(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
द्वारा श्रीमती बैग्ली,
एनिसक्वाम,
३१ अगस्त, १८९४
प्रिय बहन,
मद्रास के लोगों का पत्र कल के 'बोस्टन ट्रान्सक्रिप्ट' में प्रकाशित हुआ
था। मैं उसकी एक प्रति तुम्हारे पास भेजना चाहता हूँ। तुमने इसको शिकागो के
किसी समाचारपत्र में देखा होगा। मेरा विश्वास है कि 'कुक एंड संस' के यहाँ
मेरी कुछ डाक होगी-मैं यहाँ कम से कम आगामी मंगलवार तक रहूँगा, इस दिन मुझे
यहाँ एनिसक्वाम में भाषण करना है।
कृपया 'कुक' के यहाँ मेरी डाक के संबंध में पूछ-ताछ करो और उसे एनिसक्वाम भेज
दो। मुझे तुम्हारा कुछ दिनों तक कोई समाचार नहीं मिला। मैंने कल मदर चर्च को
दो चित्र भेजे हैं, आशा है कि तुम उन्हें पसंद करोगी। भारत की डाक के लिए मैं
बहुत चिंतित हूँ। सब के लिए प्यार के साथ -
तुम्हारा सदैव स्नेही भाई,
विवेकानंद
पुनश्च-चूँकि मैं यह नहीं जानता था कि तुम कहाँ हो, कुछ अन्य वस्तुओं को,
जो तुम्हारे पास भेजना चाहता था, नहीं भेज सका।
वि॰
(श्री ल्यान लैण्ड्सवर्ग
[1]
को लिखित)
होटल वेल्लेवुये,
बोस्टन,
१३ सितंबर, १८९४
प्रिय ल्यान,
तुम कुछ बुना न मानना, पर गुरु होने के नाते तुम्हें उपदेश देने का मुझे
अधिकार है, और इसीलिए मैं यह साधिकार कहना चाहता हूँ कि तुम अपने लिए कुछ
वस्त्रादि अवश्य खरीदना, क्योंकि उपयुक्त वस्त्रों के बिना इस देश में
कोई भी कार्य करना तुम्हारे लिए कठिन होगा। एक बार काम शुरू हो जाने पर फिर
तुम अपनी इच्छानुसार वस्त्र धारण कर सकते हो, तब कोई भी किसी प्रकार की बाधा
नहीं डालेगा। मुझे धन्यवाद देने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि यह मेरा
कर्तव्य है। हिंदू कानून के अनुसार शिष्य ही गुरु का उत्तराधिकारी होता है,
यदि संन्यास ग्रहण करने से पूर्व उसका कोई पुत्र भी हो, तो भी वह
उत्तराधिकारी नहीं हो सकता। इस तरह तुम देख सकते हो कि यह नाता पक्का
आध्यात्मिक नाता है-'यांकी' लोगों की तरह 'शिक्षक' बनने का पेशा नहीं!
तुम्हारी सफलता के लिए प्रार्थना तथा आशीर्वाद सहित,
तुम्हारा,
विवेकानंद
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
बेकन स्ट्रीट, बोस्टन,
होटल बेल्लेवुये,
१३ सितंबर, १८९४
प्रिय बहन,
तुम्हारा कृपा-पत्र मेरे पास आज प्रात:काल पहुँचा। मैं इस होटल में लगभग एक
सप्ताह से हूँ। मैं बोस्टन में अभी कुछ समय और रहूँगा। मेरे पास पहले ही से
बहुत से चोग़े हैं, वस्तुत: इतने ज़्यादा कि मैं उन्हें आसानी से साथ नहीं
ले जा पाता। जब मैं एनिसक्वाम में भीग गया था, तो मैं वह काला 'सूट' धारण किए
हुए था, जिसकी तुम बहुत प्रशंसा करती हो। मैं नहीं समझता कि वह किसी प्रकार
क्षतिग्रस्त हो सकता है; ब्रह्म में मेरे गंभीर ध्यान के साथ वह भी ओतप्रोत
रहा है। मुझे प्रसन्नता है कि तुमने ग्रीष्म इतनी अच्छी तरह व्यतीत किया।
जहाँ तक मेरा संबंध है, आवारागर्दी कर रहा हूँ। गत दिवस एबे ह्यू का तिब्बत
के आवारा लामाओं का वर्णन-हमारे बंधुत्व की एक सही तस्वीर-पढ़ने में मुझे
बड़ा आनंद आया। उनका कथन है कि वे बड़े विचित्र लोग हैं। जग इच्छा होगी, वे आ
जाएंगे, हर एक की मेज़ पर बैठ जाते हैं; निमंत्रण हो अथवा नहीं, जहाँ चाहेंगे,
रहेंगे और जहाँ चाहेंगे, चले जाएंगे। एक भी पहाड़ ऐसा नहीं है, जिस पर वे न
चढ़े हों, एक भी ऐसी नदी नहीं है, एक भी ऐसी भाषा नहीं है, जिसमें वे वार्ता न
करते हों। उनका विचार है कि ईश्वर ने उनमें उस शक्ति का, जिससे ग्रह शाश्वत
रूप से परिक्रमा करते रहते हैं, कुछ अंश अवश्य रख दिया है। आज यह आवारा लामा
लिखते ही जाने की इच्छा से अभिभूत था, अतएव जाकर एक दुकान से लिखने का सब
प्रकार का सामान तथा एक सुंदर पत्राधार, जो क़ब्जे़ से बंद होता है और जिसमें
एक छोटी सी लकड़ी की दावात भी है, ले आया। अभी तक, तो अच्छे लक्षण हैं। आशा
है कि ऐसा ही रहेगा। गत मास भारत से मुझे काफ़ी पत्र प्राप्त हुए, और मुझे
अपने देशवासियों से बड़ी प्रसन्नता होती है, जब वे मेरे कार्य की
उदारतापूर्वक सराहना करते हैं। उनके लिए इतना पर्याप्त है। और कुछ अधिक नहीं
लिख सकूँगा। प्रोफ़ेसर राइट, उनकी धर्मपत्नी और बच्चे सदैव की भाँति ही
कृपालु हैं। शब्द, उनके प्रति मेरी कृतज्ञता, नहीं व्यक्त कर सकते।
बुरी तरह सर्दी होने के सिवाय अभी तक मुझे कोई शिकायत नहीं है। मै समझता हूँ
कि वह व्यक्ति अब चला गया होगा। इस बार अनिद्रा रोग के सिलसिले में मैंने
ईसाई विज्ञान की आजमाइश की और देखा कि वह अच्छा काम करता है। तुम्हारे लिए
समस्त कुशल-मंगल की कामना करते हुए-
तुम्हारा सदैव स्नेही भाई,
विवेकानंद,
पुनश्च-कृपया माँ को बता दो कि मुझे अब कोई कोट की आवश्यकता नहीं है।
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
होटल बेल्लेवुये,
बेकन स्ट्रीट, बोस्टन,
१९ सितंबर, १८९४
माँ सारा,
मैं आपको बिल्कुल नहीं भूला हूँ। क्या आपको यह विश्वास है कि मैं इतना
अकृतज्ञ बन सकता हूँ? आपने मुझे अपना पता नहीं लिखा, फिर भी लैण्ड्सबर्ग
द्वारा कुमारी फिलिप्स के भेजे हुए समाचारों से आपका समाचार भी मिलता रहा है।
मद्रास से मुझे जो अभिनंदन-पत्र भेजा गया है, शायद उसे आपने देखा होगा। आपको
भेजने के लिए उसकी कुछ प्रतियाँ लैण्ड्सबर्ग के पास भेज रहा हूँ।
हिंदू संतान अपनी माता को कभी कर्ज़ नहीं देती है, लेकिन अपनी संतान पर माता
का सर्वाधिकार होता है और उसी प्रकार माता पर संतान का भी सर्वाधिकार होता है।
मेरे उन तुच्छ डॉलरों को लौटा देने की बात से मैं आपसे अत्यंत स्पष्ट हूँ।
हक़ीक़त यह है कि आपका ऋृण मैं कभी भी नहीं चुका सकता।
इस समय मैं बोस्टन के कुछ स्थानों में भाषण दे रहा हूँ। अब मैं एक ऐसे
स्थान की खोज में हूँ, जहाँ बैठकर अपने विचारों को लिपिबद्ध कर सकूँ।
पर्याप्त भाषण हो चुके, अब मैं कुछ लिखना चाहता हूँ। मैं समझता हूँ कि इस
कार्य के लिए मुझे न्यूयार्क जाना पडे़गा। श्रीमती गर्नसी ने मेरे साथ अत्यंत
सह्दयतापूर्ण व्यवहार किया है तथा मेरी सहायता करने के लिए वे सदा इच्छुक
हैं। मैं सोच रहा हूँ कि उनके यहाँ जाकर मैं इस कार्य को करूँ।
आपका चिर स्नेहास्पद,
विवेकानंद
पुनश्च-कृपया यह लिखने का कष्ट करें कि गर्नसी दंपत्ति शहर में वापस आ गया
है या अभी तक फि़श्किल में ही है।
(अपने गुरुभाइयों को लिखित)
ॐ नमों भगवते श्री रामकृष्णाय
१८९४
प्रिय भ्रातृवृंद,
इसके पहले मैंने तुम लोगों को एक पत्र लिखा है, किंतु समयाभाव से वह बहुत ही
अधूरा रहा। राखाल एवं हरि ने लखनऊ से एक पत्र में लिखा था कि हिंदू समाचारपत्र
मेरी प्रशंसा कर रहे थे, और वे लोग बहुत ही खुश थे कि श्री रामकृष्ण के
वार्षिकोत्सव के अवसर पर बीस हज़ार लोगों ने भोजन किया। इस देश में1 मैं बहुत
कुछ कार्य और कर सकता था, किंतु ब्राह्य समाजी एवं मिशनरी लोग मेरे पीछे दौड़
रहे हैं। एवं भारतीय हिंदुओं ने भी मेरे लिए कुछ नहीं किया। मेरा तात्पर्य यह
है कि अगर कलकत्ता या मद्रास के हिंदुओं ने एक सभा बुलाकर मुझे अपना
प्रतिनिधि स्वीकार करते हुए एक प्रस्ताव पारित करवाया होता तथा मेरे प्रति
किए गए उदारतापूर्ण स्वागत के लिए अमेरिकावासियों को साधुवाद दिया होता, तो
यहाँ पर कार्य में अच्छे ढंग से प्रगति होती लेकिन एक साल बीत गया, और कुछ
नहीं हुआ-निश्चय ही मैंने बंगालियों पर कुछ भी भरोसा नहीं किया था, पर
मद्रासी लोग भी तो कुछ नहीं कर सके।...
हमारी जाति से काई भी, आशा नहीं की जा सकती। किसीके मस्तिष्क में कोई मौलिक
विचार जागृत नहीं होता, उसी एक चिथड़े से सब कोई चिपके हुए हैं-रामकृष्ण
परमहंस देव ऐसे थे और वैसे थे, वही लंबी-चौड़ी कहानी -जो बेसिर-पैर की है। हाय
भगवन्, तुम लोग भी तो ऐसा कुछ करके दिखलाओ कि जिससे यह पता चले कि तुम लोगों
में भी कुछ असाधारणता है-अन्यथा आज घंटा आया, तो कल बिगुल और परसों चमर; आज
खाट मिली, कल उसके पायों को चाँदी से मढ़ा गया-आज खाने के लिए लोगों को खिचड़ी
दी गई और तुम लोगों ने दो हज़ार लंबी-चौड़ी कहानियाँ गढ़ीं-वही चक्र, गदा,
शंख, पद्म तथा शंख, गदा, पद्म, चक्र-ये सब निरा पागलपन नहीं तो और क्या है?
अंग्रेज़ी में इसी को imbecility (शारीरिक तथा मानसिक कमज़ोरी) कहा जाता है।
जिन लोगों के तस्तिष्क में इस प्रकार की ऊलजलूल बातों के सिवाय और कुछ नहीं
है, उन्हीं को जड़बुद्धि कहते हैं। घंटा दायीं ओर बजना चाहिए अथवा बायीं ओर,
चंदन माथे पर लगाना चाहिए या अन्यत्र कहीं, आरती दो बार उतारनी चाहिए या चार
बार-इन प्रश्नों को लेकर जो दिन-रात माथापच्ची किया करते हैं, उन्हीं का
नाम भाग्यहीन है और इसीलिए हम लोग श्रीहीन तथा जूतों की ठोकर खानेवाले हो गए
तथा पश्चिम के लोग जगद्विजयी।...आलस्य तथा वैराग्य में आकाश-पाताल का अंतर
है।
यदि भलाई चाहते हो, तो घंटा आदि को गंगा जी में सौंपकर साक्षात् भगवान नारायण
की-विराट् और स्वराट् की-मानव देहधारी प्रत्येक मनुष्य की पूजा में तत्पर
हो। यह जगत् भगवान का विराट् रूप है; एवं उसकी पूजा का अर्थ है, उसकी सेवा-
वास्तव में कर्म इसी का नाम है, निरर्थक विधि-उपासना के प्रपञ्च का नहीं।
घंटे के बाद चमर लेने का अथवा भात की थाली भगवान के सामने रखकर दस मिनट बैठना
चाहिए या आधा घंटा, इस प्रकार के विचार-विमर्श का नाम कर्म नहीं हैं, यह तो
पागलपन है। लाखों रुपये खर्च कर काशी ताशि वृदावन के मंदिरों के कपाट खुलते और
बंद होते हैं। कहीं ठाकुर जी वस्त्र बदल रहे हैं, तो कहीं भोजन अथवा और कुछ
कर रहे हैं जिसका ठीक ठीक तात्पर्य हम नहीं समझ पाते,…किंतु दूसरी ओर जीवित
ठाकुर भोजन तथा विद्या के बिना मरे जा रहे हैं! बम्बई के बनिया लोग खटमलों के
लिए अस्पताल बनवा रहे हैं, किंतु मनुष्यों की ओर उनका कुछ भी ध्यान नहीं
है-चाहे वे मर ही क्यों न जाएं। तुम लोगों में इन बातों को समझने तक की भी
बुद्धि नहीं है, यह हमारे देश के लिए प्लेग के समान है, और पूरे देश में
पागलों का अड्डा।...
तुम लोग अग्नि की तरह चारों ओर फैल जाओ और उस विराट् की उपासना का प्रचार करो
-जो कि कभी हमारे देश में नहीं हुआ है। लोगों के साथ विवाद करने से काम न
होगा, सबसे मिलकर चलना पड़ेगा।...
गाँव-गाँव तथा घर-घर में जाकर भावों का प्रचार करो, तभी यथार्थ में कर्म का
अनुष्ठान होगा; अन्यथा चुपचाप चारपाई पर पड़ा रहना तथा बीच बीच में घंटा
हिलाना-स्पष्टता यह तो एक प्रकार का रोग विशेष है।...स्वतंत्र बनो, स्वतंत्र
बुद्धि से काम लेना सीखो-अन्यथा अमुक तंत्र के अमुक अध्याय में घंटे की
लंबाई का जो उल्लेख है, उससे हमें क्या लाभ? प्रभु की इच्छा से लाखों
तंत्र, वेद, पुराणादि सब कुछ तुम्हारी वाणी से अपने आप नि:सृत होंगे। यदि कुछ
करके दिखा सको, एक वर्ष के अंदर यदि भारत के विभिन्न स्थलों में दो-चार
हज़ार शिष्य बना सको, तब मैं तुम्हारी बहादुरी समझूंगा।
क्या तुम उस छोकरे को जानते हो, जो कि सर मुड़ाकर तारक दादा के साथ बम्बई से
रामेश्वर गया है? वह अपने को श्री रामकृष्ण देव का शिष्य बतलाता है। तारक
दादा उसे दीक्षा दे।...उसने न तो कभी अपने जीवन में उनको देखा और न सुना
ही-फिर भी शिष्य! वह रे धृष्टता! गुरु-परंपरा के बिना कोई भी कार्य नहीं हो
सकता-क्या यह बच्चों का खेल है? वैसे ही शिष्य हो गया-मूर्ख! यदि वह क़ायदे
से न चले, तो उसे निकाल बाहर करो। गुरु-परंपरा अर्थात जो शक्ति गुरु से शिष्य
में आती है तथा उनसे उनके शिष्यों में संक्रमित होती है-उसके बिना कुछ भी
नहीं हो सकता। वैसे ही अपने को श्री रामकृष्ण देव का शिष्य कह देना-क्या यह
तमाशा है? जगमोहन ने पहले मुझसे कहा था कि एक व्यक्ति अपने को मेरा गुरुभाई
बतलाता है, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह वही छोकरा है। अपने को गुरुभाई कहता
है, क्योंकि शिष्य कहने में लज्जा आती है। एकदम गुरु बनना चाहता है! यदि
उसका आचरण ठीक न हो, तो उसे अलग कर देना।
किसी कार्य का न होना ही सुबोध तथा तुलसी की मानसिक अशांति का कारण है।...गाँव
गाँव तथा घर घर में जाकर लोकहित एवं ऐसे कार्यों में आत्मनियोग करो, जिससे कि
जगत् का कल्याण हो सके। चाहे अपने को नरक में क्यों न जाना पड़े, परंतु
दूसरों की मुक्ति हो। मुझे अपनी मुक्ति की चिंता नहीं है। जब तुम अपने लिए
सोचने लगोगे, तभी मानसिक अशांति आकर उपस्थित होगी। मेरे बच्चे, तुम्हें
शांति की क्या आवश्यकता है? जब तुम सब कुछ छोड़ चुके हो। आओ, अब शांति तथा
मुक्ति की अभिलाषा को भी त्याग दो। किसी प्रकार की चिंता अवशिष्ट न रहने
पाए; स्वर्ग-नरक, भक्ति अथवा मुक्ति-किसी चीज़ की परवाह न करो। और जाओ, मेरे
बच्चे, घर घर जाकर भगवन्नाम का प्रचार करो। दूसरों की भलाई से ही अपनी भलाई
होती है, अपनी मुक्ति तथा भक्ति भी दूसरों की मुक्ति तथा भक्ति से ही संभव है,
अत:उसी में संलग्न हो जाओ, तन्मय रहो तथा उन्मत्त बनो। जैसे कि श्री
रामकृष्ण देव तुमसे प्रीति करते थे, मैं तुमसे प्रीति करता हूँ, आओ, वैसे ही
तुम भी जगत से प्रीति करो। सबको एकत्र करो, गुणनिधि कहाँ है? उसे अपने पास
बुलाओ। उससे मेरी अनंत प्रीति कहना। गुप्त कहाँ है? यदि वह आना चाहे, तो आने
दो। मेरे नाम से उसे अपने पास बुलाओ। निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखो-
१. हम लोग संन्यासी हैं, भक्ति तथा भुक्ति-मुक्ति, सब कुछ हमारे लिए
त्याज्य है।
२. जगत् का कल्याण करना, प्राणिमात्र का कल्याण करना हमारा व्रत है, चाहे
उससे मुक्ति मिले अथवा नरक, स्वीकार करो।
३. जगत् के कल्याण के लिए श्री रामकृष्ण परमहंस देव का आविर्भाव हुआ था।
अपनी अपनी भावनानुसार उनको तुम मनुष्य, ईश्वर, अवतार-जो कुछ कहना चाहो-कह
सकते हो।
४. जो कोई उनको प्रणाम करेगा, तत्काल ही वह स्वर्ण बन जाएगा। इस सन्देश को
लेकर तुम घर घर जाओ तो सही-देखोंगे कि तुम्हारी सारी अशांति दूर हो गई है।
डरने की जरूरत नहीं-डरने का कारण ही कहाँ है? तुम्हारी कोई आकांक्षा तो है
नहीं-अब तक तुमने उनके नाम तथा अपने चरित्र का जो प्रचार किया है, वह ठीक है;
अब संगठित होकर प्रचार करो प्रभु तुम्हारे साथ हैं, डरने की कोई बात नहीं।
चाहे मैं मर जाऊँ या जीवित रहूँ, भारत लौटूँ या न लौटूँ, तुम लोग प्रेम का
प्रचार करते रहो। प्रेम जो बंधनरहित है। गुप्त को इस कार्य में जुटा दो।
किंतु यह याद रखना कि दूसरों को मारने के लिए अस्त्र-शस्त्र की आवश्यकता
है। सन्निमित्ते वरं त्यागो विनाशे नियते सति-'मृत्यु जब अवश्यंभावी है,
तब सत्कार्य के लिए प्राणत्याग करना ही श्रेय है।'
प्रेमपूर्वक तुम्हारा,
विवेकानंद
पुनश्च--पहली चिट्ठी की बात याद रखना-पुरुष तथा नारी, दोनों ही आवश्यक हैं।
आत्मा में नारी-पुरुष का कोई भेद नहीं है; परमहंसदेव को अवतार मात्र कह देने
से ही काम न चलेगा, शक्ति का विकास आवश्यक है। गौरी माँ, योगिन माँ एवं गोलाप
माँ कहाँ हैं? हज़ारों की संख्या में पुरुष तथा नारी चाहिए, जो अग्नि की तरह
हिमालय से कन्याकुमारी तथा उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक तमाम दुनिया
में फैल जाएंगे। वह बच्चों का खेल नहीं है और न उसके लिए समय ही है। जो
बच्चों का खेल खेलना चाहते हैं, उन्हें इसी समय पृथक् हो जाना चाहिए, नहीं
तो आगे उनके लिए बड़ी विपत्ति खड़ी हो जाएगी। हमें संगठन चाहिए, आलस्य को दूर
कर दो, फैलो! अग्नि की तरह चारों ओर फैल जाओ। मुझ पर भरोसा न रखो, चाहे मैं मर
जाऊँ अथवा जीवित रहूँ-तुम लोग प्रचार करते रहो।
विवेकानंद
(श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
शिकागो,
सितंबर, १८९४
प्रिय दीवान जी साहब,
बहुत पहले ही आपका कृपापत्र मिला था, लेकिन चूँकि मेरे पास कुछ विशष लिखने को
नहीं था, मैंने उत्तर लिखने में देर की।
जी. डब्ल्यू. हेल के प्रति आपका कृपापूर्ण वक्तव्य बहुत ही आनंद देनेवाला
साबित हुआ, क्योंकि उनके प्रति मैं इतना भर ही ऋृणी था। इस समय में पूरे इस
देश की यात्रा कर रहा हूँ एवं सभी चीज़ों को देख रहा हूँ। मैं इस निष्कर्ष पर
पहुँच गया हूँ कि संसार में केवल एक ही देश है, जो धर्म को समझ सकता है-वह है
भारत; हिंदू अपनी संपूर्ण बुराइयों के बावजूद नीति एवं अध्यात्म में दुसरे
राष्ट्रों से बहुत ऊँचे है, एवं उसके नि:स्वार्थी सुपुत्रों की समुचित
सावधानी, प्रयास एवं संघर्ष के द्वारा पाश्चात्य देशों के वारोचित
तत्त्वों को हिंदुओं के शांत गुणों के साथ मिलाते हुए एक ऐसे मानव-समुदाय की
सृष्टि की जा सकती है, जो इस संसार में अब तक पैदा हुई किसी भी जाति से यह
समुदाय कई गुना महान होगा।
मुझे पता नहीं कि मैं कब लौटूँगा, लेकिन इस देश की अधिकांश चीज़ों को मैंने
देख लिया, अत:शीघ्र ही यूरोप और फिर भारत चला जाऊँगा।
आपके लिए एवं आपके भाइयों के लिए अपनी सर्वोत्तम कृतज्ञता एवं प्रेम के साथ,
आपका चिर विश्वस्त,
विवेकानंद
(श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
शिकागो,
सितंबर, १८९४
प्रिय दीवान जी साहब,
मेरे स्वास्थ्य एवं सुख का समाचार जानने के लिए एक सज्जन को भेजकर आपने
बहुत कृपा की। किंतु वह तो आपके पितातुल्य चरित्र का एक अंश है। मैं यहाँ
बिल्कुल ठीक हूँ। आपकी कृपा के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु की आकांक्षा
नहीं। आशा है, शीघ्र ही कुछ दिनों में आपके दर्शन करूँगा। ढलाव की तरफ़ जाने
के लिए मुझे किसी सवारी की आवश्यकता नहीं है। उतार तो बहुत खराब है, किंतु
चढ़ना तो कार्य का सबसे कठिन अंश है, और संसार में सभी वस्तुओं के साथ यही
सत्य है। आपके प्रति अपना आंतरिक आभार।
भवदीय,
विवेकानंद
(श्री आलासिंगा पेरूमल को लिखित)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
२१ सितंबर, १८९४
प्रिय आलासिंगा,
...मैं निरंतर एक स्थान से दूसरे स्थान में भ्रमण करते हुए सतत कार्यरत हूँ,
भाषण दे रहा हूँ, क्लास ले रहा हूँ आदि।
पुस्तक लिखने का मेरा संकल्प था, पर अभी तक उसकी एक पंक्ति भी मैं नहीं लिख
पाया हूँ। संभवत: कुछ दिन बाद उसमें जुट सकूँगा। यहाँ पर उदार मातावलंबियों
तथा पक्के ईसाईयों में से कुछ लोग मेरे अच्छे मित्र बन चुके हैं। आशा है कि
शीघ्र ही मैं भारत लौट सकूँगा। इस देश में तो पर्याप्त आंदोलन हो चुका। खासकर
अत्याधिक परिश्रम ने मुझे अत्यंत दुर्बल बना दिया है। जनता के सामने अधिक
भाषण देने तथा कहीं पर उपयुक्त विश्राम न लेकर निरंतर एक स्थान से दूसरे
स्थान का भ्रमण करने से ही यह दुर्बलता बढ़ी है। मैं इस व्यस्त, अर्थहीन
तथा धनाकांक्षी जीवन की परवाह नहीं करता। इसलिए तुम समझ लो कि मैं शीघ्र ही
लौटूँगा। यह सही है कि यहाँ के एक वर्ग का, जिसकी संख्या क्रमश: बढ़ती जा रही
है, मैं अत्यंत प्रिय बन चुका हूँ और वे अवश्य ही यह चाहेंगे कि मैं सदा यहीं
रहूँ। किंतु मैं सोचता हूँ कि अखबारी हो-हल्ला तथा आम लोगों में कार्य करने
के फलस्वरूप बहुत कुछ ख्याति मिल चुकी, मैं इन चीज़ों की बिल्कुल परवाह
नहीं करता।...
