(श्रीमती टेनाट ऊड्स को लिखित )
शिकागो,
१० अक्टूबर, १८९३
प्रिय श्रीमती टेनाट ऊड्स,
आपका पत्र मुझे कल प्राप्त हुआ। अभी मैं शिकागो में भाषण दे रहा हूँ और मेरा विचार है, भाषण अच्छे चल रहे हैं। मुझे एक भाषण के तीस से अस्सी डालर तक मिल जाते हैं। और यहाँ की धर्म-महासभा ने शिकागो में मुफ्त ही मेरा इतना अधिक विज्ञापन कर दिया है कि तत्काल इस क्षेत्र को छोड़ देना ठीक नहीं होगा। मेरा विश्वास है आप भी इससे सहमत होंगी। जो भी हो, शीघ्र ही मेरी बोस्टन आने की संभावना है, लेकिन कब, यह नहीं कह सकता। कल मैं स्ट्रेटर से लौटा, वहाँ मुझे एक व्याख्यान के ८७ डालर प्राप्त हुए। इस सप्ताह में तो मैं बिल्कुल व्यस्त ही हूँ। शायद सप्ताह के अंत तक और भी कार्य मिल जाए। श्री ऊड्स को मेरा स्नेह तथा हमारे सभी मित्रों को शुभ कामनाएँ-
आपका,
विवेकानन्द
(प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट को लिखित)
द्वारा जे. लायन्,
२६२, मिशिगन एवेन्यू, शिकागो,
२६ अक्टूबर, १८९३
प्रिय अध्यापक जी,
आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि मैं यहाँ सुकुशल हूँ और कुछ घोर पुराणपंथियों के अतिरिक्त सभी लोग मेरे प्रति अतिशय कृपालु हैं। दूर देशों से यहाँ आकर बसे लोगों की अपनी योजनाएँ, विचार एवं जीवन-व्रत हैं, जिन्हें वे पूरा करना चाहते हैं; और यह अमेरिका ही एक ऐसी जगह है जहाँ हर चीज की सफलता की संभावना है। किंतु मैंने इसी को उचित समझ कर अपनी योजना पर भाषण देना एकदम समाप्त कर दिया है, क्योंकि मुझे दृढ़ विश्वास हो गया हैं कि यह विधर्मी अपनी योजना से अधिक आकर्षक प्रतिपन्न हो रहा है। अतएव, मैं अपनी योजना को पृष्ठभूमि में ही रखकर, अन्य सभी वक्ताओं के सदृश काम करते हुए, अपनी योजना के निमित्त अध्यवसायपूर्वक कार्य करना चाहता हूँ।
जो मुझे यहाँ लाया हैं, और जिसने अब तक मेरा साथ नहीं छोड़ा है, जब तक मैं यहाँ रहूँगा, तब तक वह मेरा साथ कभी नहीं छोड़ेगा। आप यह जानकर खुश ही होंगे कि मैं अपने कार्य में बहुत सफलता प्राप्त कर रहा हूँ और जहाँ तक धन की बात है, तो उसमें और अधिक सफल होने की आशा है। यद्यपि इस ढंग के व्यवसाय मे मैं एकदम अनुभवहीन हूँ, फिर भी शीघ्र ही सीख जाऊँगा। शिकागो में तो मैं बहुत लोकप्रिय हूँ। इसलिए मैं और कुछ दिन ठहरना और धन-संग्रह करना चाहता हूँ।
कल मैं महिलाओं के पाक्षिक क्लब में बौद्ध धर्म पर भाषण दूँगा। शहर में यह सर्वाधिक प्रभावशाली क्लब है। मेरे मित्र, किस प्रकार मैं आपकों धन्यवाद दूँ या उस परम पिता को, जिन्होंने मुझे आप तक पहुँचाया, क्योंकि मेरे विचार से योजना का साफल्य संभव है, और आप ही ने, उसे संभव किया है।
विश्व में आपकी प्रगति का हर पग आनंद एवं मंगल से स्नात हो! आपके बच्चों के लिए मेरा प्यार एवं आशीर्वाद !
आपका चिरस्नेही
विवेकानन्द
(श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
शिकागो,
२ नवंबर, १८९३
प्रिय आलासिंगा,
कल तुम्हारा पत्र मिला। मुझे खेद है कि मेरी एक क्षणिक कमजोरी के कारण तुम्हें इतना कष्ट हुआ। उस समय मैं खर्चें से तंग था। उसके बाद प्रभु की प्रेरणा से मुझे बहुत से मित्र मिल गये। बोस्टन के निकट एक गाँव में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के यूनानी भाषा के प्रोफेसर डॉ. राइट से मेरी जान-पहचान हो गयी। उन्होंने मेरे प्रति बहुत सहानुभूति दिखायी और इस बात पर जोर दिया कि मैं धर्म-महासभा में अवश्य जाऊँ, क्योंकि उनके विचार से उसके द्वारा मेरा परिचय संपूर्ण अमेरिका से हो जाएगा। चूँकि वहाँ किसी से मेरी जान-पहचान न थी इसलिए प्रोफेसर साहब ने मेरे लिए सब बंदोबस्त करने का भार अपने ऊपर लिया और उसके बाद मैं फिर शिकागो आ गया। यहाँ धर्म-महासभा में आये हुए पूर्वी और पश्चिमी देशों के प्रतिनिधियों के साथ एक सज्जन के मकान में मेरे ठहरने की व्यवस्था हो गयी है।
महासभा के उद्घाटन के दिन सुबह हम लोग 'आर्ट पैलेस' नामक एक भवन में एकत्र हुए, जहाँ एक बड़ा और कुछ छोटे-छोटे हॉल सभा के अधिवेशनों के लिए अस्थायी रूप से निर्मित किए गए थे। सभी राष्ट्रों के लोग वहाँ थे। भारत से बाह्य समाज के प्रतापचंद्र मजूमदार थे, बंबई से नगरकर, जैन धर्म के प्रतिनिधि वीरचंद्र गांधी थे, थियोसॉफी के प्रतिनिधि श्रीमती एनी बेसेंट तथा चक्रवर्ती थे। इन सबमें मजूमदार मेंरे पुराने मित्र थे और चक्रवर्ती मेरे नाम से परिचित थे। शानदार जुलूस के बाद हम सब लोग मंच पर बैठाये गये। कल्पना करो, नीचे एक बड़ा हॉल और ऊपर एक बहुत बड़ी गैलरी, दोनों में छ: सात हजार स्त्री-पुरुष जो इस देश की सर्वोत्कृष्ट संस्कृति के प्रतिनिधि हैं, खचाखच भरे हैं तथा मंच पर संसार की सभी जातियों के बड़े-बड़े विद्वान् एकत्र हैं और मुझे, जिसने अब तक कभी किसी सार्वजनिक सभा में भाषण नहीं दिया, इस विराट जनसमुदाय के समक्ष भाषण देना होगा!! उसका उद्घाटन बड़े समारोह से संगीत और भाषणों द्वारा हुआ। तदुपरांत आये हुए प्रतिनिधियों का एक एक करके परिचय दिया गया और वे सामने आकर अपना भाषण देने लगे। नि:संदेह मेरा हृदय धड़क रहा था और ज़बान प्राय: सूख गयी थी। मैं इतना घबड़ाया हुआ था कि सबेरे बोलने की हिम्मत न हुई। मजूमदार की वक्तृता सुंदर रही। चक्रवर्ती की तो उससे भी सुंदर। दोनों के भाषणों के समय खूब करतल-ध्वनि हुई। वे सब अपने अपने भाषण तैयार करके आये थे। मैं अबोध था और बिना किसी प्रकार की तैयारी के था। किंतु मैं देवी सरस्वती को प्रमाण करके सामने आया और डॉ. बरोज ने मेरा परिचय दिया। मैंने एक छोटा सा भाषण दिया। मैंने इस प्रकार संबोधन किया, ''अमेरिका निवासी बहनों और भाइयों !'' इसके बाद ही दो मिनट तक ऐसी घोर करतल-ध्वनि हुई कि कान में अँगुली देते ही बनी। फि़र मैंने आरंभ किया। और जब अपना भाषण समाप्त कर बैठा, तो भावावेग से मानों मैं अवश हो गया था। दूसरे दिन सब समाचार-पत्रों में छपा कि मेरी ही वक्तृता उस दिन सबसे अधिक सफल थी। पूरा अमेरिका मुझे जान गया। महान टीकाकार श्रीधर ने ठीक ही कहा है, मूकं करोति वाचालं, अर्थात जिसकी कृपा मूक को भी धाराप्रवाह वक्ता बना देती है, वह प्रभु धन्य है। उस दिन से मैं विख्यात हो गया और जिस दिन मैंने हिंदू धर्म पर अपनी वक्तृता पढ़ी, उस दिन तो हॉल में इतनी अधिक भीड़ थी, जितनी पहले कभी न थी। एक समाचारपत्र का कुछ अंश उद्धृत करता हूँ-- 'केवल महिलाएँ ही महिलाएँ, कोने-कोने में, जहाँ देखों, वहाँ ठसाठस भरी हुई दिखायी देती थीं। अन्य सब वक्तृताओं के समाप्त होते तक वे किसी प्रकार धैर्य धारण कर विवेकानन्द की वक्तृता की बाट जोहती रहीं', इत्यादि। तुम्हारे पास यदि मैं समाचारपत्रों की कतरनें भेजूँ, तो आश्चर्यचकित हो। परंतु तुम जानते ही हो कि मैं नाम-यश से घृणा करता हूँ। इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जब कभी मैं मंच पर आया, तो बहरा कर देने वाली करतल-ध्वनि से मेरा स्वागत किया गया। प्राय: सभी पत्रों ने मेरी प्रशंसा के पुल बाँध दिए और उनमें जो बड़े कट्टर थे, उन्हें भी स्वीकार करना पड़ा कि 'यह मनुष्य अपनी सुंदर आकृति, आकर्षक व्यक्तित्व और आश्चर्यजनक वक्तृत्व के कारण सम्मेलन में सबसे प्रमुख व्यक्ति है'--इत्यादि, इत्यादि। तुम्हारे लिए इतना ही जान लेना पर्याप्त होगा कि किसी प्राच्य व्यक्ति ने अमेरिकी समाज पर इतना गहरा प्रभाव इसके पूर्व कभी नहीं डाला।
अमेरिकावासियों की दया का बखान मैं कैसे करूँ? मुझे अब किसी वस्तु का अभाव नहीं। मैं बहुत अच्छी तरह हूँ। यूरोप जाने के लिए आवश्यक धन मुझे यहाँ से मिल जाएगा। इसलिए तुम लोगों को कष्ट सहन कर रूपये भेजने की आवश्यकता नहीं। एक बात पूछनी है--क्या तुम लोगों ने ८०० रूपये एक ही साथ भेजे थे? कुक कंपनी से मुझे केवल ३० पौंड ही मिले हैं। तुमने ओर महाराज ने अगर अलग अलग रूपये भेजे हैं, तो अभी तक कुछ रकम मुझे नहीं मिली है। यदि एक साथ ही भेजे हैं, तो एक बार पूछ-ताछ करना। नरसिंहाचार्य नाम का एक युवक हमारे बीच उपस्थित हुआ है। पिछले तीन सालों से वह इस शहर में इधर-उधर घूमता रहा। घूमता रहा हो या न हो, वह मुझे अच्छा लगता है। पर यदि तुम जानते हो, तो उसका पूर्व वृत्तान्त विस्तार के साथ लिखो। वह तुमको जानता है। जिस वर्ष पेरिस में प्रदर्शनी हुई थी, उस वर्ष वह यूरोप आया।
मुझे अब कुछ भी अभाव नहीं रहा। शहर के कई अच्छे से अच्छे घरों में मेरा प्रवेश हो गया है। मैं सदैव किसी न किसी का अतिथि होकर रहता हूँ। जैसी जिज्ञासा इस देश के लोगों में है, वैसी अन्यत्र नहीं। प्रत्येक वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना इन्हें सदैव अभीष्ट रहता है और इनकी महिलाएँ तो संसार में सबसे अधिक उन्नत हैं। सामान्यत: अमेरिकी पुरुषों की अपेक्षा अमेरिकी महिलाएँ बहुत अधिक सुसंस्कृत हैं। पुरुष तो धन कमाने के लिए आजीवन दासत्व की श्रृंखला में बंधे रहते है, परंतु नारियाँ अपनी उन्नति के प्रत्येक अवसर से लाभ उठाती हैं। ये लोग बड़े दयालु हृदय और स्पष्टवादी हैं। जिस किसी को अपने किसी सनक का प्रचार करना होता है, वह यहाँ आता है और मुझे खेद है कि इनमें से बहुतेरे अधकचरे निकलते हैं। अमेरिकनों में दोष भी हैं और दोष किस जाति में नहीं हैं ? परंतु मेरा निष्कर्ष यह है--एशिया ने सभ्यता की नींव डाली, यूरोप ने पुरुषों की उन्नति की, और अमेरिका महिलाओं और जनसाधारण की उन्नति कर रहा है। यह महिलाओं और श्रमजीवियों का स्वर्ग है। अब अमेरिकी लोक समाज तथा नारियों की तुलना अपने देश के लोगों से करो--भेद तुरंत स्पष्ट हो जाएगा। अमेरिकी लोग द्रुत गति से उदारमना होते जा रहे हैं। उनकी तुलना उन 'कट्टर' (यह उन्ही का शब्द है) ईसाई मिशनरियों से न करो, जो तुम्हें भारतवर्ष में दिखायी देते हैं। यहाँ भी वैसे लोग हैं, पर उनकी संख्या दिनों दिन तेजी से कम होती जा रही है। और यह महान राष्ट्र शीघ्रता से उस आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होता जा रहा है, जिसका हिंदुओं को गौरवपूर्ण अभिमान है।
हिंदुओं को अपना धर्म छोड़ने की आवश्यकता नहीं। उन्हें चाहिए कि धर्म को एक उचित मर्यादा के भीतर रखें और समाज को उन्नतिशील होने के लिए स्वाधीनता दे दें। भारत के सभी समाज-सुधारकों ने पुरोहितों के अत्याचारों और अवनति का उत्तरदायित्व धर्म के मत्थे मढ़ने की एक भयंकर भूल की और एक अभेद्य गढ़ को ढहाने का प्रयत्न किया। नतीजा क्या हुआ ? असफलता ! बुद्धदेव से लोकर राममोहन राय तक सबने जाति भेद-भाव को धर्म का एक अंग माना और जाति-भेद के साथ ही धर्म पर भी पूरा आघात किया और असफल रहे। पुरोहितगण चाहे कुछ भी बकें, वर्ण-व्यवस्था केवल एक सामाजिक विधान ही है, जिसका काम हो चुका है, अब तो वह भारतीय वायुमंडल में दुर्गन्ध फैलाने के अतिरिक्त कुछ नहीं करती। यह तभी हटेगी, जब लोगों को उनका खोया हुआ सामाजिक व्यक्तित्व पुन: प्राप्त हो जाएगा। इस देश में जन्म लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने को एक 'मनुष्य' समझता है। भारत में जन्म लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति समझता है कि वह समाज का एक दास है। उन्नति का एकमात्र सहायक स्वाधीनता है। उसके अभाव में अवनति अवश्यम्भावी है। देखो, आधुनिक प्रतिस्पर्धा के युग में जाति-भेद अपने आप कैसे नष्ट होता जा रहा है। उसका नाश करने के लिए किसी धर्म की आवश्यकता नहीं। उत्तर भारत में दुकानदारी, जूतों का धंधा और शराब बनाने का काम करने वाले ब्राह्यण देखने में आते हैं। इसका कारण ? -प्रतिद्वंद्विता। वर्तमान राज-शासन में किसी भी मनुष्य पर इच्छानुसार कोई भी व्यवसाय करने की रोक-टोक नहीं। फलत: जबरदस्त प्रतियोगिता उत्पन्न हो गयी है। इस प्रकार हजारों लोग नीचे पड़े रहकर जड़ता प्राप्त होने की जगह उन ऊँचे से ऊँचे पदों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हैं और प्राप्त भी कर रहे हैं, जिनके लिए उन्होंने जन्म ग्रहण किया है।
कम से कम जाड़े भर मुझे इस देश में रहना ही है। फि़र यूरोप जाऊँगा। मेरे लिए प्रभु सब प्रबंध कर देंगे। तुम उसकी चिंता न करो। तुम्हारे प्रेम के लिए कृतज्ञता प्रकट करना मेरे लिए असंभव है।
प्रतिदिन मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रभु मेरे साथ हैं और मैं उनके आदेशानुसार चल रहा हूँ। उनकी इच्छा पूर्ण हो।...हम लोग संसार के लिए बड़े महत्वपूर्ण कार्य करेंगे और वे सब नि:स्वार्थ भाव से किए जाएंगे, नाम अथवा यश के लिए नहीं।
प्रश्न करने का हमें कोई अधिकार नहीं; हमें तो अपना कार्य करते करते प्राण छोड़ने हैं (Ours not to reason why, ours but to do and die); साहस रखो और इस बात का विश्वास रखों कि प्रभु ने बड़े-बड़े कार्य करने के लिए हम लोगों को चुना है और हम उन्हें करके ही रहेंगे। उसके लिए तैयार रहो, अर्थात् पवित्र, विशुद्ध एवं नि:स्वार्थ-प्रेम संपन्न बनो। दरिद्रो, दु:खियों और दलितों से प्रेम करो, प्रभु तुम्हारा कल्याण करेंगे।
रामनाड़ के राजा और अन्य बंधुओं से प्राय: मिलते रहो और उनसे आग्रह करो कि वे भारत के साधारण लोगों के प्रति सहानुभूति रखें। उन्हें बतलाओं कि वे किस प्रकार गरीबों की गर्दनों पर सवार हैं और यह कि यदि वे प्रजा की उन्नति के लिए प्रयत्न न करें, तो वे मनुष्य कहलाने योग्य नहीं। निर्भय हो जाओ। प्रभु तुम्हारे साथ है और वे भारत के करोड़ो भूखों और अशिक्षितों का उद्धार करेंगे। यहाँ का रेलवे का कुली तुम्हारे यहाँ के बहुत से युवकों और राजाओं से अधिक सुशिक्षित है। जिस शिक्षा की हिंदू ललनाएँ कल्पना तक न कर सकती होगी, उससे कही अधिक शिक्षा यहाँ प्रत्येक अमेरिकी महिला को प्राप्त है। हमें वैसी शिक्षा क्यों न प्राप्त हो? वह हमारे लिए आवश्यक है।
अपने को निर्धन मत समझो। धन बल नहीं; साधुता एवं पवित्रता ही बल हैं। आओ, देखो, सारे संसार में यह बात कितनी सही उतरती है।
आशीर्वादक,
विवेकानन्द
पुनश्च-तुम्हारे चाचा का लेख एक अद्भुत चीज थी, जो मेरे देखने में आयी। वह तो एक व्यापारी के चिट्ठे की भाँति थी और वह धर्म-महासभा में पढ़े जाने के योग्य नहीं समझा गया। अतएव नरसिंहाचार्य ने उसमें से कुछ उदाहरण एक ओर के एक हॉल में पढ़ सुनाये और किसी ने उसके एक शब्द का भी अर्थ न समझा। उनसे यह बात कहना। बहुत सा विचार थोड़े शब्दों में व्यक्त करना एक महती कला है। यहाँ तक कि मणिलाल द्विवेदी के लेख में भी बहुत काटछाँट करनी पड़ी। एक हजार से अधिक निबंध पढ़े गये थे और इस प्रकार के व्यर्थ वाग्जाल के सुनने के लिए समय न था। सब के लिए सामान्यत: जो आधे घंटे का समय निश्चित था, उससे भी अधिक समय मुझे मिला था, क्योंकि सर्वप्रिय वक्ता आखिर में बोलने के लिए रखे जाते थे, ताकि श्रोतामंडली प्रतीक्षा में बैठी रहे। प्रभु उनका कल्याण करें; क्या गजब की सहानूभूति और क्या गजब का धैर्य है उनमें! सुबह दस बजू से लेकर रात के दस बजे तक बैठे रहते थे। बीच में केवल आधे घंटे का अवकाश भोजन के लिए मिलता था। एक-एक करके सभी प्रबंध पढ़े गये। उनमें से अधिकांश ही बहुत साधारण थे, पर लोग अपने प्रिय वक्ताओं के लिए धैर्यपूर्वक बाट जोहते रहे।
लंका के धर्मपाल ऐसे ही प्रिय वक्ताओं में से थे। दुर्भाग्य से वे सुवक्ता नहीं थे, श्रोताओं के सम्मुख कहने के लिए उनके पास सिर्फ मैक्समूलर एवं रिस् डेविड्स की कुछ उक्तियाँ ही थीं। किंतु वे बहुत ही मधुर स्वभाव वाले हैं। महासभा की बैठकों के दिनों में हम दोनों में खूब घनिष्ठता हो गयी।
पूना की एक ईसाई महिला कुमारी सोराब जी और जैन प्रतिनिधि श्री गांधी इस देश में ठहरकर जगह जगह व्याख्यान देंगे। आशा है, वे सफल होंगे। व्याख्यान देना इस देश में एक बड़ा लाभजनक व्यवसाय है और कभी कभी उससे खूब धन भी प्राप्त होता है। श्री इंगरसोल को प्रति व्याख्यान पाँच सौ से लेकर छ: सौ डालर तक मिलते हैं। इस देश में वे बड़े प्रसिद्ध वक्ता हैं। इस पत्र को प्रकाशित मत करना। पढ़ने के बाद इसे (खेतड़ी के) महाराजा के पास भेज देना। मैंने उनके पास अमेरिका में लिया गया अपना चित्र भेजा है।
विवेकानन्द
(श्रीमति टेनाट ऊड्स को लिखित)
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
१९ नवंबर, १८१३
प्रिय श्रीमति ऊड्स,
आपके पत्र का उत्तर देने में देर हुई, क्षमा करेंगी। पता नहीं, मैं फिर कब आपसे मिल सकूँगा। कल मैं मैडिसन और मीनियापोलिस के लिए प्रस्थान करूँगा। जिन अंग्रेज सज्जन का आपने उल्लेख किया है, वह लंदन के डॉ. मोमेरी हैं। लंदन की गरीब जनता के बीच वे एक प्रसिद्ध कार्यकर्ता है और अत्यंत मधुर व्यक्ति हैं। आप शायद नहीं जानती होंगी कि संसार भर के धर्मों में केवल आंग्ल धर्म-संघ ही ऐसा है, जिसने हमारे मध्य अपना प्रतिनिधि नहीं भेजा। पर डॉ. मोमेरी धर्म-महासभा में आये, यद्यपि कैंटरबेरी के आर्कबिशप महासभा (Parliament of Religions) की भर्त्सना कर चुके थे। आप तथा आपके सुंदर पुत्र के प्रति मेरा प्यार सदा एक सा ही बना रहता है, चाहे मैं आपको पत्र शीघ्र लिख सकूँ या नहीं।
क्या आप मेरी पुस्तकों एवं पत्रों को श्री हेल के पते पर एक्सप्रेस द्वारा भेज देंगी? मुझे उनकी आवश्यकता है। डाक-व्यय यहाँ दे दिया जाएगा।
आप सभी पर ईश्वर की अनुकंपा बनी रहे, यही मेरी आकांक्षा है।
आपका अभिन्न मित्र,
विवेकानन्द
पुनश्च- यदि आप कुमारी सैनबोर्न एवं पूर्वाचल के हमारे अन्य मित्रों को लिखें, तो कृपया मेरी अगाध श्रद्धा सूचित कर दें।
आपका,
विवेकानन्द
(श्री हरिपद मित्र को लिखित)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
