(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
वृंदावन,
१२ अगस्त, १८८८
मान्यवर,
अयोध्या से मैं वृंदावन धाम में आ गया हूँ और काला बाबू के कुंज में ठहरा हूँ।
शहर में मन संकुचित रहता है। सुना है, राधाकुण्ड आदि स्थान मनोरम हैं, परंतु
वे शहर से कुछ दूर हैं। मेरा विचार बहुत शीघ्र हरिद्वार जाने का है। यदि आपकी
वहाँ किसी से पहचान हो, तो कृपा करके उन्हें आप एक परिचय-पत्र मेरे लिए लिख
दें। आप यहाँ कब आएंगे? कृपया शीघ्र उत्तर दीजिए।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
[1]
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
श्री दुर्गाशरणम्
वृंदावन,
२० अगस्त, १८८८
महाशय,
मेरे एक वयोवृद्ध गुरुभाई, जो केदारनाथ और बदरीनाथ की यात्रा करके अभी वृंदावन
लौटे हैं, गंगाधर
[2]
से मिले। गंगाधर तिब्बत और भूटान दो बार हो आया है। वह बड़ा सुखी है और परस्पर
मिलकर आनन्दोल्लास से रो पड़ा। उसने कनखल में जाड़े के दिन बिताये। जो कमंडलु
आपने उसे दिया था, वह उसके पास अभी भी है। वह लौट आ रहा है और इसी महीने में
वृंदावन पहुँचने वाला है। अतएव उससे मुलाक़ात करने की आशा में मैंने अपना
हरिद्वार जाना कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दिया है। शिव जी के उस ब्राहाण भक्त
से, जो आपके साथ रहता है, मेरा प्रणाम कहें एवं आप भी मेरा प्रणाम ग्रहण करें।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
बराहनगर मठ,
१९ नवम्बर, १८८८
पूज्यपाद महाशय,
आपकी भेजी हुई दोनों पुस्तकें मुझे मिलीं। आपका प्रेमपूर्ण पत्र पढ़कर मैं
हर्ष से ओतप्रोत हो गया। वह आपके हृदय की विशालता तथा उदारता का प्रतीक है।
महाशय, मुझ जैसे भिक्षावृत्तिधारी संन्यासी पर जो आप इतनी महती कृपा करते हैं,
यह निःसंदेह मेरे पूर्व जन्मों के पुण्य का फल है। आपने 'वेदांत' का उपहार
भेजकर न केवल मुझे, वरन् श्री रामकृष्ण के समस्त संन्यासी-मंडल को आजीवन ऋणी
कर दिया है। वे सब आपको सादर प्रणाम करते हैं। मैंने आपसे जो पाणिनि व्याकरण
की प्रति मँगाई है, वह केवल अपने लिए ही नहीं है; वास्तव में इस मठ में
संस्कृत धर्मग्रंथों का खूब अध्ययन हो रहा है। वेदों के लिए तो यहाँ तक कहा जा
सकता है कि उनका अध्ययन बंगाल में बिल्कुल छूट गया है। इस मठ में बहुत से लोग
संस्कृत जानते हैं और उनकी इच्छा है कि वे वेदों के संहितादि भागों पर पूर्ण
अधिकार प्राप्त कर लें। उनकी राय है कि जो काम किया जाए, उसे पूरी तौर से किया
जाए। मेरा विश्वास है कि पाणिनि व्याकरण पर पूर्ण अधिकार प्राप्त किए बिना
वेदों की भाषा में पारंगत होना असंभव है और एकमात्र पाणिनि व्याकरण ही इस
कार्य के लिए सर्वश्रेष्ठ है इसीलिए इसकी एक प्रति की आवश्यकता हुई। मुग्धबोध
व्याकरण, जो हम लोगों ने बाल्यकाल में पढ़ा था, लघुकौमुदी से कई अंशों में
अच्छा है। आप स्वयं एक बड़े विद्वान् हैं, अतएव हमारे लिए इस विषय में निर्णय
अच्छी तरह कर सकते हैं। अतः यदि आप समझते हैं कि (पाणिनिकृत) अष्टाध्यायी
हमारे लिए सबसे अधिक उपयुक्त है, तो उसे भेजकर हमें आप जीवन भर के लिए
अनुगृहीत करेंगे। इस विषय में मैं यह कह दूं कि आप अपनी सुविधा और इच्छा का
अवश्य स्मरण रखें। इस मठ में अध्यवसायी, योग्य और कुशाग्रबुद्धिवाले मनुष्यों
की कमी नहीं है। मुझे आशा है कि गुरुकृपा से वे अल्पकाल में पाणिनीय पद्धति
में पारंगत होकर बंगाल में वेदों का पुनरुद्धार करने में सफल होंगे। मैं आपकी
सेवा में अपने पूज्य गुरुदेव के दो फोटो और उनके कुछ उपदेशों के दो भाग,
जिन्हें किसी सज्जन ने संकलित और प्रकाशित किया है, भेजता हूँ। इन उपदेशों में
आपको घरेलू शैली मिलेगी। आशा है, आप इन्हें स्वीकार करेंगे। मेरा स्वास्थ्य अब
काफ़ी ठीक है। आशा है, प्रभु-कृपा से मैं दो-तीन महीनों में आपसे मिल सकूँगा।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
श्री श्री दुर्गा
बराहनगर, कलकत्ता,
२८ नवम्बर, १८८८
प्रणामपूर्वक निवेदन,
आपका भेजा हुआ पाणिनि ग्रंथ मिला--मेरी कृतज्ञता स्वीकार करें। मुझे पुनः ज्वर
हो गया था, इसीलिए तत्काल उत्तर न दे सका, क्षमा करें। शरीर अत्यंत अस्वस्थ
है। श्रीमान् की शारीरिक तथा मानसिक कुशलता के लिए श्री महामाया से प्रार्थना
करता हूँ।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
ईश्वरो जयति
बराहनगर, कलकत्ता,
४ फ़रवरी, १८८९
पूज्य महाशय,
किसी कारण से आज मैं मानसिक उद्विग्नता और ऐंठन का अनुभव कर रहा था, उसी समय
आपका पत्र मिला, जिसमें आपने मुझे वाराणसी के स्वर्गोपम नगर में निमंत्रित
किया है। मैं इसे श्री विश्वेश्वर का आदेश मानकर स्वीकार कर रहा हूँ। इस समय
मैं अपने गुरुदेव की जन्मभूमि के दर्शन के लिए रवाना हो रहा हूँ और वहाँ कुछ
दिन प्रवास करने के बाद मैं आपकी सेवा में उपस्थित हूँगा। जो वाराणसी और
विश्वनाथ के दर्शन से द्रवित नहीं होता, वह पाषाण-हृदय है! मेरा स्वास्थ्य अब
बहुत सुधर गया है। ज्ञानानन्द से मेरा नमस्कार कहिए। जितना शीघ्र हो सकेगा,
मैं वहाँ पहुँचूंगा। यह सब अंततोगत्वा विश्वेश्वर की इच्छा पर निर्भर है।
किमधिकमिति। शेष मिलने पर।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
(श्री महेन्द्रनाथ गुप्त को लिखित)
आँटपुर
[3]
,
७ फ़रवरी, १८८९
प्रिय म--,
मास्टर महाशय, मैं आपको शतशः धन्यवाद देता हूँ। आपने श्री रामकृष्ण को बिल्कुल
ठीक समझा है। खेद है, बहुत थोड़े लोग उन्हें समझ सकते हैं!
आपका,
नरेन्द्रनाथ
पुनश्च--जब कभी मैं किसी व्यक्ति को उस उपदेशवाणी के बीच पूर्ण रूप से निमग्न
पाता हूँ, जो भविष्य में संसार में शांति की वर्षा करनेवाली है, तो मेरा हृदय
आनंद से उछलने लगता है। ऐसे समय मैं पागल नहीं हो जाता हूँ, यही आश्चर्य की
बात है!
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
वराहनगर,
२१ फ़रवरी, १८८९
पूज्यपाद,
मेरा विचार बनारस जाने का था, और अपने गुरुदेव के जन्म-स्थान के दर्शनोपरान्त
वहाँ जाने की योजना मैंने बनाई थी लेकिन दुर्भाग्यवश उस गाँव के रास्ते में ही
मुझे तेज बुखार आ गया और फिर दस्त होने लगी, जैसी हैजे में होती है। तीन-चार
दिन बाद बुखार फिर हो आया--और इस समय शरीर में इतनी कमजोरी है कि मेरे लिए दो
कदम चलना भी कठिन है। अब विवश होकर मैंने अपने पूर्व विचार का परित्याग कर
दिया है। मुझे यह पता नहीं कि ईश्वर की क्या इच्छा है, लेकिन इस मार्ग पर चलने
के लिए मेरा शरीर बिल्कुल अक्षम है। फिर भी, शरीर ही तो सब कुछ नहीं है। यहाँ
स्वस्थ होने पर कुछ दिनों बाद मैं वहाँ आपसे मिलने की आशा करता हूँ।
विश्वेश्वर जैसा चाहेंगे, चाहे जो हो, वही होगा। कृपया आप भी मुझे आशीर्वाद
दें। आपको तथा भाई ज्ञानानन्द को मेरी श्रद्धा।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
बागबाजार,
कलकत्ता,
२१ मार्च, १८८९
पूज्यपाद,
कई दिन पहले आपका पिछला पत्र मिला था। देर से उत्तर देने के लिए क्षमा
कीजिएगा, जो कुछ विशेष कारणों से हो गई। इस समय मैं बहुत बीमार हूँ। कभी कभी
बुखार हो जाता है, लेकिन प्लीहा या किसी अन्य अंग में कोई गड़बड़ी नहीं है।
मैं होमियोपैथिक चिकित्सा करा रहा हूँ। वाराणसी जाने का विचार मैंने अब
पूर्णतया त्याग दिया है। शारीरिक अवस्था के अनुसार अब ईश्वर जो चाहेगा, वह बाद
में होगा। अगर भाई ज्ञानानन्द से आपकी भेंट हो, तो उनसे बता दीजिएगा कि वे
मेरी प्रतीक्षा में वहाँ न रुकें। वहाँ मेरा जाना बहुत ही अनिश्चित है।
ज्ञानानन्द एवं आपको मेरी श्रद्धा।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
श्री श्री दुर्गाशरणम्
बराहनगर मठ,
२६ जून, १८८९
पूज्यपाद महाशय,
कुछ विभिन्न कारणों से मैं आपको बहुत दिनों से पत्र न लिख सका, कृपया क्षमा
करें। मुझे गंगाधर का समाचार अब मिल गया है। उसकी मेरे एक गुरु भाई से भेंट हो
गई है और वे दोनों इस समय उत्तराखंड में निवास कर रहे हैं। हममें से चार इस
समय हिमालय में हैं और अब गंगाधर को मिलाकर पांच हो गए। शिवानन्द नामक एक
गुरुभाई गंगाधर को केदारनाथ की राह में श्रीनगर में मिल गए थे। गंगाधर ने दो
चिट्ठियाँ यहाँ भेजी हैं। पहले साल उसे तिब्बत जाने की अनुमति नहीं मिली,
परंतु दूसरे साल मिल गई। लामा लोग उससे बहुत प्रेम करते हैं और उसने उनसे
तिब्बती भाषा भी सीख ली है। उसका कहना है कि तिब्बत में नब्बे प्रतिशत
जनसंख्या लामाओं की है, परंतु संप्रति वे लोग तांत्रिक ढंग की उपासना ही अधिक
करते हैं। वह देश बहुत ठण्डा है। वहाँ सूखा मांस छोड़कर खाद्य पदार्थ कठिनाई
से मिलते हैं। गंगाधर को इसके बावजूद चलना पड़ा और इसी भोजन पर निर्वाह करना
पड़ा। मेरा स्वास्थ्य तो कामचलाऊ है, परंतु मन की स्थिति भीषण है!
आपका,
नरेन्द्रनाथ
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
ईश्वरो जयति
बागबाजार, कलकत्ता,
४ जुलाई, १८८९
पूज्यपाद महाशय,
कल आपके पत्र से सारे समाचार पाकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ। आपने मुझे लिखा है कि
मैं गंगाधर से आपसे पत्र-व्यवहार करने के लिए निवेदन करूँ। परंतु मुझे इसकी
कोई संभावना नहीं दिखाई देती, क्योंकि यद्यपि उसकी चिट्ठियाँ हमारे पास आती
रहती हैं, परंतु वह किसी जगह दो या तीन दिन से अधिक नहीं ठहरता। इसलिए हमारी
चिट्ठियाँ उसे नहीं मिल पातीं।
मेरे पूर्वाश्रम के एक संबंधी ने सिमुलतला में (वैद्यनाथ के पास) एक बंगला
खरीदा है। उस स्थान की जलवायु स्वास्थ्यकर होने के कारण मैं कुछ दिन वहाँ ठहरा
था। परंतु ग्रीष्म की भयंकर गर्मी के कारण मुझे दस्त की बीमारी हुई और मैं अभी
वहीं से भागकर आया हूँ।
मैं कह नहीं सकता कि मेरी कितनी प्रबल इच्छा वाराणसी आकर आपके दर्शन और सत्संग
का लाभ प्राप्त करने की है परंतु सब कुछ भगवदिच्छा पर निर्भर है! महाशय, पता
नहीं कि हमारा और आपका पूर्व जन्म का कौन सा हार्दिक संबंध है, क्योंकि इस
कलकत्ता शहर में बहुत से प्रतिष्ठित और धनी लोगों का प्रेम प्राप्त करके भी
मैं कभी कभी उनकी संगति से बहुत ऊबने लगता हूँ और आपसे केवल एक दिन की भेंट
होते ही मेरे हृदय पर ऐसा कुछ जादू का सा असर पड़ा कि मैं आपको अपना स्वजन और
आध्यात्मिक जीवन का बंधु समझने लगा हूँ! इसका एक कारण यह है कि आप भगवान् के
एक प्रिय भक्त हैं। दूसरा कारण शायद यह है कि :
तच्चेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्वम्।
भावस्थिराणि जननान्तरसौहृदानि॥
[4]
अपने अनुभव और आध्यात्मिक साधना से प्रेरित जो उपदेश आपने मुझे दिए हैं, मैं
उनके लिए आपका ऋणी हूँ। यह बिल्कुल सच है और मुझे भी समय समय पर इसका अनुभव
हुआ है कि भिन्न-भिन्न प्रकार के अभिनव विचारों को मस्तिष्क में धारण करने के
कारण मनुष्य को कभी कभी कष्ट उठाना पड़ता है।
परंतु मुझको तो इस समय एक नया ही रोग है। परमात्मा की कृपा पर मेरा अखंड
विश्वास है। वह कभी टूटने वाला भी नहीं। धर्मग्रंथों पर मेरी अटूट श्रद्धा है
परंतु प्रभु की इच्छा से मेरे गत छ:-सात वर्ष निरंतर विभिन्न विघ्न बाधाओं से
लड़ते हुए बीते। मुझे आदर्श शास्त्र प्राप्त हुआ है। मैंने एक आदर्श महापुरुष
के दर्शन किए हैं, फिर भी किसी वस्तु का अंत तक निर्वाह मुझसे नहीं हो पाता,
यही मेरे लिए बड़े कष्ट की बात है।
और विशेषतः कलकत्ते के आसपास रहकर मुझे सफलता पाने की कोई आशा नहीं। कलकत्ते
में मेरी माँ और दो भाई रहते हैं। मैं सबसे बड़ा हूँ। दूसरा भाई एम० ए०
परीक्षा की तैयारी कर रहा है और तीसरा अभी छोटा है।
वे लोग पहले काफ़ी संपन्न थे, पर मेरे पिता की मृत्यु के बाद उनका जीवन कष्टमय
हो गया है। कभी कभी तो उन्हें भूखा रहना पड़ता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि
उन्हें असहाय पाकर कुछ संबंधियों ने उन्हें पैतृक घर से भी निकाल दिया है। कुछ
भाग तो हाईकोर्ट में मुकदमा लड़कर पुनः प्राप्त कर लिया गया है, परंतु वे
मुकदमेबाजी के कारण धनहीन हो गए हैं।
कलकत्ते के पास रहकर मुझे अपनी आँखों उनकी दुरवस्था देखनी पड़ती है। उस समय
मेरे मन में रजोगुण जाग्रत हो उठता है और मेरा अहंभाव कभी कभी उस भावना में
परिणत हो जाता है, जिसके कारण कार्यक्षेत्र में कूद पड़ने की प्रेरणा होती है।
ऐसे क्षणों में मैं अपने मन में एक भयंकर अंतरद्वंद्व अनुभव करता हूँ। यही
कारण है कि मैंने लिखा था कि मेरे मन की स्थिति भीषण है। अब उनका मुक़दमा
समाप्त हो चुका है। आशीर्वाद दीजिए कि कुछ दिन कलकत्ते में ठहरकर उन सब मामलों
को सुलझाने के बाद मैं इस स्थान से सदा के लिए विदा ले सकूँ।
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठम्
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत् कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शांतिमाप्नोति न कामकामी॥
[5]
मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मेरा हृदय महान दैवी शक्ति से बलशाली हो और मैं सारे
माया-बंधनों को तोड़कर दूर कर सकूँ। हमने क्रूस ले लिया है, तूने उसे हमारे
कंधों पर रखा है, हमें शक्ति दे कि हम उसे मृत्युपर्यंत वहन कर सकें।
एवमस्तु।' ईसा-अनुसरण।
इस समय मैं कलकत्ते में ठहरा हूँ। मेरा पता यह है : मार्फत बलराम बसु, ५७,
रामकान्त बोस स्ट्रीट, बागबाजार, कलकत्ता।
आपका,
नरेन्द्र
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
शिमला, कलकत्ता,
१४ जुलाई, १८८९
पूज्यपाद,
आपका पत्र पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई। इस परिस्थिति में बहुतों ने मुझे
सांसारिकता की ओर झुकने की राय दी। परंतु आप एक सत्यनिष्ठ और वज्रहृदय पुरुष
हैं। आपके उत्साह एवं साहसपूर्ण शब्दों से मुझे बहुत सांत्वना मिली है। करीब
करीब यहाँ की मेरी सारी कठिनाइयाँ दूर हो गई हैं--केवल मैंने जमीन बेचने के
लिए एक दलाल नियुक्त कर रखा है, और आशा है कि वह शीघ्र ही बिक जाएगी। उस
स्थिति में मैं सारी चिंताओं से मुक्त हो जाऊँगा और सीधे आपके पास वाराणसी
पहुंचूंगा।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
ईश्वरो जयति
बराहनगर, कलकत्ता,
७ अगस्त, १८८९
पूज्य महाशय,
आपका पत्र मिले एक सप्ताह से अधिक हो गया, परंतु मुझे फिर ज्वर आ गया था, इस
कारण मैं अब तक उत्तर नहीं दे पाया, इसके लिए कृपया क्षमा करें। बीच में डेढ़
माह तक मैं ठीक था, पर दस दिन हुए, फिर बीमार पड़ गया था। अब स्वास्थ्य अच्छा
है।
मुझे कुछ प्रश्न करने हैं, और चूंकि महाशय, आप संस्कृत के एक बड़े विद्वान्
हैं, अतः मेरे निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर देकर मुझे कृतार्थ करें:
१. क्या उपनिषदों के अतिरिक्त वेदों में और कहीं सत्यकाम जाबाल और जनश्रुति की
कथा आई है?
२. जहाँ कहीं शंकराचार्य अपने वेदांत-सूत्रों के भाष्य में स्मृति का उदाहरण
देते हैं, तो वे प्रायः महाभारत का प्रमाण देते हैं। परंतु हम इस बात का पूरा
प्रमाण देखते हैं कि महाभारत के वनपर्व के अजगरोपाख्यान एवं उमा-महेश्वर-संवाद
में तथा भीष्म पर्व में जाति का आधार गुण-धर्म है, तो क्या उन्होंने इसका
उल्लेख कहीं अपने अन्य ग्रंथों में किया है?
३. वेदों के पुरुषसूक्त के अनुसार जाति-विभाग वंशपरंपरानुगत नहीं है। फिर
वेदों में इस बात का कहाँ उल्लेख हुआ है कि जाति जन्म से है?
४. श्री शंकराचार्य ने वेदों से इस बात का कोई प्रमाण नहीं निकाला कि शूद्र
वेदाध्ययन का अधिकारी नहीं। उन्होंने केवल 'यज्ञेऽनवक्लुप्तः' का प्रमाण इसलिए
दिया है कि जब (शूद्र) यज्ञ करने का अधिकारी नहीं है, तो अवश्य ही उपनिषदादि
पढ़ने का भी उसे अधिकार नहीं है परंतु उन्हीं आचार्य ने 'अथातो
ब्रह्मजिज्ञासा' की व्याख्या करते हुए 'अथ' के अर्थ के संबंध में कहा है कि
उसका अभिप्राय 'वेदाध्ययन के पश्चात्' नहीं है, क्योंकि पद प्रमाण के विरुद्ध
पड़ता है कि संहिता और ब्राह्मण भाग का अध्ययन किए बिना उपनिषद् नहीं पढ़े जा
सकते और साथ ही वैदिक कर्मकांड और वैदिक ज्ञानकांड में कोई पूर्वापर भाव नहीं
है। इससे यह स्पष्ट है कि वेदों के कर्मकांडीय ज्ञान के बिना भी किसी को
उपनिषद् पढ़कर ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो सकता है। अतएव यदि कर्मकांड और
ज्ञानकांड में कोई पूर्वापर संबंध नहीं है, तो शूद्रों के विषय में
'न्यायपूर्वकम्' आदि वाक्यों द्वारा आचार्य क्यों अपने वाक्यों को ही खंडित कर
रहे हैं? शूद्र को उपनिषदों का अध्ययन क्यों नहीं करना चाहिए?
मैं आपके पास एक ईसाई संन्यासी लिखित 'ईसा-अनुसरण' नामक पुस्तक डाक द्वारा भेज
रहा हूँ। यह एक अद्भुत ग्रंथ है। ईसाइयों में भी त्याग-वृत्ति, वैराग्य और
दास्य-भक्ति के कितने ऊँचे उदाहरण हैं, यह जानकर बड़ा आश्चर्य होता है।
कदाचित् आपने यह पुस्तक पहले पढ़ी हो, यदि नहीं पढ़ी, तो कृपया अवश्य पढ़िए।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
ईश्वरो जयति
बराहनगर, कलकत्ता,
१७ अगस्त, १८८९
पूज्यपाद,
आपने पिछले पत्र में लिखा है कि जब मैं आपको आदरसूचक शब्दों से संबोधित करता
हूँ, तो आपको बहुत संकोच होता है। किंतु इसमें मेरा कुछ दोष नहीं। इसका
उत्तरदायित्व तो आपके सद्गुणों पर है। मैंने इस पत्र के पूर्व एक पत्र में
लिखा था कि आपके सद्गुणों से जो मैं आपकी ओर आकृष्ट होता हूँ, उससे यह प्रतीत
होता है कि हमारा और आपका पूर्वजन्म का कुछ संबंध है। इस संबंध में मैं एक
गृहस्थ और संन्यासी में कोई भेद नहीं मानता और जहाँ कहीं महानता, हृदय की
विशालता, मन की पवित्रता एवं शांति पाता हूँ, वहाँ मेरा मस्तक श्रद्धा से नत
हो जाता है--शांतिः शांतिः शांतिः! आजकल जितने लोग संन्यास ग्रहण करते हैं ऐसे
लोग जो वास्तव में मान-सम्मान के भूखे हैं, जीवन निर्वाह के निमित्त त्याग का
दिखावा करते हैं और जो गृहस्थ और संन्यास, इन दोनों के आदर्शों से गिरे हुए
होते हैं--उनमें कम से कम एक लाख में एक तो आपके जैसा महात्मा निकले, ऐसी मेरी
प्रार्थना है! मेरे जिन ब्राह्मण गुरुभाइयों ने आपके सद्गुणों की चर्चा सुनी
है, वे सब आपको सादर प्रणाम करते हैं।
मेरे जिन अनेक प्रश्नों के आपने उत्तर लिख भेजे हैं, उनमें से एक से संबंधित
मेरा भ्रम दूर हो गया है। इसके लिए मैं आपका चिर अनुगृहीत रहूँगा। इन प्रश्नों
में एक और यह था कि, क्या भगवान् शंकराचार्य ने गुण-कर्मानुसार जाति-विभाग पर,
जिसका उल्लेख महाभारत इत्यादि पुराणों में हुआ है, अपना स्पष्ट निर्णय दिया
है? अगर दिया है, तो वह कहाँ मिलेगा? मुझे इसमें संदेह नहीं है कि इस देश की
प्राचीन रूढ़ि के अनुसार जाति-विभाग जन्म के अनुसार होता आया है और इसमें
संदेह नहीं कि समय समय पर शूद्रों के साथ उससे भी अधिक अत्याचार किया जाता रहा
होगा, जैसा कि स्पार्टा के लोगों ने वहाँ के हेलट्स (अस्पृश्यों) के साथ किया
और आज भी अमेरिका में हब्शियों के साथ किया जाता है। मैं तो जाति-पाति के
मामले में किसी भी वर्ग के प्रति कोई पक्षपात नहीं रखता, क्योंकि मैं जानता
हूँ कि यह एक सामाजिक नियम है और गुण एवं कर्म के भेद पर आधारित है। यदि कोई
नैष्कर्म्य एवं निर्गुणत्व को प्राप्त करना चाहता है, तो उसे अपने मन में किसी
प्रकार का जाति-भेद रखना हानिकर है। इन मामलों में गुरु के प्रसाद से मेरे कुछ
निश्चित विचार हैं, परंतु यदि मैं आपके विचार जान सकू, तो मैं उनके आधार पर
अपने कुछ मतों की परिपुष्टि कर सकूँगा और शेष का संशोधन। मधुमक्खी के छत्ते को
बाँस से बिना कोंचे शहद नहीं टपक सकता। अतः मैं आपसे कुछ प्रश्न और करूँगा।
मुझको अज्ञ और बालक समझकर बिना किसी प्रकार का क्रोध किए कृपया यथार्थ उत्तर
देगें।
१. वेदांत-सूत्र में जिस मुक्ति का वर्णन हुआ है, क्या उसमें और अवधूत गीता
तथा अन्य ग्रंथों में वर्णित निर्वाण में कोई भेद है या नहीं?
२. यदि जगद्व्यापारवर्जं प्रकरणादसंनिहितत्वाच्च
[6]
इस सूत्र के अनुसार किसी को पूर्ण ईश्वरत्व प्राप्त नहीं होता, तो निर्वाण का
वास्तव में क्या अर्थ है?
३. यह कहा जाता है कि चैतन्यदेव ने सार्वभौम से पुरी में कहा, "मैं व्यास के
सूत्रों को समझता हूँ। वे द्वैतात्मक हैं, परंतु भाष्यकारों ने उन्हें
अद्वैतात्मक बना दिया है। यह बात समझ में नहीं आती।" क्या यह सच है? किंवदंती
के अनुसार चैतन्यदेव का प्रकाशानन्द सरस्वती से इस विषय पर शास्त्रार्थ हुआ और
चैतन्यदेव की विजय हुई। कहते हैं कि चैतन्यदेव द्वारा लिखित एक भाष्य
प्रकाशानन्द जी के मठ में था।
४. तंत्र में आचार्य शंकर को प्रच्छन्न बुद्ध (छिपे हुए बुद्ध) कहा गया है।
बौद्ध महायान के प्रसिद्ध ग्रंथ 'प्रज्ञापारमिता' में वर्णित सिद्धांत आचार्य
शंकर द्वारा प्रतिपादित वेदांत मत से बिल्कुल मिलता-जुलता है। पंचदशीकार का भी
यह कहना है कि 'जिसे हम लोग ब्रह्म कहते हैं, वही तत्त्वतः बौद्धों का शून्य
है।' इस सबका क्या अर्थ है?
५. वेदांत-सूत्रों में वेदों के प्रमाण के विषय में कोई कारण क्यों नहीं
दिएगए? पहले तो यह कहा गया है कि वेद परमात्मा के अस्तित्व के प्रमाण हैं और
फिर यह बताया गया है कि वेद 'परमात्मा से निःश्वसित हैं', इसीलिए प्रमाण हैं।
अब यह बताइए कि पश्चिमी तर्कशास्त्र के अनुसार यह कथन एक अन्योन्याश्रय दोष
(Argument in a circle) के समान दोषपूर्ण है या नहीं?
६. वेदांत श्रद्धा की अपेक्षा करता है, क्योंकि केवल तर्क से निर्णय नहीं हो
सकता। तो फिर शास्त्रार्थ करनेवाले पण्डितों ने सांख्य और न्याय की पद्धतियों
में थोड़ी सी भी कमी पाकर उस पर आक्षेपों की इतनी बौछार क्यों की है? हम किसका
विश्वास करें? जिसे देखिए, वह अपने ही मत के प्रतिपादन के पीछे मतवाला है। यदि
व्यास के अनुसार स्वयं महासिद्ध
[7]
कपिल मुनि ने ही भूल की है, तो कौन कह सकता है कि स्वयं व्यास ने उसकी अपेक्षा
बड़ी भूल नहीं की? क्या कपिल वेदों को नहीं समझ सके?
७. न्यायशास्त्र के अनुसार 'शब्द या वेद' (सत्य का प्रमाण) उनकी वाणी है, जो
सर्वोच्च पद पर पहुँच चुके हैं या आप्त हैं। इस दृष्टि से ऋषि सर्वज्ञ हैं। तो
फिर यह कैसे माने कि वे 'सूर्य सिद्धांत' के अनुसार इतने साधारण ज्योतिष
तत्त्वों के ज्ञाता नहीं थे? उनके कथनानुसार पृथ्वी त्रिकोण है और वासुकि नाग
के सिर पर रखी है, आदि। इन सब बातों को देखते हुए भी हम यह कैसे मान लें कि
उनकी बुद्धि-नौका हमें जन्म-मरण के इस भवसागर के पार पहुँचा देगी?
