हिंदू दार्शनिक चिंतन के सोपान
धार्मिक मतों का जो प्रथम वर्ग हमारे सम्मुख दिखाई पड़ता है--मेरा अर्थ यथार्थ धार्मिक मतों से है, न कि अत्यंत निम्न श्रेणी के मतों से, जो 'धर्म' संज्ञा के योग्य ही नहीं हैं--उन सभी में दैवी स्फूर्ति तथा 'ईश्वर-निःश्वसित' आप्त वाक्य आदि की कल्पना समाविष्ट है। धार्मिक मतों का प्रथम वर्ग ईश्वर की कल्पना से प्रारंभ होता है। हमारे सम्मुख यह विश्व है और यह विश्व किसी पुरुषविशेष द्वारा निर्मित किया गया है। इस विश्व-ब्रह्माण्ड में जो कुछ है, सभी उसी ईश्वर द्वारा रचा गया है। उसके साथ, आगे चलकर, आत्मा की कल्पना आती है कि यह शरीर है और इस शरीर के भीतर ऐसा कुछ है, जो शरीर नहीं है। हमारी जानकारी में धर्म की यही सबसे आदिम कल्पना है। भारतवर्ष में हमें इसके कुछ थोड़े से अनुयायी मिल सकते हैं, परंतु यह कल्पना बहुत पहले ही त्याग दी गई। भारतीय धर्मों का प्रारंभ बड़े विचित्र ढंग से हुआ है। बहुत सूक्ष्म छानबीन, विश्लेषण और अनुमान करने पर ही हम यह सोच सकते हैं कि भारतीय धर्मों की कभी वह अवस्था रही होगी। जिस प्रस्तुत रूप में हम उन्हें पाते हैं, वह तो दूसरी सीढ़ी है, प्रथम नहीं। सबसे प्राथमिक अवस्था में सृष्टि की कल्पना बड़ी ही विचित्र है और वह यह है कि इस संपूर्ण विश्व की रचना ईश्वर की इच्छा से शून्य में से की गई है; इस सृष्टि का अस्तित्व नहीं था और उस शून्य से ही यह सब निकला है। द्वितीय अवस्था में हम देखते हैं कि इस सिद्धांत में शंका उठाई जा रही है। असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? [1] वेदांत में सर्वप्रथम यही प्रश्न पूछा गया है। यदि यह विश्व सत्तात्मक है, तो वह किसी सदवस्तु से ही निकला होगा; क्योंकि यह समझना सरल था कि सर्वत्र शून्य से तो शून्य ही निकलता है। मानवीय हाथों से जो कुछ भी कर्म किया जाता है, उसके लिए उपादानों की आवश्यकता हुआ करती है। यदि गृह-निर्माण हुआ है, तो पहले उसका उपादान विद्यमान था; यदि नाव बनी है, तो उसकी सामग्री पहले से विद्यमान थी; यदि कोई हथियार बनाएगए हैं, तो उनकी भी सामग्री पहले से ही थी। कार्य की उत्पत्ति इसी प्रकार हुआ करती है। अतः यह स्वाभाविक ही था कि शून्य में से इस ब्रह्माण्ड की रचना की प्राथमिक कल्पना त्याग दी गई और जिस उपादान से यह विश्व गढ़ा गया है, उस उपादान के अनुसंधान का प्रारंभ हुआ। धर्म का समग्र इतिहास यथार्थ में इस उपादान-कारण की खोज ही है।
किस उपादान से यह सब गढ़ा गया है? निमित्त-कारण या ईश्वर के प्रश्न को अलग रखो, इस प्रश्न को अलग रखो कि ईश्वर ने विश्व की रचना की, सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि उस ईश्वर ने इसे किस उपादान से बनाया? सभी दर्शन शास्त्र मानो इसी प्रश्न पर निर्भर हैं।
इस समस्या का एक उत्तर यह है कि प्रकृति, ईश्वर और जीव, ये तीनों अनादि और अनंत सत्ताएँ हैं, वे मानो तीन नित्य समानांतर रेखाएँ हैं, जिनमें से प्रकृति और जीव परतंत्र हैं और ईश्वर स्वतंत्र। प्रत्येक जीव जड़-परमाणु के समान ईश्वर की इच्छा पर पूर्णतया अवलंबित है। अन्य विषयों का विचार करने के पूर्व हम जीव संबंधी विचार को ही लेंगे और इससे यह देखेंगे कि सभी वेदांती दर्शनशास्त्र पाश्चात्य दर्शनों से किस प्रकार अत्यंत पृथक् हैं। भारत के सभी दार्शनिकों का एक सामान्य मनस्तत्त्व रहा है। उनके दार्शनिक सिद्धांत चाहे जो रहे हों, पर उन सबका मनोविज्ञान एक ही रहा है, जो प्राचीन सांख्य दर्शन का है। उसके अनुसार, ज्ञान की प्रक्रिया स्पंदनों के अंतःसंचार द्वारा होती है। ये स्पंदन