हमारी योजना के लिए अब यहाँ से धन मिलने की आशा नहीं है। आशा करनी व्यर्थ है।
किसी देश के अधिकांश लोग मात्र सहानुभूतिवश कभी किसी का उपकार नहीं करते। ईसाई
देशों में वास्तव में जो लोग सत्कार्य के लिए रुपया देते हैं, बहुधा वे
पुरोहित-प्रपंच अथवा नरक जाने के भय से ही उस कार्य को करते हैं। जैसा कि
हमारे यहाँ की बंगाली कहावत है-'गाय मरकर उसके चमड़े से जूता बनाकर ब्राह्मण
को जूता दान करना।'-यहाँ पर भी उसी प्रकार का दान अधिक है। प्राय:सभी जगह ऐसा
ही होता है। दूसरे, हमारी जाति की तुलना में पाश्चात्य देशवासी अधिक कंजूस
हैं। मेरा तो यह विश्वास है कि एशिया के लोग संसार की सब जातियों में अधिक
दानशील हैं, केवल वे सबसे अधिक गरीब हैं।
मैं कुछ महीनों के लिए न्यूयार्क जा रहा हूँ। वह शहर मानों संपूर्ण संयुक्त
राज्य का मस्तक, हाथ तथा कोषागारस्वरूप है; यह अवश्य है कि बोस्टन को
'ब्राह्मणों का शहर' (विद्या-चर्चा का प्रधान स्थान) कहा जाता है और यहाँ
अमेरिका में हज़ारों व्यक्ति ऐसे हैं, जो मेरे प्रति सहानुभूति रखते हैं।
न्यूयार्क के लोग बड़े खुले दिल के हैं। वहाँ पर मेरे कुछ विशिष्ट
प्रभावशाली मित्र हैं। देखना है कि वहाँ कहाँ तक मुझे सफलता मिलती है। अंतत:
इस भाषण-कार्य से दिन-प्रतिदिन मैं ऊबता जा रहा हूँ, उच्चतर आध्यात्मिक को
ह्दयंगम करने के लिए अभी पाश्चात्य देशवासियों को बहुत समय लगेगा। अभी उनके
लिए सब कुछ पौंड, शिलिंग और पेंस ही है। यदि किसी धर्म के आचारण से धन की
प्राप्ति हो, रोग दूर होते हों, सौंदर्य तथा दीर्घ जीवन लाभ की संभावना हो,
तभी वे उस ओर झुकेंगे, अन्यथा नहीं।
बालाजी, जी. जी. तथा हमारे अन्य मित्रों से मेरा आंतरिक प्यार कहना।
तुम्हारा चिरस्नेहाबद्ध,
विवेकानंद
(श्री सिंगारावेलू मुदालियर को लिखित)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
२१ सितंबर, १८९४
प्रिय किडी,
इतने शीघ्र संसार त्यागने का तुम्हारा संकल्प सुनकर मैं अत्यंत दु:खित हूँ।
पकने पर फल पेड़ से स्वत: ही गिर जाता है। अत:समय की प्रतीक्षा करो।
जल्दबाज़ी मत करो। इसके अतिरिक्त किसी प्रकार का मूर्खतापूर्ण आचरण कर
दूसरों को कष्ट देने का अधिकार किसी को नहीं है। प्रतीक्षा करो, सब्र रखो,
समय पर सब ठीक हो जाएगा।
बालाजी, जी.जी. तथा हमारे अन्य मित्रों से मेरा हार्दिक प्यार कहना।
तुम्हें भी अनंत काल के लिए मेरा प्यार।
आशीर्वाद सहित,
तुम्हारा, विवेकानंद
(गुरुभाइयों के लिए लिखित)
न्यूयार्क,
२५ सितंबर, १८९४
कल्याणीय,
तुम लोगों के कई पत्र मिले। शशि आदि जो तहलका मचाये हुए हैं, यह जानकर मुझे
बड़ी खुशी होती है। हमें तहलका मचाना ही होगा, इससे कम में किसी तरह नहीं चल
सकता। इस तरह सारी दुनिया भर में प्रलय मच जाएगी, वाह गुरु की फ़तह! अरे भाई,
श्रेयांसि बहुविघ्नानि-महान कार्यों में कितने विघ्न आते हैं-उन्हीं
विघ्नों की रेल-पेल में आदमी तैयार होता है। चारू को अब मैं समझ गया हूँ। जब
वह लड़का था, मैंने उसे देखा था, इसीलिए उसका मतलब नहीं भाँप सका था। उसे मेरा
अनेक आशीर्वाद कहना। अरे, मोहन, यह मिशनरी-फि़शनरी का काम थोड़े ही है, जो यह
धक्का सँभाले? अब मिशनरियों के सर पर मानो विपत्ति आ गई है, जो बड़े बड़े
पादरी बड़ी-बड़ी कोशिशें कर रहे हैं। लेकिन क्या इस 'गिरी गोवर्द्धन' को हिला
सकते हैं भला? बड़े-बड़े बह गए, अब क्या वह गड़रिये का काम है, जो थाह ले? यह
सब नहीं चलने का भैया, कोई चिंता न करना। सभी कानों में एक दल वाहवाही देता
है, तो दूसरा नुक़्स निकालता है। अपना काम करते जाओ, किसीकी बात का जवाब देने
से क्या काम? सत्यमेव जयते नानृतं, सत्येनैव पन्था विततो देवयान:। (सत्य
की ही विजय होती है, मिथ्या की नहीं, सत्य से ही देवयान मार्ग की गति मिलती
है।) गुरुप्रसन्न बाबू को एक पत्र लिख रहा हूँ। मोहन, रुपये की फिक्र न करो।
धीरे-धीरे सब होगा।
इस देश में ग्रीष्मकाल में सब समुद्र के किनारे चले जाते हैं, मैं भी गया था।
यहाँवालों को नाव खेने और 'याट'चलाने का रोग है। 'याट' एक प्रकार का हल्का
जहाज़ होता है और यह यहाँ के लड़के, बूढ़े तथा जिस किसी के पास धन है, उसी के
पास है। उसी में पाल लगाकर वे लोग प्रतिदिन समुद्र में डाल देते हैं; और
खाने-पीने और नाचने के लिए घर लौटते हैं; और गाना-बज़ाना तो दिन-रात लगा ही
रहता है। पियानो के मारे घर में टिकना मुश्किल हो जाता है।
हाँ, तुम जिन जी. डब्ल्यू. हेल के पते पर चिट्ठियाँ भेजते हो, उनकी भी कुछ
बातें लिखता हूँ। वे वृद्ध हैं और उनकी वृद्धा पत्नी हैं। दो कन्याएँ हैं,
दो भतीजियाँ और एक लड़का। लड़का नौकरी करता है, इसलिए उसे दूसरी जगह रहना
पड़ता है। लड़कियाँ घर पर रहती हैं। इस देश में लड़की का रिश़्ता ही रिश्ता
है। लड़के का विवाह होते ही वह और हो जाता है, कन्या के पति की अपनी स्त्री
से मिलने के लिए प्राय: उसके बाप के घर जाना पड़ता है। यहाँ वाले कहते हैं-
Son is son till he gets a wife;
The daughter is daughter all her life.
[2]
चारों कन्याएँ युवती और अविवाहित हैं। विवाह होना इस देश में महा कठिन काम
है। पहले तो, मन के लायक़ वर हो, दूसरे धन हो! लड़के यारी में तो बड़े पक्के
हैं, परंतु पकड़ में आने के वक़्त नौ दो ग्यारह! लड़कियाँ नाच-कूदकर किसी को
फँसाने की कोशिश करती हैं, लड़के जाल में पड़ना नहीं चाहते। आखिर इस तरह 'लव'
हो जाता है, तब शादी होती है। यह हुई साधारण बात, परंतु हेल की कन्याएँ
रूपवती हैं, बड़े आदमी की कन्याएँ हैं, विश्वविद्यालय की छात्राएँ हैं,
नाचने, गाने और पियानों बजाने में अद्वितीय हैं। कितने ही लड़के चक्कर मारते
हैं, लेकिन उनकी नज़र में नहीं चढ़ते। जान पड़ता है, वे विवाह नहीं करेंगी,
तिस पर अब मेरे साथ रहने के कारण महावैराग्य सवार हो गया है। वे इस समय
ब्रह्मचिंता में लगी रहती हैं।
दोनों कन्याओं के बाल सुनहले हैं, और दोनों भतीजियों के काले। ये 'जूते सीने
से चंडी पाठ' तक सब जानती हैं। भतीजियों के पास उतना धन नहीं है, उन्होंने एक
किंडरगार्टन स्कूल खोला है, लेकिन कन्याएँ कुछ नहीं कमातीं। कोई किसी के
भरोसे नहीं रहता। करोड़पतियों के पुत्र भी रोज़गार करते हैं, विवाह करके अलग
किराये का मकान लेकर रहते हैं। कन्याएँ मुझे दादा कहती हैं, मैं उनकी माँ को
माँ कहता हूँ। मेरा सब सामान उन्हीं के घर में है। मैं कहीं भी जाऊँ, वे उसकी
देखभाल करती हैं। यहाँ के सब लड़के बचपन से ही रोज़गार में लग जाते हैं और
लड़कियाँ विश्वविद्यालय में पढ़ती-लिखती हैं, इसलिए यहाँ की सभाओं में ९०
फ़ीसदी स्त्रियाँ रहती हैं, उनके आगे लड़कों की दाल नहीं गलती।
इस देश में पिशाच-विद्या के पंडित बहुत हैं। माध्यम (medium) उसे कहते हैं,
जो भूत बुलाता है। वह एक पर्दे की आड़ में जाता है और पर्दे के भीतर से भूत
निकलते रहते हैं, बड़े-छोटे हर रंग के! मैंने भी कई भूत देखे, परंतु यह मुझे
झाँसा-पट्टी ही जान पड़ती है। और भी कुछ देखने के बाद मैं निश्चित रूप से
निर्णय लूँगा। उस विद्या के पंडित मुझ पर बड़ी श्रद्धा रखते हैं।
दूसरा है क्रिश्चियन सायन्स-यहाँ आजकल सबसे बड़ा दल है, सर्वत्र इसका प्रभाव
है। ये खूब फैल रहे हैं और कटटरतावादियों की छाती में शूल से चुभ रहे हैं। ये
वेदांती हैं, अर्थात अद्वैतवाद के कुछ मतों को लेकर उन्हीं को बाइबिल में
घुसेड़ दिया है और 'सोऽहम्' कहकर रोग अच्छा कर देते हैं-मन की शक्ति से। ये
सभी मेरा बड़ा आदर करते हैं।
आजकल यहाँ कट्टरपंथी ईसाई 'त्राहि माम्' मचाये हुए हैं। प्रेतोपासना (devil
worship) की अब जड़ सी हिल गई है। वे मुझे यम जैसा देखते हैं। और कहते हैं,
"यह पापी कहाँ से टपक पड़ा, देश भर की नर-नारियाँ इसके पीछे लगी फिरती हैं-यह
कट्टरपंथियों की जड़ ही काटना चाहता है।" आग लग गई है भैया, गुरु की कृपा से
जो आग लगी है, वह बुझने की नहीं। समय आएगा, जब कट्टरवादियों का दम निकल जाएगा।
अपने यहाँ बुलाकर बेचारों ने एक मुसीबत मोल ले ली है, ये अब यह महसूस करने लगे
हैं!
थियोसॉफिस्टों का ऐसा कुछ दबदबा नहीं है, किंतु वे भी कट्टरवादियों के पीछे
पड़े हुए हैं।
यह क्रिश्चियन सायन्स ठीक हमारे देश के कर्ताभजा संप्रदाय की तरह है। कहो कि
रोग नहीं है-बस, अच्छे हो गए, और कहो, 'सोऽहम्'-बस, तुम्हें छुट्टी, खाओ,
पियो और मौज़ करो। यह देश घोर भौतिकवादी है। ये क्रिश्चियन देश के लोग बीमारी
अच्छी करो, करामात दिखलाओ, पैसे कमाने का रास्ता बताओ, तब धर्म मानते हैं,
इसके सिवा और कुछ नहीं समझते। परंतु कोई कोई अच्छे हैं। जितने बदमाश,
लुच्चे, पाखंडी, मिशनरी हैं, उन्हें ठगकर पैसे कमाते हैं और इस तरह उनका
पाप-मोचन करते हैं। यहाँ के लोगों के लिए मैं एक नए प्रकार का आदमी हूँ।
कट्टरतावादियों तक की अक्ल गुम है। और लोग अब मुझे श्रद्धा की दृष्टि से
देखने लगे हैं। ब्रह्मचर्य, पवित्रता से बढ़कर क्या और शक्ति है!
मैं इस समय मद्रासियों के अभिनंदन का, जिसे छापकर यहाँ के समाचार-पत्रवालों ने
ऊधम मचा दिया था, जवाब लिखने में लगा हूँ। अगर सस्ते में ही हो जाए, तो
छपवाकर भेजूँगा। यदि महँगा होगा, तो टाइप करवाकर भेजूँगा। तुम्हारे पास जाए,
तो छपवाकर भेजूँगा। यदि महँगा होगा, तो टाइप करवाकर भेजूँगा। तुम्हारे पास भी
एक कापी भेजूँगा, 'इंडियन मिरर' में छपा देना। इस देश की अविवाहित कन्याएँ
बड़ी अच्छी हैं। उनमें आत्म-सम्मान है।...ये विरोचन के वंशज हैं। शरीर ही
इनका धर्म है, उसी को माँजते-धोते हैं, उसी पर सारा ध्यान लगाते हैं। नख
काटने के कम से कम हज़ार औज़ार हैं, बाल काटने के दस हज़ार और कपड़े, पोशाक,
तेल-फुलेल का तो ठिकाना ही नहीं!... ये भले आदमी,, दयालु और सत्यवादी हैं। सब
अच्छा है, परंतु 'भोग' ही उनके भगवान हैं, जहाँ धन की नदी, रूप की तरंग,
विद्या की वीचि, और विलास का जमघट है।
कांक्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता:।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।
--'कर्म की सिद्धि की आकांक्षा करके इस लोक में देवताओं का यजन किया जाता है।
कर्मजनित सिद्धि मनुष्य लोक में बहुत जल्दी मिलती है।'1
यहाँ अद्भुत चरित्र, बल और शक्ति का विकास है-कितना बल, कैसी कार्यकुशलता,
कैसी ओजस्विता! हाथी जैसे घोड़े बड़े बड़े मकान जैसी गाडि़याँ खींच रहे हैं।
इस विशालकाय पैमाने को तुम दूसरी चीज़ों में भी नमूने के तौर पर ले सकते हो।
यहाँ महाशक्ति का विकास है-ये सब वाममार्गी हैं। उसी की सिद्धि यहाँ हुई, और
क्या है? खैर-इस देश की नारियों को देखकर मेरे तो होश उड़ गए हैं। मुझे
बच्चे की तरह घर-बाहर, दुकान-बाज़ार में लिए फिरती हैं। सब काम करती हैं। मैं
उसका चौथाई का चौथाई हिस्सा भी नहीं कर सकता! ये रूप में लक्ष्मी और गुण में
सरस्वती हैं-ये साक्षात् जगदंबा हैं, इनकी पूजा करने से सर्वसिद्धि मिल सकती
है। अरे, राम भजो, हम भी भले आदमी हैं? इस तरह की माँ जगदंबा अगर अपने देश में
एक हज़ार तैयार करके मर सकूँ, तो निश्चिंत होकर मर सकूँगा। तभी तुम्हारे देश
के आदमी आदमी कहलाने लायक हो सकेंगे। तुम्हारे देश के पुरुष इस देश के
नारियों के पास भी आने योग्य नहीं हैं -तुम्हारे देश की नारियों की बात तो
अलग रही! हरे हरे, कितने महापापी हैं! दस साल की कन्या का विवाह कर देते हैं!
हे प्रभु! हे प्रभु! किमधिकमिति।
मैं इस देश की महिलाओं को दखकर आश्चर्यचकित हो जाता हूँ। माँ जगदंबा की यह
कैसी कृपा है! ये क्या महिलाएँ हैं? बाप रे! मर्दो को एक कोने में ठूँस देना
चाहती हैं। मर्द ग़ोते खा रहे हैं। माँ, तेरी ही कृपा है। गोलाप माँ जैसा कर
रही हैं, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। गोलाप माँ या गौरी माँ उनको मंत्र
क्यों नहीं दे रही हैं? स्त्री-पुरुष-भेद की जड़ नहीं रखूँगा। अरे, आत्मा
में भी कहीं लिंग का भेद है? स्त्री और पुरुष का भाव दूर करो, सब आत्मा है।
शरीराभिमान छोड़कर खड़े हो जाओ। अस्ति अस्ति कहो, नास्ति नास्ति करके तो देश
गया! सोऽहम्, सोऽहम्, शिवोऽहम्। कैसा उत्पात! हरेक आत्मा में अनंत शक्ति है।
अरे अभागे, नहीं नहीं करके क्या तुम कुत्ता-बिल्ली हो जाओगे? कोन नहीं है?
क्या नहीं है? शिवोऽहम् शिवोऽहम्। नहीं नहीं सुनने पर मेरे सिर पर वज्रपात
होता है। राम! राम! बकते बकते मेरी जान चली गई। यह जो दीन-हीन भाव है, वह एक
बीमारी है-क्या यह दीनता है?-यह गुप्त अहंकार है। न लिंग धर्मकारणं, समता
सर्वभूतेषु एतन्मुक्तस्य लक्षणम्। अस्ति, अस्ति, अस्ति; सोऽहम् सोऽहम्;
चिदानंदरूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्। निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी।1
बुज़दिली करोगे, तो हमेशा पिसते रहोगे। नायमात्मा बलहीनेन लभ्य:। शशि! बुरा
मत मानना, कभी-कभी मैं नर्वस हो जाता हूँ। तब दो-चार शब्द कह देता हूँ। तुम
तो मुझे जानते ही हो। तुम कट्टर नहीं हो, इसकी मुझे खुशी है। बर्फ़ की चट्टान
(avalanche) की तरह दुनिया पर टूट पड़ो-दुनिया चट चट करके फट जाए-हर हर
महादेव! उद्धरेदात्मनात्मानम् (अपने ही सहारे अपना उद्धार करना पडे़गा)।
रामदयाल बाबू ने मुझे एक पत्र लिखा है, और तुलसीराम बाबू का एक पत्र मिला।
राजनीति में भाग मत लेना। तुलसीराम बाबू राजनीति विषयक पत्र न लिखें। जनता के
आदमी को अनावश्यक रूप से शत्रु नहीं बनना चाहिए। इस तरह का दिन क्या कभी
आएगा कि परोपकार के लिए जान जाएगी। दुनिया बच्चों का खिलवाड़ नहीं है और बड़े
आदमी वे हैं, जो अपने ह्दय के रक्त से दूसरों का रास्ता तैयार करते हैं-अनंत
काल से यही होता आया है-एक आदमी अपना शरीर पात करके एक सेतु का निर्माण करता
है, और हज़ारों आदमी उसके ऊपर से नदी पार करते हैं। एवमस्तु एवमस्तु,
शिवोऽहम् शिवोऽहम्। रामदयाल बाबू के कथनानुसार सौ फोटोग्राफ भेज दूँगा। वे
बेचना चाहते हैं। रुपया मुझे भेजने की आवश्यकता नहीं। उसे मठ को देने को कहो।
यहाँ मेरे पास प्रचुर धन है, कोई कमी नहीं!... वह यूरोप-यात्रा तथा
पुस्तक-प्रकाशन के लिए हैं। यह पत्र प्रकाशित न करना।
आशीर्वादक
नरेन्द्र
पुनश्च-
मुझे मालूम होता है कि अब काम ठीक चलेगा। सफलता से ही सफलता मिलती है। शशि!
