।
तुमने छला हमको मगर,
हम बंधु तुमको मानते हैं।
मनुज का सम्मान करना,
हम शुरू से जानते हैं।
क़ीमत चुकाएँगे भले ही,
व्यवस्था ढलने न देंगे।
हम स्वयं जल जाएँगे पर,
देश हम जलने न देंगे।
व्यक्ति तो होता वहाँ का,
अन्न जो खाता जहाँ का।
अन्न खाकर द्रोह करना,
अब अधिक चलने न देंगे।
हम स्वयं जल जाएँगे पर,
देश हम जलने न देंगे।
गिरे हुए लोग
ये कितने गिरे हुए लोग हैं
जिन्होंने अपने स्वार्थों के लिए
वहाँ पर आग लगाई है
जहाँ जीवन मिलता है
जीने के लिए।
वहाँ भी जहर घोल दिया
जहाँ पानी की जगह
अमृत मिलता है
पीने के लिए।
हर जगह परीक्षा है
हर जगह और हर समय
परीक्षा ही खड़ी है।
जिसके पास
पाँवों के लिए बेड़ियाँ
हाथों के लिए हथकड़ी है।
हर जगह और हर समय
परीक्षा ही खड़ी है।
दर्द जब कि साथ है
दुख की लगी झड़ी है।
स्वागत में मेरे हर जगह
वेदना ही खड़ी है।
पुरस्कार भी कम नहीं
तो यातना भी कड़ी है।
जो अहर्निश हर घड़ी है
हर जगह और हर समय
बस परीक्षा ही खड़ी है।
मैं स्वयं ही
मैं स्वयं अब किरण बनकर
निशा को भी प्रभा दूँगा।
मैं स्वयं ही हवन बनकर
स्वार्थ अपना जला लूँगा।
मैं स्वयं ही फूल बनकर
चमन को भी सजा दूँगा।
मैं स्वयं त्रिशूल बन
निज शत्रु को भी मिटा दूँगा।
मैं स्वयं 'नव राह' बन
'नव चेतना' संचित करूँगा।
स्वयं बन इतिहास नूतन
सत्य का शोधन करूँगा।
मैं स्वयं अब किरण बनकर
निशा को भी प्रभा दूँगा।
आज निकट है लक्ष्य-शिखर
जीवन-मृत्यु का प्रश्न सामने
वह कैसा समय रहा होगा।
ओठों पर मधु मुस्कान बसी
नयनों से अश्रु बहा होगा।
युद्ध हुआ होगा जीवन से
मृत्यु ने आ घेरा होगा।
सबको कैद किए विपदा ने
डाल दिया डेरा होगा।
मत पूछो अपने जीवन में
मैंने क्या-क्या न सहा होगा,
ओठों पर मधु मुस्कान बसी
नयनों से अश्रु बहा होगा।
विजय-पताका हाथ लिए
किस क्षण तक मैंने युद्ध किया
जबकि सोचा था जन-जन ने
घनघोर मृत्यु का गरल पिया
संदेश हमारे प्रियजन को
जब तुमने नहीं कहा होगा।
ओठों पर मधु मुस्कान बसी
नयनों से अश्रु बहा होगा।
तुम्हें पता है जूझा हूँ, पर
जीवन-मार्ग नहीं छोड़ा,
अपने लक्ष्य-शिखर से मैंने
निज का मुख कब-कब मोड़ा।
आज निकट है लक्ष्य-शिखर,
पर तब तो दूर रहा होगा।
ओठों पर मधु मुस्कान बसी
नयनों से अश्रु बहा होगा।
धधकते स्वर
गले से उसे भी लगाया है मैंने
जो पीयूष-घट में जहर घोल लाया।
मिला जो कुटिल से कुटिल जन भी मुझको
उसे भी तो मैंने गले से लगाया।
दिशाओं में लोगों ने आँखें दिखाईं,
जिधर भी गया वेदना साथ पाई।
जीवन में मैंने कहाँ चैन पाया, सं
घर्ष ही साथ जीवन में आया।
हृदय तड़पता विकल मन रहा यों
न जाने ख़यालों में खोया रहा क्यों।
बेचैन हो गीत रातों को गाया,
धधकते हुए स्वर नहीं रोक पाया।
मुझे घाव मिले बचपन से
मेरे घाव हुए बचपन से
क्यों?
कब?
