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पत्र संग्रह

पत्र-व्यवहार : 4

स्वामी विवेकानंद


(श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) ५४ पश्चिम ३३ वीं स्ट्रीट, न्यूयार्क २४ अप्रैल, १८९५ प्रिय मित्र, मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि थोड़े दिन से जो 'रहस्यवाद' पश्चिमी संसार में अकस्मात् आविर्भूत हुआ है, उसके मूल में यद्यपि कुछ सत्यता है, परंतु अधिकांश में वह हीन और उन्मादी प्रवृत्ति से प्रेरित है। इस कारण मैंने धर्म के इस अंग से कुछ संबंध नहीं रखा है—न भारत में, न कहीं और ही। और ये रहस्यवादी मेरे अनुकल भी नहीं हैं।... मैं तुमसे पूर्णतः सहमत हूँ कि, चाहे पूर्व में या पश्चिम में, केवल अद्वैत दर्शन ही मानव-जाति को 'शैतान-पूजा' एवं इसी प्रकार के जातीय कुसंस्कारों से मुक्त कर सकता है और वही मनुष्य को अपनी प्रकृति में प्रतिष्ठित कर उसे शक्तिमान बना सकता है। स्वयं भारत में इसकी इतनी आवश्यकता है, जितनी की पश्चिम में, या कदाचित् वहाँ से भी अधिक। परंतु यह काम कठिन और दुःसाध्य है। पहले इसमें रुचि उत्पन्न करनी पड़ेगी, फिर शिक्षा देनी पड़ेगी, और अंत में समग्र प्रासाद का निर्माण करने में अग्रसर होना पड़ेगा। पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, विशाल बुद्धि और सर्वविजयी इच्छा-शक्ति। इन गुणों से संपन्न मुट्ठी भर आदमियों को यह काम करने दो और सारे संसार में क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएगा। पिछले वर्ष इस देश में मैंने बहुत सा कार्य व्याख्यान रूप में किया, प्रचुर मात्रा में प्रशंसा प्राप्त की, परंतु यह अनुभव हआ कि वह कार्य में अपने लिए ही कर रहा था। धीरज से चरित्र का गढ़ना, सत्यानुभव के लिए कठिन संघर्ष करना—मनुष्य-जाति के भावी जीवन पर इसी का प्रभाव पड़ेगा। इसलिए इस वर्ष मैं इसी दिशा में कार्य करने की आशा रखता हूँ-स्त्री-पुरुषों की एक छोटी सी मंडली को व्यावहारिक अद्वैत की उपलब्धि की शिक्षा देने की चेष्टा करना। मुझे मालूम नहीं कि कहाँ तक मुझे इस कार्य में सफलता प्राप्त होगी। यदि कोई अपने देश और संप्रदाय की अपेक्षा मनुष्य-जाति का भला करना चाहे, तो पश्चिम ही कार्य का उपयुक्त क्षेत्र है। मैं तुम्हारे पत्रिका संबंधी विचार से पूरी तरह सहमत हूँ। परंतु यह सब करने के लिए व्यवसायबुद्धि का मुझमें पूरा अभाव है। मैं शिक्षा और उपदेश दे सकता हूँ और कभी कभी लिख सकता हूँ। परंतु सत्य पर मुझे पूर्ण श्रद्धा है। प्रभु मुझे सहायता देंगे और मेरे साथ काम करने के लिए मनुष्य भी वे ही देंगे। मैं पूर्णतः शुद्ध, पूर्णतः निष्कपट और पूर्णतः निःस्वार्थी रहूँ—यही मेरी एकमेव इच्छा है। सत्यमेव जयते नानृतम्। सत्येन पन्था विततो देवयानः।—-सत्य की ही केवल विजय होती है, असत्य की नहीं। ईश्वर की ओर जाने का मार्ग सत्य में से है।' (अथर्ववेद) जो निजी क्षुद्र स्वार्थ को संसार के कल्याणार्थ त्यागता है, वह संपूर्ण सृष्टि को अपनाता है।...मैं इंग्लैंड आने के विषय में अनिश्चित हूँ। मैं वहाँ किसी को नहीं जानता, और यहाँ कुछ कार्य कर रहा हूँ। प्रभु अपने नियत समय पर मेरा पथ-प्रदर्शन करेंगे। तुम्हारा, विवेकानंद (श्री ई० टी० स्टर्डी को लिखित) १९ पश्चिम ३८ वीं स्ट्रीट, न्यूयार्क प्रिय मित्र, तुम्हारा अंतिम पत्र यथासमय मिला। इसी अगस्त महीने के अंत में यूरोप जाने की व्यवस्था पहले ही हो चुकी थी, इसलिए तुम्हारे आमंत्रण को मैं तो भगवान का ही आह्वान समझता हूँ। सत्यमेव जयते नानृतम्। सत्येन पन्था विततो देवयानः। मिथ्या का कुछ पुट रहने पर सत्य का प्रचार सहज ही संभव है—-ऐसी जिनकी धारणा है, वे भ्रांत है। समय आने पर वे पायेंगे कि विष की एक बूंद भी सारे खाद्य पदार्थ को दूषित कर देती है।... जो पवित्र तथा साहसी है, वही जगत् में सब कुछ कर सकता है। माया-मोह से प्रभु सदा तुम्हारी रक्षा करें। मैं तुम्हारे साथ काम करने के लिए सदैव प्रस्तुत हूँ एवं हम लोग यदि स्वयं अपने मित्र रहें तो प्रभु भी हमारे लिए सैकड़ों मित्र भेजेंगे, आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः। हमेशा यूरोप सामाजिक तथा एशिया आध्यात्मिक शक्तियों का उद्गम-स्थल रहा है एवं इन दोनों शक्तियों के विभिन्न प्रकार के सम्मिश्रण से ही जगत् का संपूर्ण इतिहास बना है। वर्तमान मानवेतिहास का एक और नवीन पृष्ठ धीरे-धीरे विकसित हो रहा है एवं चारों ओर उसी का चिह्न दिखायी दे रहा है। सैकड़ों नयी योजनाओं का उद्भव तथा नाश होगा, किंतु योग्यतम ही जीवित रहेगा और सत्य और शिव की अपेक्षा योग्यतम और हो ही क्या सकता है ? तुम्हारा, विवेकानंद (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) न्यूयार्क, ५४ पश्चिम ३३वीं स्ट्रीट, २५ अप्रैल, १८९५ प्रिय श्रीमती बुल, परसों मुझे कुमारी फ़ार्मर का कृपा-पत्र मिला, उसके साथ बार्बर-हाउस के भाषणों के लिए सौ डॉलर का एक 'चेक' भी प्राप्त हुआ। आगामी शनिवार को वे न्यूयार्क आ रही हैं। अवश्य ही मै उनसे उनकी भाषण-विज्ञप्ति में अपना नाम न रखने के लिए कहूँगा। इस समय मेरे लिए ग्रीनेकर जाना असंभव है। सहस्रद्वीपोद्यान (Thousand Islands) जाने की मैं व्यवस्था कर चुका हूँ—चाहे वह स्थान कहीं भी क्यों न हो। वहाँ पर मेरी एक छात्रा कुमारी डचर का एक 'कॉटेज' है। अपने कुछ साथियों तथा कुछ शिष्यों के साथ वहाँ एकांत में रहकर मैं शांतिपूर्वक विश्राम लेना चाहता हूँ। मेरे क्लास में जो लोग शामिल होते हैं उनमें से कुछ व्यक्तियों को मैं योगी बनाना चाहता हूँ। ग्रीनेकर जैसा कर्मव्यस्त मेला सा स्थान उसके लिए सर्वथा अनुपयुक्त है, जबकि दूसरा स्थान (सहस्रद्वीपोद्यान) बस्ती से बिल्कुल दूर है, कोई केवल मात्र कौतुक एवं आनंदप्रिय व्यक्ति वहाँ पहुँचने का साहस न करेगा। मैं इसलिए बेहद प्रसन्न हूँ कि कुमारी हैमलिन ने, ज्ञानयोग के क्लास में जो लोग शामिल होते थे, ऐसे १३० व्यक्तियों के नाम लिख रखे हैं। इसके अलावा ५० व्यक्ति बुधवार के दिन योग के क्लास मैं तथा प्रायः ५० व्यक्ति सोमवार के क्लास में भी आते हैं। श्री लैंडसबर्ग ने सब नाम लिख रखे थे—चाहे नाम हो या न हो-वे सभी शामिल होंगे। श्री लैंडसबर्ग मुझसे अलग हो गए हैं, किंतु उन नामों को यहीं मेरे पास छोड़ गए हैं, वे लोग सभी शामिल होंगे—और यदि वे शामिल न भी हों, तो और लोग आयेंगे, अतः कार्य इस प्रकार चलता रहेगा—प्रभु, सब कुछ तुम्हारी ही महिमा है !! इसमें कोई संदेह नहीं कि नाम लिख रखना तथा सूचना देना एक बड़ा भारी कार्य है और इस कार्य को करने के लिए मैं उन दोनों का अत्यंत आभारी हूँ। किंतु मैं यह अच्छी तरह से जानता हूँ कि दूसरों पर निर्भर रहना एकमात्र मेरे निजी आलस्य का फल है, इसलिए वह अधर्म है एवं आलस्य के द्वारा ही सदा अनिष्ट हुआ करता है। अतः अब मैं उन सभी कार्यों को स्वयं कर रहा हूँ तथा आगे भी सब कुछ स्वयं ही करता रहूँगा, जिससे भविष्य में दूसरों को अथवा मुझे स्वयं उद्विग्न न होना पड़े। अस्तु, कुमारी हैमलिन के 'उपयुक्त व्यक्तियों’ में से किसी भी एक को अपने साथ शामिल करने में मुझे प्रसन्नता ही होगी, किंतु दुर्भाग्य है कि अभी तक ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं आया। अत्यंत 'अनुपयुक्त' व्यक्तियों में से 'उपयुक्त' का निर्माण करना ही आचार्य का सदा से कर्तव्य रहा है। अंततोगत्वा यद्यपि मैं उस संभ्रात युवती कुमारी हैमलिन का अत्यंत ही आभारी हूँ, क्योंकि उन्होंने न्यूयार्क के 'उपयुक्त' व्यक्तियों के साथ मेरा परिचय करा देने की आशा दिलायी थी तथा उत्साह प्रदान किया था तथा यथार्थ रूप से मेरे कार्यों में सहायता भी की थी, फिर भी मैं यह उचित्त समझता हूँ कि मेरा जो भी कुछ थोड़ा-बहुत कार्य है, उसे अपने ही हाथों करूँ। दूसरों की सहायता लेने का समय अभी उपस्थित नहीं हुआ है—क्योंकि कार्य अभी स्वल्प है। उक्त कुमारी हैमलिन के बारे में आपकी धारणा बहुत ऊँची है—इससे मैं आनंदित ही हूँ। आप उसकी सहायता करना चाहती हैं, यह जानकर चाहे और लोगों को प्रसन्नता हुई हो या नहीं, मुझे तो विशेष प्रसन्नता हुई, क्योंकि उसके लिए सहायता की आवश्यकता है। किंतु माँ, श्री रामकृष्ण की कृपा से किसी व्यक्ति के चेहरे की ओर देखते ही मैं अपने सहज ज्ञान से तत्काल ही यह भाँप लेता हूँ कि वह व्यक्ति कैसा है और मेरी धारणा प्रायः ठीक हुआ करती है। उसका परिणाम यह हुआ है कि आप अपनी इच्छानुसार मेरे विषय में जो चाहें, कर सकती हैं, मैं भन्नाऊँगा भी नहीं;—मैं केवल कुमारी फ़ार्मर की सलाह लेने में प्रसन्न ही रहूंगा, चाहे भूत-प्रेत की ही बात हो। इन भूत-प्रेतों के पीछे मैं पाता हूँ एक प्रेम गंभीर हृदय, जिस पर प्रशंसनीय उच्चाभिलाष का एक सूक्ष्म परदा पड़ा हुआ है—कुछ वर्षों में उसका भी नाश अवश्यंभावी है। यहाँ तक कि लैंडसबर्ग भी यदि मेरे कार्यों में बीच-बीच में हस्तक्षेप करे, तो भी मैं उससे किसी प्रकार की आपत्ति न करूँगा, किंतु इस विषय को मैं यहाँ तक ही सीमित रखना चाहता हूँ। इनके अलावा मेरी सहायता के लिए और किसी व्यक्ति के अग्रसर होने पर मैं बहुत डर जाता हूँ—सिर्फ़ मैं इतना ही कह सकता हूँ। इसलिए नहीं कि आप मेरी सहायता कर रही हैं, किंतु मैं अपने सहज ज्ञान से (अथवा जिसे मैं अपने गुरु महाराज की अंतःप्रेरणा कहा करता हूँ) आपकी अपनी माता की तरह श्रद्धा करता हूँ। अतः जहाँ तक मेरा व्यक्तिगत संबंध है, आप मुझे जो भी कुछ सलाह देंगी, मैं सदा उसका पालन करूँगा। यदि आप किसी को माध्यम बनाना चाहें, तो मैं प्रार्थना करता हूँ कि चुनाव करने के लिए मुझे स्वेच्छा से छोड़ दें। इत्यलम्। उस अंग्रेज़ सज्जन का पत्र भी इसके साथ मैं भेज रहा हूँ। हिंदुस्तानी शब्दों को समझाने के लिए पत्र के हाशिये पर मैंने कुछ टिप्पणियाँ दे दी हैं। आपका आज्ञाकारी पुत्र, विवेकानंद पु०—कुमारी हैमलिन अभी तक नहीं पहुँची हैं। उनके आने पर मैं संस्कृत की पुस्तकें भेज दूंगा। क्या उन्होंने भारत के बारे में श्री नौरोजीकृत कोई ग्रंथ आपको भेजा है ? यदि आप अपने भाई साहब को उसे आद्योपांत पढ़ने के लिए कहें, तो मुझे बहुत ही प्रसन्नता होगी। गाँधी अब कहाँ हैं ? विवेकानंद (कलकत्ते के एक व्यक्ति को लिखित) ५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो, २ मई, १८९५ भाई, तुम्हारे अनुकंपापूर्ण