पहले बाह्य इंद्रियों के पास आते हैं, बाह्य इंद्रियों से वे अंतरिन्द्रियों में पहुँचते हैं, अंतरिन्द्रियों से मन में, मन से बुद्धि में और वहाँ से उस वस्तु में, जो एक इकाई है, जिसे वे आत्मा कहते हैं। आधुनिक शरीरविज्ञान को लेने पर हम देखते हैं कि उसने सभी भिन्न-भिन्न संवेदनाओं के केंद्रों का पता लगा लिया है। पहले वह निम्न श्रेणी के केंद्रों का पता लगाता है, तत्पश्चात् उसे उच्च श्रेणी के केंद्र प्राप्त होते हैं। ये दोनों केंद्र भारतीय मनस्तत्त्व की अंतरिन्द्रियों और मन से बिल्कुल मिलते-जुलते हैं; पर अभी तक शरीरविज्ञान को एक ऐसा केंद्र नहीं मिला है, जो अन्य सभी केंद्रों का नियमन करे। अतः वह यह नहीं बता सकता कि इन सभी केंद्रों में एकसूत्रता कहाँ से आती है, कहाँ पर ये केंद्र एक होते हैं। मस्तिष्क में सब केंद्र अलग अलग हैं और वहाँ कोई ऐसा एक केंद्र नहीं है, जो अन्य केंद्रों का नियमन करे। अतः जहाँ तक हिंदू मनोविज्ञानशास्त्र की गति है, इस विषय में उसका विरोध नहीं हुआ है। इस प्रकार की एकसूत्रता अवश्य होनी चाहिए, ऐसी एक सत्ता अवश्य रहनी चाहिए, जिसमें सभी विभिन्न संवेदनाएँ प्रतिबिंबित होंगी--केंद्रित होंगी, जिससे कि ज्ञान पूर्ण रूप से निष्पन्न हो सके। जब तक इस प्रकार की कोई वस्तु न हो, तब तक मैं तुम्हारे विषय में, किसी चित्र या अन्य वस्तु के संबंध में कोई कल्पना नहीं कर सकता। यदि एकसूत्रता लाने वाली वह वस्तु न हो, तो हम केवल देखेंगे ही, फिर कुछ समय के बाद केवल श्वास ही लेंगे, फिर केवल सुनेंगे, आदि आदि; और जब मैं किसी मनुष्य को बोलते सुनूंगा, तब मैं उसे बिल्कुल नहीं देखूगा, क्योंकि सभी केंद्र अलग अलग हैं।
यह शरीर परमाणुओं से बना है, जिन्हें हम भौतिक पदार्थ कहते हैं, और वह जड़ और अचेतन है। उसी प्रकार, जिसे वेदांती सूक्ष्म शरीर कहते हैं, वह भी जड़ और अचेतन है। उनके मतानुसार यह सूक्ष्म शरीर जड़ तो है, परंतु पारदर्शी है और अत्यंत सूक्ष्म परमाणुओं से बना है--इतने सूक्ष्म कि वे किसी भी अनुवीक्षण यंत्र से नहीं दीख सकते। उसका कार्य क्या है? वह सूक्ष्म शक्तियों का आधार है। जैसा कि यह स्थूल शरीर स्थूल शक्तियों का आधार है, वैसे ही सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म शक्तियों का आधार है, जिन्हें हम 'विचार' कहते हैं। यह विचार-शक्ति विभिन्न रूपों में प्रकाशित होती रहती है। अतः, पहले तो यह शरीर है, जो स्थूल जड़ पदार्थ है और स्थूल शक्तिमय है। जड़ पदार्थ के बिना शक्ति नहीं रह सकती। उसके रहने के लिए जड़ पदार्थ चाहिए ही। इसीलिए स्थूलतर शक्तियाँ शरीर में काम करती हैं; और वे ही शक्तियाँ सूक्ष्मतर बन जाती हैं। जो शक्ति स्थूल रूप में काम कर रही है, वही सूक्ष्म रूप में कार्य करती हैं और तब विचार में परिणत हो जाती हैं। इनमें कोई भेद नहीं है, केवल इतना ही है कि एक उसी वस्तु का स्थूल और दूसरा सूक्ष्म रूप है। इस सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर में कोई पार्थक्य नहीं है। सूक्ष्म शरीर भी भौतिक है, केवल इतना ही कि वह अत्यंत सूक्ष्म जड़-वस्तु है। जैसे यह स्थूल शरीर स्थूल शक्तियों के कार्य का साधन है, ठीक उसी तरह सूक्ष्म शक्तियों के कार्य का साधन यह सूक्ष्म शरीर है। अब प्रश्न यह है कि ये सब शक्तियाँ कहाँ से आती हैं? वेदांत दर्शन के अनुसार प्रकृति में दो सत्ताएँ हैं : एक 'आकाश' कहलाती है--वह पदार्थ है, अत्यंत सूक्ष्म हैः और दूसरी 'प्राण' कहलाती है--वह शक्ति है। जो कुछ भी हम देखते हैं, अनुभव करते हैं या सुनते हैं जैसे वायु, पृथ्वी