८. यदि परमात्मा प्राणियों के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार ही उन्हें जन्म देता
है, तो फिर उसकी उपासना से हमें क्या लाभ? नरेशचंद्र का एक सुंदर गीत है,
जिसमें कहा गया है : 'हे माता, यदि जो कुछ भाग्य में लिखा है, उसका होना
अवश्यंभावी है, तो फिर हम दुर्गा के पवित्र नाम को लेकर प्रार्थना क्यों करें?
"
९. माना कि एक ही विषय पर जब अनेक वाक्य एकार्थक हैं, तब उसका एक दो वाक्यों
द्वारा विरोध मान्य नहीं हो सकता। मधुपर्क
[8]
और इसी प्रकार की दूसरी चिर प्रचलित प्रथाओं का अश्वमेध, गोवध, संन्यास,
श्राद्ध आदि में मांस-पिंड दान आदि द्वारा क्यों निषेध हो जाता है? यदि वेद
नित्य हैं, तो फिर इन कथाओं में कहाँ तक सत्य है कि 'धर्म की वह विधि द्वापर
के लिए है, और 'यह कलियुग के लिए है' इत्यादि इत्यादि?
१०. जिस परमात्मा ने वेदों का निर्माण किया, उसी ने फिर बुद्धावतार धारण कर
उनका खंडन किया। इन धर्मादेशों में किसका अनुगमन किया जाए? इनमें से किसको
प्रमाणस्वरूप माना जाए? पहले को या बादवाले को?
११. तंत्र कहते हैं कि कलियुग में वेद-मंत्र व्यर्थ हैं। अब भगवान् शिव के भी
किस उपदेश का पालन किया जाए?
१२. व्यास का वेदांत-सूत्र में यह स्पष्ट कथन है कि वासुदेव सकर्षणादि
चतुर्ग्रह उपासना ठीक नहीं। फिर वे ही व्यास भागवत में इसी उपासना के
गुणानुवाद गाते हैं। तो क्या व्यास पागल थे?
इनके अतिरिक्त मेरी और बहुत सी शंकाएँ हैं। उनके समाधान की आशा से मैं भविष्य
में उन्हें आपके सम्मुख उपस्थित करूँगा। इस प्रकार के प्रश्न बिना साक्षात्
मिले भली प्रकार प्रकट नहीं किए जा सकते और न प्रत्याशित समाधान ही उपलब्ध हो
सकता है। अतएव मेरी इच्छा है कि गुरुकृपा से मैं जब निकट भविष्य में आपसे
मिलूँगा, उसी समय वे सब प्रश्न करूँगा।
मैंने ऐसा कहते सुना है कि बिना आध्यात्मिक साधना में आंतरिक प्रगति हुए इन
विषयों पर केवल युक्ति आदि के बल से किसी निर्णय पर पहुँचना असंभव है पर शुरू
में कम से कम कुछ परिभाषा में समाधान तो होना चाहिए।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
श्री श्री दुर्गा शरणम्
बागबाजार, कलकत्ता,
२ सितंबर, १८८९
पूज्यपाद,
कुछ दिन हुए, मुझे आपके दो कृपापत्र प्राप्त हुए थे। आपमें ज्ञान और भक्ति का
इतना आश्चर्यपूर्ण समन्वय है, यह जानकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ। आपने मुझे जो यह
उपदेश दिया है कि मैं तर्क और विवाद करना छोड़ दूं, यह सचमुच बहुत ठीक है।
वास्तव में वैयक्तिक जीवन का यही लक्ष्य है--'जिसको आत्म-दर्शन होता है, उसकी
हृदय की ग्रंथियाँ खुल जाती हैं, उसके सारे संशय दूर हो जाते हैं और कर्मों का
नाश हो जाता है।'
[9]
किंतु जैसा गुरुदेव कहा करते थे कि जब घड़े को पानी में डुबाकर भरा जाता है,
उस समय उससे भक्- भक् ध्वनि ही होती है, परंतु भर जाने के बाद उसमें से कोई
ध्वनि नहीं होती, मेरी दशा ठीक वैसी ही है । दो-तीन सप्ताह के भीतर आपके दर्शन
भी कर सकूँगा। परमात्मा मेरी यह इच्छा पूर्ण करे।
आपका,
नरेन्द्र
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
बागबाजार, कलकत्ता,
३ दिसम्बर, १८८९
प्रिय महोदय,
बहुत दिन से आपका समाचार नहीं मिला। आशा है, आपका मन और शरीर अच्छा है। मेरे
दो गुरुभाई बनारस के लिए प्रस्थान कर रहे हैं। एक का नाम राखाल है, दूसरे का
सुबोध। प्रथम मेरे गुरु का प्रिय पात्र था और अधिकतर उनके साथ रहता था। कृपया
उनके नगर-निवास के समय, यदि आप इसे सुविधाजनक समझें तो, उनके लिए किसी सत्र
में सिफ़ारिश कर दीजियेगा। उनसे आप मेरा सब समाचार सुनेंगे। असंख्य प्रमाण के
साथ--
आपका,
नरेन्द्रनाथ
पुनश्च--गंगाधर अब कैलाश जा रहा है। तिब्बत वालों ने विदेशियों का जासूस समझकर
उसे समाप्त कर डालना चाहा। संयोगवश कुछ लामाओं ने उसे कृपापूर्वक मुक्त कर
दिया। यह समाचार हमें तिब्बत जाने वाले एक व्यापारी से मिला। गंगाधर को बिना
ल्हासा देखे चैन नहीं है। लाभ यह है कि उसकी शारीरिक सहन शक्ति बहुत बढ़ गई
है--एक रात्रि उसने नंगे बदन बर्फ के बिछौने पर बिताई, और वह भी बिना किसी
विशेष कठिनाई के। इति।
आपका,
नरेन्द्र
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
ईश्वरो जयति
बराहनगर, कलकत्ता,
१३ दिसम्बर, १८८९
पूज्यपाद,
आपके पत्र से सब समाचार मिले। उसके बाद राखाल का पत्र मिला, जिससे आपकी और
उसकी भेंट का हाल मालूम हुआ। आपकी लिखी हुई पुस्तिका मिली। जब से यूरोप में
'ऊर्जा-संधारण' (Conservation of Energy) के सिद्धांत का आविष्कार हुआ है, तब
से वहाँ एक प्रकार का वैज्ञानिक अद्वैतवाद फैल रहा है। किंतु वह सब परिणामवाद
हैं। यह अच्छा हुआ कि आपने उसमें और शंकराचार्य के विवर्तवाद में भेद स्पष्ट
कर दिया है। जर्मन अतीन्द्रियवादियों
[10]
(Transcendentalists) के संबंध में स्पेन्सर की विडंबना का जो उद्धरण आपने
दिया, वह मुझे जंचा नहीं। स्पेन्सर ने स्वयं उनसे बहुत कुछ सीखा है।
आपका विरोधी 'गफ़' (Gough) अपने 'हेगेल' को समझा सका है या नहीं, इसमें संदेह
है । जो हो, आपका उत्तर काफ़ी तीक्ष्ण एवं अकाट्य है।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
(श्री बलराम बसु को लिखित)
रामकृष्णो जयति
वैद्यनाथ,
२४ दिसम्बर, १८८९
प्रिय महोदय,
मैं वैद्यनाथ में कुछ दिनों से पूर्ण बाबू के निवास स्थान में ठहरा हुआ हूँ।
यहाँ उतनी ठंड नहीं है, और मेरा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं है, शायद यहाँ के पानी
में लोहा अधिक होने के कारण मुझे अपच की शिकायत हो रही है। मुझे तो अपने
अनुकूल यहाँ कुछ भी नहीं मिला--न स्थान, न मौसम और न साथी ही। मैं कल बनारस
चला जाऊँगा। देवघर में अच्युतानन्द गोविन्द चौधरी के यहाँ रुके थे और जब
उन्होंने हम लोगों के बारे में सुना, तो आग्रहपूर्वक बड़ा अनुरोध किया कि हम
लोग उनके अतिथि बनें। अंततः वे एक बार फिर हमसे मिले और अपनी प्रार्थना
स्वीकार करने के लिए हमें विवश किया। यह व्यक्ति एक उत्तम कार्यकर्ता है और
उनके साथ अनेक स्त्रियाँ है--अधिकांश वृद्धा हैं और अधिकतर वैष्णव संप्रदाय
की... उनके क्लर्क भी हम लोगों का बड़ा आदर करते हैं, लेकिन उनमें से कुछ तो
उनके प्रति बहुत बुरा भाव रखते हैं। वे उनके दुष्कृत्यों के बारे में चर्चा
करते हैं। अकस्मात् मैंने यह विषय उठाया। उसके बारे में आप लोगों की बहुत सी
भ्रांत धारणाएं और संदेह हैं, अतः यह सब मैं विशेष जाँच-पड़ताल के पश्चात् ही
लिख रहा हूँ। इस संस्थान के वृद्ध क्लर्क भी उसके प्रति आदर और श्रद्धा रखते
हैं। वह जब आई थी, तो निरी बच्ची थी और सदा उसकी पत्नी की तरह ही रही।...उसके
चरित्र के संबंध में सभी कोई एक स्वर से यही कहते हैं कि वह निष्कलंक है। वह
हमेशा एक पतिव्रता नारी की तरह रही और...के साथ कभी भी--पति के प्रति पत्नी
जैसे व्यवहार के अतिरिक्त उसने अन्य किसी संबंध का आचरण नहीं किया, और वह
पूर्णरूपेण वफ़ादार रही। जिस समय वह आई थी, उसकी उम्र इतनी कम थी कि उससे किसी
नैतिक च्युति का होना कठिन था। और जब वह...से अलग हो गई, तो उसने उनको लिखा कि
उसने उनको पति के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में कभी नहीं लिया। पर इसके लिए यह
संभव नहीं था कि वह एक चरित्रहीन व्यक्ति के साथ रह सके। उनके आफ़िस के पुराने
पदाधिकारी भी मानते हैं कि उनके चरित्र में कहीं शैतान जरूर छिपा है, पर
वे...को एक देवी मानते हैं और कहते हैं कि उसके चले जाने के बाद...में लज्जा
नाम की कोई चीज़ नहीं रह गई।
यह सब लिखने का मेरा उद्देश्य यही है कि मैं पहले उस महिला के आरंभिक जीवन की
कहानी पर विश्वास नहीं करता था। इस विचार को मैं रोमांस समझता था कि ऐसी
पवित्रता उस संबंध के बीच भी रह सकती है, जिसको समाज स्वीकार नहीं करता है,
लेकिन काफ़ी जाँच-पड़ताल के बाद मैं यह जान पाया हूँ कि यह ठीक है कि वह
निर्दोष है, बाल्य-काल से पवित्र है और मुझे इस संबंध में जरा भी संदेह नहीं
है लेकिन इस ढंग के संदेह को पालने के लिए हम, आप और सब कोई दोषी हैं, अपराधी
हैं; मैं अपनी ग़लती के लिए उसके प्रति क्षमाप्रार्थी हूँ और उसको बारंबार
प्रणाम करता हूँ । वह झूठी नहीं है।
इस अवसर पर मैं यह भी कह देना चाहता हूँ कि किसी व्यभिचारिणी स्त्री में ऐसा
साहस होना असंभव है । मैंने यह भी सुना कि धर्म में जीवन भर उसकी अटूट श्रद्धा
रही ।
बहरहाल, आपकी बीमारी में कोई सुधार नहीं हो रहा है। मैं समझता हूँ कि जब तक
कोई खूब रुपया न खर्च करे, यह स्थान रोगियों के लायक नहीं है। कृपया कोई अधिक
अच्छा उपाय सोचें। यहाँ तो हर चीज़ दूसरी जगह से मंगवानी पड़ती है।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
ईश्वरो जयति
वैद्यनाथ,
२६ दिसम्बर, १८८९
पूज्यपाद,
बहुत दिनों के प्रयास के बाद संभवतः अब मुझे आपके समीप उपस्थित होने का सुअवसर
मिलेगा। आशा है कि दो-एक दिन में ही मैं आपके चरणों के समीप पुनीत काशीधाम में
उपस्थित हो सकूँगा।
मैं यहाँ पर कलकत्तानिवासी एक सज्जन के मकान पर दो-चार दिन से हूँ--किंतु
वाराणसी के लिए चित्त अत्यंत व्याकुल है।
वहाँ कुछ दिन रहने की अभिलाषा है एवं देखना है कि मुझ जैसे मंदभाग्य व्यक्ति
के लिए श्री विश्वनाथ तथा श्री अन्नपूर्णा क्या करती हैं। अबकी बार मैंने
प्रतिज्ञा की है कि शरीरं वा पातयामि, मन्त्रं या साधयामि (मंत्र का साधन अथवा
शरीर का नाश)--काशीनाथ सहायक बनें।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
(श्री बलराम बसु को लिखित)
रामकृष्णो जयति
इलाहाबाद,
३० दिसंबर, १८८९
पूज्यपाद,
आते समय गुप्त एक चिट्ठी छोड़ गया था और दूसरे दिन मुझे योगानन्द के पत्र से
सारी बातें मालूम हुईं। मैंने तत्काल ही इलाहाबाद के लिए प्रस्थान किया और
दूसरे दिन यहाँ पहुँच गया। योगानन्द अब पूर्णरूपेण ठीक हो गया है। उसे छोटी
चेचक हो गई थी। चेचक के एक-दो दाग़ अभी भी हैं। डॉक्टर पवित्रात्मा व्यक्ति
हैं और उनका एक संघ जैसा है, जिसके सभी लोग बड़े धार्मिक हैं और साधु-संतों की
सेवा में लगे रहते हैं। वे लोग आग्रह कर रहे हैं कि मैं माघ का मास यहीं
बिताऊँ, पर मैं तो वाराणसी जा रहा हूँ। गोलाप माँ, योगीन माँ यहाँ कल्पवास
करेंगी; शायद निरंजन भी यहाँ रहेगा; योगानन्द क्या करेगा, मैं नहीं जानता। आप
कैसे हैं?
आपके तथा आपके परिवार के मंगल के लिए मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ । कृपया
तुलसीराम, चुनी बाबू तथा और सबको मेरा अभिवादन कहें।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
ईश्वरो जयति
प्रयागधाम,
३१ दिसम्बर, १८८९
पूज्यपाद,
मैंने आपको लिखा था कि दो-एक दिनों में ही मैं वाराणसी पहुँच रहा हूँ, किंतु
विधि-विधान को कौन बदल सकता है? चित्रकूट, ओंकारनाथ इत्यादि स्थानों का दर्शन
कर यहाँ लौटने पर योगेन्द्र नामक मेरे एक गुरुभाई को चेचक हो गई है, यह समाचार
पाकर उसकी सेवा-शुश्रूषा के लिए मुझे यहाँ आना पड़ा है। मेरा गुरुभाई अब
पूर्णतया स्वस्थ हो चुका है। यहाँ के कुछ बंगाली सज्जन अत्यंत धर्मनिष्ठ तथा
अनुरागी हैं, वे अत्यंत प्रेमपूर्वक मेरा आतिथ्य-सत्कार कर रहे हैं एवं उन
लोगों का विशेष आग्रह है कि मैं यहाँ माघ के महीने में कल्पवास करूँ । किंतु
मेरा मन काशी के लिए अत्यंत व्याकुल तथा आपसे मिलने के लिए अत्यंत चंचल हो उठा
है। इनके आग्रह को शांत कर दो-चार दिन में ही जिससे मैं काशी पुरी अधीश्वर
श्री विश्वनाथ के पवित्र क्षेत्र में पहुँच सकू, एतदर्थ प्रयास कर रहा हूँ।
अच्युतानन्द सरस्वती नामक मेरे कोई गुरुभाई यदि आपके समीप मेरे बारे में
पूछताछ करने के लिए पहुँचें, तो उनसे यह कहने की कृपा करें कि मैं शीघ्र ही
वाराणसी आ रहा हूँ। वे अत्यंत सज्जन तथा विद्वान् हैं, बाध्य होकर मैं उन्हें
बांकीपुर छोड़ आया हूँ। क्या राखाल तथा सुबोध अभी तक वाराणसी में ही हैं? इस
वर्ष कुंभमेला हरिद्वार में होगा या नहीं, कृपया सूचित करें। किमधिकमिति।
बहुत से स्थानों में अनेक ज्ञानी, भक्त, साधु तथा पंडितों से मेरी भेंट हुई,
प्रायः सभी लोग मेरा आदर-सत्कार करते हैं, किंतु 'भिन्नरुचिहि लोकाः', आपके
प्रति चित्त का न जाने कैसा आकर्षण है कि और कहीं भी मुझे उतना अच्छा नहीं
लगता। देखना है, काशीनाथ क्या करते हैं।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
मेरा पता-
मार्फत गोविन्द चंद्र बसु, चौक, इलाहाबाद
(श्री बलराम बसु को लिखित)
श्री रामकृष्णो जयति
इलाहाबाद,
५ जनवरी, १८९०
प्रिय महाशय,
आपके कृपापात्र से यह जानकर कि आप बीमार हैं, मुझे बड़ा दुःख हुआ।
जलवायु-परिवर्तन के लिए आपके वैद्यनाथ आने के बारे में जो मैंने लिखा था, उसका
सारांश यह है कि जब तक आप बहुत सा रुपया खर्च न करें, आपके समान कोमल प्रकृति
और कमजोर के लिए वहाँ रहना असंभव है। यदि जलवायु का परिवर्तन वास्तव में
वांछनीय है और आपने किसी सस्ती जगह की तलाश में ही आगा-पीछा करते करते इतना
विलंभ कर दिया, तो यह निस्सन्देह खेद का विषय है।...
वैद्यनाथ की हवा तो बड़ी अच्छी है, पर पानी वहाँ का खराब है। उससे पेट में
बड़ी गड़बड़ी हो जाती है। मुझे तो वहाँ रोज़ ही खट्टी डकारें आने लगी थीं।
इसके पूर्व मैंने आपको एक पत्र लिखा था; वह आपको मिला या आपने उसे बैरंग
चिट्ठी होने के कारण वापस कर दिया? अगर आपको जलवायु-परिवर्तन ही अभीष्ट है, तो
शुभस्य शीघ्रम्। परंतु क्षमा कीजिए, अपने स्वभाव के अनुसार आप प्रत्येक वस्तु
को अपने मनोनुकूल ही, आदर्श रूप में देखना चाहते हैं। किंतु दुःख की बात है कि
संसार में ऐसा संयोग कदाचित् ही प्राप्त होता है; आत्मानं सततं
रक्षेत्--'प्रत्येक परिस्थिति में अपनी रक्षा करनी चाहिए।' भगवत्कृपा से सब
कुछ होता है, फिर भी प्रभु अपने पैरों खड़े होने वाले को सहायता देते हैं। यदि
मितव्ययिता ही आपका उद्देश्य है, तो क्या आपके जलवायु-परिवर्तन के लिए ईश्वर
अपने बाप-दादों की कमाई से निकालकर आपको धन देगा? यदि आपको परमात्मा का इतना
भरोसा है, तो फिर बीमार होने पर डॉक्टर क्यों बुलाते हैं? यदि यह आपको अनुकूल
नहीं जान पड़ता, तो आप वाराणसी चले जाइए। मैं कब का यहाँ से चला गया होता, पर
यहाँ के महानुभाव मुझे जाने ही नहीं देते, देखें, क्या होता है।...
मैं फिर कहता हूँ कि यदि जलवायु-परिवर्तन नितांत अभीष्ट है, तो कृपया कंजूसी
के कारण आगा-पीछा न कीजिए। ऐसा करना आत्मघात होगा और आत्मघाती की रक्षा ईश्वर
भी नहीं कर सकता। तुलसी बाबू और अन्य मित्रों से मेरा नमस्कार कहिए। इति।
दास,
नरेन्द्रनाथ
(श्री यज्ञेश्वर भट्टाचार्य को लिखित)
इलाहाबाद,
५ जनवरी, १८९०
प्रिय फ़क़ीर,
एक बात मैं तुमसे कहना चाहता हूँ; इसे सदा स्मरण रखना कि मेरे साथ तुम लोगों
का पुनः साक्षात्कार नहीं भी हो सकता है--नीतिपरायण तथा साहसी बनो,अंतःकरण
पूर्णतया शुद्ध रहना चाहिए। पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो.... प्राणों के लिए
भी कभी न डरो। धार्मिक मत-मतांतरों को लेकर व्यर्थ में माथा पच्ची मत करो।
कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरुष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते यहाँ
तक कि कभी वे मन में भी पाप का विचार नहीं लाते। प्राणिमात्र से प्रेम करने का
प्रयास करो। स्वयं मनुष्य बनो तथा राम इत्यादि को भी, जो खासकर तुम्हारी ही
देखभाल में हैं, साहसी, नीतिपरायण तथा दूसरों के प्रति सहानुभूतिशील बनाने की
चेष्टा करो। बच्चो, तुम्हारे लिए नीतिपरायणता तथा साहस को छोड़कर और कोई दूसरा
धर्म नहीं। इसके सिवाय और कोई धार्मिक मत-मतांतर तुम्हारे लिए नहीं है।
कायरता, पाप, असदाचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिए, बाकी
आवश्यकीय वस्तुएँ अपने आप आकर उपस्थित होंगी। राम को कभी सिनेमा देखने के लिए
या अन्य ऐसे किसी प्रकार के खेल-तमाशे में, जिससे चित्त की दुर्बलता बढ़ती हो,
स्वयं न ले जाना और न जाने देना।
तुम्हारा,
नरेन्द्रनाथ
इलाहाबाद,
५ जनवरी, १८९०
प्रिय राम, कृष्णमयी तथा इन्दु,
बच्चों, याद रखना कि कायर तथा दुर्बल व्यक्ति ही पापाचरण करते हैं एवं झूठ
बोलते हैं। साहसी तथा शक्तिशाली व्यक्ति सदा ही नीतिपरायण होते हैं।
नीतिपरायण, साहसी तथा सहानुभूति संपन्न बनने का प्रयास करो।
तुम्हारा,
नरेन्द्रनाथ
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
ईश्वरो जयति
द्वाराबाबू सतीशचंद्र मुकर्जी,
गोराबाजार, गाजीपुर,
शुक्रवार, २४ जनवरी, १८९०
पूज्यपाद,
मैं तीन दिन हुए, सकुशल गाजीपुर पहुँच गया। यहाँ मैं अपने एक बाल सखा बाबू
सतीशचंद्र मुकर्जी के यहाँ ठहरा हूँ। स्थान बड़ा मनोरम है। गंगा जी पास ही
बहती हैं, परंतु उसमें स्नान करना कष्टसाध्य है, क्योंकि कोई सीधा रास्ता यहाँ
तक नहीं है और रेत में चलना बहुत कठिन है। मेरे मित्र के पिता बाबू ईशान चंद्र
मुकर्जी--वे महानुभाव, जिनका उल्लेख मैंने आपसे किया था--यहाँ हैं। आज वे
वाराणसी जा रहे हैं। वाराणसी होते हुए कलकता जाएंगे। फिर मेरी बड़ी इच्छा थी
कि मैं वाराणसी आता; परंतु अभी तक बाबा जी
[11]
के दर्शन नहीं हुए! यही मेरे यहाँ आने का अभिप्राय है। इसलिए दो-चार दिनों का
विलंब होगा। यहाँ और सब तो ठीक है, सभी लोग सज्जन हैं, परंतु उनमें बहुत अधिक
पाश्चात्य भाव आ गया है। खेद की बात है कि मैं पाश्चात्य भावों के विरुद्ध
खड्ग हस्त रहता हूँ। केवल मेरे मित्र का ही झुकाव उस ओर कम है। कैसी रद्दी
संपदा विदेशी यहाँ लाए हैं! उन्होंने जड़वाद की कैसी मृग-मरीचिका उत्पन्न की
है! विश्वनाथ इन दुर्बल हृदयों की रक्षा करें। बाबा जी से मिलने के बाद मैं
आपको सविस्तार हाल लिखूँगा।
आपका,
विवेकानन्द
पुनश्च--भगवान् शुक की इस जन्मभूमि में वैराग्य को आज लोग पागलपन और पाप समझते
हैं! अहो भाग्य!
(श्री बलराम बसु को लिखित)
श्री रामकृष्णो जयति
गाजीपुर,
३. जनवरी, १८९०
पूज्यपाद,
मैं अब गाजीपुर में सतीश बाबू के यहाँ ठहरा हूँ। जिन स्थानों को देखने का मुझे
मौका मिला, उनमें यह स्थान स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। वैद्यनाथ का जल
अत्यंत खराब है, हजम नहीं होता। इलाहाबाद अत्यंत घनी बस्ती है--वाराणसी में जब
तक रहा, हर समय ज्वर बना रहा, वहाँ इतना मलेरिया है। गाजीपुर में, खासकर जहाँ
मैं रहता हूँ, वहाँ की जलवायु स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभदायक है। पवहारी
बाबा का निवास-स्थान देख आया हूँ। चारों तरफ़ ऊंची दीवारे हैं, देखने में
साहबों का बँगला जैसा है, अंदर बगीचा है, बड़े बड़े कमरे तथा चिमनी इत्यादि
हैं। किसी को ये भीतर जाने नहीं देते, जब कभी इच्छा होती है, तब स्वयं ही
दरवाजे पर आकर भीतर से ही बातचीत करते हैं। एक दिन वहाँ जाकर बैठा- बैठा सर्दी
खाकर लौटा था। रविवार को वाराणसी जाना है। इस बीच में यदि उनसे भेंट हुई, तो
हुई, नहीं तो न सही। प्रमदा बाबू के बगीचे के बारे में वाराणसी से निश्चय कर
लिखूगा। काली भट्टाचार्य यदि आना ही चाहे, तो रविवार को मेरे वहाँ जाने के बाद
आए--न आना ही अच्छा है। वाराणसी में दो-चार दिन रहकर शीघ्र ही मुझे हृषीकेश
जाना है--प्रमदा बाबू के साथ भी जा सकता हूँ। आप लोग तथा तुलसीराम आदि मेरा
यथायोग्य नमस्कारादि ग्रहण करें तथा फकीर, राम, कृष्णमयी आदि से मेरा आशीर्वाद
कहें।
आपका,
नरेन्द्र
पुनश्च--मेरे मतानुसार आप यदि कुछ दिन गाजीपुर में रहें, तो अच्छा है। आपके
रहने के लिए बँगले की व्यवस्था सतीश कर सकेगा और गगनचंद्र राय नामक और एक
व्यक्ति हैं, जो आबकारी दफ्तर के बड़े बाबू हैं, अत्यंत ही सज्जन, परोपकारी
तथा मिलनसार--हैं ये लोग सब कुछ व्यवस्था कर देंगे। यहाँ पर मकान का किराया
१५-२० रुपए हैं; चावल महँगा है, दूध रुपए में १६-२० सेर है, अन्यान्य वस्तुएँ
सस्ती हैं। इन लोगों की देख-रेख में आपको किसी प्रकार के कष्ट की आशंका नहीं
है, परंतु कुछ अधिक खर्च अवश्य होगा। ४०-५० रुपए से अधिक खर्च पड़ेगा। वाराणसी
अत्यंत मलेरियाग्रस्त शहर है।
प्रमदा बाबू के बगीचे में मैं कभी नहीं रहा हूँ--वे कभी मुझे अपने से पृथक्
नहीं होने देते। बगीचा वास्तव में अत्यंतसुंदर, सुसज्जित, विशाल तथा खुले
स्थान में है। अबकी बार वहाँ कुछ दिन ठहरकर तथा भली भांति देख-भालकर श्रीमान
को सब समाचार लिखूँगा। इति।
नरेन्द्र
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
ईश्वरो जयति
गाजीपुर,
३१ जनवरी, १८९०
पूज्यपाद,
बाबा जी से भेंट होना अत्यंत कठिन है, वे मकान से बाहर नहीं निकलते,
इच्छानुसार दरवाजे पर आकर भीतर से ही बातें करते हैं। अत्यंत ऊँची दीवारों से
घिरा हुआ, उद्यानयुक्त तथा दो चिमनियों से सुशोभित उनके निवास स्थान को देख
आया हूँ; भीतर जाने का कोई उपाय नहीं है। लोगों का कहना है कि भीतर गुफा यानी
तहखाना जैसी एक कोठरी है, जिसमें वे रहते हैं, वे क्या करते है, यह वे ही
जानते हैं, क्योंकि कभी किसीने देखा नहीं। एक दिन मैं वहाँ जाकर बैठा बैठा
कड़ी सर्दी खाकर लौटा था, फिर भी मैं प्रयत्न करूँगा। रविवार को वाराणसी धाम
के लिए प्रस्थान करूँगा-यहाँ के लोग मुझे नहीं छोड़ रहे हैं, नहीं तो बाबा जी
के दर्शन की अभिलाषा तो मेरी समाप्त हो चुकी है। आज ही मैं चला आता; अस्तु,
रविवार को प्रस्थान कर रहा हूँ। आपका हृषीकेश जाने का क्या हुआ?