कैसे?
यह कुछ न पूछो इस मन से।
मैं चुप रहता हूँ,
न मैं
कुछ कहता हूँ,
हर पत्थर की मार को
मैं चुपके-चुपके सहता हूँ।
फिर भी तुम,
चिल्ला-चिल्लाकर कहते हो
राज़ है इसके चुप रहने में
यह यों ही नहीं जलता है।
यह कैसा विस्मय कि तुमको
मेरा मौन भी खलता है।
जिंदगी बन गई
हर मोड़ पर क्षण में गुजरना
जिंदगी बन गई मेरी।
स्वयं हूँ इस पार मैं
उस पार है स्मृति तेरी।
वाहनों में है सफ़र
रात-भर मैं जागता हूँ।
साँस ली है चैन की कब
हर क़दम पर भागता हूँ।
हर क़दम, हर मोड़ पर
स्मृति बन छाई है तेरी।
हर मोड़ पर क्षण में गुज़रना
जिंदगी बन गई मेरी।
दिल में दर्द लिया
लगता है तुमने लिखना
तबसे ज़्यादा तेज़ किया है।
जबसे तुमने अपने दिल में
अपने प्रिय का दर्द लिया है।
मैंने देखी कृति तुम्हारी,
अंदर से तुमको जाना है।
दर्द तुम्हारा गोदी लेकर
एक सखा तुमको माना है।
नव राह दिखाएगा
जी-भर कोशिश की तुमने,
हीरे को लाख छिपाने की।
निर्भय-उद्वेलित जलधारा में,
सिकता-सेतु बनाने की।
तुम्हीं बताओ किसने देखा,
लोहे से हीरा, छिपता है।
क्या सरिता का बहता जल
पाषाण-खंड से रुकता है?
देखो हीरा स्वयं चमककर
जग को भी चमकाएगा।
छोटा सा सूरज बनकर
नव राह तुम्हें दिखलाएगा।
जग से न्यारा हूँ
हे दु:ख!
मैं दुखियारा हूँ
मैं पीड़ा की धारा हूँ।
तुम नहीं
वह नहीं
मैं स्वयं ही कारा हूँ
सब दर्दो का तारा हूँ
जग से न्यारा हूँ,
हे दुःख!
मैं दुखियारा हूँ।
हे दिव्य शक्ति
हे विश्ववंदिता! विश्वअर्चिता!
दिव्य शक्ति! हे चिर निधान!
नवरस, गति दे नई प्रेरणा,
जग-जीवन कर सदा महान।
जीवन-पथ में स्वार्थ सकल हैं,
विकल विश्व को नव बल दे।
जीर्ण-शीर्ण व्याकुल जीवन में,
मंत्र एक निश्छल भर दे।
कलहयुक्त इस जीवन में माँ
प्रेम-प्रणय दे, कर कल्याण
नवरस, गति दे नई प्रेरणा,
जग-जीवन कर सदा महान।
भूल गया बंधुत्व, प्रेम जो
उस कलुषित मानव-मन को,
फिर से नूतन पथ पर ले जा
शिवे सरस उसके तन को।
त्रस्त हुए इस जीवन में माँ!
भर दे नवल चेतना, प्राण
नवरस, गति दे नई प्रेरणा,
जग-जीवन कर सदा महान।
कविता-गंगा
तुमने लाख कोशिश की
मेरी कविता को बाँधने की,
इसे सज़ा दी तुमने
भारी चट्टानें लाँघने की,
तुमने
पग-पग पर इसे रोका है
कोशिश कर इसे अग्नि में झोंका है।
फिर भी
मेरी कविता की गंगा
दुर्गम, बीहड़ रास्तों में
हिमालय की गोद से
निकल ही पड़ी है,
सागर तक पहुँचने के लिए नहीं
अपितु अनगिन प्राणियों को
जीवन देने के लिए
चट्टानों से टकराती हुई
कल-कल, छल-छल निनाद कर
हर जगह, हर मोड़ पर
संकल्प लिए खड़ी है।
मेरी कविता की गंगा
निकल ही पड़ी है।
कौन नहीं जानता
कि यह
शंकर की जटाओं से
उलझकर ही नहीं रही है
यह तो अहर्निश हर पल
जीवन दान देने बही है।
स्वार्थों के दलदल में फँसा
यह जहान
इसे क्या रोक पाएगा?