दूसरों में जागृति उत्पन्न करो, यही तुम्हारा काम है। क॰ विषय-बुद्धि में
बड़ा पक्का है। काली को प्रबंधक बनाओ। माता जी
[3]
के लिए एक निवास-स्थान का प्रबंध कर सकने पर मैं बहुत कुछ निश्चित हो जाऊंगा।
समझे? दो-तीन हज़ार रुपये तक खरीदने लायक़ कोई ज़मीन देखो। ज़मीन थोड़ी बड़ी
होनी चाहिए पहले कम से कम मिट्टी का मकान तैयार करो, बाद में वहाँ एक भवन
निर्मित हो जाएगा। शीघ्र ही ज़मीन ढूँढ़ो। मुझे पत्र लिखना। कालीकृष्ण बाबू
से पूछना कि मैं किस तरह रक़म भेजूँ-कुक कंपनी के द्वारा, किस तरह? यथाशीघ्र
काम करो। यह होने पर मैं बहुत कुछ निश्चिंत हो जाऊँगा। ज़मीन बड़ी होनी चाहिए,
बाकी सब बाद में देखा जाएगा। कलकत्ते के जितने समीप होगी, उतना ही अच्छा। एक
बार निवास-स्थान ठीक हो जाने पर माता जी को केंद्र बनाकर गौरी माँ, गोलाप माँ
के भी कार्य की धूम मचा देनी होगी। यह खुशी की बात है कि मद्रास में खूब तहलका
मचा हुआ है।
सुना था, तुम लोग एक मासिक पत्रिका निकालनी चाहते हो, उसकी क्या खबर है? सबके
साथ मिलना होगा, किसीके पीछे पड़ने से काम नहीं होगा। All the powers of good
against all the powers of evil. (अशुभ शक्तियों के विरुद्ध शुभ शक्तियों का
प्रयोग करना होगा) -असल बात यही है। विजय बाबू का यथासंभव आदर-यत्न करना। Do
not insist upon everbody's believing in your Guru. हमारे गुरु पर ज़बरदस्ती
विश्वास करने के लिए लोगों से मत कहना। गोलाप माँ को मैं अलग से एक चिट्ठी
लिख रहा हूँ, उसे पहुँचा देना। अभी इतना समझ लो-शशि को घर छोड़कर बाहर नहीं
जान है। काली को प्रबंध-कार्य देखना है और पत्र-व्यवहार करना है। शारदा, शरत्
या काली, इनमें से एक न एक मठ में ज़रूर रहे। जो बाहर जाएं, उन्हें चाहिए कि
मठ से सहानुभूति रखने वालों का मठ से संपर्क स्थापित करा दें। काली, तुम
लोगों को एक मासिक पत्रिका का संपादन करना होगा। उसमें आधी बांग्ला रहेगी, आधी
हिंदी और हो सके तो, एक अंग्रेज़ी में भी। ग्राहकों को इकट्ठा करने में कितना
दिन लगता है? जो मठ से बाहर हैं, उन्हें पत्रिका का ग्राहक बनाने के लिए
प्रयत्न करना चाहिए। गुप्त से हिंदी भाग सँभालने को कहो, नहीं तो हिंदी में
लिखनेवाले बहुत लोग मिल जाएंगे। केवल घूमते रहने से क्या होगा? जहाँ भी जाओ,
वहीं तुम्हें एक स्थायी प्रचार-केंद्र खोलना होगा। तभी व्यक्तियों में
परिवर्तन आएगा। मैं एक पुस्तक लिख रहा हूँ। इसके समाप्त होते ही बस, एक ही
दौड़ में घर आ जाऊँगा। अब मैं बहुत नर्वस हो गया हूँ। कुछ दिन शांति से बैठने
की ज़रूरत है। मद्रासवालों से हमेशा पत्र व्यवहार करते रहना। जगह जगह
संस्कृत पाठशालाएँ खोलने का प्रयत्न करना। शेष भगवान के ऊपर है। सदा याद रखो
कि श्री रामकृष्ण संसार के कल्याण के लिए आए थे-नाम या यश के लिए नहीं। वे
जो कुछ सिखाने आए थे, केवल उसी का प्रसार करो। उनके नाम की चिंता न करो-वह
अपने आप ही होगा। 'हमारे गुरुदेव को मानना ही पड़ेगा,' इस पर ज़ोर देते ही
दलबंदी पैदा होगी और सब सत्यानाश हो जाएगा, इसलिए सावधान! सभी से मधुर भाषण
करना, गुस्सा करने से ही सब काम बिगड़ता है। जिसका जो जी चाहे, कहे, अपने
विश्वास में दृढ़ रहो-दुनिया तुम्हारे पैरों तले आ जाएगी, चिंता मत करो। लोग
कहते हैं-"इस पर विश्वास करो, उस पर विश्वास", मैं कहता हूँ- "पहले अपने आप
पर विश्वास करो।" यही सही रास्ता है। (Have faith in yourself, all power is
in you-be conscious and bring it out. (अपने पर विश्वास करो-सब शक्ति तुममें
है-इसे जान लो और उसे विकसित करो।) कहो, "हम सब कुछ कर सकते हैं।" 'नहीं नहीं
कहने से साँप का विष भी नहीं हो जाता है।' खबरदार, No 'नहीं नहीं,' कहो, 'हाँ
हाँ,' सोऽहम् सोऽहम्।'
किन्नम रोदिषि सखे त्वयि सर्वशक्ति:
आमन्त्रयस्व भगवन् भगदं स्वरूपम्।
त्रैलोक्यमेतदखिलं तव पादमूले
आत्मैव हि प्रभवते न जड: कदाचित्।।
प्रतिहत शक्ति के साथ कार्य का आरंभ कर दो। भय क्या है? किसकी शक्ति है, जो
बाधा डाले? कुर्मस्तारकचर्वणम् त्रिभुवनमुत्पाटयामो बलात्। किं भो न
विजानास्यस्मान्-रामकृष्णदासा वयम्।
[4]
भय? किसका भय? किन्हें भय?
क्षीणा स्म दीना:सकरूणा जल्पन्ति मूढ़ा जना:
नास्तिक्यन्त्विदन्तु अहह देहात्मवादातुरा:।
प्राप्ता: स्म वीरा गतभया अभयं प्रतिष्ठां यदा
आस्तिक्यन्त्विदन्तु चिनुम: रामकृष्णदासा वयम।।
पीत्वा पीत्वा परमपीयूषं वीतसंसाररागा:
हित्वा हित्वा सकलकलहप्रापिर्णी स्वार्थसिद्धिम्।
ध्यात्वा ध्यात्वा श्रीगुरुचरणं सर्वकल्याणरूपं
नत्वा नत्वा सकलभुवनं पातुमामन्त्रयाम:।।
प्राप्तं यद्वै त्वनादिनिधनं वेदादधिं मथित्वा
दत्तं यस्य प्रकरणे हरिहरब्रह्मादिदेवैर्बलम्।
पूर्ण यत्तु प्राणसारैभौमनारायणानां
रामकृष्णस्तनु धत्ते तत्पुर्णपात्रमिदं भो:।।
[5]
अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे युवकों के साथ हमें कार्य करना होगा। त्यागेनैकेन
अमृत-त्वमानशु:--'एकमात्र त्याग के द्वारा अमृतत्व की प्राप्ति होती है।'
त्योग, त्याग-इसीका अच्छी तरह प्रचार करना होगा। त्यागी हुए बिना
तेजस्विता नहीं आने की। कार्य आरंभ कर दो। यदि तुम एक बार दृढ़ता से कार्यारंभ
कर दो, तो मैं कुछ विश्राम ले सकूँगा। आज मद्रास से अनेक समाचार प्राप्त हुए
हैं। मद्रास वाले तहलका मचा रहे हैं। मद्रास में हुई सभा का समाचार 'इंडियन
मिरर' में छपवा दो।
बाबूराम और योगेन इतना कष्ट क्यों भोग रहे हैं? शायद दीन-हीन भाव की ज्वाला
से। बीमारी-फीमारी सब झाड़ फेंकने को कहो-घंटे भर के भीतर सब बीमारी हट जाएगी।
आत्मा को भी कभी बीमारी जकड़ती है? कहो कि घंटा भर बैठकर सोचे, मैं आत्मा
हूँ-फिर मुझे कैसा रोग? सब दूर हो जाएगा। तुम सब सोचो, हम अनंत बलशाली आत्मा
हैं, फिर देखो, कैसा बल मिलता है। कैसा दीन भाव? मैं ब्रह्ममयी का पुत्र हूँ।
कैसा रोग, कैसा भय, कैसा अभाव? दीन-हीन भाव फूँक मारकर विदा कर दो। सब अच्छा
हो जाएगा। No negative, all positive, affirmative. I am, God is and
everything is in me I will manifest health, purity, knowledge, whatever I
want. ('नास्ति' का भाव न रहे, सबमें 'अस्ति' का भाव चाहिए। कहो, मैा हूँ,
ईश्वर है, और सब कुछ मुझमें है। मेरे लिए जो कुछ चाहिए-स्वास्थ्य,
पवित्रता, ज्ञान-सब मैं अवश्य अपने भीतर से अभिव्यक्त करूँगा।) अरे, ये
विदेशी मेरी बातें समझने लगे और तुम लोग बैठे बैठे दीनता-हीनता की बीमारी में
कराहते हो? किसकी बीमारी?-कैसी बीमारी? झाड़ फेंको। दीनता-हीनता की ऐसी-तैसी!
हमें यह नहीं चाहिए। वीर्यमसि वीर्यं, बलमसि बलम्, ओजोऽसि ओजो, सहोऽसि सहो मयि
धेहि। 'तुम वीर्यस्वरूप हो, मुझे वीर्य दो; तुम बलस्वरूप हो, मुझे बल दो;
तुम ओज:स्वरूप हो, मुझे ओज दो; तुम सहिष्णुतास्वरूप हो, मुझे सहिष्णुता
दो।' प्रतिदिन पूजा के समय यह जो आसन-प्रतिष्ठा है-आत्मानं अच्छिद्रं
भावयेत्-'आत्मा को अच्छिद्र सोचना चाहिए'-इसका क्या अर्थ है?... कहो-हमारे
भीतर सब कुछ है-इच्छा होने ही से प्रकाशित होगा। तुम अपने मन ही मन
कहो-बाबूराम, योगेन आत्मा हैं-वे पूर्ण हैं, उन्हें फिर रोग कैसा? घंटे भर
के लिए दो-चार दिन तक कहो तो सही, सब रोग-शोक छूट जाएंगे। किमधिकमिति।
साशीर्वाद,
नरेन्द्र
(कुमारी ईसाबेल मैक्किंडली को लिखित)
बोस्टन,
२६ सितंबर, १८९४
प्रिय बहन,
तुम्हारा पत्र भारत की डाक के साथ अभी-अभी मिला।
भारत से समाचारपत्रों की कतरनों का एक पोथा मेरे पास भेजा गया है। मैं इन्हें
तुम्हारे पास--अवलोकन तथा संरक्षण के हेतु भेज रहा हूँ।
मैं पिछले कई दिनों से भारत के लिए पत्र लिखने में व्यस्त हूँ, कुछ दिन और
बोस्टन में रहूँगा।
प्यार तथा आशीर्वाद के साथ--
तुम्हारा चिर स्नेहाबद्ध,
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
होटल बेल्लेवुये, यूरोपियन प्लान,
बेकन स्ट्रीट,
बोस्टर,
२६ सितंबर, १८९४
प्रिय श्रीमती बुल,
मुझें आपके दोनों कृपापत्र मिले। शनिवार के दिन मेलरोज़ वापस जाकर सोमवार तक
मुझे वहाँ रहना पडे़गा। मंगलवार को मैं आपके यहाँ आऊँगा। किंतु ठीक किस स्थल
पर आपका मकान है, यह मुझे याद नहीं रहा, यदि आप मुझे इसका विवरण लिखने का
कष्ट करें, तो बहुत ही अनुग्रह होगा। मेरे प्रति आपका जो अनुग्रह है, उसके
लिए कृतज्ञता ज्ञापित करने की भाषा मेरे पास नहीं है; क्योंकि आप जो सहायता
प्रदान करना चाहती हैं, मैं ठीक उसी की खोज में था, अर्थात लिखने के लिए कोई
शांत स्थाऩ आप जितना स्थान कृपापूर्वक मुझे देना चाहती हैं, उससे कम स्थान
में ही मेरा काम चल जाएगा। कहीं भी में अपने हाथ-पैरों को समेटकर आराम से रह
सकूँगा।
आपका चिर विश्वस्त,
विवेकानंद
(श्री आलासिंगा पेयमल को लिखित)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
२७ सितंबर,१८९४
प्रिय आलासिंगा,
मेरे व्याख्यानों और उपदेशों की पुस्तकें, जो कलकत्ते में छप रही हैं,
उनमें मैं एक बात पाता हूँ। इनमें से कुछ इस तरह छापी जा रही हैं, जिसमें से
राजनीति विचारों की गंध आती मालूम देती है। परंतु मैं न राजनीतिज्ञ हूँ, न
राजनीतिक आंदोलन खड़ा करनेवालों में से हूँ। मैं केवल आत्मत्त्व की चिंता
करता हूँ--जब वह ठीक होगा, तो सब काम अपने आप ठीक हो जाएंगे।... इसलिए
कलकत्ता निवासियों को तुम सावधान कर दो कि मेरे लेखों या उपदेशों पर राजनीतिक
अर्थ का मिथ्या आरोप न करें। क्या बकवास है!...मैंने सुना है कि रेवरेंड
कालीचरण बनर्जी ने ईसाई धर्मोपदेशकों के सामने व्याख्यान देते हुए कहा कि
मैं राजनीतिक प्रतिनिधि हूँ। यदि यह बात खुल्लमखुल्ला कही गई हो, तो उसी
प्रकार उन बाबू को मेरी ओर से कहो कि या तो वे कलकत्ते के किसी भी समाचारपत्र
में लिखकर इसे प्रमाण द्वारा सिद्ध करें, नहीं तो, अपने मूर्खतापूर्ण कथन को
वापस ले लें। यही उनकी चाल है! साधारणत: मैंने ईसाई शासन के विरुद्ध सहज रूप
से कुछ कठोर और खरे वचन अवश्य कहे थे, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि मैं
राजनीति की परवाह करता हूँ, या मेरा उससे कोई संबंध है या ऐसी और कोई बात है।
मेरे व्याख्यानों के उन अंशो को छापना जो बड़ाई का काम समझते हैं, और उससे
यह सिद्ध करना चाहते हैं कि मैं राजनीतिक उपदेशक हूँ, उनके लिए मेरा यही कहना
है कि, 'ऐसे मित्रों से भगवान बचाये!'...
मेरे मित्रों से कहना कि सतत मौन ही मेरी निंदा करने वालों के प्रति मेरा
उत्तर है। यदि मैं उनसे बदला लूँ, तब मैं उन्हीं के दर्जे पर उतर आऊँगा। उनसे
कहना कि सत्य अपनी रक्षा स्वयं करता है, और उन्हें मेरे लिए किसी से झगड़ा
करने की आवश्यकता नहीं। अभी उन्हें बहुत कुछ सीखना है और वे अभी बच्चे हैं।
वे अभी तक मूर्खवत् सुनहले स्वप्न देख रहे हैं--निरे बच्चे ही तो!
...यह लोक-जीवन की बकवास और समाचारपत्रों में होनेवाली शोहरत--इनसे मुझे
विरक्ति हो गई है। मैं हिमालय के एकांत में वापस जाने के लिए लालायित हूँ।
प्रेमपूर्वक सदैव तुम्हारा,
विवेकानंद
(श्री आलासिंगा पेरूमल को लिखित)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
२९ सितंबर, १८९४
प्रिय आलासिंगा,
तुमने जो समाचारपत्र भेजे थे, वे ठीक समय पर पहुँच गए और इस बीच तुमने भी
अमेरिका के समाचारपत्रों में प्रकाशित समाचारों का कुछ कुछ हाल पाया होगा। अब
सब ठीक हो गया है। कलकत्ते से हमेशा पत्र-व्यवहार करते रहना। मेरे बच्चे,
अब तक तुमने साहस दिखाकर अपने को गौरवान्वित किया है। जी. जी. ने भी बहुत ही
अदभुत और सुंदर काम किया है। मेरे साहसी नि:स्वार्थी बच्चों, तुम सभी ने
बड़े सुंदर काम किए। तुम्हारी याद करते हुए मुझे बड़े गौरव का अनुभव हो रहा
है। भारतवर्ष तुम्हारे लिए गौरवान्वित हो रहा है। मासिक पत्रिका निकालने का
तुम्हारा जो संकल्प था, उसे न छोड़ना। खेतड़ी के राजा तथा लिमड़ी काठियावाड़
के ठाकुर साहब को मेरे कार्य के बारे में सदा समाचार देते रहने का बंदोबस्त
करना। मैं मद्रास अभिनंदन का संक्षिप्त उत्तर लिख रहा हूँ। यदि सस्ता हो, तो
यहीं से छपवाकर भेज दूँगा, नहीं तो टाइप करवाकर भेजूगाँ। भरोसा रखो, निराश मत
हो। इस सुंदर ढंग से काम होने पर भी यदि तुम निराश हो, तो तुम महामूर्ख हो।
हमारे कार्य का प्रारंभ जैसा सुंदर हुआ, वैसा और किसी काम का होता दिखायी नहीं
देता। हमारा कार्य जितना शीघ्र भारत में और भारत के बाहर विस्तृत हो गया है,
वैसा भारत के और किसी आंदोलन को नसीब नहीं हुआ।
भारत के बाहर कोई सुनियंत्रित कार्य चलाना या सभा-समिति बताना मैं नहीं चाहता।
वैसा करने की कुछ उपयोगिता मुझे दिखायी नहीं देती। भारत ही हमारा कार्यक्षेत्र
है, और विदेशों में हमारे कार्य का महत्व केवल इतना है कि इससे भारत जागृत हो
जाए, बस। अमेरिकावाली घटनाओं ने हमें भारत में काम करने का अधिकार और सुयोग
दिया है। हमें अपने विस्तार के लिए एक दृढ़ आधार की आवश्यकता है। मद्रास और
कलकत्ता अब ये दो केंद्र बने है। बहुत जल्दी भारत में और भी सैकड़ों केंद्र
बनेंगे।
यदि हो सके, तो समाचारपत्र और मासिक पत्रिका, दोनों ही निकालो। मेरे जो भाई
चारों तरफ़ घूम-फिर रहे हैं, वे ग्राहक बनायेंगे--मैं भी बहुत ग्राहक बनाऊगाँ
और बीच-बीच में कुछ रुपया भेजूँगा। पल भर के लिए भी विचलित न होना, सब कुछ ठीक
हो जाएगा। इच्छा-शक्ति ही जगत् को चलाती है।
मेरे बच्चे, हमारे युवक ईसाई बन रहे हैं, इसलिए खेद न करना। यह हमारे ही दोष
से हो रहा है। (अभी ढेरों अख़बार और 'श्री रामकृष्ण की जीवनी'आयी है--उन्हें
पढ़कर मैं फिर क़लम उठा रहा हूँ।) हमारे समाज में, विशेषकर मद्रास में आजकल
जिस प्रकार के सामाजिक बंधन हैं, उन्हें देखते हुए बेचारे बिना ईसाई हुए और
कर ही क्या सकते हैं? विकास के लिए पहले स्वाधीनता चाहिए। तुम्हारे
पूर्वजों ने आत्मा को स्वाधीनता दी थी, इसीलिए धर्म की उत्तरोत्तर वृद्धि
और विकास हुआ; पर देह को उन्होंने सैकड़ों बंधनों के फेर में डाल दिया, बस,
इसी से समाज का विकास रूक गया। पाश्चात्य देशों का हाल ठीक इसके विपरीत है।
समाज में बहुत स्वाधीनता है, धर्म में कुछ नहीं। इसके फलस्वरूप वहाँ धर्म
बड़ा ही अधूरा रह गया, परंतु समाज ने भारी उन्नति कर ली है। अब प्राच्य समाज
के पैरों से जंजीरें धीरे-धीरे खुल रही हैं, उधर पाश्चात्य धर्म के लिए भी
वैसा ही हो रहा है।
प्राच्य और पाश्चात्य के आदर्श अलग-अलग हैं। भारतवर्ष धर्मप्रवण या
अंतर्मुख है, पाश्चात्य वैज्ञानिक या बहिर्मुख। पाश्चात्य देश ज़रा सी भी
धार्मिक उन्नति सामाजिक उन्नति के माध्यम से ही करना चाहते हैं, परंतु
प्राच्य देश थोड़ी सी भी सामाजिक शक्ति का लाभ धर्म ही के द्वारा करना चाहते
हैं। इसीलिए आधुनिक सुधारकों को पहले भारत के धर्म का नाश किए बिना सुधार का
और कोई दूसरा उपाय ही नहीं सूझता। उन्होंने इस दिशा में प्रयत्न भी किया है,
पर असफल हो गए। इसका क्या कारण है? कारण यह कि उनमें से बहुत ही कम लोगों ने
अपने धर्म का अच्छी तरह अध्ययन और मनन किया, और उनमें से एक ने भी उस
प्रशिक्षण का अभ्यास नहीं किया, जो सब धर्मों की जननी को समझने के लिए
आवश्यक होता है! मेरा यही दावा है कि हिंदू समाज की उन्नति के लिए हिंदू
धर्म के विनाश की कोई आवश्यकता नहीं और यह बात नहीं कि समाज की वर्तमान दशा
हिंदू धर्म की प्राचीन रीति-नीतियों और आचार-अनुष्ठानों के समर्थन के कारण
हुई, वरन् ऐसा इसलिए हुआ कि धार्मिक तत्वों का सभी सामाजिक विषयों में अच्छी
तरह उपयोग नहीं हुआ है। मैं कथन का प्रत्येक शब्द अपने प्राचीन शास्त्रों
से प्रमाणित करने को तैयार हूँ। मैं यही शिक्षा दे रहा हूँ और हमें इसी को
कार्यरूप में परिणत करने के लिए जीवन भर चेष्टा करनी होगी। पर इसमें समय
लगेगा--बहुत समय, और इसमें बहुत मनन की आवश्यकता है। धीरज धरो और काम करते
जाओ। उद्धरेदात्मनात्मानम्--'अपने ही द्वारा अपना उद्धार करना पड़ेगा।'
मैं तुम्हारे अभिनंदन का उत्तर देने में लगा हुआ हूँ। इसे छपवाने की कोशिश
करना। यदि वह संभव न हो सका, तो थोड़ा- थोड़ा करके 'इण्डियन मिरर' तथा अन्य
पत्रों में छपवाना।
तुम्हारा,
विवेकानंद
पु.-- वर्तमान हिंदू समाज केवल उन्नत आध्यात्मिक विचारवालों के लिए ही गठित
है, बाक़ी सभी को वह निर्दयता से पीस डालता है। ऐसा क्यों? जो लोग सांसारिक
तुच्छ वस्तुओं का थोड़ा-बहुत भोग करना चाहते हैं, आखिर उनका क्या हाल होगा?
जैसे हमारा धर्म उत्तम, मध्यम और अधम, सभी प्रकार के अधिकारियों को अपने
भीतर ग्रहण कर लेता है, वैसे ही हमारे समाज को भी ऊंच-नीच भाव वाले सभी को ले
लेना चाहिए। इसका उपाय यह है कि पहले हमें अपने धर्म का यथार्थ तत्व समझना
होगा और फिर उसे सामाजिक विषयों में लगाना पड़ेगा। यह बहुत ही धीरे-धीरे का,
पर पक्का काम है, जिसे करते रहना होगा।
(श्रीमती जार्ज डब्ल्यू. हेल को लिखित)
११२५, सेंट पॉल स्ट्रीट,
बाल्टिमोर
अक्टूबर, १८९४
प्रिय माँ,
आप जान गई होंगी कि इन दिनों मैं कहाँ हूँ। भारत से प्रेषित तार, जो 'शिकागो
ट्रिब्यून' में प्रकाशित है, आपने देखा है? क्या उन्होंने कलकत्ते का पता
छापा हे? यहाँ से मैं वाशिंगटन जाऊँगा, वहाँ से फिलाडेलफिया और तब
'न्यूयार्क'; फिलाउेलफिया में मुझे कुमारी मेरी का पता भेज दें, जिसमें मैं
न्यूयार्क जाते थोड़ी देर के लिए मिल सकूँ। आशा है, आपकी चिंता दूर हो गई
होगी।
सस्नेही आपका,
विवेकानंद
(स्वामी रामकृष्णानंद को लिखित)
बाल्टिमोर, अमेरिका,
२२ अक्टूबर, १८९४
प्रेमास्पद,
तुम्हारा पत्र पढ़कर सब समाचार ज्ञात हुआ। लंदन से श्री अक्षयकुमार घोष का भी
एक पत्र आज मिला, उससे भी अनेक बातें मालूम हुई।
तुम्हारे टाउन हॉल में आयोजित सभा का अभिनंदन यहाँ के समाचारपत्रों में छप
गया है। तार भेजने की आवश्यकता नहीं थी। खैर, सब काम अच्छी तरह संपन्न हो
गया। उस अभिनंदन का मुख्य प्रयोजन यहाँ के लिए नहीं, वरन् भारत के लिए है। अब
तो तुम लोगों को अपनी शक्ति का परिचय मिल गया--Strike the iron, while it is
hot.--(लोहा जब गरम हो, तभी घन लगाओ)। पूर्ण शक्ति के साथ कार्यक्षेत्र में
उत्तर आओ। आलस्य के लिए कोई स्थान नहीं। हिंसा तथा अहंकार को हमेशा के लिए
गंगा जी में विसर्जित कर दो एवं पूर्ण शक्ति के साथ कार्य में जुट जाओ। प्रभु
ही तुम्हारा पथ-प्रदर्शन करेंगे। समस्त पृथ्वी महा जलप्लावन से प्लावित
हो जाएगी। But work, work, work, (पर कार्य, कार्य, कार्य) यही तुम्हारा
मूलमंत्र हो। मुझे और कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा है। इस देश में कार्य की कोई
सीमा नहीं है--मैं समूचे देश में अंधाधुंध दौड़ता फिर रहा हूँ। जहाँ भी उनका
तेज का बीज गिरेगा--वही फल उत्पन्न होगा। अद्य वाब्दशतान्ते वा-- 'आज या
आज से सौ साल बाद, सबके साथ सहानुभूति रखकर कार्य करना होगा। मेरठ के
यज्ञेश्वर मुखोपाध्याय ने एक पत्र लिखा है। यदि तुम उनकी कुछ सहायता कर सकते
हो, तो करो। जगत् का हित-साधन करना हमार उद्देश्य है, नाम कमाना नहीं। योगेन
और बाबूराम शायद अभी तक अच्छे हो गए होंगे। शायद निरंजन लंका से वापस आ गया
है। उसने लंका में पाली भाषा क्यों नहीं सीखी एवं बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन
क्यों नहीं किया, यह मैं नहीं समझ पा रहा हूँ। निरर्थक भ्रमण से क्या लाभ?