सुंदर पत्र को पढ़कर मुझे अत्यंत ही प्रसन्नता हुई। हम लोगों के कार्य का तुमने जो सादर अनुमोदन किया है, तदर्थ तुमको असंख्य धन्यवाद। श्रीयुत नाग महाशय एक महान पुरुष हैं। ऐसे महात्मा की कृपा जब तुम पर हुई है, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम महाभाग्यशाली हो। महापुरुषों का कृपालाभ करना ही जीवन के लिए सर्वोच्च सौभाग्य की बात है। तुम उस सौभाग्य के अधिकारी बने हो। मद्भक्तानाञ्च ये भक्तास्ते में भक्ततमा मताः, उनके एक शिष्य को जब तुमने अपने जीवन के मार्गप्रदर्शक के रूप में पाया है, तो जान लेना कि तुमने उन्हीं को पा लिया है। अब संसार त्यागने का तुमने निश्चय किया है। तुम्हारी इस इच्छा के साथ मेरी सहानुभूति है। स्वार्थ-त्याग से बढ़कर जगत् में और कुछ भी नहीं है। किंतु तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपने हृदय की प्रबल आकांक्षा का दमन करना उनके कल्याण के लिए, जो तुम्हारे ऊपर निर्भर हैं, भी कम बड़ा बलिदान नहीं है। श्री रामकृष्ण के उपदेश तथा उनके निष्कलंक जीवन का अनुसरण करो और उसके बाद अपने परिवार के सुख की ओर ध्यान दो। तुम अपने कर्तव्य का पालन करते रहो, शेष प्रभु पर छोड़ दो। प्रेम मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद नहीं उत्पन्न करता; चाहे आर्य और म्लेच्छ हो, चाहे ब्राह्मण और चांडाल हो, यहाँ तक कि नर और नारी में भी। समग्र विश्व को प्रेम अपने घर जैसा बना लेता है। वास्तविक उन्नति धीरे-धीरे होती है। किंतु निश्चित रूप से। जो सच्चे हृदय से भारतीय कल्याण का व्रत ले सकें तथा उसे ही जो अपना एकमात्र कर्तव्य समझें—ऐसे युवकों के साथ कार्य करते रहो। उन्हें जाग्रत करो, संगठित करो तथा उनमें त्याग का मंत्र फेंक दो। भारतीय युवकों पर ही यह कार्य संपूर्ण रूप से निर्भर है। आज्ञा-पालन के गुण का अनुशीलन करो, लेकिन अपने धर्मविश्वास को न खोओ। गुरुजनों के अधीन हुए बिना कभी भी शक्ति केंद्रीभूत नहीं हो सकती, और बिखरी हुई शक्तियों को केंद्रीभूत किए बिना कोई महान कार्य नहीं हो सकता। कलकत्ते का मठ प्रमुख केंद्र है; सभी दूसरी शाखाओं के सदस्यों को चाहिए कि केंद्र की नियमावली के अनुसार एक साथ मिलकर दत्तचित्त होकर कार्य करें। ईर्ष्या तथा अहंभाव को दूर कर दो—संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो। हमारे देश में इसकी बहुत बड़ी आवश्यकता है। शुभाकांक्षी, विवेकानंद पु०—-श्रीयुत नाग महाशय से मेरे असंख्य साष्टांग प्रणाम कहना। (हेल बहनों को लिखित) न्यूयार्क, ५ मई, १८९५ प्यारी बच्चियो, मैंने जो आशा की थी, वही हुआ। यद्यपि प्रो० मैक्समूलर ने हिंदू धर्म पर अपनी सभी गण्य रचनाओं पर एक अपमानजनक मन्तव्य जोड़ा है, किंतु मैंने हमेशा यह सोचा है कि अंततः उन्हें अवश्य ही पूर्ण सत्य के दर्शन होंगे। जितना शीघ्र हो सके, तुम उनकी अंतिम पुस्तक 'वेदांतवाद' की एक प्रति उपलब्ध करो। तुम समझ जाओगी कि उन्होंने पुनर्जन्म के पूरे सिद्धांत को आत्मसात कर लिया है। निश्चय ही तुम्हें समझने में कुछ कठिनाई नहीं होगी; क्योंकि अब तक मैं जो तुम्हें बतलाता रहा हूँ, उसका वह एक अंश भर है। कई स्थलों पर शिकागो के मेरे निबंध का भी तुम्हें आभास मिलेगा। मुझे प्रसन्नता है कि उस वृद्ध पुरुष ने सत्य का दर्शन कर लिया है, क्योंकि आधुनिक अनुसंधान और विज्ञान के युग में धर्म समझने का वही एकमात्र उपाय है। आशा है, तुम 'टॉड का राजस्थान' का आनंद ले रही होंगी। सस्नेह तुम्हारा भाई, विवेकानंद पुनश्च-कुमारी मेरी कब बोस्टन आ रही है ? विवेकानंद (श्री आलसिंगा पेरुमल को लिखित) अमेरिका, ६ मई, १८९५ प्रिय आलासिंगा, आज सबेरे मुझे तुम्हारा पिछला पत्र और रामानुजाचार्य-भाष्य का पहला खंड मिला। कुछ दिनों पहले मुझे तुम्हारा दूसरा पत्र भी मिला था। श्री मणि अय्यर का पत्र भी मुझे मिल गया। मैं ठीक हूँ और उसी पुरानी रफ्तार से सब कुछ चल रहा है। तुमने श्री लंड के भाषणों के विषय में लिखा है। मैं नहीं जानता कि वह कौन है और कहाँ है। वह हो सकता है, चर्चों में व्याख्यान देता हों, क्योंकि उसके पास यदि बड़े प्लेटफ़ार्म होते, तो हम लोग उसे अवश्य सुनते। खैर, वह कुछ पत्रों में अपने भाषणों को प्रकाशित कराता है और उन्हें भारत भेजता है। शायद मिशनरी लोग इससे लाभ भी उठाते हैं। हाँ, तुम्हारे पत्रों से इतनी ध्वनि निकलती है। यहाँ पर जनता में इस विषय में किसी प्रकार की चर्चा नहीं है, जिससे आत्मपक्ष-समर्थन करना पड़े। क्योंकि ऐसा होने से यहाँ प्रतिदिन मुझे सैकड़ों लोगों से जाना पड़ेगा। क्योंकि अब यहाँ भारत की धूम मच गयी है, और डॉ० बरोज़ के साथ साथ कट्टर ईसाई और बाक़ी लोग इस आग को बुझाने में बेहद प्रयत्नशील हैं। दूसरी बात, भारत के विरुद्ध इन सभी कट्टर ईसाइयों के व्याख्यानों में मुझे लक्ष्य बनाकर खूब गाली-गलौज होनी चाहिए। कट्टर ईसाई नर-नारी जो मेरे विरुद्ध गंदी अफवाहें फैला रहे हैं, उन्हें थोड़ा भी सुनो, तो आश्चर्यचकित रह जाओ। अब, क्या तुम कहना चाहते हो कि इन स्वार्थी नर-नारियों के कायरतापर्ण और साविक आक्रमणों के विरुद्ध एक संन्यासी को निरंतर आत्मसमर्थन करता पडेगा? यहाँ मेरे कई एक बहुत प्रभावशाली मित्र हैं, जो बीच बीच में उनको करारा जवाब देकर बैठा देते हैं। फिर यदि हिंदू सब निद्रित अवस्था में रहेंगे, तो मै हिंदू धर्म का समर्थन करने में अपनी शक्ति क्यों क्षीण करूँ ? तुम तीस करोड आदमी वहाँ क्या कर रहे हो ? विशेषतः वे, जिन्हें अपनी विद्वत्ता आदि का अभिमान है ? तुम क्यों नहीं इस संग्राम का भार अपने कंधों पर लेते और मुझे केवल शिक्षा और प्रचार करने का अवकाश देते ? मैं अजनबी लोगों में रातोंदिन संघर्ष कर रहा हूँ... भारत से मुझे क्या सहायता मिलती है ? कभी संसार में कोई ऐसा देशभक्तिहीन राष्ट्र देखा है, जैसा कि भारत है ? अगर तुम यूरोप और अमेरिका में उपदेश देने के लिए बारह सुशिक्षित दृढ़चेता मनुष्यों को यहाँ भेज सको, और कुछ साल तक उन्हें यहाँ रख सको, तो इस भाँति राजनीतिक और नैतिक दृष्टि से, दोनों तरह की भारत की अपरिमित सेवा हो जाए। प्रत्येक मनुष्य जो नैतिक दृष्टि से भारत के प्रति सहानुभूतिशील है, वह राजनीतिक विषयों में भी उसका मित्र बन जाता है। बहुत से पश्चिमी राष्ट्र तुम्हें अर्धनग्न बर्बर समझते हैं। इसलिए वे तुम्हें कोड़े के बल पर सभ्य बनाना उचित्त समझते हैं। यदि तुम तीस करोड़ लोग मिशनरी लोगों की धमकियों में आ गए, तो तुम सब कायर हो और कुछ भी कहने के अधिकारी नहीं हो। दूर देश में एक आदमी अकेला क्या कर सकता है? जो मैंने किया भी है, उसके योग्य भी तुम नहीं हो। अमेरिकन पत्रिकाओं में अपने पक्ष-समर्थन संबंधी लेख तुम क्यों नहीं भेजते ? तुम्हें क्या बाधा है ? तुम कायरों की जाति—शारीरिक, नैतिक और आध्यात्मिक रूप से। तुम जानवर लोग, जिनके सामने दो ही भाव है—काम और कांचन—जैसे हो, तुम्हारे साथ वैसा ही बर्ताव किया जाना चाहिए। तुम ‘साहब लोगों' से, यहाँ तक कि मिशनरियों से भी डरते हो। और एक संन्यासी को जीवन भर लड़ाई में रत, हमेशा रत रहने देना चाहते हो। और तुम लोग बड़े काम करोगे, छिः। क्यों नहीं, तुममें से कुछ लोग एक सुंदर हिंदू धर्म-समर्थनयुक्त लेख लिखते और बोस्टन की 'ऐ रेना’ पब्लिशिंग कंपनी' को भेजते ? 'ऐ रेना' एक ऐसा पत्र है, जो खुशी से उसे प्रकाशित करेगा और शायद काफ़ी पैसा भी दे। इत्यलम। इस पर सोचो, जब तुम अहमक की तरह मिशनरियों से प्रलोभित होते हो! अब तक जितने हिंदू पश्चिमी देशों में गए हैं, उन्होंने प्रशंसा या धन के लोभ में अधिकतर अपने धर्म और देश का छिद्रान्वेषण ही किया है। तुम जानते हो कि नाम और यश ढूँढने में नहीं आया था। वह मुझे पर लादा गया है। मैं क्यों भारत में लौटकर जाऊँ? मेरी वहाँ कौन सहायता करेगा ? तुम लोग बच्चे हो, तुम लोग लड़कपन करते हो, कुछ जानते-बुझते नहीं। मद्रास में वे मनुष्य कहाँ हैं जो धर्म का प्रचार करने के लिए संसार त्याग देंगे? सांसारिकता तथा ईश्वर का साक्षात्कार साथ-साथ संभव नहीं। मैं ही एक व्यक्ति हूँ, जिसने अपने देश के पक्ष में बोलने का साहस किया है, और मैंने उन्हें ऐसे विचार प्रदान किए हैं, जिसकी आशा हिंदुओं से वे स्वप्न में भी न रखते थे। यहाँ पर बहुत से मेरे विरोधी है, किंतु मैं तुम लोगों की तरह कायर कभी भी नहीं हूँगा। इस देश में हज़ारों मेरे मित्र भी हैं और सैकड़ों मेरा आमरण अनुसरण करेंगे। प्रतिवर्ष वे बढ़ते जायेंगे और यदि मैं उनके साथ रहकर काम करता रहा, तो मेरे जीवन का ध्येय और धर्म का मेरा आदर्श पूरा होगा। यह तुम समझते हो? अमेरिका में जो सार्वजनीन मंदिर (Temple Universal) बनने वाला था, उसके विषय में मैं अब बहुत नहीं सुनता; परंतु फिर भी न्यूयार्क, जो अमेरिकन जीवन का केंद्र है, उसमें मैंने सुदृढ़ जड़ पकड़ ली है, और इसलिए मेरा काम चलता रहेगा। मैं अपने कुछ शिष्यों को, ग्रीष्म-काल के निमित्त बने हुए एक एकांत स्थान में ले जा रहा हूँ। वहाँ योग, भक्ति और ज्ञान में उनकी शिक्षा समाप्त होगी और फिर वे काम करने में सहायता कर सकेंगे। खैर, जो भी हो, मेरे बच्चों, मैंने तुम लोगों को बहुत डाँटा है; डाँटने की आवश्यकता भी थी। मेरे बच्चों, अब काम करो। एक माह के भीतर मैं पत्रिका के लिए कुछ धन भेज सकूँगा। हिंदू भिखारियों से भिक्षा मत माँगो। मैं अपने मस्तिष्क और बाहुबल द्वारा ही स्वयं सब करूंगा। मैं किसी मनुष्य से सहायता नहीं चाहता, चाहे वह यहाँ हो, या भारत में— श्री रामकृष्ण को अवतार मानने के लिए लोगों पर ज़ोर न दो। अब मैं तुम्हें अपने एक नूतन आविष्कार के विषय में बतलाऊँगा। समग्र धर्म वेदांत में ही है अर्थात् वेदांत दर्शन के द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत, इन तीन स्तरों या भूमिकाओं में है और ये एक के बाद एक आते हैं तथा मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति की क्रम से ये तीन भूमिकाएँ हैं। प्रत्येक भूमिका आवश्यक है। यही सार-रूप से धर्म है। भारत के नाना प्रकार के जातीय आचार-व्यवहारों और धर्ममतों में वेदांत के प्रयोग का नाम है 'हिंदू धर्म'। यूरोप की जातियों के विचारों में उसकी पहली भूमिका अर्थात् द्वैत का प्रयोग है 'ईसाई धर्म'। सेमिटिक (Semitic) जातियों में उसका ही प्रयोग है 'इस्लाम धर्म'। अद्वैतवाद ही अपनी