द्वारा जॉर्ज डब्ल्यू. हेल,
५४१, डियरबोर्न एवेन्य, शिकागो,
२८ दिसंबर, १८९३
प्रिय हरिपद,
तुम्हारा पत्र कल मिला। तुम लोग अभी तक मुझे भूले नहीं, यह जानकर मुझे परम आनंद हुआ। यह बहुत ही आश्चर्य की बात है कि मेरे शिकागो के व्याख्यानों का समाचार भारतीय समाचारपत्रों में निकल चुका है; क्योंकि जो कुछ मैं करता हूँ, उसमें लोक-प्रसिद्धि से बचने का भरसक प्रयत्न अवश्य करता हूँ। मुझे कई बातें यहाँ विचित्र जान पड़ती हैं। यह कहने में कुछ अत्युक्ति न होगी कि इस देश में दरिद्रता बिल्कुल नहीं हैं। मैंने इस देश की जैसी महिलाएँ ओर कहीं नहीं देखीं। हमारे देश में सज्जन हैं, परंतु इस देश की महिलाओं की जैसी महिलाएँ बहुत ही थोड़ी है। यह सही बात है कि सुकृति पुरुषों के घर में भगवती स्वयं श्रीरूप में निवास करती हैं-या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेषु [1] । मैंने यहाँ हजारों महिलाएँ देखीं, जिनके हृदय हिम के समान पवित्र और निर्मल हैं। अहा! वे कैसी स्वतंत्र होती हैं! सामाजिक और नागरिक कार्यों का वे ही नियंत्रण करती हैं। पाठशालाएँ और विद्यालय महिलाओं से भरे हैं ओर हमारे देश में महिलाओं के लिए राह चलना भी निरापद नहीं! और ये कितनी दयालु हैं! जब से मैं यहाँ आया हूँ, इन्होंने अपने घरों में मुझे स्थान दिया है, मेरे भोजन का प्रबंध करती हैं, व्याख्यानों का प्रबंध करती हैं, मुझे बाजार ले जाती हैं और मेरे आराम और सुविधा के लिए क्या नहीं करतीं--मैं किस प्रकार वर्णन करूँ। हजारों जन्मों में इनकी सेवा करने पर भी मैं इनके ऋण से मुक्त नहीं हो सकता।
क्या तुम जानते हो कि शाक्त शब्द का अर्थ क्या है? शाक्त होने का अर्थ शराब, भंग का सेवन नहीं। जो ईश्वर को समग्र जगत में महाशक्ति के रूप में जानता है और जो स्त्रियों में इस शक्ति का प्रकाश मानता है, वहीं शाक्त हैं। यहाँ लोग स्त्रियों को इसी रूप में देखते हैं। मनु महाराज ने भी कहा है कि जिन परिवारों में स्त्रियों से अच्छा व्यवहार किया जाता है और वे सुखी हैं, उन पर देवताओं का आशीर्वाद रहता है- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: [2] । यहाँ के पुरुष ऐसा ही करते हैं और इसीलिए ये सुखी, विद्वान्, स्वतन्त्र और उद्योगी हैं। और हम लोग स्त्री-जाति को नीच, अधम, महा हेय एवं अपवित्र कहते है। फल हुआ-हम लोग पशु, दास उद्यमहीन एवं दरिद्र हो गये।
इस देश के धन के बारे में क्या कहूँ? पृथ्वी में इनके समान धनी अन्य कोई जाति नहीं। अंग्रेज लोग धनी हैं, उनमें अनेक गरीब भी हैं। इस देश में गरीब नहीं के समान हैं। एक नौकर रखने पर खाने-पीने के सिवा प्रति दिन छ: रूपये देने पड़ते हैं। इंग्लैंड में प्रतिदिन एक रुपया देना पड़ता है। एक मजदूर छ: रूपये रोज से कम काम नहीं करता। खर्च भी वैसा ही है। चार आने से कम कीमत में एक रद्दी चुरुट भी नहीं मिलेगा। चौबीस रूपये में एक जोड़ा मज़बूत जूता मिलेगा। जैसी कमाई, वैसा ही खर्च। ये लोग जिस तरह कमाते हैं, खर्ची भी उसी प्रकार करते है।
और यहाँ की नारियाँ कैसी पवित्र हैं! २५ या ३० वर्ष की आयु के पहले किसी का विवाह नहीं होता। गगनचारी पक्षी की भाँति ये स्वतन्त्र हैं। हाट-बाजार, रोजगार, दुकान, कॉलेज, प्रोफेसर-सर्वत्र सब काम करती है, फिर भी कितनी पवित्र है! जिनके पास पैसे है, वे रात दिन गरीबों की भलाई में तत्पर रहती हैं। और हम क्या कर रहे हैं ? ११ वर्ष की आयु में विवाह न होने पर मेरी लड़की ख़राब हो जाएगी ! हमारे मनु जी हमें क्या आज्ञा दे गये हैं ? 'पुत्रियों का भी इसी तरह अत्यंत यत्न के साथ पालन और शिक्षण होना चाहिए' --कत्याप्येवं पालनीय शिक्षणीयातियत्नत:। जैसे ३० वर्ष तक ब्रह्यचर्य-पालन-पूर्वक पुत्रों की शिक्षा होनी चाहिए, इसी तरह पुत्रियों की भी शिक्षा होनी चाहिए। परंतु हम कर क्या रहे हैं? क्या तुम अपने देश की महिलाओं की अवस्था सुधार सकते हो? तभी तुम्हारे कुशल की आशा की जा सकती हैं, नहीं तो तुम ऐसे ही पिछड़े पड़े रहोगे।
अगर हमारे देश में कोई नीच जाति में जन्म लेता हे, तो वह हमेश के लिए गया-बीता समझा जाता है; उसके लिए कोई आशा-भरोसा नहीं। यह भी क्या कम अत्याचार है! इस देश में हर व्यक्ति के लिए आशा है, भरोसा है एवं सुविधाएँ हैं। आज जो गरीब है, वह कल धनी हो सकता है, विद्वान ओर लोकमान्य बन सकता है। यहाँ सभी लोग गरीब की सहायता करने में व्यस्त रहते हैं। भारतवासियों की औसत मासिक आय दो रूपये है। यह रोना-धोना मचा है कि हम बड़े गरीब हैं, परंतु गरीबों की सहायता के लिए कितना दानशील संस्थाएँ हैं? भारत के लाख लाख अनाथों के लिए कितने लोग रोते हैं? हे भगवान! क्या हम मनुष्य है? तुम लोगों के घरों के चारों तरफ पशुवत् जो भंगी-डोम हैं, उनकी उन्नति के लिए क्या कर रहे हो? उनके मुख में एक ग्रास अन्न देने के लिए क्या करते हों? बजाओं न। उन्हें छूते भी नहीं और उन्हें 'दूर', 'दूर', कहकर भगा देते हो! क्या हम मनुष्य है? वे हजारों साधु ब्राह्यण भारत की नीच, दलित, दरिद्र जनता के लिए क्या कर रहे हैं? 'मत छू', 'मत छू', बस, यही रट लगाती हैं! ऐसे सनातन धर्म को क्या कर डाला है! अब धर्म कहाँ है? केवल छुआछूत में-मुझे छुओ नहीं, छुओ नहीं।
मैं इस देश में कुतूहलवश नहीं आया, न नाम के लिए, न यश के लिए; परंतु भारत के दरिद्रों की उन्नति करने का उपाय ढूँढ़ने आया। यदि परमात्मा सहायक हुए, तो धीरे-धीरे तुम्हें वे उपाय मालूम हो जाएंगे।
जहाँ तक आध्यात्मिकता का प्रश्न है अमेरिका के लोग हमसे अत्यंत निम्न स्तर पर हैं, परंतु इनका समाज हमारे समाज की अपेक्षा अत्यंत उन्नत है। हम इन्हें आध्यात्मिकता सिखायेंगे और इनके समाज के गुणों को स्वयं ग्रहण करेंगे।
कब वापस लौटूँगा, मुझे मालूम नहीं; हरी इच्छा गरीयसी। तुम सभी को मेरा आशीर्वाद। इति।
विवेकान्द
(खेतड़ी के महाराज को लिखित)
अमेरिका,
१८९४
प्रिय महाराज,
...संस्कृत के किसी कवि ने कहा है, न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते-अर्थात 'ईंट-पत्थर की इमारत से घर नहीं बनता, गृहिणी के होने से बनता है।' यह कितना सत्य है! छत जो गर्मी-जोड़े तथा वर्षा से तुम्हारी रक्षा करती है, उसके गुण-दोषों का विचार उन खंभों से, जिनके सहारे कि वह खड़ी है, नहीं हो सकता, चाहे वे कितने ही सुंदर , शिल्पमय 'कोरिनथियन्' खम्भे क्यों न हों। उसका निर्णय होगा नारी से, जो वास्तविक मर्म-स्तम्भ है, सबका केंद्र है, घर का वास्तविक अवलंबन है। उस आदर्श के अनुसार विचार करने पर अमेरिका का पारिवारिक जीवन जगत के अन्य किसी स्थान के पारिवारिक जीवन से न्यून न होगा।
अमेरिका के पारिवारिक जीवन के संबंध में मुझे अनेक निरर्थक कहानियाँ सुनने को मिली।-जैसे वहाँ स्वाधीनता स्वेच्छाचार तक पहुँच जाती है, वहाँ की धर्मवर्जित स्त्रियाँ स्वाधीनता के अपने उन्माद नृत्य में अपने पारिवारिक जीवन की सुख-शांति को पददलित कर चूर्ण-विचूर्ण कर देती हैं एवं इसी तरह की और भी सारी बकवास। अब एक वर्ष के बाद अमेरिकी परिवार तथा अमेरिका केा स्त्रियों के संबंध में मुझे जो अनुभव प्राप्त हुआ है, उससे यह स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि उक्त प्रकार की धारणाएँ कितनी भ्रांत तथा निर्मूल है। अमेरिकी महिलाओं! सौ जन्म में भी मैं तुमसे उऋण न हो सकूंगा। मेरे पास तुम्हारे प्रति कृतज्ञता प्रकाश करने की भाषा नहीं है। 'प्राच्य अतिश्योक्ति मानवों की कृतज्ञता की गंभीरता को प्रकट करने की एकमात्र भाषा है: 'यदि समुद्र मसि-पात्र हो, हिमालय पर्वत लेखनी, पृथ्वी पत्र तथा महाकाल स्वयं लेखक, फिर भी तुम्हारे प्रति मेरी कृतज्ञता प्रकट करने मं सब समर्थ न हो सकेंगे। ' [3]
गत वर्ष ग्रीष्म में दूर देश से नाम-यश-धन-विद्याविहीन, बंधुरहित, असहाय दशा में प्राय: खाली हाथ जब मैं एक परिव्राजक प्रचारक के रूप में इस देश में आया, उस समय अमेरिका की महिलाओं ने ही मेरी सहायता की, मेरे ठहरने तथा भोजन की व्यवस्था की, मुझे अपने घर ले गयीं तथा मेरे साथ अपने पुत्र तथा सहोदर जैसा बर्ताव किया। जब उनके पुरोहितों ने इस 'भयानक विधर्मी' को त्याग देने के लिए उन्हें बाध्य करना चाहा, जब उनके सबसे अंतरंग बंधु 'इस संदिग्ध भयानक चरित्र के अपरिचित विदेशी व्यक्ति' का संग छोड़ने के लिए उपदेश देने लगे, तब भी वे मेरे मित्र बनी रहीं। ये महिलाएँ ही मानव-चरित्र तथा मानव-प्रकृति की सच्ची निर्णायिकाएँ हैं -क्योंकि स्वच्छ दर्पण में ही प्रतिबिंब स्पष्ट पड़ता है।
कितने ही सुंदर पारिवारिक जीवन मैंने यहाँ देखे हैं, कितनी ही ऐसी माताओं को देखा है, जिनके निर्मल चरित्र तथा नि:स्वार्थ संतान-स्नेह का वर्णन भाषा के द्वारा नहीं किया जा सकता। कितनी दुहिताएँ तथा पवित्र कन्याएँ-देवी डायाना के मंदिर पर की तुषारकणिकाओं के समान पवित्र-तदुपरांत उनकी वैसी संस्कृति, वैसी शिक्षा और वैसी सर्वोच्च कोटि की आध्यात्मिकता! तब क्या अमेरिका की सभी नारियाँ देवीस्वरुपा हैं? यह बात नहीं,भले-बुरे सभी स्थानों में होते हैं। दुर्बल व्यक्तियों द्वारा, जिन्हें हम दुष्टों के नाम से अभिहित करते हैं, किसी जाति के बारे में किसी प्रकार की धारणा नहीं बनायी जा सकती, क्योंकि वे तो व्यर्थ के कूड़े-करकट की तरह पीछे रह जाते है; जो लोग सत् उदार तथा पवित्र होते हैं, उनके द्वारा ही जातीय जीवन का निर्मल तथा प्रबल प्रवाह सूचित होता है। किसी सेब के पेड़ तथा उसके फलों के गुण-दोषों का विचार करने के लिए क्या तुम उसके कच्चे, अविकसित तथा कीटग्रस्त फलों का सहारा लोगे, जो धरती पर जहाँ-तहाँ बिखरे हुए पड़े रहते हैं और जो कभी कभी संख्या में भी अधिक ही होते हैं? यदि कोई सुपक्व तथा पुष्ट फल मिले, तो उस एक से ही उस सेब के वृक्ष की शक्ति, संभावना तथा उद्देश्य का अनुमान किया जाता है, उन असंख्य अपक्व फलों से नहीं।
अमेरिका की आधुनिक महिलाओं के विशाल और उदार मन की मैं प्रशंसा करता हूँ। मैंने इस देश में अनेक उदार पुरुषों को भी देखा हैं, उनमें से कोई कोई तो अत्यंत संकीर्ण मनोवृत्ति वाले संप्रदायों के अंतर्गत हैं। भेद इतना ही है कि पुरुषों के विषय में आशका बनी रहती है कि उदार बनने के लिए वे अपना धर्म, अपनी आध्यात्मिक विशिष्टता खो सकते हैं, परंतु महिलाएँ कही भी भलाई देखती हैं, उसे सहानूभूतिपूर्वक, उदारता से अपने धर्म से तनिक भी विचलित हुए बिना ग्रहण करती हैं। सहज रूप से ही वे यह अनुभव करती है कि यह एक भाव का विषय है, अभाव का नहीं, संयोजन का विषय है, वियोग का नहीं। दिनोंदिन वे इस विषय में सचेतन होती जा रही हैं कि हर वस्तु का स्वीकारात्मक व इतिवाचक भाग ही संचित होता रहेगा तथा स्वीकारात्मक व इतिवाचक इन भावों के, और इसलिए प्रकृति की आध्यात्मिक शक्तियों के, संचय करने का कार्य ही संसार के नेतिवाचक व ध्वंसात्मक तत्वों का नाश करता है।
शिकागो का वह विश्व-मेला कितना अद्भुत काम था! और वह अद्भुत धर्म-महासभा भी, जिसमें पृथ्वी के सभी देशों के लोगों ने एकत्र होकर अपने-अपने विचार व्यक्त किये थे! डॉ. बैरोज तथा श्री बॉनी के अनुग्रह से मुझे भी अपने विचारों केा सबके समक्ष रखने का अवसर प्राप्त हुआ था। श्री बॉनी कितने अद्भुत व्यक्ति हैं! जरा उनकी कल्पना शक्ति के बारे में सोचो, जिन्होंने इतने विशाल आयोजन की कल्पना की और उसे सफलतापूर्वक कार्य में परिणत किया! और उल्लेखनीय बात यह है कि वे कोई पादरी नहीं थे, एक साधारण वकील होकर भी उन्होंने समस्त धर्म-संप्रदायों के परिचालकों का नेतृत्व ग्रहण किया था। उनका स्वभाव अत्यंत मधुर है एवं वे एक विद्वान् तथा धीर व्यक्ति हैं-उनकी हृदयस्थ भावनाओं का प्रकाश उनके उज्जवल नेत्रों से ही होता था.. !
तुम्हारा
विवेकानन्द
(मद्रासी शिष्यों को लिखित)
द्वारा जार्ज डब्ल्यू. हेल,
५४१ डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
२४ जनवरी, १८९४
प्रिय मित्रों
मुझे तुम्हारे पत्र मिले। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि मेरे संबंध में इतनी अधिक बातें तुम लोगों तक पहुँच गयीं। 'इंटीरियर' पत्रिकाओं की आलोचना के बारे में तुम लोगों ने जो उल्लेख किया है, उसे अमेरिकी जनता का रुख न समझ बैठना इस पत्रिका के बारे में यहाँ के लोगों को प्राय: कुछ नहीं मालूम, और वे इसे 'नील नाकवाले प्रेसबिटेरियनो' की पत्रिका कहते हैं। यह बहुत ही कट्टर संप्रदाय है। ये 'नील नाकवाले' सभी लोग दुर्जन हैं, ऐसी बात नहीं। अमेरिका के लोग एवं पादरियों में भी बहुत से लोग मेरा बहुत सम्मान करते हैं। लोग जिसे आसमान पर चढ़ा रहे हैं, उस पर कीचड़ उछालकर प्रसिद्धि लाभ करने के इरादे से ही इस पत्र ने ऐसा लिखा था। ऐसे छल को यहाँ के लोग खूब समझते हैं; एवं इसे यहाँ कोई महत्व नहीं देता, भारत के पादरी अवश्य ही इस आलोचना का लाभ उठाने का प्रयत्न करेंगे। यदि वे ऐसा करें, तो उन्हें कहना-'हे यहूदी, याद रखों तुम पर ईश्वर का न्याय घोषित हुआ है।' उन लोगों की पुरानी इमारत की नींव भी ढह रही है; पागलों के समान उनके चीत्कार करते रहने के बावजूद उसका नाश अवश्यंभावी है। उन पर मुझे दया आती है कि यहाँ प्राच्य धर्मों के समावेश के कारण भारत में आराम से जीवन बिताने के उनके साधन कहीं क्षीण न हो जाएं। किंतु इनके प्रधान पादरियों में से एक भी मेरा विरोधी नहीं। खैर, जो भी हो, जब तालाब में उतरा हूँ, अच्छी तरह से स्नान करूँगा ही।
उन लोगों के समक्ष हमारे धर्म का जो संक्षिप्त विवरण मैंने पढ़ा था, उसे समाचारपत्र से काटकर भेज रहा हूँ। मेरे अधिकांश भाषण बिना तैयारी के होते हैं। आशा है, इस देश से वापस जाने के पहले उन्हें पुस्तक का आकार दे सकूँगा। भारत से किसी प्रकार की सहायता की मुझे आवश्यकता नहीं, सहायता यहाँ मुझे प्रचुर मात्रा में प्राप्त है। तुम लोगों के पास जो धन है, उससे इस संक्षिप्त भाषण को छपवाकर प्रकाशित करो, एवं देश की भाषाओं में अनुवाद कराकर चारों तरफ इसका प्रचार करो। यह हमें जन मानस के सामने रखेगा। साथ ही एक केंद्रीय महाविद्यालय एवं उससे भारत की चारों दिशाओं में शाखाएँ स्थापित करने की हमारी योजना को न भूलना। सहायता लाभ करने केलिए यहाँ मैं प्राणपण से प्रयत्न कर रहा हूँ, तुम लोग भी वहाँ प्रयत्न करो। खूब मेहनत से कार्य करो।...
जहाँ तक अमेरिकी महिलाओं का प्रश्न है, उनकी कृपा के लिए अपनी कृतज्ञता प्रकट करने में मैं असमर्थ हूँ। प्रभु उनका भला करें। इस देश के प्रत्येक आंदोलन की जान महिलाएँ हैं और वे राष्ट्र की समस्त संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हैं, क्योंकि पुरुष तो अपने ही शिक्षा-लाभ में अत्यधिक व्यस्त रहते हैं।
किडी के पत्र मिले। जातियाँ रहेंगी या जाएंगी, इस प्रश्न से मेरा कोई मतलब नहीं। मेरा विचार है कि भारत और भारत के बाहर मनुष्य-जाति में जिन उदार भावों का विकास हुआ है, उनकी शिक्षा ग़रीब से ग़रीब और हीन से हीन को दी जाए और फि़र उन्हें स्वयं विचार करने का अवसर दिया जाए। जात-पाँत रहनी चाहिए या नहीं, महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिए या नहीं, मुझे इनसे कोई वास्ता नहीं। 'विचार और कार्य की स्वतंत्रता ही जीवन, उन्नति और कुशल-क्षेम का एकमेव साधन है।' जहाँ स्वतंत्रता नहीं है, वहाँ व्यक्ति, जाति, राष्ट्र की अवनति निश्चय होगी।
जात-पाँत रहे या न रहे, संप्रदाय रहे या न रहे, परंतु जो मनुष्य या वर्ग, जाति, राष्ट्र या संस्था किसी व्यक्ति के स्वतंत्र विचार या कर्म पर प्रतिबंध लगाती है-भले ही उससे दूसरों को क्षति न पहुँचे, तब भी-वह आसुरी है और उसका नाश अवश्य होगा।
जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि एक ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुँचा दे और फिर स्त्री पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें। हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है, यह सर्वसाधारण को जानने दो। विशेषकर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे हैं और तब उन्हें अपना निर्णय करने दो। रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे कोई विशेष आकार धारण कर लेंगे। परिश्रम करो, अटल रहो और भगवान पर श्रद्धा रखो। काम शुरु कर दो। देर-सबेर मैं आ ही रहा हूँ। 'धर्म को बिना हानि पहुँचाये जनता की उन्नति' -इसे अपना आदर्श-वाक्य बना लो।
याद रखो कि राष्ट्र झोपड़ी में बसा हुआ है; परंतु शोक ! उन लोगों के लिए कभी किसी ने कुछ किया नहीं। हमारे आधुनिक सुधारक विधवाओं के पुनर्विवाह कराने में बड़े व्यस्त हैं। निश्चय ही मुझे प्रत्येक सुधार से सहानुभूति है; परंतु राष्ट्र की भावी उन्नति उसकी विधवाओं को मिले पति की संख्या पर निर्भर नहीं, वरन्'आम जनताकी अवस्था' पर निर्भर है। क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो? क्या उनका खोया हुआ व्यक्तित्व, बिना उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक वृत्ति को नष्ट किए', उन्हें वापस दिला सकते हों? क्या समता, स्वतंत्रता, कार्य-कौशल, पौरुष में तुम पाश्चात्यों के भी गुरु बन सकते हों? क्या तुम उसी के साथ-साथ स्वाभाविक अध्यात्मिक अंत:प्रेरणा व अध्यात्म-साधनाओं में एक कट्टर सनातनीं हिंदू हो सकते हो? यह काम करना है ओर हम इसे करेंगे ही। तुम सबने इसी के लिए जन्म लिया है। अपने आप पर विश्वास रखो। दृढ़ घारणाएँ महत कार्यों की जननी हैं। हमेशा बढ़ते चलो। मरते दम तक ग़रीबों, और पददलितों के लिए सहानूभूति-यही हमारा मंत्र है। वीर युवकों! बढ़े चलो!