यह तो बाधाओं में भी भगीरथ बन
आगे बढ़ते रहने का
संदेश लेकर ही बही है।
मेरी कविता की गंगा
अब निकल ही पड़ी है।
पहचान
उसने दर्द-भरे शब्दों में कहा-
ओह!
आज तक सब-कुछ सहा
तुमसे न कुछ कहा।
आज कुछ कह ही देता हूँ,
दिल में बढ़ते बोझ को
कुछ हलका कर लेता हूँ।
कि
'निशंक' आज का मानव
अपनी पहचान खो रहा है,
फूलों पर चढ़ने की चाह है उसकी,
पर काँटों को बो रहा है ।
तुझे पता नहीं कि
दुनिया-भर की सारी दौलत
यह घर में भरना चाहता है,
रटे हुए उपदेश को देकर
शासन करना चाहता है।
न जिसका कोई धर्म है
और न कोई ईमान है,
पशु से भी ज़्यादा बदतर
क्यों हो गया इंसान है?
पर यह निश्चित है कि
जब भी मानव
अपनी मानवता खोता है,
पतन के इस कगार के बाद
फिर नवनिर्माण शुरू होता है।
भिखारिन
नंगी
कई दिन से भूखी
आँखों में आँसू लिए
थरथराती हुई
भिखारिन आ रही थी।
कहीं पेट भरने को दाना मिलेगा
कहीं तन ढकने को बाना मिलेगा
सोच-सोचकर
सांत्वना पा रही थी।
हाँ!
बड़े लोग दयालु होते हैं
उनकी सहायता करते हैं
जो असहाय होते हैं।
वह भागकर गई
किंतु
इन बड़े लोगों ने
मुँह मोड़कर, इसको
जोर से फटकारा था
इतने से भी जी न भरा तो
गोद बैठे शिशु को भी
छीन पटककर मारा था।
ठंड से इसका ठिठुरना
दर्द से इसका सिसकना
भूख से थी बिलबिलाती
दर्द भी तो कम नहीं था
खाती भी यदि ग़म कहीं तो
शेष भी अब ग़म नहीं था।
क्रोध में आकर भिखारिन
पटकती निज भाल को भी
पथराई आँखें लिए
पुकारती फिर काल को थी,
हे काल! तू भी मर गया
इतना रहम तो दिखा दे,
बच्चों-सहित इस अभागिन को
इस धरा से ही उठा ले।
तू अकेला नहीं
पास तेरे लगा मेला
किसने कहा तू है अकेला?
किंतु तूने जिंदगी में
है सदा संघर्ष झेला।
प्रात: तुमको ओस-कण से
स्वर्णिमा देकर सजाती,
सूर्य-किरणें लालिमा
देने तुझे नित-प्रातः आतीं।
सूर्य तुमको तेज देने
पास अपने ही बुलाता,
और शीतल पवन तुझको
गोद में लेकर सुलाता।
सांध्य बेला की सुहानी
रात फिर लोरी सुनाती,
प्रातः की निश्छल हँसी भी
साथ तेरे गुनगुनाती।
प्रात: बेला, दिवस, संध्या
ये अनोखे, सभी प्यारे।
फिर कहाँ तू है अकेला
साथ तेरे बहुत सारे।
मैं कली हूँ
सुबह उठते पास आकर
किसी ने मुझको जगाया।
हाथ लेकर मुस्कराते
किसी ने मुझको नचाया।
बढ़ धरा की गोद शैशव
आज मैं पुलकित हुई हूँ।
कंटकों से बच निकलकर
आज मैं विकसित हुई हूँ।
मैं कली हूँ...।
पग तले कुचला उन्होंने
जब पड़ी थी आह में,
खिल गई हूँ पूर्ण मैं
अनगिन खड़े तब राह में।
आज तो सूरज व चंदा
पास आ मुझको सजाते।
दूर से आकर भ्रमर भी
झूमकर हैं गुनगुनाते।
पाने मुझे हर पथिक भी
स्वांग ढेरों है रचाता।
किंतु रक्षक रूप माली
ही मुझे नित-नित बचाता।
इस हरित उद्यान में मैं
राजकन्या-सी पली हूँ,
मैं कली हूँ...।
पीड़ा
पीड़ा-पीड़ा, इस पीड़ा से
स्थान है वह कौन खाली?