योगानुभूति के आकार में हुआ 'बौद्ध धर्म'—इत्यादि, इत्यादि। धर्म का अर्थ है वेदांत; उसका प्रयोग विभिन्न राष्ट्रों के विभिन्न प्रयोजन, परिवेश एवं अन्यान्य अवस्थाओं के अनुसार विभिन्न रूपों में बदलता ही रहेगा। मूल दार्शनिक तत्व एक होने पर भी तुम देखोगे कि शैव, शाक्त आदि हर एक ने अपने अपने विशेष धर्ममत और अनुष्ठान-पद्धति में उसे रूपांतरित कर लिया है। अब अपनी पत्रिका में तुम इन तीन प्रणालियों पर अनेक लेख लिखो, जिनमें उसका सामंजस्य दिखाओ कि वे अवस्थाएँ कैसे एक के बाद एक क्रमानुसार आती हैं। उसके साथ-साथ धर्म के अनुष्ठानिक अंग को बिल्कुल दूर रखो; अर्थात दार्शनिक एवं आध्यात्मिक भाव का प्रचार करो और लोगों को अपने अपने अनुष्ठानों एवं क्रिया-कल्पादि में उसका प्रयोग करने दो। मैं इस विषय पर पुस्तक लिखना चाहता हूँ; इसलिए में तीनों भाष्य चाहता था परंतु अभी तक रामानुज-भाष्य का एक ही भाग मुझे मिला है। अमेरिकी थियोसॉफ़िस्ट दूसरों से अलग हो गए हैं और अब वे भारत से नफ़रत करते हैं। टुच्ची बात ! और इंग्लैंड के स्टर्डी ने, जो हाल में भारत गए थे और मेरे भाई शिवानंद से मिले थे, मुझे एक पत्र लिखा है, जिसमें वह जानना चाहता है कि मैं कब इंग्लैंड जा रहा हूँ। मैंने उसे एक अच्छी चिट्ठी लिखी है। बाबू अक्षयकुमार घोष के क्या हाल हैं ? मैंने उनके विषय में और अधिक कुछ नहीं सुना। मिशनरी लोगों और दूसरों को उनका प्राप्य दे दो। हममें से कुछ बहुत मज़बूत लोग उठे और भारत के वर्तमान धार्मिक पुनर्जागरण पर अच्छे ढंग से, एक सुंदर और ज़ोरदार लेख लिखें तथा कुछ अमेरिकी पत्रों में उसे भेजें। मैं उनमें से केवल एक या दो से अवगत हूँ। तुम तो जानते हो कि मैं कुछ विशेष लेखक नहीं हूँ। मुझे द्वार द्वार भीख माँगने का अभ्यास नहीं है। मैं चुपचाप बैठता हूँ और अपने आप जिस चीज़ को आना हो आने देता हूँ।— मेरे बच्चों, यदि मैं संसारी, पाखंडी होता, तो यहाँ पर एक बड़ा संघ स्थापित करने में बड़ी भारी सफलता प्राप्त करता! हाय ! यहाँ इतने ही में धर्म है; धन और उसके साथ नाम-यश की लालसा—यही है पुरोहितों का दल'; और धन के साथ काम का योग होने से होता है साधारण गृहस्थों का दल। मैं यहाँ मनुष्य-जाति में एक ऐसा वर्ग उत्पन्न करूँगा, जो ईश्वर में अंतःकरण से विश्वास करेगा और संसार की परवाह नहीं करेगा। यह कार्य मंद, अति मंद, गति से होगा। उस समय तक तुम अपना काम करो और मैं अपनी नौका को सीधा चलाकर ले जाऊँगा। पत्रिका को बकवादी न होना चाहिए; परंतु शांत, स्थिर और उच्च आदर्शयुक्त।— उत्तम और नियमित रूप से लिखनेवाले लेखकों का दल हुँढ लो। पर्णत: निःस्वार्थ हो, स्थिर रहो, और काम करो। हम बड़े बड़े काम करेंगे, डरो मत।—एक बात और है। सबके सेवक बनो। और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी यत्न न करो, क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी और इससे हर चीज़ बर्बाद हो जाएगी।—आगे बढ़ो। तुमने बहुत अच्छा काम किया के। हम अपने भीतर से ही सहायता लेंगे—अन्य सहायता के लिए हम प्रतीक्षा नहीं करते। मेरे बच्चे, आत्मविश्वास रखो, सच्चे और सहनशील बनो। मेरे दूसरे मित्रों के विरुद्ध मत जाओ। सबसे मिलकर रहो। सबको मेरा असीम प्यार। आशीर्वादपूर्वक सदैव तुम्हारा, विवेकानंद पु०-—यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे, तो तुम्हें सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढेगा।—यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले 'अहं' का नाश कर डालो। (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) ५४ पश्चिम ३३वाँ रास्ता, न्यूयार्क, ७ मई, १८९५ प्रिय श्रीमती बुल, कुमारी फ़ार्मर के साथ उक्त विषय को तय कर लेने के लिए आपको विशेष धन्यवाद। भारत से मुझे एक समाचारपत्र मिला है। उसमें डॉ० बरोज़ को भारत की ओर से जो धन्यवाद प्रदान किया गया था, उसका संक्षिप्त उत्तर छपा है; कुमारी थर्सबी उसे आपको भेज देंगी। कल मुझे भारत से मद्रास की अभिनंदन-सभा के सभापति का और एक पत्र मिला—उसमें उन्होंने अमेरिकावासियों को धन्यवाद प्रदान किया है, साथ ही मुझे भी एक अभिनंदन भेजा है। मैंने उनसे अपने मद्रासी मित्रों के साथ मिलकर कार्य करने के लिए कहा था। यह सज्जन मद्रास के नागरिकों में प्रधान हैं तथा उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश है-भारत में यह एक अत्यंत उच्च पद माना जाता है। न्यूयार्क में और दो भाषण दूंगा-ये भाषण 'माट' स्मृतिभवन के ऊपर की मंज़िल में होंगे। पहला भाषण आगामी सोमवार को होगा; उसका विषय होगा धर्म-विज्ञान। द्वितीय भाषण का विषय-'योग की युक्तिसंगत व्याख्या' रखा गया है। कुमारी थर्सबी मेरे क्लास में प्रायः आती हैं। श्री फ़्लान मेरे कार्यों में अब काफी हमदर्दी दिखा रहे हैं तथा उसके विस्तार के लिए यत्नशील हैं। लैंडसबर्ग नहीं आता है। मुझे ऐसी शंका होती है कि वह मुझ पर बहुत ही नाराज है। क्या कुमारी हैमलिन ने भारत की आर्थिक दशाविषयक पुस्तक आपको भेजी है ? मेरी इच्छा है कि आपके भाई साहब उस पुस्तक को पढ़ें तथा स्वयं यह अनुभव करें कि अंग्रेज़ी शासन का तात्पर्य भारत में क्या समझा जाता है। आपका चिरकृतज्ञ पुत्र, विवेकानंद (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) न्यूयार्क, १४ मई, १८९५ प्रिय आलसिंगा, तुम्हारी भेजी हुई पुस्तकें सकुशल आ पहुँची है, इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद। शीघ्र ही मैं तुम्हें कुछ रूपये भेज सकूँगा–यद्यपि यह राशि कुछ एक सौ से अधिक नहीं, फिर भी यदि मै जीवित रहा, तो समय समय पर कुछ भेजता रहूँगा। न्यूयार्क में अब मेरे प्रभाव का विस्तार हो गया है। मुझे कुछ कार्यकर्ताओं के समूह की मिलने की आशा है, जो यहाँ से मेरे चले जाने पर भी कार्य करते रहेंगे। मेरे बच्चे, तुम यह देख ही रहे हो कि अखबारी हो-हल्ले कितने निरर्थक हैं। मेरे लिए जाते समय अपने कार्यों का एक स्थायी असर यहाँ छोड़ जाना आवश्यक है। प्रभु के आशीर्वाद से यह कार्य जल्दी ही होगा। यद्यपि इसे आर्थिक सफलता नहीं कहा जा सकता, फिर भी जगत् की समग्र धनराशि से 'मनुष्य' कहीं अधिक मूल्यवान है। मेरे लिए तुम चिंतित न होना-प्रभु सदा मेरी रक्षा कर रहे हैं। इस देश में मेरा आना तथा इतना परिश्रम करना व्यर्थ नहीं जाएगा। प्रभु दयालु हैं; यद्यपि यहाँ पर ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जिन्होंने हर तरह से मुझे चोट पहुँचाने की चेष्टा की है, किंतु ऐसे लोग भी बहुत है, जो कि अंततः मेरे सहायक बनेंगे। अनंत धैर्य, अनंत पवित्रता तथा अनंत अध्यवसाय—-सत्कार्य में सफलता के रहस्य हैं। आशीर्वादपूर्वक सदैव तुम्हारा, विवेकानंद (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) द्वारा कुमारी मेरी फिलिप्स, १९ पश्चिम ३८ वाँ रास्ता, न्यूयार्क, २८ मई, १८९५ प्रिय आलासिंगा, मैं इसके साथ सौ डॉलर, जो कि अंग्रेज़ी मुद्रा के अनुसार २० पौण्ड, ८ शिलिंग, ७ पेन्स होते हैं, भेज रहा हूँ। आशा है, इसके द्वारा पत्र-प्रकाशन में तुम्हें कुछ सहायता मिलेगी, अनंतर क्रमशः और भी कुछ सहायता कर सकूंगा। आशीर्वादपूर्वक सदैव तुम्हारा, विवेकानंद पु०—उपर्युक्त पते पर शीघ्र ही उत्तर देना। अब से न्यूयार्क मेरा प्रधान केंद्र है। इस देश में अंत में मैं कुछ करने में समर्थ हुआ। (श्रीमती ओलि बल को लिखित) ५४ पश्चिम ३३ वाँ रास्ता, न्यूयार्क, मई १८९५, बहस्पतिवार प्रिय श्रीमती बुल, कुमारी थर्सबी को कल मैं २५ पौण्ड दे चुका हूँ। कक्षाएँ चल तो रही है, किंतु दु:ख के साथ यह लिखना पड़ता है कि यद्यपि उनमें विद्यार्थियों की संख्या अधिक है, फिर भी उनसे जो कुछ मिलता है, उससे मकान का किराया तक भी पूरा नहीं होता है। इस हफ्ते और कोशिश कर देखना है, नहीं तो छोड़ दूंगा। मैं इसी ग्रीष्म ऋतु में 'सहस्रद्वीपोद्यान' में अपनी एक छात्रा कुमारी डचर के यहाँ जा रहा है। भारत से वेदांत के विभिन्न भाष्य मेरे पास भेजे जा रहे हैं। इसी ग्रीष्म ऋतु में वहाँ रहकर वेदांत दर्शन की विभिन्न तीन प्रणालियों पर अंग्रेज़ी में एक ग्रंथ लिखने का मेरा विचार है; तदनंतर ग्रीनेकर जा सकता हूँ। कुमारी फ़ार्मर चाहती हैं कि इस ग्रीष्म ऋतु में मैं वहाँ भाषण करूँ। मैं यह निर्णय नहीं कर सका हूँ कि इसके उत्तर में मैं क्या लिखूं। आशा है कि आप किसी तरह से विषय को टाल देंगी-इस विषय में मैं पूर्णतया आप पर निर्भर हैं। प्रेस समिति (Press Association) के लिए 'अमरत्व' (immortality) पर लेख लिखने में इस समय मैं अत्यंत व्यस्त हूँ। आपका, विवेकानंद ५४ पश्चिम ३३, न्यूयार्क मई, १८९५ प्रिय-—, मैं आपको लिख ही रहा था कि मेरे विद्यार्थी सहायता लेकर मेरे पास आ गए। और अब कक्षाएँ निसंदेह सुचारु रूप से चला करेंगी। मैं इससे बहुत खुश हुआ, क्योंकि शिक्षण मेरे जीवन का एक अंग बन गया है —भोजन करने और साँस लेने के समान ही मेरे जीवन के लिए आवश्यक हो गया है। आपका, विवेकानंद पुनश्च—मैंने—के विषय में बहुत सारी बातें अंग्रेज़ी के एक समाचारपत्र 'बॉर्डरलैंड' में देखीं।—भारत में अच्छा कार्य कर रहे हैं, उससे हिंदू अपने ही धर्म को भली प्रकार समझने लगे हैं।