शुभाकांक्षी
विवेकानन्द
पुनश्च-इस पत्र को प्रकाशित न करना-परंतु एक केंद्रीय महाविद्यालय खोलकर साधारण लोगों की उन्नति के विचार का प्रचार करने में कोई हर्ज नहीं। इस महाविद्यालय के शिक्षित प्रचारकों द्वारा ग़रीबों की कुटियों में जाकर उनमें शिक्षा एवं धर्म का प्रचार करना होगा। सभी लोग इस कार्य में दिलचस्पी रखें-ऐसा प्रयत्न करो।
तुम लोगों के पास मैं यहाँ के कुछ सर्वोत्तम तथा प्रसिद्ध अख़बरों की कुछ कतरनें भेज रहा हूँ। इन सभी में डॉ. टॉमस का लेख विशेष मूल्यवान है, क्योंकि वे चाहे सर्वाग्रणी न हों पर यहाँ के श्रेष्ठ पादरियों में से एक हैं। 'इंटीरियर' पत्रिका की कट्टरता एवं मुझे गाली देकर ख़ुद की प्रसिद्धि लाभ करने का प्रयत्न के बावजूद उसे यह स्वीकार करना पड़ा कि मैं सर्वप्रिय वक्ता था। उसमें का भी कुछ अंश मैं काटकर भेज रहा हूँ।
विवेकानन्द
(श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
शिकागो
२९ जनवरी, १८९४
प्रिय दीवान जी साहब,
आपका पिछला पत्र मुझे कुछ दिन पहले मिला। आपस मेरी दु:खिनी माँ एवं भाइयों से मिलने गये थे, यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई। किंतु आपने मेरे हृदय के एकमात्र कोमल स्थान को स्पर्श किया है। दीवान जी, आपको यह जानना चाहिए कि मैं कोई पाषाण हृदय पशु नहीं हूँ। यदि सारे संसार में मैं किसी से प्रेम करता हूँ, तो वह है मेरी माँ। फि़र भी मेरा विश्वास था और अब भी है कि यदि मैं संसार-त्याग न करता, तो जिस महान आदर्श का, मेरे गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस उपदेश करने आये थे, उसका प्रकाश न होता; और वे नवयुवक कहाँ होते, जो आजकल के भौतिकवाद और भोग-विलास की उत्ताल तरंगों को परकोटे की तरह रोक रहे है? उन्होंने भारत का बहुत कल्याण किया है, विशेषत: बंगाल का, और अभी तो काम आरंभ ही हुआ है। प्रभु की कृपा से ये लोग ऐसा काम करेंगे, जिसके लिए सारा संसार युग युग तक इन्हें आशीर्वाद देगा। इसीलिए मेरे सामने एक ओर तो हैं भारत एवं सारे संसार के धर्मों के विषय में मेरी परिकल्पना और उन लाखों नरनारियों के प्रति मेरा प्रेम, जो युगों से डूबते जा रहे हैं, ओर कोई उनकी सहायता करने वाला नहीं है--यही नहीं, उनकी ओर तो कोई ध्यान भी नहीं देता-और दूसरी ओर है अपने निकटस्थ और प्रियजनों को दु:खी करना। मैंने पहला पक्ष चुना, 'शेष सब प्रभु करेंगे।' यदि मुझे किसी बात का विश्वास है, तो वह यह कि प्रभु मेरे साथ हैं। जब तक मैं निष्कपट हूँ, तब तक मेरा विरोध कोई नहीं कर सकता, क्योंकि प्रभु ही मेरे सहायक हैं। भारत मैं अनेकानेक व्यक्ति मुझे समझ न सके, और वे बेचारे समझते भी कैसे, कयोंकि भोजनादि नितयक्रिया को छोड़कर उनका ध्यान कभी बाहर बाया ही नहीं। आप जैसे कोई कोई उदार हृदय वाले मनुष्य मेरा मान करते हैं, यह मैं जानता हूँ। प्रभु आपका भला करें। परंतु मान हो या न हो, मैंने तो इन नवयुवकों को संगठित करने के लिए ही जन्म लिया है। यही नहीं, प्रत्येक नगर में सैंकड़ों और मेरे साथ सम्मिलित होने को तैयार हैं, और मैं चाहता हूँ, कि इन्हें अप्रतिहत गतिशील तरंगों की भाँति भारत में सब ओर भेजूँ, ताकि वे दीनहीनों एवं पद दलितों के द्वार पर सुख, नैतिकता, धर्म एवं शिक्षा पहुँचावें। और इसे मैं करूँगा, या मर जाऊँगा।
हमारे देश के लोगों में न विचार है, न गुणग्राहकता। इसके विपरीत एक सहस्त्र वर्ष के दासत्व के स्वाभाविक परिणामस्वरूप उनमें भीषण ईर्ष्या है और उनकी प्रकृति संदेहशील है, जिसके कारण वे प्रत्येक नये विचार का विरोध करते हैं। फि़र भी प्रभु महान हैं।
हमारे देश के लोगों में न विचार है, न गुणग्राहकता। इसके विपरीत एक सहस्त्र वर्ष के दासत्व के स्वाभाविक परिणामस्वरूप उनमें भीषण ईर्ष्या है और उनकी प्रकृति संदेहशील है, जिसके कारण वे प्रत्येक नये विचार का विरोध करते हैं। फि़र भी प्रभु महान हैं।
आरती तथा अन्य विषय, जिनका आपने उल्लेख किया है- भारत के सभी मठों में सब जगह प्रचलित हैं, और वेदों में गुरु की पूजा पहला कर्तव्य कहा गया है। इसमें गुण और दोष, दोनों ही पक्ष हैं, परंतु आपको याद रखना चाहिए कि हमारा यह एक अनुपम संघ है, और हममे से किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अपने विश्वास का दूसरों पर बलपूर्वक आरोप करे। हममें से बहुत से लोग किसी प्रकार की मूर्ति-पूजा में विश्वास नहीं रखते, परंतु उन्हें दूसरों की मूर्ति-पूजा का खंडन करने का कोई अधिकार नहीं, क्योंकि ऐसा करने से हमारे धर्ममत का पहला ही सिद्धांत टूटता है। फि़र इश्वर भी मनुष्य के रूप में, और मनुष्य के द्वारा ही जाना जा सकता है। प्रकाश का स्फुरण सब स्थानों में होता है--अँधेरे से अँधेरे कोने में भी-परंतु वह दीपक के रूप में ही मनुष्य के सामने प्रत्यक्ष दिखायी देता है। इसी तरह यद्यपि ईश्वर सर्वत्र है, परंतु हम एक विराट मनुष्य के रूप में ही उसकी कल्पना कर सकते हैं। ईश्वर-संबंधी जितनी भावनाएँ हैं-जैसे कि दयालु पालक, सहायक, रक्षक-ये सब मानवीय भावनाएँ हैं और साथ ही किसी मानवविशेष में ही इनका विकास होना है, चाहे उसे गुरु मानिए, चाहे ईश्वरीय दूत या अवतार। मनुष्य अपनी प्रकृति से बाहर नहीं जा सकता, जैसे आप अपने शरीर में से उछलकर बाहर नहीं आ सकते। यदि कुछ लेाग अपने गुरु की उपासना करें, तो इसमें क्या हानि है, विशेषत: जब कि वह गुरु ऐतिहासिक पैगंबरों तक सभी की सम्मिलित पवित्रता से सौ गुना अधिक पवित्र हो? यदि ईसा मसीह, कृष्ण और बुद्ध की पूजा करने में कोई हानि नहीं है, तो इस मनुष्य को पूजने में क्या हानि हो सकती है, जिसके विचार या कर्म को अपवित्रता कभी छू तक नहीं गयी, जिसकी अंतर्दृष्टिप्रसूत बुद्धि से अन्य पैगंबरों, जिनमें से सभी एक देशदर्शी रहे हैं, की बुद्धि में आकाश पाताल का अंतर है? दर्शन, विज्ञान या अन्य किसी भी विद्या की सहायता न लेकर इसी महापुरुष ने जगत के इतिहास में सर्वप्रथम सत्य का सभी धमों में निहित होने की ही नहीं, सभी धर्मों के सत्य होने की इस भावना का जगत में प्रचार किया एवं यही सत्य वर्तमान समय में संसार में सर्वत्र प्रतिष्ठा कर रहा है।
परंतु यह भी अनिवार्य नहीं है; और संघ के भाइयों में से आपसे किसी ने यह नहीं कहा कि सभी उसके गुरु की पूजा करें। नहीं, नहीं, नहीं। परंतु उसके साभ ही हममें से किसी को भी अधिकार नहीं कि वह किसी दूसरे को पूजा करने से रोके। क्यों ? क्योंकि ऐसा करने से इस अद्वितीय संगठन का-जो संसार में पहले कभी देखने में नहीं आया-पतन हो जाएगा। दस मत और दस विचार के दस मनुष्य परस्पर खूब घुल-मिलकर रह रहे हैं। थोड़ा धीरज धरिए, दीवान जी, प्रभु दयालु और महान हैं, अभी आप बहुत कुछ देखेंगे।
हम केवल सब धर्मों के प्रति सहिष्णुता ही नहीं रखते, वरन उन्हें स्वीकार भी करते हैं, एवं प्रभु की सहायता से सारे संसार में इसका प्रचार करने का प्रयत्न भी मैं कर रहा हूँ।
प्रत्येक मनुष्य एवं प्रत्येक राष्ट्र को महान बनाने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं--
१. सदाचार की शक्ति में विश्वास।
२. ईर्ष्या और संदेह का परित्याग।
३. जो सत् बनने या सत् कर्म करने के लिए यत्नवान हों, उनकी सहायता करना।
क्या कारण है कि हिंदू राष्ट्र अपनी अद्भुत बुद्धि एवं अन्यान्य गुणों के रहते हुए भी टुकड़े टुकड़े हो गया? मेरा उत्तर होगा-ईर्ष्या। कभी भी कोई जाति इस मंदभाग्य हिंदू जाति की तरह इतनी नीचता के साथ एक दूसरे से ईर्ष्या करने वाली, एक दूसरे के सुयश से ऐसी डाह करने वाली न हुई, और यदि आप कभी पश्चिमी देशों में आएं, तो पश्चिमी राष्ट्रों में इसके अभाव का अनुभव सबसे पहले करेंगे।
भारत में तीन मनुष्य एक साथ मिलकर पाँच मिनट के लिए भी कोई काम नहीं कर सकते। हर एक मनुष्य अधिकार प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है। और अंत में संगठन की दुरवस्था हो जाती है। भगवान ! भगवान ! कब हम ईर्ष्या करना छोड़ेंगे? ऐसे देश में, विशेषत: बंगाल में, ऐसे व्यक्तियों के एक संगठन का निर्माण करना जो परस्पर मतभेद रखते हुए भी अटल प्रेमसूत्र से बँधे हुए हो, क्या एक आश्चर्यजनक बात नहीं है? यह संघ बढ़ता रहेगा।
अनंत शक्ति व अभ्युदय के साथ-साथ उदारता की यह भावना अवश्य ही सारे देश मैं फैल जाएगी तथा ग़ुलामों की हमारी इस जाति का उत्तराधिकार सूत्र से प्राप्त इस उत्कट अज्ञता, द्वेष जातिभेद, प्राचीन व ईर्ष्या के बावजूद यह हमारे देश के रोम रोम में समा जाएगी तथा उसे विद्युत संचार द्वार उद्बोधित करेगी।
सर्वव्यापी निस्तरंग इस महासागर के जल में आप ही जैसे दो-चार सच्चरित्र पुरुष हैं जो कठिन शिलाखंड की भाँति अविचलित खड़े है। प्रभु आपका सदा सर्वदा कल्याण करें। इति।
सदैव आपका शुभचिंतक,
विवेकानन्द
(किडी या सिंगारावेलु मुदालियर को लिखित)
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
३ मार्च, १८९४
प्रिय किडी,
मुझे तुम्हारा पत्र मिला था, परंतु मैं निश्चय न कर सका कि इसका क्या जवाब दूँ। तुम्हारे पिछले पत्र से कुछ आश्वासन मिला।...मैं तुमसे यहाँ तक सहमत हूँ कि विश्वास से एक अद्भुत अंतर्दृष्टि मिलती है और केवल विश्वास से ही मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता; पर उससे धर्मांधता उत्पन्न होकर उन्नति में बाधा पड़ने की आशंका रहती है।
ज्ञानमार्ग अच्छा है, परंतु उसके शुष्क तर्क में परिणत हो जाने का डर रहता है। प्रेम बड़ी ही उच्च वस्तु है, पर निरर्थक भावुकता में परिणत होकर उसके विनष्ट होने का भय रहता है।
हमें इन सभी का समन्वय ही अभीष्ट है। श्री रामकृष्ण का जीवन ऐसा ही समन्वयपूर्ण था। ऐसे महापुरुष जगत में बहुत ही कम आते है, परंतु हम उनके जीवन और उपदेशों को आदर्श के रूप में सामने रखकर आगे बढ़ सकते है। यदि हममे से प्रत्येक उस आदर्श की पूर्णता को व्यक्तिगत रूप में प्राप्त न कर सके, तो भी हम उसे सामूहिक रूप में परस्पर एक दूसरे के परिमार्जन, संतुलन, आदान-प्रदान से एवं सहायक बनकर प्राप्त कर सकते हैं। यह समन्वय कई एक व्यक्तियों के द्वारा साधित होगा और यह अन्य सभी प्रचलित धर्ममतों की अपेक्षा श्रेष्ठ होगा।
किसी धर्म को कारगर बनाने के लिए उत्साह आवश्यक है। साथ ही नये-नये संप्रदायों की संख्या में वृद्धि के ख़तरे से सावधान रहना चाहिए।
एक असांप्रदायिक संप्रदाय बनकर हम इस भय से अपनी रक्षा कर सकते हैं। इसमें एक समप्रदाय के सभी गुणावलि होते हुए एक सार्वजनिक धर्म की व्याप्ति भी होती है।
यद्यपि ईश्वर सर्वत्र है, तो भी उसकों हम केवल मनुष्य चरित्र में और उसके द्वारा ही जान सकते हैं। श्री रामकृष्ण के जैसा पूर्ण चरित्र कभी किसी महापुरुष का नहीं हुआ और इसलिए हमें उन्हीं को केंद्र बनाकर संगठित होना पड़ेगा। हाँ, हर एक आदमी उनकों अपनी-अपनी भावना के अनुसार ग्रहण करे, इसमें कोई बाधा नहीं डालनी चाहिए। चाहे कोई उन्हें ईश्वर माने, चाहे परित्राता या आचार्य, या आदर्श पुरुष अथवा महापुरुष--जो जैसा चाहे। हम न तो सामाजिक समता का प्रचार करते हैं, न विषमता का। पर इतना कहते हैं कि सबको समान अधिकार है, और हम इस पर जो़र देते हें कि हर व्यक्ति को, क्या उसके विचारों में, क्या कार्य में, पूरी स्वतंत्रता रहे।
हम किसी भी मतावलंबी को-चाहे वह ईश्वरवादी हो, चाहे सर्वेश्वरवादी, चाहे अद्वैतवादी हो, चाहे बहुईश्वरवादी, चाहे अज्ञेयवादी हो, चाहे अनीश्वरवादी-त्यागना नहीं चाहते। पर यदि वह शिष्य होना चाहे, तो उसे केवल इतना ही करना होगा कि वह अपना चरित्र ऐसा बनाये, कि वह जैसा उदार हो, वैसा ही गंभीर भी। चरित्र-गठन के बारे में भी हम किसी विशेष नैतिक मत को ही ग्रहण करने के लिए नहीं कहते और न खान-पान के संबंध में ही सभी को एक निर्दिष्ट नियम पर चलने को कहते हैं। हम उन कामों को करने से लोगों को मना करते हैं, जिनसे औरों को हानि पहुँचे।
धर्माधर्म का इतना ही लक्षण बताकर आगे हम लोगों को अपने ही विचारों पर निर्भर रहने का उपदेश देते हैं। पाप या अधर्म वही है, जो उन्नति में बाधा डालता हो, या पतन में सहायता करता हो; और धर्म वहीं है, जिससे अभ्युदय और नि:श्रेयस की सिद्धि में सहारा मिले।
इसके बाद कौन सा मार्ग उपयोगी है, जिससे अपना लाभ होगा, यह प्रत्येक व्यक्ति स्वयं सोच और चुन ले और उसी मार्ग से चले-इस विषय में हम सभी को स्वाधीनता देते हैं। एक के लिए शायद मांस खाना अनुकूल हो, और दूसरे के लिए फल-मूल पथ्य हो। जो जिसका भाव हो, वह उसी राह पर चले। जिन आचरणों का पालन उसके अपने लिए हानिकारक है उन आचरणों के अनुयायियों को अपने मार्ग पर लाने का हठ करना तो दूर रहा, उन आचरणों की निंदा करने का भी उसे कोई अधिकार नहीं। हो सकता है कि कुछ मनुष्यों के लिए विवाह उनके इस उन्नति के मार्ग में सहायक हो, परंतु वहीं दूसरों के लिए विशेष हानिकारक हो सकता है। किंतु इस कारण अविवाहित व्यक्ति को कोई अधिकार नहीं कि वह विवाहित शिष्य से कहे कि वह ग़लत राह पर है; फि़र उस भाई को अपने नैतिक आदर्श पर ज़बरदस्ती लाने की बात तो अलग रही।
हमें विश्वास है कि सभी जीव ब्रह्य हैं। प्रत्येक आत्मा मानों अज्ञान के बादल से ढके हुए सूर्य के समान है और एक मनुष्य से दूसरे का अंतर केवल यही है कि कहीं सूर्य के ऊपर बादलों का घना आवरण है और कहीं कुछ पतला। हमें विश्वास हैं कि यही सब धर्मों की नींव हैं, चाहे कोई उसे जाने या न जाने। और मनुष्य की भौतिक, बौद्धिक अथवा आध्यात्मिक उन्नति के सारे इतिहास की व्याख्या यही है कि एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न स्तरों में से होकर अपने को अभिव्यक्त करती है। हमें विश्वास है कि यही वेदों का सार है।
हमें विश्वास है कि हर एक मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरे मनुष्य को इसी तरह, अर्थात ईश्वर समझकर, सोचे और उससे उसी तरह अर्थात ईश्वर-दृष्टि से बर्ताव करे; उससे घृणा न करे, उसे कलंकित न करे और न उसकी निंदा ही करे। किसी भी तरह से उसे हानि पहुँचाने की चेष्टा भी न करे। यह केवल संन्यासी का ही नहीं; वरन् सभी नर-नारियों का कर्तव्य है। आत्मा में लिंग या जाति-भेद नहीं है, न उससे अपूर्णता ही है।
हमें विश्वास है कि संपूर्ण वेद, दर्शन, पुराण और तंत्र में कहीं भी यह बात नहीं है आत्मा में लिंग वर्ण या जाति-भेद है। इसलिए हम उन लोगों से सहमत हैं, जो कहते हैं कि धर्म से समाज-सुधार का क्या सरोकार है? फि़र उन्हें भी हमारी इस बात को मानना होगा कि उसी कारण धर्म को भी किसी प्रकार का सामाजिक विधान देने या सब जीवों के बीच वैषम्य के प्रचार करने का कोई अधिकार नहीं, क्योंकि इस कल्पित और भयानक विषमता को बिल्कुल मिटा देना ही धर्म का लक्ष्य है।
अगर कोई कहे कि इस विषमता में से गुज़रकर ही हम अंत में समत्व और एकत्व को प्राप्त कर लेंगे, तो हमार उत्तर यह है जिस धर्म की दुहाई देकर ये बातें कही जाती हैं, वही बारंबर कहता है कि कीचड़ से कीचड़ नहीं धुल सकता। मानों अनैतिकता से कोई नैतिक या सच्चरित्र बन सकता है !
सामाजिक विधानों की रचना समाज की अथैनैतिक अवस्थाओं द्वारा धर्म का अनुमोदन लेकर हुई। धर्म ने यह भारी भूल की कि उसने सामाजिक विषयों में हस्तक्षेप किया। उसका अपनी ही बातों का खंडन करता हुआ यह कथन कितना पाखंडपूर्ण है कि, 'समाज-सुधार से धर्म का क्या मतलब? हाँ, अब हमें इस बात की आवश्यकता हो रही है कि धर्म समाज-सुधारक न बने, और इसीलिए हम यह भी कह देते हैं कि धर्म समाज का व्यवस्थापक न बने। हस्तक्षेप मत करो ! अपनी सीमा के भीतर रहो और सब ठीक हो जाएगा।
शिक्षा का अर्थ है, उस पूर्णता की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है।
धर्म का अर्थ है, उस ब्रह्यत्व की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है।
अत: दोनों स्थलों पर शिक्षक का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट हटा देना ही है। जैसा मैं सर्वदा कहा करता हूँ- हस्तक्षेप बंद करो ! सब ठीक हो जाएगा। अर्थात हमारा कर्तव्य है, रास्ता साफ़ कर देना-शेष सब भगवान ही करते हैं।
इसलिए तुम्हें ये बातें विशेषकर याद रखनी चाहिए कि धर्म का केवल आत्मा से ही काम है, सामाजिक विषयों में उसके हस्तक्षेप का प्रयोजन नहीं। तुम्हें यह भी याद रखना चाहिए कि जो अनिष्ट पहले ही हो चुका है, उस पर भी यही बात पूर्ण रूप से लागू होती है। अब धर्म को समाज से अलग करने की चेष्टा ऐसी ही है जैसे एक आदमी ज़बरदस्ती किसी दूसरे आदमी की जमीन छीन लेता है और उसकी उसकी अपनी जमीन वापस लेने की कोशिश करने पर रोने-धोने लगता है, और मानवीय अधिकार के सिद्धांतों की पवित्रता की बातें करने लगता है !
पुरोहितों को समाज की प्रत्येक छोटी-छोटी बात में दखलांदाजी करने (जो लाखों मनुष्यों के लिए दु:खदायी हो) की क्या आवश्यकता थी?
तुमने मांसभोजी क्षत्रियों की बात उठायी है। क्षत्रिय लोग चाहे मांस खायँ या न खायँ, वे ही हिंदू धर्म की उन सब वस्तुओं के जन्मदाता हैं, जिनको तुम महत् और सुंदर देखते हो। उपनिषद् किन्होंने लिखी थी? राम कौन थे ? कृष्ण कौन थे? बुद्ध कौन थे? जैनों के तीर्थकर कौन थे? जब कभी क्षत्रियों ने धर्म का उपदेश दिया, उन्होंने सभी को धर्म पर अधिकार दिया। और जब कभी ब्राह्यणों ने कुछ लिखा, उन्होंने औरों को सब प्रकार के अधिकारों से वंचित करने की चेष्टा की। गीता और व्यास सूत्र पढ़ो, या किसी से सुन लो। गीता में भक्ति की राह पर सभी नर-नारियों, सभी जातियों और सभी वर्णों को अधिकार दिया गया, परंतु व्यास ग़रीब शूद्रों का वंचित करने के लिए वेद की मनमानी व्याख्या करने की चेष्टा करते हैं। क्या ईश्वर तुम जैसा मूर्ख है कि एक टुकड़े मांस से उसकी दयारूपी नदी के प्रवाह में बाधा खड़ी हो जाएगी ? अगर वह ऐसा ही है, तो उसका मोल एक फूटी कौड़ी भी नहीं!
मुझसे कुछ आशा मत करना, जैसा कि मैं तुमको पहले ही लिख चुका हूँ और कह भी चुका हूँ कि मुझे दृढ़ विश्वास है कि मद्रासियों के द्वारा ही भारत की उन्नति होगी। इसीलिए कहता हूँ कि हे मद्रास के युवक वृन्द, सोचो क्या तुममें से कुछ लोग भी इस नूतन भगवान रामकृष्ण को केंद्र बनाकर इस नये आदर्श के कट्टर अनुयायी बन सकते हो ? सामग्री इकट्ठी कर श्री रामकृष्ण की एक छोटी-जीवनी लिखो। सचेत रहना कि उसमें अलौकिक घटनाओं का समावेश न होने पाये, अर्थात वह जीवनी इस ढंग से लिखी जाए कि वह उनके उपदेशों का एक दृष्टांत बन जाए। केवल उनकी ही बातें उसमें रहें। ख़बरदार, मुझे या किसी और जीवन व्यक्ति को उसमें मत लाना। तुम्हारा मुख्य उद्देश्य होगा उनकी शिक्षाओं को जगत में फैलाना, और वह जीवनी उन्हीं का एक दृष्टांत होगा। यद्यपि मैं ख़ुद अयोग्य हूँ, तथापि मेरे जिम्मे एक यह विशेष काम था कि जो रत्न की पेटी मुझे सौंपी गयी थी, मैं उसे मद्रास में ले आकर तुम्हारे हाथों में दे दूँ। और तुम्हें ही क्यों? क्योंकि जो लोग पाखंडी; द्वेषपूर्ण, ग़ुलाम-स्वभाव वाले और कापुरुष हैं और जिन्हें केवल जड़ वस्तुओं पर विश्वास है, वे कभी कुछ नहीं कर सकते। दाससुलभ ईर्ष्या ही हमारे जातीय चरित्र का धब्बा है। इस ईर्ष्या के कारण स्वयं सर्वशक्तिमान प्रभु भी कुछ करने में असमर्थ हैं। मेरे बारे में यह समझो कि मुझे जो कुछ करना था, वह सब मैं कर चुका-समझो कि अब मैं मर गया; यही समझो कि सब कामों का भार तुम्हीं पर है। मद्रास के युवकों, समझो कि तुम्हीं इस काम के लिए विधाता द्वारा भेजे हुए हो। काम में लग जाओ, प्रभु तुम्हारा भला करें। मुझे छोड़ दो, मुझे भूल जाओं। केवल इस नये आदर्श, नये सिद्धांत और नये जीवन का प्रचार करो। किसी के या किसी रीति-रिवाज के विरुद्ध कुछ मत कहना। जाति-भेद के पक्ष या विपक्ष में कुछ मत कहना, और न किसी सामाजिक कुरीति के विरुद्ध ही कुछ कहने की आवश्यकता है। केवल लोगों से 'यही' कहो कि 'हस्तक्षेप मत करो'--बस, सब ठीक हो जाएगा।
मेरे वीर, दृढ़ और प्रेमिक आत्मीय जनो! तुम्हें आशीर्वाद।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(हेल बहनों को लिखित)
डिट्रॉएट
१२ मार्च,१८९४
प्रिय बहनों,
इस समय मैं श्री पामर के साथ रह रहा हूँ। ये बड़े ही सज्जन हैं। उन्होंने परसों रात अपने पुराने मित्रों को एक भोज दिया था, जिनमें से हरेक ६० वर्ष से ऊपर का था, और इस मंडली को वे 'पुरातन सतीर्थगोष्ठी' कहा करते हैं। एक नाटयशला में मैंने ढाई घंटे तक व्याख्यान दिया। लोग बहुत प्रसन्न हुए। मैं न्यूयार्क और बोस्टन जा रहा हूँ। मुझे अपने खुर्च के लिए वहाँ पर्याप्त मिल जाएगा। मैं फ़्लैग एवं प्रोफ़ेसर राइट, दोनों के पते भूल गया हूँ। मैं मिशिगन भाषण देने नहीं जा रहा हूँ। श्री होल्डेन ने आज सुबह मुझे मिशिगन में भाषण देने के लिए मनाने की चेष्टा की, लेकिन मैं बोस्टन एवं न्यूयार्क को थोड़ा देख लेने के लिए एकदम निश्चय कर लिया हूँ। वास्तव में ज्यों-ज्यों मुझे लोकप्रियता मिलती जा रही हैं और बोलने में आसानी होती जा रही है, त्यों-त्यों मैं ऊबता जा रहा हूँ। मेरे सभी व्याख्यानों में मेरा पिछला व्याख्या ही सबसे अच्छा था। श्री पामर तो आनंदविभोर थे ओर श्रोतागण ऐसे मंत्रमुग्ध बैठे रहे कि व्याख्यान के अंत में ही चलकर मैं समझ सका कि मैं इतनी देर तक बोलता रहा। वक्ता को सदा ही श्रोताओं की अस्थिरता और ध्यानाभाव का एहसास हो जाता है। प्रभु मुझे इन व्यर्थ की बातों से बचायें, मैं इनसे ऊब चुका हूँ। अगर प्रभु को मंजूर होगा, तो मैं बोस्टन या न्यूयार्क में विश्राम करूँगा। तुम सबको मेरा प्यार। सतत प्रसन्न रहो।
तुम्हारा स्नेहशील भाई,
विवेकानन्द
(हेल बहनों को लिखित)
डिट्रॉएट,
१४ मार्च, १८९४
प्रिय बच्चियों,
मैं बूढ़े पामर के साथ सानंद हूँ। वे बड़े प्रसन्नचित वृद्ध हैं। पिछले व्याख्यान से मुझे केवल १२७ डालर प्राप्त हुए। मैं सोमवार को फि़र डिट्रॉएट में व्याख्यान देने वाला हूँ। तुम्हारी माता ने मुझसे लिन की एक महिला को पत्र लिखने के लिए कहा था। मैंने पहले कभी उन्हें नहीं देखा। बिना किसी परिचय के किसी को पत्र लिखना क्या शिष्टाचार है? कृपया इस महिला के बारे में मुझे और कुछ अधिक जानकारी भेजो। लिन है कहाँ? मेरे विषय में यहाँ के एक समाचार पत्र ने सबसे अजीब बात यह लिखी है, वह ''तूफ़ानी हिंदू'' यहाँ आ धमका है और श्री पामर का अतिथि है। श्री पामर हिंदू हो गये हैं और भारत जा रहे हैं; बस उनका आग्रह यही है कि दो सुधार हो जाने चाहिए--प्रथम यह कि जगन्नाथ जी के रथ में श्री पामर के लाभ-हाउस फ़ार्म में पले 'पर्चरान' नस्ल के घोड़े जोत दिए जाएँ, और द्वितीय यह कि हिंदुओं के पवित्र गोवंश में जरसी नस्ल की गायों को भी सम्मिलित कर लिया जाए।" श्री पामर पर्चरान घोड़ों और जरसी गायों के दिली शौक़ीन हैं और उनके लागहाउस फ़ार्म में दोनों का बाहुल्य है।
प्रथम व्याख्यान के लिए समुचित व्यवस्था नहीं हुई थी। हॉल का किराया १५० डालर था। मैंने होल्डेन को विदा कर दिया। एक दूसरा व्यक्ति मिल गया है; देखना है, वह उसकी अपेक्षा अच्छी व्यवस्था करता है या नहीं। श्री पामर मुझे दिन भर हँसाते रहते हैं। कल एक और भोज होने जा रहा है। अभी तक सब कुछ ठीक है; परंतु जब से यहाँ आया हूँ, पता नहीं क्यों, मन बड़ा शोकाकुल रहता है-कारण मुझे नहीं मालूम।
व्याख्यान देते देते और इस प्रकार ने निरर्थकवाद से मैं थक गया हूँ। सैकड़ों प्रकार के मानवीय पशुओं से मिलते-मिलते मेरा मन अशांत हो गया है। मैं तुम्हें मेरी अपनी रुचि की बात बतला रहा हूँ। मैं लिख नहीं सकता, मैं बोल नहीं सकता, परंतु मैं गंभीर विचार कर सकता हूँ। और उत्तेजित होने पर अग्न्युद्गार कर सकता हूँ परंतु ऐसा कुछ चुने हुए, बहुत ही थोड़े से चुने हुए लोगों के सामने ही होना उचित हैं। वे यदि चाहें, तो मेरे विचारों का चारों ओर प्रचार करें। मुझसे कुछ नहीं होता। श्रम का यही उचित विभाजन है; एक ही व्यक्ति सोचने में और साथ ही अपने उन विचारों के प्रसार करने में कभी भी सफल नहीं हुआ। ऐसे विचार मूल्यहीन होते हैं। मनुष्य को विचार करने की स्वाधीनता होनी चाहिए, विशेषत: जब कि वे विचार अध्यात्मिक हों।
स्वाधीनता का यह दावा ही, 'मनुष्य मशीन नहीं है' इस बात की प्रतिष्ठा ही चूँकि सारे आध्यात्मिक विचारों का सार है, इसी कारण ऐसे विषयों पर एक यंत्र की तरह नियमित रूप से विचार करना असंभव है। हर चीज़ को यंत्र के स्तर पर लाने की यह प्रवीणता ही पाश्चात्यों की अद्भुत समृद्धि का कारण है। और इसी ने धर्म को उनके द्वार से हटा दिया है। जो थोड़ा सा बचा है, उसे भी पाश्चात्यों ने एक सुव्यवस्थित व्यायाम भर में पर्यवसित कर दिया है।
मैं वास्तव में 'तूफ़ानी' क़तई नहीं हूँ, प्रत्युत इसका उलटा हूँ। जिस वस्तु को मैं चाहता हूँ, वह यहाँ नहीं है, और मैं इस 'तूफ़ानी' वातावरण को और अधिक काल तक सहन करने में असमर्थ हूँ। पूर्णता का मार्ग यह है कि स्वयं पूर्णता को प्राप्त होना, तथा कुछ थोड़े से स्त्री-पुरुषों को पूर्णता को प्राप्त कराना। लोककल्याण के संपर्क में मेरी अपनी धारणा के अनुसार मैं चाहता हूँ कि कुछ असाधारण योग्यता के मनुष्यों का विकास करूँ, न कि 'भैंस के आगे बीन बजाकर समय, स्वास्थ्य और शक्ति का अपव्यय करूँ।'
अभी-अभी फ़्लैग का एक पत्र मिला। मेरे व्याख्यान के कार्य में वह मदद नहीं कर सकता। वह कहता है, 'पहले बोस्टन जाइए।' पर जान लो, अब और व्याख्यान देने की मुझे परवाह नहीं। किसी व्यक्ति अथवा श्रोतृमंडली की सनक के अनुसार मुझे परिचालित कराने का यह प्रयास बड़ा ही नैराश्यजनक है। फि़र भी इस देश से बाहर जाने के पहले मैं कम से कम दो-एक रोज़ के लिए शिकागो वापस जाऊँगा। प्रभु, तुम सबका कल्याण करें।
चिर कृतज्ञ तुम्हारा भाई,
विवेकानन्द
(कुमारी ईसाबेल मैक्किंडली को लिखित)
डिट्रॉएट,
१७ मार्च, १८९४
प्रिय बहन,
तुम्हारा पैकेट मुझे कल मिला। तुमने मो़जे़ नाहक़ भेजे, मैं यहाँ स्वयं ही दो चार जुटा लेता। पर हर्ष की यह बात है कि यह तुम्हारे स्नेह का द्योतक है। मेरा थैला ठसाठस भर गया है। समझ में नही आता कि अब मैं कैसे उसे लिए फिरता रहूँ।
आज मैं श्रीमती बैग्ली के यहाँ लौट आया। श्री पामर के यहाँ अधिक दिन रुकने की वजह से वह नाराज थीं। पामर के घर पर दिन बड़े ही आराम से कटे। वे बहुत ही मौज़ी और सादादिल आदमी हैं, और उन्हें अपने सुख भोगों में और अपने 'कडुवे स्काच्' में अत्यधिक रुचि है लेकिन हैं वह एकदम अकलंक और बच्चों जैसे सरल।
मेरे चले आने से वे बहुत दु:खी थे, लेकिन मैं विवश था। यहाँ एक सुंदरी तरुणी से मैं दो बार मिला। नाम मैं उसका भूल रहा हूँ। लेकिन इतनी तेज़, सुंदर, आध्यात्मिक एवं असांसारिक ! प्रभु उस पर कृपा रखें। आज सबेरे वह श्रीमती मैक्ड्यूवेल के साथ आयी और इतनी सुंदरता और आध्यात्मिक गंभीरता से उसने बातें की कि मैं तो चकित रह गया। वह योगियों के बारे में सब कुछ जानती हैं और साधना में काफ़ी आगे बढ़ चुकी है !