या और भी जो कुछ--वे सबके सब भौतिक पदार्थ हैं--इसी आकाश से उत्पन्न हुए हैं। यह आकाश प्राण की क्रिया से परिवर्तित होकर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर या स्थूल से स्थूलतर बनता रहता है। आकाश के समान प्राण भी सर्वव्यापी है और सभी वस्तुओं में ओतप्रोत है। आकाश मानो जल के सदृश है और सृष्टि की अन्य सब वस्तुएँ उसी जल से बने हुए हिमखण्डों के समान जल में तैर रही हैं। प्राण ही वह शक्ति है, जो इस आकाश को इन सभी विभिन्न रूपों में परिवर्तित करती है। स्थूल शरीर आकाश से बना हुआ उपकरण है, जिसके द्वारा प्राण स्थूल रूपों में--जैसे पेशियों के संचालन, चलने, बैठने, बोलने आदि में--प्रकट होता है। सूक्ष्म शरीर भी आकाश से अत्यंत सूक्ष्म आकाश से बना है, जिसके द्वारा वही प्राण विचाररूपी सूक्ष्म भाव में प्रकट होता है। अतः पहले तो यह स्थूल शरीर है, उसके परे यह सूक्ष्म या लिंग शरीर है और उसके भी परे जीव, अर्थात् यथार्थ मनुष्य है। जैसे नख कई बार काटे जा सकते हैं और तो भी वे हमारे शरीर के भाग हैं, अलग नहीं, ठीक इसी प्रकार का संबंध स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का है। ऐसी बात नहीं है कि मनुष्य के एक सूक्ष्म शरीर होता है और एक स्थूल शरीर भी; शरीर तो एक ही है, पर जो अंश अधिक समय तक टिकता है, वह सूक्ष्म शरीर है और जो शीघ्र नष्ट हो जाता है, वह स्थूल है। जैसे मैं इस नख को अनेकों बार काट सकता हूँ, ठीक उसी तरह मैं लाखों बार इस स्थूल शरीर का पात कर सकता है, पर सूक्ष्म शरीर बना ही रहेगा। द्वैतवादियों के मतानुसार, यह जीव या यथार्थ मनुष्य अत्यंत सूक्ष्म, लघु है।
यहाँ तक हम देखते हैं कि मनुष्य ऐसी सत्ता है, जिसका पहले तो स्थूल शरीर है, जो अति शीघ्र नष्ट हो जाता है, और तत्पश्चात् उसका सूक्ष्म शरीर है, जो युग-युगांतरों तक बना रहता है और तत्पश्चात् जीव है। वेदांत-मत के अनुसार यह जीव ठीक वैसा ही अनंत है, जैसा कि ईश्वर। प्रकृति भी अनंत है, पर वह परिवर्तनशील अनंत सत्ता है। प्रकृति का उपादान--प्राण और आकाश--अनंत है, पर उसका विभिन्न रूपों में चिरंतन परिवर्तन होता रहता है; किंतु जीव आकाश से या प्राण से सृष्ट नहीं हुआ है। वह भौतिक पदार्थ नहीं है और इसी कारण चिरंतन रहनेवाला है। वह प्राण और आकाश के किसी संघात का परिणाम नहीं है; और जो संघात का परिणाम नहीं है, वह कभी नष्ट नहीं किया जा सकता; क्योंकि कारणस्वरूप को पुनः प्राप्त होना ही नाश है। स्थूल शरीर आकाश और प्राण से बनी हुई यौगिक वस्तु है, अतः वह विघटित, नष्ट हो जाएगा। सूक्ष्म शरीर भी दीर्घ काल के बाद नष्ट हो जाएगा। पर जीव तो अयोगिक तत्त्व है और इसीलिए वह कभी नष्ट नहीं होगा। उसके कभी उत्पन्न न होने का भी यही कारण है। किसी अयौगिक तत्त्व की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती। वही युक्ति यहाँ भी लागू है। जो यौगिक है, उसीकी उत्पत्ति होती है। संपूर्ण प्रकृति, जिसमें लाखों और करोड़ों जीवात्माएँ हैं, ईश्वर की इच्छा की वशवर्ती हैं। ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वदर्शी, निराकार विभु है और वह प्रकृति के माध्यम से नित्य क्रियाशील है। यह संपूर्ण प्रकृति उसी के वश में है। वही नित्य विधाता है। द्वैतवादियों का यही मत है। तब यह प्रश्न उठता है कि यदि इस सृष्टि का विधाता ईश्वर है, तो उसने इस प्रकार की दुष्ट सृष्टि की रचना क्यों की? हमें इतना कष्ट क्यों भोगना पड़ता है? वे कहते हैं, यह ईश्वर का अपराध नहीं है। हम अपने दोष के कारण कष्ट भोगते हैं। हम जो बोते हैं, वही काटते हैं। हमें दंड देने का उसका अभिप्राय नहीं है। मनुष्य दरिद्र, अंधा या लूला-लँगड़ा होकर जन्म लेता है, इसका कारण क्या है? कारण यह है कि इस प्रकार जन्म लेने के पूर्व उसने कुछ किया था। जीव नित्य काल से विद्यमान रहा है, वह कभी उत्पन्न नहीं किया गया था। वह सर्वदा कई प्रकार के कर्म करता रहा है। हम जो कुछ करते हैं, उसकी प्रतिक्रिया हम पर होती है। यदि हम शुभ कर्म करते हैं, तो हमें सुख मिलेगा और अशुभ कर्म करते हैं, तो दुःख मिलेगा। इसी प्रकार जीव सुख और दुःख प्राप्त करता रहता है और भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्म करता जाता है।
मृत्यु के उपरांत क्या होता है? सभी वेदांतमतवादी स्वीकार करते हैं कि यह जीव स्वभावतः ही शुद्ध है; परंतु वे कहते हैं कि अज्ञान से इसका सच्चा स्वरूप ढका हुआ है। जिस प्रकार अशुभ कर्मों से इसने अपने को अज्ञान के आवरण में ढाँक लिया है, उसी प्रकार शुभ कर्मों द्वारा यह फिर से अपने असली स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता है। वह सनातन है, स्वभावतः शुद्ध है। प्रत्येक जीव स्वभावतः शुद्ध ही होता है।
जब शुभ कर्मों द्वारा उसके सब पापों और दुष्कर्मों का नाश हो जाता है, तब जीव पुनः शुद्ध हो जाता है और इस प्रकार शुद्ध होकर वह देवयान को चला जाता है। उसकी वागीन्द्रिय मन में प्रविष्ट हो जाती है। तुम शब्दों के बिना चिंतन नहीं कर सकते। जहाँ चिंतन है, वहाँ शब्द होने ही चाहिए। जैसे शब्द मन में प्रवेश करते हैं, वैसे ही मन 'प्राण' में परिणत हो जाता है और 'प्राण' जीव में। तब जीव शीघ्र शरीर के बाहर निकलकर सौर-प्रदेश को चला जाता है। इस विश्व में एक के बाद दूसरे अनेक लोक हैं। यह पृथ्वी भूलोक है, जिसमें चंद्र, सूर्य और तारागण हैं। उसके परे सूर्यलोक है और उसके उस पार दूसरा लोक है, जो चंद्रलोक कहलाता है। उसके भी परे विद्युल्लोक है और जब जीव वहाँ पहुँचता है, तब एक दूसरा जीव, जो पहले ही पूर्ण हो गया है, उसका स्वागत करने आता है और उसे दूसरे लोक में, परमोच्च लोक में जिसका नाम ब्रह्मलोक है, वहाँ ले जाता है। वहाँ जीव नित्यकाल निवास करता है और पुनः जन्म या मरण को नहीं प्राप्त होता। वहाँ वह अनंत काल तक आनंद भोगता है और केवल सृष्टि-उत्पादन-शक्ति को छोड़कर शेष सब प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त करता है। विश्व का केवल एक ही विधाता है और वह है ईश्वर। कोई भी व्यक्ति ईश्वर नहीं बन सकता। द्वैतवादियों की धारणा है कि यदि तुम अपने को ईश्वर कहते हो, तो यह ईश-निंदा है। सृजन करने की शक्ति के सिवाय अन्य सभी शक्तियाँ जीव को प्राप्त हो जाती हैं और यदि जीव शरीर धारण करके संसार के विभिन्न भागों में कार्य करना चाहे, तो कर सकता है। यदि वह जीव सभी देवताओं को अपने सम्मुख उपस्थित होने की आज्ञा दे, यदि वह अपने पूर्वजों को बुलाना चाहे, तो वे सभी उसकी आज्ञा के अनुसार आ जाते हैं। उसकी शक्तियाँ ऐसी रहती हैं कि उसे अब कोई दुःख नहीं होता और यदि वह चाहे, तो अनंत काल ब्रह्मलोक में निवास कर सकता है। यही वह उच्च गतिप्राप्त पुरुष है, जो ईश्वर के प्रेम को प्राप्त कर चुका है, जो पूर्णतः निःस्वार्थ, पूर्णतः शुद्ध बन गया है, जिसने अपनी समस्त वासनाओं का परित्याग कर दिया है और जो ईश्वर की पूजा और भक्ति के सिवा और कुछ नहीं करना चाहता।