—मुझे-के लेखन में कोई विद्वत्ता नहीं दिखायी देती— न ही उसमें मुझे कोई आध्यात्मिकता ही दीखती है। फिर भी जो संसार के हित के लिए कार्य करना चाहते हैं, ईश्वर उन्हें सफलता दे। दुनिया को किस सरलता से मक्कार लोग उल्लू बना सकते हैं, और सभ्यता के उदय से बिचारी मानवता के सिर पर कितनी कितनी प्रवंचनाओं की राशि लद चुकी है ! विवेकानंद (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) पर्सी, न्यू हैंपशायर, ७ जून, १८९५ प्रिय श्रीमती बुल, आखिर में मैं यहाँ पर श्री लेगेट के साथ हूँ। मुझे अपने जीवन में जितने सुंदर से सुंदर स्थान देखने को मिले है, यह स्थान उनमें से एक है। कल्पना कीजिए कि चारों ओर एक विशाल जंगल से आच्छादित पर्वतश्रेणियों के बीच में एक झील है-जहाँ हम लोगों के सिवा और कोई भी नहीं है। कितना मनोरम, निस्तब्ध तथा शांतिपूर्ण ! शहर के कोलाहल के बाद मुझे यहाँ पर कितना आनंद मिल रहा है, इसका अंदाज़ा आप सहज ही में लगा सकती हैं। यहाँ आकर मानो मुझे फिर नवीन जीवन प्राप्त हुआ है। मैं अकेला जंगल में जाता हूँ, गीता-पाठ करता हूँ तथा पूर्णतया सुखी हूँ। क़रीब दस दिन के अंदर इस स्थान को छोड़कर मुझे 'सहस्रद्वीपोद्यान' जाना है। वहाँ कुछ दिन एकांत में रहकर भगवान का ध्यान करने का विचार है। इस प्रकार की कल्पना ही मन को उन्नत बना देती है। भवदीय, विवेकानंद (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) अमेरिका, १८९५ (शरत्काल) प्रिय आलासिंगा, हम लोगों का कोई संघ नहीं है और न हम कोई संघ बनाना ही चाहते हैं। पुरुष अथवा महिला जो कोई भी जो कुछ शिक्षा प्रदान तथा जो कुछ भी उपदेश करना चाहें, उन कार्यों को करने के लिए वे पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं। यदि तुम्हारे अंदर भावना है, तो कभी भी लोगों को आकृष्ट करने में तुम असफल न रहोगे। हम कभी 'थियोसॉफ़िस्टों की कार्य-प्रणाली का अनुसरण नहीं कर सकते, इसका एकमात्र कारण यह है कि वे एक संघबद्ध संप्रदाय हैं और हम उस प्रकार के नहीं हैं। मेरा मूलमंत्र है-व्यक्तित्व का विकास। शिक्षा के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को उपयुक्त बनाने के सिवाय मेरी और कोई उच्चाकांक्षा नहीं है। मेरा ज्ञान अत्यंत सीमित है, मैं उस सीमित ज्ञान की शिक्षा बिना किसी संकोच के देता रहता हूँ। जिस विषय को मैं नहीं जानता हूँ उसके बारे में मैं यह स्पष्ट कह देता हूँ कि उक्त विषय में मेरा कोई ज्ञान नहीं है। थियोसॉफ़िस्ट, ईसाई, मुसलमान अथवा अन्य किसी व्यक्ति से संसार में लोगों को कुछ भी सहायता मिल रही है, यह सुनने से मुझे जो आनंद मिलता है, उसे मैं व्यक्त नहीं कर सकता। मैं तो एक संन्यासी हूँ— मैं अपने को सबका सेवक समझता हूँ, न कि गुरु।— यदि लोग मुझसे प्यार करना चाहें, तो प्यार करें और यदि वे मुझे घृणा की दृष्टि से देखना चाहें, तो देख सकते हैं, यह उनकी खुशी है। प्रत्येक व्यक्ति को अपना उद्धार स्वयं करना होगा-उसका कार्य उसी को करना होगा। मैं किसी से सहायता की भीख नहीं माँगता, न मैं किसी की दी हुई सहायता की उपेक्षा करता हूँ। न तो संसार में किसीसे सहायता लेने का कोई अधिकार मुझको है। जिस किसी ने मेरी सहायता की है या जो कोई भविष्य में ऐसा करेगा, यह मुझे पर उसकी उदारता है, मेरा अधिकार नहीं, और इस प्रकार मैं उसका सतत आभारी हूँ। जब मैंने संन्यास ग्रहण किया, अपना यह क़दम सोच-समझकर उठाया, यह जानते हुए कि यह शरीर भूख से पीड़ित होकर विनष्ट हो जाएगा। गरीब मेरे मित्र हैं, मैं गरीबों से प्रीति करता हूँ। मैं दरिद्रता को आदरपूर्वक अपनाता हूँ। जब कभी मुझे भोजन के बिना उपवास रखना पड़ता है, तब मैं आनंदित ही होता हूँ। मैं किसीसे सहायताप्रार्थी नहीं हूँ-उससे लाभ ही क्या है ? सत्य अपना प्रचार आप ही करेगा, मेरी सहायता के बिना वह विनष्ट नहीं हो सकता। सुख दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व— सुख-दुःख, लाभ-हानि जय-पराजय में समदृष्टि रखकर युद्ध में प्रवृत्त हो। इस प्रकार के अनंत प्रेम, सब अवस्थाओं में अविचलित साम्य भाव तया ईर्ष्या-द्वेष से सर्वथा मुक्ति-ये ही वे चीज़ें हैं, जिनसे सब कार्य हो सकता है। एकमात्र इसी से कार्य हो सकता है, अन्य किसी प्रकार से नहीं।— तुम्हारा, विवेकानंद (श्रीमती ओलि बुल को लिखित) ५४ पश्चिम ३३वाँ रास्ता, न्यूयार्क, जून, १८९५ प्रिय श्रीमती बुल, का अभी हाल में ही मैं घर पहुँचा हूँ। इस स्वल्पकालीन यात्रा से मैंने गाँव तथा पहाड़ों—ख़ासकर श्री लेगेट के न्यूयार्क प्रदेश स्थित ग्राम्य-निवास का आनंद लिया है। बेचारे लैंडसबर्ग इस मकान से चले गए हैं। वे अपना पता तक मुझे नहीं दे गए हैं। वे जहाँ कहीं भी जायँ-भगवान उनका मंगल करे। अपने जीवन में मुझे जिन दो-चार निष्कपट व्यक्तियों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे उनमें से एक हैं। सभी कुछ भले के लिए होता है। मिलन के बाद विच्छेद अवश्यंभावी है। आशा है कि मैं अकेला ही अच्छी तरह से कार्य कर सकूँगा। मनुष्य से जितनी कम सहायता ली जाती है, उतनी ही अधिक सहायता भगवान की ओर से मिलती है ! अभी-अभी मुझे लंदन के एक अंग्रेज़ महोदय का पत्र मिला-मेरे दो गुरुभाइयों के साथ कुछ दिन वे भारत के हिमालय प्रदेश में रह चुके हैं। उन्होंने मुझे लंदन बलाया है। आपको पत्र लिखने के बाद से ही मेरे छात्र मुझे सहायता पहुँचाने के लिए तत्पर हो उठे हैं और इसमें कोई संदेह नहीं कि अब मेरा क्लास अच्छी तरह से चलता रहेगा। इससे मैं अत्यंत आनंदित हूँ, क्योंकि शिक्षा प्रदान करना मेरे जीवन के लिए भोजन अथवा श्वास-प्रश्वास की तरह एक अत्यावश्यकीय कार्य बन चुका है। आपका स्नेहास्पद विवेकानंद पुनश्च-—'के संबंध में मुझे 'बार्डरलैंड' नामक एक अंग्रेज़ी समाचारपत्र में बहुत कुछ पढ़ने को मिला है। हिंदुओं को अपने धर्म से गुण-ग्रहण की शिक्षा प्रदान करती हुई वे भारत में निःसंदेह एक अच्छा कार्य कर रही हैं।— उक्त महिला के लेखों को पढ़कर उनमें मुझे कोई पांडित्य का परिचय नहा मिला।— अथवा किसी प्रकार की आध्यात्मिक भावना भी नहीं मिली। अस्तु, जो कोई भी जगत् का भला करना चाहे, भगवान उसकी सहायता करे। पाखंडी लोग कितनी आसानी से इस जगत को धोखे में डाल देते हैं! सभ्यता के प्राथमिक विकास-काल से लेकर भोली-भाली मानव-जाति पर न जाने कितना छल-कपट किया जा चुका है। विवेकानंद (कुमारी जोसेफ़िन मैक्लिऑड को लिखित) २१ पश्चिम ३४वाँ रास्ता, न्यूयार्क, जून, १८९५ प्रिय जो, तुम्हें निविड़ अनुभूति हो रही है, निश्चय ही वह कई आवरण हटा देगी। श्री लेगेट ने तुम्हारे फोनोग्राफ़ के विषय में बतलाया। मैंने उन्हें कुछ सिलीण्डर (cylinder) उपलब्ध करने को कहा है। किसी के फोनोग्राफ में उन सिलीण्डरों की सहायता से मैंने बात की। मैंने जो के पास उन्हें भेज देने को कहा, जिसके उत्तर में उसने कहा कि वह एक ख़रीद लेगा, क्योंकि मैं सदा जो के कहे अनुसार करता हूँ।' मुझे प्रसन्नता है कि उसके स्वभाव में इतना कवित्व छुपा हुआ है। आज मैं गर्नसी के साथ रहने जा रहा हूँ, क्योंकि डॉक्टर मेरी देख-भाल कर आरोग्य करना चाहता है।— अन्य चीज़ों की परीक्षा करने के बाद डॉ० गर्नसी मेरी नाडी देख रहे थे, जबकि अचानक लैंडसबर्ग, (जिसे घर आने से उसने मना कर दिया था) अदर आया और मुझे देखकर शीघ्र लौट गया। डॉ० गर्नसी खिलखिलाकर हँस पड़ा और कहा कि ऐसे समय पर आने के लिए उसे पुरस्कार देता, क्योंकि उसी समय रोग का कारण उसे मालूम हो गया था। इसके पूर्व मेरी नाड़ी एकदम नियमित थी, किंतु लैंडसबर्ग को देखते ही संवेगरहित हो गयी। निश्चय ही यह एक अधैर्य की अवस्था है। उसने मुझे डॉ० हेल्मर के इलाज में रहने के लिए ज़ोर दिया। वह सोचता है कि हेल्मर से मुझे बहुत स्वास्थ्य लाभ होगा और अभी मुझे इसी की आवश्यकता है। क्या वे उदार नहीं है ? आज शहर में ‘पवित्र गौ' देखने की आशा करता हूँ। कुछ दिन और न्यूयार्क में होऊँगा। हेल्मर चाहते हैं कि चार सप्ताह तक प्रति सप्ताह तीन बार मेरा उपचार होना चाहिए, फिर अगले चार सप्ताह तक दो बार प्रति सप्ताह और तब मैं एकदम ठीक हो जाऊँगा। अगर मैं बोस्टन जाता हूँ, तो वह मेरी सिफ़ारिश एक बहुत अच्छे उस्ताद (विशेषज्ञ) से कर देंगे। और उसे उक्त विषय पर सलाह भी देंगे। मैंने लैंडसबर्ग से कुछ प्रिय बातें कहीं और ऊपर माँ गर्नसी के पास चला गया, जिससे लैंडसबर्ग परेशानी से बच जाए। प्रभुपदाश्रित तुम्हारा, विवेकानंद (कुमारी मेरी हेल को लिखित) (भोजपत्र पर लिखा पत्र) पर्सी, नार्थ हिल, १७ जून, १८९५ प्रिय बहन, कल मैं कुमारी डचर, सहस्रद्वीपोद्यान न्यूयार्क के यहाँ जा रहा हूँ। तुम इन दिनों कहाँ हो? ग्रीष्म में तुम सब कहाँ रहोगी। अगस्त में मुझे यूरोप जाने की संभावना है। जाने से पहले मैं मिलने आऊँगा। इसलिए मुझे पत्र दो। भारत से किताबों और पत्रों की भी आशा करता हूँ। कृपया उन्हें कुमारी फिलिप्स, १९ पश्चिम ३८ वाँ रास्ता, न्यूयार्क के पते पर भेज दो। यह वही छाल है, जिस पर भारत में सभी धर्मग्रंथ लिखे जाते हैं। इसलिए मैं संस्कृत में लिख रहा हूँ: उमा-पति (शिव) सदा तुम्हारी रक्षा करें। तुम सबों का सदा शुभ हो— विवेकानंद (श्री एफ० लेगेट को लिखित) द्वारा कुमारी डचर, सहस्रद्वीपोद्यान, न्यूयार्क, निरमी १८ जन, १८९५ प्रिय मित्र, कुमारी स्टारगीज़ के जाने के एक दिन पूर्व मुझे उनका एक पत्र—५० डॉलर के चेक के साथ-मिला। प्राप्ति की सूचना-दूसरे ही दिन उनकी सेवा में प्रेषित करना संभव नहीं था। इसलिए आपसे निवेदन है कि मेरा हार्दिक धन्यवाद तथा धन-प्राप्ति की सूचना अपने पत्र में उन्हें दे दें। हमारा समय यहाँ आनंदपूर्वक कट रहा है। किंतु बांग्ला में एक कहावत है कि ढेंकी स्वर्ग जाए, तो वहाँ भी उसको धानकुटाई ही करनी पड़ती है। जो कुछ हो, मुझे बेहद परिश्रम करना पड़ता है। मैं अगस्त के प्रारंभ में शिकागो जा रहा हूँ। आप कब चल रहे हैं ? हमारे यहाँ के सभी मित्र आपका अभिवादन भेज रहे हैं। आपके लिए संपूर्ण आनंद, प्रसन्नता एवं स्वास्थ्य की आशा करता हूँ और उसके लिए सतत प्रार्थना करता हूँ। स्नेहाधीन, विवेकानंद (श्री सिंगारावेल मुदालिएर को लिखित) १९ पश्चिम ३८ वाँ रास्ता, न्यूयार्क, २२ जन, १८९५ प्रिय किडी, एक लाइन के बजाए मैं तुमको एक पूरा पत्र लिख रहा हूँ। मैं खुश हूँ कि तुम उन्नति कर रहे हो। तुम जो यह सोच रहे हो कि मैं अब भारत नहीं लौटूंगा-—यह तुम्हारी भूल है। मैं जल्द ही भारत लौट रहा हूँ। असफल होकर किसी विषय को त्याग देना, मेरी आदत नहीं है। यहाँ पर मैंने एक बीज बोया है, शीघ्र ही वह वृक्षरूप में परिणत होने को है और अवश्य होगा। केवल मुझे यह शंका है कि यदि शीघ्रता में आकर मैं उस पर ध्यान देना छोड़ दूं, तो उसकी अभिवृद्धि में बाधा पहुँचेगी। जहाँ तक जल्दी हो सके, तुम लोग पत्रिका प्रकाशित कर डालो। यहाँ के लोगों के साथ तुम्हारा संबंध स्थापित कर मैं शीघ्र ही भारत लौट रहा हूँ। मेरे बच्चे, कार्य करते चलो-रोम का निर्माण एक दिन में नहीं हुआ। मैं प्रभु के द्वारा परिचालित हो रहा हूँ, अतः अंत में सब कुछ ठीक ही होगा। सदा सदा के लिए तुम्हें मेरा प्यार, तुम्हारा, विवेकानंद (कुमारी मेरी हेल को लिखित) ५४ पश्चिम ३३वाँ रास्ता, न्यूयार्क, २२ जून, १८९५ प्रिय बहन, भारत से भेजे गए पत्र और पुस्तकों का पार्सल मुझे सुरक्षित मिल गया। श्री सैम के पहुँचने की ख़बर जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। मैं आश्वस्त हूँ कि