'तेरा पथ खोज से परे है।' प्रभु उस सीधी-सादी, पवित्र और निर्मल लड़की पर कृपा करें ! यह मेरे कठोर और कष्टप्रद जीवन का श्रेष्ठ पुरस्कार है कि समय-समय पर तुम जैसी पवित्र और आनंदित लोगों के दर्शन मुझे हो जाया करते हैं। बौद्धों की एक उदार प्रार्थना है--'पृथ्वी के सभी पवित्र मनुष्यों के समक्ष मैं नतमस्तक हूँ।' जब भी मैं किसी ऐसी आकृति को देखता हूँ, जिस पर प्रभु अपनी अँगुली से 'मेरा'- यह शब्द स्पष्ट रूप से अंकित कर दिये होते हैं तब ही मुझे इस प्रार्थना के सही अर्थ का बोध होने लगता है। तुम अभी जिस प्रकार सुखी हो, कृपाधन्य हो, सत्स्वभाव हो, पवित्र हो, उसी प्रकार सदा बने रहो। इस भयानक संसार के कर्दम व धूलि से तुम्हारे पैरों का कभी स्पर्श न हो। फूलों के से तुम्हारे जन्म की ही भाँति तुम्हारा जीवन और तुम्हारा प्रयाण भी फूलों के से ही हों। निरंतर तुम्हारे अग्रज की यही प्रार्थना है।
विवेकानन्द
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
डिस्ट्राएट,
१८ मार्च, १८९४
प्रिय बहन मेरी,
कलकत्ता के पत्र को मेरे पास भेजने के लिए तुम्हें मेरा हार्दिक धन्यवाद। यह कलकत्ता के मेरे गुरुभाइयों द्वारा भेजा गया था और यह मेरे गुरुदेव के जन्म-महोत्सव को मनाने के लिए व्यक्तिगत निमंत्रण के अवसर पर लिखा गया था--जिनके विषय में तुमने मुझसे बहुत कुछ सुना है, अत: इस पत्र को फि़र से तुम्हारे पास लौटा रहा हूँ। पत्र में लिखा है कि मजूमदार कलकत्ता लौट आया है और यह प्रचार कर रहा है कि विवेकानन्द अमेरिका में विश्व के समस्त पाप कर रहा है।
... यही तुम्हारे अमेरिका का 'अद्भुत आध्यात्मिक पुरुष' है! यह उनका दोष नहीं है; जब तक कोई वास्तव में आध्यात्मिक न हो जाए, अर्थात जब तक किसी को आत्मस्वरूप में वास्तविक अंतर्दृष्टि नहीं प्राप्त हो जाती और आत्मा के जगत की एक झाँकी नहीं मिल जाती, तब तक वह बीज को भूसे से, गहराई को थोथी बातों से पृथक नहीं कर सकता। मुझे बेचारे मजूमदार के लिए अफ़सोस है कि वह इतना नीचे उतार आया। प्रभु उसका भला करें।
पत्र के भीतर का पता अंग्रेज़ी में है, और उसमें मेरा पुराना नाम है, जिसे मेरी बाल्यावस्था के एक मित्र ने लिखा है, जिसने संन्यास ले लिया है। यह एक कवित्वमय नाम है। पत्र में लिखा हुआ नाम संक्षिप्त रूप में हैं, पूरा नाम नरेन्द्र है, जिसका अर्थ है 'मनुष्यों का स्वामी' ('नर' का अर्थ होता है मनुष्य, और 'इंद्र' का तात्पर्य शासक, स्वामी से है)। यह बहुत ही हास्यकर है, हैं न? लेकिन मेरे देश में ऐसे ही नाम होते हैं; हम विवश है; लेकिन मुझे खुशी है कि मैंने इसे छोड़ दिया।
मैं ठीक हूँ, आशा है, तुम ठीक होगी।
तुम्हारा भाई,
विवेकानन्द
(स्वामी रामकृष्णानंद को लिखित)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
द्वारा जार्ज डब्ल्यू. हेल,
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
१९ मार्च, १८९४
प्रिय शशि,
इस देश में आने के बाद मैंने तुम्हें कोई पत्र नहीं लिखा। पर हरिदास भाई [4] के पत्र से सब समाचार मालूम हुए। गिरीशचंद्र घोष [5] और तुम सबने हरिदास भाई की अच्छी खातिर की, यह ठीक ही हुआ।
इस देश में मुझे किसी वस्तु का अभाव नहीं है। पर यहाँ भिक्षा का रिवाज नहीं। मुझे परिश्रम करना पड़ता है, यानी स्थान स्थान पर उपदेश देना पड़ता है। यहाँ जैसी गर्मी है, जाड़ा भी वैसा ही। गर्मी कलकत्ते से तनिक भी कम नहीं। जाड़े की बात क्या कहूँ? समूचा देश दो-तीन हाथ, कहीं कहीं चार-पाँच हाथ गहरी बर्फ़ से ढक जाता है। दक्षिण की ओर बर्फ़ नहीं पड़ती। पर बर्फ़ तो छोटी चीज़ हुई। जब पारा ३२ डिग्री पर रहता है, तब बर्फ़ गिरती है। कलकत्ते में पारा ६० डिग्री से नीचे बहुत ही कम उतरता है। इंग्लैंड में कभी कभी शून्य तक भी जाता है परंतु यहाँ पारा शून्य से ४०-५० डिग्री तक नीचे चला जाता है। उत्तरी हिस्से में, कनाडा में पारा जम जाता है। उस समय मद्यसार का तापमापक यंत्र काम में लाया जाता है। जब बहुत ही ठंडक होती है, अर्थात जब पारा 20 डिग्री के नीचे रहता है, तब बर्फ़ नहीं गिरती। मेरी धारणा थी की बर्फ़ गिरी कि ठंडक की हद हो गयी। ऐसी बात नहीं, बर्फ़ ज़रा कम ठंडे दिनों में गिरती है। अत्यधिक ठंडक में एक तरह का नशा सा हो जाता है। गाडि़याँ उस समय नहीं चलती; केवल बिना पहिये का स्लेज ज़मीन पर फिसलकर चलता है। सब कुछ जमकर सख्त हो जाता है-नदी, नाले और झील पर से हाथी भी चल सकता है। नियाग्रा का प्रचंड प्रवाह वाला विशाल निर्झर जमकर पत्थर हो गया ! परंतु मैं अच्छी तरह हूँ। पहले थोड़ा डर मालूम होता था, फि़र तो [6] गरज के मारे, रेल से एक दिन कनाडा के समीप, दूसरे दि अमेरिका के दक्षिण भाग में व्याख्यान देता फिर रहा हूँ। रहने के कमरों की तरह गाड़ियाँ भी भाप के नलों से ख़ूब गरम रखी जाती हैं और बाहर चारों ओर अमल धवल तुषार के समूह हैं--कैसी अनोखी छटा है !
बड़ा डर था कि मेरी नाम और कान गिर जाएंगे, पर आज तक कुछ नहीं हुआ। हाँ, बाहर जाते समय राशीकृत गर्म कपड़े, उन पर समूर का कोट, जूते, फि़र उन पर ऊनी जूते, इन सब से आवृत होकर निकलना पड़ता है। साँस निकलते ही दाढ़ी में जम जाती है ! उस पर तमाशा तो यह है कि घर के भीतर, बिना एक डली बर्फ़ दिये ये लोग पानी नहीं पीते। घर के अंदर की गरमी के कारण वे ऐसा करते हैं। हर एक कमरा और सीढ़ी भाप के नलों से गरम रखी जाती है। ये लोग कला-कौशल में अद्वितीय हैं, भोग-विलास में अद्वितीय हैं, धन कमाने में अद्वितीय हैं, और ख़र्च करने में भी अद्वितीय हैं। एक कुली की रोज़ाना आया ६ रु. हैं-नौकर की भी वही। ३ रु. से नीचे किराये की गाड़ी नहीं मिलती। चार आने से कम का चुरुट नहीं है। २४ रु. में मध्यम दर्जे का एक जोड़ा जूता मिल सकता है। ५०० रु. में एक पोशाक बनती है। जैसा कमाते हैं, ख़र्च भी वैसा ही करते हैं। एक एक व्याख्यान में २०० रु. से ३००० रु. तक मिल सकता हैं। मुझे १५०० रु. तक मिले हैं। हाँ, अब तो मेरा भाग्य है। ये मुझे प्यार करते हैं और हज़ारों आदमी मेरे व्याख्यान सुनने आया करते हैं।
प्रभु की इच्छा से मजूमदार महाशय में मेरी यहाँ भेंट हुई। पहले तो बड़ी प्रीति थी, पर जब सारे शिकागो शहर के नर-नारी मेरे पास झुंड के झुंड आने लगे, तब मजूमदार भैया के मन में आग लग गई। मैं तो देख-सुनकर दंग रह गया ! ... मेरे जैसा उनका न हुआ, इसमें मेरा क्या दोष ?... और मजूमदार ने धर्म-महासभा के पादरियों के पास मेरी यथेष्ट निंदा की। 'वह कोई नहीं; वह ठग है, ढोंगी है; वह तुम्हारे देश में कहता है कि "मैं साधु हूँ"--आदि कहकर उनके मन में मेरे बारे में ग़लत धारणा पैदा कर दी। प्रेसिडेंट बरोज़ को ऐसे बिगाड़ा कि वे मुझसे अब अच्छी तरह बातचीत भी नहीं करते। उनके पुस्तकों एवं पुस्तिकाओं में मुझे दबाने का भरसक प्रयत्न देखने को मिलता है गुरुदेव मेरे साथ हैं। दूसरे लोग क्या कर सकते हैं? सारा अमेरिका मेरा आदर करता है, मुझे भक्ति करता है, पैसे देता है, गुरु जैसा मानता है-मजूमदार बेचारा क्या करे? पादरी इत्यादि भी मेरा क्या कर सकते हैं? और ये लोग भी तो विद्वान् हैं। यहाँ सिर्फ़ इतना ही कहने से नहीं बनता कि 'हम लोग हमारी विधवाओं की शादी करते हैं,' 'हम लोग मूर्ति-पूजा नहीं करते,' इत्यादि- इत्यादि। केवल पादरियों के यहाँ ये बातें चलती हैं। भाई, ये लोग तत्वज्ञान सीखना चहते़ हैं, विद्या चाहते हैं; कोरी बातों से अब और नहीं चलेगा।
धर्मपाल बड़ा अच्छा लड़का है। ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है, भला आदमी है। इस देश में वह काफ़ी लोकप्रिय हुआ था।
भाई, मजूमदार को देखकर मेरी बुद्धि ठिकाने आ गयी। भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है- ये निध्नन्ति निरर्थक परहितं ते के न जानीमहे (जो नाहक़ औरों के हित के बाधक होते हैं, वे कैसे हैं, यह हमे नहीं मालूम)। भाई, सब दुर्गुण मिट जाते हैं, पर वह अभागी ईर्ष्या नहीं मिटती..! हमारी जाति का वही दोष है-केवल परनिंदा और ईर्ष्या। वे सोचते हैं कि हमहीं बड़े हैं-दूसरा कोई बड़ा न होने पावे।
इस देश की सी महिलाएँ दुनिया भर में नहीं हैं। वे कैसी पवित्र, स्वावलंबिनी और दयावती हैं। महिलाएँ ही यहाँ की सब कुछ हैं। शिक्षा, संस्कृति सभी उन्हीं में केंद्रित हैं। या श्री:स्वयं सुकृतिनां भवनेषु (जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं लक्ष्मीरूपिणी हैं) इस देश पर लागू हैं, पापात्मनां अलक्ष्मी: (पापियों के हृदय में अलक्ष्मीरुपिणी हैं) हमारे देश पर-बस, यही समझ लो। राम राम! यहाँ की महिलाओं को देखकर तो मेरे होश उड़ गये। स्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं हृी: (तुम्हीं लक्ष्मी हो, तुम्हीं ईश्वरी हो, तुम्हीं लज्जारुपिणी हो (इत्यादि) या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता (जो देवी सब प्राणियों में शक्तिरूप से विराजती हैं)। यह सब यहाँ से संपर्कित हैं। यहाँ की बर्फ़ जैसी सफे़द है, वैसी शुद्ध मनवाली हज़ारों नारियाँ यहाँ हैं। फि़र अपने देश की दस वर्ष उम्र में बच्चों को जन्म देने वाली बालिकाएँ ! ! ! प्रभु, मैं अब समझ रहा हूँ। अरे भाई, यत्र पूज्यंते रमंते तत्र देवता: (जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता प्रसन्न रहते हैं) -बूढ़े मनु ने कहा है। हम महापापी है; स्त्रियों को 'घृणित कीट', 'नरक के द्वार' आदि कहकर हम अध:पतित हुए हैं। बार रे बाप ! कैसा आकाश-पाताल का अंतर है। यथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधात्। (जहाँ जैसा उचित हो, ईश्वर वहाँ वैसा कर्मफल का विधान करते है।-इशोपनिषद्)। क्या प्रभु झूठी गप्प से भूलने वाले हैं? प्रभु ने कहा है, त्वं स्त्री त्वंपुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी (तुम्हीं स्त्री हो और तुम्हारी पुरुष; तुम्हीं कुमार हो और तुम्हीं कुमारी।--श्वेताश्वतरोपनिषद्) इत्यादि; और हम कह रहे है,दूरमपसर रे चाण्डाल (ऐ चाण्डाल, दूर हट), कनैषानिर्मिता नारी मोहिनी (किसने इस मोहिनी नारी को बनाया है?) इत्यादि। दक्षिण भारत में उच्च जातियों का नीच जातियों पर क्या ही अत्याचार मैंने देखा है! मंदिरों में देव-दासियों के नृत्य की ही धूम मची है ! जो धर्म ग़रीबों का दु:ख नहीं मिटाता, मनुष्य को देवता नहीं बनाता, क्या वह धर्म है? क्या हमारा धर्म धर्म कहलाने योग्य है? हमारा तो छूतमार्ग है-सिर्फ़ 'मुझे मत छुओं, 'मुझे मत छुओं'। हे हरि ! जिस देश के बड़े-बड़े शीर्ष स्थानीय लेता आज दो हज़ार वर्षों से सिर्फ़ यही विचार कर रहे हैं कि दाहिने हाथ से खायें या बायें हाथ से; पानी दाहिनी ओर से लें या बायीं ओर से और जो लोग फट् फटृ स्वाहा, क्रा क्रूं हुं हुं करते हैं, उनकी अधोगति न होगी, तो किसकी होगी? काल: सप्तुषु जागर्ति कालों हि दुरतिकम:। (काल सभी के सो जाने पर भी जागता ही रहता है, काल का अतिक्रमण करना बहुत कठिन है। महाभारत, आदि पर्व-१-२५०) वे जान रहे हैं; भला उनकी आँखों में धूल कौन झोंक सकता है?
जिस देश में करोड़ों मनुष्य महुआ खाकर दिन गुज़ारते हैं, और दस-बीस लाख साधु और दस-बारह करोड़ ब्राह्यण उन ग़रीबों चूसकर पीते हैं और उनकी उन्नति के लिए कोई चेष्टा नहीं करते, क्या वह देश है या नरक ? क्या वह धर्म है या पिशाच का नृत्य ? भाई, इस बात को ग़ौर से समझो-मैं भारतवर्ष को घूम- घूमकर देख चुका हूँ और इस देश को भी देखा हूँ-क्या बिना कारण के कहीं कोई कार्य होता है? क्या बिना पाप के कहीं सज़ा मिल सकती है?
सर्वशास्त्रपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकारस्तु पुण्याय पापाय परपीडनम्।।
-'सब शास्त्रों और पुराणों मे व्यास के दो वचन हैं-परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़ा से पाप।
क्या यह सच नहीं है?
भाई, यह सब देखकर-ख़ासकर देश के दारिद्रय और अज्ञता को देखकर--मुझे नींद नहीं आती। कन्याकुमारी में माता कुमारी के मंदिर में बैठकर, भारत की अंतिम चट्टान पर बैठकर, मैंने एक योजना सोच निकाली। हम जो इतने संन्यासी घूमते फिरते हैं और लोगों को दर्शनशास्त्र की शिक्षा दे रहे, यह सब निरा पागलपन है। क्या हमारे गुरुदेव कहा नहीं करते थे ख़ाली पेट में धर्म नहीं होता? वे ग़रीब लोग जानवरों का सा जो जीवन बिता रहे हैं, उसका कारण अज्ञान है। पाजियों ने चारों युगों में उनका ख़ूब चूसकर पीया है और उन्हें पैरों तले कुचला है।
सोचो, गाँव में कितने ही संन्यासी घूमते फिरते है, वे क्या काम करते हैं ? यदि कोई नि:स्वार्थ परोपकारी संन्यासी गाँव गाँव विद्यादाता करता फिरे और भाँति भाँति के उपायों से मानचित्र, कैमरा, भू-गोलक आदि के सहारे चाण्डाल तक सबकी उन्नति के लिए घूमता फिरे तो क्या इससे समय पर मंगल होगा या नहीं? से सभी योजनाएँ मैं इतने छोटे से पत्र में नहीं लिख सकता। बात यह है कि 'यदि पहाड़ मुहम्मद के पास न आये, तो मुहम्मद ही पहाड़ के पास जाएगा।'(अर्थात यदि ग़रीब के लड़के विद्यालयों में न आ सकें, तो उनके घर पर जाकर उन्हें शिक्षा देनी होगी।) ग़रीब लोग इतने बेहाल है कि वे स्कूलों और पाठशालाओं में नहीं आ सकते। और कविता आदि पढ़कर उन्हें कोई लाभ नहीं। एक जाति की हैसियत से हमने अपनी जातीय विशेषता को खो दिया है और यही सारे अनर्थ कारण है। हमें हमारी इन जाति को उसकी खोयी हुई जातीय विशेषता को वापस ला देना है और अनुन्नत लोगों को उठाना है। हिंदू , मुसलमान, ईसाई सभी ने उन्हें पैरो तले रौंदा है। उनकों उठाने वाली शक्ति भी अंदर से अर्थात धर्मनिष्ठा हिंदुओं से ही लानी पड़ेगी। प्रत्येक देश में बुराइयाँ धर्म के कारण नहीं, बल्कि धर्म को न मानने के कारण ही विद्यमान है। अत: धर्म का कोई दोष नहीं, दोष मनुष्यों का है।
इसे करने के लिए पहले मनुष्य चाहिए, फि़र धन। गुरु की कृपा से मुझे हर एक शहर में दस-पंद्रह आदमी मिल जाएंगे। मैं धन की चेष्टा में घूमा, पर भारतवर्ष के लोग भला धन देंगे ! मूर्ख, मतिभ्रष्ट और स्वार्थपरता की मूर्ति, भला वे धन देंगे ! इसीलिए मैं अमेरिका आया हूँ; स्वयं धन कमाऊँगा, और तब देश लौटकर अपने जीवन के इस एकमात्र ध्येय की सिद्धि के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दूँगा।
जैसे हमारे देश में सामाजिक गुणों का अभाव है, वैसे यहाँ आध्यात्मिकता का अभाव है। मैं इन्हें आध्यात्मिकता प्रदान कर रहा हूँ और मुझे धन दे रहे हैं। मैं कितने दिनों में कृतकार्य हूँगा, यह नहीं जानता, हमारे समान ये लोग पाखंडी नहीं और इनमें ईर्ष्या बिल्कुल नहीं है। मैं किसी भी भारतवासी के भरोसे नहीं हूँ। स्वयं प्राणपण चेष्टा से अर्थ-संग्रह करके अपना उद्देश्य सफल करूँगा, अथवा उसी के लिए मर मिटूँगा। सन्निमित्ते वरं त्यागो विनाशे नियते सति। (जब मृत्यु निश्चित है, तेा किसी सत्कार्य के लिए मरना ही श्रेयस्कर है।)
शायद तुम सोचोगे कि क्या असंभव बातें कर रहा है! तुम्हें नहीं मालूम मेरे भीतर क्या है। यदि मेरे उद्देश्य की सफलता के लिए तुममे से कोई मेरी सहायता करें, तो अच्छा ही है, नहीं तो गुरुदेव मुझे पथ दिखायेंगे। इति। श्री श्री माता जी को मेरा कोटि-कोटि साष्टांग प्रणाम कहना। उनके आशीर्वाद से मेरा सर्वत्र मंगल है। बाहरी लोगों के सम्मुख इस पत्र को पढ़ने की आवश्यकता नहीं। यह बात सभी से कहना, सभी से पूछना-क्या सभी लोग ईर्ष्या त्यागकर एकत्र रह सकेंगे या नहीं? यदि नहीं, तो जो ईर्ष्या किए बिना नहीं रह सकता, उसके लिए घर वापस चले जाना ही अच्छा होगा, और इससे सभी का भला होगा। और वही हमारा जातिगत दोष है ! इस देश (अमेरिका) में वह नहीं है, इसी से ये इतने बड़े हैं।
हम जैसे कूपमंडूक दुनिया भर में नहीं हैं। कोई भी नयी चीज़ किसी देश से आये, तो अमेरिका उसे सबसे पहले अपनायेगा। और हम? अजी, हमारे ऐसे ऊँचे ख़ानदान वाले दुनिया में और हैं ही नहीं ! हम 'आर्यवंश' जो ठहरे ! वंश कहाँ है, यह नहीं मालूम !