दूसरे लोग भी हैं, जो इतनी उच्च अवस्था को नहीं पहुँचे हैं; जो सत्कार्य करते हैं, परंतु बदले में कुछ पाना चाहते हैं। वे कहते हैं कि ग़रीबों को वे इतना दान करेंगे, पर बदले में वे स्वर्ग को जाना चाहते हैं। जब वे मरते हैं, तो उनकी कौन सी गति होती है? वाचा-शक्ति मन में प्रविष्ट हो जाती है, मन 'प्राण' में और 'प्राण' जीव में प्रवेश करता है। जीव निकलकर चंद्रलोक को जाता है और वहाँ वह दीर्घकाल तक बहुत सुख में रहता है। जब तक उसके पुण्य कर्मों का प्रभाव बना रहता है, तब तक वहाँ वह सुख भोगता है; और जब पुण्य कर्मों का क्षय हो जाता है, तब वह पुन: नीचे उतरता है और इस पृथ्वी पर अपने कर्मों के अनुसार जन्मग्रहण करता है। चंद्रलोक में जीव उस अवस्था को प्राप्त करता है, जिसे हम 'देवता' कहते हैं तथा ईसाई और मुसलमान 'देवदूत'। ये देवता कुछ विशिष्ट पदों के नाम हैं। उदाहरणार्थ, देवराज 'इंद्र' एक पद का नाम है; सहस्रों मनुष्य उस पद को प्राप्त करते हैं। जब कोई पुण्यशील पुरुष, जिसने सर्वश्रेष्ठ वैदिक कर्मों का अनुष्ठान किया है, मृत्यु को प्राप्त होता है, तब वह देवताओं का राजा बन जाता है। उस समय तक पुराना इंद्र नीचे उतरकर मनुष्य बन गया रहता है। जैसे यहाँ राजा बदलते रहते हैं, उसी प्रकार देवताओं को भी मरना पड़ता है। स्वर्ग में सभी मरेंगे। मृत्युरहित स्थान एक ब्रह्मलोक ही है, जहाँ न जन्म है, न मृत्यु।
इस प्रकार जीव स्वर्ग को जाते हैं और वहाँ बड़े सुखपूर्वक रहते हैं, सिर्फ जब-तब असुर उन लोगों का पीछा करते हैं। हमारी पौराणिक कथाओं में ऐसे असुरों का वर्णन है, जो कभी-कभी देवगणों को सताते हैं। हम सभी पुराणों में पढ़ते हैं कि ये असुर और देव किस प्रकार लड़े, असुरों ने कभी कभी देवों पर विजय भी प्राप्त की। कई बार ऐसा दिखता है कि असुरों ने इतने क्रूर कर्म नहीं किए, जितने कि देवों ने। उदाहरणार्थ, सभी पुराणों में देवता स्त्रियों के प्रति आसक्त पाए जाते हैं। इस प्रकार जब उनके पुण्य का फल समाप्त हो जाता है, तब वे पुनः नीचे गिरते हैं। मेघों के माध्यम से वृष्टि के द्वारा आकर वे किसी अन्न या पौधे में प्रविष्ट हो जाते हैं और जब मनुष्य उस अन्न या पौधे को खाता है, तब उसके शरीर में पहुँच जाते हैं। पिता उन्हें वह भौतिक सामग्री देता है, जिसमें से वे अपने कर्मों के उपयुक्त शरीर धारण कर लें। जब वह शरीर उनके लायक नहीं रह जाता, तब उन्हें अपने लिए अन्य शरीर निर्माण करना पड़ता है। फिर हम यहाँ बहुत से दुष्ट लोग देखते हैं, जो सभी तरह के पैशाचिक कर्म करते हैं। वे फिर से पशु होकर जन्म लेते हैं; और यदि वे बहुत ही बुरे होते हैं, तो वे अति नीच पशु का जन्म लेते हैं या पेड़-पत्थर बन जाते हैं।
देवयोनि में जीव कुछ भी कर्म संचित नहीं करते; केवल मनुष्य ही कर्म करता है। कर्म का अर्थ है ऐसा काम, जिसका कोई फल हो। जब मनुष्य मरता है और देव बन जाता है, तब तो उसका समय केवल सुख भोगने का ही रहता है और उस समय वह नए कम नहीं करता। वह तो उसके पूर्वकृत शुभ कर्मों का पारितोषिक है। जब पुण्य कर्मों का भय हो जाता है, तब अवशिष्ट कर्मों का फल मिलना प्रारंभ होता है और तब वह नीचे पृथ्वी पर उतरता है और पुनः मनुष्य बन जाता है। यदि वह बहुत अच्छे कम करता है और शुद्ध हो जाता है, तो वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होकर पुनः यहाँ नहीं लौटता।
निम्नतर योनियों से क्रमविकसित होते समय जीव के लिए पशु एक संचरण-स्थिति है। और समय पाकर पशु मनुष्य बन जाता है। यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि जैसे जैसे मनुष्यों की संख्या बढ़ती जा रही है, वैसे ही वैसे पशुओं की घट रही है। पशु-आत्माएँ मनुष्य बन रही हैं। पशुओं के बहुत से वर्ग पहले ही मनुष्य बन चुके हैं। अन्यथा वे कहाँ चले गए?