वे विडर्स (bidders) से अच्छी तरह सचेत है। एक दिन रास्ते में सैम के एक मित्र से मेरी मुलाक़ात हुई। वह एक अंग्रेज़ है, जिसके नाम का अंत 'नी' से होता है। वह बहुत भद्र आदमी था। उसने कहा कि वह ओहियो में कहीं सैम के साथ उसी घर में रह रहा है। मैं अच्छी दशा में क़रीब क़रीब उसी पुराने ढंग से रह रहा हूँ। कभी इच्छा होने पर जब बोल सकता हूँ, बोलता हूँ और जब कि मौन रहने के लिए कहा जाता है, तो बलपूर्वक मौन रहता हूँ। मैं नहीं जानता कि क्या इस ग्रीष्म में ग्रीनेकर जा सकूँगा? किसी अन्य दिन कुमारी फ़ार्मर से मुलाक़ात हुई थी। वह जाने की जल्दी में थीं, इसलिए बहुत थोड़ी बात उनसे हो सकी। वह बड़ी ही भद्र और कुलीन महिला हैं। तुम्हारा ईसाई विज्ञान का पाठ कैसा चल रहा है ? आशा करता हूँ, तुम ग्रीनेकर जाओगी। वहाँ वैसे लोगों की एक बड़ी संख्या तथा साथ में प्रेतवादी, मेज़ आदि घुमाने की क्रिया, हस्तरेखा-पंडित, ज्योतिषी आदि तुम्हें मिलेंगे। वहाँ तुम्हें सभी उपचार मिल जायेंगे तथा कुमारी फ़ार्मर की अध्यक्षता में सभी वादों' का भी परिचय मिल जाएगा। लैंडसबर्ग किसी दूसरी जगह रहने के लिए चला गया है। इसलिए मैं अकेला हो गया हूँ। मैं अधिकतर बादाम, फल और दूध पर ही रह रहा हूँ और यह मुझे बहुत अच्छा और स्वास्थ्यकर भी लगता है। आशा करता हूँ कि इस ग्रीष्म में मेरा वज़न तीस या चालीस पौंड कम हो जाएगा। मेरे आकार के लिए वह बिल्कुल ठीक होगा। श्रीमती एडम्स द्वारा दिए गए टहलने से संबंधित पाठों को एकदम भूल गया हूँ। जब वह न्यूयार्क दुबारा आयेंगी, मुझे उन्हें पुनः सीखना होगा। मैं समझता हूँ, गाँधी बोस्टन से भारत के रास्ते इंग्लैंड गए हैं। मैं उनकी 'अभिभाविका' श्रीमती हावर्ड तथा उसकी असहाय अवस्था के बारे में जानना चाहूँगा। मुझे यह सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई है कि वह लँगोटी वाला अटलांटिक में डूबा नहीं, बल्कि अंततः पहुँच रहा है। इस वर्ष मैं मुश्किल से अपना मस्तिष्क स्वस्थ रख सका और व्याख्यान देते नहीं फिरा। भारतवर्ष से वेदांत दर्शन के तीन महान भाष्य द्वैत, विशिष्टाद्वैत, एवं अद्वैत, इन तीन महान संप्रदायों से जिनका संबंध है, मेरे पास भेजे जा रहे हैं। आशा करता हूँ, वे सुरक्षित पहँचेंगे। तब सचमुच मुझे एक बौद्धिक तृप्ति मिलेगी। इस ग्रीष्म में वेदांत दर्शन पर एक पुस्तक लिखने की सोचता हूँ। यह संसार सदा सुख और दुःख, शुभ और अशुभ का मिश्रण रहेगा; यह चक्र सदा नीचे-ऊपर चलता रहेगा, विनाश और प्रतिस्थापन अनिवार्य विधान है। वे धन्य हैं, जो इनसे परे जाने के लिए संघर्षरत है। हाँ, मुझे प्रसन्नता है कि सभी बच्चियाँ अच्छी तरह काम कर रही है, किंतु दुःख है कि इस शरद् में भी कोई 'पकड़' में नहीं आया, और प्रत्येक शरद् में अवसर क्षीण होता जाएगा। यहाँ मेरे आवास के निकट 'वाल्डोर्फ़ होटल' है, जो बहुत पदवीधारी किंतु दरिद्र यूरोपियनों की प्रदर्शनी का अड्डा है, जहाँ ‘यांकी' धनाधिकारिणियाँ उन्हें ख़रीद सकती हैं। तुम यहाँ कोई भी चुनाव कर सकती हो, स्टाक बहुत है और विविध है। यहाँ वैसा आदमी भी होता है, जो अंग्रेज़ी में बात नहीं करता, कुछ दूसरे ऐसे हैं, जो तुतलाते हुए बोलते हैं, जिसे कोई नहीं समझ सकता और अन्य अच्छी अंग्रेज़ी में बातें करते हैं, किंतु उनका संयोग उतना बड़ा नहीं होता है, जितना गूंगे लोगों का—लड़कियाँ उन्हें पूरा विदेशी नहीं समझतीं, जो साधारण अंग्रेज़ी बोलते हैं। एक अजीब पुस्तक में मैंने कहीं पढ़ा है कि एक अमेरिकन जहाज़ पानी भरने के कारण डूब रहा था, लोग हताश हो चुके थे और अंतिम सांत्वना के रूप में वे चाहते थे कि धार्मिक उपासना की जाए। जहाज़ पर एक 'अंकल जौश' थे, जो प्रेसबिटेरियन चर्च के गुरुजन थे। वे सभी अनुनय-विनय करने लगे, “अंकल जौश! कुछ धार्मिक उपचार करो। हम सभी लोग मरनेवाले हैं।" अंकल जोश ने अपना हैट अपने हाथ में लिया और शीघ्र ही उसने ढेर सा चंदा इकट्ठा कर लिया ! उतना ही वह धर्म के विषय में जानता था। ऐसे अधिकांश लोगों का क़रीब क़रीब यही लक्षण है। वे जानते हैं और सदा यही जानेंगे कि सभी धर्मों में चंदा ही इकट्ठा किया जाता है। प्रभु उन्हें सुखी रखे। अभी विदा-नमस्कार। मैं भोजन करने जा रहा हूँ; मुझे बहुत भूख लगी है। सस्नेह तुम्हारा, विवेकानंद (कुमारी मेरी हेल को लिखित) द्वारा कुमारी डचर, सहस्रद्वीपोद्यान, न्यूयार्क, २६ जून, १८९५ प्रिय बहन, भारत से आयी डाक के लिए बहुत धन्यवाद। उससे मुझे सारे अच्छे समाचार मिले। आत्मा की अमरता पर प्रो० मैक्समूलर के निबंधों का, जिसे मैंने मदर चर्च के पास भेजा था, तुम आनंद तो ले रही होगी। उस वृद्ध आदमी ने वेदांत की सभी प्रमुख बातों पर विचार किया है और साहसपूर्वक सामने आया है। दवाओं के पहुँचने की बात जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। क्या उसके लिए कुछ चुंगी देनी पड़ी? अगर वैसा है, तो मैं उसका मूल्य चुकाऊँगा, ऐसा मेरा आग्रह है। कुछ शाल (दुशाला), ज़रीदार कपड़ा और छोटे-मोटे सामानों का एक बड़ा पैकेट खेतड़ी के राजा के यहाँ से आयेगा। मैं विभिन्न मित्रों को उन्हें उपहारस्वरूप देना चाहता हूँ। किंतु मैं निश्चय जानता हूँ कि उसके आने में कुछ महीने लग जायेंगे। मुझे बार बार भारत आने को कहा जा रहा है, जैसा कि तुम भारत से आये पत्रों से जान जाओगी। वे हतोत्साह हो रहे हैं। अगर मैं यूरोप जाता हूँ, तो न्यूयार्क के श्री फ़ांसिस लेगेट के अतिथि के रूप में जाऊँगा। वे छः सप्ताह तक पूरा जर्मनी, इंग्लैंड, फ़्रांस और स्विटज़रलैंड का भ्रमण करेंगे। वहाँ से मैं भारत जाऊँगा या अमेरिका लौट आ सकता हूँ। मैंने यहाँ बीजारोपण किया है और चाहता हूँ कि वह फले-फूले। इस शरद् में न्यूयार्क का कार्य शानदार रहा और अगर मैं अचानक भारत चला जाता हूँ, तो वह बिगड़ जाएगा। अतः मैं शीघ्र भारत जाने के विषय में निश्चित नहीं हूँ। इस बार के सहस्रद्वीपोद्यान के अल्पवास में कुछ भी उल्लेख्य नहीं घटित हुआ है। दृश्य बहुत सुंदर हैं और यहाँ कुछ मित्र हैं, जिनसे आत्मा-परमात्मा पर खुलकर बातें होती हैं। मैं फल खाता हूँ, दूध पीता हूँ और इसी तरह की अन्य चीज़ें और वेदांत पर संस्कृत में विशद पुस्तकें पढ़ता हूँ, जिनको लोगों ने कृपापूर्वक भारत से भेजा है। अगर मैं शिकागो आता हूँ, तो कम से कम छ: सप्ताह या उससे कुछ अधिक के अंदर नहीं आ सकता। मेरे लिए बच्ची को अपनी योजना में परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। प्रस्थान करने से पहले किसी भी तरह तुम सबों से मिल लूंगा। मद्रास भेजे गए उत्तर के संबंध में तुमने बहुत शोर मचाया, किंतु उसका वहाँ ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा है। मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज के अध्यक्ष श्री मिलर के इधर के एक भाषण में मेरे विचार ही बहुत बड़े परिमाण में सन्निहित हैं। और उन्होंने घोषित किया है कि पश्चिम को भगवान और मनुष्य संबंधी विचारों के लिए हिंदू-विचार की आवश्यकता है और युवकों से जाकर प्रचार करने का भी आग्रह किया है। वास्तव में मिशन में उससे खलबली मच गयी है। तुमने जो 'एरेना' में प्रकाशित होने के संबंध में संकेत किया है, उसका कुछ भी अंश मैंने नहीं देखा। न्यूयार्क में मेरे संबंध में तो स्त्रियाँ कोई कोलाहल नहीं मचातीं। तुम्हारे मित्र ने अवश्य कल्पना से बात गढ़ी होगी। वे थोड़ा भी 'बॉसिंग टाइप' या प्रभुत्व जमानेवाले नहीं है। आशा है, फ़ादर पोप, और मदर चर्च भी यूरोप जायेंगी। यात्रा करना जीवन में सबसे अच्छी चीज़ है। अगर एक स्थान पर बहुत लंबे समय तक रहना पड़ा, तो भय है कि मेरी तो मृत्यु हो जाएगी। यायावरी वृत्ति से अच्छा कुछ भी नहीं है। जीवन-अंधकार जितना ही चारों तरफ़ बढ़ता है, लक्ष्य उतना ही निकट आता है, उतना ही अधिक आदमी जीवन का सही अर्थ समझता है कि यह एक स्वप्न है; और तब हम इसका अनुभव करने में प्रत्येक की व्यर्थता को समझने लगते हैं, क्योंकि उन्होंने किसी अर्थहीन वस्तु से अर्थ प्राप्त करने का प्रयत्न भर किया था। स्वप्न से सत्य पाने की इच्छा एक बालोचित्त उत्साह है। 'प्रत्येक वस्तु क्षणिक है', 'प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है'—यह जानकर, संत सुख और दुःख, दोनों का परित्याग कर देता है और किसी भी वस्तु के लिए आसक्ति न रखकर इस (विश्व), परिदृश्य का एक द्रष्टा बन जाता है। 'सचमुच उन लोगों ने इसी जीवन में स्वर्ग को जीत लिया है, जिनका मन समत्व में स्थित हो गया है।' 'भगवान पवित्र है और सबके लिए समान है, इसीलिए वे भगवान में स्थित कहे जाते हैं।' (गीता ५।१९) इच्छा, अज्ञान और असमानता, यही बंधन के त्रिविध द्वार है। जीने की इच्छा का निषेध, ज्ञान तथा समर्शिता मुक्ति के त्रिविध द्वार हैं। मुक्ति विश्व का ध्येय है। 