प्राप्त क्या करना उसे अब
जिसने स्वयं पीड़ा ही पा ली।
नदियों में, चट्टानों में
आँखों में, इन कानों में,
कौन अंग रहा ऐसा,
जिस अंग नहीं पाया तुमको?
देहरी में, दीवारों में,
महलों में, मीनारों में,
कौनसा घर रहा ऐसा,
जिस घर नहीं पाया तुमको?
श्वासों के संग धड़कन में
इस तन में, विह्वल मन में
कौन अश्रु रहा ऐसा
जिस अश्रु नहीं पाया तुमको?
दिन में भी, हर रात में
हर काग़ज़, हर बात में
कौनसी बात रही ऐसी
जिस बात नहीं पाया तुमको?
वसुंधरा नित नील घटा में
या पूनम की श्वेत छटा में
रहा कौनसा क्षण ऐसा
जिस क्षण में नहीं पाया तुमको?
इस दिल में, इन बाहों में
दुनिया की सब राहों में
कौनसी राह बची ऐसी
जिस राह नहीं पाया तुमको?
पता नहीं मैं रहा जहाँ
प्रिये! क्यों आती रही वहाँ
अरे वेदने! प्रीति तुम्हारी
भूल सका मैं सुनो कहाँ?
जीवन छोटा कथा बड़ी है
जीवन छोटा कथा बड़ी है
जिसको कह नहीं पाऊँगा,
आह भरे सब गीत हैं मेरे
जिनको गा नहीं पाऊँगा।
जीवन क्या है यह न पूछो
दुख ही मेरा जीवन है,
तड़प-तड़प कर बचा रहा जो
ऐसा ही विह्वल मन है।
अब तुम पीछे आते हो
जो छोड़ चले थे तब मुझको,
ओ सुख, हट! क्षणभर के साथी!
मित्र कहूँ क्या मैं तुमको?
दुख को पलभर छोड़ न सकता
ये मेरा, मैं हूँ इसका,
सुख ने छोड़ा जिसने पोषा
आभारी हूँ मैं उसका।
हाय , नन्हे पौधे
इस भयंकर कोहरे की धुंध में
नन्हे पौधे
खो गए हैं।
निशि-दिन गिरते इस पाले में
मुरझाये-से
हो गए हैं।
हाय, मेरे नन्हे पौधे
जिन्हें मैंने खूब सँवारा था,
इनका अंग-अंग मुझे,
अपने हृदय से प्यारा था।
वे समय से पहले ही
अवनि में
खो गए हैं।
इस भयंकर कोहरे की धुंध में
मेरे नन्हे पौधे
सदा के लिए
सो गए हैं।
इसी की ख़ातिर
जब-जब तुम मिल जाते हो
मुझे नया जीवन
मिल जाता है,
रोज़ की इन हिंसक घटनाओं में
छटपटता मुरझाया चेहरा भी
खिल जाता है।
तुम्हें देखकर
मुझे कई नए बिंदु
सोचने को
मिल जाते हैं,
कि
कोई बात नहीं
एक सूरज के उगने से
सहस्रों सूरजमुखी
खिल जाते हैं।
वही सूरज तुम भी हो
जिसे देखकर
मुरझाते चेहरे भी
खिल जाते हैं।
इन्हीं आशाओं ने
मुझे बनाया है,
मेरा शृंगार कर इन्होंने
मुझे सजाया है।
तभी तो विषम परिस्थितियों में मैं
आज भी जी रहा हूँ,
जिंदगी की
हर कड़वाहट पी रहा हूँ।
पुरुषार्थ
तुम अकेले, मैं अकेला
सब अकेले हैं यहाँ।
पुरुषार्थ जिसके पास है
वे अकेले हैं कहाँ?