... एक लाख लोगों के दबाने से तीस करोड़ लोग कुत्तों के समान घूमते हैं, और वे 'आर्यवंशी' है ! ! ! किमधिकमिति--
विवेकानन्द
(रेवरेण्ड आर.ए. ह्य म [7] को लिखित)
डिट्रॉएट,
२० मार्च, १८९४
प्रिय भाई,
आपका पत्र मुझे यहाँ अभी-अभी मिला। मैं जल्दी में हूँ, अत: मुझे क्षमा करें, मैं कुछ ही बातों के संबंध में आपकी ग़लतफ़हमी दूर करना चाहता हूँ।
सर्वप्रथम, विश्व के किसी भी धर्म या धर्मसंस्थापक के विरुद्ध मैं एक शब्द भी नहीं कहता, आप हमारे धर्म के बारे में चाहे जो सोचें। सभी धर्म मेरे लिए पवित्र हैं। दूसरी बात यह है कि मिशनरी हमारी भाषाएँ नहीं सीखते, ऐसा मैंने नहीं कहा। पर अभी भी मेरा अभिमत यह है कि संस्कृत की ओर दो-एक को छोड़कर कोई भी ध्यान नहीं देता। यह सच नहीं है कि मैंने किसी धार्मिक संस्था के विरुद्ध कुछ कहा है। मैंने तेा इस बात पर ज़ोर दिया था कि भारत को कभी भी इसाई धर्म में धर्मांतरित नहीं किया जा सकता। मैं इसको अस्वीकार करता हूँ कि ईसाई धर्म स्वीकार कर लेने से निम्न वर्गों की स्थिति में कोई सुधार हो जाता है। इस संबंध में मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि दक्षिण भारत के अधिकांश ईसाई सिर्फ़ कैथोलिक ही नहीं हैं, वे अपने को ईसाई जातियाँ कहते हैं। अर्थात वे अपनी अपनी जाति को अब भी मानते हैं। और मुझे यह पूर्ण विश्वास है कि हिंदू समाज यदि अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति त्याग दे, तो उनमें से नब्बे प्रतिशत लोग हिंदू धर्म को पुन: स्वीकार कर लेंगे, उसमें चाहे कितने ही दुर्गुण क्यों न हों।
अंत में आपको मैं हृदय से धन्यवाद देता हूँ कि आपने मुझे अपना सहदेशवासी कहकर संबोधित किया है। यह पहला ही अवसर है, जब भारत में जन्में किसी यूरोपीय विदेशी ने-वह मिशनरी हो या न हो-गर्हित अपने एक देशवासी को इस प्रकार संबोधित किया हो। क्या आप भारत में भी मुझे इसी प्रकार पुकारने का साहस करेंगे ? आपके जो मिशनरी भारत में जन्में हैं, उनसे कहिए कि भारतवासियों को यही कहकर पुकारें, और जो भारत में नहीं जन्में हैं, उनसे कहिए कि भारतवासियों को यही कहकर पुकारें, और जो भारत में नहीं जन्में हैं, उनसे कहिए कि वे उनके साथ मानवोचित व्यवहार करें। अन्य बातों का जहाँ तक संपर्क है यदि मैं यह स्वीकार कर लूँ कि मेरे धर्म या समाज का विचार भू-पर्यटकों एवं कहानीकारों के वृत्तांतों के आधार पर निर्भर है, तो आप स्वयं ही मुझे मूर्ख कहेंगे।
मेरे भाई, क्षमा करे ! भारत में जन्म होने पर भी मेरे धर्म या समाज के बारे में आप क्या जानते हैं? यह सर्वथा असंभव है, समाज इतना रक्षणशील है, और सर्वोपरि हर व्यक्ति अपनी पूर्व धारणाओं के आधार पर ही किसी जाति व धर्म के बारे में अपना निर्णय करता है। क्या बात ऐसी ही नहीं है? आपने मुझे अपना देशवासी कहकर संबोधित किया है, इसके लिए प्रभु आपका मंगल करें। पूर्व और पश्चिम में बंधुत्व और सौहार्द का उदय अब भी हो सकता है।
आपका भाई,
विवेकानन्द
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
डिट्रॉएट,
३० मार्च, १८९४
प्रिय बहन,
अभी-अभी तुम्हारा तथा मदर चर्च का पत्र साथ ही मिला जिसमें रूपये की प्राप्ति की सूचना थी। खेतड़ी का पत्र जिसे मैं तुम्हें तुम्हारे पढ़ने के लिए वापस भेज रहा हूँ, पाकर मैं बहुत खुश हूँ। इस पत्र से तुम्हें मालूम होगा कि वे समाचार पत्रों की कुछ कतरने चाहते हैं। डिट्रॉएट के पत्रों की कतरनो के अतिरिक्त मेरे पास और कुछ नहीं है। इन्हें मैं उनके पास भेज दूँगा। अगर तुम्हें अन्य पत्रों से कुछ मिल सका, तो अगर आसानी से हो सका तो उन्हें भेज देना। तुम उनका पता जानती हो-महाराज, खेतड़ी, राजपूताना, भारत। हाँ, यह पत्र केवल पवित्र परिवार के पढ़ने के लिए ही है। पहले तो श्रीमती ब्रीड ने मेरे पास एक कड़ा पत्र लिख भेजा था, फि़र आज मुझे उनका एक तार मिला, जिसमें उन्होंने मुझे एक सप्ताह के लिए अपना अतिथि बनने का निमंत्रण दिया है। इसके पूर्व मुझे न्यूयार्क की श्रीमती स्मिथ का एक पत्र मिला, जिसे उन्होंने अपनी तथा कुमारी हेलेन गूल्ड तथा एक अन्य डॉक्टर (नाम भूल रहा हूँ) की ओर से मुझे न्यूयार्क बुलाने के लिए भेजा है। चूँकि लिन क्लब अगले महीने की १० तारीख को मुझे चाहता है, इसलिए मैं पहले न्यूयार्क जा रहा हूँ और फि़र उनकी सभी के लिए समय पर लिन आ जाऊँगा।
अगर आगामी ग्रीष्म में मैं चला नहीं जाता,तो जैसा कि श्रीमती बैग्ली का आग्रह है, मैं एनिसक्वाम जा सकता हूँ, जहाँ श्रीमती बैग्ली ने एक सुंदर मकान ले रखा है। श्रीमती बैग्ली बड़ी आध्यात्मिक महिला हैं। और श्री पामर एक सुरासक्त व्यक्ति हैं लेकिन है बहुत ही अच्छे। अब अधिक क्या लिखूँ, शारीरिक तथा मानसिक, दोनों प्रकार से मैं स्वस्थ हूँ। प्रिय बहनों, तुमकों सबको सतत आनंद की प्राप्ति हो। हाँ, श्रीमती शर्मन ने मुझे अनेक वस्तुएँ भेंट में दी हैं, जैसे 'लेटर होल्डर', नेल-सेट, एक छोटा सा थैला आदि। यद्यपि मैंने आपत्ति की, विशेषतया नेल-सेट को लेने से, जिसका सीप का मूँठ बहुत तड़क-भड़क वाला है, परंतु उन्होंने आग्रह किया और मुझे लेना पड़ा। हालाँकि मेरी समझ में नहीं आता कि यह ब्रश करने वाला यंत्र मेरे किस काम आएगा। प्रभु उन सबका कल्याण करें! उन्होंने मुझे एक परामर्श दिया-इस अफ़्रीकी पोशाक को शिष्ट समाज में कभी न पहनूँ। अब मैं समाज के उच्चवर्गों का एक सभ्य हो गया हूँ! हे प्रभु अब आगे क्या होने वाला है ? दीर्घ जीवन में कितने विचित्र अनुभव होते हैं। मेरा अमित स्नेह तुम सब-मेरे पवित्र परिवार-के लिए।
तुम्हारा भाई,
विवेकानन्द
(श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
न्यूयार्क
९ अप्रैल, १८९४
प्रिय आलासिंगा,
मुझे तुम्हारा आखि़री पत्र कुछ दिन पहले मिला। मुझे यहाँ इतना अधिक व्यस्त रहना पड़ता है, और प्रतिदिन इतने अधिक पत्र लिखने पड़ते है कि तुम्हारे लिये मुझसे हमेश पत्र पाने की आशा करना ठीक नहीं। ख़ैर,जो भी हो, यहाँ जो कुछ भी हो रहा है, उसे तुम्हें बतलाने का मैं भरसकर प्रयत्न करता हूँ। धर्म-महासभा के संबंध में एक पुस्तक भेजने के लिए शिकागो में मैंने एक व्यक्ति को लिखा है। इस बीच तुम्हे मेरे दो छोटे व्याख्यान अवश्य ही मिले होंगे।
सेक्रेटरी साहब लिखते है कि मुझे भारत वापस आना चाहिए, क्योंकि मेरा क्षेत्र वहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं। मेरे भाई, हम लोग एक ऐसा दीपक जलाने वाले हैं, जिसकी ज्योति से समस्त भारत में प्रकाश होगा। इसलिए हमें जल्दी नहीं करनी चाहिए। प्रभु की कृपा से सब काम हो जाएंगे। मैंने अमेरिका के बहुत से बड़े शहरों में व्याख्यान दिए हैं। एवं यहाँ के बेहद ज्यादा खर्चों को चुकता करने के बाद भी भारत वापस लौटने के लिए मेरे पास काफ़ी धन है। मेरे यहाँ बहुत से मित्र हैं, जिसमें से कई बहुत प्रभावशाली हैं। निस्संदेह कट्टर पादरी मेरे विरुद्ध हैं और मुझसे लड़ना कठिन होगा जानकर हर प्रकार से वे मेरी निंदा करते हैं और मुझे बदनाम करने एवं मेरा विरोध करने में भी नहीं हिचकिचाते। और इसमें मजूमदार उनकी सहायता कर रहे हैं। वह द्वेष के मारे पागल हो गया लगता है। उसने उन लोगों से कहा है कि मैं बहुत बड़ा धोखेबाज़ और धूर्त हूँ। और इधर वह कलकत्ते में कहता फिर रहा है कि मैं अमेरिका में अत्यंत पापपूर्ण एवं लम्पट जीवन व्यतीत कर रहा हूँ। प्रभु उसका कल्याण करें। मेरे भाई, बिना विरोध के कोई भी अच्छा काम नहीं हो सकता। जो अंत तक प्रयत्न करते है, उन्हें ही सफलता प्राप्त होती है।... मेरा विश्वास है कि जब एक जाति,एक वेद तथा शांति एवं एकता होगी, तभी सत्ययुग (स्वर्णयुग) आयेगा। सत्ययुग का यह विचार ही भारत को पुनरुज्जीवित करेगा। विश्वास रखो। यदि तुम कर सको, तो एक काम करना है। क्या तुम मद्रास में रामनाड़ या अन्य किसी बड़े आदमी की अध्यक्षता में एक ऐसी सभा आयोजित कर सकते हो, जिसमें मेरे यहाँ हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रति पूर्णतया समर्थन एवं संतोष प्रकट किया जाए और। फि़र उस पारित प्रस्ताव को क्या यहाँ के 'शिकागो हेरल्ड' 'इण्टर ओशन' तथा 'न्यूयार्क सन' और डिट्रॉएट (मिशिगन) के 'कमर्शियल एडवर्टाइजर को भेज सकते हो ? शिकागो इलनॉइज़ में है। 'न्यूयार्क सन' के लिए किसी विशेष विवरण की आवश्यकता नहीं है। डिट्रॉएट मिशिगन राज्य प्रांत में हैं। उसकी प्रतियाँ डॉ. बरोज़ को, चेयरमैन, धर्म-महासभा, शिकागो के पते पर भेजो। मैं उनका मकान नं. भूल गया हूँ, किंतु मुहल्ले का नाम इंडियाना एवेन्यू है। उसकी एक प्रति श्रीमती जे.जे. बैग्ली, डिट्रॉएट, वाशिंगटन एवेन्यू के पते पर भी भेजो।
इस सभा को जितना अधिक बड़ा बना सकते हो, बनाओ। धर्म एवं देश के नाम पर सभी बड़े आदमियों से उसमें भाग लेने के लिए आग्रह करो। मैसूर के महाराजा तथा दीवान से इस सभा और उसके उद्देश्यों के समर्थन में पत्र प्राप्त करने की चेष्टा करो। ऐसा ही पत्र खेतड़ी से भी प्राप्त करो। मतलब यह कि यथासंभव विशाल उत्साहपूर्ण जनसमूह को सभा में एकत्रित करने का प्रयत्न करो।
बच्चों, उठो, काम में लग जाओ। यदि तुम यह कर सके, तो मुझे आशा है कि भविष्य में हम बहुत कुछ कर सकेंगे। प्रस्ताव कुछ इस प्रकार के आशय का होगा कि मद्रास की हिंदू जनता मेरे यहाँ के कामों के प्रति अपना पूर्ण संतोष व्यक्त करती है, आदि।
यदि संभव हो, तो यह सब करो। कोई बहुत ज्यादा काम नहीं है। इसके अतिरिक्त देश के सभी भागों से समर्थन-पत्र प्राप्त करो और उनकी प्रतिलिपि अमेरिका के पत्रों को भेज दो। इसमें जितनी जल्दी हो, उतना ही अच्छा। इसका बहुत व्यापक परिणाम होगा, मेरे भाई। ब्रह्म समाज के लोग यहाँ मेरे विरुद्ध हर तरह की बकवास कर रहे हैं। जितना शीघ्र हो सके, हमें उनका मुँह बंद करना होगा। चिरकाल तक सनातन धर्म का डंका बजेगा। सभी झूठों एवं धूर्तों का नाश हो! उठो, उठो, मेरे बच्चों ! हमारी विजय निश्चित है।
जहाँ तक मेरे पत्रों को प्रकाशित करने का प्रश्न है, उनके प्रकाशन करने योग्य अंशों को हमारे मित्रों के लिए तब तक छापा जा सकता है, जब तक मैं वापस न आ जाऊँ। जब हम एक बार काम आरंभ कर लेंगे, तब बड़ी भारी धूम मचेगी, परंतु मैं काम किए बिना बात नहीं करना चाहता। मैं ठीक नहीं जानता, लेकिन गिरीशचंद्र घोष और श्री मित्र मेरे गुरुदेव के सभी प्रेमियों को एकत्र कर ऐसा ही काम कलकत्ते में भी कर सकते हैं। अगर वे ऐसा कर सकें, तो और भी अच्छा है। यदि वे कर सकें, तो उनसे भी ऐसा ही एक प्रस्ताव पास करने को कहो। कलकत्ता में ऐसे हज़ारों हैं, जो हमारे आंदोलन के प्रति सहानुभूति रखते हैं। खै़र, जो भी हो, मुझे उनसे अधिक तुम पर विश्वास है।
अब और कुछ नहीं लिखना है।
सभी मित्रों से मेरा अभिवादन कहना। उनके लिए मैं सतत प्रार्थना करता रहता हूँ।
सशीर्वाद तुम्हारा,
विवेकानन्द
(प्रो. जॉन हेनरी राइट को लिखित)
न्यूयार्क,
२५ अप्रैल, १८९४
प्रिय प्रोफ़ेसर,
आपके आमंत्रण के लिए मैं बहुत ही आभारी हूँ, एवं ७ मई को आऊँगा। मेरे मित्र, आपका स्नेह एवं उदार हृदय पत्थर को भी कोमल में परिणत कर देंगे।
मुझे दु:ख है कि ग्रंथकारों के प्रातराश में सम्मिलित होने सेलम नहीं जा रहा हूँ।
मैं ७ मई तक घर आ रहा हूँ।
आपका ही
विवेकानन्द
(कुमारी ईसाबेल मैक्किंडली को लिखित)
न्यूयार्क,
२६ अप्रैल, १८९४
प्रिय बहन,
तुम्हारा पत्र कल मिला। तुम पूर्णत: ठीक थी- मुझे उस पागल इंटीरियर ('शिकागो इंटीरियर'- एक प्रेसबिटेरियन अख़बार, जो स्वामी जी के विरुद्ध लिखता था) का मज़ाक पसंद आया। किंतु भारत से आयी डाक, जो मुझे तुमने कल भेजी हैं, सचमुच ही जैसा 'मदर चर्च' ने अपने पत्र में लिखा है, दीर्घ काल के बाद मिला एक शुभ संवाद है। दीवान जी का एक बहुत सुंदर पत्र आया है। उस वयोवृद्ध सज्जन ने हमेशा की तरह मदद का प्रस्ताव किया है। प्रभु उनका भला करें। फि़र कलकत्ता में प्रकाशित मेरे बारे में एक पुस्तिका है- स्पष्ट है कि मेरे जीवन काल में ही कम से कम एक बार इस पैगंबर को अपने देश में ही सम्मान प्राप्त हुआ। भारतीय एवं अमेरिकन अख़बारों और पत्रों में मेरे बारे में प्रकाशित सामग्री के उद्धरण हैं। कलकत्ते के पत्रों में प्रकाशित उद्धरण तो विशेषकर संतोषप्रद हैं, पर इनकी अतिश्योक्तिपूर्ण लेखन शैली के कारण मैं इन्हें तुम्हारे पास न भेजूँगा। उनमें मुझे विशिष्ट, अद्भुत और इसी ढंग की बेकार की बातों से विभूषित किया गया है, परंतु उन्होंने मुझे समग्र जाति को कृतज्ञता भी भेजी है। अब सिर्फ़ एक बात के सिवा मुझे कोई चिंता नहीं है कि मेरे देशवासी या अन्य लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं। मेरी बूढ़ी माँ हैं। वे जिंदगी भर यातना सहती रहीं और इन कष्टों के बीच भी मुझे ईश्वर और मानव के सेवार्थ अर्पण कर सकी। किंतु यह संवाद कि उन्होंने अपने सबसे प्यारे का, अपनी आशा का त्याग किया- दूर देश में घोर अनैतिक पाशविक जीवन बिताने के लिए-जैसा कि मजूमदार कलकत्ते में प्रचारित कर रहे हैं, उनका प्राण हर लेगा। पर प्रभु महान हैं; उनकी संतान को कोई चोट नहीं पहुँचा सकता।
मेरे किसी प्रयास के बिना ही भेद खुल गया। क्या तुम जानती हो कि हमारे अन्यतम प्रधान पत्र का, जो मेरी इतनी प्रशंसा करता है, संपादक कौन है ? और ईश्वर को धन्यवाद देता है कि मैं हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व करने अमेरिका आया ? वह मजूमदार का चचेरा भाई है ! ! बेचारा मजूमदार ! ईर्ष्यावश उसने झूठ बोलकर अपना ही अहित किया है। ईश्वर जानता है, मैंने अपनी सफ़ाई देने का कोई प्रयास नहीं किया।
'फोरम' में मैंने श्री गांधी का लेख इसके पूर्व ही पढ़ लिया था।
अगर तुम्हारे पास गत मास का 'रिव्यू ऑफ रिव्यूज़' हो, तो उसमें से भारत की अफ़ीम समस्या पर भारत के एक सर्वोच्च अंग्रेज़ अधिकारी का दिया हुआ हिंदुओं के संबंध में विवरण माँ को पढ़कर सुना देना। उसने हिंदुओं की तुलना अंग्रेज़ों से की हैं और हिंदुओं को आसमान पर चढ़ा दिया है। सर लेपेल ग्रिफि़न हमारी जाति के कट्टर शत्रु थे, पता नहीं, मोर्चे में यह परिवर्तन कैसे हुआ ?
बोस्टन में श्रीमती ब्रीड के यहाँ समय बहुत अच्छा बीता और प्रोफे़सर राइट से मुलाकात हुई। मैं बोस्टन फिर जा रहा हूँ। दर्जी मेरा नया गाउन बना रहा है- केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी (हार्वर्ड) में मेरा व्याख्यान होगा और मैं वहाँ प्रो. राइट का मेहमान रहूँगा। बोस्टन के पत्रों में मेरे स्वागत में वे लोग खू़ब लिख रहे हैं।
अब इन वाहियात कामों से मैं थक गया हूँ। मई के उत्तरार्द्ध में शिकागो जाऊँगा। और कुछ दिन ठहरने के बाद मैं पुन: पूर्व की ओर वापस चला आऊँगा।
मैंने पिछली रात को वाल्डोर्फ़ होटल में व्याख्यान दिया था। श्रीमती स्मिथ ने दो डालर प्रति टिकट बेचे। यद्यपि हॉल पूरा भरा हुआ था, लेकिन था छोटा ही। अभी तक वह रक़म मुझे नहीं मिली है। आशा है, आज दिन भर में मिल जाएगी। लिन में मुझे भी डालर प्राप्त हुए। उनको मैं भेज नहीं रहा हूँ, क्योंकि मुझे नया गाउन तथा दूसरी ऊटपटाँग चीज़ें लेनी हैं।
बोस्टन में मैं रूपये कमाने की आशा नहीं करता। फिर भी अमेरिका के मस्तिष्क को स्पर्श तो मुझे करना ही है और मुझसे अगर हो सका, तो उसे और उद्वेलित भी करना है।
तुम्हारा प्यारा भाई,
विवेकानन्द
(कुमारी ईसाबेल मैक्किंडली को लिखित)
न्यूयार्क
२ (वास्तव में पहली) मई, '९४
प्रिय बहन,
मैं विवश हूँ, अभी तत्काल तुमको पुस्तिका नहीं भेज सकूँगा। अखबार की कुछ कतरनें भारत से आयी हैं, उन्हें तुम्हारे पास भेज रहा हूँ। पढ़ने के पश्चात उन्हें श्रीमती बैग्ली के पास भेज देना। इस पत्र के संपादक मजूमदार के संबंधी हैं। मैं बेचारे मजूमदार के लिए दु:खी हूँ !!
मुझे यहाँ अपने कोट के लिए अभीष्ट नारंगी रंग नहीं मिल सका, अत: जो सबसे अधिक उस जैसा मिला- पीलेपन की अधिकता मिलाए हुए गहरा लाल रंग- उसी से संतोष करना पड़ा। कुछ दिनों में कोट तैयार हो जाएगा।
अभी उस दिन वाल्डोर्फ में व्याख्यान से मुझे ७० डालर प्राप्त हुए। कल के व्याख्यान से आशा है, कुछ अधिक ही प्राप्त होंगे। ७ ता. से १९ ता. तक बोस्टन में कार्यक्रम है, पर वे लोग बहुत कम देते हैं।
कल मैंने एक पाइप १३ डालर का ख़रीदा है- कृपया 'फ़ादर पोप' से इसका जिक्र न करना। कोट में ३० डालर लगेंगे। मुझे खाना ठीक मिल रहा है... और पर्याप्त रूपये भी। आगामी लेक्चर के बाद बैंक में कुछ जमा करवा सकूँगा।
... शाम को मैं एक निरामिष भोज में बोलने जा रहा हूँ।
हाँ, मैं निरामिष हूँ..., क्योंकि जब वैसा खाना मिल जाता है, तो मैं उसे ही अधिक पसंद करता हूँ। परसों लीमन एबॉट के यहाँ एक और मध्याह्न भोज का निमंत्रण है। मेरा समय बहुत अच्छा बीत रहा है, बोस्टन में भी बहुत अच्छा बीतेगा- सिर्फ़ उस गर्हित लेक्चरबाज़ी को छोड़कर ! जैसे ही १९वीं तारीख बीतेगी- बोस्टन से शिकागो, एक छलांग... और फि़र आराम और विश्राम की एक लंबी साँस, दो-तीन हफ्ते तक विश्राम। बस, बैठा रहूँगा और बातें करूँगा, बातें और धूम्रपान।
हाँ, तुम्हारे न्यूयार्क के लोग बड़े भले हैं, सिर्फ़ बुद्धि की अपेक्षा उनके पास धन अधिक है।
मैं हार्वर्ड विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के बीच व्याख्यान देने जा रहा हूँ। श्रीमती ब्रीड ने बोस्टन और हार्वर्ड में तीन-तीन व्याख्यान आयोजित किये हैं। कुछ के आयोजन लोग यहाँ भी कर रहे हैं, जिससे शिकागो जाते समय मैं न्यूयार्क एक बार फि़र आऊँगा और उन्हें दो चार ज़ोरदार बातें सुनाकर पैसे जेब में भर लूंगा और शिकागो उड़ जाऊँगा।
न्यूयार्क या बोस्टन में यदि तुम्हें कुछ ऐसा मँगाना हो, जो शिकागो में न मिलता हो, तो जल्दी ही लिख देना। अब मेरे पास ढेर से डॉलर हैं। तुम जो चाहोगी क्षण भर में भेज दूँगा। यह न सोचना कि इसमें कुछ अशोभन होगा- मेरे संबंध में कोई पाखंड नहीं। यदि मैं भाई हूँ, तो भाई हूँ- दुनिया में अगर किसी बात से मुझे नफ़रत करता हैं, तो पाखंड से।
तुम्हारा स्नेही भाई,
विवेकानन्द
(प्रोफे़सर जॉन हेनरी राइट को लिखित)
न्यूयार्क,
४ मई, १८९४
प्रिय अध्यापक जी,
मुझे अभी-अभी आपका पत्र मिला और यह कहना अनावश्यक है कि मुझे आपके कथानुसार कार्य करने में प्रसन्नता होगी।
कर्नल हिगिन्सन के पत्र भी मुझे प्राप्त हुए हैं। मैं उनको जवाब दे दूँगा।
रविवार (६ मई) को मैं बोस्टन में रहूँगा। और सोमवार को श्रीमती हाउ के महिला क्लब में मेरा व्याख्यान होगा।
आपका चिर विश्वासी,
विवेकानन्द
(स्वामी अभेदानंद को लिखित)
संयुक्त राज्य अमेरिका
१८९४
प्रिय काली,
तुम्हारे पत्र से मुझे सब समाचार ज्ञात हुआ, जिस तार के बारे में तुमने लिखा हैं, उसके 'ट्रिब्यून' में निकलने की मुझे कोई सूचना नहीं मिली। छ: महीने हुए, मैंने शिकागो छोड़ा था और अभी तक मुझे वहाँ लौटने का समय नहीं मिला है। इसलिए मैं वहाँ के हाल की बराबर ख़बर न रख सका। तुमने बड़ा कष्ट उठाया है, उसके लिए तुम्हें मैं किस प्रकार धन्यवाद दूँ ? तुम सबने काम करने की एक अद्भुत योग्यता दिखाई है। श्री रामकृष्ण के वचन मिथ्या कैसे हो सकते हैं? तुम लोगों में अद्भुत तेज हैं। शशि सान्याल के विषय में मैंने पहले ही लिखा है। श्री रामकृष्ण की कृपा से कुछ भी छिपा नहीं रहता। अगर वे चाहें तो संप्रदाय स्थापना आदि करें, इसमें क्या हानि है? शिवा व: सन्तु पन्थान:- 'तुम्हारा पथ कल्याणमय हो।' दूसरी बात यह कि तुम्हारे पत्र का अभिप्राय मैं नहीं समझ सका। अपने सबके लिए मठ बनाने को मैं स्वयं चंदा जमा करूँगा, और यदि इस बात के लिए लोग मेरी निंदा करें, तो इसमें मेरा कुछ घटता बढ़ता नहीं है। तुम लोगों की बुद्धि कूटस्थ बुद्धि है, तुम्हें कोई हानि न पहुँचेगी। तुम लोगों का आपस में अत्यंत प्रेम-भाव हो, जनता की टीका-टिप्पणी के प्रति उदासीनता का भाव हो, इतना ही पर्याप्त है। कालीकृष्ण बाबू को हमारे उद्देश्यों के प्रति अगाध प्रेम है और वे महान पुरुष हैं। उन्हें विशेष रूप से मेरा स्नेह कहना। जब तक तुम लोगों में भेद-भाव न हो, प्रभु की कृपा से रणे वने पर्वतमस्तके वा- चाहे रण में, चाहे वन में, चाहे पर्वत के शिखर पर, तुम्हारे लिए कोई भी भय नहीं रहेगा। श्रेयांसि बहु विघ्नानि- 'श्रेष्ठ कार्य में अनेक विघ्न होते हैं।' यह तो स्वाभाविक ही हैं। अति गंभीर बुद्धि धारण करो। बाल बुद्धि जीव कौन क्या कह रहा है, उस पर तनिक भी ध्यान न दो। उदासीनता ! उदासीनता ! उदासीनता ! मैं शशि (रामकृष्णानंद) को विस्तारपूर्वक लिख चुका हूँ। कृपा करके समाचारपत्र और पुस्तकें अब न भेजना। 'ढेंकी स्वर्ग में भी जाकर धान ही कूटता है'। देश में भी दर-दर भटकता फिरना और यहाँ भी वही। बोझा ढोना ऊपर से। बोलो, इस देश में किस तरह औरों की पुस्तकों के खरीदार जुटाऊँ ? एक साधारण से व्यक्ति के सिवा और तो कुछ मैं हूँ नहीं। यहाँ के समाचारपत्र आदि मेरे विषय में जो कुछ भी लिखते हैं, उसे मैं अग्निदेव को समर्पित करता हूँ। तुम भी वही करो, वही वाजिब तरीक़ा है।
गुरुदेव के काम के लिए जनता में कुछ प्रचार-प्रदर्शन की आवश्यकता थी। वह हो गया, अच्छा हुआ। अब तुम लोग ऐरे गैरे लोगों की एकवास पर बिल्कुल ध्यान न देना। चाहे मैं धन एकत्र करुँ या और कुछ करुँ, क्या ऐरे गैरे मनुष्यों का मतामत प्रभु के कार्य में रुकावट डाल सकता है ? भाई, तुम अभी बालक हो और मेरे तो बाल सफ़ेद हुए जा रहे हैं। ऐसे लोगों की बातों और मतामत पर मेरी श्रद्धा का अंदाज़ तुम इसी से लगा लो। चाहे सारा संसार एक होकर भी हमारे विरुद्ध खड़ा हो जाए, जब तक तुम लोग कमर कसकर मेरे पीछे हो, हमें किसी बात का डर नहीं। मैं इतना समय गया हूँ कि मुझे बहुत ही ऊँचा आसन लेना पड़ेगा। तुम लोगों के सिवाय और किसी को पत्र नहीं लिखूँगा। गुणनिधि कहाँ हैं ? उसे ढूँढ़कर यत्नपूर्वक मठ में लाने की चेष्टा करना। वह बड़ा विद्वान् और सच्चा मनुष्य है। तुम ज़मीन के दो प्लाट लेने की व्यवस्था करो, लोग चाहे जो कहें, कहने दो। मेरे पक्ष या विपक्ष में समाचारपत्रों में कौन क्या लिखता है लिखने दो, तुम उसकी बिल्कुल परवाह न करो। और भाई, मैं बार-बार तुमसे विनती करता हूँ कि टोकरे भर-भर कर समाचारपत्र मुझे न भेजा करो। इस विषय विश्राम को बात तुम कैसे कर सकते हो? जब हम इस शरीर को त्यागेंगे, तभी कुछ दिनों के लिए विश्राम करेंगे। भाई, तुम्हारे उस प्रचंड तेज से एकबार जोरदार महोत्सव कर दिखाओ। चारों ओर धूम मच जाये ! वाह बहादुर! शाबाश ! प्रेम का प्रचंड प्रवाह परिहास करने वालों के समूह को बहा देगा। तुम हाथी हो, चींटी के काटने से तुम्हें क्या डर है?