'न प्रेम, न घृणा, न सुख, न दुःख, न मृत्यु, न जीवन, न धर्म, न अधर्म; कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ भी नहीं। सदा तुम्हारा, विवेकानंद (स्वामी रामकृष्णानंद को लिखित) संयुक्त राज्य अमेरिका, १८९५ कल्याणीय, तुम लोगों के एक पत्र में बहुत समाचार ज्ञात हुए। किंतु उसमें सब लोगों का विशेष समाचार नहीं है। निरंजन के पत्र से पता चला कि वह लंका जा रहा है। सारदा जो कुछ कर रहा है, वही मेरा अभिमत है; परंतु श्री रामकृष्ण परमहंस अवतार हैं, इत्यादि प्रचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जगत् के हित के लिए उनका आविर्भाव हुआ था, अपने ख्याति-विस्तार के लिए नहीं; तुम्हें इसे हमेंशा स्मरण रखना चाहिए। शिष्यवर्ग गुरु की ख्याति करते हैं, किंतु जिस बात की शिक्षा देने के लिए उनका आविर्भाव हुआ था, उसे वे एकदम त्याग देते है और उसका फल होता है दलबंदी इत्यादि। आलासिंगा ने चारु के विषय में लिखा है। लेकिन मुझे उसका स्मरण नहीं। उसके विषय में सब कुछ लिखो और उसे मेरा धन्यवाद दो। सभी के विषय में विस्तारपूर्वक लिखों; मेरे पास बेकार की बातों के लिए समय नहीं है।... कर्मकांड को त्यागने का प्रयास करना, वह संन्यासी के लिए नहीं है। जब तक ज्ञान की प्राप्ति न हो, तभी तक कर्म आवश्यक है। दलबंदी, गुटबंदी, कूपमंडूकता में मैं नहीं हूँ, चाहे और कुछ भी मैं क्यों न करूँ। रामकृष्ण परमहंस के सार्वलौकिक विचारों का उपदेश तथा उसी समय संप्रदाय का निर्माण असंभव है। एकमात्र परोपकार को ही मैं कार्य मानता हूँ, बाकी सब कुकर्म है। इसीलिए मैं भगवान की शरण लेता हूँ। मैं वेदांती हूँ, मेरी अपनी आत्मा का महान रूप सच्चिदानंद है, उसके अतिरिक्त और कोई दूसरा ईश्वर मेरी दृष्टि में प्रायः नहीं दिखायी दे रहा है। अवतार का अर्थ है, जीवन्मक्त अर्थात् जिन्होंने ब्रह्मात्व प्राप्त किया है। अवतारविषयक और कोई विशेषता मेरी दृष्टि में नहीं है। ब्रह्मादिस्तम्बपर्यंत सभी प्राणी समय आने पर जीवन्मुक्ति को प्राप्त करेंगे। उस अवस्थाविशेष की प्राप्ति में सहायक बनना ही हमारा कर्तव्य है। इस सहायता का नाम धर्म है, बाक़ी अधर्म है। इस सहायता का नाम कर्म है, शेष कुकर्म है; मुझे और कुछ नहीं दिखायी दे रहा है। विभिन्न प्रकार के तांत्रिक अथवा वैदिक कर्मों के द्वारा भी फल की प्राप्ति हो सकती है, किंतु उससे केवल मात्र व्यर्थ में ही जीवन नष्ट हो जाता है क्योंकि पवित्रतारूप कर्म-फल की प्राप्ति एकमात्र परोपकार से ही संभव है। यज्ञादि कर्मों से भोगादि की प्राप्ति संभव है, किंतु आत्मा की पवित्रता असंभव है। संन्यास लेकर जीव की उच्च गति की शिक्षा न देकर निरर्थक कर्मकांड में रत रहना, मेरी राय में दूषणीय है। प्राणिमात्र की आत्मा में सब कुछ विद्यमान है। जो अपने को मुक्त कहता है, वही मुक्त होगा जो यह कहता है कि मैं बद्ध हूँ, वह बद्ध ही रहेगा। मेरे मतानुसार अपने को दीन-हीन समझना पाप तथा अज्ञता है। नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः। अस्ति ब्रह्मा वदसि चेदस्ति भविष्यसि, नास्ति ब्रह्मा वदसि चन्नास्त्येव भविष्यसि। जो सदा अपने को दुर्बल समझता है, वह कभी भी शक्तिशाली नहीं बन सकता; और जो अपने को सिंह समझता है, वह निर्गच्छति जगज्जालात् पिञ्जरादिव केशरी। दूसरी बात यह है कि श्री रामकृष्ण परमहंस किसी नवीन तत्व को प्रचार करने के लिए आविर्भूत नहीं हुए थे, किंतु उसे प्रकाश में लाना उनका उद्देश्य था। अर्थात He was the embodiment of all past religious thoughts of India. His life alone made me understand what the Shastras really meant and the whole plan and scope of the old Shastras. मिशनरियों का उद्देश्य इस देश में सफल न हो सका। भगवदिच्छा से यहाँ के लोग मुझसे स्नेहभाव रखते हैं, ये किसी की बातों में आनेवाले नहीं हैं। मेरे ideas (विचारों) को ये लोग जितना अधिक समझते हैं, उतना मेरे देशवासी भी नहीं समझ पाते, साथ ही ये लोग अत्यंत स्वार्थी भी नहीं हैं। यानी जब कोई कार्य करना होता है, तब ये लोग jealousy (ईर्ष्या) तथा बड़प्पन आदि भावनाओं को अपने पास नहीं फटकने देते। इस समय सब लोग मिल-जुलकर किसी योग्य अनुभवी व्यक्ति के निर्देशानुसार कार्य करते हैं। इसी से ये लोग इतने उन्नत हैं। किंतु ये लोग 'धनदेवता' के उपासक है, हर बात में पैसे का ही प्राधान्य है; हमारे देश के लोग धन के विषय में अत्यंत उदार हैं, किंतु इन लोगों में उस प्रकार की उदारता नहीं है। सर्वत्र कंजूसी है और इसे धर्म माना जाता है। किंतु अनुचित्त आचरण करने पर उन्हें पादरियों के चक्कर में आना पड़ता है, तब धन देकर स्वर्ग पहुँचते हैं ! ऐसी घटनाएँ प्रायः सभी देशों में समान हैं, इसीका नाम है— priest-craft (पुरोहित-प्रपंच)। मैं कब तक भारत लौटूंगा अथवा नहीं-इस बारे में कुछ भी नहीं कह सकता। मेरे लिए तो यहाँ भी भ्रमण करना है और वहाँ भी। किंतु यहाँ पर हज़ारों व्यक्ति मेरी बातें सुनते हैं, समझते हैं-हज़ारों व्यक्तियों का भला होता है; मगर क्या यही चीज़ भारत के विषय में कही जा सकती है ? मैं सारदा के कार्यों से पूर्णतया सहमत हूँ। उसे शतशः धन्यवाद ! मद्रास तथा बम्बई में मेरे मनोनुकूल अनेक व्यक्ति हैं। वे विद्वान् हैं तथा सभी बातों को समझते हैं, साथ ही दयालु भी हैं; अतः परहितचिकीर्षा क्या वस्तु है—यह भली भाँति समझ सकते हैं।— मेरे जीवन की अतीत घटनाओं की पर्यालोचना से मुझे किसी प्रकार का अनुताप नहीं होता। लोगों को कुछ न कुछ शिक्षा देते हुए मैंने विभिन्न देशों का पर्यटन किया है और उसके बदले रोटियों के टुकड़ों से अपनी उदरपूर्ति की है। यदि मैं यह देखता कि लोगों को ठगने के सिवाय मैंने और कुछ भी कार्य नहीं किया है, तो आज स्वयं अपने गले में फाँसी लगाकर मैं मर जाता। लोगों को शिक्षा देने में जो अपने को अयोग्य समझते हैं, ऐसे लोग शिक्षकों का चोगा पहनकर क्यों दूसरों को ठगकर अपना पेट भरते हैं ? क्या यह महापाप नहीं है ? ... इति। तुम्हारा, नरेंद्र (श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित) अमेरिका, १ जुलाई, १८९५ प्रिय आलासिंगा, तुम्हारी भेजी हुई मिशनरियों की पुस्तक के साथ रामनाड़ के राजा साहब का फोटो मुझे मिला। राजा साहब तथा मैसूर के दीवान साहब, इन दोनों को ही मैंने पत्र लिखा है। रमाबाई के दल के लोगों के साथ डॉ० जेन्स के वाद-विवाद से यह स्पष्ट है कि मिशनरियों की उक्त पुस्तक बहुत दिन पहले ही यहाँ आ पहुँची है। उस पुस्तक में एक बात असत्य है। मैंने इस देश में किसी बड़े होटल में कभी भोजन नहीं किया है, साथ ही मैं होटल में रहा भी बहुत ही कम हूँ। चूँकि 'बाल्टिमोर' के छोटे होटलवाले अज्ञ है- नीग्रो समझकर किसी काले आदमी को वे स्थान नहीं देते, इसलिए डॉ० ब्रमन को-जिनका कि मैं अतिथि था-—मुझे वहाँ के एक बड़े होटल में ले जाने को बाध्य होना पड़ा था; क्योंकि इन लोगों को नीग्रो तथा विदेशियों का भेद मालूम है। आलासिंगा, मैं तुमसे यह कहना चाहता हूँ कि तुम लोगों को स्वयं अपनी रक्षा करनी है, दुधमुंहे बच्चों की तरह तुम क्यों आचरण कर रहे हो? यदि कोई तुम्हारे धर्म पर आक्रमण करता है, तुम उससे क्यों नहीं अपने धर्म समर्थन द्वारा बचाव करते ? जहाँ तक मेरा प्रश्न है, तुम्हें डरने की कोई आवश्यकता नहीं है; यहाँ पर शत्रुओं की अपेक्षा मेरे मित्रों की संख्या कहीं अधिक है। यहाँ के निवासियों में ईसाइयों की संख्या एक-तिहाई है और शिक्षित व्यक्तियों में से मात्र थोड़े व्यक्ति मिशनरियों की परवाह करते हैं। दूसरी तरफ़ बात और है कि मिशनरी लोग जिस विषय का विरोध करते हैं, मिशनरियों के विरुद्ध होने की बात से शिक्षित लोग इसे पसंद करते हैं। मिशनरियों का प्रभाव अब यहाँ काफ़ी घट चुका है तथा दिनोंदिन और भी घटता जा रहा है। हिंदू धर्म पर उनके आक्रमण यदि तुम्हें चोट पहुँचाते हैं, तो चिड़चिड़े बच्चों की तरह क्यों तुम मेरे पास अपना रोना रोते हो? क्या तुम उसका जवाब नहीं दे सकते तथा उनके धर्म के दोषों को नहीं दिखला सकते ? कायरता तो कोई धर्म नहीं है ! यहाँ पहले से ही मेरे अनुगामी है। आगामी वर्ष उनका संगठन कार्य-संचालन के आधार पर करूंगा। और मेरे भारत चले जाने पर भी यहाँ मेरे ऐसे अनेक मित्र रहेंगे, जो कि यहाँ पर मेरे सहायक होंगे तथा भारत में भी मेरी सहायता करते रहेंगे; अतः तुम्हारे लिए डरने की कोई बात नहीं है। किंतु जब तक तुम लोग मिशनरियों द्वारा किए गए आक्रमण का कोई प्रतिकार न कर केवल मात्र चिल्लाते तथा कूदते रहोगे, तब तक मैं तुम्हारे कृत्यों को देखकर हँसता रहूँगा। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम लोग तो मानो बच्चों के हाथ के खिलौने हो, हाँ, खिलौने हो। 'स्वामी जी, मिशनरी लोग हमें काट रहे हैं, उफ़, बड़ी जलन है, क्या करना चाहिए।' स्वामी जी, आखिर बूढ़े बच्चों के लिए कर ही क्या सकते हैं ? वत्स, मैं तो यह समझता हूँ कि वहाँ जाकर मुझे तुम लोगों को मनुष्य बनाना होगा। मैं यह जानता हूँ कि भारत में केवल मात्र नपुंसक तथा नारियों का निवास है। इसमें उद्विग्न होने की कोई बात नहीं है। भारत में कार्य करने के लिए मुझे साधन जुटाने की भी व्यवस्था करनी होगी। दुर्बलमस्तिष्क तथा अयोग्य व्यक्तियों के हाथों में मैं नहीं पड़ना चाहता हूँ। तुम लोगों को घबड़ाना नहीं चाहिए, जितना संभव हो, कार्य करते रहो, चाहे वह कितना भी कम क्यों न हो। मुझे अकेला ही आद्योपांत सब कुछ करना है। कलकत्ते के लोग इतने संकुचित्त मनोवृत्ति के हैं ! और तुम मद्रासी लोग इतने डरपोक हो कि कुत्ते की आवाज़ से भी चौंक उठते हो !! 'कायर लोग इस आत्म-तत्व को प्राप्त नहीं कर सकते।' मेरे लिए तुम्हें डरना नहीं चाहिए, प्रभु मेरे साथ हैं। तुम लोग केवल मात्र अपनी ही रक्षा करते रहो और मुझे यह दिखलाओ कि तुम इस कार्य को कर सकते हो, तभी मुझे संतोष होगा। कौन मेरे बारे में क्या कह रहा है, इस विषय को लेकर मुझे तंग न करो। किसी मूर्ख की मेरी समालोचना सुनने के लिए मेरे पास समय नहीं है। तुम बच्चे हो, तुम्हें क्या पता है कि असीम धैर्य, महान साहस तथा कठोर प्रयत्न से ही उत्कृष्ट फल की प्राप्ति हुआ करती है। किडी की अंतरात्मा जिस प्रकार समय समय पर पल्टा खाने में अभ्यस्त है, मुझे शंका है कि उसके फलस्वरूप उसके भावों का भी परिवर्तन हो रहा है। ज़रा बाहर निकलकर वह क़लम क्यों नहीं पकड़ता ? 