आपका,
नरेन्द्र
पुनश्च--यह स्थान अत्यंत स्वास्थ्यप्रद है, बस, इतनी ही इसकी विशेषता है।
नरेन्द्र
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
ॐ विश्वेश्वरो जयति
गाजीपुर,
४ फ़रवरी, १८९०
पूज्यपाद,
आपका पत्र मिला। बड़े भाग्य से बाबा जी का दर्शन हुआ। वास्तव में वे महापुरुष
हैं। बड़े आश्चर्य की बात है कि इस नास्तिकता के युग में भक्ति एवं योग की
अद्भुत क्षमता के वे अलौकिक प्रतीक हैं। मैं उनकी शरण में गया और उन्होंने
मुझे आश्वासन दिया, जो हर एक के भाग्य में नहीं। बाबा जी की इच्छा है कि मैं
कुछ दिन यहाँ ठहीं, वे मेरा कल्याण करेंगे। अतएव इन महापुरुष को आशानुसार मैं
कुछ दिन और यहाँ ठहरूँगा। निःसंदेह इससे आप भी आनन्दित होगे। घटना बड़ी
विचित्र है। पत्र में न लिखूँगा। मिलने पर बताऊँगा। ऐसे महापुरुषों का
साक्षात्कार किए बिना शास्त्रों पर पूर्ण विश्वास नहीं होता।
आपका,
नरेन्द्र
पुनश्य--इस पत्र की बातें गोपनीय है।
नरेन्द्र
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
विश्वेश्वरो जयति
गाजीपुर,
७ फरवरी, १८९०
पूज्यपाद,
आपका पत्र अभी मिला। बड़ा हर्ष हुआ। बाबा जी आचारी वैष्णव प्रतीत होते हैं।
उन्हें योग, भक्ति एवं विनय की प्रतिमा कहना चाहिए। उनकी कुटी के चारों ओर
दीवारें हैं। उनमें दरवाजे बहुत थोड़े हैं। परकोटे के भीतर एक बड़ी गुफा है,
जहाँ वे समाधिस्थ पड़े रहते हैं। गुफा से बाहर आने पर ही वे दूसरों से बातचीत
करते हैं। किसी को यह मालूम नहीं कि वे क्या खाते-पीते हैं। इसीलिए लोग उन्हें
पवहारी (केवल पवन का आहार करने वाले) बाबा कहते हैं। एक बार जब वे पांच साल तक
गुफा से बाहर नहीं निकले, तो लोगों ने समझा कि उन्होंने शरीर त्याग दिया है।
किंतु वे फिर उठ आए। पर इस बार वे लोगों के सामने निकलते नहीं और बातचीत भी
द्वार के भीतर से ही करते हैं। इतनी मीठी वाणी मैंने कहीं नहीं सुनी, वे
प्रश्नों का सीधा उत्तर नहीं देते, बल्कि कहते हैं, "दास क्या जाने।" परंतु
बात करते करते मानो उनके मुख से अग्नि के समान तेजस्वी वाणी निकलती है। मेरे
बहुत आग्रह करने पर उन्होंने कहा, "कुछ दिन यहाँ ठहरकर मुझे कृतार्थ कीजिए।"
परंतु वे इस तरह कभी नहीं कहते। इसलिए मैंने यह समझा है कि वे मुझे आश्वासन
देना चाहते हैं और जब कभी मैं हठ करता हूँ, तो वे मुझे ठहरने के लिए कहते हैं।
आशा में अटका पड़ा हूँ। वे निःसंदेह बड़े विद्वान् हैं, पर कुछ प्रकट नहीं
होता। वे शास्त्रोक्त कर्मकांड करते हैं। पूर्णिमा से संक्रांति तक होम होता
रहता है। अतएव यह निश्चय है कि वे इस अवधि में गुफा में प्रवेश न करेंगे। मैं
उनसे अनुमति किस प्रकार मांगू? वे तो कभी सीधा उत्तर ही नहीं देते। 'यह दास',
'मेरा भाग्य' इत्यादि कहते रहते हैं। यदि आपकी भी इच्छा हो, तो पत्र पाते ही
तुरंत चले आइए; अन्यथा उनके शरीर-त्याग के बाद पछताना पड़ेगा। दर्शन करके दो
दिन में लौट जाइए। कहने का मतलब यह कि बाहर से बातचीत हो जाएगी। मेरे मित्र
सतीश बाबू सहर्ष आपका स्वागत करेंगे। इस पत्र के पाते ही सीधे चले आइए। इस बीच
मैं बाबा जी को आपके विषय में सूचना दे दूँगा।
आपका
नरेन्द्रनाथ
पुनश्च--इनका सत्संग न होने पर भी, यह निश्चित है कि ऐसे महापुरुष के लिए कोई
भी कष्ट उठाना निरर्थक न होगा। नरेन्द्र
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
ईश्वरो जयति
गाजीपुर,
१३ फ़रवरी, १८९०
पूज्यपाद,
आपकी शारीरिक अस्वस्थता के समाचार से चिंतित हूँ। मेरी भी कमर में एक प्रकार
का दर्द बना हुआ है, हाल में वह दर्द बहुत बढ़ गया है एवं कष्ट दे रहा है। दो
दिन से बाबा जी के पास नहीं जा सका, इसलिए उनके यहाँ से एक व्यक्ति मेरा
समाचार लेने आया था--अतः आज जाऊँगा। उनसे आपके असंख्य प्रणाम निवेदन करूँगा।
उनके मुख से अग्नि के समान ज्वलंत वाणी निकलती है--अत्यंत अद्भुत, गूढ़ भक्ति
तथा आत्म-समर्पण की बातें निकलती हैं--ऐसी अद्भुत तितिक्षा तथा विनम्रता मैंने
कहीं भी नहीं देखी। यदि किसी अद्भुत वस्तु की प्राप्ति हुई, तो उसमें आपका
हिस्सा अवश्य होगा। किमधिकमिति।
आपका,
नरेन्द्र
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
गाजीपुर,
१४ फ़रवरी, १८९०
पूज्यपाद,
भाई शरत् की चिट्ठी को वापस भेजने के लिए शायद मैं कल आपको अपने पत्र में
लिखना भूल गया। कृपया उसे भेजें। मुझे भाई गंगाधर का पत्र मिला। वह आजकल
रामबाग समाधि, श्रीनगर, काश्मीर में है। मैं कटिवात से बहुत पीड़ित रहा हूँ।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
पुनश्च--राखाल और सुबोष, ओंकार, गिरनार, माबू, बंबई और द्वारका दर्शन करके
वृंदावन पहुँचे हैं।
(श्री बलराम बसु को लिखित)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
द्वारा सतीश मुकर्जी,
गौराबाजार, गाजीपुर,
१४ फ़रवरी, १८९०
पूज्यपाद,
मुझे आपका वेदनापूर्ण पत्र मिला। मैं अभी यहाँ से शीघ्र न जा सकूँगा। बाबा जी
(पवहारी बाबा) का अनुरोध ठुकरा देना असंभव है। आपको इस बात का पछतावा है कि
आपने साधुओं की सेवा कर कोई बड़ा लाभ नहीं उठाया। यह सच है, और नहीं भी। आदर्श
आनंद की दृष्टि से तो यह सच है, परंतु यदि आप साधनारम्भ की दशा की ओर
सिंहावलोकन करें, तो आपको मालूम होगा कि पहले आप पशु थे, अब मानव हैं और आगे
चलकर आप एक देवता अथवा स्वयं ईश्वर हो जाएंगे। आपका इस प्रकार का पाश्चात्ताप
और असंतोष आपकी भावी उन्नति का सूचक है, क्योंकि उसके बिना उन्नति होना असंभव
है। जो चुटकी बजाते ही ईश्वर का दर्शन पा लेता है, उसके लिए इसके आगे उन्नति
का रास्ता बंद समझिए। इस प्रकार का असंतोष कि 'क्या लाभ हुआ, क्या लाभ
हुआ'--तो एक वरदान है। विश्वास कीजिए, कोई भय की बात नहीं है।....आप स्वयं
बड़े समझदार हैं। और आप भली भांति जानते हैं कि धर्य ही सफलता की कुंजी है। इस
बारे में यह कहने में मुझे कोई शंका नहीं कि हम जैसे अपरिपक्व बुद्धिवाले
बालकों को आपसे बहुत कुछ सीखना है। अक्लमंद को इशारा काफ़ी है। आदमी के कान तो
दो होते हैं, पर मुँह एक ही होता है। विशेषकर आप स्पष्ट वक्ता है और बड़े-बड़े
वादे करने के पक्ष में नहीं हैं। जब कभी मैंने आपका विरोध किया, तो विचार करने
पर मैंने आपको ही विवेकशील पाया है। Slow but sure (धीरे, किंतु निश्चत रूप
से)। What is lost in power is gained in speed. (जो शक्ति का अपव्यय सा
प्रतीत होता है, वास्तव में वह गति की मात्रा बढ़ने में काम आता है।) फिर भी
इस संसार में सब कुछ शब्दों पर ही निर्भर है। किसी भी व्यक्ति के शब्दों में
निहित भावों को--विशेषत: आप जैसे मितभाषी के भावों को--अंतःकरण तक लाने के लिए
उनके साथ कुछ दिन तक सहवास करना चाहिए।...पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि धर्म
संप्रदायविशेष में अथवा बाह्याडम्बर में नहीं है। गुरुदेव के इस उपदेश को आप
क्यों भूल जाते हैं? कृपया अपनी शक्ति भर साधना करने का प्रयत्न कीजिए, परंतु
उससे होने वाले लाभ या हानि का निर्णय अपने अधिकार से बाहर की बात है।...गिरीश
बाबू को बहुत बड़ा धक्का लगा है, इस समय माता जी की सेवा करने से उन्हें बहुत
शांति मिलेगी। वे कुशाग्रबुद्धि है। गुरुदेव को माँ में पूर्ण विश्वास था।
सिवाय आपके यहाँ और कहीं अन्न-जल ग्रहण नहीं करते थे। मैंने सुना है कि माता
जी का भी आप पर पूर्ण विश्वास है। इन बातों पर विचार करके आप हम जैसे चंचल
बुद्धि बालकों को अपने ही बच्चे समझकर हमारे दोषों को क्षमा करेंगे--अधिक और
क्या लिखूँ?
वार्षिकोत्सव की तिथि की सूचना कृपया वापसी डाक से भेजिए। मैं इस समय कमर की
पीड़ा से परेशान हैं। कुछ ही दिनों में यह स्थान बहुत ही रमणीक हो जाएगा; वहाँ
मीलों तक खिले हुए गुलाबों की क्यारियों की शोभा दृष्टिगोचर होगी। सतीश कहते
हैं कि वे तब कुछ ताजा गुलाब के फूल और डालियाँ उत्सव के लिए भेजेंगे। भगवान्
करे, आपका पुत्र कायर न हो, मनुष्य बने।...
आपका,
नरेन्द्र
पुनश्च--माता जी आ गई हों, तो उनसे मेरा कोटि कोटि प्रणाम कहिए और उनसे मुझे
यह आशीर्वाद-प्रार्थना कीजिए--या तो मैं अटल अध्यवसायी रहूँ या यदि मेरे शरीर
से यह संभव न हो, तो इसका शीघ्र अवसान हो जाए।
आपका,
नरेन्द्र
(स्वामी सदानन्द को लिखित)
प्रियवर,
आशा है,तुम स्वस्थ होगे। जप, तप, साधन, भजन में लगे रहो और अपने को सबका
विनम्र दास समझकर सेवा करते रहो। जिनके पास तुम हो, उनका दासानुदास बनने और
उनकी चरण-रज लेने का में भी पात्र नहीं है--यह जानकर उनकी सेवा करो और उनके
प्रति भक्ति-भाव रखो। यदि वे कभी तुमको गाली भी दें या मार बैठें, तो भी
तुम्हें क्षुब्ध नहीं होना चाहिए। स्त्रियों के साथ कभी न मिलना। क्रमश: शरीर
को सहनशील बनाओ और मिली हुई भिक्षा से ही गुजर बसर करने का अभ्यास करो। जो भी
रामकृष्णा का नाम से, उसे अपना गुरू समझो। स्वामी तो सभी हो सकते है, पर सेवक
होना कठिन है। विशेषतः तुम शशि का अनुसरण करो। यह निश्चित जानो कि बिना
गुरूनिष्ठा और अटल धैर्य तथा अध्यवसाय के कुछ भी नहीं हो सकता। पूर्ण
सच्चरित्रता का पालन करो, उससे तिल भर भी इधर-उधर डिगे कि पतन के गर्त में
गिरे।
तुम्हारा,
नरेन्द्रनाथ
(श्रीप्रमदादास मित्र को लिखित)
ईश्वरो जयति
गाजीपुर,
१९ फरवरी, १८९०
पूज्यपाद,
मैंने गंगाधर को चिट्ठी लिखी थी कि वह अपना परिभ्रमण स्थगित कर किसी जगह ठहर
जाए और तिब्बत में जिन विभिन्न प्रकार के साधुओं से भेंट हुई हो, उनके
रीति-रिवाज, रहन-सहन इत्यादि के संबंध में विशेष रूप से मुझे लिख भेजे। उत्तर
में उसने मुझे जो लिखा, वह मैं आपके पास भेज रहा हूँ। काली को हृषीकेश में बार
बार ज्वर हो आता है, मैंने उसे यहाँ से एक तार भेजा है। उसके जवाब में यदि
उसने मुझे बुलाया, तो मुझे यहाँ से सीधे ह्रषीकेश जाना ही होगा, नहीं तो मैं
दो-एक दिन में आपके यहाँ आ जाऊँगा। मेरे इस सब माया जाल पर आपको हंसी आती
होगी, और बात भी सचमुच ऐसी ही है। एक बंधन लोहे की जंजीरों का होता है, दूसरा
सोने की जंजीरों का। दूसरे बंधन से बहुत कुछ कल्याण होता है और इष्ट-सिद्धि के
बाद वह अपने आप खुल जाता है। मेरे गुरुदेव की संतान मेरी सेवा के पात्र हैं।
यहीं पर मैं अनुभव करता हूँ कि मेरे लिए कुछ कर्तव्य बाकी है। संभवत: काली को
इलाहाबाद, अथवा जहाँ सुविधा होगी, वहाँ भेजूँगा। आपके चरणों के सम्मुख मेरे
शत-शत अपराध उपस्थित हैं--पुत्रस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपत्रम्। किमधिकमिति।
आपका,
नरेन्द्र
(स्वामी अखण्डानन्द को लिखित)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
गाजीपुर,
फरवरी १८९०
प्राणाधिकेषु,
तुम्हारा पत्र पाकर बहुत हर्ष हुआ। तिब्बत के संबंध में जो कुछ तुमने लिखा है,
वह बहुत आशाजनक है। मैं एक बार वहाँ जाने की चेष्टा करूँगा। संस्कृत में
तिब्बत को उत्तर कुरुवर्ष कहते हैं, वह म्लेच्छभूमि नहीं! पृथ्वी भर में सबसे
ऊँची भूमि होने के कारण वह बहुत शीतप्रधान है। परंतु शीत सहकर धीरे- धीरे वहाँ
रहने का अभ्यास हो सकता है। तिब्बती लोगों के आचार व्यवहार के बारे में तुमने
कुछ नहीं लिखा। यदि वे इतने आतिथ्यशील हैं, तो उन्होंने तुम्हें आगे क्यों
नहीं बढ़ने दिया? एक लंबे पत्र में सब कुछ विस्तार से लिखो। यह जानकर कि तुम न
आ सकोगे, खेद हुआ। मुझे तुम्हें देखने की बड़ी इच्छा थी। ऐसा लगता है कि मैं
तुम्हें सबसे अधिक प्यार करता हूँ। जो भी हो, इस माया से भी छुटकारा पाने की
चेष्टा करूँगा।
तिब्बतियों के जिन तांत्रिक अनुष्ठानों के संबंध में तुमने लिखा है, उसका
श्रीगणेश बौद्ध धर्म के पतन-काल में भारतवर्ष में हुआ था। मेरा विश्वास है कि
जो तंत्र हम लोगों में प्रचलित हैं, उनका सूत्रपात बौद्धों के द्वारा ही हुआ
था। वे तांत्रिक अनुष्ठान हमारे वामाचारवाद (वाममार्ग) से भी अधिक भयंकर थे।
उनमें व्यभिचार के लिए कोई रोक-टोक न थी। जब बौद्ध लोग अत्यंत व्यभिचारपरायण
और अनैतिक बनकर निर्वीर्य हो गए थे, तभी कुमारिल भट्ट ने उन्हें यहाँ से भगा
दिया। जिस प्रकार कुछ संन्यासियों का श्री शंकराचार्य के संबंध में और बाउल
लोगों का श्री चैतन्य के संबंध में कहना है कि वे गुप्त भोगी और सुरापाई थे
तथा नाना प्रकार के जघन्य आचरण करते थे, उसी प्रकार आधुनिक तांत्रिक बौद्ध
बुद्धदेव के संबंध में कहते हैं कि वे घोर वाममार्गी थे। ये लोग
प्रज्ञापारमितोक्त तत्त्वगाथा जैसे सुंदर उपदेशों के विकृत अर्थ लगाते हैं।
इसके परिणामस्वरूप आजकल बौद्धों के दो संप्रदाय हो गए हैं। ब्रह्मदेश वाले और
सिंहलदेश वासी बौद्ध प्रायशः तंत्रों को नहीं मानते। साथ ही इन्होंने हिंदू
देवी-देवताओं को दूर कर दिया है तथा जिन 'अमिताभ बुद्धम्' को उत्तरांचल के
बौद्ध परम पूजनीय समझते हैं, उन्हें भी उन्होंने हटा दिया है। सारांश यह कि
'अमिताभ बुद्धम् और दूसरे देवता, जिनकी उत्तराञ्चल में पूजा-अर्चना होती है,
उनका उल्लेख तक प्रज्ञापारमिता जैसी पुस्तकों में नहीं है, किंतु उन्हीं में
बहुत से देवी-देवताओं के पूजन का विधान है। दक्षिण वालों ने तो जान-बूझकर
शास्त्रों का उल्लंघन कर डाला है और देवी-देवताओं को त्याग दिया है। बौद्ध
धर्म का वह भाव, जिसका अर्थ है, everything for others (सर्वस्व परोपकार के
लिए) और जिसका तुम तिब्बत भर में प्रचार पाते हो, बौद्ध धर्म के उस भाव के
प्रति आजकल यूरोप में बड़ा आकर्षण है। जो हो, इस भाव के संबंध में मुझे बहुत
कुछ कहना है, पर इस पत्र में कहाँ तक लिखू? जो धर्म उपनिषदों में केवल एक
जातिविशेष के लिए आबद्ध था, उसका द्वार गौतम बुद्ध ने सबके लिए खोल दिया और
सरल लोकभाषा में उसे सबके लिए सुलभ कर दिया । उनका श्रेष्ठत्व उनके निर्वाण के
सिद्धांत में नहीं, अपितु उनकी अतुलनीय सहानुभूति में है। समाधि प्रभृति बौद्ध
धर्म के वे श्रेष्ठ अंग, जिनके कारण उक्त धर्म को महत्ता प्राप्त है, प्रायः
सबके सब वेदों में पाए जाते हैं; वहाँ यदि अभाव है, तो वह है बुद्धदेव की
बुद्धि तथा उनका हृदय, जिनकी बराबरी जगत के इतिहास में आज तक कोई नहीं कर सका।
वेदों में जो कर्मवाद है, वही यहूदी तथा अन्य धर्मों में भी है अर्थात् यज्ञ
तथा अन्य बाह्य आचरणों द्वारा अंतःकरण की शुद्धि। इसका विरोध सबसे पहले भगवान
बुद्ध ने ही किया। परंतु उसके मूल भाव प्राचीन जैसे ही रहे। उदाहरणार्थ उनका
अंतःकर्मवाद तथा वेदों को छोड़ सूत्रों (सुत्त) पर विश्वास करने की आज्ञा
देखो। जाति-भेद वही पुराना था (बुद्ध के समय में जातियों का पूर्ण लोप नहीं हो
पाया था), किंतु उसका निर्णय व्यक्ति के गुणों के आधार पर होता था और जो उनके
धर्म पर विश्वास नहीं करते थे, वे पाखंडी कहलाते थे। 'पाखंड' बौद्धों का एक
पुराना शब्द है, परंतु वे बड़े भले और सहिष्णु थे; उन्होंने कभी अविश्वासियों
पर तलवार नहीं उठाई। तुमने तर्कों की आंधी में वेदों को उड़ा दिया, किंतु
तुम्हारे धर्म का प्रमाण क्या? बस, विश्वास करो!!
--यही तरीका तो सब धर्मों का है। यह उस समय की एक बड़ी आवश्यकता थी और इसी
कारण उनका अवतार हुआ था। उनका मायावाद कपिल के जैसा है। परंतु श्री शंकराचार्य
का सिद्धांत कितना महान और कितना युक्तिपूर्ण था! बुद्ध और कपिल सदा से यही
कहते आए हैं, "इस जगत में केवल दुःख ही दुःख है--इससे दूर रहो, दूर रहो।" सुख
क्या यहाँ बिल्कुल नहीं है? यह कथन ब्राह्मों के जैसा है, जिनके मत से इस जगत
में सब सुख ही सुख है। दुःख तो है, पर इसका इलाज क्या? शायद कोई यह कहे कि
दुःख भोगने का निरंतर अभ्यास हो जाने पर वह दुःख ही सुख जैसा प्रतीत होने
लगेगा। श्री शंकराचार्य का मत इससे भिन्न है। उनका कहना है कि यह संसार है भी
और नहीं भी (सन्नापि असन्नापि)। अनेक रूप होने पर भी एक है (भिन्नापि
अभिन्नापि)-मैं इसका रहस्योद्घाटन करूँगा। मैं इसका पता लगाऊँगा कि वहाँ दुःख
है कि कुछ और। मैं उसे हौआ समझकर क्यों भागूँ? मैं इसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त
करूँगा। इसके जानने में जो अनंत दुःख है, उसका मैं पूर्णतया आलिंगन कर रहा
हूँ। क्या मैं पशु हूँ, जिसे तुम इंद्रियजनित सुख-दुःख, जरा-मरण आदि से भयभीत
करना चाहते हो? मैं इसे जानूँगा, इसके जानने के लिए जान दूँगा। इस जगत में
जानने योग्य कुछ भी नहीं है। अतएव यदि इस मायिक जगत के परे जो है जिसे भगवान्
बुद्ध 'प्रशापारम्' अथवा अतीतात्मक कहते हैं--उसका अस्तित्व हो, तो मुझे वही
चाहिए। मुझे इस बात की परवाह नहीं कि उसकी प्राप्ति होने पर मुझे दुःख होगा या
सुख। क्या ही उच्च भावना है यह! कितनी महान! उपनिषदों के ऊपर बौद्ध धर्म पनपा
है और उसके भी ऊपर है श्री शंकराचार्य का दर्शन। यदि श्री शंकराचार्य में कोई
कमी है, तो यह है कि उनमें बुद्ध के विशाल हृदय का अणु मात्र भी नहीं है। उनकी
केवल शुष्क बुद्धि थी। तंत्रों के भय से, लोकभय से एक फोड़े को अच्छा करने के
प्रयत्न में पूरा हाथ ही काट डाला। कोई चाहे तो इन बातों पर एक बड़ा ग्रंथ लिख
सकता है, पर मुझे न तो इतना ज्ञान है, न अवकाश ही।
भगवान बुद्ध मेरे इष्टदेव है--मेरे ईश्वर हैं। उनका कोई ईश्वरवाद नहीं, वे
स्वयं ईश्वर थे। इस पर मेरा पूर्ण विश्वास है। किंतु परमात्मा की अनंत महिमा
को सीमाबद्ध करने की किसी में शक्ति नहीं। ईश्वर में भी यह शक्ति नहीं कि वह
अपने को सीमित कर सके। 'सुत्तनिपात' से गंडारसुत्त का जो अनुवाद तुमने किया
है, वह अति उत्तम है। उस ग्रंथ में एक दूसरा 'घनियासुत्त' नामक सुत्त है,
जिसमें इसी प्रकार के भाव हैं। धम्मपद में भी इन्हीं भावों से ओतप्रोत बहुत से
वाक्यसमूह है। परंतु वह तो पूर्ण ज्ञान और आत्मानुभूति से संतुष्ट होने पर जो
परिपक्वावस्था होती है, उसकी बात है--वह अवस्था, जो सभी परिस्थितियों में
अक्षुण्ण रहती है और जिसमें इंद्रियों पर प्रभुत्व प्राप्त हो जाता
है--ज्ञानविज्ञानतृप्तास्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः। जिसमें शरीर-बोध बिल्कुल
नहीं है, वह मदमस्त हाथी की तरह इतस्ततः विचरण करता है। परंतु मेरे समान
क्षुद्र जीव के लिए यह आवश्यक है कि वह एक स्थान पर बैठकर साधना करे और तब तक
अभ्यास में लगा रहे, जब तक उसे इष्ट-सिद्धि प्राप्त न हो। और फिर वह चाहे तो,
उस प्रकार निर्द्वंद्व विचरण कर सकता है परंतु वह अवस्था बहुत दूर--निस्संदेह
बहुत दूर है।
चिंताशून्यमदैन्यभक्ष्यमशनं पानं सरिद्वारिषु
स्वातन्त्र्येण निरंकुशा स्थितिरभीर्निद्रा श्मशाने वने।
वस्त्रं क्षालनशोषणादिरहितं दिग्वास्तु शय्या मही
संचारो निगमान्तवीथिषु विदां क्रीडा परे ब्रह्मणि ॥
विमानमालम्ब्य शरीरमेतद्
भुनक्त्यशेषान् विषयानुपस्थितान्।
परेच्छया बालवदात्मवेत्ता
योऽव्यक्तलिंगोऽननुषक्तबाह्य: ॥
दिगम्बरो वापि च साम्बरो वा
त्वगम्बरो वापि चिदम्बरस्थः।
उन्मत्तवद्वापि च बालवद्धा
पिशाचवद्वापि चरत्यवन्याम्॥
--'ब्रह्मज्ञानी को भोजन बिना किसी परिश्रम के अपने आप मिल जाता है। जहाँ पाता
है, वहीं पानी पी लेता है, स्वेच्छानुसार सर्वत्र विचरण करता है--निर्भय रहता
है, कभी जंगल में और कभी श्मशान में सो जाता है और जिस मार्ग पर चलकर वेद भी
उसका पार नहीं पाते, वहाँ वह संचरण करता है। आकाश जैसा उसका शरीर है, वह
बालकों की तरह दूसरों के इच्छानुसार परिचालित होता है, कभी नंगा, कभी
वस्त्रालंकारमण्डित रहता है, और कभी कभी तो उसका आच्छादन ज्ञान मात्र रहता है।
कभी अबोध बालक की भाँति, कभी उन्मत्त के समान और कभी पिशाचवत् व्यवहार करता
है।'
[12]
मैं श्री गुरुदेव के पवित्र चरणों में प्रार्थना करता हूँ कि तुमको वह दशा
प्राप्त हो और तुम गैंडे की भाँति निर्द्वंद्व विचरण करो। इति।
विवेकानन्द
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
इश्वरो जयति
गाजीपुर,
२४ फरवरी १८९०
प्रिय महोदय,
कमर के दर्द से बहुत कष्ट हो रहा है, अन्यथा मैं पहले ही आपके यहाँ आने की
चेष्टा करता। मन को अब यहाँ शांति नहीं मिलती। बाबा जी के स्थान से आए हुए तीन
दिन हुए, परंतु वे कृपापूर्वक प्रायः नित्य ही मेरे संबंध में पूछताछ करते
हैं। जैसे ही कमर का दर्द कुछ अच्छा होगा, मैं बाबा जी से विदा माँगूगा। आप
मेरा अनंत प्रणाम स्वीकार करें।
आपका
नरेन्द्र,
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
ईश्वरो जयति
गाजीपुर,
३ मार्च, १८९०
पूज्यपाद,
आपका कृपापत्र अभी मिला। शायद आप नहीं जानते कि मैं कठोर वेदांती विचारों का
होता हुआ भी बहुत ही कोमलहृदय है, और इसी से मेरा बड़ा अनिष्ट होता है। थोड़ा भी
आघात मुझे विचलित कर देता है, क्योंकि मैं कितना ही स्वार्थपरायण रहने का
प्रयत्न करूँ, दूसरे की हानि-लाभ देखते ही मेरा सारा प्रयत्न व्यर्थ हो जाता
है। इस बार मैंने आत्म-लाभार्थ दृढ़ संकल्प कर लिया था, परंतु एक गुरुभाई की
बीमारी का समाचार पाकर मुझे इलाहाबाद दौड़ना पड़ा। अब हृषीकेश से सूचना मिली
है, इस कारण मेरा मन वहीं लगा है। मैंने शरत को तार दे दिया है, परंतु अभी तक
कोई उत्तर नहीं मिला। कैसी जगह है कि जहाँ से तार आने में भी इतना विलंब लगता
है! कमर का दर्द जरा भी अच्छा नहीं हो रहा है, बहुत कष्ट है। कुछ दिनों से मैं
पवहारी जी के यहाँ नहीं जा रहा हूँ। पर उनकी बड़ी कृपा है कि वे प्रतिदिन किसी
को भेजकर मेरी खोज-खबर लेते रहते हैं। किंतु अब तो मैं देखता हूँ 'उल्टा समझलि
राम'--पहले मैं उनके द्वार का भिखारी था, पर अब वे ही मुझसे कुछ सीखना चाहते
हैं! ऐसा लगता है कि यह संत अभी पूर्ण सिद्ध नहीं हुए हैं, क्योंकि ये बहुत से
कर्म, व्रत, आचार इत्यादि में लिप्त हैं और गुप्त भाव तो बहुत ही अधिक है।
समुद्र पूर्ण होने पर कभी वेलाबद्ध नहीं रह सकता, यह निश्चित है। इसलिए अब इन
साधु को व्यर्थ कष्ट देने से कोई लाभ नहीं। शीघ्र ही विदा लेकर प्रस्थान
करूँगा। क्या करूँ, मेरा ईश्वरदत्त कोमल स्वभाव ही मेरे नाश का कारण बन गया