वेदों में नरक की कोई चर्चा नहीं है। पर हमारे पुराणों में, हमारे अर्वाचीन धर्मग्रंथों में, यह विचार आया कि नरकों का संबंध जोड़े बिना कोई धर्म सर्वांगीण नहीं हो सकता। अतः उन्होंने सभी प्रकार के नरकों की कल्पना की। इन नरकों में से कुछ में तो मनुष्यों को चीरकर उनके दो टुकड़े कर दिए जाते हैं और उन्हें कुचल कुचलकर कष्ट दिया जाता है, तो भी वे नहीं मरते। वहाँ उनको लगातार अत्यंत दुःख पहुँचाया जाता है। पर ये ग्रंथ इतना कहने की दया तो करते हैं कि यह सब केवल कुछ काल के लिए ही रहता है। उस अवस्था में दुष्कर्मों का फल भोग लिया जाता है और भोग पूर्ण होने पर वे पुनः पृथ्वी पर आकर नया अवसर प्राप्त करते हैं। अतएव, यह मनुष्य-शरीर एक महान अवसर है।
यह शरीर कर्मयोनि कहलाता है, जहाँ हम अपने भाग्य का निर्णय करते हैं। हम एक महान वृत्त में दौड़ रहे हैं और उस वृत्त में यही एक बिंदु है, जो हमारे भविष्य का निर्णायक है। अतः यह मनुष्य-शरीर ही सबसे बढ़कर समझा जाता है। मनुष्य देवों से भी बढ़कर है।
यहाँ तक हुआ शुद्ध और सरल द्वैतवाद। इसके पश्चात् उच्चतर वेदांती तत्त्वज्ञान सामने आता है। उसका कहना है कि ऐसा नहीं हो सकता। इस विश्व का उपादान-कारण तथा निमित्त-कारण, दोनों ईश्वर ही है। यदि तुम कहते हो कि ईश्वर एक असीम पुरुष है, जीवात्मा भी असीम है और प्रकृति भी असीम है, तब तो तुम असीमों की संख्या अनंत रूप से बढ़ा रहे हो, जो सर्वथा असंगत है; तुम समस्त तर्कशास्त्र को चकनाचूर करते हो। अतः ईश्वर ही इस विश्व का उपादान तथा निमित्त, दोनों प्रकार का कारण है, वह इस विश्व को अपने में से ही बाहर प्रकट करता है। तब यह कैसी बात है कि ईश्वर ही ये दीवारें और यह मेज़ बन गया है; ईश्वर ही शूकर, हत्यारा और जो कुछ इस संसार में अशुभ वस्तुएँ हैं, वह सब बन गया है? हम कहते हैं कि ईश्वर पवित्र है। तब भला वह ये सब भ्रष्ट वस्तुएँ कैसे बन सकता है? हमारा उत्तर यह है कि ठीक वैसे ही, जैसे मैं एक आत्मा हूँ और मेरे एक शरीर है, और एक दृष्टि से यह शरीर मुझसे भिन्न नहीं है, तो भी मैं सच्चा मैं--यथार्थ में शरीर नहीं हूँ। उदाहरणार्थ, मैं कहता हूँ--मैं बालक हूँ, युवक हूँ, या वृद्ध हूँ, पर मेरी आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता। आत्मा तो वही बनी रहती है। उसी प्रकार यह समस्त विश्व अपने अंतर्भुक्त समग्र प्रकृति और असंख्य आत्माओं के साथ मानो ईश्वर का अनंत शरीर है। वह इस संपूर्ण विश्व में ओतप्रोत है। अकेला वही अपरिवर्तनशील है, पर प्रकृति तो बदलती रहती है और आत्माएँ भी। प्रकृति और जीवात्मा के परिवर्तन का उस ईश्वर पर कोई परिणाम नहीं होता। प्रकृति किस प्रकार बदलती है? अपने रूपों में; वह नएनए रूप धारण करती है। पर आत्मा उस तरह नहीं बदलती। आत्मा ज्ञान की न्यूनाधिकता से ही घटती और बढ़ती है। दुष्कर्मों से आत्मा संकुचित हो जाती है। ऐसे कर्म, जो आत्मा के यथार्थ स्वाभाविक ज्ञान तथा पवित्रता को घटाते हैं, दुष्कर्म कहे जाते हैं। और वे कर्म, जो आत्मा की स्वाभाविक महिमा को प्रकट करते हैं, सत्कर्म कहे जाते हैं। ये सभी आत्माएँ शुद्ध थीं, पर वे संकुचित हो गई हैं; ईश्वर की दया से और सत्कर्म करने से वे पुनः विकसित होकर अपनी सहज शुद्धता को प्राप्त कर लेंगी। हर एक को समान अवसर प्राप्त है और अंत में प्रत्येक का उद्धार होना निश्चित है। पर इस विश्व का अंत नहीं होगा; क्योंकि वह तो सनातन है। यह दूसरा मत है। पहला मत द्वैतवाद कहा जाता है। दूसरे मत में यह धारणा है कि ईश्वर, आत्मा और प्रकृति, ये तीनों हैं, तथा आत्मा और प्रकृति ईश्वर के शरीर हैं और इसलिए ये तीनों मिलकर एक इकाई का निर्माण करते हैं। यह दूसरा मत आध्यात्मिक विकास की उच्चतर अवस्था सूचित करता है और इसका नाम है 'विशिष्टाद्वैत'। द्वैतवाद में विश्व ईश्वर-संचालित एक बड़ा यंत्र माना गया है और विशिष्टाद्वैत में वह एक ऐसा शरीर माना गया है, जिसमें परमात्मा ओतप्रोत है।