'स्वामी जी, स्वामी जी, की रट न लगाकर क्या मद्रासी लोग उन दुष्टों के विरुद्ध संग्राम की घोषणा नहीं कर सकते, जिससे कि उन्हें दयाप्रार्थी बनकर 'त्राहि- त्राहि' की आवाज़ लगानी पड़े? तुम्हें डर किस बात का है ? केवल साहसी व्यक्ति ही महान कार्यों को कर सकते हैं—-कायर व्यक्ति नहीं। अविश्वासियो, सदा के लिए यह जान रखना कि प्रभु मेरा हाथ पकड़े हुए है। जब तक मैं पवित्र तथा उसका दास बना रहूँगा, तब तक कोई भी मेरा बाल बाँका न कर सकेगा। तुम लोग जल्दी ही पत्रिका प्रकाशित कर डालो। जैसे भी हो, मैं बहुत शीघ्र ही तुम लोगों को और रुपये भेज रहा हूँ तथा बीच-बीच में भेजता रहूँगा। कार्य करते चलो ! अपनी जाति के लिए कुछ करो—इससे वे लोग तुम्हारी सहायता करेंगे। पहले मिशनरियों के विरुद्ध चाबुक लेकर उनकी ख़बर लो। तब समग्र जाति तुम्हारे साथ होगी। साहसी बनो, साहसी बनो—मनुष्य सिर्फ एक बार ही मरा करता है। मेरे शिष्य कभी भी किसी भी प्रकार से कायर न बनें। सदा प्रीतिबद्ध, विवेकानंद (श्रीमती बेटी स्टारगीज़ को लिखित) द्वारा कुमारी डचर, सहस्रद्वीपोद्यान, जुलाई, १८९५ माँ, मेरा विश्वास है कि आप अब न्यूयार्क पहुँच गयी है और वहाँ अभी बहुत गर्मी नहीं है। यहाँ हमारा कार्य सुचारु रूप से चल रहा है। मेरी लुई कल आ पहुँची है। अब हम लोग सब मिलकर सात हुए। दुनिया भर की नींद मेरे ऊपर सवार हो गयी है। मैं दोपहर में कम से कम दो घंटे और सारी रात लकड़ी के कुंदे की तरह सोता रहता हूँ। मैं समझता हूँ, यह न्यूयार्क की अनिद्रा की प्रतिक्रिया है। थोड़ी-बहुत लिखाई-पढ़ाई करता हूँ और रोज़ सुबह जलपान करने के बाद क्लास लेता हूँ। भोजन एकदम निरामिष-नियम के अनुसार बनता है और मैं खूब उपवास कर रहा हूँ। मैं यहाँ जाने के पहले कई सेर चर्बी घटाने को दृढ़संकल्प हूँ। यह मेंथा-डिस्टों का स्थान है और वे अगस्त में अपनी 'शिविर-गोष्ठी' करेंगे। यह बहुत ही रम्य प्रदेश है, लेकिन मुझे भय है कि मौसम के दौरान यहाँ बहुत भीड़ हो जाएगी। मेरा विश्वास है, कुमारी जो जो का मक्खी-दंश अब ठीक हो गया होगा। माँ कहाँ है ? उन्हें पत्र लिखें, तो दया करके मेरा अभिवादन भी दे दें। पर्सी के आनंदपूर्ण दिनों की याद मुझे सदा आयेगी और श्री लेगेट की उस खातिरदारी के लिए सदा धन्यवाद। मंह उनके साथ यूरोप जा सकता हूँ। उनसे भेंट हो, तो मेरा आंतरिक प्यार और कृतज्ञता दे दें। उन्हीं जैसे सज्जनों के प्यार से यह संसार सदा सुंदर हुआ है। क्या आप अपनी मित्र श्रीमती डोरा (एक लंबा जर्मन नाम) के साथ है ? वे बहुत ही भली और सही अर्थों में महात्मा हैं। कृपया उन्हें मेरा प्यार और अभिवादन दें। मैं फ़िलहाल—निद्रित—अलस और आनंदपूर्ण अवस्था में हूँ और यह बेजा नहीं लगता मुझे। मेरी लुई न्यूयार्क से अपना पालतू कछुआ ले आयी थीं। यहाँ पहुँचने के बाद कच्छप ने अपने को समस्त प्राकृतिक परिवेश में घिरा हुआ पाया। अनवरत हाथ-पाँव मारकर-रेंगता-लुढ़कता मेरी लुई के प्यार और दुलार को बहुत पीछे छोड़कर—-चला गया। पहले तो वे बहुत दुःखित हुईं। किंतु, हम लोगों ने मिलकर मुक्ति का ऐसा ज़ोरदार प्रचार किया कि वे तुरंत सँभल गयीं। भगवान आपका सर्वदा मंगल करे-—यही आपके इस स्नेहाधीन की प्रार्थना है। विवेकानंद पुनश्च—-जो जो ने भोजपत्र की पोथी नहीं भेजी। श्रीमती बुल को मैंने एक प्रति दी थी-बहुत प्रसन्न हुई थीं। भारत से बहुत से सुंदर पत्र आये हैं। वहाँ सब ठीक-ठाक हैं। उस ओर के बच्चों को प्यार—सचमुच के 'वहाँ के भोले-भाले'। (श्री एफ० लगट को लिखित) द्वारा कुमारी डचर, सहस्रद्वीपोद्यान, न्यूयार्क, ७ जुलाई , १८९५ प्रिय मित्र, मुझे प्रतीत होता है कि आप न्यूयार्क का बहुत ही आनंद ले रहे है, अतः पत्र से अपने स्वप्न-भंग के लिए मुझे क्षमा करें। कुमारी मैक्लिऑड और श्रीमती स्टारगीज़ के दो सुंदर पत्र प्राप्त हुए। उन्होंने बाबा भोजपत्र की पुस्तकें भी भेजीं। मैंने उन्हें संस्कृत के मूल तथा अनुवादों से भर दिया है, और वे आज की डाक से जा रही हैं। श्रीमती डोरा 'महात्मीय' दिशा में कुछ चमत्कारिक प्रदर्शन कर रही है, ऐसा मैंने सुना है। पर्सी से प्रस्थान के बाद अप्रत्याशित स्थानों से लंदन जाने के लिए मुझे निमंत्रण मिले हैं और मैं इसके लिए अत्यंत आशान्वित हूँ। मैं लंदन में कार्य करने के इस अवसर को खोना नहीं चाहता और इसलिए मैं जानता हूँ कि भविष्य-कार्य के लिए आपका निमंत्रण लंदन के निमंत्रण के साथ मिलकर एक ईश्वरीय आह्वान हुआ है। मैं पूरे महीने यहीं रहूँगा और केवल अगस्त में कुछ दिनों के लिए शिकागो अवश्य जाऊँगा। पिता लेगेट, आप खीझें नहीं, जब हम निश्चित रूप से मैत्रीपूर्ण हैं, प्रत्याशा के लिए यही उचित्त अवसर है। प्रभु सदा-सर्वदा आपका कल्याण करे, और चूंकि आप इसके योग्य पात्र हैं, इसलिए प्रभु सदैव आपको सुख प्रदान करे। सदा प्रेम और प्रीतिबद्ध, विवेकानंद (कुमारी अल्बर्टा स्टारगीज़ को लिखित) १९ पश्चिम ३८, न्यूयार्क, ८ जुलाई, १८९५ प्रिय अल्बर्टा, अवश्य ही तुम अपने संगीत संबंधी अध्ययन में तल्लीन होगी। आशा है, तुमने सरगम के संबंध में सब कुछ जान लिया है। अब अगली बार मिलने पर मैं तुमसे सप्तकों के संबंध में कुछ सीखूगा। पर्सी में श्री लेंगेट के साथ समय बड़े आनंद में बीता। क्या उन्हें संत न कहें ? मुझे विश्वास है कि होलिस्टर भी जर्मनी का खूब आनंद ले रहा है और आशा है, तुम लोगों में से किसी ने जर्मन शब्दों-विशेषतः sch, tz, tsz से प्रारंभ होनेवाले शब्दों तथा अन्य मधुर शब्दों के उच्चारण से अपनी जीभ छलनी नहीं की होगी। मैंने जहाज़ में लिखा हुआ तुम्हारा पत्र तुम्हारी माता जी को सुना दिया। बहुत संभव है कि मैं आगामी सितंबर में यूरोप जाऊँ। अभी तक मुझे यूरोप जाने का अवसर नहीं मिला। आखिर वह संयुक्त राज्य से बहुत भिन्न न होगा और अब तो मैं इस देश के रहन-सहन और रीति-रिवाज़ में पूर्ण अभ्यस्त हो चुका हूँ। पर्सी में हम लोगों ने नाव खेने का बहुत आनंद उठाया और मैंने नाव खेने की एक-दो बातें सीखीं। कुमारी जो जो को अपनी मधुरता का मूल्य चुकाना पड़ा, क्योंकि मक्खियों और मच्छरों ने उन्हें क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ा। उन्होंने मुझे काफ़ी तरह दी, शायद इसलिए कि वे अति कट्टर सब्बाटेरियन मक्खियाँ थीं और एक गैर-ईसाई को कभी भी स्पर्श नहीं कर सकती थीं। मैं सोचता हूँ कि पर्सी में मैं फिर बहुत गाने लगा और अवश्य ही इसने उन्हें डरा दिया होगा। भोजपत्र के वृक्ष बड़े सुंदर थे। मेरे मन में उनकी छाल से पुस्तकें बनाने का विचार आया, जैसा प्राचीन काल में मेरे देश में रिवाज़ था और तुम्हारी माता जी तथा चाची जी के लिए संस्कृत श्लोकों की रचना की। अल्बर्टा, मुझे विश्वास है कि तुम शीघ्र ही अति महान विदुषी नारी बनोगी। तुम दोनों के लिए प्रेम और आशीर्वाद। तुम्हारा चिर स्नेही, स्वामी विवेकानंद (स्वामी ब्रह्मानंद को लिखित) ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय प्राणाधिक, १८९५ समाचारपत्र आदि अब बहुत कुछ इकट्ठे हो चुके हैं, और भेजने की आवश्यकता नहीं है। अब भारत में ही आंदोलन चलने दो। प्रत्येक दिन सनसनी फैलाना कोई विशेष लाभकारक नहीं है। किंतु यह जो सारे देश में उत्तेजना फैल रही है, इसी के आधार पर तुम लोग चारों ओर फैल जाओ अर्थात् जगह जगह शाखाएँ स्थापित करने का प्रयत्न करो। मौक़ा खाली न जाने पाये। मद्रासियों से मिलकर जगह-जगह समिति आदि की स्थापना करनी होगी। उस पत्रिका के विषय में क्या हुआ, जो मैंने सुना था कि प्रकाशित होने जा रही है। इसको चलाने में तुम लोग क्यों घबड़ा रहे हो ? “आगे बढ़ो। अपनी बहादुरी तो दिखाओ। प्रिय भाई, मुक्ति नहीं मिली, तो न सही, दो-चार बार नरक ही जाना पड़े, तो हानि ही क्या है ? क्या यह बात असत्य है ? मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः। परगुणपरमाणु पर्वतीकृत्य नित्यं निजहदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥ भले ही न हो तुम्हारी मुक्ति। यह कैसी बच्चों की सी बकवास? राम राम ! 'नहीं है', 'नहीं है' कहने से साँप का ज़हर भी उतर जाता है। क्या यह सत्य नहीं है ? 'मैं कुछ नहीं जानता', 'मैं कुछ भी नहीं हूँ'-ये किस प्रकार के वैराग्य और विनय है भाई ? यह तो मिथ्या वैराग्य एवं व्यंग्यपूर्ण विनय है। इस प्रकार के दीन-हीन भावों को दूर करना होगा। यदि मैं नहीं जानता हूँ, तो और कौन जानता है ? यदि तुम नहीं जानते हो, तो अब तक तुमने क्या किया? ये सब नास्तिकों की बात है, अभागे आवारों की विनयशीलता है। हम सब कुछ कर सकते हैं और करेंगे; जिनका सौभाग्य है, वे गर्जना करते हुए हमारे साथ निकल आयेंगे और जो भाग्यहीन हैं, वे बिल्ली की तरह एक कोने में बैठकर म्याऊँ-म्याऊँ करते रहेंगे। एक महापुरुष लिखते हैं कि 'आंदोलन बहुत कुछ हो चुका है, और अधिक की क्या आवश्यकता है, अब घर लौटना चाहिए।' मैं तो उनको मर्द तब जानता, जब मेरे रहने के लिए कोई मठ बनवाकर वे मुझे बुलाते। मेरे दस वर्ष के अनुभव ने मुझे पक्का बना दिया है। केवल मात्र बातों से कुछ होने-जाने का नहीं है। जिसके मन में साहस तथा हृदय में प्यार है, वही मेरा साथी बने—मुझे और किसी की आवश्यकता नहीं है। जगन्माता की कृपा से मैं अकेला ही एक लाख के बराबर हूँ तथा स्वयं ही बीस लाख बन जाऊँगा। अब एक कार्य समाप्त होने से मैं निश्चिंत हो जाता। भाई राखाल, तुम उत्साहपूर्वक उसे कर दो। वह है माता जी के लिए ज़मीन खरीदना। मेरे पास रुपये-पैसे मौजूद है। सिर्फ तुम उद्यम के साथ ज़मीन को देखकर ख़रीद लेना। ज़मीन के लिए ३-४ या ५ हज़ार तक लग जाए, तो कोई हर्ज नहीं है। मेरा भारत लौटना अभी अनिश्चित है। मेरे लिए जैसे वहाँ भ्रमण करना, वैसे यहाँ भी है, भेद केवल मात्र इतना ही है कि यहाँ पर पंडितों का संग है, वहाँ मूर्खों का-—यही स्वर्ग-नरक का भेद है। यहाँ के लोग मिल-जुलकर कार्य करते हैं और हम लोगों के तमाम कार्यों में तथाकथित वैराग्य यानी आलस्य है, ईर्ष्या आदि के कारण सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। हरमोहन बीच-बीच में बहुत ही लंबा-चौड़ा पत्र लिखते हैं, उसका आधा भी मैं नहीं समझ पाता, हालाँकि यह मेरे लिए परम लाभजनक ही है। क्योंकि उसमें अधिकांश समाचार इस प्रकार के होते हैं कि अमुक व्यक्ति अमुक की दुकान पर बैठकर मेरे विरुद्ध इस प्रकार की बातें बना रहा था, जो उनके लिए असहनीय हो गया एवं इस बात पर उससे उनका झगड़ा हो गया आदि। मेरे पक्ष के समर्थन के लिए उनको अनेक धन्यवाद। किंतु मुझे कौन क्या कह रहा है, उसे ध्यानपूर्वक सुनने में मुख्य बाधा यही है कि स्वल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः।—समय अत्यंत कम है और विघ्न अनेक है।'— एक organised society (संगठित समिति) की आवश्यकता है। शशि घरेलू कार्यों की व्यवस्था करे, रुपया-पैसा तथा बाज़ार आदि का भार सान्याल सम्हाले तथा शरत् secretary (मंत्री) बने, अर्थात् पत्र-व्यवहार आदि कार्य वह करता रहे। एक स्थायी केंद्र स्थापित करो, क्यों व्यर्थ के झगड़े में पड़े हुए हो, समझे न ? अख़बारी प्रकाशन बहुत कुछ हो चुका है, अब तो कुछ करके दिखलाओ। यदि कोई मठ बना सको, तब मैं समझूँगा कि तुम बहादुर हो, नहीं तो कुछ नहीं। मद्रासियों से परामर्श कर कार्य करना, उनमें कार्य करने की बड़ी भारी शक्ति है। इस वर्ष श्री रामकृष्णोत्सव को इस शान के साथ संपन्न करो कि एक उदाहरण प्रस्तुत हो सके। भोजनादि का प्रचार जितना ही कम हो सके, उतना ही अच्छा। हाथोंहाथ प्रसाद का वितरण भी हो जाए, तो अच्छा ही है। श्री रामकृष्ण देव की एक अत्यंत संक्षिप्त जीवनी अंग्रेज़ी में लिखकर मैं भेज रहा हूँ। उसके बंगानुवाद के साथ उसे छपवाकर महोत्सव में बेचना; मुफ्त वितरण की हुई पुस्तकों को लोग प्रायः नहीं पढ़ते हैं, इसलिए कुछ मूल्य अवश्य रखना चाहिए। खूब धूम-धाम के साथ महोत्सव करना।