है! बाबा जी तो मुझे जाने देते नहीं और गगन बाबू (इन्हें शायद आप जानते हों,
एक धार्मिक, साधु और सहृदय व्यक्ति हैं) मुझे छोड़ते नहीं। यदि तार के उत्तर
से मेरा वहाँ जाना आवश्यक हुआ, तो जाऊँगा, नहीं तो कुछ दिनों में आपके पास
वाराणसी पहुँचूंगा। मैं आपको सहज छोड़ने वाला नहीं--आपको हृषीकेश जरूर ले
जाऊँगा। आपका कोई बहाना न चलेगा। वहाँ किन स्वच्छताविषयक कठिनाइयों का आप
जिक्र करते हैं? पहाड़ पर क्या जल की कमी है या स्थान की? कलिकाल के
तीर्थस्थानों और संन्यासियों को तो आप जानते ही हैं, वे कसे हैं! रुपए खर्च
कीजिए और मंदिर के पुजारी आपके लिए जगह करने के निमित्त देवमूर्ति को भी हटा
देंगे, ठहरने के लिए स्थान की तो बात ही क्या है! वहाँ आपको कोई कष्ट नहीं
उठाना पड़ेगा। गरमी तो वहाँ भी पड़ने लगी होगी, पर वाराणसी जैसी नहीं, इतना
अच्छा है। वहाँ ठंड होने के कारण अच्छी नींद तो आएगी।
आप इतना डरते क्यों हैं? मैं इस बात का भार लेता हूँ कि आप सकुशल घर लौटेंगे
और आपको कहीं कुछ कष्ट न होगा। ब्रिटिश राज्य में फ़कीर या गृहस्थ को कोई कष्ट
नहीं, यह मेरा अनुभव है।
क्या मैं यों ही कहता हूँ कि हमारा-आपका पूर्व जन्म का कुछ संबंध है। देखिए न,
आपके एक पत्र से मेरे सारे संकल्प हवा हो गए और मैं सब छोड़कर वाराणसी की ओर
उन्मुख हो गया।
गंगाधर को मैंने फिर लिखा है और इस बार उससे कहा है कि मठ में लौट आए। यदि वह
आएगा, तो आपसे मिलेगा। वाराणसी की जलवायु अब कैसी है? यहाँ ठहरने से मैं
मलेरिया से मुक्त हो गया हूँ। केवल कमर की पीड़ा ने मुझे बेचैन कर रखा है।
दर्द दिन-रात बना रहता है और मुझे बहुत बेचैनी रहती है। मैं कह नहीं सकता कि
मैं पहाड़ पर कैसे चढ़ेगा। मैंने बाबा जी में अद्भुत तितिक्षा देखी है और
इसीलिए मैं उनके कुछ प्रसाद का भिक्षुक हूँ, पर वे कुछ देना नहीं चाहते, केवल
मुझसे ही ले रहे हैं। इसलिए मैं भी चला।
आपका,
नरेन्द्र
पुनश्च--अब किसी बड़े आदमी के पास न जाऊँगा।
'रे मन, तू अपने में स्थिर रह, जा न किसी के द्वार,
केवल शांतचित्त हो, कर तू विनय विवेक-विचार।
परम अर्थ का जिसमें रहता सदा भरा भंडार ,
वह पारस-मणि तो तुझमें है, कर उससे व्यवहार॥'
-कमलाकान्त
अतएव मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि श्री रामकृष्ण की बराबरी का दूसरा कोई
नहीं। वैसी अपूर्व सिद्धि, वैसी अपूर्व अकारण दया, जन्म-मरण से जकड़े हुए जीव
के लिए वैसी प्रगाढ़ सहानुभूति इस संसार में और कहाँ? या तो वे अपने कथनानुसार
अवतार हैं अथवा वेदांत दर्शन में जिसे नित्यसिद्ध महापुरुष लोकहिताय मुक्तोऽपि
शरीरग्रहणकारी कहा गया है, वे हैं, निश्चित निश्चित इति मे मतिः। ऐसे महापुरुष
की उपासना के विषय के पातंजल सूत्र ईश्वरप्रणिधानाद्वा या महापुरुष
प्रणिधानाद्वा के किंचित् परिवर्तित रूप में उल्लेख किया जा सकता है।
अपने जीवन-काल में उन्होंने मेरी कोई भी प्रार्थना नहीं ठुकरायी, मेरे लाखों
अपराध क्षमा किए। मेरे माता-पिता में भी मेरे लिए इतना प्रेम न था। इसमें कोई
कवि जनसुलभ अतिशयोक्ति नहीं है। यह एक नितांत सत्य है, जिसे उनका प्रत्येक
शिष्य जानता है। बड़े बड़े संकट और प्रलोभन के अवसरों पर मैंने करुणा के साथ
रोकर प्रार्थना की, "भगवान, रक्षा कर", और किसी ने भी उत्तर नहीं दिया, किंतु
इस अद्भुत महापुरुष ने--अथवा अवतार या जो कुछ समझिए, उसने-अपने अंतर्यामित्व
गुण से मेरी सारी वेदनाओं को जानकर, स्वयं आग्रहपूर्वक बुलाकर उन सबका निराकरण
किया। यदि आत्मा अविनाशी है और यदि वे इस समय हैं, तो मैं बारंबार प्रार्थना
करता हूँ, "हे अपार दयानिधे, ममैक शरणदाता रामकृष्ण भगवान्, कृपा करके हमारे
इस नरश्रेष्ठ बंधुवर की सारी मनोवांछापूर्ण कीजिए।" आप पर वे मंगल-वर्षा करें,
वे--जिनको ही मैंने इस जगत में अहेतुक दयासिंधु पाया है। शान्तिः शान्तिः
शान्तिः।
आपका,
नरेन्द्र
पुनश्च--कृपया शीघ्र उत्तर दीजिए।
नरेन्द्र
(स्वामी अखण्डानन्द को लिखित)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
गाजीपुर,
मार्च, १८९०
प्राणाधिकेषु,
कल तुम्हारा पत्र पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई। मैं इस समय यहाँ के अद्भुत योगी और
भक्त पवहारी जी के पास ठहरा हूँ। वे अपने कमरे से कभी बाहर नहीं आते। दरवाजे
के भीतर से ही बातचीत करते हैं। कमरे के अंदर एक गुफा में वे रहते हैं। कहा
जाता है कि वे महीनों समाधिस्थ रहते हैं। उनमें अद्भुत वितिक्षा है। अपना बंग
देश भक्ति और ज्ञानप्रधान है; यहाँ योग की कभी चर्चा तक नहीं होती। जो कुछ है,
वह केवल विचित्र श्वास-साधन इत्यादि हठयोग वह तो केवल एक प्रकार का व्यायाम
है। इसीलिए मैं इस अद्भुत राजयोगी के पास ठहरा हूँ। इन्होंने कुछ आशा भी
दिलायी है। यहाँ एक सज्जन हैं, जिनके छोटे बगीचे में एक सुंदर बँगला है। मैं
वहाँ ठहरना चाहता हूँ। वह बगीचा बाबा जी के निवास स्थान से निकट है। वहाँ बाबा
जी का एक भाई रहकर साधुओं की सेवा करता रहता है। मैं उसी स्थान पर भिक्षा लिया
करूँगा। यह लीला अंत तक देखने के लिए मैंने पहाड़ों पर जाने का अपना इरादा अभी
स्थगित कर दिया है। दो महीने से मुझे कमर में वात-पीड़ा हो रही है, जिस के
कारण पहाड़ों पर चढ़ना असंभव होगा। अतएव यहाँ रुककर देखूँ कि बाबा जी से क्या
मिलता है।
मेरा मूलमंत्र है कि जहाँ जो कुछ अच्छा मिले, सीखना चाहिए। इसके कारण बराहनगर
में मेरे बहुत से गुरुभाई सोचते हैं कि मेरी गुरु-भक्ति कम हो जाएगी। इन्हें
मैं पागलों तथा कट्टरपंथियों के विचार समझता हूँ, क्योंकि जितने गुरु हैं, वे
सब एक उसी जगद्गुरु के अंश तथा आभासस्वरूप हैं। यदि तुम गाजीपुर आओ, तो
गोराबाजार में सतीश बाबू या गगन बाबू से मेरा ठिकाना पूछ लो। अथवा पवहारी बाबा
को तो यहाँ का बच्चा-बच्चा जानता है। उनके आश्रम पर जाकर पूछ लेना कि परमहंस
जी कहाँ रहते हैं। लोग तुम्हें मेरा स्थान बता देंगे। मुगलसराय के पास
दिलदारनगर नामक एक स्टेशन है, जहाँ से तुमको ब्रांच रेलवे द्वारा तारीघाट तक
जाना होगा। तारीघाट से गंगा पार करके तुम ग़ाजीपुर पहुँचोगे। अभी तो मैं कुछ
दिन गाजीपुर ठहरेगा; देखता हूँ, बाबा जी क्या करते हैं। यदि तुम आ गए, तो हम
दोनों साथ साथ बँगले में कुछ दिन रहेंगे और फिर पहाड़ों पर या किसी दूसरी जगह,
जहाँ इरादा होगा, चलेंगे। बराहनगर में किसी को इस बात की सूचना न देना कि मैं
गाजीपुर में ठहरा हूँ। आशीर्वाद।
सतत मंगलाकांक्षी,
नरेन्द्र
(स्वामी अखण्डानन्द को लिखित)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
गाजीपुर,
मार्च, १८१०
प्राणाधिकेषु,
अभी-अभी तुम्हारा एक और पत्र मिला, लिखावट स्पष्ट न होने के कारण समझने में
अत्यंत कठिनाई हुई। पहले के पत्र में ही में सब कुछ लिख चुका हूँ। पत्र के
देखते ही तुम चले माना। नेपाल होकर तिब्बत जाने के मार्ग के बारे में तुमने जो
लिखा है, उसे मैं जानता हूँ। जिस प्रकार साधारणतया किसी को तिब्बत में नहीं
जाने दिया जाता है, उसी प्रकार नेपाल में भी उसकी राजधानी काठमांडू तथा दो-एक
तीर्थों को छोड़कर अन्यत्र कहीं किसी को नहीं जाने दिया जाता है। किंतु इस समय
मेरे एक मित्र नेपाल के राजा के तथा राजकीय विद्यालय के शिक्षक हैं, उनसे पता
चला है कि जब नेपाल से चीन को प्रतिवर्ष राज-कर जाता है, तब वह ल्हासा होकर
जाता है। कोई साधु विशेष प्रयत्न से उसी तरह ल्हासा, चीन तथा मंचूरिया (उत्तर
चीन) स्थित तारा देवी के पीठस्थान तक गया था। मेरे उक्त मित्र के प्रयास करने
पर हम भी मर्यादा तथा सम्मान के साथ तिब्बत, ल्हासा तथा चीन इत्यादि सब कुछ
देख सकेंगे। अतः शीघ्र ही तुम गाजीपुर चले आओ। यहाँ पर कुछ दिन बाबा जी के
समीप ठहरकर, उक्त मित्र से पत्र-व्यवहार कर अवश्य ही मैं नेपाल होकर तिब्बत
जाऊँगा। किमधिकमिति। दिलदारनगर स्टेशन पर उतरकर गाजीपुर आना पड़ता है।
दिलदारनगर मुग़लसराय स्टेशन से तीन-चार स्टेशन बाद है। यदि यहाँ आने के
निमित्त तुम्हारे लिए किराया जुटाना संभव होता, तो मैं अवश्य भेजता; अतः तुम
स्वयं ही इसकी व्यवस्था कर चले आना। गगन बाबू--जिनके यहाँ मैं हूँ--इतने
सज्जन, उदार तथा हृदयवान व्यक्ति हैं कि मैं क्या लिखूँ। काली को ज्वर हो गया
है, सुनकर तत्काल ही उन्होंने हृषीकेश में उनके लिए किराया भेज दिया तथा मेरे
लिए भी उन्होंने काफ़ी खर्च उठाया है। ऐसी दशा में काश्मीर के किराये के लिए
पुनः उन पर बोझ डालना संन्यासी का धर्म नहीं, यह सोचकर मैं विरत हो गया हूँ।
किराये की व्यवस्था कर तुम पत्र देखते ही चले आना। अमरनाथ दर्शन का आग्रह अब
स्थगित रखना ही ठीक है। इति।
नरेन्द्र
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
ईश्वरो जयति
गाजीपुर,
८ मार्च, १८९०
पूज्यपाद ,
आपका पत्र मिला, अतएव में भी प्रयाग के लिए प्रयास कर रहा है। आप प्रयाग में
कहाँ ठहरेंगे, कृपया लिखें। इति।
आपका,
नरेन्द्र
पुनश्च--अगर अभेदानन्द दो-एक दिन में आपके यहाँ पहुँचे, तो आप उसे कलकत्ता के
लिए रवाना कर देंगे। मैं इसके लिए आभारी हेगा।
नरेन्द्र
(श्री बलराम बसु को लिखित)
गाजीपुर,
१२ मार्च, १८९०
बलराम बाबू,
रसीद मिलते ही गुलाब का फूल लाने के लिए किसी को फ्रेयर्ली प्लेस रेलवे गोदाम
में भेज दें और तब शशि के पास फूल भेज दें। लाने में और भेजने में विलंब नहीं
होना चाहिए। बाबूराम शीघ्र इलाहाबाद जा रहा है--मैं दूसरे किसी स्थान में चल
रहा हूँ।
आपका,
नरेन्द्र
पुनश्च--निश्चित जान लें कि विलंब होने से सब फूल खराब हो जाएगा।
नरेन्द्र
(श्री बलराम बसु को लिखित)
रामकृष्णो जयति
गाजीपुर,
१५ मार्च, १८९०
आपका कृपापत्र कल मिला। सुरेश बाबू की बीमारी अत्यंत कठिन है, यह जानकर बहुत
दुःख हुआ। यद्भावी तद्भवतु। आप भी बीमार हो गए है, यह जानकर बहुत दुःख हुआ। अब
तक अहं-बुद्धि है, प्रयत्न में कोई भी त्रुटि होना आलस्य, दोष एवं अपराध कहा
जाएगा। जिसमें वह अहं-बुद्धि नहीं है, उसके लिए सर्वोत्तम उपाय तितिक्षा ही
है। जीवात्मा की वासभूमि इस शरीर से ही कर्म की साधना होती है जो इसे नरककुंड
बना देते हैं, वे अपराधी हैं और जो इस शरीर की रक्षा में प्रयत्नशील नहीं
होते, वे भी दोषी है। जैसी परिस्थितियाँ उत्पन हो, उनके अनुसार निःसंकोच कार्य
कीजिए।
नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम्।
कालमेव प्रतीक्षेत निर्देशं मृतको यथा ॥
--'जो कुछ साध्य हो, वह कीजिए। जीवन-मरण की कामनाओं से रहित होकर सेवक की
भांति आज्ञा की प्रतीक्षा करते रहना ही श्रेष्ठ धर्म है।'
काशी में इन्फ्लुएंजा का भयानक प्रकोप है और प्रमदा बाबू प्रयाग चले गए हैं।
बाबूराम सहसा यहाँ आ गया है। उसे ज्वर है। इस अवस्था में उसका बाहर आना ठीक
नहीं था। काली को दस रुपए भेज दिएगए हैं। गाजीपुर होते हुए कलकत्ता जाएगा। मैं
यहाँ से कल प्रस्थान कर रहा हूँ। और पत्र मत लिखिएगा, क्योंकि मैं प्रस्थान कर
रहा हूँ। आशीर्वाद दीजिए कि बाबूराम चंगा हो जाए। माता जी को मेरे असंख्य
प्रणाम। आप लोग आशीर्वाद दें, जिससे मैं समदर्शी बनूँ। जन्म-लाभ के कारण
प्राणी को जो सहज बंधन उत्तराधिकार के रूप में मिलता है, उससे मुझे मुक्ति
मिले और मैं इस निजकृत बंधन में फिर न फसूँ। यदि कोई मंगलकर्ता है एवं उसके
लिए साध्य तथा सुविधाजनक है, तो वह आप लोगों का परम मंगल करे--यही मेरी
अहर्निश प्रार्थना है। किमधिकमिति।
आपका,
नरेन्द्र
(श्री अतुलचंद्र घोष को लिखित)
गाजीपुर,
१५ मार्च, १८९०
अतुल बाबू,
आपकी मानसिक पीड़ा के समाचार से अत्यंत दुःख हुआ--जिससे आनंद मिल सके, ऐसी
व्यवस्था करें--
थावज्जननं तावमरणं, तावज्जननीजठरे शयनम्।
इति संसारे स्फुटतरदोषः कथमिह मानव तव सन्तोषः॥
--'जहाँ जन्म है, वहाँ मृत्यु है और मां के गर्भ में प्रवेश भी है। संसार में
यह दोष सुस्पष्ट है। अरे मनुष्य, ऐसे संसार में संतोष कहाँ!
आपका,
नरेन्द्र
पुनश्च-मैं कल यहाँ से प्रस्थान कर रहा हूँ--देखना है कि भाग्य कहाँ ले जाता
है।
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
गाजीपुर,
३१ मार्च, १८९०
प्रिय महोदय,
मैं पिछले कई दिनों से यहाँ नहीं था और आज फिर बाहर जा रहा हूँ। मैंने भाई
गंगाधर को यहाँ बुलाया है और यदि वह आता है, तो हम दोनों साथ साथ आपके यहाँ
आएंगे। कुछ विशेष कारणों से मैं इस स्थान से कुछ दूरी पर एक गाँव में गुप्त
वास करूँगा और उस स्थान से पत्र लिखने का वहाँ कोई साधन नहीं है, जिसके कारण
आपके पत्र का उत्तर इतने समय तक नहीं लिख सका। भाई गंगाधर के आने की काफ़ी
संभावना है, अन्यथा मेरे पत्र का उत्तर मुझे मिल जाता। भाई अखंडानन्द वाराणसी
में डॉक्टर प्रिय के यहाँ ठहरा है। हमारा एक दूसरा भाई मेरे साथ था, पर वह अब
अभेदानन्द के स्थान को चला गया है। उसके पहुँचने का समाचार नहीं मिला और चूंकि
उसका स्वास्थ्य ठीक न था, इसलिए मैं उसके लिए थोड़ा चिंतित हूँ। मैंने उसके
साथ बड़ी निष्ठुरता बरती--अर्थात् मैंने उसे इतना परेशान किया कि उसे मेरा साथ
छोड़ना पड़ा। आप जानते हैं कि कोई चारा नहीं है, क्योंकि मैं अत्यंत दुर्बल
हृदय हूँ! और प्रेमजन्य विक्षेपों से पराभूत हो जाता हूँ। आशीर्वाद दीजिए कि
मैं कठोर हो सकू। मैं अपने मन की दशा आपसे क्या कहूँ! वह ऐसा है, मानो रात-दिन
उसमें नरक की ज्वाला जल रही हो। कुछ भी नहीं, अभी तक मैं कुछ भी नहीं कर सका!
यह जीवन व्यर्थ में उलझ गया प्रतीत होता है। मैं पूर्णरूपेण किंकर्तव्यविमूढ़
हूँ! बाबा जी मधुसिक्त शब्दों की वर्षा करते हैं और मुझे जाने से रोकते हैं।
आह, मैं क्या कहूँ? मैं आपके प्रति सैकड़ों अपराध कर रहा हूँ, कृपया उन्हें
मानसिक व्यथा से पीड़ित एक पागल की भूलें समझकर क्षमा करें। अभेदानन्द पेचिश
से पीड़ित है। बड़ी कृपा होगी, यदि आप कृपया उसकी हालत को जान लें और यदि वह
हमारे यहाँ से आए हुए भाई के साथ जाने को राजी हो, तो उसे हमारे मठ भेज दें।
मेरे गुरुभाई अवश्य ही मुझे कठोर और स्वार्थी समझते होंगे। ओह, मैं क्या कर
सकता हूँ? मेरे मन की गहराई में पैठकर कौन देख सकता है? कौन जानता है कि
रात-दिन मैं कोन-सी यंत्रणा भोग रहा हूँ? आशीर्वाद दीजिए कि मुझमें अविरल
धैर्य और अध्यवसाय उत्पन्न हो। असंख्य प्रणाम स्वीकार करें।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
पुनश्च--अभेदानन्द सोनारपुरा में डॉ प्रिय के घर में ठहरा है। मेरी कमर का
दर्द वैसा ही है।
(स्वामी अभेदानन्द को लिखित)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
गाजीपुर,
२ अप्रैल, १८९0.
भाई काली,
प्रमदा बाबू तथा बाबूराम के पत्र के साथ तुम्हारा पत्र मिला। मैं यहाँ पर एक
प्रकार से ठीक ही हूँ। तुम मुझसे मिलने के लिए इच्छुक हो। मेरी भी तुमसे मिलने
की प्रबल इच्छा है, इसी कारण मैं नहीं जा पाता हूँ--साथ ही बाबा जी भी मना
करते हैं। दो-चार दिन के लिए उनसे आज्ञा लेकर मैं तुमसे मिलने का प्रयास
करूँगा। किंतु डर इस बात का है कि ऐसा करने पर तुम हृषीकेशी प्रथा के अनुसार
मुझे एकदम पहाड़ पर चढ़ा लोगे--फिर मेरे लिए अलग होना कठिन हो जाएगा, खास कर
मुझ जैसे दुर्बल के लिए। कमर का दर्द भी किसी तरह ठीक नहीं हो पाता --बड़ी बला
है। धीरे- धीरे अभ्यस्त होता जा रहा हूँ। प्रमदा बाबू से मेरा कोटि कोटि
प्रणाम कहना। मेरी शारीरिक तथा मानसिक उन्नति के लिए वे अत्यंत हितकारी मित्र
हैं, उनका मैं बहुत ही ऋणी हूँ। जो कुछ होना है, होगा। इति।
शुभाकांक्षी,
नरेन्द्र
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
गाजीपुर,
२ अप्रैल, १८९०
पुण्यपाद,
जिस वैराग्य की आप मुझे सलाह देते हैं, वह मैं कहाँ से प्राप्त करू? उसी के
लिए तो मैं पृथ्वी पर मारा- मारा फिर रहा हूँ। यदि मुझे यह सच्चा वैराग्य कभी
उपलब्ध होता है, मैं आपको सूचित करूँगा और यदि आपको इस प्रकार की कोई चीज
प्राप्त हो, तो कृपया मुझे उसके साक्षी के रूप में याद करें ।
आपका,
नरेन्द्र
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
रामकृष्णो जयति
बराहनगर,
१० मई, १८९०
पूज्यपाद,
अनेक व्यवधानों तथा ज्वर फिर आने लगने के कारण मैं आपको नहीं लिख सका।
अभेदानन्द के पत्र से यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आप अच्छे हैं। शायद गंगाधर अब
वाराणसी पहुँच गए हों। यमराज यहाँ हमारे बहुत से मित्रों और स्वजनों के लिए
मुँह फैलाये हुए हैं। इसलिए मैं बहुत उद्विग्न हूँ। संभवतः नेपाल से मेरे लिए
कोई पत्र नहीं आया। नहीं मालूम, कब और कैसे विश्वनाथ (काशी के प्रभु) मुझे कुछ
शांति प्रदान करने की कृपा करेंगे? जैसे ही गर्मी कुछ कम हुई, मैं इस स्थान से
चल दूँगा, पर अब भी मुझे नहीं सूझता कि मुझे कहाँ जाना है। मेरे लिए विश्वनाथ
जी से अवश्य प्रार्थना कीजिए कि वे मुझे शक्ति दें। आप भक्त हैं और प्रभु के
शब्दों--"जो मेरे भक्तों के भक्त हैं, वे वास्तव में मेरे भक्तों में
सर्वश्रेष्ठ हैं",--को याद करके मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ।
आपका,
नरेन्द्र
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
ईश्वरो जयति
५७, रामकान्त बसु स्ट्रीट,
बागबाजार, कलकत्ता,
२६ मई, १८९०
पूज्यपाद,
बहुत सी विपदजनक घटनाओं के आवर्त एवं मन के आन्दोलन के मध्य में पड़ा हुया मैं
आपको यह पत्र लिख रहा हूँ। विश्वनाथ से प्रार्थना कर जो कुछ मैं लिख रहा हूँ,
उसकी युक्ति-संगति एवं सम्भवासंभवता की विवेचना कर कृपया मुझे उत्तर दीजिए।
1. मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि मैं श्री रामकृष्ण के चरणों में 'तुलसी और
तिल' निवेदन कर तथा अपना शरीर अर्पित कर उनका गुलाम हो गया हूँ। मैं उनकी
आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता। यदि मान लिया जाए कि चालीस वर्ष तक अविराम
कठोर त्याग, वैराग्य और पवित्रता की कठिन साधना और तपस्या के द्वारा अलौकिक
मान, भक्ति, प्रेम और विभूति से समन्वित होकर भी उन महापुरुष ने असफलता में ही
शरीर त्याग किया, तो फिर हम लोगों को और किसका भरोसा? अतएव उनकी वाणी को
आप्तवाक्य मानकर हम उस पर विश्वास करते हैं।
2. मेरे लिए उनकी आज्ञा यह थी कि उनके द्वारा स्थापित त्यागी मंडली की मैं
सेवा करूँ। इस कार्य में मुझे निरंतर लगा रहना होगा; चाहे जो हो, स्वर्ग, नरक,
मुक्ति या और कुछ, सब मुझे स्वीकार है।
3. उनका आदेश यह था कि उनकी सब त्यागी भक्त-मंडली एकत्र हो और उसका भार मुझे
सौंपा गया था। निःसंदेह यदि हम में से कोई यहाँ-वहाँ की यात्रा करे, तो उससे
कोई हानि नहीं, परंतु यह यात्रा मात्र होगी। उनका विश्वास था कि जिसे पूर्ण
सिद्धि प्राप्त हो गई है, उसी का यहाँ-वहाँ घूमना शोभा देता है। जब तक सिद्धि
प्राप्त न हो, एक जगह बैठकर साधना करनी चाहिए। जिस समय देहादि के भाव अपने आप
छूट जाएँ, उस समय साधक चाहे जो कुछ कर सकता है। नहीं तो इधर-उधर घूमते रहना
साधक के पक्ष में अनिष्टकारी है।
4. अतएव उक्त आजा के अनुसार उनकी संन्यासी मंडली बराहनगर के एक जीर्ण-शीर्ण
मकान में एकत्र हुई है और सुरेशचंद्र मित्र एवं बलराम बसु नामक उनके दो गृहस्थ
शिष्यों ने इस मंडली के भोजन, मकान के किराये आदि का भार ले लिया है।
5. कुछ कारणों से (अर्थात् ईसाई राजा के विचित्र कानून से बाध्य हो) भगवान्
श्री रामकृष्ण के शरीर का अग्नि-संस्कार करना पड़ा। निःसंदेह यह कार्य अत्यंत
गर्हित था। अस्थि-संचय के उपरांत उनकी राख सुरक्षित रखी है। यदि कहीं गंगा जी
के नट पर उगे उचित रीति से प्रतिष्ठित किया जा सके, तो मेरे विचार से उस पाप
का प्रायश्चित्त किचित् अंश में हो जाएगा। उक्त पवित्र अस्थियों, उनकी गद्दी
और उनके चित्र की प्रतिदिन पूजा नियमानुसार हमारे मठ में होती है और हमारे एक
ब्राह्मण कुलोद्भव गुरुभाई उस कार्य में दिन-रात लगे रहते हैं। यह बात आपसे
छिपी नहीं है। इस पूजा का खर्च भी उपर्युक्त दोनों महात्मा चलाते थे।
6. कितने दुःख की बात है कि जिन महापुरुष के जन्म से हमारी बंग जाति एवं बंग
भूमि पवित्र हुई है, जिनका जन्म इस पृथ्वी पर भारतवासियों को पश्चिमी सभ्यता
की चमक-दमक से सुरक्षित रखने के लिए हुआ और इसलिए जिन्होंने अपनी त्यागी मंडली
में अधिकांश विश्वविद्यालय के छात्रों को लिया, उनका उस बंग देश में, उनकी
साधना-भूमि के सन्निकट कोई स्मारक स्थापित न हो सका।
7. उपर्युक्त दो सज्जनों की यह प्रबल इच्छा थी कि गंगा-तट पर थोड़ी सी जमीन
खरीदकर वहाँ पवित्र अस्थियों को समाधिस्थ करें और शिष्य-मंडली वहीं एक साथ
रहे। इसके लिए सुरेश बाबू ने एक हजार रपये की रकम दे दी श्री और आगे अधिक देने
का वचन दिया था, परंतु ईश्वर के किसी गढ़ अभिप्राय से उन्होंने कल इहलोक त्याग
दिया। बलराम बाबू की मृत्यु का हाल आप पहले से ही जानते हैं।
8. अभी यह अनिश्चित है कि इस समय श्री रामकृष्ण को शिष्य-मंडली उस पवित्र
भस्मावशेष एवं गद्दी को लेकर कहाँ जाए (और बंग देश के निवासियों का हाल तो
आपको मालूम ही है; लंबी-लंबी बातों में कितने आगे, परंतु क्रियाशीलता में
कितने पीछे रहते हैं)। शिष्य लोग सब संन्यासी हैं और जहाँ कहीं उन्हें ठौर
मिले, जाने को तैयार हैं। पर मैं उनका सेवक मर्मांतक वेदना का अनुभव कर रहा
हूँ कि भगवान् श्री रामकृष्ण की अस्थियों की प्रतिष्ठा के लिए थोड़ी सी भी
जमीन गंगा के किनारे न मिल सकी। यह सोचकर मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है।
9. एक हजार रुपए से जमीन खरीदकर कलकत्ते के निकट मंदिर बनवाना असंभव है। इसमें
कम से कम पाँच-सात हजार रुपए लगेंगे।
10. श्री रामकृष्ण के शिष्यों के मित्र और आश्रय अब केवल आप ही हैं। उत्तर
प्रदेश में आपका मान-सम्मान तथा परिचय यथेष्ट है। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ
कि आप इस विषय पर विचार करें और यदि आपकी रुचि हो, तो उस प्रांत के धर्मशील