जब कभी ऐसा लगा
पुरुषार्थ मन से चल दिया,
क्षण उसी आकर अलौकिक
शक्ति ने संबल दिया।
तब यही विश्वास लेकर
मैं बढ़ा पथ में अकेला,
झेलता ही जा रहा हूँ
आज तक भी कष्ट झेला।
कर्म पर विश्वास करना है
सफलता लक्ष्य मेरा,
ओ अरे, पुरुषार्थ! केवल
चाहता हूँ नेह तेरा।
अनोखी कहानी
अनोखी कहानी है
इस जिंदगी की,
बताने से भी मुझसे
बताई न जाती।
सुनकर भी तुमको
बहुत कष्ट होगा,
तभी तो ये पीड़ा मुँ
ह तक न आती।
अनोखी कहानी है
इस जिंदगी की,
बताने से भी मुझसे
बताई न जाती।
कहीं कारवाँ है
कहीं पे जहाँ है,
यही बात मुझको
समझ में न आती।
अनोखी कहानी है
उस जिंदगी की
बताने से भी
मुझसे बताई न जाती।
भटका इधर मैं
भटका उधर भी
जिधर दृष्टि जाती
विषमता उधर ही।
अनोखी कहानी है
इस जिंदगी की
बताने से भी मुझसे
बताई न जाती।
पहाड़ की कहानी
इक्कीसवीं सदी की दौड़ में
हर क़दम, हर मोड़ में
कहीं दूर
ऊँची अट्टालिकाओं में बैठकर
काग़ज़ के घोड़ों को तैयार किया गया है
जिन्हें कुछ निगाहों तक जाने के लिए
आदेश दिया गया है।
घुड़सवारों में प्रवीण
ऊँचे घुड़सवारों ने
नीचे के लोगों को निर्देश दिया है
मेरे पहाड़ के ज़िम्मेदार घुड़सवार ने
घोड़े पर चढ़ने का कुछ होश लिया है।
इतना ही नहीं, तो वह सलामी के लिए
कुछ लोगों को भी मिला है।
एक प्रकार के माउथपीस
'लक्ष्य पूरा करो' का नारा लगाते हैं।
कल मीटिंग थी
आज मीटिंग है
नए घुड़सवारों को
आमंत्रित कर आते हैं।
हर रोज़ एक मीटिंग हो जाती है
हर रोज़ की इस मीटिंग में
कल तैयार कर देने की
प्रगति आख्या आती है।
ये काग़ज़ के घोड़े
कई लोगों से होकर गुजरते हैं
जिनके ऊपर चढ़कर कई लोग
हर रोज़ सवारी करते हैं।
और विकास का लक्ष्य ढोते
ये घोड़े बोझिल हो जाते हैं,
अनगिन घावों के शिकार होकर
मंज़िल तक पहुँच पाते हैं।
इन घोड़ों की प्रतीक्षा थी
मुझे व मेरे गिरिवासियों को
कि ये
कुछ विकास हमें भी दे जाएँगे
प्रगति की दौड़ में
मुट्ठी भर अन्न-जल हम भी ले पाएँगे।
लेकिन ये कब निकल पड़े
हमें कुछ भी पता नहीं है।
मेरा यह भोला गिरिवासी
आज भी खड़ा वहीं है।
दु:ख किसे सुनाएँ
पहाड़ की इस कहानी का।
यहाँ लोग प्यासे हैं आज
जहाँ स्रोत है पानी का।
मेरा दर्द
कहीं दब न जाए
कहीं मिट न जाए।
सिमट भी न पाए
कहीं भय न खाए।
तड़पता हुआ दिल
दुखता है सारा,
कहीं खो न जाए
मेरा दर्द प्यारा।
प्रिय गढ़वाल
सुंदर, अद्भुत अवनि अलंकृत
जिसको श्वेत छटा भी अर्पित।
यह चाँद-सितारों जैसा स्थल
भारत वसुधा का अंतस्थल।
सरिताओं का कल-कल, छल-छल
जन को हर्षित करता प्रतिपल।
मूक नहीं तुम बनो मुखर,
कहता निर्झर, गाता मधु स्वर।
देखो कैसा मनभावन है
पर्वत-अंचल यह पावन है।
हरा-भरा ये प्रिय गढ़वाल,
आलोक रश्मियों का है जाल।
सीढ़ीनुमा खेत झोपड़ी,
पर्वत-श्रेणी की माला।
जिसके पैरों में खनके झूमर
ऐसी यह पर्वत-बाला।
तब-तब मुझे
जब-जब
अज्ञानता