सबसे अंत में अद्वैतवादी हैं। वे भी यह प्रश्न उठाते हैं कि ईश्वर ही इस विश्व का उपादान तथा निमित्त, दोनों कारण होना चाहिए। इस तरह, ईश्वर ही यह संपूर्ण विश्व बन गया है; इस बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, पर जब ये दूसरे लोग कहते हैं कि ईश्वर आत्मा है और विश्व उसका शरीर, तथा यह शरीर परिवर्तनशील है, पर ईश्वर परिवर्तनरहित है--अद्वैतवादी कहते हैं, यह सब मूर्खता है। इस स्थिति में ईश्वर को इस विश्व का उपादान-कारण कहने का क्या अर्थ है? कार्यरूप धारण करने वाला कारण ही उपादान-कारण है; कार्य और कुछ नहीं, वरन् कारण का ही दूसरा रूप है। जहाँ कहीं तुम्हें कार्य दिखाई देता है, वह कारण की ही पुनरावृत्ति है। अतः यदि यह विश्व कार्य है और ईश्वर कारण, तो विश्व को ईश्वर की ही पुनरावृत्ति होना चाहिए। यदि तुम कहो कि यह विश्व ईश्वर का शरीर है और यह शरीर संकुचित एवं सूक्ष्म होकर कारण बन जाता है तथा उसीमें से इस विश्व का विकास होता है, तो इस पर अद्वैतवादी कहते हैं कि स्वयं ईश्वर ही यह विश्व बन गया है। अब यहाँ एक बहुत सूक्ष्म प्रश्न उठता है। यदि यह ईश्वर ही यह विश्व बन गया है, तो तुम और ये सभी चीजें ईश्वर ही हैं। निश्चय ही। यह पुस्तक ईश्वर है, प्रत्येक वस्तु ईश्वर है। मेरा शरीर ईश्वर है, मेरा मन ईश्वर है और मेरी आत्मा भी ईश्वर है। तब फिर जीवों का यह नानात्व क्यों है? क्या ईश्वर करोड़ों जीवों में बँट गया है? क्या वह एक ईश्वर करोड़ों जीवों में परिणत हो जाता है? तब यह फिर कैसे हुआ? वह अनंत शक्ति और सत्ता, वह एकमेव विश्वात्मा विभाजित कैसे हो गई। अनंत के खंड करना असंभव है। वह विशुद्ध चिदात्मा इस विश्व में कैसे परिणत हो सकती है? और यदि वह विश्व में परिणत हुई है, तव तो वह परिवर्तनशील है। यदि वह परिवर्तनशील है, तो वह प्रकृति की अंश है; और जो कुछ भी प्रकृति है, परिवर्तनशील है, वह तो जन्म लेता और मरता है। यदि हमारा ईश्वर परिवर्तनशील है, तो वह एक दिन अवश्य मरेगा। इस बात को ध्यान में रखो। पुनश्च, ईश्वर का कितना अंश यह विश्व बन गया है? यदि तुम कहो 'क' (बीजगणित का अज्ञात परिमाण), तब तो ईश्वर अब 'ईश्वर ऋण क' है और इसलिए वह वही ईश्वर नहीं है, जैसा कि इस सृष्टि के पूर्व था, क्योंकि उतना ईश्वर यह सृष्टि बन गया है।
अतः अद्वैतवादी कहते हैं, "इस विश्व का कोई निरपेक्ष अस्तित्व ही नहीं है; यह सब माया, मिथ्या है। यह संपूर्ण विश्व, ये देवगण, ये देवदूत, जन्म और मरण के चक्र में पड़े हुए ये सारे प्राणी तथा उन्नत और अवनत होते हुए ये असंख्य जीवात्माएँ--सभी के सभी स्वप्नमय हैं।" 'जीव' नामक कोई वस्तु है ही नहीं। नानात्व भला कैसे हो सकता है? है केवल एक अद्वितीय अनंत सत्ता ही। जैसे एक ही सूर्य विभिन्न जलाशयों में प्रतिबिंबित होकर अनेक भासता है और जल के करोड़ों बुलबुले करोड़ों सूर्य का प्रतिबिंब प्रकट करते हैं तथा प्रत्येक बुलबुले में सूर्य का पूर्ण प्रतिबिंब रहता है तथापि वास्तव में सूर्य तो एक ही है, उसी प्रकार ये सब जीव भिन्न-भिन्न मनों में प्रतिबिंब ही हैं। ये विभिन्न मन अनेकों बुलबुलों के समान उसी एक आत्मा को प्रतिबिंबित करते हैं। ईश्वर ही इन सब भिन्न-भिन्न जीवों में प्रतिबिंबित हो रहा है। स्वप्न किसी सत्य वस्तु के बिना नहीं हो सकता और वह अनंत सत्ता ही वह सत्य वस्तु है। तुम शरीर, मन या जीवात्मा के रूप में स्वप्नमय हो, तुम्हारा यथार्थ स्वरूप तो वही सत्, चित् और आनंद का है। तुम्हीं इस विश्व के ईश्वर हो। तुम्हीं संपूर्ण विश्व को प्रकट कर रहे हो और अपने में लय कर रहे हो। अद्वैतवादियों का यही सिद्धांत है। अतः ये सब जन्म और पुनर्जन्म, आना और