धनी मित्रों से चन्दा इकट्ठा कर इस कार्य को कर डालें। यदि आप उचित समझते हैं
कि बंगाल में ही गंगाजी के किनारे भगवान् श्री रामकृष्ण को समाधि तया उनकी
शिष्य-मंडली के लिए आश्रय-स्थान हो, तो मैं आपकी अनुमति से आपके पास उपस्थित
हो जाऊँगा। अपने प्रभु के लिए एवं प्रभु की संतान के लिए द्वार द्वार भिक्षा
मांगने में मुझे किचिन्मात्र संकोच नहीं। विश्वनाथ से प्रार्थना कर कृपया इस
विषय पर पूर्ण विचार कीजिए। यदि ये सब सच्चे, सुशिक्षित सद्वंशजात युवा
संन्यासी स्थानाभाव एवं साहाय्याभाव के कारण भमवान् श्री रामकृष्ण के आदर्शभाव
को न प्राप्त कर सके, तो मेरे ख्याल से यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही है।
11. यदि आप कहें, "आप संन्यासी हैं, आपको ये सब वासनाएँ क्यों? "--तो मैं
कहूँगा कि मैं श्री रामकृष्ण का सेवक हूँ और उनके नाम को उनकी जन्म एवं साधना
की भूमि में चिर प्रतिष्ठित रखने के लिए और उनके शिष्यों को उनके आदर्श की
रक्षा में सहायता पहुँचाने के लिए मुझे चोरी और डकैती भी करनी पड़े, तो उसके
लिए भी मैं राजी हूँ। मैं आपको अपना आत्मीय समझकर अपने हृदय को आपके सम्मुख
खोलकर रख रहा हूँ। इसी कारण मैं कलकत्ता लौट आया हूँ। मैंने चलने से पहले आपसे
यह कह दिया था और अब मैं सब कुछ आपकी इच्छा पर छोड़ता हूँ।
12. यदि आप कहें कि वाराणसी आदि स्थान में ऐसा कार्य करने में सुविधा होगी, तो
मेरा तो यही निवेदन है कि अगर श्री रामकृष्ण के जन्म और साधना के स्थान में
उनकी समाधि न बन सकी, तो कितना परिताप का विषय है! बंगाल की दशा शोचनीय है।
यहाँ के लोगों को इस बात की कल्पना तक नहीं कि त्याग क्या है,--आरामतलबी और
इंद्रियपरायणता ने कहाँ तक इस जाति को खोखला कर दिया है! ईश्वर इसमें त्याग और
वैराग्य की भावना का उदय करे। यहाँ के लोगों की बात क्या कहूँ परंतु मेरा
विश्वास है कि उत्तर प्रदेश के लोगों में--विशेषतः धनी लोगों में इस प्रकार के
सत्कार्य में बहुत उत्साह है। जो कुछ ठीक समझें, उत्तर दें। गंगाधर आज भी नहीं
पहुँचा, कल तक आ सकेगा। उसे देखने की बड़ी उत्कंठा है। उपर्युक्त पते पर
पत्रोत्तर दें।
आपका,
नरेन्द्र
(श्री प्रमदादास मित्र को लिखित)
बागबाजार,
४ जून, १८९०
पूज्यपाद,
आपका पत्र मिला। इसमें कोई संदेह नहीं कि आपकी राय बहुत ही बुद्धि मत्तापूर्ण
है। यह सत्य है कि ईश्वर की इच्छा होकर रहेगी। दो या तीन की टुकड़ियों में हम
लोग भी इधर-उधर जा रहे हैं। भाई गंगाधर के भी दो पत्र मुझे मिले। इस समय वह
गगन बाबू के घर पर है, और इंफलुएंजा से पीड़ित है। गगन बाबू उसका विशेष ध्यान
रख रहे हैं। स्वस्थ होते ही वह वहाँ आ जाएगा। आपको हमारा सादर प्रणाम।
आपका,
नरेन्द्र
पुनश्च--अभेदानन्द और सभी लोग सानन्द हैं।
(स्वामी शारदानन्द को लिखित)
बागबाजार,
कलकत्ता,
६ जुलाई, १८९०
प्रिय शरत् तथा कृपानन्द,
तुम लोगों का पत्र यथासमय मिला। सुनने में आता है कि अल्मोड़े की जल वायु इसी
समय सबसे अधिक स्वास्थ्यप्रद है, फिर भी तुम्हें ज्वर हो गया। आशा है कि यह
'मलेरिया' नहीं है। गंगाधर के बारे में तुमने जो लिखा है, वह संपूर्ण मिथ्या
है। उसने तिब्बत में सब कुछ खाया था, यह बात एकदम झूठ है ...और अर्थ संग्रह के
बारे में तुमने जो कुछ लिखा है--वह घटना इस प्रकार है कि उदासी बाबा नामक एक
व्यक्ति के लिए उसे कभी कभी भिक्षा माँगनी पड़ती थी एवं उसे प्रति दिन बारह
आने, एक रुपया के हिसाब से उसके फलाहार की व्यवस्था करनी पड़ती थी। गंगाधर अब
जान गया है कि वह एक पक्का झूठा है, क्योंकि पहले जब वह उस व्यक्ति के साथ गया
था, तभी उसने उससे कहा था कि हिमालय में कितनी ही आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखने को
मिलती हैं। किंतु उन आश्चर्यजनक वस्तुओं तथा स्थानों के दर्शन न मिलने के कारण
गंगाधर को यह विश्वास हो चुका था कि वह सफ़ेद झूठ बोलने वाला व्यक्ति है, फिर
भी उसने उसकी बहुत सेवा की।... इसका साक्षी है। बाबा जी के चरित्र के बारे में
भी उसे पर्याप्त सन्देहास्पद कारण मिले थे। इन सब घटनाओं के कारण तथा--के साथ
अंतिम साक्षात्कार के फलस्वरूप ही वह उदासी के प्रति पूर्णतया श्रद्धाहीन हो
चुका था एवं इसीलिए उदासी प्रभु का इतना क्रोध है। और पण्डे--जो कि पाजी और
एकदम पशुतुल्य हैं--उनकी बातों का तुम्हें कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।
मैं देख रहा हूँ कि गंगाधर अभी तक पहले की तरह कोमलमति शिशु जैसा ही है। इन
भ्रमणों के फलस्वरूप उसकी चंचलता तो अवश्य कुछ घट गई है और हमारे तथा हमारे
प्रभु के प्रति उसका प्रेम बढ़ा ही है, घटा नहीं। वह निडर, साहसी, सरल तथा
दृढ़निष्ठ है। केवल मात्र ऐसे एक व्यक्ति की आवश्यकता है, जिसे स्वतः ही वह
भक्तिभाव से अंगीकार कर सके, ऐसा होने पर वह एक बहुत ही उत्तम व्यक्ति बन सकता
है।
इस बार गाजीपुर छोड़ने का मेरा विचार नहीं था और कलकत्ता आने की इच्छा तो
बिल्कुल नहीं थी, किंतु काली की बीमारी का समाचार पाकर मुझे वाराणसी जाना पड़ा
एवं बलराम बाबू की आकस्मिक मृत्यु ने मुझे कलकत्ता आने को विवश किया। सुरेश
बाबू तथा बलराम बाबू, दोनों ही इस लोक को त्यागकर चले गए! गिरीशचंद्र घोष मठ
का खर्च चला रहे हैं और दिन भी एक प्रकार से अच्छी तरह से बीत रहे हैं। मेरा
शीघ्र ही (अर्थात् मार्ग-व्यय की व्यवस्था होते ही) अल्मोड़ा जाने का विचार
है। वहाँ से गढ़वाल में गंगा-तट पर किसी स्थान में दीर्घ काल तक ध्यानमग्न
रहने की अभिलाषा है; गंगाधर मेरे साथ जा रहा है। कहना न होगा कि खासकर इसीलिए
मैंने उसे काश्मीर से बुला लिया है।
मैं समझता हूँ कि कलकत्ते आने के लिए तुम लोगों को इतना व्यग्र नहीं होना
चाहिए। भ्रमण भी काफ़ी हो चुका है। यद्यपि भ्रमण करना उचित है, परंतु मैं यह
देख रहा हूँ कि तुम लोगों के लिए जो सबसे अधिक आवश्यक कार्य था, उसी को तुमने
नहीं किया, अर्थात् कमर कस लो एवं ध्यान के लिए जमकर बैठ जाओ। मेरो धारणा है
कि ज्ञान-प्राप्ति इतनी सरल नहीं है कि मानो किसी सोती हुई युवती को यह कहकर
जगा दिया गया कि उठ गोरी, तेरा ब्याह रचाया जा रहा है और वह तत्काल उठ बैठी।
मेरा तो यह दृढ़ विश्वास है कि दो-चार से अधिक व्यक्तियों को किसी भी युग में
ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए हम लोगों को अविच्छिन्न रूप से इस विषय
में जुटे रहने तथा अग्रसर होने की आवश्यकता है। इसमें यदि मृत्यु का आलिंगन
करना पड़े, तो वह भी स्वीकार है। जानते तो हो, यही मेरा पुराना ढर्रा है। आजकल
के संन्यासियों में ज्ञान के नाम पर ठगी का जो व्यापार चल रहा है, उसकी मुझे
खूब जानकारी है। अतः तुम निश्चिन्त रहो तथा शक्तिशाली बनो। राखाल ने लिखा है
कि दक्ष (स्वामी ज्ञानानन्द) उसके साथ वृंदावन में है; सोना इत्यादि बनाना
सीखकर वह एक पक्का ज्ञानी बन गया है! भगवान् उसे आशीर्वाद प्रदान करे तथा तुम
लोग भी कहो, तथास्तु।
मेरा स्वास्थ्य अब काफ़ी अच्छा है; और गाजीपुर में रहने से जो लाभ हुआ है, आशा
है, वह कुछ समय तक अवश्य टिकेगा। जिन कार्यों को करने के विचार से मैं गाजीपुर
से यहाँ आया हूँ, उनको पूरा करने में कुछ समय लगेगा। मैं यहाँ पर मानो बरैयों
के छत्ते में रह रहा हूँ, ऐसा अनुभव मुझे पहले भी हुआ करता था। एक ही दौड़ में
हिमालय जाने के लिए व्यग्र हो उठा हूँ। अबकी बार पवहारी बाबा या अन्य किसी
साधु के समीप मुझे नहीं जाना है--वे सर्वोच्च उद्देश्य से लोगों को विचलित कर
देते हैं। इसलिए एकदम ऊपर की ओर जा रहा हूँ।
अल्मोड़े की जलवायु कैसी प्रतीत हो रही है, शीघ्र लिखना। शारदानन्द, खासकर
तुम्हारे आने की कोई आवश्यकता नहीं। एक जगह सबके मिलकर शोर-गुल मचाने तथा
आत्मोन्नति की इतिश्री करने से क्या लाभ? मूर्ख आवारा न बनो--यह बात ठीक है,
किंतु वीर की तरह आगे बढ़ते रहो।
निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैविमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥
--'जिनका अभिमान तथा मोह दूर हो गया है, जिन्होंने आसक्तिरूप दोष को जीत लिया
है, जो आत्मज्ञाननिष्ठ हैं, जिनकी कामनाएँ विनष्ट हो चुकी हैं, जो सुख-दुःखरूप
द्वंद्व से विमुक्त हो चुके हैं, ऐसे विगतमोह व्यक्ति ही उस अव्यय पद को
प्राप्त करते हैं।'
[13]
अग्नि में कूदने के लिए तुम्हें कौन कहता है? यदि यह अनुभव होता हो कि हिमालय
में साधना नहीं हो रही है, तो फिर और कहीं क्यों नहीं चले जाते?
यह जो तुमने प्रश्न के बाद प्रश्न किए हैं, उनसे तुम्हारे मन की कमजोरी ही
प्रकट हो रही है कि तुम वहाँ से उतर आने के लिए चंचल हो उठे हो। शक्तिमान, उठो
तथा सामर्थ्यशाली बनो। कर्म, निरंतर कर्म; संघर्ष, निरंतर संघर्ष! अलमिति।
यहाँ पर सब कुशल है, सिर्फ बाबूराम को थोड़ा ज्वर हो गया है।
तुम्हारा ही ,
विवेकानन्द
(श्री लाला गोविन्द सहाय को लिखित)
अजमेर,
१४ अप्रैल, १८९१
प्रिय गोविन्द सहाय,
पवित्र और निःस्वार्थी बनने की कोशिश करो--सारा धर्म इसी में है।
सप्रेम तुम्हारा,
विवेकानन्द
(श्री लाला गोविन्द सहाय को लिखित)
आबू पर्वत,
३० अप्रैल, १८९१
प्रिय गोविन्द सहाय,
उस ब्राह्मण बालक का उपनयन-संस्कार क्या तुम करा चुके? क्या संस्कृत पढ़ रहे
हो? कितनी प्रगति हुई है? आशा है कि प्रथम भाग तो अवश्य ही समाप्त कर चुके
होगे।...तुम्हारी शिव-पूजा तो अच्छी तरह से चल रही होगी? यदि नहीं, तो करने का
प्रयास करो। 'तुम लोग पहले भगवान् के राज्य का अन्वेषण करो, ऐसा करने पर सब
कुछ स्वतः ही प्राप्त कर सकोगे।'
[14]
भगवान् का अनुसरण करने पर तुम जो कुछ चाहोगे, वह मिल जाएगा।...दोनों कमांडर
साहबों को मेरी आंतरिक श्रद्धा निवेदन करना; उच्च पदाधिकारी होते हुए भी मुझ
जैसे ग़रीब फ़क़ीर के साथ उन दोनों ने अत्यंत सदय व्यवहार किया। बच्चो, धर्म
का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा
सच्चा बर्ताव करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है। "जो केवल 'प्रभु, प्रभु' की
रट लगाता है, वह नहीं, किंतु जो उस परम पिता के इच्छानुसार कार्य करता
है"--वही धार्मिक है।
[15]
अलवरनिवासी युवकों, तुम लोग जितने भी हो, सभी योग्य हो और मैं आशा करता हूँ कि
तुममें से अनेक व्यक्ति अविलंब ही समाज के भूषण तथा जन्मभूमि के कल्याण के
कारण बन सकेंगे।
आशीर्वादक,
विवेकानन्द
पुनश्च--यदि कभी कभी तुमको संसार का थोड़ा-बहुत धक्का भी खाना पड़े, तो उससे
विचलित न होना, मुहूर्त भर में वह दूर हो जाएगा तथा सारी स्थिति पुनः ठीक हो
जाएगी।
(श्री लाला गोविन्द सहाय को लिखित)
आबू पर्वत, १८९१
प्रिय गोविन्द सहाय,
मन की गति चाहे जैसी भी क्यों न हो, तुम नियमित रूप से जप करते रहना। हरबक्स
से कहना कि पहले वाम नासिका तदनंतर दक्षिण एवं पुनः वाम नासिका, इस क्रम से
प्राणायाम करता रहे। विशेष परिश्रम के साथ संस्कृत सीखो॥
आशीर्वादक,
विवेकानन्द
(श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
बड़ौदा
२६ अप्रैल, १८९२
प्रिय दीवान जी साहब,
यहाँ भी आपका पत्र पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ। नदियाद स्टेशन से आपके पर पहुँचने
में मुझे कुछ भी कठिनाई नहीं हुई। और आपके भाई--वैसे ही हैं, जैसा उन्हें होना
चाहिए, बिल्कुल आपके भाई। ईश्वर आपके परिवार पर सर्वोत्कृष्ट आशीर्वादों की
वर्षा करे। मेरी सारी यात्राओं में ऐसा शानदार कोई दूसरा परिवार नहीं मिला।
आपके मित्र मणिभाई ने मेरे लिए सभी सुविधाएँ प्रदान की हैं। जहाँ तक उनके
सत्संग का प्रश्न है, केवल मैं उनसे दो बार मिला, एक बार एक मिनट के लिए, और
दूसरी बार ज्यादा से ज्यादा दस मिनट के लिए, जब उन्होंने यहाँ की
शिक्षा-पद्धति पर बातचीत की। पुस्तकालय और रवि वर्मा के चित्र तो खैर, मैंने
देख ही लिए, यहाँ केवल यही दर्शनीय वस्तुएँ हैं। अतः आज शाम को मैं बंबई जा
रहा हूँ। यहाँ दीवान जी को (आपको) मेरा धन्यवाद। अधिक बंबई से लिखूँगा।
सस्नेह आपका,
विवेकानन्द
पुनश्च--नदियाद में मैं मणिलाल नाभूभाई से मिला। वे एक बहुत ही विद्वान् एवं
पवित्र सज्जन हैं, और मैंने उनके सत्संग से बहुत आनंद प्राप्त किया। .
(श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
बंबई
प्रिय दीवान जी साहब,
पत्रवाहक, बाबू अक्षयकुमार घोष, मेरे एक मित्र हैं। वे कलकत्ता के एक कुलीन
परिवार के हैं। मुझे वे खंडवा में मिले और हमारा परिचय हो गया, यद्यपि कलकत्ता
में मैं इनके परिवार को बहुत पहले से जानता हूँ।
वे एक बहुत ईमानदार एवं बुद्धिमान युवक हैं और कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व
स्नातक हैं। आपको विदित है कि बंगाल में इस समय संघर्ष कितना कठिन है और यह
गरीब तरुण किसी नौकरी की तलाश में निकला है। आपकी प्रकृति की स्वाभाविक उदारता
को जानते हुए मैं समझता हूँ कि इस युवक के निमित्त कुछ करने के लिए आपसे सादर
निवेदन कर मैं आपको उद्विग्न नहीं कर रहा हूँ। मुझे अधिक कुछ लिखने की
आवश्यकता नहीं है। आप इस लड़के को परिश्रमी एवं ईमानदार पाएँगे। अगर एक सहजीवी
के प्रति किया गया एक भी उदारतापूर्ण कार्य उसके संपूर्ण जीवन को सुखी बना
देता है, तो मुझे आपसे यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं कि यह लड़का इसका एक
पात्र है (ऐसा व्यक्ति, जो सहायता पाने का पूर्ण अधिकारी है)। वह भद्र एवं
सहृदय है, जैसे कि आप।
आशा है, मेरे इस निवेदन से आप उद्विग्न एवं परेशान नहीं होंगे। एक बड़ी
विचित्र परिस्थिति में किया गया यह निवेदन अपने ढंग का पहला और अंतिम है। आपकी
उदार प्रकृति में विश्वास एवं आशा के साथ,
भवदीय,
विवेकानन्द
(श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
पूना,
१५ जून, १८९२
प्रिय दीवान जी साहब,
बहुत दिनों से आपका पत्र नहीं मिला। आशा करता हूँ कि आपको मैंने किसी प्रकार
अप्रसन्न नहीं कर दिया है। महाबलेश्वर के ठाकुर साहब के साथ मैं यहाँ आया, और
उन्हीं के साथ रह रहा हूँ। यहाँ पर मैं एक सप्ताह या कुछ अधिक रुकूंगा और
तत्पश्चात हैदराबाद होते हुए रामेश्वरम् जाऊँगा।
शायद अब तक जूनागढ़ में आपके रास्ते से सारी बाधाएँ दूर हो गई होंगी; कम से कम
मुझे ऐसी आशा है। आपके स्वास्थ्य के विषय में, विशेष रूप से उस मोच के विषय
में जानने की बड़ी उत्सुकता है।
मैंने आपके मित्र भावनगर के राजकुमार के शिक्षक सुर्ती से मुलाकात की। वे बहुत
ही सज्जन हैं। उनसे परिचित होना एक सौभाग्य की बात है; वे बहुत ही अच्छे एवं
उत्तम प्रकृति के पुरुष हैं।
आपके सहृदय भाइयों और वहाँ के हमारे मित्रों के लिए मेरा हार्दिक अभिवादन।
अपने घर के पत्र में नाभूभाई को कृपया मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित
कीजिएगा। आशा है, शीघ्र पत्रोत्तर के द्वारा आप मुझे कृतार्य करेंगे। हार्दिक
श्रद्धा, कृतज्ञता एवं आप तथा आपके आत्मीयों के शुभ के लिए प्रार्थनाओं सहित।
भवदीय,
विवेकानन्द
(श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
बंबई,
२२ अगस्त, १८९२
प्रिय दीवान जी साहब,
आपका पत्र पाकर मैं बहुत ही कृतार्थ हूँ, इस कारण विशेषकर इस पत्र से यह सिद्ध
होता है कि आप मेरे प्रति पूर्ववत् कृपालु हैं।...
मुझे बहुत खुशी हुई कि आपका जोड़ क़रीब क़रीब पूर्णतया ठीक हो गया। कृपया अपने
उदारमना भाई से कहें कि वे वचन-भग के लिए मुझे क्षमा करें। मुझे यहाँ कुछ
सस्कृत पुस्तकें एवं उन्हें समझने के लिए सहायता मिल गई है, जिनके अन्यत्र
मिलने की आशा मैं नहीं करता। मैं उन्हें समाप्त करने के लिए व्यग्र हूँ। कल
यहाँ मैंने आपके मित्र श्री मनःसुखाराम से भेंट की, उनके साथ एक संन्यासी
मित्र ठहरा है। वे मेरे प्रति बहुत ही कृपालु हैं, और उनका पुत्र भी।
यहाँ १५-२० दिन रहने के बाद मैं रामेश्वरम् को प्रस्थान करूँगा, और लौटते
वक़्त निश्चय ही आपके पास आऊँगा।
यह संसार वास्तव में आप जैसे उच्चात्मा, सहृदय एवं दयालु पुरुषों के कारण ही
समृद्ध है; शेष तो जैसा किसी संस्कृत कवि ने लिखा है, 'कुठार सदृश है, जो अपनी
माताओं के तारुण्य-वृक्ष का उच्छेदन करते हैं।'
यह असंभव है कि मैं कभी आपकी पितृवत् उदारता और देख-भाल को भूल जाऊँ, और मुझ
जैसा गरीब फ़क़ीर आप जैसे महान मंत्री का इस प्रार्थना के सिवा क्या
प्रत्युपकार कर सकता है कि इस संसार में जो कुछ काम्य है, समस्त वरदानों का
प्रदाता उसे आपको प्रदान करे, और जीवन के अंत में, जो अंत बहुत, बहुत ही दिन
तक वह (भगवान्) स्थगित रखे, आपको परमानंद, अनंत सुख तथा पवित्रता की अपनी शरण
में ले ले।
भवदीय,
विवेकानन्द
पुनश्च--देश के इन भागों में यह देखकर मुझे बड़ा दुःख है कि संस्कृत तथा अन्य
विद्याओं के ज्ञान का बड़ा अभाव है। देश के इस भाग के निवासी स्नान, खान-पान
आदि संबंधी स्थानीय अंधविश्वासों के पुंज को ही अपना धर्म समझते हैं, और यही
उनका सारा धर्म है।
ये बेचारे! इनको नीच और धूर्त पुरोहित वेदों और हिंदू धर्म के नाम पर निरर्थक
हास्यपूर्ण कुरीतियाँ एवं मूर्खताएँ सिखा रहे हैं (और स्मरण रखें कि इन बदमाश
पुरोहितों ने और इनके पूर्वजों ने भी ४०० पुश्तों से वेद की एक प्रति का दर्शन
तक नहीं किया है); आम लोग उसी का अनुगमन कर अपने को पतित कर लेते हैं। कलियुगी
ब्राह्मणरूपी राक्षसों से भगवान् इनकी रक्षा करे!
मैंने आपके पास एक बंगाली लड़के को भेजा है। आशा है, उसे आपकी कृपा प्राप्त
होगी।
(खेतड़ी निवासी पंडित शंकरलाल को लिखित)
बंबई,
२० सितंबर, १८९२
प्रिय पंडित जी महाराज,
आपका कृपापत्र मुझे यथासमय मिला। प्रशंसा का पात्र न होने पर भी न जाने क्यों
मेरी इतनी अधिक प्रशंसा हो रही है। ईसा मसीह का कहना है कि 'एक ईश्वर को
छोड़कर कोई भला नहीं।' बाकी सब उसके हाथ की कठपुतली हैं। 'महतो महीयान्' परम
धाम में विराजमान ईश्वर की अथवा अधिकारी पुरुषों की जयजयकार हो, न कि मुझ जैसे
अनधिकारी की। यह दास भाड़े के मोल का भी नहीं। और विशेषतः एक फ़क़ीर तो किसी
प्रकार की प्रशंसा पाने का अधिकारी ही नहीं। क्या केवल अपना कर्तव्य पालन
करनेवाले सेवक की आप प्रशंसा करेंगे?
आशा है, आप सपरिवार कुशलपूर्वक होंगे। पंडित सुंदरलाल जी और मेरे अध्यापक जी
ने मुझे अनुग्रहपूर्वक स्मरण किया है, इसके लिए मैं उनके प्रति अपनी चिर
कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
अब आपसे एक दूसरी बात कहना चाहता हूँ :
हिंदू मस्तिष्क का झुकाव सदा निगमनीय अथवा साधारण सत्य के सहारे विशेष सत्य तक
पहुँचने की ओर रहा है, न कि आगमनिक अथवा विशेष सत्य के सहारे साधारण सत्य की
ओर। अपने समस्त दर्शनों में हम सदैव किसी एक साधारण सिद्धांत को लेकर बाल की
खाल निकालने की प्रवृत्ति पाते हैं, फिर चाहे वह सिद्धांत पूर्णतया भ्रमात्मक
एवं बालकोचित ही क्यों न हो। इन साधा रण सिद्धांतों में कहाँ तक तथ्य है, इस
बात के खोजने या जानने की किसीमें उत्कण्ठा नहीं। स्वतंत्र विचार का हमारे
यहाँ अभाव सा रहा है। यही कारण है कि हमारे यहाँ पर्यवेक्षण और सामान्यीकरण
(generalization--विशेष विशेष सत्यों से एक साधारण सिद्धांत में उपनीत होना)
प्रक्रिया के फलस्वरूप निर्मित होने वाले विद्वानों की इतनी कमी है। ऐसा क्यों
हुआ? इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि यहाँ के जलवायु की भयंकर गर्मी हमें
क्रियाशील होने की अपेक्षा आराम से बैठकर विचार करने के लिए बाध्य करती है, और
दूसरे यह कि पुरोहित और ब्राह्मण दूर देशों की यात्रा या समुद्र-यात्रा न करते
थे। दूर देश की यात्रा जल से या स्थल से करनेवाले यहाँ थे तो अवश्य, पर वे
प्रायः व्यापारी थे--अर्थात् वे लोग जिनका बुद्धि-विकास पुरोहितों के
अत्याचारों एवं स्वयं के धन-लोभ के कारण रुद्ध हो गया था। अतः उनके
पर्यवेक्षणों से मानवीय ज्ञान का विस्तार तो न हो पाया, उल्टे उसकी अवनति ही
हुई, क्योंकि उनके निरीक्षण इतने दोषयुक्त थे तथा विभिन्न देशों के उनके वर्णन
इतने अत्युक्तिपूर्ण और काल्पनिक एवं विकृत थे कि उनके द्वारा असलियत तक
पहुँचना असंभव था।
इसलिए हम लोगों को यात्रा करनी चाहिए और विदेशों में जाना चाहिए। यदि वास्तव
में हम अपने को एक सुसंगठित राष्ट्र के रूप में देखना चाहते हैं, तो हमें यह
जानना चाहिए कि दूसरे देशों में किस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था चल रही है और
साथ ही उनके मनोभाव जानने के लिए हमें उन्मुक्त हृदय से दूसरे राष्ट्रों से
विचार-विनिमय करते रहना चाहिए। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हमें गरीबों पर
अत्याचार करना एकदम बंद कर देना चाहिए। किस हास्यास्पद दशा को हम पहुँच गए
हैं! यदि कोई भंगी हमारे पास भंगी के रूप में आता है, तो छुतही बीमारी की तरह
हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं परंतु जब उसके सिर पर एक कटोरा पानी डालकर
कोई पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना देता है और जब उसे पहनने को एक
कोट मिल जाता है--वह कितना ही फटा पुराना क्यों न हो--तब चाहे वह किसी कट्टर
से कट्टर हिंदू के कमरे के भीतर पहुँच जाए, उसके लिए कहीं रोक-टोक नहीं, ऐसा
कोई नहीं, जो उससे सप्रेम हाथ मिलाकर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे! इससे अधिक
विडंबना की बात क्या हो सकती है? आइए, देखिए तो सही, दक्षिण भारत में पादरी
लोग क्या ग़ज़ब कर रहे हैं। ये लोग नीच जाति के लोगों को लाखों की संख्या में
ईसाई बना रहे हैं। त्रिवांकुर में जहाँ पुरोहितों के अत्याचार भारतवर्ष भर में
सबसे अधिक हैं, जहाँ एक एक अंगुल जमीन के मालिक ब्राह्मण हैं और जहाँ
राजघरानों की महिलाएँ तक ब्राह्मणों की उपपत्नी बनकर रहने में गौरव मानती हैं,
वहाँ लगभग चौथाई जनसंख्या ईसाई हो गई है! मैं उन बेचारों को क्यों दोष दूँ? हे
भगवन्, कब एक मनुष्य दूसरे से भाईचारे का बर्ताव करना सीखेगा?