वह अभिनंदन-पत्र जो तुमने मुझे भेजा था, वह बहुत पहले ही मुझे मिल गया था। उसका उत्तर भी मैंने प्यारे मोहन बाबू को भेज दिया है।
हमेशा याद रखो- आँखें दो होती हैं और कान भी दो, परंतु मुख एक होता है। उदासीनता, उदासीनता, उदासीनता। न हि कल्याणकृत कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति (श्रीमभगवद्गीता ६-४०) -हे तात, सुकर्म करने वाला दुर्गति को कभी प्राप्त नहीं होता।' डर किसका ! किनका भय रे भाई ? यहाँ, मिशनरी-विशनरी सभी चिल्ला-चिल्लाकर अब मौन हो गये हैं और दुनिया भी ऐसा ही करेगी।
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि बा स्तुवन्तु
लक्ष्मी: समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगांतरे वा
न्याय्यात्पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा:।।
-'नीति में निपणु लोग चाहे प्रशंसा करें या निंदा, लक्ष्मी चाहे अनुकूल हों या अपने मनमाने मार्ग पर जाएं, चाहे मृत्यु आज आये या सैकड़ों वर्षों बाद, धैर्यवान व्यक्ति कभी न्याय के पथ से विचलित नहीं होते।' [8]
ऐरे ग़ैरों से मिलने की कोई आवश्यकता नहीं है, न उनसे कुछ माँगने की। प्रभु सब जुटा रहे हैं और भविष्य में भी जुटाएँगे। भय किस बात का है मेरे भाई ? सभी बड़े-बड़े कार्य प्रबल विघ्नों के मध्य ही हुए होते हैं। हे वीर , स्मर पौरुषमात्मन:, उपेक्षितव्या: जना: सुकृपणा: कामकांचनवशगा:- 'हे वीर, अपने पौरुष का स्मरण करो, कामकांचनसक्त दयनीय लोगों की अपेक्षा ही उचित है।' अब इस देश में मैं दृढ़प्रतिष्ठ हो गया हूँ, इसलिए मुझे सहायता की आवश्यकता नहीं है। परंतु तुम सब लोगों से मेरी एक यही प्रार्थना है कि मेरी सहायता करने की उत्सुकता में भ्रातृप्रेम के कारण तुम लोगों में जो क्रियात्मक पुरुषार्थ उत्पन्न हो गया है, उसे प्रभु के कार्य में लगाओ। जब तक तुम निश्चित रूप से न जान लो कि वह हितकर होगा, तब तक अपने मन का भेद न खेलो। बड़े से बड़े शत्रु के प्रति भी प्रिय और कल्याणकारी शब्दों का व्यवहार करो।
नाम, यश और धन के भोग की इच्छा स्वत: ही जीव में है उससे अगर दोनों पक्षों का काम चले तो सभी आग्रही होते हैं। परगुणपरमाणुं पर्वतीकृत्य, अपि च त्रिभुवन के उपकार मात्र की इच्छा केवल महापुरुषों को ही होती है। [9] इसलिए विमूढ़मति, अनात्म-दर्शी, तमसाच्छन्न-बुद्धि जीव को उसकी जीवन बालचेष्टा करने की। गरम महसूस होने पर स्वयं ही भाग जाएंगे। चाँद पर थूकने की चेष्टा करें- 'शुभं भवतु तेषाम्' (उनका मंगल हो)। अगर उनमें माल हो तो उनके साफल्य में बाधा कौन डाल सकता है ? लेकिन अगर ईर्ष्या के वश में होकर केवल आस्फालन भर करें तो सब निष्फल हो जाएगा। हरमोहन ने जप-मालाएँ भेजी हैं। बहुत अच्छा परंतु तुम्हें यह जानना चाहिए कि उस प्रकार का धर्म, जो हमारे देश में प्रचलित हैं, यहाँ नहीं चल सकता। उसे लोगों की रुचि के अनुकूल बनाना होगा। यदि तुम उनसे हिंदू बनने को कहोगे, तो वे तुमसे दूर भागेंगे और तुमसे द्वेष करेंगे, जैसे कि तुम ईसाई धर्मोपदेशकों से कहते हैं। उन्हें हिंदू शास्त्रों के कुछ विचार प्रिय लगते हैं, बस, इतना ही बात है, इससे अधिक कुछ नहीं। अधिकांश पुरुष धर्म के लिए माथापच्ची नहीं करते। महिलाओं को कुछ रुचि हैं, किंतु अधिक मात्रा में नहीं। दो-चार हज़ार व्यक्तियों को अद्वैत मत में श्रद्धा हैं। परंतु पोथी, जात-पाँत, स्त्रियों की निंदा आदि की बातें करो, तो वे तुमसे किनारा काटेंगे। सभी काम धीरे-धीरे होते हैं। धैर्य, पवित्रता एवं अध्यवसाय।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
(प्रोफेसर हेनरी राइट को लिखित)
१७, बेकन स्ट्रीट, बोस्टन,
मई, १८९४
प्रिय अध्यापक जी,
अब तक आपको पुस्तिका एवं पत्र मिल गये होंगे। अगर आप चाहें, तो मैं शिकागो से भारतीय राजाओं एवं मंत्रियों के कुछ पत्रों को आपके पास भिजवाऊँ। उनमें से एक मंत्री तो अफ़ीम कमीशन के सदस्य भी रह चुके हैं, जो शाही कमीशन के अधीन बैठा था। अगर आप चाहेंगे, तो मैं उनसे मेरे एक प्रतारक न होने का विश्वास दिलाते हुए आपको पत्र लिखवा दूँगा। पर भाई, हमारे जीवन का आदर्श तो गोपनीयता, दमन व वर्जन का है।
हम लोग त्यागने के लिए हैं, ग्रहण करने के लिए नहीं। अगर मेरे सिर पर यह धुन सवार न होती, तो मैं यहाँ कभी आता ही नहीं। मैं इसी आशा से यहाँ आया था कि धर्म-महासभा में सम्मिलित होने से मेरे कार्य को सहायता मिलेगी; अन्यथा जब भी मेरे अपने लोग मुझे यहाँ भेंजना चाहते, तब मैं हमेशा उन्हें मना करता रहा। मैं उनसे यही कहकर आया हूँ, ''अगर आप मुझे भेजना चाहें, तो भेजें, किंतु महासभा में सम्मिलित होना न होना मेरे ऊपर निर्भर करता है।'' उन्होंने मुझे स्वतंत्रता देकर ही यहाँ भेजा है।
शेष कार्य आपके द्वारा संपन्न हुआ।
मेरे कृपालु मित्र, मैं नैतिक रूप से बाध्य हूँ कि मैं आपको पूर्ण रुपेण संतुष्ट रखूँ। लेकिन बाक़ी दुनिया की मैं चिंता नहीं करता कि वह मेरे बारे में क्या कहती है। संन्यासी को आत्म-रक्षा की चिंता नहीं करनी चाहिए। अत: मैं आपसे विनती करता हूँ कि आप उस पुस्तिका एवं उन पत्रों को न तो प्रकाशित ही करें और न ही किसी अन्य को ही दिखाएं। पुरानी मिशनरी की कोशिशों की मैं चिंता नहीं करता, पर ईर्ष्या के जिस ज्वर का शिकार मजूमदार हुए थे, उसे देखकर मुझे बड़ा आघात लगा, और मैं प्रार्थना करता हूँ कि उन्हें सद्भबुद्धि प्राप्त हो, क्योंकि वे एक महान और उत्तम व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपना सारा जीवन सत्कार्य में ही लगाया है। इससे मेरे गरुदेश का यह कथन सिद्ध हो जाता है कि 'काजल की कोठरी में कैसा ही सयाना क्यों न जाए, काजल की एक रेख लगेगी। [10] इसलिए कोई कितना भी पवित्र और सदाशय बनने की चेष्टा न करें, जब तक वह इस संसार में है, उसकी प्रकृति का कुछ न कुछ अंश निम्नगामी हो ही जाता है!
ईश्वर का पथ संसार के पथ का विपरीत है। ईश्वर और कुबेर की साथ-साथ सिद्धि बहुत कम लोगों को होती है।
मैं कभी मिशनरी नहीं रहा, और न कभी बनूँगा ! मेरा स्थान तो हिमालय में है। अब तक मैंने अपने को संतुष्ट रखा है और पूर्ण संतोष के साथ मैं कह सकता हूँ, ''मेरे प्रभु ! मैंने अपने भाइयों को भयानक दु:ख के बीच देखा; मैंने इससे उनकी मुक्ति का मार्ग खोज निकाला,- मैंने उस उपाय के प्रयोग करने का पूरा यत्न किया, पर असफल रहा। अब तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो।''
आप लोगों पर प्रभु की कृपा सर्वदा बनी रहे।
आपका स्नेही,
विवेकानन्द
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
कल या परसों मैं शिकागो चला जाऊँगा।
आपका ही,
विवेकानन्द
(स्वामी सारदानंद को लिखित)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
२० मई, १८९४
प्रिय शरत्,
तुम्हारा पत्र मिला और यह जानकर मुझे खुशी हुई कि शशि ने आरोग्य लाभ किया है। मैं तुम्हें एक अद्भुत बात बता रहा हूँ- जब कभी तुम लोगों में से कोई अस्वस्थ हो जाए, तब वह स्वयं ही अथवा तुम लोगों में कोई उसे मानसनेत्र से प्रत्यक्ष करो। इस तरह देखते- देखते मन में सोचो और दृढ़तापूर्वक कल्पना करो कि वह पूर्णरूपेण स्वस्थ हो गया है। इस से वह शीघ्र ही आरोग्य-लाभ करेगा। अस्वस्थ व्यक्ति को सूचित किये बिना भी तुम ऐसा कर सकते हो। और, हज़ारों कोस दूर से भी यह क्रिया की जा सकती है। इसे सदा याद रखो और कभी अस्वस्थ मत होओ। यदि तुम लोग चाहो तो मैंने मठ के लिए जो रकम भेजी है, उसमें से ३०० रु. गोपाल को दे देना। फिलहाल मेरे पास इतने पैसे नहीं कि भेज सकूँ। अब मुझे मद्रास का देखभाल करना है।
सान्याल अपनी लड़कियों की शादी कराने के लिए इतना अस्थिर क्यों हो गया है, समझ में नहीं आता। आखि़र, बात तो यह है कि जिस गृहस्थी के पंक से वह स्वयं भागना चाहता है, उसी में वह अपनी बेटियों को घसीटना चाहता है ! इस संबंध में मेरा बस एक ही सिद्धांत हो सकता है- यह नितांत निंदनीय है ! बेटा-बेटी किसी का भी हो; विवाह के नाम से मैं घृणा करता हूँ। अहमकों ! तुम क्या यह कहना चाहते हो कि मैं किसी को बंधन में डालने में सहायता करूँ ? यदि मेरा भाई महिन विवाह कर ले, तो मैं उसे दूर कर दूँगा। इस संबंध में मैं दृढ़संकल्प हूँ।...
सप्रेम तुम्हारा,
विवेकानन्द
(प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट को लिखित)
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
२४ मई, १८९४
प्रिय अध्यापक जी,
मैं खेतड़ी के महाराजा का एक पत्र आपके पास भेज रहा हूँ जो राजपुताना के वर्तमान सत्तारुढ़ राजाओं में अन्यतम हैं। दूसरा पत्र वर्तमान अफ़ीम कमिश्नर से है जो भारत के बड़े राज्यों में से एक जूनागढ़ के भूतपूर्व दीवान रहे हैं और जिन्हें भारत का ग्लैडस्टोन कहा जाता है। इनसे, मैं आशा करता हूँ आपको विश्वास हो जाएगा कि मैं प्रतारक नहीं हूँ। एक बात मैं आपको बताना भूल गया। मैंने श्री मजूमदार के दल के प्रमुख [11] के साथ कभी घनिष्ठ संबंध नहीं स्थापित किया था। अगर वे ऐसा कहते हैं, तो वे सत्य नहीं कहते। आशा है आप कृपया सुविधानुसार पत्रों को देखने के पश्चात् मुझे लौटा देंगे। पुस्तिका की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है, मैं उसका कोई मूल्य नहीं देता।
मेरे प्रिय मित्र, मैं इस बात के लिए आपको हर प्रकार से संतुष्ट करने के लिए बाध्य हूँ कि मैं एक सच्चा सन्यासी हूँ, लेकिन सिर्फ आपको ही। लोग मेरे बारे में क्या कहते और सोचते हैं, इसकी चिंता मुझे नहीं है।
''कोई तुम्हें संत कहेगा, कोई चांडाल, कोई पागल कहेगा और कोई दानव! अत: सबकी अनसुनी करके सीधे अपना कार्य करते रहो।'' यह भारत के एक प्राचीन संन्यासी, राजा भर्तृहरि का कथन है, जिन्होंने प्राचीन काल में संन्यास ग्रहण किया था।
प्रभु आपको सदा प्रसन्न रखें। बच्चों के लिए मेरा प्यार एवं आपकी महीयसी धर्मपत्नी के लिए मेरी श्रद्धा।
आपका चिरंतन मित्र,
विवेकानन्द
पुनश्च- पंडित शिवनाथ शास्त्री के दल से मेरा संबंध था- केवल सामाजिक सुधार की कुछ बातों को लेकर। एम- और सी- एस- को मैंने कभी सच्चा नहीं माना और कारण नहीं है कि मैं अपनी राय अब भी बदलूँ। धार्मिक बातों में मेरा अपने मित्र पंडित जी से काफी मतभेद रहा। मतभेद की मुख्य बात यह थी कि मैं संन्यास (संसार का त्याग) को सर्वोच्च आदर्श कहता था, और वे उसे पाप मानते थे। इस प्रकार ब्रह्मा समाजी संन्यासी होना पाप मानते हैं ! !
आपका ही
विवेकानन्द
ब्रह्म समाज का प्रचार, आपके देश के ईसाई विज्ञान (Christian Science) की तरह, कुछ समय तक कलकत्ते में हुआ, लेकिन बाद में समाप्त हो गया। इसकी समाप्ति पर न तो मुझे हर्ष ही है और न विषाद ही। इसने अपना कार्य किया-- समाज-सुधार का कार्य। उसका धर्म एक कौड़ी का भी नहीं था और वह मरता ही। अगर एम.- यह सोचते हैं कि उसकी मृत्यु का कारण मैं हूँ, तो वह उनकी भूल है। उन सुधारों के प्रति तो मेरी अभी भी पूर्ण सहानुभूति है; पर प्राचीन 'वेदांत' के आगे यह मूढ़ धर्म ठहर नहीं सका। मैं क्या कर सकूँगा ? इसमें मेरा दोष क्या है ? एम.- अपनी वृद्धावस्था में बच्चे हो गये हैं, और जो ढंग उन्होंने अपनाया है, वह ठीक वैसा ही है, जैसा आपके कुछ मिशनरी लोग अपनाते हैं। प्रभु उनका कल्याण करें और उन्हें सन्मार्ग दिखलाए।
आपका ही,
विवेकानन्द
आप एनिस्क्वाम कब जा रहे हैं ? बाइम और ऑस्टिन को मेरा प्यार। आपकी पत्नी को मेरा अभिवादन, और आपके प्रति मेरा प्रेम एवं आभार तो अकथनीय है।
आपका चिर स्नेही,
विवेकानन्द
(आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
शिकागो,
२८ मई, १८९४
प्रिय आलासिंगा,
मैं तुम्हारे पत्र का जवाब इसके पहले नहीं दे सका; क्योंकि मैं न्यूयार्क से बोस्टन तक विभिन्न स्थानों में लगातार घूमता रहा था और मैं नरसिंह के पत्र की प्रतीक्षा भी कर रहा था। मैं नहीं जातना कि मैं भारत कब लौटूँगा। उन्हीं के हाथों में सब कुछ छोड़ देना अच्छा है, मेरे पीछे रहकर जो मुझे चला रहे हैं। मेरे बिना ही कार्य करने का प्रयत्न करो, समझ लो, मैं कभी था ही नहीं। किसी व्यक्ति या किसी वस्तु की कभी अपेक्षा मत करो। जितना कुछ कर सकते हो, करो। किसी के ऊपर अपनी आशा का महल न खड़ा करो। अपने संबंध में कुछ लिखने के पूर्व मैं तुमसे नरसिंह के विषय में कुछ कहूँगा। उसने सभी को निराश कर दिया है। कुछ दुष्ट चरित्र स्त्री-पुरुषों के साथ उठने-बैठने से अब उसे कोई अपने पास तक फटकने नहीं देता। खै़र, अधोगति की अंतिम सीमा तक पहुँचकर उसने मुझको सहायता के लिए लिख भेजा। मैं भी यथाशक्ति उसकी सहायता करूँगा। फिर भी तुम उसके रिश्तेदारों से कहना कि वे उसके देश लौटने के लिए जल्दी खर्च भेजें। वे 'कुक' कंपनी के पते पर रुपया भेज सकते हैं। वे उसे नकद रूपये न देकर भारत के लिए एक टिकट दे देंगे। मेरा ख्याल है कि मार्ग में यात्रा स्थगित कर देने की कहीं कोई प्ररोचना न होने के कारण उसके प्रति प्रशांत महासागर होकर लौटना ही अच्छा रहेगा। बेचारा बड़ी मुसीबत में पड़ा हुआ है। अवश्य ही मैं इस बात का ख्याल रखूँगा। कि वह भूखों न मरे। फोटोग्राफ के बारे में मुझे यही कहना है कि इस समय मेरे पास एक भी नहीं है- कई एक भेजने के लिए आर्डर दे दूँगा। महाराज खेतड़ी को मैंने कई एक भेजे थे और उन्होंने उनमें से कुछ छपवाये भी थे; इस बीच तुम उन्हें उनमें से कुछ को तुम्हें भेज देने के लिए लिख सकते हो।
मैंने यहाँ बहुत से व्याख्यान दिये हैं। धर्मपाल ने जो तुमसे कहा था कि मैं इस देश से चाहे जितना रुपया जमा कर सकता हूँ, यह बात ठीक नहीं है। इस वर्ष इस देश में बड़ा ही अकाल पड़ा हुआ है- ये अपने यहाँ के ग़रीबों के ही सब अभाव दूर नहीं कर सकते हैं। जो हो, मैं इसलिए उनको धन्यवाद देता हूँ कि मैं ऐसे समय में भी उनके अपने वक्ताओं की अपेक्षा अधिक सुविधाएँ पा रहा हूँ। परंतु यहाँ खर्च बहुत होता है। यद्यपि प्राय: सदा ही और सब कहीं श्रेष्ठ और सुंदर तम गृहों में मेरा सत्कार किया गया है, तो भी रुपया मानो उड़ ही जाता है।
मैं कह नहीं सकता कि आगामी गर्मियों में यहाँ से चला जाऊँगा या नहीं- शायद नहीं। इस बीच तुम लोग संघबद्ध होने और हमारी योजनाओं को अग्रसर करने का प्रयत्न करो। विश्वास रखो कि तुम सब कुछ कर सकते हो। याद रखो कि प्रभु हमारे साथ हैं, और इसलिए ऐ बहादुरों ! आगे बढ़ते रहो।
मेरे अपने देश ने मेरा बहुत आदर किया है। आदर हो या न ही, तुम लोग सो मत जाओ, प्रयत्न में शिथिलता न आने दो। याद रखो कि हमारी योजनाओं का अभी तिल भर भी कार्य रूप में परिणत नहीं हुआ है।
शिक्षित युवकों को प्रभावित करो, उन्हें एकत्रित करो और संघबद्ध करो। बड़े-बड़े काम केवल बड़े-बड़े स्वार्थ त्यागों से ही हो सकते हैं। स्वार्थपरता की आवश्यकता नहीं, नाम की भी नहीं, यश की भी नहीं- तुम्हारे नहीं, मेरे नहीं, मेरे प्रभु के भी नहीं। काम करो, भावनाओं को, योजनाओं को कार्यान्वित करो, मेरे बालकों, मेरे वीरों, सर्वोत्तम, साधुस्वभाव मेरे प्रियजनों, पहिये पर जा लगो, उस पर अपने कंधे लगा दो। नाम, यश अथवा तुच्छ विषयों के लिए पीछे मत देखो। स्वार्थ को उखाड़ फेंको और काम करो। याद रखना- तृणैर्गुणत्वमापन्नै- र्बध्यन्ते मत्तदन्तिन:- 'बहुत से तिनकों को एकत्र करने से जो रस्सी बनती है, उससे मतवाला हाथी भी बँध सकता है।' तुम सब पर प्रभु का आशीर्वाद बरसे। उनकी शक्ति तुम सबके भीतर आये। मुझे विश्वास है कि उनकी शक्ति तुममें वर्तमान ही है। वेद कहते हैं, उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत- 'उठो, जागो, लक्ष्यस्थल पर पहुँच जाने के पहले रुको नहीं।' उठो, उठो, लंबी रात बीत रही है, सर्वोदय का प्रकाश दिखायी दे रहा है। तरंग ऊँची उठ चुकी है, उस प्रचंड जलोच्छृास का कुछ भी प्रतिरोध न कर सकेगा। यदि मुझे तुम्हारे पत्रों का उत्तर देने में दे हो जाए, तो दु:खी या निराश न होना। लिखना आदि सब इस संसार में निरर्थक हैं। उत्साह, मेरे बच्चों, उत्साह ! प्रेम, मेरे बच्चों, प्रेम। विश्वास और श्रद्धा। और, डरो नहीं। भय ही सबसे बड़ा पाप है।
सबको मेरा आशीर्वाद। मद्रास के उन सभी महाशय व्यक्तियों को जिन्होंने हमारे कार्य में सहायता की थी, कहना कि मैं उन्हें अपनी अनंत कृतज्ञता और अनंत प्रेम भेज रहा हूं परंतु मेरी उनसे यही प्रार्थना है कि वे काम में शिथिलता न आने दें। चारों ओर विचारों को फैलाते रहो। घमंडी न होना। किसी भी हठधर्मितावाली बात पर बल न दो। किसी का विरुद्धाचरण भी मत करना। हमारा काम केवल यही है कि हम अलग-अलग रासायनिक पदार्थों को एक साथ रख दें। प्रभु ही जानते हैं कि किस तरह और कब वे मिलकर दाने बन जाएंगे। सर्वोपरि, मेरी या अपनी सफलता से फूलकर कुप्पा न हो जाना,अभी हमें बड़े- बड़े काम करने बाक़ी हैं। भविष्य में आने वाली सिद्धि की तुलना में यह तुच्छ साफल्य क्या है ? विश्वास रखो, विश्वास रखो- प्रभु की। आज्ञा है कि भारत की उन्नति अवश्य ही होगा और साधारण तथा गरीब लोगों को सुखी करना होगा। अपने आप को धन्य मानों कि प्रभु के हाथों में तुम निर्वाचित यंत्र हो। आध्यात्मिकता की बाढ़ आ गयी है। निर्बाध, नि:सीमा, सर्वग्रासी उस प्लावन को मैं भूपृष्ठ पर आवर्तित होता देख रहा हूँ। तुम सभी आगे बढ़ो, सबकी शुभेच्छाएँ उसकी शक्ति में सम्मिलित हों, सभी हाथ उसके मार्ग की बाधाँ हटा दें। प्रभु की जय हो।
श्री सुब्रह्मण्य अय्यर, कृष्णस्वामी अय्यर, भट्टाचार्य और अन्य मित्रों को मेरा आंतरिक प्रेम और श्रद्धा कहना। उनसे कहना कि यद्यपि अवकाश न मिलने से मैं उनको कुछ लिख नहीं सकता, फिर भी मेरा हृदय उनके प्रति बहुत ही आकृष्ट है। मैं उनका ऋण कभी नहीं चुका सकूँगा। प्रभु उन सबको आशीर्वाद करें।
मुझे किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता नहीं है। तुम लोग कुछ धन इकट्ठाकर एक कोष बनाने का प्रयत्न करो। शहर में जहाँ गरीब से गरीब लोग रहते हैं, वहाँ एक मिट्टी का घर और एक हॉल बनाओ। कुछ मैजिक लैन्टर्न, थोड़े से मानचित्र, भूगोलक और रासायनिक पदार्थ इकट्ठा करो। हर शाम को वहाँ गरीबों को, यहाँ तक कि चाण्डालों को भी एकत्र करो। पहले उनको धर्म के उपदेश दो, फिर मैजिक लैन्टर्न और दूसरी वस्तुओं के सहारे ज्योतिष, भूगोल आदि बोलचाल की भाषा में सिखाओ। तेजस्वी युवकों का दल गठन करो और अपनी उत्साहाग्नि उनमें प्रज्वलित करो। और क्रमश: इसकी परिधि का विस्तार करते करते इस संघ को बढ़ाते रहो। तुम लोगों से जितना हो सके, करो। जब नदी में कुछ पानी नहीं रहेगा, तभी पार होंगे, ऐसा सोचकर बैठे मत रहो ! समाचार-पत्र और मासिक पत्र आदि चलाना निस्संदेह ठीक है, पर अनंत काल तक चिल्लाने और कलम घिसने की अपेक्षा कण मात्र भी सच्चा काम कहीं बढ़कर है। भट्टाचार्य के घर पर एक सभा बुलाओ और कुछ धन जमाकर ऊपर कही हुई चीजे़ं खरीदो। एक कुटिया किराये पर लो और काम में लग जाओ ! यही मुख्य काम है, पत्रिका आदि गौण है। जिस किसी भी तरह हो सके, सर्व साधारण में अवश्य ही हमें अपना प्रभाव डालना है। कार्य के अल्पारंभ को देखकर डरो मत; बड़ी चीजे़ं आगे आयेंगी। साहस रखो। अपने भाइयों का नेता बनने की कोशिश मत करो, बल्कि उनकी सेवा करते रहो। नेता बनने की इस पाशविक प्रवृत्ति ने जीवनरूपी समुद्र में अनेक बड़े-बड़े जहाज़ों को डुबा दिया है। इस विषय में सावधान रहना, अर्थात मृत्यु तक को तुच्छ समझकर नि:स्वार्थ हो जाओ और काम करते रहो। मुझे जो कुछ कहना था, सब तुमको लिख नहीं सका। किंतु मेरे तेजस्वी बालकों, प्रभु तुम्हें सब कुछ समझने की शक्ति देंगे। मेरे बच्चों, काम में लग जाओ। प्रभु की जय हो। किडी को मेरा प्रेम कहना। मुझे सेक्रेटरी साहब का पत्र मिल गया है।
सस्नेह,
विवेकानन्द
(प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट को लिखित)
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू,
१८ जून, ' ९४
प्रिय अध्यापक जी,
अन्य पत्रों को भेजने में देर हुई, क्षमा करेंगे। वे मुझे पहले नहीं मिल सके। एक सप्ताह में मैं न्यूयार्क जाऊँगा।
मैं एनिसक्वाम जाऊँगा या नहीं, नहीं कह सकता। जब तक मैं पुन: आपको न लिखूँ, आप उन पत्रों को मुझे न भेजें। बोस्टन के पत्र के मेरे विरोधी उस लेख से श्रीमती बैग्ली विचलित सी हो गयी लगती हैं। [12] डिट्रॉयट से उन्होंने मुझे उसकी एक प्रति भेज दी और मुझसे पत्राचार बंद कर दिया। उन पर प्रभुका आशीर्वाद हो। वह मेरे प्रति अत्यंत कृपालु रही हैं।
मेरे भाई, आप जैसे वीरहृदय सब नहीं होते ! हम लोगों का यह संसार एक बड़ा विलक्षण स्थान है। लेकिन मुझे- मुझ जैसे एक निरे अजनबी को, जिसके पास कोई परिचय पत्र भी न था- इस देश के लोगों से जितनी सहृदयता मिली हैं, उसके लिये मैं प्रभु का अत्यंत आभारी हूँ। सब कुछ ही अंतत: मंगलमय ही होता है।
आपका चिर आभारी,
विवेकानन्द
पुनश्च- बच्चों के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के डाक टिकट भेज रहा हूँ अगर उन्हें पसंद हों।
विवेकानन्द
(स्वामी शिवानंद को लिखित)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
१८९४
प्रिय शिवानंद,
तुम्हारा पत्र अभी मिला। तुम्हें मेरे पहले के पत्र मिल चुके होंगे और मालूम हो गया होगा कि अमेरिका में और कुछ भी भेजने की आवश्यकता नहीं है। अति सर्वत्र वर्जयेत्। समाचारपत्रों के इस हो-हल्ले ने नि:संदेह मुझे प्रसिद्ध कर दिया है, परंतु इसका प्रभाव यहाँ की अपेक्षा भारत में अधिक है। इसके विपरीत समाचारपत्रों की निरंतर गर्मबाज़ारी से यहाँ के ऊँचे वर्गों के मनुष्यों के मन में एक अरुचि सी पैदा हो जाती है। अत: जितना हुआ, वही पर्याप्त है। अब तुम लोग भारत में इन सभाओं के ढंग पर अपने आपको संगठित करने की चेष्टा करो। इस देश में तुम्हें और कुछ भेजने की आवश्यकता नहीं। धन के विषय में बात यह है कि मैंने सर्वप्रथम परम पूजनीया माताजी के लिए एक जगह बनाने का संकल्प कर लिया है, क्योंकि महिलाओं को उसकी पहले आवश्यकता है... माँ के स्थान के लिए मैं लगभग ७००० रूपये भेज सकता हूँ। यदि वह पहले हो जाए, तो फिर मुझे किसी बात को चिंता नहीं। मुझे आशा है कि इस देश से जाने के बाद भी मुझे १६०० रूपये प्रतिवर्ष मिलते रहेंगे। यह रुपया मैं महिलाओं के स्थान के लिए दे दूँगा, और फिर वह बढ़ता जाएगा। मैंने तुम्हें एक जगह ठीक करने के बारे में पहले ही लिखा है...