उत्सव ऐसे मनाना है, जैसा भारत में पहले कभी नहीं हुआ। अभी से उद्योग करो। इस
उत्सव के दरमियान ही लोग मदद देंगे और इस तरह ज़मीन मिल जाएगी। हरमोहन का
स्वभाव बच्चों जैसा है...मैं तुम्हें पहले पत्र लिख चुका हूँ कि माता जी के
लिए ज़मीन का प्रबंध कर मुझे यथाशीघ्र पत्र लिखना। किसी न किसी को तो कारोबारी
होना चाहिए। गोपाल और सान्याल का कितना कर्जा है लिखना। जो लोग ईश्वर के
शरणागत हैं, धर्म, काम तथा मोक्ष उन लोगों के पैरों तले हैं, मा भै: मा
भै:--डरो मत! सब कुछ धीरे-धीरे हो जाएगा। मैं तुम लोगों से यही आशा करता हूँ
कि बड़प्पन, दलबंदी या ईर्ष्या को सदा के लिए त्याग दो। पृथ्वी की तरह सब
कुछ सहन करने की शक्ति अर्जन करो। यदि यह कर सको, तो दुनिया अपने आप तुम्हारे
चरणों में आ गिरेगी।
उत्सव आदि में उदरपूर्ति की व्यवस्था कम करके मस्तिष्क की कुछ खुराक देने
की चेष्टा करना। यदि बीस हज़ार लोग़ों में से प्रत्येक चार चार आना भी दान
करे, तो पाँच हज़ार रूपया उठ जाएगा। श्री रामकृष्ण के जीवन तथा उनकी शिक्षा
और अन्य शास्त्रों से उपदेश देना! सदा हमको पत्र लिखना। समाचारपत्रों की
कटिंग भेजने की आवश्यकता नहीं। किमधिकमिति।
विवेकानंद
(श्री वहेमिया चंद को लिखित)
वाशिंगटन,
२३ अक्टूबर, १८९४
प्रिय वहेमिया चंद लिमडी,
मैं यहाँ कुशल से हूँ। इस समय तक मैं इनके उपदेशकों में से एक हो गया हूँ।
मुझे और मेरी शिक्षा को ये बहुत पसंद करते हैं। संभवत: आगामी जाड़े तक मैं
भारत वापस आऊँ। क्या आप बंबई निवासी श्री गाँधी जी को जानते हैं? वे अभी
शिकागो में ही हैं। मैं देश भर में शिक्षा और उपदेश देता हुआ घूमता फिरता हूँ।
जैसा कि भारत में किया करता था। हज़ारों की संख्या में इन्होंने मेरी बातें
सुनीं और मेरे विचारों को आग्रह के साथ ग्रहण किया। यह बहुत महँगा देश है,
परंतु जहाँ-जहाँ मैं जाता हूँ भगवान मेरे लिए प्रबंध कर रखते हैं।
आपको एवं वहाँ (लिमडी, राजपूताना) के मेरे सभी मित्रों को मेरा प्यार।
भवदीय,
विवेकानंद
(कुमारी ईसाबेल मैक्किंडली को लिखित)
वाशिंगटन,
द्वारा श्रीमती ई, टोटेन,
१७०८, डब्ल्यू. आई. स्ट्रीट,
२६ अक्टूबर १८९४
प्रिय बहन,
लंबी चुप्पी के लिए क्षमा करना; किंतु मैं मदर चर्च को नियमपूर्वक लिखता रहा
हूँ। मुझे विश्वास है, तुम सभी इस मनोहर शरत् ऋृतु का आनंदपूर्वक उपभोग कर
रहे हो। मैं बाल्टिमोर और वाशिंगटन का अपूर्व आनंद ले रहा हूँ। यहाँ से
फिलाडेलफिया जाऊँगा। मेरा ख्याल था, कुमारी मेरी फिलाडेलफिया में हैं, इसीलिए
उनका पता-ठिकाना माँगा था। किंतु, जैसा कि मदर चर्च कहती हैा वह फिलाडेलफिया
के पास किसी दूसरी जगह रहती है। मैं नहीं चाहता कि वह कष्ट उठाकर मुझसे मिलने
आयें।
जिस महिला के यहाँ मैं टिका हुआ हूँ, वह कुमारी ह्रो की भतीजी हैं--नाम है
श्रीमती टोटेन। एक सप्ताह से अधिक दिनों तक मैं उनका अतिथि रहूँगा। तुम मुझे
उनके पते पर पत्र लिख सकती हो। मैं इस जाड़े में--जनवरी या फ़रवरी
तक--इंग्लैड जाना चाहता हूँ। लंदन की एक महिला ने-जिनके यहाँ मेरे एक मित्र
ठहरे हैं--मुझे अपने घर पर ठहरने का निमंत्रण भेज़ा है और उधर भारत से वे हर
रोज़ प्रेरित कर रहे हैं--लौट आइए।
कार्टून में पित्तू कैसा लगा? किसी को मत दिखलाना। यह अच्छा नहीं है कि हम
पित्तू का इस तरह मख़ौल उड़ायें। तुम्हारे कुशल-संवाद सदा जानना चाहता हूँ।
किंतु, अपने पत्रों को ज़रा स्पष्ट और साफ़ लिखने की ओर ध्यान दो! इस
परामर्श से नाराज़ मत होना।
तुम्हारा प्रिय भाई,
विवेकानंद
(श्रीमती ओलि बुल को लिखित)
द्वारा श्रीमती ई. टोटेन,
१७०८, आई. स्ट्रीट,
वाशिंगटन, डी. सी.
२७ अक्टूबर, १८९४
प्रिय श्रीमती बुल,
आपने कृपापूर्वक श्री फ़ेडरिक डगलस के नाम मेरा जो परिचय-पत्र भेजा है, उसके
लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। बाल्टिमोर में एक नीच होटल वाले ने मेरे साथ जो
दुर्व्यवहार किया, उसके लिए आप दु:खित न हों। इसमें ब्रूमन बंधुओं का ही दोष
था, वे मुझे ऐसे नीच होटल में क्यों ले गए? और हर जगह की तरह यहाँ पर भी
अमेरिका की महिलाओं ने ही मुझे विपत्ति से मुक्त किया, और फिर मेरा समय
अच्छी तरह से बीता।
यहाँ पर मैं श्रीमती ई. टोटेन के अतिथि के रूप में रह रहा हूँ। ये यहाँ की एक
प्रभावपूर्ण तथा आध्यात्मिक महिला हैं। इसके अतिरिक्त ये मेरे शिकागो के
मित्र की भतीजी हैं।
अत: मुझे हर प्रकार की सुविधा मिल रही है। मैं यहाँ श्री कालविल तथा कुमारी
यंग से भी मिला हूँ।
शाश्वत प्रेम और कृतज्ञता के साथ,
आपका,
विवेकानंद
(श्री आलासिंगा पेरूमल को लिखित)
वाशिंगटन,
२७ अक्टूबर, १८९४
प्रिय आलसिंगा,
तुम्हें मेरा शुभाशीर्वाद। इस बीच तुम्हें मेरा पत्र मिला होगा। कभी-कभीमैं
तुम लोगोंको चिट्ठी द्वारा डाँटता हूँ, इसके लिए कुछ बुरा न मानना। तुम सभी को
मैं किस हद तक प्यार करता हूँ, यह तुम अच्छी तरह जानते हो।
तुम मेरे कार्य-कलाप के बारे में पूर्ण विवरण जानना चाहते हो कि मैं कहाँ कहाँ
गया था, क्या कर रहा हूँ, साथ ही मेरे भाषण के सारांश भी जानना चाहते हो।
साधारण तौर पर यह समझ लो कि मैं यहाँ वही काम कर रहा हूँ, जो भारतवर्ष में
करता था। सदा ईश्वर पर भरोसा रखना और भविष्य के लिए कोई संकल्प न
करना।...इसके सिवा तुम्हें याद रखना चाहिए कि मुझे इस देश में निरंतर काम
करना पड़ता है और अपने विचारों को पुस्तकाकार लिपिबद्ध करने का मुझे अवकाश
नहीं है--यहाँ तक कि इस लगातार परिश्रम ने मेरे स्नायुओं को कमज़ोर बना दिया
है, और मैं इसका अनुभव भी कर रहा हूँ। तुमने, जी. जी. ने और मद्रास वासी मेरे
सभी मित्रों ने मेरे लिए जो अत्यंत नि:स्वार्थ और वीरोचित कार्य किया है,
उसके लिए अपनी कृतज्ञता मैं किन शब्दों में व्यक्त करूँ? लेकिन वे सब कार्य
मुझे आसमान पर चढ़ा देने के लिए नहीं थे, वरन् तुम लोगों को अपनी कार्यक्षमता
के प्रति सजग करने के लिए थे। संघ बनाने की शक्ति मुझमें नहीं है--मेरी
प्रकृति अध्ययन और ध्यान की तरफ़ ही झुकती है। मैं सोचता हूँ कि मैं बहुत
कुछ कर चुका, अब मैं विश्राम करना चाहता हूँ। और उनको थोड़ी-बहुत शिक्षा देना
चाहता हूँ, जिन्हें मेरे गुरुदेव ने मुझे सौंपा है। अब तो तुम जान ही गए कि
तुम क्या कर सकते हो, क्योंकि' तुम मद्रासवासी युवकों, तुम्हीं ने वास्तव
में सब कुछ किया है; मैं तो केवल चुपचाप खड़ा रहा। मैं एक त्यागी संन्यासी
हूँ और मैं केवल एक ही वस्तु चाहता हूँ। मैं उस भगवान या धर्म पर विश्वास
नहीं करता, जो न विधवाओं के आँसू पोंछ सकता है और न अनाथों के मुँह में एक
टुकड़ा रोटी ही पहुँचा सकता है। किसी धर्म के सिद्धांत कितने ही उदात्त एवं
उसका दर्शन कितना ही सुगठित क्यों न हो, जब तक वह कुछ ग्रंथों और मतों तक ही
परिमित है, मैं उसे नहीं मानता। हमारी आँखें सामने हैं, पीछे नहीं। सामने
बढ़ते रहो और जिसे तुम अपना धर्म कहकर गौरव का अनुभव करते हो, उसे कार्यरूप
में परिणत करो। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करें!
मेरी ओर मत देखो, अपनी ओर देखो। मुझे इस बात की खुशी है कि मैं थोड़ा सा
उत्साह संचार करने का साधन करने का साधन बन सका। इससे लाभ उठाओ, इसी के सहारे
बढ़ चलो। सब कुछ ठीक हो जाएगा। प्रेम कभी निष्फ़ल नहीं होता मेरे बच्चे, कल
हो या परसों या युगों के बाद, पर सत्य की जय अवश्य होगी। प्रेम ही मैदान
जीतेगा। क्या तुम अपने भाई--मनुष्य जाति--को प्यार करते हो? ईश्वर को कहाँ
ढूँढ़ने चले हो--ये सब ग़रीब, दु:खी, दुर्बल मनुष्य क्या ईश्वर नहीं हैं?
इन्हीं की पूजा पहले क्यों नहीं करते? गंगा-तट पर कुआँ खोदने क्यों जाते
हो? प्रेम की असाध्य-साधिनी शक्ति पर विश्वास करो। इस झूठ जगमगाहट वाले
नाम-यश की परवाह कौन करता हे? समाचारपत्रों में क्या छपता है, क्या नहीं,
इसकी मैं कभी खबर ही नहीं लेता। क्या तुम्हारे पास प्रेम है? तब तो तुम
सर्वशक्तिमान हो। क्या तुम संपूर्णत: नि:स्वार्थ हो? यदि हो? तो फिर
तुम्हें कौन रोक सकता है? चरित्र की ही सर्वत्र विजय होती है। भगवान ही
समुद्र के तल में भी अपनी संतानों की रक्षा करते हैं। तुम्हारे देश के लिए
वीरों की आवश्यकता है--वीर बनो। ईश्वर तुम्हारा मंगल करे।
सभी लोग मुझे भारत लौटने को कहते हैं। वे सोचते हैं कि मेरे लौटने पर अधिक काम
हो सकेगा। यह उनकी भूल है, मेरे मित्र। इस समय वहाँ जो उत्साह पैदा हुआ है,
वह किंचित् देश-प्रेम भर ही है--उसका कोई खास मूल्य नहीं। यदि वह सच्चा
उत्साह है, तो बहुत शीघ्र देखोगे कि सैकड़ों वीर सामने आकर उस कार्य को आगे
बढ़ा रहे हैं। अत: जान लो कि वास्तव में तुम्हीं ने सब कुछ किया है, और आगे
बढ़ते चलो। मेरे भरोसे मत रहो।
अक्षय कुमार शा लंदन में हैं। उन्होंने लंदन से कुमारी कूलर के यहाँ आने को
मुझे सादर निमंत्रित किया है। और मुझे आशा है कि आगामी जनवरी अथवा फ़रवरी में
वहाँ जा रहा हूँ। भट्टाचार्य मुझे आने के लिए लिखते हैं।
विस्तृत कार्यक्षेत्र सामने पड़ा है। धार्मिक मत-मंतातरों से मुझे क्या काम?
मैं तो ईश्वर का दास हूँ, और सब प्रकार के उच्च विचारों के विस्तार के लिए
इस देश से अच्छा क्षेत्र मुझे कहाँ मिलेगा? यहाँ तो यदि एक आदमी मेरे विरुद्ध
हो तो सौ आदमी मेरी सहायता करने को तैयार हैं; सबसे अच्छी जगह यही है, जहाँ
मनुष्य से सहानुभूति रखते हैं और जहाँ नारियाँ देवीस्वरूपा हैं। प्रशंसा
मिलने पर तो मूर्ख भी खड़ा हो सकता हे और कायर भी साहसी का सा डौल दिखा सकता
है--पर तभी, जब सब कामों का परिणाम शुभ होना निश्चित हो; परंतु सच्चा वीर
चुपचार काम करता जाता है। एक बुद्ध के प्रकट होने के पूर्व कितने बुद्ध चुपचाप
काम कर गए! मेरे बच्चे, मुझे ईश्वर पर विश्वास है, साथ ही मनुष्य पर भी।
दु:खी लोगों की सहायता करने में मैं विश्वास करता हूँ और दूसरों को बचाने के
लिए, मैं नरक तक जाने को भी तैयार हूँ। अगर पाश्चात्य देशवालों की बात कहो,
तो उन्होंने मुझे भोजन और आश्रय दिया, मुझसे मित्र का सा व्यवहार किया और
मेरी रक्षा की--यहाँ तक कि अत्यंत कट्टर ईसाई लोगों ने भी परंतु हमारी जाति उस
समय क्या करती है, जब इनका कोई पादरी भारत में जाता है? तुम उसको छूते तक
नहीं--वे तो म्लेच्छ हैं! मेरे बेटे, कोई मनुष्य, कोई जाति, दूसरों से घृणा
करते हुए जी नहीं सकती। भारत के भाग्य का निपटारा उसी दिन हो चुका,जब उसने इस
म्लेच्छ शब्द का आविष्कार किया और दूसरों से अपना नाता तोड़ दिया। खबरदार,
जो तुमने इस विचार की पुष्टि की! वेदांत की बातें बघारना तो खूब सरल है, पर
इसके छोटे से छोटे सिद्धांतों को काम में लाना कितना कठिन हैं!
तुम्हारा चिर कल्याणाकांक्षी,
विवेकानंद
पुनश्च--इन दो चीज़ों से बचे रहना--क्षमताप्रियता और ईर्ष्या। सदा
आत्मविश्वास का अभ्यास करना।
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
द्वारा श्रीमती ई. टोटेन,
१७०३, फ़र्स्ट स्ट्रीट
वाशिंगटन,
१ नवंबर १८९४
प्रिय बहन,
मुझे तुम्हारे दोनों पत्र मिले। पत्र लिखने का कष्ट कर तुमने बड़ी कृपा की।
आज मैं यहाँ भाषण दूँगा, कल बाल्टिमोर में और पुन: सोमवार को बाल्टिमोर मे और
मंगलवार को पुन: वाशिंगटन में। उसके कुछ दिन बाद मैं फिलाडेलफिया रहूँगा। जिस
दिन मैं वाशिंगटन से प्रस्थान करूँगा, उस दिन तुम्हें पत्र लिखूँगा।
प्रो.राइट के दर्शन के लिए कुछ दिन फिलाडेलफिया रहूँगा। कुछ दिन तक न्यूयार्क
और बोस्टन के बीच आता-जाता रहूँगा और तब डिट्रॉएट होते हुए शिकागो जाऊँगा, और
तब, जैसा कि सिनेटर पामर कहते हैं, चुपके से इंग्लैंड को।
अंग्रेज़ी में 'धर्म' (dharma) शब्द का अर्थ है 'रिलिजन' (religion)। मुझे
बहुत दु:ख है कि कलकत्ता में पेट्रो के साथ लोगों ने अभद्र व्यवहार किया।
मेरे साथ यहाँ बहुत ही अच्छा व्यवहार हुआ है और बहुत अच्छी तरह अपना काम कर
रहा हूँ। इस बीच कुछ भी असाधारण नहीं, सिवा इसके कि भारत से आए समाचारपत्रों
के भार से तंग आ गया हूँ, और इसलिए एक गाड़ी भर मदर चर्च और श्रीमती गर्नसी को
भेजने के पश्चात् मुझे उन्हें समाचारपत्र भेजने से मना करना पड़ रहा है।
भारत में मेरे नाम पर काफ़ी हो-हल्ला हो चुका है। आलासिंगा ने लिखा है कि देश
भर का प्रत्येक गाँव अब मेरे विषय मे जान चुका है। अच्छा, चिर शांति सदा के
लिए समाप्त हुई और अब कहीं विश्राम नहीं है। भारत के ये समाचारपत्र मेरी जान
ले लेंगे, निश्चय जानता हूँ। अब वे यह बात करेंगे कि किस दिन मैं क्या खाता
हूँ, कैसे छ़ींकता हूँ भगवान उनका कल्याण करे। यह सब मेरी मूर्खता थी। मैं
सचमुच ही यहाँ थोड़ा पैसा जमा करने चुपचाप आया था और लौट जाने, किंतु जाल में
फँस गया और अब वह मौन अथवा शांत जीवन भी नहीं रहा।
तुम्हारे लिए पूर्ण आनंद की कामनाएँ।
सस्नेह तुम्हारा,
विवेकानंद
(श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
शिकागो,
१५ नवंबर, १८९४
प्रिय दीवान जी साहब,
आपका कृपापत्र मुझे मिला। आपने यहाँ भी मुझे याद रखा, यह आपकी दया है। आपके
नारायण हेमचंद्र से मेरी भेंट नहीं हुई है। मैं समझता हूँ कि वे अमेरिका में
नहीं हैं। मैंने कई विचित्र दृष्य और ठाट-बाट की चीजें देखीं। मुझे यह जानकर
खुशी हुई कि आपके यूरोप आने की बहुत कुछ संभावना हे। जिस तरह भी हो सके, उसक
लाभ उठाइए। संसार के दूसरे राष्ट्रों से पृथक रहना हमारी अवनति का कारण हुआ
एवं पुन: सभी राष्ट्रों से मिलकर संसार के प्रवाह में आ जाना ही उसको दूर
करने का एकमात्र उपाय है। गति ही जीवन का लक्षण है। अमेरिका एक शानदार देश है।
निर्धनों एवं नारियों के लिए यह नंदनवनस्वरूप है। इस देश में दरिद्र तो
समझिए, कोई है ही नहीं, और कहीं भी संसार में स्त्रियाँ इतनी स्वतंत्र, इतनी
शिक्षित और इतनी सुसंस्कृत नहीं हैं कि वे समाज में सब कुछ हैं।
यह एक बड़ी शिक्षा है। संन्यास-जीवन का कोई भी धर्म--यहाँ तक कि अपने रहने का
तरीक़ा भी नहीं बदलना पड़ा है। और फिर भी इस अतिथिवत्सल देश में हर घर मेरे
लिए खुला है। जिस प्रभु ने भारत में मुझे मार्ग दिखाया, क्या वह मुझे यहाँ ने
दिखाता? वह तो दिखा ही रहा है!
आप कदाचित् यह न समझ सके होंगे कि अमेरिका में एक संन्यासी के आने का क्या
काम, पर यह आवश्यक था। क्योंकि संसार द्वारा मान्यता प्राप्त करने के लिए
आप लोगों के पास एक ही साधन है--वह है धर्म, और यह आवश्यक है कि हमारे आदर्श
धार्मिक पुरुष विदेशों में भेजे जाएं, जिससे दूसरे राष्ट्रों को मालूम हो कि
भारत अभी भी जीवित है।
प्रतिनिधि रूप से कुछ लोगों को भारत से बाहर सब देशों में जाना चाहिए, कम से
कम यह दिखलाने को कि आप लोग बर्बर या असभ्य नहीं हैं। भारत में अपने घर में
बैठे-बैठे शायद आपको इसकी आवश्यकता न मालूम होती हो, परंतु विश्वास कीजिए कि
आपके राष्ट्र की बहुत सी बातें इस पर निर्भर हैं। और वह संन्यासा, जिसमें
मनुष्यों के कल्याण करने की कोई इच्छा नहीं, वह संन्यासी नहीं, वह तो पशु
है!