आपका ही,
विवेकानन्द
(श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
द्वारा बाबू मधुसूदन चटर्जी,
सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर,
खैरताबाद, हैदराबाद,
२१ फ़रवरी, १८९३
प्रिय आलासिंगा,
स्टेशन पर मुझे लेने के लिए तुम्हारा वह युवक ग्रेजुएट मित्र तथा एक बंगाली
सज्जन आए थे। इस समय मैं उस बंगाली सज्जन के यहाँ हूँ--कल तुम्हारे उस युवक
मित्र के यहाँ जाकर कुछ दिन रहूँगा--तदनंतर यहाँ के द्रष्टव्य स्थान देखने के
बाद कुछ दिन में ही मैं मद्रास लौटूँगा। अत्यंत दु:ख के साथ मैं तुम्हें यह
सूचित कर रहा हूँ कि इस समय मेरे लिए पुनः राजपूताना लौटना संभव नहीं है। अभी
से यहाँ अत्यंत गर्मी पड़ रही है, पता नहीं, राजपूताने में और भी कितनी भीषण
गर्मी होगी और मैं गर्मी बिल्कुल सहन नहीं कर सकता। अतः इसके बाद यहाँ से मुझे
बंगलोर जाना पड़ेगा, तत्पश्चात् उटकमण्ड जाकर मुझे गर्मी बिताना है। गर्मी में
मानो मेरा मस्तिष्क खौल जाता है।
अतः मेरी सारी योजना काफूर हो गई और इसीलिए मैं पहले ही मद्रास से
शीघ्रातिशीघ्र चल देने के लिए व्यग्र था। तब मुझे अमेरिका भेजने के निमित्त
उत्तर भारत के किसी राजा का सहयोग प्राप्त करने के लिए महीनों का समय मिल
जाता। किंतु क्या करूँ, अब तो अत्यधिक विलंब हो चुका है। पहले तो ऐसी गर्मी
में कहीं दौड़-धूप न कर सकूँगा--ऐसा करने से मुझे अपने जीवन से ही हाथ धोना
पड़ेगा और दूसरे राजपुताने के मेरे घनिष्ठ मित्र मुझे पाकर अपने समीप से हिलने
न देंगे तथा मुझे वे पाश्चात्य देश में न जाने देंगे। अत: अपने मित्रवर्ग से न
मिलकर किसी नवीन व्यक्ति का आश्रय लेने का मेरा विचार था, किंतु मद्रास में
विलंब हो जाने के कारण मेरी सारी आशाओं पर पानी फिर गया। अत्यंत दु:ख के साथ
अब उस प्रयास को त्याग देना पड़ा। ईश्वर की जो इच्छा है, वही पूर्ण हो! किंतु
तुम यह प्रायः निश्चित समझो कि मैं शीघ्र ही दो एक दिन के लिए मद्रास आकर तुम
लोगों से मिलने के बाद बंगलोर और फिर वहाँ से उटकमण्ड जाऊँगा। देखू 'यदि'
म--महाराज मुझे भेज दें। 'यदि' इसलिए कह रहा हूँ कि मैं किसी द--राजा के वादे
पर पूरा भरोसा नहीं रखता। वे राजपूत तो हैं नहीं--राजपूत अपने प्राण दे सकते
हैं, किंतु अपने वचन से कभी विमुख नहीं होते। अस्तु, 'जब तक जीना, तब तक
सीखना'--अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।
"जिस प्रकार स्वर्ग में, उसी प्रकार इस नश्वर जगत में भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण
हो, क्योंकि अनंत काल के लिए जगत में तुम्हारी ही महिमा घोषित हो रही है एवं
सब कुछ तुम्हारा ही राज्य है।"
[16]
तुम सबको मेरी शुभ कामना।
तुम्हारा
सच्चिदानन्द
[17]
(डॉ० नंजुन्दा राव को लिखित)
खेतड़ी, राजपूताना,
२७ अप्रैल, १८९३
प्रिय डॉक्टर,
अभी आपका पत्र मिला। मुझ अयोग्य पर प्रीति के लिए मैं आपका विशेष कृतज्ञ हूँ।
बेचारे बालाजी के पुत्र के देहान्त का समाचार सुन मुझे अत्यंत दुःख हुआ।
'प्रभु ने ही दिया, पुनः प्रभु ने ही ले लिया--धन्य है प्रभु का नाम।'
[18]
हम तो केवल इतना ही जानते हैं कि न तो कुछ नष्ट होता है और न नष्ट हो सकता है।
हमें उनकी ओर से जो भी कुछ मिले, उसे पूर्ण शांति के साथ नतमस्तक होकर स्वीकार
करना चाहिए। सेनापति यदि अपने अधीनस्थ सिपाही से तोप के मुँह में जाने के लिए
कहे, तो उसमें किसी प्रकार की आपत्ति अथवा उस आदेश की किंचित्मात्र भी अवहेलना
करने का उसका कोई अधिकार नहीं। इस शोक में प्रभु बालाजी को सांत्वना प्रदान
करें और यह शोक उनको उस परम करुणामयी जननी के वक्षःस्थल के निकट से निकटतर ले
जाए।
कहाँ से जहाज़ पर सबार हों, इसके बारे में मेरा कहना यह है कि मैंने पहले ही
बंबई से जाने की व्यवस्था कर ली है। भट्टाचार्य महोदय से कहना कि राजा (खेतड़ी
के महाराज) अथवा मेरे गुरुभाइयों की ओर से मेरे संकल्प में किसी प्रकार की
बाधा पहुँचने की कोई भी आशंका नहीं। मेरे प्रति राजा जी का अगाध प्रेम है।
और एक बात यह है कि--चेटी की जबान को ठीक नहीं कहा जा सकता। मैं कुशलपूर्वक
हूँ। दो-एक सप्ताह के अंदर ही मैं बंबई रवाना हो रहा हूँ।
सच्चिदानन्द की यही निरंतर प्रार्थना है कि सर्वशुभविधाता आप लोगों के ऐहिक
तथा पारलौकिक मंगल विधान करे॥
पुनश्च--जगमोहन से मैंने आपका नमस्कार कहा है। वे भी मुझसे आपको प्रतिनमस्कार
लिखने के लिए कह रहे हैं।
(श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
खेतड़ी,
२८ अप्रैल, १८९३
प्रिय दीवान जी साहब,
यहाँ आते समय मैं आपके स्थान नदियाद जाकर अपना वचन पूरा करना चाहता था लेकिन
कुछ परिस्थितियों के कारण ऐसा नहीं कर पाया। सबसे प्रधान बात यह थी कि आप वहाँ
थे नहीं; और हैमलैट की भूमिका को छोड़कर हैमलेट नाटक का अभिनय एक हास्यास्पद
बात होती, तथा मुझे यह निश्चित रूप से मालूम था कि आप कुछ ही दिनों में नदियाद
आने वाले हैं, और चूंकि मैं भी शीघ्र ही, यही क़रीब २० दिन में, बंबई जाने
वाला हूँ, मैंने तब तक के लिए अपनी यात्रा को स्थगित कर देना उचित समझा।
यहाँ खेतड़ी के राजा साहब मुझसे मिलने के लिए बहुत ही उत्सुक थे और उन्होंने
अपने वैयक्तिक सचिव को मद्रास भेजा था, इसलिए मुझे खेतड़ी आना पड़ा। लेकिन
यहाँ गर्मी असह्य है, अतः मैं शीघ्र ही भागने वाला हूँ।
बहरहाल, दक्षिण के प्रायः सभी राजाओं से परिचित हो गया हूँ और कई स्थानों में
मैंने विचित्र बातें देखीं, जिनके विषय में अगली बार मिलने पर मैं
विस्तारपूर्वक बताऊँगा। मैं अपने प्रति आपके स्नेह को जानता हूँ और आशा है, आप
मेरे वहाँ न पहुँचने के लिए क्षमा करेंगे। फिर भी, कुछ ही दिनों में मैं आपके
यहाँ आ रहा हूँ।
एक और बात, क्या इस समय जूनागढ़ में आपके यहाँ सिंह के बच्चे हैं। क्या आप
मेरे राजा साहब के लिए एक दे सकते हैं? वे राजपूताना के कुछ पशु, यदि आप
चाहें, विनिमय के रूप में दे सकते हैं।
रतिलालभाई से मैं ट्रेन में मिला था। वे पूर्ववत् अच्छे दयालु सज्जन हैं।
प्रिय दीवान जी साहब, मैं आपके लिए इससे अधिक और क्या कामना कर सकता हूँ कि
आपके उस सुअर्जित, सर्वप्रशंसित, और सर्वसमावृत जीवन के उत्तरार्धमें, जो सदा
ही सतत पवित्र, शुभ एवं दयामय प्रभु के पुत्र-पुत्रियों की सेवा में रत रहा
है, प्रभु ही आपके सर्वस्व हों। एवमस्तु ।
सस्नेह आपका,
विवेकानन्द
(श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
बंबई,
२२ मई, १८९३
प्रिय दीवान जी साहब,
कुछ दिन हुए, बंबई पहुँच गया और थोड़े ही दिनों में यहाँ से रवाना होऊँगा।
आपके मित्र वे वणिक सज्जन, जिनको आपने मेरे ठहरने के लिए घर की व्यवस्था करने
की सूचना दी थी, लिखते हैं कि उनके मकान में मेहमानों के कारण, जिनमें से कुछ
बीमार भी हैं, बिल्कुल जगह नहीं। उन्हें मुझे निवास न दे सकने का बहुत दुःख
है। खैर, किसी तरह मुझे एक अच्छी हवादार जगह मिल गई है।
...खेतड़ी के महाराज के प्राइवेट सेक्रेटरी और मैं, दोनों एक साथ रहते हैं।
उनके प्रेम और कृपा के लिए आभार प्रदर्शित करने में मैं असमर्थ हूँ। वे एक
ताजीमी सरदार हैं, जिनका राजा लोग सिंहासन से उठकर स्वागत करते हैं। तब भी वे
इतने सरल हैं कि उनका सेवा-भाव देखकर मैं कभी कभी लज्जित हो जाता हूँ।
...प्रायः देखने में आता है कि अच्छे से अच्छे लोगों पर कष्ट और कठिनाइयाँ आ
पड़ती हैं। इसका समाधान न भी हो सके, फिर भी मुझे जीवन में ऐसा अनुभव हुआ है
कि जगत में कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो मूल रूप में भली न हो। ऊपरी लहरें चाहे
जैसी हों, परंतु वस्तु मात्र के अंतराल में प्रेम एवं कल्याण का अनंतभंडार है।
जब तक हम उस अंतराल तक नहीं पहुँचते, तभी तक हमें कष्ट मिलता है। एक बार उस
शांति-मंडल में प्रवेश करने पर फिर चाहे आँधी और तूफ़ान के जितने तुमुल झकोरे
आएँ, वह मकान, जो सदियों की पुरानी चट्टान पर बना है, हिल नहीं सकता। मेरा
पूर्ण विश्वास है कि आप जैसे निःस्वार्थी और सदाचारी सज्जन, जिनका जीवन सदैव
दूसरों की भलाई में बीता है, उस दृढ़ धरातल पर पहुँच चुके हैं, जिसे भगवान् ने
गीता में ब्राह्मी स्थिति' कहा है।
जो आघात आपको लगे हैं, वे आपको उस परम पुरुष के निकट पहुँचने में सहायक हों,
जो इस लोक और परलोक में एकमात्र प्रेम का पात्र है, जिससे आप यह अनुभव कर सकें
कि परमात्मा ही भूत, वर्तमान तथा भविष्य की प्रत्येक वस्तु में विद्यमान है और
प्रत्येक वस्तु उसमें स्थित है और उसीमें विलीन होती है। ॐ शान्तिः ।
आपका स्नेहांकित,
विवेकानन्द
(घोर गार्हस्थ्य शोक से पीड़ित एक मद्रासी मित्र - श्री डी० आर० बालाजी राव को
लिखित)
बंबई,
२३ मई, १८९३
प्रिय बालाजी,
जो दारुण से दारुण विपत्ति मनुष्य पर पड़ सकती है, उसे सहते हुए प्राचीन यहूदी
महात्मा ने सत्य ही कहा था, "माता के गर्भ से मैं नग्न आया और नग्न ही लौट रहा
हूँ; प्रभु ने दिया और प्रभु ही ले गए, धन्य है, प्रभु का नाम।" इन वचनों में
जीवन का रहस्य छिपा है। ऊपरी सतह पर चाहे लहरें उमड़ आएँ और आंधी के बवंडर
चलें, परंतु उसके अंदर, गहराई में अपरिमित शांति, अपरिमित आनंद और अपरिमित
एकाग्रता का स्तर है। कहा गया है, 'शोकातुर व्यक्ति धन्य हैं, क्योंकि वे
शांति पाएँगे।' और क्यों पाएँगे? क्योंकि जब कराल काल आता है और पिता की दीन
पुकार और माता के विलाप की परवाह न कर हृदय को विदीर्ण कर देता है, जब शोक,
ग्लानि और नैराश्य के असह्य बोझ से धरती का अवलंब भी विच्छिन्न सा जान पड़ता
है, जब मानसिक क्षितिज में असीम विपदा और घोर निराशा का अभेद्य परदा सा पड़ा
दिखाई देता है, तब अंतश्चक्षु के पट खुल जाते हैं और अकस्मात् ज्योति कौंध
उठती है, स्वप्न का तिरोभाव होता है और अतीन्द्रिय दृष्टि से 'सत्' का महान
रहस्य प्रत्यक्ष दिखलायी देने लगता है। यह सत्य है कि उस बोझ से बहुतेरी
दुर्बल नौकाएँ डूब जाती हैं, परंतु प्रतिभासंपन्न मनुष्य, जो वीर है, जिसमें
बल और साहस है, उस समय उस अनंत, अक्षर, परम आनंदमय सत्ता या ब्रह्म का स्वयं
साक्षात्कार करता है, जो ब्रह्म भिन्न भिन देशों में भिन्न-भिन्न नामों से
पुकारा और पूजा जाता है। वे बेड़ियाँ, जो इस जीवात्मा को दुःखमय भवकूप में
बाँधे हुए हैं, कुछ समय के लिए मानो टूट जाती हैं और वह निर्वंध आत्मा
उन्नति-पथ पर आगे बढ़ती है और धीरे- धीरे परमात्मा के सिंहासन तक पहुँच जाती
है, 'जहाँ दुष्ट लोग सताना छोड़ देते हैं और थके-माँदे विश्राम पाते हैं।'
भाई! दिन-रात यह विनती करना न छोड़ो और दिन-रात यह रट लगाना न छोड़ो--
'तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो।'
'हमारा धर्म प्रश्न करना नहीं, वरन् कर्म करना और मर जाना है।' हे प्रभो,
तुम्हारा नाम धन्य है! तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो। भगवन्, हम जानते हैं कि हमें
तुम्हारी इच्छा स्वीकार करनी पड़ेगी; भगवन्, हम जानते हैं कि जगदम्बा के हाथों
से ही हम दंड पा रहे हैं; और 'मन उसे ग्रहण करने को तैयार है, पर निर्बल शरीर
को यह दंड असहनीय है।' हे प्रेममय पिता, जिस शांतिमय समर्पण का तुम उपदेश देते
हो, उसके विरुद्ध यह हृदय की वेदना सतत संघर्ष करती रहती है। हे प्रभु! तुमने
अपने सब परिवार को अपनी आँखों के सामने नष्ट होते देखा और उन्हें बचाने को हाथ
न उठाया--ऐसे प्रभु, तुम हमें बल दो । आओ नाथ, तुम हमारे परम गुरु हो, जिसने
यह शिक्षा दी है कि सिपाही का धर्म आज्ञा-पालन है, प्रश्न करना नहीं । आओ, हे
पार्थसारथी, आओ मुझे भी एक बार वह उपदेश दे जाओ, जो अर्जुन को दिया था कि
तुम्हारे प्रति जीवन अर्पित करना ही मनुष्य-जीवन का सार और परम धर्म है,
जिसमें मैं भी पूर्व काल की महान आत्माओं के साथ दृढ़ और शांत भाव से कह सकू,
ॐ श्री कृष्णार्पणमस्तु।'
परमात्मा तुम्हें शांति प्रदान करे, यही मेरी सतत प्रार्थना है।
विवेकानन्द
(श्रीमती इन्दुमती मित्र को लिखित)
बंबई,
२४ मई, १८९३
माँ,
तुम्हारा और प्रिय हरिपद बाबा जी का पत्र पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई। बराबर
तुमको पत्र न लिख सका, इससे दुःख न मानो। मैं सदैव परमात्मा से तुम्हारे
कल्याण की प्रार्थना करता हूँ। ३१ तारीख को मेरी अमेरिका-यात्रा निश्चित हो
चुकी है, इसीलिए मैं अब बेलगाँव न जा सकूँगा। ईश्वर ने चाहा, तो अमेरिका और
यूरोप से लौटने के बाद मैं तुमसे मिलूँगा। सदा श्री कृष्ण के चरणों में
आत्म-समर्पण करती रहना। सदा इस बात का ध्यान रखना कि हम सब प्रभु के हाथ की
कठपुतली हैं। सदा पवित्र रहना। मनसा वाचा कर्मणा पवित्र रहने की चेष्टा करती
रहना और यथासाध्य दूसरों की भलाई करना। याद रखना, कि मनसा वाचा कर्मणा
पति-सेवा करना ही स्त्री का मुख्य धर्म है। नित्य यथाशक्ति गीता-पाठ करती
रहना। तुमने अपने को इन्दुमती 'दासी' क्यों लिखा है? 'दास' और 'दासी' वैश्य
अथवा शूद्र लिखा करते हैं; ब्राह्मण और क्षत्रिय को 'देव' या 'देवी' लिखना
चाहिए। और फिर यह जाति-भेद तो आजकल के ब्राह्मण महात्माओं का किया हुआ है। कौन
किसका दास है? सब हरि के दास हैं। अतएव प्रत्येक महिला को अपने पति का गोत्र
नाम देना चाहिए, यही पुरानी वैदिक प्रथा है, जैसे इन्दुमती 'मित्र' इत्यादि।
अधिक क्या लिखू; माँ, यह हमेशा याद रखना कि तुम लोगों के कल्याण के लिए मैं
सर्वदा प्रार्थना कर रहा हूँ। प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि तुम शीघ्र
पुत्रवती हो जाओ। अमेरिका जाकर वहाँ की आश्चर्यजनक बातें मैं तुमको बीच बीच
में पत्रों द्वारा लिखता रहूँगा। मैं इस समय बंबई में हूँ और ३१ तारीख तक यहीं
रहूँगा। खेतड़ी नरेश के प्राइवेट सेक्रेटरी मुझे यहाँ तक पहुँचाने आए हैं।
किमधिकमिति।
आशीर्वादक,
सच्चिदानन्द
(श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
खेतड़ी,
मई, १८९३
प्रिय दीवान जी साहब,
मुझे पत्र लिखने के पूर्व निश्चय ही आपको मेरा पत्र नहीं मिला। आपके पत्र को
पढ़ते समय मुझे हर्ष एवं विषाद, दोनों ही हुए। हर्ष इसलिए कि आपकी जैसी शक्ति,
हृदय एवं पदवाले एक व्यक्ति का स्नेह पाने का सौभाग्य मुझे है, और दुःख यह
देखकर कि मेरी नीयत को एकदम ग़लत समझा गया। मुझ पर विश्वास रखिए कि मैं आपको
पितृवत् आदर तथा आपसे स्नेह करता हूँ, और आप एवं आपके परिवार के प्रति मेरी
कृतज्ञता असीम है। सच्ची बात यह है। आपको याद होगा कि शिकागो जाने की मेरी
इच्छा पहले से ही थी। जब मैं मद्रास में था, वहाँ की जनता ने स्वयं ही मैसूर
एवं रामनाड़ के राजाओं के सहयोग से मुझे भेजने का सारा प्रबंध कर दिया। आपको
यह भी विदित होगा कि खेतड़ी के महाराज और मैं स्नेह के अंतरंगतम सूत्र से
आवद्ध हैं। और मैंने उनको सामान्य तौर पर लिखा कि मैं अमेरिका जा रहा हूँ।
स्नेहवश खेतड़ी महाराज ने यह सोचा कि प्रस्थान करने के पूर्व उनसे भेंट करना
मेरा कर्तव्य है, और विशेष रूप से ऐसे अवसर पर जब भगवान् ने उनके सिंहासन के
लिए एक उत्तराधिकारी प्रदान किया था और यहाँ जोरों से खुशियाँ मनाई जा रही
थीं; और मैं निश्चय ही आऊँ, इस निमित्त उन्होंने मद्रास तक अपने वैयक्तिक सचिव
को मुझे लिवाने भेजा, और इस प्रकार में यहां आने के लिए विवश हो गया। इसी बीच
मैंने नदियाद में आपके भाई को तार दिया, यह मालूम करने के लिए कि आप वहीं हैं
कि नहीं और दुर्भाग्यवश मैं कोई भी जवाब नहीं पा सका; अतः बेचारे सचिव ने, जो
अपने स्वामी के लिए मद्रास-भ्रमण से काफ़ी कष्ट उठा चुका था और यही ध्यान में
रखा था कि यदि हम जलसे के अवसर तक खेतड़ी न पहुँच पाए, तो उसके स्वामी नाखुश
होंगे, एकाएक जयपुर का टिकट खरीद लिया। रास्ते में श्री रतिलाल से हमारी
मुलाकात हुई, जिन्होंने यह सूचना दी कि मेरा तार मिल गया था और समय से उसका
जवाब भी दे दिया गया था तथा श्री बिहारीदास मेरी प्रतीक्षा में थे। अब आप ही
इसका न्याय करें, जिनका इतने दीर्घकाल से न्याय करना ही कर्तव्य रहा है। इस
संबंध में मैं क्या करता या कर सकता था? अगर मैं उतर जाता, तो मैं समय से
खेतड़ी-जलसे में नहीं पहुँच सकता; दूसरे, मेरे उद्देश्यों का ग़लत अभिप्राय
लगाया जा सकता था। परंतु आपके तथा आपके भाई का मुझ पर जो स्नेह है, उसे मैं
जानता हूँ, और मुझे यह भी याद था कि कुछ ही दिनों में शिकागो जाते समय मुझे
बंबई जाना होगा। मैंने सोचा कि इसका सबसे अच्छा समाधान यही है कि लौटने के समय
तक यात्रा को स्थगित कर दूँ। जहाँ तक आपके भाइयों द्वारा मेरी सेवा न हो पाने
के कारण मेरी भावनाओं में ठेस लगने की बात है, वह आपकी एक नई खोज है, जिसकी
मैंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी; या शायद, ईश्वर जाने, आप
विचार-विज्ञाता हो गए हैं। मज़ाक की बातें छोड़ दें, मेरे दीवान साहब, मैं वही
कौतुकप्रिय शरारती किंतु, आपको मैं यह विश्वास दिलाता हूँ कि मैं सीधा-सादा
लड़का हूँ, जिससे आप जूनागढ़ में मिले थे; और आपके प्रति मेरा वही स्नेह है या
सौ गुना हो गया है, क्योंकि मैंने आपकी तुलना मन ही मन दक्षिण के सभी राज्यों
के दीवानों से कर ली है, और ईश्वर ही मेरा साक्षी है कि दक्षिण के प्रत्येक
दरबार में आपकी प्रशंसा में मेरी जिह्वा किस तरह वाचाल थी (यद्यपि मुझे ज्ञात
है कि आपके सद्गुणों का मूल्य जानने के लिए मेरी शक्ति पूर्णतया अपर्याप्त
है)। अगर यह एक पर्याप्त व्याख्या नहीं है, मैं आपसे क्षमा के लिए प्रार्थना
करता हूँ, जैसे एक पुत्र अपने पिता से करता है, और ऐसा कीजिए, जिससे मैं इस
भावना से अनुतप्त न रहूँ कि जो मनुष्य मेरे प्रति इतना दयालु था, उसका मैं सदा
कृतघ्न बना रहा।
भवदीय,
विवेकानन्द
पुनश्च--मैं आप पर इस बात के लिए आश्रित हूँ कि मेरे न आने से आपके भाई के
दिमाग में जो भी ग़लतफ़हमी हो, उसे दूर करें और यदि मैं सैतान भी होता, तो भी
मैं उनकी दयालुता एवं सज्जनता को नहीं भूल सकता था।
और जहाँ तक उन दो स्वामियों का प्रश्न है, जो पिछली बार आपके यहाँ जूनागढ़ गए
थे, वे मेरे गुरुभाई थे; उनमें से एक हमारा नेता है। तीन वर्षों बाद मैं उनसे
मिला था और हम साथ ही साथ आबू तक आए, तत्पश्चात् मैंने उनका साथ छोड़ दिया।
अगर हम चाहें, तो बंबई लौटने तक उनको मैं नदियाद ला सकता हूँ। आप एवं आपके
आत्मीयों पर भगवान् आशीर्वाद-वर्षा करे।
भवदीय,
विवेकानंद
(श्री हरिपद मित्र को लिखित)
मरगाँव,
१८९३
प्रिय हरिपद,
अभी अभी तुम्हारा एक पत्र मिला। मैं यहाँ सकुशल पहुँच गया। मैं पंजिम तथा उसके
आसपास के कुछ गाँव एवं वहाँ के मंदिरों को देखने गया था। आज ही लौटा हूँ।
गोकर्ण, महाबलेश्वर तथा अन्य स्थानों के दर्शन की इच्छा का मैंने परित्याग
नहीं किया है। कल सुबह की गाड़ी से मैं धारवाड़ जा रहा हूँ। मैं छड़ी साथ ले
आया हूँ। डॉ० यागदेकर के मित्र ने मेरा बड़ा आतिथ्य किया। श्री भटी एवं अन्य
लोगों को, जो वहाँ हैं, कृपया मेरा अभिवादन कहना । भगवान् तुम तथा तुम्हारी
धर्म-पत्नी पर आशीर्वाद की वर्षा करे। पंजिम शहर बहुत ही साफ़-सुथरा है।
अधिकतर यहाँ के ईसाई साक्षर हैं। हिंदू अधिकतर अशिक्षित हैं।
तुम्हारा सस्नेह,
सच्चिदानन्द
(श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
ओरियेंटल होटल,
याकोहामा,
१० जुलाई, १८९३
प्रिय आलासिंगा, बालाजी, जी० जी० तथा अन्य मद्रासी मित्र,
अपनी गति-विधि की सूचना तुम लोगों को बराबर न देते रहने के लिए क्षमाप्रार्थी
हूँ। यात्रा में जीवन बहुत व्यस्त रहता है; और विशेषतः बहुत सा सामान-असबाब
अपने साथ रखना और उनकी देख-भाल करना तो मेरे लिए एक नई बात है। इसीमें मेरी
काफ़ी शक्ति लग रही है। यह सचमुच एक बड़े झंझट का काम है।
बंबई से कोलम्बो पहुँचा। हमारा स्टीमर वहाँ प्रायः दिन भर ठहरा था। इस बीच
स्टीमर से उतरकर मुझे शहर देखने का अवसर मिला। हम सड़कों पर मोटर गाड़ी से गए;
वहाँ की और सब वस्तुओं में भगवान् बुद्धदेव की निर्वाण के समय की लेटी हुई
मूर्ति की याद मेरे मन में अभी तक ताज़ी है।...
दूसरा स्टेशन पेनांग था, जो मलय प्रायद्वीप में समुद्र के किनारे का एक छोटा
सा टापू है। मलयनिवासी सब मुसलमान हैं। किसी जमाने में ये लोग मशहूर समुद्री
डाकू थे और जहाजों से व्यापार करनेवाले इनके नाम से घबराते थे किंतु आजकल
आधुनिक युद्धपोतों की चौमुखी मार करनेवाली विशाल तोपों के भय से ये लोग डकैती
छोड़कर शांतिपूर्ण धन्धों में लग गए हैं। पेनांग से सिंगापुर जाते हुए हमें
उच्च पर्वतमालाओं से युक्त सुमात्रा द्वीप दिखाई दिया। जहाज़ के कप्तान ने
संकेत कर मुझे समुद्री डाकुओं के बहुत से पुराने अड्डे दिखाये। सिंगापुर
स्टेट्स सेटलमेण्ट्स की राजधानी है। यहाँ एक सुंदर वनस्पति-उद्यान है, जिसमें
ताड़ जाति के तरह तरह के शानदार पेड़ लगाये गए हैं। यहाँ पंखेनुमा पत्तोंवाले
ताड़ के पेड़ बहुतायत से पाए जाते हैं, जिन्हें 'यात्री ताल-वृक्ष' कहा जाता
है और ब्रेड फट (Bread Fruit) नामक पेड़ तो जहाँ देखो, वहीं मिलता है। मद्रास
में जिस प्रकार आम के पेड़ बहुतायत से होते हैं, उसी प्रकार यहाँ मैंगोस्टीन
नामक फल बहुत होता है। पर आम तो आम ही है, उसके साथ किस फल की तुलना हो सकती
है? यद्यपि यह स्थान भूमध्य रेखा के बहुत निकट है, फिर भी मद्रास के लोग जितने
काले होते हैं, यहाँ के लोग उसके अर्धांश भी काले नहीं। सिंगापुर में एक
बढ़िया अजाएबघर भी है।...