अविवेक
किंकर्तव्यविमूढ़ता की
काली चादर
मुझे घेरती है।
तब-तब
ज्ञान
विवेक
और कर्मशीलता
इस काली चादर को फेंक
सुप्रभात का संदेश
मुझे भेजती है।
उनकी शर्त
उन्होंने
लच्छेदार भाषण में कहा-
मैं राष्ट्र की
सेवा करना चाहता हूँ,
मैं राष्ट्रप्रेम
निज में भरना चाहता हूँ।
और इच्छा है कि
मैं राष्ट्र-चिंतन में खो जाऊँ
मैं सदा-सदा के लिए
राष्ट्रपुरुष ही हो जाऊँ
किंतु
शर्त एक ही है उनकी
कि
तुम्हें माँग पूरी करनी होगी।
सारे राष्ट्र की धन-संपत्ति
मेरे घर में भरनी होगी।
ग्राम-देवता
दिन-भर
पत्थरों को तोड़ने के बाद
ग्राम-देवता को मैंने
पत्थरों पर
सुख की नींद सोते पाया।
किंतु
आरामदेह गद्दियों पर बैठे
उस कोमल-तन बड़े पुरुष को
लेटने पर रोते पाया।
जिसने थोड़ी सी नींद को पाने के लिए
नींद की गोली खाई है।
लाख प्रयत्न करने पर भी उसे
सुख की नींद नहीं आई है।
समझ रहा हूँ
मैं छोटा हूँ, भोला हूँ
जान रहा क्या होता है,
कोई हँसी-खुशी से रहता
कोई दर-दर क्यों रोता है।
तुम कहते हो कितना छोटा
भोला-भाला सा रहता,
मारो, पीटो सब सहता है
तब भी कुछ नहीं कहता।
वेदना के आर्त स्वर
रुष्ट हैं वे आज मुझसे
मैं उन्हें कैसे मनाऊँ,
वेदना के आर्त स्वर में
गीत तुमको क्या सुनाऊँ?
खिल रहे थे पुष्प जिस पर
शैल उग आते वहाँ,
दूर तक हैं खाइयाँ
वे उधर हैं, हम यहाँ।
खाइयों को लाँघकर भी
आज पथ को मैं बनाऊँ,
वेदना के आर्त स्वर में
गीत तुमको क्या सुनाऊँ?
मैं जिधर भी जा रहा हूँ
ठोकरें ही खा रहा हूँ,
फूल मिलते हैं कहाँ
मैं कंटकों पर जा रहा हूँ।
कंटकों की आह से ही
गीत अपना मैं रचाऊँ,
वेदना के आर्त स्वर में
गीत तुमको क्या सुनाऊँ?
आँधियाँ पीछे लगीं
मैं जिस दिशा में जा रहा हूँ,
हर क़दम, हर मार्ग में ही
आँधियों को पा रहा हूँ।
आँधियों से मैं स्वयं को
ओह, कैसे अब बचाऊँ?
वेदना के आर्त स्वर में
गीत तुमको क्या सुनाऊँ?
राग-द्वेष तम कारा है
सतत बहे जीवन-धारा,
कोई न भटके बेचारा।
हरक्षण, हरपल सोचा करता
सत्पथ से मैं दूर न जाऊँ
बहुत तेज़ अँधियारा जग में
निज पथ को मैं भूल न जाऊँ।
जीवन के अंधियारों में
सतत बहे जीवन-धारा।
काले बादल मँडराए हैं
राग-द्वेष दिखता सारा,
तम की इस प्रस्तर-कारा में
निश्छल जन दिखता है हारा।
स्नेहबिंदु सब सूख गए हैं
सागर का जल है खारा
सतत बहे जीवन-धारा।
ईश विनय तुमसे है मेरी
सत्पथ सदा दिखाना तुम,
राग-द्वेष-तम की कारा को
मन से सदा हटाना तुम।
मन सबके अकलुषित हों
चमके जीवन-ध्रुवतारा,
सतत बहे जीवन-धारा।
संवेदना को छीना
हाथ पकड़कर
गाल चूमकर
पूछा था तुमने
जल्दी बताओ
कहाँ खो गई है
संवेदना तुम्हारी।
आशा बहुत थी
अपेक्षा थीं ढेरों
तुमसे तो हमारी।
और
मैं यों ही चुपचाप रहा,
कह सकने को मैंने
कुछ भी शब्द न पाए थे,
उमड़कर तब हृदय से
मेरी आँखों से
आँसू आए थे।
आँसुओं से
तब आह निकली
तुम्हें पता नहीं!