जाना, सभी मायिक कल्पना मात्र हैं। तुम तो अनंत हो। तुम भला कहाँ जा सकते हो? सूर्य, चंद्र और समस्त विश्व तुम्हारे इंद्रियाँतीत स्वरूपसागर में बिंदु मात्र हैं। तुम्हारा जन्म और मरण कैसे हो सकता है? मैंने कभी जन्म नहीं लिया, न कभी लूंगा। मेरे न कभी पिता थे, न माता ही, न मित्र, न शत्रु; क्योंकि मैं तो सत्-चित्-आनंदस्वरूप हूँ। सोऽहम्, सोऽहम्। तब इस दार्शनिक मत के अनुसार अंतिम ध्येय क्या है? यही कि, जो यह ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, वे विश्व के साथ एक हो जाते हैं। उनके लिए समस्त स्वर्ग, यहाँ तक कि ब्रह्मलोक भी विनष्ट हो जाता है, सारा स्वप्न दूर हो जाता है और वे अपने को विश्व का अनादि-अनंत ईश्वर पाते हैं। वे अपने अनंत ज्ञान एवं आनंदस्वरूप यथार्थ व्यक्तित्व की प्राप्ति कर लेते हैं और मुक्त हो जाते हैं। क्षुद्र वस्तुओं में सुख-भोग की इच्छा का अंत आ जाता है। हम आज इस छोटे से शरीर और क्षुद्र व्यक्तित्व में ही आनंद मानते हैं। तब वह आनंद कितना अधिक न होगा, जब यह समस्त विश्व मेरा शरीर हो जाएगा! यदि एक शरीर में सुख है, तो जब सभी शरीर मेरे हैं, तब कितना अधिक सुख न होमा! तभी मुक्ति प्राप्त होती है। यही अद्वैत वेदांत का सिद्धांत है।
वेदांत दर्शन ने ये ही तीन श्रेणियाँ निर्धारित की हैं और हम उससे आगे नहीं बढ़ सकते; क्योंकि हम एकत्व के परे कैसे जा सकते हैं? जब कोई विज्ञान एकत्व तक पहुँच जाता है, तब वह किसी भी उपाय से और आगे नहीं बढ़ सकता। इस निरपेक्ष सत्ता या तुरीय के परे तुम नहीं जा सकते।
इस अद्वैत दर्शन को सभी मनुष्य ग्रहण नहीं कर सकते। यह कठिन है। सबसे पहले तो वह बुद्धि द्वारा समझने के लिए बहुत कठिन है। उसके लिए अत्यंत तीक्षण बुद्धि, साहसिक विवेक चाहिए। दूसरी बात यह है कि वह अधिकांश जनसमुदाय के अनुकूल नहीं है। इसीलिए ये तीन श्रेणियाँ हैं। प्रथम श्रेणी से आरंभ करो। उसको अच्छी तरह सोच-विचारकर समझ लेने पर द्वितीय श्रेणी अपने आप खुल जाएगी। जैसे एक जाति आगे बढ़ती है, वैसे ही व्यक्ति को भी आगे बढ़ना पड़ता है। धार्मिक विचार के अत्युच्च शिखरों तक पहुँचने में मानव-जाति ने जिस क्रम को ग्रहण किया है, वही क्रम प्रत्येक व्यक्ति को ग्रहण करना होगा। अंतर यही है कि जहाँ मानव-जाति को एक श्रेणी से दूसरी श्रेणी में पहुँचने के लिए लाखों वर्ष लगे हैं, वहाँ एक व्यक्ति मानव-जाति का समग्र जीवन अपेक्षाकृत बहुत स्वल्प अवधि में व्यतीत कर लेगा। परंतु हममें से प्रत्येक को इन श्रेणियों में से होकर जाना होगा। तुममें से जो अद्वैतवादी हैं, वे अपने जीवन के उस काल की ओर लौटकर देखें, जब तुम कट्टर द्वैतवादी थे। ज्यों ही तुम सोचते हो कि तुम शरीर और मन हो, त्यों ही तुमको यह संपूर्ण स्वप्न ग्रहण करना होगा। यदि तुम उसके एक अंश को ग्रहण करते हो, तो तुमको उसे संपूर्ण रूप से ग्रहण करना होगा। जो मनुष्य कहता है कि देखो, यह संसार है, पर ईश्वर (सगुण) नहीं है, वह मूर्ख है; क्योंकि यदि सृष्टि है, तो उसका कारण तो रहेगा ही, और वही कारण 'ईश्वर' कहलाता है। कारण को बिना जाने तुम्हें कोई कार्य नहीं मिल सकता। ईश्वर तभी विलुप्त हो सकता है, जब इस संसार का लोप हो जाए। तब तुम ईश्वर (निर्गुण) हो जाओगे और तुम्हारे लिए यह संसार न रह जाएगा। जब तक 'मैं शरीर हूँ', ऐसा स्वप्न तुममें बना हुआ है, तब तक तुम अपने को जन्म लेनेवाला और मरनेवाला ही पाओगे। पर ज्यों ही वह स्वप्न भंग हो जाएगा, त्यों ही यह स्वप्न भी भंग हो जाएगा कि तुम जन्म लेते हो और मरते हो, और साथ ही यह स्वप्न भी कि इस विश्व का अस्तित्व है। वही वस्तु जो आज हमें विश्व के रूप में दीख रही है, ईश्वर (परब्रह्म) दिखाई देगी और वही ईश्वर, जो इतने दीर्घ काल तक बाहर प्रतीत होता था, अब अंतःस्थ, अपनी स्वयं आत्मा ही प्रतीत होगा।