इसके बाद हांगकांग आता है। यहाँ चीनी लोग इतनी अधिक संख्या में हैं कि यह भ्रम
हो जाता है कि हम चीन ही पहुँच गए हैं। ऐसा लगता है कि सभी श्रम, व्यापार आदि
इन्हीं के हाथों में हैं। और हांगकांग तो वास्तव में चीन ही है। ज्यों ही
जहाज़ वहाँ लंगर डालता है कि सैकड़ों चीनी डोंगियाँ तट पर ले जाने के लिए घेर
लेती हैं। दो दो पतवारोंवाली ये डोंगियाँ कुछ विचित्र सी लगती हैं। माझी डोंगी
पर ही सकुटुंब रहता है। पतवारों का संचालन प्रायः पत्नी ही करती है। एक पतवार
दोनों हाथों से चलाती है और दूसरी को एक पैर से । और उनमें से नब्बे फीसदी सदी
स्त्रियों की पीठ पर उनके बच्चे इस प्रकार बँधे रहते हैं कि वे आसानी से
हाथ-पैर डुला सकें। मजे की बात तो यह है कि ये नन्हें नन्हें चीनी बच्चे अपनी
माताओं की पीठ पर आराम से झूलते रहते हैं और उनकी माताएँ कभी अपनी सारी शक्ति
लगाकर पतवार घुमाती हैं, कभी भारी बोझ ढकेलती हैं, या कभी बड़ी फुर्ती से एक
डोंगी से दूसरी डोंगी पर कूद जाती हैं। और यह सब होता है, लगातार इधर से उधर
जानेवाली डोंगियों और वाष्प-नौकाओं की भीड़ के बीच। हर समय इन चीनी
बाल-गोपालों के शिखायुक्त मस्तकों के चूर चूर हो जाने का डर रहता है। पर
उन्हें इसकी क्या परवाह? उन्हें इन बाहर की हलचलों से कोई सरोकार नहीं, वे तो
अपनी चावल की रोटी कुतर-कुतरकर खाने में मस्त रहते हैं, जो काम के झंझटों से
बौखलायी हुई मां उन्हें दे देती है। चीनी बच्चों को पूरा दार्शनिक ही समझो।
जिस उम्र में भारतीय बच्चे घुटनों के बल भी नहीं चल पाते, उस उम्र में वह
स्थिर भाव से चुपचाप काम पर जाता है। आवश्यकता का दर्शन वह अच्छी तरह सीख और
समझ लेता है। चीनियों और भारतीयों की नितांत दरिद्रता ने ही उनकी सभ्यताओं को
निर्जीव बना रखा है। साधारण हिंदू या चीनी के लिए उसकी दैनिक आवश्यकताओं की
पूर्ति इतनी भयंकर लगती है कि उस और कुछ सोचने की फुरसत नहीं।
हांगकांग बड़ा ही सुंदर नगर है। वह पहाड़ के शिखरों और ऊँची ढालू जगहों पर बसा
हुआ है। चोटी के ऊपर शहर की अपेक्षा अत्यधिक ठंड पड़ती है। पहाड़ के ऊपर एक
ट्रामगाड़ी प्रायः एकदम सीधी चढ़ती है। लोहे के तारों की रस्सी से खींचकर और
भाप की शक्ति के द्वारा वह ऊपर की ओर परिचालित होती है।
हांगकांग में हम लोग तीन दिन रहे और वहाँ से कैंटन देखने गए। यह शहर एक नदी के
चढ़ाव की ओर हांगकांग से अस्सी मील पर है। नदी इतनी काफ़ी चौड़ी है कि बड़े से
बड़े स्टीमर उसमें से गुजर सकते हैं। हांगकांग से कैंटन को बहुत से चीनी
स्टीमर आते-जाते रहते हैं। हम लोग ऐसे ही एक स्टीमर पर शाम को सवार हुए और
दूसरे दिन भोर में कैंटन पहुँचे। वहाँ की भीड़-भाड़ और व्यस्त जीवन का क्या
कहना? नावें तो इतनी अधिक हैं कि मानो उनसे नदी पट गई हो! ये नावें केवल
व्यापार के ही काम नहीं आतीं, बल्कि सैकड़ों ऐसी भी हैं, जिनमें घर की भाँति
लोग रहते हैं। और इनमें से बहुतेरी बहुत बढ़िया और बड़ी बड़ी हैं। सच पूछो तो
ये बड़े बड़े दुमंजिले या तिमंजिले मकान हैं, जिनके चारों ओर बरामदा है और बीच
में रास्ते--और सब पानी पर तैरते हैं। जिस छोटे से भूभाग पर हम लोग उतरे, वह
चीन सरकार की ओर से विदेशियों के रहने के लिए दी गई है। हमारे चारों ओर, नदी
के दोनों किनारों पर मीलों तक यह बड़ा नगर बसा हुआ है--एक विशाल जन-समूह,
जिसमें निरंतर कोलाहल, धक्कम-धुक्का, चहल-पहल और परस्पर स्पर्धा का ही बोलबाला
दिखाई देता है। परंतु इतनी आबादी, इतनी क्रियाशीलता होते हुए भी मैंने इतना
गंदा शहर अब तक नहीं देखा। जिसे भारतवर्ष में गंदगी समझते हैं, उस दृष्टि से
नहीं--चीनी लोग कूड़े का एक तिनका भी बर्बाद नहीं होने देते--वरन् इस दृष्टि
से कि मानो इन लोगों ने कभी न नहाने की कसम खा ली हो। हर एक घर में नीचे दुकान
है और ऊपरी मंजिल में लोग रहते हैं। गलियाँ इतनी सँकरी हैं कि उनमें से गुजरते
हुए दोनों ओर की दुकानों को हाथ फैलाकर लगभग छू सकते हैं। हर दस कदम पर मांस
की दुकानें मिलती हैं। ऐसी दुकानें भी हैं, जिनमें कुत्ते-बिल्लियों का मांस
बिकता है। हाँ, इस तरह का मांस वही लोग खाते हैं, जो बहुत ग़रीब हैं।
चीनी महिलाएँ बाहर दिखाई नहीं देतीं। उनमें उत्तर भारत के ही समान परदे की
प्रथा है। केवल मजदूर वर्ग की ही औरतें बाहर दिखाई पड़ती हैं। इनमें भी एकाध
स्त्री ऐसी दिखाई पड़ेगी, जिसके पाँव बच्चों से भी छोटे हैं और वह लड़खड़ाती
हुई चलती है।
मैं बहुत से चीनी मंदिरों में गया। कैंटन में जो सबसे बड़ा मंदिर है, वह प्रथम
बौद्ध सम्राट् और सबसे पहले बौद्ध धर्म स्वीकार करनेवाले पाँच सौ पुरुषों का
स्मारकस्वरूप है। मंदिर के बीचोबीच बुद्धदेव की मूर्ति स्थापित है, उसके नीचे
सम्राट की और दोनों ओर शिष्य-मंडली की मूर्तियों की कतारें हैं। ये सभी लकड़ी
में खूबसूरती से नवक़ाशी कर बनाई गई हैं।
कैंटन से मैं फिर हांगकांग लौटा और वहाँ से जापान पहुँचा। पहला बंदरगाह
नागासाकी था, जहाँ हमारा जहाज़ कुछ घंटों के लिए ठहरा और हम लोग गाड़ी में
बैठकर शहर घूमने गए। चीनियों में और इनमें कितना अंतर है! सफ़ाई में जापानी
लोग दुनिया में किसीसे कम नहीं हैं। सभी वस्तुएँ साफ़-सुथरी हैं। सड़कें
प्राय: सब चौड़ी, सीधी, सम और पक्की हैं। उनके मकान पिंजड़ों की भाँति छोटे
हैं और प्रायः प्रत्येक कस्बे और गाँव की बस्तियों के पीछे सदाबहार चीड़
वृक्षों से परिपूर्ण हरी-भरी पहाड़ियाँ हैं। जापानी लोग ठिगने, गोरे और
विचित्र वेश-भूषावाले हैं। उनकी चाल-ढाल, हाव-भाव, रंग-ढंग सभी सुंदर हैं।
जापान सौंदर्य-भूमि है! प्रायः प्रत्येक घर के पिछवाड़े जापानी ढंग का बढ़िया
बगीचा रहता है। इन बगीचों के छोटे छोटे लता-वृक्ष, हरे-भरे घास के मैदान, छोटे
छोटे जलाशय और नालियों पर बने हुए छोटे छोटे पत्थर के पुल बड़े सुहावने लगते
हैं।
नागासाकी से चलकर हम कोबे पहुँचे। यहाँ जहाज से उतरकर मैं जापान का मध्य भाग
देखने के उद्देश्य से स्थल-मार्ग से याकोहामा आया।
इस मध्य भाग में मैंने तीन शहर देखे--महान औद्योगिक नगर ओसाका, भूतपूर्व
राजधानी क्योटो और वर्तमान राजधानी टोकियो। टोकियो कलकत्ते से प्रायः दुगना
बड़ा होगा और आबादी भी लगभग दूनी होगी।
बिना पासपोर्ट के किसी भी विदेशी को जापान के भीतरी भाग में भ्रमण करने नहीं
दिया जाता।
जान पड़ता है, जापानी लोग वर्तमान आवश्यकताओं के प्रति पूर्ण सचेत हो गए हैं।
उनकी एक पूर्ण सुव्यवस्थित सेना है, जिसमें यहीं के अफ़सर द्वारा आविष्कृत
तोपें काम में लायी जाती हैं और जो अन्य देशों की तुलना में किसी से कम नहीं
हैं। ये लोग अपनी नौसेना बढ़ाते जा रहे हैं। मैंने एक जापानी इंजीनियर की बनाई
करीब एक मील लंबी सुरंग देखी है।
दियासलाई के कारखाने तो देखते ही बनते हैं। अपनी आवश्यकता की सभी चीजें अपने
देश में ही बनाने के लिए ये लोग तुले हुए हैं। चीन और जापान के बीच में
चलनेवाली एक जापानी स्टीमर लाइन है, जो कुछ ही दिनों में बंबई और याकोहामा के
बीच यात्री जहाज चलाना चाहती है।
यहाँ मैंने बहुत से मंदिर देखे। प्रत्येक मंदिर में कुछ संस्कृत मंत्र प्राचीन
बंग लिपि में लिखे हुए हैं। बहुत थोड़े पुरोहित संस्कृत जानते हैं, पर वे सबके
सब बड़े बुद्धिमान हैं। अपनी उन्नति करने का आधुनिक जोश पुरोहितों तक में
प्रवेश कर गया है। जापानियों के विषय में जो कुछ मेरे मन में है, वह सब मैं इस
छोटे से पत्र में लिखने में असमर्थ हूँ। मेरी केवल यह इच्छा है कि प्रतिवर्ष
यथेष्ट संख्या में हमारे नवयुवकों को चीन और जापान में आना चाहिए। जापानी
लोगों के लिए आज भारतवर्ष उच्च और श्रेष्ठ वस्तुओं का स्वप्न-राज्य है। और तुम
लोग क्या कर रहे हो? ...जीवन भर केवल बेकार बातें किया करते हो, व्यर्थ बकवाद
करनेवालो, तुम लोग क्या हो? आओ, इन लोगों को देखो और उसके बाद जाकर लज्जा से
मुँह छिपा लो। सठियाई बुद्धिवालो, तुम्हारी तो देश से बाहर निकलते ही जाति चली
जाएगी! अपनी खोपड़ी में वर्षों के अंधविश्वास का निरंतर वृद्धिगत कूड़ा-कर्कट
भरे बैठे, सैकड़ों वर्षों से केवल आहार की छुआछूत के विवाद में ही अपनी सारी
शक्ति नष्ट करनेवाले, युगों के सामाजिक अत्याचार से अपनी सारी मानवता का गला
घोटनेवाले, भला बताओ तो सही, तुम कौन हो? और तुम इस समय कर ही क्या रहे हो?
...किताबें हाथ में लिए तुम केवल समुद्र के किनारे फिर रहे हो, यूरोपियनों के
मस्तिष्क में निकली हई इधर-उधर की बातों को लेकर बेसमझे दुहरा रहे हो। तीस
रुपए की मुंशीगीरी के लिए अथवा बहुत हुआ, तो एक वकील बनने के लिए जी-जान से
तड़प रहे हो--यही तो भारतवर्ष के नवयुवकों की सबसे बड़ी महत्त्वाकांक्षा है।
तिस पर इन विद्यार्थियों के भी झुंड के झुंड बच्चे पैदा हो जाते हैं, जो भूख
से तड़पते हए उन्हें घेरकर 'रोटी दो, रोटी दो' चिल्लाते रहते हैं! क्या समुद्र
में इतना पानी भी न रहा कि तुम उसमें विश्वविद्यालय के डिप्लोमा, गाउन और
पुस्तकों के समेत डूब मरो?
आओ, मनुष्य बनो! उन पाखंडी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नति के मार्ग में बाधक
होते हैं, ठोकरें मारकर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उनके हृदय
कभी विशाल न होंगे। उनकी उत्पत्ति तो सैकड़ों वर्षों के अन्ध विश्वासों और
अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। पहले पुरोहिती पाखंड को जड़-मूल से निकाल
फेंको। आओ, मनुष्य बनो। कूपमंडूकता छोड़ो और बाहर दृष्टि डालो। देखो, अन्य देश
किस तरह आगे बढ़ रहे हैं। क्या तुम्हें मनुष्य से प्रेम है? क्या तुम्हें अपने
देश से प्रेम है? यदि हाँ, तो आओ, हम लोग उच्चता और उन्नति के मार्ग में
प्रयत्नशील हों। पीछे मुड़कर मत देखो; अत्यंत निकट और प्रिय संबंधी रोते हों,
तो रोने दो, पीछे देखो ही मत। केवल आगे बढ़ते जाओ!
भारतमाता कम से कम एक हजार युवकों का बलिदान चाहती है-मस्तिष्क वाले युवकों
का, पशुओं का नहीं। परमात्मा ने तुम्हारी इस निश्चेष्ट सभ्यता को तोड़ने के
लिए ही अंग्रेज़ी राज्य को भारत में भेजा है और मद्रासियों ने ही अंग्रेजों को
भारत में पैर जमाने में सबसे पहले सहायता दी है। मद्रास ऐसे कितने निःस्वार्थी
और सच्चे युवक देने के लिए तैयार है, जो ग़रीबों के साथ सहानुभूति रखने के
लिए, भूखों को अन्न देने के लिए और सर्वसाधारण में नव जागृति का प्रचार करने
के लिए प्राणों की बाजी लगाकर प्रयत्न करने को तैयार हैं और साथ ही उन लोगों
को, जिन्हें तुम्हारे पूर्वजों के अत्याचारों ने पशुतुल्य बना दिया है, मानवता
का पाठ पढ़ाने के लिए अग्रसर होंगे?
तुम्हारा,
विवेकानन्द
पुनश्च--धीरता और दृढ़ता के साथ चुपचाप काम करना होगा। समाचार पत्रों के जरिये
हल्ला मचाने से काम न होगा। सर्वदा याद रखना-नाम-यश कमाना अपना उद्देश्य नहीं
है।
(श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
श्रीज़ी मेडोज़,
मासाचुसेट्स,
मेटकाफ़,
२० अगस्त, १८९३
प्रिय आलासिंगा,
कल तुम्हारा पत्र मिला। शायद तुम्हें इस बीच मेरा जापान से लिखा हुआ पत्र मिला
होगा। जापान से मैं बैंकूवर पहुँचा। मुझे प्रशांत महासागर के उत्तरी हिस्से से
होकर जाना पड़ा। ठण्ड बहुत थी। गरम कपड़ों के अभाव से बड़ी तकलीफ़ हुई। अस्तु,
किसी तरह बैंकूवर पहुँचकर वहाँ से कनाडा होकर शिकागो पहुँचा। वहाँ लगभग बारह
दिन रहा। वहाँ प्रायः हर रोज़ मेला देखने जाता था। वह तो एक विराट् आयोजन है!
पूरी तौर से देखने के लिए कम से कम दस दिन जरूरी हैं। वरदा राव ने जिस महिला
से मेरा परिचय करा दिया था, वे और उनके पति शिकागो समाज के बड़े गणमान्य
व्यक्ति हैं। उन्होंने मुझसे बहुत अच्छा बर्ताव किया परंतु यहाँ के लोग जो
विदेशियों का सत्कार करते हैं, वह केवल औरों को दिखाने के ही लिए है; धन की
सहायता करते समय प्रायः सभी मुँह मोड़ लेते हैं। इस साल यहाँ भारी अकाल पड़ा
है--व्यापार में सभी को नुकसान हो रहा है, इसलिए मैं शिकागो बहुत दिन नहीं
ठहरा। शिकागो से मैं बोस्टन आया। लल्लूभाई वहाँ तक मेरे साथ थे। उन्होंने भी
मुझसे बड़ा अच्छा बर्ताव किया।...
यहाँ मेरे लिए जो अपरिहार्य व्यय है, वह अत्यधिक है। तुम्हें याद होगा कि
तुमने मुझे १७० पाउंड के नोट और ९ पाउंड नक़द दिए थे। अब १३० पाउंड ही रह गए
हैं!! मेरा औसत एक पाउंड हर रोज़ खर्च होता है। यहाँ एक चुरट का ही दाम हमारे
यहाँ के आठ आने हैं। अमेरिकावाले इतने धनी हैं कि वे पानी की तरह रुपया बहाते
हैं, और उन्होंने कानून बनाकर सब चीजों का दाम इतना अधिक रखा है कि दुनिया की
और कोई राष्ट्र किसी तरह उस स्तर तक नहीं पहुँच सकता। साधारण कुली भी हर रोज़
९-१० रुपए कमाता और इतना ही खर्च करता है। यहाँ आने के पूर्व मैं जो सुनहले
स्वप्न देखा करता था, वे अब टूट गए हैं। अब मुझे असंभव अवस्थाओं से संघर्ष
करना पड़ता है। सैकड़ों बार इच्छा हुई कि इस देश से चल दूँ और भारत लौट आऊँ।
लेकिन मैं तो दृढ़संकल्प हैं, और मुझे भगवान् का आदेश मिला है। मेरी दृष्टि
में रास्ता नहीं दिखाई देता तो न सही, परंतु उनकी आँखें तो सब कुछ देख रही
हैं। चाहे मरूँ या जिऊँ, उद्देश्य पर अटल रहना ही है।
मैं इस समय बोस्टन के समीप एक गाँव में एक वृद्ध महिला का अतिथि हूँ। मेरी
इनसे एकाएक रेलगाड़ी पर पहचान हुई। इन्होंने मुझे अपने यहाँ आने और रहने का
निमंत्रण दिया । यहाँ पर रहने से मुझे यह सुविधा होती है कि मेरा हर रोज़ एक
पाउंड के हिसाब से जो खर्च हो रहा था, वह बच जाता है; और उनको यह लाभ होता है
कि वे अपने मित्रों को बुलाकर भारत से आया हुआ एक अजीब जानवर दिखा रही हैं! इन
सबको सहना ही पड़ेगा। अब मुझे अनाहार, जाड़ा और अपने अनोखे पहनावे के कारण
रास्ते के मुसाफ़िरों की खिल्लियाँ--इन सभी को झेलना ही है। किंतु, प्रिय
वत्स, यह निश्चित जानना कि कोई भी बड़ा काम कठिन परिश्रम बिना नहीं हुआ।...
याद रखो, यह ईसाइयों का देश है और यहाँ किसी और धर्म या मत का कुछ भी प्रभाव
मानो है ही नहीं। मुझे संसार के किसी भी मतवादी की शत्रुता का लेशमात्र भय
नहीं। मैं तो यहाँ 'मेरी'-सुत ईसा की संतानों के बीच वास करता हूँ। प्रभु ईसा
मुझे सहारा देंगे। ये लोग हिंदू धर्म के उदार मत, और नाजरथ के पैगंबर पर मेरा
प्रेम देखकर बहुत ही आकृष्ट हो रहे हैं। मैं उनसे कहा करता हूँ कि गैलिली के
रहनेवाले उस महापुरुष के विरुद्ध मैं कुछ नहीं कहता; सिर्फ़ जैसे आप लोग ईसा
को मानते हैं, वैसे ही साथ साथ भारतीय महापुरुषों को मानना चाहिए। यह बात वे
आदरपूर्वक सुन रहे हैं। अब तक मेरा काम इतना ही बना है कि लोग मेरे बारे में
कुछ जान गए हैं एवं चर्चा करते हैं। यहाँ इसी तरह काम शुरू करना होगा। इसमें
काफ़ी समय लगेगा, साथ ही धन की भी आवश्यकता है।
जाड़े का मौसम आ रहा है। मुझे सब प्रकार के गरम कपड़े की आवश्यकता होगी, और
यहाँवालों की अपेक्षा हमें अधिक कपड़े की जरूरत है:... वत्स, साहस अवलंबन करो।
भगवान् की इच्छा है कि भारत में हमसे बड़े-बड़े कार्य संपन्न होंगे। विश्वास
करो, हमीं बड़े-बड़े काम करेंगे। हम गरीब लोग--जिनसे लोग घृणा करते हैं, पर
जिन्होंने मनुष्य का दुःख सचमुच दिल से अनुभव किया है। राजे-रजवाड़ों से
बड़े-बड़े काम बनने की आशा बहुत कम है।
अभी हाल में शिकागो में एक बड़ा तमाशा हुआ। कपूरथला के राजा यहाँ पधारे थे, और
शिकागो समाज के कुछ लोग उन्हें आसमान पर चढ़ा रहे थे। मेले में राजा के साथ
मेरी मुलाकात हुई थी, पर वह तो अमीर आदमी ठहरे मुझ फ़कीर के साथ बातचीत क्यों
करते! उधर एक सनकी सा, धोती पहने हुए महाराष्ट्र ब्राह्मण मेले में कागज पर
नाखून के सहारे बनी हुई तस्वीरें बेच रहा था। उसने अखबारों के संवाददाताओं से
उस राजा के विरुद्ध तरह तरह की बातें कह दी थीं। उसने कहा था कि यह आदमी बड़ी
नीच जाति का है, और ये राजा गुलाम के अलावा और कुछ नहीं है और ये बहुधा
दुराचारी होते हैं, इत्यादि। और यहाँ के सत्यवादी (? ) सम्पादकों ने--जिनके
लिए अमेरिका मशहूर है--इस आदमी की बातों को कुछ गुरुत्व देने के लिए अगले दिन
के अखबारों में स्तम्भ के स्तम्भ रंग डाले, जिनमें उन्होंने भारत से आए हुए एक
ज्ञानी पुरुष का--उनका मतलब मुझसे था--वर्णन किया और मेरी प्रशंसा के पुल
बाँधकर मेरे मुँह से ऐसी ऐसी कल्पित बातें निकलवा डालीं कि जिनको मैंने स्वप्न
में भी कभी नहीं सोचा था; उस महाराष्ट्र ब्राह्मण ने कपूरथला के राजा के संबंध
में जो कुछ कहा था, उन सबको उन्होंने मेरे ही मुख से निकला हुआ रच दिया।
अखबारों ने ऐसी खासी मरम्मत की कि शिकागो समाज ने तुरंत राजा को त्याग दिया।
इन सत्यवादी संपादकों ने मेरे नाम पर एक मेरे देशवासी को धक्का लगाया। इससे यह
भी प्रकट होता है कि इस देश में धन या खिताबों की चमक-दमक की अपेक्षा बुद्धि
की क़दर अधिक है।
कल स्त्री-कारागार की सुपरिंटेंडेंट श्रीमती जान्सन महोदया यहाँ पधारी थीं।
यहाँ 'कारागार' नहीं कहते, वरन् 'सुधार-शाला' कहते हैं। मैंने अमेरिका में जो
जो बातें देखी हैं, उनमें से यह एक बड़ी आश्चर्यजनक वस्तु है। कैदियों से कैसा
सहृदय बर्ताव किया जाता है, कैसे उनका चरित्र सुधर जाता है और वे लौटकर फिर
कैसे समाज के उपयोगी अंग बनते हैं, ये सब बातें इतनी अद्भुत और सुंदर हैं कि
बिना देखे तुम्हें विश्वास न होगा! यह सब देखकर जब मैंने अपने देश की दशा
सोची, तो मेरे प्राण बेचैन हो गए। भारतवर्ष में हम लोग गरीबों और पतितों को
क्या समझा सकते हैं! उनके लिए न कोई अवसर है, न बचने की राह और न उन्नति के
लिए कोई मार्ग ही। भारत के दरिद्रों, पतितों और पापियों का कोई साथी नहीं, कोई
सहायता देने वाला नहीं--वे कितनी ही कोशिश क्यों न करें, उनकी उन्नति का कोई
उपाय नहीं। वे दिन पर दिन डूबते जा रहे हैं। क्रूर समाज उन पर जो लगातार चोटें
कर रहा है, उसका अनुभव तो वे खूब कर रहे हैं, पर वे जानते नहीं कि वे चोटें
कहाँ से आ रही हैं। वे भूल गए हैं कि वे भी मनुष्य हैं। इसका फल है गुलामी।
चिंतनशील लोग पिछले कुछ वर्षों से समाज की यह दुर्दशा समझ रहे हैं, परंतु
दुर्भाग्यवश, वे हिंदू धर्म के मत्थे इसका दोष मढ़ रहे हैं। वे सोचते हैं कि
जगत के इस सर्वश्रेष्ठ धर्म का नाश ही समाज की उन्नति का एकमात्र उपाय है।
सुनो मित्र, प्रभु की कृपा से मुझे इसका रहस्य मालूम हो गया है। दोष धर्म का
नहीं है। इसके विपरीत तुम्हारा धर्म तो तुम्हें यही सिखाता है कि संसार भर के
सभी प्राणी तुम्हारी आत्मा के विविध रूप हैं। समाज की इस हीनावस्था का कारण
है, इस तत्त्व को व्यावहारिक आचरण में लाने का अभाव, सहानुभूति का अभाव हृदय
का अभाव। भगवान् एक बार फिर तुम्हारे बीच बुद्धरूप में आए और तुम्हें गरीबों,
दुःखियों और पापियों के लिए आँसू बहाना और उनसे सहानुभूति करना सिखाया, परंतु
तुमने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। तुम्हारे पुरोहितों ने यह भयानक किस्सा
गढ़ा कि भगवान भ्रांत मत का प्रचार कर असुरों को मोहित करने आए थे। सच है; पर
असुर हैं हमीं लोग, न कि वे, जिन्होंने विश्वास किया। और जिस तरह यहूदी लोग
प्रभु ईसा का निषेध कर आज सारी दुनिया में सबके द्वारा सताये और दुत्कारे जाकर
भीख मांगते हुए फिर रहे हैं, उसी तरह तुम लोग भी, जो भी जाति तुम पर राज्य
करना चाहती है, उसी के गुलाम बन रहे हो। हाय अत्याचारियों! तुम जानते नहीं कि
अत्याचार और गुलामी मानो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। गुलाम और अत्याचारी
पर्यायवाची हैं।
बालाजी और जी० जी० को उस शाम की बात याद होगी, जब पांडिचेरी में एक पंडित से
समुद्र-यात्रा के विषय पर हमारा वाद-विवाद हुआ था। उसके चेहरे की विकट मुद्रा
और उसकी 'कदापि न' (हरगिज़ नहीं), यह बात मुझे सदैव याद रहेगी! वे नहीं जानते
कि भारतवर्ष जगत का एक अत्यंत छोटा हिस्सा है, और सारी दुनिया इन तीस करोड़
मनुष्यों को, जो केंचुओं की तरह भारत की पवित्र धरती पर रग रहे हैं और एक
दूसरे पर अत्याचार करने की कोशिश कर रहे हैं, घृणा की दृष्टि से देख रही है।
समाज की यह दशा दूर करनी होगी--परंतु धर्म का नाश करके नहीं, वरन् हिंदू धर्म
के महान उपदेशों का अनुसरण कर और उसके साथ हिंदू धर्म स्वाभाविक विकसितरूप
बौद्ध धर्म की अपूर्व सहृदयता को युक्त कर।
लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमंत्र से दीक्षित होकर, भगवान् के प्रति
अटल विश्वास से शक्तिमान बनकर और गरीबों, पतितों तथा पददलितों के प्रति
सहानुभूति से सिंह के समान साहसी बनकर इस संपूर्ण भारत देश के एक छोर से दूसरे
छोर तक सर्वत्र उद्धार के संदेश, सेवा के संदेश, सामाजिक उत्थान के संदेश और
समानता के संदेश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे।
पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिंदू धर्म के समान इतने उच्च स्वर से
मानवता के गौरव का उपदेश करता हो, और पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो
हिंदू धर्म के समान गरीबों और नीच जाति वालों का गला ऐसी क्रूरता से घोंटता
हो। प्रभु ने मुझे दिखा दिया है कि इसमें धर्म का कोई दोष नहीं है, वरन् दोष
उनका है, जो ढोंगी और दम्भी हैं, जो 'पारमार्थिक' और 'व्यावहारिक' सिद्धांतों
के रूप में अनेक प्रकार के अत्याचार के अस्त्रों का निर्माण करते हैं।
हताश न होना। याद रखना कि भगवान् गीता में कह रहे हैं, कर्मण्ये वाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन--'तुम्हारा अधिकार कर्म में है, फल में नहीं।' कमर कस लो,
वत्स, प्रभु ने मुझे इसी काम के लिए बुलाया है। जीवन भर मैं अनेक यंत्रणाएँ और
कष्ट उठाता आया हूँ। मैंने प्राणप्रिय आत्मीयों को एक प्रकार से भुखमरी का
शिकार होते हुए देखा है। लोगों ने मेरा मजाक उड़ाया है और अविश्वास किया है,
और ये सब वे ही लोग हैं, जिनसे सहानुभूति करने पर मुझे विपत्तियाँ झेलनी
पड़ीं। वत्स, यह संसार दुःख का आगार तो है, पर यही महापुरुषों के लिए
शिक्षालयस्वरूप है। इस दुःख से ही सहानुभूति, धैर्य और सर्वोपरि उस अदम्य दृढ़
इच्छा-शक्ति का विकास होता है, जिसके बल से मनुष्य सारे जगत के चूर चूर हो
जाने पर भी रत्ती भर नहीं हिलता। मुझे उन लोगों पर तरस आता है। वे दोषी नहीं
हैं। वे बालक हैं, निरे बच्चे हैं--भले ही समाज में वे बड़े गण्यमान्य समझे
जाएँ। उनकी आँखें कुछ गज के अपने छोटे क्षितिज के परे कुछ नहीं देखती और यह
क्षितिज है--उनका नित्यप्रति का कार्य, खान-पान, अर्थोपार्जन और वंशवृद्धि। ये
सब कार्य घड़ी के काँटे पर सधे होते हैं। इसके सिवा उन्हें और कुछ नहीं सूझता।
अहा, कैसे सुखी हैं ये बेचारे! उनकी नींद किसी तरह टूटती ही नहीं! सदियों के
अत्याचार के फलस्वरूप जो पीड़ा, दुःख, हीनता, दारिद्य की आह भारत-गगन में गूंज
रही है, उनसे उनके सुखकर जीवन को कोई जबरदस्त आघात नहीं लगता। युगों के जिस
मानसिक, नैतिक और शारीरिक अत्याचार ने ईश्वर के प्रतिमारूपी मनुष्य को भारवाही
पशु, भगवती की प्रतिमारूपिणी रमणी को संतान पैदा करनेवाली दासी, और जीवन को
अभिशाप बना दिया है, उसकी वे कल्पना भी नहीं कर पाते। परंतु ऐसे भी अनेक
मनुष्य हैं, जो देखते हैं, अनुभव करते हैं, और दिलों में खून के आँसू बहाते
हैं--जो सोचते हैं कि इनका इलाज है, और किसी भी कीमत पर, यहाँ तक कि अपने
प्राणों की बाजी लगाकर भी इन्हें हटाने को तैयार हैं। और 'ये ही हैं वे लोग,
जिनसे स्वर्ग-राज्य बना है।' अतएव मित्रो, क्या यह स्वाभाविक नहीं है कि उच्च
स्थान में अवस्थित इन महापुरुषों को उन जघन्य कीड़ों की बकवास सुनने की फुरसत
नहीं, जो प्रतिक्षण अपना क्षुद्र विष उगलने के लिए तैयार रहते हैं?