— बुद्धि प्रशस्त होनी चाहिए, तब कहीं कार्य होता है। गाँव अथवा शहर में जहाँ कहीं भी जाओ, श्री परमहंस देव के प्रति श्रद्धासंपन्न दस व्यक्ति भी जहाँ मिले, वहीं एक सभा स्थापित करो। गाँवों में जाकर अब तक तुमने क्या किया? हरि-सभा इत्यादि को धीरे-धीरे स्वाहा करना होगा। क्या कहूँ, यदि मुझ जैसा एक भूत और मुझे मिलता ! समय आने पर प्रभु सब कुछ जुटा देंगे।— यदि शक्ति विद्यमान है, तो उसका विकास' अवश्य दिखाना होगा।— मुक्ति-भक्ति की भावना को दूर कर दो। परोपकाराय हि सतां जीवितं, परार्थं प्राज्ञ उत्सजेत— 'साधुओं का जीवन परोपकार के लिए ही है, प्राज्ञ व्यक्तियों को दूसरों के लिए सब कुछ त्याग देना चाहिए।' संसार में यही एकमात्र रास्ता है। तुम्हारी भलाई करने से मेरी भी भलाई है, दूसरा कोई उपाय नहीं है, बिल्कुल नहीं है। . . तुम भगवान हो, मैं भगवान हूँ और मनुष्य भगवान है। यह वही भगवान है, जो मानवता के रूप में अभिव्यक्त होकर दुनिया में सब कुछ कर रहा है, फिर क्या भगवान कहीं अन्यत्र बैठा हुआ है ? अतः कार्य में संलग्न हो जाओ। शशि (सान्याल) द्वारा लिखित एक पुस्तक विमला ने मुझे भेजी है। उस ग्रंथका अध्ययन कर विमला को यह ज्ञान प्राप्त हुआ है कि इस दुनिया में जितने भी लोग हैं, सभी अपवित्र है तथा उन लोगों के संस्कार ही इस प्रकार के हैं कि उनसे धर्म का अनुष्ठान हो ही नहीं सकता, केवल मात्र कुछ भारतीय ब्राह्मण लोग ही धर्मानुष्ठान कर सकते हैं। उनमें भी शशि (सान्याल) और विमला चंद्र -सूर्य स्वरूप है। शाबाश, कितना शक्तिशाली धर्म है ! ख़ासकर बंगाल में इस प्रकार का धर्मानुष्ठान अत्यंत ही सहज है। ऐसा कोई दूसरा सहज मार्ग ही नहीं है। यही तो तप-जप आदि का सार सिद्धांत है कि मैं पवित्र हूँ और बाक़ी सब लोग अपवित्र। यह कितना पैशाचिक, राक्षसी तथा नारकीय धर्म है। यदि अमेरिका के लोग धर्मानुष्ठान नहीं कर सकते, यदि इस देश में धर्म का प्रचार उचित्त नहीं है, तो फिर इन लोगों से सहायता माँगने की क्या आवश्यकता है ? एक ओर अयाचित्तवृत्ति का गुणगान और दूसरी ओर पोथी में ऐसे आक्षेपों की भरमार कि मुझे कोई भी कुछ नहीं देता है। विमला तो इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि यदि भारत के लोग शशि (सान्याल) तथा विमला के चरणों पर धनराशि अर्पित नहीं करते, तो इसका अर्थ यह है कि भारत का सर्वनाश होने में विलंब नहीं है क्योंकि शशि बाबू को सूक्ष्म व्याख्या मालूम है और उसे पढ़कर विमला को यह निश्चित रूप से विदित हो चुका है कि उनके सिवाय इस दुनिया में और कोई भी पवित्र नहीं है। इस रोग की दवा क्या है ? शशि बाबू से कहना कि वे मलाबार चले जायँ। वहाँ के राजा ने प्रजा से ज़मीन छीनकर ब्राह्मणों के चरणों में अर्पित की है, गाँव-गाँव में बड़े बड़े मठ हैं, उत्तम भोजन की व्यवस्था है, साथ में दक्षिणा भी।—भोग करते समय ब्राह्मणेतर जाति के स्पर्श से कोई दोष नहीं होता—भोग समाप्त होते ही स्नान आवश्यक है, क्योंकि ब्राह्मणेतर जाति तो अपवित्र है, अन्य समय में उसे स्पर्श करने की आवश्यकता भी नहीं है। साधु-संन्यासी तथा ब्राह्मण दुष्टों ने देश को रसातल पहुँचाया है। 'देहि, देहि' की रट लगाना तथा चोरी-बदमाशी करना—किंतु है धर्म के प्रचारक। धन कमायेंगे, सर्वनाश करेंगे, साथ ही यह भी कहेंगे कि हमें न छुना। कितने महान कार्यों को वे लोग संपन्न करते रहे हैं !— यदि आलू से बैंगन का स्पर्श हो जाए, तो कितने समय के अंदर यह ब्रह्मांड रसातल को पहुँच जाएगा ? चौदह बार हाथ मिट्टी न करने से पूर्वजों के चौदह पुश्त नरकगामी होते हैं अथवा चौबीस, इन उलझनपूर्ण प्रश्नों की मीमांसा में ये लोग आज दो हज़ार वर्षों से लगे हुए हैं, जबकि दूसरी ओर one fourth of the people are starving (जनता का एक-चौथाई भाग भूखा मर रहा है)। आठ वर्ष की कन्या के साथ तीस वर्ष के पुरुष का विवाह करके कन्या के पिता-माताओं के आनंद की सीमा नहीं रहती !— फिर इस काम में बाधा पहुँचने से वे कहते हैं कि हमारा धर्म ही चला जाएगा ! आठ वर्ष की लड़की के गर्भाधान की जो लोग वैज्ञानिक व्याख्या करते हैं, उनका धर्म कहाँ का धर्म है ? बहुत से लोग इस प्रथा के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराते हैं। वास्तव में क्या, मुसलमान इसके लिए दोषी हैं ? संपूर्ण गृह्यसूत्रों को तो एक बार पढ़कर देखो, हस्तात् योनिं न गृहति दशा जब तक है, तभी तक कन्या मानी जाती है, इसके पहले ही उसका विवाह कर देना चाहिए। तमाम गृह्यसूत्रों का यही आदेश है। वैदिक अश्वमेंध यज्ञानुष्ठान की ओर ध्यान दो—तदनंतरं महिषीं अश्वसन्निधौ पातयेत्—आदि वाक्य देखने को मिलेंगे। होता, ब्रह्मा, उद्गाता इत्यादि नशे में चूर होकर कितना घृणित आचरण करते थे। अच्छा हुआ कि जानकी के वन-गमन के बाद राम ने अकेले ही अश्वमेध यज्ञ किया, इससे चित्त को बड़ी शांति मिली। समस्त ब्राह्मण ग्रंथों में इनका उल्लेख विद्यमान है तथा सभी टीकाकारों ने माना है, फिर कैसे अस्वीकार किया जा सकता है। तात्पर्य यह है कि प्राचीन काल में बहुत सी चीज़ें अच्छी भी थीं और बुरी भी। उत्तम वस्तुओं की रक्षा करनी होगी, किंतु Ancient India (प्राचीन भारत) से Future India (भावी भारत) अधिक महत्वपूर्ण होगा। जिस दिन श्री रामकृष्ण देव ने जन्म लिया है, उसी दिन से Modern India (वर्तमान भारत) तथा सत्ययुग का आविर्भाव हुआ है। तुम लोग सत्ययुग का उद्घाटन करो और इसी विश्वास को लेकर कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण हो। एक ओर तो तुम श्री रामकृष्ण देव को अवतार कहते हो और उसके साथ ही साथ अपने को अज्ञ भी बतलाते हो, यही कारण है मैं कि बिना किसी संकोच के तुम लोगों को liar (झूठा) कहता हूँ। यदि श्री रामकृष्ण देव सत्य है, तो तुम भी सत्य हो। किंतु तुमको यह प्रमाणित कर दिखाना होगा।— तुम्हारे अंदर महाशक्ति विद्यमान है, नास्तिकों में कुछ भी नहीं है। आस्तिक लोग वीर होते हैं। जो महाशक्ति उनमें विद्यमान है, उसका विकास अवश्य होगा और उससे जगत् परिप्लावित हो जाएगा। 'ग़रीबों का उपकार करना ही दया है'; 'मनुष्य भगवान है, नारायण है'; 'आत्मा में स्त्री-पुरुष-नपुंसक तथा ब्राह्मण, क्षत्रियादि भेद नहीं हैं'; 'ब्रह्मादिस्तम्बपर्यंत सब कुछ नारायण है।' कीट स्वल्प अभिव्यक्त (less manifested) तथा ब्रह्मा अधिक अभिव्यक्त (more manifested) है। 'धीरे-धीरे ब्रह्माभाव की अभिव्यक्ति के लिए जिन कार्यों से जीव को सहायता मिलती है, वे ही अच्छे हैं और जिनके द्वारा उसमें बाधा पहुँचती है, वे बरे हैं।' 'अपने में ब्रह्माभाव को अभिव्यक्त करने का यही एकमात्र उपाय है कि इस विषय में दूसरों की सहायता करना।' 'यदि स्वभाव में समता न भी हो, तो भी सबको समान सुविधा मिलनी चाहिए। फिर भी यदि किसी को अधिक तथा किसी को कम सुविधा देनी हो, तो बलवान की अपेक्षा दुर्बल को अधिक सुविधा प्रदान करनी आवश्यक है।' अर्थात् चांडाल के लिए शिक्षा की जितनी आवश्यकता है, उतनी ब्राह्मण के लिए नहीं। यदि किसी ब्राह्मण के पुत्र के लिए एक शिक्षक आवश्यक हो, तो चांडाल के लड़के के लिए दस शिक्षक चाहिए। कारण यह है कि जिस की बुद्धि की स्वाभाविक प्रखरता प्रकृति के द्वारा नहीं हुई है, उसके लिए अधिक सहायता करनी होगी। चिकने-चुपड़े पर तेल लगाना पागलों का काम है। The poor, the downtrodden, the ignorant, let these be your God. 'दरिद्र, पददलित तथा अज्ञ तुम्हारे ईश्वर बनें।' तुम्हारे सामने एक भयानक दलदल है—-उससे सावधान रहना; सब कोई उस दलदल में फंसकर ख़त्म हो जाते हैं। वर्तमान हिंदुओं का धर्म न तो वेद में है और न पुराण में, न भक्ति में है और न मुक्ति में-धर्म तो भात की हाँड़ी में समा चुका है—यही वह दलदल है। वर्तमान हिंदू धर्म न तो विचार-प्रधान ही है और न ज्ञान-प्रधान, 'मुझे न छूना, मुझे न छुना', इस प्रकार की अस्पृश्यता ही उसका एकमात्र अवलंब है, बस इतना ही। इस घोर वामाचाररूप अस्पृश्यता में फंसकर तुम अपने प्राणों से हाथ न धो लेना। आत्मवत् सर्वभूतेषु, क्या यह वाक्य केवल मात्र पोथी में निबद्ध रहने के लिए है ? जो लोग गरीबों को रोटी का एक टुकड़ा नहीं दे सकते, वे फिर मुक्ति क्या दे सकते हैं ? दूसरों के श्वासप्रश्वासों से जो अपवित्र बन जाते हैं, वे फिर दूसरों को क्या पवित्र बना सकते हैं ? अस्पृश्यता is a form of mental disease. (एक प्रकार की मानसिक व्याधि है); उससे सावधान रहना। 'सब प्रकार का विस्तार ही जीवन है और सब प्रकार की संकीर्णता मृत्यु है। जहाँ प्रेम है, वहीं विस्तार है और जहाँ स्वार्थ है, वहीं संकोच। अतः प्रेम ही जीवन का एकमात्र विधान है। जो प्रेम करता है, वही जीवित है; जो स्वार्थी है, वह मृतक है। अतः प्रेम प्रेम के निमित्त, क्योंकि यह जीवन का वैसा ही एकमात्र विधान है, जैसा जीने के लिए श्वास लेना। निष्काम प्रेम, निष्काम कर्म इत्यादि का यही रहस्य है।' ...यदि हो सके, तो शशि (सान्याल) की कुछ भलाई का प्रयत्न करना। वह अत्यंत उदार तथा निष्ठावान है, किंतु उसका हृदय संकीर्ण है। दूसरों के दुःख में दुःखी होना सबके लिए संभव नहीं है। हे प्रभो, सब अवतारों में श्री चैतन्य महाप्रभु श्रेष्ठ हैं, किंतु उनमें प्रेम की तुलना में ज्ञान का अभाव था, श्री रामकृष्णावतार में ज्ञान, भक्ति तथा प्रेम-तीनों ही विद्यमान हैं। उनमें अनंत ज्ञान, अनंत प्रेम, अनंत कर्म तथा प्राणियों के लिए अनंत दया है। अभी तक तुम्हें इसका अनुभव नहीं हुआ है। श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित—-'इनके बारे में सुनकर भी कोई कोई इनको जान नहीं पाते हैं।' 'युग-युगांत से समग्र हिंदू जाति के लिए जो चिंतन का विषय रहा, उन्होंने अपने एक ही जीवन में उसकी उपलब्धि की। उनका जीवन सब जातियों के शास्त्रों का सजीव भाष्यस्वरूप है। लोगों को धीरे-धीरे इसका पता लगेगा। मेरी तो यही पुरानी वाणी है—Struggle, struggle up to light ! Onward ! (अपनी पूरी शक्ति के साथ ज्योति की ओर अग्रसर हो।) इति। दास, नरेन्द्र (स्वामी अखण्डानंद को लिखित) द्वारा ई० टी० स्टर्डी, हाई व्यू, कैवरशम, रीडिंग, इंग्लैंड, १८९५ स्नेहास्पद, तुम्हारे पत्र से सविशेष समाचार ज्ञात हुए। तुम्हारा संकल्प अत्यंत सुंदर है, किंतु तुम लोगों में organisation (संगठन)