न तो मैं केवल दृश्य देखने वाला यात्री हूँ, न निरूद्योगी पर्यटक। यदि आप
जीवित रहेंगे, तो मेरा कार्य देख पायेंगे और आजीवन मुझे आशीर्वाद देंगे।
श्री द्विवेदी के लेख धर्म-महासभा के लिए बहुत बड़े थे और उनमें काँट-छाँट
करनी पड़ी।
मैं धर्म-महासभा में बोला था, और उसका क्या परिणाम हुआ, यह मैं कुछ
समाचारपत्र और पत्रिकाएँ जो मेरे पास हैं, उनसे उद्धृत करके लिखता हूँ। मैं
डींग नहीं हाँकना चाहता, परंतु आपके प्रेम के कारण, आप में विश्वास करके मैं
यह अवश्य कहूँगा कि किसी हिंदू ने अमेरिका को ऐसा प्रभावित नहीं किया किया और
मेरे आने से यदि कुछ भी न हुआ, तो इतना अवश्य हुआ कि अमेरिकनों को यह मालूम
हो गया कि भारत में आज भी ऐसे मनुष्य उत्पन्न हो रहे हैं, जिनके चरणों में
सभ्य से सभ्य राष्ट्र भी नीति और धर्म का पाठ पढ़ सकते हैं। क्या आप नहीं
समझते कि हिंदू राष्ट्र को अपने संन्यासी यहाँ भेजने के लिए यह पर्याप्त
कारण है? पूर्ण विवरण आपको वीरचंद गाँधी से मिलेगा।
कुछ पत्रिकाओं के अंश मैं नीचे उद्-धृत करता हूँ:
'अधिकांश संक्षिप्त भाषण वाक्पटुत्वपूर्ण होते हुए भी किसी ने भी
धर्म-महासभा' के तात्पर्य एवं उसकी सीमाओं का इतने अच्छे ढंग से वर्णन नहीं
किया, जैसा कि उस हिंदू संन्यासी ने। मैं उनका भाषण पूरा पूरा उद्धृत करता
हूँ, परंतु श्रोताओं पर उसका क्या प्रभाव पड़ा, इसके बारे में मैं केवल इतना
ही कह सकता हूँ कि वे देवी अधिकार से संपन्न वक्ता हैं और उनका शक्तिमान
तेजस्वी मुख तथा उनके पीले गेरूए वस्त्र, उनके गंभीर तथा लयात्मक वाक्यों
से कुछ कम आकर्षण न थे।' यहाँ भाषण विस्तारपूर्वक उद्धृत किया गया है) --न्यूयार्क क्रिटिक
'उन्होंने गिरजे और क्लबों में इतनी बार उपदेश दिया है कि उनके धर्म से अब
हम भी परिचित हो गए हैं।...उनकी संस्कृति, उनकी वाक् पटुता, उनके आकर्षण एवं
अद्र भुत व्यक्तित्व ने हमें हिंदू सभ्यता का एक नया आलोक दिया है।... उनके
सुंदर तेजस्वी मुखमंडल तथा उनकी गंभीर सुललित वाणी ने सबको अनायास अपने वश
में कर लिया है।...बिना किसी प्रकार के नोट्स की सहायता के ही वे भाषण देते
हैं, अपने तथ्य तथा निष्कर्ष को वे अपूर्व ढंग से एवं आंतरिकता के साथ
सम्मुख रखते हैं और उनकी स्वत:स्फूर्त प्रेरणा उनके भाषण को कई बार अपूर्व
वाक्पटुता से युक्त कर देती है।'-वही।
'विवेकानंद निश्चय ही धर्म-महासभा में मानतम व्यक्ति हैं। उनका भाषण सुनने
के बाद यह मालूम होता है कि इस विज्ञ राष्ट्र को धर्मोपदेशक भेजना कितनी
मूर्खता है।'-हेरल्ड (यहाँ का सबसे बड़ा समाचारपत्र)
इतना उद्धृत करके अब मैं समाप्त करता हूँ, नहीं तो आप मुझे घमंडी समझ
बैठेंगे। परंतु आपके लिए इतना आवश्यक था, क्योंकि आप प्राय: कूपमंडूक बने
बैठे हैं और दूसरे स्थानों में संसार किस गति से चल रहा है, यह देखना भी नहीं
चाहते। मेरे उदार मित्र! मेरा मतलब आपसे व्यक्तिश: नहीं है, सामान्य रूप से
हमारे संपूर्ण राष्ट्र से है।
मैं यहाँ वही हूँ, जैसा भारत में था। केवल यहाँ इस उन्नत सभ्य देश में
गुणग्राहकता है, सहानुभूति है, जो हमारे अशिक्षित मूर्ख स्वप्न में भी नहीं
सोच सकते। वहाँ हमारे स्वजन हम साधुओं को राटी का टुकड़ा भी काँख-काँख कर
देते हैं, यहाँ एक व्याख्यान के लिए ये लोग एक हज़ार रुपया देने को और उस
शिक्षा के लिए सदा कृतज्ञ रहने को तैयार रहते हैं।
वे विदेशी लोग मेरा इतना आदर करते हैं, जितना कि भारत में आज तक कभी नहीं हुआ।
यदि मैं चाहूँ, तो अपना सारा जीवन ऐशो-आराम से बीता सकता हूँ, परंतु मैं
संन्यासी हूँ, और हे 'भारत, तुम्हारे अवगुणों के होते हुए भी मैं तुमसे
प्यार करता हूँ।' इसलिए कुछ महीनों के बाद मैं भारत वापस आऊँगा और जो लोग न
कृतज्ञता के अर्थ जानते हैं, न गुणों का आदर ही कर सकते हैं, उन्हीं के बीच
नगर नगर में धर्म का बीज बोता हुआ प्रचार करूँगा, जैसा कि मैं पहले किया करता
था।
जब मैं अपने राष्ट की भिक्षुक मनोवृत्ति, स्वार्थपरता, गुणग्राहकता के अभाव,
मूर्खता तथा अकृतज्ञता की यहाँवालों की सहायता, अतिथि-सत्कार, सहानुभूति और
आदर से जो उन्होंने मुझ जैसे दूसरे धर्म के प्रतिनिधि को भी दिया-तुलना करता
हूँ, तो मैं लज्जित हो जाता हूँ इसलिए अपने देश से बाहर निकलकर दूसरे देश
देखिए एवं अपने साथ उनकी तुलना कीजिए।
अब इन उद्धृत अंशों को पढ़ने के बाद क्या आप समझते हैं कि संन्यासियों को
अमेरिका भेजना उपयुकत नहीं है?
कृपया इसे प्रकाशित न करें। मुझे अपना नाम करवाने से वैसी ही घृणा है, जैसी
भारत में थी।
मैं ईश्वर का कार्य कर रहा हूँ और जहाँ वे मुझे ले जाएंगे, वहाँ मैं जाऊँगा।
मूकं करोति वाचालं-आदि; जिनकी कृपा से गूँगा वाचाल बनता है और पुगु पहाड़
लाँघता है, वे ही मेरी सहायता करेंगे। मानवी सहायता की मैं परवाह नहीं करता;
यदि ईश्वर उचित समझेंगे, तो वे भारत में, अमेरिका में या उत्तरी
ध्रुव-स्थान में भी मेरी सहायता करेंगे। यदि वे सहायता न करें, तो कोई भी
नहीं कर सकता। भगवान की सदा-सर्वदा जय हो।
आपका,
विवेकानंद
(श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित)
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू,
शिकागो,
नवंबर (?), १८९४
प्रिय दीवान जी,
आपका पत्र पाकर मैं आनंदित हुआ। मैं आपका मज़ाक समझता हूँ, परंतु मैं कोई बालक
नहीं हूँ, जो इससे टाल दिया जाऊँ। लीजिए, अब मैं कुछ और लिखता हूँ, उसे भी
ग्रहण कीजिए।
संगठन एवं मेल ही पाश्चात्य देशवासियों की सफलता का रहस्य है। यह तभी संभव
है, जब परस्पर भरोसा, सहयोग और सहायता का भाव हो। उदाहरणार्थ यहाँ जेन
धर्मावलंबी श्री वीरचंद गाँधी हैं, जिन्हें आप बम्बई में अच्छी तरह जानते
थे। ये महाशय इस विकट शीतकाल में भी निरामिष भोजन करते हैं और अपने देशवासियों
एवं अपने धर्म का दृढ़ता से समर्थन करते हैं। यहाँ के लोगों को वे बहुत अच्छे
लगते हैं, परंतु जिन लोगों ने उन्हें भेजा, वे क्या कर रहे हैं? वे उन्हें
जातिच्युत करने की चेष्टा में लगे हैं! दासों में ही स्वभावत: ईर्ष्या
उत्पन्न होती है और फिर वह ईर्ष्या ही उन्हें पतितावस्था की खाई में ले
जाती है।
यहाँ...थे; वे सब चाहते थे कि व्याख्यान देकर कुछ धनोपार्जन करें। कुछ
उन्होंने किया भी, परंतु मैंने उनसे अधिक सफलता प्राप्त की-क्यों? क्योंकि
मैंने उनकी सफलता में कोई बाधा नहीं डाली। यह सब ईश्वर की इच्छा से ही हुआ।
परंतु ये लोग केवल...को छोड़, मेरे पीठ पीछे मेरे बारे में इस देश में भीषण
झूठ रचकर प्रचार कर रहे हैं। अमेरिकावासी ऐसी नीचता की ओर कभी दृष्टिपात न
करेंगे, न वे ऐसी नीचता दिखायेंगे।
यदि कोई मनुष्य यहाँ आगे बढ़ना चाहता है, तो सभी लोग यहाँ उसकी सहायता करने
को प्रस्तुत हैं। किंतु यदि आप भारत में मेरी प्रशंसा में एक भी पंक्ति किसी
समाचारपत्र ('हिंदू') में लिखिए, तो दूसरे ही दिन सब मेरे विरुद्ध हो जाएंगे।
क्यों? यह ग़ुलामों का स्वभाव है। वे अपने किसी भाई को अपने से तनिक भी आगे
बढ़ते हुए देखना नहीं सहन कर सकते...क्या आप ऐसे क्षुद्र लोगों की
स्वतंत्रता, स्वावलंबन और भ्रातृ-प्रेम से उद्बुद्ध इस देश के लोगों के साथ
तुलना करना चाहते हैं? संयुक्त राज्य के स्वतंत्र किए हुए दास-नीग्रो ही
हमारे देशवासियों के सबसे निकट आते हैं। दक्षिण अमेरिका में वे दो करोड़
नीग्रो अब स्वतंत्र हैं; वहाँ गोरे तो बहुत थोडे़ हैं, फिर भी वे उन्हें
दबाकर रखते हैं। जब उन्हें राज-नियम से सब अधिकार मिले हुए हैं, तब क्यों इन
दासों को स्वतंत्र करने के लिए भाई भाई में खून की नदियाँ बहीं? वही ईर्ष्या
का अवगुण ही इसका कारण था। इनमें से एक भी नीग्रो अपने नीग्रो भाई का यश सुनने
को या उसकी उन्नति देखने को तैयार न था। तुरंत ही वे गोरों से मिलकर उसे
कुचलने का प्रयत्न करते हैं। भारत से बाहर आए बिना आप इसे कभी भी समझ न
सकेंगे। यह ठीक है कि जिनके पास बहुत सा धन है और मान है, वे संसार को अपनी
गति से ज्यों का त्यों चलतें रहने दें, परंतु जिनका ऐशो-आराम में लालन-पालन
और शिक्षा लाखों पददलित परिश्रमी ग़रीबों के ह्दय के रक्त से हो रही है और
फिर भी जो उनकी ओर ध्यान नहीं देते, उन्हें मैं विश्वासघातक कहता हूँ।
इतिहास में कहाँ और किस काल में आपके धनवान पुरुषों ने, कुलीन पुरुषों ने,
पुरोहितों ने और राजाओं ने ग़रीबों की ओर ध्यान दिया था-वे ग़रीब, जिन्हें
कोल्हू के बैल की तरह पेलने से ही उनकी शक्ति संचित हुई थी।
परंतु ईश्वर महान है। आगे या पीछे बदला मिलना ही था, और जिन्हेंने ग़रीबों
का रक्त चूसा, जिनकी शिक्षा उनके धन से हुई, जिनकी शक्ति उनकी दरिद्रता पर
बनी, वे अपनी बारी में सैकड़ों और हज़ारों की गिनती में दास बनाकर बेचे गए,
उनकी संपत्ति हज़ार वर्षों तक लुटती रही, और उनकी स्त्रियाँ और कन्याएँ
अपमानित की गयीं। क्या आप समझते हैं कि यह अकारण ही हुआ?
भारत के ग़रीबों में इतने मुसलमान क्यों हैं? यह सब मिथ्या बकवाद है कि
तलवार की धार पर उन्होंने धर्म बदला। ...ज़मींदारों और ...पुरोहितों से अपना
पिंड छुड़ाने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया, और फलत: आप देखेंगे कि बंगाल में
जहाँ ज़मींदार अधिक हैं, वहाँ हिंदुओं से अधिक मुसलमान किसान हैं। लाखों
पददलित और पतितों को ऊपर उठाने की किसे चिंता है? विश्वविद्यालय की उपाधि
लेनेवाले कुछ हज़ार व्यक्तियों से राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता, कुछ
धनवानों से राष्ट्र नहीं बनता। यह सच है कि हमारे पास सुअवसर कम हैं, परंतु
फिर भी तीस करोड़ व्यक्तियों को खिलाने और कपड़ा पहनाने के लिए, उन्हें आराम
से रखने के लिए, बल्कि उन्हें ऐश-आराम से रखने के लिए हमारे पास पर्याप्त
है। हमारे दश में नब्बे प्रतिशत लोग अशिक्षित हैं-किसे इसकी चिंता है? इन
बाबू लोगों को? इन देशभक्त कहलानेवालों को?
इतना होने पर भी मैं आपसे कहता हूँ कि ईश्वर है-यह ध्रुव सत्य है, हँसी की
बात नहीं। वही हमारे जीवन का नियमन कर रहा है, और यद्यपि मैं जानता हूँ कि
जातिसुलभ स्वभाव-दोष के कारण ही ग़ुलाम लोग अपनी भलाई करने वालों को ही काट
खाने दौड़ते हैं, फिर भी आप मेरे साथ प्रार्थना कीजिए-आप, जो उन इने-गिने
लोगों में से हैं, जिन्हें सत्कार्यों से, सदुद्देश्यों से सच्ची
सहानुभूति है, जो सच्चे और उदार स्वभाववाले और ह्दय और बुद्धि से सर्वथा
निष्कपट हैं-आप मेरे साथ प्रार्थना कीजिए-'है कृपामयी ज्योति! चारो ओर के
घिरे हुए अंधकार में पथ-प्रदर्शन करो।'
मुझे चिंता नहीं कि लोग क्या कहते हैं। मैं अपने ईश्वर से, अपने धर्म से,
अपने से, अपने देश से और सर्वोपरि अपने आपसे-एक निर्धन भिक्षुक से प्रेम करता
हूँ। जो दरिद्र हैं, अशिक्षित हैं, दलित हैं, उनसे मैं प्रेम करता हूँ उनके
लिए मेरा ह्दय कितना द्रवित होता है, इसे भगवान ही जानते हैं। वे ही मुझे
रास्ता दिखायेंगे। मानवी सम्मान या छिद्रान्वेषण की मैं रत्ती भर भी परवाह
नहीं करता। मैं उनमें से अधिकांश को नादान, शोर मचानेवाला बालक समझता हूँ।
सहानुभूति एवं नि:स्वार्थ प्रेम का मर्म समझना इनके लिए कठिन है।
मुझे श्री रामकृष्ण के आशीर्वाद से वह अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई है। मैं अपनी
छोटी से मंडली के साथ काम करने का प्रयत्न कर रहा हूँ, वे भी मेरे समान
निर्धन भिक्षुक हैं। आपने इसे देखा है। दैवी कार्य सदैव ग़रीबों एवं दीन
मनुष्यों के द्वारा ही हुए हैं। आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं अपने प्रभु
में, अपने गुरु में और अपने आपमें अखंड विश्वास रख सकूँ। प्रेम और सहानुभूति
ही एकमात्र मार्ग है, प्रेम ही एकमात्र उपासना।
प्रभु आपकी और आपके स्वजनों की सदा सहायता करे।
साशीर्वाद,
विवेकानंद
(राजा प्यारीमोहन मुकर्जी को लिखित)
न्यूयार्क,
१८ नवंबर, १८९४
प्रिय महाशय,
कलकत्ता टाउन हॉल की सभा में हाल ही में जो प्रस्ताव स्वीकृत हुए तथा मेरे
अपने नगरवासियों ने जिन मधुर शब्दों में मुझे याद किया है, उन्हें मैंने
पढ़ा।
महाशय, मेरी तुच्छ सी सेवा के लिए आपने जो आदर प्रकट किया है, उसके लिए आप
मेरा हार्दिक धन्यवाद स्वीकार कीजिए।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि कोई भी मनुष्य या राष्ट्र अपने को दूसरों से अलग
रखकर जी नहीं सकता, और जब कभी भी गौरव, नीति या पवित्रता की भ्रांत धारणा से
ऐसा प्रयत्न किया गया है, उसका परिणाम उस पृथक् होनेवाले पक्ष के लिए सदैव
घातक सिद्ध हुआ।
मेरी समझ में भारतवर्ष के पतन और अवनति का एक प्रधान कारण जाति के चारों ओर
रीति-रिवाजों की एक दीवार खड़ी कर देना था, जिसकी भीति दूसरों की घृणा पर
स्थापित थी, और जिनका यथार्थ उद्देश्य प्राचीन काल में हिंदू जाति को
आसपासवाली बौद्ध जातियों के संसर्ग से अलग रखता था।
प्राचीन या नवीन तर्कजाल इसे चाहे जिस तरह ढाँकने का प्रयत्न करे, पर इसका
अनिवार्य फल-उस नैतिक साधारण नियम के औचित्य के अनुसार कि कोई भी बिना अपने
को अध:पतित किए दूसरों से घृणा नहीं कर सकता-यह हुआ कि जो जाति सभी प्राचीन
जातियों में सर्वश्रेष्ठ थी, उसका नाम पृथ्वी की जातियों में घृणासूचक
साधारण एक शब्द सा हो गया है। हम उस सार्वभौमिक नियम की अवहेलना के परिणाम के
प्रत्यक्ष दृष्टांतस्वरूप हो गए हैं, जिसका हमारे ही पूर्वजों ने पहले-पहल
आविष्कार और विवेचन किया था।
लेन-देन ही संसार का नियम है और यदि भारत फिर से उठना चाहे, तो यह परमावश्यक
है कि वह अपने रत्नों को बाहर लाकर पृथ्वी की जातियों में बिखेर दे, और इसके
बदले में वे जो कुछ दे सकें, उसे सहर्ष ग्रहण करे। विस्तार ही जीवन है और
संकोच मृत्यु; प्रेम ही जीवन है और द्वेष ही मृत्यु। हमने उसी दिन से मरना
शुरू कर दिया, जब से हम अन्य जातियों से घृणा करने लगे, और यह मृत्यु बिना
इसके किसी दूसरे उपाय से रुक नहीं सकती कि हम फिर से विस्तार को अपनायें, जो
कि जीवन का चिन्ह्र है।
अतएव हमें पृथ्वी की सभी जातियों से मिलना पड़ेगा। और प्रत्येक हिंदू जो
विदेश भ्रमण करने जाता है, उन सैकड़ों मनुष्यों से अपने देश को अधिक लाभ
पहुँचाता है, जो केवल अंधविश्वासों एवं स्वार्थपरताओं की गठरी मात्र है, ओर
जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य 'न खुद खाये, न दूसरे को खाने दे' कहावत के
अनुसार न अपना हित करना है, न पराये का। पाश्चात्य राष्ट्रों ने राष्ट्रीय
जीवन के जो आश्चर्यजनक प्रासाद बनाये हैं, वे चरित्ररूपी सुदृढ़ स्तंभों पर
खड़े हैं, और जब तक हम अधिक से अधिक संख्या में वैसे चरित्र न गढ़ सकें, तब
तक हमारे लिए किसी शक्तिविशेष के विरुद्ध अपना असंतोष प्रकट करते रहना निरर्थक
है।
क्या वे लोग स्वाधीनता पाने योग्य हैं, जो दूसरों को स्वाधीनता देने के
लिए प्रस्तुत नहीं? व्यर्थ का असंतोष जताते हुए शक्तिक्षय करने के बदले हम
चुपचाप वीरता के साथ काम करते चले जाएं। मेरा तो पूर्ण विश्वास है कि संसार
की कोई भी शक्ति किसी से वह वस्तु अलग नहीं रख सकती, जिसके लिए वह वास्तव
में योग्य हो। अतीत तो हमारा गौरवमय था ही, पर मुझे हार्दिक विश्वास है कि
भविष्य और भी गौरवमय होगा।
शंकर हमें पवित्रता, धैर्य और अध्यवसाय में अविचलित रखें।
भवदीय,
विवेकानंद
(श्री आलासिंगा पेरूमल आदि मद्रासी शिष्यों को लिखित)
न्यूयार्क,
१८ नवंबर, १८९४
वीरह्दय युवको!
तुम्हारा ११ अक्टूबर का पत्र कल पाकर बड़ा ही आनंद हुआ। यह बड़े संतोष की बात
है कि अब तक हमारा कार्य बिना रोक-टोक के उन्नति ही करता चला आ रहा है। जैसे
भी हो सके, हमें संघ को दृढ़प्रतिष्ठ और उन्नत बनाना होगा, और इसमें हमें
सफलता मिलेगी-अवश्य मिलेगी। 'नहीं' कहने से न बनेगा। और किसी बात की
आवश्यकता नहीं, आवश्यकता है केवल प्रेम, निश्छलता और धैर्य की। जीवन का
अर्थ ही वृद्धि अर्थात विस्तार यानी प्रेम है। इसलिए प्रेम ही जवन है, यही
जीवन का एकमात्र नियम है, और स्वार्थपरता ही मृत्यु है। इहलोक एवं परलोक में
यही बात सत्य है। परोपकार ही जीवन है, परोपकार न करना ही मृत्यु है। जितने
नरपशु तुम देखते हो, उनमें नब्बे प्रतिशत मृत हैं, वे प्रेत हैं; क्योंकि
मेरे बच्चो, जिसमें प्रेम नहीं है, वह जी भी नहीं सकता। मेरे बच्चों, सबके
लिए तुम्हारे दिल में दर्द हो -ग़रीब, मूर्ख एवं पददलित मनुष्यों के दु:ख को
तुम महसूस करो, तब तक महसूस करो, तब तक महसूस करो, जब तक तुम्हारे ह्दय की
धड़कन न रुक जाए, मस्तिष्क चकराने न लगे, और तुम्हें ऐसा प्रतीत होने लगे कि
तुम पागल हो जाओगे-फिर ईश्वर के चरणों में अपना दिल खोलकर रख दो, और तब
तुम्हें शक्ति, सहायता और अदम्य उत्साह की प्राप्ति होगी। गत दस वर्षों से
मैं अपना मूलमंत्र घोषित करता आया हूँ-संघर्ष करते रहो। और अब भी मैं कहता हूँ
कि अविराम संघर्ष करते चलों। जब चारों और अंधकार ही अंधकार दीखता था, तब मैं
कहता था-संघर्ष करते रहो; अब जब थोड़ा थोड़ा उजाला दिखायी दे रहा है, तब भी
मैं कहता हूँ कि संघर्ष करते चलो। डरो मत मेरे बच्चों। अनंत नक्षत्रखचित आकाश
की ओर भयभीत दृष्टि से ऐसे मत ताको, जैसे कि वह हमें कुचल ही डालेगा। धीरज
धरो। देखोगे कि कुछ ही घंटों में वह सबका सब तुम्हारे पैरों तले आ गया है।
धीरज धरो, न धन से काम होता है; न नाम से, न यश काम आता है, न विद्या; प्रेम
ही से सब कुछ होता है। चरित्र ही कठिनाइयों की संगीन दीवारें तोड़कर अपना
रास्ता बना सकता है।
अब हमारे सामने समस्या यह है, कि स्वाधीनता के बिना किसी प्रकार की उन्नति
संभव नहीं। हमारे पूर्वजों ने धार्मिक विचारों में स्वाधीनता दी थी और उसीसे
हमें एक आश्चर्यजनक धर्म मिला है। पर उन्होंने समाज के पैर बड़ी बड़ी
जंज़ीरों से जकड़ दिए और इसके फलस्वरूप हमारा समाज, एक शब्द में, भयंकर और
पैशाचिक हो गया है। पाश्चात्य देशों में समाज को सदैव स्वाधीनता मिलती रही,
इसलिए उनके समाज को देखो। दूसरी तरफ़ उनके धर्म को भी देखो।
उन्नति की पहली शर्त है स्वाधीनता। जैसे मनुष्य को सोचने-विचारने और उसे
व्यक्त करने की स्वाधीनता मिलनी चाहिए, वैसे ही उसे खान-पान, पोशाक-पहनावा,
विवाह-शादी, हरेक बात में स्वाधीनता मिलनी चाहिए, जब तक कि वह दूसरों को हानि
न पहुँचाए।
हम मूर्खों की तरह भौतिक सभ्यता की निंदा किया करते हैं। अंगूर खट्टे हैं न!