इस संवेदना का
क्रूरता से पड़ा पाला
हाय! मेरी संवेदना को
क्रूरता ने
छीन पटकर मार डाला।
सीमा पार करनी है
मौन पड़ी, गंभीर नहीं जो
धार छलकती तरनी है,
शेष रहीं सीमाएँ मुझको
पार आज ही करनी हैं।
खड़ी हुईं दीवार दिलों में
जड़ से उन्हें मिटाना है,
पल्लव-पोषित नवल प्यार में
अंकुश एक लगाना है।
व्याकुल हैं जो आघातों से
उनमें श्वासें भरनी हैं,
शेष रही सीमाएँ मुझको
पार आज ही करनी हैं।
आज निराशा में डूबा जो
जिसने जीवन खोया है,
उथल-पुथल में इन लहरों की
जो जीवन नित रोया है।
पार अभी करना है उसको
नदियाँ अनगिन तरनी हैं,
शेष रही सीमाएँ मुझको
पार आज ही करनी हैं।
बढ़ता चल
इधर आँधियाँ हैं
उधर ज्वार-भाटा
बरसाती ये नदियाँ
हर दिशा में बही हैं।
रुकना कभी भी
नहीं ठीक होगा
ये आपदाएँ तो
हर पग रही हैं।
मेरी यात्रा
मेरी यात्रा
सूर्य की किरण के साथ
शुरू होती है।
और नभ-जल-थल के
हर कोने को
छूती है।
सूर्य की किरणें तो
एक निश्चित समय में
अदृश्य हो जाती हैं।
किंतु चंद्रमा की किरणें
मेरी यात्रा को
फिर भी जारी पाती हैं।
मंदिर का दीपक
इस मंदिर के दीपक को तुम
अब निशि-दिन ही जलने दो।
इस मंदिर को खंडहर करने
डाला है किसने घेरा,
ज्ञात न था इतना भी उसको
यही तो था सब-कुछ मेरा।
यदि तूफ़ान चले मंदिर में
सहज उसे भी चलने दो,
इस मंदिर के दीपक को तुम
अब निशि-दिन ही जलने दो।
इस मंदिर की देहरी पर मैं
गीत स्वयं के सुनता हूँ,
इसकी छाया में नित बैठा
निज जीवन-पथ चुनता हूँ।
गीत सुहाने सारे इनको
अब प्रभात तक चलने दो,
इस मंदिर के दीपक को तुम
अब निशि-दिन ही जलने दो।
यह मंदिर, इसके आँगन में
नित कीर्तन मैं करता हूँ,
इस मंदिर में निज श्वासों को
अर्पण हर पल करता हूँ।
तुम कुछ दिन तो इन श्वासों को,
इस मंदिर में पलने दो,
इस मंदिर के दीपक को तुम
अब निशि-दिन ही जलने दो।
तेज़ आँधियाँ, रात अँधेरी
मुझको दीप बचाना है,
मंदिर की ही साया में अब
मुझको गीत रचाना है।
ढलते हैं यदि आज प्राण तो
प्राण रूप भी ढलने दो,
इस मंदिर के दीपक को तुम
अब निशि-दिन ही जलने दो।
तुम्हारे रोड़े
तुमने मेरे कार्य में
हर वक़्त रोड़े अटकाए
फिर भी मैंने
तुम्हारे ही गुण गाए।
यह देख
निराश होकर तुमने
रोड़े अटकाने छोड़ दिए
कि
इस नालायक ने तो
हमारे ही रोड़ों से
अपने टूटे मार्ग तक जोड़ दिए।
हर जगह बहेलिया
यह दुनिया, यह महफ़िल
सब जाल है।
यह पिंजरे में बंद रखने की
एक चाल है।
देखोगे तो
हर जगह बहेलिया नज़र आएगा,
न तू जी पाएगा
और न ही मर पाएगा।
वे बेरोज़गार
लिखे-पढ़े थे
वे बेरोज़गार,
किंतु
इस व्यवस्था ने
उनसे
उनका सब-कुछ छीना है
तभी तो
पथ-विहीन,
लक्ष्यहीन
उनको सड़कों पर जीना है।
मैं और समय
समय
बड़ी तेजी से
मेरे पीछे दौड़ रहा।
क्षण-क्षण का पहरा तक
मेरे पीछे छोड़ रहा।
पर यह मुझ तक
नहीं पहुँच पा रहा।
यह जहाँ भी जा रहा
हर जगह और हर जगह
मुझे आगे पा रहा।