तथोक्त धनिकों पर भरोसा न करो, वे जीवित की अपेक्षा मत ही अधिक हैं। आशा तुम
लोगों से है--जो विनीत, निरभिमानी और विश्वासपरायण हैं। ईश्वर के प्रति आस्था
रखो। किसी चालबाजी की आवश्यकता नहीं; उससे कुछ नहीं होता। दुःखियों का दर्द
समझो और ईश्वर से सहायता की प्रार्थना करो--वह अवश्य मिलेगी। मैं बारह वर्ष तक
हृदय पर यह बोझ लादे और सर में यह विचार लिए बहुत से तथाकथित धनिकों और अमीरों
के दर दर घूमा। हृदय का रक्त बहाते हुए मैं आधी पृथ्वी का चक्कर लगाकर इस
अजनबी देश में सहायता मांगने आया। परंतु भगवान् अनंत शक्तिमान है--मैं जानता
हूँ, वह मेरी सहायता करेगा। मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ,
परंतु, युवको! मैं गरीबों, मूों और उत्पीड़ितों के लिए इस सहानुभूति और
प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ। जाओ, इसी क्षण जाओ
उस पार्थसारथी (भगवान् कृष्ण) के मंदिर में, जो गोकुल के दीन-हीन ग्वालों के
सखा थे, जो गुहक चांडाल को भी गले लगाने में नहीं हिचके, जिन्होंने अपने
बुद्धावतार-काल में अमीरों का निमंत्रण अस्वीकार कर एक वारांगना के भोजन का
निमंत्रण स्वीकार किया और उसे उबारा; जाओ उनके पास, जाकर साष्टांग प्रणाम करो
और उनके सम्मुख एक महाबलि दो, अपने समस्त जीवन की बलि दो-उन दीन हीनों और
उत्पीड़ितों के लिए, जिनके लिए भगवान् युग युग में अवतार लिया करते हैं, और
जिन्हें वे सबसे अधिक प्यार करते हैं। और तब प्रतिज्ञा करो कि अपना सारा जीवन
इन तीस करोड़ लोगों के उद्धार-कार्य में लगा दोगे, जो दिनोंदिन अवनति के गर्त
में गिरते जा रहे हैं।
यह एक दिन का काम नहीं, और रास्ता भी अत्यंत भयंकर कंटकों से आकीर्ण है। परंतु
पार्थ सारथी हमारे भी सारथी होने के लिए तैयार हैं--हम यह जानते हैं। उनका नाम
लेकर और उन पर अनंत विश्वास रखकर भारत के युगों से संचित पर्वतकाय अनंत
दुःखराशि में आग लगा दो--वह जलकर राख हो ही जाएगी। तो आओ भाइयो, साहसपूर्वक
इसका सामना करो। कार्य गुरुतर है और हम लोग साधनहीन हैं। तो भी हम अमृतपुत्र
और ईश्वर की संतान हैं। प्रभु की जय हो, हम अवश्य सफल होंगे। इस संग्राम में
सैकड़ों खेत रहेंगे, पर सैकड़ों पुनः उनकी जगह खड़े हो जाएंगे। संभव है कि मैं
यहाँ विफल होकर मर जाऊँ, पर कोई और यह काम जारी रखेगा। तुम लोगों ने रोग जान
लिया और दवा भी, अब बस, विश्वास रखो। तथाकथित धनी या अमीर लोगों का रुख मत
जोहो--हृदयहीन, कोरे बुद्धिवादी लेखकों और समाचारपत्रों में प्रकाशित उनके
निस्तेज लेखों की भी परवाह मत करो। विश्वास, सहानुभूति-दृढ़ विश्वास और ज्वलंत
सहानुभूति चाहिए! जीवन तुच्छ है, मरण भी तुच्छ है, भूख तुच्छ है और जाड़ा भी
तुच्छ है। जय हो प्रभु की! आगे कूच करो--प्रभु ही हमारे सेनानायक हैं। पीछे मत
देखो। कौन गिरा, पीछे मत देखो-आगे बढ़ो, बढ़ते चलो! भाइयो, इसी तरह हम आगे
बढ़ते जाएंगे,--एक गिरेगा, तो दूसरा वहाँ डट जाएगा।
इस गाँव से मैं कल बोस्टन जा रहा हूँ। वहाँ एक बड़े महिला-क्लब में मुझे
व्याख्यान देना है। यह क्लब रमाबाई (ईसाई) को मदद दे रहा है। बोस्टन में जाकर
मुझे पहले कुछ कपड़े खरीदने हैं। अगर यहाँ मुझे अधिक दिन रहना है, तो मेरी इस
अनोखी पोशाक से काम नहीं चलेगा। रास्ते में मुझे देखने के लिए खासी भीड़ लग
जाती है। इसलिए मैं काले रंग का एक लम्बा कोट पहनना चाहता हूँ, सिर्फ
व्याख्यान देने के समय के लिए एक गेरुआ पहनावा और पगड़ी रखना चाहता हूँ। क्या
करूँ? यहाँ की महिलाएँ यही उपदेश देती हैं। यहाँ इन्हीं की प्रभुता है, बिना
इनकी सहानुभूति के काम नहीं चलेगा। यह पत्र तुम्हारे पास पहुँचने से पूर्व ही
मेरे पास सिर्फ ६०-७० पाउंड बच रहेंगे। इसलिए कुछ रुपया भेजने की भरसक कोशिश
करना। अगर यहाँ कुछ प्रभाव डालना है, तो यहाँ कुछ दिन ठहरना आवश्यक है। मैं
भट्टाचार्य महाशय के लिए फोनोग्राफ न देख सका, क्योंकि मुझे उनका पत्र यहाँ
आने पर मिला। यदि फिर शिकागो जाऊँ, तो उसके लिए कोशिश करूँगा। फिर शिकागो
जाऊँगा या नहीं, मुझे मालम नहीं। मेरे वहाँ के मित्रों ने मुझे भारत का
प्रतिनिधि बनने के लिए पत्र लिखा है, और वरदा राव ने जिस महाशय से मेरा परिचय
करा दिया था, वे यहाँ के मेले के एक संचालक हैं। परंतु इस समय मैंने इससे
इंकार कर दिया, क्योंकि शिकागो में महीने भर से अधिक रहने से मेरी थोड़ी सी
पूंजी खत्म हो जाती।
कनाडा को छोड़ अमेरिका में कहीं रेलगाड़ियों में अलग अलग दर्जे नहीं हैं, अतः
मुझे पहले दर्जे में सैर करनी पड़ी, क्योंकि इसके सिवा दूसरा कोई दर्जा ही
नहीं; परंतु मैं 'पुलमैन' नामक अत्युत्तम गाड़ियों में चढ़ने का साहस नहीं
करता। इनमें आराम खूब है--खान-पान, नींद यहाँ तक कि स्नान का भी प्रबंध रहता
है--मानो तुम किसी होटल में हो, पर इनमें खर्च बेहद है।
यहाँ समाज के भीतर घुसकर लोगों को अपना विचार सुनाना बड़ा कठिन काम है। आजकल
कोई भी शहर में नहीं है। सभी गर्मी के कारण ठंडे स्थानों में चले गए हैं।
जाड़े में फिर सब शहर में लौट आएंगे। इसलिए मुझे यहाँ कुछ दिन प्रतीक्षा करनी
पड़ेगी। इतने प्रयत्न के बाद मैं इतनी जल्दी इस कार्य को छोड़ना नहीं चाहता।
तुम लोग, जितना हो सके, मेरी मदद करो, और यदि तुम मदद न भी कर सको, तो मैं ही
आखिर तक कोशिश कर देखूगा। और यदि मैं यहाँ रोग, जाड़े अथवा भूख से मर भी जाऊँ,
तो तुम लोग इस कार्य को अपने हाथों में ले लेना। पवित्रता, सच्चाई और विश्वास
चाहिए। मैं जहाँ भी रहूँ, मेरे नाम पर जो कोई पत्र या रुपएआएँ, उनको मेरे पास
भेजने के लिए मैंने कूक कम्पनी से कह दिया है। 'रोम एक ही दिन में तो बना
नहीं।' यदि तुम रुपए भेजकर मुझे कम से कम छ: महीने यहाँ रख सको, तो आशा है कि
सब ठीक हो जाएगा। इस बीच जिस किसी सहायता से मेरा जीवन-निर्वाह हो सके, उसे
ढूंढ़ निकालने के लिए भरसक सचेष्ट हूँ। यदि मैं अपने निर्वाह के लिए कोई उपाय
ढूंढ़ सका, तो तुम्हें तुरंत तार दूँगा।
पहले मैं अमेरिका में प्रयत्न करूँगा; यहाँ विफल होने पर इंग्लैंड में। यदि
वहाँ भी सफल न हुआ, तो भारत लौट आऊँगा तथा ईश्वर के दूसरे आदेश की प्रतीक्षा
करूँगा।
रामदास के पिता इंग्लैंड गए हैं। वे घर लौटने के लिए आकुल हैं। वे दिल के बड़े
अच्छे हैं--केवल बाहरी बर्ताव में बनिये का सा रूखापन है। चिट्ठी पहुँचने में
बीस दिन से ज्यादा लगेंगे। न्यू इंग्लैंड में अभी से इतना शीत है कि हर रोज़
शाम-सबेरे आग जलानी पड़ती है। कनाडा में ठंड और भी अधिक पड़ती है। वहाँ पर ऐसे
मामूली ऊँचे पहाड़ों पर भी मैंने बर्फ गिरते देखी, जैसी कि और कहीं मेरे देखने
में नहीं आई।
इस सोमवार को मैं फिर सालेम में एक बड़ी महिला-सभा में व्याख्यान देने
जानेवाला हूँ। उससे और भी अनेक सभा-समितियों से मेरा परिचय हो जाएगा। इस तरह
मैं धीरे- धीरे अपना मार्ग प्रशस्त कर सकूँगा परंतु ऐसा करने के लिए इस अत्यंत
महँगे देश में बहुत दिन ठहरना पड़ेगा। भारतीय सिक्के का विनिमय-मूल्य चढ़ जाने
से यहाँ के लोगों के मन में बड़ी आशंका हो गई है। बहुत से कारखाने भी बंद हो
गए हैं इसलिए तत्काल यहाँ से सहायता पाने की आशा करना व्यर्थ है। मुझे और कुछ
समय प्रतीक्षा करनी होगी।
अभी-अभी मैं दर्जी के पास गया था। जाड़े के कपड़ों के लिए आर्डर दे आया। उसमें
३००) या इससे भी अधिक खर्च लगेगा। फिर भी ये बहुत अच्छे कपड़े न होंगे, कुछ
भले लगेंगे, बस, यहाँ की महिलाएँ पुरुषों की पोशाक के बारे में बहुत ही बारीक
नजर रखती हैं और इस देश में उनकी प्रभुता है। पादरी लोग इनसे खूब रुपया निकाल
लेते हैं। हर वर्ष ये लोग रमाबाई की खूब सहायता करती हैं। यदि तुम लोग मुझे
यहाँ रखने के लिए रुपया न भेज सको, तो इस देश से लौट आने के लिए ही कुछ रुपया
भेज दो। यदि इस बीच मेरे अनुकूल शुभ खबर होगी, तो मैं लिखूगा या तार से सूचित
करूँगा। समुद्री तार भेजने में प्रति शब्द चार रुपए लगते हैं।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(प्रोफ़ेसर जॉन हेनरी राइट को लिखित)
सालेम,
३० अगस्त, १८९३
प्रिय अध्यापक जी,
आज मैं यहाँ से चला जाऊँगा। आशा करता हूँ कि आपको शिकागो से कोई उत्तर मिला
होगा। श्री सैनबोर्न का आमंत्रण मुझे सभी निर्देशनों सहित मिल गया। इसलिए मैं
सोमवार को सैराटोगा जाऊँगा। आपकी पत्नी के लिए शुभकामनाएँ तथा आस्टिन एवं अन्य
सभी बच्चों को प्यार। वास्तव में आप एक महात्मा हैं और श्रीमती राइट तो
अद्वितीय हैं।
सस्नेह आपका,
विवेकानन्द
(प्रोफ़ेसर जॉन हेनरी राइट को लिखित)
शनिवार, सालेम,
४ सितंबर, १८९३
प्रिय अध्यापक जी,
आपने मुझे जो परिचय-पत्र दिए, मैं उसके लिए आपका हृदय से आभारी हूँ। मुझे
शिकागो के श्री थेलेस महोदय का पत्र मिला, जिसमें प्रतिनिधियों के नाम एवं
कांग्रेस के संबंध में अन्य बातें थीं।
आपके संस्कृत के प्राध्यापक ने कुमारी सैनबोर्न को लिखते समय भूल से मुझे
पुरुषोत्तम जोशी समझ लिया है, लेकिन उन्होंने बतलाया है कि बोस्टन में संस्कृत
का एक ऐसा पुस्तकालय है, जैसा कि भारत में भी दुर्लभ होगा। मुझे उसको देखने की
इच्छा है।
श्री सैनबोर्न ने मुझे सोमवार को सैराटोगा आने को लिखा है और मैं उसी के
अनुसार चला जाऊँगा। वहाँ एक सेनिटोरियम है, जहाँ खाने एवं रहने का प्रबंध है।
इस बीच अगर कोई समाचार प्राप्त हो, तो मुझे सेनेटोरियम, सैराटोगा ही भेजने की
कृपा कीजिएगा।
आप और आपकी सुंदर पत्नी एवं प्यारे बच्चों का अमिट प्रभाव मेरे मन पर छा गया
है और आप लोगों के साथ रहने पर मुझे लगता है कि मैं स्वर्ग के निकट हूँ।
सर्वप्रदाता ईश्वर आपके शीष पर श्रेयस्कर आशीर्वादों की वृष्टि करे।
कविता
[19]
के प्रयास में मैं कुछ पंक्तियाँ लिख रहा हूँ। आशा है, आपका प्रेम मेरे इस
अपराध को क्षमा करेगा।
आपका अभिन्न मित्र,
विवेकानन्द
(प्रोफ़ेसर जॉन हेनरी राइट को लिखित)
शिकागो,
२ अक्तूबर, १८९३
प्रिय अध्यापक जी,
पता नहीं, मेरी इस लंबी चुप्पी के बारे में आपने क्या सोचा होगा! पहली बात तो
यह है कि मैं अंतिम समय में कांग्रेस में पहुँचा, जब वह आरंभ होने ही जा रही
थी, और वह भी बिना किसी तैयारी के! इसी कारण मैं कुछ समय के लिए तो बहुत
व्यस्त रहा । दूसरी बात कि मुझे कांग्रेस में करीब करीब प्रतिदिन भाषण देना
पड़ता था और पत्र लिखने का समय ही नहीं मिल पाता था । और अंतिम तथा सबसे
प्रधान बात, मेरे मित्र, यह थी कि मैं आपका इतना ऋणी हूँ कि जल्दबाजी में आपको
व्यावसायिक पत्र जैसा कुछ लिखना आपकी अहैतुकी मैत्री का अपमान होता। कांग्रेस
अब समाप्त हो गई है।
प्यारे भाई! विश्व के बड़े-बड़े विचारकों और वक्ताओं की उस बड़ी सभा के सम्मुख
मुझे पहले तो खड़े होने और बोलने में ही बड़ा डर लग रहा था। लेकिन ईश्वर ने
मुझे शक्ति दी और मैंने प्रतिदिन साहस (?) से मंच और श्रोताओं का सामना किया।
अगर सफल हुआ हूँ, तो उन्हींकी शक्ति से; और यदि मैं बुरी तरह असफल भी हुआ-इसका
ज्ञान मुझे पहले से ही था-घोर अज्ञानी तो मैं था ही।
आपके मित्र प्रो० ब्रैडले तो मेरे प्रति बड़े कृपालु रहे और उन्होंने मुझे
हमेशा प्रोत्साहित किया। लेकिन आह! सभी लोग मुझ जैसे निरे नगण्य के प्रति इतने
कृपाल हैं, जो वर्णनातीत है। लेकिन श्रेय तो उस परम पिता को है, जिसकी दृष्टि
में भारत का इस अकिंचन और अज्ञानी संन्यासी तथा इस महादेश के परम विद्वान्
धर्माचार्यों में कोई अंतर नहीं है। और भाई, प्रभु किस प्रकार प्रतिदिन मेरी
मदद कर रहा है--कभी कभी तो मैं चाहता हूँ कि मुझे लाखों वर्षों की जिन्दगी मिल
जाती और मलिन वस्त्रों में लिपटा, भिक्षा पर निर्वाह करता हुआ उनकी सेवा कर्म
के द्वारा करता रहता।
अरे, मैं कितना चाहता था कि काश, आप यहाँ होते और भारत के कुछ मधुर व्यक्तियों
को देखते। वक्ता मजूमदार और सुकुमार हृदय, बौद्ध भिक्षु धम्मपाल जैसे सौम्य
व्यक्तियों को देखकर आपको यही अनुभव होता कि उस सुदूर और गरीब भारत में भी कुछ
हृदय हैं, जो इस महान और शक्तिशाली देश में जन्मे आप जैसे हृदय के स्वरों में
स्पंदित हैं।
आपकी पुण्यशीला पत्नी के प्रति मेरा शाश्वत अभिवादन एवं बच्चों को मेरा प्यार
और शुभकामनाएँ!
कर्नल हिगिन्सन ने मुझे बताया कि आपकी लड़की ने मेरे बारे में उनकी लड़की को
लिखा था। वे बड़े उदार विचारों के व्यक्ति हैं और मेरे प्रति कृपाशील भी! कल
मैं एवॉन्स्टन जाऊँगा और प्रो० ब्रैडले से वहाँ मिलूँगा।
ईश्वर हम सभी को पवित्र और शुद्ध बनाए, ताकि इस पार्थिव शरीर के त्यागने के
पूर्व हम सभी पूर्ण आध्यात्मिक जीवन बिता सकें।
विवेकानन्द
(निम्नांश एक अलग काग़ज़ पर लिखा गया था।)
यहाँ मैं अपने जीवन से समझौता कर रहा हूँ। मैं जीवन भर हर परिस्थिति को प्रभु
से आती हुई मानकर शांतिपूर्ण ढंग से अंगीकार करता तथा तदनुसार अपने को
समायोजित कर लेता रहा हूँ। मैंने अमेरिका में जल के बाहर मछली की तरह अनुभव
किया। मुझे भय था कि शायद मुझे कहीं परमात्मा द्वारा परिचालित चिर अभ्यस्त
मार्ग छोड़ अपनी चिंता का भार स्वयं न लेना पड़े लेकिन यह कितना बीभत्स और
कृतघ्नतापूर्ण विचार था! अब मैं समझ रहा हूँ कि जिस ईश्वर ने मुझे हिमालय के
हिमशिखरों पर और भारत की जलती भूमि पर पथ दिखलाया था, वही मुझे यहाँ भी सहायता
कर रहा है। उस परम पिता की जय हो! अतः मैं अब चुपचाप अपने पुराने रास्ते पर
फिर चल रहा हूँ। कोई मुझे भोजन और आश्रय देता है। कोई मुझे उसके बारे में
बोलने को कहता है और मैं जानता हूँ कि वे उसीके भेजे हैं, और आज्ञा पालन करना
मेरा काम है। और मेरी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति वही करते हैं। उसकी इच्छा
पूर्ण हो!
'जो मुझ पर आश्रित है और अपने सारे अभिमान और संघर्ष का परित्याग करता है, मैं
उसकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करता हूँ।'
[20]
ऐसा ही एशिया में है। ऐसा ही यूरोप में, ऐसा ही अमेरिका में और ऐसा ही भारत की
मरुभूमि में भी। ऐसा ही अमेरिका के व्यापार के कोलाहल में भी क्योंकि क्या वह
यहाँ भी नहीं है? और यदि यह न करे, तो मैं यही समझूँगा कि वह चाहता है कि मैं
मिट्टी की इस तीन मिनट की काया को अलग रख दूँ--और मैं उसे सहर्ष त्याग दूँगा।
भाई, पता नहीं, हम लोग मिल सकेंगे या नहीं। वही जानता है। आप महान विद्वान् और
श्रेष्ठ हैं। मैं आपको या आपकी पत्नी को कुछ भी उपदेश देने का दुस्साहस नहीं
करूँगा। पर आपके बच्चों के लिए मैं वेद के कुछ उद्धरण प्रस्तुत करता हूँ।
'चारों वेद, विज्ञान, भाषा, दर्शन एवं सभी विद्याएँ मात्र आभूषणात्मक हैं।
सच्ची विद्या एवं सत्य ज्ञान तो वह है, जो हमें उसके समीप ले जाता है, जिसका
प्रेम नित्य है।'
वह कितना सत्य, कितना स्पृश्य एवं प्रत्यक्ष है, जिसके द्वारा हमारी त्वचा को
स्पर्श का ज्ञान होता है, आँखें देखती हैं और संसार को उसकी वास्तविकता
प्राप्त होती है।'
'उसको सुनने के पश्चात् कुछ भी सुनना शेष नहीं रहता। उसके दर्शन के बाद कुछ भी
देखना बाकी नहीं बचता। उसकी प्राप्ति के पश्चात् किसी चीज की प्राप्ति शेष
नहीं रहती।'
'वह हमारे चक्षुओं का चक्षु है, कानों का कान है, आत्माओं की आत्मा है।'
मेरे प्यारे बच्चे, तुम्हारे पिता और माता से भी अधिक निकट वह है। तुम पुष्पों
की भाँति निर्दोष और पवित्र हो! तुम ऐसे ही रहो और किसी दिन वह स्वयं प्रकट
होगा। प्रिय आस्टिन, जब तुम खेल रहे होगे, तो तुम्हारे साथ एक दूसरा साथी भी
खेलता होगा, जो तुमको किसी भी व्यक्ति से भी अधिक प्यार करता है। और ओह! वह
आमोद से परिपूर्ण है। वह सदा खेलता रहता है--कभी बहुत बड़े गेंदों से, जिन्हें
हम पृथ्वी और सूर्य कहते हैं और कभी तुम्हारी ही तरह छोटे बच्चे के रूप में
तुम्हारे साथ हँसता और खेलता है।
उसको देखना और उसी के साथ खेलना कितनी विचित्र बात है! जरा सोचो तो इसे।
अध्यापक जी, अब मैं घूम रहा हूँ। केवल शिकागो जब जब आता हूँ, मैं श्री ल्योन्स
और श्रीमती ल्योन्स से बराबर मिलता हूँ। ये दोनों बहुत संभ्रांत दंपति हैं। आप
श्री जॉन बी० ल्योन्स, २६२, मिशिगन एवेन्यू, शिकागो, के मार्फत ही मुझे पत्र
देने की कृपा करेंगे।
'जो अनेकत्व के इस जगत में उस एक को प्राप्त कर लेता है--जो चंचल छायाओं के इस
संसार में अगर कोई अचल सत्ता पा लेता है--मृत्यु के इस संसार में जो जीवन
प्राप्त कर लेता है--मात्र वही यातना और कष्ट के इस सागर को पार करता है। उसके
अतिरिक्त अन्य कोई नहीं।' (वेद)
"वेदांतियों का जो ब्रह्म है, द्वैतवादियों का जो ईश्वर है, सांख्य में जो
पुरुष है, मीमांसाशास्त्र का जो 'कारण' है, बौद्धों का जो धर्म है, नास्तिकों
का जो 'शून्य' है और प्रेमियों के लिए जो असीम प्रेम है, वही हम सबों को अपनी
दयापूर्ण छत्रछाया में रक्षा करे।" यह उद्धरण द्वैतवादी नैयायिक महान दार्शनिक
उदयनाचार्य ने अपने अद्भुत ग्रंथ 'कुसुमांजलि' के मंगलाचरण का है। उस पुस्तक
में उन्होंने श्रुति का आश्रय लिए बिना एक सगुण स्रष्टा और अमित प्रेम युक्त
नैतिक शासक के अस्तित्व की स्थापना का प्रयास किया है।
आपका चिर कृतज्ञ मित्र,
विवेकानन्द
[1]
स्वामी विवेकानन्द जी का पूर्वाश्रम का नाम श्री नरेन्द्रनाथ दत्त था।
[2]
स्वामी विवेकानन्द के गुरुभाई, स्वामी अखण्डानन्द।
[3]
हुगली जिले में स्वामी प्रेमानन्द की जन्मभूमि।
[4]
'यह पूर्व जन्मों में हृदय को गहराइयों से होकर सुदृढ़ रूप से स्थापित
स्नेह संबंधों की अस्फुट स्मृतियों का फल है।--कालिदासकृत शाकुन्तल,
अंक ५।
[5]
'जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठावाले समुद्र में नाना नदियों के
जल उसको चलायमान न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही जिस
स्थिर-बुद्धि में संपूर्ण विषय किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना
ही समा जाते हैं, वही परम शांति को प्राप्त होता है, न कि विषयों के
पीछे दौड़नेवाला।' --गीता ॥२।७०॥
[6]
इस सूत्र के अनुसार सृष्टि, स्थिति और प्रलय, इन तीनों कर्मों का
कर्ता केवल ईश्वर है। जो जीवमुक्त हो जाते हैं, उनको यह सामर्थ्य नहीं
प्राप्त है, लेकिन, अतिरिक्त सभी देवी शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
स०
[7]
सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥गीता ॥१०॥२६॥
वेदांतसूत्र-भाष्य, २।१।१ में शंकर ने वैदिक कपिल और सांख्यकार कपिल
के एक होने में संदेह प्रकट किया है। स०
[8]
मधुपर्क एक वैदिक विधि थी, जिसके अनुसार किसी अतिथि के सत्कारार्थ
उसके सम्मुख बहुत से सुस्वादु भोज्य पदार्थ, जिनमें गोमांस भी था, रखे
जाते थे। जिस वाक्य का स्वामी जी ने उल्लेख किया है, वह अंशतः ऐसे
भोजन का निषेध करता है, क्योंकि पूरे वाक्य का अर्थ यह है कि कलियुग
में पाँच कर्म निषिद्ध हैं--१. अश्वमेध, २. गोवध, ३. श्राद्ध में
मांस-पिण्डदान, ४. संन्यास-ग्रहण और ५. पति के अभाव में देवर के
द्वारा पुत्रोत्पादन करना।
अश्वमेध गवालम्भं संन्यासं पलपैतृकम्।
देवरेण सुतोत्पत्ति कलौ पंचविवर्जयेत् ॥
[9]
भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे॥ मुंडकोपनिषद् ॥२॥२८॥
[10]
इनके मतानुसार इन्द्रियजन्य-ज्ञान-निरपेक्ष स्वतःसिद्ध और भी एक
प्रकार का ज्ञान है। स०
[11]
गाजीपुर के विख्यात योगी पवहारी बाबा।
[12]
विवेकचूडामणि ॥५३८-४०॥
[14]
"Seek ye first the Kingdom of God and all good things will be added
unto you.'
[15]
"Not he that crieth 'Lord' 'Lord', but he that doeth the will of
the Father."
[16]
'Thy will be done on earth as it is in heaven, for Thine is the
glory and the kingdom for ever and ever'.
[17]
इन दिनों स्वामी विवेकानन्द अपने को सच्चिदानन्द नाम से पुकारते थें।
[18]
'The Lord gave and the Lord hath taken away; blessed be the name of
the Lord'.
[19]
यह कविता वशम खंड में 'अन्वेषण' नाम से प्रकाशित हुई है। स०
[20]
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ गीता ॥९।२२॥