उस मूर्खोचित बात़ को मान लेने पर भी यह कहना पडे़गा कि सारे भारतवर्ष में
लगभग एक लाख़ नर-नारी ही यथार्थ रूप से धार्मिक हैं। अब प्रश्न यह है कि
क्या इतने लोगों की धार्मिक उन्नति के लिए भारत के तीस करोड़ अधिवासियों को
बर्बरों का सा जीवन व्यतीत करना और भूखों मरना होगा? क्यों कोई भूखों मरे?
मुसलमानों के लिए हिंदुओं को जीत सकना कैसे संभव हुआ? यह हिंदुओं के भौतिक
सभ्यता का निरादर करने के कारण ही हुआ। सिले हुए कपड़े तक पहनना मुसलमानों ने
इन्हें सिखलाया। क्या अच्छा होता, यदि हिंदू मुसलमानों से साफ़ ढंग से खाने
की तरक़ीब सीख लेते, जिसमें रास्ते की गर्द भोजन के साथ् न मिलने पाती!
भौतिक सभ्यता, यहाँ तक कि विलासमयता की भी जरूरत होती है-क्योंकि उससे
ग़रीबों को काम मिलता है। रोटी! रोटी! मुझे इस बात का विश्वास नहीं है कि वह
भगवान, जो मुझे यहाँ पर रोटी नहीं दे सकता, वही स्वर्ग में मुझे अनंत सुख
देगा! राम कहो! भारत को उठाना होगा, ग़रीबों को भोजन देना होगा, शिक्षा का
विस्तार करना होगा और पुरोहित-प्रपंच की बुराइयों का निराकरण करना होगा।
पुरोहित-प्रपंच की बुराइयों और सामाजिक अत्याचारों का कहीं नाम-निशान न रहे!
सबके लिए अधिक अन्न और सबको अधिकाधिक सुविधाएँ मिलती रहे। हमारे मूर्ख नौजवान
अंग्रेज़ों से अधिक राजनीतिक अधिकार पाने के लिए सभाएँ आयोजित करते हैं। इस पर
अंग्रेज़ केवल हँसते हैं। स्वाधीनता पाने का अधिकार उसे नहीं, जो औरों को
स्वाधीनता देने को तैयार न हो। मान लो कि अंग्रेज़ों ने तुम्हें सब अधिकार
दे दिए, पर उससे क्या फल होगा? कोई न कोई वर्ग प्रबल होकर सब लोगों से सारे
अधिकार छीन लेगा और उन लोगों को दबाने की कोशिश करेगा। और ग़ुलाम तो शक्ति
चाहता है, दूसरों को ग़ुलाम बनाने के लिए।
इसलिए हमें वह अवस्था धीरे-धीरे लानी पड़ेगी-अपने धर्म पर अधिक बल देते हुए
और समाज को स्वाधीनता देते हुए। प्राचीन धर्म से पुरोहित-प्रपंच की बुराइयों
को एक बार उखाड़ दो, तो तुम्हें संसार का सबसे अच्छा धर्म उपलब्ध हो जाएगा।
मेरी बात समझते हो न? भारत का धर्म लेकर एक यूरोपीय समाज का निर्माण कर सकते
हो? मुझे विश्वास है कि यह संभव है और एक दिन ऐसा अवश्य होगा।
इसके लिए सबसे अच्छा उपाय मध्य भारत में एक उपनिवेश की स्थापना करना है,
जहाँ तुम अपने विचारों का स्वतंत्रतापूर्वक अनुसरण कर सको। फिर ये ही मुट्ठी
भर लोग सारे संसार में अपने विचार फैला देंगे। इस बीच एक मुख्य केंद्र बनाओ
और भारत भर में उसकी शाखाएँ खोलते जाओ। अभी केवल धर्म-भित्ति पर ही इसकी
स्थापना करो और अभी किसी उथल-पुथल मचाने वाले सामाजिक सुधार का प्रचार मत
करो, साथ ही इतना ध्यान रहे कि किसी मूर्खता-प्रसूत कुसंस्कारों को सहार न
देना। जैसे पूर्वकाल में शंकराचार्य, रामानुज तथा चैतन्य आदि आचार्यों ने
सबको समान समझकर मुक्ति में सबका समान अधिकार घोषित किया था, वैसे ही समाज को
पुन: गठित करने की कोशिश करो।
उत्साह से ह्दय भर लो और सब जगह फैल जाओ। काम करो, काम करो। नेतृत्व करते
समय सबके दास हो जाओ, नि:स्वार्थ होओ और कभी एक मित्र को पीठ पीछे दूसरे की
निंदा करते मत सुनो। अनंत धैर्य रखो, तभी सफलता तुम्हारे हाथ आएगी। भारत का
कोई अख़बार या किसी के पते अब मुझे भेजने की आवश्यकता नहीं। मेरे पास उनके
ढेर जमा हो गए; अब बस करो। अब इतना ही समझो कि जहाँ जहाँ तुम कोई सार्वजनिक
सभा बुला सके, वहीं काम करने का तुम्हें थोड़ा मौका मिल गया। उसी के सहारे
काम करो। काम करो। काम करो, औरों के हित के लिए काम करना ही जीवन का लक्षण है।
मैंने श्री अय्यर को अलग पत्र नहीं लिखा, पर अभिनंदन-पत्र का जो उत्तर मैंने
दिया, शायद वही पर्याप्त हो। उनसे और मेरे अन्यान्य मित्रों से मेरा
हार्दिक प्रेम, सहानुभूति और कृतज्ञता ज्ञापन करना। वे सभी महानुभाव हैं। हाँ,
एक बात के लिए सतर्क रहना-दूसरों पर अपना रोब जमाने की कोशिश मत करना। मैं सदा
तुम्हीं को पत्र भेजता हूँ, इसलिए तुम मेरे अन्य मित्रों से अपना महत्त्व
प्रकट करने की फि़क्र में न रहना। मैं जानता हूँ कि तुम इतने निर्बोध न होंगे,
पर तो भी मैं तुम्हें सतर्क कर देना अपना कर्तव्य समझता हूँ। सभी संगठनों का
सत्यानाश इसी से होता है। काम करो काम करो, दूसरों की भलाई के लिए काम करना
ही जीवन है।
मैं चाहता हूँ कि हममें किसी प्रकार की कपटता, कोई मक्कारी, कोई दुष्टता न
रहे। मैं सदैव प्रभु पर निर्भर रहा हूँ, सत्य पर निर्भर रहा हूँ, जो कि दिन
के प्रकाश की भाँति उज्ज्वल है। मरते समय मेरी विवेक-बुद्धि पर यह धब्बा न
रहे कि मैंने नाम या यश पाने के लिए, यहाँ तक कि परोपकार करने के लिए दुरंगी
चालों से काम लिया था। दुराचार की गंध या बदनीयती का नाम तक न रहते पाए।
किसी प्रकार का टालमटोल या छिपे तौर से बदमाशी या गुप्त शठता हममें न
रहे-पर्दे की आड़ में कुछ न किया जाए। गुरु का विशेष कृपापात्र होने का कोई भी
दावा न करे-यहाँ तक कि हममें कोई गुरु भी न रहे। मेरे साहसी बच्चों, आगे
बढ़ो-चाहे धन आए या न आए, आदमी मिलें या न मिलें। क्या तुम्हारे पास प्रेम
है? क्या तुम्हें ईश्वर पर भरोसा है? बस, आगे बढ़ो, तुम्हें कोई न रोक
सकेगा।
भारत से प्रकाशित थियोसॉफि़स्टों की पत्रिका में लिखा है कि थियोसॉफि़स्टो
ने ही मेरी सफलता की राह साफ़ कर दी थी। ऐसा! क्या बकवास है!-थियोसॉफि़स्टो
ने मेरी राह साफ़ की!!
सतर्क रहो! जो कुछ असत्य है, उसे पास न फटकने दो। सत्य पर डटे रहो, बस, तभी
हम सफल होंगे-शायद थोड़ा अधिक समय लगे, पर सफल हम अवश्य होंगे। इस तरह काम
करते जाओ कि मानो मैं कभी था ही नहीं। इस तरह काम करो कि मानो तुममें से हर एक
से ऊपर सारा काम आ पड़ा है। भविष्य की पचास सदियाँ तुम्हारी ओर ताक रही हैं,
भारत का भविष्य तुम पर ही निर्भर है! काम करते जाओ। पता नहीं, कब मैं स्वदेश
लौटूँगा। यहाँ काम करने का बड़ा अच्छा क्षेत्र है। भारत में लोग अधिक से अधिक
मेरी प्रशंसा भर कर सकते हैं, पर वे किसी काम के लिए एक पैसा भी न देंगे, और
दें भी, तो कहाँ से? वे स्वयं भिखारी हैं न? फिर गत दो हज़ार या उससे भी अधिक
वर्षों से वे परोपकार करने की प्रवृत्ति ही खो बैठे हैं। 'राष्ट्र',
'जनसाधारण' आदि के विचार वे अभी अभी सीख रहे हैं। इसलिए मुझे उनकी कोई शिकायत
नहीं करनी है। आगे और भी विस्तार से लिखूँगा। तुम लोगों को सदैव मेरा
आशीर्वाद।
तुम्हारा,
विवेकानंद
पुनश्च-तुम्हें फोनोग्राफ के बारे में और पूछताछ करने की कोई आवश्यकता नहीं।
अभी खेतड़ी से मुझे ख़बर मिली है कि वह अच्छी दशा में वहाँ पहुँच गया है।
(डॉ. नंजुन्दा राव को लिखित)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
३० नवंबर, १८९४
प्रिय डॉक्टर राव,
तुम्हारा सुंदर पत्र मुझे अभी अभी मिला। तुम श्री रामकृष्ण को समझ सके, यह
जानकर मुझे बड़ा हर्ष है। तुम्हारे तीव्र वैराग्य से मुझे और भी आनंद मिला।
ईश्वर-प्राप्ति का यह एक आवश्यक अंग है। मुझे पहले से ही मद्रास से बड़ी आशा
थी और अभी भी विश्वास है कि मद्रास से वह आध्यात्मिक तरंग उठेगी, जो सारे
भारत को प्लावित कर देगी। मैं तो केवल इतना ही कह सकता हूँ कि ईश्वर
तुम्हारे शुभ संकल्पों का वेग उत्साह के साथ बढ़ाता रहे; परंतु मेरे
बच्चे, यहाँ कठिनाइयाँ भी हैं। पहले तो किसी मनुष्य को शीघ्रता नहीं करनी
चाहिए; दूसरे, तुम्हें अपनी माता और स्त्री के संबंध में सह्दयतापूर्वक
विचारों से काम लेना उचित है। सच है, और तुम यह कह सकते हो कि आप श्री
रामकृष्ण के शिष्यों से संसार-त्याग करते समय अपने माता-पिता की सम्मति की
अपेक्षा नहीं की। मैं जानता हूँ और ठीक जानता हूँ कि बड़े बड़े काम बिना बड़े
स्वार्थ-त्याग के नहीं हो सकते। मैं अच्छी तरह जानता हूँ, भारत-माता अपनी
उन्नति के लिए अपनी श्रेष्ठ संतानों की बलि चाहती है, और यह मेरी आंतरिक
अभिलाषा है कि तुम उन्हीं में से एक सौभाग्यशाली होंगे।
संसार के इतिहास से तुम जानते हो कि महापुरुषों ने बड़े बड़े स्वार्थ-त्याग
किए और उनके शुभ फल का भोग जनता ने किया। अगर तुम अपनी ही मुक्ति के लिए सब
कुछ त्यागना चाहते हो, तो फिर वह त्याग कैसा? क्या तुम संसार के कल्याण के
लिए अपनी मुक्ति-कामना तक छोड़ने को तैयार हो? तुम स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो,
इस पर विचार करो। मेरी राय में तुम्हें कुछ दिनों के लिए ब्रह्मचारी बनकर
रहना चाहिए। अर्थात कुछ काल के लिए स्त्री-संग छोड़कर अपने पिता के घर में ही
रहो; यही 'कुटीचक' अवस्था है। संसार की हित-कामना के लिए अपने महान
स्वार्थ-त्याग के संबंध में अपनी पत्नी को सहमत करने की चेष्टा करो। अगर
तुममें ज्वलंत विश्वास, सर्वविजयिनी प्रीति और सर्वशक्तिमयी पवित्रता है, तो
तुम्हारे शीघ्र सफल होने में मुझे कुछ भी संदेह नहीं। तन, मन और प्राणों का
उत्सर्ग करके श्री रामकृष्ण की शिक्षाओं का विस्तार करने में लग जाओ,
क्योंकि कर्म पहला सोपान हैं। खूब मन लगाकर संस्कृत का अध्ययन करो और साधना
का भी अभ्यास करते रहो। कारण, तुम्हें मनुष्य जाति का श्रेष्ठ शिक्षक होना
है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे कि कोई आत्महत्या करना चाहे, तो वह नहरनी से
भी काम चला सकता है, परंतु दूसरों को मारना हो, तो तोप-तलवार की आवश्यकता
होती है। समय आने पर तुम्हें वह अधिकार प्राप्त हो जाएगा, जब तुम संसार
त्यागकर चारों ओर उनके पवित्र नाम का प्रचार कर सकोगे। तुम्हारा संकल्प शुभ
और पवित्र है। ईश्वर तुम्हें उन्नत करे, परंतु जल्दी में कुछ कर न बैठना।
पहले कर्म और साधना द्वारा अपने को पवित्र करो। भारत चिरकाल से दु:ख सह रहा
है; सनातन धर्म दीर्घकाल से अत्याचार पीडि़त है। परंतु ईश्वर दयामय है। वह
फिर अपने संतानों के परित्राण के लिए आया है, पुन: पतित भारत को उठने का सुयोग
मिला है। श्री रामकृष्ण के पदप्रांत में बैठने पर ही भारत का उत्थान हो सकता
है। उनकी जीवनी एवं उनकी शिक्षाओं को चारों ओर फैलाना होगा, हिंदू समाज के राम
रोम में उन्हें भरना होगा। यह कौन करेगा? श्री रामकृष्ण की पताका हाथ में
लेकर संसार की मुक्ति के लिए अभियान करनेवाला है कोई? नाम और यश, ऐश्वर्य और
भोग का, यहाँ तक कि इहलोक और परलोक की सारी अशाओं का बलिदान करके अवनति की
बाढ़ रोकनेवाला है कोई? कुछ इने-गिने युवकों ने इसमें अपने को झोंक दिया है,
अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया है परंतु इनकी संख्या थोड़ी है। हम चाहते
हैं कि ऐसे ही कई हज़ार मनुष्य आयें और मैं जानता हूँ कि वे आयेंगे। मुझे
हर्ष है कि हमारे प्रभु ने तुम्हारे मन में उन्हींमें से एक होने का भाव भर
दिया है। वह धन्य है, जिसे प्रभु ने चुन लिया। तुम्हारा संकल्प शुभ है,
तुम्हारी आशाएँ उच्च हैं, घोर अंधकार में डूबे हुए हज़ारों मनुष्यों को
प्रभु के ज्ञानालोक के सम्मुख लाने का तुम्हारा लक्ष्य संसार के सब
लक्ष्यों से महान है।
परंतु मेरे बच्चे, इस मार्ग में बाधाएँ भी हैं। जल्दबाज़ी में कोई काम नहीं
होगा। पवित्रता, धैर्य और अध्यवसाय, इन्हीं तीनों गुणों से सफलता मिलती है,
और सर्वोपरि है प्रेम। तुम्हारे सामने अनंत समय है, अतएव अनुचित शीघ्रता
आवश्यक नहीं। यदि तुम पवित्र और निष्कपट हो, तो सब काम ठीक हो जाएंगे। हमें
तुम्हारे जैसे हज़ारों की आवश्यकता है, जो समाज पर टूट पड़ें और जहाँ कहीं
वे जाएं, वहीं नए जीवन और नयी शक्ति का संचार कर दें। ईश्वर तुम्हारी
मनोकामना पूर्ण करे।
सस्नेह आशीर्वाद के साथ,
विवेकानंद
(श्री आलासिंगा पेरूमल को लिखित)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
३० नवंबर, १८९४
प्रिय आलासिंगा,
फोनोग्राफ और मेरा पत्र तुम्हें सुरक्षित अवस्था में मिल गए हैं, यह जानकर
खुशी हुई। अब तुम्हें समाचारपत्रों की और कटिंग भेजने की आवश्यकता नहीं।
मेरा उनसे नाकों दम हो गया है। वह अब बहुत हो चुका। इसलिए अब संस्था के कार्य
में लग जाओ। मैंने एक संस्था न्यूयार्क में पहले ही शुरू कर दी है और उसके
उपसभापति शीघ्र ही तुम्हें पत्र लिखेंगे। इन लोगों के साथ पत्र-व्यवहार करते
रहो। शीघ्र ही दूसरे स्थानों में भी मैं ऐसी ही दो-चार संस्थाएँ खोलने जा
रहा हूँ। हमें अपनी शक्तियों का संगठन किसी संप्रदाय-निर्माण के लिए नहीं करना
है, विशेषत: किसी धार्मिंक विषय से संबंधित, वरन् ऐसा केवल आर्थिक प्रबंध आदि
की दृष्टि से करना है। एक ज़ोरदार प्रचार-कार्य का समारंभ करना होगा। एक साथ
मिलकर संगठन-कार्य में जुट जाओ।
श्री रामकृष्ण के चमत्कार के संबंध में क्या बकवास है! चमत्कार के विषय
में न कुछ जानता हूँ, न उसे समझता ही हूँ। क्या श्री रामकृष्ण के पास
चमत्कार दिखाने के अलावा संसार में और कोई काम नहीं था? कलकत्ता के ऐसे
लोगों से भगवान बचाये। इन्हीं विषयों को लेकर वे कार्य करेंगे! यह विचार रखते
हुए कि श्री रामकृष्ण कौन सा कार्य करने तथा क्या सिखाने आए थे, यदि उनका
वास्तविक जीवन कोई लिख सकता है, तो लिखने दो; अन्यथा नहीं। उनका जीवन और कथन
बिगाड़ना उसके लिए उचित नहीं है। ये लोग, जो ईश्वर को जानना चाहते हैं, श्री
रामकृष्ण में जादूगरी के सिवा अन्य कुछ नहीं देखते!...यदि किडी उनके प्रेम,
उनके ज्ञान, उनके सर्वधर्म समन्वय संबंधी कथाओं एवं उनके अन्य उपदेशों का
अनुवाद कर सकता है,तो करने दो। विषयवस्तु इस प्रकार है। श्री रामकृष्ण का
जीवन एक असाधारण ज्योतिर्मय दीपक है, जिसके प्रकाश में हिंदू धर्म के
विभिन्न अंग एवं आशय समझे जा सकते हैं। शास्त्रों में निहित सिद्धांत-रूप
ज्ञान के वे प्रत्येक्ष उदाहरणस्वरूप थे। ऋृषि और अवतार हमें जो वास्तविक
शिक्षा देना चाहते थे, उसे उन्होंने अपने जीवन द्वारा दिखा दिया है। शास्त्र
मतवाद मात्र हैं, रामकृष्ण उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति। उन्होंने ५१ वर्ष में
पाँच हज़ार वर्ष का राष्ट्रीय आध्यात्मिक जीवन जिया और इस तरह वे भविष्य की
संतानों के लिए अपने आपको एक शिक्षाप्रद उदाहरण बना गए। विभिन्न मत एक एक
अवस्था या क्रम मात्र हैं -उनके इस सिद्धांत से वेदों का अर्थ समझ में आ सकता
है और शास्त्रों में सामंजस्य स्थापित हो सकता है। उसी के अनुसार दूसरे
धर्म या मत के लिए हमें केवल सहनशीलता का प्रयोग नहीं करना चाहिए, वरन्
उन्हें स्वीकार कर जीवन में प्रत्यक्ष परिणत करना चाहिए, और इसी के अनुसार
सत्य ही सब धर्मों की नींव है। अब इसी ढंग पर एक अत्यंत मनोहर और सुंदर जीवनी
लिखी जा सकती है। अस्तु, सब काम अपने समय से होंगे। अपना काम करते
चलो,कलकत्तावालों पर अवलंबित रहने की जरूरत नहीं। उनके साथ बात बनाये रखो,
शायद उनमें से कोई अच्छा निकल आए। लेकिन स्वाधीनता से अपना काम करते रहो।
काम के वक्त कोई नहीं, पर खाने के वक़्त सब हाजि़र हो जाते हैं। सतर्क रहो
और काम करते जाओ।
आशीर्वाद पूर्वक
सदैव तुम्हारा,
विवेकानंद
(श्री सिंगारवेलू मुदालियर को लिखित)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
३० नवंबर, १८९४
प्रिय किडी,
तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारा मन इधर-उधर भटक रहा है, मालूम हुआ। तुमने
रामकृष्ण का त्याग नहीं किया है, जानकर सुखी हूँ। उनके संबंध में जो अद्भुत
कथाएँ प्रकाशित हुई हैं-उनसे और जिन अहमक़ों ने उन्हें लिखा है-उन लोगों से
तुम दूर रहोगे-यही मेरा सुझाव है। वे बातें सही हैं ज़रूर-किंतु, मैं यह
अच्छी तरह जानता हूँ कि ये मूरख इन सारी बातों को इधर से उधर कर-खिचड़ी बना
डालेंगे। उन्होंने (रामकृष्ण ने) कितनी अच्छी अच्छी-ज्ञान भरी बातों के
द्वारा शिक्षा दी है-फिर सिद्धि-चमत्कार वग़ैरह बेकार की बातों में इतना
क्यों उलझे हो? अलौकिक घटनाओं की सत्यता प्रमाणित कर देने से ही धर्म की
सच्चाई प्रमाणित नहीं होती-जड़ के द्वारा चेतन का प्रमाण तो नहीं दिया जा
सकता। ईश्वर या आत्मा का अस्तित्व अथवा अमरत्व के साथ अलौकिक क्रियाओं का
भला क्या संबंध हो सकता है? तुम इन बातों में अपना सिर मत खपाओ। तुम अपनी
भक्ति को लेकर रहो। मैंने तुम्हारा सारा दायित्व अपने ऊपर लिया है-इस संबंध
में निश्चित रहो। इधर-उधर की बातों से मन को चंचल मत करो। रामकृष्ण का प्रचार
करो। जिसे पान करके तुमने अपनी तृष्णा मिटायी हे-उसे दूसरों को पान कराओ।
तुम्हारे प्रति मेरा यह आशीर्वाद: सिद्धि तुम्हें करतलगत हो!! व्यर्थ की
दार्शनिक चिंताओं में सिर खपाने की आवश्यकता नहीं। अपनी धर्मांधता से दूसरों
को विरक्त न करो। एक ही काम तुम्हारे लिए यथेष्ट है-रामकृष्ण का
प्रचार-भक्ति का प्रचार। इसी काम के लिए तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ-किए चलो!