मैं इससे पहले ही भारत लौट आता, परंतु भारत में धन नहीं है। सहस्रों लोग रामकृष्ण परमहंस का आदर करते हैं, परंतु कोई एक फूटी कौड़ी भी नहीं देता- यह है भारत ! यहाँ लोगों के पास धन है, और वे लाग दान भी करते हैं। अगले जाड़े तक मैं भारत आ जाऊंगा। तब तक तुम लोग मिल-जुलकर रहो।
संसार सिद्धांतों की कुछ भी परवाह नहीं करता। यहाँ लोग व्यक्तियों को ही मानते हैं। जो व्यक्ति उन्हें प्रिय होगा, उसके वचन वे शांति से सुनेंगे, चाहे वे कैसे ही निरर्थक हों- परंतु जो मनुष्य उन्हें अप्रिय होगा, उसके वचन नहीं सुनेंगे। इस पर विचार करो और अपने आचरण में तदनुसार परिवर्तन करो। सब कुछ ठीक हो जाएगा। यदि तुम शासक बनना चाहते हो, तो सबके दास बनो। यही सच्चा रहस्य है। तुम्हारे वचन यदि कठोर भी होंगे, तब भी तुम्हारा प्रेम अपना प्रभाव दिखायेगा। मनुष्य प्रेम को पहचानता है, चाहे वह किसी भी भाषा में व्यक्त हुआ हो।
मेरे भाई, रामकृष्ण परमहंस ईश्वर के बाप थे, इसमें मुझे तनिक भी संदेह नहीं है परंतु उनकी शिक्षाओं की सत्यता लोगों को स्वयं देखने दो, - ये चीजे़ं तुम उन पर थोप नहीं सकते- और यही मेरी आपत्ति है।
लोगों को अपना मत प्रकट करने दो। हम इसमें क्यों आपत्ति करें ? रामकृष्ण परमहंस का अध्ययन किये बिना वेद-वेदांत, भागवत और अन्य पुराणों में क्या है यह समझना असंभव है। उनका जीवन भारतीय धार्मिक विचार-समूह के लिए एक अनंत शक्ति संपन्न सर्चलाइट है। वेदों के और वेदांत के वे जीवित भाष्य थे। भारत के जातीय धार्मिक जीवन का एक समग्र कल्प उन्होंने एक जीवन में पूरा कर दिया था।
भगवान श्री कृष्ण का कभी जन्म हुआ था या नहीं, यह मुझे नहीं मालूम, और बुद्ध, चैतन्य आदि अवतार एकदेशीय हैं; पर रामकृष्ण परमहंस सर्वाधुनिक हैं और सबसे पूर्ण हैं- ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, उदारता और लोकहितचिकीर्षा के मूर्तिमान स्वरूप हैं। किसी दूसरे के साथ क्या उनकी तुलना हो सकती है ? जो उन्हें समझ नहीं सकता है, उसका जीवन व्यर्थ है। मैं परम भाग्यवान हूँ कि मैं जन्म-जन्मांतर से उनका दास रहा हूँ। उनका एक शब्द भी वेद-वेदांत से अधिक मूल्यवान है। तस्य दासदासदासोऽहम्- मैं उनके दासों के दासों का दास हूँ! वैचित्र्यहीन कट्टरता उनकी भावधारा का परिपंथी है, उसी से मैं चिढ़ता हूँ। उनका नाम भले ही डूब जाए, परंतु उनकी शिक्षा फलप्रद हो ! क्या वे नाम के दास थे ? भाई, चंद मछुआरों और मल्लाहों ने ईसा मसीह को ईश्वर कहा था, परंतु पंडितों ने उन्हें मार डाला; बुद्ध को उनके जीवन-काल में उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में विश्वविद्यालय के भूत ब्रह्म दैत्यों ने ईश्वर कहकर पूजा की... (कृष्ण, बुद्ध, ईसा आदि) के विषय में केवल दो चार ही बातें पोथी-पुराणों में हैं। 'जिसके साथ हम कभी नहीं रहे हैं, वह अवश्य ही बड़ी घरनी होगी।' यहाँ तो जन्मावधि रातदिन संग करने के बावजूद वे उन सब ही से अधिक बड़े प्रतीत होते हैं- क्या इस बात का अंदाज लगा सकते हो, भाई ?
'माँ' का स्वरूप तत्वत: क्या है तुम लोग अभी नहीं समझ सके हो- तुममें से एक भी नहीं किंतु धीरे-धीरे तुम जानोगे। भाई, शक्ति के बिना जगत का उद्धार नहीं हो सकता। क्या कारण है कि संसार के सब देशों में हमारा देश ही सबसे अधम है, शक्तिहीन है, पिछड़ा हुआ है? इसका कारण यही है कि वहाँ शक्ति की अवमानना होती है। उस महाशक्ति को भारत में पुन: जाग्रत करने के लिए माँ का आविर्भाव हुआ है, और उन्हें केंद्र बनाकर फिर से जगत में गार्गीं और मैत्रेयी जैसी नारियों का जन्म होगा। भाई, अभी तुम क्या देख रहे हो, धीरे-धीरे सब समझ जाओगे। इसलिए उनके मठ का होना पहले आवश्यक है... रामकृष्ण परमहंस भले ही न रहें, मैं भीत नहीं हूँ। माँ के न रहने से सर्वनाश हो जाएगा। शक्ति की कृपा के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। अमेरिका और यूरोप में क्या देख रहा हूँ ? ... शक्ति की उपासना परंतु वे उसकी उपासना अज्ञानवश करते हैं इंद्रिय-भोग द्वारा करते हैं। फिर जो पवित्रतापूर्वक सात्विक भाव द्वारा उसे पूजेंगे, उनका कितना कल्याण होगा! दिन पर दिन सब समझता जा रहा हूँ। मेरी आँखें खुलती जा रही हैं। इसलिए माँ का मठ पहले बनाना पड़ेगा। पहले माँ और उनकी पुत्रियाँ, फिर पिता और उनके पुत्र- क्या तुम यह समझ सकते हो ? सभी अच्छे हैं, सबको आशीर्वाद दो। भाई दुनिया भर में एक उनके यहाँ के अलावा हर जगह भावादर्श में तथा उसके निर्वाह में कमी होती है। भाई, नाराज न होना, तुम सब में से किसी ने भी अभी तक माँ को समझ नहीं पाया है। माँ की कृपा मुझ पर बाप की कृपा से लाख गुनी है। माँ की कृपा, माँ का आशीष मेरे लिए सर्वोपरि है।... कृपया मुझे क्षमा करो, मैं माँ के विषय में कुछ कट्ठर हूँ। माँ की आज्ञा होने पर वीरभद्र भूतप्रेत कुछ भी काम कर सकते हों। तारक भाई, अमेरिका के लिए प्रस्थान करने से पहले मैंने माँ को लिखा था कि वे मुझे आशीर्वाद दें। उनका आशीर्वाद आया और एक ही छलाँग में मैंने समुद्र पार कर लिया। इसी से समझ लो ! इस विकट शीतकाल में मैं स्थान स्थान में भाषण कर रहा हूँ और विषय बाधाओं से लड़ रहा हूँ, जिससे कि माँ के मठ के लिए कुछ धन एकत्र हो सके। बुढ़ापे में बाबूराम की माँ का बुद्धिलोप हुआ है। जीती जागती दुर्गा को छोड़कर मिट्टी की दुर्गा पूजने चली है। भाई, विश्वास अनमोल धन है। भाई, जीती जागती दुर्गा की पूजा कर दिखाऊँगा, तब मेरा नाम लेना। जमीन खरीदकर जीती जागती दुर्गा हमारी माँ को जब ले जाकर बिठा दोगे, उस दिन मैं दम लूँगा। उसके पहले मैं देश नहीं लौट रहा हूँ। जितनी जल्दी कर सको। अगर रूपये भेज सकूँ तो दम लेकर सुस्ताऊँ। तुम लोग सारा सामान जुटाकर मेरा यह दुर्गोत्सव संपन्न कर दो, मैं देखूँ। गिरीश घोष माँ की खूब पूजा कर रहा है, वह धन्य है, उसका कुल धन्य है। भाई, माँ का स्मरण होने पर समय समय पर कहता हूँ, 'को राम: ?' भाई, वही जो कह रहा हूँ, वहीं मेरी कट्ठरता है। निरंजन लट्ठबाजी करता है, परंतु माँ के लिए उसके मन में बड़ी भक्ति है। लाठी हजम हो जाती है। निरंजन ऐसा कार्य कर रहा है कि तुम सुनोगे तुम्हें अचरज होगा। मैं सब रखता हूँ। और तुमने भी मद्रासियों के साथ सहयोग करके बहुत अच्छा किया। भाई, मुझे तुम पर बड़ा भरोसा है। सबको साथ लेकर काम करने के लिए संचालित करो। तुमने माँ के लिए ज़मीन ली और मैं भी सीधा आ ही गया। ज़मीन बड़ी चाहिए। शुरु में मिट्टी का घर ही ठीक रहेगा, धीरे-धीरे पक्का मकान उठाऊँगा चिंता न करो।
मलेरिया का मुख्य कारण पानी है। क्यों नहीं तुम दो तीन फि़ल्टर बना लेते ? पानी को उबाल कर छान लेने से कोई भय नहीं रहता। हरीश के बारे में तो मुझे कुछ भी सुनने को नहीं मिलता। और दक्ष राजा कैसा है ? सभी का विशेष समाचार भेजना। हमारे मठ की कोई चिंता नहीं। मैं स्वदेश लौटकर सब ठीक-ठाक करूँगा ? दो बड़े 'पस्तूर' के फि़ल्टर मोल ले जो, जो कीटाणुओं से सुरक्षित हों। उसी पानी में खाना पकाओ और उसे पीने के काम में लाओ, मलेरिया का कभी नाम भी न सुनायी पड़ेगा। ... आगे बढ़ो, आगे बढ़ो; काम, काम, काम - अभी यह तो आरंभ ही है।
सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द
(स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित)
ॐ नमो भगवते श्री रामकृष्णाय
संयुक्त राज्य अमेरिका,
१८९४
प्राणाधिकेषु,
तारक दादा और हरि का पहला पत्र अब मिला। उससे मालूम हुआ कि वे लोग कलकत्ता आ रहे हैं। मेरे पूर्व पत्र से सभी ज्ञात हुए हो। रामदयाल बाबू का भी पत्र मिला, तदनुसार फोटो भेजूँगा। माता जी के लिए ज़मीन खरीदना होगा। फि़लहाल मिट्टी का ही मकान हो, बाद में देखा जाएगा लेकिन ज़मीन बड़ी होनी चाहिए। किस तरह किसको रुपया भेजूँगा, लिखना। तुममें से कोई विषय-कर्म का भार सँभालो।... विमला (कालीकृष्ण ठाकुर के दामाद) ने एक लंबी चिट्ठी भेजी है कि उन्हें हिंदू धर्म में बहुत ज्ञान प्राप्त हो गया है। प्रतिष्ठा से बचने के लिए मुझे बहुत सारे सुंदर उपदेश दिया है और अपने गुरु शशि बाबू की लिखी एक पुस्तक भेजी है; उसमें सूक्ष्म तत्व की वैज्ञानिक व्याख्या की गयी है। विमला की इच्छा है कि इस देश से पुस्तक छपाने की सहायता मिल जाए। इसका मेरे पास कोई उपाय नहीं। क्योंकि ये लोग बंगला बिल्कुल नहीं जानते। फि़र ईसाई लोग हिंदू धर्म की सहायता क्यों करेंगे ? अब विमला को सहज ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ है: पृथ्वी में हिंदू श्रेष्ठ हैं और उनमें भी ब्राह्मण ! और इन ब्राह्मणों में भी विमला और शशि- इन दोनों के अलावा दूसरे कोई धर्म-लाभ नहीं कर सकते। धर्म क्या अभी भारत में रह गया है, भाई ? ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग, योग मार्ग, सबका पलायन। और अब बचा है केवल छुआछूत-मार्ग- 'मुझे मत छुओ', 'मुझे मत छुओ'। सारा संसार अपवित्र है, मैं ही केवल शुद्ध हूँ ! सहज ब्रह्मज्ञान ! वाह ! हे भगवान ! आजकल ब्रह्म न तो हृदय-कंदर में है, न गोलोक में और न सब जीवों में -अब वह भात की हाँड़ी में है ! पहले महत् का लक्षण था - त्रिभुवन-मुपकारश्रेणिभि: प्रीयमाण:- 'सेवा के अनेक कामों से तीनों लोकों को प्रसन्न रखना', परंतु अब हैं- मैं पवित्र हूँ और सब संसार अपवित्र, -रूपये लाओ, धरो मेरे पैरों के नीचे।... जिन महापुरुष ने मुझसे अपने कर्म कोलाहल बंद करके घर लौटने के लिए लिखा है उनसे कहना कि कुत्ते की तरह किसी के पैर चाटना मेरा स्वभाव नहीं है। उससे कहो कि अगर वह मर्द है, तो मठ बनाकर फिर मुझे बुलाये। अन्यथा मैं किसके घर में लौट आऊँ ? यह देश ही मेरा घर है - भारत में क्या रखा है ? वहाँ धर्म का आदर कौन करता है ? विद्या का सम्मान कौन करता है ? घर वापस आओ ! ! घर कहाँ हैं ?
इस बार ऐसे महोत्सव करो कि जैसे पहले कभी न हुआ हो। मैं एक 'परमहंस महाशय का जीवन चरित' लिख भेजूँगा। उसे छपवाकर तथा अनुवाद कराकर बेचोगे। मुफ्त वितरण करने पर लोग पढ़ते नहीं हैं, कुछ दाम लेना। कोलाहल का अंत !!! अभी तो आरंभ ही हुआ है। मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, वसन्तवल्लोकहितं चरन्त:- ('वसन्त की तरह लोक का हित करते हुए') - यही मेरा धर्म है। मैं आलसी, निष्ठुर, निर्दय और स्वार्थी मनुष्यों से कोई संबंध नहीं रखना चाहता। जिसके भाग्य में होगा, वह इस महाकार्य में सहायता कर सकता है... सावधान! सावधान ! यह सब क्या बच्चों का खेल है ? सपना है ? ... भाई, एक बार कमर कसके काम में जुट जाओ।... तुम लोग मनुष्य बनो।... समाचारपत्र भेजने की अब आवश्यकता नहीं। यहाँ ढेर लग गया है। तुममें से किसी में संगठन-शक्ति नहीं है। बड़े दु:ख की बात है। सबको मेरा प्यार कहना, मैं सबकी सहायता चाहता हूँ, खबरदार ! किसी से झगड़ा न करना। याद रखो कि न धन का कोई मूल्य है, न नाम का, न यश का, न विद्या का- केवल चरित्र ही कठिनाईयों के दुर्भेद्य पत्थर की दीवारों में से गुज़र सकता है। लोगों के मतामत की अवहेलना न करना उससे वे बड़े ही क्रुद्ध हो जाते हैं। स्थान स्थान पर केंद्र स्थापित करना होगा। यह तो बड़ा आसान है। जहाँ जहाँ तुम लोग जाओगे, वहीं वहीं एक केंद्र स्थापित कर दोगे। इसी तरह काम होगा। जहाँ भी पाँच लोग उन्हें मानते हों, वहीं एक डेरा बनाओ। ऐसे ही करते रहो और सभी से पत्र-व्यवहार बनाये रखो।
सस्नेह तुम्हारा,
विवेकानन्द
(श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
शिकागो,
२० जून, १८९४
प्रिय दीवान जी
आज आपका कृपा-पत्र मिला। मुझे बहुत दु:ख है कि आप जैसे महामना व्यक्ति को मैंने अपने विवेचनाहीन कठोर शब्दों से चोट पहुँचायी। आपके मृदु सुधारों के आगे मैं नतमस्तक हूँ। 'मैं आपका पुत्र हूँ, मुझ नतमस्तक को शिक्षा दीजिये।' -गीता। परंतु दीवान जी साहब, आप यह अच्छी तरह जानते हैं कि मेरे स्नेह ने ही मुझे ऐसा कहने के लिए प्रेरित किया। आपको यह बताना चाहता हूँ कि पीठ-पीछे मेरी निंदा करने वालों ने परोक्ष रूप से मुझे कोई लाभ नहीं पहुँचाया, बल्कि इस दृष्टि से मेरा घोर अपकार ही किया है कि हमारे हिंदू भाइयों ने अमेरिकनों को यह बतलाने के लिए अपनी अँगुली भी नहीं हिलायी कि मैं उनका प्रतिनिधि हूँ। मेरे प्रति अमेरिकनों की सहृदयता के निमित्त, काश, हमारी जनता उनके लिए धन्यवाद के कुछ शब्द प्रेषित कर पाती और यह बताती कि मैं उनका प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ। श्री मजूमदार, बंबई से आगत नागरकर नाम का एक व्यक्ति तथा पूना से आगत सोराबजी नाम की एक ईसाई लड़की अमेरिकनों से कह रहे हैं कि मैंने अमेरिका में ही संन्यासियों के वस्त्र धारण किये हैं, और मैं एक धूर्त हूँ। जहाँ तक मेरे स्वागत का प्रश्न है, इसका अमेरिका की जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा; परंतु जहाँ तक धन द्वारा मेरी सहायता का प्रश्न है, इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ा, क्योंकि उन्होंने मेरी ऐसी सहायता करने से अपने हाथ खींच लिए। मैं यहाँ एक वर्ष से हूँ, किंतु किसी भी ख्यातिनाम भारतीय ने अमेरिकनों को यह बताना उचित नहीं समझा कि मैं प्रवंचक नहीं हूँ। फिर यहाँ मिशनरी लोग सदा मेरे विरुद्ध लिखी गयी बातों को खोजने और उनको यहाँ प्रकाशित कराने में सदा व्यस्त रहते हैं। आपको यह विदित होना चाहिए कि यहाँ के लोग भारत में ईसाई एवं हिंदू में अंतर के बारे में बहुत कम जानते हैं।
मेरे यहाँ आने का मुख्य प्रयोजन अपनी एक योजना के लिए धन एकत्र करना ही था। मैं आपसे ये बातें फि़र कह रहा हूँ।
पूर्व एवं पश्चिम में सारा अंतर यह है कि उनमें जातीयता की भावना है, हम लोगों में नहीं, अर्थात सभ्यता एवं शिक्षा का प्रसार यहाँ व्यापक है, सर्वसाधारण में व्याप्त है। उच्च वर्ग के लोग भारत और अमेरिका में समान हैं, लेकिन दोनों देशों के निम्न वर्गों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क हैं। अंग्रेजों के लए भारत को जीतना इतना आसान क्यों सिद्ध हुआ ? यह इसलिए कि वे एक जाति हैं, हम नहीं। जब हमारा कोई महापुरुष चल बसता है, तो एक और के लिए हमें सैकड़ों वर्ष बैठे रहना पड़ता है; और ये उनका सर्जन उसी अनुपात में कर सकते हैं, जिस अनुपात में उनकी मृत्यु होती है। जब हमारे दीवानजी साहब नहीं रहेंगे, (जिसे हमारे देश के कल्याण के लिए प्रभु दीर्घ काल तक स्थगित रखें), तो उनके स्थान की पूर्ति के लिए जो कठिनाई होगी उसका अनुभव देश को तत्काल हो जाएगा। कठिनाई तो इसी बात से प्रत्यक्ष हो जाती है कि आपकी सेवाओं के बिना लोगों का काम नहीं चलता है। यहाँ महापुरुषों का अभाव है। ऐसा क्यों ? क्योंकि महापुरुषों के चुनाव के लिए उनके पास बहुत बड़ा क्षेत्र है, जब कि हमारे पास, बहुत ही छोटा। तीन, चार या छह करोड़ की जातियों की तुलना में तीस करोड़ की जाति के पास अपने महापुरुषों के चुनाव के लिए क्षेत्र सबसे छोटा है क्योंकि शिक्षित पुरुषों एवं स्त्रियों की संख्या उन जातियों में बहुत अधिक है। आप मेरे विवेचक मित्र हैं, मुझे ग़लत न समझें, यही हमारे देश का बहुत बड़ा दोष है और इसे दूर करना ही होगा।
सर्वसाधारण को शिक्षित बनाइए एवं उन्नत कीजिए। इसी तरह एक जाति का निर्माण होता है। हमारे सुधारकों को यही नहीं मालूम कि कहाँ चोट है, और वे विधवाओं का विवाह कराके देश का उद्धार करना चाहते हैं; क्या आप यह मानते हैं कि किसी देश का उद्धार इस बात पर निर्भर है कि उसकी विधवाओं के लिए कितने पति प्राप्त होते हैं ? और न इसके लिए धर्म को ही दोषी ठहराया जा सकता है; क्योंकि सिर्फ मूर्ति-पूजा से यों कोई अंतर नहीं पड़ता। सारा दोष यहाँ है: यथार्थ राष्ट्र जो कि झोपडि़यों में बसता है, अपना मनुष्यत्व विस्मृत हो चुका है, अपना व्यक्तित्व खो चुका है। हिंदू , मुसलमान, ईसाई-हरेक के पैरों तले कुचले गये वे लोग यह समझने लगे हैं कि जिस किसी के पास पर्याप्त धन है, उसी के पैरों तले कुचले जाने के लिए ही उनका जन्म हुआ है। उन्हें उनका खोया हुआ व्यक्तित्व वापस करना होगा। उन्हें शिक्षित करना होगा। मूर्तियाँ रहें या न रहें, विधवाओं के लिए पतियों की पर्याप्त संख्या हो या न हो, जाति-प्रथा दोषपूर्ण है या नहीं, ऐसी बातों से मैं अपने को परेशान नहीं करता। प्रत्येक व्यक्ति को अपना उद्धार अपने आप ही करना पड़ेगा। हमारा कर्तव्य केवल रासायनिक पदार्थों को एकत्र कर देना है, ईश्वरीय विधान से वे अपने आप जम जाएंगे। हमें केवल उनके मस्तिष्क में विचारों को भर देना है, शेष सब वे अपने आप को लेंगे। इसका अर्थ हुआ सर्वसाधारण को शिक्षित करना। यहाँ ये कठिनाइयाँ हैं। एक अकिंचन सरकार कभी कुछ नहीं कर सकती है, न करेंगी; अत: उस दिशा से किसी सहायता की कोई आशा नहीं।
अगर यह भी मान लिया जाए कि प्रत्येक गाँव में हम लोग नि:शुल्क पाठशाला खोलने में समर्थ हैं, तब भी गरीब़ लड़के पाठशालाओं में आने की अपेक्षा अपने जीविकोपार्जन हेतु हल चलाने जाएंगे। न तो हमारे पास धन है और न हम उनको शिक्षा के लिए बुला ही सकते हैं। समस्या निराशाजनक प्रतीत होती है। मैंने एक रास्ता ढूँढ़ निकाला है। वह यह है। अगर पहाड़ मुहम्मद के पास नहीं आता, तो मुहम्मद को पहाड़ के पास जाना पड़ेगा। यदि गरीब शिक्षा के निकट नहीं आ सकते, तो शिक्षा को ही उनके पास हल पर, कारखाने में और हर जगह पहुँचना होगा। यह कैसे ? आपने मेरे गुरुभाइयों को देखा है। मुझे सारे भारत से ऐसे नि:स्वार्थ, अच्छे एवं शिक्षित सैकड़ों नवयवुक मिल सकते हैं। दरवाज़े दरवाजे़ पर धर्म को ही नहीं, शिक्षा को भी पहुँचाने के लिए इन लोगों को गाँव-गाँव घूमने दीजिए, इसलिए विधवाओं को भी हमारी महिलाओं की शिक्षिकाओं के रूप में संगठित करने के लिए मैंने एक छोटे से दल का आयोजन किया है।
अब मान लीजिए कि ग्रामीण अपना दिनभर का काम करके अपने गाँव लौट आये और किसी पेड़ के नीचे या कहीं भी बैठकर हुक्का पीते, गप लड़ाते समय बिता रहे हैं। मान लीजिए दो शिक्षित संन्यासी वहाँ उन्हें लेकर कैमरे से ग्रह नक्षत्रों के या भिन्न-भिन्न देशों के या ऐतिहासिक दृश्यों के चित्र उन्हें दिखाने लगें। इस प्रकार ग्लोब, नक्शे आदि के द्वारा जबानी ही कितना काम हो सकता है, दीवान जी साहब ? केवल आँख ही ज्ञान का एकमात्र द्वार नहीं है, कान से भी यह काम हो सकता है। इस प्रकार नये-नये विचारों से, नीति से उनका परिचय होगा एवं वे उन्नतर जीवन की आशा करने लगेंगे। यहाँ हमारा काम खत्म हो जाता है। शेष उन पर छोड़ देना होगा। सन्यासियों को त्याग के इतने बड़े इस कार्य के लिए प्रेरणा कहाँ से मिलेगी ? धार्मिक उत्साह से। धर्म के हर नये तरंग के लिए एक केंद्र की आवश्यकता होती है। पुराने धर्म को केवल एक नया केंद्र ही पुनरुज्जीवित कर सकता है। अपनी रूढि़यों एवं पुराने सिद्धांतों को सूली पर चढ़ा दीजिए, उनसे कोई लाभ नहीं होता। एक चरित्र, एक जीवन, एक केंद्र, एक ईश्वरीय पुरुष ही मार्गदर्शन करेंगे। इसी केंद्र के चारों ओर अन्य सभी उपादान एकत्र हो जाएंगे एवं एक प्रलयंकर महातरंग की तरह समाज पर जा गिरेंगे तथा सबको बहाकर ले जाते हुए उनकी अपवित्रताओं का भी नाश करेंगे। फिर, जैसे लकड़ी को उसके रेशे की दिशा में ही चीरने में आसानी होती है, वैसे ही पुराने हिंदू धर्म का संस्कार हिंदू धर्म से ही हो सकता है, नये-नये संस्कार-आंदोलनों के द्वारा नहीं। साथ ही साथ इन सुधारकों को अपने में पूर्व एवं पश्चिम, दोनों संस्कृतियों का मिलन कराना होगा। क्या आपको यह नहीं मालूम पड़ता कि आपने ऐसे महान आंदोलन के केंद्र को प्रत्यक्ष किया है? उसे बढ़ते हुए प्लावन की अस्पष्ट गंभीर गर्जना को सुना ? वह केंद्र, मार्गदर्शक उस देवमानव का जन्म भारत ही में हुआ। वे थे महान श्रीरामकृष्ण परमहंस। उन्हीं को केंद्र मानकर यह दल धीरे-धीरे बड़ा हो रहा है। इन्हीं लोगों से यह काम होगा।