यदि तुम्हारे मन में अबोध की भाँति फिर ऐसे प्रश्न जगें, तो समझना, मुक्ति
और सिद्धि तुम्हें मिलने में अब देर नहीं। अभी प्रभु का नाम-प्रचार करो!
सदा आशीर्वाद सहित,
विवेकानंद
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
१६८, ब्रैटल स्ट्रीट,
केम्ब्रिज,
८ दिसंबर, १८९४
प्रिय बहन,
मैं तीन दिन से यहाँ हूँ। हम लोगों ने श्रीमती हेनरी सॉमरसेट का श्रेष्ठ
व्याख्यान सुना। मैं यहाँ वेदांत एवं दूसरे विषयों पर हर सुबह क्लास लेता
हूँ। अब तक तुम्हें 'वेदांत' की प्रति, जो मैंने मदर टेम्पल के यहाँ
तुम्हारे पास भेज देने के लिए छोड़ दी थी, मिल गई होगी। दूसरे दिन में
स्पाल्डिंग्स के यहाँ भोजन पर गया। मेरे विरोध के बावजूद उस दिन उन्होंने
मुझसे अमेरिकन लोगों की आलोचना करने का अग्रह किया। खेद है, यह उन्हें अच्छा
नहीं लगा होगा। निश्चय ही ऐसा करना सर्वथा असंभव है। मदर चर्च और शिकागो के
उस परिवार का क्या समाचार है? बहुत दिनों से उनका कोई पत्र नहीं मिला है। समय
होता, तो पहले ही तुमसे मिलने शहर दौड़ गया होता। पूरा दिन मुझे व्यस्त रहना
पड़ता हैं। खेद है कि तुमसे नहीं मिल सकूँगा।
अगर तुम्हें समय हो, तो लिखों और मैं अवसर हाथ लगते ही तुमसे मिलने का
प्रयत्न करूँगा। जब तक मैं यहाँ रहूँगा, यानी इस मास के २७ या २८ ता. तक,
मिलने का मेरा समय अपराह्र ही होगा, प्रात: १२ या १ तक मुझे बहुत व्यस्त
रहना होगा।
तुम सबों को मेरा प्यार।
तुम्हारा सदा स्नेही भाई,
विवेकानंद
(कुमारी मेरी हेल की लिखित)
केम्ब्रिज,
दिसंबर, १८९४
प्रिय बहन,
अभी तुम्हारा पत्र मिला। अगर यह तुम्हारे सामाजिक नियमों के प्रतिकूल न हो,
तो श्रीमती ओलि बुल, कुमारी फ़ार्मर और शिकागो की शारीरिक विज्ञानविद् श्रीमती
एडम्स से मिलने क्यों न आ जाओ? किसी भी दिन तुम उनसे वहाँ मिल सकती हो।
सदा सस्नेह
तुम्हारा,
विवेकानंद
(कुमारी मेरी हेल को लिखित)
केम्ब्रिज,
२१ दिसंबर, १८९४
प्रिय बहन,
तुम्हारे पिछले पत्र के बाद कुछ नहीं मिला। अगले मंगलवार को मैं न्यूयार्क
जा रहा हूँ। इस बीच तुम्हें श्रीमती बुल का पत्र मिला होगा। अगर यह तुम्हें
स्वीकार न हो, तो किसी भी दिन आने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी -अब मुझे
समय है, क्योंकि अगले रविवार को छोड़कर व्याख्यान-क्रम समाप्त-प्राय है।
सस्नेह सदा तुम्हारा,
विवेकानंद
(श्री आलासिंगा पेरूमल को लिखित)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
२६ दिसंबर, १८९४
प्रिय आलासिंगा,
शुभाशीर्वाद। तुम्हारा पत्र अभी ही मिला। नरसिंह भारत पहुँच गया है, जानकर
खुशी हुई। मुझे खेद है कि डॉ. बेरोज़ द्वारा धर्म-महासभा के संबंध में लिखित
पुस्तक तुम्हें भेज न सका। भेजने की कोशिश करूँगा। बात यह है कि धर्म-महासभा
की सभी बातें अब यहाँ पुरानी हो गई हैं। हाल में उन्होंने कोई पुस्तक लिखी
है या नहीं, मुझ विदित नहीं; तथा तुमने जिस समाचारपत्र का उल्लेख किया है,
उसके बारे में भी मुझे कुछ मालूम नहीं है। अब डॉ. बरोज़, धर्म-महासभा,वे
समाचारपत्र आदि सभी कुछ प्राचीन इतिहास जैसे हो गए हैं, इसलिए तुम लोग भी इसे
अतीत काल की बातें मान सकते हो।
मेरे संबंध में कुछ दिनों के अंतर में मिशनरी पत्रिकाओं में (ऐसा मैं सुनता
हूँ) दोषारोप़ण किया जाता है, परंतु उसे पढ़ने की मुझे कोई इच्छा नहीं है द्य
यदि तुम भारत की ऐसा पत्रिकाएँ भेजोगे, तो मैं उन्हें भी रद्दी काग़ज़ की
टोकरी में डाल दूँगा। अपने काम के लिए कुछ आंदोलन की आवश्यकता थी, वह अब
पयाप्त हो चुका है। मेरे विषय में लोग क्या कहते हैं, इसकी ओर ध्यान न
देना, चाहे वे अच्छा कहें या बुरा। तुम अपने काम में लगे रहो और याद रखो कि-न
हि कल्याणकृत कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति -'हे वत्स, भलाई करने वाले की
कभी दुर्गति नहीं होती।' (गीता)
यहाँ के लोग दिन-प्रतिदिन मुझे मानने लगे हैं। और जितना तुम समझते हो, उससे
कहीं अधिक मेरा यहाँ प्रभाव है। पर यह बात केवल मेरे और तुम्हारे बीच तक ही
सीमित रहनी चाहिए। सब काम धीरे-धीरे होंगे।...मैं तुम्हें पहले भी लिख चुका
हूँ और फिर लिखता हूँ कि समाचारपत्रों की प्रशंसा या निंदा की मैं कुछ परवाह
नहीं करूँगा। मैं उन पत्रों को अग्नि को अर्पित कर देता हूँ। तुम भी यही करो।
समाचारपत्रों की निंदा और व्यर्थ बातों की ओर ध्यान न दो। निष्कपट रहो और
अपने कर्तव्य का पालन करो, शेष सब ठीक हो जाएगा। सत्य की विजय अवश्यंभावी
है...मिशनरी ईसाईयों के झूठे वर्णन की ओर तुम्हें ध्यान ही न देना
चाहिए...पूर्ण मौन ही उनका सर्वोत्तम खंडन है और मैं चाहता हूँ कि तुम भी मौन
धारण करो।...श्री सुब्रह्मण्य अय्यर को अपनी सभा का सभापति बना लो। मेरे
परिचित व्यक्तियों में वे एक परम उदार और अत्यंत शुद्ध ह्दय के व्यक्ति हैं
और उनमें बुद्धि और ह्दय का परम सुंदर सम्मिश्रण है। अपने काम में आगे बढ़ो और
मुझ पर अधिक भरोसा न रखो। अभी भी मेरा पूर्ण विश्वास है कि मद्रास से ही
शक्ति की तरंग उठेगी। मैं कह नहीं सकता कि कब तक भारत वापस आऊँगा। मैं यहाँ और
भारत, दोनों जगह काम कर रहा हूँ। कभी-कभी मैं आर्थिक सहायता कर सकूँगा। तुम
सबको प्यार।
आशीर्वादपूर्वक सदैव तुम्हारा,
विवेकानंद
(श्री आलासिंगा पेरूमल को लिखित)
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
१८९४
प्रिय आलासिंगा,
तुम्हारा पत्र अभी मिला।...मैंने तुम्हें अपने भाषण के जो अंश भेजे थे,
उन्हें प्रकाशित करने के लिए कहकर मैंने भूल की। यह मेरी भयंकर भूल थी। ये
मेरी एक क्षण की दुर्बलता का परिणाम था। इस देश में दो-तीन वर्ष तक
व्याख्यान देने से धन संग्रह किया जा सकता है। मैंने कुछ यत्न किया है, और
यद्यपि यहाँ जनसाधारण में मेरे काम का बहुत सम्मान है, फिर भी मुझे यह काम
अत्यंत अरुचिकर और नीति भ्रष्ट करनेवाला प्रतीत होता है। इसलिए मेरे बच्चे,
मैंने यह निश्चय किया है कि इस ग्रीष्म ऋतु में ही यूरोप होते हुए भारत वापस
लौट जाऊँगा। इसके खर्च के लिए मेरे पास यथेष्ट धन है-'उसकी इच्छा पूर्ण हो।'
भारतीय समाचार पत्रों के विषय में जो तुम कहते हो, वह मैंने पढ़ा तथा उसकी
आलोचना भी। उनका यह छिद्रान्वेषण स्वाभाविक ही है। प्रत्येक दास-जाति का
मुख्य दोष ईर्ष्या होता है। ईर्ष्या और मेल का अभाव ही पराधीनता उत्पन्न
करता: है और उसे स्थायी बनाता है। इस कथन की सच्चाई तुम तब तक नहीं समझ सकते
हो, जब तक तुम भारत से बाहर न जाओ। पाश्चात्यवासियों की सफलता का रहस्य यही
सम्मिलन-शक्ति है, और उसका आधार है परस्पर विश्वास और गुणग्राहकता। जितना ही
कोई राष्ट्र निर्बल या कायर होगा, उतना ही उसमें यह अवगुण अधिक प्रकट
होगा।...परंतु मेरे बच्चे, तुम्हे पराधीन जाति से कोई आशा न रखनी चाहिए।
हालाँकि मामला निराशाजनक सा ही है, फिर भी मैं इसे तुम सभी के समक्ष स्पष्ट
रूप से कहता हूँ। सदाचार संबंधी जिनकी उच्च अभिलाषा मर चुकी है, भविष्य की
उन्नति के लिए जो बिल्कुल चेष्टा नहीं करते और भलाई करनेवाले को धर दबाने
में जो हमेशा तत्पर हैं-ऐसे मृत जड़पिंडों के भीतर क्या तुम प्राण-संचार कर
सकते हो? क्या तुम उस वैद्य की जगह ले सकते हो, जो लातें मारते हुए उदंड
बच्चे के गले में दवाई डालने की कोशिश करता हो?
संपादक के संबंध में मेरा यही वक्तव्य है कि हमारे गुरुदेव से उन्हें थोड़ी
डॉट-फटकार मिली थी, इसलिए वे हमारी छाया से भी दूर भागते हैं। अमेरिकन और
यूरोपियन विदेश में अपने देशवासी की हमेशा सहायता करता है।
मैं फिर तुम्हें याद दिलाता हूँ, कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु
कदाचन-'तुम्हें कर्म का अधिकार है, फल का नहीं।' चट्टान की तरह दृढ़ रहो।
सत्य की हमेशा जय होती है। श्री रामकृष्ण की संतान निष्कपट एवं सत्यनिष्ठ
रहे, शेष सब कुछ ठीक हो जाएगा। कदाचित् हम लोग उसका फल देखने के लिए जीवित न
रहें; परंतु जैसे इस समय हम जीवित हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है कि देर या
सबेर इसका फल अवश्य प्रकट होगा। भारत को नव विद्युत्-शक्ति की आवश्यकता है,
जो जातीय धमनी में नवीन स्फूर्ति उत्पन्न कर सके। यह काम हमेशा धीरे-धीरे
हुआ है और होगा। नि:स्वार्थ भाव से काम करने में संतुष्ट रहो और अपने प्रति
सदा सच्चे रहो। पूर्ण रूप से शुद्ध दृढ़ और निष्कपट रहो, शेष सब कुछ ठीक हो
जाएगा! अगर तुमने श्री रामकृष्ण के शिष्यों में कोई विशेषता देखी है, तो वह
यह है कि वे संपूर्णतया निष्कपट हैं। यदि मैं ऐसे सौ आदमी भी भारत में छोड़
जा सकूँ, तो मेरा काम पूरा हो जाएगा और मैं शांति से मर सकूँगा। इसे केवल
परमात्मा ही जानता है। मूर्ख लोगों को व्यर्थ बकने दो। हम न तो सहायता
ढूँढ़ते हैं, न उसे अस्वीकार करते हैं-हम तो उस परम पुरुष के दास हैं।
क्षुद्र मनुष्यों के तुच्छ यत्न हमारी दृष्टि में न आने चाहिए। आगे बढ़ो!
सैकड़ो युगों के उद्यम से चरित्र का गठन होता है। निराश न होओ। सत्य के एक
शब्द का भी लोप नहीं हो सकता। वह दीर्घ काल तक कूड़े के नीचे भले ही दबा पड़ा
रहे, परंतु देर या सबेर वह प्रकट होगा ही। सत्य अनश्वर है, पुण्य अनश्वर
है, पवित्रता अनश्वर है। मुझे सच्चे मनुष्य की आवश्यकता है; मुझे शंख-ढपोर
चेले नहीं चाहिए। मेरे बच्चे, दृढ़ रहो। कोई आकर तुम्हारी सहायता करेगा,
इसका भरोसा न करो। सब प्रकार की मानव-सहायता की अपेक्षा ईश्वर क्या अनंत
गुना शक्तिमान नहीं है? पवित्र बनो, ईश्वर पर विश्वास रखो, हमेशा उस पर
निर्भर रहो-फिर तुम्हारा सब ठीक हो जाएगा-कोई भी तुम्हारे विरुद्ध कुछ न कर
सकेगा। अगले पत्र में और भी विस्तारपूर्वक लिखूँगा।
इस ग्रीष्म ऋतु में यूरोप जाने की सोच रहा हूँ। शीत ऋतु के प्रारंभ में भारत
वापस लौटूँगा। बम्बई में उतरकर शायद राजपूताना जाऊँ, वहाँ से फिर कलकत्ता।
कलकत्ते से फिर जहाज़ द्वारा मद्रास आऊँगा। आओ, हम सब प्रार्थना करें, 'हे
कृपामयी ज्योति, पथ-प्रदर्शन करो'-और अंधकार में से एक किरण दिखायी देगी,
पथ-प्रदर्शन कोई हाथ आगे बढ़ आएगा। मैं हमेशा तुम्हारे लिए प्रार्थना करता
हूँ, तुम मेरे लिए प्रार्थना करो। जो दारिद्रय, पुरोहित-प्रपंच तथा प्रबलों के
अत्याचारों से पीडि़त हैं, उन भारत के करोंड़ों पददलितों के लिए प्रत्येक
आदमी दिन-रात प्रार्थना करे। सर्वदा उनके लिए प्रार्थना करे। मैं धनवान और
उच्च श्रेणी की अपेक्षा इन पीडि़तों को ही धर्म का उपदेश देना पसंद करता हूँ।
मैं न कोई तत्व-जिज्ञासु हूँ, न दार्शनिक हूँ और न सिद्ध पुरुष हूँ। मैं
निर्धन हूँ और निर्धनों से प्रेम करता हूँ। इस देश में जिन्हें ग़रीबी कहा
जाताहै, उन्हें देखता हूँ-भारत के ग़रीबों की तुलना में इनकी अवस्था अच्छी
होने पर भी यहाँ कितने लोग उनसे सहानुभूति रखते हैं! भारत में और यहाँ महान
अंतर है। बीस करोड़ नर-नारी जो सदा ग़रीबी और मूर्खता के दलदल में फँसे हैं,
उनकेलिए किसका ह्दय रोता है? उसके उद्धार का क्या उपाय है? कौन उनके दु:ख में
दु:खी है? वे अंधकार से प्रकाश में नहीं आ सकते, उन्हें शिक्षा नहीं प्राप्त
होती-उन्हें कौन प्रकाश देगा, कौन उन्हें द्वार द्वार शिक्षा देने के लिए
घूमेगा? ये ही तुम्हारे ईश्वर हें, ये ही तुम्हारे इष्ट बनें। निरंतर
इन्हीं के लिए सोचो, इन्हीं के लिए काम करो, इन्हींके लिए निरंतर प्रार्थना
करो-प्रभु तुम्हें मार्ग दिखायेगा। उसी को मैं महात्मा कहता हूँ, जिसका ह्दय
ग़रीबों के लिए द्रवीभूत होता है, अन्यथा वह दुरात्मा है। आओ, हम लोग अपनी
इच्छा-शक्ति को ऐक्यभाव से उनकी भलाई के लिए निरंतर प्रार्थना में लगायें।
हम अनजान, बिना सहानुभूति के, बिना मातमपुर्सी के, बिना सफल हुए मर जाएंगे,
परंतु हमारा एक भी विचार नष्ट नहीं होगा। वह कभी न कभी फल लायेगा। मेरा ह्दय
इतना भाव-गद्गद् हो गया है कि मैं उसे व्यक्त नहीं कर सकता; तुम्हें यह
विदित है, तुम उसकी कल्पना कर सकते हो। जब तक करोड़ों भूखे और अशिक्षित
रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूँगा, जो उनके खर्च
पर शिक्षित हुआ है, परंतु जो उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता! वे लोग
जिन्होंने ग़रीबों को कुचलकर धन पैदा किया है और अब ठाट-बाट से अकड़कर चलते
हैं, यदि उन बीस करोड़ देशवासियों के लिए जो इस समय भूखे और असभ्य बने हुए
हैं, कुछ नहीं करते, तो वे घृणा के पात्र हैं। मेरे भाइयों, हम लोग ग़रीब हैं,
नगण्य हैं, किंतु हम जैसे ग़रीब लोग ही हमेशा उस परम पुरुष के यंत्र बने हैं।
परमात्मा तुम सभी का कल्याण करे।
सस्नेह,
विवेकानंद
(श्री अनागरिक धर्मपाल को लिखित)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
१८९४
प्रिय धर्मपाल,
तुम्हारे कलकत्ते का पता मुझे याद नहीं, इसलिए मठ के पते पर ही यह पत्र लिख
रहा हूँ। कलकत्ते में दिए गए तुम्हारे भाषण तथा उसके आश्चर्यजनक प्रभाव का
पूर्ण विवरण मैंने सुना। यहाँ के एक अवकाशप्राप्त मिशनरी ने मुझे 'भाई'
सम्बोधित कर एक पत्र लिखा, इसके बाद शीघ्र ही मेरा संक्षिप्त उत्तर छपवाकर
एक हलचल मचाने की कोशिश की। तुम्हें यह विदित ही है कि यहाँ के लोग ऐसे
व्यक्तियों के बारे में कैसी धारणा रखते हैं। इसके अलावा उन्हीं मिशनरी ने
गुप्त रूप से मेरे अनेक बंधु ओं के पास जाकर यह प्रयत्न किया, जिससे वे लोग
मुझे सहायता न करें। किंतु इसके प्रत्युत्तर में उन्हें सब कहीं तिरस्कार
ही मिला। इस आदमी के ऐसे व्यवहार से मैं स्तंभित हूँ एक धर्म-प्रचारक, और उस
पर से ऐसा कपट व्यवहार! खेद की बात है कि सभी देशों में, सभी धर्मों में ऐसे
लोगों की संख्या अधिक है।
पिछले जाड़े में मैंने इस देश में बहुत भ्रमण किया,यद्यपि वह ऋतु कष्टदायक थी।
मैं समझता था कि जाड़े में कष्ट होगा, पर फि़लहाल ऐसा न हो पाया। 'स्वाधीन
धर्म समिति' (Free Religious Society) के सभापति कर्नल नेगेन्स को तुम जानते
ही हो, वे दिलचस्पी के साथ तुम्हारी खोज-खबर लेते रहते हैं। कुछ दिन पूर्व
ऑक्सफ़ोर्ड (इंग्लैंड) के डॉ. कार्पेंटर के साथ भेंट हुई थी। प्लीमॉथ में
बौद्ध धर्म के नीति-तत्व पर उनका भाषण हुआ। उनका भाषण बौद्ध धर्म के प्रति
सहानुभूतिपूर्ण तथा पांडित्यपूर्ण था। उन्होंने तुम्हारे एवं तुम्हारी
पत्रिका के बारे में पूछताछ की। मैं आशा करता हूँ कि तुम्हारे महान कार्य में
सफलता प्राप्त होगा। जो प्रभु 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' अवतरित हुए थे, उनके
तुम सुयोग्य दास हो।
कब तक मैं यहाँ से लौटूँगा, ठीक नहीं। तुम लोगों के थियोसॉफि़कल सोसाइटी के
श्री जार्ज एवं अन्य सदस्यों से मेरा परिचय हो गया है। वे सभी लोग सज्जन
एवं सरल स्वभाव के हैं तथा उनमें से अधिकांश लोग सुशिक्षित है।
श्री जार्ज बहुत ही परिश्रमी व्यक्ति हैं- थियोसॉफ़ी के प्रचार-हेतु
उन्होंने अपना जीवन अर्पित कर दिया है। अमेरिकावासी उन लोगों के प्रचार से
काफ़ी प्रभावित हुए हैं, किंतु कट्टर ईसाईयों को यह पसंद नहीं है। यह तो
उन्हीं की भूल है। छ: करोड़, तीस लाख लोगों में सिर्फ एक करोड़, नब्बे लाख
लोग ही ईसाई धर्म की किसी न किसी शाखा के अंतर्गत हैं। बाकी लोगों में ईसाई
धर्म-भाव जागृत करने में असमर्थ हैं। जो लोग धार्मिक नहीं हैं, उन्हें यदि
थियोसॉफि़स्ट किसी प्रकार का धर्म-भाव जागृत करने में असर्थ है, तो कट्टर
ईसाईयों को इसमें क्यों आपत्ति हो, समझ में नही आता। किंतु कट्टर ईसाई धर्म
इस देश से तीव्र गति से उठा जा रहा है।
जिस ईसाई धर्म का भारत में उपदेश होता है, वह उस ईसाई धर्म से, जो यहाँ देखने
में आता है, सर्वथा भिन्न है। धर्मपाल, तुम्हें यह सुनकर आश्चर्य होगा कि
इस देश में एपिसकोप्ल एवं प्रेसबिटेरियन गिरजों के पादरियों में मेरे भी मित्र
है, जो अपने धर्म में उतने ही उदार और निष्कपट हैं, जितने कि तुम अपने धर्म
में। सच्चे आध्यात्मिक व्यक्ति सर्वत्र उदार होते हैं। 'उसका' प्रेम
उन्हें विवश कर देता है। जिनका धर्म व्यापार होता है, वे संसार की स्पर्धा,
उसकी लड़ाकू और स्वार्थी चाल को धर्म में लाने के कारण संकीर्ण और धूर्त होने
पर विवश हो जाते हैं।
तुम्हारा चिर भ्रातृप्रेमाबद्ध,
विवकानंद
(श्री आलसिंगा पेरूमल को लिखित)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
१८६४
प्रिय आलासिंगा,
एक पुरानी कहानी सुनो। एक निकम्मे भिखमंगे ने सड़क पर चलते चलते एक वृद्ध को
अपने मकान के द्वार पर बैठा देखकर रुककर उससे पूछा- "अमुक ग्राम कितनी दूर है?
बुड्ढ़ा चुप रहा। भिखमंगे ने कई बार प्रश्न किया, परंतु उत्तर न मिला। अंत
में जब वह उकताकर वापस जाने लगा, तब बुड्ढे ने खडे होकर कहा,"वह ग्राम यहाँ से
एक मील है।" भिखमंगा कहने लगा, "जब मैंने तुमसे पहली बार पूछा था, तब तुमने
क्यों नहीं बताया?" बुड्ढे ने उत्तर दिया, "क्योंकि पहले तुमने जाने के लिए
लापरवाही दिखायी थी और दुविधा में मालूम होते थे; परंतु अब तुम उत्साहपूर्वक
आगे बढ़ रहे हो, इसलिए अब तुम उत्तर पाने के अधिकारी हो गए हो!"