दीवान जी महाराज अब इसके लिए एक संगठन की आवश्यकता है, रूपयों की ज़रुरत हैं - भले ही थोड़े से की, जिससे काम शुरु किया जा सके। भारत में हमें धन कौन देता ? इसीलिए, दीवान जी महाराज, मैं अमेरिका चला आया। आपको यह बात शायद याद हो कि मैंने सारा धन गरीबों से माँगा था, और धनियों के दान को मैं इसलिए अस्वीकार कर देता था कि मेरी भावनाओं को वे नहीं समझ पाते। इस देश में पूरे साल भर तक व्याख्यान देते रहने पर भी मुझे अपने कार्य के आरंभ के लिए धनार्जन की अपनी योजना में ज़रा सी भी सफलता नहीं मिली (निश्चय ही मुझे अपने लिए कोई अभाव नहीं हुआ)। पहली बात यह है कि यह साल अमेरिका के लिए बहुत बुरा है; हज़ारों ग़रीब बेरोज़गार हैं। दूसरी, मिशनरी तथा... मेरी योजनाओं में बाधा डालने का प्रयत्न कर रहे हैं। तीसरी बात यह है, एक साल गुज़र गया और हमारे देशवासी मेरे लिए इतना ही नहीं कर सके कि अमेरिका के लोगों से कहते कि मैं एक वंचक नहीं हूँ, बल्कि एक यथार्थ संन्यासी हूँ, कि मैं हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ। इतना भी, इन थोड़े से शब्दों का व्यय भी, वे नहीं कर सके। शाबाश, मेरे देशवासियों ! दीवान जी, मैं उनको प्यार करता हूँ। मानवीय सहायता को मैं लात मारता हूँ। मुझे आशा है कि वे जो सदा पर्वतों एवं उपत्यकाओं में, मरुस्थलों एवं वनों में मेरे साथ रहे हैं, मेरे साथ रहेंगे; अगर और ऐसा न हुआ तो फिर भार में कभी मुझसे भी कहीं अधिक योग्यता-संपन्न किसी और वीर का उदय होगा जो इस कार्य को संपन्न करेगा। आज मैं आपको सभी कुछ कह गया। दीवान जी, मेरे लंबे पत्र के लिए मुझे क्षमा करें। आप मेरे अच्छे मित्र हैं, उन बहुत थोड़ों में से एक, जो मेरे प्रति सहानुभूति रखते हैं, जो मेरे ऊपर यथार्थ में कृपालु हैं। आप यह सोच सकते हैं कि मैं एक स्वप्नविलासी हूँ या एक कल्पनाप्रिय व्यक्ति हूँ; लेकिन आप कम से कम इतना विश्वास रखें कि मैं पूर्णत: ईमानदार हूँ,और मुझमें सबसे बड़ा दोष यही है कि मुझे अपने देश के प्रति अधिक, बहुत अधिक प्रेम है। मेरे प्रिय मित्र, आप और आपके संबंधी जन सदा ही कल्याण के भागी हों। जो आपके प्रिय हों, उन सब पर भगवान की दया-दृष्टि सदा बनी रहे। मैं आपके प्रति चिरंतन कृतज्ञ हूँ। आपके प्रति मैं अत्यधिक ऋणी हूँ, केवल इसीलिए नहीं कि आप मेरे मित्र हैं, बल्कि इसलिए भी कि आपने इतनी अच्छी तरह अपनी मातृभूमि की एवं प्रभु की जिंदगी भर सेवा की है।
आपका सतत कृतज्ञ
विवेकानन्द
(मैसूर के महाराज को लिखित)
शिकागो,
२३ जून, १८९४
महाराज,
श्री नारायण आपका और आपके कुटुंब का मंगल करें। आपकी उदार सहायता से ही मेरा इस देश में आना संभव हो सका। यहाँ आने के बाद से यहाँ के लोग मुझे खूब जान गये हैं और इस देश के अतिथिपरायण अधिवासियों ने मेरे सब अभाव दूर कर दिए हैं। यह एक अद्भुत देश है और यह जाति भी कई बातों में एक अद्भुत जाति है। कोई और जाति अपने दैनंदिन जीवन में इतने कलपुर्जों का व्यवहार नहीं करती, जितने कि यहाँ के लोग। यहाँ सब कुछ ही मशीन है। फिर देखिए, ये लोग सारे संसार की जनसंख्या के पाँच प्रतिशत मात्र है। फिर भी संसार के कुल संपदा के पूरे षष्ठांश के ये मालिक हैं। इनके धन संपदा तथा विलास की सामग्रियों का कोई ठिकाना नहीं है। फिर भी यहाँ सभी चीज़ें बहुत महँगी हैं। मज़दूरों की मज़दूरी यहाँ दुनिया में सब जगहों से ज्यादा है, पर मज़दूरों और पूँजीपतियों के बीच झगड़ा सदा ही चलता रहता है।
अमेरिका की महिलाओं को जितने अधिकार प्राप्त हैं, उतने दुनिया भर में और कहीं की महिलाओं को नहीं। धीरे-धीरे वे सब कुछ अपने अधिकार में करती जा रही हैं, और आश्चर्य की बात तो यह है कि शिक्षित पुरुषों की अपेक्षा यहाँ शिक्षित स्त्रियों की संख्या कहीं अधिक है। हाँ, उच्चतर प्रतिभाओं में अधिकांश पुरुष ही हैं। पाश्चात्यवासी हमारे जाति-भेद की चाहे जितनी कड़ी समालोचना करें, पर उनके भी बीच एक ऐसा जाति-भेद है, जो हमारे यहाँ से भी बुरा है और वह है, अर्थगत जाति-भेद। अमेरिकावासियों के अनुसार सर्वशक्तिमान डॉलर यहाँ सब कुछ कर सकता है।
संसार के अन्य किसी देश में इतने कानून नहीं हैं, जितने कि यहाँ। पर यहाँ उनकी जितनी कम परवाह की जाती है, उतनी अन्य किसी भी देश में नहीं। सब और से देखने पर हमारे गरीब हिंदू लोग किसी भी पाश्चात्य देशवासी से लाखों गुने अधिक नैतिक हैं। धर्म के विषय में यहाँ के लोग या तो कपटी होते हैं या मतांध। विचारशील लोग अपने कुसंस्कारपूर्ण धर्मों से ऊब गये हैं और नये प्रकाश के लिए भारत की ओर देख रहे हैं। महाराज, आप स्वयं इस बात को बिना प्रत्यक्ष किये नहीं समझ पाएंगे कि आधुनिक विज्ञान के प्रचंड आक्रमणों के सम्मुख अप्रतिहत रहकर उसका प्रतिरोध करने वाले पवित्र वेद राशियों के उदार विचार समूहों के किन्चिन्मात्र अंश को ये लोग किस आग्रह के साथ ग्रहण करते हैं। शून्य से सृष्टि का होना, आत्मा का एक सृष्ट तथा अनंत नरकाग्नि का होना- ये सब जो इन लोगों के मत हैं, उनसे सभी शिक्षित लोगों का जी ऊब गया है और सृष्टि और आत्मा के अनादित्व तथा परमात्मा की हमारी अपनी आत्मा में अवस्थिति संबंधी वेदों के उदात्त भावों को वे शीघ्र ही किसी न किसी रूप में ग्रहण कर रहे हैं। पचास वर्ष के भीतर ही संसार के सभी शिक्षित लोग आत्मा और सृष्टि, दोनों के अनादित्व पर विश्वास करने लगेंगे और ईश्वर को हमारा ही उच्चतम और संपूर्ण रूप मानने लगेंगे, जैसा कि हमारे पवित्र वेदों की शिक्षा है। अभी से ही उनके विद्वान् पादरियों ने बाइबिल की उस प्रकार की व्याख्या करनी आरंभ कर दी है। मेरा निष्कर्ष यह है कि उन्हें और भी धार्मिक शिक्षा की आवश्यकता है और हमें और भी अधिक ऐहिक एवं भौतिक शिक्षा की।
भारतवर्ष के सभी अनाथों की जड़ है- ग़रीबों की दुर्दशा। पाश्चात्य देशों के ग़रीब तो निरे दानव हैं, उनकी तुलना में हमारे यहाँ के गरीब देवता हैं। इसीलिए हमारे ग़रीबों की उन्नति करना सहज है। अपने निम्न वर्ग के लोगों के प्रति हमारा एकमात्र कर्त्तव्य है- उनको शिक्षा देना, उनमें उनकी खोई हुई जातीय विशिष्टता का विकास करना। हमारे जनसाधारण और देशी राजाओं के सम्मुख यही एक बहुत बड़ा काम पड़ा हुआ है। अब तक इस दिशा में कुछ भी काम नहीं हुआ। पुरोहितों की शक्ति और विदेशी विजतागण सदियों से उन्हें कुचलते रहे हैं, जिसके फलस्वरूप भारत के ग़रीब बेचारे भूल गये हैं कि वे भी मनुष्य हैं। उनमें तरह तरह के विचार पैदा करने होंगे। उनके चारों ओर दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है, इस संबंध में उनकी आँखें खोल देनी होंगी; इसके बाद फिर वे अपना उद्धार अपने आप कर लेंगे। उनके चारों ओर दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है, इस संबंध में उनकी आँखें खोल देनी होंगी; इसके बाद फिर वे अपना उद्धार अपने आप कर लेंगे। प्रत्येक जाति, प्रत्येक पुरुष और प्रत्येक स्त्री को अपना उद्धार अपने आप ही करना पड़ेगा। उनमें विचार उत्पन्न कर दो- उन्हें उसी एक सहायता की जरुरत है, इसके फलस्वरूप बाकी सब कुछ आप ही हो जाएगा। हमें केवल रासायनिक पदार्थों को इकट्ठा भर कर देना है, रवा बंध जाना तो प्राकृतिक नियमों से ही साधित होगा। हमारा कर्तव्य है, उनके दिमागों में विचार कर देना- बाकी वे स्वयं कर लेंगे। भारत में बस यही करना है। बहुत समय से यह विचार मेरे मन में काम कर रहा है। भारत में इसे मैं कार्य रूप में परिणत न कर सका, और यही कारण था कि मैं इस देश में आया। गरीबों को शिक्षा देने में मुख्य बाधा यह है- मान लीजिए महाराज, आपने हर एक गाँव में एक नि:शुल्क पाठशाला खोल दी, तो भी इससे कुछ काम न होगा, क्योंकि भारत में गरीबी ऐसी है कि गरीब लड़के पाठशाला में आने के बजाए खेतों में अपने माता-पिता को मदद देने या किसी दूसरे उपाय से रोटी कमाने जाएंगे। इसलिए अगर पहाड़ मुहम्मद के पास न आये, तो मुहम्मद को ही पहाड़ के पास जाना पड़ेगा। अगर गरीब लड़का शिक्षा ग्रहण करने के लिए न आ सके, तो शिक्षा को ही उसके पास जाना पड़ेगा।
हमारे देश में हज़ारों एकनिष्ठ और त्यागी साधु हैं, जो गाँव गाँव धर्म की शिक्षा देते फिरते हैं। यदि उनमें से कुछ लोगों का सांसरिक विषयों के शिक्षकों के रूप में भी संगठित किया जा सके तो गाँव गाँव, दरवाजे़ दरवाज़े पर जाकर वे केवल धर्मशिक्षा ही नहीं देगें, बल्कि ऐहिक शिक्षा भी दिया करेंगे। कल्पना कीजिए कि इनमें से दो व्यक्ति शाम को साथ में एक मैजिक लैन्टर्न, एक ग्लोब और कुछ नक्शे आदि लेकर किसी गाँव में जाते हैं। वे अनपढ़ लोगों को गणित, ज्योतिष और भूगोल की बहुत कुछ शिक्षा दे सकते हैं। वे ग़रीब पुस्तकों से जीवन भर में जितनी जानकारी न पा सकेंगे, उससे सौगुनी अधिक वे उन्हें बातचीत के माध्यम से विभिन्न देशों के बारे में कहानियाँ सुनाकर दे सकते हैं। इसके लिए एक संगठन की आवश्यकता है, जो पुन: धन पर निर्भर करता है। इस योजना को कार्यरूप में परिणत करने के लिए भारत में मनुष्य तो बहुत हैं, पर हाय! वे निर्धन हैं। एक चक्र को चलाना पड़ा कठिन काम है, पर अगर एक बार वह गतिशील हुआ कि वह क्रमश: अधिकाधिक वेग से चलने लगता है। अपने देश में सहायता पाने का प्रयत्न करने के बाद जब मैंने धनिकों से कुछ भी सहानुभूति न पायी, तब मैं, महाराज, आपकी सहायता से इस देश में आ गया। अमेरिकावासियों को इस बात की कुछ भी परवाह नहीं कि भारत के गरीब जियें या मरें। और भला वे परवाह भी क्यों करने लगे, जब कि हमारे अपने देशवासी सिवाय अपने स्वार्थ की बातों के और किसी की चिंता नहीं करते ?
महामना राजन, यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ में जीवित हैं, जो दूसरी के लिए जीवन धारण करते हैं। बाकी लोगों का जीना तो मरने ही के बराबर है। महाराज, आज जैसे एक उन्नत, महामना राजपुत्र भारत को फि़र से अपने पैरों पर खड़ा कर देने के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। और इस तरह भावी वंशजों के लिए एक ऐसा नाम छोड़ जा सकते हैं, जिसकी वे पूजा करें।
प्रभु आपके महान हृदय में भारत के उन लाखों नर-नारियों के लिए गहरी संवेदना पैदा कर दें, जो अज्ञता में गड़े अज्ञता में गड़े हुए दु:ख झेल रहे हैं - यही मेरी प्रार्थना है।
भवदीय,
विवेकानन्द
(राव बहादुर नरसिंहाचारियर को लिखित)
शिकागो,
२३ जून, १८९४
प्रिय महोदय,
चूँकि आप मुझ पर सदैव अनुग्रह करते रहते हैं, अत: मैं आपसे एक विशेष अनुरोध करना चाहता हूँ। श्रीमती पॉटर पामर संयुक्त राज्य (अमेरिका) की एक नेतृस्थानीया महिला हैं। वे 'महामेला' की सभानेत्री थीं। समस्त संसार के नारी समाज की दशा को उन्नत बनाने के लिए वे विशेष उत्साही है तथा महिलाओं की एक बड़ी संस्था की वे प्रधान कार्यकर्त्री है। लेडी डफ़रिन की वे घनिष्ठ मित्र हैं एवं अपनी धन-संपत्ति तथा पद-मर्यादा के कारण यूरोपीय राजपरिवारों से उनको बहुत सम्मान मिला है। यहाँ पर उन्होंने मेरे साथ अत्यंत सदय व्यवहार किया है। वे इस समय चीन, जापान स्याम तथा भारत भ्रमण करने जा रही हैं। इसमें कोई संदेह कि भारत के गवर्नर तथा उच्च वर्ग वर्ग उनकी यथोचित आदर-अभ्यर्थना करेंगे किंतु अंग्रेज़ राजकर्मचारियों की सहायता लिये बिना वे हमारे समाज को देखने के लिए विशेष उत्सुक हैं। मैंने भारतीय महिलाओं की दशा सुधारने के लिए आपके महान प्रयास तथा मैसूर स्थित आपके अद्भुत कॉलेज का उल्लेख उनसे जिस प्रकार उनका आदर-सत्कार करते हैं, उसके प्रतिदान स्वरूप ऐसे व्यक्तियों की कुछ आवभगत करना मैं उचित समझता हूँ। मैं आशा करता हूँ कि आप लोग इनकी आदर-अभ्यर्थना करेंगे तथा हमारे देश की स्त्री जाति की वास्तविक दशा को जिससे थोड़ा-बहुत भी परिचय इनको मिल सके, इसकी व्यवस्था करेंगे। वे मिशनरी नहीं है, या उस प्रकार कट्टर इसाई भी नहीं- आप उनकी चिंता न करें। धर्म विषयक मतभेदों से दूर रहकर वे समस्त संसार की नारी जाति की दशा सुधारने के लिए काम करना चाहती हैं। उनके कार्य में सहायता प्रदान करने का अर्थ इस देश में मुझे भी बहुत कुछ सहायता पहुँचाना है। प्रभु आपको आशीर्वाद प्रदान करें।
चिर स्नेहास्पद आपका
विवेकानन्द
(कुमारी मेरी हेल तथा कुमारी हेरियट हेल को लिखित)
द्वारा श्री जार्ज. डब्ल्यू. हैल,
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
२६ जून, १८९४
प्रिय बहनों,
हिंदी के महाकवि तुलसीदास ने अपने रामायण के स्वस्ति-वाचन में लिखा है- 'मैं साधु तथा असाधु दोनों की ही चरणवंदना करता हूँ, किंतु हाय, मेरे लिए दोनों ही समान रूप से दु:खदायी हैं। असाधु व्यक्ति मेरे समीप आकर मुझे अत्यंत दु:ख पहुँचाते हैं और साधु व्यक्ति जब मुझे छोड़ जाते हैं, तब वे अपने साथ ही मेरे प्राणों को हर ले जाते हैं। [13]
मैं इस बात को मानता हूँ। जिन भगवत्प्रिय साधुजनों के प्रति प्रेम तथा जिनकी सेवा ही मेरे लिए इस संसार में सुख व प्रेम का एकमात्र अवलंबन है, उनका विरह मेरे लिए मृत्यु यंत्रणा के समान है। किंतु ये सब आवश्यक हैं। हे मेरे प्रियतम के वेणु-संगीत, मुझे ले चलो- मैं तुम्हारा ही अनुसरण कर रहा हूँ। उदारमना, मनधुर-प्रकृति, सहृदय, तुम जैसे पवित्र लोगों से वियुक्त होकर मुझे जो कष्ट हो रहा है, जो यातनाएँ मिल रही हैं,उसे व्यक्ति करना मेरे लिए असंभव है। हाय,यदि मैं स्टोइक (Stoic) दार्शनिकों की तरह सुख-दु:ख में निर्विकार रह सकता!
आशा है, तुम लोग सुंदर ग्रामीण दृश्यों का आनंद ले रही होगी।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:।।
- 'समस्त प्राणियों के लिए जो रात्रि हैं, संयमी पुरुष उसमें जागते रहते हैं और जब प्राणि समूह जगते रहते हैं, आत्मज्ञानी मूनि के लिए तब वह रात्रि स्वरूप है। [14]
इस जगत की धूल तक भी तुम्हारा स्पर्श न कर सके, क्योंकि कवियों का ही कहना है कि यह जगत फूल-मालाओं से ढका हुआ एक बड़ा मुर्दा है। यदि तुमसे हो सके,तो इसका स्पर्श तक न करना। तुम तो स्वर्गस्थ विहंगमों के शिशु शाशक हो- इससे पहले कि तुम्हारे पैर इस दूषित पंकराशि को, इस संसार को स्पर्श करें, चले आओ, उड़कर आकाश की ओर चले आओ।
'ओ तुम, जो जाग रहे हो, फिर से मत सो जाना।'
'जागतिक प्राणियों के लिए प्रेम करने की अनेक वस्तुएँ हैं- उनको उनसे प्रेम करने दो। हमारे प्रेमास्पद तो एक ही हैं- और वे हैं हमारे प्रभु। वे क्या क्या कहते हैं, इसकी हमें कोई परवाह नहीं। किंतु जब वे हमारे प्रेमास्पद पर विकट विशेषणों का आरोप कर उन्हें रंगना चाहते हैं, हमें भय लगता है। उन लोगों की जो मर्जी हो करते रहें, हमारे लिए तो वे केवल प्रेमास्पद ही हैं- मेरे प्रियतम, प्रियतम, प्रियतम, और कुछ भी नहीं।'
'यह कौन जानना चाहता है कि उनमें कितनी शक्ति तथा कितने गुण हैं और हमारी भलाई करने का कितना सामर्थ्य उनमें विद्यमान है ? हम निश्चित रूप से यही कहेंगे कि उनसे हमारा प्रेम धन के लिए नहीं है। हम अपने प्रेम का विक्रय नहीं करते। हमें इसकी आवश्यकता नहीं है। हम तो उसका वितरण करते हैं।'
'हे दार्शनिक ! क्या तुम हमसे उनके स्वरूप की, उनके ऐश्वर्य तथा गुण की बातें करना चाहते हो ? मूर्ख! उनके अधर के एक चुम्बन मात्र के लिए यहाँ हमारे प्राण निकल रहे हैं। तुम अपनी उन व्यर्थ की वस्तुओं को अपने घर वापस ले जाओ और मेरे लिए मेरे प्रियतम का एक चुंबन भेज दो- क्या तुम यह कर सकते हो?'
'मूर्ख ! किसके सम्मुख भय तथा आतंक से तुम अपने लड़खड़ाते घुटने टेक रहे हो ? मैंने अपने गले के हार को उनके गले में डाल दिया है तथा उसमें एक धारा बाँधकर उनको मैं अपने साथ लिवा ले जा रही हूँ- इस डर से कि कहीं क्षण भर के लिए भी वे मुझे छोड़कर अन्यत्र न चले जाएं। वह हार प्रेम का हार हैं और वह धागा प्रेमोल्लास का धागा है। मूर्ख, तुम इस रहस्य को नहीं जानते कि वह असीम मेरे प्रेम के बंधन में बँधकर मेरी मुट्ठी भर में आ जाता है। क्या तुम्हें यह नहीं मालूम कि विश्व के वे नियन्ता वृन्दावन की गोपियों की नूपुर-ध्वनि के साथ साथ नाचते फिरते थे ?
उन्मत्त की तरह यह जो कुछ मैं लिख गया, उसे क्षमा कर देना। अव्यक्त को व्यक्त करने के प्रयास की मेरी इस धृष्टता को माफ कर देना- वह सिर्फ़ अनुभव का ही विषय है। सदा मेरा शुभाशीर्वाद लेना।
तुम्हारा भाई,
विवेकानन्द
(एक मद्रासी शिष्य को लिखित)
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
२८ जून, १८९४
प्रिय ,
उस दिन मैसूर के जी.जी. का एक पत्र मिला। मुझे दु:ख है कि जी.जी. की दृष्टि में मैं सर्वज्ञ बन चुका हूँ, नहीं तो वह पत्र में अपने कन्नड़-पते को और भी स्पष्ट रूप से लिखता। इसके अलावा शिकागो के सिवाय और किसी पते पर मुझे पत्र लिखना बहुत भारी भूल है। हालाँकि यह भूल पहले मुझसे ही हुई, क्योंकि मुझे हमारे मित्रों की बुद्धि की सूक्ष्मता के बारे में विचार कर लेना चाहिए था, जो मेरे पत्रों के ऊपर लिखे हुए जिस किसी भी पते को देखकर मुझे पत्र भेजा करते हैं। मेरे मद्रासों बृहस्पतियों (अर्थात अक्लमंदों) से कहना कि उनको यह तो अच्छी ही तरह से मालूम है कि उनके पत्रों से पहले ही मैं वहाँ से हज़ारों मील की दूरी पर पहुँच जाता हूँ, क्योंकि मैं तो बराबर घूम ही रहा हूँ। शिकागो में मेरे एक मित्र हैं, उनका मकान ही मेरा प्रधान केंद्र है।
जहाँ तक यहाँ मेरे कार्य के प्रसार का प्रश्न है, इसकी आशा अब नहीं के बराबर है। यद्यपि मेरा उद्देश्य सबसे अच्छा था, किंतु निम्नलिखित कारणों से उसके कार्यान्वित होने की संभावना को नष्ट कर दिया गया है।
भारत के जो समाचार मुझे मिलते रहते हैं, वे मद्रास से प्राप्त पत्रों से ही मिलते हैं। तुम लोगों के पत्रों से मुझे समाचार बराबर मिल रहा है कि भारत में सभी लोग मेरी प्रशंसा कर रहे हैं किंतु यह तो हमारे और तुम्हारे सिवा किसी और को मालूम न होगा, क्योंकि आलासिंग