क्या तुम यह कहानी याद रखोगे मेरे बच्चे? काम आरंभ करो, शेष सब कुछ आप ही आप
हो जाएगा। अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते। तेषां
नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्। (गीता ६।२२) - 'जो सब कुछ त्यागकर
अनन्य भाव से चिंतन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, उन नित्यसमाहित
व्यक्तियों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।' -यह भगवान की वाणी है,
कवि-कल्पना नहीं।
बीच-बीच में मै तुम्हारे पास कुछ रक़म भेजता जाऊँगा, क्योंकि पहले कलकत्ते
में भी मुझे कुछ रक़म भेजनी पड़ेगी- मद्रास की अपेक्षा अधिक भेजनी पड़ेगी।
वहाँ का कार्य मुझ पर ही निर्भर है। वहाँ कार्य केवल शुरू ही हुआ हो, ऐसी बात
नही, बल्कि वह तीव्र गति से अग्रसर हो रहा है। उसे पहले देखना होगा। साथ ही
कलकत्ते की अपेक्षा मद्रास में सहायता मिलने की आशा अधिक है। मेरी इच्छा है
कि ये दोनों केंद्र आपस में मिल-जुलकर काम करें। अभी शुरू-शुरू में पूजापाठ,
प्रचार आदि के रूप में कार्य आरंभ कर देना चाहिए। सभी के मिलने के लिए एक
स्थान चुन लो एवं प्रति सप्ताह वहाँ इकट्ठे होकर पूजा करो, साथ ही भाष्य
सहित उपनिषद् पढ़ो; इस तरह धीरे-धीरे काम और अध्ययन, दोनों करते जाओ।
तत्परता से काम में लगे रहने पर सब ठीक हो जाएगा।
अब काम में लग जाओ! जी. जी. का स्वभाव भावप्रधान है, तुम समबुद्धि के हो,
इसीलिए दोनों मिल-जुलकर काम करो। काम में लीन हो जाओ- अभी तो काम का आरंभ ही
हुआ है। प्रत्येक राष्ट्र को अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी; हिंदू धर्म के
पुनरुत्थान के लिए अमेरिका की पूँजी पर भरोसा न करो, क्योंकि वह एक भ्रम ही
है। मैसूर एवं रामनाड़ के राजा तथा दूसरे और लोगों को भी इस कार्य में
सहानुभूति हो, ऐसा प्रयत्न करो। भट्टाचार्य के साथ परामर्श करके कार्य आरंभ
कर दो। केंद्र बना सकना बहुत ही उत्तम बात होगी। मद्रास जैसे बड़े शहर में
इसके लिए स्थान प्राप्त करने का यत्न करो और संजीवनी शक्ति का चारों ओर
प्रसार करते जाओ। धीरे-धीरे आरंभ करो। पहले गृहस्थ प्रचारकों से श्रीगणश करो,
धीरे-धीरे वे लोग भी आयेंगे, जो इस काम के लिए अपना जीवन अर्पित कर देंगे।
शासक बनने की कोशिश मत करो-सबसे अच्छा शासक वह है, जो सबकी सेवा कर सकता है।
मृत्युपर्यंत सत्य-पथ से विचलित न होओ। हम काम चाहते हैं। हमें धन, नाम और
यश की चाह नहीं। कार्यारंभ इतना सुंदर हुआ है कि यदि इस समय तुम लोग कुछ न कर
सके, तो तुम लोगों पर मेरा बिल्कुल विश्वास नहीं रहेगा। अपने कार्य का
प्रारंभ अति सुंदर हुआ है। भरोसा रखो। जी. जी. को अपनी गृहस्थी के भरण-पोषण
के लिए कुछ करना तो नहीं पड़ता, फिर मद्रास में एक स्थायी स्थान का प्रबंध
करने के लिए वह चंदा इकट्ठा क्यों नहीं करता? मद्रास में केंद्र स्थापित
करने के लिए जनता में रुचि पैदा करो और कार्य प्रारंभ कर दो। शुरू में प्रति
सप्ताह एकत्र होकर स्तोत्रपाठ, शास्त्र-पाठ आदि से प्रारंभ करो। पूर्णत:
नि:स्वार्थ बनो, फिर सफलता अवश्यंभावी है।
अपने कार्य की स्वाधीनता रखते हुए कलकत्ते के अपने श्रेष्ठ जनों के प्रति
संपूर्ण श्रद्धा-भक्ति रखना।
मेरी संतानों को आवश्यकता पड़ने पर एवं अपने कार्य की सिद्धि के लिए आग में
कूदने को भी तैयार रहना चाहिए। इस समय केवल काम, काम, काम! बाद में किसी समय
काम स्थगित कर किसने कितना किया है, यह देखेंगे। धैर्य, अध्यवसाय और
पवित्रता बनाये रखो।
मैं अभी हिंदू धर्म पर कोई पुस्तक नहीं लिख रहा हूँ। मैं केवल अपने विचारों
को स्मरणार्थ लिख लेता हूँ। मुझे मालूम नहीं कि मै उन्हें कभी प्रकाशित
कराऊँगा या नहीं। किताबों में क्या धरा है? दुनिया पहले ही बहुत सी मूर्खताओं
से भरी पड़ी है। यदि तुम वेदांत के आधार पर एक पत्रिका निकाल सको, तो हमारे
कार्य में सहायता मिलेगी। चुपचाप काम करो, दूसरों में दोष न निकालो। अपना
संदेश दो, जो कुछ तुम्हें सिखाना है, सिखाओ और वहीं तक सीमित रहो। शेष
परमात्मा जानते हैं।
मिशनरी लोगों को यहाँ कौन पूछता है? बहुत चिल्लाने के बाद वे लोग अब चुंप हुए
हैं। मुझे और समाचारपत्र न भेजो, क्योंकि मैं उनकी निंदा की ओर ध्यान नहीं
देता। इसी वजह से यहाँ मेरे बरे में लोगों की अच्छी धारणा है।
कार्य के अग्रसर होने के लिए कुछ शोर-गुल की आवश्यकता थी,वह बहुत हो चुका।
देखते नहीं, दूसरे लोग बिना किसी भित्ति के ही कैसे अग्रसर हो रहे है? और इतने
सुंदर तरीके से तुम लोगों का कार्य आरंभ हुआ है कि यदि तुम लोग कुछ न कर सके,
तो मुझे घोर निराशा होगी। यदि तुम सचमुच मेरी संतान हो, तो तुम किसी वस्तु से
न डरोगे, न किसी बात पर रूकोगे। तुम सिंहतुल्य होगे। हमें भारत को और पूरे
संसार को जगाना है। कायरता को पास न आने दो। मैं नाहीं न सुनूँगा, समझे?
मृत्यु पर्यंत सत्य-पथ पर अटल रहकर मेरे कथनानुसार कार्यरत रहना होगा, फिर
कार्य-सिद्धि अवश्यंभावी है। इसका सहस्य है गुरु-भक्ति, मृत्यु पर्यंत गुरु
में विश्वास। क्या यह तुममें है? मेरा पूर्ण विश्वास है कि यह तुममें है।
और तुम्हें यह भी विदित है कि मुझे तुम पर पूरा भरोसा है, इसलिए काम में लग
जाओ। सिद्धि अवश्यंभावी है। तुम्हें पग पग पर मेरा आशीर्वाद है; मेरी
प्रार्थना सदैव तुम्हारे साथ रहेगी। मेल से काम करो। हर एक के प्रति सहनशील
रहो। सभी से मुझे प्रेम है। सदैव मेरी दृष्टि तुम पर है। आगे बढ़ो! आगे बढ़ो!
अभी तो आरंभ ही है। तुम जानते हो न कि मेरे यहाँ थोड़े से काम की भारत में
बड़ी गूँज सुनायी दे रही है? इसलिए मैं यहाँ से जल्दी नहीं लौटूँगा। मेरा
विचार स्थायी रूप से यहाँ कुछ कर जाने का है, और इस लक्ष्य को अपने आगे रखकर
मैं प्रतिदिन काम कर रहा हूँ। दिन-प्रतिदिन अमेरिकावासियों का मैं
विश्वासपात्र बनता जा रहा हूँ। अपने हृदय और आशाओं को संसार के समान
विस्तीर्ण कर दो। संस्कृत का अध्ययन करो, विशेषकर वेदांत के तीनों भाष्यों
का। तैयार रहो, क्योंकि भविष्य के लिए मेरे पास बहुत सी योजनाएँ हैं। आकर्षक
वक्ता बनने का प्रयत्न करो। लोगों में चेतना का संचार करो। यदि तुममें
विश्वास होगा, तो सब चीजें तुम्हें मिल जायेंगी। यही बात किडी से कह दो,
बल्कि वहाँ के मेरे सभी बच्चों से कह दो। समय पाकर वे बड़े काम करेंगे, जिसे
देखकर संसार आश्चर्य करेगा। निराश न होओ और काम करो। मुझे कुछ काम करके
दिखाओ- एक मंदिर, एक प्रेस, एक पत्रिका या हम लोगों के ठहरने के लिए एक मकान।
यदि मद्रास में मेरे ठहरने के लिए एक मकान का प्रबंध न कर सके, तो फिर मैं
वहाँ कहाँ रहूँगा? लोगों में बिजली भर दो! चन्दा इकट्ठा करो एवं प्रचार करो।
अपने जीवन के ध्येय पर दृढ़ रहो। अभी तक जो कार्य हुआ है, बहुत अच्छा हुआ
है, इसी तरह और कभी अच्छे और उससे भी अच्छे कार्य करते हुए आगे बढ़े चलो।
मेरा विश्वास है कि इस पत्र के उत्तर में तुम लिखोगे कि तुमन कुछ काम किया
है।
लोगों से लड़ाई न करों; किसी से वैर भाव मोल न लो। यदि नत्थू-खैरे जैसे लोग
ईसाई बनते है, तो हम क्यों बुरा मानें? जो धर्म उन्हें अपने मन के अनुकूल
जान पड़े, उसका अनुगामी उन्हें बनने दो। तुम्हें वाद-विवाद में पड़ने से
क्या मतलब? लोगों के भिन्न-भिन्न मतों को सहन करो। अंततोगत्वा
धैर्य,पवित्रता एवं अध्यवसाय की जीत होगी।
तुम्हारा,
विवेकानंद
(लाला गोविन्द सहाय को लिखित)
द्वारा जी. डब्ल्यू. हेल,
शिकागो, १८६४
प्रिय गोविन्द सहाय,
कलकत्ते के मेरे गुरुभाइयों के साथ तुम्हारा पत्र-व्यवहार है या नहीं?
चरित्र, आध्यात्मिकता ताथा सांसारिक विषयों में तुम्हारी उन्नति तो भली
भाँति हो ही रही होगी? ...तुमने संभव त: सुना होगा कि किस प्रकार मैं एक वर्ष
से भी अधिक समय से अमेरिका में हिंदू धर्म का प्रचार कर रहा हूँ। मैं यहाँ
सकुशल हूँ। जितनी जल्दी और जितनी बार चाहो, तुम मुझे पत्र लिख सकते हो।
सस्नेह,
विवेकानंद
(लाला गोविन्द सहाय को लिखित)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
१८६४
प्रिय गोविन्द सहाय,
...ईमानदारी ही सर्वोत्तम नीति है तथा धार्मिक व्यक्ति की विजय अवश्य
हागी। मेरे बच्चे, सदा इस बात को याद रखना कि मैं कितना भी व्यस्त, कितना
भी दूर अथवा कितने भी ऊँचे वर्ग के लोगों के साथ क्यों न रहूँ, मै अपने
प्रत्येक मित्र के लिए- चाहे उनमें से कोई अत्यधिक साधारण स्थिति का हर
क्यों न हो- सदा प्रार्थना एवं कल्याण-कामना करता रहता हूँ तथा उनको मैं
भूला नहीं हूँ।
आशीर्वाद सहित
तुम्हारा,
विवेकानंद
(स्वामी रामकृष्णानंद को लिखित)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
ग्रीष्म काल,
१८६४
प्रिय शशि,
तुम्हारे पत्रों से सब समाचार विदित हुए। बलराम बाबू की स्त्री का शोक-संवाद
पढ़कर मुझे बड़ा दु:ख हुआ। प्रभु की इच्छा! यह कार्यक्षेत्र है, भोगभूमि नही,
काम हो जाने पर सभी घर जाएंगे - कोई आगे, कोई पीछे। फ़कीर चला गया है, प्रभु
की इच्छा! श्री रामकृष्ण महोत्सव बड़ी धूमधाम से समाप्त हुआ, यह अच्छी
बात है। उनके नाम का जिना ही प्रचार हो, उतना ही अच्छा। परंतु एक बात याद
रखो: महापुरुष शिक्षा देने के लिए आते हैं, नाम के लिए नहीं; परंतु उनके चेले
उनके उपदेशों को पानी में बहाकर नाम के लिए विवाद करने लग जाते हैं- बस, यही
संसार का इतिहास है। लोग उनका नाम लें या न लें, इसकी मुझे जरा भी परवाह नहीं,
लेकिन उनके उपदेश, उनका जीवन और शिक्षाएँ जिस उपाय से भी संसार में प्रचारित
हों, उसके लिए प्राणों का बलिदान तक करने के लिए मैं प्रस्तुत रहूँगा। मुझे
अधिक भय पूजागृह का है। पूजागृह की बात बुरी नहीं, परंतु उसीको यथासर्वस्व
समझकर पुराने ढर्रे के अनुसार काम कर डालने की जो एक वृत्त्िा है, उसी से मैं
डरता हूँ। मैं जानता हूँ, वे क्यों पुरानी जीर्ण अनुष्ठान-पद्धतियों को लेकर
इतना व्यस्त हो रहे हैं। उनकी अंतरात्मा उत्कटता से काम चाहती हैं, किंतु
बाहर जाने का कोई दूसरा रास्ता न होने से वे अपनी सारी शक्ति घंटी हिलाने
जैसे कामों में गँवा रहे हैं।
तुम्हें एक नयी युक्ति बताऊँ। अगर इसे कार्यान्वित कर सको, तो समझूँगा कि तुम
सब 'आदमी' हो और काम के योग्य हो। सब मिलकर एक संगठित योजना बनाओ। कुछ कैमरे,
कुछ नक्शे, ग्लोब, कुछ रासायनिक पदार्थ आदि की आवश्यकता है। फिर तुम्हें
एक बडे मकान की जरूरत है। इसके बाद कुछ गरीबों को इकट्टा कर लेना है। इसके बाद
उन्हें ज्योतिष, भूगोल आदि के चित्र दिखलाओ और उन्हें श्री रामकृष्ण
परमहंस के उपदेश सुनाओ। किस देश में क्या क्या घटित हुआ, और क्या-क्या हो
रहा है, यह दुनिया क्या है, आदि बातों पर जिससे उनकी आँखे खुलें, ऐसी चेष्टा
करो। वहाँ जितने गरीब अनपढ़ रहते हों, सुबह-शाम या किसी समय भी उनके घर जाकर
उन्हें इसकी जानकारी दो। पोथी-पत्रों का काम नही- जबानी शिक्षा दो। फिर
धीरे-धीरे अपने केंद्र बढ़ाते जाओ- क्या यह कर सकते हो? या सिर्फ घटी हिलाना
ही आता है?
तारक दादा की बातें मद्रास से सब मालूम हो गयीं। वहाँ के लोग उनसे बहुत
प्रसन्न हैं। तारक दादा, तुम अगर कुछ दिन मद्रास में जाकर रहो, तो बड़ा काम
हो। परंतु वहाँ जाने के पूर्व इस कार्य का श्रीगणेश कर जाओ। स्त्री-भक्त
जितनी है, क्या विधवाओं को शिष्या नहीं बना सकतीं? और क्या तुम लोग उनके
मस्तिष्क में कुछ विद्या नहीं भर सकते? इसके बाद क्या उन्हें घर घर में
श्री रामकृष्ण का उपदेश देने और साथ ही पढ़ाने-लिखाने के लिए नहीं भेज सकते?
आओ! तन-मन से काम में लग जाओ। गप्पें लड़ाने और घण्टी हिलाने का जमाना गया
मेरे बच्चे, समझे? अब काम करना होगा। जरा देखूँ भी, बंगाली के धर्म की दौड़
कहाँ तक होती है। निंरजन ने लाटू के लिए गर्म कपड़े माँगे हैं। यहाँवाले गर्म
कपड़े यूरोप और भारत से मँगाते हैं। जो कपड़े यहाँ खरीदूँगा, वही कलकत्ते में
चौथाई कीमत में मिलेंगे। ...नहीं मालूम कि कब यूरोप जाऊँगा। मेरा सब कुछ
अनिश्चित है - यहाँ किसी तरह चल रहा हैं, बस, इतना ही जानना काफ़ी है।
यह बड़ा मजेदार देश है। गर्मी पड़ रही है, आज सुबह बंगाल के वैशाख जैसी गर्मी
थी, तो अभी इलाहाबाद के माघ जैसा जाड़ा। चार ही घंटे में इतना परिवर्तन! यहाँ
के होटलों की बात क्या लिखूँ? न्यूयार्क में एक होटल है, जहाँ ५००० रुपये तक
रोजाना एक कमरे का किराया है, खाने का खर्च अलग! भोग-विलास के मामले में ऐसा
देश यूरोप में भी नहीं है। यह देश निस्संदेह संसार में सबसे धनी है- रुपये
पानी की तरह खर्च होते हैं। मैं शायद ही कभी किसी होटल में ठहरता हूँ, प्राय:
मैं यहाँ के बड़े लोगों के अतिथि के रूप में ही ठहरता हूँ। उनके लिए मैं एक
बहुपरिचित व्यक्ति हूँ। प्राय: अब देश भर के आदमी मुझे जानते है। अत: जहाँ
कहीं जाता हूँ, लोग मुझे खुले हृदय से अपने घर में अतिथि बना लेते हैं। शिकागो
में भी हेल का घर मेरा केंद्र है, उनकी पत्नी को मैं माँ कहता हूँ, उनकी
कन्याएँ मुझे दादा कहती हैं, ऐसा महापवित्र और दयालु परिवार मैंने दूसरा नहीं
देखा। अरे भाई, अगर ऐसा न होता, तो इन पर भगवान की ऐसी कृपा कैसे होती? कितनी
दया है इन लोगों में! अगर खबर मिली कि एक गरीब फलाँ फलाँ जगह कष्ट में पड़ा
हुआ है, तो बस, ये स्त्री-पुरुष चल पड़ेंगे, उसे भोजन और वस्त्र देने के
लिए, किसी काम में लगा देने के लिए! और हम लोग क्या करते हैं!
ये लोग गर्मियों में घर छोड़कर विदेश अथवा समुद्र के किनारे चले जाते है। मैं
भी किसी जगह जाऊँगा, परंतु अभी स्थान तय नहीं किया है बाकी सब बातें जिस तरह
अंग्रेजों में दीख पड़ती है, वैसी ही यहाँ भी हैं। पुस्तकें आदि हैं सही, पर
क़ीमत बहुत ज्यादा है। उसी क़ीमत पर कलकत्ते में इसकी पाँच गुनी चीजें मिलती
है अर्थात यहाँवाले विदेशी माल यहाँ आने नहीं देना चाहते। ये अधिक महसूल लगा
देते है, इसीलिए सब चीजें बहुत ही महँगी बिकती हैं। और यहाँ वाले वस्त्रादि
का उत्पादन नहीं करते- ये कल-औज़ार आदि बनाते हैं और गेहूँ, रूई आदि पैदा
करते हैं, यही बस यहाँ सस्ते समझो।
वैसे यह बता दूँ कि आजकल यहाँ हिल्सा मछली खूब मिल रही है। चाहे जितना भी
खाओ, सब हज़म हो जाता है। यहाँ फल कई प्रकार के मिलते हैं- केले, संतरे,
अमरूद, सेब, बादाम, किशमिश, अंगूर खूब मिलते हैं। इसके अलावा बहुत से फल
कैलिफ़ोर्निया से आते हैं। अनन्नास भी बहुत हैं, परंतु आम, लीची आदि नहीं
मिलते।
एक तरह का साग है, उसे 'स्प्निाक' (spinach) कहते हैं, जिसे पकाने पर हमारे
देश के चौंराई के साग की तरह स्वाद आता है, और एक दूसरे प्रकार का साग, जिसे
ये लोग 'एस्पेरेगस' (asparagus) कहते हैं, वहाँ हमारे यहाँ के ठीक मुलायम
'डेंगो' (मर्सा) के डंठल की तरह लगता है, परंतु उससे हमारे यहाँ की चच्चड़ी
यहाँ नहीं बनायी जा सकती। उड़द की या दूसरी कोई दाल यहाँ नहीं मिलती, यहाँ
वाले उसे जानते तक नहीं। खाने में यहाँ भात, पावरोटी और मछली और गोश्त की
विभिन्न किस्में मिलती हैं। यहाँवाले का खाना फ्रांसीसियों का सा है। यहाँ
दूध मिलेगा, दही कभी-कभी मिलेगा, पर मट्ठा आवश्यकता से अधिक मिलेगा, क्रीम
सदा हर तरह के खाने में इस्तेमाल की जाती है। चाय में, कॉफ़ी में सब तरह के
खाने में वही क्रीम-मलाई नहीं- कच्चे दूध की बनती है। और मक्खन भी है, और
बर्फ़ का पानी- जाड़ा हो, चाहे गर्मी, दिन हो या रात, जुकाम हो, चाहे बुखार
आए- यहाँ बर्फ़ का पानी खूब मिलता है। ये विज्ञानवेत्ता मनुष्य ठहरे, बर्फ़
का पानी पीने से जुकाम बढ़ता है, सुनकर हँसते हैं। इनका कहना है कि इसे जितना
ही पियो, उतना ही अच्छा है। और आइसक्रीम की बात मत पूछो, तरह तरह के आकार की
बेशुमार। नियाग्रा ईश्वर की इच्छा से सात-आठ दफे़ तो देख चुका। निस्संदेह
बड़ा सुंदर है, परंतु जितना तुमने सुना है, उनता नहीं एक दिन जाड़े में 'अरोरा
बोरियालिस' (aurora borealis)
[6]
का भी दर्शन हुआ था।
सब बच्चों जैसी बातें हैं। मेरे पास इस जीवन में कम से कम ऐसी बातों के लिए
समय नहीं है। दूसरे जन्म में देखा जाएगा कि मैं कुछ कर सकता हूँ या नहीं।
योगेन शायद अब तक पूरी तरह से अच्छा हो गया होगा। मालूम होता है, शारदा का
बेकार घूमने का रोग अभी तक दूर नहीं हुआ। आवश्यकता है संघटन करने की शक्ति
की, मेरी बात समझे? क्या तुममें से किसी में यह कार्य करने की बुद्धि है? यदि
है, तो तुम कर सकते हो। तारक दादा, शरत् और हरि भी यह कार्य कर सकेंगे।- में
मौलिकता बहुत कम है, परंतु है बड़े काम का और अध्यवसायशील, जिसकी बड़ी जरूरत
है। सचमुच वह बड़ा कारगुज़ार आदमी है। ...हमें कुछ चेले भी चाहिए- वीर युवक-
समझे? दिमाग के तेज़ और हिम्मत के पूरे, यम का सामना करनेवाले, तैरकर समुद्र
पार करने को तैयार- समझे? हमें ऐसे सैकड़ों चाहिए- स्त्री और पुरुष, दोनों।
जी-जान से इसी के लिए प्रयत्न करो। जिस किसी तरह से भी चेले बनाओ और हमारे
पवित्र करने वाले साँचे में डाल दो।
...परमहंस देव नरेन्द्र को ऐसा कहते थे, वैसा कहते थे और इसी तरह की अन्य
बकवास भरी बातें 'इंडियन मिरर' से कहने क्यों गए? परमहंस देव को जैसे और कुछ
काम ही नहीं था, क्यों? केवल दूसरे की मन की बात भाँपना और व्यर्थ की
करामाती बातें फैलाना। ...सान्याल आया-जाया करता है